जवानी की दहलीज compleet

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Re: जवानी की दहलीज

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मैं अब उसके लिंग को गन्दा नहीं कह सकती थी। वैसे भी वह धुला हुआ और गीला था। उसका सुपारा वापस अपने घूँघट में चला गया था। लिंग सिकुड़ कर छोटा और झुर्रीदार हो गया था... एक भोले अनाथ बच्चे की तरह जिसे प्यार-दुलार की ज़रूरत थी। उसमें वह शरारत और अभिमान नज़र नहीं था जो कुछ ही देर पहले वह मुझे दर्शा चुका था। लग ही नहीं रहा था यह वही मूसल है जो मेरी कोमल ओखली पर इतने सख्त प्रहार कर रहा था। उसका अबल रूप देखकर मुझे उसपर प्यार और तरस दोनों आने लगे और मैंने उसे अपने हाथों में ले लिया। कितना लचीला और मुलायम लग रहा था।

मैंने पहली बार किसी मर्द के लिंग को हाथ में लिया था... इसके पहले तो सिर्फ गुंटू की लुल्ली को नहलाते वक्त देखा और छुआ था। उस एक इंच की मूंगफली और इस केले में बड़ा फर्क था। यह मुरझाया हुआ मद्रासी केला जोश में आने के बाद पूरा भूसावली केला बन जाता था। उसे हाथ में लेकर मुझे अच्छा लग रहा था... एक ऐसी खुशी मिल रही थी जो कि चोरी-छुपे गलत काम करने पर मिलती है। मैं उसको अपने हाथों में पकड़ी हुई थी... समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ।

भोंपू ने मेरी ठोड़ी पकड़ कर ऊंची की और मेरी आँखों में आँखें डाल कर उसे मुँह में लेने का संकेत दिया। मैंने सिर हिला कर आपत्ति जताई तो उसने मिन्नत करने की मुद्रा बनाई। मुझे अपनी योनि पर उसके होंठ और जीभ का स्मरण हुआ तो लगा उसे भी ऐसे आनंद का हक़ है। मैंने उसे पलक मूँद कर स्वीकृति प्रदान की और कुछ अविश्वास के साथ अपने मुँह को उसके लिंग के पास ले गई। अभी भी मेरा मन उसको मुँह में लेने के लिए राज़ी नहीं हो रहा था। मैं सिर्फ उसको खुश करने के लिए और मेरी योनि चाटने के एवज़ में कर रही थी। मेरी अंतरात्मा अभी भी विरोध कर रही थी। मुझे डर था उसका सुसू मेरे मुँह में निकल जायेगा... छी !

भोंपू ने अपनी कमर आगे करते हुए मुझे जल्दी करने के लिए उकसाया... वह बेचैन हो रहा था। मैंने जी कड़ा करके अपने होंट उसके लिंग के मुँह पर रख ही दिये... मुझे जिस दुर्गन्ध की अपेक्षा थी वह नहीं मिली... मैंने होठों से उसके सिरे को पकड़ लिया और ऊपर नज़रें करके भोंपू की ओर देखा मानो पूछ रही थी- 'ठीक है?'

भोंपू ने सिर हिला कर सराहना की और फिर अपनी ऊँगली के सिरे को मुँह में डाल कर उसे चूसने और उस पर जीभ फिराने का नमूना दिया। मैंने उसकी देखा-देखी उसके लिंग के सिरे पर अपनी जीभ फिराई और उसकी तरफ देख कर मानो पूछा 'ऐसे?'

उसने खुशी का इज़हार किया और फिर अपनी उंगली को अपने मुँह के अंदर-बाहर करके मुझे अगला पाठ पढ़ाया। मैं एक अच्छी शिष्या की तरह उसकी सीख पर अमल कर रही थी। मैंने उसके लिंग को अपने होटों के अंदर-बाहर करना शुरू किया। मेरा मुँह सूखा था और मेरी जीभ उसके लिंग को नहीं छू रही थी... सिर्फ मेरे गोल होंट उसके लिंग की बाहरी सतह पर चल रहे थे।

उसने कहा 'एक मिनट' और वह गया और अपनी पेंट की जेब से एक शीशी ले कर आया। उसने मुझे दिखाकर शहद की नई शीशी को खोला और उंगली से शहद अपने लिंग पर लगा दिया। फिर मेरी तरफ देखते हुए अपनी शहद से सनी उंगली को मुँह में लेकर चाव से चूसने लगा।

मैंने उसके शहद लगे लिंग को पकड़ना चाहा तो उसने मुझे हाथ लगाने से मना किया और इशारा करके सिर्फ मुँह इस्तेमाल करने को कहा। उसने अपने दोनों हाथ अपनी पीठ के पीछे कर लिए और मुझे भी वैसे ही करने को कहा।

मैंने अपने हाथ पीछे कर लिए और अपनी जीभ निकाल कर उसके लिंग को मुँह में लेने की कोशिश करने लगी। उसका मुरझाया लिंग लटका हुआ था और शहद के कारण उसके टट्टों से चिपक गया था। सिर्फ मुँह और जीभ के सहारे उसके लचीले और चिपके हुए पप्पू को अपने मुँह में लेना मेरे लिए आसान नहीं था। मुझे लिंग और टट्टों के बीच अपनी जीभ ले जाकर उसे वहाँ से छुड़ाना था और फिर मुँह में लेना था। लिंग को टट्टों से छुड़ाना तो मुश्किल नहीं था पर उसको जैसे ही मुँह में लेने के लिए मैं अपना मुँह खोलती वह छूट कर फिर चिपक जाता। मेरी कोशिशें एक खेल बन गया था जिसमें भोंपू को बहुत मज़ा आ रहा था।

पर हर असफलता से मेरा निश्चय और दृढ़ होता जा रहा था... मैं हर हालत में सफल होना चाहती थी। अचानक मुझे सूझा कि मेरी असफलता का कारण लिंग का लचीलापन है... अगर वह कड़क होता तो अपने आप टट्टों से अलग हो जाता और मुँह में लेना आसान हो जाता।

इस सोच को प्रमाणित करने के लिए मैंने लिंग को उत्तेजित करने का मंसूबा बनाया... और अपनी जीभ फैलाकर उसको नीचे से ऊपर चाटने लगी। मैं अपने आप को आगे खिसका कर उसकी टांगों के बीच में ले आई जिससे मेरा सिर उसके लिंग के बिल्कुल नीचे आ गया... अब मैंने मुँह ऊपर करके, जैसे बछड़ा दूध पीता है, उसके लिंग और टट्टों को नीचे से दुहना शुरू किया।

भोंपू को इसका कोई पूर्वानुमान नहीं था... उसको मेरी यह कोशिश उत्तेजित कर गई... उसने मेरे सिर के बालों में हाथ फिरा कर मुझे सराहा। मेरे निरंतर प्रयास ने असर दिखाया और उसके लटके लिंग में जान आने लगी... उसकी सिकुड़न कम होने लगी और झुर्रियाँ गायब होने लगीं... वह थोड़ा सा मांसल हो गया।

जैसे ही वह टट्टों से जुदा हुआ मैंने घप से अपना मुँह ऊपर करके उसे अंदर ले लिया। वह अभी भी छोटा ही था सो पूरा मेरे मुँह में आ गया... मैंने लिंग की जड़ पर होट लपेटते हुए अपने आप को उसकी टांगों से बाहर सरकाया और उसकी तरफ देखने लगी... मेरी आँखों से "देखा... मैं जीत गई" फूट रहा था। उसने मेरा लोहा मानते हुए नीचे झुक कर मेरे माथे को चूमना चाहा पर उसके झुकने से उसका लिंग मेरे मुँह से निकल गया। उसने झट से मेरे सिर पर एक पप्पी की और फिर से सीधा खड़ा हो गया। मैंने भी जल्दी से उसके लिंग को पूरा मुँह में ले लिया। शहद से मेरे मुँह में पानी आना शुरू हो गया था और मैं स्वाद के साथ उसको चूसने लगी।

भोंपू ने मेरी तरफ देखते हुए अपनी जीभ को अपने मुँह के अंदर गालों पर घुमाया। वह मुझे लिंग पर अपनी जीभ चलाने के लिए कह रहा था। मैंने उसके लिंग पर मुँह के अंदर ही अंदर जीभ चलाना शुरू किया। मुझे उसका लिंग मुँह में अच्छा लगने लगा था... लिंग के प्रति मेरी घिन गायब हो गई थी... कोई गंध या गंदगी नहीं लग रही थी... बल्कि मुँह में उसका मुलायम और चिकना स्पर्श मुझे भला लग रहा था। मैं मज़े ले लेकर लिंग पर जीभ फिराने और उसे चूसने लगी...

मैंने महसूस किया उसका लिंग करवट ले रहा है... वह बड़ा होने लगा था... धीरे धीरे उसकी जड़ पर से मेरे होंट सरकने लगे और वह मुँह से बाहर निकलने लगा। कुछ देर में वह आधे से ज़्यादा मेरे मुँह से बाहर आ गया... पर जितना हिस्सा अंदर था उससे ही मेरा मुँह पूरा भरा हुआ था।

अब मैंने पाया कि उसका सुपारा मेरे मुँह की ऊपरी छत पर लगने लगा था। लिंग लंड बन चुका था और वह तन्ना रहा था... स्वाभिमान से उसका सिर उठ खड़ा हुआ था। मुझे अपने आप को घुटनों पर थोड़ा ऊपर करना पड़ा जिससे लिंग को ठीक से मुँह में रख सकूँ। उधर भोंपू ने भी अपनी टांगें थोड़ी मोड़ कर नीची कर लीं।

शहद कब का खत्म हो गया था। भोंपू और शहद लगाने के लिए शीशी खोलने लगा तो मैंने उसे इशारा करके मना किया। अब मुझे शहद की ज़रूरत नहीं थी... उसका लंड ही काफ़ी अच्छा लग रहा था हालांकि उसमें कोई स्वाद नहीं था। भोंपू को मज़ा आने लगा था... उसने धीरे धीरे अपनी कमर आगे-पीछे हिलानी शुरू कर दी। मैं उसके लंड को पूरा मुँह में नहीं ले पा रही थी पर वह शायद उसे पूरा अंदर करना चाहता था... सो वह रह रह कर उसे अंदर धकेलने लगा था। उसका आधा लंड ही मेरे हलक को छूने लगा था... पूरा अंदर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

एक बार फिर भोंपू ने मुझे कुछ सिखाना चाहा। उसने अपनी फैली जीभ को पूरा बाहर निकालने का नमूना दिखाया और फिर जीभ को नीचे दबाते हुए मुँह में अपनी बीच की उंगली को पूरा अंदर डाल दिया। मैंने उसका अनुसरण करते हुए पहले लंड को बाहर निकाला फिर अपनी जीभ फैलाकर पूरी बाहर निकाली... भोंपू ने मेरी मदद करते हुए मेरे सिर को पीछे की तरफ मोड़ा और लंड से मेरी जीभ नीचे दबाते हुए लंड को अंदर डालने लगा।

पहले के मुकाबले लंड ज़्यादा अंदर चला गया पर मेरा दम घुट रहा था... जैसे ही भोंपू ने लंड थोड़ा और अंदर डालने की कोशिश की मुझे ज़ोर की उबकाई आई और मैंने लंड बाहर उगल दिया। मेरी आँखों में आँसू आ गए थे और थोड़ी घबराहट सी लग रही थी। भोंपू ने मेरे सिर पर सांत्वना का हाथ फेरा और थोड़ा सुस्ताने के लिए कहा।

मैं बैठ गई ... भोंपू अपने लंड को कायम रखने के लिए उस पर अपना हाथ चला रहा था और उसकी उँगलियाँ मेरे कन्धों, बालों और गर्दन पर प्यार से चल रहीं थीं।

हमारे मुँह की गहराई लगभग तीन से चार इंच की होती है... उसके बाद खाने की नली होती है जो कि करीब 90 डिग्री के कोण पर होती है। खाने की नली काफी लंबी होती है। मतलब, 5-6 इंच का कड़क लंड अगर पूरा मुँह में डालना हो तो उसको मुँह के आगे हलक से पार कराना होगा और लंड का सुपारा खाने की नली में उतारना होगा। भोंपू को शायद यह बात पता थी।

kramashah.....................

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Re: जवानी की दहलीज

Post by 007 »

जवानी की दहलीज-9

थोड़ा आराम करने के बाद भोंपू ने अपने सूखे हुए लंड पर शहद लगा लिया और मुझे लंड के ठीक नीचे घुटनों पर बिठा दिया... फिर मेरा सिर पूरा पीछे मोड़ कर मुँह पूरा खोलने का कहा जिससे मेरा खुला मुँह और उसके अंदर की खाने की नली कुछ हद तक एक सीध में हो गई। फिर जीभ पूरी बाहर निकालने का इशारा किया। अब उसने ऊपर से लंड मेरे मुँह में डाला और जितना आसानी से अंदर जा सका वहाँ पर रोक दिया। शहद के कारण मेरे मुँह में पानी आ गया जिससे लंड की चिकनाहट और रपटन बढ़ गई।

भोंपू ने इसका फ़ायदा उठाते हुए मेरी गर्दन को और पीछे मोड़ा, अपने एक हाथ से लंड का रुख नीचे की तरफ सीधा किया और ऊपर से नीचे की तरफ लंड से दबाव बनाने लगा। मेरी गर्दन की इस दशा से मुझे कुछ तकलीफ़ तो हो रही थी पर इससे मेरे मुँह और खाना खाने वाली नाली एक सीध में हो गई जिससे लंड को अंदर जाने के लिए और जगह मिल गई।

भोंपू ने धीरे धीरे लंड को नीचे की दिशा में मेरे गले में उतारना शुरू किया। लंड जब मेरे हलक से लगा तो मुझे यकायक उबकाई आई जो घृणा की नहीं एक मार्मिक अंग की सहज प्रतिक्रिया थी। भोंपू ने अपने आप को वहीं रोक लिया और मेरे चेहरे पर हाथ फेरते हुए उस क्षण को गुजरने दिया।

मैंने भी अपने आप को संभाला और भोंपू का सहयोग करने का निश्चय किया। मेरे हलक में थूक इकठ्ठा हो गया था जो कि मैंने निगल लिया और एक-दो लंबी सांसें लेने के बाद तैयार हो गई। भोंपू ने मुझे अपनी जीभ और बाहर खींचने का इशारा किया और एक बार फिर लंड को नीचे दबाने लगा। मुझे लंड के अंदर सरकने का आभास हो रहा था और मुझे लगा उसका सुपारा मेरी खाने के नली को खोलता हुआ अंदर जा रहा था...

भोंपू को बहुत खुशी हो रही थी और वह और भी उत्तेजित हो रहा था। मुझे लंड के और पनपने का अहसास होने लगा। भोंपू लगातार नीचे की ओर दबाव बनाये हुए थे... मेरा दम घुटने सा लगा था और मेरी आँखों से आंसू बह निकले थे... ये रोने या दर्द के आंसू नहीं बल्कि संघर्ष के आंसू थे। आखिर हमारी मेहनत साकार हुई और लंड की जड़ मेरे होटों से मिल गई...

भोंपू अति उत्तेजित अवस्था में था और शायद वह इसी मौके का इंतज़ार कर रहा था।जैसे ही उसके मूसल की मूठ मेरे होटों तक पहुंची उसका बाँध टूट गया और लंड मेरे हलक की गहराई में अपना फव्वारा छोड़ने लगा। उसका शरीर हडकंप कर रहा था पर उसने मेरे सिर को दोनों हाथों से पकड कर अपने से जुदा नहीं होने दिया। वह काफ़ी देर तक लावे की पिचकारी मेरे कंठ में छोड़ता रहा। मुझे उसके मर्दाने दूध का स्वाद या अहसास बिल्कुल नहीं हुआ ... उसने मेरे मुँह में तो अपना रस उड़ेला ही नहीं था... उसने तो मेरे कंठ से होली खेली थी। अपनी बन्दूक पूरी खाली करके उसने अपना हथियार मेरे कंठ से धीरे धीरे बाहर निकाला... इतनी से देर में ही उसका लंड अपनी कड़कता खो चुका था और हारे हुए योद्धा की मानिंद अपना सिर झुकाए मेरे मुँह से बाहर आया।

उसके बाहर आते ही मेरी गर्दन, मुँह और कंठ को आराम मिला। मैंने अपनी गर्दन पूरी तरह घुमा कर मुआयना किया... सब ठीक था... और फिर भोंपू की तरफ उसकी शाबाशी की अपेक्षा में देखने लगी। उसकी आँखों में कृतज्ञता के बड़े बड़े आंसू थे... वह खुशी से छलकती आँखों से मेरा धन्यवाद कर रहा था।

"तुमने तो कमाल कर दिया !" बड़ी देर बाद उसने कुछ कहा था। इस पूरी प्रक्रिया में मेरे कुछ कहने का तो सवाल ही नहीं उठता था... मेरा मुँह तो भरा हुआ था... पर उसने भी इस दौरान सिर्फ मूक-भाषा का ही प्रयोग किया था। मुझे अपनी इस सफलता पर गर्व था और उसकी तारीफ ने इसकी पुष्टि कर दी।

मुझे भोंपू के मुरझाये और तन्नाये... दोनों दशा के लंड अच्छे लगने लगे थे। मुरझाये पर दुलार आता था और तन्नाये से तन-मन में हूक सी उठती थी। मुरझाये लिंग में जान डालने का मज़ा आता था तो तन्नाये लंड की जान निकालने का मौक़ा मिलता था। मुझे उसके मर्दाने दूध का स्वाद भी अच्छा लगने लगा था।

भोंपू ने मुझसे एक ग्लास पानी लाने को कहा और उसने अपने पर्स से एक गोली निकालकर खा ली।

"तुम बीमार हो?" मैंने पूछा।

"नहीं तो... क्यों?"

"तुमने अभी गोली ली ना?"

"अरे... ये गोली बीमारी के लिए नहीं है... ताक़त के लिए है।"

"ताक़त के लिए? मतलब?" मैंने सवाल किया।

"तू नहीं समझेगी... अरे मर्द को ताक़त की ज़रूरत होती है।"

"किस लिए?" मैंने नादानी से पूछा। मुझे उसका मतलब वाकई समझ में नहीं आया था।

"अरे भोली ! तुमने देखा ना... मेरा पप्पू पानी छोड़कर कैसे मुरझा जाता है..."

"हाँ देखा है... तो?"

"अब इस लल्लू से थोड़े ही कुछ कर सकता हूँ..."

"अच्छा... अब मैं समझी... तो भोंपू जी अपने लल्लू को कड़क करने की दवा ले रहे थे।"

"बस थोड़ी देर में देखना... मैं तुम्हारी क्या हालत करता हूँ..." उसने आँख मिचकाते हुए मेरा अंदेशा दूर किया।

"बाप रे... क्या करने वाले हो?" मेरे मन में आशा और आशंका दोनों एक साथ उजागर हुईं।

"कुछ ऐसा करूँगा जिससे हम दोनों को मज़ा भी आये और मुझे आखिरी मौके पर बाहर ना निकालना पड़े..."

"तो क्यों निकालते हो?" मैं जानना चाहती थी वह अपना रस बाहर क्यों छोड़ता था... मेरे पेट पर।

"तू तो निरी पगली है... सच में तेरा नाम भोली ठीक ही रखा है..."

"मतलब?"

"मतलब यह... कि अगर मैं अपना पानी तेरे अंदर छोड़ दूँगा तो तू पेट से हो सकती है... तुझे बच्चा हो सकता है !" उसने समझाते हुए कहा।

"सच? पर तुमने तो दो बार अंदर छोड़ा है?" मैंने डरते हुए कहा।

"कहाँ छोड़ा? हर बार बाहर निकाल लेता हूँ... सारा मज़ा खराब हो जाता है !"

"क्यों? कल मुँह में छोड़ा था... और अभी भी तो छोड़ा था... भूल गए?" मैंने उस पर लांछन लगाते हुए कहा।

"ओफ्फोह... मुन्नी में पानी छोड़ने से बच्चा हो सकता है... मुंह में या और कहीं छोड़ने से कुछ नहीं होता !"

"या और कहीं मतलब?"

"मतलब मुंह और मुन्नी के अलावा एक और जगह है जहाँ मेरा पप्पू जा सकता है..." उसने खुश होते हुए कहा।

मैंने देखा उसकी आँखों में चमक आ गई थी।

"कहाँ?"

"पहले हाँ करो तुम मुझे करने दोगी?" उसने शर्त रखी।

"बताओ तो सही !" मैं जानना चाहती थी... हालांकि मुझे थोड़ा आभास हो रहा था कि उसके मन में क्या है... फिर भी उसके मुँह से सुनना चाहती थी।

"देखो... पहले यह बताओ... तुम्हें मेरे साथ मज़े आ रहे हैं या नहीं?"

मैंने हामी में सिर हिलाया।

"तुम आगे भी करना चाहती हो या इसे यहीं बंद कर दें?"

मैंने सिर हिलाया तो उसने कहा- बोल कर बताओ।

"जैसा तुम चाहो !" मैंने गोल-मटोल जवाब दिया।

"भई... मैं तो करना चाहता हूँ... मुझे तो बहुत मज़ा आएगा... पर अगर तुम नहीं चाहती तो मैं ज़बरदस्ती नहीं करूँगा... तुम बोलो..." उसने गेंद मेरे पाले में डाल दी।

"ठीक है !"

"मतलब... तुम भी करना चाहती हो?" उसने स्पष्टीकरण करते हुए पूछा।

मैंने सिर हिलाकर हामी भर दी।

"ठीक है... तुम नादान हो इसलिए तुम्हें समझा रहा हूँ... मैं नहीं चाहता हमारे इस प्यार के कारण तुम्हें कोई मुश्किलों का सामना करना पड़े..." उसने मेरे कन्धों पर अपने हाथ आत्मविश्वास से रखते हुए बताना शुरू किया।

"मेरा मतलब... तुम्हें बच्चा नहीं ठहरना चाहिए... ठीक है ना?"

मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया।

"इसका मतलब मुझे पानी तुम्हारी मुन्नी में नहीं छोड़ना चाहिए, इसीलिए मैं बाहर छोड़ रहा था .. समझी?"

मैंने फिर सिर हिलाया।

"पर अंदर पानी छोड़ने में जो मुझे मज़ा आता है वह बाहर छोड़ने में नहीं आता... मेरा और मेरे पप्पू का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है "

मैं उसके साथ सहमत थी। मुझे भी अच्छा नहीं लगा था जब उसने ऐन मौके पर अचानक लंड बाहर निकाल लिया था... मेरे मज़े की लय भी टूट गई थी। मैंने मूक आँखों से सहमति जताई।

"वैसे मैं कंडोम भी पहन सकता हूँ... पर उसमें भी मुझे मज़ा नहीं आता... मुझे तो नंगा स्पर्श ही अच्छा लगता है !" उसने खुद ही विकल्प बताया।

"कंडोम?"

"कंडोम नहीं पता?" मैं दिखाता हूँ..." भोंपू ने अपने पर्स से एक कंडोम निकाला और मुझे दिखाया। जब मुझे समझ नहीं आया तो उसने उसे खोल कर अपने अंगूठे पर चढ़ाते हुए बोला, "इसको लंड पर चढ़ाते हैं तो पानी बाहर नहीं आता... पर मुझे यह अच्छा नहीं लगता।"

"फिर?" मैंने उससे उपाय पूछा।

"मैं कह रहा था ना कि तुम्हारी मुन्नी और मुँह के अलावा एक और छेद है... वहाँ पानी छोड़ने से कोई डर नहीं... पूरे मज़े के साथ मैं तुम्हें चोद सकता हूँ और पानी भी अंदर ही छोड़ सकता हूँ..." कहते हुए उसकी बाछें खिल रहीं थीं।

"कहाँ?... वहां?" मैंने डरते डरते पूछा।

"हाँ !" वह मेरे "वहां" का मतलब समझते हुए बोला।

"छी..."

"फिर वही बात... जब वहाँ जीभ लगा सकते हैं तो फिर काहे की छी?" उसने तर्क किया।

"बहुत दर्द होगा !" मैंने अपना सही डर बयान किया।

"दर्द तो होगा... पर इतना नहीं... मज़ा भी ज़्यादा आएगा !" उसने अपना पक्ष रखा।

"मज़ा तो तुम्हें आएगा !" मैंने शिकायत सी की।

"नहीं... नहीं... मज़ा हम दोनों को ज़्यादा आएगा... तुम देखना !"
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Re: जवानी की दहलीज

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मैं कुछ नहीं बोली। डर लग रहा था पर उसकी उम्मीदों पर पानी भी नहीं फेरना चाहती थी। उसकी आँखें मुझसे राज़ी होने की मिन्नतें कर रहीं थीं। उसने मेरे हाथ अपने हाथों में ले लिए और मेरे जवाब की प्रतीक्षा करने लगा।

जब मैं कुछ नहीं बोली तो उसने दिलासा देते हुए कहा, "अच्छा... ऐसा करते हैं... तुम एक बार आजमा कर देखो... अगर तुमको अच्छा नहीं लगे या दर्द बर्दाश्त ना हो तो मैं वहीं रुक जाऊँगा... ठीक है?"

मैं अपना मन बनाने ही वाली थी कि "मुझ पर भरोसा नहीं है? मेरे लिए इतना नहीं कर सकती?" वह गिड़गिड़ाने लगा।

"भरोसा है... इसलिए सिर्फ तुम्हारे लिए एक बार कोशिश करूंगी !" मैंने अपना निर्णय सुनाया।

वह खिल उठा और मुझे खुशी में उठाकर गोल गोल घुमाने लगा। मुझे उसकी इस खुशी में खुशी मिल रही थी।

"ठीक है... अभी आजमा लेते हैं... तुम कमरे में चलो... मैं आता हूँ !" उसने मुझे नीचे उतारते हुए कहा और रसोई में चला गया। मैंने देखा वह एक कटोरी में तेल और बेलन लेकर आ गया।

"यह किस लिए?" मैंने बेलन की ओर इशारा करके पूछा।

"जिससे अगर मैं तुम्हें दर्द दूँ तो तुम मुझे पीट सको !" उसने हँसते हुए कहा और मुझे बिस्तर पर गिरा दिया।

एक कुर्सी पास खींचकर उसने तेल की कटोरी और बेलन वहाँ रख दिए।

वह मुझ पर लेट गया और मुझे प्यार करने लगा। मेरे पूरे शरीर पर पुच्चियाँ करते हुए हाथ-पैर चला रहा था। वह मुझे ऐसे प्यार कर रहा था कि मुझे लगा वह भूल गया है उसे क्या करना है। मैं आने वाले अनजान दर्द की आशंका और भय को भूल गई और उसके हाथों और मुँह के जादू से प्रभावित होने लगी। उसने धीरे धीरे मुझे लालायित किया और खुद भी उत्तेजित हो गया।

जब मेरी योनि गीली होने लगी तो उसने अपनी उंगली उसके अंदर डालकर कुछ देर मेरी उँगल-चुदाई की... साथ ही साथ मेरे योनि-रस को मेरी गांड पर भी लगाने लगा। अब उसने मेरे नीचे तकिया रख कर मेरी गांड ऊपर कर दी और उसमें उंगली करने लगा... धीरे धीरे। वह ऊँगली अंदर डालने का प्रयास कर रहा था पर मेरा छेद कसकर बंद हो जाता था। वह ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था पर उंगली अंदर करने के लिए आतुर भी था।

आखिरकार, वह मुझे कुतिया आसन में लाया और अपनी उंगली का सिरा मेरे छेद पर रखकर मुझसे कहा...

"देखो, ऐसे काम नहीं बन रहा... तुम्हें मदद करनी होगी..."

मैंने पीछे मुड़ कर उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।

"जब मैं उंगली अंदर डालने का दबाव लगाऊं तुम उसी समय अपनी गांड ढीली करना..."

"कैसे?"

"जैसे पाखाना जाते वक्त ज़ोर लगते हैं... वैसे !" उसने मेरे रोमांटिक मूड को नष्ट करते हुए कहा।

मुझे ठीक से समझ नहीं आया... मैंने उसकी ओर नासमझी की नज़र डाली तो वह मेरे बगल में उसी आसन में आ गया जैसे मैं थी और बोला...

"तुम अपनी उंगली मेरे छेद पर रखो..."

मैं बैठ गई और अपनी उंगली उसके छेद पर रख दी।

"अब अंदर डालने की कोशिश करो..." उसने आदेश दिया।

मैंने उंगली अंदर डालने का प्रयास किया पर उसका छेद कसा हुआ था।

"उंगली पर तेल लगाओ और फिर कोशिश करो..." उसने समझाया।

उसने जैसे कहा था मैंने किया पर फिर भी उंगली अंदर नहीं जा रही थी।

"मुश्किल है ना?"

"हाँ " मैंने सहमति जतायी।

"क्योंकि मैंने अपनी गांड कसकर रखी हुई है... जैसे तुमने रखी हुई थी... अब मैं उस समय ढीला करूँगा जब तुम उंगली अंदर डालने के लिए दबाव डालोगी... ठीक है?"

"ठीक है..."

"ओके... अब दबाव डालो..." उसने कहा और जैसे ही मैंने उंगली का दबाव बनाया उसने नीचे की ओर गांड से ज़ोर लगाया और मेरी उंगली का सिरा आसानी से अंदर चला गया।

"देखा?" उसने पूछा।

"हाँ !"

"अब मैं गांड ढीली और तंग करूँगा... तुम अपनी ऊँगली पर महसूस करना... ठीक?"

"ठीक .." और उसने गांड ढीली और तंग करनी शुरू की। ऐसा लग रहा था मानो वह मेरी उंगली के सिरे को गांड से पकड़ और छोड़ रहा था।

"अच्छा, अब जब मैं छेद ढीला करूँ तुम ऊँगली और अंदर धकेल देना... ठीक है?"

"ठीक है..."

उसने जब ढील दी तो मैंने उंगली को अंदर धक्का दिया और देखा कि उंगली किसी तंग बाधा को पार करके अंदर चली गई। मुझे अचरज हुआ कि इतनी आसानी से कैसे चली गई... पहले तो जा ही नहीं रही थी... ऊँगली करीब तीन-चौथाई अंदर चली गई थी।

"इस बार ऊँगली पूरी अंदर कर देना..." उसने कहा...

और जैसे ही मैंने महसूस किया उसने ढील दी है मैंने उंगली पूरी अंदर कर दी।

"अब तो समझी तुम्हें क्या करना है?" उसने पूछा। मैंने स्वीकृति दर्शाई।

"ऐसा तुम कर पाओगी?" उसने मुझे ललकारा।

"और नहीं तो क्या !" कहते हुए मैंने उंगली बाहर निकाली और झट से कुतिया आसन इख्तियार कर लिया। भोंपू मेरी तत्परता से खुश हुआ... उसने प्यार से मेरे चूतड़ पर एक चपत जड़ दी और अपनी उंगली और मेरी गांड पर तेल लगाने लगा।

मैंने चुपचाप अपने छेद को 3-4 बार ढीला करने का अभ्यास कर लिया।

"याद रखना... हम एक समय में छेद को एक-आध सेकंड के लिए ही ढीला कर सकते हैं... फिर वह अपने आप कस जायेगा... तुम करके देख लो..."

वह सच ही कह रहा था... मैं कितनी भी देर ज़ोर लगाऊं...छेद थोड़ी देर को ही ढीला होता फिर अपने आप तंग हो जाता। मुझे अपनी गांड की यह सीमित क्षमता समझ में आ गई।

"देखा?"

"हाँ !"

मैंने चुपचाप अपने छेद को 3-4 बार ढीला करने का अभ्यास कर लिया।

"याद रखना... हम एक समय में छेद को एक-आध सेकंड के लिए ही ढीला कर सकते हैं... फिर वह अपने आप कस जायेगा... तुम करके देख लो..."

वह सच ही कह रहा था... मैं कितनी भी देर ज़ोर लगाऊं...छेद थोड़ी देर को ही ढीला होता फिर अपने आप तंग हो जाता। मुझे अपनी गांड की यह सीमित क्षमता समझ में आ गई।

"देखा?"

"हाँ !"

"तो हमारा तालमेल ठीक होना चाहिए... नहीं तो तुम्हें दर्द हो सकता है... तैयार हो?"

"हाँ !"

भोंपू ने प्यार से अपनी उंगली मेरी गाण्ड में डालने का प्रयास किया और थोड़ी कश्मकश के बाद उसकी पूरी उंगली अंदर चली गई। मुझे थोड़ा अटपटा लगा और कुछ तकलीफ़ भी हुई पर कोई खास दर्द नहीं हुआ।

"कैसा लग रहा है? दर्द हो रहा है?" उसने पूछा।

"नहीं... ठीक है..." मैंने कहा। मेरे जवाब से वह प्रोत्साहित हुआ और मेरे चूतड़ पर एक पुच्ची कर दी।

"अच्छा... एक बार और करेंगे... ठीक है?" और मेरे उत्तर के लिए रुके बिना उसने उंगली धीरे से बाहर निकाल ली और तेल लगाकर दोबारा अंदर डाल दी। इस बार हमारा तालमेल बेहतर था। मुझे कोई तकलीफ़ नहीं हुई बस थोड़ी असुविधा कह सकते हैं...।

भोंपू ने धीरे धीरे उंगली अंदर-बाहर की... ज़्यादा नहीं... करीब एक इंच।

"याद रखना... हर बार अंदर डालने के लिए तुम्हें ढील छोड़नी होगी... ऐसा नहीं है कि एक बार से काम चल जायेगा... समझी?"

"ठीक है... समझी .."

kramashah.....................

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Re: जवानी की दहलीज

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जवानी की दहलीज-10

"पता है, गांड मारने में सबसे ज्यादा मज़ा मुझे कब आता है?" उसने पूछा।

"मुझे क्या मालूम !"

"जब लंड गांड में डालना होता है !!"

"अच्छा ! तो इसीलिए बार बार आसन बदल रहे हो !"

"तुम्हारे आराम का ख्याल भी तो रखता हूँ..."

"मुझे भी लंड घुसवाने में अब मज़ा आने लगा है ! तुम जितनी बार चाहो निकाल कर घुसेड़ सकते हो !" मैंने शर्म त्यागते हुए कहा।

"वाह !... तो यह लो !!" कहते हुए उसने लंड बाहर निकाल लिया और एक बार फिर उसी यत्न से अंदर डाल दिया। हर बार लंड अंदर जाते वक्त मेरी गांड को अपने विशाल आकार का अहसास ज़रूर करवा देता था। ऐसा नहीं था कि लंड आसानी से अंदर घुप जाए और पता ना चले... पर इस मीठे दर्द में भी एक अनुपम आनन्द था।

अब भोंपू वेग और ताक़त के साथ मेरी गांड मार रहा था। कभी लंबे तो कभी छोटे वार कर रहा था। मुझे लगा अब उसके चरमोत्कर्ष का समय नजदीक आ रहा है। अब तक तीन बार मैं उसका फुव्वारा देख चुकी थी सो अब मुझे थोड़ा बहुत पता चल गया था कि वह कब छूटने वाला होता है।

मेरे हिसाब से वह आने वाला ही था। मेरा अनुमान ठीक ही निकला... उसके वार तेज़ होने लगे, साँसें तेज़ हो गईं, उसका पसीना छूटने लगा और वह भी मेरा नाम ले ले कर बडबडाने लगा। अंततः उसका नियंत्रण टूटा और वह एक आखिरी ज़ोरदार वार के साथ मेरे ऊपर गिर गया...

उसका लंड पूरी तरह मेरी गांड में ठंसा हुआ हिचकियाँ भर रहा था और उसका बदन भी हिचकोले खा रहा था। कुछ देर के विराम के बाद उसने एक-दो छोटे वार किये और फिर मेरे ऊपर लेट गया। वह पूरी तरह क्षीण और शक्तिहीन हो चला था। कुछ ही देर में उसका सिकुड़ा, लचीला और नपुंसक सा लिंग मेरी गांड में से अपने आप बाहर आ गया और शर्मीला सा लटक गया।

भोंपू बिस्तर से उठकर गुसलखाने की तरफ जा ही रहा था कि अचानक दरवाज़े पर जोर से खटखटाने की आवाज़ आई। हम दोनों चौंक गए और एक दूसरे की तरफ घबराई हुई नज़रों से देखने लगे।

इस समय कौन हो सकता है? कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया?

हम दोनों का यौन-सुरूर काफूर हो गया और हम जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे।

दरवाज़े पर खटखटाना अब तेज़ और बेसब्र सा होने लगा था... मानो कोई जल्दी में था या फिर गुस्से में। जैसे तैसे मैंने कपड़े पहन कर, अपने बिखरे बाल ठीक करके और भोंपू को गुसलखाने में रहने का इशारा करते हुए दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खोलते ही मेरे होश उड़ गए...

दरवाज़े पर महेश, रामाराव जी का बड़ा बेटा, अपने तीन गुंडे साथियों के साथ गुस्से में खड़ा था।

दरवाज़े पर महेश और उसके साथियों को देख कर मैं घबरा गई। वे पहले कभी मेरे घर नहीं आये थे। मैंने अपने होशोहवास पर काबू रखते हुए उन्हें नमस्ते की और सहजता से पूछा- आप यहाँ?

महेश की नज़रें आधे खुले दरवाज़े और मेरे पार कुछ ढूंढ रही थीं। मैं वहीं खड़ी रही और बोली- बापू घर पर नहीं हैं।

" हमें पता है।" महेश ने रूखे स्वर में कहा- हम देखने आये हैं कि तुम क्या कर रही हो?

मेरा गला अचानक सूख गया। मैं हक्की-बक्की सी मूर्तिवत खड़ी रह गई।

"मतलब?" मैंने धीरे से पूछा।

"ऐसी भोली मत बनो... भोंपू कहाँ है?"

यह सुनते ही मेरे पांव-तले ज़मीन खिसक गई। मेरे माथे पर पसीने की अनेकों बूँदें उभर आईं, मैं कांपने सी लगी।

महेश ने पीछे मुड़ कर अपने साथियों को इशारा किया और उनमें से दो आगे बढ़े और मेरी अवहेलना करते हुए घर का दरवाज़ा पूरा खोल कर अंदर जाने लगे।

"यह क्या कर रहे हो? ...कहाँ जा रहे हो?" मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की पर वे मुझे एक तरफ धक्का देकर अंदर घुस गए और घर की तलाशी लेने लगे।

"आजकल बड़ी रंगरेलियाँ मनाई जा रही हैं !" महेश ने मेरी तरफ धूर्तता से देखते हुए कहा।

मैं सकपकाई सी नीचे देख रही थी... मेरी उँगलियाँ मेरी चुनरी के किनारे को बेतहाशा बुन रही थीं।

मुझे महसूस हुआ कि महेश मुझे लालसा और वासना की नज़र से देख रहा था। उसकी ललचाई आँखें मेरे वक्षस्थल पर टिकी हुई थीं और वह कभी कभी मेरे पेट और जाँघों को घूर रहा था।

तभी अंदर से भगदड़ और शोर सुनाई दिया। महेश के साथी भोंपू को घसीटते हुए ला रहे थे।

"बाथरूम में छिपा था !" महेश के एक साथी ने कहा।

" क्यों बे ? यहाँ क्या कर रहा था?" महेश ने भोंपू से पूछा।

" यहाँ कौन सी गाड़ी चला रहा था... बोल?" महेश ने और गुस्से में पूछा।

भोंपू चुप्पी साधे महेश के पांव की तरफ देख रहा था।

" अच्छा तो छोरी को गाड़ी चलाना सिखा रहा था... या उसका भी भोंपू ही बजा रहा था...?" महेश ने मेरे मम्मों की तरफ दखते हुए व्यंग्य किया।

" मादरचोद ! अब क्यों चुप है। पिछले तीन दिनों से हम देख रहे हैं... तू यहाँ रोज आता है और घंटों रहता है... बस तू और ये रंडी... अकेले अकेले क्या करते रहते हो?" महेश सवाल करता जा रहा था।

" तुझे मालूम है यह शादीशुदा है?" महेश ने मेरी तरफ देखकर सवाल किया।

" तुझे पक्का मालूम है... तूने तो इसकी शादी देखी है... यहीं हुई थी... हमने कराई थी !" महेश ने खुद ही उत्तर देते हुए कहा।

" तुझे और कोई नहीं मिला जो एक शादीशुदा से गांड मरवाने चली !" महेश मुझे दुतकारता हुआ बोला।

" और तू ! तुझे यहाँ काम पर इसलिए रखा है कि तू हवेली की लड़कियाँ चोदता फिरे...? हैं?" महेश ने भोंपू को चांटा मारते हुए पूछा।

" साला पेड़ लगाएँ हम और फल खाए तू... हम यहाँ क्या गांड मराने आये हैं?" महेश का क्रोध बढ़ता जा रहा था और वह भोंपू को थप्पड़ और घूंसे मारे जा रहा था।

" साली... हरामजादी... तुझे हम नहीं दिखाई दिए जो इस दो कौड़ी के नौकर से मुँह काला करवाने लगी?" महेश ने मेरी तरफ एक कदम बढ़ाते हुए पूछा।

मैं रोने लगी...

" अब क्या रोती है... जब तेरे बाप और घरवालों को पता चलेगा कि तू उनके पीछे क्या गुल खिला रही है... तब देखना... " महेश के इस कथन से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं यौन दरिया में इस वेग से बह चली थी कि इसके परिणाम का ख्याल तक नहीं किया। मैं अब अपने आप को कोसने लगी और मुझे अपने आप पर ग्लानि होने लगी।

मैंने महेश के सामने हाथ जोड़े और रोते रोते माफ़ी मांगी।

" हमें माफ कर दो... गलती हो गई... अबसे हम कभी नहीं मिलेंगे..." मैंने रुआंसे स्वर में कहा।

" माफ कर दो... गलती हो गई..." महेश ने मेरी नकल उतारते हुए दोहराया और फिर बोला," ऐसे कैसे माफ कर दें... गलती की सज़ा तो ज़रूर मिलेगी !"

" या तो तू प्रायश्चित कर ले या हम तेरे बाप को सब कुछ बता देंगे !" महेश ने सुझाव दिया।

" मैं प्रायश्चित कर लूंगी... आप जो कहोगे करने को तैयार हूँ !" मैंने दृढ़ता से कहा। भोंपू ने पहली बार मेरी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि डाली... मानो मुझे सचेत कर रहा हो। पर मुझे अपने घर वालों की इज्ज़त के आगे कुछ और नहीं सूझ रहा था। मैंने भोंपू को नज़रंदाज़ करते हुए कहा," पर आप मेरे घरवालों को मत बताना.. मैं विनती करती हूँ...!"

" ठीक है... जैसा मैं चाहता हूँ तुम अगर वैसा करोगी तो हम किसी को नहीं बताएँगे... भोंपू कि बीवी को भी नहीं... मंज़ूर है?" महेश ने पूछा।

"मंज़ूर है।" मैंने बिना समय गंवाए जवाब दे दिया।

"तो ठीक है !" महेश ने कहा और भोंपू को एक और तमाचा रसीद करते हुए बोला," और तू भी किसी को नहीं बताएगा साले... नहीं तो देख लेना तेरा क्या हाल करते हैं... समझा?"

" जी नहीं बताऊँगा।" भोंपू बुदबुदाया।

" तो अब भाग यहाँ से... इस घर के आस-पास भी दिखाई दिया तो हड्डी-पसली एक कर देंगे।" महेश ने भोंपू को लात मारते हुए वहाँ से भगाया। जब भोंपू चला गया तो महेश ने मुझे ऊपर से नीचे देखा और जैसे किसी मेमने को देख कर भेडिये के मुंह में पानी आता है वैसे मुझे निहारने लगा। अपने हाथ मसल कर वह सोचने लगा कि मुझसे किस तरह का प्रायश्चित करवा सकता है।

आखिर कुछ सोचने के बाद उसने निश्चय कर लिया और अपना गला साफ़ करते हुए मुझसे बोला," मैं बताता हूँ तुम्हें क्या करना होगा... तैयार हो?"

" जी, बताइए।"

" कल रात मेरे घर में पार्टी है... कुछ दोस्त लोग आ रहे हैं... वहाँ तुम्हें नाचना होगा... !"

महेश की फरमाइश सुनकर मेरी सांस में सांस आई। मैंने तो न जाने क्या क्या सोच रखा था... मुझे लगा वह मुझे चोदने का इरादा तो ज़रूर करेगा... पर उसकी इस आसान शर्त से मुझे राहत मिली।

" जी ठीक है।"

" नंगी !!" उसने कुछ देर के बाद अपना वाक्य पूरा करते हुए कहा और मेरी तरफ देखने लगा।

" नंगी?" मैंने पूछा।

" हाँ... बिल्कुल नंगी !!!"

मैं निस्तब्ध रह गई... कुछ बोल नहीं सकी।

" पानी के शावर के नीचे... " महेश अब मज़े ले लेकर धीरे धीरे अपनी शर्तें परोस रहा था।

" मेरे और मेरे दोस्तों के साथ... !!!" महेश चटकारे लेते हुए बोला।

" मुझसे नहीं होगा।" मैंने धीमे से कहा।

" होगा कैसे नहीं, साली !" उसने मेरे गाल पर जोर से चांटा मारते हुए कहा। फिर मेरी चोटी पीछे खींचते हुए मेरा सिर ऊपर किया और मेरी आँखों में अपनी बड़ी बड़ी आँखें डालते हुए बोला।

" मैं तेरी राय नहीं ले रहा हरामखोर... तुझे बता रहा हूँ... मुझे ना सुनने की आदत नहीं है... और हाँ... अब तो तुझे चुदाई का स्वाद लग गया होगा... तो अगर मैं या मेरे दोस्त तेरे साथ... "
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Re: जवानी की दहलीज

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" नहीं... " महेश अपना वाक्य पूरा करता उसके पहले ही मैं चिल्लाई। महेश ने मेरी चुटिया जोर से खींची जिससे मेरी चीख निकल गई और मुझे तारे नज़र आने लगे और मैं अपने पांव पर लड़खड़ाने लगी।

" इधर देख !" महेश ने मेरी ठोड़ी अपनी तरफ करते हुए कहा " तेरी जैसी सैंकड़ों छोरियां मेरे घर में रोज नंगी नाचती हैं... हमें खुश करना अपना सौभाग्य समझती हैं... तू कहाँ की महारानी आई है?"

" वैसे भी... अब तेरे बदन में रह ही क्या गया है जिसे तू छुपाना चाहती है?... भोंपू ने कुछ नहीं किया क्या?"

कुछ देर बाद महेश ने मेरी चुटिया छोड़ी और मुझे समझाने के लहजे में अपनी आवाज़ नीची करके, सहानुभूति के अंदाज़ में कहने लगा " देखो, अब तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है... हमें खुश रखो... हम तुम्हारा ध्यान रखेंगे... अगर तुम नखरे दिखाओगी तो हम तुम्हारी गांड भी बजायेंगे और शहर में ढिंडोरा भी पीटेंगे... सोच लो?"

मैं चुप रही ! क्या कहती?

महेश ने मेरी चुप्पी को स्वीकृति समझते हुए निर्देश देने शुरू किये..

" तो फिर पार्टी कल रात देर से शुरू होगी... मेरे आदमी तुम्हें 9 बजे लेने आयेंगे... तैयार रहना... अपने भाई-बहन को खाना खिला कर सुला देना। तुम्हारा खाना हमारे साथ ही होगा... कपड़ों की चिंता मत करना... वहाँ तुम्हें बहुत सारे मिल जायेंगे... वैसे भी तुम्हें कपड़ों की ज्यादा ज़रूरत नहीं पड़ेगी... " महेश मेरी दशा पर मज़ा लूटते हुए बोले जा रहा था।

मैं अवाक सी खड़ी रही।

" रात के ठीक 9 बजे !" महेश मुझे याद दिलाते हुए और चेतावनी देते हुए अपने साथियों के साथ चला गया।

मेरी दुनिया एक ही पल में क्या से क्या हो गई थी। जहाँ एक तरफ मैं अपने भौतिक जीवन के सबसे मजेदार पड़ाव का आनन्द ले रही थी वहीं मेरे जीवन की सबसे डरावनी और चिंताजनक घड़ी मेरे सामने आ गई थी। अचानक मैं भय, चिंता, ग्लानि, पश्चाताप और क्रोध की मिश्रित भावनाओं से जूझ रही थी। मेरा गला सूख गया था और मेरे सिर में हल्का सा दर्द शुरू हो गया था। अगर घर वालों को पता चल गया तो क्या होगा? शीलू और गुंटू, जो मुझे माँ सामान समझते हैं, मेरे बारे में क्या सोचेंगे... बापू तो शर्म से कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे... शायद वे आत्महत्या कर लें... और भोंपू की बीवी, जो शादी के समय मुझसे मिल चुकी थी और जिसके साथ मैंने बहुत मसखरी की थी, मुझे सौत के रूप में देखेगी... मुझे कितना कोसेगी कि मैंने उसके घर संसार को उजाड़ दिया...

मैं अपने किये पर सोच सोच कर पछताती जा रही थी... जैसे जैसे मुझे अपनी करतूत के परिणाम महसूस होने लगे, मुझे लगने लगा कि इस घटना को गोपनीय रखने में ही मेरी और मेरे घरवालों की भलाई है। मेरा मन पक्का होने लगा और मैंने इरादा किया कि महेश की बात मान लेने में ही समझदारी है। एक बार महेश मेरा नाजायज़ फ़ायदा उठा लेगा तो वह खुद मुझे बचाने के लिए बाध्य होगा वर्ना उसकी इज्ज़त भी मिटटी में मिल सकती है और वह रामाराव जी की नज़रों और नीचे गिर सकता है। हो सकता है वे गुस्से में उसको अपनी जागीर से बेदखल भी कर दें।

महेश को यह अंदेशा बहुत पहले से था और वह अपने पिता को और अधिक निराश करने का जोखिम नहीं उठा सकता था। ऐसी हालत में मेरा महेश को सहयोग देना मेरे लिए फायदेमंद होगा। धीरे धीरे मेरा दिमाग ठीक से काम करने लगा। कुछ देर पहले की कश्मकश और उधेड़बुन जाती रही और अब मैं ठीक से सोचने लगी थी। सबसे पहले मैंने अपने आप को सामान्य करने की ज़रूरत समझी जिससे घर में किसी को किसी तरह की शंका ना हो... फिर सोचने लगी कि कल रात के लिए शीलू-गुंटू को क्या बताना है जिससे वे साथ आने की जिद ना करें...

कुछ देर बाद शीलू-गुंटू स्कूल से वापस आ गए। हमने खाना खाया... उन्होंने भोंपू के बारे में पूछा तो मैंने यह कह कर टाल दिया कि उसे किसी ज़रूरी काम से अपने घर जाना पड़ा है। फिर मैंने कल रात की तैयारी के लिए भूमिका बनानी शुरू कर दी। रात को सोते वक्त मैंने शीलू-गुंटू के बिस्तर पर जाकर उनसे बातचीत शुरू की...

" कल रात हवेली में एक पूजा समारोह है जिसमें बच्चे नहीं जाते और सिर्फ शादी-लायक कुंवारी लड़कियाँ ही जाती हैं !" मैंने शीलू-गुंटू को बताया।

"तो मैं भी जा सकती हूँ?" शीलू ने उत्साह के साथ कहा।

"चल हट ! तू कोई शादी के लायक थोड़े ही है... पहले बड़ी तो हो जा !" मैंने उसकी बात काटते हुए कहा।

" वैसे उस पूजा में मेरा जाने का बहुत मन है पर तुम दोनों को घर में अकेले छोड़ कर कैसे जा सकती हूँ?"

" किस समय है?" शीलू ने पूछा।

" रात नौ बजे शुरू होगी !"

" और खत्म कब होगी?"

" पता नहीं !"

" ठीक है... तो तुम बाहर से ताला लगाकर चली जाना हम खाना खाकर सो जायेंगे।" शीलू ने स्वाभाविक रूप से समाधान बताया।

" तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?" मैंने चिंता जताई।

" हम अकेले थोड़े ही हैं... और जब बाहर से ताला होगा तो कोई अंदर कैसे आएगा?"

" ठीक है... अगर तुम कहते हो तो मैं चली जाऊंगी।" मैंने उन पर इस निर्णय का भार डालते हुए कहा।

मुझे तसल्ली हुई कि एक समस्या तो टली। अब बस मुझे कल रात की अपेक्षित घटनाओं का डर सता रहा था... ना जाने क्या होने वाला था... महेश और उसके दोस्त मेरे साथ क्या क्या करने वाले हैं... मैं अपने मन में डर, कौतूहल, चिंता और भ्रम की उधेड़बुन में ना जाने कब सो गई...

अगले दिन मैं पूरे समय चिंतित और घबराई हुई सी रही। अपने आप को ज्यादा से ज्यादा काम में व्यस्त करने की चेष्टा में लगी रही पर रह रह कर मुझे आने वाली रात का डर घेरे जा रहा था। शीलू-गुंटू को भी मेरा व्यवहार अजीब लग रहा था पर जैसे-तैसे मैंने उन्हें सिर-दर्द का बहाना बनाकर टाल दिया। रात के आठ बजे मैंने दोनों को खाना दिया और वे स्कूल का काम करने और फिर सोने चले गए। इधर मैंने स्नान करके सादा कपड़े पहने और बलि के बकरे की भांति नौ बजे का इंतज़ार करने लगी।

नौ बजे से कुछ पहले मैंने देखा कि दोनों बच्चे सो गए हैं। मैंने राहत की सांस ली क्योंकि मैं उनके सामने महेश के आदमियों के साथ जाना नहीं चाहती थी। मैंने समय से पहले ही घर को ताला लगाया और बाहर इंतज़ार करने लगी। ठीक नौ बजे महेश के दो आदमी मुझे लेने आ गए। मुझे बाहर तैयार खड़ा देख उन दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा।

" लौंडिया तेज़ है बॉस ! इससे रुका नहीं जा रहा !!" एक ने अभद्र तरीके से हँसते हुए कहा।

" माल अच्छा है... काश मैं भी ज़मींदार का बेटा होता !" दूसरे ने हाथ मलते हुए कहा और मुझे घूरने लगा।

" अबे अपने घोड़े पर काबू रख... बॉस को पता चल गया तो तेरी लुल्ली अपने तोते को खिला देगा... तू बॉस को जानता है ना?"

" जानता हूँ यार... राजा गिद्ध की तरह शिकार पर पहली चौंच वह खुद मारता है... फिर उसके नज़दीकी दोस्त और बाद में हम जैसों के लिए बचा-कुचा माल छोड़ देता है !"

उन्होंने मुझसे कुछ कहे बिना हवेली की तरफ चलना शुरू कर दिया... मैं परछाईं की तरह उनके पीछे पीछे हो ली। उनकी बातें सुनकर मेरा डर और बढ़ गया। थोड़े देर में वे मुझे हवेली के एक गुप्त द्वार से अंदर ले गए और वहां एक अधेड़ उम्र की औरत के हवाले कर दिया।

" इसको जल्दी तैयार कर दो चाची... बॉस इंतज़ार कर रहे हैं !" कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए।

" अंदर जाकर मुँह-हाथ धो ले... कुल्ला कर लेना और नीचे से भी धो लेना... मैं कपड़े लाती हूँ।" चाची ने बिना किसी प्रस्तावना के मुझे निर्देश देते हुए गुसलखाने का दरवाज़ा दिखाया।

" जल्दी कर...!" जब मैं नहीं हिली तो उसने कठोरता से कहा और अलमारी खोलने लगी। अलमारी में तरह तरह के जनाना कपड़े सजे हुए थे। मैं चाची को और कपड़ों को देखती देखती गुसलखाने में चली गई।

वाह... कितना बड़ा गुसलखाना था... बड़े बड़े शीशे, बड़ा सा टब, तरह तरह के नल और शावर, सैंकड़ों तौलिए और हजारों सौंदर्य प्रसाधन। मैं भौंचक्की सी चीज़ें देख रही थी कि चाची की 'जल्दी करती है कि मैं अंदर आऊँ?' की आवाज़ से मैं होश में आई।

मैंने चाची के कहे अनुसार मुंह-हाथ धोए, कुल्ला किया और बाहर आ गई।

चाची ने जैसे ही मुझे देखा हुक्म दे दिया,"सारे कपड़े उतार दे !"

मैं हिचकिचाई तो चाची झल्लाई और बोली,"उफ़ ! यहाँ शरमा रही है और वहाँ नंगा नाचेगी... अब नाटक बंद कर और ये कपड़े पहन ले... जल्दी कर !"

उसने मेरे लिए मेहंदी और हरे रंग का लहरिया घाघरा और हलके पीले रंग की चुस्त चोली निकाली हुई थी। नीचे पहनने के लिए किसी मुलायम कपड़े की बलुआ रंग की ब्रा और चड्डी थी... दोनों ही अत्यंत छोटी थीं और दोनों को बाँधने के लिए डोरियाँ थीं - कोई बटन, हुक या नाड़ा नहीं था। मैंने धीरे धीरे अपने कपड़े उतारने शुरू किये तो चाची आई और जल्दी जल्दी मेरे बदन से कपड़े उखाड़ने लगी। मैंने उसे दूर किया और खुद ही जल्दी से उतारने लगी।

"इनको भी...!" चाची ने मेरी चड्डी और ब्रा की तरफ उंगली उठाते हुए निर्देश दिया।

मैंने उसका हुक्म मानने में ही भलाई समझी और उसके सामने नंगी खड़ी हो गई। चाची ने मेरे पास आकर मेरा निरीक्षण किया... मेरे बाल, मम्मे, बगलें और यहाँ तक कि मेरी टांगें खुलवा कर मेरी योनि और चूतड़ों को पाट कर मेरी गांड भी देखी और सूंघी।

"नीचे नहीं धोया?" उसने मुझे अस्वीकार सा करते हुए कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घसीटती हुई गुसलखाने में ले गई। वहाँ उसने बिना किसी उपक्रम के मुझे एक जगह खड़ा किया, मेरी टांगें खोलीं और हाथ में एक लचीला शावर लेकर मेरे सिर के बाल छोड़कर मुझे पूरी तरह नहला दिया। मेरी योनि और गांड में भी हाथ और उँगलियों से सफाई कर दी। फिर एक साफ़ तौलिया लेकर मुझे झट से पौंछ दिया और करीब दो मिनट के अंदर ये सब करके मुझे बाहर ले आई।

" सब कुछ मुझे ही करना पड़ता है... आजकल की छोरियाँ... बस भगवान बचाए !!" चाची बड़बड़ा रही थी।

" ये पहन ले... जल्दी कर... तुझे लेने आते ही होंगे !" चाची ने मुझे चेताया।

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