जवानी की दहलीज compleet

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Re: जवानी की दहलीज

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जवानी की दहलीज-10

"पता है, गांड मारने में सबसे ज्यादा मज़ा मुझे कब आता है?" उसने पूछा।

"मुझे क्या मालूम !"

"जब लंड गांड में डालना होता है !!"

"अच्छा ! तो इसीलिए बार बार आसन बदल रहे हो !"

"तुम्हारे आराम का ख्याल भी तो रखता हूँ..."

"मुझे भी लंड घुसवाने में अब मज़ा आने लगा है ! तुम जितनी बार चाहो निकाल कर घुसेड़ सकते हो !" मैंने शर्म त्यागते हुए कहा।

"वाह !... तो यह लो !!" कहते हुए उसने लंड बाहर निकाल लिया और एक बार फिर उसी यत्न से अंदर डाल दिया। हर बार लंड अंदर जाते वक्त मेरी गांड को अपने विशाल आकार का अहसास ज़रूर करवा देता था। ऐसा नहीं था कि लंड आसानी से अंदर घुप जाए और पता ना चले... पर इस मीठे दर्द में भी एक अनुपम आनन्द था।

अब भोंपू वेग और ताक़त के साथ मेरी गांड मार रहा था। कभी लंबे तो कभी छोटे वार कर रहा था। मुझे लगा अब उसके चरमोत्कर्ष का समय नजदीक आ रहा है। अब तक तीन बार मैं उसका फुव्वारा देख चुकी थी सो अब मुझे थोड़ा बहुत पता चल गया था कि वह कब छूटने वाला होता है।

मेरे हिसाब से वह आने वाला ही था। मेरा अनुमान ठीक ही निकला... उसके वार तेज़ होने लगे, साँसें तेज़ हो गईं, उसका पसीना छूटने लगा और वह भी मेरा नाम ले ले कर बडबडाने लगा। अंततः उसका नियंत्रण टूटा और वह एक आखिरी ज़ोरदार वार के साथ मेरे ऊपर गिर गया...

उसका लंड पूरी तरह मेरी गांड में ठंसा हुआ हिचकियाँ भर रहा था और उसका बदन भी हिचकोले खा रहा था। कुछ देर के विराम के बाद उसने एक-दो छोटे वार किये और फिर मेरे ऊपर लेट गया। वह पूरी तरह क्षीण और शक्तिहीन हो चला था। कुछ ही देर में उसका सिकुड़ा, लचीला और नपुंसक सा लिंग मेरी गांड में से अपने आप बाहर आ गया और शर्मीला सा लटक गया।

भोंपू बिस्तर से उठकर गुसलखाने की तरफ जा ही रहा था कि अचानक दरवाज़े पर जोर से खटखटाने की आवाज़ आई। हम दोनों चौंक गए और एक दूसरे की तरफ घबराई हुई नज़रों से देखने लगे।

इस समय कौन हो सकता है? कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया?

हम दोनों का यौन-सुरूर काफूर हो गया और हम जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे।

दरवाज़े पर खटखटाना अब तेज़ और बेसब्र सा होने लगा था... मानो कोई जल्दी में था या फिर गुस्से में। जैसे तैसे मैंने कपड़े पहन कर, अपने बिखरे बाल ठीक करके और भोंपू को गुसलखाने में रहने का इशारा करते हुए दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खोलते ही मेरे होश उड़ गए...

दरवाज़े पर महेश, रामाराव जी का बड़ा बेटा, अपने तीन गुंडे साथियों के साथ गुस्से में खड़ा था।

दरवाज़े पर महेश और उसके साथियों को देख कर मैं घबरा गई। वे पहले कभी मेरे घर नहीं आये थे। मैंने अपने होशोहवास पर काबू रखते हुए उन्हें नमस्ते की और सहजता से पूछा- आप यहाँ?

महेश की नज़रें आधे खुले दरवाज़े और मेरे पार कुछ ढूंढ रही थीं। मैं वहीं खड़ी रही और बोली- बापू घर पर नहीं हैं।

" हमें पता है।" महेश ने रूखे स्वर में कहा- हम देखने आये हैं कि तुम क्या कर रही हो?

मेरा गला अचानक सूख गया। मैं हक्की-बक्की सी मूर्तिवत खड़ी रह गई।

"मतलब?" मैंने धीरे से पूछा।

"ऐसी भोली मत बनो... भोंपू कहाँ है?"

यह सुनते ही मेरे पांव-तले ज़मीन खिसक गई। मेरे माथे पर पसीने की अनेकों बूँदें उभर आईं, मैं कांपने सी लगी।

महेश ने पीछे मुड़ कर अपने साथियों को इशारा किया और उनमें से दो आगे बढ़े और मेरी अवहेलना करते हुए घर का दरवाज़ा पूरा खोल कर अंदर जाने लगे।

"यह क्या कर रहे हो? ...कहाँ जा रहे हो?" मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की पर वे मुझे एक तरफ धक्का देकर अंदर घुस गए और घर की तलाशी लेने लगे।

"आजकल बड़ी रंगरेलियाँ मनाई जा रही हैं !" महेश ने मेरी तरफ धूर्तता से देखते हुए कहा।

मैं सकपकाई सी नीचे देख रही थी... मेरी उँगलियाँ मेरी चुनरी के किनारे को बेतहाशा बुन रही थीं।

मुझे महसूस हुआ कि महेश मुझे लालसा और वासना की नज़र से देख रहा था। उसकी ललचाई आँखें मेरे वक्षस्थल पर टिकी हुई थीं और वह कभी कभी मेरे पेट और जाँघों को घूर रहा था।

तभी अंदर से भगदड़ और शोर सुनाई दिया। महेश के साथी भोंपू को घसीटते हुए ला रहे थे।

"बाथरूम में छिपा था !" महेश के एक साथी ने कहा।

" क्यों बे ? यहाँ क्या कर रहा था?" महेश ने भोंपू से पूछा।

" यहाँ कौन सी गाड़ी चला रहा था... बोल?" महेश ने और गुस्से में पूछा।

भोंपू चुप्पी साधे महेश के पांव की तरफ देख रहा था।

" अच्छा तो छोरी को गाड़ी चलाना सिखा रहा था... या उसका भी भोंपू ही बजा रहा था...?" महेश ने मेरे मम्मों की तरफ दखते हुए व्यंग्य किया।

" मादरचोद ! अब क्यों चुप है। पिछले तीन दिनों से हम देख रहे हैं... तू यहाँ रोज आता है और घंटों रहता है... बस तू और ये रंडी... अकेले अकेले क्या करते रहते हो?" महेश सवाल करता जा रहा था।

" तुझे मालूम है यह शादीशुदा है?" महेश ने मेरी तरफ देखकर सवाल किया।

" तुझे पक्का मालूम है... तूने तो इसकी शादी देखी है... यहीं हुई थी... हमने कराई थी !" महेश ने खुद ही उत्तर देते हुए कहा।

" तुझे और कोई नहीं मिला जो एक शादीशुदा से गांड मरवाने चली !" महेश मुझे दुतकारता हुआ बोला।

" और तू ! तुझे यहाँ काम पर इसलिए रखा है कि तू हवेली की लड़कियाँ चोदता फिरे...? हैं?" महेश ने भोंपू को चांटा मारते हुए पूछा।

" साला पेड़ लगाएँ हम और फल खाए तू... हम यहाँ क्या गांड मराने आये हैं?" महेश का क्रोध बढ़ता जा रहा था और वह भोंपू को थप्पड़ और घूंसे मारे जा रहा था।

" साली... हरामजादी... तुझे हम नहीं दिखाई दिए जो इस दो कौड़ी के नौकर से मुँह काला करवाने लगी?" महेश ने मेरी तरफ एक कदम बढ़ाते हुए पूछा।

मैं रोने लगी...

" अब क्या रोती है... जब तेरे बाप और घरवालों को पता चलेगा कि तू उनके पीछे क्या गुल खिला रही है... तब देखना... " महेश के इस कथन से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं यौन दरिया में इस वेग से बह चली थी कि इसके परिणाम का ख्याल तक नहीं किया। मैं अब अपने आप को कोसने लगी और मुझे अपने आप पर ग्लानि होने लगी।

मैंने महेश के सामने हाथ जोड़े और रोते रोते माफ़ी मांगी।

" हमें माफ कर दो... गलती हो गई... अबसे हम कभी नहीं मिलेंगे..." मैंने रुआंसे स्वर में कहा।

" माफ कर दो... गलती हो गई..." महेश ने मेरी नकल उतारते हुए दोहराया और फिर बोला," ऐसे कैसे माफ कर दें... गलती की सज़ा तो ज़रूर मिलेगी !"

" या तो तू प्रायश्चित कर ले या हम तेरे बाप को सब कुछ बता देंगे !" महेश ने सुझाव दिया।

" मैं प्रायश्चित कर लूंगी... आप जो कहोगे करने को तैयार हूँ !" मैंने दृढ़ता से कहा। भोंपू ने पहली बार मेरी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि डाली... मानो मुझे सचेत कर रहा हो। पर मुझे अपने घर वालों की इज्ज़त के आगे कुछ और नहीं सूझ रहा था। मैंने भोंपू को नज़रंदाज़ करते हुए कहा," पर आप मेरे घरवालों को मत बताना.. मैं विनती करती हूँ...!"

" ठीक है... जैसा मैं चाहता हूँ तुम अगर वैसा करोगी तो हम किसी को नहीं बताएँगे... भोंपू कि बीवी को भी नहीं... मंज़ूर है?" महेश ने पूछा।

"मंज़ूर है।" मैंने बिना समय गंवाए जवाब दे दिया।

"तो ठीक है !" महेश ने कहा और भोंपू को एक और तमाचा रसीद करते हुए बोला," और तू भी किसी को नहीं बताएगा साले... नहीं तो देख लेना तेरा क्या हाल करते हैं... समझा?"

" जी नहीं बताऊँगा।" भोंपू बुदबुदाया।

" तो अब भाग यहाँ से... इस घर के आस-पास भी दिखाई दिया तो हड्डी-पसली एक कर देंगे।" महेश ने भोंपू को लात मारते हुए वहाँ से भगाया। जब भोंपू चला गया तो महेश ने मुझे ऊपर से नीचे देखा और जैसे किसी मेमने को देख कर भेडिये के मुंह में पानी आता है वैसे मुझे निहारने लगा। अपने हाथ मसल कर वह सोचने लगा कि मुझसे किस तरह का प्रायश्चित करवा सकता है।

आखिर कुछ सोचने के बाद उसने निश्चय कर लिया और अपना गला साफ़ करते हुए मुझसे बोला," मैं बताता हूँ तुम्हें क्या करना होगा... तैयार हो?"

" जी, बताइए।"

" कल रात मेरे घर में पार्टी है... कुछ दोस्त लोग आ रहे हैं... वहाँ तुम्हें नाचना होगा... !"

महेश की फरमाइश सुनकर मेरी सांस में सांस आई। मैंने तो न जाने क्या क्या सोच रखा था... मुझे लगा वह मुझे चोदने का इरादा तो ज़रूर करेगा... पर उसकी इस आसान शर्त से मुझे राहत मिली।

" जी ठीक है।"

" नंगी !!" उसने कुछ देर के बाद अपना वाक्य पूरा करते हुए कहा और मेरी तरफ देखने लगा।

" नंगी?" मैंने पूछा।

" हाँ... बिल्कुल नंगी !!!"

मैं निस्तब्ध रह गई... कुछ बोल नहीं सकी।

" पानी के शावर के नीचे... " महेश अब मज़े ले लेकर धीरे धीरे अपनी शर्तें परोस रहा था।

" मेरे और मेरे दोस्तों के साथ... !!!" महेश चटकारे लेते हुए बोला।

" मुझसे नहीं होगा।" मैंने धीमे से कहा।

" होगा कैसे नहीं, साली !" उसने मेरे गाल पर जोर से चांटा मारते हुए कहा। फिर मेरी चोटी पीछे खींचते हुए मेरा सिर ऊपर किया और मेरी आँखों में अपनी बड़ी बड़ी आँखें डालते हुए बोला।

" मैं तेरी राय नहीं ले रहा हरामखोर... तुझे बता रहा हूँ... मुझे ना सुनने की आदत नहीं है... और हाँ... अब तो तुझे चुदाई का स्वाद लग गया होगा... तो अगर मैं या मेरे दोस्त तेरे साथ... "
कांटा....शीतल का समर्पण....खूनी सुन्दरी

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Re: जवानी की दहलीज

Post by 007 »

" नहीं... " महेश अपना वाक्य पूरा करता उसके पहले ही मैं चिल्लाई। महेश ने मेरी चुटिया जोर से खींची जिससे मेरी चीख निकल गई और मुझे तारे नज़र आने लगे और मैं अपने पांव पर लड़खड़ाने लगी।

" इधर देख !" महेश ने मेरी ठोड़ी अपनी तरफ करते हुए कहा " तेरी जैसी सैंकड़ों छोरियां मेरे घर में रोज नंगी नाचती हैं... हमें खुश करना अपना सौभाग्य समझती हैं... तू कहाँ की महारानी आई है?"

" वैसे भी... अब तेरे बदन में रह ही क्या गया है जिसे तू छुपाना चाहती है?... भोंपू ने कुछ नहीं किया क्या?"

कुछ देर बाद महेश ने मेरी चुटिया छोड़ी और मुझे समझाने के लहजे में अपनी आवाज़ नीची करके, सहानुभूति के अंदाज़ में कहने लगा " देखो, अब तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है... हमें खुश रखो... हम तुम्हारा ध्यान रखेंगे... अगर तुम नखरे दिखाओगी तो हम तुम्हारी गांड भी बजायेंगे और शहर में ढिंडोरा भी पीटेंगे... सोच लो?"

मैं चुप रही ! क्या कहती?

महेश ने मेरी चुप्पी को स्वीकृति समझते हुए निर्देश देने शुरू किये..

" तो फिर पार्टी कल रात देर से शुरू होगी... मेरे आदमी तुम्हें 9 बजे लेने आयेंगे... तैयार रहना... अपने भाई-बहन को खाना खिला कर सुला देना। तुम्हारा खाना हमारे साथ ही होगा... कपड़ों की चिंता मत करना... वहाँ तुम्हें बहुत सारे मिल जायेंगे... वैसे भी तुम्हें कपड़ों की ज्यादा ज़रूरत नहीं पड़ेगी... " महेश मेरी दशा पर मज़ा लूटते हुए बोले जा रहा था।

मैं अवाक सी खड़ी रही।

" रात के ठीक 9 बजे !" महेश मुझे याद दिलाते हुए और चेतावनी देते हुए अपने साथियों के साथ चला गया।

मेरी दुनिया एक ही पल में क्या से क्या हो गई थी। जहाँ एक तरफ मैं अपने भौतिक जीवन के सबसे मजेदार पड़ाव का आनन्द ले रही थी वहीं मेरे जीवन की सबसे डरावनी और चिंताजनक घड़ी मेरे सामने आ गई थी। अचानक मैं भय, चिंता, ग्लानि, पश्चाताप और क्रोध की मिश्रित भावनाओं से जूझ रही थी। मेरा गला सूख गया था और मेरे सिर में हल्का सा दर्द शुरू हो गया था। अगर घर वालों को पता चल गया तो क्या होगा? शीलू और गुंटू, जो मुझे माँ सामान समझते हैं, मेरे बारे में क्या सोचेंगे... बापू तो शर्म से कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे... शायद वे आत्महत्या कर लें... और भोंपू की बीवी, जो शादी के समय मुझसे मिल चुकी थी और जिसके साथ मैंने बहुत मसखरी की थी, मुझे सौत के रूप में देखेगी... मुझे कितना कोसेगी कि मैंने उसके घर संसार को उजाड़ दिया...

मैं अपने किये पर सोच सोच कर पछताती जा रही थी... जैसे जैसे मुझे अपनी करतूत के परिणाम महसूस होने लगे, मुझे लगने लगा कि इस घटना को गोपनीय रखने में ही मेरी और मेरे घरवालों की भलाई है। मेरा मन पक्का होने लगा और मैंने इरादा किया कि महेश की बात मान लेने में ही समझदारी है। एक बार महेश मेरा नाजायज़ फ़ायदा उठा लेगा तो वह खुद मुझे बचाने के लिए बाध्य होगा वर्ना उसकी इज्ज़त भी मिटटी में मिल सकती है और वह रामाराव जी की नज़रों और नीचे गिर सकता है। हो सकता है वे गुस्से में उसको अपनी जागीर से बेदखल भी कर दें।

महेश को यह अंदेशा बहुत पहले से था और वह अपने पिता को और अधिक निराश करने का जोखिम नहीं उठा सकता था। ऐसी हालत में मेरा महेश को सहयोग देना मेरे लिए फायदेमंद होगा। धीरे धीरे मेरा दिमाग ठीक से काम करने लगा। कुछ देर पहले की कश्मकश और उधेड़बुन जाती रही और अब मैं ठीक से सोचने लगी थी। सबसे पहले मैंने अपने आप को सामान्य करने की ज़रूरत समझी जिससे घर में किसी को किसी तरह की शंका ना हो... फिर सोचने लगी कि कल रात के लिए शीलू-गुंटू को क्या बताना है जिससे वे साथ आने की जिद ना करें...

कुछ देर बाद शीलू-गुंटू स्कूल से वापस आ गए। हमने खाना खाया... उन्होंने भोंपू के बारे में पूछा तो मैंने यह कह कर टाल दिया कि उसे किसी ज़रूरी काम से अपने घर जाना पड़ा है। फिर मैंने कल रात की तैयारी के लिए भूमिका बनानी शुरू कर दी। रात को सोते वक्त मैंने शीलू-गुंटू के बिस्तर पर जाकर उनसे बातचीत शुरू की...

" कल रात हवेली में एक पूजा समारोह है जिसमें बच्चे नहीं जाते और सिर्फ शादी-लायक कुंवारी लड़कियाँ ही जाती हैं !" मैंने शीलू-गुंटू को बताया।

"तो मैं भी जा सकती हूँ?" शीलू ने उत्साह के साथ कहा।

"चल हट ! तू कोई शादी के लायक थोड़े ही है... पहले बड़ी तो हो जा !" मैंने उसकी बात काटते हुए कहा।

" वैसे उस पूजा में मेरा जाने का बहुत मन है पर तुम दोनों को घर में अकेले छोड़ कर कैसे जा सकती हूँ?"

" किस समय है?" शीलू ने पूछा।

" रात नौ बजे शुरू होगी !"

" और खत्म कब होगी?"

" पता नहीं !"

" ठीक है... तो तुम बाहर से ताला लगाकर चली जाना हम खाना खाकर सो जायेंगे।" शीलू ने स्वाभाविक रूप से समाधान बताया।

" तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?" मैंने चिंता जताई।

" हम अकेले थोड़े ही हैं... और जब बाहर से ताला होगा तो कोई अंदर कैसे आएगा?"

" ठीक है... अगर तुम कहते हो तो मैं चली जाऊंगी।" मैंने उन पर इस निर्णय का भार डालते हुए कहा।

मुझे तसल्ली हुई कि एक समस्या तो टली। अब बस मुझे कल रात की अपेक्षित घटनाओं का डर सता रहा था... ना जाने क्या होने वाला था... महेश और उसके दोस्त मेरे साथ क्या क्या करने वाले हैं... मैं अपने मन में डर, कौतूहल, चिंता और भ्रम की उधेड़बुन में ना जाने कब सो गई...

अगले दिन मैं पूरे समय चिंतित और घबराई हुई सी रही। अपने आप को ज्यादा से ज्यादा काम में व्यस्त करने की चेष्टा में लगी रही पर रह रह कर मुझे आने वाली रात का डर घेरे जा रहा था। शीलू-गुंटू को भी मेरा व्यवहार अजीब लग रहा था पर जैसे-तैसे मैंने उन्हें सिर-दर्द का बहाना बनाकर टाल दिया। रात के आठ बजे मैंने दोनों को खाना दिया और वे स्कूल का काम करने और फिर सोने चले गए। इधर मैंने स्नान करके सादा कपड़े पहने और बलि के बकरे की भांति नौ बजे का इंतज़ार करने लगी।

नौ बजे से कुछ पहले मैंने देखा कि दोनों बच्चे सो गए हैं। मैंने राहत की सांस ली क्योंकि मैं उनके सामने महेश के आदमियों के साथ जाना नहीं चाहती थी। मैंने समय से पहले ही घर को ताला लगाया और बाहर इंतज़ार करने लगी। ठीक नौ बजे महेश के दो आदमी मुझे लेने आ गए। मुझे बाहर तैयार खड़ा देख उन दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा।

" लौंडिया तेज़ है बॉस ! इससे रुका नहीं जा रहा !!" एक ने अभद्र तरीके से हँसते हुए कहा।

" माल अच्छा है... काश मैं भी ज़मींदार का बेटा होता !" दूसरे ने हाथ मलते हुए कहा और मुझे घूरने लगा।

" अबे अपने घोड़े पर काबू रख... बॉस को पता चल गया तो तेरी लुल्ली अपने तोते को खिला देगा... तू बॉस को जानता है ना?"

" जानता हूँ यार... राजा गिद्ध की तरह शिकार पर पहली चौंच वह खुद मारता है... फिर उसके नज़दीकी दोस्त और बाद में हम जैसों के लिए बचा-कुचा माल छोड़ देता है !"

उन्होंने मुझसे कुछ कहे बिना हवेली की तरफ चलना शुरू कर दिया... मैं परछाईं की तरह उनके पीछे पीछे हो ली। उनकी बातें सुनकर मेरा डर और बढ़ गया। थोड़े देर में वे मुझे हवेली के एक गुप्त द्वार से अंदर ले गए और वहां एक अधेड़ उम्र की औरत के हवाले कर दिया।

" इसको जल्दी तैयार कर दो चाची... बॉस इंतज़ार कर रहे हैं !" कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए।

" अंदर जाकर मुँह-हाथ धो ले... कुल्ला कर लेना और नीचे से भी धो लेना... मैं कपड़े लाती हूँ।" चाची ने बिना किसी प्रस्तावना के मुझे निर्देश देते हुए गुसलखाने का दरवाज़ा दिखाया।

" जल्दी कर...!" जब मैं नहीं हिली तो उसने कठोरता से कहा और अलमारी खोलने लगी। अलमारी में तरह तरह के जनाना कपड़े सजे हुए थे। मैं चाची को और कपड़ों को देखती देखती गुसलखाने में चली गई।

वाह... कितना बड़ा गुसलखाना था... बड़े बड़े शीशे, बड़ा सा टब, तरह तरह के नल और शावर, सैंकड़ों तौलिए और हजारों सौंदर्य प्रसाधन। मैं भौंचक्की सी चीज़ें देख रही थी कि चाची की 'जल्दी करती है कि मैं अंदर आऊँ?' की आवाज़ से मैं होश में आई।

मैंने चाची के कहे अनुसार मुंह-हाथ धोए, कुल्ला किया और बाहर आ गई।

चाची ने जैसे ही मुझे देखा हुक्म दे दिया,"सारे कपड़े उतार दे !"

मैं हिचकिचाई तो चाची झल्लाई और बोली,"उफ़ ! यहाँ शरमा रही है और वहाँ नंगा नाचेगी... अब नाटक बंद कर और ये कपड़े पहन ले... जल्दी कर !"

उसने मेरे लिए मेहंदी और हरे रंग का लहरिया घाघरा और हलके पीले रंग की चुस्त चोली निकाली हुई थी। नीचे पहनने के लिए किसी मुलायम कपड़े की बलुआ रंग की ब्रा और चड्डी थी... दोनों ही अत्यंत छोटी थीं और दोनों को बाँधने के लिए डोरियाँ थीं - कोई बटन, हुक या नाड़ा नहीं था। मैंने धीरे धीरे अपने कपड़े उतारने शुरू किये तो चाची आई और जल्दी जल्दी मेरे बदन से कपड़े उखाड़ने लगी। मैंने उसे दूर किया और खुद ही जल्दी से उतारने लगी।

"इनको भी...!" चाची ने मेरी चड्डी और ब्रा की तरफ उंगली उठाते हुए निर्देश दिया।

मैंने उसका हुक्म मानने में ही भलाई समझी और उसके सामने नंगी खड़ी हो गई। चाची ने मेरे पास आकर मेरा निरीक्षण किया... मेरे बाल, मम्मे, बगलें और यहाँ तक कि मेरी टांगें खुलवा कर मेरी योनि और चूतड़ों को पाट कर मेरी गांड भी देखी और सूंघी।

"नीचे नहीं धोया?" उसने मुझे अस्वीकार सा करते हुए कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घसीटती हुई गुसलखाने में ले गई। वहाँ उसने बिना किसी उपक्रम के मुझे एक जगह खड़ा किया, मेरी टांगें खोलीं और हाथ में एक लचीला शावर लेकर मेरे सिर के बाल छोड़कर मुझे पूरी तरह नहला दिया। मेरी योनि और गांड में भी हाथ और उँगलियों से सफाई कर दी। फिर एक साफ़ तौलिया लेकर मुझे झट से पौंछ दिया और करीब दो मिनट के अंदर ये सब करके मुझे बाहर ले आई।

" सब कुछ मुझे ही करना पड़ता है... आजकल की छोरियाँ... बस भगवान बचाए !!" चाची बड़बड़ा रही थी।

" ये पहन ले... जल्दी कर... तुझे लेने आते ही होंगे !" चाची ने मुझे चेताया।

kramashah.....................
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Re: जवानी की दहलीज

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जवानी की दहलीज-11

मैंने वे कपड़े पहन लिए। इतने महँगे कपड़े मैंने पहले नहीं पहने थे... मुलायम कपड़ा, बढ़िया सिलाई, शानदार रंग और बनावट। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

चाची ने मेरे बालों में कंघी की, गजरा लगाया, हाथ, गले और कानों में आभूषण डाले और अंत में एक इत्तर की शीशी खोल कर मेरे कपड़ों पर और कपड़ों के नीचे मेरी गर्दन, कान, स्तन, पेट और योनि के आस-पास इतर लगा दिया। मेरे बदन से जूही की भीनी भीनी सुगंध आने लगी। मुझे दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था... लाज़मी है मेरे साथ सुहागरात मनाई जाएगी। मुझे मेरा कल लिया गया निश्चय याद आ गया और मैं आने वाली हर चुनौती के लिए अपने को तैयार करने लगी। जो होगा सो देखा जायेगा... मुझे महेश को अपना दुश्मन नहीं बनाना था।

दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।

" लो... तुम्हें लेने आ गए..." चाची ने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दरवाज़े तक ले गई और मुझे विधिवत महेश के दूतों के हवाले कर दिया।

मैंने वे कपड़े पहन लिए। इतने महँगे कपड़े मैंने पहले नहीं पहने थे... मुलायम कपड़ा, बढ़िया सिलाई, शानदार रंग और बनावट। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

चाची ने मेरे बालों में कंघी की, गजरा लगाया, हाथ, गले और कानों में आभूषण डाले और अंत में एक इत्तर की शीशी खोल कर मेरे कपड़ों पर और कपड़ों के नीचे मेरी गर्दन, कान, स्तन, पेट और योनि के आस-पास इतर लगा दिया। मेरे बदन से जूही की भीनी भीनी सुगंध आने लगी। मुझे दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था... लाज़मी है मेरे साथ सुहागरात मनाई जाएगी। मुझे मेरा कल लिया गया निश्चय याद आ गया और मैं आने वाली हर चुनौती के लिए अपने को तैयार करने लगी। जो होगा सो देखा जायेगा... मुझे महेश को अपना दुश्मन नहीं बनाना था।

दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।

" लो... तुम्हें लेने आ गए..." चाची ने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दरवाज़े तक ले गई और मुझे विधिवत महेश के दूतों के हवाले कर दिया।

वे मुझे एक सुरंगी रास्ते से ले गए जहाँ एक मोटा, लोहे और लकड़ी का मज़बूत दरवाज़ा था जिस पर दो लठैत मुश्टण्डों का पहरा था। मेरे पहुँचते ही उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया... दरवाज़ा खुलते ही ऊंची आवाजों और संगीत का शोर और चकाचौंध करने वाला उजाला बाहर आ गया। मैंने अकस्मात आँखें मूँद लीं और कान पर हाथ रख लिए पर उन लोगों ने मेरे हाथ नीचे करते हुए मुझे अंदर धकेल दिया और दरवाज़ा बंद कर दिया।

मुझे देखते ही अंदर एक ठहाका सा सुनाई दिया और कुछ आदमियों ने सीटियाँ बजानी शुरू कर दीं... संगीत बंद हो गया और कमरे में शांति हो गई। मैंने अपनी चुन्धयाई हुई आँखें धीरे धीरे खोलीं और देखा कि मैं एक बड़े स्टेज पर खड़ी हूँ जिसे बहुत तेज रोशनी से उजागर किया हुआ था।

कमरा ज्यादा बड़ा नहीं था... करीब 8-10 लोग ही होंगे... एक किनारे में एक बार लगा हुआ था दूसरी तरफ खाने का इंतजाम था। दो-चार अर्ध-नग्न लड़कियाँ मेहमानों की देखभाल में लगी हुईं थीं। लगभग सभी महमान 25-30 साल के मर्द होंगे... पर मुझे एक करीब 60 साल का नेता और करीब 45 साल का थानेदार भी दिखाई दिया, जो अपनी वर्दी में था। सभी के हाथों में शराब थी और लगता था वे एक-दो पेग टिका चुके थे। मैं स्थिति का जायज़ा ले ही रही थी कि महेश ताली बजाता हुआ स्टेज पर आया और मेरे पास खड़े होकर अपने मेहमानों को संबोधित करने लगा...

" चौधरी जी (नेता की तरफ देखते हुए), थानेदार साहब और दोस्तों ! मुझे खुशी है आप सब मेरा जन्मदिन मनाने यहाँ आये। धन्यवाद। हर साल की तरह इस साल भी आपके मनोरंजन का खास प्रबंध किया गया है। आप सब दिल खोल कर मज़ा लूटें पर आपसे विनती है कि इस प्रोग्राम के बारे में किसी को कानो-कान खबर ना हो... वर्ना हमें यह सालाना जश्न मजबूरन बंद करना पड़ेगा।"

लोगों ने सीटी मार के और शोर करके महेश का अभिवादन किया।

" दोस्तो, आज के प्रोग्राम का विशेष आकर्षण पेश करते हुए मुझे खुशी हो रही है... हमारे ही खेत की मूली... ना ना मूली नहीं... गाजर है... जिसे हम प्यार से भोली बुलाते हैं... आज आपका खुल कर मनोरंजन करेगी... भोली का साथ देने के लिए... हमेशा की तरह हमारी चार लड़कियों की टोली... आपके बीच पहले से ही हाज़िर है। तो दोस्तों... मज़े लूटो और मेरी लंबी उम्र की कामना करो !!"

कहते हुए महेश ने तालियाँ बजाना शुरू कीं और सभी लोगों ने सीटियों और तालियों से उसका स्वागत किया।

इस शोरगुल में महेश ने मेरा हाथ कस कर पकड़ कर मेरे कान में अपनी चेतावनी फुसफुसा दी। उसके नशीले लहजे में क्रूरता और शिष्टता का अनुपम मिश्रण था। मुझे अपना कर्तव्य याद दिला कर महेश मेरा हाथ पकड़ कर अपने हर महमान से मिलाने ले गया। सभी मुझे एक कामुक वस्तु की तरह परख रहे थे और अपनी भूखी, ललचाई आँखों से मेरा चीर-हरण सा कर रहे थे।

नेताजी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मेरी पीठ पर हाथ रख दिया और धीरे से सरका कर मेरे नितंब तक ले गए। बाकी लोगों ने भी मेरा हाथ मिलाने के बहाने मेरा हाथ देर तक पकड़े रखा और एक दो ने तो मेरी तरफ देखते हुए मेरी हथेली में अपनी उंगली भी घुमाई। मैं सब सहन करती हुई कृत्रिम मुस्कान के साथ सबका अभिनन्दन करती रही। महेश मेरा व्यवहार देख कर खुश लग रहा था। वैसे भी मैं सभी को बहुत सुन्दर दिख रही थी।

सब मेहमानों से मुलाक़ात के बाद महेश ने मुझे वहाँ मौजूद चारों लड़कियों से मिलवाया... उन सबके चेहरों पर वही दर्दभरी औपचारिक मुस्कान थी जिसे हम लड़कियाँ समझ सकती थीं। अब महेश ने एक लड़की को इशारा किया और उसने मुझे स्टेज पर लाकर छोड़ दिया।

महेश ने एक बार फिर अपने दोस्तों का आह्वान किया," दोस्तो ! अब प्रोग्राम शुरू होता है... आपके सामने भोली स्टेज पर है ... उसने कपड़े और गहने मिलाकर कुल 9 चीज़ें पहनी हुई हैं... अब म्यूज़िक के बजने से भोली स्टेज पर नाचना शुरू करेगी... म्यूज़िक बंद होने पर उन 9 चीज़ों में से कोई एक चीज़, तरतीबवार, कोई एक मेहमान उसके बदन से उतारेगा... फिर म्यूज़िक शुरू होने पर उसका नाचना जारी रहेगा। अगर भोली कुछ उतारने में आनाकानी करती है तो आप अपनी मन-मर्ज़ी से ज़बरदस्ती कर सकते हैं। म्यूज़िक 9 बार रुकेगा... उसके बाद कोई भी स्टेज पर जाकर भोली के साथ नाच सकता है..."

महेश का सन्देश सुनकर उसके दोस्तों ने हर्षोल्लास किया और तालियाँ बजाईं।

मैं सकपकाई सी खड़ी रही और महेश के इशारे से गाना बजना शुरू हो गया... "मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए... " कमरे में गूंजने लगा।

महेश ने मेरी तरफ देखा और मैंने इधर-उधर हाथ-पैर चलाने शुरू कर दिए... मुझे ठीक से नाचना नहीं आता था... पर वहाँ कौन मेरा नाच देखने आया था।

कुछ ही देर में गाना रुका और महेश के एक साथी ने एक पर्ची खोलते हुए ऐलान किया " गजरा... भीमा "

महेश के दोस्तों में से भीमा झट से स्टेज पर आया और मेरे बालों से गजरा निकाल दिया और मेरी तरफ आँख मार कर वापस चला गया।

म्यूज़िक फिर से बजने लगा और कुछ ही सेकंड में रुक गया...

"कान की बालियाँ... अशोक !"

अशोक जल्दी से आया और मेरे कान की बालियाँ उतारने लगा... उसकी कोहनियाँ जानबूझ कर मेरे स्तनों को छू रही थीं... उसने भी आँख मारी और चला गया।

अगली बार जब गाना रुका तो किसी ने मुझे इधर-उधर छूते हुए मेरे हाथ से चूड़ियाँ उतार दीं... जाते जाते मेरे गाल पर पप्पी करता गया।
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Re: जवानी की दहलीज

Post by 007 »

गाना कुछ देर बजता और ज्यादा देर रुकता क्योंकि लोगों को गाने से ज्यादा मेरा वस्त्र-हरण मज़ा दे रहा था। गहनों के बाद क्रमशः मेरा दुपट्टा उतारा गया। अब तक 5 बार गाना रोका जा चुका था !

माहौल गरमा रहा था और धीरे धीरे हर आने वाला मेरे साथ निरंतर बढ़ती आज़ादी लेने लगा था... मैं घाघरा-चोली में नाच रही थी कि संगीत थमा और " चोली... थानेदार साब " का उदघोष हुआ।

थानेदार साब ने अपनी गोदी से एक लड़की को उतारा, शराब का ग्लास मेज़ पर रखा और शराब से ज्यादा अपने ओहदे से उन्मत्त, झूमते हुए स्टेज पर आ गए।

" वाह भोली... क्या लग रही हो !!" मुझे आलिंगनबद्ध करते हुए कहने लगे और फिर पीछे हट कर मुझे गौर से निहारने लगे।

" भाइयो ! देखते हैं कि चोली के पीछे क्या है !!" उन्होंने मेरे वक्ष-स्थल पर हाथ रखते हुए कहा।

मर्दों के अभद्र शोर और सीटियों ने थानेदार साब का हौसला बढ़ाया और उन्होंने ने मेरे मम्मों को हलके से मसलते हुए मेरी चोली को खोलना शुरू किया। कमरे में शोर ऊंचा हो गया और लोग तरह तरह की फब्तियां कसने लगे... थानेदार साब ने मेरी पीठ और पेट पर हाथ फिराते हुए मेरी चोली खोल दी और उसको सूंघने के बाद हाथ ऊपर करके आसमान में घुमाने लगे... और फिर उसे स्टेज के नीचे मर्दों के झुण्ड में फ़ेंक दिया।

लोगों ने ऊपर उचक उचक कर उसे लूटने की होड़ लगाईं और जिस के हाथ वह चोली आई उसने उसे चूमते हुए अपने सीने और लिंग पर रगड़ा और अपनी जेब में ठूंस लिया।

म्यूज़िक फिर शुरू हो गया और लोग उसके रुकने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे। आखिर स्टेज गरम हो गया था... शराब, दौलत, संगीत और पर-स्त्री के चीर-हरण से मर्दों की मदहोशी बुलंदी पर पहुँच रही थी। आखिर संगीत रुका और "चौधरी साब... घाघरा" की घोषणा से कमरा गूँज गया।

60 वर्षीय चौधरी साब महेश की बगल से उठे और दो लड़कियों के हाथ के सहारे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए स्टेज पर आ गए। मैंने अकस्मात झुक कर उनके पांव छू लिए... आखिर वे मेरे पिताजी से भी ज्यादा उम्र के थे... वे तनिक ठिठके और फिर मुझे झुक कर उठाने लगे... उठाते वक्त उन्होंने मुझे मेरी कमर से पकड़ा और जैसे जैसे मैं खड़ी होती गई उनके फैले हुए हाथ मेरी कमर से रेंगते हुए मेरी बगल, पेट-पीठ को सहलाते हुए मेरे गालों पर आकर रुक गए। मेरा माथा चूमते हुए मुझे गले लगा लिया और "तुम्हारी जगह मेरे पैरों में नहीं... मेरी गोदी में है !" कहकर अपना राक्षसी रूप दिखा दिया।

मुझे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी... पर मैं भी कितनी भोली थी... अगर नेताजी ऐसे नहीं होते तो यहाँ क्यों आते? फिर उन्होंने मेरी एक परिक्रमा करके मेरा मुआयना किया... उनकी नज़रें पतली सी ब्रा में क़ैद मेरे खरबूजों पर रुकीं और उनकी आँखें चमक उठीं।

" भई महेश... तुम्हारा भी जवाब नहीं ... क्या चीज़ लाये हो !" फिर वे घाघरे का नाड़ा ढूँढने के बहाने मेरे पेट पर हाथ फिराने लगे और अपनी उँगलियाँ पेट और घाघरे के बीच घुसा दीं।

स्टेज के नीचे हुड़दंग होने लगा... लोग बेताब हो रहे थे... पर नेताजी को कोई जल्दी नहीं थी। बड़ी तसल्ली से मुझे हर जगह छूने के बाद उन्होंने घाघरे का नाड़ा खोल ही दिया और उसको पैरों की तरफ गिराने की बजाय मेरे हाथ ऊपर करवा कर मेरे सिर के ऊपर से ऐसे निकला जिससे उन्हें मेरे स्तनों को छूने और दबाने का अच्छा अवसर मिले। लोग उत्तेजित हो रहे थे... उनकी भाषा और इशारे धीरे धीरे अश्लील होते जा रहे थे।

मैं ब्रा और चड्डी में खड़ी थी... नेताजी ने घाघरे को भी चोली की तरह घुमा कर स्टेज के नीचे फ़ेंक दिया और किसी किस्मत वाले ने उसे लूट लिया। नेताजी के वापस जाने से गाना फिर शुरू हो गया... मैं ब्रा-चड्डी में नाचने लगी... लोगों की सीटियाँ तेज़ हो गईं !

जल्दी ही संगीत रुका और जैसा मेरा अनुमान था "ब्रा और चड्डी... महेश जी" सुनकर लोगों ने खुशी से महेश का स्वागत किया। सभी उत्सुक थे और महेश को जल्दी जल्दी स्टेज पर जाने को उकसा रहे थे। वे मुझे पूरी तरह निर्वस्त्र देखने के लिए कौरवों से भी ज्यादा आतुर हो रहे थे।

अब मुझे अपनी अवस्था पर अचरज होने लगा था। मैं इतने सारे पराये मर्दों के सामने पूरी नंगी होने जा रही थी पर मेरे दिल-ओ-दिमाग पर कोई झिझक या शर्म नहीं थी। कदाचित स्टेज पर आने से लेकर अब तक मुझे इतनी बार जलील किया गया था कि मैं अपने आप को उनके सामने पहले से ही नंगी समझ रही थी... अब तो फक़त आखिरी कपड़े हटाने की देर थी। जैसे किसी बूचड़खाने में देर तक रहने से वहां की बू आनी बंद हो जाती है, मेरा अंतर्मन भी नग्नता की लज्जा से मुक्त सा हो गया था। अब कुछ बचा नहीं था जिसे मैं छुपाना चाहूँ...

मैं विमूढ़ सी वहां खड़ी खड़ी उन भेड़ीये स्वरूपी आदमियों का असली रूप भांप रही थी। कुछ ही समय में, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच, आज रात का हीरो और इन कुटिल गिद्धों का राजा-गिद्ध स्टेज पर एक विजयी और बहादुर योद्धा की तरह आ गया।

उसने स्टेज पर से अपने सभी दोस्तों का अभिवादन किया अपने हाथों से उन्हें धीरज रखने का संकेत किया। कुछ लोग शांत हुए तो कुछ और भी चिल्लाने लगे !

मदहोशी सर चढ़कर बोल रही थी..." थैंक यू... थैंक यू... तो क्या तुम सब तैयार हो?" महेश ने अब तक का सबसे व्यर्थ सवाल पूछा। सबने सर्वसम्मत आवाज़ से स्वीकृति और तत्परता का इज़हार किया।

अचानक उसके दोस्तों ने उसका नाम लेकर चिल्लाना शुरू किया " म... हेश... म... हेश... म... हेश..." मानो वह कोई बहुत बहादुरी का काम करने जा रहा था और उसे उनके प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। महेश मेरे पास आया और अब तक के मेरे व्यवहार और सहयोग के लिए मुझे आँखों ही आँखों में प्रशंसा दर्शाई।

मुझे इस अवस्था में भी उसका अनुमोदन अच्छा लगा। फिर उसने अपनी तर्जनी उंगली मेरी पीठ पर रख कर इधर-उधर चलाया जैसे कि कोई शब्द लिख रहा हो... फिर वही उंगली चलता हुआ वह सामने आ गया और मेरे पेट और ब्रा के ऊपर अपने हस्ताक्षर से करने लगा। सच कहूँ तो मुझे गुदगुदी होने लगी थी और मुझे उसका यह खेल उत्सुक कर रहा था।फिर उसने अपनी उंगली हटाई और अपने होठों से मुझे जगह जगह चूमने लगा... नाभि से शुरू होते हुए पेट और फिर ब्रा में छुपे स्तनों को चूमने के बाद उसने मेरी गर्दन और होठों को चूमा और फिर घूम कर मेरी पीठ पर वृत्ताकार में पप्पियाँ देने लगा... उसकी जीभ रह रह कर किसी सर्प की भांति, बाहर आ कर मुझे छू कर लोप हो रही थी।

मैं गुदगुदी से कसमसाने लगी थी...

उधर लोगों का शोर बढ़ने लगा था। फिर उसने अचानक अपने दांतों में मेरी ब्रा की डोरी पकड़ ली और उसे धीरे धीरे खींचने लगा। जब मैं उसके खींचने के कारण उसकी तरफ आने लगी तो उसने मुझे अपने हाथों से थाम दिया। आखिर डोरी खुल गई और आगे से मेरी ब्रा नीचे को ढलक गई... मेरे हाथ स्वभावतः अपने स्तनों को ढकने के लिए उठ गए तो लोगों का जोर से प्रतिरोध में शोर हुआ। मैंने अपने हाथ नीचे कर लिए और मेरे खुशहाल मम्मे उन भूखे दरिंदों के सामने पहली बार प्रदर्शित हो गए। कमरे में एक ऐसी गूँज हुई मानो जीत के लिए किसी ने आखिरी गेंद पर छक्का जमा दिया हो !

मुझे यह जान कर स्वाभिमान हुआ कि मेरा शरीर इन लोगों को सुन्दर और मादक लग रहा था। इतने में महेश सामने आ गया और मुंह में ब्रा लिए लिए मेरे चेहरे और छाती पर अपना मुँह रगड़ने लगा। ऐसा करते करते न जाने कब उसने मुँह से ब्रा गिरा दी और मेरे स्तनों को चूमने-चाटने लगा। बाकी मर्दों पर इसका खूब प्रभाव पड़ रहा था और वे झूम रहे थे और ना जाने क्या क्या कह रहे थे।

मेरे वक्ष को सींचने के बाद महेश का मुँह मेरे पेट से होता हुआ नाभि और फिर उसके भी नीचे, चड्डी से सुरक्षित, मेरे योनि-टीले पर पहुँच गया। दरिंदों ने एक बार और अठ्ठहास लगा कर महेश का जयकारा किया। महेश मज़े ले रहा था और उसे अपने चेले-दोस्तों का चापलूसी-युक्त व्यवहार अच्छा लग रहा था। नेताजी, थानेदार साब, भीमा और अशोक एक एक लड़की के साथ चुम्मा-चाटी में लगे हुए थे तो कुछ बेशर्मी से पैन्ट के बाहर से ही अपना लिंग मसल रहे थे।

महेश ने मेरी नाभि में जीभ गड़ा कर गोल-गोल घुमाई और फिर चड्डी के ऊपर से मेरी योनि-फांक को चीरते हुए ऊपर से नीचे चला दी। मैं उचक सी गई... गुदगुदी तीव्र थी और शायद आनन्ददायक भी। मुझे डर था कहीं मेरी योनि गीली ना हो जाये।

महेश के करतब जारी रहे। एक निपुण चोद्दा (जो चोदने में माहिर हो) की तरह उसे स्त्री के हर अंग का अच्छा ज्ञान था... कहाँ दबाव कम तो कहाँ ज्यादा देना है... कहाँ काटना है और कहाँ पोला स्पर्श करना है... वह अपने मुँह से मेरे बदन की बांसुरी बजा रहा था... और इस बार तो दर्शकों के साथ मुझे भी आनन्द आ रहा था।

एकाएक उसने मेरी चड्डी के बाईं तरफ की डोरी मुँह से पकड़ कर खींच दी और झट से दाहिनी ओर आकर वहां की डोरी मुँह में पकड़ ली। बाईं तरफ से चड्डी गिर गई और उस दिशा से मैं नंगी दिखने लगी थी। स्टेज के नीचे भगधड़ सी मची और जो लोग गलत जगह खड़े थे दौड़ कर स्टेज के नजदीक आ गए। सभी मेरी योनि के दर्शन करना चाहते थे ... स्टेज के नीचे से ऊओऊह... वाह वाह... आहा... सीटियों और तालियों की आवाजें आने लगीं। तभी महेश ने दाहिनी डोर भी खींच दी और मेरा आखरी वस्त्र मेरे तन से हर लिया गया।

मैं पूर्णतया निर्वस्त्र स्टेज पर खड़ी थी... महेश ने एक हीरो की तरह स्टेज पर अपनी मर्दानगी की वाहवाही और शाबाशी स्वीकार की और स्टेज से नीचे आ गया।

उसके नीचे जाते ही म्यूज़िक फिर से बजने लगा और धीरे धीरे लोग स्टेज पर नाचने के लिए आने लगे। वे उन चारों लड़कियों को भी स्टेज पर ले आये और कुछ ने मिलकर उनका भी वस्त्र-हरण कर दिया। अब हम पांच नंगी लड़कियां उन 8-10 मर्दों के बीच फँसी हुई थीं। वे बिना किसी हिचक के किसी भी लड़की को कहीं भी छू रहे थे। बस महेश, नेताजी और थानेदार साब स्टेज पर नहीं आये थे।

kramashah.....................

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Re: जवानी की दहलीज

Post by 007 »

जवानी की दहलीज-12

अब लोग अपने ग्लास से लड़कियों को ज़बरदस्ती शराब पिलाने की कोशिश कर रहे थे... कुछ पी रही थीं तो कुछ को जबरन पिलाया जा रहा था। मेरा भी दो लड़कों ने मुँह पकड़कर खोल दिया और उसमें शराब डाल दी। मेरी खांसी निकल गई और कुछ शराब मैंने उगल दी तो कुछ हलक से नीचे उतर गई।

हम लड़कियों के शरीर पर दर्जनों हाथ रेंग रहे थे... कोई दबा रहा था तो कोई च्यूंटी काट रहा था... कोई इधर उधर चूम रहा था। अचानक, हमारे ऊपर पानी की बौछार शुरू हो गई... मैंने अचरज में ऊपर देखा तो पता चला कि पूरे स्टेज के ऊपर बड़े बड़े शावर लगे हुए हैं जिनमें से पानी बरस रहा था। स्टेज पर पानी के बहने का पूरा प्रबंध था जिससे सारा पानी नालियों द्वारा बाहर जा रहा था। मैं इस प्रबंध से प्रभावित हुई...

अचानक गीले होने से आदमियों में हडकंप मचा और कुछ स्टेज से भाग गए... कुछ जिंदादिल लोग गीले होने का मज़ा उठाने लगे। उनमें से एक ने अपने कपड़े उतारने शुरू किये और देखते ही देखते वह सिर्फ चड्डी में नाच रहा था। उसकी देखा-देखी कुछ और लोग भी नंगे होने लगे। नंगी लड़कियों के साथ बारिश का मज़ा बहुत कम लोगों को नसीब होता है... लड़कियाँ भी अब मस्त सी होने लगी थीं... शायद नशा चढ़ने लगा था।

धीरे धीरे स्टेज पर से रौशनी धीमी होने लगी और फिर बंद हो गई... कमरे की बाकी बत्तियाँ भी धीरे धीरे मद्धम होने लगीं। अब तो बस बारिश, नंगी लड़कियां और मदहोश अर्ध-नंगे पुरुष स्टेज पर थे। रौशनी कम होने से सब का लज्जा-भाव भी गुल हो गया था... व्यभिचार के तांडव के लिए प्रबंध पूरे लग रहे थे।

धीरे धीरे लोग नाचने के बजाय लड़कियों को लेकर नीचे बैठने लगे... हर लड़की के साथ कम से कम दो मर्द तो थे ही। मैंने महसूस किया कि दो मर्दों ने मुझे पकड़ा... एक ने मेरे मुँह पर हाथ रख लिया जिससे में चिल्ला ना सकूँ और अँधेरे का फ़ायदा उठाते हुए दोनों मुझे घसीट कर स्टेज के पीछे एक कमरे में ले गए... मैंने देखा वहां ऐसे कई कमरे थे। अंदर ले जा कर उन्होंने कमरा अंदर से बंद कर लिया। मैंने देखा उनमें से एक भीमा था जिसने मेरा गजरा उतारा था और दूसरा अशोक था जिसने मेरे कान की बालियाँ उतारीं थीं। कमरे में मैंने देखा एक बड़ा बिस्तर है और पास ही एक खुला गुसलखाना है। उन दोनों ने मुझे बिस्तर पर गिरा दिया और वहां रखे तौलियों से अपने आप को पौंछने और खुसुर-पुसुर करने लगे।

" मुझसे गजरा निकलवाया और खुद ब्रा और चड्डी उतारता है !" भीमा ने गुस्से में कहा।

" साला हर बार हमें बचा-कुचा ही खाने को मिलता है।" अशोक बोला।

" सबसे बढ़िया माल पहले खुद चोदेगा और बाद में हमारे लिए छोड़ देगा... जैसे हम उसके गुलाम हैं !!"

" आज इस साली को पहले हम चोदेंगे... जो होगा सो देखा जायेगा !" अशोक ने निर्णय लिया।

" अगर महेश ने पकड़ लिया तो?" भीमा ने चिंता जताई।

" अबे हम कोई उसके नौकर थोड़े ही हैं... हमें दोस्त कहता है... साला खुद तो मरियल है... हमारे बल-बूते पर अपना राज चलाता है ... अगर उसका बाप यहाँ का चौधरी नहीं होता तो साले को मैं अभी देख लेता !"

मैं उनकी बातें सुनकर डर गई।

अब तक अशोक बिल्कुल नंगा हो गया था और भीमा ने कमीज़ उतार दी थी। दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर मुझे। उन्होंने फिर से एक दूसरे की तरफ देखा और कोई इशारा किया... यौन के मिलेजुले आवेश से उसका लिंग एक दम तना हुआ था। वह बिना किसी भूमिका के अपना लंड मेरी चूत में डालने की कोशिश करने लगा। मैं अपने आप को इधर-उधर हिला रही थी... उसने मेरे चूतड़ की बगल में एक ज़ोरदार चांटा मारा जिससे पूरा कमरा गूँज गया... मेरे मुँह से आह निकल गई।

" साली नखरे करती है...” कहते हुए उसने चूतड़ पर चपत लगानी जारी रखी और अपने दांतों से मेरे चूचक काटने लगा। लगातार चूतड़ पर एक ही जगह जोर से चपत लगने से मेरा वह हिस्सा लाल और संवेदनशील हो गया और उसके दांत मेरे कोमल स्तन और चूचियों को काट रहे थे। मेरी चीखें निकलने लगीं...

" अबे भीमा... साले क्या कर रहा है... यहाँ आ?" अशोक ने भीमा की मदद सी मांगी।

भीमा उठा और पहले उसने अपनी पैंट और चड्डी उतारी और फिर अशोक को उकसाता हुआ बोला " क्यों तुझसे नहीं संभल रही... साले मर्द का बच्चा नहीं है क्या?" और उसने मेरी दोनों टाँगें पकड़ लीं और उन्हें एक ही झटके में पूरी चौड़ी कर दीं। इतनी बेरहमी से उसने मेरी टांगें फैलाईं थीं कि मुझे लगा शायद चिर ही गई होंगी।

अशोक को बस इतनी ही मदद की ज़रूरत थी उसने मेरी सूखी चूत पर अपने उफनते नाग से हमला कर दिया। सूखी चूत से उसके लंड को भी तकलीफ हुई और उसने मेरी योनि-द्वार पर अपना थूक गिरा कर उसे गीला कर दिया। अब उसने लंड के सुपारे से मेरा चूत-छेद ढूंढा और उसे वहां टिका कर एक जोर का धक्का मार दिया। मेरी चूत लगभग कुंवारी ही थी और उसपर इस प्रकार का निर्दयी प्रहार पहले कभी नहीं हुआ था। बेचारी दर्द िसे कुलबुला गई और मैं तड़प के चिल्ला उठी। लंड करीब एक इंच ही अंदर गया होगा पर मेरी दुनिया मानो हिल सी गई थी।

भीमा मेरी टाँगें सख्ती से पकड़े हुआ था... मैं उन दो मर्दों की जकड़ में हिल-डुल भी नहीं पा रही थी। मेरा दम घुट रहा था पर मेरी अवस्था और मासूम चूत उन्हें और भी जोश दिला रही थी... अशोक ने लंड थोड़ा बाहर निकाला और एक बार फिर जोर से अंदर ठूंसने का वार किया। दर्द से मेरी फिर से चीख निकली और उसका लंड करीब तीन-चौथाई अंदर घुस गया। यह सब देखकर भीमा का लंड भी तन्ना रहा था... वह अपनी बारी के लिए बेचैन लग रहा था। अशोक ने लंड थोड़ा पीछे खींच कर एक बार और पूरे जोर से अंदर पेल दिया और मेरी एक और चीख के साथ उसके लंड का मूठ मेरी चूत की फांकों के साथ टकरा गया। उसकी इस फतह के साथ ही अशोक ने मेरी चुदाई शुरू की। मेरी चूत पर विजय पाने के बाद वह अपनी जीत का मज़ा ले रहा था... जोर जोर से चोद रहा था।

" यार कुछ भी कह ले... लड़की को चोदने का मज़ा तभी ज्यादा आता है जब वह चोदने में आनाकानी करे !" अशोक भीमा को बोला।

" अबे... सारे मज़े तू ही लेगा या मुझे भी लेने देगा..." भीमा बेताब हो रहा था और अपने लंड को सहला रहा था... मानो उसे धीरज धरने को कह रहा हो।

" तू किस का इंतज़ार कर रहा... तू भी शुरू हो जा !" अशोक ने सुझाव दिया।

" मतलब?"

" मतलब क्या... क्या तूने कभी गांड नहीं मारी? जिसकी चूत इतनी टाईट है उसकी गांड कितनी टाईट होगी साले !!"

" वाह ! क्या मज़े की बात कही है !" भीमा के मुँह से लार सी टपकने लगी।

भीमा उत्साह से बोला और फिर अशोक को मेरे ऊपर से पलट कर मुझे ऊपर और उसको नीचे करने का प्रयास करने लगा। अशोक ने उसका सहयोग किया और मेरी चुदाई रोक कर मेरी जगह पीठ पर लेट गया और मुझे अपनी तरफ मुँह करके अपने ऊपर लिटा लिया... मेरे मम्मे उसके सीने को लग रहे थे। तभी झट से भीमा पीछे से मेरे ऊपर आ गया और अपना लंड हाथ में पकड़ कर मेरी गांड पर लगाने लगा।

" अबे रुक... थोड़ा सब्र कर... पहले मेरा लंड तो इसकी चूत में घुस जाने दे..." अशोक ने भीमा को नसीहत दी। भीमा पीछे हट गया। अब अशोक फिर से मेरी चूत में अपना लंड घुसाड़ने के प्रयास में लगा गया। मेरी तरफ से कोई सहयोग नहीं होने से दोनों ने मेरे चूतड़ों पर एक एक जोर का तमाचा लगा दिया जिससे मेरे पहले से नाज़ुक चूतड़ तिलमिला उठे। मैंने अपने कूल्हे उठा कर अशोक के लंड के लिए जगह बनाईं पर उसका मुसमुसाया लंड चूत में नहीं घुस पा रहा था। अशोक ने मेरे कन्धों पर नीचे की ओर धक्का देते हुए मुझे नीचे खिसका दिया और अपने अधमरे लंड को मेरे मुँह में डालने लगा।

" चूस साली... !!" और मेरे चूतड़ पर एक ओर तमाचा रसीद कर दिया।मुझे उसके लंड को मुँह में लेना ही पड़ा। पता नहीं मर्दों को लंड चुसवाने से ज्यादा जोश आता है या फिर लड़की के चूतड़ पर मारने से... पर अशोक का लंड कुछ ही देर में चूत-प्रवेश लायक कड़क हो गया। उसने मुझे ऊपर के ओर खींचा और बिना विलम्ब के लंड अंदर डाल दिया... एक दो धक्कों के बाद उसने मूठ तक लंड अंदर ठोक दिया।

" ओके... अब मैं तैयार हूँ।" अशोक ने भीमा को ऐसे कहा मानो भीमा उसकी गांड मारने जा रहा था। मुझसे किसी ने नहीं पूछा...

भीमा अपने लंड को कड़क रखने के लिए सहलाए जा रहा था पर मेरी गांड मारने की उत्सुकता में उसे ऐसा करने की ज़रूरत नहीं थी। उसने मेरे पीछे आ कर स्थिति का मुआइना किया। मैं अशोक पर औंधी पड़ी थी... उसकी टांगें घुटनों से मुड़ी हुई मेरी कमर के दोनों तरफ थीं और हम बिस्तर के बीचों-बीच थे। ऐसी हालत में भीमा मेरी गांड नहीं मार सकता था।

" तुझे नीचा होना पड़ेगा... बिस्तर के किनारे पर..." भीमा ने अशोक को बताया और फिर उसकी दोनों टांगें पकड़ कर उसे बिस्तर के किनारे की तरफ खींचने लगा। मैं उससे ठुसी हुई उसके साथ साथ नीचे की ओर खिंचने लगी। भीमा ने अशोक के पैर बिस्तर के किनारे ला कर नीचे लटका दिए जिससे उसके पैर ज़मीन पर टिक गए... मेरे पैर भी ज़मीन से थोड़ी ऊपर लटक गए। अशोक के चूतड़ बिस्तर के किनारे पर थे। भीमा ने अब अशोक के चूतड़ के नीचे तकिये लगा कर हम दोनों को थोड़ा ऊंचा कर दिया। अब भीमा संतुष्ट हुआ क्योंकि उसने मेरी गांड की ऊंचाई ऐसे कर दी थी कि खड़े-खड़े उसका लंड मेरी गांड के छेद पर आराम से पहुँच रहा था। उसने झुक कर मेरी टांगें पूरी चौड़ी कर दीं। मैंने विरोध में अपनी टांगें जोड़नी चाहीं तो उसने एक जोर का चांटा मेरे कूल्हों और पीठ पर मारा और झटके के साथ मेरी टांगें फिर से खोल दीं।

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