संघर्ष

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rajaarkey
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संघर्ष

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संघर्ष --1

सावित्री एक 18 साल की गाओं की लड़की है जिसका बाप बहुत पहले ही मर चुका था और एक मा और एक छोटा भाई घर मे था. ग़रीबी के चलते मा दूसरों के घरों मे बर्तन झाड़ू करती और किसी तरह से अपना और बचों का पेट भर लेती. आख़िर ग़रीबी तो सबसे बड़ा पाप है,,, यही उसके मन मे आता और कभी -2 बड़बड़ाती .. गाओं का माहौल भी कोई बहुत अच्छा नही था और इसी के चलते सावित्री बेटी की पड़ाई केवल आठवीं दर्ज़े तक हो सकी. अवारों और गुन्दो की कमी नहीं थी. बस इज़्ज़त बची रहे एसी बात की चिंता सावित्री की मा सीता को सताती थी. क्योंकि सीता जो 38 साल की हो चुकी थी करीब दस साल पहले ही विधवा हो चुकी थी..... ज़िम्मेदारियाँ और परेशानियो के बीच किसी तरह जीवन की गाड़ी चलती रहे यही रात दिन सोचती और अपने तकदीर को कोस्ती. सावित्री के सयाने होने से ये मुश्किले और बढ़ती लग रही थी क्योंकि उसका छोटा एक ही बेटा केवल बारह साल का ही था क्या करता कैसे कमाता... केवल सीता को ही सब कुछ करना पड़ता. गाओं मे औरतों का जीवन काफ़ी डरावना होता जा रहा था क्योंकि आए दिन कोई ना कोई शरारत और छेड़ छाड़ हो जाता.. एसी लिए तो सावित्री को आठवीं के बाद आगे पढ़ाना मुनासिब नहीं समझा. सीता जो कुछ करती काफ़ी सोच समझ कर.. लोग बहुत गंदे हो गये हैं " यही उसके मन मे आता. कभी सोचती आख़िर क्यों लोग इतने गंदे और खराब होते जा रहें है.. एक शराब की दुकान भी गाओं के नुक्कड़ पर खुल कर तो आग मे घी का काम कर रही है. क्या लड़के क्या बूढ़े सब के सब दारू पी कर मस्त हो जाते हैं और गंदी गलियाँ और अश्लील हरकत लड़ाई झगड़ा सब कुछ शुरू हो जाता.. वैसे भी दारू की दुकान अवारों का बहुत बढ़ियाँ अड्डा हो गया था. रोज़ कोई ना कोई नयी बात हो ही जाती बस देर इसी बात की रहती कि दारू किसी तरह गले के नीचे उतर जाए...फिर क्या कहना गालिया और गंदी बातों का सिलसिला शुरू होता की ख़त्म होने का नाम ही नही लेता . चार साल पहले सावित्री ने आठवीं दर्ज़े के बाद स्कूल छोड़ दिया .. वो भी मा के कहने पर क्योंकि गाओं मे आवारा और गुन्दो की नज़र सावित्री के उपर पड़ने का डर था. ए भी बात बहुत हद तक सही थी. ऐसा कुछ नही था कि सीता अपने लड़की को पढ़ाना नहीं चाहती पर क्या करे डर इस बात का था कि कहीं कोई उनहोनी हो ना जाए. चार साल हो गये तबसे सावित्री केवल घर का काम करती और इधेर उधेर नही जाती. कुछ औरतों ने सीता को सलाह भी दिया कि सावित्री को भी कहीं किसी के घर झाड़ू बर्तन के काम पे लगा दे पर सीता दुनिया के सच्चाई से भली भाँति वाकिफ़ थी. वह खुद दूसरों के यहाँ काम करती तो मर्दो के रुख़ से परिचित थी.. ये बात उसके बेटी सावित्री के साथ हो यह उसे पसंद नहीं थी. मुहल्ले की कुछ औरतें कभी पीठ पीछे ताने भी मारती " राजकुमारी बना के रखी है लगता है कभी बाहर की दुनिया ही नही देखेगी...बस इसी की एक लड़की है और किसी की तो लड़की ही नहीं है.." धन्नो जो 44 वर्ष की पड़ोस मे रहने वाली तपाक से बोल देती.. धन्नो चाची कुछ मूहफट किस्म की औरत थी और सीता के करीब ही रहने के वजह से सबकुछ जानती भी थी. अट्ठारह साल होते होते सावित्री का शरीर काफ़ी बदल चुका था , वह अब एक जवान लड़की थी, माहवारी तो 15 वर्ष की थी तभी से आना शुरू हो गया था. वह भी शरीर और मर्द के बारे मे अपने सहेलिओं और पड़ोसिओं से काफ़ी कुछ जान चुकी थी. वैसे भी जिस गाँव का माहौल इतना गंदा हो और जिस मुहल्ले मे रोज झगड़े होते हों तो बच्चे और लड़कियाँ तो गालिओं से बहुत कुछ समझने लगते हैं. धन्नो चाची के बारे मे भी सावित्री की कुछ सहेलियाँ बताती हैं को वो कई लोगो से फासी है. वैसे धन्नो चाची की बातें सावित्री को भी बड़ा मज़ेदार लगता. वो मौका मिलते ही सुनना चाहती. धन्नो चाची किसी से भी नही डरती और आए दिन किसी ना किसी से लड़ाई कर लेती. एक दिन सावित्री को देख बोल ही पड़ी " क्या रे तेरे को तो तेरी मा ने क़ैद कर के रख दिया है. थोड़ा बाहर भी निकल के देख, घर मे पड़े पड़े तेरा दीमाग सुस्त हो जाएगा; मा से क्यो इतना डरती है " सावित्री ने अपने शर्मीले स्वभाव के चलते कुछ जबाब देने के बजाय चुप रह एक हल्की मुस्कुराहट और सर झुका लेना ही सही समझा. वह अपने मा को बहुत मानती और मा भी अपनी ज़िम्मेदारीओं को पूरी तरीके से निर्वहन करती. वाश्तव मे सावित्री का चरित्र मा सीता के ही वजह से एस गंदे माहौल मे भी सुरच्छित था. सावित्री एक सामानया कद काठी की शरीर से भरी पूरी मांसल नितंबो और भारी भारी छातियो और काले घने बाल रंग गेहुआन और चहेरे पर कुछ मुहाँसे थे. दिखने मे गदराई जवान लड़की लगती. सोलह साल मे शरीर के उन अंगो पर जहाँ रोएँ उगे थे अब वहाँ काफ़ी काले बात उग आए थे. सावित्री का शरीर सामान्य कद 5'2 '' का लेकिन चौड़ा और मांसल होने के वजह से चूतड़ काफ़ी बड़ा बड़ा लगता था. एक दम अपनी मा सीता की तरह. घर पर पहले तो फ्रॉक पहनती लेकिन जबसे जंघे मांसल और जवानी चढ़ने लगी मा ने सलवार समीज़ ला कर दे दिया. दुपट्टा के हटने पर सावित्री के दोनो चुचियाँ काफ़ी गोल गोल और कसे कसे दिखते जो पड़ोसिओं के मूह मे पानी लाने के लिए काफ़ी था ये बात सच थी की इन अनारों को अभी तक किसी ने हाथ नही लगाया था. लेकिन खिली जवानी कब तक छुपी रहेगी , शरीर के पूरे विकास के बाद अब सावित्री के मन का भी विकास होने लगा. जहाँ मा का आदेश की घर के बाहर ना जाना और इधेर उधर ना घूमना सही लगता वहीं धन्नो चाची की बात की घर मे पड़े पड़े दीमाग सुस्त हो जाएगा " कुछ ज़्यादा सही लगने लगा. फिर भी वो अपने मा की बातों पर ज़्यादा गौर करती सीता के मन मे सावित्री के शादी की बात आने लगी और अपने कुछ रिश्तेदारों से चर्चा भी करती, आख़िर एस ग़रीबी मैं कैसे लड़की की शादी हो पाएगी. जो भी कमाई मज़दूरी करने से होती वह खाने और पहनने मैं ही ख़त्म हो जाता. सीता को तो नीद ही नही आती चिंता के मारे इधेर छोटे लड़के कालू की भी पढ़ाई करानी थी रिश्तेदारों से कोई आशा की किरण ना मिलने से सीता और परेशान रहने लगी रात दिन यही सोचती कि आख़िर कौन है जो मदद कर सकता है सीता कुछ क़र्ज़ लेने के बारे मे सोचती तो उस अयाश मंगतराम का चेहरा याद आता जो गाओं का पैसे वाला सूदखोर बुद्धा था और अपने गंदी हरक़त के लिए प्रषिध्ह था तभी उसे याद आया कि जब उसके पति की मौत हुई थी तब पति का एक पुराना दोस्त आया था जिसका नाम सुरतलाल था, वह पैसे वाला था और उसके सोने चाँदी की दुकान थी और जात का सुनार था उसका घर सीता के गाओं से कुछ 50 मील दूर एक छोटे शहर मे था, बहुत पहले सीता अपने पति के साथ उसकी दुकान पर गयी थी जो एक बड़े मंदिर के पास थी सीता की आँखे चमक गयी की हो सकता है सुरतलाल से कुछ क़र्ज़ मिल जाए जो वह धीरे धीरे चुकता कर देगी क्रमशः......................
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savitri ek 18 saal ki gaon ki ladki hai jiska baap bahut pahle hi mar chuka tha aur ek maa aur ek chota bhai ghar me tha. garibi ke chalte maa dusron ke gharon me bartan jhadu karti aur kisi tarah se apna aur bachon ka pet bhar leti. akhir garibi to sabse bada paap hai,,, yahi uske man me aata aur kabhi -2 badbadati .. gaon ka mahaul bhi koi bahut accha nahi tha aur esi ke chalte savitri beti ki padai keval athvin darze tak ho saki. awaron aur gundo ki kami nahin thi. bas ijjat bachi rahe esi baat ki chinta savitri ki maa sita ko satati thi. kyonki sita jo 38 saal ki ho chuki thi karib das saal pahle hi vidhva ho chuki thi..... jimmedarian aur pareshanion ke beech kisi tarah jeevan ki gadi chalti rahe yahi raat din sochti aur apne takdeer ko kosti. savitri ke sayaane hone se ye mushkile aur badhti lag rahi thi kyonki uska chota ek hi beta keval baarah saal ka hi tha kya karta kaise kamata... keval sita ko hi sab kuch karna padta. gaon me aurton ka jeevan kafi daravna hota ja raha tha kyonki aaye din koi na koi shararat aur ched chad ho jaata.. esi liye to savitri ko athvin ke baad aage padhana munasib nahin samjha. sita jo kuch karti kafi soch samajh kar.. log bahut gande ho gaye hain " yahi uske man me aata. kabhi sochti akhir kyon log itne gande aur kharaab hote ja rahen hai.. ek sharaab ki dukaan bhi gaon ke nukkad par khul kar to aag me ghee ka kaam kar rahi hai. kya ladke kya budhe sab ke sab daaru pee kar mast ho jaate hain aur gandi galian aur ashlil harkat ladai jhagda sab kuch shuru ho jata.. vaise bhi daaro ki dukan awaron ka bahut badhian adda ho gaya tha. roz koi na koi nayi baat ho hi jaati bas der esi baat ki rahti ki daaru kisi tarah gale ke neeche utar jaye...fir kya kahna galia aur gandi baaton ka silsila shuru hota ki khatm hone ka naam hi nahi leta . char saal pahle savitri aathvin darze ke baad school chod diya .. wo bhi maa ke kahne par kyonki gaon me aware aur gundo ki nazar savitri ke upar padne ka dar tha. e bhi baat bahut had taq sahi thi. aisa kuch nahi tha ki sita apne ladki ko padhana nahin chahti par kya kare dar es baat ki thi ki kahin koi unhoni ho na jaye. char saal ho gaye tabse savitri keval ghar ka kaam karti aur idher udher nahi jaati. kuch aurton ne sita ko salah bhi diya ki savitri ko bhi kahin kisi ke ghar jhadu bartan ke kaam pe laga de par sita duniya ke sachhai se bhali bhanti vakif thi. vah khud dusron ke yehan kaam karti to mardo ke rukh se parichit thi.. ye baat uske beti savitri ke saath hi yah use pasand nahin thi. muhalle ki kuch aurten kabhi peeth peeche taane bhi maarti " rajkumari bana ke rakhi hai lagta hai kabhi bahar ki duniya hi nahi dekhegi...bas esi ki ek ladki hai aur kisi ki to ladki hi nahin hai.." dhanno jo 44 varsh ki pados me rahne wali tapaak se bol deti.. dhanno chachi kuch muhfat kism ki aurat thi aur sita ke kareeb hi rahne ke vajah se sabkuch janti bhi thi. attharah saal hote hote savitri ka shareer kafi badal chuka tha , wah ab ek jawan ladki thi, mahvari to 15 varsh ki thi tabhi se aana shuru ho gaya tha. vah bhi shareer aur mard ke baare me apne sahelion aur padosion se kafi kuch jaan chuki thi. vaise bhi jis goan ka mahaul itna ganda ho aur jis muhalle me roj jhagde hote hon to bachhe aur ladkian to gaalion se bahut kuch samajhne lagten hain. dhanno chachi ke baare me bhi savitri ki kuch sahelian batati hain ko vo kai logo se fasi hai. vaise dhanno chachi ki baaten savitri ko bhi bada mazedaar lagta. vo mauka milte hi sunana chahti. dhanno chachi kisi se bhi nahi darti aur aye din kisi na kisi se ladai kar leti. ek din savitri ko dekh bol hi padi " kya re tere ko to teri maa ne kaid kar ke rakh diya hai. thoda bahar bhi nikal ke dekh, ghar me pade pade tera deemag sust ho jayega; maa se kyo itna darti hai " savitri apne sharmile svbhav ke chalte kuch jabab dene ke bajay chup rah ek halki muskurahat aur sar jhuka len hi sahi samjha. vah apne maa ko bahut manti aur maa bhi apni jimmedarion ko puri tareeke se nirvahan karti. vashtav me savitri ka charitra maa sita ke hi vajah se es gande mahoul me bhi surachhit thi. savitri ek samanya kad kathi ki shareer se bhari puri mansal nitambo aur bhari bhari chation aur kaale ghane baal rang gehuan aur chehere par kuch muhanse the. dikhne me gadarai jawan ladki lagti. solah saal me shareer ke un ango par jahan royen uge the ab vahan kafi kaale baat ug aaye the. savitri ka shareer samanya kad 5'2 '' ka lekin chauda aur mansal hone ke vajah se chutad kafi bada bada lagta tha. ek dam apni maa sita ki tarah. ghar par pahle to frock pahanti lekin jabse janghe mansal aur jawani chadne lagi maa ne salwar sameez la kar de diya. dupatta ke hatne par savitri ke dono chuchian kafi gol gol aur kase kase dikhte jo padosion ke muh me paani laane ke liye kafi tha ye baat sach thi ki en anaaron ko abhi taq kisi ne hath nahi lagaya tha. lekin khili jawani kab taq chupi rahegi , shareer ke pure vikas ke baad ab savitri ke man ka bhi vikas hone laga. jahan maa ka aadesh ki ghar ke baahar na jana aur idher udhar na ghumana sahi lagta vahin dhanno chachi ki baat ki ghar me pade pade deemag sust ho jayega " kuch jyade sahi lagne laga. fir bhi vo apne ma ki baaton par jyada gaur karti sita ke man me savitri ke shadi ki baat aane lagi aur apne kuch rishtedaron se charcha bhi karti, akhir es garibi main kaise ladki ki shadi ho payegi. jo bhi kamai majdoori karne se hoti vah khane aur pahnane main hi khatm ho jata. sita ko to need hi nahi aati chinta ke maare idher chote ladke kaalu ki bhi padhai karaani thi rishtedaaron se koi asha ki kiran na milne se sita aur pareshan rahne lagi raat din yahi sochati ki akhir kaun hai jo madad kar sakta hai sita kuch karz lene ke baare me sochti to us aiyaash mangatram ka chehra yad aata jo gaon ka paise wala soodkhor buddha tha aur apne gandi harqat ke liye prashidhh tha tabhi use yaad aya ki jab uske pati ki maut hui thi tab pati ka ek purana dost aya tha jiska naam suratlal tha, vah paise vala tha aur uske sone chandi ki dukan thi aur jaat ka sunar tha uska ghar sita ke gaon se kuch 50 meel door ek chote shahar me tha, bahut pahle sita apne pati ke saath uske dukaan par gayi thi jo ek pade mandir ke paas tha sita ki aankhe chamak gayi ki ho sakta hai suratlal se kuch karz mil jaye jo vah dheere dheere chukta kar degi

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संघर्ष --2

गतांक से आगे..........

एक दिन समय निकाल कर सीता उस सुरतलाल के दुकान पर गयी तो निराशा ही हाथ लगी क्योंकि सुरतलाल को इस बात का यकीन नहीं था कि सीता उसका क़र्ज़ कैसे वापस करसकेगी..... सीता की परेशानियाँ और बढ़ती नज़र आ रही थी कभी इन उलज़हनो मे यह सोचती कि यदि सावित्री भी कुछ कम करे तो आमदनी बढ़ जाए और शादी के लिए पैसे भी बचा लिया जाए चौतरफ़ा समस्याओं से घिरता देख सीता ने लगभग हथियार डालना शुरू कर दिया.. अपनी ज़िद , सावित्री काम करने के बज़ाय घर मे ही सुरक्ष्हित रखेगी को वापस लेने लगी उसकी सोच मे सावित्री के शादी के लिए पैसे का इंतज़ाम ज़्यादा ज़रूरी लगने लगा. गाओं के मंगतराम से क़र्ज़ लेने का मतलब कि वह सूद भी ज़्यादा लेता और लोग यह भी सोचते की मंगतराम मज़ा भी लेता होगा, इज़्ज़त भी खराब होती सो अलग. सीता की एक सहेली लक्ष्मी ने एक सलाह दी कि "सावित्री को क्यो ना एक चूड़ी के दुकान पर काम करने के लिए लगा देती " यह सुनकर की सावित्री गाओं के पास छोटे से कस्बे मे कॉसमेटिक चूड़ी लिपीसटिक की दुकान पर रहना होगा, गहरी सांस ली और सोचने लगी. सहेली उसकी सोच को समझते बोली " अरी चिंता की कोई बात नही है वहाँ तो केवल औरतें ही तो आती हैं, बस चूड़ी, कंगन, और सौंदर्या का समान ही तो बेचना है मालिक के साथ, बहुत सारी लड़कियाँ तो ऐसे दुकान पर काम करती हैं " इस बात को सुन कर सीता को संतुष्टि तो हुई पर पूछा " मालिक कौन हैं दुकान का यानी सावित्री किसके साथ दुकान पर रहेगी" इस पर सहेली लक्ष्मी जो खुद एक सौंदर्या के दुकान पर काम कर चुकी थी और कुछ दुकानो के बारे मे जानती थी ने सीता की चिंता को महसूस करते कहा " अरे सीता तू चिंता मत कर , दुकान पर चाहे जो कोई हो समान तो औरतों को ही बेचना है , बस सीधे घर आ जाना है, वैसे मैं एक बहुत अच्छे आदमी के सौंदर्या के दुकान पर सावित्री को रखवा दूँगी और वो है भोला पंडित की दुकान, वह बहुत शरीफ आदमी हैं , बस उनके साथ दुकान मे औरतों को समान बेचना है, उनकी उम्र भी 50 साल है बाप के समान हैं मैं उनको बहुत दीनो से जानती हूँ, इस कस्बे मे उनकी दुकान बहुत पुरानी है, वे शरीफ ना होते तो उनकी दुकान इतने दीनो तक चलती क्या?" सीता को भोला पंडित की बुढ़ापे की उम्र और पुराना दुकानदार होने से काफ़ी राहत महसूस कर, सोच रही थी कि उसकी बेटी सावित्री को कोई परेशानी नही होगी. लक्ष्मी की राय सीता को पसंद आ गयी , आखिर कोई तो कोई रास्ता निकालना ही था क्योंकि सावित्री की शादी समय से करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी. दुसरे दिन लक्ष्मी के साथ सावित्री भोला पंडित के सौंदर्य प्रसाधन के दुकान के लिए चली. कस्बे के एक संकरी गली में उनकी दुकान थी. दुकान एक लम्बे कमरे में थी जिसमे आगे दुकान और पिछले हिस्से में पंडित भोला रहते थे. उनका परिवार दुसरे गाँव में रहता था. लक्ष्मी ने सीता को भोला पंडित से परिचय कराया , स्वभाव से शर्मीली सीता ने सिर नीचे कर हल्की सी मुस्कराई. प्रणाम करने में भी लजा रही थी कारण भी था की वह एक गाँव की काफी शरीफ औरत थी और भोला पंडित से पहली बार मुलाकात हो रही थी. " अरे कैसी हो लक्ष्मी , बहुत दिनों बाद दिखाई दी , मैंने बहुत ईन्तजार किया तुम्हारा , मेरी दुकान पर तुम्हारी बहुत जरूरत है भाई" भोला पंडित ने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को नाचते हुए पूछा. " अरे क्या करूँ पंडित जी मेरे ऊपर भी बहुत जिम्मेदारिया है उसी में उलझी रहती हूँ फुर्सत ही नहीं मिलती" लक्ष्मी ने सीता की ओर देखते मुस्कुराते हुए जवाबदिया "जिम्मेदारियो में तो सबकी जिंदगी है लक्ष्मी कम से कम खबर क्र देती , मैं तो तुम्हारे इस आश्वाशन पर की जल्दी मेरे दुकान पर काम करोगी मैंने किसी और लड़की या औरत को ढूंढा भी नहीं" भोला पंडित ने सीता की ओर देखते हुए लक्ष्मी से कुछ शिकायती लहजे में कहा, " मुझे तो फुर्सत अभी नहीं है लेकिन आपके ही काम के लिए आई हूँ और मेरी जगह इनकी लड़की को रख लीजिये . " सीता की ओर लक्ष्मी ने इशारा करते हुए कहा. भोला पंडित कुछ पल शांत रहे फिर पूछे "कौन लड़की है कहाँ , किस दुकान पर काम की है" शायद वह अनुभव जानना चाहते थे "अभी तो कही काम नहीं की है कहीं पर आपके दुकान की जिम्मेदारी बखूबी निभा लेगी " लक्ष्मी ने जबाव दिया लेकिन भोला पंडित के चेहरे पर असंतुष्टि का भाव साफ झलक रहा था शायद वह चाहते थे की लक्ष्मी या कोई पहले से सौन्दर्य प्रसाधन की दुकान पर काम कर चुकी औरत या लड़की को ही रखें . भोला पंडित के रुख़ को देखकर सीता मे माथे पर सिलवटें पड़ गयीं. क्योंकि सीता काफ़ी उम्मीद के साथ आई थी कि उसकी लड़की दुकान पर काम करेगी तब आमदनी अच्छी होगी जो उसके शादी के लिए ज़रूरी था. सीता और लक्ष्मी दोनो की नज़रें भोला पंडित के चेहरे पर एक टक लगी रही कि अंतिम तौर पर क्या कहतें हैं. लक्ष्मी ने कुछ ज़ोर लगाया "पंडित जी लड़की काफ़ी होशियार और समझदार है आपके ग्राहको को समान बखूबी बेच लेगी , एक बार मौका तो दे कर देख लेने मैं क्या हर्ज़ है" पंडित जी माथे पर हाथ फेरते हुए सोचने लगे. एक लंबी सांस छोड़ने के बाद बोले "अरे लक्ष्मी मेरे ग्राहक को एक अनुभवी की ज़रूरत है जो चूड़ी, कंगन, बिंदिया के तमाम वरीटीएस को जानती हो और ग्राहको के नस को टटोलते हुए आराम से बेच सके, तुम्हारी लड़की तो एक दम अनाड़ी है ना, और तुम तो जानती हो कि आजकल समान बेचना कितना मुश्किल होता जा रहा है." सीता चुपचाप एक तक दोनो के बीच के बातों को सुन रही थी. तभी भोला पंडित ने काफ़ी गंभीरता से बोले " लक्ष्मी मुश्किल है मेरे लिए" सीता के मन मे एक निराशा की लहर दौर गयी. थोड़ी देर बाद कुछ और बातें हुई और भोला पंडित के ना तैयार होने की दशा मे दोनो वापस गाओं की ओर चल दी. रास्ते मे लक्ष्मी ने सीता से बोला "तुमने तो लड़की को ना तो पढ़ाया और ना ही कुछ सिखाया और बस घर मैं बैठाए ही रखा तो परेशानी तो होगी ही ना; कहीं पर भी जाओ तो लोग अनुभव या काम करने की हुनर के बारे मे तो पूछेनएगे ही " सीता भी कुछ सोचती रही और रास्ते चलती रही, फिर बोली "अरे तुम तो जानती हो ना की गाओं का कितना गंदा माहौल है कि लड़की का बाहर निकलना ही मुश्किल है, हर जगह हरामी कमीने घूमते रहते हैं, और मेरे तो आगे और पीछे कोई भी नही है कि कल कुछ हो जाए ऐसा वैसा तो" लक्ष्मी फिर जबाव दी पर कुछ खीझ कर " तुम तो बेवजह डरती रहती हो, अरे हर जगह का माहौल तो एसी तरह का है तो इसका यह मतलब तो नही कि लोग अपने काम धंधा छोड़ कर घर मे तेरी बेटी की तरह बैठ जाए. लोग चाहे जैसा हो बाहर निकले बगैर तो कम चलने वाला कहा है. सब लोग जैसे रहेंगे वैसा ही तो हमे भी रहना होगा; " सीता कुछ चुपचाप ही थी और रास्ते पर पैदल चलती जा रही थी. लक्ष्मी कुछ और बोलना सुरू किया "देखो मेरे को मैं भी तो दुकान मैं नौकरी कर लेती इसका ये मतलब तो नही की मेरा कोई चरित्र ही नही या मैं ग़लत हूँ ; ऐसा कुछ नही है बस तुमहरे मन मे भ्रम है कि बाहर निकलते ही चरित्र ख़तम हो जाएगा" सीता ने अपना पच्छ को मजबूत करने की कोशिस मे तर्क दे डाला "तुम तो देखती हो ना की रास्ते मैं यदि ये दारूबाज़ लोफर, लफंगे मिलते हैं तो किस तरह से गंदी बोलियाँ बोलते है, आख़िर मेरी बेटी तो अभी बहुत कच्ची है क्या असर पड़ेगा उसपर" लक्ष्मी के पास भी एसका जबाव तैयार था "मर्दों का तो काम ही यही होता है कि औरत लड़की देखे तो सीटी मार देंगे या कोई छेड़छाड़ शरारत भरी अश्लील बात या बोली बोल देंगे; लेकिन वी बस एससे ज़्यादा और कुछ नही करते, ; और इन सबको को सुनना ही पड़ता है इस दुनिया मे सीता" आगे और बोली "इन बातों को सुन कर नज़रअंदाज कर के अपने काम मे लग जाना ही समझदारी है सीता, तुम तो बाहर कभी निकली नही एसीलिए तुम इतना डरती हो" सीता को ये बाते पसंद नही थी लेकिन एन बातों को मानना जैसे उसकी मज़बूरी दिखी और यही सोच कर सीता ने पलट कर जबाव देना उचित नहीं समझा सीता एक निराश, उदास, और परेशान मन से घर मे घुसी और सावित्री की ओर देखा तभी सावित्री ने जानना चाहा तब सीता ने बताया कि भोला पंडित काम जानने वाली लड़की को रखना चाहता है. वैसे सावित्री के मन मे सीखने की ललक बहुत पहले से ही थी पर मा के बंदिशो से वह सारी ललक और उमंग मर ही गयी थी. सारी रात सीता को नीद नही आ रही थी वो यही सोचती कि आख़िर सावित्री को कहाँ और कैसे काम पर लगाया जाए. भोला पंडित की वो बात जिसमे उन्होने अनुभव और लक्ष्मी की बात जिसमे 'सुनना ही पड़ता है और बिना बाहर निकले कुछ सीखना मुस्किल है' मानो कान मे गूँज रहे थे और कह रहे थे कि सीता अब हिम्मत से काम लो . बेबस सीता के दुखी मन मे अचानक एक रास्ता दिखा पर कुछ मुस्किल ज़रूर था, वो ये की भोला पंडित लक्ष्मी को अपने यहाँ काम पर रखना चाहता था पर लक्ष्मी अभी तैयार नहीं थी और दूसरी बात की सावित्री को काम सीखना जो लक्ष्मी सिखा सकती थी. सीता अपने मन मे ये भी सोचती कि यदि पंडित पैसा कुछ काम भी दे तो चलेगा . बस कुछ दीनो मे सावित्री काम सिख लेगी तो कहीं पर काम करके पैसा कमा सकेगी. इसमे मुस्किल इस बात की थी कि लक्ष्मी को तैयार करना और भोला पंडित का राज़ी होना. यही सब सोचते अचानक नीद लगी तो सुबह हो गयी. सुबह सुबह ही वो लक्ष्मी के घर पर पहुँच अपनी बात को काफ़ी विनम्रता और मजबूरी को उजागर करते हुए कहा. शायद भगवान की कृपा ही थी कि लक्ष्मी तैयार हो गयी फिर क्या था दिन मे दोनो फिर भोला पंडित के दुकान पर पहुँचे. भोला पंडित जो लक्ष्मी को तो दुकान मे रखना चाहता था पर सावित्री को बहुत काम पैसे मे ही रखने के लिए राज़ी हुआ. सीता खुस इस बात से ज़्यादा थी कि सावित्री कुछ सीख लेगी , क्योंकि की पैसा तो भोला पंडित बहुत काम दे रहा था सावित्री को . "आख़िर भगवान ने सुन ही लिया" सीता लगभग खुश ही थी और रास्ते मे लक्ष्मी से कहा और लक्ष्मी का अपने उपर एहसान जताया

gtaank se aage.......... ek din samay nikaal kar sita us suratlal ke dukaan par gayi to nirasha hi hath lagi kyonki suratlal ko is baat ka yakin nahin tha ki sita uska karz kaise vapas karsakegi..... sita ki pareshanian aur badhti nazar aa rahi thi kabhi in ulzhno me yah sochti ki yadi savitri bhi kuch kam kare to amdani badh jaye aur shadi ke liye paise bhi bacha liya jaye chautarfa samasyaon se ghirta dekh sita ne lagbhag hathiyar dalna shuru kar diya.. apni zid ki, savitri ko kam karne ke bazay ghar me hi surakshhit rakhegi ko vapas lene lagi uski soch me savitri ke shadi ke liye paise ka intzaam jyade jaruri lagne laga. gaon ke mangatram se karz lene ka matlab ki vah sood bhi jyada leta aur log yah bhi sochte ki mangatram maza bhi leta hoga, ijjat bhi kharaab hoti so alag. sita ki ek saheli laxmi ne ek salah di ki "savitri ko kyo na ek chudi ke dukaan par kaam karne ke liye laga deti ho" yah sunkar ki savitri gaon ke paas chote se kasbe me cosmetic chudi lipistic ki dukaan par rahna hoga, gahri sans lee aur sochne lagi. saheli ne uski soch ko samajhte boli " aree chinta ki koi baat nahi hai vahan to keval aurten hi to aati hain, bas chudi, kangan, aur saundarya ka saman hi to bechna hai malik ke saath, bahut sari ladkiyan to aise dukaan par kam karti hain " is baat ko sun kar sita ko santushti to hui par pucha " malik kaun hain dukaan ka yaani savitri kiske sath dukan par rahegi" is par saheli laxmi jo khud ek saundarya ke dukaan par kam kar chuki thi aur kuch dukaano ke baare me janti thi ne sita ki chinta ko mahsoos karte kaha " are sita tu chinta mat kar , dukaan par chahe jo koi ho saman to aurton ko hi bechna hai , bas sidhe ghar aa jana hai, vaise main ek bahut acche admi ke saundarya ke dukan par savitri ko rakhva dungi aur vo hai bhola pandit ki dukan, vah bahut sharif admi hain , bas unke saath dukan me aurton ko saman bechna hai, unki umra bhi 50 saal hai baap ke samaan hain main unko bahut dino se janti hun, is kasbe me unki dukaan bahut puraani hai, ve sharif na hote to unki dukaan itne dino taq chalti kya?" sita ko bhola pandit ki budhape ki umra aur purana dukaandar hone se kafi rahat mahsoos kar, soch rahi thi ki uski beti savitri ko koi pareshani nahi hogi. bhola pandit ke rukh ko dekhkar sita me mathe par silwaten pad gayin. kyonki sita kafi ummeed ke sath aayi thi ki uski ladki dukaan par kaam karegi tab amdani achhi hogi jo uske shadi ke liye jaroori tha. sita aur laxmi dono ki nazren bhola pandit ke chehre par ek tak lagi rahi ki antim taur par kya kahten hain. laxmi ne kuch jor lagaya "pandit ji ladki kafi hoshiyar aur samajhdaar hai apke grahko ko saman bakhubi bech legi , ek bar mauka to de kar dekh lene main kya harz hai" pandit ji maathe par hath ferte huye sochne lage. ek lambi sans chodne ke baad bole "are laxmi mere grahak ko ek anubhavi ki jaroorat hai jo chudion, kangan, bindia ke tamam varities ko janti ho aur grahko ke nas ko tatolte huye aram se bech sake, tumahari ladki to ek dam anadi hai naa, aur tum to janti ho ki ajkal saman bechna kitna mushkil hota jaa raha hai." sita chupchap ek tak dono ke beech ke baton ko sun rahi thi. tabhi bhola pandit ne kafi gambhirta se bole " laxmi mushkil hai mere liye" sita ke man me ek nirasha ki lahar daur gayi. thodi der baad kuch aur baaten huyi aur bhola pandit ke na taiyar hone ki dasha me dono vapas gaon ki or chal di. rashte me laxmi ne sita se bola "tumne to ladki ko na to padhaya aur na hi kuch sikhya aur bas ghar main baithaye hi rakha to pareshani to hogi hi na; kahin par bhi jao to log anubhav ya kam karne ki hunar ke baare me to puchenege hi " sita bhi kuch sochti rahi aur raste chalti rahi, fir boli "are tum to janti ho na ki gaon ka kitna ganda mahoul hai ki ladkion ka bahar niklna hi mushkil hai, har jagah harami kameene ghumte rahte hain, aur mere to aage aur peeche koi bhi nahi hai ki kal kuch ho jaye aisa vaisa to" laxmi fir jabav di par kuch kheejh kr " tum to bevajah darti rahti ho, are har jagah ka mahaul to esi tarah ka hai to eska yah matlab to nahi ki log apne kam dhandha chor kar ghar me teri beti ki tarah baith jae. log chahe jaisa ho bahar nikle bagair to kam chalne wala kaha hai. sab log jaise rahenge vaisa hi to hume bhi rahna hoga; " sita kuch chupchap hi thi aur rashte par paidal chalti jaa rahi thi. laxmi kuch aur bolna suru kiya "dekho mere ko main bhi to dukan main naukri kar leti iska ye matlab to nahi ki mera koi charitra hi nahi ya main galat hun ; aisa kuch nahi hai bas tumahare man me bhram hai ki bahar niklte hi charitra khatam ho jaega" sita ne apna pachh ko majboot karne ki koshis me tark de dala "tum to dekhti ho na ki rashte main yadi ye daroobaaz lofar, lafange milte hain to kis tarah se gandi bolian bolten hai, akhir meri beti to abhi bahut kachhi hai kya asar padega uspar" laxmi ke pas bhi eska jabav taiyar tha "mardon ka to kam hi yahi hota hai ki aurat ladki dekhe to siti mar denge ya koi chedchad shararat bhari ashleel bat ya boli bol denge; lekin we bas esase jyada aur kuch nahi karte, ; aur en sabko ko sunana hi padta hai is duniya me sita" aage aur boli "en baton ko sun kar nazarandaaj kar ke apne kam me lag jana hi samajdari hai sita, tum to bahar kabhi nikali nahi esiliye tum itna darti ho" sita ko ye baate pasand nahi thi lekin en baaton ko manana jaise uski mazburi dikhi aur yahi soch kar sita ne palat kar jabav dena uchit nahin samja sita ek nirash, udas, aur pareshan man se ghar me ghusi aur savitri ki or dekha tabhi savitri ne janana chaha tab sita ne bataya ki bhola pandit kam janane vali ladki ko rakhna chahta hai. vaise savitri ke man me sikhne ki lalak bahut pahle se hi thi par maa ke bandisho se vah sari lalak aur umang mar hi gayi thi. sari raat sita ko need nahi aa rahi thi voh yahi sochti ki akhir savitri ko kahan aur kaise kaam par lagaya jae. bhola pandit ki wo baat jisme unhone anubhav aur laxmi ki baat jisme 'sunana hi padta hai aur bina bahar nikle kuch sikhna muskil hai' maano kaan me goonj rahe the aur kah rahe the ki sita ab himmat se kam lo . bebas sita ke dukhi man me achanak ek rashta dikha par kuch muskil jaroor tha, wo ye ki bhola pandit laxmi ko apne yahan kaam par rakhna chahta tha par laxmi abhi taiyar nahin thi aur dusri baat ki savitri ko kam sikhna jo laxmi sikha sakti thi. sita apne man me ye bhi sochti ki yadi pandit paisa kuch kam bhi de to chalega . bas kuch dino me savitri kam sikh legi to kahin par kaam karke paisa kama sakegi. isme muskil es baat ki thi ki laxmi ko taiyar karna aur bhola pandit ka razi hona. yahi sab sochte achanak need lagi to subah ho gayi. subah subah hi wo laxmi ke ghar par pahunch apni baat ko kafi vinamrta aur majboori ko ujagar karte huye kaha. shayad bhagvan ki kripa hi thi ki laxmi taiyar ho gayi fir kya tha din me dono fir bhola pandit ke dukaan par pahunche. bhola pandit jo laxmi ko to dukan me rakhna chahta tha par savitri ko bahut kam paise me hi rakhne ke liye razi hua. sita khus is baat se jyada thi ki savitri kuch sikh legi , kyonki ki paisa to bhola pandit bahut kam de raha tha savitri ko . "akhir bhagvan ne sun hi liya" sita lagbhag khush hi thi aur raste me laxmi se kaha aur laxmi ka apne upar ehsaan jataya

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Re: संघर्ष

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संघर्ष --3

gtaank se aage.......... घर पहुँचने के बाद सीता ने सावित्री को इस बात की जानकारी दी की कल से लक्ष्मी के साथ भोला पंडित के दुकान पर जा कर कम करना है . सावित्री मन ही मन खुस थी , उसे ऐसे लगा की वह अब अपने माँ पर बहुत भर नहीं है उम्र १८ की पूरी हो चुकी थी शरीर से काफी विकसित, मांसल जांघ, गोल और चौड़े चुतड, गोल और अनार की तरह कसी चुचिया काफी आकर्षक लगती थी. सलवार समीज और चुचिया बड़ी आकार के होने के वजह से ब्रा भी पहनती और नीचे सूती की सस्ती वाली चड्डी पहनती जिसकी सीवन अक्सर उभाड जाता. सावित्री के पास कुल दो ब्रा और तीन चड्ढी थी एक लाल एक बैगनी और एक काली रंग की, सावित्री ने इन सबको एक मेले में से जा कर खरीदी धी. सावित्री के पास कपड़ो की संख्या कोई ज्यादा नहीं थी कारण गरीबी. जांघों काफी सुडौल और मोती होने के वजह से चड्डी , जो की एक ही साइज़ की थी, काफी कसी होती थी. रानो की मोटाई चड्ढी में कस उठती मानो थोडा और जोर लगे तो फट जाये. रानो का रंग कुछ गेहुआं था और जन्घो की पट्टी कुछ काले रंग लिए था लेकिन झांट के बाल काफी काले और मोटे थे. बुर की उभार एकदम गोल पावरोटी के तरह थी. कद भले ही कुछ छोटा था लेकिन शरीर काफी कसी होने के कारण दोनों रानो के बीच बुर एकदम खरबूज के फांक की तरह थी. कभी न चुदी होने के नाते बुर की दोनों फलके एकदम सटी थी रंग तो एकदम काला था . झांटो की सफाई न होने और काफी घने होने के कारण बुर के ऊपर किसी जंगल की तरह फ़ैल कर ढक रखे थे. जब भी पेशाब करने बैठती तो पेशाब की धार झांटो को चीरता हुआ आता इस वजह से जब भी पेशाब कर के उठती झांटो में मूत के कुछ बूंद तो जरूर लग जाते जो चड्डी पहने पर चड्डी में लगजाते. गोल गोल चूतडों पर चड्ढी एकदम चिपक ही जाती और जब सावित्री को पेशाब करने के लिए सलवार के बाद चड्ढी सरकाना होता तो कमर के पास से उंगलिओं को चड्ढी के किनारे में फंसा कर चड्ढी को जब सरकाती तो लगता की कोई पतली परत चुतद पर से निकल रही है. चड्ढी सरकते ही चुतड को एक अजीब सी ठंढी हवा की अनुभूति होती. चड्ढी सरकने के बाद गोल गोल कसे हुए जांघो में जा कर लगभग फंस ही जाती, पेशाब करने के लिए सावधानी से बैठती जिससे चड्ढी पर ज्यादे खिंचाव न हो और जन्घो के बीच कुछ इतना जगह बन जाय की पेशाब की धार बुर से सीधे जमीन पर गिरे . कभी कभी थोडा भी बैठने में गड़बड़ी होती तो पेशाब की गर्म धार सीधे जमीन के बजाय नीचे पैर में फंसे सलवार पर गिरने लगती लिहाज़ा सावित्री को पेशाब तुरंत रोक कर चौड़े चुतड को हवा में उठा कर फिर से चड्ढी सलवार और जांघो को कुछ इतना फैलाना पड़ता की पेशाब पैर या सलवार पर न पडके सीधे जमीन पर गिरे. फिर भी सावित्री को मूतते समय मूत की धार को भी देखना पड़ता की दोनों पंजों के बीच खाली जगह पर गिरे. इसके साथ साथ सिर घुमा कर इर्द गिर्द भी नज़र रखनी पड़ती कि कहीं कोई देख न ले. खुले में पेशाब करने में गाँव कि औरतों को इस समस्या से जूझनापड़ता. सावित्री जब भी पेशाब करती तो अपने घर के दीवाल के पीछे एक खाली पतली गली जो कुछ आड़ कर देती और उधर किसी के आने जाने का भी डर न होता . माँ सीता के भी मुतने का वही स्थान था. और मूतने के वजह से वहां मूत का गंध हमेशा रहता. मूतने के बाद सावित्री सीधा कड़ी होती और पहले दोनों जांघों कि गोल मोटे रानो में फंसे चड्ढी को उंगलिओं के सहारे ऊपरचढ़ाती चड्ढी के पहले अगले भाग को ऊपर चड़ा कर झांटों के जंगल से ढके बुर को ढक लेती फिर एक एक करके दोनों मांसल गोल चूतडो पर चड्ढी को चढ़ाती. फिर भी सावित्री को यह महसूस होता की चड्ढी या तो छोटी है या उसका शरीर कुछ ज्यादा गदरा गया है. पहनने के बाद बड़ी मुश्किल से चुतड और झांटों से ढकी बुर चड्ढी में किसी तरीके से आ पाती , फिर भी ऐसा लगता की कभी भी चड्ढी फट जाएगी. बुर के ऊपर घनी और मोटे बालो वाली झांटे देखने से मालूम देती जैसे किसी साधू की घनी दाढ़ी है और चड्डी के अगले भाग जो झांटों के साथ साथ बुर की सटी फांको को , जो झांटो के नीचे भले ही छुपी थी पर फांको का बनावट और उभार इतना सुडौल और कसा था की झांटों के नीचे एक ढंग का उभार तैयार करती और कसी हुई सस्ती चड्डी को बड़ी मुस्किल से छुपाना पड़ता फिर भी दोनों फांको पर पूरी तरह चड्डी का फैलाव कम पड़ जाता , लिहाज़ा फांके तो किसी तरह ढँक जाती पर बुर के फांको पर उगे काले मोटे घने झांट के बाल चड्डी के अगल बगल से काफी बाहर निकल आते और उनके ढकने के जिम्मेदारी सलवार की हो जाती. इसका दूसरा कारण यह भी था की सावित्री एक गाँव की काफी सीधी साधी लड़की थी जो झांट के रख रखाव पर कोई ध्यान नहीं देती और शारीरिक रूप से गदराई और कसी होने के साथ साथ झांट के बाल कुछ ज्यादा ही लम्बे और घना होना भी था. सावित्री की दोनों चुचिया अपना पूरा आकार ले चुकी थी और ब्रेसरी में उनका रहना लगभग मुस्किल ही था, फिर भी दो ब्रेस्रियो में किसी तरह उन्हें सम्हाल कर रख लेती. जब भी ब्रेसरी को बंद करना पड़ता तो सावित्री को काफी दिक्कत होती. सावित्री ब्रा या ब्रेसरी को देहाती भाषा में "चुचिकस" कहती क्योंकि गाँव की कुछ औरते उसे इसी नाम से पुकारती वैसे इसका काम तो चुचिओ को कस के रखना ही था. बाह के कांख में बाल काफी उग आये थे झांट की तरह उनका भी ख्याल सावित्री नहीं रखती नतीजा यह की वे भी काफी संख्या में जमने से कांख में कुछ कुछ भरा भरा सा लगता. सावित्री जब भी चलती तो आगे चुचिया और पीछे चौड़ा चुतड खूब हिलोर मारते. सावित्री के गाँव में आवारों और उचक्कों की बाढ़ सी आई थी. सावित्री के उम्र की लगभग सारी लडकिया किसी ना किसी से चुदती थी कोई साकपाक नहीं थी जिसे कुवारी कहा जा सके . ऐसा होगा भी क्यों नहीं क्योंकि गाँव में जैसे लगता को शरीफ कम और ऐयास, गुंडे, आवारे, लोफर, शराबी, नशेडी ज्यादे रहते तो लड़किओं का इनसे कहाँ तक बचाया जा सकता था. लड़किओं के घर वाले भी पूरी कोसिस करते की इन गंदे लोगो से उनकी लडकिया बची रहे पर चौबीसों घंटे उनपर पहरा देना भी तो संभव नहीं था, और जवानी चढ़ने की देरी भर थी कि आवारे उसके पीछे हाथ धो कर पद जाते. क्योंकि उनके पास कोई और काम तो था नहीं. इसके लिए लड़ाई झगडा गाली गलौज चाहे जो भी हो सब के लिए तैयार होते . नतीजा यही होते कि शरीफ से शरीफ लड़की भी गाँव में भागते बचते ज्यादा दिन तक नहीं रह पाती और किसी दिन किसी गली, खंडहर या बगीचे में, अँधेरे, दोपहर में किसी आवारे के नीचे दबी हुई स्थिति में आ ही जातीं बस क्या था बुर की सील टूटने कि देर भर रहती और एक दबी चीख में टूट भी जाती. और आवारे अपने लन्ड को खून से नहाई बुर में ऐसे दबाते जैसे कोई चाकू मांस में घुस रहा हो. लड़की पहले भले ही ना नुकुर करे पर इन चोदुओं की रगड़दार गहरी चोदाई के बाद ढेर सारा वीर्यपात जो लन्ड को जड़ तक चांप कर बुर की तह उड़ेल कर अपने को अनुभवी आवारा और चोदु साबित कर देते और लड़की भी आवारे लन्ड के स्वाद की शौक़ीन हो जातीं. फिर उन्हें भी ये गंदे लोगो के पास असीम मज़ा होने काअनुभव हो जाता . फिर ऐसी लड़की जयादा दिन तक शरीफ नहीं रह पाती और कुतिया की तरह घूम घूम कर चुदती रहती . घर वाले भी किसी हद तक डरा धमका कर सुधारने की कोशिस करते लेकिन जब लड़की को एक बार लन्ड का पानी चढ़ जाता तो उसका वापस सुधारना बहुत मुश्किल होता. और इन आवारों गुंडों से लड़ाई लेना घर वालों को मुनासिब नहीं था क्योंकि वे खतरनाक भी होते. लिहाज़ा लड़की की जल्दी से शादी कर ससुराल भेजना ही एक मात्र रास्ता दीखता और इस जल्दबाजी में लग भी जाते . शादी जल्दी से तय करना इतना आसान भी ना होता और तब तक लडकिया अपनी इच्छा से इन आवारो से चुदती पिटती रहती. आवारो के संपर्क में आने के वजह से इनका मनोबल काफी ऊँचा हो जाता और वे अपने शादी करने या ना करने और किससे करने के बारे में खुद सोचने और बात करने लगती. और घरवालो के लिए मुश्किल बढ़ जाती . एक बार लड़की आवारो के संपर्क में आई कि उनका हिम्मत यहाँ तक हो जाता कि माँ बाप और घरवालो से खुलकर झगडा करने में भी न हिचकिचाती. यदि मारपीट करने कि कोसिस कोई करे तो लड़की से भागजाने कि धमकी मिलती और चोदु आवारो द्वारा बदले का भी डर रहता. और कई मामलो में घरवाले यदि ज्यादे हिम्मत दिखाए तो घरवालो को ये गुंडे पीट भी देते क्योंकि वे लड़की के तरफ से रहते और कभी कभी लड़की को भगा ले जाते. सबकुछ देखते हुए घरवाले लडकियो और आवारो से ज्यादे पंगा ना लेना ही सही समझते और जल्द से जल्द शादी करके ससुराल भेजने के फिराक में रहते. ऐसे माहौल में घरवाले यह देखते कि लड़की समय बे समय किसी ना किसी बहाने घुमने निकल पड़ती जैसे दोपहर में शौच के लिए तो शाम को बाज़ार और अँधेरा होने के बाद करीब नौ दस बजे तक वापस आना और यही नहीं बल्कि अधि रात को भी उठकर कभी गली या किसी नजदीक बगीचे में जा कर चुद लेना. इनकी भनक घरवालो को खूब रहती पर शोरशराबा और इज्जत के डर से चुप रहते कि ज्याने दो हंगामा ना हो बस . यही कारन था कि लडकिया जो एक बार भी चुद जाती फिर सुधरने का नाम नहीं लेती. आवारो से चुदी पिटी लडकियो में निडरता और आत्मविश्वास ज्यादा ही रहता और इस स्वभाव कि लडकियो कि आपस में दोस्ती भी खूब होती और चुदाई में एक दुसरे कि मदद भी करती. गाँव में जो लडकिया ज्यादे दिनों से चुद रही है या जो छिनार स्वभाव कि औरते नयी चुदैल लडकियो के लिए प्रेरणा और मुसीबत में मार्गदर्शक के साथ साथ मुसीबत से उबरने का भी काम करती थी. जैसे कभी कभी कोई नई छोकरी चुद तो जाती किसी लेकिन गर्भनिरोधक का उपाय किये बगैर नतीजा गर्भ ठहर जाता. इस हालत में लड़की के घर वालो से पहले यही इन चुदैलो को पता चल जाता तो वे बगल के कसबे में चोरी से गर्भ गिरवा भी देती.

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Re: संघर्ष

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संघर्ष --4

gtaank se aage.......... ऐसे माहौल में घरवाले चाहे जितनी जल्दी शादी करते पर तब तक उनके लडकियो की बुरो को आवारे चोद चोद कर एक नया आकार के डालते जिसे बुर या चूत नहीं बल्कि भोसड़ा ही कह सकते है. यानि शादी का बाद लड़की की विदाई होती तो अपने ससुराल कुवारी बुर के जगह खूब चुदी पिटी भोसड़ा ही ले जाती और सुहागरात में उसका मर्द अपने दुल्हन के बुर या चुदैल के भोसड़ा में भले ही अंतर समझे या न समझे लड़की या दुल्हन उसके लन्ड की ताकत की तुलना अपने गाँव के आवारो के दमदार लंडों से खूब भली भाती कर लेती. जो लड़की गाँव में घुमघुम कर कई लंडो का स्वाद ले चुकी रहती है उसे अपने ससुराल में एक मर्द से भूख मिटता नज़र नहीं आता. वैसे भी आवारे जितनी जोश और ताकत से चोदते उतनी चुदाई की उमंग शादी के बाद पति में न मिलता. नतीजा अपने गाँव के आवारो के लंडो की याद और प्यास बनी रहती और ससुराल से अपने मायका वापस आने का मन करनेलगता. ऐसे माहौल में सावित्री का बचे रहना केवल उसकी माँ के समझदारी और चौकन्ना रहने के कारण था . सावित्री के बगल में ही एक पुरानी चुड़ैल धन्नो चाची का घर था जिसके यहाँ कुछ चोदु लोग आते जाते रहते , सावित्री की माँ सीता इस बात से सजग रहती और सावित्री को धन्नो चाची के घर न जाने और उससे बात न करने के लिए बहुत पहले ही चेतावनी दे डाली थी. सीता कभी कभी यही सोचती की इस गाँव में इज्जत से रह पाना कितना मुश्किल हो गया है. उसकी चिंता काफी जायज थी. सावित्री के जवान होने से उसकी चिंता का गहराना स्वाभाविक ही था. आमदनी बदने के लिए सावित्री को दुकान पर काम करने के लिए भेजना और गाँव के आवारो से बचाना एक नयी परेशानी थी. वैसे सुरुआत में लक्ष्मी के साथ ही दुकान पर जाना और काम करना था तो कुछ मन को तसल्ली थी कि चलो कोई उतना डर नहीं है कोई ऐसी वैसी बात होने की. भोला पंडित जो ५० साल के करीब थे उनपर सीता को कुछ विश्वास था की वह अधेड़ लड़की सावित्री के साथ कुछ गड़बड़ नहीं करेगे. दुसरे दिन सावित्री लक्ष्मी के साथ दुकान पर चल दी . पहला दिन होने के कारण वह अपनी सबसे अच्छी कपडे पहनी और लक्ष्मी के साथ चल दी , रात में माँ ने खूब समझाया था की बाहर बहुत समझदारी सेरहना चाहिए. दुसरे लोगो और मर्दों से कोई बात बेवजह नहीं करनी चाहिए. दोनों पैदल ही चल पड़ी. रास्ते में लक्ष्मी ने सावित्री से कहा की "तुम्हारी माँ बहुत डरती है कि तुम्हारे साथ कोई गलत बात न हो जाए, खैर डरने कि वजह भी कुछ हद तक सही है पर कोई अपना काम कैसे छोड़ दे." इस पर सावित्री ने सहमती में सिर हिलाया. गाँव से कस्बे का रास्ता कोई दो किलोमीटर का था और ठीक बीच में एक खंडहर पड़ता जो अंग्रेजो के ज़माने का पुरानी हवेली की तरह थी जिसके छत तो कभी के गिर चुके थे पर जर्जर दीवाले सात आठ फुट तक की उचाई तक खड़ी थी. कई बीघे में फैले इस खंडहर आवारो को एक बहुत मजेदार जगह देता जहा वे नशा करते, जुआ खेलते, या लडकियो और औरतो की चुदाई भी करते. क्योंकि इस खंडहर में कोई ही शरीफ लोग नहीं जाते. हाँ ठीक रास्ते में पड़ने के वजह से इसकी दीवाल के आड़ में औरते पेशाब वगैरह कर लेती. फिर भी यह आवारो, नशेडियो, और ऐयाशो का मनपसंद अड्डा था. गाँव की शरीफ औरते इस खंडहर के पास से गुजरना अच्छा नहीं समझती लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था कस्बे में या कही जाने के लिए. दोनों चलते चलते खंडहर के पास पहुँचने वाले थे की लक्ष्मी ने सावित्री को आगाह करने के अंदाज में कहा " देखो आगे जो रास्ते से सटे खंडहर है इसमें कभी भूल कर मत जाना क्योंकि इसमें अक्सर गाँव के आवारे लोफ़र रहते हैं " इस पर सावित्री के मन में जिज्ञासा उठी और पुछ बैठी "वे यहाँ क्या करते?" "अरे नशा और जुआ खेलते और क्या करेंगे ये नालायक , क्या करने लायक भी हैं ये समाज के कीड़े " लक्ष्मी बोली. लक्ष्मी ने सावित्री को सचेत और समझदार बनाने के अंदाज में कहा" देखो ये गुंडे कभी कभी औरतो को अकेले देख कर गन्दी बाते भी बोलते हैं उनपर कभी ध्यान मत देना, और कुछ भी बोले तुम चुप चाप रास्ते पर चलना और उनके तरफ देखना भी मत, इसी में समझदारी है और इन के चक्कर में कैसे भी पड़ने लायक नहीं होते. " कुछ रुक कर लक्ष्मी फिर बोली "बहुत डरने की बात नहीं है ये मर्दों की आदत होती है औरतो लडकियो को बोलना और छेड़ना, " सावित्री इन बातो को सुनकर कुछ सहम सी गयी पर लक्ष्मी के साथ होने के वजह से डरने की कोई जरूरत नहीं समझी..आगे खंडहर आ गया और करीब सौ मीटर तक खंडहर की जर्जर दीवाले रास्ते से सटी थी. ऐसा लगता जैसे कोई जब चाहे रास्ते पर के आदमी को अंदर खंडहर में खींच ले तो बहर किसी को कुछ पता न चले , रास्ते पर से खंडहर के अंदर तक देख पाना मुस्किल था क्योंकि पुराने कमरों की दीवारे जगह जगह पर आड़ कर देती और खंडहर काफी अंदर तक था, दोनों जब खंडहर के पास से गुजर रहे थे तब एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था. खंडहर में कोई दिख नहीं रहा था वैसे सावित्री पहले भी कभी कभार बाज़ार जाती तो इसी रस्ते से लेकिन तब उसके साथ उसकी माँ और गाँव की कई औरते भी साथ होने से दर उतना नहीं लगता. इसबार वह केवल लक्ष्मी के साथ थी और कुछ समय बाद उसे अकेले भी आना जाना पड़ सकता था. जो सबसे अलग बात यह थी की वह अब भरपूर जवान हो चुकी थी और आवारो से उसके जवानी को खतरा भी था जो वह महसूस कर सकती थी. सावित्री अब यह अच्छी तरह जानती थी की यदि आवारे उसे या किसी औरत को इस सुनसान खंडहर में पा जाएँ तो क्या करेंगे. शायद यह बात मन में आते ही उसके बदन में अजीब सी सिहरन उठी जो वह कुछ महसूस तो कर सकती थी लेकिन समझ नहीं पा रही थी. शायद खंडहर की शांत और एकांत का सन्नाटा सावित्री के मन के भीतर कुछ अलग सी गुदगुदी कर रही थी जिसमे एक अजीब सा सनसनाहट और सिहरन थी और यह सब उसके जवान होने के वजह से ही थी. खंडहर के पास से गुजरते इन पलो में उसके मन में एक कल्पना उभरी की यदि कोई आवारा उसे इस खंडहर में अकेला पा जाये तो क्या होगा..इस कल्पना के दुसरे ही पल सावित्री के बदन में कुछ ऐसा झनझनाहट हुआ जो उसे लगा की पुरे बदन से उठ कर सनसनाता हुआ उसकी दोनों झांघो के बीच पहुँचगया हो खंडहर में से कुछ लोगो के बात करने की आवाज आ रही थी. सावित्री का ध्यान उन आवाजो के तरफ ही था. ऐसा लग रहा था कुछ लोग शराब पी रहे थे और बड़ी गन्दी बात कर रहे थे पार कोई कही दिख नहीं रहा था. अचानक उसमे से एक आदमी जो 3२ -3५ साल का था बाहर आया और दोनों को रास्ते पार जाते देखने लगा तभी अन्दर वाले ने उस आदमी से पुछा "कौन है" जबाब में आदमी ने तुरंत तो कुछ नहीं कहा पर कुछ पल बाद में धीरे से बोला " दो मॉल जा रही है कस्बे में चुदने के लिए" उसके बाद सब खंडहर में हसने लगे. सावित्री के कान में तो जाने बम फट गया उस आदमी की बात सुनकर. चलते हुए खंडहर पार हो गया लक्ष्मी भी चुपचाप थी फिर बोली "देखो जब औरत घर से बाहर निकलती हैं तो बहुत कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है. यह मर्दों की दुनिया है वे जो चाहे बोलते हैं और जो चाहे करते हैं. हम औरतो को तो उनसे बहुत परेशानी होती है पर उन्हें किसी से कोई परेशानी नहीं होती." सावित्री कुछ न बोली पर खंडहर के पास उस आदमी की बात बार बार उसके दिमाग में गूंज रही थी "दो मॉल जा रही है कस्बे में चुदने के लिए" . तभी भोला पंडित की दुकान पर दोनों पहुँचीं . भोला पंडित पहली बार सावित्री को देखा तो उसकी चुचिया और चूतडो पर नज़र चिपक सी गई और सावित्री ने भोला पंडित का नमस्कार किया तो उन्होंने कुछ कहा नहीं बल्कि दोनों को दुकान के अंदर आने के लिए कहे. भोला पंडित ४४ साल के सामान्य कद के गोरे और कसरती शरीर के मालिक थे . उनके शरीर पर काफी बाल उगे थे . वे अक्सर धोती कुरता पहनते और अंदर एक निगोट पहनने की आदत थी. क्योंकि जवानी में वे पहलवानी भी करते थे. स्वाभाव से वे कुछ कड़े थे लेकिन औरतो को सामान बेचने के वजह से कुछ ऊपर से मीठापन दिखाते थे. दोनों दुकान में रखी बेंच पर बैठ गयीं. भोला पंडित ने एक सरसरी नजर से सावित्री को सर से पावं तक देखा और पुछा "क्या नाम है तेरा? " सावित्री ने जबाव दिया "जी सावित्री " लक्ष्मी सावित्री का मुह देख रही थी. उसके चेहरे पर मासूमियत और एक दबी हुई घबराहट साफ दिख रही थी. क्योंकि घर के बाहर पहली बार किसी मर्द से बात कर रही थी भोला पंडित ने दूसरा प्रश्न किया "kitne साल की हो गयी है" "जी अट्ठारह " सावित्री ने जबाव में कहा. आगे फिर पुछा "कितने दिनों में दुकान सम्हालना सीख लेगी" "जी " और इसके आगे सावित्री कुछ न बोली बल्कि बगल में बैठी लक्ष्मी का मुंह ताकने लगी तो लक्ष्मी ने सावित्री के घबराहट को समझते तपाक से बोली "पंडित जी अभी तो नयी है मई इसे बहुत जल्दी दुकान और सामानों के बारे में बता और सिखा दूंगी इसकी चिंता मेरे ऊपर छोड़ दीजिये " "ठीक है पर जल्दी करना , और कब तक तुम मेरे दुकान पर रहोगी " भोला पंडित ने लक्ष्मी से पुछा तो लक्ष्मी ने कुछ सोचने के बाद कहा "ज्यादे दिन तो नहीं पर जैसे ही सावित्री आपके दुकान की जिम्मेदारी सम्हालने लगेगी, क्योंकि मुझे कहीं और जाना है और फुर्सत एक दम नहीं है पंडित जी." आगे बोली "यही कोई दस दिन क्योंकि इससे ज्यादा मैं आपकी दुकान नहीं सम्हाल पाऊँगी , मुझे कुछ अपना भी कम करना है इसलिए" " ठीक है पर इसको दुकान के बारे में ठीक से बता देना" भोला पंडित सावित्री के तरफ देखते कहा.

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Re: संघर्ष

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संघर्ष --5

गतांक से आगे.......... सावित्री भोला पंडित के रूअब्दार कड़क मिज़ाज और तेवर को देखकेर कुछ डर सी जाती. क्योंकि वे कोई ज़्यादे बात चीत नही करते. और उनकी आवाज़ मोटी भी थी, बस दुकान पर आने वाली औरतो को समान बेचने के लालच से कुछ चेहरे पर मीठापन दीखाते. रोजाना दोपहेर को वे एक या दो घंटे के लिए दुकान बंद कर खाना खा कर दुकान के पिछले हिस्से मे बने कमरे मे आराम करते. यह दुकान को ही दो भागो मे बाँट कर बना था जिसके बीच मे केवल एक दीवार थी और दुकान से इस कमरे मे आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा था जिस पर एक परदा लटका रहता. अंदर एक चौकी थी और पिछले कोने मे शौचालय और स्नानघर भी था . यह कमरा दुकान के तुलना मे काफ़ी बड़ा था. कमरे मे एक चौकी थी जिसपर पर भोला पंडित सांड की तरह लेट गये और नीचे एक चटाई पर लक्ष्मी लेट कर आराम करने लगी, सावित्री को भी लेटने के लिए कहा पर पंडितजी की चौकी के ठीक सामने ही बिछी चटाई पर लेटने मे काफ़ी शर्म महसूस कर रही थी लक्ष्मी यह भाँप गयी कि सावित्री भोला पंडित से शर्मा रही है इस वजह से चटाई पर लेट नही रही है. लक्ष्मी ने चटाई उठाया और दुकान वाले हिस्से मे जिसमे की बाहर का दरवाजा बंद था, चली गयी. पीछे पीछे सावित्री भी आई और फिर दोनो एक ही चटाई पर लेट गये, लक्ष्मी तो थोड़ी देर के लिए सो गयी पर सावित्री लेट लेट दुकान की छत को निहारती रही और करीब दो घंटे बाद फिर सभी उठे और दुकान फिर से खुल गई. करीब दस ही दीनो मे लक्ष्मी ने सावित्री को बहुत कुछ बता और समझा दिया था आगे उसके पास समय और नही था कि वह सावित्री की सहयता करे. फिर सावित्री को अकेले ही आना पड़ा. पहले दिन आते समय खंडहेर के पास काफ़ी डर लगता मानो जैसे प्राण ही निकल जाए. कब कोई गुंडा खंडहेर मे खेन्च ले जाए कुछ पता नही था. लेकिन मजबूरी थी दुकान पर जाना. जब पहली बार खंडहेर के पास से गुज़री तो सन्नाटा था लेकिन संयोग से कोई आवारा से कोई अश्लील बातें सुनने को नही मिला. किसी तरह दुकान पर पहुँची और भोला पंडित को नमस्कार किया और वो रोज़ की तरह कुछ भी ना बोले और दुकान के अंदर आने का इशारा बस किया. खंडहेर के पास से गुज़रते हुए लग रहा डर मानो अभी भी सावित्री के मन मे था. आज वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी क्योंकि लक्ष्मी अब नही आने वाली थी. दस दिन तो केवल मा के कहने पर आई थी. यही सोच रही थी और दुकान मे एक तरफ भोला पंडित और दूसरी तरफ एक स्टूल पे सावित्री सलवार समीज़ मे बैठी थी. दुकान एक पतली गली मे एकदम किनारे होने के वजह से भीड़ भाड़ बहुत कम होती और जो भी ग्राहक आते वो शाम के समय ही आते. दुकान के दूसरी तरफ एक उँची चहारदीवारी थी जिसके वजह से दुकान मे कही से कोई नही देख सकता था तबतक की वह दुकान के ठीक सामने ना हो. इस पतली गली मे यह अंतिम दुकान थी और इसके ठीक बगल वाली दुकान बहुत दीनो से बंद पड़ी थी. शायद यही बात स्टूल पर बैठी सावित्री के मन मे थी कि दुकान भी तो काफ़ी एकांत मे है, पंडित जी अपने कुर्सी पे बैठे बैठे अख़बार पढ़ रहे थे, करीब एक घंटा बीत गया लेकिन वो सावित्री से कुछ भी नही बोले. सावित्री को पता नही क्यो यह अक्चा नही लग रहा था. उनके कड़क और रोबीले मिज़ाज़ के वजह से उसके पास कहाँ इतनी हिम्मत थी कि भोला पंडित से कुछ बात की शुरुआत करे. दुकान मे एक अज़ीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, तभी भोला पंडित ने स्टूल पर नज़रे झुकाए बैठी सावित्री के तरफ देखा और बोला " देखो एक कपड़ा स्नानघर मे है उसे धो कर अंदर ही फैला देना" मोटी आवाज़ मे आदेश सुनकर सावित्री लगभग हड़बड़ा सी गयी और उसके हलक के बस जी शब्द ही निकला और वह उठी और स्नानघर मे चल दी. स्नानघर मे पहुँच कर वह पीछे पलट कर देखी कि कहीं पंडित जी तो नही आ रहे क्योंकि सावित्री आज अकेले थी और दुकान भी सन्नाटे मे था और पंडित जी भी एक नये आदमी थे. फिर भी पंडित जी के उपर विश्वास था जैसा कि लक्ष्मी ने बताया था. सावित्री को लगा कि पंडित जी वहीं बैठे अख़बार पढ़ रहे हैं. फिर सावित्री ने स्नानघर मे कपड़े तलाशने लगी तो केवल फर्श पर एक सफेद रंग की लंगोट रखी थी जिसे पहलवान लोग पहनते हैं. यह भोला पंडित का ही था. सावित्री के मन मे अचानक एक घबराहट होने लगी क्योंकि वह किसी मर्द का लंगोट धोना ठीक नही लगता. स्नानघर के दरवाजे पर खड़ी हो कर यही सोच रही थी कि अचानक भोला पंडित की मोटी कड़क दार आवाज़ आई "कपड़ा मिला की नही" वे दुकान मे बैठे ही बोल रहे थे. सावित्री पूरी तरह से डर गयी और तुरंत बोली "जी मिला" सावित्री के पास इतनी हिम्मत नही थी कि भोला पंडित से यह कहे कि वह एक लड़की है और उनकी लंगोट को कैसे धो सकती है. आख़िर हाथ बढाई और लंगोट को ढोने के लिए जैसे ही पकड़ी उसे लगा जैसे ये लंगोट नही बल्कि कोई साँप है. फिर किसी तरह से लंगोट को धोने लगी. फिर जैसे ही लंगोट पर साबुन लगाने के लिए लंगोट को फैलाया उसे लगा कि उसमे कुछ काला काला लगा है फिर ध्यान से देख तो एकद्ूम सकपका कर रह गयी. यह काला कला कुछ और नही बल्कि झांट के बॉल थे जो भोला पंडित के ही थे. जो की काफ़ी मोटे मोटे थे. वह उन्हे छूना बिल्कुल ही नही चाहती थी लेकिन लंगोट साफ कैसे होगी बिना उसे साफ किए. फिर सावित्री ने पानी की धार गिराया कि झांट के बाल लंगोट से बह जाए लेकिन फिर भी कुछ बॉल नही बह सके क्योंकि वो लंगोट के धागो मे बुरी तरह से फँसे थे. यह सावित्री के लिए चुनौती ही थी क्योंकि वह भोला पंडित के झांट के बालो को छूना नही चाहती थी. अचानक बाहर से आवाज़ आई "सॉफ हुआ की नही" और इस मोटे आवाज़ ने मानो सावित्री की हड्डियाँ तक कपा दी और बोल पड़ी "जी कर रही हूँ" और घबराहट मे अपने उंगलिओ से जैसे ही लंगोट मे फँसे झांट के बालो को निकालने के लिए पकड़ी कि सिर से पाव तक गन्गना गयी , उसे ऐसे लगा जैसे ये झांट के बाल नही बल्कि बिजली का कुर्रेंट है, आख़िर किसी तरह एक एक बाल को लंगोट से निकाल कर फर्श पर फेंकी और पानी की धार फेंक कर उसे बहाया जो स्नानघर के नाली के तरफ तैरते हुए जा रहे थे और सावित्री की नज़रे उन्हे देख कर सनसना रही थी. किसी ढंग से लंगोट साफ कर के वह अंदर ही बँधे रस्सी पर फैला कर अपना हाथ धो ली और वापस दुकान मे आई तो चेहरे पर पसीना और लालपान छा गया था. उसने देखा कि भोला पंडित अभी भी बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. सावित्री जा कर फिर से स्टूल पर बैठ गयी और नज़रे झुका ली. कुछ देर बाद दोपहर हो चली थी और भोला पंडित के खाना खाने और आराम करने का समय हो चला था. समय देख कर भोला पंडित ने दुकान का बाहरी दरवाजा बंद किया और खाना खाने के लिए अंदर वाले कमरे मे चले आए. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने का सीधा मतलब था कि कोई भी अंदर नही आ सकता था. भोला पंडित खाना खाने लगे और सावित्री तो घर से ही खाना खा कर आती इस लिए उसे बस आराम ही करना होता. सावित्री ने चटाई लेकर दुकान वाले हिस्से मे आ गयी और चटाई बिछा कर लेटने के बजाय बैठ कर आज की घटना के बारे मे सोचने लगी. उसे लगता जैसे भोला पंडित की झांट को छू कर बहुत ग़लत किया, लेकिन डरी सहमी और क्या करती. बार बार उसके मन मे डर लगता. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के कारण वह अपने आप को सुरक्षित नही महसूस कर रही थी. यही सोचती रही कि अंदर के कमरे से खर्राटे की आवाज़ आने लगी. फिर यह जान कर की भोला पंडित सो गये है वह भी लेट गयी पर उनके लंगोट वाली झांतो की याद बार बार दिमाग़ मे घूमता रहता. यही सब सोचते सोचते करीब एक घंटा बीत गया. फिर भोला पंडित उठे तो उनके उठने के आहट सुन कर सावित्री भी चटाई पर उठ कर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शौचालय से पेशाब करने की आवाज़ आने लगी , वो भोला पंडित कर रहे थे.अभी दुकान खुलने मे लगभग एक घंटे का और समय था और भोला पंडित शायद एक घंटे और आराम करेंगे' यही बात सावित्री सोच रही थी की अंदर से पंडित जी ने सावित्री को पुकारा. "सुनो" सावित्री लगभग घबड़ाई हुई उठी और अपना समीज़ पर दुपट्टे को ठीक कर अंदर आए तो देखी की भोला पंडित चौकी पर बैठे हैं. सावित्री उनके चौकी से कुछ दूर पर खड़ी हो गयी और नज़रे झुका ली और पंडित जी क्या कहने वाले हैं इस बात का इंतज़ार करने लगी. तभी भोला पंडित ने पुचछा "महीना तुम्हारा कब आया था" अचानक ऐसे सवाल को सुन कर सावित्री की आँखे फटी की फटी रह गई वह मानो अगले पल गिरकर मर जाएगी उसे ऐसा लग रहा था. उसका गले मे मानो लकवा मार दिया हो, दिमाग़ की सारी नसे सूख गयी हो. सावित्री के रोवे रोवे को कंपा देने वाले इस सवाल ने सावित्री को इस कदर झकझोर दिया कि मानो उसके आँखो के सामने कुछ दीखाई ही नही दे रहा था. आख़िर वह कुछ बोल ना सकी और एक पत्थेर की तरह खड़ी रह गई. दुबारा भोला पंडित ने वही सवाल दुहरेया "महीना कब बैठी थी" सावित्री के सिर से पाँव तक पसीना छूट गया. उसे कुछ समझ नही आ रहा था कि ये क्या हो रहा है और वह क्या करे लेकिन दूसरी बार पूछने पर वह काफ़ी दबाव मे आ गयी और सूखे गले से काफ़ी धीमी आवाज़ ही निकल पाई "दस दिन प..." और आवाज़ दब्ति चली गयी कि बाद के शब्द सुनाई ही नही पड़े. फिर भोला पंडित ने कुछ और कड़े आवाज़ मे कुछ धमकी भरे लहजे मे आदेश दिया "जाओ पेशाब कर के आओ" इसे सुनते ही सावित्री कांप सी गयी और शौचालय के तरफ चल पड़ी. अंदर जा कर सीत्कनी बंद करने मे लगताथा जैसे उसके हाथ मे जान ही नही है. भोला पंडित का पेशाब कराने का मतलब सावित्री समझ रही थी लेकिन डर के मारे उसे कुछ समझ नही आ रहा था कि वो अब क्या करे . शौचालय के अंदर सावित्री के हाथ जरवंद खोलने मे कांप रहे थे और किसी तरह से जरवंद खोल कर सलवार को नीचे की और फिर चड्धि को सर्काई और पेशाब करने बैठी लेकिन काफ़ी मेहनत के बाद पेशाब की धार निकलना शुरू हुई. पेशाब करने के बाद सावित्री अपने कपड़ो को सही की दुपट्टा से चुचियो को ढाकी फिर उसकी हिम्मत शौचालय से बाहर आने की नही हो रही थी और वह उसी मे चुपचाप खड़ी थी. तभी फिर डरावनी आवाज़ कानो मे बम की तरह फट पड़ा "जल्दी आओ बाहर" बाहर आने के बाद वह नज़ारे झुकाए खड़ी थी और उसका सीना धक धक ऐसे कर रहा था मानो फट कर बाहर आ जाएगा . सावित्री ने देखा की भोला पंडित चौकी पर दोनो पैर नीचे लटका कर बैठे हैं. फिर पंडित जी चौकी पर बैठे ही सावित्री को नीचे से उपर तक घूरा और फिर चौकी पर लेट गये. चौकी पर एक बिस्तर बिछा था और भोला पंडित के सिर के नीचे एक तकिया लगा था. भोला पंडित लेते लेते छत की ओर देख रहे थे और चित लेट कर दोनो पैर सीधा फैला रखा था. वे धोती और बनियान पहने थे. धोती घुटने तक थी और घुटने के नीचे का पैर सॉफ दीख रहा था जो गोरे रंग का काफ़ी मजबूत था जिसपे काफ़ी घने बाल उगे थे. सावित्री चुपचाप अपने जगह पर ऐसे खड़ी थी मानो कोई मूर्ति हो. वह अपने शरीर मे डर के मारे धक धक की आवाज़ साफ महसूस कर रही थी. यह उसके जीवन का बहुत डरावना पल था. शायद अगले पल मे क्या होगा इस बात को सोच कर काँप सी जाती. इतने पॅलो मे उसे महसूस हुआ कि उसका पैर का तलवा जो बिना चप्पल के कमरे के फर्श पर थे, पसीने से भीग गये थे. उसकी साँसे तेज़ चल रही थी. उसे लग रहा था की सांस लेने के लिए उसे काफ़ी ताक़त लगानी पड़ रही थी. ऐसा जैसे उसके फेफड़ों मे हवा जा ही नही रही हो. उसके दिल और दिमाग़ दोनो मे लकवा सा मार दिया था. तभी पंडित जी कमरे के छत के तरफ देखते हुए बोले "पैर दबा" सावित्री जो की इस दयनीय हालत मे थी और शर्म से पानी पानी हो चुकी थी, ठीक अपने सामने नीचे फर्श पर देख रही थी, क्योंकि उसकी भोला पंडित की तरफ देखने की हिम्मत अब ख़त्म हो चुकी थी, आवाज़ सुनकर फिर से कांप सी गयी और अपने नज़रो को बड़ी ताक़त से उठा कर चौकी के तरफ की और भोला पंडित को जब कनखियों से देखी कि वे धोती और बनियान मे सिर के नीचे तकिया लगाए लेते थे और अब सावित्री के तरफ ही देख रहे थे. सावित्री फिर से नज़रे नीचे गढ़ा ली. वह चौकी से कुछ ही दूरी पर ही खड़ी थी उसे लग रहा था कि उसके पैर के दोनो तलवे फर्श से ऐसे चिपक गये हो की अब छूटेंगे ही नही. भोला पंडित को अपनी तरफ देखते हुए वह फिर से घबरा गयी और डर के मारे उनके पैर दबाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि ऐसा महसूस हुआ जैसे उसे चक्केर आ गया हो और अगले पल गिर ना जाए. शायद काफ़ी डर और घबराहट के वजह से ही ऐसा महसूस की. ज्यों ही सावित्री ने अपना पैर फर्श पर आगे बढ़ाई तो पैर के तलवे के पसीना का गीलापन फर्श पर सॉफ दीख रहा था. अब चौकी के ठीक करीब आ गयी और खड़ी खड़ी यही सोच रही थी कि अब उनके पैर को कैसे दबाए. भोला पंडित ने सावित्री से केवल पैर दबाने के लिए बोला था और ये कुछ नही कहा कि चौकी पर बैठ कर दबाए या केवल चौकी के किनारे खड़ी होकर की दबाए. क्योंकि सावित्री यह जानती थी कि पंडित जी को यह मालूम है कि सावित्री एक छ्होटी जात की है और लक्ष्मी ने सावित्री को पहले ही यह बताया था कि दुकान मे केवल अपने काम से काम रखना कभी भी पंडित जी का कोई समान या चौकी को मत छूना क्योंकि वो एक ब्राह्मण जाती के हैं और वो छ्होटी जाती के लोगो से अपने सामानो को छूना बर्दाश्त नही करते, और दुकान मे रखी स्टूल पर ही बैठना और आराम करने के लिए चटाई का इस्तेमाल करना. शायद इसी बात के मन मे आने से वह चौकी से ऐसे खड़ी थी कि कहीं चौकी से सॅट ना जाए. भोला पंडित ने यह देखते ही की वह चौकी से सटना नही चाहती है उन्हे याद आया कि सावित्री एक छोटे जाती की है और अगले ही पल उठकर बैठे और बोले "जा चटाई ला" सावित्री का डर बहुत सही निकला वह यह सोचते हुए कि भला चौकी को उसने छूआ नही. दुकान वाले हिस्से मे जहाँ वो आराम करने के लिए चटाई बिछाई थी, लेने चली गयी. इधेर भोला पंडित चौकी पर फिर से पैर लटका कर बैठ गये, सावित्री ज्यों ही चटाई ले कर आई उन्होने उसे चौकी के बगल मे नीचे बिछाने के लिए उंगली से इशारा किया. सावित्री की डरी हुई आँखे इशारा देखते ही समझ गयी कि कहाँ बिछाना है और बिछा कर एक तरफ खड़ी हो गयी और अपने दुपट्टे को ठीक करने लगी, उसका दुपट्टा पहले से ही काफ़ी ठीक था और उसके दोनो चूचियो को अच्छी तरह से ढके था फिर भी अपने संतुष्टि के लिए उसके हाथ दुपट्टे के किनारों पर चले ही जाते. भोला पंडित चौकी पर से उतर कर नीचे बिछी हुई चटाई पर लेट गये. लेकिन चौकी पर रखे तकिया को सिर के नीचे नही लगाया शायद चटाई का इस्तेमाल छ्होटी जाती के लिए ही था इस लिए ही चौकी के बिस्तर पर रखे तकिया को चटाई पर लाना मुनासिब नही समझे. भोला पंडित लेटने के बाद अपने पैरों को सीधा कर दिया जैसा की चौकी के उपर लेते थे. फिर से धोती उनके घुटनो तक के हिस्से को ढक रखा था. उनके पैर के तरफ सावित्री चुपचाप खड़ी अपने नज़रों को फर्श पर टिकाई थी. सीने का धड़कना अब और तेज हो गया था. तभी पंडित जी के आदेश की आवाज़ सावित्री के कानो मे पड़ी "अब दबा" . सावित्री को ऐसा लग रहा था कि घबराहट से उसे उल्टी हो जायगि. अब सावित्री के सामने यह चुनौती थी कि वह पंडित जी के सामने किस तरह से बैठे की पंडित जी को उसका शरीर कम से कम दीखे. जैसा की वह सलवार समीज़ पहनी और दुपट्टा से अपने उपरी हिस्से को काफ़ी ढंग से ढक रखा था. फिर उसने अपने पैर के घुटने को मोदकर बैठी और यही सोचने लगी कि अब पैर दबाना कहाँ से सुरू करे. उसके मन मे विरोध के भी भाव थे कि ऐसा करने से वो मना कर दे लेकिन गाओं की अट्ठारह साल की सीधी साधी ग़रीब लड़की जिसने अपना ज़्यादा समय घर मे ही बिताया था, और शर्मीली होने के साथ साथ वह एक डरपोक किस्म की भी हो गयी थी. और वह अपने घर से बाहर दूसरे जगह यानी भोला पंडित के दुकान मे थी जिसका दरवाजा बंद था और दोपहर के समय एकांत और शांत माहौल मे उसका मन और डर से भर गया था. उसके उपर से भोला पंडित जो उँची जाती के थे और उनका रोबीला कड़क आवाज़ और उससे बहुत कम बातें करने का स्वाभाव ने सावित्री के मन मे बचे खुचे आत्मविश्वास और मनोबल को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया था. वैसे वह पहले से ही काफ़ी डरी हुई थी और आज उसका पहला दिन था जब वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी.

gtaank se aage.......... savitri bhola pandit ke rooabdar kadak mizaj aur tevar ko dekhker kuch dar si jati. kyonki ve koi jyade bat cheet nahi karte. aur unki awaj moti bhi thi, bas dukan par ane wali aurto ko saman bechne ke lalach se kuch chehre par meethapan deekhate. rojana dopaher ko ve ek ya do ghante ke liye dukan band kar khana kha kar dukan ke pichle hisse me bane kamre me aram karte. yah dukan ko hi do bhago me bant kar bana tha jiske beech me keval ek deevar thi aur dukan se is kamre me ane ke liye ek chota sa darvaja tha jis par ek parda latka rahta. under ek chaouki thi aur pichle kone me shoauchalay aur snanaghar bhi tha . yah kamra dukan ke tulna me kafi bada tha. kamre me ek chaouki thi jispar par bhola pandit sand ki tarah let gaye aur neeche ek chatai par laxmi let kar aram karne lagi, savitri ko bhi letne ke liye kaha par panditji chaouki ke theek samne hi bichi chatai par letne me kafi sharm mahsoos kar rahi thi laxmi yah bhamp gayi ki savitri bhola pandit se sharma rahi hai is vajah se chatai par let nahi rahi hai. laxmi ne chatai uthaya aur dukan wale hisse me jisme ki bahar ka darwaja band tha, chali gayi. peeche peeche savitri bhi aayi aur fir dono ek hi chatai par let gaye, laxmi to thodi der ke liye so gayi par savitri lete lete dukan ki chat ko niharti rahi aur kareeb do ghante baad fir sabhi uthe aur dukan fir se khul gai. kareeb das hi dino me laxmi ne savitri ko bahut kuch bata aur samjha diya tha aage uske pas samay aur nahi tha ki wah savitri ki sahayta kare. fir savitri ko akele hi ana pada. pahle din ate samay khandaher ke pas kafi dar lagta mano jaise pran hi nikal jaye. kab koi gunda khandaher me khench le jaye kuch pata nahi tha. lekin majboori thi ki dukaan par jana. jab pahli bar khandaher ke paas se gujri to sannata tha lekin sanyog se koi awara se koi ashleel baten sunane ko nahi mila. kisi tarah dukaan par pahunchi aur bhola pandit ko namaskar kiya aur we roz ki tarah kuch bhi na bole aur dukan ke ander ane ka ishara bas kiya. khandaher ke pas se gujarte huye lag raha dar mano abhi bhi savitri ke man me tha. aaj vah dukan me bhola pandit ke sath akele thi kyonki laxmi ab nahi aane wali thi. das din to keval maa ke kahne par aayi thi. yahi soch rahi thi aur dukan me ek taraf bhola pandit aur dusri taraf ek stul pe savitri salwar sameej me baithi thi. dukaan ek patle gali me ekdam kinare hone ke vajah se bhid bhad bahut kam hoti aur jo bhi grahak aati wo sham ke samay hi aati. dukaan ke dusri taraf ek unchi chahardiwari thi jiske vajah se dukan me kahi se koi nahi dekh sakta tha tabtak ki vah dukaan ke theek samne na ho. is patle gali me yah antim dukaan thi aur iske theek bagal wali dukaan bahut dino se band padi thi. shayad yahi bat stul par baithi savitri ke man me tha ki dukaan bhi to kafi ekant me hai, pandit ji apne kursi pe baithe baithe akhbar pad rahe the, kareeb ek ghanta beet gaye lekin we savitri se kuch bhi nahi bole. savitri ko pata nahi kyo yah accha nahi lag raha tha. unke kadak aur robeele mizaz ke vajah se uske paas kahan itni himmat thi ki bhola pandit se kuch baat ki shuruaat kare. dukaan me ek azeeb sa sannata pasra hua tha, tabhi bhola pandit ne stul par nazre jhukaye bathi savitri ke taraf dekha aur bola " dekho ek kapda snangher me hai use dho kar ander hi faila dena" moti awaz me adesh sunkar savitri lagbhag hadbada si gayi aur uske halak ke bas jee shabd hi nikla aur vah uthi aur snangher me chal di. snangher me pahunch kar vah peeche palat kar dekhi ki kahin pandit ji to nahi aa rahe kyonki savitri aaj akele thi aur dukaan bhi sannate me tha aur pandit ji bhi ek naye admi the. fir bhi pandit ji ke upar vishwas tha jaisa ki laxmi ne bataya tha. savitri ko laga ki pandit ji vahin baithe akhbar padh rahe hain. fir savitri ne snangher me kapade talashne lagi to keval farsh par ek safed rand ki langot rakhi thi jise pahalwan log pahante hain. yah bhola pandit ka hi tha. savitri ke man me achanak ek ghabrahat hone lagi kyonki wah kisi mard ka langot dhona theek nahi lagta. snanghar ke darwaje par khadi ho kar yahi soch rahi thi ki achanak bhola pandit ki moti kadak dar awaz aayi "kapda mila ki nahi" ve dukaan me baithe hi bol rahe the. savitri puri tarah se dar gayi aur turant boli "jee mila" savitri ke pas itni himmat nahi thi ki bhola pandit se yah kahe ki vah ek ladki hai aur unki langot ko kaise dho sakti hai. akhir hath badai aur langot ko done ke liye jaise hi pakdi use laga jaise ye langot nahi balki koi saanp hai. fir kisi tarah se langot ko dhone lagi. fir jaise hi langot par sabun lagane ke liye langot ko failaya use laga ki usme kuch kala kala laga hai fir dhyan se dekh to ekdum sakpaka kar rah gayi. yah kala kala kuch aur nahi balki jhant ke baal the jo bhola pandit ke hi the. jo ki kafi mote mote the. vah unhe chuna bilkul hi nahi chahti thi lekin langot saf kaise hogi bina use saf kiye. fir savitri ne pani ki dhar girya ki jhant ke bal langot se bah jaye lekin fir bhi kuch baal nahi bah sake kyonki we langot ke dhago me buri tarah se fanse the. yah savitri ke liye chunauti hi thi kyonki vah bhola pandit ke jhant ke baalo ko chuna nahi chahti thi. achanak bahar se awaz aayi "saaf hua ki nahi" aur is mote awaz ne maano savitri ki haddiyan tak kapa di aur bol padi "jee kar rahi hun" aur ghabrahat me apne unglion se jaise hi langot me fanse jhant ke baalo ko nikalne ke liye pakdi ki sir se pawn tak gangana gayi , use aise laga jaise ye jhant ke baal nahi balki bijli ka kurrent hai, akhir kisi tarah ek ek baal ko langot se nikal kar farsh par fenki aur pani ki dhar fenk kar use bahaya jo snangher ke naali ke taraf tairte huye ja rahe the aur savitri ki nazre unhe dekh kar sansana rahi thi. kisi dhang se langot saf kar ke vah ander hi bandhe rassi par faila kar apna hath tho lee aur vapas dukaan me aayi to chehre par paseena aur lalpan cha gaya tha. usne dekha ki bhola pandit abhi bhi baithe akhbaar badh rahe the. savitri ja kar fir se stul par baith gayi aur nazre jhuka lee. kuch der bad dopahar ho chali thi aur bhola pandit ke khana khane aur aram karne ka samay ho chala tha. samay dekh kar bhola pandit ne dukaan ka bahri darwaja band kiya aur khana khane ke liye ander wale kamre me chale aye. dukaan ka bahri darwaja band hone ka sidha matlab tha ki koi bhi ander nahi aa sakta tha. bhola pandit khana khane lage aur savitri to ghar se hi khana kha kar aati is liye use bas aram hi karna hota. savitri ne chatai lekar dukaan wale hisse me aa gayi aur chatai bicha kar letne ke bajay baith kar aaj ki ghatna ke baare me sochne lagi. use lagta jaise bhola pandit ki jhant ko chu kar bahut galat kiya, lekin dari sahmi aur kya karti. bar bar uske man me dar lagta. dukaan ka bahari darwaja band hone ke karan vah apne aap ko surakshit nahi mahsoos kar rahi thi. yahi sochti rahi ki ander ke kamre se kharrate ki awaz aane lagi. fir yah jan kar ki bhola pandit so gaye hai vah bhi let gayi par unke langot wali jhanto ki yad bar bar dimaag me ghumta rahta. yahi sab sochte sochte kareeb ek ghanta beet gaye. fir bhola pandit uthe to unke uthne ke ahat sun kar savitri bhi chatai par uth kar baith gayi. thodi der baad shauchalay se peshab karne ki awaz aane lagi , wo bhola pandit kar rahe the.abhi dukaan khulne me lagbhag ek ghante ka aur samay tha aur bhola pandit shayad ek ghante aur aram karnge' yahi bat savitri soch rahi thi ki ander se pandit ji ne savitri ko pukara. "suno" savitri lagbhag ghabdai hui uthi aur apna sameez par dupatte ko theek kar ander aae to dekhi ki bhola pandit chauki par baithe hain. savitri unke chauki se kuch dur par khadi ho gayi aur nazre jhuka li aur pandit ji kya kahne wale hain is baat ka intzar karne lagi. tabhi bhola pandit ne puchha "maheena tumhara kab aya tha" achanak aise sawal ko sun kar savitri ki aankhe fati ki fati rah gai vah mano agle pal girkar mar jayegi use aisa lag raha tha. uska gale me mano lakva mar diya ho, dimaag ki saari nase sukh gayi ho. savitri ke rowen rowen ko kampa dene wale is sawal ne savitri ko is kadar jhakjhor diya ki mano uske ankho ke samne kuch deekhayi hi nahi de raha tha. akhir vah kuch bol na saki aur ek patther ki tarah khadi rah gai. dubara bhola pandit ne vahi sawal duhraya "maheena kab baithi thi" savitri ke sir se panw tak paseena choot gaya. use kuch samajh nahi aa raha tha ki ye kya ho raha hai aur wah kya kare lekin dusri bar puchne par vah dafi dabav me aa gayi aur sukhe gale se kafi dhimi awaz hi nikal payi "das din p..." aur awaj dabti chali gayi ki baad ke shabd sunayi hi nahi pade. fir bhola pandit ne kuch aur kade awaz me kuch dhamki bhare lahaje me adesh diya "jao peshab kar ke aao" ise sunate hi savitri kamp si gayi aur shouchalay ke taraf chal padi. ander jaa kar sitkani band karne me lagta uske haath me jaan hi nahi hai. bhola pandit ka peshab karaane ka malab savitri samajh rahi thi lekin dar ke maare use kuch samajh nahi aa raha tha ki wo ab kya kare . shauchalaya ke ander savitri ke hath jarvan kholne me kamp rahe the aur kisi tarah se jarvan khol kar salwar ko keeche ki aur fir chaddhi ko sarkayi aur peshab karne baithi lekin kafi mehnat ke bad peshab ki dhar niklna shuru hui. peshab karne ke baad savitri apne kapado ko sahi ki dupatta se chuchion ko dhaki fir uski himmat shauchalaya se bahar aane ki nahi ho rahi thi aur vah usi me chupchap khadi thi. tabhi fir darawni awaz kaano me bam ki tarah fat pada "jaldi aao bahar" bahar aane ke bad vah nazare jhukaye khadi thi aur uska sina dhak dhak aise kar raha tha mano fat kar bahar aa jayega . savitri ne dekha ki bhola pandit chauki par dono pair neeche latka kar baithe hain. fir pandit jee chauki par baithe hi savitri ko neeche se upar tak ghura aur fir chauki par let gaye. chauki par ek bistar beechi thi aur bhola pandit ke sir ke neeche ek takiya laga tha. bhola pandit lete lete chat ki or dekh rahe the aur chit let tar dono pair sidha faila rakha tha. ve thoti aur baniyan pahne the. dhoti ghutne tak thi aur ghutne ke neeche ka pair saaf deekh raha tha jo gore rang ka kafi majboot tha jispe kafi ghane bal uge the. savitri chupchap apne jagah par aise khadi thi mano koi murti ho. vah apne shareer me dar ke maare dhak dhak ki awaj saf mahsoos kar rahi thi. yah uske jeevan ka bahut daravna pal tha. shayad agle pal me kya hoga is baat ko soch kar kaanp see jati. itne palo me use mahsoos hua ki uska pair ka talva jo bina chappal ke kamre ke farsh par the, paseene se bheeg gaye the. uski saanse tez chal rahi thi. use lag raha tha ki sans lene ke liye use kafi takat lagani pad rahi thi. aisa jaise uske fefadon me hava jaa hi nahi rahi ho. uske dil aur dimag dono me lakva sa mar diya tha. tabhi pandit jee kamre ke chat ke taraf dekhte huye bole "pair dabaa" savitri jo ki is dayniya haalat me thi aur sharm se paani paani ho chuki thi, theek apne samne neeche farsh par dekh rahi thi, kyonki use bhola pandit ke taraf dekhne ki himmat ab khatm ho chuki thi, awaz sunkar fir se kanp see gayi aur apne nazro ko badi takat se utha kar chauki ke taraf ki aur bhola pandit ko jab kankhiyon se dekhi ki ve dhoti aur baniyan me sir ke neeche takiya lagaye lete the aur ab savitri ke taraf hi dekh rahe the. savitri fir se nazre neeche gada lee. vah chauki se kuch hi duri par hi khadi thi use lag raha tha ki uske pair ke dono talve farsh se aise chipak gaye ho ki ab chutenge hi nahi. bhola pandit ko apni taraf dekhte huye vah fir se ghabra gayi aur dar ke maare unke pair dabaane ke liye aage badhi hi thi ki aisa mahsoos hua jaise use chakker aa gaya ho aur agle pal gir na jaye. shayad kafi dar aur ghabrahat ke vajah se hi aisa mahsoos ki. jyon hi savitri ne apna pair farsh par aage badhai to pair ke talve ke paseena ka geelapan farsh par saaf deekh raha tha. ab chaouki ke theek kareeb aa gayi aur khadi khadi yahi soch rahi thi ki ab unke pair ko kaise dabaye. bhola pandit ne savitri se keval pair dabane ke liye bola tha aur ye kuch nahi kaha ki chauki par baith kar dabaye ya keval chauki ke kinaare khadi hokar ki dabaye. kyonki savitri yah janti thee ki pandit jee ko yah maloom hai ki savitri ek chhoti jaat ki hai aur laxmi ne savitri ko pahle hi yah bataya tha ki dukaan me keval apne kaam se kaam rakhna kabhi bhi pandit jee ka koi saman ya chauki ko mat choona kyonki we ek brahman jaati ke hain aur wo chhoti jaati ke logo se apne samano ko choona bardasht nahi karte, aur dukaan me rakhi stul par hi baithna aur aram karne ke liye chatai ka istemaal karna. shayad isi bat ke man me aane se vah chauki se aise khadi thi ki kahin chauki se sat na jaaye. bhola pandit ne yah dekhte hi ki vah chauki se satna nahi chahti hai unhe yad aaya ki savitri ek chote jaati ki hai aur agle hi pal uthkar baithe aur bole "jaa chatai laa" savitri ka dar bahut sahi nikla vah yah sochte huye ki bhalaa chauki ko usne chooa nahi. dukaan wale hisse me jahan wo aram karne ke liye chatai bichai thi, lene chali gayi. idher bhola pandit chauki par fir se pair latka kar baith gaye, savitri jyoni chatai le kar aayi unhone use chauki ke bagal me neeche bichane ke liye ungli se ishara kiya. savitri ki dari huyi aankhe ishara dekhte hi samajh gayi ki kahan bichana hai aur bicha kar ek taraf khadi ho gayi aur apne dupatte ko theek karne lagi, uska dupatta pahle se hi kafi theek tha aur uske dono chation ko achhi tarah se dhaki thin fir bhi apne santushti ke liye uske hath dupatte ke kinaron par chale hi jaate. bhola pandit chauki par se utar kar neeche bichi huyi chatai par let gaye. lekin chauki par rakhe takiya ko sir ke neeche nahi lagaya shayad chatai ka istemaal chhoti jaati ke liye hi tha is liye hi chauki ke bistar par rakhe takia ko chatai par lana munasib nahi samjhe. bhola pandit letne ke baad apne pairon ko sidha kar diya jaisa ki chauki ke upar lete the. fir se dhoti unke ghutno tak ke hisse ko dhak rakha tha. unke pair ke taraf savitri chupchap khadi apne nazron ko farsh par tikayi thi. sine ka dhadakna ab aur tej ho gaya tha. tabhi pandit jee ke adesh ki awaz savitri ke kaano me padi "ab dabaa" . savitri ko aisa lag raha tha ki ghabrahat se use ulti ho jyegi. ab savitri ke saamne yah chunauti thi ki vah pandit ji ke samne kis tarah se baithe ki pandit ji ko uska shareer kam se kam deekhe. jaisa ki vah salwar sameez pahani aur dupatta se apne upri hisse ko kafi dhang se dhak rakha tha. fir usne apne pair ke ghutne ko modkar baithi aur yahi sochne lagi ki ab pair dabana kahan se suru kare. uske man me virodh ke bhi bhav the ki aisa karne se wo mana kar de lekin gaon ki attharah saal ki sidhi sadhi gareeb ladki jisne apna jyada samay ghar me hi bitaya tha, aur sharmilee hone ke saath saath vah ek darpod kism ki bhi ho gayi thi. aur vah apne ghar se bahar dusre jagah yani bhola pandit ke dukaan me thi jiska darwaja band tha aur dopahar ke samay ekant aur shant mahaul me uska man aur dar se bhar gaya tha. uske upar se bhola bandit jo unchee jaati ke the aur unka robeela kadak awaz aur usase bahut kam baaten karne ka swabhav ne savitri ke man me bache khuche atmvishwas aur manobal ko to lagbhag khatm hi kar diya tha. vaise vah pahle se hi kafi dari huyi thi aur aj uska pahla din tha jab vah dukaan me bhola pandit ke saath akelee thi

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