रेल यात्रा compleet

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rajsharma
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रेल यात्रा compleet

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रेल यात्रा

रेलवे स्टेशन पर भारी भीड़ थी। आने वालों की भी और जाने वालों की भी।
तभी स्टेशन पर घोषणा हुई- "कृपया ध्यान दें, दिल्ली से मुंबई को जाने
वाली राजधानी एक्सप्रेस १५ घंटे लेट है।"

सुनते ही आशीष का चेहरा फीका पढ़ गया। कहीं घर वाले ढूँढ़ते रेलवे स्टेशन
तक आ गए तो। उसने 3 दिन पहले ही आरक्षण करा लिया था मुंबई के लिए। पर
घोषणा सुनकर तो उसके सारे प्लान का कबाड़ा हो गया। हताशा में उसने चलने
को तैयार खड़ी एक पैसेन्जर ट्रेन की सीटी सुनाई दी। हड़बड़ाहट में वह उसी
की ओर भागा।

अन्दर घुसने के लिए आशीष को काफी मशक्कत करनी पड़ी। अन्दर पैर रखने की जगह
भी मुश्किल से थी। सभी खड़े थे। क्या पुरुष और क्या औरत। सभी का बुरा हाल
था और जो बैठे थे। वो बैठे नहीं थे, लेटे थे। पूरी सीट पर कब्ज़ा किये।

आशीष ने बाहर झाँका। उसको डर था। घरवाले आकर उसको पकड़ न लें। वापस न ले
जाएं। उसका सपना न तोड़ दें। हीरो बनने का!

आशीष घर से भाग कर आया था। हीरो बनने के लिए। शकल सूरत से हीरो ही लगता
था। कद में अमिताभ जैसा। स्मार्टनेस में अपने सलमान जैसा। बॉडी में आमिर
खान जैसा ( गजनी वाला। 'दिल' वाला नहीं ) और अभिनय (एक्टिंग) में शाहरुख़
खान जैसा। वो इन सबका दीवाना था। इसके साथ ही हिरोइन का भी।

उसने सुना था। एक बार कामयाब हो जाओ फिर सारी जवान हसीन माडल्स, हीरो के
नीचे ही रहती हैं। बस यही मकसद था उसका हीरो बनने का।

रेलगाड़ी के चलने पर उसने रहत की सांस ली।
हीरोगीरी के सपनों में खोये हुए आशीष को अचानक पीछे से किसी ने धक्का
मारा। वो चौंक कर पीछे पलटा।

"देखकर नहीं खड़े हो सकते क्या भैया। बुकिंग करा रखी है क्या?"

आशीष देखता ही रह गया। गाँव की सी लगने वाली एक अल्हड़ जवान युवती उसको
झाड़ पिला रही थी। उम्र करीब 22 साल होगी। ब्याहता (विवाह की हुई ) लगती
थी। चोली और घाघरे में। छोटे कद की होने की वजह से आशीष को उसकी श्यामल
रंग की चूचियां काफी अन्दर तक दिखाई दे रहीं थीं। चूचियों का आकार ज्यादा
बड़ा नहीं लगता था। पर जितना भी था। मनमोहक था। आशीष उसकी बातों पर कम
उसकी छलकती हुई मस्तियों पर ज्यादा ध्यान दे रहा था।
उस अबला की पुकार सुनकर भीड़ में से करीब 45 साल के एक आदमी ने सर निकल
कर कहा- "कौन है बे?" पर जब आशीष के डील डौल को देखा तो उसका सुर बदल
गया- "भाई कोई मर्ज़ी से थोड़े ही किसी के ऊपर चढ़ना चाहता है। या तो कोई
चढ़ाना चाहती हो या फिर मजबूरी हो! जैसे अब है। " उसकी बात पर सब ठाहाका
लगाकर हंस पडे।

तभी भीड़ में से एक बूढ़े की आवाज आई- "कविता! ठीक तो हो बेटी "

पल्ले से सर ढकते उस 'कविता ' ने जवाब दिया- "कहाँ ठीक हूँ बापू!" और फिर
से बद्बदाने लगी- "अपने पैर पर खड़े नहीं हो सकते क्या?"

आशीष ने उसके चेहरे को देखा। रंग गोरा नहीं था पर चेहरे के नयन - नक्श तो
कई हीरोइनों को भी मात देते थे। गोल चेहरा, पतली छोटी नाक और कमल की
पंखुड़ियों जैसे होंठ। आशीष बार बार कन्खियों से उसको देखता रहा।

तभी कविता ने आवाज लगायी- "रानी ठीक है क्या बापू? वहां जगह न हो तो यहाँ
भेज दो। यहाँ थोड़ी सी जगह बन गयी है। "
और रानी वहीं आ गयी। कविता ने अपने और आशीष के बीच रानी को फंसा दिया।
रानी के गोल मोटे चूतड आशीष की जांघों से सटे हुए थे। ये तो कविता ने
सोने पर सुहागा कर दिया।
अब आशीष कविता को छोड़ रानी को देखने लगा। उसके लट्टू भी बढे बढे थे। उसने
एक मैली सी सलवार कमीज डाल राखी थी। उसका कद भी करीब 5' 2" होगा। कविता
से करीब 2" लम्बी! उसका चहरा भी उतना ही सुन्दर था और थोड़ी सी लाली भी
झलक रही थी। उसके जिस्म की नक्काशी मस्त थी। कुल मिला कर आशीष को टाइम
पास का मस्त साधन मिल गया था।

रानी कुंवारी लगती थी। उम्र से भी और जिस्म से भी। उसकी छातियाँ भारी
भारी और कसी हुई गोलाई लिए हुए थी। नितम्बों पर कुदरत ने कुछ ज्यादा ही
इनायत की थी। आशीष रह रह कर अनजान बनते हुए उसकी गांड से अपनी जांघें
घिसाने लगा। पर शायद उसको अहसास ही नहीं हो रहा था। या फिर क्या पता उसको
भी मजा आ रहा हो!
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
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Re: रेल यात्रा

Post by rajsharma »


अगले स्टेशन पर डिब्बे में और जनता घुश आई और लाख कोशिश करने पर भी कविता
अपने चारों और लफ़ंगे लोगों को सटकर खड़ा होने से न रोक सकी।

उसका दम सा घुटने लगा। एक आदमी ने शायद उसकी गांड में कुछ चुभा दिया। वह
उछल पड़ी। - "क्या कर रहे हो? दिखता नहीं क्या?"

"ऐ मैडम। ज्यास्ती बकवास नहीं मारने का। ठंडी हवा का इतना इच शौक पल
रैल्ली है। तो अपनी गाड़ी में बैठ के जाने को मांगता था। " आदमी भड़क कर
बोला और ऐसे ही खड़ा रहा।
कविता एकदम दुबक सी गयी। वो तो बस आशीष जैसों पर ही डाट मार सकती थी।

कविता को मुशटंडे लोगों की भीड़ में आशीष ही थोडा शरीफ लगा। वो रानी समेत
आशीष के साथ चिपक कर खड़ी हो गई जैसे कहना चाहती हो, "तुम ही सही हो, इनसे
तो भगवन बचाए!"

आशीष भी जैसे उनके चिपकने का मतलब समझ गया। उसने पलट कर अपना मुंह उनकी
ही ओर कर लिया और अपनी लम्बी मजबूत बाजू उनके चारों और बैरियर की तरह लगा
दी।

कविता ने आशीष को देखा। आशीष थोड़ी हिचक के साथ बोला- "जी उधर से दबाव पड़
रहा है। आपको परेशानी ना हो इसीलिए अपने हाथ बर्थ (सीट) से लगा लें। "

कविता जैसे उसका मतलब समझी ही ना हो। उसने आशीष के बोलना बंद करते ही
अपनी नजरें हटा ली। अब आशीष उसकी चुचियों को अन्दर तक और रानी की चूचियों
को बहार से देखने का आनंद ले रहा था। कविता ने अब कोशिश भी नहीं की उनको
आशीष की नजरों से बचाने की।
"कहाँ जा रहे हो?..." कविता ने लोगों से उसको बचने के लिए जैसे धन्यवाद्
देने की खातिर पूछ लिया।

"मुंबई " आशीष उसकी बदली आवाज पर काफी हैरान था- "और तुम?"

"भैया जा तो हम भी मुंबई ही रहे हैं। पर लगता नहीं की पहुँच पायेंगे
मुंबई तक!" कविता अब मीठी आवाज में बात कर रही थी।।
"क्यूँ?" आशीष ने बात बढ़ा दी!

"अब इतनी भीड़ में क्या भरोसा! मैंने कहा तो है बापू को की जयपुर से
तत्काल करा लो। पर वो बूढ़ाऊ माने तब न!"

"भाभी! बापू को ऐसे क्यूँ बोलती हो?" रानी की आवाज उसके चिकने गालों जैसी
ही मीठी थी।

आशीष ने एक बार फिर कविता की चूचियों को अन्दर तक देखा। उसके लड में तनाव
आने लगा। और शायद वो तनाव रानी अपनी गांड की दरार में महसूस करने लगी।
रानी बार बार अपनी गांड को लंड की सीधी टक्कर से बचने के लिए इधर उधर
मटकाने लगी। और उसका ऐसा करना ही उसकी गोल मटोल गांड के लिए नुक्सान देह
साबित होने लगा।।

लंड गांड से सहलाया जाता हुआ और अधिक सख्त होने लगा। और अधिक खड़ा होने लगा।
पर रानी के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे। वो दाई गोलाई को बचाती तो लड
बायीं पर ठोकर मारता और अगर बायीं को बचाती तो दाई पर उसको लंड चुभता हुआ
महसूस होता।

उसको एक ही तरीका अच्छा लगा। रानी ने दोनों चुतरों को बचा लिया। वो सीधी
खड़ी हो गयी। पर इससे उसकी मुसीबत और भयंकर हो गयी। लंड उसकी गांड की
दरारों के बीचों बीच फंस गया। बिलकुल खड़ा होकर। वो शर्मा कर इधर उधर
देखने लगी। पर बोली कुछ नहीं।

आशीष ने मन ही मन एक योजना बना ली। अब वो इन के साथ ज्यादा से ज्यादा
रहना चाहता था।

"मैं आपके बापू से बात करू। मेरे पास आरक्षण के चार टिकेट हैं। मेरे और
दोस्त भी आने वाले थे पर आ नहीं पाए! मैं भी जयपुर से उसी में जाऊँगा। कल
रात को करीब 10 बजे वो जयपुर पहुंचेगी। तुम चाहो तो मुझे साधारण किराया
दे देना आगे का!" आशीष को डर था कि किराया न मांगने पर कहीं वो और कुछ न
समझ बैठे। उसका लंड रानी कि गांड में घुसपैठ करता ही जा रहा था। लम्बा हो
हो होकर!
"बापू!" जरा इधर कू आना! कविता ने जैसे गुस्से में आवाज लगायी।

"अरे मुश्किल से तो यहाँ दोनों पैर टिकाये हैं! अब इस जगह को भी खो दूं
क्या?" बुढ़े ने सर निकाल कर कहा।

रानी ने हाथ से पकड़ कर अन्दर फंसे लंड को बहार निकालने की कोशिश की। पर
उसके मुलायम हाथों के स्पर्श से ही लंड फुफकारा। कसमसा कर रानी ने अपना
हाथ वापस खींच लिया। अब उसकी हालत खराब होने लगी थी। आशीष को लग रहा था
जैसे रानी लंड पर टंगी हुयी है। उसने अपनी एडियों को ऊँचा उठा लिया ताकि
उसके कहर से बच सके पर लंड को तो ऊपर ही उठना था। आशीष की तबियत खुश हो
गयी।!
रानी आगे होने की भी कोशिश कर रही थी पर आगे तो दोनों की चूचियां पहले ही
एक दुसरे से टकरा कर मसली जा रही थी।

अब एड़ियों पर कब तक खड़ी रहती बेचारी रानी। वो जैसे ही नीचे हुयी, लंड
और आगे बढ़कर उसकी चूत की चुम्मी लेने लगा।
रानी की सिसकी निकाल गयी- "आह्हह्ह्ह!"

"क्या हुआ रानी?" कविता ने उसको देखकर पूछा।

"कुछ नहीं भाभी!" तुम बापू से कहो न आरक्षण वाला टिकेट लेने के लिए भैया से!"
आशीष को भैया कहना अच्छा नहीं लगा। आखिर भैया ऐसे गांड में लंड थोड़ा ही फंसाते हैं।
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Re: रेल यात्रा

Post by rajsharma »

धीरे धीरे रानी का बदन भी बहकने सा लगा। आशीष का लंड अब ठीक उसकी चूत के
मुहाने पर टिका हुआ था। चूत के दाने पर।

"बापू " कविता चिल्लाई।

"बापू " ने अपना मुंह इस तरफ निकाला, एक बार आशीष को घूरा इस तरह खड़े
होने के लिए और फिर भीड देखकर समझ गया की आशीष तो उनको उल्टा बचा ही रहा
है- "क्या है बेटी?"

कविता ने घूंघट निकल लिया था- "इनके पास आरक्षण की टिकेट हैं जयपुर से
आगे के लिए। इनके काम की नहीं हैं। कह रहे हैं सामान्य किराया लेकर दे
देंगे!"

उसके बापू ने आशीष को ऊपर से नीचे तक देखा। संतुष्ट होकर बोला- "अ ये तो
बड़ा ही उपकार होगा। भैया हम गरीबों पर! किराया सामान्य का ही लोगे न!"

आशीष ने खुश होकर कहा- "ताऊ जी मेरे किस काम की हैं। मुझे तो जो मिल
जायेगा। फायदे का ही होगा।" कहते हुए वो दुआ कर रहा था की ताऊ को पता न
हो की टिकेट वापस भी हो जाती हैं।
"ठीक है भैया। जयपुर उतर जायेंगे। बड़ी मेहरबानी!" कहकर भीड़ में उसका
मुंह गायब हो गया।

आशीष का ध्यान रानी पर गया वो धीरे धीरे आगे पीछे हो रही थी। उसको मजा आ रहा था।

कुछ देर ऐसे ही होते रहने के बाद उसकी आँखें बंद हो गयी। और उसने कविता
को जोर से पकड़ लिया।

"क्या हुआ रानी?"

सँभलते हुए वह बोली। "कुछ नहीं भाभी चक्कर सा आ गया था।

अब तक आशीष समझ चूका था कि रानी मुफ्त में ही मजे ले गयी चुदाई जैसे।
उसका तो अब भी ऐसे ही खड़ा था।
एक बार आशीष के मन में आई कि टाइलेट में जाकर मुठ मार आये। पर उसके बाद
ये ख़ास जगह खोने का डर था।
अचानक किसी ने लाइट के आगे कुछ लटका दिया जिससे आसपास अँधेरा सा हो गया।

लंड वैसे ही अकड़ा खड़ा था रानी कि गांड में। जैसे कह रहा हो। अन्दर घुसे
बिना नहीं मानूंगा मेरी रानी!

लंड के धक्को और अपनी चूचियों के कविता भाभी की चूचियों से रगड़ खाते
खाते वो जल्दी ही फिर लाल हो गयी।
इस बार आशीष से रहा नही गया। कुछ तो रोशनी कम होने का फायदा। कुछ ये
विश्वास की रानी मजे ले रही है। उसने थोडा सा पीछे हटकर अपने पेन्ट की
जिप खोल कर अपने घोड़े को खुला छोड़ दिया। रानी की गांड की घटी में खुला
चरने के लिए के लिए!
रानी को इस बार ज्यादा गर्मी का अहसास हुआ। उसने अपना हाथ नीचे लगा कर
देखा की कहीं गीली तो नहीं हो गयी नीचे से। और जब मोटे लंड की मुंड पर
हाथ लगा तो वो उचक गयी। अपना हाथ हटा लिया। और एक बार पीछे देखा।
आशीष ने महसूस किया, उसकी आँखों में गुस्सा नहीं था। अलबत्ता थोडा डर
जरुर था। भाभी का और दूसरी सवारियों के देख लेने का।
थोड़ी देर बाद उसने धीरे-2 करके अपनी कमीज पीछे से निकाल दिया।

अब लंड और चूत के बीच में दो दीवारें थी। एक तो उसकी सलवार और दूसरा उसकी कच्छी.

आशीष ने हिम्मत करके उसकी गांड में अपनी उंगली डाल दी और धीरे धीरे सलवार
को कुरेदने लगा। उसमें से रास्ता बनाने के लिए।
योजना रानी को भा गयी। उसने खुद ही सूट ठीक करने के बहाने अपनी सलवार में
हाथ डालकर नीचे से थोड़ी सी सिलाई उधेड़ दी। लेकिन आशीष को ये बात तब पता
चली। जब कुरेदते कुरेदते एक दम से उसकी अंगुली सलवार के अन्दर दाखिल हो
गयी।
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Re: रेल यात्रा

Post by rajsharma »


ज्यों-ज्यों रात गहराती जा रही थी। यात्री खड़े खड़े ही ऊँघने से लगे थे।
आशीष ने देखा। कविता भी झटके खा रही है खड़ी खड़ी। आशीष ने भी किसी सज्जन
पुरुष की तरह उसकी गर्दन के साथ अपना हाथ सटा दिया। कविता ने एक बार आशीष
को देखा फिर आँखें बंद कर ली।
अब आशीष और खुल कर खतरा उठा सकता था। उसने अपने लंड को उसकी गांड की दरार
में से निकाल कर सीध में दबा दिया और रानी के बनाये रस्ते में से उंगली
घुसा दी। अंगुली अन्दर जाकर उसकी कच्छी से जा टकराई!
आशीष को अब रानी का डर नहीं था। उसने एक तरीका निकला। रानी की सलवार को
ठोडा ऊपर उठाया उसको कच्छी समेत पकड़ कर सलवार नीचे खीच दी। कच्छी थोड़ी
नीचे आ गयी और सलवार अपनी जगह पर। ऐसा करते हुए आशीष खुद के दिमाग की दाद
दे रहा था। हींग लगे न फिटकरी और रंग चौखा।
रानी ने कुछ देर ये तरीका समझा और फिर आगे का काम खुद संभल लिया। जल्द ही
उसकी कच्छी उसकी जांघो से नीचे आ गयी। अब तो बस हमला करने की देर थी।

आशीष ने उसकी गुदाज जांघो को सलवार के ऊपर से सहलाया। बड़ी मस्त और चिकनी
थी। उसने अपने लंड को रानी की साइड से बहार निकल कर उसके हाथ में पकड़ा
दिया। रानी उसको सहलाने लगी।
आशीष ने अपनी उंगली इतनी मेहनत से बनाये रास्तों से गुजार कर उसकी चूत के
मुंहाने तक पहुंचा दी। रानी सिसक पड़ी।
अब उसका हाथ आशीष के मोटे लंड पर जरा तेज़ी से चलने लगा। उत्तेजित होकर
उसने रानी को आगे से पीछे दबाया और अपनी ऊगली गीली हो चुकी चूत के अन्दर
घुसा दी। रानी चिल्लाते-चिल्लाते रुक गयी। आशीष निहाल हो गया। धीरे धीरे
करते-करते उसने जितनी खड़े-खड़े जा सकती थी उतनी उंगली घुसाकर अन्दर बहार
करनी शुरू कर दी। रानी के हाठों की जकड़न बढ़ते ही आशीष समझ गया की उसकी
अब बस छोड़ने ही वाली है। उसने लंड अपने हाथ में पकड़ लिया और जोर जोर से
हिलाने लगा। दोनों ही छलक उठे एक साथ। रानी ने अपना दबाव पीछे की और बड़ा
दिया ताकि भाभी पर उनके झटकों का असर कम से कम हो और अनजाने में ही वह एक
अनजान लड़के की उंगली से चुदवा बैठी। पर यात्रा अभी बहुत बाकी थी। उसने
पहली बार आशीष की तरफ देखा और मुस्कुरा दी!

अचानक आशीष को धक्का लगा और वो हडबडा कर परे हट गया। आशीष ने देखा उसकी
जगह करीब 45-46 साल के एक काले कलूटे आदमी ने ले ली। आशीष उसको उठाकर
फैंकने ही वाला था की उस आदमी ने धीरे से रानी के कान में बोला- "चुप कर
के खड़ी रहना साली। मैंने तुझे इस लम्बू से मजे लेते देखा है। ज्यादा
हीली तो सबको बता दूंगा। सारा डिब्बा तेरी गांड फाड़ डालेगा कमसिन जवानी
में!" वो डर गयी उसने आशीष की और देखा। आशीष पंगा नहीं लेना चाहता था। और
दूर हटकर खड़ा हो गया।
उस आदमी का जायजा अलग था। उस ने हिम्मत दिखाते हुए रानी की कमीज में हाथ
डाल दिया। आगे। रानी पूरा जोर लगा कर पीछे हट गयी। कहीं भाभी न जाग जाये।
उसकी गांड उस कालू के खड़े होते हुए लंड को और ज्यादा महसूस करने लगी।
रानी का बुरा हाल था। कालू उसकी चूचियां को बुरी तरह उमेठ रहा था। उसने
निप्पलों पर नाखून गड़ा दिए। रानी विरोध नहीं कर सकती थी।
एकाएक उस काले ने हाथ नीचे ले जाकर उसकी सलवार में डाल दिया। ज्यों ही
उसका हाथ रानी की चूत के मुहाने पर पहुंचा। रानी सिसक पड़ी। उसने अपना
मुंह फेरे खड़े आशीष को देखा। रानी को मजा तो बहुत आ रहा था पर आशीष जैसे
सुन्दर छोकरे के हाथ लगने के बाद उस कबाड़ की छेड़-छाड़ बुरी लग रही थी।

अचानक कालू ने रानी को पीछे खींच लिया। उसकी चूत पर दबाव बनाकर। कालू का
लंड उसकी सलवार के ऊपर से ही रानी की चूत पर टक्कर मारने लगा। रानी गरम
होती जा रही थी।
अब तो कालू ने हद कर दी। रानी की सलवार को ऊपर उठाकर उसके फटे हुए छेद को
तलाशा और उसमें अपना लंड घुसा कर रानी की चूत तक पहुंचा दिया। रानी ने
कालू को कसकर पकड़ लिया। अब उसको सब कुछ अच्छा लगने लगा था। आगे से अपने
हाथ से उसने रानी की कमसिन चूत की फाँकों को खोला और अच्छी तरह अपना लंड
सेट कर दिया। लगता था जैसे सभी लोग उन्ही को देख रहे हैं। रानी की आँखें
शर्म से झुक गयी पर वो कुछ न बोल पाई।
कहते हैं जबरदस्ती में रोमांस ज्यादा होता है। इसको रानी का सौभाग्य कहें
या कालू का दुर्भाग्य। गोला अन्दर फैकने से पहले ही फट गया। कालू का सारा
माल बहार ही निकल गया। रानी की सलवार और उसकी चिकनी मोटी जाँघों पर! कालू
जल्द ही भीड़ में गुम हो गया। रानी का बुरा हाल था। उसको अपनी चूत में
खालीपन सा लगा। लंड का। ऊपर से वो सारी चिपचिपी सी हो गयी। कालू के रस
में।
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Re: रेल यात्रा

Post by rajsharma »


गनीमत हुयी की जयपुर स्टेशन आ गया। वरना कई और भेड़िये इंतज़ार में खड़े थे।
अपनी अपनी बारी के।

जयपुर रेलवे स्टेशन पर वो सब ट्रेन से उतर गए। रानी का बुरा हाल था। वो
जानबुझ कर पीछे रह रही थी ताकि किसी को उसकी सलवार पर गिरे सफ़ेद धब्बे न
दिखाई दे जाये।

आशीष बोला- "ताऊ जी,कुछ खा पी लें! बहार चलकर। "

ताऊ पता नहीं किस किस्म का आदमी था- "बोला भाई जाकर तुम खा आओ! हम तो
अपना लेकर आये हैं।

कविता ने उसको दुत्कारा- "आप भी न बापू! जब हम खायेंगे तो ये नहीं खा
सकता। हमारे साथ। "
ताऊ- "बेटी मैंने तो इस लिए कह दिया था कहीं इसको हमारा खाना अच्छा न
लगे। शहर का लौंडा है न। हे राम! पैर दुखने लगे हैं। "

आशीष- "इसीलिए तो कहता हूँ ताऊ जी। किसी होटल में चलते हैं। खा भी लेंगे।
सुस्ता भी लेंगे।"

ताऊ- "बेटा, कहता तो तू ठीक ही है। पर उसके लिए पैसे।"

आशीष- "पैसों की चिंता मत करो ताऊ जी। मेरे पास हैं।" आशीष के ATM में
लाखों रुपैये थे।

ताऊ- "फिर तो चलो बेटा, होटल का ही खाते हैं।"
होटल में बैठते ही तीनो के होश उड़ गए। देखा रानी साथ नहीं थी। ताऊ और
कविता का चेहरा तो जैसा सफ़ेद हो गया।

आशीष ने उनको तसल्ली देते हुए कहा- "ताऊ जी, मैं देखकर आता हूँ। आप यहीं
बैठकर खाना खाईये तब तक।"

कविता- "मैं भी चलती हूँ साथ!"

ताऊ- "नहीं! कविता मैं अकेला यहाँ कैसे रहूँगा। तुम यहीं बैठी रहो। जा
बेटा जल्दी जा। और उसी रस्ते से देखते जाना, जिससे वो आए थे। मेरे तो
पैरों में जान नहीं है। नहीं तो मैं ही चला जाता।"

आशीष उसको ढूँढने निकल गया।

आशीष के मन में कई तरह की बातें आ रही थी।" कही पीछे से उसको किसी ने
अगवा न कर लिया हो! कही वो कालू। " वह स्टेशन के अन्दर घुसा ही था की
पीछे से आवाज आई- "भैया!"

आशीष को आवाज सुनी हुयी लगी तो पलटकर देखा। रानी स्टेशन के प्रवेश द्वार
पर सहमी हुयी सी खड़ी थी।

आशीष जैसे भाग कर गया- "पागल हो क्या? यहाँ क्या कर रही हो? चलो जल्दी। "

रानी को अब शांत सी थी।- "मैं क्या करती भैया। तुम्ही गायब हो गए अचानक!"

"ए सुन! ये मुझे भैया-भैया मत बोल "

"क्यूँ?"

"क्यूँ! क्यूंकि ट्रेन में मैंने "और ट्रेन का वाक्य याद आते ही आशीष के
दिमाग में एक प्लान कौंध गया!

"मेरा नाम आशीष है समझी! और मुझे तू नाम से ही बुलाएगी। चल जल्दी चल!"

आशीष कहकर आगे बढ़ गया और रानी उसके पीछे पीछे चलती रही।
आशीष उसको शहर की और न ले जाकर स्टेशन से बहार निकलते ही रेल की पटरी के
साथ साथ एक सड़क पर चलने लगा। आगे अँधेरा था। वहां काम बन सकता था!

"यहाँ कहाँ ले जा रहे हो, आशीष!" रानी अँधेरा सा देखकर चिंतित सी हो गयी।

"तू चुप चाप मेरे पीछे आ जा। नहीं तो कोई उस कालू जैसा तुम्हारी। समाझ
गयी न।" आशीष ने उसको ट्रेन की बातें याद दिला कर गरम करने की कोशिश की।

"तुमने मुझे बचाया क्यूँ नहीं। इतने तगड़े होकर भी डर गए ", रानी ने
शिकायती लहजे में कहा।

"अच्छा! याद नहीं वो साला क्या बोल रहा था। सबको बता देता। "

रानी चुप हो गयी। आशीष बोला- "और तुम खो कैसे गयी थी। साथ साथ नहीं चल सकती थी? "

रानी को अपनी सलवार याद आ गयी- "वो मैं!" कहते कहते वो चुप हो गयी।

"क्या?" आशीष ने बात पूरी करने को कहा।

"उसने मेरी सलवार गन्दी कर दी। मैं झुक कर उसको साफ़ करने लगी। उठकर देखा तो। "
आशीष ने उसकी सलवार को देखने की कोशिश की पर अँधेरा इतना गहरा था की सफ़ेद
सी सलवार भी उसको दिखाई न दी।
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(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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