काँच की हवेली "kaanch ki haveli" compleet

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Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Post by Jemsbond »

amitraj39621 wrote:Nice please thora lamba update de

thanks amit


ye lijiye update hajir hai
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Post by Jemsbond »

5 बज चुके थे. कंचन घाटी में झरने के निकट उसी पत्थर पर बैठी हुई थी जिस पर रोज़ बैठकर रवि का इंतेज़ार किया करती थी. रोज़ इसी समय वो रवि के साथ होती थी. उसके बाहों में बाहें डाल कर वादी की सुंदरता में खो जाती थी. एक दूसरे की धड़कनो को सुनते हुए प्रेम की बाते करती थी. उसे रवि का बोलना इतना भाता था कि उसका मन चाहता, रवि यूँही बोलता रहे और वो खामोशी से उसकी बातें सुनती रहे. पर आज वैसा कुच्छ भी ना था. आज ना तो उसे रवि की वो मीठी बातें सुनने को मिल रही थी और ना ही उसके तन-बदन को महका देने वाला रवि का साथ. आज वो अकेली थी. नितांत अकेली.

कंचन को ये शंका पहले से थी कि रवि आज नही आएगा. किंतु फिर भी वो खुद को यहाँ आने से नही रोक पाई. उसे इस घाटी से, इस वातावरण से बेहद मोह हो गया था. दोपहर से ही उसका मन यहाँ आने के लिए व्याकुल हो उठा था. 4 बजने तक वो यहाँ आ पहुँची थी. और पिच्छले एक घंटे से टुकूर-टुकूर उस रास्ते की ओर देखे जा रही थी जिस ओर से रवि के आने की उम्मीदे थी. किंतु जब भी उसकी नज़र रास्ते की ओर जाती, खाली और सुनसान पथ को देख कर निराशा से अपना सर झुका लेती. जैसे जैसे वक़्त गुज़रता जा रहा था उसके मन की पीड़ा बढ़ती जा रही थी.

कुच्छ देर और गुज़र गयी. रवि अब भी नही आया. रवि को ना आता देख उसका मन गहरी पीड़ा से भर गया. उसकी आँखों की कोरों पर आँसू की बूंदे छलक आई.

"लगता है अब साहेब नही आएँगे. वो मुझसे सदा के लिए रूठ गये. अब मुझे सारी उमर ऐसे ही इंतेज़ार करना होगा." कंचन मन ही मन बोली. उसकी आँखें फिर से पानी बरसाने लगी. - "क्यों होता है ऐसा? क्यों जो चीज़ हमें सबसे अच्छी लगती है वो हमें नही मिलती? कितना अच्छा होता साहेब और मेरी शादी हो जाती. मैं दुल्हन बनकर उनके घर जाती. उनके साथ हँसी खुशी ज़िंदगी बिताती. पर सब गड़-बॅड हो गया. सारी ग़लती पीताजी की है. वे ना तो साहेब के पीताजी की हत्या करते ना माजी और साहेब मुझसे रूठते. अब मैं कभी हवेली नही जाउन्गि. तभी उन्हे पता चलेगा, अपने जब दूर होते हैं तो कैसा लगता है."

कंचन की आँख से बहते आँसू तेज़ हो गये. और उसकी रुलाई फुट पड़ी.

कुच्छ देर बाद जब उसकी रुलाई रुकी, उसने गर्दन उठा कर अपनी प्यासी नज़रों को रास्ते पर डाला. अगले ही पल उसकी आँखें आश्चर्य से भर गयी. उसे रवि आता हुआ दिखाई दिया.

रवि को आता देख उसका दिल खुशी से झूम उठा. उसे लगा जैसे उसे पूरा संसार मिल गया. इस बार उसकी आँखें खुशी से डब-डबा गयी.

कंचन खुशी से रवि की और लपकना ही चाहती थी तभी उसके दिल ने कहा - "रुक जा कंचन...! तुम्हे इतना खुश होने की ज़रूरत नही है. कहीं ऐसा ना हो साहेब तुम्हारी खुशी से नाराज़ हो जायें. साहेब को इस वक़्त पिता की मृत्यु का दुख है. तुम्हारा यूँ खुश होना कहीं उनके दिल से तुम्हारी मोहब्बत को ना निकाल दे. पहले उनकी बातें सुन ले. पहले ये जान ले वो क्यों आए हैं. क्या पता वो तुम्हे खरी-खोटी सुना कर तुमसे नाता तोड़ने आए हों."

कंचन रुकी.

उसके चेहरे पर आई चमक क्षण में गायब हो गयी. उदासी फिर से उसके चेहरे का आवरण बन गयी.

रवि नज़दीक आया.

कंचन आशा भरी दृष्टि से रवि को देखने लगी.

रवि पास आकर खड़ा हो गया और कंचन के चेहरे पर अपनी निगाह डाली.

कंचन का चेहरा मुरझाया हुआ था किंतु दिल में खुशियों के हज़ारों फूल खिल उठे थे. वो रवि के मूह से बोल सुनने के लिए ऐसी व्याकुल थी मानो आज रवि उसके जीवन और मृत्यु का फ़ैसला सुनाने वाला हो. दिल ऐसे धड़क रहा था जैसे मीलों भाग कर आई हो.

"कंचन ! क्या नाराज़ हो मुझसे?" रवि ने मूह खोला.

कंचन मासूमियत से अपनी गर्दन ना में हिलाई.

"तो फिर इतनी दूर क्यों खड़ी हो? क्या आज मेरे गले नही लगोगी?"

रवि के कहने की देरी थी और उसकी आँखों की कोरों पर जमे आँसू छलक पड़े. खुशी से कुच्छ कहने के लिए उसके होंठ फड़फडाए पर शब्द बाहर ना आ सके.

वो तेज़ी से आगे बढ़ी और रवि की बाहों में समा गयी. रवि की छाती से लगते ही उसके अंदर की अंतर-पीड़ा आँसू का रूप लेकर बाहर आने लगे.

रवि उसे रोता देख बेचैन हो उठा.

"क्या हुआ कंचन? क्यों रो रही हो? क्या इसलिए कि मैं तुम्हे बिना कुच्छ कहे हवेली से बाहर आ गया?" रवि उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर बोला.

"साहेब आप मुझसे नाराज़ तो नही हो?" उसने गीली आँखों से रवि को देखा.

"नाराज़..? मैं भला तुमसे क्यों नाराज़ रहूँगा? तुमने किया ही क्या है?" रवि उसके आँसू पोछ्ता हुआ बोला.

"साहेब, जब आप और माजी हवेली से निकल गये तो मैं बहुत घबरा गयी थी. शाम तक मैं रोती रही थी फिर चिंटू को लेकर मैं भी हवेली छोड़ कर निकल गयी." कंचन ने सुबक्ते हुए अपने हवेली से निकलने से लेकर स्टेशन पहुँचने तक. फिर वहाँ पर बिरजू की मौत और उसके बाद घर आने तक की सारी बातें विस्तार से रवि को बता दिया.

रवि के आश्चर्य की सीमा ना रही. उसे कंचन पर बेहद प्यार आया. उसके खातिर कंचन कितनी बड़ी मुशिबत में फँसने वाली थी. उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद कहा और कंचन के माथे को चूमकर उसे छाती से भीच लिया.

कंचन किसी नन्ही बच्ची की तरह उसकी बाहों में सिमट-ती चली गयी.

कुच्छ देर एक दूसरे से लिपटे रहने के बाद रवि कंचन को लेकर खाई के करीब बड़े पत्थर पर जा बैठा.

"कंचन वादा करो अब ऐसी नादानी नही करोगी." रवि पत्थर पर बैठने के बाद कंचन से बोला - "कभी मेरी खातिर बिना सोचे समझे, बिना अपने बाबा और बुआ से पुच्छे कोई काम नही करोगी. मैं तुम्हे छोड़कर कहीं नही जाउन्गा. अगर कहीं गया भी तो तुरंत लौट आउन्गा. मेरे आने तक मेरी राह देखोगी."

कंचन सब-कुच्छ समझने के बाद किसी बच्चे की तरह 'हां' में अपना सर हिलाई.

रवि उसके भोलेपन पर मुस्कुराया.

"तुम्हे ऐसा क्यों लगा मैं तुम्हे छोड़कर चला जाउन्गा?" रवि ने पुछा.

"साहेब मैं समझी थी मेरे पिता की ग़लती की वजह से आप मुझे छोड़ दोगे. आप मुझे फिर कभी नही मिलोगे ये सोचकर मैं बहुत रोई हूँ. साहेब मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ. मुझे छोड़ कर मत जाना. नही तो मैं मर.....!" उसके शब्द पूरे होते उससे पहले रवि ने उसके मूह पर अपना हाथ धर दिया.

"खबरदार ! जो फिर कभी तुमने ऐसी बात की. जितना तुम मुझसे प्रेम करती हो, मैं भी तुमसे उतना ही प्रेम करता हूँ." रवि ने प्यार से डांटा. फिर उदास लहजे में बोला. - "ठाकुर साहब ने जो किया वो ग़लत था. और इसके लिए मैं उन्हे कभी क्षमा नही करूँगा. पर इसमे तुम्हारा क्या दोष? तुम तो निष्कलंक हो, तुम्हारा मन तो गंगा की तरह पवित्र है. संसार में तुमसे अच्छी, तुमसे प्यारी, तुमसे सुंदर और तुमसे पवित्र विचार वाली लड़की दूसरी ना होगी. तुम इतनी अच्छी हो कंचन कि अगर मैने भूले से भी तुम्हे कोई कष्ट दिया तो ईश्वर मुझसे नाराज़ हो जाएगा. इसलिए अपने मन से ये बात निकाल दो कि मैं तुम्हे कभी छोड़ कर जाउन्गा या तुम्हे कोई कष्ट दूँगा. तुम मेरी ज़रूरत हो कंचन. चाहें दुनिया इधर की उधर हो जाए. पर मैं तुम्हारा साथ नही छोड़ूँगा. जिसको जो करना हो करे."

कंचन का जी ठंडा हो गया. रवि के दिल में अपने लिए अथाह प्यार देखकर वो पूरी तरह से आश्वस्त हो गयी कि रवि अब उसे छोड़कर नही जाएगा. अब एक ही चिंता थी. किसी तरह माजी के दिल का मैल भी निकल जाए. वो भी उन्हे माफ़ कर दें और उसे स्वीकार कर लें."

"क्या सोचने लगी हो? क्या अब भी तुम्हे मेरी बातों पर यकीन नही है?" रवि ने कंचन को खोया देखा तो पुछा.

"नही साहेब, मैं तो माजी के बारे में सोच रही थी. क्या माजी भी मुझे माफ़ कर देंगी?"

"मा के दिल में अभी गुस्सा है. उनका गुस्सा जाने में थोड़ा वक़्त लगेगा. पर चिंता ना करो. सब ठीक हो जाएगा. मैं बहुत जल्द तुम्हारे घर बारात लेकर आउन्गा और तुम्हे दुल्हन बनाकर ले जाउन्गा."

कंचन अपनी बारात और दुल्हन बन-ने की बात सुनकर शरमा गयी. वो मुस्कुराती हुई उन आने वाले पलों में खोती चली गयी.

कंचन को अपने ख्यालो में खोता देख रवि शरारत से बोला - "कहाँ खो गयी? क्या अभी से रात्रि मिलन के सपने देखने लगी?"

"धत्त...!" कंचन लज़ती हुई बोली और उसकी बाहों में सिमट गयी.
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Post by Jemsbond »

5 baj chuke the. Kanchan ghati mein jharne ke nikat usi patthar par baithi hui thi jis par roz baithkar ravi ka intezaar kiya karti thi. Roz isi samay wo ravi ke sath hoti thi. Uske baahon mein baahein daal kar waadi ki sundarta mein kho jaati thi. Ek dusre ki dhadkano ko sunte hue prem ki baate karti thi. Use ravi ka bolna itna bhaata tha ki uska mann chahta, ravi yunhi bolta rahe aur wo khamoshi se uski baatein sunti rahe. Par aaj waisa kuchh bhi na tha. Aaj na to use ravi ki wo meethi baatein sunne ko mil rahi thi aur na hi uske tan-badan ko mehka dene wala ravi ka sath. Aaj wo akeli thi. Nitaant akeli.

kanchan ko ye shanka pehle se thi ki ravi aaj nahi aayega. kintu phir bhi wo khud ko yahan aane se nahi rok paayi. use is ghati se, is vatavaran se behad moh ho gaya tha. Dopehar se hi uska mann yahan aane ke liye vyakul ho utha tha. 4 bajne tak wo yahan aa pahunchi thi. Aur pichhle ek ghante se tukur-tukur us raste ki aur dekhe ja rahi thi jis aur se ravi ke aane ki ummide thi. Kintu jab bhi uski nazar raste ki aur jaati, khali aur sunsaan path ko dekh kar nirasha se apna sar jhuka leti. Jaise jaise waqt gujarta ja raha tha uske mann ki peeda badhti ja rahi thi.

Kuchh der aur guzar gaye. Ravi ab bhi nahi aaya. Ravi ko na aata dekh uska mann gehri peeda se bhar gaya. Uski aankhon ki koron par aansu ki boonde chhalak aayi.

"lagta hai ab saheb nahi aayenge. Wo mujhse sada ke liye rooth gaye. Ab mujhe sari umar aise hi intezaar karna hoga." kanchan mann hi mann boli. uski aankhein phir se paani barsane lagi. - "kyon hota hai aisa? kyon jo cheej hamein sabse achhi lagti hai wo hamein nahi milti? Kitna achha hota saheb aur meri shadi ho jaati. Main dulhan bankar unke ghar jaati. Unke sath hansi khushi zindagi beetati. Par sab gad-bad ho gaya. Saari galti peetaji ki hai. Wey na to saheb ke peetaji ki hatya karte na maaji aur saheb mujhse roothte. Ab main kabhi haveli nahi jaungi. Tabhi unhe pata chalega, apne jab door hote hain to kaisa lagta hai."

Kanchan ki aankh se behte aansu tez ho gaye. Aur uski rulayi foot padi.

kuchh der baad jab uski rulai ruki, usne gardan utha kar apni pyasi nazron ko raste par dala. Agle hi pal uski aankhein aashcharya se bhar gayi. Use ravi aata hua dikhai diya.

Ravi ko aata dekh uska dil khushi se jhum utha. Use laga jaise use pura sansaar mil gaya. Is baar uski aankhein khushi se dab-daba gayi.

Kanchan khushi se ravi ki aur lapakna hi chahti thi tabhi uske dil ne kaha - "ruk ja kanchan...! Tumhe itna khush hone ki jarurat nahi hai. Kahin aisa na ho saheb tumhari khushi se naaraz ho jaayein. Saheb ko is waqt peeta ki mrutyu ka dukh hai. Tumhara yun khush hona kahin unke dil se tumhari mohabbat ko na nikaal de. Pehle unki baatein sun le. pehle ye jaan le wo kyon aaye hain. Kya pata wo tumhe khari-khoti suna kar tumse naata todne aaye hon."

Kanchan ruki.

Uske chehre par aayi chamak kshan mein gaayab ho gayi. Udasi phir se uske chehre ka aavran ban gayi.

Ravi nazdeek aaya.

Kanchan asha bhari drushti se ravi ko dekhne lagi.

Ravi paas aakar khada ho gaya aur kanchan ke chehre par apni nigaah daali.

Kanchan ka chehra murjhaya hua tha kintu dil mein khushiyon ke hazaron phool khil uthe the. wo ravi ke muh se bol sunne ke liye aisi vyakul thi maano aaj ravi uske jeevan aur mrityu ka faisla sunane wala ho. Dil aise dhadak raha tha jaise milon bhaag kar aayi ho.

"kanchan ! kya naaraz ho mujhse?" ravi ne muh khola.

Kanchan masumiyat se apni gardan na mein hilayi.

"to phir itni door kyon khadi ho? Kya aaj mere gale nahi lagogi?"

Ravi ke kehne ki deri thi aur uski aankhon ki koron par jame aansu chhalak pade. Khushi se kuchh kehne ke liye uske honth fadfadaye par shabd bahar na aa sake.

Wo tezi se aage badhi aur ravi ki baahon mein sama gayi. ravi ki chhati se lagte hi uske andar ki antar-peeda aansu ka roop lekar baahar aane lage.

ravi use rota dekh bechain ho utha.

"kya hua kanchan? Kyon ro rahi ho? Kya isliye ki main tumhe bina kuchh kahe haveli se baahar aa gaya?" ravi uske chehre ko apne hathon mein lekar bola.

"saheb aap mujhse naaraz to nahi ho?" usne geeli aankhon se ravi ko dekha.

"naaraz..? Main bhala tumse kyon naaraz rahunga? Tumne kiya hi kya hai?" ravi uske aansu pochhta hua bola.

"saheb, jab aap aur maaji haveli se nikal gaye to main bahut ghabra gayi thi. Shaam tak main roti rahi thi phir chintu ko lekar main bhi haveli chhodkar nikal gayi." kanchan ne subakte hue apne haveli se nikalne se lekar station pahunchne tak. Phir wahan par birju ki maut aur uske baad ghar aane tak ki saari baatein vistaar se ravi ko bata diya.

Ravi ke aashcharya ki seema na rahi. use kanchan par behad pyar aaya. Uske khatir kanchan kitni badi mushibat mein fasne wali thi. Usne mann hi mann ishwar ko dhanyavad kaha aur kanchan ke maathe ko chumkar use chhati se bheech liya.

Kanchan kisi nanhi bachi ki tarah uski baahon mein simat-ti chali gayi.

Kuchh der ek dusre se lipte rehne ke baad ravi kanchan ko lekar khai ke kareeb bade patthar par ja baitha.

"kanchan wada karo ab aisi naadani nahi karogi." ravi patthar par baithne ke baad kanchan se bola - "kabhi meri khatir bina soche samjhe, bina apne baba aur bua se puchhe koi kaam nahi karogi. main tumhe chhodkar kahin nahi jaunga. Agar kahin gaya bhi to turant laut aaunga. Mere aane tak meri raah dekhogi."

Kanchan sab-kuchh samajhne ke baad kisi bache ki tarah 'haan' mein apna sar hilayi.

Ravi uske bholepan par muskuraya.

"tumhe aisa kyon laga main tumhe chhodkar chala jaunga?" ravi ne puchha.

"saheb main samjhi thi mere peeta ki galti ki wajah se aap mujhe chhod doge. Aap mujhe phir kabhi nahi miloge ye sochkar main bahut royi hoon. Saheb main aapse bahut pyar karti hoon. Mujhe chhodkar mat jaana. Nahi to main mar.....!" uske shabd pure hote usse pehle ravi ne uske muh par apna hath dhar diya.

"khabardaar ! Jo phir kabhi tumne aisi baat ki. Jitna tum mujhse prem karti ho, main bhi tumse utna hi prem karta hoon." ravi ne pyar se daanta. Phir udaas lehje mein bola. - "thakur sahab ne jo kiya wo galat tha. aur iske liye main unhe kabhi kshama nahi karunga. Par isme tumhara kya dosh? Tum to nishkalank ho, tumhara mann to ganga ki tarah pavitra hai. Sansaar mein tumse achi, tumse pyari, tumse sundar aur tumse pavitra vichaar wali ladki dusri na hogi. Tum itni achhi ho kanchan ki agar maine bhoole se bhi tumhe koi kasht diya to ishwar mujhse naaraz ho jayega. isliye apne mann se ye baat nikaal do ki main tumhe kabhi chhodkar jaunga ya tumhe koi kasht dunga. Tum meri jarurat ho kanchan. Chahein duniya idhar ki udhar ho jaaye. Par main tumhara sath nahi chhodunga. Jisko jo karna ho kare."

Kanchan ka jee thanda ho gaya. ravi ke dil mein apne liye athaah pyar dekhkar wo puri tarah se aashvast ho gayi ki ravi ab use chhodkar nahi jayega. Ab ek hi chinta thi. Kisi tarah maaji ke dil ka mail bhi nikal jaaye. Wo bhi unhe maaf kar dein aur use swikaar kar lein."

"kya sochne lagi ho? Kya ab bhi tumhe meri baaton par yakeen nahi hai?" ravi ne kanchan ko khoya dekha to puchha.

"nahi saheb, main to maaji ke baare mein soch rahi thi. Kya maaji bhi mujhe maaf kar dengi?"

"maa ke dil mein abhi gussa hai. Unka gussa jaane mein thoda waqt lagega. Par chinta na karo. Sab theek ho jayega. Main bahut jald tumhare ghar baarat lekar aaunga aur tumhe dulhan banakar le jaunga."

kanchan apni baarat aur dulhan ban-ne ki baat sunkar sharma gayi. Wo muskurati hui un aane wale palon mein khoti chali gayi.

Kanchan ko apne khyalo mein khota dekh ravi shararat se bola - "kahan kho gayi? Kya abhi se raatri milan ke sapne dekhne lagi?"

"dhatt...!" kanchan lazati hui boli aur uski baahon mein simat gayi.
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

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रात के 11 बज चुके थे. काँच की हवेली अपनी उसी शान से खड़ी अपनी छटा बिखेर रही थी. हवेली के सभी नौकर सर्वेंट क्वॉर्टर में सोने चले गये थे. सिर्फ़ दो सुरक्षा-कर्मी अपने अपने कंधों पर बंदूक लटकाए हवेली की निगरानी में जाग रहे थे.

ठाकुर साहब इस वक़्त हॉल में सोफे पर बैठे हुए अपने जीवन का लेखा जोखा कर रहे थे. वे ये सोचने में लगे हुए थे कि उन्होने अपने पूरे जीवन में क्या पाया और क्या खोया.

उनके सामने सेंटर टेबल पर महँगी शराब की बोतलें और गिलास रखे हुए थे.

ठाकुर साहब ने बॉटल खोली और गिलास में शराब उडेलने लगे. फिर गिलास को होंठों से लगाकर एक ही साँस में खाली कर गये.

ये उनके लिए कोई नयी बात नही थी. रातों को जागना और शराब पी कर अपनी किस्मत को कोसना उनका मुक़द्दर बन गया था.

किंतु आज वे और दिन से अधिक दुखी थे. आज उनकी आँखों में आँसू थे. वे आँखें जो 20 सालों तक हज़ार गम सहने के बाद भी कभी नही रोई, आज रो रही थी. वजह थी कंचन....!

आज शाम को जब सुगना के घर से लौटने के बाद नौकर ने उन्हे ये बताया कि कंचन अब हवेली नही लौटना चाहती, तभी से उनका मन दुखी हो उठा था.

आज जितना अकेलापन उन्हे पहले कभी महसूस नही हुआ था. आज उनके सारे सगे-संबंधी एक एक करके उनसे अलग हो गये थे.

पहले दीवान जी, फिर निक्की और आज कंचन ने भी उनसे नाता तोड़ लिया था.

ठाकुर साहब को कंचन से ऐसी बेरूख़ी की उम्मीद नही थी. दीवान जी और निक्की उनके सगे नही थे. उनका जाना ठाकुर साहब को उतना बुरा नही लगा था. पर कंचन तो उनकी बेटी थी. उसके रगो में उनका खून दौड़ रहा था. चाहें अपने स्वार्थ के लिए या फिर घृणा से पर कंचन का ऐसे दुखद समय पर मूह मोड़ लेना उन्हे अंदर से तोड़ गया था. उनकी खुद की बेटी उन्हे पसंद नही करती, इस एहसास से वो बुरी तरह तड़प रहे थे.

आज उनके पास अपना कहने के लिए कुच्छ भी नही बचा था. अगर उनके पास कुच्छ बचा था तो ये हवेली जो इस वक़्त उनकी बेबसी का मज़ाक उड़ा रही थी. उसकी दीवारें हंस हंस कर उनके अकेलेपन पर उन्हे मूह चिढ़ा रही थी.

ठाकुर साहब ने फिर से गिलास भरा और पहले की ही तरह एक ही साँस में पूरा गिलास हलक के नीचे उतार गये.

अब उनकी आँखों में आँसू की जगह नशा तैर उठा था.

वे लहराते हुए उठे और हॉल के बीचो बीच आकर खड़े हो गये. फिर घूम घूम कर हॉल के चारों ओर देखने लगे. उनकी नज़र जिस और पड़ती, चमकती हुई काँच की दीवारें उन्हे परिहास करती नज़र आती.

ये सिलसिला कुच्छ देर चलता रहा. फिर अचानक ठाकुर साहब के जबड़े कसते चले गये. वे लपक कर सेंटर टेबल तक गये. सेंटर टेबल पर रखे बॉटल को उठाया और गुस्से से दीवार पर फेंक मारा.

बॉटल दीवार से टकराने के बाद टूट कर बिखर गयी.

पर इतने में उनका गुस्सा शांत ना हुआ. उन्होने पास पड़ी लकड़ी की कुर्सी उठाई और पूरी शक्ति से दीवारों पर मारने लगे.

च्चन....च्चन्न......छ्चाकक....की आवाज़ के साथ दीवारों पर जमा काँच टूटकर फर्श पर गिरने लगा.

काँच टूटने की आवाज़ सुनकर बाहर तैनात पहरेदारों में से एक दौड़कर भीतर आया. ठाकुर साहब को पागलों की तरह काँच की दीवारों का सत्यानाश करते देख उन्हे रोकने हेतु आगे बढ़ा.

किंतु !

जैसे ही ठाकुर साहब की नज़र उस पर पड़ी. शेर की तरह दहाड़े - "दफ़ा हो जाओ यहाँ से. खबरदार जो भीतर कदम रखा."

पहरेदार जिस तेज़ी से आया था. उसी तेज़ी से वापस लौट गया.

पहरेदार के बाहर जाते ही फिर से ठाकुर साहब दीवारों पर कुर्सियाँ फेंकने लगे. ये सिलसिला कुच्छ देर तक चलता रहा फिर तक कर घुटनो के बल बैठते चले गये.

"ये हम से क्या हो गया?" ठाकुर साहब अपना सर पकड़ कर रो पड़े. -"इस हवेली के मोह ने हमारा सब-कुच्छ हम से छीन लिया. इसने हम से हमारी राधा को छीन लिया. इसने हमारी बेटी कंचन को हम से अलग कर दिया. हम इस हवेली को आग लगा देंगे." ठाकुर साहब पागलों की तरह बड़बड़ाये. - "हां यही ठीक रहेगा. तभी हमारी राधा ठीक होगी, तभी हमारी बेटी हमारे पास लौट आएगी"

उनके अंदर प्रतिशोध की भावना जाग उठी. वो फुर्ती से उठे और रसोई-घर की तरफ बढ़ गये.

रसोई में केरोसिन के केयी गेलन पड़े हुए थे. वे सारे गेलन उठाकर हॉल में ले आए.

फिर एक गेलन को खोलकर केरोसिन दीवारों पर फेंकने लगे - "ये हवेली हमारी खुशियों पर ग्रहण है. इसने हमारी ज़िंदगी भर की खुशियाँ हम से छीनी है. आज हम इस ग्रहण को मिटा देंगे."

ठाकुर साहब घूम घूम कर केरोसिन छिड़क रहे थे. साथ ही अपने आप से बातें भी करते जा रहे थे. उन्हे इस वक़्त देखकर कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता था कि वे पागल हो चुके हैं.

पूरी हवेली की दीवारों को केरोसिन से नहलाने के बाद वे फिर से रसोई की तरफ भागे.

"माचिस कहाँ है?" वे बड़बड़ाये और माचिस की तलाश में अपनी नज़रें दौड़ाने लगे. - "हां मिल गयी." उन्होने झपट्टा मार कर माचिस को उठाया. फिर तेज़ी से हॉल में आए.


"अब आएगा मज़ा." उन्होने माचिस सुलगाई. फिर एक पल की भी देरी किए बगैर माचिस की तिल्ली को दीवार के हवाले कर दिया.

तिल्ली का दीवार से टकराना था और एक आग का भभका उठा.

ठाकुर साहब मुस्कुराए.

दो मिनिट में ही हवेली की दीवारें आग से चटकने लगी. आग तेज़ी से फैलती जा रही थी.

जैसे जैसे आग हवेली में फैलती जा रही थी वैसे वैसे ठाकुर साहब आनंद विभोर हो रहे थे. हवेली को धुन धुन करके जलते देख उनके आनंद की कोई सीमा ना रही थी.

बाहर खड़े पहरेदारों ने हवेली में आग उठते देख अंदर आना चाहा. पर साहस ना कर सके.

"अब हमारे दिल को सुकून पहुँचा है." ठाकुर साहब दीवानो की तरह हंसते हुए बोले. - "अब ये हवेली फ़ना हो जाएगी."

उनकी हँसी तेज़ हो गयी. हवेली में आग जितनी तेज़ी से बढ़ रही थी उनके ठहाके उतने ही बुलंद होते जा रहे थे. उनकी मानसिक स्थिति बिगड़ने में कोई कसर नही रह गयी थी. उनकी आँखों में ना तो भय था और ना ही अफ़सोस. मानो वे खुद भी हवेली के साथ खाक होना चाहते हों.

हवेली पूरी तरह से आग के लपटों में घिर चुकी थी. ठाकुर साहब के ठहाके अब भी गूँज रहे थे.

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Jemsbond
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Re: काँच की हवेली "kaanch ki haveli"

Post by Jemsbond »

तभी !

एक ज़ोरदार चीख ने उनके ठहाकों पर विराम लगा दिया. ये चीख राधा जी के कमरे से आई थी.

ठाकुर साहब के दिमाग़ को एक तेज़ झटका लगा. सहसा उन्हे ख्याल आया कि राधा अंदर कमरे में बंद है. वो चीखते हुए राधा जी के कमरे की तरफ भागे.

किंतु दरवाज़े तक पहुँचते ही उनके होश उड़ गये. दरवाज़े पर बाहर से ताला लगा हुआ था. जिसकी चाभी इस वक़्त उनके पास नही थी.

"ये मैने क्या कर दिया?" ठाकुर साहब खुद से बड़बड़ाये - "नही राधा नही. हम तुम्हे कुच्छ नही होने देंगे. हमारा बिस्वास करो. हम खुद को मिटा देंगे पर तुम पर आँच नही आने देंगे."

राधा जी की चीखें सुनकर ठाकुर साहब का सारा नशा दूर हो चुका था. वो किसी जुनूनी इंसान की तरह पूरी ताक़त से दरवाज़े पर लात मारने लगे. दरवाज़ा गरम था. स्पस्ट था दरवाज़े पर अंदर से आग पकड़ चुकी थी.

कुच्छ ही पल की मेहनत ने और आग की लपटों ने दरवाज़े को कमज़ोर कर दिया. एक आख़िरी लात पड़ते ही दरवाज़ा चौखट सहित उखाड़ कर कमरे के अंदर जा गिरा.

अंदर का द्रिश्य देखते ही ठाकुर साहब की आँखें फटी की फटी रह गयी. उनकी आँखों से आँसू बह निकले.

राधा जी की साड़ी के आँचल में आग लगी हुई थी और राधा जी भय से चीखती हुई कमरे में इधर से उधर भागती फिर रही थी.

ठाकुर साहब विधुत गति से छलान्ग मारते हुए अंदर दाखिल हुए. फुर्ती के साथ उन्होने राधा जी की साड़ी को उनके बदन से अलग किया. सारी खुलते ही राधा जी लहराकार फर्श पर गिर पड़ी. फर्श पर गिरते ही वे बेहोश हो गयीं.

ठाकुर साहब ने कमरे का ज़ायज़ा लिया. कमरे की दीवारों में आग पूरी तरह से फैल चुकी थी. उनकी नज़र बिस्तर पर पड़े कंबल पर पड़ी. उन्होने लपक कर कंबल उठाया और राधा जी को खड़ा करके जैसे तैसे उन्हे कंबल ओढ़ा दिया. फिर उन्हे बाहों में उठाए कमरे से बाहर निकले.

वे जैसे ही कमरे से निकल कर सीढ़ियों तक आए. वहाँ का नज़ारा देखकर उनके पसीने छूट गये. सीढ़ियों पर आग की लपटे उठ रही थी. पावं धरने की भी जगह नही बची थी.

आग की तपीस में उनका चेहरा झुलसने लगा था. जिस जगह पर वो खड़े थे. वहाँ से लेकर मुख्य-द्वार तक आग ही आग थी.

ठाकुर साहब ने राधा जी को ठीक से कंबल में लपेटा. फिर अपना दिल मजबूत करके आग में कूद पड़े. सीढ़ियों पर पावं धरते ही उनका समुचा बदन धधक उठा. किंतु उन्होने अपने जलने की परवाह ना की. उनका लक्ष्य था मुख्य द्वार...! वहाँ तक पहुँचने से पहले वे अपनी साँसे नही छोड़ना चाहते थे. उनके कदम बढ़ते रहे. एक पल के लिए भी रुकने का मतलब था उन दोनों की मौत. ठाकुर साहब को अपनी मौत की परवाह नही थी. किंतु निर्दोष राधा जी को वे किसी भी कीमत पर आग के हवाले नही छोड़ सकते थे.

वे भागते रहे. आग की लपटे उनके बदन को झुल्साती रही. जलन की वजह से उनके कदम तेज़ी से नही उठ रहे थे. फिर भी किसी तरह उन्होने मुख्य द्वार को पार किया. राधा को ज़मीन पर धरते ही वो भी धम्म से गिर पड़े.

उनके बाहर निकलने तक लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी. पहरेदारों ने जब हवेली में आग की लपते उठते देखी तो भाग कर सबसे पहले दीवान जी के पास गये. रवि और कमला जी जाग रहे थे. वे कंचन के विषय पर बात-चीत में लगे हुए थे. जब पहरेदारों ने दरवाज़ा खटखटाया.

हवेली में आग की बात सुनकर रवि और कमला जी सकते में आ गये. जब तक रवि बाहर निकलता. हवेली आग से घिर चुकी थी.

वो राधा जी को बचाने अंदर जाना चाहता था पर कमला जी ने उसे जाने नही दिया.

कुच्छ ही देर में गाओं के लोग भी हवेली के तरफ दौड़ पड़े थे. उनमे कंचन, सुगना, कल्लू और निक्की भी थी.

जब तक ठाकुर साहब राधा जी को लेकर बाहर निकले. हवेली के बाहर लोगों का जमावड़ा हो चुका था.

ठाकुर साहब के भूमि पर गिरते ही रवि उनकी और दौड़ पड़ा. उसने पहले राधा जी के बदन से कंबल को अलग किया. उनके कंबल में भी आग लगी हुई थी. रवि ने कंबल में लगी आग को बुझाया फिर उसी कंबल से ठाकुर के बदन में लगी आग को बुझाने लगा.

कुच्छ ही देर में ठाकुर साहब के बदन में लगी आग भी बुझ गयी. पर वे जलन से बुरी तरह तड़प रहे थे. उन्होने अपने दर्द की परवाह ना करते हुए रवि से पुछा - "राधा कैसी है रवि? उसे कुच्छ हुआ तो नही?"

"राधा जी बेहोश हैं. पर उन्हे कुच्छ नही हुआ. आप उनकी चिंता ना करें."

"ईश्वर तेरा लाख-लाख शुक्र है...." उनके चेहरे पर दर्द और खुशी के मिश्रित भाव जागे. - "रवि बेटा आपकी माताजी कहाँ हैं. मुझे उनके दर्शन करा दो."

रवि ने मा की तरफ देखा. कमला जी के कदम स्वतः ही ठाकुर साहब के करीब चले गये. ठाकुर साहब के चेहरे पर उनकी नज़र पड़ी तो उनका कलेज़ा मूह को आ गया. उनका चेहरा काला पड़ गया था. कमला जी की नज़र उनके आँख से बहते आँसुओं पर पड़ी.

"बेहन जी. मेरे पाप क्षमा के योग्य तो नही फिर भी अपने जीवन के आख़िरी साँसों में आपसे हाथ जोड़कर अपने किए की माफी माँगता हूँ. आप से प्रार्थना है मेरे किए पाप की सज़ा मेरी बेटी कंचन को ना दीजिएगा. वो मासूम है. निष्कलंक है. उसे सुगना की बेटी मानकर अपना लीजिए. अगर आप उसे अपना लेंगी तो मैं चैन से मर सकूँगा." ठाकुर साहब के मूह से कराह भरे बोल निकले.

ठाकुर साहब की ऐसी हालत और उन्हे रोता देखकर कमला जी का दिल पिघल गया. वो बोली - "कंचन से हमें कोई शिकायत नही ठाकुर साहब. रवि उसे पसंद कर चुका है. वो मेरे ही घर की बहू बनेगी. मैं इस बात का वचन देती हूँ."

ठाकुर साहब दर्द में भी मुस्कुरा उठे. उन्होने नज़र फेर कर कंचन और निक्की को देखा. वे दोनो पास पास ही खड़ी थी. ठाकुर साहब ने इशारे से उन्हे समीप बुलाया. वे दोनो उनके नज़दीक बैठकर रोने लगी. ठाकुर साहब ने हाथ उठाकर उन्हे आशीर्वाद देना चाहा लेकिन तभी उनके शरीर से आत्मा का साथ छूट गया. निर्जीव हाथ वापस धरती पर आ गिरे.

वहाँ मौजूद सभी की आँखें नम थी. किसी के समझ में नही आ रहा था कि ये सब कैसे और क्यों हो गया?

अचानक हुए इस हादसे से सभी हैरान थे. लेकिन निक्की की आवाष्‍ता सबसे अलग थी. ठाकुर साहब के मरने का दुख उससे अधिक किसी को ना था. उसने 20 साल ठाकुर साहब को पिता के रूप में देखा था. बचपन से लेकर अब तक ठाकुर साहब ने उसकी हर ज़िद हर इच्छा को पूरा किया था. आज उसका दुख उस दिन से भी बड़ा था जिस दिन उसे ये पता चला था कि वो ठाकुर साहब की बेटी नही है. आज उसकी आँखें थमने का नाम ही नही ले रही थी. आज वो खुद को अनाथ महसूस कर रही थी.

कुच्छ ही देर में आंब्युलेन्स आ गयी. रवि ने दीवान जी के घर से हॉस्पिटल फोन कर दिया था.

ठाकुर साहब के मृत शरीर के साथ राधा जी को भी हॉस्पिटल ले जाया गया.

उनके पिछे अपनी जीपों में, दीवान जी, सुगना और कल्लू के साथ निक्की, कंचन, रवि और कमला जी भी हॉस्पिटल चले गये.

राधा जी के ज़ख़्म मामूली थे. किंतु इस हादसे ने उनकी सोई हुई बरसों की याददस्त को लौटा दिया था. वो जब हॉस्पिटल से निकली तो दीवान जी ने उन्हे सारी स्थिति से परिचय करा दिया.

पति के मरने का दुख ने उन्हे कुच्छ दिन शोक में डूबाये रखा.

फिर कुच्छ दिनो बाद राधा जी के मौजूदगी में रवि और कंचन की शादी हो गयी.

ठाकुर साहब को जिस दिन ये मालूम हुआ था कि कंचन उनकी बेटी है. उसके अगले रोज़ उन्होने अपनी नयी वसीयत बनवाई थी. जिस में उन्होने अपनी सारी संपाति में आधी संपाति निक्की और आधी कंचन के नाम कर दी थी.

किंतु वो जगह जहाँ पर काँच की हवेली स्थित थी. वहाँ पर रहना ना तो कंचन ने स्वीकार किया और ना ही निक्की ने. वो काँच की हवेली जो 20 सालों तक शान से खड़ी अपनी चमक बिखेरती रही थी. अब राख में बदल चुकी थी.
दोस्तो ये कहानी यही ख़तम होती है आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने इस कहानी को इतना पसंद किया

दा एंड
समाप्त
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प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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