मेघदूत

Jemsbond
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Re: मेघदूत

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सायंकालीन पूजाके बाद जब शिवजी ताण्डव प्रारम्भ करते हुए वृक्षोके समान ऊँची अपनी भुजाओको ऊपर उठायेंगे, तब तुम जवाकुसुम जैसी लाल-लाल सान्ध्यशोभा धारण करके वृत्ताकार होकर उनकी भुजाओमे घिर जाना । भय दूर हो जानेसे पार्वतीजी निश्चल नेत्रोसे तुम्हारी ओर देखेंगी ओर इस प्रकार तुम शिवजीकी तत्काल मारे हुए गजासूरके खूनचूते चर्मको ओढनेकी इच्छाको पूरी कर देना ॥४०॥
उस उज्जयिनीमे रातको अपने प्रेमियोके घरोको जाती हुई रमणियोको घने अन्धकारसे राजमार्गके ढँक जानेपर कुछ न दिखा पडेगा, अत: तुम कसौटीपरकी चमकती हुई सुवर्णरेखाके समान बिजलिकी रेखा चमकाकर उन्हे मार्ग दिखा देना, किन्तु गरजना और बरसना मत, क्योकि वे भीरु होती है अथवा कामके कारण व्यग्र हुई वे डर जाएँगी ॥४१॥
बहुत काल तक चमकनेसे तुम्हारी स्त्री बिजली थक जायगी, अत: किसी महलकी सुनसान छतपर, जहाँकि कबूतर भी सो गये हो, तुम उस रातको बिताकर सूर्योदय होते ही फ़िर आगेका मार्ग पूरा करने चल देना । क्योकि मित्रोके कार्यसाधनको जिन्होने अंगीकार कर लिया वे व्यक्ति शिथिलता नही करते ॥४२॥
रात अन्यत्र बितानेवाले प्रेमियोको भी सूर्योदयके बाद उन विरहिणी नायिकाओके आँसू पोछने होते है जो प्रतिक्षामे व्याकूल है । अत: तुम शीघ्र ही सूर्यके मार्गसे हट जाना अर्थात उसे ढक न देना, क्योकि वह भी रात कही बिताकर प्रात: पद्मिनीके कमलरुप आँसू मिटाने लौट रहा है । यदि तुम उसके करो ( किरणो या हाथो ) को रोकोगे तो वह तुमपर अत्यन्त रुष्ट होगा ॥४३॥
किसी गम्भीर स्वभाववाली नायिकाके निर्मल चित्तमे जिस प्रकार सुन्दर नायकका प्रतिबिंब पैठ जाता है, उसी प्रकार इस गम्भीरा नामक नदीके निर्मल जलसे तुम्हारी स्वभावत: सुन्दर छाया प्रवेश कर जायेगी इसलिये जैसे ह्रदयस्थ वह सुन्दर नायक उस नायिकाके कुमुदकी तरह विकसित नयनोकी चंचल चितवनोको व्यर्थ नही होने देता इसी प्रकार तुम भी शुभ्र और चंचल इन मछलियोकी उछालोको व्यर्थ न जाने देना ॥४४॥
कुछ-कुछ हाथसे पकडे हुएकी तरह बेनकी शाखाये जिसे छू रही है, नितम्बरुप तटको जिसने मुक्त कर दिया है ऐसे और नीले रंगवाले, उस गम्भीरा-नदी के जलरुप वस्त्रको हटाकर पसरे हुए नायककी भाँति विलम्ब करते हुये तुम आगे बडी कठीनता से जा सकोगे । क्योकि जिसे सुरतसुखका अनुभव है वह कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो उघडी जंघावाली ( नायिका ) को छोड सके॥४५॥
तुम्हारे बरसनेपर बाफ़ निकलती हुई भूमिकी गन्धसे रमणीय, सूं डोके छिद्रोसे साँय-साँयकी सुन्दर ध्वनि करते हुए हाथी जिसका उपभोग कर रहे ऐसा, और जंगली गुलरोको पकानेवाला शीतलवायु तब तुम्हारे नीचे-नीचे रहेगा जब कि तुम देवगिरिकी ओर जाना चाहोगे ॥४६॥
उस देवगिरिमे नित्य वास करनेवाले कार्तिकेयको पुष्पमेघ बनकर तुम स्वर्गांके जलसे प्रोक्षित दिव्य पुष्पोकी मूसलधार वर्षाकरके स्नान कराना । क्योकि वह स्कन्दरुप तेज सूर्यसे भी प्रबल है, जिसे भगवान चंद्रशेखरने देवसेनाकी रक्षाके लिये अग्निके मुखमे स्थापित किया था ॥४७॥
पुष्पाभिषेकके बाद तुम ऐसी गर्जनाओसे, जो कि देवगिरिसे टकराकर और भी बडी हो गई हो, कार्तिकेयके उस मोरको नचाना जिसके मंडलाकार चमकती रेखाओवाले, स्वयं गिरे हुये पंखोको पार्वतीजी पुत्रस्नेहके कारण अपने उस कानमे लगाती है जिसमे कुवलयदल रखे जाते थे ॥४८॥
सरकण्डोके वनमे उत्पन्न इस स्कन्ददेवकी आराधना करके आगे बढोगे तो इनकी स्तुती गानेको आये हुए सिद्धोके जोडे, पानी बरसनेके भयसे, स्वयं तुम्हारे मार्गसे हट जायेंगे । तब सहस्त्र गोमेध-यज्ञोमे गौओके आलम्भनसे उत्पन्न और पृथ्वीपर नदी रुपमे परिणत हुई राजा रन्तिदेवकी कीर्ति चर्मण्वतीके प्रति सम्मान प्रकट करनेकी इच्छासे नीचे झुक जाना, अर्थात उससे जल ग्रहण करना ॥४९॥
कृष्णके समान श्यामवर्णवाले तुम जब जलग्रहण करने नीचे नदीपर झुकोगे तब आकाशचारी सिद्धगन्धर्व आदि सब दृष्टी हटाकर उस चर्मण्वतीके प्रवाहको, जो कि अत्यन्त फ़ैला हुआ होनेपर भी दूरसे पतला-सा दीख रहा है, पृथ्वीके एकलंवाले ऐसे मुक्ताहारकी तरह देखेंगे जिसके मध्यमे बडा-सा नीलम लगा हो ॥५०॥
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Re: मेघदूत

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चर्मण्वतीको पार करके तुम दशपुरके मार्गसे जाना जहाँ कि मौहे मटकानेकी कलामे अभ्यस्त, पलक ऊपर उठानेसे काली, लाल और श्वेत मिश्रित विचित्र शोभा युक्त, कुन्दके सफ़ेद फ़ूलके साथ हिलते हुए काले भौरेके समान, दशपूर युवतीयोकी कौतुहलभरी दृष्टि पडेगी ॥५१॥
दशपूरसे आगे जाकर तुम ब्रह्मावर्त प्रदेशको अपनी अवगाहित करते हुए क्षत्रियोके निधन-सूचक उस कुरुक्षेत्रमे पहुँचना, जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुनने अपने सैकडो तीक्ष्ण बाणोको बरसाकर क्षत्रियोके मस्तकोको इस प्रकार काट गिराया था जैसे तुम मूसलधार बरसकर कमलोको नष्ट कर देतो हो ॥५२॥
"कौरव पाण्डव दोनो हमारे बन्धु है, अत: युद्ध मे किसीकी हत्या न करुंगा" यह प्रण करके युद्धसे विमुख हुए हलधर बलदेवजीने अत्यन्त प्रिय लगनेवाली और रेवतीके नयनो जैसे लक्षणवाली ( उन्माद्क ) मदिराको छोडकर जिन जलोका पान किया था हे सौम्य ! उन सरस्वती नदीके जलोका अभिगमन करके तुम्हारा भी अन्तकरण शुद्ध हो जायगा तुम केवल देखने भरके काले रह जाओगे ॥५३॥
कुरुक्षेत्रसे आगे बढकर कनखलके पास हिमाचलसे उतरती हुई उस जान्हवीको जाना, जिसने राजा सगरके ६०००० पुत्रोको सीढियोमे चढाकर जैसे स्वर्ग पहुँचा दिया और जो पार्वतीजीकी चढी हुई त्योरियोकी परवाह न करके उन्हे अपने झागसे हँसती हुई सी तरंगरुप हाथोसे चन्द्रमाको छूती हुई शिवजीके मस्तकपर जा विराजी ॥५४॥
ऐरावत हाथीकी तरह पिछले भागको आकाशमे रख अगले भागको नीचे लटकाते हुये यदि तुम उस गंगाके स्वच्छ स्फ़टिक जैसे जलको पीना चाहोगे तो एकाएक सफ़ेद पानीमे फ़ैलती हुई तुम्हारी श्यामलछायासे वहीपर गंगा यमुनासे मिलती हुई सी मनोहर प्रतीत होगी, जबकि प्रयागके सिवा अन्यत्र उन दोनोका संगम नही होता ॥५५॥
कस्तुरीमृगो के बैठनेसे जिसकी शिलाएँ सुगन्धित हो गई है, ऐसे, और वह गंगा जहाँसे निकलती है ऐसे सफ़ेद हिमालयपर पहुँचकर मार्गकी थकावट दूर करनेके लिये किसी चोटीपर जब तुम बैठोगे तब शिवजीके सफ़ेद वृषभ द्वारा उपर उछाले गये कीचड जैसे लगोगे ॥५६॥
हवा चलनेपर जब चीडके पेडोके टकरानेसे वनाग्नि उत्पन्न होगी और उसकी चिनगारियोसे चँवरगायोकी पूँछे झुलसने लगेगी, तब मूसलधार पानी बरसाकर उसे पूरी तरह बुझा देना । क्योकि पीडितोकी पीडाका निवारण ही बडॆ लोगोकी सम्पत्तिका फ़ल है । अर्थात श्रेष्ठ लोग संपत्तिका संचय इसीलिये करते है कि विपन्नोकी सहायता कर सके ॥५७॥
तुम्हारी गर्जना सुनकर अपने विनाशके लिये शरभोके द्लके दल तुम्हे लाँधकर आगे बढनेकी चेष्टा करे तो तुम जोरसे ओले बरसाकर उन्हे नष्ट भ्रष्ट कर देना । व्यर्थके कामोको प्रारम्भ करनेवाले कौन ऐसे है ? जो तिरस्कारके पात्र नही होते ॥५८॥
उस हिमालयपर किसी एक शिलामे भगवान शंकरका चरणचिन्ह स्पष्ट दिखाई देता है जिसकी सिद्ध लोग निरन्तर पूजा करते है और जिसका दर्शन होनेपर श्रद्धालु भक्तजन मरनेके बाद पाप रहित होकर स्थायी रुपसे शिवजीके पार्षद होनेके लिये समर्थ हो जाते है । उसकी तुम भी भक्तीपूर्वक प्रदक्षिणा करना ॥५९॥
जिस हिमालयमे छिद्रोमे हवाये भरनेसे बाँसोका मधुर शब्द हो रहा है, किन्नरियाँ समवेत स्वरसे त्रिपुरविजयके गीत गा रही है, वही यदि गुफ़ाओमे प्रतिध्वनित तुम्हारी गर्जना मृदंगकी ध्वनिका काम कर दे तो भगवान पशुपतिके ताण्डवके लिये सचमुच ही सारा साज इकट्ठा हो जायगा ॥६०॥
हिमाचलके किनारोके आस-पास विभिन्न सुन्दर वस्तुओ और दृश्योको देखते हुये तुम उस क्रौंच पर्वतके छिद्रसे, जो कि परशुरामजीके पराक्रमका प्रत्यक्ष प्रमाण है और बरसातमे हंस जिसके द्वारा मानससरोवरको जाते है, तिरछे और लम्बे होकर उत्तर दिशाकी ओर चलना । उस समय राजा बलिको बाँधनेके लिये तत्पर विष्णुके सावले पैरकी तरह तिरछे और लंबे तुम सुन्दर दिखोगे ॥६१॥
क्रौंच पर्वतके विवरसे निकलकर आकाशमे ऊपर उठते हुए तुम उस कैलासमे पहुँचना, जिसके जोड-जोड, रावण द्वारा हाथसे ऊपर उठाकर हिलानेसे ढीले पड गये है, जो इतना ऊँचा और स्वच्छ है कि देवांगनाएँ उसमे अपना प्रतिबिम्ब देखा करती है और जो अपनी ऊँची ऊँची सफ़ेद चोटियोसे आकाशको छूता हुआ ऐसा लगता है मानो शिवजीके प्रतिदिनके हँसीके ठहाके जमा होते जा रहे है ॥६२॥
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Re: मेघदूत

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चिकने पीसे हुए काजल जैसे तुम जब समीप पहुँचोगे तब तत्काल काटे हुए हाथीदात जैसे सफ़ेद उस कैलासपर्वतकी शोभा ऐसी हो जाएगी जैसे बलदेवजी अपने कन्धेपर सावला वस्त्र लटकाये हो, ऐसा मै समझता हूँ ॥६३॥
उस कैलासपर, कही डर न जाय इसलिये अपने सर्पमय आभूषण उतारकर शिवजीद्वारा हाथका सहारा दी गई पार्वतीजी यदि पैदल ही चल रही हो तो तुम उनके आगे-आगे चलना और जलके वेगको अन्दर ही रोककर अपने शरीरको टेढामेढा करके सीढी जैसे बन जाना, जिससे वे तुमपर आरुढ होकर आसानीसे मणिमय शिखरपर चढ जायँगी ॥६४॥
उस कैलासमे देवांगनाओके कंकणोको तीखी नोकोसे खरोच लगनेपर स्थान-स्थानसे जल गिराते हुये तुमको वे पानी का कल लगे स्नानागार सा बना डालेगी । हे मित्र ! गर्मीमे मिले हुए तुम्हारा यदि उनसे छुटकारा ना हो क्रिडोन्मत्त हुई उनको कठोर गर्जनाओसे डरा देना॥६५॥
हे मेघ ! सुनहरे कमलोको उगानेवाले मानससरोवरके जलको लेते हुये, ऐरावतकी क्षणभरके लिये मुखपट ( रुमाल ) का आनन्द देते हुये, सूक्षवस्त्रोको अपनी नम हवाओसे हिलाते हुये तुम विविध प्रकारकी चेष्टाओसे पूर्ण विलासोद्वारा उस पर्वतश्रेष्ठ कैलासका आनन्द लेना ॥६६॥
हे स्वेच्छाचारी मेघ ! जिस प्रकार कोई कामिनी, जिसका कि दुकुल ( साडी ) खिसक गया हो, अपने प्रियतमकी गोरमे बैठती है उसी प्रकार गंगारुप वस्त्र जिसका निकल गया है ऐसी कैलासके उत्संगमे स्थित उस अलकाको तुम नही पहचान सकोगे, यह बात नही है । जो कि ऊँचे-ऊँचे सात मञ्जिले भवनोसे भरी हुई वर्षाकालमे जलबूँदे टपकाते हुए मेघकी जालियोसे गुँथे बालोको धारण करती है ॥६७॥
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मेघदूत - उत्तरमेघा

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मेघदूत - उत्तरमेघा


जिस अलकापुरीके महल अपनी उन-उन विशेषताओसे तुम्हारी समता करनेमे समर्थ है । जैसे-तुममे बिजली की चंचलता है तो महलोमे सुन्दरी रमणीयो की चेष्टाएँ । तुममे रंगबिरंगा इन्द्रधनु है उनमे रंगबिरंगे चित्र । तुम स्निग्ध गंभीर घोष करते हो तो वहाँ संगीतकलाका मृदंग बजता है । तुम्हारे भीतर जल भरा है तो उनके फ़र्श मणिमय है । तुम ऊँचाईपर हो तो उनकी भी छते गगनचुंबी है ॥१॥
जिस अलकाकी रमणियाँ छहो ऋतुओमे होनेवाले पुष्पोका सदा उपयोग करती है, जैसे-उनके हाथोमे लीला कमल है, जो कि शरदमे होते है । बालोमे कुन्द है जो हेमन्तमे होता है । मुखमे लोधके परागका चूर्ण मला गया है जो शिशिरमे होता है । जूडोमे कुरबकेके ( ताजे झिण्टिके ) फ़ूल है जो वसन्तमे होते है, कानमे शिरीष है जो ग्रीष्ममे खिलता है और मांगमे कदम्बका पुष्प है, मेघागम होनेपर वर्षामे खिलता है ॥२॥
जिस अलकामे वृक्षोपर सदा फ़ूल खिले रहनेसे मस्त भौरे गुंजायमान रहते है । बावडियोमे सदा कमल खिले रहते है और हंसोकी पंक्तियाँ करधनी-सी दिखती है । पालतू मोर सदा अपने चमकीले पंखोको फ़ैलाये हुए ऊपरको गर्दन उठाकर कूजते रहते है और जहाँकी सन्ध्याये सदा रहनेवाली चाँदनीसे अंधेरा नष्ट हो जानेके कारण रमणीय लगती है ॥३॥
जिस अलकामे रहनेवाले यक्षोके आँखोसे आँसू आनन्दमेही निकलते है, और किसी ( पीडा आदि ) कारणसे नही । प्रियजनोके समागमसे मिटने योग्य कामज तापके सिवा दूसरा कोई ताप उन्हे नही होता । प्रणयकलहके अतिरिक्त कभी प्रेमियोका विरहका अनुभव नही होता । यौवनके सिवा दूसरी अवस्था उनकी नही होती, अर्थात वे सदा युवा ही रहते है ॥४॥
जिस अलकामे यक्ष अपनी सुन्दरियोके साथ, स्फ़टिकमणिसे बनी हुई और आकाशके तारोके प्रतिबिम्ब ही जिसमे सजाये हुये फ़ूलोसे लग रहे है ऐसी, महलोकी अटारियोपर जाकर तुम्हारी तरह गम्भीर ध्वनिवाले मृदंगपुटोके बजनेपर कल्पवृक्षसे निकली हुई और कामोद्दीपक मदिराका सेवन करते है ॥५॥
जिस अलकामे, स्वर्गंगाका शीतलवायु जिनकी सेवा कर रहा है, मन्दारके वृक्षोकी छाया जिनपर पडती हुई धूपको रोक रही है और देवता जिनके लिये तरस रहे है, ऐसी यक्षबालाएँ सुनहरी बालूकी मुट्ठीयोमे रत्न छिपाकर उन्हे खोजनेके खेल कर रही है ॥६॥
जिस अलकामे अनुरागके कारण प्रेमियोके शरारती हाथो द्वारा कमरबन्दकी गांठ खोलदेनेसे शिथिल हुई साडियोको हटा देनेपर अत्यन्त लज्जित बिम्बोष्ठो लज्जित सुन्दरियाँ, अँधेरा करदेनेके विचारसे धूलकी मुट्ठी ऊँची लौवाले दीपकोपर फ़ेकती है, किन्तु उनका यह प्रयत्न व्यर्थ जाता है । क्योकि उन दीषकोसे अग्निकी ज्योति नही निकलती जो धूलसे बुझ जाय, वे तो रत्नोकी किरणे है जो तीव्र प्रकाश कर रही है ॥७॥
आगे बढनेकी प्रेरणा देनेवाले वायुसे जिस अलकाके सातमंजिले महलोकी छतोपर ले जाये गये तुम जैसे मेघ, छोटी-छोटी पानीकी झुर्रियोसे वहाके भित्ति-चित्रोको विकृत करके पकडे जानेकी डरसे जैसे, धुएँ की तरह बनकर तत्काल रोशनदानोसे बिखर-बिखरकर निकल आती है ॥८॥
जिस अलकामे अर्द्धरात्रिके समय चन्द्र्माके सामनेसे तुम्हारे हट जानेपर विमल चाँदनीके सम्पर्कसे स्वच्छ जलकणोको टपकानेवाली, झालरोमे लटकती हुई चंन्द्रकान्त मणियाँ प्रियतमोकी भुजाओके गाढ आलिंगनोसे उसाँसे भरती हुई नायिकाओकी संभोगजन्य अंगग्लानीको दूर कर देती है ॥९॥
जिस अलकामे, अक्षयनिधियाँ जिनके घरोमे भरी है, ऐसे कामीजन अप्सरारुप गणिकाओके साथ बाते करते हुए, सुरीले कंठवाले और कुबेरका यश गाते हुये किन्नरोके साथ वैभ्राज नामक उद्यानका आनन्द ले रहे है ॥१०॥
जिस अलकामे, सुन्दरियोद्वारा रात्रिमे अपने प्रियतमोके पास जानेके मार्ग, सूर्योदय होनेपर स्पष्ट मालूम हो जाते है । क्योकि जल्दी चलनेमे शरीर हिलनेसे बालोपर लगे मन्दार पुष्प और कानोपरके सुनहरे कमलोकी पंखडियाँ उन मार्गोमे गिरी रहती है, जूडोपर की जालियोसे और उँचे स्तनोपर टकराकर टूटे हूये हारोसे मोती बिखरे रहते है ॥११॥
जिस अलकामे कुबेरके मित्र शंकरजीको प्रत्यक्षरुपसे वास करते जानकर डरके मारे कामदेव प्राय: अपने मौरोकी डोरीवाले धनुषका प्रयोग नही करता । उसका काम मटकती मौहोके साथ फ़ैकी गई बाँकी चितवनोवाले और कामिजनरुप निशानोपर अचूक, चतुर कामिनियोके हाव-भावोसे ही सिद्ध हो जाता है ॥१२॥
जिस अलकामे केवल कल्पवृक्षसेही रंग-बिरंगे वस्त्र, आंखोमे खुमारी लानेवाला मद्य, पल्लवीसहित पुष्प, विभिन्न प्रकारके आभूषण, कमल जैसे कोमल चरणोमे लगानेका आलता आदि स्त्रियोंकी सारी अलंकारसामग्री उत्पन्न हो जाती है ॥१३॥
उसी अलकामे कुबेरके घरसे उत्तरकी ओर इन्द्रधनुषके समान सुन्दर रंग-बिरंगे फ़ाटकसे जो दूरसे ही पहिचाना जाता है, ऐसा मेरा घर है । जिसके पासमे एक छोटासा मन्दार वृक्ष है । उसे मेरी प्रियाने पुत्र मानकर पाल-पोसकर बडा किया है और अब इतना बडा हो गया है कि उसके झुके हुए गुच्छे उपर हाथ उठाकर छुए जा सकते है ॥१४॥
उस मेरे घरमे एक बावडी भी है, जिसकी सीढियाँ मरकतमणिसे बनी है । जो चिकने वैंगूर्यमणिके समान डण्डीवाले, खिले हुये सुनहरे कमलोसे भरी रहती है और जिसके निर्मल जलमे आनन्द्से रहनेवाले हंस वर्षाकाल आनेपर भी समीपवर्ती मानससरोवरमे जानेकी व्यग्रता नही दिखलाते ॥१५॥
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