मेघदूत

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मेघदूत

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मेघदूत

"मेघदूत" की लोकप्रियता भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है। मेघदूत महाकवि कालिदास द्वारा रचित विख्यात दूतकाव्य है। इसमें एक यक्ष की कथा है जिसे कुबेर अलकापुरी से निष्कासित कर देता है। निष्कासित यक्ष रामगिरि पर्वत पर निवास करता है। वर्षा ऋतु में उसे अपनी प्रेमिका की याद सताने लगती है। कामार्त यक्ष सोचता है कि किसी भी तरह से उसका अल्कापुरी लौटना संभव नहीं है, इसलिए वह प्रेमिका तक अपना संदेश दूत के माध्यम से भेजने का निश्चय करता है। अकेलेपन का जीवन गुजार रहे यक्ष को कोई संदेशवाहक भी नहीं मिलता है, इसलिए उसने मेघ के माध्यम से अपना संदेश विरहाकुल प्रेमिका तक भेजने की बात सोची।
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Re: मेघदूत

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कुबेरका अनुचर कोई यक्ष, अपने कार्यमे असावधानी करनेके कारण " एक वर्षतक स्त्रीसे नही मिल पाओगे" - ऐसे, कुबेरके कठोर शापसे सामर्थ्यहीनसा होकर प्रियाके दु:सह वियोगसे कातर हुआ " रामगिरि " पर्वतके उन आश्रमो मे दिन बिता रहा था, जिनके जल वनवास कालमे सीताजीद्वारा स्नान करलेनेसे तीर्थरुप हो गये है और जो घनी छायावाली वृक्षो से सदा घिरे रहते है ॥१॥
प्रियाके विरहसे यक्ष इतना दुबला हो गया था कि उसके हाथोसे सोनेके कडे नीचे खिसक गये थे । इसी अवस्थामे उस कामी यक्षने कुछ ( आठ ) महीने रामगिरि पहाड पर बिताये । आषाढ मासके प्रसिद्ध ( हरिशयनी एकाद्शीके ) दिन उसने पहाड की चोटी से सटे हुए मेघ को देखा, जो कि तिरछे प्रहारसे मिट्टी उखाडते हुए हाथी-सा दीख रहा था ॥२॥
कुबेर का अनुचर वह यक्ष, अपने आँसुओंको अन्दर ही रोककर ( डबडबायी आँखोसे ), प्रियासे मिलनेकी उत्कंठा उत्पन्न करनेवाली उस मेघमे सामने खडा होकर देरतक सोच रहा - कि वर्षाकालके मेघ को देखकर तो सुखी ( सुरतसुखासक्त ) व्यक्तिकी भी वासना जागृत हो जाती है । जिस बेचारेकी स्त्री इतनी दूर हो, उसकी ( मेरे जैसी व्यक्ती की ) क्या दशा होगी ? ॥३॥
( वर्षाकाल आ रहा है, कही विरहमे मेरी प्रिया प्राणत्याग ना करदे इस आशंकासे ) श्रावण समीप होनेसे अपनी प्रियाके प्राणोका आसरा चाहते हुए यक्षने, मेघद्वारा अपना कुशल - समाचार भेजनेकी इच्छासे प्रसन्न होकर ताजे कुरैयाके फ़ुलो से मेघ के लिये पूजासामग्री तैयार की और प्रेमपूर्ण शब्दो से उसका स्वागत किया ॥४॥
कहाँ वो धूवाँ, प्रकाश, जल और वायु इन निर्जीव पदार्थो के सम्मिश्रणसे बना हुआ मेघ, और कहाँ कुशल इन्द्रियोवाले प्राणियोसे पहुँचाये जानेयोग्य सन्देश वाक्य ? ( अर्थात इन दोने मे किसी प्रकार साम्य नही ) । फ़िरभी विरहजन्य मोहके कारण इस बात का विचार न करते हुए यक्षने मेघसे प्रार्थना की । क्योकी कामवासना से सताये हुये व्यक्तियोमे विवेक नही रह जाता ॥५॥
हे मेघ ! तुम पुष्करावर्तक नामके जगत्प्रसिद्ध मेघो के वंशो मे उत्पन्न हुए हो, इच्छानुकूल रुप धारण कर सकते हो देवराज इन्द्रके प्रधान सेवक हो, यह सब मै जानता हूँ । इसी कारण भाग्यवशात अपनी प्रियासे ( या अपने बान्धवोसे ) दूर बिछुडा हुआ मै, तुमसे याचना कर रहा हूँ । गुणवान व्यक्तिसे की गयी याचना निष्फ़ल होनेपर भी अच्छी है और नीच व्यक्तिसे सफ़ल हुई भी याचना अच्छी नही ॥६॥
हे जलद ! तुम संतप्त ( ग्रीष्म अथवा विरहसे दु:खी ) प्राणीयोकी रक्षा करनेवाले हो, अत: धनेश्चर कुबेर के क्रोधके कारण अपनी प्रियासे वियुक्त हुए मेरे, सन्देशको मेरी प्रियाके पास पहुँचा दो । तुम्हे अलका नामकी उस संपन्न यक्षोकी नगरमे जाना है जहाँके महल, समीपमे रहनेवाले शिवजीके मस्तकपर स्थित चन्द्रमाकी किरणोसे सदा उज्ज्वल ( प्रकाशमान ) रहते है ॥७॥
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Re: मेघदूत

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हे मेघ ! जब तुम आकाशमे चढ जाओगे तो प्रवासियोकी पत्नीयोको अपने अपने पतीयोके घर लौट आनेका विश्वास हो जायेगा और वे आश्वस्त होकर अपने खुले हुए केशोको ऊपर उठा-उठाकर तुम्हे देखेगी । क्योकि तुम्हारे उमड आनेपर अपनी विरहिणी पत्नीकी उपेक्षा कौन करेगा ? जब कि मेरी तरह किसी की आजीविका दूसरोके अधीन न हो ॥८॥
वायु तुम्हारे अनुकूल होकर जिस प्रकार तुम्हे आगे बढा रहा है, और ( जल से भरा हुआ देखकर ) प्रसन्न हुआ चातक तुम्हारे बायी ओर मधुर-मधुर बोली बोल रहा है ( यह तुम्हारी यात्राकी सफ़लता का द्योतक है ) । गर्भाधानका समय जानकर आकाशमे पंक्ति बनाकर उडती हुई बलाकाएँ भी निश्चय ही तुम्हारे पास आयेगी ॥९॥
हे मेघ ! यदि तुम बिना कही रुके अलकामे पहुँचोगे तो शापकी अवधिके दिन गिनती हुई और ( पुनर्मिलन की आशासे ) जो मरी नही, ऐसी पतिपरायण अपनी भाभीको ( अर्थात मेरी पत्नीको ) अवश्य देखोगे । क्योकी स्त्रियो का ह्रदय फ़ुलो के समान कोमल, प्राय: शीघ्र गिरनेवाला और प्रेमसे भरा होता है । वियोगके समय आशारुपी बन्ध ( वृत्त ) ही उसे रोके रहता है ॥१०॥
तुम्हारे जीस गर्जन के प्रभावसे पृथ्वीमे छातोके समान शिलीन्ध्र ( कुकुरमुत्ते ) उग आते है, उस कर्ण-सुखदायी गर्जितको सुनकर मानसरोवरमे जानेके लिये उत्कण्ठित हुए मृणालके खण्डोका चबैना लिये हुए राजहंस कैलास पर्वत तक आकाशमे तुम्हारा साथ देंगे ॥११॥
लोकवन्द्य भगवान रामचन्द्रजीके श्रीचरणोसे जिस रामगिरि के प्रान्तभाग पवित्र हो गये है, अपने प्रिय मित्र इस उंचे पर्वतसे, जाते समय बिदा लेलो । क्योकी प्रत्येक वर्षाकालमे इससे मिलनेपर चिरविरहजन्य जो गरम-गरम आँसू तुम्हारे निकलते है उनसे तुम्हारा इसके प्रति स्नेह प्रकट होता है ॥१२॥
हे मेघ ! पहले तुम्हारी यात्राके योग्य मार्गको तुमसे कहता हूँ, सुनो । जिस मार्गसे चलते-चलते थकनेपर पर्वतोकी चोटीयोमे विश्राम करते हुए और स्थान-स्थानपर जल बरसानेसे क्षीण हुये तुम, नदियोसे हलका पानी ले-लेकर चलोगे । इसके बाद श्रवण सुखद मेरा सन्देश सुनोगे ॥१३॥
किसी पहाड की चोटीको वायु उडा कर ले जा रहा है क्या ? ऐसा सोचकर उपरको मुख करके अत्यन्त आश्चर्यसे भोली-भाली सिद्धस्त्रियाँ तुम्हारे उत्साह को देखेगी, अत: रसीले निचुल वृक्षोसे घिरे इस स्थानसे, दिग्गजोके सूँडोके प्रहारसे बचते हुए तुम उत्तरकी ओर मुख करके आकाशमे उड जाओ ॥१४॥
विभिन्न रंगोवाली मणियोकी किरणे आपसमे जैसे मिल जायँ, ऐसा दर्शनीय यह इंद्रधनुष सामनेकी बाम्बीके ऊपरसे निकल रहा है । इस इंद्रधनुषसे सजा हुआ तुम्हारा सावला शरीर इस प्रकार अत्यन्त शोभा को प्राप्त होगा जैसे की मोरपंख लगा लेनेसे गोपवेषधारी कृष्णका श्यामरुप चमक उठता था ॥१५॥
खेती करनेका सारा फ़ल ( अन्नका संपूर्ण लाभ ) तुम्हीपर निर्भर है, ऐसा जानकर किसी प्रकारकी-भौह मट काना आदि विकृत चेष्टाओको न जानती हुई ग्रामिण कृषक बंधुएँ प्रेमपूर्ण दृष्टीसे तुम्हारी ओर देखेंगी । इसलिये तत्काल हल जोतनेसे सोंधी सोंधी मिट्टीकी गन्धवाले मालनामक क्षेत्रपर मँडराकर कुछ पश्चिमको मुडो, वहाँ बरसनेसे हलके होकर फ़िर तीव्र गतीसे उत्तरकी ओर ही चलो ॥१६॥
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मूसलधार वर्षासे वनके उपद्रवो ( वनाग्नि आदि ) - को शान्त करके जब तुम आगे बढोगे तो मार्गश्रमसे थके हुए तुमको आम्रकुट पर्वत अपने शिखरपर धारण करेगा । नीच व्यक्ती भी अपने आश्रयके लिये अपने मित्रको आया देख उसके किये हुए उपकारोका विचार करके उससे मुहँ नही मोडता, फ़िर ऐसे ऊँचे ( महान व्यक्ती ) की तो बात ही क्या है ॥१७॥
स्त्रियोके केशपाशके समान काले वर्णवाले तुम, जब उसके शिखरपर चढोगे तब चारो ओरसे पके फ़लोवाले जंगली आमोसे घिरनेके कारण चमकीले पीले-पीले वर्णका वह आम्रकुट, ( बीचमे काला और चारो पीला सा ) पृथ्वीके स्तनकी तरह अवश्य ही अत्यन्त शोभाको प्राप्त होगा । जिसे देखने देवताओके ( दम्पति ) भी आयेगे ॥१८॥
किरातादि वनचारियोकी स्त्रियोने जिसकी झाडियोमे आनन्द लिया है ऐसे, उस आम्रकुटपर कुछ देर रुककर, जल बरसा देनेके कारण हलके होने शीघ्र चलते हुए तुम आगेका मार्ग पारकरके उस नर्मदा नदीको देखोगे जो विन्धागिरिकी पत्थरोसे ऊँची-नीची तलहटीमे बिखरी हुई ऐसी लगती है जैसे हाथीके शरीरमे मस्मकी रेखाओसे मण्डल बना दिया हो ॥१९॥
आम्रकुटके प्रान्तभागमे बरस जानेसे तुम खाली हो जाओगे, अत: कडवे स्वादवाले ( अथवा सुन्दर गन्धसे युक्त ) वनगजोके मदजलसे सुगन्धित और जामुनकी झाडियोसे प्रतिहत वेगवाले उस ( रेवा ) के जलको लेकर चलना । हे मेघ ! जल भर लेनेसे तुम भारी हो जाओगे और वायु तुम्हे इधर-उधर हटा नही सकेगा, क्योकि प्रत्येक रिक्त वस्तु हलकी होती है और भरी हुई भारी ॥२०॥
आधे खिलेहुए केसरोसे कुछ हरे एवं कुछ धूसर वर्णके कदम्बको और नदियो या तालाबो के किनारे-किनारे पहिले-पहिले जिनमे कलियाँ दीख रही है ऐसे कन्दलियोको, देखकर तथा वनाग्निसे जलाये हुए जंगलोमे पानी पडनेसे उत्पन्न उत्कट गंधको सुंघकर पपीहे जलकी बूँदोको बरसानेवाले तुमको मार्गकी सूचना देंगे ॥२१॥
बरसती जलकी बूँदोको मुखसे पकड लेनेमे कुशल चातकोको देखते हुए और पंक्ति वनाकर चलती हुई बलाकाआको अंगुलीसे गीनते हुए सिद्ध लोग उस समय तुम्हे धन्यवाद देंगे, जब कि तुम्हारी गर्जनासे डरी हुई उनकी प्रियाएँ सहसा उनको आलिंगन करने लगेंगी ॥२२॥
हे मित्र ! यद्यपि मेरे कार्यके लिये तुम यथाशीघ्र अलका पहुँचना चाहोगे किन्तु फ़िर भी पुष्पोकी गन्धसे पूर्ण पर्वत शिखरोमे विश्राम करते-करते तुमको विलंब हो जायेगा, ऐसा मै सोचता हूँ । आँसू भरे मोर अपनी मधुर ध्वनिसे जो तुम्हारा स्वागत करेंगे उसे स्वीकार करते हुए शीघ्र आगे बढनेका प्रयत्न करना ॥२३॥
तुम जब समीप पहुँचोगे तो दशार्ण देशमे केतकी वृक्षोसे निर्मित उद्यानोके घेरे, कलियोके कुछ-कुछ खिल जानेसे पीले-पीले दिखाई देने लगेंगे । कौवे आदि पक्षियोके घोसलोसे ग्रामचैत्य भरने लगेंगे । वनोके वे भाग जिनमे जामुन के पेड है, फ़लोके पक जानेसे काले दिखेंगे और हंस वहाँपर फ़िर कुछ ही दिन ठहरेंगे । ( क्योकि हंसोको वर्षाकालके आनेका विश्वास हो जानेसे वे मानस सरोवरको जानेकी सोचेंगे । ) ॥२४॥
दशाणोकी राजधानी ’विदिशा’ दिशाओमे प्रसिद्ध है, वहाँ जाकर तुम्हे शीघ्र ही कामुकताका फ़ल मिल जायेगा । क्योकि जैसे कोई कामी ( दन्तक्षत पीडासे ) भौहे चढाती हुई नायिकाके अधरको चूम लेता है वैसे ही किनारेपर गरजनेसे सुन्दर तुम, वेत्रवती के मीठे और चंचल तरंगोवाले जल का पान करोगे ॥२५॥
जलदान करनेके बाद वहाँ विश्रामके लिये उस निचले पर्वत पर ठहर जाना जो पूरे खिले हुए कदम्बपुष्पोसे ऐसा लगेगा, जैसे तुम्हारे स्पर्शसे रोमांचित हो गया हो और वेश्याओके साथ रतिक्रिडामे प्रयुक्त अंगरागादिकी महकती सुगन्धसे जिसकी गुफ़ाएँ वहाँके नागरिकोके प्रचंड यौवनको प्रकट कर रही होगी ॥२६॥
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हे मेघ ! उक्त पर्वतपर विश्राम लेकर उद्यानोको सोचनेके लिये बनी कृत्रीम नदीयो ( नहरे या कुल्याओ ) के किनारे उगी हुई जुहीकी कलियोको हलकी बूँदे बरसाकर सींचते हुये तुम, बार-बार गालोपर का पसीना पोछनेमे हाथोकी गरमीसे जीनके कर्णोत्पल मुरझा गये है ऐसी, फ़ूल तोडती युवतीयोके मुखोपर छाया करते हुए क्षणभर उनसे परिचय प्राप्त करके आगे बढना ॥२७॥
यद्यपि उत्तरदिशाकी ओर जाते हुए तुमको यह मार्ग कुछ टेढा पडेगा, फ़िर भी तुम उज्जयिनीके महलोकी अटारियोके अनुरागसे विमुख न होना अर्थात उनपर अवश्य टिकना । क्योकि रेखा जैसी बिजलीके चमकनेसे चकाचौंध हुई तथा चंचल कनखियोवाली नागरिक स्त्रियोकी आँखोसे तुमने यदि खेल न किया तो समझो तुम ठगे गये ( जीवन की सफ़लता न पा सके ) ॥२८॥
यहाँ मेघमे नायक और निर्विन्ध्यामे नायिकाका आरोप किया है । ( तात्पर्य यह है कि ) जैसे कोई नायिका अपने प्रितमसे प्रणययाचना करनेके लिये करधनीसे शब्द करती है, उन्मत्तसी चलती है, नाभि आदि गौप्य अंगो का प्रदर्शन करती है, उसी प्रकार उज्जयिनी जाते हुए मार्गमे निर्विन्ध्या भी तुम्हे अपना प्रणयी समझेगी और कुजते हुए बगुले आदिकी पंक्तिरुप उसकी करधनी, टेढामेढा चलना उसका उन्माद, जलावर्त हो उसको नाभि समझकर तुम उसका रस ( जल, शृंगार ) ग्रहण करना । क्योकि स्त्रिया इन विलास चेष्टाओद्वारा ही प्रणय की याचना करती है, कण्ठसे नही ॥२९॥
हे भाग्यशाली मेघ ! उस ( निर्विन्ध्या ) को पार करके तुम्हे वहि उपाय करना है जिससे सिन्धु नदीकी कृशता दूर हो जाये । क्योकि विरहिणी नायिकाकी भाँति उसका भी जल लटकती चोटी सा स्वल्प लग रहा है । किनारेके वृक्षोसे झडे हुऎ पीले पत्तोसे ढकनेसे उसकी आभा भी फ़िकी हो गयी है । इस प्रकार अपनी वियोगावस्थासे वह दुनियाको दिखा रही है कि उसका प्रियतम ( तुम ) कितना भाग्यवान है जिसे वह इतना चाहती है कि उसके विरहमे इसकी यह दशा हो रही है ॥३०॥
जहाँके गाबोमे बडे बूढे आज भी उदयनकी कथाओको विस्तारसे कहा करते है, ऐसे अवन्ति देशमे पहँचकर तुम उस उज्जयिनीकी ओर चलो जिसका निर्देश मै पहिले कर चुका हूँ । धनधान्य रत्नादिसे भरी बह नगरी क्या है ? प्रतीत होता है कि पुण्य क्षीण होनेपर जो स्वर्गनिवासी भूमिपर आये वे अपने शेष पुण्योका उपभोग करनेके लिये स्वर्गका ही एक दीप्तिमान टुकडा भूमिपर ले आये है ॥३१॥
जिस उज्जयिनीमे प्रात: सारसोकी ऊंची और मदसे मधुर ध्वनिको और भी दीर्घ करता हुआ, विकसित कमलोकी मनोहर गन्धसे भरा तथा अंगोको अत्यन्त आनन्द देनेवाला शिप्रा नदी का वायु, मनानेके लिये चिकनी-चुपडी बाते करनेवाले प्रेमीकी तरह, स्त्रियोके सम्भोगजन्य श्रमको दूर कर देता है ॥३२॥
जिस उज्जयिनीमे दुकानोपर बिक्रिके लिये सजाये हुए, बीचमे लटकते हुए बहुमूल्य रत्नोवाले हारो, करोडो शंखो और सीपियो, ऊपरको अंकुरोकी तरह उठाती हुई किरणोवाले ऐसे घासके-से हरे हरे रंगके भकरतमणियो और मूंगोके तुकडोको देखकर मालूम पडता है कि रत्नाकर जलनिधिमे अब केवल जल ही रह गया होगा क्योकि रत्न तो सब यहा आ गये है ॥३३॥
जिस उज्जयिनीमे रहनेवाले लोग बाहरके आगन्तुकोको, यहाँपर उदयनने वासवदत्ताको हर लिया था, यहाँपर राजा प्रद्योतका सुनहरे ताडोका बगीचा था, यहाँ नलगिरि नामक हाथी मतवाला हो गया था, इत्यादि बताकर उनका मनोविनोद करते है ॥३४॥
जिस उज्जयिनीमे श्यामवर्ण घोडे सूर्यके घोडोसे प्रतिद्वन्द्विता करते है पहाडो जैसे ऊँचे हाथी अपने गण्डस्थलोसे ऐसे मद बरसाते है जैसे तुम जल बरसाते हो । वहाँके योद्धा लडाईमे रावणके सामने भी ठहर जाते है और उनके शरीरमे तलवारो के घाव इतने अधिक है कि उनसे आभूषणोकी कान्ति भी फ़ीकी पड जाती है ॥३५॥
बालोको सुवासित करनेके लिये जो धूप जलाई गई है उसके झरोखोसे निकलते हुए धुँपसे तुम्हारा आकार बढने लगेगा,भ्रातृस्नेहसे पालतू मोर तुम्हे देखकर नाचेंगे, इस प्रकार फ़ूलोकी सुगन्धसे भरी और सुन्दरियोके चलनेसे महावरके पैरोके चिह्न जिनमे हो गये है ऐसो उज्जयिनीकी विशाल अट्टालिकाओकी शोभा देखते हुए तुम मार्गकी थकावट मिटाना ॥३६॥
अपने स्वामी नीलकण्ठके गलेकीसी कान्तिवाले तुमको गणलोग आदरसे देखेंगे । तब तुम त्रिभुवनगुरु शिवजीके उस पवित्रस्थान ( महाकाल ) को जाना जहाँके बगीचेमे, कमलकिंजल्कसे पूर्ण गन्धवतीके ज्लमे जलक्रीडा करती ह्री युवतियोके अंगवाससे अतिसुगन्धित वायु प्रवाहित होता रहता है ॥३७॥
हे मेघ ! यदि तुम सन्ध्याकालके अतिरिक्त किसी दूसरे समयसे भी महाकालके पास पहुँचो तो सूर्यास्त होनेतक वही ठहरना, क्योकि शिवजीकी सायंकालीन आरतीमे तुम्हारी गंभीर गर्जनाये नगाडोका काम देंगी और महाकालके प्रसादसे तुम्हे उन गर्जनाओका सम्पूर्ण फ़ल प्राप्त होगा ॥३८॥
सायंकालीन आरतीके समय उस महाकालमन्दिरमे नाचते हुए जिनके पैरोकी गतीके साथ किंकिणियाँ झनक रही है और रत्नोकी कान्तीसे विभूषित डण्डोवाले चँवरोको कलापूर्वक डुलाते हुए जिनके हाथ थक गये है, ऐसी वेश्याएँ तुम्हारे बरसाए प्रथम जलबिन्दुओसे नखक्षतोका दाह शान्त होनेसे प्रसन्न होकर तुमपर कटाक्षपात अर्थात तुम्हे तिरछी चितवनसे देखेंगी ॥३९॥
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