गोदान -प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Post by Jemsbond »

इन दिनों जो कोई मालती से मिलता वह उससे मेहता की तारीफो के पुल बाँध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नए विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरूचि का ध्यान भी उसे न रहता। और बेचारे मेहता दिल में कट कर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक से सुनते थे, लेकिन अपनी तारीफ सुन कर जैसे बेवकूफ बन जाते थे, मुँह जरा-सा निकल आता था, जैसे कोई फबती कसी गई हो। और मालती उन औरतों में न थी, जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थी, पहले भी और अब भी, व्यवहार में भी, विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पा कर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थी, उसी तरह मन में कोई सुंदर भाव आए, तो वह उसे प्रकट किए बिना चैन न पाती थी।

मालती ने और समीप आ कर उनकी पीठ पर हाथ रख कर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा - अच्छा भागो नहीं, अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता है, तुम्हें अपने निंदा ज्यादा पसंद है। तो निंदा ही सुनो - खन्ना जी, यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल......

शक्कर-मिल की चिमनी यहाँ से साफ नजर आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्ति स्तंभ की भाँति आकाश में सिर उठाए खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक्त उन्हें मिल के दफ्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अर्जेंट मीटिंग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा।

मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा है? देखते-देखते सारा आकाश बैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक हो कर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गई? आग ही मालूम होती है।

सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ दौड़े जाते नजर आए। खन्ना ने खड़े हो कर जोर से पूछा - तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे हो?

एक आदमी ने रूक कर कहा - अजी, शक्कर-मिल में आग लग गई। आप देख नहीं रहे हैं?

खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गई और अपने जूते पहन आई। अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अंतर्मुखी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी ही थी। तीनों आदमी घबराए हुए आ कर बैठे और मिल की तरफ भागे। चौरास्ते पर पहुँचे तो देखा, सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू है, कार आगे न बढ़ सकी।

मेहता ने पूछा - आग-बीमा तो करा लिया था न!

खन्ना ने लंबी साँस खींच कर कहा - कहाँ भाई, अभी तो लिखा-पढ़ी हो रही थी। क्या जानता था, यह आफत आने वाली है।

कार वहीं राम-आसरे छोड़ दी गई और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक-पर-एक, दाँत पीसती थीं, जीभ लपलपाती थीं, जैसे आकाश को भी निगल जाएँगी। उस अग्नि समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया था, मानो सावन की घटा कालिख में नहा कर नीचे उतर आई हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआ, उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थी, पुलिस भी थी, फायर ब्रिगेड भी, सेवा समितियों के सेवक भी, पर सब-के-सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गए हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि-सफर में जा कर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थीं, लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो और, जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।

दूर से तो मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैं, आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करते, मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अंदर जाना जान-जोखिम था। ईंट और पत्थर के टुकड़े चटाक-चटाक टूट कर उछल रहे थे। कभी-कभी हवा का रुख इधर हो जाता था, तो भगदड़ पड़ जाती थी।

ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता था, क्या करें। आखिर आग लगी कैसे! और इतनी जल्द फैल कैसे गई? क्या पहले किसी ने देखा ही नहीं? या देख कर भी बुझाने का प्रयास न किया? इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थे, मगर वहाँ पूछे किससे, मिल के कर्मचारी होंगे तो जरूर, लेकिन उस भीड़ में उनका पता मिलना कठिन था।

सहसा हवा का इतना तेज झोंका आया कि आग की लपटें नीची हो कर इधर लपकीं, जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो। लोग सिर पर पाँव रख कर भागे। एक-दूसरे पर गिरते, रेलते, जैसे कोई शेर झपटा आता हो। अग्नि-ज्वालाएँ जैसे सजीव हो गई थीं, सचेष्ट भी, जैसे कोई शेषनाग अपने सहस्र मुख से आग फुंकार रहा हो। कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गए। खन्ना मुँह के बल गिर पड़े, मालती को मेहता जी दोनों हाथों से पकड़े हुए थे, नहीं जरूर कुचल गई होती? तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आ कर रूके। खन्ना एक प्रकार की चेतना-शून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाए खड़े थे।

मेहता ने पूछा - आपको ज्यादा चोट तो नहीं आई?

खन्ना ने कोई जवाब न दिया। उसी तरफ ताकते रहे। उनकी आँखों में वह शून्यता थी, जो विक्षिप्तता का लक्षण है।

मेहता ने उनका हाथ पकड़ कर फिर पूछा - हम लोग यहाँ व्यर्थ खड़े हैं। मुझे भय होता है, आपको चोट ज्यादा आ गई है। आइए, लौट चलें।

खन्ना ने उनकी तरफ देखा और जैसे सनक कर बोले - जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खूब जानता हूँ। अगर उन्हें इसी में संतोष मिलता है, तो भगवान उनका भला करें। मुझे कुछ परवा नहीं, कुछ परवा नहीं, कुछ परवा नहीं! मैं आज चाहूँ, तो ऐसी नई मिल खड़ी कर सकता हूँ। जी हाँ, बिलकुल नई मिल खड़ी कर सकता हूँ। ये लोग मुझे क्या समझते हैं? मिल ने मुझे नहीं बनाया, मैंने मिल को बनाया। और मैं फिर बना सकता हूँ, मगर जिनकी यह हरकत है, उन्हें मैं खाक में मिला दूँगा। मुझे सब मालूम है, रत्ती-रत्ती मालूम है।

मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबरा कर बोले - चलिए, आपको घर पहुँचा दूँ। आपकी तबीयत अच्छी नहीं है।

खन्ना ने कहकहा मार कर कहा - मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इसलिए कि मिल जल गई। ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूँ। मेरा नाम खन्ना है, चंद्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया। पहली मिल में हमने बीस प्रतिशत नफा दिया। मैंने प्रोत्साहित हो कर यह मिल खोली। इसमें आधे रुपए मेरे हैं। मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिए। मैं एक घंटा नहीं, आधा घंटा पहले दस लाख का आदमी था। जी हाँ, दस, मगर इस वक्त फाकेमस्त हूँ - नहीं दिवालिया हूँ! मुझे बैंक को दो लाख देना है। जिस मकान में रहता हूँ, वह अब मेरा नहीं है। जिस बर्तन में खाता हूँ, वह भी अब मेरा नहीं! बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा। जिस खन्ना को देख कर लोग जलते थे, वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहीं, दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहीं, मुझ पर हँसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैं, कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे। क्या कीजिएगा, यह सब सुन कर, लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों जिंदा रहे? जो कुछ होना है हो, दुनिया जितना चाहे हँसे, मित्र लोग जितना चाहें अफसोस करें, लोग जितनी गालियाँ देना चाहें, दें। खन्ना अपनी आँखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं है, बेगैरत नहीं है!

यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीट कर जोर-जोर से रोने लगे।

मेहता ने उन्हें छाती से लगा कर दुखित स्वर में कहा - खन्ना जी, जरा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार हो कर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्धन रह कर भी मित्रों के विश्वासपात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भी, बल्कि तब कोई आपका शत्रु रहेगा ही नहीं। आइए, घर चलें। जरा आराम कर लेने से आपका चित्त शांत हो जायगा।

खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरास्ते पर आए। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुँच गए।

खन्ना ने उतर कर शांत स्वर में कहा - कार आप ले जायँ। अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है।

मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा - तुम चल कर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे। घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।

खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले - मुझसे जो अपराध, हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती! तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा है, तुम मुझे अपनी नजरों से न गिराओगी। शायद दस-पाँच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पडे। किस्मत ने कैसा धोखा दिया!

मेहता ने कहा - मैं आपसे सच कहता हूँ खन्ना जी, आज मेरी नजरों में आपकी जो इज्जत है, वह कभी न थी।

तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविंदी भीतर से आ कर बोली - क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैं? महराज तो बड़ी बुरी खबर लाया है।

खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकने वाला, तूफानी आवेग उठा कि गोविंदी के चरणों पर गिर पड़ें और उन्हें आँसुओं से धो दें। भारी गले से बोले - हाँ प्रिए, हम तबाह हो गए।

उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सांत्वना के लिए विकल हो रही थी, सच्ची स्नेह में डूबी हुई सांत्वना के लिए - उस रोगी की भाँति, जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आँखों से ताक रहा हो। वही गोविंदी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिए उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उसके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रख कर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा में, घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कंठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोद कर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं।

गोविंदी ने उन्हें एक सोफा पर बैठा दिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली - तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? धन के लिए, जो सारे पापों की जड़ है! उस धन से हमें क्या सुख था? सबेरे से आधी रात तक एक-न-एक झंझट-आत्मा का सर्वनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें संबंधियों को पत्र लिखने तक की फुर्सत न मिलती थी। क्या बड़ी इज्जत थी? हाँ, थी, क्योंकि दुनिया आजकल धन की पूजा करती है और हमेशा करती चली आई है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है, तुम्हारे सामने पूँछ हिलाएगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो, अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझ कर मुँह फेर लेंगे, बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जाएँगे। मैं गलत तो नहीं कहती मेहता जी?

मेहता ने मानों स्वर्ग-स्वप्न से चौंक कर कहा - गलत? आप वही कह रही हैं, जो संसार के महान पुरुषों ने जीवन का तात्विक अनुभव करने के बाद कहा है। जीवन का सच्चा आधार यही है।

गोविंदी ने मेहता को संबोधित करके कहा - धनी कौन होता है, इसका कोई विचार नहीं करता। वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवकूफ बना सकता है?

खन्ना ने बात काट कर कहा - नहीं गोविंदी, धन कमाने के लिए अपने में संस्कार चाहिए। केवल कौशल से धन नहीं मिलता। इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाए। हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है।

गोविंदी ने विपक्षी न बन कर मधयस्थ भाव से कहा - मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़ती, लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्व उसमें नहीं है। मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला। अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगे, स्वार्थ और अभिमान के पुतले नहीं। जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में हैं, उनको लूटने में नहीं। बुरा न मानना, अब तक तुम्हारे जीवन का अर्थ था आत्मसेवा, भोग और विलास। दैव ने तुम्हें उस साधन से वंचित करके तुम्हारे ज्यादा ऊँचे और पवित्र जीवन का रास्ता खोल दिया है। यह सिद्धि प्राप्त करने में अगर कुछ कष्ट भी हो, तो उसका स्वागत करो। तुम इसे विपत्ति समझते ही क्यों हो? क्यों नहीं समझते, तुम्हें अन्याय से लड़ने का अवसर मिला है। मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खो कर अगर हम अपने आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है। न्याय के सैनिक बन कर लड़ने में जो गौरव, जो उल्लास है, क्या उसे इतनी जल्द भूल गए?

'गोविंदी के पीले, सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थी, मानो उसमें कोई विलक्षण शक्ति आ गई हो, मानो उसकी सारी मूक साधना प्रगल्भ हो उठी हो।

मेहता उसकी ओर भक्तिपूर्ण नेत्रों से ताक रहे थे, खन्ना सिर झुकाए इसे दैवी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर रहे थे और मालती मन में लज्जित थी। गोविंदी के विचार इतने ऊँचे, उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल है।
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Re: गोदान -प्रेमचंद

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नोहरी उन औरतों में न थी, जो नेकी करके दरिया में डाल देती हैं। उसने नेकी की है, तो उसका खूब ढिंढोरा पीटेगी और उससे जितना यश मिल सकता है, उससे कुछ ज्यादा ही पाने के लिए हाथ-पाँव मारेगी। ऐसे आदमी को यश के बदले अपयश और बदनामी ही मिलती है। नेकी न करना बदनामी की बात नहीं। अपनी इच्छा नहीं है, या सामर्थ्य नहीं है। इसके लिए कोई हमें बुरा नहीं कह सकता। मगर जब हम नेकी करके उसका एहसान जताने लगते हैं, तो वही जिसके साथ हमने नेकी की थी, हमारा शत्रु हो जाता है, और हमारे एहसान को मिटा देना चाहता है। वही नेकी अगर करने वाले के दिल में रहे, तो नेकी है, बाहर निकल आए तो बदी है। नोहरी चारों ओर कहती फिरती थी - बेचारा होरी बड़ी मुसीबत में था। बेटी के ब्याह के लिए जमीन रेहन रख रहा था। मैंने उसकी यह दसा देखी, तो मुझे दया आई। धनिया से तो जी जलता था, वह राँड़ तो मारे घमंड के धरती पर पाँव ही नहीं रखती। बेचारा होरी चिंता से घुला जाता था। मैंने सोचा, इस संकट में इसकी कुछ मदद कर दूँ। आखिर आदमी ही तो आदमी के काम आता है। और होरी तो अब कोई गैर नहीं है, मानो चाहे न मानो, वह हमारे नातेदार हो चुके। रुपए निकाल कर दे दिए, नहीं लड़की अब तक बैठी रहती।

धनिया भला यह जीट कब सुनने लगी थी। रुपए खैरात दिए थे? बड़ी खैरात देने वाली। सूद महाजन भी लेगा, तुम भी लोगी। एहसान काहे का! दूसरों को देती, सूद की जगह मूल भी गायब हो जाता, हमने लिया है, तो हाथ में रुपए आते ही नाक पर रख देंगे। हमीं थे कि तुम्हारे घर का बिस उठाके पी गए, और कभी मुँह पर नहीं लाए। कोई यहाँ द्वार पर नहीं खड़ा होने देता था। हमने तुम्हारा मरजाद बना लिया, तुम्हारे मुँह की लाली रख ली।

रात के दस बज गए थे। सावन की अंधेरी घटा छाई थी। सारे गाँव में अंधकार था। होरी ने भोजन करके तमाखू पिया और सोने जा रहा था कि भोला आ कर खड़ा हो गया।

होरी ने पूछा - कैसे चले भोला महतो! जब इसी गाँव में रहना है तो क्यों अलग छोटा-सा घर नहीं बना लेते? गाँव में लोग कैसी-कैसी कुत्सा उड़ाया करते हैं, क्या यह तुम्हें अच्छा लगता है? बुरा न मानना, तुमसे संबंध हो गया है, इसलिए तुम्हारी बदनामी नहीं सुनी जाती, नहीं मुझे क्या करना था।

धनिया उसी समय लोटे में पानी ले कर होरी के सिरहाने रखने आई। सुन कर बोली - दूसरा मरद होता, तो ऐसी औरत का सिर काट लेता।

होरी ने डाँटा - क्यों बे-बात की बात करती है। पानी रख दे और जा सो। आज तू ही कुराह चलने लगे, तो मैं तेरा सिर काट लूँगा? काटने देगी?

धनिया उसे पानी का एक छींटा मार कर बोली - कुराह चले तुम्हारी बहन, मैं क्यों कुराह चलने लगी। मैं तो दुनिया की बात कहती हूँ, तुम मुझे गालियाँ देने लगे। अब मुँह मीठा हो गया होगा। औरत चाहे जिस रास्ते जाय, मरद टुकुर-टुकुर देखता रहे। ऐसे मरद को मैं मरद नहीं कहती।

होरी दिल में कटा जाता था। भोला उससे अपना दुख-दर्द कहने आया होगा। वह उल्टे उसी पर टूट पड़ी। जरा गर्म हो कर बोला - तू जो सारे दिन अपने ही मन की किया करती है, तो मैं तेरा क्या बिगाड़ लेता हूँ? कुछ कहता हूँ तो काटने दौड़ती है। यही सोच।

धनिया ने लल्लो-चप्पो करना न सीखा था, बोली - औरत घी का घड़ा लुढ़का दे, घर में आग लगा दे, मरद सह लेगा, लेकिन उसका कुराह चलना कोई मरद न सहेगा।

भोला दुखित स्वर में बोला - तू बहुत ठीक कहती है धनिया। बेसक मुझे उसका सिर काट लेना चाहिए था, लेकिन अब उतना पौरुख तो नहीं रहा। तू चल कर समझा दे, मैं सब कुछ करके हार गया।

'जब औरत को बस में रखने का बूता न था, तो सगाई क्यों की थी? इसी छीछालेदर के लिए? क्या सोचते थे, वह आ कर तुम्हारे पैर दबाएगी, तुम्हें चिलम भर-भर पिलाएगी और जब तुम बीमार पड़ोगे, तो तुम्हारी सेवा करेगी? तो ऐसा वही औरत कर सकती है, जिसने तुम्हारे साथ जवानी का सुख उठाया हो। मेरी समझ में यही नहीं आता कि तुम उसे देख कर लट्टू कैसे हो गए! कुछ देखभाल तो कर लिया होता कि किस स्वभाव की है, किस रंग-ढंग की है। तुम तो भूखे सियार की तरह टूट पड़े। अब तो तुम्हारा धरम यही है कि गँड़ासे से उसका सिर काट लो। फाँसी ही तो पाओगे। फाँसी इस छीछालेदर से अच्छी।'

भोला के खून में कुछ स्फूर्ति आई। बोला - तो तुम्हारी यही सलाह है?

धनिया बोली - हाँ, मेरी यही सलाह है। अब सौ-पचास बरस तो जीओगे नहीं। समझ लेना, इतनी ही उमिर थी।

होरी ने अब की जोर से फटकारा - चुप रह, बड़ी आई है वहाँ से सतवंती बनके। जबरदस्ती चिड़िया तक तो पिंजड़े में रहती नहीं, आदमी क्या रहेगा? तुम उसे छोड़ दो भोला और समझ लो, मर गई, और जा कर अपने बाल-बच्चों में आराम से रहो। दो रोटी खाओ और राम का नाम लो। जवानी के सुख अब गए। वह औरत चंचल है, बदनामी और जलन के सिवा तुम उससे कोई सुख न पाओगे।

भोला नोहरी को छोड़ दे, असंभव! नोहरी इस समय भी उसकी ओर रोष-भरी आँखों से तरेरती हुई जान पड़ती थी, लेकिन नहीं, भोला अब उसे छोड़ ही देगा। जैसा कर रही है, उसका फल भोगे।

आँखों में आँसू आ गए। बोला - होरी भैया, इस औरत के पीछे मेरी जितनी साँसत हो रही है, मैं ही जानता हूँ। इसी के पीछे कामता से मेरी लड़ाई हुई। बुढ़ापे में यह दाग भी लगना था, वह लग गया। मुझे रोज ताना देती है कि तुम्हारी तो लड़की निकल गई। मेरी लड़की निकल गई, चाहे भाग गई, लेकिन अपने आदमी के साथ पड़ी तो है, उसके सुख-दु:ख की साथिन तो है। इसकी तरह तो मैंने औरत ही नहीं देखी। दूसरों के साथ तो हँसती है, मुझे देखा तो कुप्पे-सा मुँह फुला लिया। मैं गरीब आदमी ठहरा, तीन-चार आने रोज की मजूरी करता हूँ। दूध-दही, माँस-मछली, रबड़ी-मलाई कहाँ से लाऊँ!

भोला यहाँ से प्रतिज्ञा करके अपने घर गए। अब बेटों के साथ रहेंगे, बहुत धक्के खा चुके, लेकिन दूसरे दिन प्रात:काल होरी ने देखा, तो भोला दुलारी सहुआइन की दुकान से तमाखू लिए जा रहे थे।

होरी ने पुकारना उचित न समझा। आसक्ति में आदमी अपने बस में नहीं रहता! वहाँ से आ कर धनिया से बोला - भोला तो अभी वहीं है। नोहरी ने सचमुच इन पर कोई जादू कर दिया है।

धनिया ने नाक सिकोड़ कर कहा - जैसी बेहया वह है, वैसा ही बेहया यह। ऐसे मरद को तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए। अब वह सेखी न जाने कहाँ गई। झुनिया यहाँ आई, तो उसके पीछे डंडा लिए फिर रहे थे। इज्जत बिगड़ी जाती थी। अब इज्जत नहीं बिगड़ती!

होरी को भोला पर दया आ रही थी। बेचारा इस कुलटा के फेर में पड़ कर अपनी जिंदगी बरबाद किए डालता है। छोड़ कर जाय भी, तो कैसे? स्त्री को इस तरह छोड़ कर जाना क्या सहज है? यह चुड़ैल उसे वहाँ भी तो चैन से न बैठने देगी! कहीं पंचायत करेगी, कहीं रोटी-कपड़े का दावा करेगी। अभी तो गाँव ही के लोग जानते हैं। किसी को कुछ कहते संकोच होता है। कनफुसकियाँ करके ही रह जाते हैं। तब तो दुनिया भी भोला ही को बुरा कहेगी। लोग यही तो कहेंगे, कि जब मर्द ने छोड़ दिया, तो बेचारी अबला क्या करे? मर्द बुरा हो, तो औरत की गर्दन काट लेगा। औरत बुरी हो, तो मर्द के मुँह में कालिख लगा देगी।

इसके दो महीने बाद एक दिन गाँव में यह खबर फैली कि नोहरी ने मारे जूतों के भोला की चाँद गंजी कर दी।

वर्षा समाप्त हो गई थी और रबी बोने की तैयारियाँ हो रही थीं। होरी की ऊख तो नीलाम हो गई थी। ऊख के बीज के लिए उसे रुपए न मिले और ऊख न बोई गई। उधर दाहिना बैल भी बैठाऊ हो गया था और एक नए बैल के बिना काम न चल सकता था। पुनिया का एक बैल नाले में गिर कर मर गया था, तब से और भी अड़चन पड़ गई थी। एक दिन पुनिया के खेत में हल जाता, एक दिन होरी के खेत में। खेतों की जुताई जैसी होनी चाहिए, वैसी न हो पाती थी।

होरी हल ले कर खेत में गया, मगर भोला की चिंता बनी हुई थी। उसने अपने जीवन में कभी यह न सुना था कि किसी स्त्री ने अपने पति को जूते से मारा हो। जूतों से क्या, थप्पड़ या घूँसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती थी, और आज नोहरी ने भोला को जूतों से पीटा और सब लोग तमाशा देखते रहे। इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छूटे! अब तो भोला को कहीं डूब ही मरना चाहिए। जब जिंदगी में बदनामी और दुरदसा के सिवा और कुछ न हो, तो आदमी का मर जाना ही अच्छा। कौन भोला के नाम को रोने वाला बैठा है! बेटे चाहे किरिया-करम कर दें, लेकिन लोक-लाज के बस, आँसू किसी की आँख में न आएगा। तिरसना के बस में पड़ कर आदमी इस तरह अपनी जिंदगी चौपट करता है। जब कोई रोने वाला ही नहीं, तो फिर जिंदगी का क्या मोह और मरने से क्या डरना!

एक यह नोहरी है और यह एक चमारिन है सिलिया! देखने-सुनने में उससे लाख दरजे अच्छी। चाहे दो को खिला कर खाए और राधिका बनी घूमे, लेकिन मजूरी करती है, भूखों मरती है और मतई के नाम पर बैठी है, और वह निर्दयी बात भी नहीं पूछता। कौन जाने, धनिया मर गई होती, तो आज होरी की भी यही दशा होती। उसकी मौत की कल्पना ही से होरी को रोमांच हो उठा। धनिया की मूर्ति मानसिक नेत्रों के सामने आ कर खड़ी हो गई! सेवा और त्याग की देवी! जबान की तेज, पर मोम-जैसा हृदय, पैसे-पैसे के पीछे प्राण देने वाली, पर मर्यादा-रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने को तैयार। जवानी में वह कम रूपवती न थी। नोहरी उसके सामने क्या है? चलती थी, तो रानी-सी लगती थी। जो देखता था, देखता ही रह जाता था। यही पटेश्वरी और झिंगुरी तब जवान थे। दोनों धनिया को देख कर छाती पर हाथ रख लेते थे। द्वार के सौ-सौ चक्कर लगाते थे। होरी उनकी ताक में रहता था, मगर छेड़ने का कोई बहाना न पाता था, उन दिनों घर में खाने-पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और खेतों में भूसा तक न हुआ था। लोग झड़बेरियाँ खा-खा कर दिन काटते थे। होरी को कहत के कैंप में काम करने जाना पड़ता था। छ: पैसे रोज मिलते थे। धनिया घर में अकेली ही रहती थी, कभी किसी ने उसे किसी छैला की ओर ताकते नहीं देखा। पटेश्वरी ने एक बार कुछ छेड़ की थी। उसका ऐसा मुँहतोड़ जवाब दिया कि अब तक नहीं भूले।

सहसा उसने मातादीन को अपनी ओर आते देखा। कसाई कहीं का, कैसा तिलक लगाए है, मानो भगवान का असली भगत है। रंगा हुआ सियार। ऐसे ब्राह्मन को पालागन कौन करे।

मातादीन ने समीप आ कर कहा - तुम्हारा दाहिना तो बूढ़ा हो गया होरी, अबकी सिंचाई में न ठहरेगा। कोई पाँच साल हुए होंगे इसे लाए?

होरी ने दाएँ बैल की पीठ पर हाथ रख कर कहा - कैसा पाँचवाँ, यह आठवाँ चल रहा है भाई! जी तो चाहता है, इसे पिंसिन दे दूँ, लेकिन किसान और किसान के बैल इनको जमराज ही पिंसिन दें, तो मिले। इसकी गर्दन पर जुआ रखते मेरा मन कचोटता है। बेचारा सोचता होगा, अब भी छुट्टी नहीं, अब क्या मेरा हाड़ जोतेगा? लेकिन अपना कोई काबू नहीं। तुम कैसे चले? अब तो जी अच्छा है?

मातादीन इधर एक महीने से मलेरिया ज्वर में पड़ा रहा था। एक दिन तो उसकी नाड़ी छूट गई थी। चारपाई से नीचे उतार दिया गया था। तब से उसके मन में यह प्रेरणा हुई थी कि सिलिया के साथ अत्याचार करने का उसे यह दंड मिला है। जब उसने सिलिया को घर से निकाला, तब वह गर्भवती थी। उसे तनिक भी दया न आई। पूरा गर्भ ले कर भी वह मजूरी करती रही। अगर धनिया ने उस पर दया न की होती तो मर गई होती। कैसी-कैसी मुसीबतें झेल कर जी रही है! मजूरी भी तो इस दशा में नहीं कर सकती। अब लज्जित और द्रवित हो कर वह सिलिया को होरी के हस्ते दो रुपए देने आया है, अगर होरी उसे वह रुपए दे दे, तो वह उसका बहुत उपकार मानेगा।

होरी ने कहा - तुम्हीं जा कर क्यों नहीं दे देते?
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Re: गोदान -प्रेमचंद

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मातादीन ने दीन भाव से कहा - मुझे उसके पास मत भेजो होरी महतो! कौन-सा मुँह ले कर जाऊँ? डर भी लग रहा है कि मुझे देख कर कहीं फटकार न सुनाने लगे। तुम मुझ पर इतनी दया करो। अभी मुझसे चला नहीं जाता, लेकिन इसी रुपए के लिए एक जजमान के पास कोस-भर दौड़ा गया था। अपनी करनी का फल बहुत भोग चुका। इस बम्हनई का बोझ अब नहीं उठाए उठता। लुक-छिप कर चाहे जितने कुकरम करो, कोई नहीं बोलता। परतच्छ कुछ नहीं कर सकते, नहीं कुल में कलंक लग जायगा। तुम उसे समझा देना दादा, कि मेरा अपराध क्षमा कर दे। यह धरम का बंधन बड़ा कड़ा होता है। जिस समाज में जनमे और पले, उसकी मरजादा का पालन तो करना ही पड़ता है। और किसी जाति का धरम बिगड़ जाय, उसे कोई विशेष हानि नहीं होती, ब्राह्मन का धरम बिगड़ जाय, तो वह कहीं का नहीं रहता। उसका धरम ही उसके पूरवजों की कमाई है। उसी की वह रोटी खाता है। इस परासचित के पीछे हमारे तीन सौ बिगड़ गए। तो जब बेधरम हो कर ही रहना है, तो फिर जो कुछ करना है, परतच्छ करूँगा। समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम है, तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है। समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है, मगर मनुष्य-धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है।

संध्या समय जब होरी ने सिलिया को डरते-डरते रुपए दिए, तो वह जैसे अपनी तपस्या का वरदान पा गई। दु:ख का भार तो वह अकेली उठा सकती थी। सुख का भार तो अकेले नहीं उठता। किसे यह खुशखबरी सुनाए? धनिया से वह अपने दिल की बातें नहीं कह सकती। गाँव में और कोई प्राणी नहीं, जिससे उसकी घनिष्ठता हो। उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। सोना ही उसकी सहेली थी। सिलिया उससे मिलने के लिए आतुर हो गई। रात-भर कैसे सब्र करे? मन में एक आँधी-सी उठ रही थी। अब वह अनाथ नहीं है। मातादीन ने उसकी बाँह फिर पकड़ ली। जीवन-पथ में उसके सामने अब अंधेरी, विकराल मुख वाली खाई नहीं है, लहलहाता हुआ हरा-भरा मैदान है, जिसमें झरने गा रहे हैं और हिरन कुलेलें कर रहे हैं। उसका रूठा हुआ स्नेह आज उन्मत्त हो गया है। मातादीन को उसने मन में कितना पानी पी-पी कर कोसा था। अब वह उनसे क्षमादान माँगेगी। उससे सचमुच बड़ी भूल हुई कि उसने उनको सारे गाँव के सामने अपमानित किया। वह तो चमारिन है जाति की हेठी, उसका क्या बिगड़ा। आज दस-बीस लगा कर बिरादरी को रोटी दे दे, फिर बिरादरी में ले ली जायगी। उस बेचारे का तो सदा के लिए धरम नास हो गया। वह मरजाद अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। वह क्रोध में कितनी अंधी हो गई थी कि सबसे उनके प्रेम का ढिंढोरा पीटती फिरी। उनका तो धरम भिरष्ट हो गया था, उन्हें तो क्रोध था ही, उसके सिर पर क्यों भूत सवार हो गया? वह अपने ही घर चली जाती, तो कौन बुराई हो जाती? घर में उसे कोई बाँध तो न लेता। देस मातादीन की पूजा इसीलिए तो करता है कि वह नेम-धरम से रहते हैं। वही धरम नष्ट हो गया, तो वह क्यों न उसके खून के प्यासे हो जाते?

जरा देर पहले तक उसकी नजर में सारा दोष मातादीन का था और अब सारा दोष अपना था। सहृदयता ने सहृदयता पैदा की। उसने बच्चे को छाती से लगा कर खूब प्यार किया। अब उसे देख कर लज्जा और ग्लानि नहीं होती। वह अब केवल उसकी दया का पात्र नहीं। वह अब उसके संपूर्ण मातृस्नेह और गर्व का अधिकारी है।

कातिक की रूपहली चाँदनी प्रकृति पर मधुर संगीत की भाँति छाई थी। सिलिया घर से निकली। वह सोना के पास जा कर यह सुख-संवाद सुनाएगी। अब उससे नहीं रहा जाता। अभी तो साँझ हुई है। डोंगी मिल जायगी। वह कदम बढ़ाती हुई चली। नदी पर आ कर देखा, तो डोंगी उस पार थी। और माँझी का कहीं पता नहीं। चाँद घुल कर जैसे नदी में बहा जा रहा था। वह एक क्षण खड़ी सोचती रही। फिर नदी में घुस पड़ी। नदी में कुछ ऐसा ज्यादा पानी तो क्या होगा! उस उल्लास के सागर के सामने वह नदी क्या चीज थी? पानी पहले तो घुटनों तक था, फिर कमर तक आया और फिर अंत में गर्दन तक पहुँच गया। सिलिया डरी, कहीं डूब न जाए। कहीं कोई गढ़ा न पड़ जाय, पर उसने जान पर खेल कर पाँव आगे बढ़ाया। अब वह मझधार में है। मौत उसके सामने नाच रही है, मगर वह घबड़ाई नहीं है। उसे तैरना आता है। लड़कपन में इसी नदी में वह कितनी बार तैर चुकी है। खड़े-खड़े नदी को पार भी कर चुकी है। फिर भी उसका कलेजा धक-धक कर रहा है, मगर पानी कम होने लगा। अब कोई भय नहीं। उसने जल्दी-जल्दी नदी पार की और किनारे पहुँच कर अपने कपड़े का पानी निचोड़ा और शीत से काँपती आगे बढ़ी। चारों तरफ सन्नाटा था। गीदड़ों की आवाज भी न सुनाई पड़ती थी, और सोना से मिलने की मधुर कल्पना उसे उड़ाए लिए जाती थी।

मगर उस गाँव में पहुँच कर उसे सोना के घर जाते संकोच होने लगा। मथुरा क्या कहेगा? उसके घरवाले क्या कहेंगे? सोना भी बिगड़ेगी कि इतनी रात गए तू क्यों आई। देहातों में दिन-भर के थके-माँदे किसान सरेशाम ही से सो जाते हैं। सारे गाँव में सोता पड़ गया था। मथुरा के घर के द्वार बंद थे। सिलिया किवाड़ न खुलवा सकी। लोग उसे इस भेष में देख कर क्या कहेंगे? वहीं द्वार पर अलाव में अभी आग चमक रही थी। सिलिया अपने कपड़े सेंकने लगी। सहसा किवाड़ खुला और मथुरा ने बाहर निकल कर पुकारा - अरे! कौन बैठा है अलाव के पास?

सिलिया ने जल्दी से अंचल सिर पर खींच लिया और समीप आ कर बोली - मैं हूँ, सिलिया।

सिलिया! इतनी रात गए कैसे आई? वहाँ तो सब कुसल है?'

'हाँ, सब कुसल है। जी घबड़ा रहा था। सोचा, चलूँ, सबसे भेंट करती आऊँ। दिन को तो छुट्टी ही नहीं मिलती।'

'तो क्या नदी थहा कर आई है?'

'और कैसे आती! पानी कम था।'

मथुरा उसे अंदर ले गया। बरोठे में अँधेरा था। उसने सिलिया का हाथ पकड़ कर अपने ओर खींचा। सिलिया ने झटके से हाथ छुड़ा लिया। और रोब से बोली - देखो मथुरा, छेड़ोगे तो मैं सोना से कह दूँगी। तुम मेरे छोटे बहनोई हो, यह समझ लो। मालूम होता है, सोना से मन नहीं पटता।

मथुरा ने उसकी कमर में हाथ डाल कर कहा - तुम बहुत निठुर हो सिल्लो? इस बखत कौन देखता है?

क्या मैं सोना से सुंदर हूँ? अपने भाग नहीं बखानते कि ऐसी इंदर की परी पा गए। अब भौंरा बनने का मन चला है। उससे कह दूँ तो तुम्हारा मुँह न देखे।'

मथुरा लंपट नहीं था, सोना से उसे प्रेम भी था। इस वक्त अँधेरा और एकांत और सिलिया का यौवन देख कर उसका मन चंचल हो उठा था। यह तंबीह पा कर होश में आ गया। सिलिया को छोड़ता हुए बोला - तुम्हारे पैरों में पड़ता हूँ सिल्लो, उससे न कहना। अभी जो सजा चाहो, दे लो।

सिल्लो को उस पर दया आ गई। धीरे से उसके मुँह पर चपत जमा कर बोली - इसकी सजा यही है कि फिर मुझसे ऐसी सरारत न करना, न और किसी से करना, नहीं सोना तुम्हारे हाथ से निकल जायगी।

'मैं कसम खाता हूँ सिल्लो, अब कभी ऐसा न होगा।'

उसकी आवाज में याचना थी। सिल्लो का मन आंदोलित होने लगा। उसकी दया सरस होने लगी।

'और जो करो?'

'तो तुम जो चाहना करना।'

सिल्लो का मुँह उसके मुँह के पास आ गया था, और दोनों की साँस और आवाज और देह में कंपन हो रहा था। सहसा सोना ने पुकारा - किससे बातें करते हो वहाँ?

सिल्लो पीछे हट गई। मथुरा आगे बढ़ कर आँगन में आ गया और बोला - सिल्लो तुम्हारे गाँव से आई है।

सिल्लो भी पीछे-पीछे आ कर आँगन में खड़ी हो गई। उसने देखा, सोना यहाँ कितने आराम से रहती है। ओसारी में खाट है। उस पर सुजनी का नर्म बिस्तर बिछा हुआ है, बिलकुल वैसा ही, जैसा मातादीन की चारपाई पर बिछा रहता था। तकिया भी है, लिहाफ भी है। खाट के नीचे लोटे में पानी रखा हुआ है। आँगन में ज्योत्स्ना ने आइना-सा बिछा रखा है। एक कोने में तुलसी का चबूतरा है, दूसरी ओर जुआर के ठेठों के कई बोझ दीवार से लगा कर रखे हैं। बीच में पुआलों के गट्ठे हैं। समीप ही ओखल है, जिसके पास कुटा हुआ धान पड़ा हुआ है। खपरैल पर लौकी की बेल चढ़ी हुई है और कई लौकियाँ ऊपर चमक रही हैं। दूसरी ओर की ओसारी में एक गाय बँधी हुई है। इस खंड में मथुरा और सोना सोते हैं। और लोग दूसरे खंड में होंगे। सिलिया ने सोचा, सोना का जीवन कितना सुखी है।

सोना उठ कर आँगन में आ गई थी, मगर सिल्लो से टूट कर गले नहीं मिली। सिल्लो ने समझा, शायद मथुरा के खड़े रहने के कारण सोना संकोच कर रही है। या कौन जाने, उसे अब अभिमान हो गया हो? सिल्लो चमारिन से गले मिलने में अपना अपमान समझती हो। उसका सारा उत्साह ठंडा हो गया। इस मिलन से हर्ष के बदले उसे ईष्या हुई। सोना का रंग कितना खुल गया है, और देह कैसी कंचन की तरह निखर आई है। गठन भी सुडौल हो गया है। मुख पर गृहिणीत्व की गरिमा के साथ युवती की सहास छवि भी है। सिल्लो एक क्षण के लिए जैसे मंत्र-मुग्ध-सी खड़ी ताकती रह गई। यह वही सोना है, जो सूखी-सी देह लिए, झोंटे खोले इधर-उधर दौड़ा करती थी। महीनों सिर में तेल न पड़ता था। फटे चिथड़े लपेटे फिरती थी। आज अपने घर की रानी है। गले में हँसुली और हुमेल है, कानों में करनफूल और सोने की बालियाँ, हाथों में चाँदी के चूड़े और कंगन। आँखों में काजल है, माँग में सेंदुर। सिलिया के जीवन का स्वर्ग यहीं था, और सोना को वहाँ देख कर वह प्रसन्न न हुई। इसे कितना घमंड हो गया है! कहाँ सिलिया के गले में बाँहे डाल घास छीलने जाती थी, और आज सीधे ताकती भी नहीं। उसने सोचा था, सोना उसके गले लिपट कर जरा-सा रोएगी, उसे आदर से बैठाएगी, उसे खाना खिलाएगी, और गाँव और घर की सैकड़ों बातें पूछेगी और अपने नए जीवन के अनुभव बयान करेगी - सोहागरात और मधुर मिलन की बातें होंगी। और सोना के मुँह में दही जमा हुआ है। वह यहाँ आ कर पछताई।

आखिर सोना ने रूखे स्वर में पूछा - इतनी रात को कैसे चलीं, सिल्लो?

सिल्लो ने आँसुओं को रोकने की चेष्टा करके कहा - तुमसे मिलने को बहुत जी चाहता था। इतने दिन हो गए, भेंट करने चली आई।

सोना का स्वर और कठोर हुआ - लेकिन आदमी किसी के घर जाता है, तो दिन को कि इतनी रात गए?

वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग रहा था। वह समय उसकी प्रेम-क्रीड़ा और हास-विलास का था, सिल्लो ने उसमें बाधक हो कर जैसे उसके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली थी।

सिल्लो नि:संज्ञ-सी भूमि की ओर ताक रही थी। धरती क्यों नहीं फट जाती कि वह उसमें समा जाए। इतना अपमान! उसने अपने इतने ही जीवन में बहुत अपमान सहा था, बहुत दुर्दशा देखी थी, लेकिन आज यह फांस जिस तरह उसके अंत:करण में चुभ गई, वैसी कभी कोई बात न चुभी थी। गुड़ घर के अंदर मटकों में बंद रखा हो, तो कितना ही मूसलाधार पानी बरसे, कोई हानि नहीं होती, पर जिस वक्त वह धूप में सूखने के लिए बाहर फैलाया गया हो, उस वक्त तो पानी का एक छींटा भी उसका सर्वनाश कर देगा। सिलिया के अंत:करण की सारी कोमल भावनाएँ इस वक्त मुँह खोले बैठी थीं कि आकाश से अमृत-वर्षा होगी। बरसा क्या, अमृत के बदले विष, और सिलिया के रोम-रोम में दौड़ गया। सर्प-दंश के समान लहरें आईं। घर में उपवास करे सो रहना और बात है, लेकिन पंगत से उठा दिया जाना तो डूब मरने की बात है। सिलिया को यहाँ एक क्षण ठहरना भी असहाय हो गया, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो। वह कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या है, यह वह भाँप रही थी। वह बांबी में बैठा हुआ साँप कहीं बाहर न निकल आए, इसके पहले ही वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी। कैसे भागे, क्या बहाना करे? उसके प्राण क्यों नहीं निकल जाते!

मथुरा ने भंडारे की कुंजी उठा ली थी कि सिलिया के जलपान के लिए कुछ निकाल लाए, कर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा था। इधर सिल्लो की साँस टँगी हुई थी, मानो सिर पर तलवार लटक रही हो।

सोना की दृष्टि में सबसे बड़ा पाप किसी पुरुष का पर-स्त्री और स्त्री का पर-पुरुष की ओर ताकना था। इस अपराध के लिए उसके यहाँ कोई क्षमा न थी। चोरी, हत्या, जाल, कोई अपराध इतना भीषण न था। हँसी-दिल्लगी को वह बुरा न समझती थी, अगर खुले हुए रूप में हो, लुके-छिपे की हँसी-दिल्लगी को भी वह हेय समझती थी, छुटपन से ही वह बहुत-सी रीति की बातें जानने और समझने लगी थी। होरी को जब कभी हाट से घर आने में देर हो जाती थी और धनिया को पता लग जाता था कि वह दुलारी सहुआइन की दुकान पर गया था, चाहे तंबाखू लेने ही क्यों न गया हो, तो वह कई-कई दिन तक होरी से बोलती न थी और न घर का काम करती थी। एक बार इसी बात पर वह अपने नैहर भाग गई थी। यह भावना सोना में और तीव्र हो गई थी। जब तक उसका विवाह न हुआ था, यह भावना उतनी बलवान न थी, पर विवाह हो जाने के बाद तो उसने व्रत का रूप धारण कर लिया था। ऐसे स्त्री-पुरुषों की अगर खाल भी खींच ली जाती, तो उसे दया न आती। प्रेम के लिए दांपत्य के बाहर उसकी दृष्टि में कोई स्थान न था। स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के साथ जो कर्तव्य है, इसी को वह प्रेम समझती थी। फिर सिल्लो से उसका बहन का नाता था। सिल्लो को वह प्यार करती थी, उस पर विश्वास करती थी। वही सिल्लो आज उससे विश्वासघात कर रही है। मथुरा और सिल्लो में अवश्य ही पहले से साँठ-गाँठ होगी। मथुरा उससे नदी के किनारे खेतों में मिलता होगा। और आज वह इतनी रात गए नदी पार करके इसीलिए आई है। अगर उसने इन दोनों की बातें न सुन ली होतीं, तो उसे खबर तक न होती। मथुरा ने प्रेम-मिलन के लिए यही अवसर सबसे अच्छा समझा होगा। घर में सन्नाटा जो है। उसका हृदय सब कुछ जानने के लिए विकल हो रहा था। वह सारा रहस्य जान लेना चाहती थी, जिससे अपनी रक्षा के लिए कोई विधान सोच सके। और यह मथुरा यहाँ क्यों खड़ा है? क्या वह उसे कुछ बोलने भी न देगा?

उसने रोष से कहा - तुम बाहर क्यों नहीं जाते, या यहीं पहरा देते रहोगे?

मथुरा बिना कुछ कहे बाहर चला गया। उसके प्राण सूखे जाते थे कि कहीं सिल्लो सब कुछ न कह डाले।

और सिल्लो के प्राण सूखे जाते थे कि अब वह लटकती हुई तलवार सिर पर गिरा चाहती है।

तब सोना ने बड़े गंभीर स्वर में सिल्लो से पूछा - देखो सिल्लो, मुझसे साफ-साफ बता दो, नहीं मैं तुम्हारे सामने, यहीं अपने गर्दन पर गँड़ासा मार लूँगी। फिर तुम मेरी सौत बन कर राज करना। देखो, गँड़ासा वह सामने पड़ा है। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती।

उसने लपक कर सामने आँगन में से गँड़ासा उठा लिया और उसे हाथ में लिए, फिर बोली - यह मत समझना कि मैं खाली धमकी दे रही हूँ। क्रोध में मैं क्या कर बैठूँ, नहीं कह सकती। साफ-साफ बता दो।

सिलिया काँप उठी। एक-एक शब्द उसके मुँह से निकल पड़ा, मानो ग्रामोगोन में भरी हुई आवाज हो। वह एक शब्द भी न छिपा सकी, सोना के चेहरे पर भीषण संकल्प खेल रहा था, मानो खून सवार हो।

सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभने वाली आँखों से देखा और मानो कटार का आघात करती हुई बोली - ठीक-ठीक कहती हो?

'बिलकुल ठीक। अपने बच्चे की कसम।'

'कुछ छिपाया तो नहीं?'

'अगर मैंने रत्ती-भर छिपाया हो तो आँखें फूट जाएँ।'

'तुमने उस पापी को लात क्यों नहीं मारी? उसे दाँत क्यों नहीं काट लिया? उसका खून क्यों नहीं पी लिया, चिल्लाई क्यों नहीं?'

सिल्लो क्या जवाब दे।

सोना ने उन्मादिनी की भाँति अंगारे की-सी आँखें निकाल कर कहा - बोलती क्यों नहीं? क्यों तूने उसकी नाक दाँतों से नहीं काट ली? क्यों नहीं दोनों हाथों से उसका गला दबा दिया? तब मैं तेरे चरणों पर सिर झुकाती। अब तो तुम मेरी आँखों में हरजाई हो, निरी बेसवा! अगर यही करना था, तो मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही है, क्यों किसी को ले कर बैठ नहीं जाती, क्यों अपने घर नहीं चली गई? यही तो तेरे घर वाले चाहते थे। तू उपले और घास ले कर बाजार जाती, वहाँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपए की ताड़ी पीता। फिर क्यों उस ब्राह्मन का अपमान कराया? क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगाया? क्यों सतवंती बनी बैठो हो? जब अकेले नहीं रहा जाता, तो किसी से सगाई क्यों नहीं कर लेती! क्यों नदी-तालाब में डूब नहीं मरती? क्यों दूसरों के जीवन में बिस घोलती है? आज मैं तुझसे कह देती हूँ कि अगर इस तरह की बात फिर हुई और मुझे पता लगा, तो तीनों में से एक भी जीते न रहेंगे। बस, अब मुँह में कालिख लगा कर जाओ। आज से मेरे और तुम्हारे बीच में कोई नाता नहीं रहा।

सिल्लो धीरे से उठी और सँभल कर खड़ी हुई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गई है। एक क्षण साहस बटोरती रही, किंतु अपने सफाई में कुछ सूझ न पड़ा। आँखों के सामने अँधेरा था, सिर में चक्कर, कंठ सूख रहा था, और सारी देह सुन्न हो गई थी, मानो रोम-छिद्रों से प्राण उड़े जा रहे हों। एक-एक पग इस तरह रखती हुई, मानो सामने गड्ढा है, तब बाहर आई और नदी की ओर चली।

द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला - इस वक्त कहाँ जाती हो सिल्लो?

सिल्लो ने कोई जवाब न दिया। मथुरा ने भी फिर कुछ न पूछा।

वही रुपहली चाँदनी अब भी छाई हुई थी। नदी की लहरें अब भी चाँद की किरणों में नहा रही थीं। और सिल्लो विक्षिप्त-सी स्वप्न-छाया की भाँति नदी में चली जा रही थी।
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Re: गोदान -प्रेमचंद

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मिल करीब-करीब पूरी जल चुकी है, लेकिन उसी मिल को फिर से खड़ा करना होगा। मिस्टर खन्ना ने अपनी सारी कोशिशें इसके लिए लगा दी हैं। मजदूरों की हड़ताल जारी है, मगर अब उससे मिल-मालिकों को कोई विशेष हानि नहीं है। नए आदमी कम वेतन पर मिल गए हैं और जी तोड़ कर काम करते हैं, क्योंकि उनमें सभी ऐसे हैं, जिन्होंने बेकारी के कष्ट भोग लिए हैं और अब अपना बस चलते ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते जिससे उनकी जीविका में बाधा पड़े। चाहे जितना काम लो, चाहे जितनी कम छुट्टियाँ दो, उन्हें कोई शिकायत नहीं। सिर झुकाए बैलों की तरह काम में लगे रहते हैं। घुड़कियाँ, गालियाँ, यहाँ तक कि डंडों की मार भी उनमें ग्लानि नहीं पैदा करती, और अब पुराने मजदूरों के लिए इसके सिवा कोई मार्ग नहीं रह गया है कि वह इसी घटी हुई मजूरी पर काम करने आएँ और खन्ना साहब की खुशामद करें। पंडित ओंकारनाथ पर तो उन्हें अब रत्ती-भर भी विश्वास नहीं है। उन्हें वे अकेले-दुकेले पाएँ तो शायद उनकी बुरी गत बनाएँ, पर पंडितजी बहुत बचे हुए रहते हैं। चिराग जलने के बाद अपने कार्यालय से बाहर नहीं निकलते और अफसरों की खुशामद करने लगे हैं। मिर्जा खुर्शेद की धाक अब भी ज्यों-की-त्यों हैं, लेकिन मिर्जा जी इन बेचारों का कष्ट और उसके निवारण का अपने पास कोई उपाय न देख कर दिल से चाहते हैं कि सब-के-सब बहाल हो जायँ, मगर इसके साथ ही नए आदमियों के कष्ट का खयाल करके जिज्ञासुओं से यही कह दिया करते हैं कि जैसी इच्छा हो, वैसा करो।

मिस्टर खन्ना ने पुराने आदमियों को फिर नौकरी के लिए इच्छुक देखा, तो और भी अकड़ गए, हालाँकि वह मन से चाहते थे कि इस वेतन पर पुराने आदमी नयों से कहीं अच्छे हैं। नए आदमी अपना सारा जोर लगा कर भी पुराने आदमियों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदमियों में अधिकांश तो बचपन से ही मिल में काम करने के अभ्यस्त थे और खूब मँजे हुए। नए आदमियों में अधिकतर देहातों के दु:खी किसान थे, जिन्हें खुली हवा और मैदान में पुराने जमाने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। मिल के अंदर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज चलने वाले पुर्जों से उन्हें भय लगता था।

आखिर जब पुराने आदमी खूब परास्त हो गए, तब खन्ना उन्हें बहाल करने पर राजी हुए, मगर नए आदमी इससे भी कम वेतन पर भी काम करने के लिए तैयार थे और अब डायरेक्टरों के सामने यह सवाल आया कि वह पुरानों को बहाल करें या नयों को रहने दें। डायरेक्टरों में आधे तो नए आदमियों का वेतन घटा कर रखने के पक्ष में थे, आधों की यह धारणा थी कि पुराने आदमियों को हाल के वेतन पर रख लिया जाए। थोड़े-से रुपए ज्यादा खर्च होंगे जरूर, मगर काम उससे कहीं ज्यादा होगा। खन्ना मिल के प्राण थे, एक तरह से सर्वेसर्वा। डायरेक्टर तो उनके हाथ की कठपुतलियाँ थे। निश्चय खन्ना ही के हाथों में था और वह अपने मित्रों से नहीं, शत्रुओं से भी इस विषय में सलाह ले रहे थे। सबसे पहले तो उन्होने गोविंदी की सलाह ली। जब से मालती की ओर से उन्हें निराशा हो गई थी और गोविंदी को मालूम हो गया था कि मेहता जैसा विद्वान और अनुभवी और ज्ञानी आदमी मेरा कितना सम्मान करता है और मुझसे किस प्रकार की साधना की आशा रखता है, तब से दंपति में स्नेह फिर जाग उठा था। स्नेह न कहो, मगर साहचर्य तो था ही। आपस में वह जलन और अशांति न थी। बीच की दीवार टूट गई थी।

मालती के रंग-ढंग की भी कायापलट होती जाती थी। मेहता का जीवन अब तक स्वाध्याय और चिंतन में गुजरा था, और सब कुछ पढ़ चुकने के बाद और आत्मवाद और अनात्मवाद की खूब छान-बीन कर लेने पर वह इसी तत्व पर पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा-मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोग ही कहो, वही जीवन को सार्थक कर सकता है, वही जीवन को ऊँचा और पवित्र बना सकता है। किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका विश्वास न था। यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न करते थे, इसलिए कि इस विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर करना वह अपने लिए असंभव समझते थे, पर यह धारणा उनके मन में दृढ़ हो गई थी कि प्राणियों के जन्म-मरण, सुख-दु:ख, पाप-पुण्य में कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। उनका खयाल था कि मनुष्य ने अपने अहंकार में अपने को इतना महान बना लिया है कि उसके हर एक काम की प्रेरणा ईश्वर की ओर से होती है। इसी तरह वह टिड्डियाँ भी ईश्वर को उत्तरदायी ठहराती होंगी, जो अपने मार्ग में समुद्र आ जाने पर अरबों की संख्या में नष्ट हो जाती हैं। मगर ईश्वर के यह विधान इतने अज्ञेय हैं कि मनुष्य की समझ में नहीं आते, तो उन्हें मानने से ही मनुष्य को क्या संतोष मिल सकता है। ईश्वर की कल्पना का एक ही उद्देश्य उनकी समझ में आता था और वह था मानव-जीवन की एकता। एकात्मवाद या सर्वात्मवाद या अहिंसा-तत्व को वह आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, भौतिक दृष्टि से ही देखते थे, यद्यपि इन तत्वों का इतिहास के किसी काल में भी आधिपत्य नहीं रहा, फिर भी मनुष्य-जाति के सांस्कृतिक विकास में उनका स्थान बड़े महत्व का है। मानव-समाज की एकता में मेहता का दृढ़ विश्वास था, मगर इस विश्वास के लिए उन्हें ईश्वर-तत्व के मानने की जरूरत न मालूम होती थी। उनका मानव-प्रेम इस आधार पर अवलंबित न था कि प्राणि-मात्र में एक आत्मा का निवास है। द्वैत और अद्वैत व्यावहारिक महत्व के सिवा वह और कोई उपयोग न समझते थे, और वह व्यावहारिक महत्व उनके लिए मानव-जाति को एक दूसरे के समीप लाना, आपस के भेद-भाव को मिटाना और भ्रातृ-भाव को दृढ़ करना ही था। यह एकता, यह अभिन्नता उनकी आत्मा में इस तरह जम गई थी कि उनके लिए किसी आध्यात्मिक आधार की स्रृष्टि उनकी दृष्टि में व्यर्थ थी और एक बार इस तत्व को पा कर वह शांत न बैठ सकते थे। स्वार्थ से अलग अधिक-से-अधिक काम करना उनके लिए आवश्यक हो गया था। इसके बगैर उनका चित्त शांत न हो सकता था। यश, लाभ या कर्तव्य पालन के भाव उनके मन में आते ही न थे। इनकी तुच्छता ही उन्हें इनसे बचाने के लिए काफी थी। सेवा ही अब उनका स्वार्थ होती जाती थी। और उनकी इस उदार वृत्ति का असर अज्ञात रूप से मालती पर भी पड़ता जाता था। अब तक जितने मर्द उसे मिले, सभी ने उसकी विलास वृत्ति को ही उकसाया। उसकी त्याग वृत्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, पर मेहता के संसर्ग में आ कर उसकी त्याग-भावना सजग हो उठी थी। सभी मनस्वी प्राणियों में यह भावना छिपी रहती है और प्रकाश पा कर चमक उठती है। आदमी अगर धन या नाम के पीछे पड़ा है, तो समझ लो कि अभी तक वह किसी परिष्कृत आत्मा के संपर्क में नहीं आया। मालती अब अक्सर गरीबों के घर बिना फीस लिए ही मरीजों को देखने चली जाती थी। मरीजों के साथ उसके व्यवहार में मृदुता आ गई थी। हाँ, अभी तक वह शौक-सिंगार से अपना मन न हटा सकती थी। रंग और पाउडर का त्याग उसे अपने आंतरिक परिवर्तनों से भी कहीं ज्यादा कठिन जान पड़ता था।

इधर कभी-कभी दोनों देहातों की ओर चले जाते थे और किसानों के साथ दो-चार घंटे रह कर, कभी-कभी उनके झोंपड़ों में रात काटकर, और उन्हीं का-सा भोजन करके, अपने को धन्य समझते थे। एक दिन वह सेमरी तक पहुँच गए और घूमते-घामते बेलारी जा निकले। होरी द्वार पर बैठा चिलम पी रहा था कि मालती और मेहता आ कर खड़े हो गए। मेहता ने होरी को देखते ही पहचान लिया और बोला - यही तुम्हारा गाँव है? याद है, हम लोग रायसाहब के यहाँ आए थे और तुम धनुषयज्ञ की लीला में माली बने थे।

होरी की स्मृति जाग उठी। पहचाना और पटेश्वरी के घर की ओर कुरसियाँ लाने चला।

मेहता ने कहा - कुरसियों का कोई काम नहीं। हम लोग इसी खाट पर बैठे जाते हैं। यहाँ कुरसी पर बैठने नहीं, तुमसे कुछ सीखने आए हैं।

दोनों खाट पर बैठे। होरी हतबुद्धि-सा खड़ा था। इन लोगों की क्या खातिर करे! बड़े-बड़े आदमी हैं। उनकी खातिर करने लायक उसके पास है ही क्या?

आखिर उसने पूछा - पानी लाऊँ?

मेहता ने कहा - हाँ, प्यास तो लगी है।

'कुछ मीठा भी लेता आऊँ?'

'लाओ, अगर घर में हो।'

होरी घर में मीठा और पानी लेने गया। तब तक गाँव के बालकों ने आ कर इन दोनों आदमियों को घेर लिया और लगे निरखने, मानो चिड़ियाघर के अनोखे जंतु आ गए हों।

सिल्लो बच्चे को लिए किसी काम से चली जा रही थी। इन दोनों आदमियों को देख कर कौतूहलवश ठिठक गई।

मालती ने आ कर उसके बच्चे को गोद में ले लिया और प्यार करती हुई बोली - कितने दिनों का है?

सिल्लो को ठीक न मालूम था। एक दूसरी औरत ने बताया - कोई साल-भर का होगा, क्यों री?

सिल्लो ने समर्थन किया।

मालती ने विनोद किया, प्यारा बच्चा है। इसे हमें दे दो।

सिल्लो ने गर्व से फूल कर कहा - आप ही का तो है।

'लो मैं इसे ले जाऊँ?'

'ले जाइए। आपके साथ रह कर आदमी हो जायगा।'

गाँव की और महिलाएँ आ गईं और मालती को होरी के घर में ले गईं। यहाँ मरदों के सामने मालती से वार्तालाप करने का अवसर उन्हें न मिलता। मालती ने देखा, खाट बिछी है, और उस पर एक दरी पड़ी हुई है, जो पटेश्वरी के घर से माँग कर आई थी, मालती जा कर बैठी। संतान-रक्षा और शिशु-पालन की बातें होने लगीं। औरतें मन लगा कर सुनती रहीं।

धनिया ने कहा - यहाँ यह सब सफाई और संजम कैसे होगा सरकार! भोजन तक का ठिकाना तो है नहीं।

मालती ने समझाया - सफाई में कुछ खर्च नहीं। केवल थोड़ी-सी मेहनत और होशियारी से काम चल सकता है।

दुलारी सहुआइन ने पूछा - यह सारी बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं सरकार, आपका तो अभी ब्याह ही नहीं हुआ?

मालती ने मुस्करा कर पूछा - तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरा ब्याह नहीं हुआ है।'

सभी स्त्रियाँ मुँह फेर कर मुस्कराईं। पुनिया बोली-भला, यह भी छिपा रहता है, मिस साहब, मुँह देखते ही पता चल जाता है।

मालती ने झेंपते हुए कहा - इसलिए ब्याह नहीं किया कि आप लोगों की सेवा कैसे करती!

सबने एक स्वर में कहा - धन्य हो सरकार, धन्य हो।

सिलिया मालती के पाँव दबाने लगी - सरकार कितनी दूर से आई हैं, थक गई होंगी।

मालती ने पाँव खींच कर कहा - नहीं-नहीं, मैं थकी नहीं हूँ। मैं तो हवागाड़ी पर आई हूँ। मैं चाहती हूँ, आप लोग अपने बच्चे लाएँ, तो मैं उन्हें देख कर आप लोगों को बताऊँ कि आप इन्हें कैसे तंदुरुस्त और नीरोग रख सकती हैं।

जरा देर में बीस-पच्चीस बच्चे आ गए। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आँखें उठी थीं, उनकी आँखों में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दुर्बल थे, जिसका कारण था, माता-पिता को भोजन अच्छा न मिलना। मालती को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि बहुत कम घरों में दूध होता था। घी के तो सालों दर्शन नहीं होते।

मालती ने यहाँ भी उन्हें भोजन करने का महत्व समझाया, जैसा वह सभी गाँवों में किया करती थी। उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा भोजन क्यों नहीं करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ जाता था। क्या तुम्हारा जन्म इसलिए हुआ है कि तुम मर-मर कर कमाओ और जो कुछ पैदा हो, उसे खा न सको? जहाँ दो-चार बैलों के लिए भोजन है, एक-दो गाय-भैसों के लिए चारा नहीं है? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझ कर उसे केवल प्राण-रक्षा की वस्तु समझते हैं? क्यों सरकार से नहीं कहते कि नाम-मात्र के ब्याज पर रुपए दे कर उन्हें सूदखोर महाजनों के पंजे से बचाए? उसने जिस किसी से पूछा, यही मालूम हुआ कि उनकी कमाई का बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। बँटवारे का मरज भी बढ़ता जाता था। आपस में इतना वैमनस्य था कि शायद ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों। उनकी इस दुर्दशा का कारण बहुत कुछ उनकी संकीर्णता और स्वार्थपरता थी। मालती इन्हीं विषयों पर महिलाओं से बातें करती रही। उनकी श्रद्धा देख-देख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल हो रही थी। इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था! आज उसके वह रेशमी कपड़े, जिन पर जरी का काम था, और वह गंध से महकता हुआ शरीर, और वह पाउडर से अलंकृत मुख-मंडल, उसे लज्जित करने लगा। उसकी कलाई पर बँधी सोने की घड़ी जैसे अपने अपलक नेत्रों से उसे घूर रही थी। उसके गले में चमकता हुआ जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट रहा था। इन त्याग और श्रद्धा की देवियों के सामने वह अपनी दृष्टि में नीची लग रही थी। वह इन ग्रामीणों से बहुत-सी बातें ज्यादा जानती थी, समय की गति ज्यादा पहचानती थी, लेकिन जिन परिस्थितियों में ये गरीबिनें जीवन को सार्थक कर रही हैं, उनमें क्या वह एक दिन भी रह सकती है? जिनमें अहंकार का नाम नहीं, दिन-भर काम करती हैं, उपवास करती हैं, रोती हैं, फिर भी इतनी प्रसन्न-मुख! दूसरे उनके लिए इतने अपने हो गए हैं कि अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। उनका अपनापन अपने लड़कों में, अपने पति में, अपने संबंधियों में है। इस भावना की रक्षा करते हुए इसी भावना का क्षेत्र और बढ़ा कर भावी नारीत्व का आदर्श निर्माण होगा। जागृत देवियों में इसकी जगह आत्म-सेवन का जो भाव आ बैठा है सब कुछ अपने लिए, अपने भोग-विलास के लिए उससे तो यह सुषुप्तावस्था ही अच्छी। पुरुष निर्दयी है, माना, लेकिन है तो इन्हीं माताओं का बेटा। क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता की, स्त्री-जाति की पूजा करता? इसीलिए कि माता को यह शिक्षा देनी नहीं आती, इसीलिए कि उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़ गया, उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो गया।

नहीं, अपने को मिटाने से काम न चलेगा। नारी को समाज-कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी, उसी तरह जैसे इन किसानों को अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ त्याग करना पड़ेगा।

संध्या हो गई थी। मालती को औरतें अब तक घेरे हुए थीं। उसकी बातों से जैसे उन्हें तृप्ति ही न होती थी। कई औरतों ने उससे रात को यहीं रहने का आग्रह किया। मालती को भी उसका सरल स्नेह ऐसा प्यारा लगा कि उसने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। रात को औरतें उसे अपना गाना सुनाएँगी। मालती ने भी प्रत्येक घर में जा-जा कर उनकी दशा से परिचय प्राप्त करने में अपने समय का सदुपयोग किया। उसकी निष्कपट सद्भावना और सहानुभूति उन गंवारिनों के लिए देवी के वरदान से कम न थी।

उधर मेहता साहब खाट पर आसन जमाए किसानों की कुश्ती देख रहे थे। पछता रहे थे, मिर्जा जी को क्यों न साथ ले लिया, नहीं उनका भी एक जोड़ हो जाता। उन्हें आश्चर्य हो रहा था, ऐसे प्रौढ़ और निरीह बालकों के साथ शिक्षित कहलाने वाले लोग कैसे निर्दयी हो जाते हैं। अज्ञान की भाँति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है। मानवता में उसका विश्वास इतना दृढ़, इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषिक समझने लगता है। वह यह भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों की निरीहता का जवाब सदैव पंजे और दाँतों से दिया है। वह अपना एक आदर्श-संसार बना कर उसको आदर्श मानवता से आबाद करता है और उसी में मग्न रहता है। यथार्थता कितनी अगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है, उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। मेहता जी इस समय इन गँवारों के बीच में बैठे हुए इसी प्रश्न को हल कर रहे थे कि इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों है? वह इस सत्य से आँखें मिलाने का साहस न कर सकते थे कि इनका देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है। काश, ये आदमी ज्यादा और देवता कम होते, तो यों न ठुकराए जाते। देश में कुछ भी हो, क्रांति ही क्यों न आ जाय, इनसे कोई मतलब नहीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आए उसके सामने सिर झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुँच गई है, जिसे कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश हो कर अब अपने अंदर ही टाँगे तोड़ कर बैठ गई है। उनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गई है।
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Jemsbond
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Re: गोदान -प्रेमचंद

Post by Jemsbond »

संध्या हो गई थी। जो लोग अब तक खेतों में काम कर रहे थे, वे दौड़े चले आ रहे थे। उसी समय मेहता ने मालती को गाँव की कई औरतों के साथ इस तरह तल्लीन हो कर एक बच्चे को गोद में लिए देखा, मानो वह भी उन्हीं में से एक है। मेहता का हृदय आनंद से गदगद हो उठा। मालती ने एक प्रकार से अपने को मेहता पर अर्पण कर दिया था। इस विषय में मेहता को अब कोई संदेह न था, मगर अभी तक उनके हृदय में मालती के प्रति वह उत्कट भावना जागृत न हुई थी, जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव करना उनके लिए हास्यजनक था। मालती बिना बुलाए मेहमान की भाँति उनके द्वार पर आ कर खड़ी हो गई थी, और मेहता ने उसका स्वागत किया था। इसमें प्रेम का भाव न था, केवल पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन्हें इस योग्य समझती है कि उन पर अपनी कृपा-दृष्टि फेरे, तो मेहता उसकी इस कृपा को अस्वीकार न कर सकते थे। इसके साथ ही वह मालती को गोविंदी के रास्ते से हटा देना चाहते थे और वह जानते थे, मालती जब तक आगे पाँव न जमा लेगी, वह पिछला पाँव न उठाएगी। वह जानते थे, मालती के साथ छल करके वह अपनी नीचता का परिचय दे रहे हैं। इसके लिए उनकी आत्मा उन्हें बराबर धिक्कारती रही थी, मगर ज्यों-ज्यों वह मालती को निकट से देखते थे, उनके मन में आकर्षण बढ़ता जाता था। रूप का आकर्षण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। यह गुण का आकर्षण था। वह यह जानते थे, जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बँध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति-मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं, मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के खराद पर चढ़ेगा, उसमें खरादे जाने की क्षमता है भी या नहीं। सभी पत्थर तो खराद पर चढ़ कर सुंदर मूर्तियाँ नहीं बन जाते। इतने दिनों में मालती ने उनके हृदय के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी रश्मियाँ डाली थीं, पर अभी तक वे केंद्रित हो कर उस ज्वाला के रूप में न फूट पड़ी थीं, जिससे उनका सारा अंतस्तल प्रज्ज्वलित हो जाता। आज मालती ने ग्रामीणों में मिल कर और सारे भेद-भाव मिटा कर इन रश्मियों को मानो केंद्रित कर दिया। और आज पहली बार मेहता को मालती से एकात्मता का अनुभव हुआ। ज्यों ही मालती गाँव का चक्कर लगा कर लौटी, उन्होंने उसे साथ ले कर नदी की ओर प्रस्थान किया। रात यहीं काटने का निश्चय हो गया। मालती का कलेजा आज न जाने क्यों धक-धक करने लगा। मेहता के मुख पर आज उसे एक विचित्र ज्योति और इच्छा झलकती हुई नजर आई।

नदी के किनारे चाँदी का फर्श बिछा हुआ था और नदी रत्न-जटित आभूषण पहने मीठे स्वरों में गाती, चाँद को और तारों को और सिर झुकाए नींद में माते वृक्षों को अपना नृत्य दिखा रही थी। मेहता प्रकृति की उस मादक शोभा से जैसे मस्त हो गए। जैसे उनका बालपन अपने सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया हो। बालू पर कई कुलाटें मारीं। फिर दौड़े हुए नदी में जा कर घुटनों तक पानी में खड़े हो गए।

मालती ने कहा - पानी में न खड़े हो। कहीं ठंड न लग जाए।

मेहता ने पानी उछाल कर कहा - मेरा तो जी चाहता है, नदी के उस पार तैर कर चला जाऊँ।

'नहीं-नहीं, पानी से निकल आओ। मैं न जाने दूँगी।'

'तुम मेरे साथ न चलोगी उस सूनी बस्ती में, जहाँ स्वप्नों का राज्य है?'

'मुझे तो तैरना नहीं आता।'

'अच्छा, आओ, एक नाव बनाएँ, और उस पर बैठ कर चलें।'

वह बाहर निकल आए। आस-पास बड़ी दूर तक झाऊ का जंगल खड़ा था। मेहता ने जेब से चाकू निकाला और बहुत-सी टहनियाँ काट कर जमा कीं। कगार पर सरपत के जूटे खड़े थे। ऊपर चढ़ कर सरपत का एक गट्ठा काट लाए और वहीं बालू के फर्श पर बैठ कर सरपत की रस्सी बटने लगे। ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वर्गारोहण की तैयारी कर रहे हैं। कई बार उँगलियाँ चिर गईं, खून निकला। मालती बिगड़ रही थी, बार-बार गाँव लौट चलने के लिए आग्रह कर रही थी, पर उन्हें कोई परवाह न थी। वही बालकों का-सा उल्लास था, वही अल्हड़पन, वही हठ। दर्शन और विज्ञान सभी इस प्रवाह में बह गए थे।

रस्सी तैयार हो गई। झाऊ का बड़ा-सा तख्ता बन गया, टहनियाँ दोनों सिरों पर रस्सी से जोड़ दी गई थीं। उसके छिद्रों में झाऊ की टहनियाँ भर दी गईं, जिससे पानी ऊपर न आए। नौका तैयार हो गई। रात और भी स्वप्निल हो गई थी।

मेहता ने नौका को पानी में डाल कर मालती का हाथ पकड़ कर कहा - आओ, बैठो।

मालती ने सशंक हो कर कहा - दो आदमियों का बोझ सँभाल लेगी?

मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के साथ कहा - जिस तरी पर बैठे हम लोग जीवन-यात्रा कर रहे हैं, वह तो इससे कहीं निस्सार है मालती? क्या डर रही हो?

'डर किस बात का, जब तुम साथ हो।'

'सच कहती हो?'

'अब तक मैंने बगैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूँ।'

दोनों उस झाऊ के तख्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख्ता डगमगाता हुआ पानी में चला।

मालती ने मन को इस तख्ते से हटाने के लिए पूछा - तुम हो हमेशा शहरों में रहे, गाँव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गया? मैं तो ऐसा तख्ता कभी न बना सकती।

मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देख कर कहा - शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है, नस-नस में स्फूर्ति दौड़ने लगती है। एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनंद का निमंत्रण देता हुआ जान पड़ता है, मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनंद मुझे और कहीं नहीं मिलता मालती, संगीत के रुलानेवाले स्वरों में भी नहीं, दर्शन की ऊँची उड़ानों में भी नहीं। जैसे ये सब मेरे अपने सगे हों। प्रकृति के बीच आ कर मैं जैसे अपने-आपको पा जाता हूँ, जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाए।

तख्ता डगमगाता, कभी तिरछा, कभी सीधा, कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था।

सहसा मालती ने कातर-कंठ से पूछा - और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आती?

मेहता ने उसका हाथ पकड़ कर कहा - आती हो, बार-बार आती हो, सुगंध के एक झोंके की तरह, कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अदृश्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बाँध लूँ, पर हाथ खुले रह जाते हैं। और तुम गायब हो जाती हो।

मालती ने उन्माद की दशा में कहा - लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचा? समझना चाहा?

'हाँ मालती, बहुत सोचा, बार-बार सोचा।'

'तो क्या मालूम हुआ?'

'यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूँ, वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं है, केवल एक छोटी-सी शांत कुटिया है, लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए।'

मालती ने अपना हाथ छुड़ा कर जैसे मान करते हुए कहा - यह झूठा आक्षेप है। तुमने सदैव मुझे परीक्षा की आँखों से देखा, कभी प्रेम की आँखों से नहीं। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है। परीक्षा गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीज है, प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुंदर को सुंदर! मैंने तुमसे प्रेम किया, मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि तुममें कोई बुराई भी है, मगर तुमने मेरी परीक्षा की और तुम मुझे अस्थिर, चंचल और जाने क्या-क्या समझ कर मुझसे हमेशा दूर भागते रहे। नहीं, मैं जो कुछ कहना चाहती हूँ, वह मुझे कह लेने दो। मैं क्यों अस्थिर और चंचल हूँ? इसलिए कि मुझे वह प्रेम नहीं मिला, जो मुझे स्थिर और अचंचल बनाता। अगर तुमने मेरे सामने उसी तरह आत्मसमर्पण किया होता, जैसे मैंने तुम्हारे सामने किया है, तो तुम आज मुझ पर यह आक्षेप न रखते।

मेहता ने मालती के मान का आनंद उठाते हुए कहा - तुमने मेरी परीक्षा कभी नहीं की? सच कहती हो?

'कभी नहीं।'

'तो तुमने गलती की।'

'मैं इसकी परवा नहीं करती।'

'भावुकता में न आओ मालती! प्रेम देने के पहले हम सब परीक्षा करते हैं और तुमने की, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से ही की हो। मैं आज तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि पहले मैंने तुम्हें उसी तरह देखा, जैसे रोज ही हजारों देवियों को देखा करता हूँ, केवल विनोद के भाव से। अगर मैं गलती नहीं करता, तो तुमने भी मुझे मनोरंजन के लिए एक नया खिलौना समझा।'

मालती ने टोका - गलत कहते हो। मैंने कभी तुम्हें इस नजर से नहीं देखा। मैंने पहले ही दिन तुम्हें अपना देव बना कर अपने हृदय.......

मेहता बात काट कर बोले - फिर वही भावुकता। मुझे ऐसे महत्व के विषय में भावुकता पसंद नहीं, अगर तुमने पहले ही दिन से मुझे इस कृपा के योग्य समझा तो इसका यही कारण हो सकता है, कि मैं रूप भरने में तुमसे ज्यादा कुशल हूँ, वरना जहाँ तक मैंने नारियों का स्वभाव देखा है, वह प्रेम के विषय में काफी छान-बीन करती हैं। पहले भी तो स्वयंवर से पुरुषों की परीक्षा होती थी? वह मनोवृत्ति अब भी मौजूद है, चाहे उसका रूप कुछ बदल गया हो। मैंने तब से बराबर यही कोशिश की है कि अपने को संपूर्ण रूप से तुम्हारे सामने रख दूँ और उसके साथ ही तुम्हारी आत्मा तक भी पहुँच जाऊँ। और मैं ज्यों-ज्यों तुम्हारे अंतस्तल की गहराई में उतरा हूँ, मुझे रत्न ही मिले हैं। मैं विनोद के लिए आया और आज उपासक बना हुआ हूँ। तुमने मेरे भीतर क्या पाया, यह मुझे मालूम नहीं।

नदी का दूसरा किनारा आ गया। दोनों उतर कर उसी बालू के फर्श पर जा बैठे और मेहता फिर उसी प्रवाह में बोले - और आज मैं यहाँ वही पूछने के लिए तुम्हें लाया हूँ?

मालती ने काँपते हुए स्वर में कहा - क्या अभी तुम्हें मुझसे यह पूछने की जरूरत बाकी है?

'हाँ, इसलिए कि मैं आज तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा, जो शायद अभी तक तुमने नहीं देखा और जिसे मैंने भी छिपाया है। अच्छा, मान लो, मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफाई करूँ तो तुम मुझे क्या सजा दोगी?'

मालती ने उनकी ओर चकित हो कर देखा। इसका आशय उसकी समझ में न आया।

'ऐसा प्रश्न क्यों करते हो?'

'मेरे लिए यह बड़े महत्व की बात है।'

'मैं इसकी संभावना नहीं समझती।'

'संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। बड़े-से-बड़ा महात्मा भी एक क्षण में पतित हो सकता है।'

'मैं उसका कारण खोजूँगी और उसे दूर करूँगी।

'मान लो, मेरी आदत न छूटे।'

'फिर मैं नहीं कह सकती, क्या करूँगी। शायद विष खा कर सो रहूँ।'

'लेकिन यदि तुम मुझसे ही प्रश्न करो, तो मैं उसका दूसरा जवाब दूँगा।'

मालती ने सशंक हो कर पूछा - बतलाओ!

मेहता ने दृढ़ता के साथ कहा - मैं पहले तुम्हारा प्राणांत कर दूँगा, फिर अपना।

मालती ने जोर से कहकहा मारा और सिर से पाँव तक सिहर उठी। उसकी हँसी केवल उसकी सिहरन को छिपाने का आवरण थी।

मेहता ने पूछा - तुम हँसी क्यों?

'इसीलिए कि तुम तो ऐेसे हिंसावादी नहीं जान पड़ते।'

'नहीं मालती, इस विषय में मैं पूरा पशु हूँ और उस पर लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता। आध्यात्मिक प्रेम और त्यागमय प्रेम और नि:स्वार्थ प्रेम, जिसमें आदमी अपने को मिटा कर केवल प्रेमिका के लिए जीता है, उसके आनंद से आनंदित होता है और उसके चरणों पर अपना आत्मसमर्पण कर देता है, ये मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएँ पढ़ी हैं, जहाँ प्रेमी ने प्रेमिका के नए प्रेमियों के लिए अपनी जान दे दी है, मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता हूँ, सेवा कह सकता हूँ, प्रेम कभी नहीं। प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूँख्वार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।'

मालती ने उनकी आँखों में आँखें डाल कर कहा - अगर प्रेम खूँख्वार शेर है तो मैं उससे दूर ही रहूँगी। मैंने तो उसे गाय ही समझ रखा था। मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूँ। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। संदेह का वहाँ जरा भी स्थान नहीं और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है। वह संपूर्ण आत्म-समर्पण है। उसके मंदिर में तुम परीक्षक बन कर नहीं, उपासक बन कर ही वरदान पा सकते हो।

वह उठ कर खड़ी हो गई और तेजी से नदी की तरफ चली, मानो उसने अपना खोया हुआ मार्ग पा लिया हो। ऐसी स्फूर्ति का उसे कभी अनुभव न हुआ। उसने स्वतंत्र जीवन में भी अपने में एक दुर्बलता पाई थी, जो उसे सदैव आंदोलित करती रहती थी, सदैव अस्थिर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा करता था, जिसके बल पर टिक सके, संसार का सामना कर सके। अपने में उसे यह शक्ति न मिलती थी। बुद्धि और चरित्र की शक्ति देख कर वह उसकी ओर लालायित हो कर जाती थी। पानी की भाँति हर एक पात्र का रूप धारण कर लेती थी। उसका अपना कोई रूप न था।

उसकी मनोवृत्ति अभी तक किसी परीक्षार्थी छात्रा की-सी थी। छात्रा को पुस्तकों से प्रेम हो सकता है और हो जाता है, लेकिन वह पुस्तक के उन्हीं भागों पर ज्यादा ध्यान देता है, जो परीक्षा में आ सकते हैं। उसकी पहली गरज परीक्षा में सफल होना है। ज्ञानार्जन इसके बाद है। अगर उसे मालूम हो जाय कि परीक्षक बड़ा दयालु है या अंधा है और छात्रों को यों ही पास कर दिया करता है, तो शायद वह पुस्तकों की ओर आँख उठा कर भी न देखे। मालती जो कुछ करती थी, मेहता को प्रसन्न करने के लिए। उसका मतलब था, मेहता का प्रेम और विश्वास प्राप्त करना, उसके मनोराज्य की रानी बन जाना, लेकिन उसी छात्रा की तरह अपनी योग्यता का विश्वास जमा कर। लियाकत आ जाने से परीक्षक आप-ही-आप उससे संतुष्ट हो जायगा, इतना धैर्य उसे न था।

मगर आज मेहता ने जैसे उसे ठुकरा कर उसकी आत्म-शक्ति को जगा दिया। मेहता को जब से उसने पहली बार देखा था, तभी से उसका मन उनकी ओर झुका था। उसे वह अपने परिचितों में सबसे समर्थ जान पड़े। उसके परिष्कृत जीवन में बुद्धि की प्रखरता और विचारों की दृढ़ता ही सबसे ऊँची वस्तु थी। धन और ऐश्वर्य को तो वह केवल खिलौना समझती थी, जिसे खेल कर लड़के तोड़-फोड़ डालते हैं। रूप में भी अब उसके लिए विशेष आकर्षण न था। यद्यपि कुरूपता के लिए घृणा थी। उसको तो अब बुद्धि-शक्ति ही अपने ओर झुका सकती थी, जिसके आश्रय में उसमें आत्म-विश्वास जगे, अपने विकास की प्रेरणा मिले, अपने में शक्ति का संचार हो, अपने जीवन की सार्थकता का ज्ञान हो। मेहता के बुद्धिबल और तेजस्विता ने उसके ऊपर अपने मुहर लगा दी और तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी। जिस प्रेरक-शक्ति की उसे जरूरत थी, वह मिल गई थी और अज्ञात रूप से उसे गति और शक्ति दे रही थी। जीवन का नया आदर्श जो उसके सामने आ गया था, वह अपने को उसके समीप पहुँचाने की चेष्टा करती हुई और सफलता का अनुभव करती हुई उस दिन की कल्पना कर रही थी, जब वह और मेहता एकात्म हो जाएँगे और यह कल्पना उसे और भी दृढ़ और निष्ठावान बना रही थी।

मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक ला कर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिरा कर भौतिक धरातल तक पहुँचा दिया गया था, जहाँ संदेह और ईर्ष्या और भोग का राज है, तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थी, उसे एक धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने गुरू को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेम-तत्व को पशुता की ओर खींचे लिए जाती है और उसके देवत्व की ओर से आँखें बंद किए लेती है, और यह देख कर उसका दिल बैठ गया।

मेहता ने कुछ लज्जित हो कर कहा - आओ, कुछ देर और बैठें।

मालती बोली - नहीं, अब लौटना चाहिए। देर हो रही है।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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