सिंहासन बत्तीसी

Jemsbond
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Re: सिंहासन बत्तीसी

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मलयवती

मलयवती नाम की सताइसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- विक्रमादित्य बड़े यशस्वी और प्रतापी राजा था और राज-काज चलाने में उनका कोई मानी था। वीरता और विद्वता का अद्भुत संगम थे। उनके शस्र ज्ञान और शास्र ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी। वे राज-काज से बचा समय अकसर शास्रों के अध्ययन में लगाते थे और इसी ध्येय से उन्होंने राजमहल के एक हिस्से में विशाल पुस्तकालय बनवा रखा था। वे एक दिन एक धार्मिक ग्रन्थ पढ़ रहे थे तो उन्हें एक जगह राजा बलि का प्रसंग मिला। उन्होंने राजा बलि वाला सारा प्रसंग पढ़ा तो पता चला कि राजा बलि बड़े दानवीर और वचन के पक्के थे। वे इतने पराक्रमी और महान राजा थे कि इन्द्र उनकी शक्ति से डर गए। देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे बलि का कुछ उपाय करें तो विष्णु ने वामन रुप धरा। वामन रुप धरकर उनसे सब कुछ दान में प्राप्त कर लिया और उन्हें पाताल लोक जाने को विवश कर दिया।

जब उनकी कथा विक्रम ने पढ़ी तो सोचा कि इतने बड़े दानवीर के दर्शन ज़रुर करने चाहिए। उन्होंने विचार किया कि भगवान विष्णु की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया जाए तथा उनसे दैत्यराज बलि से मिलने का मार्ग पूछा जाए। ऐसा विचार मन में आते ही उन्होंने राज-पाट और मोह-माया से अपने आपको अलग कर लिया तथा महामन्त्री को राजभार सौंपकर जंगल की ओर प्रस्थान कर गए। जंगल में उन्होंने घोर तपस्या शुरु की और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे। उनकी तपस्या बहुत लम्बी थी। शुरु में वे केवल एक समय का भोजन करते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने वह भी त्याग दिया तथा फल और कन्द-मूल आदि खाकर रहने लगे। कुछ दिनों बाद सब कुछ त्याग दिया और केवल पानी पीकर तपस्या करते रहे। इतनी कठोर तपस्या से वे बहुत कमज़ोर हो गए और साधारण रुप से उठने-बैठने में भी उन्हें काफी मुश्किल होने लगी। धीरे-धीरे उनके तपस्या स्थल के पास और भी बहुत सारे तपस्वी आ गए। कोई एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या करने लगा तो कोई एक हाथ उठाकर, कोई काँटों पर लेटकर तपस्या में लीन हो गया तो कोई गरदन तक बालू में धँसकर। चारों ओर सिर्फ ईश्वर के नाम की चर्चा होने लगी और पवित्र वातावरण तैयार हो गया।

विक्रम ने कुछ समय बाद जल भी लेना छोड़ दिया और बिलकुल निराहार तपस्या करने लगे। अब उनका शरीर और भी कमज़ोर हो गया और सिर्फ हड्डियों का ढाँचा न आने लगा। कोई देखता तो दया आ जाती, मगर राजा विक्रमादित्य को कोई चिन्ता नहीं थी। विष्णु की आराधना करते-करते यदि उनके प्राण निकल जाते तो सीधे स्वर्ग जाते और यदि विष्णु के दर्शन हो जाते तो दैत्यराज बलि से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता। वे पूरी लगन से अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए तपस्यारत रहे। जीवन और शरीर का उन्हें कोई मोह नहीं रहा। राजा विक्रमादित्य का हुलिया ऐसा हो गया था कि कोई भी देखकर नहीं कह सकता था कि वे महाप्रतापी और सर्वश्रेष्ठ हैं।

राजा के समीप ही तपस्या करने वाले एक योगी ने उनसे पूछा कि वे इतनी घोर तपस्या क्यों कर रहे हैं। विक्रम का जवाब था- “इहलोक से मुक्ति और परलोक सुधार के लिए।” तपस्वी ने उन्हें कहा कि तपस्या राजाओं का काम नहीं है।राजा को राजकाज के लिए ईश्वर द्वारा जन्म दिया जाता है और यही उसका कर्म है। अगर वह राज-काज से मुँह मोड़ता है तो अपने कर्म से मुँह मोड़ता है। शास्रों में कहा गया है कि मनुष्य को अपने कर्म से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। विक्रम ने बड़े ही गंभीर स्वर में उससे कहा कि कर्म करते हुए भी धर्म से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। उन्होंने जब उससे पूछा कि क्या शास्रों में किसी भी स्थिति में धर्म से विमुख होने को कहा गया है तो तपस्वी एकदम चुप हो गया। उनके तर्कपूर्ण उत्तर ने उसे आगे कुछ पूछने लायक नहीं छोड़ा। राजा ने अपनी तपस्या जारी रखी। अत्यधिक निर्बलता के कारण एक दिन राजा बेहोश हो गए और काफी देर के बाद होश में आए। वह तपस्वी एक बार फिर उनके पास आया और उनसे तपस्या छोड़ देने को बोला। उसने कहा कि चूँकि राजा गृहस्थ हैं, इसलिए तपस्वियों की भाँति उन्हें तप नहीं करना चाहिए। गृहस्थ को एक सीमा के भीतर ही रहकर तपस्या करनी चाहिए।

जब उसने राजा को बार-बार गृहस्थ धर्म की याद दिलाई और गृहस्थ कर्म के लिए प्रेरित किया तो राजा ने कहा कि वे मन की शान्ति के लिए तपस्या कर रहे हैं। तपस्वी कुछ नहीं बोला और वे फिर तपस्या करने लगे। कमज़ोरी तो थी ही- एक बार फिर वे अचेत हो गए। जब कई घण्टों बाद वे होश में आए तो उन्होंने पाया कि उनका सर भगवान विष्णु की गोद में है। उन्हें भगवान विष्णु को देखकर पता चल गया कि तपस्या से रोकने वाला तपस्वी और कोई नहीं स्वयं भगवान विष्णु थे। विक्रम ने उठकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया तो भगवान ने पूछा वे क्यों इतना कठोर तप कर रहे हैं। विक्रम ने कहा कि उन्हें राजा बलि से भेंट का रास्ता पता करना है। भगवान विष्णु ने उन्हें एक शंख देकर कहा कि समुद्र के बीचों-बीच पाताल लोक जाने का रास्ता है। इस शंख को समुद्र तट पर फूँकने के बाद उन्हें समुद्र देव के दर्शन होंगे और वही उन्हें राजा बलि तक पहुँचने का मार्ग बतलाएँगे। शंख देकर विष्णु अंतध्र्यान हो गए। विष्णु के दर्शन के बाद विक्रम ने फिर से तपस्या के पहले वाला स्वास्थ्य प्राप्त कर लिया और वैसी ही असीम शक्ति प्राप्त कर ली।

शंख लेकर वे समुद्र के पास आए और पूरी शक्ति से शंख फूँकने लगे। समुद्र देव उपस्थित हुए और समुद्र का पानी दो भागों में विभक्त हो गया। समुद्र के बीचों-बीच अब भूमि मार्ग दिखाई देने लगा। उस मार्ग पर राजा आगे बढ़ते रहे। काफी चलने के बाद वे पाताल लोक पहुँच गए। जब वे राजा बलि के महल के द्वार पर पहुँचे तो द्वारापालों ने उनसे आने का प्रयोजन पूछा। विक्रम ने उन्हें बताया कि राजा बलि के दर्शन के लिए मृत्युलोक के यहाँ आए हैं। एक सैनिक उनका संदेश लेकर गया और काफी देर बाद उनसे आकर बोला कि राजा बलि अभी उनसे नहीं मिल सकते हैं। उन्होंने बार-बार राजा से मिलने का अनुरोध किया पर राजा बलि तैयार नहीं हुए।

राजा ने खिन्न और हताश होकर अपनी तलवार से अपना सर काट लिया। जब प्रहरियों ने यह खबर राजा बलि को दी तो उन्होंने अमृत डलवाकर विक्रम को जीवित करवा दिया। जीवित होते ही विक्रम ने फिर राजा बलि के दर्शन की इच्छा जताई। इस बार प्रहरी संदेश लेकर लौटा कि राजा बलि उनसे महा शिवरात्रि के दिन मिलेंगे। विक्रम को लगा कि बलि ने सिर्फ़े टालने के लिए यह संदेश भिजवाया है। उनके दिल पर चोट लगी और उन्होंने फिर तलवार से अपनी गर्दन काट ली। प्रहरियों में खलबली सच गई और उन्होंने राजा बलि तक विक्रम के बलिदान की खबर पहुँचाई। राजा बलि समझ गए कि वह व्यक्ति दृढ़ निश्चयी है और बिना भेंट किए जानेवाला नहीं है। उन्होंने फिर नौकरों द्वारा अमृत भिजवाया और उनके लिए संदेश भिजवाया कि भेंट करने को वे राज़ी हैं।

नौकरों ने अमृत छिड़ककर उन्हें जीवित किया तथा महल में चलकर बलि से भेट करने को कहा। जब वे राजा बलि से मिले तो राजा बलि ने उनसे इतना कष्ट उठाकर आने का कारण पूछा। विक्रम ने कहा कि धार्मिक ग्रन्थों में उनके बारे में बहुत कुछ वर्णित है तथा उनकी दानवीरता और त्याग की चर्चा सर्वत्र होती है, इसलिए वे उनसे मिलने को उत्सुक थे। राजा बलि उनसे बहुत प्रसन्न हुए तथा विक्रम को एक लाल मूंगा उपहार में दिया और बोले कि वह मूंगा माँगने पर हर वस्तु दे सकता है। मूंगे के बल पर असंभव कार्य भी संभव हो सकते हैं।

विक्रम राजा बलि से विदा लेकर प्रसन्न चित्त होकर मृत्युलोक की ओर लौट चले। पाताल लोक के प्रवेश द्वार के बाहर फिर वही अनन्त गहराई वाला समुद्र बह रहा था। उन्होंने भगवान विष्णु का दिया हुआ शंख फूँका तो समुद्र फिर से दो भागों में बँट गया और उसके बीचों-बीच वही भूमिवाला मार्ग प्रकट हो गया। उस भूमि मार्ग पर चलकर वे समुद्र तट तक पहुँच गये। वह मार्ग गायब हो गया तथा समुद्र फिर पूर्ववत होकर बहने लगा। वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक स्री विलाप करती मिली। उसके बाल बिखरे हुए थे और चेहरे पर गहरे विषाद के भाव थे। पास आने पर पता चला कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और अब वह बिल्कुल बेसहारा है। विक्रम का दिल उसके दुख को देखकर पसीज गया तथा उन्होंने उसे सांत्वना दी। बलि वाले मूंगे से उसके लिए जीवन दान माँगा। उनका बोलना था कि उस विधवा का मृत पति ऐसे उठकर बैठ गया मानो गहरी नींद से जागा हो। स्री के आनन्द की सीमा नहीं रही।
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वैदेही

अट्ठाइसवीं पुतली का नाम वैदेही था और उसने अपनी कथा इस प्रकार कही- एक बार राजा विक्रमादित्य अपने शयन कक्ष में गहरी निद्रा में लीन थे। उन्होंने एक सपना देखा। एक स्वर्ण महल है जिसमें रत्न, माणिक इत्यादि जड़े हैं। महल में बड़े-बड़े कमरे हैं जिनमें सजावट की अलौकिक चीज़े हैं। महल के चारों ओर उद्यान हैं और उद्यान में हज़ारों तरह के सुन्दर-सुन्दर फूलों से लदे पौधे हैं। उन फूलों पर तरह-तरह की तितलियाँ मँडरा रही और भंवरों का गुंजन पूरे उद्यान में व्याप्त है। फूलों की सुगन्ध चारों ओर फैली हुई है और सारा दृश्य बड़ा ही मनोरम है। स्वच्छ और शीतल हवा बह रही है और महल से कुछ दूरी पर एक योगी साधनारत है। योगी का चेहरा गौर से देखने पर विक्रम को वह अपना हमशDल मालूम पड़ा। यह सब देखते-देखते ही विक्रम की आँखें खुल गईं। वे समझ गए कि उन्होंने कोई अच्छा सपना देखा है।

जगने के बाद भी सपने में दिखी हर चीज़ उन्हें स्पष्ट याद थी। उन्हें अपने सपने का मतलब समझ में नहीं आया। सारा दृश्य अलौकिक अवश्य था, मगर मन की उपज नहीं माना जा सकता था। राजा ने बहुत सोचा पर उन्हें याद नहीं आया कि कभी अपने जीवन में उन्होंने ऐसा कोई महल देखा हो चाहे इस तरह के किसी महल की कल्पना की हो। उन्होंने पण्डितों और ज्योतिषियों से अपने सपने की चर्चा की और उन्हें इसकी व्याख्या करने को कहा। सारे विद्वान और पण्डित इस नतीजे पर पहुँचे कि महाराजाधिराज ने सपने में स्वर्ग का दर्शन किया है तथा सपने का अलौकिक महल स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल है। देवता शायद उन्हें वह महल दिखाकर उन्हें सशरीर स्वर्ग आने का निमन्त्रण दे चुके है।

विक्रम यह सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने कभी भी न सोचा था कि उन्हें स्वर्ग आने का इस तरह निमंत्रण मिलेगा। वे पण्डितों से पूछने लगे कि स्वर्ग जाने का कौन सा मार्ग होगा तथा स्वर्ग यात्रा के लिए क्या-क्या आवश्यकता हो सकती है। काफी मंथन के बाद सारे विद्वानों ने उन्हें वह दिशा बताई जिधर से स्वर्गरोहण हो सकता था तथा उन्हें बतलाया कि कोई पुण्यात्मा जो सतत् भगवान का स्मरण करता है तथा धर्म के पथ से विचलित नहीं होता है वही स्वर्ग जाने का अधिकारी है। राजा ने कहा कि राजपाट चलाने के लिए जानबूझकर नही तो भूल से ही अवश्य कोई धर्म विरुद्ध आचरण उनसे हुआ होगा। इसके अलावा कभी-कभी राज्य की समस्या में इतने उलझ जाते हैं कि उन्हें भगवान का स्मरण नहीं रहता है।

इस पर सभी ने एक स्वर से कहा कि यदि वे इस योग्य नहीं होते तो उन्हें स्वर्ग का दर्शन ही नहीं हुआ होता। सबकी सलाह पर उन्होंने राजपुरोहित को अपने साथ लिया और स्वर्ग की यात्रा पर निकल पड़े। पण्डितों के कथन के अनुसार उन्हें यात्रा के दौरान दो पुण्यकर्म भी करने थे। यह यात्रा लम्बी और कठिन थी। विक्रम ने अपना राजसी भेष त्याग दिया था और अत्यन्त साधारण कपड़ों में यात्रा कर रहे थे। रास्ते में एक नगर में रात में विश्राम के लिए रुक गए। जहाँ रुके थे वहाँ उन्हें एक बूढी औरत रोती हुई मिली। उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें उभरी हुई थीं तथा गला रोते-रोते र्रूँधा जा रहा था। विक्रम ने द्रवित होकर उससे उसकी चिन्ता का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसका एकमात्र जवान बेटा सुबह ही जंगल गया, लेकिन अभी तक नहीं लौटा है। विक्रम ने जानना चाहा कि वह जंगल किस प्रयोजन से गया। बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका बेटा रोज़ सुबह में जंगल से सूखी लकड़ियाँ लाने जाता है और लकड़ियाँ लाकर नगर में बेचता है। लकड़ियाँ बेचकर जो पासा मिलता है उसी से उनका गुज़ारा होता है।

विक्रम ने कहा कि अब तक वह नहीं आया हे तो आ जाएगा। बूढ़ी औरत ने कहा कि जंगल बहुत घना है और नरभक्षी जानवरों से भरा पड़ा है। उसे शंका है कि कहीं किसी हिंसक जानवर ने उसे अपना ग्रास न बना लिया हो। उसने यह भी बताया कि शाम से वह बहुत सारे लोगों से विनती कर चुकी है कि उसके बेटे का पता लगाए, लेकिन कोई भी जंगल जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने अपनी विवशता दिखाई कि वह बूढ़ी और निर्बल है, इसलिए खुद जाकर पता नहीं कर सकती है। विक्रम ने उसे आश्वासन दिया कि वे जाकर उसे ढूँढेंगे।

उन्होंने विश्राम का विचार त्याग दिया और तुरन्त जंगल की ओर चल पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने जंगल में प्रवेश किया तो देखा कि जंगल सचमुच बहुत घना हो। वे चौकन्ने होकर थोड़ी दूर आए तो उन्होंने देखा कि एक नौजवान कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा है और नीचे एक शेर घात लगाए बैठा है। विक्रम ने कोई उपाय ढूँढकर शेर को वहाँ से भगा दिया और उस युवक को लेकर नगर लौट आए। बुढिया ने बेटे को देखकर विलाप करना छोड़ दिया और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद दिए। इस तरह बुढिया को चिन्तामुक्त करके उन्होंने एक पुण्य का काम किया।

रात भर विश्राम करने के बाद उन्होंने सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरु कर दी। चलते-चलते वे समुद्र तट पर आए तो उन्होंने एक स्री को रोते हुए देखा। स्री को रोते देख वे उसके पास आए तो देखा कि एक मालवाहक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस जहाज पर सामान लाद रहे हैं। उन्होंने उस स्री से उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि बस तीन महीने पहले उसकी विवाह हुआ और वह गर्भवती है। उसका पति इसी जहाज पर कर्मचारी है तथा जहाज का माल लेकर दूर देश जा रहा है। विक्रम ने जब उसे कहा कि इसमे परेशानी की कोई बात नहीं है और कुछ ही समय बाद उसका पति लौट आएगा तो उसने अपनी चिन्ता का कारण कुछ और ही बताया। उसने बताया कि उसने कल सपने में देखा कि एक मालवाहक जहाज समुद्र के बीच में ही और भयानक तूफान में घिर जाता है।

तूफ़ान इतना तेज है कि जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो जाते है और उस पर सारे सवार समुद्र में डूब जाते हैं। वह सोच रही है कि अगर वह सपना सच निकला तो उसका क्या होगा। खुद तो किसी प्रकार जी भी लेगी मगर उसके होने वाले बच्चे की परवरिश कैसे होगी। विक्रम को उस पर तरस आया और उन्होंने समुद्र देवता द्वारा प्रदत्त शंख उसे देते हुए कहा- “यह अपने पति को दे दो। जब भी तूफान या अन्य कोई प्राकृतिक विपदा आए तो इसे फूँक देगा। उसके फूँक मारते ही सारी विपत्ति हल जाएगी।”

औरत को उन पर विश्वास नहीं हुआ और वह शंकालु दृष्टि से उन्हें देखने लगी। विक्रम ने उसके चेहरे का भाव पढ़कर शंख की फूँक मारी। शंख की ध्वनि हुई और समुद्र का पानी कोसों दूर चला गया। उस पानी के साथ वह जहाज और उस पर के सारे कर्मचारी भी कोसों दूर चले गए। अब दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र तट फैला न आता था। वह स्री और कुछ अन्य लोग जो वहाँ थे हैरान रह गए। उनकी आँखें फटी रह गई। जब विक्रम ने दुबारा शंख फूँका तो समुद्र का पानी फिर से वहाँ हिलोड़ें मारने लगा। समुद्र के पानी के साथ वह जहाज भी कर्मचारियों सहित वापस आ गया। अब युवती को उस शंख की चमत्कारिक शक्ति के प्रति कोई शंका नहीं रही। उसने विक्रम से वह शंख लेकर अपनी कृतज्ञता जाहिर की।

विक्रम उस स्री को शंख देकर अपनी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें एक स्थान पर रुकना पड़ा। आकाश में काली घटाएँ छा गईं थी। बिजलियाँ चमकने लगी थीं। बादल के गर्जन से समूचा वातावरण हिलता प्रतीत होता था। उन बिजलियों के चमक के बीच विक्रम को एक सफेद घोड़ा ज़मीन की ओर उतरता दिख। विक्रम ने ध्यान से उसकी ओर देखा तभी आकाशवाणी हुई-

“महाराजा विक्रमादित्य तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा शायद ही कोई हो। तुमने रास्ते में दो पुण्य किए। एक बूढ़ी औरत को चिन्तामुक्त किया और एक स्री को सिर्फ शंका दूर करने के लिए वह अनमोल शंख दे दिया जो समुद्र देव ने तुम्हें तुम्हारी साधना से प्रसन्न होकर उपहार दिया था। तुम्हें लेने के लिए एक घोड़ा भेजा जा रहा है जो तुम्हे इन्द्र के महल तक पहुँचा देगा।”

विक्रम ने कहा- “मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ राजपुरोहित भी हैं। उनके लिए भी कोई व्यवस्था हो।”

इतना सुनना था कि राजपुरोहित ने कहा-“राजन्, मुझे क्षमा करें। सशरीर स्वर्ग जाने से मैं डरता हूँ। आपका सान्निध्य रहा तो मरने पर स्वर्ग जाऊँगा और अपने को धन्य समझूँगा।”

घोड़ा उनके पास उतरा तो सवारी के लिए सब कुछ से लैस था। राजपुरोहित से विदा लेकर विक्रम उस पर बैठ गए। एड़ लगाते ही घोड़ा तेज़ी से भागा और घने जंगल में पहुँच गया। जंगल में पहुँचकर उसने धरती छोड़ दी और हवा में दौड़ने लगा। यह घुड़सवारी अप्राकृतिक थी, इसलिए काफी कठिन थी, मगर विक्रम पूरी दृढ़ता से उस पर बैठे रहे। हवा में कुछ देर उड़ने के बाद वह घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते वह इन्द्रपुरी आया।

इन्द्रपुरी पहुँचते ही विक्रम को वही सपनों वाला सोने का महल दिख पड़ा। जैसा उन्होंने सपने में देखा था ठीक वैसा ही सब कुछ था। चलते-चलते वे इन्द्रसभा पहुँचे। इन्द्रसभा में सारे देवता विराजमान थे। अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। इन्द्र देव पत्नी के साथ अपने सिंहासन पर विराजमान थे। देवताओं की सभा में विक्रम को देखकर खलबली मच गई। वे सभी एक मानव के सशरीर स्वर्ग आने पर आश्चर्यचकित थे। विक्रम को देखकर इन्द्र खुद उनकी अगवानी करने आ गए और उन्हें अपने आसन पर बैठने को कहा। विक्रम ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस आसन के योग्य वे नहीं हैं। इन्द्र उनकी नम्रता और सरलता से प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि विक्रम ने सपने में अवश्य एक योगी को इस महल में देखा होगा। उनका वह हमशक्ल और कोई नहीं बल्कि वे खुद हैं। उन्होंने इतना पुण्य अर्जित कर लिया है कि इन्द्र के महल में उन्हें स्थायी स्थान मिल चुका है। इन्द्र ने उन्हें एक मुकुट उपहार में दिया।

इन्द्रलोक में कुछ दिन बिताकर मुकुट लेकर विक्रम अपने राज्य वापस आ गए।
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मानवती

उन्तीसवीं पुतली मानवती ने इस प्रकार कथा सुनाई- राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर रात में घूमा करते थे। ऐसे ही एक दिन घूमते-घूमते नदी के किनारे पहुँच गए। चाँदनी रात में नदी का जल चमकता हुआ बड़ा ही प्यारा दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। विक्रम चुपचाप नदी तट पर खड़े थे तभी उनके कानों में “बचाओ-बचाओ” की तेज आवाज पड़ी। वे आवाज की दिशा में दौड़े तो उन्हें नदी की वेगवती धारा से जूझते हुए दो आदमी दिखाई पड़े। गौर से देखा तो उन्हें पता चला कि एक युवक और एक युवती तैरकर किनारे आने की चेष्टा में हैं, मगर नदी की धाराएँ उन्हें बहाकर ले जाती हैं। विक्रम ने बड़ी फुर्ती से नदी में छलांग लगा दी और दोनों को पकड़कर किनारे ले आए। युवती के अंग-अंग से यौवन छलक रहा था। वह अत्यन्त रुपसी थी। उसका रुप देखकर अप्सराएँ भी लज्जित हो जातीं। कोई तपस्वी भी उसे पास पाकर अपनी तपस्या छोड़ देता और गृहस्थ बनकर उसके साथ जीवन गुज़ारने की कामना करता।

दोनों कृतज्ञ होकर अपने प्राण बचाने वाले को देख रहे थे। युवक ने बताया कि वे अपने परिवार के साथ नौका से कही जा रहे थे। नदी के बीच में वे भंवर को नहीं देख सके और उनकी नौका भंवर में जा फँसी। भंवर से निकलने की उन लोगों ने लाख कोशिश की, पर सफल नहीं हो सके। उनके परिवार के सारे सदस्य उस भंवर में समा गए, लेकिन वे दोनों किसी तरह यहाँ तक तैरकर आने में कामयाब हो गए।

राजा ने उनका परिचय पूछा तो युवक ने बताया कि दोनों भाई-बहन है और सारंग देश के रहने वाले हैं। विक्रम ने कहा कि उन्हें सकुशल अपने देश भेज दिया जाएगा। उसके बाद उन्होंने उन्हें अपने साथ चलने को कहा और अपने महल की ओर चल पड़े। राजमहल के नजदीक जब वे पहुँचे तो विक्रम को प्रहरियों ने पहचानकर प्रणाम किया। युवक-युवती को तब जाकर मालूम हुआ कि उन्हें अपने प्राणों की परवाह किए बिना बचाने वाला आदमी स्वयं महाराजाधिराज थे। अब तो वे और कृतज्ञताभरी नज़रों से महाराज को देखने लगे।

महल पहुँचकर उन्होंने नौकर-चाकरों को बुलाया तथा सारी सुविधाओं के साथ उनके ठहरने का इंतजाम करने का निर्देश दिया। अब तो दोनों का मन महाराज के प्रति और अधिक आदरभाव से भर गया।

वह युवक अपनी बहन के विवाह के लिए काफी चिन्तित रहता था। उसकी बहन राजकुमारियों से भी सुन्दर थी, इसलिए वह चाहता था कि किसी राजा से उसकी शादी हो। मगर उसकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी और वह अपने इरादे में कामयाब नहीं हो पा रहा था। जब संयोग से राजा विक्रमादित्य सो उसकी भेंट हो गई तो उसने सोचा कि क्यों न विक्रम को उसकी बहन से शादी का प्रस्ताव दिया जाए। यह विचार आते ही उसने अपनी बहन को ठीक से तैयार होने को कही तथा उसे साथ लेकर राजमहल उनसे मिलने चल पड़ा। उसकी बहन जब सजकर निकली तो उसका रुप देखने लायक था। उसके रुप पर देवता भी मोहित हो जाते मनुष्य की तो कोई बात ही नहीं।

जब वह राजमहल आया तो विक्रम ने उससे उसका हाल-चाल पूछा तथा कहा कि उसके जाने का समुचित प्रबन्ध कर दिया गया है। उसने राजा की कृतज्ञता जाहिर करते हुए कहा कि उन्होंने जो उपकार उस पर किये उसे आजीवन वह नहीं भूलेगा। उसके बाद उसने विक्रम से एक छोटा-सा उपहार स्वीकार करने को कहा। राजा ने मुस्कुराकर अपनी अनुमति दे दी।

राजा को प्रसन्न देखकर उसने सोचा कि वे उसकी बहन पर मोहित हो गए हैं। उसका हौसला बढ़ गया। उसने कहा कि वह अपनी बहन उनको उपहार देना चाहता है। विक्रम ने कहा कि उसका उपहार उन्हें स्वीकार है। अब उसको पूरा विश्वास हो गया कि विक्रम उसकी बहन को रानी बना लेंगे। तभी राजा ने कहा कि आज से तुम्हारी बहन राजा विक्रमादित्य की बहन के रुप में जानी जाएगी तथा उसका विवाह वह कोई योग्य वर ढूँढकर पूरे धूम-धाम से करेंगे।

वह विक्रम का मुँह ताकता रह गया। उसे सपने में भी नहीं भान था कि उसकी बहन की सुन्दरता को अनदेखा कर विक्रम उसे बहन के रुप में स्वीकार करेंगे। क्या कोई ऐश्वर्यशाली राजा विषय-वासना से इतना ऊपर रह सकता है।

छोड़ी देर बाद उसने संयत होकर कहा कि उदयगिरि का राजकुमार उदयन उसकी बहन की सुन्दरता पर मोहित है तथा उससे विवाह की इच्छा भी व्यक्त कर चुका है। राजा ने एक पंडित को बुलाया तथा बहुत सारा धन भेंट के रुप में देकर उदयगिरि राज्य विवाह का प्रस्ताव लेकर भेजा। पंडित उसी शाम लौट गया और उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। पूछने पर उसने बताया कि राह में कुछ डाकुओं ने घेरकर सब कुछ लूट लिया। सुनकर राजा स्तब्ध रह गए। उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी अच्छी शासन-व्यवस्था के बावजूद भी डाकू लुटेरे कैसे सक्रिय हो गए। इस बार उन्होंने पंडित को कुछ अश्वारहियों के साथ धन लेकर भेजा।

उसी रात विक्रम वेश बदलकर उन डाकुओं का पता लगाने निकल पड़े। वे उस निर्जन स्थान पर पहुँचे जहाँ पंडित को लूट लिया गया था। एक तरफ उन्हें चार आदमी बैठे दिख पड़े। राजा समझ गए कि वे लुटेरे हैं। विक्रम को कोई गुप्तचर समझा। राजा ने उनसे भयभीत नहीं होने को कहा और अपने आपको भी उनकी तरह एक चोर ही बताया। इस पर उन्होंने कहा कि वे चोर नहीं बल्कि इज्ज़तदार लोग हैं और किसी खास मसले पर विचार-विमर्श के लिए एकांत की खोज में यहाँ पहुँचे हैं। राजा ने उनसे बहाना न बनाने के लिए कहा और उन्हें अपने दल में शामिल कर लेने को कहा। तब चोरों ने खुलासा किया कि उन चारों में चार अलग-अलग खुबियाँ हैं। एक चोरी का शुभ मुहू निकालता था, दूसरा परिन्दे-जानवरों की ज़बान समझता था, तीसरा अदृश्य होने की कला जानता था तथा चौथा भयानक से भयानक यातना पाकर भी उफ़ तक नहीं करता था। विक्रम ने उनका विश्वास जीतने के लिए कहा- “मैं कहीं भी छिपाया धन देख सकता हूँ।” जब उन्होंने यह विशेषता सुनी तो विक्रम को अपनी टोली में शामिल कर लिया।

उसके बाद उन्होंने अपने ही महल के एक हिस्से में चोरी करने की योजना बनाई। उस जगह पर शाही खज़ाने का कुछ माल छिपा था। वे चोरों को वहाँ लेकर आए तो चारों चोर बड़े ही खुश हुए। उन्होंने खुशी-खुशी सारा माल झोली में डाला और बाहर निकलने लगे। चौकस प्रहरियों ने उन्हें पकड़ लिया।

सुबह में जब राजा के दरबार में बंदी बनाकर उन्हें पेश किया गया तो वे डर से पत्ते की तरह काँपने लगे। उन्होंने अपने पाँचवे साथी को सिंहासन पर आरुढ़ देखा। वे गुमसुम खड़े राजदण्ड की प्रतीक्षा करने लगे। मगर विक्रम ने उन्हें कोई दण्ड नहीं दिया। उन्हें अभयदान देकर उन्होंने उनसे अपराध न करने का वचन लिया और अपनी खूबियों का इस्तेमाल लोगों की भलाई के लिए करने का आदेश दिया। चारों ने मन ही मन अपने राजा की महानता स्वीकार कर ली और भले आदमियों की तरह जीवन यापन का फैसला कर लिया। राजा ने उन्हें सेना में बहाल कर लिया।

उदयन ने भी राजा विक्रम की मुँहबोली बहन से शादी का प्रस्ताव प्रसन्न होकर स्वीकार कर लिया। शुभ मुहू में विक्रम ने उसी धूम-धाम से उसकी शादी उदयन के साथ कर दी जिस तरह किसी राजकुमारी की होती है।
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Re: सिंहासन बत्तीसी

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जयलक्ष्मी

तीसवीं पुतली जयलक्ष्मी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य जितने बड़े राजा थे उतने ही बड़े तपस्वी। उन्होंने अपने तप से जान लिया कि वे अब अधिक से अधिक छ: महीने जी सकते हैं। अपनी मृत्यु को आसन्न समझकर उन्होंने वन में एक कुटिया बनवा ली तथा राज-काज से बचा हुआ समय साधना में बिताने लगे। एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आ रहे थे कि उनकी नज़र एक मृग पर पड़ी। मृग अद्भुत था और ऐसा मृग विक्रम ने कभी नहीं देखा था। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर दूसरा हाथ तरकश में डाला ही था कि मृग उनके समीप आकर मनुष्य की बोली में उनसे अपने प्राणों की भीख माँगने लगा। विक्रम को उस मृग को मनुष्यों की तरह बोलते हुए देख बड़ा आश्चर्य हुआ और उनका हाथ स्वत: थम गया।

विक्रम ने उस मृग से पूछा कि वह मनुष्यों की तरह कैसे बोल लेता है तो वह बोला कि यह सब उनके दर्शन के प्रभाव से हुआ है। विक्रम की जिज्ञासा अब और बढ़ गई। उन्होंने उस मृग को पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो उसने बताना शुरु किया।

“मैं जन्मजात मृग नहीं हूँ। मेरा जन्म मानव कुल में एक राजा के यहाँ हुआ। अन्य राजकुमारों की भाँति मुझे भी शिकार खेलने का बहुत शौक था। शिकार के लिए मैं अपने घोड़े पर बहुत दूर तक घने जंगलों में घुस जाता था। एक दिन मुझे कुछ दूरी पर मृग होने का आभास हुआ और मैंने आवाज़ को लक्ष्य करके एक वाण चलाया। दरअसल वह आवाज़ एक साधनारत योगी की थी जो बहुत धीमें स्वर में मंत्रोच्चार कर रहा था। तीर उसे तो नहीं लगा, पर उसकी कनपटी को छूता हुआ पूरो वेग से एक वृक्ष के तने में घुस गया। मैं अपने शिकार को खोजते-खोजते वहाँ तक पहुँचा तो पता चला मुझसे कैसा अनिष्ट होने से बच गया। योगी की साधना में विघ्न पड़ा था. इसलिए वह काफी क्रुद्ध हो गया था। उसने जब मुझे अपने सामने खड़ा पाया तो समझ गया कि वह वाण मैंने चलाया था। उसने लाल आँखों से घूरते हुए मुझे श्राप दे दिया। उसने कहा- “ओ मृग का शिकार पसंद करने वाले मूर्ख युवक, आज से खुद मृग बन जा। आज के बाद से आखेटकों से अपने प्राणों की रक्षा करता रह।”

उसने श्राप इतनी जल्दी दे दिया कि मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ कहने का मौका नहीं मिला। श्राप की कल्पना से ही मैं भय से सिहर उठा। मैं योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा उससे श्राप मुक्त करने की प्रार्थना करने लगा। मैंने रो-रो कर उससे कहा कि उसकी साधना में विघ्न उत्पन्न करने का मेरा कोई इरादा नहीं था और यह सब अनजाने में मुझसे हो गया। मेरी आँखों में पश्चाताप के आँसू देखकर उस योगी को दया आ गई। उसने मुझसे कहा कि श्राप वापस तो नहीं लिया जा सकता, लेकिन वह उस श्राप के प्रभाव को सीमित ज़रुर कर सकता है। मैंने कहा कि जितना अधिक संभव है उतना वह श्राप का प्रभाव कम कर दे तो उसने कहा- “तुम मृग बनकर तब तक भटकते रहोगे जब तक महान् यशस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाएँ। विक्रमादित्य के दर्शन से ही तुम मनुष्यों की भाँति बोलना शुरु कर दोगे।”

विक्रम को अब जिज्ञासा हुई कि वह मनुष्यों की भाँति बोल तो रहा है मगर मनुष्य में परिवर्तित नहीं हुआ है। उन्होंने उससे पूछा- “तुम्हें मृग रुप से कब मुक्ति मिलेगी? कब तुम अपने वास्तविक रुप को प्राप्त करोगे?

वह श्रापित राजकुमार बोला- “इससे भी मुझे मुक्ति बहुत शीघ्र मिल जाएगी। उस योगी के कथनानुसार मैं अगर आपको साथ लेकर उसके पास जाऊँ तो मेरा वास्तविक रुप मुझे तुरन्त ही वापस मिल जाएगा।”

विक्रम खुश थे कि उनके हाथ से शापग्रस्त राजकुमार की हत्या नहीं हुई अन्यथा उन्हें निरपराध मनुष्य की हत्या का पाप लग जाता और वे ग्लानि तथा पश्चाताप की आग में जल रहे होते। उन्होंने मृगरुपी राजकुमार से पूछा- “क्या तुम्हें उस योगी के निवास के बारे में कुछ पता है? क्या तुम मुझे उसके पास लेकर चल सकते हो?”

उस राजकुमार ने कहा- “हाँ, मैं आपको उसकी कुटिया तक अभी लिए चल सकता हूँ। संयोग से वह योगी अभी भी इसी जंगल में थोड़ी दूर पर साधना कर रहा है।”

वह मृग आगे-आगे चला और विक्रम उसका अनुसरण करते-करते चलते रहे। थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्हें एक वृक्ष पर उलटा होकर साधना करता एक योगी दिखा। उनकी समझ में आ गया कि राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा था। वे जब समीप आए तो वह योगी उन्हें देखते ही वृक्ष से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने विक्रम का अभिवादन किया तथा दर्शन देने के लिए उन्हें नतमस्तक होकर धन्यवाद दिया।

विक्रम समझ गए कि वह योगी उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन उन्हें जिज्ञासा हुई कि वह उनकी प्रतीक्षा क्यों कर रहा था। पूछने पर उसने उन्हें बताया कि सपने में एक दिन इन्द्र देव ने उन्हें दर्शन देकर कहा था कि महाराजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं-सा स्थान प्राप्त कर लिया है तथा उनके दर्शन प्राप्त करने वाले को इन्द्र देव या अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। “मैं इतनी कठिन साधना सिर्फ आपके दर्शन का लाभ पाने के लिए कर रहा था।”- उस योगी ने कहा।

विक्रम ने पूछा कि अब तो उसने उनके दर्शन प्राप्त कर लिए, क्या उनसे वह कुछ और चाहता है। इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इन्द्र देव के मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी-खुशी वह माला उसे दे दी। योगी ने उनका आभार प्रकट किया ही था कि श्रापित राजकुमार फिर से मानव बन गया। उसने पहले विक्रम के फिर उस योगी के पाँव छूए।

राजकुमार को लेकर विक्रम अपने महल आए। दूसरे दिन अपने रथ पर उसे बिठा उसके राज्य चल दिए। मगर उसके राज्य में प्रवेश करते ही सैनिकों की टुकड़ी ने उनके रथ को चारों ओर से घेर लिया तथा राज्य में प्रवेश करने का उनका प्रयोजन पूछने लगे। राजकुमार ने अपना परिचय दिया और रास्ता छोड़ने को कहा। उसने जानना चाहा कि उसका रथ रोकने की सैनिकों ने हिम्मत कैसे की। सैनिकों ने उसे बताया कि उसके माता-पिता को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया है और अब इस राज्य पर किसी और का अधिकार हो चुका है। चूँकि राज्य पर अधिकार करते वक्त राजकुमार का कुछ पता नहीं चला, इसलिए चारों तरफ गुप्तचर उसकी तलाश में फैला दिए गये थे। अब उसके खुद हाज़िर होने से नए शासक का मार्ग और प्रशस्त हो गया है।

राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना परिचय नहीं दिया और खुद को राजकुमार के दूत के रुप में पेश करते हुए कहा कि उनका एक संदेश नये शासक तक भेजा जाए। उन्होंने उस टुकड़ी के नायक को कहा कि नये शासक के सामने दो विकल्प हैं- या तो वह असली राजा और रानी को उनका राज्य सौंपकर चला जाए या युद्ध की तैयारी करे।

उस सेनानायक को बड़ अजीब लगा। उसने विक्रम का उपहास करते हुए पूछा कि युद्ध कौन करेगा। क्या वही दोनों युद्ध करेंगे। उसको उपहास करते देख उनका क्रोध साँतवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने तलवार निकाली और उसका सर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए शासक को खबर की। वह तुरन्त सेना लेकर उनकी ओर दौड़ा।

विक्रम इस हमले के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा बेतालों ने उनका आदेश पाकर रथ को हवा में उठ लिया। उन्होंने वह तिलक लगाया जिससे अदृश्य हो सकते थे और रथ से कूद गये। अदृश्य रहकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरु कर दिया। जब सैकड़ो सैनिक मारे गए और दुश्मन नज़र नहीं आया तो सैनिकों में भगदड़ मच गई और राजा को वहीं छोड़ अधिकांश सैनिक रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए। उन्हें लगा कि कोई पैशाचिक शक्ति उनका मुक़ाबला कर रही है। नए शासक का चेहरा देखने लायक था। वह आश्चर्यचकित और भयभीत था ही, हताश भी दिख रहा था।

उसे हतप्रभ देख विक्रम ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा अपने वास्तविक रुप में आ गए। उन्होंने उस शासक से अपना परिचय देते हुए कहा कि या तो वह इसी क्षण यह राज्य छोड़कर भाग जाए या प्राण दण्ड के लिए तैयार रहे। वह शासक विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था तथा उनका शौर्य आँखों से देख चुका था, अत: वह उसी क्षण उस राज्य से भाग गया।

वास्तविक राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में एक जंगल पड़ा। उस जंगल में एक मृग उनके पास आया तथा एक सिंह से अपने को बचाने को बोला। मगर महाराजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की। वे भगवान के बनाए नियम के विरुद्ध नहीं जा सकते थे। सिंह भूखा था और मृग आदि जानवर ही उसकी क्षुधा शान्त कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने सिहं को मृग का शिकार करने दिया।
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Re: सिंहासन बत्तीसी

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कौशल्या

इकत्तीसवीं पुतली जिसका नाम कौशल्या था, ने अपनी कथा इस प्रकार कही- राजा विक्रमादित्य वृद्ध हो गए थे तथा अपने योगबल से उन्होंने यह भी जान लिया कि उनका अन्त अब काफी निकट है। वे राज-काज और धर्म कार्य दोनों में अपने को लगाए रखते थे। उन्होंने वन में भी साधना के लिए एक आवास बना रखा था। एक दिन उसी आवास में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा। उन्होंने गौर से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा है। इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ सुन्दर भवन दिखाई पड़ा। उनके मन में भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया। उनके आदेश पर बेताल उन्हें पहाड़ी पर ले आए और उनसे बोले कि वे इसके आगे नहीं जा सकते। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस भवन के चारों ओर एक योगी ने तंत्र का घेरा डाल रखा है तथा उस भवन में उसका निवास है। उन घेरों के भीतर वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उस योगी से अधिक हो।

विक्रम ने सच जानकर भवन की ओर कदम बढ़ा दिया । वे देखना चाहते थे कि उनका पुण्य उस योगी से अधिक है या नहीं। चलते-चलते वे भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए। एकाएक कहीं से चलकर एक अग्नि पिण्ड आया और उनके पास स्थिर हो गया। उसी समय भीतर से किसी का आज्ञाभरा स्वर सुनाई पड़ा। वह अग्निपिण्ड सरककर पीछे चला गया और प्रवेश द्वार साफ़ हो गया। विक्रम अन्दर घुसे तो वही आवाज़ उनसे उनका परिचय पूछने लगी। उसने कहा कि सब कुछ साफ़-साफ़ बताया जाए नहीं तो वह आने वाले को श्राप से भ कर देगा।

विक्रम तब तक कक्ष में पहुँच चुके थे और उन्होंने देखा कि योगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने जब उसे बताया कि वे विक्रमादित्य हैं तो योगी ने अपने को भाग्यशाली बताया। उसने कहा कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे यह आशा उसे नहीं थी। योगी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा विक्रम से कुछ माँगने को बोला। राजा विक्रमादित्य ने उससे तमाम सुविधाओं सहित वह भवन माँग लिया।

विक्रम को वह भवन सौंपकर योगी उसी वन में कहीं चला गया। चलते-चलते वह काफी दूर पहुँचा तो उसकी भेंट अपने गुरु से हुई। उसके गुरु ने उससे इस तरह भटकने का कारण जानना चाहा तो वह बोला कि भवन उसने राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया है। उसके गुरु को हँसी आ गई। उसने कहा कि इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ दानवीर को वह क्या दान करेगा और उसने उसे विक्रमादित्य के पास जाकर ब्राह्मण रुप में अपना भवन फिर से माँग लेने को कहा। वह वेश बदलकर उस कुटिया में विक्रम से मिला जिसमें वे साधना करते थे। उसने रहने की जगह की याचना की। विक्रम ने उससे अपनी इच्छित जगह माँगने को कहा तो उसने वह भवन माँगा। विक्रम ने मुस्कुराकर कहा कि वह भवन ज्यों का त्यों छोड़कर वे उसी समय आ गए थे। उन्होंने बस उसकी परीक्षा लेने के लिए उससे वह भवन लिया था।

इस कथा के बाद इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कथा खत्म नहीं की। वह बोली- राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, वे थे तो मानव ही। मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने इहलीला त्याग दी। उनके मरते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी। जब उनकी चिता सजी तो उनकी सभी रानियाँ उस चिता पर सती होने को चढ़ गईं। उनकी चिता पर देवताओं ने फूलों की वर्षा की।

उनके बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को राजा घोषित किया गया। उसका धूमधाम से तिलक हुआ। मगर वह उनके सिंहासन पर नहीं बैठ सका। उसको पता नहीं चला कि पिता के सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है। वह उलझन में पड़ा था कि एक दिन स्वप्न में विक्रम खुद आए। उन्होंने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा। उन्होंने उसे कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य-प्रताप तथा यश से उस सिंहासन पर बैठने लायक होगा तो वे खुद उसे स्वप्न में आकर बता देंगे। मगर विक्रम उसके सपने में नहीं आए तो उसे नहीं सूझा कि सिंहासन का किया क्या जाए। पंडितों और विद्वानों के परामर्श पर वह एक दिन पिता का स्मरण करके सोया तो विक्रम सपने में आए। सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को ज़मीन में गड़वा देने के लिए कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जब भी पृथ्वी पर सर्वगुण सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन खुद-ब-खुद उसके अधिकार में चला जाएगा।

पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने सुबह में मजदूरों को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया तथा उस सिंहासन को उसमें दबवा दिया। वह खुद अम्बावती को नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा।
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