औरत जो एक नदी है

Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

Post by Jemsbond »


कई बार गाँवों की सँकरी पगडंडीनुमा सड़कों पर निरुदेश्य भटकते हुए हम इन लोगों का हाथ उठाकर अभिवादन किया करते थे। दामिनी उन्हें रश्क से देखकर कहती थी - कितने लकी हैं न ये लोग! कैसे निश्चिंत दिन-दिनभर बैठे रहते हैं... मैं उसकी मधु की रंगतवाली पुतलियों में धूप का फैलना-सिमटना देखता और खो जाता - भँवरे की गुँजार-सी चुप्पी हमारे बीच अनमन डोलती रहती-देर-देर तक। कभी मैं पूछता - और हम नहीं हैं लकी... मेरी उँगलियों में उलझी अपनी तराशी हुई उँगलियों को देखकर वह रंग जाती। कई बार उसके चेहरे पर उसके कपड़ों का रंग प्रतिबिंबित होता, मैं उसकी आँखों पर, माथे और गालों पर रंगभरी तितलियों का उड़ना देखता रहता। वह झेंपी-सी मुस्कराहट होंठों पर लिए जंगली फूल इकट्ठा करती चलती, कभी-कभी तिरछी नजर से मुझे देख लेती, तब, जब मैं कहीं और देखता होता हूँ।

दबी हँसी से उसके होंठों के कोने धीरे-धीरे काँपते रहते थे। उन्हें देखकर मैं न जाने किन अनाम इच्छाओं से घिर आता था। दामिनी मेरी आँखों को समझ लेती थी शायद, तभी अनायास यूँ गुलाबी पड़ जाती थी। मुझे ऐसे क्षणों में लगता था, रंगों को उसका सार्थक अर्थ यही चेहरा देता है। फूल न होते, इंद्रधनुष न होता तो रंगों के क्या और कितने माने रह जाते...

सुनसान दुपहरियों में यूँ भटकते रहना हम दोनों को ही अच्छा लगता था। एकबार जंगल में लगी शराब की एक भट्टी में हमने ताजी उतरी शराब की कई घूँट पी थी, वह भी मिट्टी के कुल्हड़ में। वहाँ कोई गिलास उपलब्ध नहीं था। लगा था, सीने से लेकर पेट तक जलकर राख हो गया है। तेजाब की तरह था उसका स्वाद। भट्टीवाले ने ही बिना पानी मिलाए नीट पीने की सलाह दी थी। दामिनी तो वही सीने पर हाथ रखकर बैठ गई थी। हम दोनों को ही झट् से नशा चढ़ गया था। दामिनी की आँखों में लाल डोरे उग आए थे। उलझे-बिखरे बालों के बीच उसका तमतमाया चेहरा और चढ़ी हुई आँखें कितनी उत्तेजक लग रही थी। अपने अंदर की सनसनाहट को दबाते हुए मैंने उसे सँभालकर उठाया था। मुझसे लगी-लगी वह डगमगाते हुए कदमों से चलती रही थी - अशेष, ये मौसम, ये निर्जन दुपहरी और एक अनजान वीराने में मेरा-तुम्हारा यूँ भटकना... कभी नहीं भूलेगा। सब सहेजकर रखूँगी - यहाँ! उसने अपने बाएँ सीने पर एक उँगली रखी थी। मैंने उसकी एक बाँह अपने गले में डाल ली थी - मुझे भी याद रहेगा...

क्या? उसकी आँखें मुझपर थीं - एक बच्ची की-सी कौतूहलता लिए।

तुम्हारा इस तरह बहकना और मुझसे लगकर चलना... अच्छा, अगर ये रास्ता, ये दोपहर कभी खत्म न हो तो...?

तो, तो बहुत अच्छा होगा, अशेष, कुछ करो न कि ऐसा ही हो... वह मचल गई थी - ठीक वैसे ही, एक बच्ची की तरह।

उस दिन मैं उसे उस सेमिट्री में भी ले गया था, जहाँ शैरोन डिसा की कब्र थी। मैंने दामिनी से कहा था, कुछ-कुछ नाटकीय ढंग से ही - चलो, आज तुम्हें किसी से मिलाता हूँ... दामिनी ने मुझे कौतूहल भरी आँखों से देखा था - तो यहाँ भी तुम्हारे परिचित होने लगे! कल तक तो कोई न था! कौन है?

है कोई... उन्नीस साल की लड़की, जो कभी पतंग बनकर सारे आकाश में उड़ते फिरना चाहती थी...

अच्छा! दामिनी की आँखों में असमंजस के भाव थे। जाहिर है, वह मेरी बातों का अर्थ समझ नहीं पा रही थी। मैं उसे शैरोन के कब्र के पास खींच ले गया था। वहाँ पहुँचकर दामिनी की आँखें तरल हो आई थीं। उसने झुककर सिरहाने पर लगे संगमरमर की पट्टी पर लिखा परिचय और संदेश पढ़ा था। उसकी आँखें कुछ और पिघल आई थीं - एक छोटा-सा जीवन - फूलों की उमर की तरह... एक गहरी साँस में डूबी आवाज थी उसकी। किसी निसंग टिटहरी की तरह भटकी-भटकी, उदास...

मैंने गौर किया था, आज उसपर कार्नेशन का लाल फूल नहीं था। न जाने क्यों मैंने अनायास दामिनी की ओर मुड़कर कहा था - मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा, जीवन के बाद भी नहीं। सुनकर दामिनी हल्के से मुस्कराई थी, मगर उसकी आँखें गीली हो आईं थीं, बह पड़ने को तत्पर...

चारों तरफ तेज धूप में चंपा के हल्के पीले फूल जल-से रहे थे। कब्रिस्तान की दीवारों के साथ-साथ गुलमोहर की लंबी कतार थी। झरते हुए नारंगी फूलों से सफेद संगमरमर के कब्र अँटे पड़े थे। अजीब चुप्पी थी वहाँ - गहरी और शांति से भरी हुई। एक प्रच्छन्न उदासी का अनचीन्हा अहसास भी! सलीबों पर पड़ी फूलों की सूखी मालाओं में, लिपी-पुती दीवारों और झाड़ियों में खिले र्निगंध सफेद फूलों में... हर तरफ मृत्यु का शोक और गुजर गए जीवन का उच्छ्वास... यहाँ हवा उसाँसें लेती-सी गुजरती है, कब्रों के चारों तरफ उगे हुए जंगलातों से उलझ-उलझकर, अजीब सरसराहट भरी आवाज में।।

हम उसदिन वहाँ देरतक बैठे थे - एक जमीन तक झुके हुए गुलमोहर के नीचे। वह मेरी गोद में सर रखकर लेटी हुई थी। हवा के झोंकों से रह-रहकर झरते हुए फूलों से जैसे ढँक-सी गई थी। मैं उन्हें चुनकर हटाता रहा था और फिर उसने मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया था - रहने दो, अच्छा लगता है... उसकी आँखों में उस समय दोपहर का गहरा नीला आकाश उतरा हुआ था, खोया हुआ-सा, अपना सारा सूनापन लिए... मुझे उन आँखों को देखकर न जाने ऐसा क्यों खयाल आया था कि दो उजली कश्तियों में पूरा समंदर सिमट आया है! अपनी गहराई और अछोर विस्तार के साथ... उसमें डूबता-उतराता मैं बैठा रहा था, बिना कुछ कहे। हमारे बीच पसरी हुई सुगंध और अनाम उदासी की उस खूबसूरत चुप्पी को मैं तोड़ना नहीं चाहता था। एक पारदर्शी दुपट्टे की तरह उस निर्जन दुपहरी का नीरव सुकून हमें देरतक घेरे रखा था।

उस रात उमा का फोन आया तो उसकी बातों, अनुभूतियों के साथ मैं स्वयं को जोड़ नहीं पा रहा था। कहीं से कुछ बहुत सूक्ष्म टूटकर दरक गया था। अनायास मैंने महसूस किया था हम दोनों के बीच - हमारे और उमा के बीच - दामिनी है! किसी अदृश्य डोर की तरह नहीं, बहुत स्पष्ट और मांसल - एक वास्तविकता जिसे किसी तरह नकारा नहीं जा सकता। मैं पूरे ध्यान से उमा की बातें सुनने की कोशिश कर रहा था। मगर बात करते हुए थोड़ी देर बाद अचानक रुककर उमा ने पूछा था, मन, आपका ध्यान किधर है?

मैं एकदम से सकपका गया। कितनी तीक्ष्ण होती हैं औरतों की नजर, कुछ भी नहीं छूटता इनसे - छोटी-से-छोटी बात भी। मुझे सावधान रहना पड़ेगा... मैंने खुद को चेताया था।
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

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फोन रखते हुए मैंने उमा के इस समय के चेहरे की कल्पना करने की कोशिश की थी। उलझे बाल, थका और विरक्त चेहरा... दिनभर के कामों से ऊबी और चिड़चिड़ाई हुई! कभी स्वयं को घर-गृहस्थी की बातों से अलग नहीं कर पाती, अधिकांश हाउस वाइफ की तरह। निजता के चरम क्षणों में भी वही घर बीच में खड़ा रहता है, धुआँए चूल्हे और दाल-चावल के हिसाब-किताब के साथ। उसकी देह से ही नहीं, उसकी बातों और सोचों से भी उसकी रसोई की गंध आती है। उसी में रस-बस गई है इस कदर कि अब उनके बिना उसके वजूद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बच्चे तो चुहल ही करते रहते हैं - माँ को देखते ही पालक पनीर, आलू-पुरी की याद आती है, भूख लगने लगती है। माँ के शरीर से आज मखनी दाल का फ्लेवर आ रहा है, जरूर मखनी दाल ही बनी होगी...

मैं ये सब इतनी सहजता से नहीं कह सकता। बात घुमा-फिराकर कहनी पड़ती है - तुमने वो नया परफ्युम ट्राई किया? अभी नहाओगी तो लगा लेना...

उमा चिढ़ जाती - अभी नहाऊँ! अरे सुबह-सुबह तो नहा लिया रसोई में घुसने से पहले। तुम्हारी स्वर्गवासी माँ ने ही तो यह अच्छी आदत लगाई है। बिना नहाए रसोई की चीजों को हाथ कहाँ लगाने देती थीं... इसके बाद मैं चुप हो जाने में ही अपनी गनीमत समझता था। मेरी माँ का प्रसंग आते ही उमा के जख्मों के टाँके उधड़ जाते थे। फिर तो वह शुरू ही हो जाती थी। कभी-कभी दिनों तक के लिए। माँ ने उसे शुरू-शुरू में बहुत सताया था, यह कहने में अब संकोच नहीं होता। उन दिनों मैं उमा की इस मामले में कोई मदद नहीं कर सका था। मूक दर्शक होकर सबकुछ देखते रहने के सिवा मेरे पास और कोई दूसरा चारा भी नहीं था। अच्छा बेटा जो था।

न जाने क्यों इन दिनों उमा की शिकायतें बढ़ती ही जा रही है - घर की जिम्मेदारियों की, बच्चों की - अनुशा पढ़ाई ठीक से नहीं करती, विनीता बिगड़ती जा रही है... फिर बीच-बीच में वही सनातन ताना - तुम्हें क्या, तुम तो वहाँ जाकर बैठ गए हो। यहाँ मैं अकेली गृहस्थी के चूल्हे में मर-खप रही हूँ। कई बार उसने मिसेज लोबो की बाबत भी पूछा था। उनकी पचपन साल की उमर सुनकर कुछ आश्वस्त हुई-सी प्रतीत हुई थी। मगर रह-रहकर संदेह का काँटा जरूर कहीं गड़ता रहता था। कभी गोवा की सोसायटी के विषय में पूछती तो कभी यहाँ की लड़कियों के विषय में - सुना है, वहाँ का जीवन बहुत उन्मुक्त है! पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है... टीवी पर दिखा रहे थे उसदिन, अपनी शादी में दुल्हन घूँघट उठाकर नाच रही थी...

उसकी बातों पर कभी मुझे खीज होती थी तो कभी हँसी भी आ जाती थी। कई बार समझाने की कोशिश की थी - हर संस्कृति की अपनी विशिष्टता होती है। हमें उन्हें सराहना और उनका सम्मान करना चाहिए।

‘हाँ, मगर उनका अंधानुकरण नहीं...’

उमा जिद्दी बच्ची की तरह अपनी बात पर अड़ जाती। पता नहीं, इन बातों से वह क्या साबित करना चाहती थी। शायद यह उसके अंदर का असुरक्षा बोध था जो उसे अतिरिक्त आक्रामक और डिफेंसिव बना रहा था। एक अजनबी कल्चर के प्रति उसके पूर्वाग्रह उसे शक और संदेह की ओर धकेल रहे थे। शायद मेरी उदासीनता और अन्य मनस्कता को उसने सूँघ लिया था। इन दिनों मुझे लेकर वह शंकित और सतर्क थी। उसकी बातों और घुमा-फिराकर किए गए सवालों से यह बात समझ सकता था मैं।

मैं उसके प्रति संवेदनशील बना रहना चाहता था, मगर क्या करूँ कि अन्यमनस्क होता जा रहा था। हर क्षण ध्यान दामिनी की तरफ लगा रहता था। जीवन में सही मायनों में रोमांस अब आया था। दामिनी एक मुकम्मल औरत थी - हर अर्थ में! उसका हर रूप, हर अंदाज मुझे चकित करता था, सुखद ढंग से विस्मित भी। हर बड़ी से बड़ी तथा छोटी से छोटी बात में वह अपना सौ प्रतिशत देती थी। उसके किसी काम में मैंने कोई कमी या उपेक्षा नहीं देखी थी। उसका हर काम सुंदर और सुगढ़ हुआ करता है। वह जिस तल्लीनता से पेंटिंग्स् बनाया करती है, उसी तल्लीनता से चाय भी बनाती है। उसके घर के हर कोने से, हर बात से उसका व्यक्तित्व झलकता है। मैंने अपने आजतक के जीवन में किसी औरत को इतना सुरुचि संपन्न तथा सलीकेदार नहीं देखा था। उसके कॉटेज में पँहुचकर प्रतीत होता था मानो किसी हेल्थ स्पा में पहुँच गया हूँ। उसका चेहरा, उसकी बातें, उसका स्पर्श - सब में लज्जत और सुकून था, जैसे कोई ठंडा फाहा या बाम...

मैंने कभी स्वयं को किसी माने में विशिष्ट नहीं समझा था। एक अच्छी नौकरी, बीवी, बच्चे... कोई खास बात नहीं। स्वयं को बहुत बौद्धिक भी नहीं मानता। पढ़ना पड़ता था इसलिए पढ़ता, मेहनत करता था, अच्छे अंकों में उत्तीर्ण भी हो जाता था, मगर इसमें जीनियस होने जैसी कोई बात नहीं थी।

दामिनी ने मुझे पहली बार विशिष्ट होने का अहसास कराया था। मेरी हर बात में उसे कोई खासियत नजर आती थी। कभी-कभी मैं सोचने लगता था, प्रेम वास्तव में अंधा होता है। मैं आईने के सामने खड़ा होकर स्वयं को देखता - साधारण कद-काठी और सूरत। कोई अनोखी या असाधारण बात नहीं। पता नहीं, दामिनी जैसी खूबसूरत और सुरुचि संपन्न औरत ने मुझमें क्या देखा। हमारी उम्र में भी काफी अंतर था। मैं चालीस पार कर रहा था, वह पच्चीस की थी। जिस खुशी और सुख की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था वह सब अचानक मेरी झोली में आ गिरा था।

मुझे दामिनी का जीवन अनोखा प्रतीत हुआ था। उस जैसी एक युवा और खूबसूरत स्त्री का एकदम अकेली रहकर जीवन यापन करना... सहज-स्वाभाविक बात नहीं लगती थी। हालाँकि गोवा का सामाजिक जीवन देश के अन्य हिस्सों की तुलना में स्त्रियों के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जा सकता है, फिर भी...

दामिनी की बातों से एक बात मैं समझ सका था कि उसे अनावश्यक, अतिरिक्त कौतूहल पसंद नहीं। वह मेरे जीवन के व्यवहारिक पक्ष से एक तरह से उदासीन ही रहती थी। न अपने विषय में ज्यादा कुछ बोलना ही पसंद करती थी। कहती थी, ये सब सेकेंडरी बातें हैं, बाद में होती रहेंगी, पहले तो तुम्हें - अशेष को - एक मनुष्य, एक व्यक्ति के रूप में जान लूँ। अगर तुम ही न सही हुए तो फिर तुम्हारी डिग्री, ओहदे का क्या करूँगी... अचार डालूँगी? कहते हुए वह अपनी हँसी के शरीर, इंद्रधनुषी बुलबुलों में फूट पड़ती - प्यार इनसान से किया जाता है अशेष बाबू, शादी खानदान और नौकरी से... जो मैं आपसे कभी करनेवाली नहीं।

अपने विषय में पूछे गए प्रश्नों को भी वह बड़ी चतुराई से टाल जाती थी। एकबार कहा था, अचानक थमककर - अपने घावों को कुरेदने का हौसला हर समय नहीं होता। थोड़ा समय दो...

मैंने इंतजार करना ही उचित समझा था। दामिनी जैसी व्यक्तित्वमयी स्त्री के साथ कुछ भी जबर्दस्ती नहीं किया जा सकता, इतना तो अबतक मैं समझ ही सकता था। कोई गलत हरकत करके उसे खो दूँ, ऐसा मैं कभी नहीं चाहता था, बहुत कीमती थी वह मेरे लिए...

एकदिन उसने मुझसे पूछा था, अच्छा अशेष, एक बात कहो तो, दुनिया की आधी आबादी को नकारकर तुम पुरुष इसे मुकम्मल किस तरह बनाना चाहते हो? जबतक औरत को इसका हिस्सा नहीं बनाओगे, ये दुनिया खूबसूरत कैसे होगी... उसकी बातों से मुझे लगा था, उस बर्फ के गोरे जंगल में कहीं आग की एक गहरी, सुर्ख नदी है। मैने एक कमजोर-सी बहस की थी, ऐसा क्योंकर सोचती हो, इस देश में स्त्रियाँ पूजी जाती हैं - सीता, द्रोपदी...

इनका नाम न लो! इन देवियों से हमें बस आँसुओं की विरासत मिली है। तुम मैत्रेयी, घोषा, जाबाला, गार्गी जैसी स्त्रियों की बात क्यों नहीं करते, जो फूल, पत्थर और अंगार से बनी थीं। मैं चुप हो गया था। वह हँसी थी - औरतें नरक की द्वार होती हैं, मगर इसी नरक के द्वार से सारे संत, पैगंबर और अवतार का आर्विभाव इस दुनिया में होता है। वह शैतान की बेटी है, मगर पैगंबर की माँ भी है, यह बताना लोग क्यों भूल जाते हैं? सच अशेष, जिन औरतों की तुमलोग बातें करते हो, वे पैदा नहीं होतीं, बना दी जाती हैं - मेड इन वर्ल्ड... उन लोगों की मानसिकता सोचो जो कहते हैं स्वतंत्र सिर्फ वेश्याएँ हो सकती हैं। इनसान की सबसे बड़ी रूहानी जरूरत को कैसा गलीज इल्जाम दे दिया...

मैं अपनी नीरवता की एकमात्र पूँजी सहेजे उसके चेहरे पर घुले केसर को देखता रहा था। अपने आवेश के क्षणों में वह अद्भुत दिखती थी। उसे देख, महसूसकर ही खयाल आया था, औरत खालिस जादू होती है। स्वयं को बूँदभर खर्च किए बगैर पुरुष को पूरी तरह आत्मसात कर लेना अपने आप में एक विलक्षण प्रक्रिया है, जो वह हमेशा करती है।

उसने मेरी सोच को एक नई राह दिखाई थी। अबतक मैं हर चीज को उसी रूप में लेने का अभ्यस्त था जिस रूप में वह मेरे सामने आती थी। मैंने सवाल करना नहीं सीखा था, बस जवाब रट लेता था - वह जो मुझे सिखाया जाता था। क्यों, किसलिए जैसे शब्द मेरे शब्दकोश में नहीं थे। मगर दामिनी तो स्वयं एक जीता-जागता प्रश्न थी। जिस बात पर यकीन नहीं करती थी, उसे कभी करती भी नहीं थी। करना है, ये बात अहम नहीं होती उसके लिए, क्यों करना है, इस बात को समझना पहले जरूरी है।

उसकी बातें मुझे अक्सर स्तंभित कर जाती थी। उसे समझने का - रुक-रुककर सही, एक सिलसिला जरूर चल पड़ा था। मैं उसे जितना जान-समझ रहा था, उतना ही अभिभूत होता जा रहा था।

‘पहली रात बिस्तर पर गिरे बूँदभर रक्त के धब्बे को देखकर पुरुष अपना विजय परचम लहराता फिरता है, वही स्त्री चुपचाप उसकी खून की रेखा वंशवृक्ष को सींचने में लगा देती है। युगों की धमनियों में यह खून अनंत काल तक दौड़ता रहेगा... ‘नश्वर स्त्री पुरुष को अमर कर देने में भी सक्षम है,’ अपनी कजलाई आँखों में कौंध भरकर उसने एकदिन कहा था। सुनकर उसकी मसृन त्वचा पर मेरी अबाध्य अँगुलियाँ ठगी-सी रह गईं थीं। क्या कहूँ कि उसकी बातें मुझे अक्सर निर्वाक कर जाती थीं।

अधिकतर संभोगरत होने के बाद जहाँ मैं पूरी तरह चुक जाने की मनःस्थिति में हो आता था, वह ज्वार उतरी नदी की तरह शांत, धीर पड़ी रहती थी। उसकी देह की जमीन लश्कर गुजरी फसल की तरह रौंदी हुई दिखती थी, मगर वह प्रकृति की तरह शांत, संयत रहती थी - बार-बार सँभल जाने की अनंत संभावनाओं के साथ। झंझा क्षण के लिए होती है, परंतु सृष्टि सनातन, यही प्रतीति उसके सानिध्य में होती रहती थी।

एकबार मेरी बाँहों में किसी नदी की तरह सरसराते हुए उसने कहा था - औरत नदी की तरह होती है अशेष, कहीं ठहरती नहीं, मगर अपने किनारों में जीवन को ठहराव देती जाती है। सारी महान सभ्यताओं का इतिहास देख लो, किसी न किसी नदी की देन है। दरअसल नदी जहाँ भी जाती है, जिंदगी वहीं चली आती है।

उस समय मैं उसे अपनी बाँहों में न बाँध पाने की विवशता में विक्षुब्ध हो रहा था। उसे पूरी तरह पाने की, जीने की दुर्दांत इच्छा में मैं प्रायः उसे बिस्तर पर बुरी तरह रौंद डालता था, उसमें गहरे तक उतरकर उसकी सीमा थाह लेना चाहता था। मैं कभी कितना नादान हुआ करता था, क्षितिज की धूमिल रेखा को आकाश की सीमा मान बैठा था!

मैं चाहता था, वह एक विग्रह की तरह मुझे अपने अंदर स्थापित कर ले, मुझे साँस-साँस जीए, अपने रगो-रेश से सींचे और और जन्म दे। एक टिपिकल पुरुष की तरह अधिक से अधिक अपने बीज फैलाने की अपनी आदिम प्रवृत्ति में मैं उसे भी अपने औरस से फलीभूत देखना चाहता था शायद। यही मेरे सनातन दंभ की तुष्टि थी - चरम तुष्टि... उसमें स्खलित होकर मैं उसके अंदर इतना फैलना चाहता था कि फिर वह ‘वह’ न रहे, ‘मैं’ बन जाय।

ओह! मेरा वह विवेकहीन अहंकार... औरत को उसके स्त्रीत्व से बेदखल कर देने की पुरुष की ये सनातन साजिश... मैं कहाँ सफल हो पाया, बल्कि कोई भी कब सफल हो पाया! इस आदिम षड्यंत्र की असफलता प्रकृति की सबसे बड़ी सफलता है, जानता कब से था, मानने का नैतिक बल अब कहीं जाकर जुटा पाया हूँ।

दामिनी के संसर्ग में सोचने लगा हूँ, ये असहाय-सी औरतें दरअसल कितनी सक्षम होती हैं। मर्दों को आकंठ लेती हैं, स्वयं में उतरने देती हैं, फिर विधाता की गढ़ी हुई रचना को अपने साँचे में ढाल उसे दुबारा पैदा कर देती है - उसकी कमियों में अपनी पूर्णता का मिश्रण करके! मर्द उसकी देह की कई इंचें नापकर विजय उत्सव मना लेता है, मगर औरत उसे सोखकर, अणु-अणु जीकर फिर वापस उगल देती है। समंदर की तरह का उसका यह व्यवहार, किसी से कुछ न स्वीकारना, लहरों के हाथों सबकुछ किनारे पर लौटा जाना... उसकी गरिमा है या दंभ, स्वयं विधाता को भी मालूम है क्या...

परिचय के न जाने कितने दिनों बाद उसने मेरे सामने अपने निविड़तम मन की गाँठें खोलनी शुरू की थी - बहुत आहिस्ता-आहिस्ता... जैसे कोई तृषित पशु सतर्क होकर पानी की ओर बढ़ता है - एकबार उसने कहा था, शायद न चाहते हुए भी, किसी संवेदनशील क्षण में -

एक समय था जब मुझे लगने लगा था, मेरे अंदर कोई हँसी या खुशी नहीं बची है। कोई पराग अब मुझे फूल नहीं बना सकता। एकदम ऊसर, बंजर बन गई हूँ... मरु की तरह... जानते हो अशेष, मेरी माँ को मेरी पापा की चुप्पी ने मार डाला था। वे उनसे बोलते नहीं थे। यह दुनिया की क्रूरतम सजा है... आखिर तक वे दीवारों से बोलते-बोलते पागल करार दे दी गई थीं!

मैं महसूस कर सकता था, अपने कहे हुए शब्दों के तासीर से वह अंदर तक लरज रही थी, किसी सूखे, पीले पत्ते की तरह - वे सबसे हँसते-बोलते थे - घर की नौकरानी से, ऑफिस के चपरासी से, पड़ोसियों से, यहाँ तक कि घर के कुत्ते, बिल्ली से भी... मगर माँ को देखते ही उनके चेहरे पर मौन पसर जाता था। वे एकदम से चुप हो जाते थे। ये उनका तरीका था - माँ को सजा देने का! मगर किस बात की, माँ आखिर तक जान नहीं पाई।

इस इमोशनल अत्याचार का कोई हल नहीं था उनके पास। वह शिकायत करती भी तो क्या और किससे।

ऐसे अत्याचार के निशान जिस्म पर नहीं पड़ते। न खून बहता है, न जख्म होता है। इनसान समाप्त हो जाता है बिना किसी प्रत्यक्ष आघात के... आदमी जिंदा रहता है, मगर मर जाता है... मनोविज्ञान में इसे नॉन भरवल एग्रेशन कहा जाता है... वह ठहरकर बोली थी - बहुत बाद में यह बात समझ पाई थी, कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ते हुए...

जानते हो, आदिवासियों के एक समुदाय विशेष में कैसा चलन है? जिस पेड़ को वे गिराना चाहते हैं, उसपर कुल्हाड़ी नहीं चलाते, बल्कि उसे चारों तरफ से घेरकर रोज गाली-गलौज करते हैं, अपशब्द बोलते हैं। कहा जाता है, देखते ही देखते वह हरा-भरा पेड़ सूखकर जमीन पर गिर जाता है... ऐसा ही कुछ हुआ था मेरी माँ के साथ, उन्हें बिना छुए सिर्फ अपनी अवज्ञा और चुप्पी से पापा ने उन्हें मार दिया था।

माँ पहले-पहल समझ नहीं पाती थी। आखिर उनके समर्पण और एकनिष्ठ प्रेम का ये तो जवाब हो नहीं सकता था। पापा का मौन माँ को पागल बना देता था। जैसा कि मैंने कहा, अंत तक वे दीवारों से बात करने लगी थीं। एकबार उन्हें पापा की आवाज में बोलते हुए सुनकर मैं बहुत डर गई थी अशेष। लगा था, माँ सचमुच पागल हो गई है। वह अपना ही नाम लेकर बार-बार पुकार रही थी। मेरे उनके झिंझोड़ने पर वे हँसते हुए बोली थी, तेरे पापा मुझे प्यार से इसी नाम से पुकारा करते थे, शादी से पहले... ऐसा कहते हुए उनकी तरल आँखों की चावनी में अजीब उन्माद था। उस रात मैं सो नहीं पाई थी किसी तरह।

उसदिन दामिनी शुरू से उदास थी। कहा था, आज मेरी माँ का जन्मदिन है। उसके घर पर दो-चार लोग आए हुए थे। उसकी कॉलेज के दिनों की सहेली और उसका पति, पति के दो मित्र। मुझसे मिलवाया था सबको। सिंगापुर में रहनेवाले, अलग मिजाज और कल्चर के। बड़ी आसानी से अपने बीच मुझे स्वीकार लिया था। कोई अवांछित प्रश्न नहीं, कौतूहल नहीं... आधुनिक शब्दावली में ‘कूल गाएज’...

सारा दिन सब समंदर के किनारे ऊधम मचाकर आए थे। अब पार्टी थी - एकदम अनौपचारिक और निजी। पीछे लॉन में चारकोल की खुली आग में मुर्गे और टायगर प्रॉन्स भूने जा रहे थे, नीबू के रस और तंदूरी मसाले के मिश्रण के साथ। हवा में उसी की सुगंध है। नरेन भूनते हुए मूर्ग की सुनहरी देह पर बार-बार पिघले हुए मक्खन का ब्रश फेर रहा है। कोयले की आँच में उसका चेहरा लाल भभूका हो रहा है। शायद नीबू के रस के साथ उसने अबतक बकार्डी के तीन-चार गिलसिया चढ़ा लिए हैं। दोपहर को भी उसने फेनी में लिमका मिलाकर पिया था।

दामिनी की सहेली मीता ने पीना कोलाडा बनाया है, नारियल का दूध, पानी, अनन्नास रस, व्हाइट रम, क्रीम मिलाकर। बकौल उसके पति के, वह दुनिया का सबसे अच्छा कॉकटेल बनाती है। मैंने भी पिया था। वाकई स्वादिष्ट था। काँच के लंबे गिलास में अनन्नास के कटे हुए टुकड़े और चेरी से बाकायदा सजाकर वह पेय सर्व कर रही थी - किसी कुशल विमान परिचारिका की-सी पटुता और और ग्रेस के साथ। पूछने पर दामिनी ने बताया था, वह वास्तव में सिंगापुर एयर लाइंस में बतौर एयर होस्टेस काम कर चुकी है। कुछ दिन पहले ही उसने नौकरी छोड़ी थी। उसे बच्चा होनेवाला था। सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ था। छोटी-सी हॉट पैंट और ब्रा में वह कहीं से भी गर्भवती नहीं दिख रही थी - वह भी पाँच महीने से!

मीता थोड़ी देर के लिए मेरे बगल में आ बैठी थी, शायद दामिनी के ही कहने पर। इधर-उधर की बातें होती रही थीं। उसी ने बताया था, उसकी माँ सिंगापुर की है। बाप भारतीय है, मगर सालों पहले उसके माता-पिता का तलाक हो गया है।

एक समय के बाद मुझे लगा था, वह बहक रही है। अपनी हथेलियों के बीच ड्रिंक के गिलास को गोल-गोल घुमाते हुए तंद्रालस आवाज में बोली थी, जैसे गुनगुना रही हो - मैंने गौर किया है कि यहाँ की औरतें समंदर में साड़ी पहनकर नहाने उतरती है। दैट्स वेरी फनी... आप हिंदुस्तानी लोग देह के संदर्भ में इतने कुंठित क्यों होते हो? इसे कोढ़ या पाप की तरह छिपाते हो...

मुझे उसकी बात नागवार लगी थी। मैंने आवेश में भरकर जबाव दिया था - ये शायद आप न समझ सको, हमारी स्त्रियाँ अपनी देह का सम्मान करती हैं, उन्हें नुमाइश का सामान नहीं समझतीं कि जिस-तिस के सामने उघाड़ती फिरें...
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

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आई सी... सुनकर वह अजब ढंग से मुस्कराई थी - तुम्हारे देश में औरतें अपनी मर्जी से कपड़े नहीं उतारतीं, मगर दूसरों की मर्जी से भरी सभा में उसके कपड़े उतारे जा सकते हैं... नहीं! ...पढ़ा था कहीं। मेरे चेहरे के कठिन होते भाव को देखकर वह कहते हुए ठिठक-सी गई थी। मगर उसकी बात सुनकर मैं भी गहरे असमंजस में पड़ गया था। क्या कहूँ यकायक सोच नहीं पा रहा था। मुझे चुप देखकर उसने झिझकते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई थी -

लिबास आराम और सुंदरता के लिए पहना जाता है - अपने को कलात्मक ढंग से छिपाने के लिए और दिखाने के लिए भी। कपड़ा तब गलत हो जाता है जब वह इनसान के लिए कैद या कारावास बन जाता है। पर्दे या हिजाब की शक्ल में कपड़ा खालिस गुनाह हो जाता है। ऊपरवाले ने जिस औरत को बड़ी मेहनत से रचा-गढ़ा है, उसे सात पर्दो से ढाँककर हम उसे ग्लानि में बदल देते हैं। क्या हम अपने सर्जक के इस अनुपम सृजन से इतना शर्मिंदा हैं कि उसे एक पाप की तरह छिपाते फिरते हैं? हम मिट्टी-पत्थर की इस दुनिया को खुली नजर से देख सकते हैं, मगर कुदरत की सबसे हसीन तोहफा औरत को नहीं देख सकते। उसे उम्रभर इस दुनिया की चहल-पहल और मेले से फरार रहना पड़ेगा, उस जुर्म के लिए जो उसने खुद किया नहीं है - अपने होने का जुर्म!

आप सोचिए एकबार, यदि ऊपरवाला औरत को इस दुनिया से छिपाकर ही रखना चाहता तो फिर उसे जल्वागर करता ही क्यों? रख लेता उसे अपनी तरह सूक्ष्म, निराकार करके... जो मिट्टी के बुत मालिक ने खुद रचे हैं, उससे नफरत करनेवाले या उसे जमीन से लापता करनेवाले हम बंदे कौन होते हैं।

उसकी बातें अनोखी थीं, एक नया दृष्टिकोण लिए। मगर मैं अब भी हारने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए अपने वक्तव्य के पक्ष में कुछ कहना जरूरी हो गया था, मगर क्या, अब भी सोच नहीं पा रहा था। मेरे चेहरे पर अंदरूनी द्वंद्व की छटपटाहट रिस आई थी शायद, जिसे देखकर उसने एक गहरी साँस ली थी - देवी, गृहलक्ष्मी जैसी उपाधियों से लादकर स्त्रियों के दमन और शोषण का इतिहास इस दुनिया में बहुत पुराना है। उस संस्कृति से औरत को क्या मिलने की उम्मीद की जा सकती है भला, जहाँ उसकी देह पर भी - जो उसका अपना प्रकृति प्रदत्त देश है - उसका अधिकार नहीं। अपनी इच्छा से वह अपने मन के पुरुष का वरण तो नहीं कर सकती, मगर दूसरों की आज्ञा से पाँच-पाँच पतियों को झेलने पर विवश जरूर हो जाती है। एक बात कहूँ, यहाँ धर्म की परिभाषा क्या है? एक असहाय स्त्री को जुए के दाँव पर लगा देना? एक औरत का दूसरी औरत को पाँच पुरुषों में बाँट देना? नमक का कर्ज चुकाने के लिए या बचन निभाने के लिए भीष्म जैसे किसी महावीर पुरुष का चुपचाप बैठकर एक अबला का चरम अपमान देखना...

आई फील लॉस्ट वेन आई थिंक...

अचानक मुझे लगा था, उसने हमारे पूरे अतीत को कठघरे में खड़ा कर दिया है। इस अतीत की विरासत लिए मैं वर्तमान में खड़ा-खड़ा स्वयं को किसी पुराने गुनाह का जिम्मेदार महसूस करने लगा था। इस अप्रिय प्रसंग को बदलने की गरज से मैंने पूछा था - आप यहाँ के विषय में लगता है, बहुत कुछ जानती हैं!

जी, मगर बहुत नहीं, थोड़ा बहुत। पहले पाँच वर्ष भारत में बिता चुकी हूँ। पहले हृषिकेश में दो साल थी, फिर बनारस, वृंदावन और अब आपके गोवा में।

अच्छा...! मुझे सुनकर सचमुच आश्चर्य हुआ था - आप इतने दिनों तक क्या करती रही है यहाँ?

पूरब को समझना चाहती थी, पश्चिम से मोहभंग हो गया था... अपने गिलास में बचे बीयर को उसने एक लंबे घूँट में समाप्त कर दिया था। मैंने फिर गौर किया था, अब उसकी पुतलियों का रंग बीयर की तरह हल्का भूरा हो आया था। कैसे मौसम और मिजाज के साथ क्षण-क्षण रंग बदलती थी उसकी आँखें... और त्वचा भी - उसकी मधु होती रंगत को देखकर मुझे खयाल आया था।

तेज हवा में अपने रूखे, चमकीले बालों को सहेजते हुए अचानक उसने पूछा था - आपकी शादी हो गई है? यहाँ तो शादी यूनिवर्सल यानी अनिवार्य होती है।

हाँ, मगर अब टूट भी रही है - थैंक्स टु योर वेस्टर्न कल्चर! मैं बीयर के हल्के सुरूर में अब कुछ ज्यादा ही तल्ख होने लगा था शायद। पता नहीं, यह आरोप किसपर थोप रहा था और क्यों।

उसकी आँखों में न जाने क्यों यह सुनते ही गहरी चमक भर आई थी। होंठों ही होंठों में मुस्कराते हुए कहा था - हाँ, आपके समाज में बढ़ते हुए तलाक की घटनाओं का ठीकरा पश्चिम के सर पर जरूर फोड़ा जा सकता है, मगर ये किसी फैशन की अंधी नकल नहीं, बल्कि वहाँ से आई चेतना की नई लहर का परिणाम है। यहाँ रिश्ता हमेशा से एक तरफा होता था - स्त्री की तरफ से। इसलिए निभ जाता था। जीवन और परिवार से मिली हर तकलीफ को औरत अपनी नियति मानकर सह लेती थी। मगर अब औरत समझ रही है, उसका भी जीवन और उसकी तमाम खुशियों पर उतना ही हक है जितना किसी और का। रिश्ते के नाम पर आजीवन एक बंधुआ मजदूर बनकर जीना अब उसे मंजूर नहीं। वह जीवन से अपना हिस्सा माँग रही है। उथल-पुथल तो मचेगी ही। इसलिए आपलोगों के समाज का यह सुदृढ़ किले जैसा ढाँचा चरमराने लगा है। अपनी गलतियों की जिम्मेदारी लेना आपलोग अब सीख लीजिए...

अचानक उसकी बातों से मेरे तन-बदन में जैसे आग लग गई थी। अंदर का कोई घाव दगदगा आया था। चोट पहुँचाने की एक हिंस्र इच्छा से भरकर मैंने कहा था - आप बहुत गलत ढंग से चीजों को देख-समझ रही हैं। पश्चिम की रंगीन ऐनक से आप पूरब की सात्विक संस्कृति को समझ नहीं पाएँगी। मेरे लहजे की धार से उसने यकायक मुझे देखा था - आप मेरी बातों का बुरा न मानें। आप के सामने अपने विचार रख रही हूँ। आप पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं... जी बिल्कुल! मैंने स्वयं को संयमित किया था। ‘देखिए आप की सभ्यता में स्त्री को बहुत बड़ी-बड़ी उपाधियों से विभूषित किया गया है, मगर जब यथार्थ को देखती हूँ तो मन में सवाल उठते हैं।।

‘आपके कनफ्यूजन को समझ सकता हूँ, मगर आप को समझना पड़ेगा, यहाँ की औरतें अलग ही मिट्टी की बनी होती हैं। उनकी सोच, प्रकृति और चरित्र बिल्कुल अलग होती है। हमारी औरतें त्याग, प्रेम तथा सहनशीलता की प्रतिमूति होती हैं। एक तरह से उन्हीं के बल पर हमारे देश और समाज का पूरा ढाँचा बँधा और खड़ा हुआ है। इसलिए तो वे यहाँ पूजनीय हैं। ऐसे ही नहीं कहा गया है कि ‘नारी, तुम सिर्फ श्रद्धा हो।’

कहते हुए मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक हो उठा था। मगर मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर व्यंग्य की तीखी रेखाएँ खिंच गई थीं। मुझे एकबार फिर गुस्सा आने लगा था। मेरी हर बात पर वह तंज से मुस्कराती है! मुझे गंभीर होते देख अब वह भी गंभीर हो गई थी - आपलोगों की संस्कृति में आप लोगों ने स्त्रियों के लिए तरह-तरह के मिथों का निर्माण करके उन्हें उस इमेज के अनुसार जीने के लिए बाध्य कर दिया है। जो औरत उस इमेज की लक्ष्मण रेखा के अंदर जीए वह देवी, वर्ना छिनाल! अपनी आस्था, प्रकृति और मर्जी के अनुरूप जीनेवालों को कैसा सुंदर और सार्थक नाम दिया है आपलोगों ने। अन्याय सहकर चुप रहनेवाली और आँसू बहानेवाली सीता और द्रौपदी जैसी नारियों को आपलोगों ने अपनी औरतों का आदर्श बना दिया, मैत्रेयी, पुष्पा, घोषा, जाबाला जैसी औरतों को नहीं, जो मोम थीं तो पत्थर भी, बोलते हुए उसकी स्लेटी आँखों में कौंध भर आई थी। मुझे लगा, यह दामिनी के ही शब्द हैं - आज की औरत - बहुत जागरूक और आत्मविश्वास से लबरेज!

न चाहते हुए भी उसकी बातों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। क्या उसकी बातें अनर्गल थीं। वह अब भी आवेश में भरकर बोले जा रही थी - देखिए आपके धर्म और समाज ने औरतों को बहुत ऊँचा स्थान दिया है, मगर सिर्फ बातों में, व्यवहार में नहीं। जो स्त्रियाँ वेदों की ऋचाओं तक का निर्माण कर सकती है उसे कभी नरक का द्वार तो कभी ‘ताड़न की अधिकारी समझा गया? औरत को सिर्फ योनि मान लेना अपनी माँ को गाली देना है... सच, बहुत विसंगति है यहाँ की संस्कृति में। जो देवी है, वही बाँदी है...

मैं निर्वाक था। क्या कह सकता था। उसकी बातें नंगी और तीखी थी, मगर एकदम सच भी। यह एक विदेशी स्त्री का हमारी संस्कृति के प्रति व्यंग्य या कटाक्ष नहीं था, मैं समझ सकता था, बल्कि एक औरत होने की हैसियत से अपने ही दुख और प्रतिरोध वह पूरी संजीदगी से दर्ज करा रही थी।

उसकी बातें अभी खत्म नहीं हुई थीं, कह रही थी - जानते हैं, आज एक और कटु अनुभव हुआ। समुद्र तट पर एक व्यक्ति से परिचय हुआ तो थोड़ी देर में वह बदतमीजी पर उतर आया। मैं उस समय अकेली थी। साथ के लोग दूर पानी में नहा रहे थे। सोचा होगा कि स्वच्छंद विचारों की, देहवादी संस्कृति की उपज है,। आसानी से मान जाएगी...

- प्लीज नो... मैंने सख्ती से कहा था, मगर वह उद्दंड हुआ जा रहा था - वाई नॉट?

नो मींस नो... अचानक मेरी आवाज में इस्पात-सा कुछ कठिन घुल आया था। वह अचकचाकर रुक गया था। मैं उठकर खड़ी हो गई थी - आपलोग किसी स्त्री के खुले व्यवहार को इतना गलत तरीके से क्यों लेते हैं? इसे उसकी चरित्रहीनता का द्योतक मान लेते हैं। अपनी कमजोरियों का आरोपण आप दूसरों पर कैसे कर सकते हैं! हर संबंध का अंत इसी बिंदु पर हो यह जरूरी तो नहीं? सेक्स को लेकर इतनी ग्रंथि, इतनी कुंठा क्यों होती है आपलोगों में!

मगर आपलोग फ्री सेक्स को गलत तो नहीं समझते। अब वह डिंफेसिव होने लगा था - ये सब तो आप के कल्चर में खूब होता है, फिर इनकार क्यों?

हम जो करते हैं अपनी मर्जी से करते हैं, किसी दबाव या मजबूरी में नहीं। उन्मुक्त होने का अर्थ पशु होना नहीं है। हमारी भी पसंद-नापसंद और रुचि होती है... उसका नशा धीरे-धीरे काफूर होता जा रहा था। अब वह काफी सजग दिख रही थी। ‘आप पूरब के लोग खूब चरित्र की बातें करते हैं, मगर सिर्फ स्त्रियों के लिए... ये बहुत बड़ा दोगलापन है। आँकड़े बताते हैं, विश्व में सबसे ज्यादा भारतीय पुरुष ही वेश्यागमन करते हैं, वह भी शादी-शुदा पुरुष...’ तेज-तेज कदमों से चलती हुई मैं होटल की ओर लौटने लगी थी।

- आप ये सब क्यों कह रही हैं, आप पश्चिम की औरतें तो हम पुरुषों से भी ज्यादा आजाद हैं, मैंने भी सुना है, योरोप में हर तीसरा बच्चा नाजायज होता है... न जाने अब वह यह सब कहकर क्या साबित करना चाहता था। उसकी झल्लाहट को समझकर मैं चलते हुए व्यंग्य से मुस्कराई थी - आप को इस बात का ऐतराज नहीं है कि पश्चिम की औरतें इतना स्वच्छंद जीवन बिताती है। आपको इस बात का रश्क है कि पश्चिम में औरतों की देह उसके अपने अधिकार में है और वह सिर्फ अपनी मर्जी से अपना शरीर किसी को सौंपती है और उसका सुख लेती है। आपलोगों का सामंतवादी अहंकार इतना विकट है कि आपलोग स्त्री को भोगना भी अपनी इच्छा से चाहते हैं, उसकी मर्जी या रजामंदी से नहीं। हर जगह आपको अपना वर्चस्व चाहिए - बिस्तर में भी! प्रेम - तथाकथित प्रेम - में भी आधिपत्य की लड़ाई... अहम की अति है ये...

सुनकर मैं शर्मिंदा हो गया था। क्या कहता? एक समय के बाद दामिनी ने ही मुझे बचाया था। मुझे वहाँ से बुला ले गई थी। पीछे मीता जमीन पर लेटकर गाने लगी थी - ओसन ऑफ फैंटसी...

अपना-अपना गिलास लेकर हम कमरे में चले आए थे। दामिनी हल्का चिल करके व्हाइट वाइन पी रही थी। शायद यह उस व्हाइट वाइन का ही असर था कि दामिनी अपनी माँ की बातें करते हुए अनायास इस तरह से भावुक हो उठी थी उसदिन...

अँधेरे में देखे बगैर मैं जानता था, वह रो रही थी, उतना ही धीरे जितना संभव हो सकता था। मेरे उठने का उपक्राम करते ही हाथ बढ़ाकर उसने रोक लिया था - रोशनी मत करना अशेष, यही ठीक है। सोफे पर पड़ा-पड़ा मैं अँधेरे में ही उसे देखने की एक असफल-सी कोशिश करता रहा था। खिड़की पर उड़ते साँझ के रंग न जाने कब पुँछ गए थे। अब वहाँ अंधकार के तरल घोंसले पड़ चुके थे। पिछवाड़े के फूलते चंपा पर कोई रात का पक्षी रह-रहकर बोल रहा था। हवा में माधवी के फूलों की कड़वी-मीठी गंध थी। मैं डूबने-सा लगा था। अंदर उदासी की कोई गहरी नीली नदी बह निकली थी। मैं शायद दामिनी की मनःस्थिति में हो आया था।

अक्सर ऐसा हो जाता था - मैं दामिनी के साथ देह के ही नहीं, भाव के स्तर पर भी एकमेव, एकसार हो जाया करता था। कभी-कभी प्रतीत होता था, मैं उसकी देह की ढूँढ़ में उससे भी आगे चला जा रहा हूँ। ये खयाल मुझे सहमाता था। मैं असुरक्षा की भावना से घिर जाता था। अपनी इस मनःस्थिति को मैंने कभी गंभीरता से लेने का प्रयास भी नहीं किया था। मगर ये अंदर ही अंदर हरदम बना जरूर रहता था।

दामिनी की परछाई धीरे-धीरे हिल रही थी, खिड़की के उड़ते पर्दे की तरह -
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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Re: औरत जो एक नदी है

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पापा माँ की बातों का जबाव देना तो दूर, उन्हें सुनने का मर्यादाबोध तक नहीं देते थे। उनकी गहरी उपेक्षा ने माँ के आत्मविश्वास को खत्म कर दिया। वह एकदम असहाय, निर्बल हो गईं। हीन भावना से ग्रस्त। ठुकराई हुई, परित्यक्त... दामिनी उठ खड़ी हुई थी, अँधेरा हिला-डुला था, उसमें भँवर-से पड़े थे। मैं मौन ही रहा था। यही, इसी तरह इस समय उसके साथ होना था।

वह बोलती रही थी - और आखिर एकदिन वही हुआ जो होना था - पापा की चुप्पी ने धीमे जहर की तरह माँ की जान ले ली! वे अपनी निसंगता के कारावास में रातदिन घुटती हुई पापा के मुँह से अपनेपन के दो अदद बोल सुनने के लिए तरस-तरसकर मर गईं...

अपनी बात के अंतिम सिरे तक पहुँचते हुए दामिनी की आवाज पानी होने लगी थी। वह पिघल रही थी, आवाज से देह तक... मैं उसके बहाव में शामिल था, बिल्कुल चुपचाप। अंधकार में पिघले मोम की तरह उसके स्वर की तरलता फैल रही थी - ऊष्ण, आँच देती हुई, रुक-रुककर, मगर निरंतर... मैं जज्ब हो रहा था - सारा का सारा -

'उस दिन शायद पहली बार माँ के न बोलने ने पापा को चौंकाया था। उन्होंने बढ़कर उनका ठंडा पड़ा हाथ छुआ था। पुकारा था - रूप! ...कई बार, बिना रुके - रूपऽ... रूपऽऽ। माँ की पथराई हुई आँखों में अनकहे शब्दों का नीरव जमघट था, मगर स्वर नहीं। वह अपनी सारी कही-अनकही समेटकर चुप्पी के मूक संसार में खो गई थी - इस बार हमेशा के लिए... वह निर्वाक प्रश्न बनी पापा को देखती-सी पड़ी थीं।

उसदिन अचानक माँ के हिस्से का सन्नाटा पापा को मिल गया था। वे बुरी तरह घिर गए थे। और दहल भी। किसी गूँगे के अंदर का मूक हाहाकार उनमें फट पड़ा था। वे खूब रोए थे। अब कोई नहीं था, जिसे पीड़ा पहुँचाकर उन्हें सुख मिलता - अपना परवर्टेड सुख!'

दामिनी की आवाज में अजीब धार आ गई थी, जैसे वह शब्दों के टुकड़े कर रही हो, एक ठंडी घृणा और वितृष्णा से -

'पापा का साम्राज्य छिन गया था, सत्ता चली गई थी। माँ ने हारकर उन्हें सिरे से हरा दिया था। ये हार उनसे बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी। यही तो एक जगह थी जहाँ आकर उनके अहम को तुष्टि मिलती थी। सारी दुनिया का गरल यहीं तो उलीचा जा सकता था। अपने जीवन में वे एक असफल व्यक्ति रह चुके थे - हर अर्थ में, हर संदर्भ में। अब जो माँ नहीं थीं, पापा का कुछ नहीं था, कहीं भी, कोई भी। वे एकदम से कंगाल हो गए थे।

अचानक दामिनी की आवाज सहज हो आई थी। वह स्वयं को समेटने का प्रयत्न कर रही थी। कुछ देर बाद उसने ठहरे लहजे में कहा था - जहाँ से माँ के सन्नाटे का दौर समाप्त हुआ था, पापा का वहीं से शुरू हुआ था। वे दुनिया को क्या, स्वयं को भी भूल गए थे। उनकी आवाज खो गई थी, बोल भी नहीं पाते थे। माँ की तरह दीवारों से बोलने का सुख भी उन्हें नहीं मिला था। उनको अंततः अल्जाइमर हो गया था - भूलने की बीमारी...

कमरे का माहौल बोझिल हो आया था। अनायास, जैसे प्रसंग बदलने के लिए दामिनी उठकर फ्रिज तक गई थी। फ्रिज के अंदर से आती हुई रोशनी की पृष्ठभूमि में उसका पूरा आकार स्पष्ट होकर उभर आया था। मैंने शायद पहली बार गौर किया था, उसकी बाँहें दुबली और कंधे चौड़े हैं। नीचे - पतली कमर से नीचे - उसके कूल्हे भारी और सुडौल थे। यकायक मेरे अंदर आँच की एक सुनहरी नदी-सी फूट आई थी। अपना बीयर का गिलास मेज पर रखकर मैं उठकर पीछे की तरफ से उससे लिपट गया था। मेरे इस तरह अचानक लिपटने से वह चौंक गई थी। उसके हाथ से चेरी का दोना जो उसने अभी-अभी फ्रिज से निकाला था, छूटकर नीचे गिर गया था। वह उन्हें सहेजने के लिए नीचे झुकना चाह रही थी, मगर मैं उसे बिस्तर पर खींच लाया था।

वह हल्के से कसमसाई थी- अशेष...! दूसरे कमरे में गार्गी ने अचानक किसी बात पर जोरदार ठहाका लगाया था। साथ में लायलन रिची का स्वर गूँजा था - सांद्र और हल्की - साँझ की हल्की गर्म हवा में उदास चाहना और कशिश से थरथराती हुई - हलो! इज इट मी यू आर लुकिंग फॉर...।

दामिनी एकबार फिर कसमसाई थी - अशेष, अभी नहीं, घर में इतने सारे लोग हैं...

- कोई नहीं आएगा, सब अपने में खोए हैं... सच, इस तरह से यह ज्यादा एक्साइटिंग होगा... मैंने बेसब्र होकर उसका आँचल खींच लिया था। तरल अंधकार में उसका शरीर किसी कांस्य प्रतिमा की तरह चमक उठा था। मुझमें अब ज्यादा धैर्य नहीं रह गया था। बंधन से मुक्त होते ही उसकी देह की नर्म रेखाएँ सिहरकर कठिन हो आई थीं। अँधेरे में वे हल्के आब से चमकते दो सुडौल मोती की तरह दिख रहे थे। उत्तेजना से थरथराता हुआ मैं उसकी देह की गर्म नदी में उतर गया था... वह भी अब स्वयं को अधिक रोक नहीं पाई थी। हम दोनों के जिस्म की कैफियत उस क्षण एक-सी ही थी... आसपास लोग चल-फिर रहे थे, हँस-बोल रहे थे। कटलरी की ठुनक, काँटे, चम्मच की अनवरत आवाज, संगीत... एकबार मीता कमरे में आकर दरवाजे के पास पड़ी कुर्सी से टटोलकर अपना पर्स भी उठा ले गई थी। मैंने अपनी हथेली से दामिनी के होंठों से बेतरह निकलती सिसकियों को बेरहमी से दबाया था। मगर मेरी साँसें उससे भी तेज होकर सुनाई पड़ रहीं थीं। लेश के उड़ते हुए पर्दे से दूसरे कमरे की रोशनी आकर सीधे दामिनी के अनावृत शरीर पर पड़ रही थी। सुनहरे आलोक में नर्म उठानों की गुलाबी नोंक बँधी कलियों-सी झिलमिला रही थी। ये उभरती आवाजें, कोलाहल... आसपास इतने सारे लोगों का होना और उन सब के बीच बिना दरवाजा बंद किए एक तरह से खुलेआम हम दोनों का एकसार होना मुझे खासा रोमांचकरी लग रहा था। थोड़ी देर के प्रतिरोध के बाद दामिनी ने स्वयं को ढीला छोड़ दिया था।

फीके-से जामुनी अंधकार में उसके होंठों को चूमते हुए मैंने उनपर फैले आँसुओं के गीलेपन और नमक को महसूस किया था। वह निःशब्द रो रही थी। न जाने क्यों उसके आँसुओं से भीगे नमकीन होंठों के स्वाद ने मुझे और भी उत्तेजित कर दिया था। मैं ज्यादा आक्रामक हो उठा था। मेरे प्रहार तेज हो गए थे। साथ में दामिनी की सिसकियाँ भी...

आगे चलकर एकदिन दामिनी ने ही बताया था, उसके पापा की एक अजीब आदत थी। वे माँ से नहीं के बराबर बोलते थे। माँ जब कभी इस बात की शिकायत करते हुए रो पड़ती थीं, वे यकायक उत्तेजित हो उठते थे और माँ को बिस्तर पर उठा ले जाते थे। उन्हें माँ के आँसू एक्साइट कर देते थे। वे अक्सर कहते थे, मधु, रोते हुए तुम्हारी आँखें इतनी खूबसूरत लगती हैं... कई बार तो इसीलिए मैं जानबुझकर तुम्हें रुला देता हूँ। माँ ने अपनी डायरी में लिखा था - न जाने क्यों उन्हें पापा की ये बात सुनकर अच्छा लगा था।

सुनकर मैंने उसके बाल आहिस्ता से खींच लिए थे - चलो, फिर अब मैं तुम्हें रुलाता हूँ... वह सचमुच रोने लगी थी और मैं उत्तेजित हो उठा था! उसदिन हमने दोपहर का खाना भी नहीं खाया था। न जाने कब दिन रात में ढल गया था। दामिनी इस दौरान निरंतर रोती रही थी। मैंने उसे चुप होने नहीं दिया था। इसके बाद कई दिनों तक वह खुश रही थी और हल्की भी - किसी बरसे हुए बादल की तरह... ऐसे में मुझे उसे देखकर खयाल आया था, क्या वास्तव में 'वुमन लाइक ब्रूटस्'...?

एकबार दफ्तर में पार्टी के दौरान हमारा सहकर्मी हेमंत कुलकर्णी औरतों के विषय में अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए बोल रहा था - बालों से पकड़कर औरतों को घसीटो, वे बाध्य रहेगीं...

कौन-सी बात सही थी! दामिनी कहती थी - माँ की कोमलता से रची गई हूँ, इतनी मजबूत तो हूँ ही कि अपने आँसुओं का तटबंध बन सकूँ... मुझे याद है, न जाने किन स्मृतियों में भटककर उसदिन वह रोई थी और फिर अपनी दुर्बलता पर शर्मिंदा हो उठी थी। हँसते हुए अपनी आँखों की नमी को टाला था। ऊपर की तरफ देखते हुए पलकें झपकाती रही थी।

उसकी दुर्बलता के इन क्षणों को मैं अदेखा कर जाता था। जानता था, उसे अपना इस तरह पकड़े जाना पसंद नहीं। हम दोनों शाम की चाय पी रहे थे। उसदिन मैं दफ्तर से सीधे उसके कॉटेज पर पहुँचा था। उसी ने बुलाया था। कह रही थी, अच्छा नहीं लग रहा, बस तुम चले आओ...

चाय का कप मेज पर रखकर वह बॉल्कनी में उठ गई थी। खिड़की पर झुका मौलसिरी का पेड़ फूलों की हल्की, रंगीन मुस्कराहट से भरा हुआ था। हवा पर रह-रहकर झूलती हुई उसकी डाले काँच पर दस्तक-सी देती हुई दुहरी हो रही थीं। आज आकाश का रंग फीका नीला था। वह उसी की तरफ देखती देर तक खड़ी रही थी। और फिर मेरी तरफ मुड़ी थी, अपनी आँखों में वही बचपन और कौतूहल लेकर - अच्छा अशेष, आज हवा में ये कैसी गंध है?... देह का रगो-रेश भीगा जा रहा है। जैसे अंतर में डूब रही हूँ...

मैं मुस्कराकर रह गया था। क्या कहता कि ये तुम हो - इस गंध का उत्स... बिचारी कस्तूरी मृग - अपने ही ऐश्वर्य के तिलिस्म से छली हुई। एक साकार पहेली बनकर वह मेरे सामने खड़ी थी और इतने पास होकर मैं उसकी दुरूह गिरहें सुलझा नहीं पा रहा था। कौन-सी बात इस औरत को छूती है, क्या है जो इसे उदास कर देती है या बहुत-बहुत खुश...

कहते हैं, यदि जानना है कि 'व्हाट टिक्स ए वुमन', उसे बिस्तर पर ले जाओ। बहुत गलत है। एक औरत बिस्तर पर कभी पूरी होती ही कहाँ है! वह तो आधी अपनी रूह में, आधी अपनी मुहब्बत में होती है। बिस्तर पर उसके वजूद का बचा-खुचा हिस्सा ही मिल पाता है, खासकर उनके लिए जो देह की मिट्टी कुरेदने में लगे रहते हैं - उसकी अंदरूनी जरूरत और खूबसूरती से बेखबर... बकौल दामिनी के - ब्लडी स्केभंजर... 'जूठे पत्तल चाटकर पुरुष महाभोज के गफलत में तृप्ति की डकारें लेता रहता है।'

- कभी दामिनी ने ही किस गहरी वितृष्णा से भरकर ये बात कही थी। सुनकर मेरे अंदर का कोई गोपन हिस्सा शून्य हो आया था।

कभी-कभी मुझे शक होता था, दामिनी को पुरुषों से घृणा है। इसके पीछे उसके मन की कोई अनसुलझी ग्रंथि होगी, जिसकी जड़ें शायद उसके बचपन की नर्म जमीन पर गहरे उतरी हुई हैं। अब दामिनी ने स्वयं को मेरे सामने आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, खोलना शुरू कर दिया है। उसकी बातों से प्रतीत होता है, उसके अंदर कोई पुराना घाव है जो समय के साथ पुर नहीं पाया है, बल्कि नासूर बन गया है। वह बड़े यत्न से उसे छिपाने की कोशिश करती है, मगर गाहे-बगाहे वह दिख ही जाता हैं। तब महसूस होता है, ये खूबसूरत इमारत वास्तव में एक मकबरा ही है - ताज महल की तरह! ...अपने अंदर मौत की अनंत चुप्पी और नींद समेटे हुए चाँदनी रातों में जागने के लिए युगों से अभिशप्त...

ऐसे मौकों पर कितनी खूबसूरत लगती है सगंमरमर में गुँथी हुई प्रेम की ये उजली कहानी... मगर इस बेपनाह हुस्न के होने की रूहानी विडंबनाओं को कोई समझता भी है! दामिनी की स्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी - एक खूबसूरत जिस्म, एक उदास रूह... अब उसके लिए मेरे लगाव में हमदर्दी भी आ जुड़ी थी। एक अनाथ बच्चे की तरह उसे अपनेपन और प्यार की जरूरत थी। इसी की तलाश में वह मेरे पास आई थी। मुझे पनाह देना ही था। अपने अनजाने ही न जाने कब मैं उसका आश्रय बन गया था। ये एक जिम्मेदारी थी जिसे मैं पूरी ईमानदारी से निभाना चाहता था। एक तरह से यह एक भरपाई थी मेरे लिए, जो मुझे करनी ही थी, बचपन का कोई उधार, अबतक जो रह गया था।

...वर्षों पहले बरसात की एक रात एक बुरी तरह से भीगा हुआ घायल कबूतर हमारे आँगन में आ गिरा था। तब मैं शायद आठ-दस साल का रहा हूँगा। पिताजी ने उसके पैर में दवाई लगाकर पट्टी बाँध दी थी। मैंने एक टोकरी के नीचे उसे ढँककर बरामदे में रख दिया था। सुबह माँ की आवाज सुनकर शायद मेरी आँख खुल गई थी। बाहर आकर देखा था, फर्श पर चारों तरफ उस कबूतर के नुचे हुए पंख पड़े थे। खून के धब्बों पर बिल्ली के पंजों के छोटे-छोटे निशान - नीचे सीढ़ियों की तरफ जाते हुए... रात बारिश के साथ बहती तेज हवा में कमरे की कोई खिड़की खुल गई होगी...

मैं खड़ा रह गया था - एकदम सन्न! एक असहाय, घायल पक्षी हमारी शरण में आया था, मगर हम उसकी रक्षा नहीं कर पाए थे! इस घटना के बाद न जाने कितनी रातों तक मैं सो नहीं पाया था। अपराधबोध के गहरे दंश ने मेरी नींद उड़ा दिया था। बारिश की तूफानी रातों में मुझे पंखों की बेकल छटपटाहट सुनाई पड़ती थी, नींद में रक्त के धब्बे-से बनते-बिगड़ते रहते थे। ओह! कैसा आतंक होता था उन क्षणों का - सनसनाते हुए नीले बवंडर में घिरे हुए...

इस बार मैं इस पक्षी को मरने नहीं दूँगा... मैंने सोच लिया! इन दिनों मैं प्यार में था, इसलिर जाहिर है, बहुत अच्छा बन गया था, बचपन की तरह... ये जज्बा इनसान के अंदर की अच्छाइयों को ढूँढ़कर जीवित कर देता है, एकबार फिर से, यदि खो गया होता है तो!

दामिनी के शरीर की तरह उसका मन भी सुंदर था। शायद इसलिए कि वह प्यार में थी, बकौल उसके - हमेशा से। कहती थी, स्वयं को मेरे समक्ष ईमानदारी से रखते हुए, किसी गहरे आत्मीय क्षण में - अशेष! मैं प्यार में हूँ और सदा से हूँ, तभी शायद इतनी संवेदनशील और पारदर्शी हूँ कि सारे मौसम मुझसे होकर निर्द्वंद्व गुजर जाते हैं - अपने तमाम मिजाज और तेवर के साथ। मैं आँख मूँदकर फूलों का खिलना और तारों का टूटकर गिरना महसूस कर लेती हूँ, किसी का दुख मेरे लिए पराया दुख नहीं है, न किसी के सुख से ही मैं अनजान, अछूती हूँ। तभी शायद हर खुशी में उदास रहती हूँ और हर उदासी में कोई न कोई खुशी ढूँढ़ लेती हूँ...

दामिनी अपने खयालों की तरह ही खूबसूरत और अनोखी थी - हर अर्थ में! उसकी कौंधती हुई आँखों के नीचे उसकी देह का हर अवयव सुंदर था- किसी चंचल, उत्ताल बहती नदी की तरह! अपने तमाम उतार-चढ़ाव के साथ... उसकी हरी-भरी रगों में जीवन पक्षी की तरह चहचहाता था। नाभि की मादक गहराई कमल पत्ते की तरह जल की ढेर सारी बूँदें अपनेआप में सँभाले रख सकती थी। प्यार का लावण्य उसके चेहरे पर मोतिया आब की तरह टलमलाता था। न जाने क्या था उसके चेहरे में, मगर मेरे लिए सबकुछ- सबकुछ था! कभी उसे तकते हुए मेरी पलकें जम जाती थीं और इसी तरह जैसे सदियाँ बीत जाया करती थीं। मेरा जीना-मरना - जो भी - उन्हीं क्षणों में घटता था।

वह अक्सर कहती थी, तुम्हारे संग बिताया हुआ हर क्षण मैंने अपने अंदर सँजों के रखे हैं। अंतस की दुनिया इन्हीं छोटे-छोटे तिलिस्म से बनी होती हैं। इस दुनिया को कभी मौत नहीं आएगी अशेष! हमारे - हमसब के मर जाने के बाद भी नहीं। कयामत के बाद की जिस मुकम्मल दुनिया की कल्पना की गई है न, ये वही दुनिया है - प्यार के मुकद्दस अहसासों की अमल दुनिया! उसकी बातों को सुनते हुए मै उसे देखता रहता था। वह उन विलक्षण क्षणों में कोई साधारण स्त्री नहीं रह जाती थी - देह के संदर्भ में! खुशबू की पारदर्शी नदी बन जाती थी - अपने जिस्म से परे - भावनाओं के आकुल आवेग में अपने सारे तटबंध तोड़ती हुई, किसी समंदर के आजन्म तलाश में... अहसासों की दुनिया...

दामिनी के सुंदर मन की झलकियाँ मुझे उसके व्यवहार में सहज ही मिल जाया करती थी। जैसे उस दिन आवेग से भरे एक निहायत निजी क्षण में उसने मुझसे अचानक पूछा था - उमा कैसी है अशेष? मैं उसमें डूबा हुआ था। उसी मनःस्थिति में कुछ ताच्छ्लिय से कह गया था - ठीक ही होगी! उसने झट आपत्ति की थी - नहीं, ये ठीक नहीं अशेष - तुम्हारा रवैया... प्यार पर अपना वश नहीं होता, मगर जिम्मेदारी... वह निभानी होती है - हर हाल में! उमा, बच्चे तुम्हारी जिम्मेदारी हैं। मेरे लिए यदि तुम उनकी अवहेलना करने लगे तो मैं स्वयं को दोषी मानने लगूँगी... मैंने अँधेरे में उसका चेहरा देखने का प्रयत्न किया था, उसमें संजीदगी थी - उसके शब्दों की तरह ही...

दामिनी के मेरे जीवन में आने के बाद मुझे गोवा का ये नया जीवन, इसका अनोखा माहौल रास आ गया था। पहले समय रेंगता था, अब उन्हें पंख मिल गए थे - कैसे और कब गुजर जाता था, पता ही नहीं चलता था। मैंने अबतक कोई नया मकान ढूँढ़ने का प्रयत्न भी नहीं किया था। दफ्तर से मुझे कई मकानों की उपलब्धता की सूचना भी दी गई थी, मगर मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गईं थीं और उमा कुछ दिनों के लिए यहाँ आना चाहती थी। रोज कोई न कोई बहाना करके मैं उसे टाल रहा था। उसकी आवाज में घुली निराशा को महसूस कर मैं दुखी हो जाता था, मगर क्या कर सकता था, मैं भी निहायत मजबूर हो गया था। इस समय अपने परिवार को यहाँ लाकर मैं दामिनी का साथ खोना नहीं चाहता था। उससे एक पल की दूरी भी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती थी। जीवन में पहली बार मैंने जाना था, जीना किसे कहते हैं, कैसे जिया जाता है। मैं जीना चाहता था - हर हाल में - सिर्फ दामिनी के साथ...

भीतर हर समय एक द्वंद्व-सा लगा रहता है - सही-गलत का, पाप-पुण्य का, मगर चलती मन की ही है। हर तर्क, बुद्धि, विवेक को ताक पर रखकर मैं इन दिनों जी रहा था, सिर्फ अपनी इच्छाओं के वश में होकर। इच्छा - दामिनी के साथ होने की, उसी में रस-बसकर खो जाने की, एकदम से निःशेष हो जाने की - हमेशा के लिए... अब मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य बस दामिनी थी, और कुछ नहीं। कई बार मैं उसे दीवानावार कह चुका हूँ - तुम, बस तुम! और कोई नहीं... मेरे उन क्षणों का सच था ये जब उसकी देह के सुख में मैं उभ-चुभ रहा होता था। उसके पार मुझे कुछ और नहीं सूझता था, सारे नाम, रिश्ते, चेहरे एक गहरी धुंध की चादर में खो गए थे, स्मृति के पार चले गए थे। बच गए थे हम - दामिनी और मैं - और कुछ नहीं...

दामिनी ने मुझे जीवन के न जाने कितने अनजाने, अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाया था। न जाने कितने रूप ते उसके, कितने चेहरे... हर बार मैं स्तंभित, अभिभूत रह जाता था। सारे रिश्तों का इकट्ठा रूप थी वह - अकेली ही तमाम रिश्तों की एक मुकम्मल दुनिया। कभी माँ की-सी ममत्व से भरी, कभी बहन की तरह शरीर, चंचल और कभी प्रेमिका की तरह रोमानी, हसीन...
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

Post by Jemsbond »

उसके साथ मैंने जीवन में पहले कभी न किए गए अनुभव किए थे - कभी वह मुझे तरह-तरह के मसाज देती - हॉट ऑयल मसाज, चिकनी मुलतानी मिट्टी का मसाज, और न जाने क्या-क्या। कभी दफ्तर के काम के बाद बिल्कुल चूर होकर उसकी कॉटेज पहुँचता तो वह मुझे सीधे अपने बाथरूम में खींच ले जाती। वहाँ बाथ टब पहले से तैयार होता - गर्म पानी में समुद्री नमक डला हुआ- हल्की, अनाम सुगंध से वाष्पित। साथ में छोटे-बड़े स्टैंडों में जलती हुई रंगीन, सुगंधित मोम बत्तियाँ, बर्फ में ठंडी होती शैंपेन की बोतल। विभिन्न आकार और रंग के तह किए हुए नर्म, मुलायम टॉवल, फूलों के ताजे गुलदस्ते...

मुझसे कहती थी, अपनी सारी इच्छाएँ बतलाओ, वाइल्ड फैंटेसी भी, मैं उन्हें पूरा करूँगी। मैं जानता था, वह - बल्कि वही - उन्हें पूरा कर सकती थी, कर रही थी... मुझे उसकी काबिलियत पर कोई शक नहीं रह गया था। एकदिन मेरे जिस्म पर बर्फ के टुकड़े फिराते हुए उसने कहा था, अपनी उसी सांद्र आवाज में - हमेशा की तरह उत्तेजक और गहरी - देह की सारी इच्छाएँ पूरी कर लो, वर्ना इसके तिलिस्म से कभी मुक्त नहीं हो पाओगे, भटकते रहोगे जन्म-जन्मांतर तक... इस देह से होकर ही मन का रास्ता जाता है। मन तक पहुँचने के लिए इस से होकर गुजरना ही पड़ेगा।

गुजरना क्यों? मैं तो यहाँ हमेशा के लिए ठहरने को तैयार हूँ... मैंने बर्फ का पिघलता टुकड़ा उसके हाथ से लेकर उसकी खुली बाँह से छुआई थी, मुस्कराते हुए।

यही तो तुम मर्दों की आदत है... रास्ते को अपनी मंजिल मान लेते हो। भूल जाते हो वास्तविक लक्ष्य। उसने आपत्ति की थी, बनावटी गुस्से के साथ।

देह का लक्ष्य देह ही है, और क्या! बर्फ का टुकड़ा उसकी ऊष्ण त्वचा पर अबतक पूरी तरह से पिघल चुका था। मेरी बात पर उसने सिहरते हुए अपना चेहरा दूसरी तरफ फेर लिया था - नहीं, ये लक्ष्य नहीं, सिर्फ साधन है - अपने साध्य तक पहुँचने के लिए...

मेरे लिए ये सब तुम ही हो, तुम चाहे इन्हें जिस नाम से पुकार लो। मैंने उसदिन उसके पाँव गेरू से रंग दिए थे, अपनी गोद में रखकर - ये है मेरी वाइल्ड फैंटेसी! हमेशा से चाहता था, प्रेम करने से पहले अपनी स्त्री के खूबसूरत, उजले पाँव रंग दूँ - इसी तरह... सबसे बड़ा उद्दीपन है ये मेरे लिए! न जाने क्या इंगित पाया था उसने मेरे कहे हुए शब्दों में, सुनकर उसका चेहरा आरक्त हो उठा था।

उत्तेजना के चरम पर पहुँचकर हम एकाएक रिक्त-से हो आए थे। ज्वार उतरी नदी की तरह शांत, शिथिल पड़े रहे थे देर तक। शिराओं में गुँजारते संगीत की हल्की, मद्धिम धुन सुनते हुए... मधु की अलस धार में आकंठ डूबे हुए... सर्जना का क्षण था ये। हमारे अंदर इच्छाओं की रेशम गाँठे सुलझाते हुए, चमकीला, सुंदर आँचल बुनते हुए... एक खूबसूरत पहेली को जिस्म से सुलझाकर हम उसी की मसृन डोर में अब न जाने कब से उलझे पड़े थे।

बहुत देर बाद दामिनी ने कहा था - उसी सांद्र, थकी हुई आवाज में, जैसे किसी स्वप्न में डूबी हो - पाने के किसी बहुत गहरे क्षण में ही सबकुछ खो जाने का अहसास क्यों होता है। संभोग के चरम सुख के ठीक बाद के गहरे अवसाद को तुमने महसूसा ही होगा... सबकुछ स्वादहीन और फीका लगता है - एकदम गलत, अबूझ ग्लानि से भर जाता है मन। लगता है, फिर कभी इस देह की ओर मन प्रवृत्त नहीं होगा। एक वैराग्य की-सी दशा... ऐसा क्यों होता है कि जब खुशियों के अतर से रूह सराबोर हो उठता है, पलकों में नमक का समंदर उतर आता है। एक मन मुस्कराहट के नन्हें, शरीर बुलबुलों से लबरेज हो इंद्रधनुष के हजार रंगों में फूट पड़ना चाहता है तो दूसरा मन दर्द के कगार पर टूटने-टूटने को हो आता है।

दामिनी का चेहरा गहरी सोच और अनुभूति के इस क्षण में कितना अलग-सा दिख रहा है। ठीक जैसे वह उम्र के कई वर्ष एक ही साथ लाँघ गई हो। चेहरे की रेखाएँ भी गहरी हो रही थीं, आँखों के रंग की तरह। अचानक वह मेरी तरफ मुड़ी थी और फिर एक गहरी साँस लेकर सामने की कुर्सी पर बैठ गई थी - शायद तुम भी जानते हो, सुख और परितृप्ति का क्षण ही वास्तव में गहरी पीड़ा और शोक का क्षण होता है... जीवन की कई विडंबनाओं में से यह भी एक है। जब बहुत खुशी मिलती है, रोने को मन करता है। एक बिंदु पर जाकर सुख-दुख का भेद खत्म हो जाता है। दोनों एक-से लगने लगते हैं, एक-सी प्रतीति कराते हैं...

उसका अंदाज फलसफाना हो गया था। वह अपने में खोई-सी बोली थी - कभी सोचती हूँ कि अपने लिए खुशियों का पीछा करना दरअसल दुखों का पीछा करना ही है - सोने के हिरण की तरह...। हम न जाने किस वहम में क्या जीते चले जाते हैं। बहुत दूर निकलकर पता चलता है, कहीं पहुँचे ही नहीं।।

- कभी-कभी कहीं पहुँचना नहीं, सिर्फ चलना अहम होता है... न जाने मैं उसे क्या समझाने की कोशिश कर रहा था - खासकर तब जब साथ में कोई तुम्हारी तरह हसीन शख्सियत हो... मैंने अब उसका हाथ पकड़ लिया था - तुम हमेशा साथ चलो, मैं मंजिल की ख्वाहिश कभी नहीं करूँगा, सच...

वह यकायक शरमा गई थी। मेरे शब्दों का सुख उसे कहीं से छू गया था शायद। न जाने कैसी इच्छा और स्वप्न भरी आँखों से मुझे देखती रही थी - देरतक। इन लम्हों में वक्त ठहर जाता है, अपनी गति और हलचल के साथ। रह जाते हैं हम और हमारी अनुभूतियाँ... एक-दूसरे के लिए आत्यंतिक - गहरी और निविड़!

न जाने क्यों मैं अनायास पूछता हूँ - प्यार करती हो मुझसे? वह रँग जाती है ओर-छोर - अब ये मत पूछो...

क्यों? मैं पीछा नहीं छोड़ना चाहता।

- कितनी बार तो पूछ चुके हो, और मैं बता भी चुकी हूँ।

- बता भी चुकी हो तो फिर से कहो। बार-बार कहो, तुम्हारे मुँह से सुनना अच्छा लगता है...

- मैं तुमसे प्यार करती हूँ!

- नहीं! कहो, मैं तुमसे प्यार करती हूँ अशेष!

- हाँ, मैं तुमसे प्यार करती हूँ असेष...

- एकबार फिर...

- मैं तुमसे प्यार करती हूँ अशेष!

- फिर से...

- चलो हटो... बिस्तर से तकिया उठाकर उसने मुझपर दे मारा था। प्रत्युत्तर में मैंने उसे दबोचकर चूम लिया था। वह भी छूटने के लिए छटपटाने का स्वाँग भरते हुए मुझसे और अधिक लिपट गई थी। थोड़ी देर बाद जब मैंने कहा था, छोडो, साँस घुट रही है, वह शरमाकर मुझसे अलग हो गई थी।

अपनी शर्ट का ऊपरी बटन खोलते हुए मैं ईजी चेयर पर अधलेटा-सा बैठ गया था, सिगरेट की गहरा कश खींचकर हवा में धुएँ के छल्ले बनाते हुए। वह अपने बाल जूड़े में समेटकर मेरे करीब चली आई थी। मैं जानता था, वह सिगरेट छीनने की कोशिश करेगी, इसलिए परे हट गया था। उससे दूर। वह बुरा मानकर बाथरूम में घुस गई थी और देरतक वहीं घुसी रही थी। मुझे सजा देने का यह भी उसका एक तरीका था। मुझे उसकी इस बचकानी-सी हरकत पर हँसी आती रही थी। इतनी मैच्योर है, दुनिया-जहान की बड़ी-बड़ी गंभीर बातें करती रहती है और कभी इतनी बच्ची बन जाती है। सच, कितने और कैसे-कैसे रूप हैं इसके...

बहुत देर बाद वह बाथरूम से निकली थी, बिल्कुल हल्के-फुल्के मूड में, जैसे कुछ हुआ ही न हो। जाहिर है, वह हमेशा की तरह थोड़ी देर पहले की बातें भूल चुकी थी। आते ही अपने भीगे बालों को मुझपर झटकते हुए मेरे करीब बैठ गई थी -

अशेष। मैं यह कभी नहीं भूलूँगी कि तुमने मुझे फिर से ख्वाब देखना सिखाया है। जानते हो, इनसान सही अर्थों में तभी गरीब होता है जब उसके जीवन में प्रेम नहीं होता। मैं यह प्रार्थना करती हूँ कि हमेशा प्रेम में रह सकूँ, प्रेम देने और लेने में सदैव सक्षम रहूँ। आज की दुनिया की यही सबसे बड़ी जरूरत है...

कहते हुए उसकी आँखें दो गहरी काली झील में तब्दील हो चुकी थीं। मैं उसे देखता रह गया था। कितनी अजीब बात थी, अपने इन्हीं छोटे-छोटे मासूम सपनों से वह मेरे अंदर प्रेम के पौधे रोप देती है, पत्थरों पर फूल उगा देती है। उसकी अँगुलियों में ही नहीं, शब्दों में भी जादू है। गहरे परितोष के किसी क्षण में यह सोचना बहुत अजीब लगता है कि कभी हम तृषित भी थे। एक पल की परितृप्ति युगों की प्यास भुला देती है। ये करिश्मा प्यार का ही हो सकता है।

मैंने उसके भीगे बालों में अँगुलियाँ फिराई थीं - अच्छा दामिनी, तुमने इतने सालों का ये अकेला, उदास सफर कैसे तय कर लिया?

- कर लिया...

वह खामखयाली में मुस्कराई थी, जैसे आँखों में कोई बहुत पुराना बिंब हो - कठिन था, मगर तय कर लिया। उस सफर में मेरे पास कुछ नहीं था, मगर एक सपना था... यही बहुत था - होने के लिए...

मैंने उसकी आँखें चूम ली थीं - काँच के फूल जैसी लगती हैं तुम्हारी आँखें... आज इनसे एक सपना चुराना चाहता हूँ... चुरा लूँ? ...तुम्हारी इजाजत से...

- क्या करोगे उस सपने का?

- उन स्याह रातों के लिए बचाकर रखूँगा, जब चाँद का कंगन बदली में खो जाता है, और धूप का आईना भी चटक जाता है...

- ये तुम्हें क्या हो गया! कविता कर रहे हो, वह भी इस समय... उसने शरारत से मुस्कराकर मेरा माथा छुआ था - वैसे बुखार तो नहीं है...

- देख लो, तुमने मेरा क्या हाल किया है... मैंने उसे अपनी बाँहों में लेना चाहा था, मगर वह दूर सरक गई थी - ये नहीं, कुछ बातें करो - अच्छी-अच्छी, जैसे अभी कर रहे थे...

- तुम पास होगी तब न होगी अच्छी-अच्छी बातें... वह मुस्कराकर कमरे में फैली चीजें समेटती रही थी - तो तुम्हें तरक्की मिल रही है... इतने थोड़े से दिनों में इतनी सफलता... तुम्हारे काम की तारीफ हो रही है, सबकी जुबान पर हो, कैसा लग रहा है?

- बहुत अच्छा... खासकर इसलिए कि तुम मेरे लिए प्रार्थना करती हो। सबकी जुबान पर होना और प्रार्थना में होना एक बात नहीं है। मैं क्या चाहता हूँ, जानती हो दामिनी... कि मैं हर खुली आँख की पुतली में न होकर किसी की बंद आँखों के सपनों में रहूँ - उतना ही चुपचाप जितना कि एक ख्वाब या खयाल हो सकता है... सुनते हुए दामिनी की पलकें मुँद-सी आई थीं। मैंने उनपर धीरे से अँगुलियाँ फिराई थी - कुछ इस तरह... उसने अपनी आँखें नहीं खोली थी, सोती-सी आवाज में बोली थी - अब कभी आँखें खोलने के लिए मुझसे मत कहना।,

- क्यों? मैंने कौतुक में पूछा था।

- इनमें तुम हो। अब वह मुस्करा नहीं रही थी, गंभीर हो चुकी थी।

बाहर साँझ का सूरज निस्तेज होते हुए न जाने कब बुझ गया था। इसी बीच राख होते क्षितिज पर एक अकेला तारा उग आया था - उज्जवल और उदास। कमरे के अंदर सबकुछ शनैः-शनैः साये में तब्दील हो रहा था - रात अपना घोंसला हर कोने में डालने की तैयारी कर चुकी थी।

मैंने दामिनी की ओर देखा था। वह एकदम चुप थी, न जाने क्या सोच रही थी। तरल अंधकार में उसकी उजली त्वचा पारे की तरह चमक रही थी। मैंने उसे अनायास बढ़कर छूने की कोशिश की थी, मगर वह फिसल गई थी, एक शरीर मुस्कराहट के साथ- रेशम के मसृन धागों की तरह... मैंने गहरी साँसों में उसकी गंध बटोरी थी - बहुत हल्की- भीनी-भीनी-सी... सीडी पर देवकी पंडित की उदास आवाज तैर रही थी - नहीं रहना यहाँ, ये देश वीराना लगता है...

मैंने दामिनी की ओर देखा था - वह अलस मुस्कराई थी - ये दुनिया कागज की पुड़िया, बूँद पड़े गल जाना है... न जाने उन शब्दों में क्या था, या दामिनी की पिघले सितारे-सी उन आँखों में, मेरे अंदर का कोई कोना एकदम से भीग आया था... प्रेम में होना दुख में होना है... किसी से सुना था कभी, आज उसकी वास्तविकता में जी रहा हूँ...
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