औरत जो एक नदी है

Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

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दामिनी की आँखों में अब मेघिल आकाश था, मार्च की चंचल धूप न जाने कब उतर गई थी। फीके चेहरे में गुजरे हुए पतझड़ की अनगिन यादें समेटे वह रुक-रुककर कहती रही थी - उस डायरी को खोलते ही जैसे मैं माँ की आहों और आँसुओं की एक सिसकती हुई दुनिया में खो जाती थी। एक जिंदा कब्र थी वह डायरी। उसमें जैसे उसाँसें लेती हुई माँ कैद थीं। कहते हुए वह पलभर के लिए सिहरती हुई-सी ठिठक गई थी। उसके चेहरे पर एक सर्द आतंक था, जैसे वह अपने कहे शब्दों के यथार्थ को उसकी पूरी भयावहता के साथ जी रही हो। मैंने उसकी हथेलियों में अपने हाथों का आश्वासन रोपना चाहा था, ऊष्मा पिरोनी चाही थी - सहलाते हुए, मगर वह अन्यमनस्क-सी दूर छिटक गई थी - माँ जिस तकलीफ में मर गई थी, उसी तकलीफ में जीने के लिए मैं अभिशप्त थी... उत्तराधिकार में मुझे यही मिला था - एक लंबी, बीमार उम्र की एक-एक यातना और अवसाद का एकमुश्त पावना...

ऊसर जमीन पर बिना खाद, पानी का अखुँआया बीज थी - बहुत सख्त जान - जी गई... धूप और धूल से ऊर्जा समेटने की आदत जो पड़ गई थी। जिन पौधों को मालूम होता है, मौसम उनपर कभी मेहरबान नहीं होगा, वे भूखे-प्यासे बड़े हो जाते है। जिंदगी जीना सिखा ही देती है।

मैंने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद में समेट लिया था। बिना कुछ कहे वह एक बीमार दरख्त की तरह ढह गई थी। मैं जानता था, इस समय उसे शब्दों की नहीं, संवेदना की आवश्यकता है। बिना कुछ कहे अपनी मूक उँगलियों से मैंने उसे छुआ था। एक पल के लिए वह सिहर गई थी, और फिर सघन होकर मुझसे लिपट गई थी।

न जाने कितनी देर बाद मैं वहाँ से चला था... उस समय वह सो रही थी शायद, बीच-बीच में सिसकी लेती हुई... कितना असहाय और मासूम लग रहा था उसका चेहरा उस समय! जैसे कोई अनाथ बच्ची - अकेली और डरी हुई... चलने से पहले उसे चादर ओढ़ाते हुए मैंने उसके लिए नींद, सुकून और सपनों की प्रार्थना की थी। उसे इन्हीं चीजों की जरूरत सबसे ज्यादा थी। एकबार उसने कहा भी था, अशेष, मुझे लगता है कि जैसे मैं नींद में भी जगी हुई हूँ। टूटते हुए तारे को देखकर कितनी बार विश की है कि मुझे एक पूरी रात की नींद मिल जाय... उसकी थकी हुई आँखों में मैंने अक्सर वर्षों की जगार देखी थी।

न जाने उसकी जिंदगी में ठहरी हुई यह दुःस्वप्न जैसी रात कब गुजरेगी। उसे उसके हिस्से की धूप और उजाला कब मिलेगा... वहाँ से चलते हुए मेरे अंदर कुछ अवसन्न-सा घिर आया था। अपनी दौड़-धूप भरी जिंदगी के तनावों से दो पल छूटने की उम्मीद में उसके पास आता हूँ, मगर कई बार और अधिक तनाव और बोझिलता लिए यहाँ से लौटता हूँ। कभी-कभी खीज होती है। उसका अतीत हमारे वर्तमान को छाए रहता है। कई बार इन सबसे छूट जाने की छटपटाहट अंदर पैदा होती है, जी चाहता है, सब काटकर अपने से अलग कर दूँ और चल पड़ूँ, मगर हो नहीं पाता। एक दुर्वार आकर्षण मुझे बाँधे रखता है, निशि की तरह हाथ के इशारे से पास बुलाता है। मैं उससे दूर जाने की कोशिश में उसके और-और पास चला आता हूँ। दामिनी की देह का चुंबक मुझे उससे अलग होने नहीं देता।

अपनी इच्छाओं के क्षणों में वह खालिस जादू होती है, सर से पाँव तक। मैं उसमें डूबता-उतराता अपने सारे मलाल भूल जाता हूँ। उन विलक्षण क्षणों का इकलौता सच दामिनी और सिर्फ दामिनी ही होती है। छोटी-मोटी हताशाओं और शिकायतों का सारा खामियाजा वह उन थोड़े-से पलों में ही शानदार तरीके से भर देती है। उसकी बिल्लौरी देह और मेरी हवस के सिवा उन पलों में मुझे और कुछ याद नहीं रह जाता है।

आज दामिनी बेहद थकी हुई है, मुझे अपने कमरे में लौट जाना होगा। सोचते हुए मैं उसके कॉटेज से बाहर निकला था। उस समय तक रात काफी गहरी होने लगी थी। रास्ता लगभग सुनसान पड़ा था। मैंने ऊपर आसमान की तरफ देखा था। न जाने किस उम्मीद में - गहरे स्लेटी आसमान पर हल्के-फुल्के बादलों के फाहे, आवारा डोलते हुए... शायद बारिश हो जाय...

काश आज दामिनी मुझे अपने पास रोक लेती... मेरी आँखों के कोने जल उठे थे। आगे के मोड़ से कोई ऑटो पकड़ लूँगा... सोचते हुए मेरा ध्यान मोबाइल के वीप पर गया था। रेचल का संदेश था - कितनी देर कर रहे हो, आई एम वेटिंग फॉर यू... पढ़ते हुए मेरी नसों में कुछ सुलग-सा उठा था। अपने अनजाने ही मैंने जल्दी से आगे बढ़कर एक पास से गुजरते हुए ऑटों को हाथ दिखाकर रोक लिया था। दामिनी के साथ ही मेरी सारी वर्जनाएँ टूट गई थीं। अब इस दिशाहीन, बंधनहीन नदी को बस बहना ही है, अपने आकूल वन्या में कूल-किनारा डूबोते हुए, सबकुछ निःशेष करते हुए... इसकी तेज धारा में किसका क्या बह गया, डूब गया इसकी परवाह किए बगैर... उस क्षण मैं स्वयं को बहुत बेबस महसूस कर रहा था - अपने ही हाथों, शायद यही सबसे बड़ी विडंबना थी!

दूसरे दिन सुबह उठा तो सर बहुत भारी लग रहा था। कमरे की सारी खिड़कियों पर पर्दे ओर-छोर खींचे हुए थे, इसलिए अंदर हल्का अँधेरा-सा छाया हुआ था। बगल की मेज पर रखी घड़ी में दस बज रहे थे। एकबारगी मैं हड़बड़ा गया था, फिर खयाल आया था, आज संडे है।

अपने बाथरूम स्लीपर्स में पैर डालते हुए मेरी नजर सिरहाने की तरफ गई थी। वहाँ रेचल का क्रास लगा चेन और हेअर क्लिप्स पड़े थे। एक क्षण के लिए मेरे अंदर कुछ अजीब-सा घटा था, एक सनाका-सा और फिर दूसरे ही क्षण मैं उठकर बाथरूम में चला गया था। पानी के हल्के गर्म फुहार के नीचे खड़े होकर देरतक नहाते हुए मुझे अपनी देह से वही गंध आती महसूस हुई थी जिससे मुझे मतली-सी आने लगती थी। मगर आज ऐसा नहीं हुआ था। उस गंध में आज रेचल की मांसल देह का नमकीन स्वाद भी आ मिला था। अपने नासपुट और होंठों पर उसे महसूसते हुए मैं न जाने कबतक नहाता रहा था। बाहर निकला तो रेचल को अपने बिस्तर में प्रतीक्षित पाया - नहाई और लगभग भीगी हुई - बालों से रिसता पानी तकिए पर एक बड़ा धब्बा बना रहा था, ओढ़ी हुई चादर के नीचे का गीला उतार-चढ़ाव देखा जा सकता था।

तुमने मेरा बिस्तर भिगो दिया... मैं नाराज दिखना चाह रहा था।

कोई बात नहीं, जल्दी सूख जायगा। तसल्ली देती हुई-सी वह मुस्कराई थी- आज संडे है...

तो...? मैं कपड़ों की अलमारी की तरफ बढ़ गया था।

तो... आज तुम्हें दफ्तर नहीं जाना है...

तो...?

तो आओ... उसने चादर से हाथ निकालकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया था - आज दिनभर सोते हैं...

बिस्तर पर आते हुए मैंने अपना मोबाइल उठाना चाहा था, मगर रेचल ने उसे बंद करके सिरहाने के नीचे डाल दिया था - आज छुट्टी का दिन है, मोबाइल की भी छुट्टी... मैं कुछ कह नहीं पाया था।

उस दिन शाम के समय मुझसे मिलने दामिनी स्वयं चली आई थी। उस समय रेचल किचन में मछली के कटलेट्स तल रही थी और मैं बॉल्कनी में बैठा बीयर की चुस्कियाँ ले रहा था। दामिनी ने आते ही पूछा था, तुम्हारा फोन कहाँ है? उसे वहाँ यकायक देखकर मैं घबरा गया था। जबतक मैं उसकी बात का कोई जवाब देता, वह स्वयं अंदर कमरे से मेरा फोन उठा लाई थी - तुम्हारा फोन बंद पड़ा है! उसके स्वर में गहरा आश्चर्य था। मैं सकपकाया-सा उसे देख ही रहा था जब किचन से गर्म कटलेट्स का प्लेट उठाए रेचल बॉल्कनी में निकल आई थी। उसे देखते ही मेरी घबराहट कुछ और बढ़ गई थी। दामिनी और रेचल - दोनों एक-दूसरे को कुछ देर के लिए घूरकर देखते रहे थे। फिर दामिनी ने मुझसे शांत स्वर में पूछा था - ये कौन है?

ये मेरी कजिन... नहीं मिसेज लोबो की... मैं न जाने अपनी घबराहट में क्या कुछ कहे जा रहा था। मेरी बातें सुनकर जहाँ दामिनी के माथे पर बल पड़ गए थे, वहीं रेचल मुस्करा पड़ी थी - आई एम रेचल, मिसेज लोबो मेरी आंटी लगती हैं। आप...!

मैं... रेचल के सवाल पर अचानक दामिनी का चेहरा रंगहीन-सा हो आया था - मैं दामिनी - एक परिचित, इनकी...

ओह, आई सी... मुझे लगा, इनकी वाइफ आ गई हैं, जिस तरह से आप सवाल पूछ रही थी... मुस्कराते हुए रेचल टेबल सजाने लगी थी - आप बैठिए न मिस दामिनी...

नहीं, मुझे चलना होगा... कहते हुए ही दामिनी लगभग आधी सीढ़ियाँ उतर गई थी और फिर अचानक मुड़कर नीचे से मेरी ओर देखा था। मेरा दिल धक् से रह गया था। न जाने क्या था उन आँखों की दृष्टि में - नाराजगी, शिकायत... नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, बस, अंदर की एक गहरी टूटन और बिखराव... जैसे कहीं कुछ एकदम से तहस-नहस हो गया हो।

उसका अबोला उपालंभ मुझे दूर तक दाग गया था। न जाने कैसी अजनबी आवाज में मैंने पीछे से पुकारकर कहा था - मैं आज आऊँगा... वह बिना कोई जवाब दिए चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गई थी।

उसके जाने के बाद वहाँ एक अजीब आश्वस्ति भरी खामोशी पसर गई थी। रेचल चुपचाप कटलेट्स कुतरती रही थी, फिर प्लेट उठाकर अंदर चली गई थी - अब तो शायद तुमसे खाया नहीं जाएगा, ठंडे भी हो गए... कहते हुए उसके स्वर में गहरा कटाक्ष था या अफसोस, मैं तय नहीं कर पाया था।

इसके थोड़ी देर बाद जब उमा का फोन आया था, मैं दामिनी के यहाँ जाने के लिए कमरे से निकल रहा था। रात को फोन करने की बात कहकर मैंने फोन काट दिया था। उस तरफ से उमा कुछ कहती रह गई थी। वह बहुत गुस्से में लग रही थी, न जाने क्यों। सीढ़ियों के नीचे जब मैं उतरा रेचल ने पीछे से पुकारकर कहा था - ऐश, आज रात की बस से मैं मुंबई लौट रही हूँ...

उसकी बात सुनकर मैं ठिठक गया था - अचानक से...?

अचानक नहीं, तुम भूल गए, मैंने तुमसे कहा था...

हाँ, शायद... न जाने क्यों उसकी बात सुनकर मैं एकदम से निसंग हो आया था - जैसे किसी चौराहे पर खड़ा हूँ और पता नहीं जाना कहाँ है। यकायक सारी तस्वीरें एकसाथ गडमड हो गई थीं। अब कुछ था तो आँखों के सामने मिटते-बिखरते हुए रंगों के ढेर सारे धब्बे और अंदर एक अछोर शून्य... मैं डूब रहा था - किसी गहरे कुएँ में! अचानक मैं बेतरह डर गया था। कहाँ हूँ मैं, कहाँ जा रहा हूँ...

उमा का फोन आ रहा था - मोबाइल लगातार बजे जा रहा था - किसी एंबुलेंस के सायरन की तरह, जिसे सुनकर अंदर दहशत का एक गहरा, नीला बवंडर-सा हमेशा उठता था... आँखों के सामने दामिनी का उदास चेहरा तैर रहा था और ऊपर बॉल्कनी में खड़ी रेचल विदा में हाथ हिला रही थी...!

दामिनी के यहाँ जब पहुँचा था, शाम प्रायः शेष हो आई थी, आकाश के गहरे कत्थई विस्तार में गेरुए रंग के छींटे धीरे-धीरे घुल रहे थे। नए चाँद के नीचे तिल की तरह जड़ा तारा बहुत उजला दिख रहा था, मुस्कराता हुआ-सा। हवा में ताजी छँटी मेहँदी की झाड़ियों की गंध थी। दामिनी पिछवाड़े के बगीचे में मिली - कोई नन्हा-सा पौधा रोपते हुए - एकदम पसीना-पसीना, माथे पर उलझी लटों के बीच पिघलती हुई छोटी बिंदी और दाएँ गाल पर मिट्टी का धब्बा... मुझे देखकर हाथ के दस्ताने उतारते हुए पास बिछी कुर्सी पर आ बैठी थी - देखो न, तब से लगी हूँ, मगर काम खत्म ही न हो पाया, कुछ पौधे रह गए, कलतक बर्बाद न हो जाएँ... वामन आया ही नहीं। अब देखो कल भी आता है या नहीं...

कैसे पौधे हैं? मैंने बाल्टी में रखे पौधों को देखा था - चीरे-चीरे पत्तों वाले - हल्के कच्चे हरे... कितना ताजा रंग था!

सावनी के हैं - अभी लगाया तो शायद बारिश तक फूलने लगे। ये बैंजनी रंग के हैं, मगर मुझे गुलाबी भी पसंद है... दमिनी कितने लगाव के साथ चारों तरफ झूमते हुए पौधों को देख रही थी।

तुम्हें फूल बहुत पसंद हैं न...? मेरे प्रश्न पर वह अनमन-सी मुसकराई थी - कांट हेल्प इट - वृषभ राशि की हूँ - अर्थ साइन - प्रकृति से प्रेम होना ही है... मैं अपने सबसे करीब प्रकृति को ही पाती हूँ - ये जमीन, आकाश, पेड़-पौधे - सभी मुझसे बोलते हैं... कभी मैंने लिखा था - मेरी गत-आगत पीड़ा के साक्षी चाँद...

अचानक वह उठ खड़ी हुई थी - चलो, समंदर के किनारे चलते हैं। उसे भी कई दिन हुए, नहीं देखा, लहरें कब से पास बुला रही हैं - इतना शोर मचाकर...

दामिनी के कॉटेज से समंदर मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी पर था। 'जानते हो अशेष, मैंने अपने पापा की संपत्ति को हाथ भी नहीं लगाया था। हालाँकि उन्होंने अपनी सारी प्रापर्टी मेरे ही नाम लिख छोड़ा था - मैं उनकी इकलौती संतान थी -वैध संतान, आई मीन... मैंने उनके बाद सबकुछ एक अनाथ आश्रम को दान कर दिया था, कुछ भी नहीं लिया था, मुझे उनमें माँ के आँसू और मौत नजर आती थी। बाद में मुझे नानाजी ने बहुत कुछ दिया - माँ का हिस्सा... वे अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे!' कभी दामिनी ने ही मुझे बताया था। अपना पुराना घर छोड़कर उन्हीं पैसों से दामिनी ने यह कॉटेज बनवाया था - अपने मन मुताबिक।

साँझ के बाद की किशोरी रात - हल्के-हल्के गहराती हुई, साँवली पड़ती हुई... सफेद रेत में दूर-दूरतक अबरक का रुपहला झिलमिल था, पानी में आकाश का गहरा नील - इस्पात में तब्दील होता हुआ, लहर दर लहर... दामिनी का मिजाज बदल रहा था, मैं महसूस रहा था। उसकी आँखों में सुदूर निहारिका-जैसा कुछ था - पाँत के पाँत जलते हुए नन्हें दिए... उदास और बोझिल! उसने अबतक रेचल का प्रसंग नहीं उठाया था। मैं राहत महसूस करते हुए भी कहीं से डरा हुआ था।

रेत पर न जाने क्या कुछ लिखते हुए उसने मुझे देखा था - जानते हो अशेष, इस समंदर से मेरी पहचान बड़ी पुरानी है। मैं इसी की लहरों में एक तरह से पल-पुसकर बड़ी हुई हूँ... मेरा बचपन, मेरी माँ की निसंग जवानी, उनकी कही-अनकही... सबकुछ इसमें समाया हुआ है। दरअसल समंदर के पास होना मेरे लिए अपनी माँ, अपने बचपन के साथ होना है। जब भी सागर के विस्तार, इसके गहरे हाहाकार को देखती हूँ, अपना बचपन, अपना दुखता हुआ अतीत याद आने लगता है... ये एक ही साथ सुख और दुख की प्रतीति कराता है!

मैं जानता था, मेरे साथ सागर तट पर चलते हुए वह फिर अपने अतीत की ओर मुड़ गई है, मुझे अकेला छोड़कर। शायद मेरी नियति ही यही है - सबके बीच - एक भरी-पूरी दुनिया के बीच - अकेले-अकेले, एकदम निसंग होकर जीना... दामिनी बोल रही थी - लहरों के शोर में डूबी हुई-सी आवाज में, जिसे सुनने के लिए मुझे काफी ध्यान देना पड़ रहा था -

कैसे उदासी भरे दिन थे वे, क्या कहूँ... जैसे हर पल आँसुओं की बूँद-से टलमल-टलमल, एक ही टकोर पर बरस जाने के लिए अधीर... बहुत मुश्किल होता था उन गीले दिनों में आँखों को शुष्क बनाए रखना। माँ की आँखों का खयाल रखते-रखते मैं अपनी आँखें बिसरा बैठी थी, जिनके दुखों की एक अलग दुनिया थी। माँ मुझसे कभी कुछ भी नहीं कहती थी और यही बात मेरे लिए सबसे ज्यादा त्रासद हो जाया करती थी। उनकी चुप्पी ही उनकी पीड़ा को मुखर बना देती थी, काश वे इस बात को समझ पातीं।

बारिश के मटमैले आकाश-सा कुछ होता था उनकी तरल आँखों में, पलकों का कच्चा किनारा तोड़कर बह निकलने को आतुर। अपनी दुर्बल बाँहों में एक चढ़ते हुए समंदर को बाँधे कभी-कभी शायद वे बहुत थक जाती थीं। फुर्सत के क्षणों को खींचती हुई वह बहुत बार अकेली दिख जाती थी, खासकर छत के उस पूरबवाले कोने में जहाँ बहकर आनेवाली हवा का स्वाद बिल्कुल अलग होता था, नीम के फूलों की कड़वी-मीठी गंध की तरह।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

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कभी-कभी उन्हें छेड़े बगैर मैं चुपचाप उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाती थी - उनके आकाश और समंदर को ओर-छोर बिछाकर उनसे एक होती हुई-सी... मैं जानना चाहती थी, क्या है उस आकाश के एक टुकड़ा शून्य में या सागर के हरहराते हुए विस्तार में, जहाँ वे इस तरह से रातदिन डूब जाया करती थीं। बाद में, बहुत बाद में समझ पाई थी, निसंग मन कहाँ-कहाँ आसरा ढूँढ़ लेता है, कैसे-कैसे साथ चुन लेता है। दामिनी मुट्ठी में रेत भर-भरकर हवा में उड़ाती रही थी। ऐसा करते हुए उसकी आँखों में वही अतीत था जिसमें वह अपना वर्तमान जीती आ रही थी। मेरी तरफ न देखती-सी नजर से देखते हुए उसने कहा था, समंदर मुझे मेरा बहुत अपना-सा कोई लगता है अशेष। जानते हो, बचपन में मैं जिस कमरे में सोती थी, समंदर उसके शायद सौ कदमों के फासले पर ही था। वही हमारा सबसे करीबी पड़ोसी हुआ करता था।

पूरी रात ही जैसे किनारे पर पछाड़ खाती लहरों पर डोलती रहती थी। बरसात की रातों में उद्दाम हवा छत पर किसी क्रुद्ध नागिन की तरह अपना फन पटकती हुई गुजरती थी तो मुझे बहुत डर लगता था। खासकर बरसात की तूफानी रातों में, जब लगता था उमड़ता हुआ समंदर हमारे छोटे-से काँटेज को अपनी ऑक्टोपस जैसी लहरों में दबोचकर पूरा का पूरा निगल जायगा। हवा, समंदर और बारिश से जैसे रचा हुआ था हमारा घर। उसकी बूढ़ी, नमक खाई पुरानी दीवारें समुद्र के गर्जन से रातदिन थरथराती रहती थीं।

अपनी बात को बढ़ाते हुए वह मेरे करीब सरक आई थी, किसी डरी हुई छोटी बच्ची की तरह - जानते हो अशेष, कभी-कभी मुझे लगता था कि जैसे समंदर का ये अनंत शोर मेरे अंदर समा गया है। नसों में बहता रहता है आठों प्रहर - ठीक जैसे शंख के अंदर से आती है समंदर की आवाज... मत्स्यगंधा बनी हवा से भीगी रहती थीं खिड़कियाँ, दरवाजे, उमस से हम चिपचिपाए रहते थे। कभी-कभी लगता था, हम नमक से बने हैं।

पहली बार अपनी ही बात पर वह हँसी थी। शाम की धूसर रोशनी में सितारे घुल आए थे। उसकी हँसी की हल्की ठुनक में डूबता-उतराता मैं उसे देखता रहा था। कुछ कहकर मैं उसके प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न नहीं करना चाहता था। वह अबाध बह रही थी, अपनी रौ में, नदी की तरह...

उसे उसके निहायत अंतरंग क्षणों में देखना-महसूसना भी अपने आप में एक घटना होती है। किसी पारे की उजली नदी की तरह वह अलस, मंथर गति से बहती है, अपने आसपास सपनों और इच्छाओं के हल्के गुलाबी फूल खिलाते हुए, सुगंध की तरल वेणियाँ लहराकर हवा में गश घोलते हुए... मेरी सोच से बेखबर वह अब भी अपनी रौ में बहे जा रही थी -

इन तमाम शोरगुल के बीच माँ के व्यक्तित्व में खिंचा गहरा सन्नाटा मुझे दो चरम के बीच जीने पर विवश कर देता था। यह स्थिति निहायत तकलीफदेह थी। समंदर और माँ दो बिल्कुल विपरित धुरियों पर थे, मगर फिर भी कहीं किसी बिंदु पर एक थे, यह बात समझते हुए मुझे एक उम्र लग गई थी।

कभी जब मैं उनसे पूछती थी, उन्हें क्या मिल जाता है इस अनवरत हाहाकार और अछोर चुप्पी से, वे हँसकर कहती थी, तू अभी इस बात को नहीं समझेगी! जब तू नहीं थी, ये थे और... आगे भी रहेंगे...

कई वर्ष बाद जब मैं पापा के साथ बोर्डिंग स्कूल के लिए घर से निकल रही थी, माँ को समंदर के गहरे नीले कैनवास पर हवा और शोर के बीच किसी गीली पेटिंग की तरह एकदम निसंग और उदास खड़ी देखकर उसदिन उनकी कही हुई उस बात का सही अर्थ समझ पाई थी।

मैंने मुड़कर उसदिन समंदर को एक दूसरी ही - नई नजर से देखा था। अब मुझे भी माँ के यकीन पर यकीन हो चला था। कितनी अजीब बात है, उसदिन अपने घर को उन उच्छृंखल लहरों के हवाले करके मैं एक तरह से निश्चिंत हो गई थी।

उसे सुनते हुए उसकी बातों से मैंने समंदर के चेहरे का मिलान किया था। वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा दामिनी की स्मृतियों में बसा हुआ था। कितना पुराना है ये समंदर... सबके हिस्से की कहानियों में बँटा हुआ, मगर एकदम पूरा-पूरा... मैं उठ खड़ा हुआ था। साथ में दामिनी भी। अपने कपड़ों से रेत झाड़ते हुए उसने किनारे पर चढ़ती हुई लहरों से खुद को बचाया था, ज्वार का समय था, पानी ऊपर चढ़ रहा था, लहरों में खासी बेचैनी थी। बेचैन दामिनी भी थी। किसी खोई हुई टिटहरी की-सी आवाज में कह रही थी - एकदम निसंग, उदास, गहरे कहीं छूते हुए -

इसके बाद जब भी माँ से फोन पर बात होती थी, मैं उनसे मजाक में पूछ लेती थी, क्यों माँ, तुम्हारा समंदर कैसा है? हालाँकि मुझे फोन पर भी समंदर की आवाज सुनाई पड़ती रहती थी। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता था कि मैं माँ को फोन करती ही हूँ समंदर की आवाज सुनने के लिए... वह समंदर जो दूर होकर भी हर पल मेरे आसपास बना रहता था - अपने तमाम हलचल और बेचैनी के साथ... मेरी नसों में एक दरिया है और उसका सारा नमक भी। खूब समझ पाती हूँ, जब निःशब्द रातों में मेरे अंदर बसी लहरें छटपटाती हैं, तटों पर पछाड़ खा-खाकर सर धुनती है...

उसकी बातें सुनकर मुझे न जाने किस शे'र की दो पक्तियाँ याद हो आईं थीं - मैंने बहते हुए साहिल से ठिकाना माँगा था, मुझे बिखर जाने का कैसा जुनून था... मैं भी बसने के भ्रम में दामिनी के साथ बहे जा रहा था शायद। पता नहीं, वह मेरा किनारा थी या मँझधार...

मेरी अस्त-व्यस्त सोचों से परे वह अपनी छोटी-सी दुनिया में हमेशा की तरह गुम थी। आगे चलते हुए कहती जा रही थी - जानते हो अशेष, एक अर्सा हुआ मैं कभी एक पूरी, मुकम्मल नींद सो नहीं पाई। रातों को जागना या जागते रहने के अहसास में तंद्रिल-सी किसी अवस्था में पड़े रहना, फिर सारा-सारा दिन ऊँघ और आलस्य से घिरे रहना... यही मेरे लिए एक रुटीन होकर रह गया है।

वह मुझे मुड़कर अचानक देखती है और मैं उसकी उनींदी आँखों से घिर आता हूँ - एक सपना जो अपनी नींद की तलाश में जाग रहा है, न जाने कब से, न जाने कबतक के लिए! मैं झुककर एक कंकड़ उठाता हूँ और मन-ही-मन उसके लिए एक लंबी, सुखद नींद की विश करते हुए उसमें फूँककर उस कंकड़ को समंदर की लहरों की तरफ उछाल देता हूँ। वह एक क्षण के लिए मुझे कौतुक से देखती है फिर चल पड़ती है -

और जब कभी नींद आती है तो तंद्रा के झीने पर्दे के पीछे ऐसी प्रतीति होती है कि जैसे मेरे सिरहाने बैठकर कोई रातभर रो रहा हो - एक दबी-दबी, हिचकियों में टूटती आवाज... इतने धीमे कि कानों का भ्रम लगे! मगर आती है - सारी रात! मैं करवट दर करवट अपने दोनों कान तकिए से दबाकर पड़ी रहती हूँ। उस आवाज से छूटने के लिए मैं क्या नहीं करती। मगर उफ्! वह बंद नहीं होती, किसी तरह बंद नहीं होती...!

मैंने आगे बढ़कर बिना किसी भूमिका के अचानक पूछा था - मे आई होल्ड योर हैंड? मेरे इस आकस्मिक प्रश्न पर ठिठककर रुक गई थी और फिर चकराई-सी पूछी थी - कौन वाला हाथ? उसके इस भोले सवाल पर मुझे अनायास हँसी आ गई थी, हँसते हुए ही कहा था - बोथ हैंड्स... आँखों में न समझने के-से भाव लिए उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए थे, चेहरे पर अभी भी गंभीरता ओढ़े। मेरा मन करुणा से भर उठा था। अपनी उलझन की दुनिया में एक टिटहरी की तरह हमेशा खोई रहती है, उसे आसपास की सुध तक नहीं रहती। एक उस जैसी खूबसूरत औरत का यूँ उदासी की मटमैली धुंध में रातदिन खोए रहना, धीरे-धीरे हर खुशी, हर उमंग से विरत होना, होते चले जाना... मुझे उसके लिए तकलीफ होती थी। जिंदगी - ऐसी जिंदगी - इस तरह जाया नहीं होनी चाहिए!

वह मेरी आँखों में न जाने क्या देखती है कि अचानक से चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लेती है। एक क्षण के लिए हम दोनों के बीच एक गहरा मौन पसर गया था - बहुत भरा-भरा और बोलता हुआ-सा... एक साँस की नाजुक टकोर से भी चटकता हुआ-सा... मैं उसे देखता हूँ, वह न जाने किसे - एक दृष्टिहीन नजर से, अन्यमनस्क - अपने में संपृक्त! उसका मेरे साथ होना और न होना - इसी तरह - मुझे साथ में भी अक्सर निसंग कर जाता है। मुझे ये खलता है, मगर उसे दोष नहीं दे पाता। ये सब उसके जानने में नहीं होता, अब अच्छी तरह समझने लगा हूँ। उसका मन का एक कोना - बहुत छोटा-सा - मेरी पकड़ में आया है, वह भी पूरी तरह नहीं। एकदिन उसे पा लूँगा, मैंने आकाश पर चमकते हुए मौसम के एक टुकड़े - नए चाँद की तरफ देखते हुए सोचा था। मुझे लगा था, चाँद की हँसी बाँध टूटकर एकदम से बह आई है। क्या मेरी ये इच्छा इतनी पागल थी!

दामिनी मेरी तरफ देखती हुई अबतक चुपचाप खड़ी थी। स्वयं को समेटते हुए मैंने उसका दायाँ हाथ पकड़ लिया था और फिर चलते हुए पूछा था - कोई सारी रात तुम्हारे सिरहाने बैठकर रोता है... तुम्हें ऐसा लगता है? स्ट्रेंज!

'हाँ, सच, ऐसा ही लगता है, एकबार नहीं, अक्सर...' वह फिर अपने में हो ली थी - मुझे याद है, प्रायः रोज रात को मुझे सुलाने के बाद जब माँ को पूरा यकीन हो जाता था, मैं सो चुकी हूँ, वे धीरे-धीरे रोने लगती थीं। मैं माँ का ये राज जानती थी, इसलिए जब वे चाहती थीं, मैं उनके लिए सो जाने का बहाना करती थी - इतना तो मैं उनके लिए कर ही सकती थी! मेरे नन्हें शरीर को अपनी बाँहों में समेटे वे निःशब्द रोती रहती थीं, शायद सारी रात ही... लाख जागना चाहकर भी मेरी कच्ची आँखें आखिर मुँद ही जाती थीं। सोने से पहले मैं महसूस करती थी, मेरा माथा उनके बहते हुए आँसुओं से भीग गया है। उनके वे विवश आँसू मेरी रूह में जज्ब होकर रह गए हैं अशेष! अब तो वर्षों से जो भी सपने आते हैं, उनमें भीगकर आते हैं। उनसे मेरी मुक्ति नहीं - इस जन्म में तो नहीं!

उसकी बातें सुनते हुए मैं समझ गया था, कौन उसके सिरहाने आज भी सारी-सारी रात रोता है। कुछ तस्वीरें धुँधली पड़ जाती हैं, मगर मिटती नहीं - शायद कभी भी। कच्ची दीवारों पर लिखे गए हर्फ रह जाते हैं उनके साथ - उनकी उम्र का हिस्सा बनकर... इस गीली मिट्टी पर न जाने कितने दाग हैं, किस-किस के दिए हुए... हरी, मखमली कालीन के नीचे जर्द, स्याह मौसम की एक लंबी, बदसूरत फेहरिस्त है - ओर-छोरतक पसरा हुआ। इन्हें अनहुआ नहीं किया जा सकेगा कभी... इस इंद्रधनुष पर उदासी के साँवले फफूँद पड़े रहेंगे - इसी तरह, हमेशा...

मेरे अंदर अनायास एक अनाम-सी अनुभूति घिर आई थी - गहरे, मटमैले रंग जैसी, बारिश में लगातार भीगती हुई किसी बदरंग दीवार की तरह...। काई की कोई गहरी परत है जो अंदर ही अंदर कहीं चढ़ रही है, बहुत बेआवाज, मगर तेजी से। उतरती रात के मेहँदिया रंग में मैं उसकी झिलमिलाती देह को देखता हूँ - हवा में अबरक-से झर रहे हैं, अँधेरा गोरा पड़ रहा है।

एक तिलिस्म रच रही है वह हर कदम पर - मेरे लिए... किसी मरीचिका की तरह उसका दुर्वार आकर्षण मुझे खींचकर न जाने सन्नाटे के किस देश में लिए जा रहा था! मैं हर कदम पर रुकना चाहता था, मगर नहीं चाहता था। ये मेरी सबसे बड़ी त्रासदी थी। त्रसित तो दामिनी भी थी। जहाँ दुख के सिवा कुछ नहीं मिलता था, उसे फिर-फिर वहीं लौटकर जाना पड़ता था। विवश थी वह - स्वयं से ही। हम दोनों अपने आप से विवश थे। इसलिए - शायद इसीलिए इतने विवश थे।

दामिनी के कॉटेज में पहुँचते हुए उसदिन काफी देर हो गई थी। न जाने क्यों, उषा ने बाहर की बत्तियाँ नहीं जलाई थीं। चारों तरफ अंधकार पसरा पड़ा था। दूर स्ट्रीट लाइट की रोशनी बरामदे में यहाँ-वहाँ फैल रही थी। उसी हल्की रोशनी में चहारदीवारी के साथ -साथ लगे बोगनबेलिया की सघन लतरें हवा में झूमते हुए फर्श पर रंगोली-सी रच रही थी - रोशनी और छाँव की लुकाछिपी - शरीर, चंचल... हम दोनों उसी फीके अंधकार में बरामदे में बिछी कुर्सियों पर बैठ गए थे। आवाज सुनकर उषा बाहर आ गई थी, मगर दामिनी ने उसे बत्ती जलाने से मना कर दिया था - ऐसे ही ठीक लग रहा है। उसने चाय बनाने से भी उसे मना कर दिया था। मैं अंदर जाकर वॉश बेसिन पर मुँह धो आया था। समंदर की नमकीन हवा में त्वचा चिपचिपाने लगी थी। रूमाल से चेहरा पोंछते हुए मैं जब बाहर बरामदे में आकर बैठा, उषा मेज पर बीयर की बोतल और दो काँच के लंबे गिलास लगा रही थी। मैंने हाथ लगाकर देखा था, बोतल बहुत ठंडी थी। इस समय मुझे बिल्कुल यही चाहिए था - चिल्ड बीयर!
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Re: औरत जो एक नदी है

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थोड़ी देर बाद जब दामिनी बाहर निकलकर आई थी, उसके शरीर से किसी सुगंधित साबुन और क्रीम की गंध आ रही थी। शायद वह भी बाथरूम से फ्रेश होकर आई थी। बैठते हुए उसने पूछा था, तुम खाकर जाओगे न? मैंने उषा से पनीर बनाने के लिए कहा है। रोटियाँ भी बना लेगी... मैं चुपचाप बीयर की चुस्कियाँ लेता रहा था। शाम की इस गहरी, खूबसूरत खामोशी में मुझे अनायास अपने घर का खयाल आ गया था - अक्सर इस समय का माहौल... मैं ऑफिस से लौटकर बेतरह थका-हारा, थोड़ा सुकून और आराम की जरूरत में... उधर बच्चों की तकरार, आपस के झगड़े, होम वर्क का टेंशन! उमा रसोई में लगातार बड़बड़ा रही है, बीच-बीच में आकर शिकायत कर रही है, उलाहने दे रही है - तुम्हारा क्या, ऑफिस की नौ से पाँच की बँधी-बँधायी ड्यूटी, फिर घर आकर आराम! और एक मैं हूँ, सुबह से शाम तक कभी कोई छुट्टी नहीं, आराम नहीं... औरत का जन्म...!

अचानक मेरे मुँह में बीयर की घूँट बहुत कड़वी जान पड़ी। शादी... एक अनोखी संस्था है, जहाँ दो इनसान एक-दूसरे से बँधे उम्रभर एक-दूसरे को योजनाबद्ध तरीके से तोड़ते, खत्म करते रहते हैं। किस्तो में - तिल-तिलकर... अद्भुत हिंसा है ये - रिश्ते के नाम पर - एक कैद, कारावास - आजीवन कारावास...

शादी से पहले उमा कितनी खूबसूरत थी - सूरत और सीरत से! हँसती ही रहती थी - बात-बातपर... किसी पहाड़ी जलप्रात की तरह - अविरल, अबाध... घंटों उसके साथ कैसे बीत जाता था, समय का पता ही नहीं चलता था। और अब... मुझे उसका चेहरा याद आता है - कठोर और रुक्ष - लावण्य रहित! हमेशा तनी हुई भौंहें और तमतमाते गाल। क्या मैंने उसे इस हालत में पहुँचा दिया? या हालात ने... अपने अंदर मैं टटोलता रहता हूँ - बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं, इकट्टे हो गए हैं बीतते हुए समय के साथ, पहाड़ बनते जा रहे हैं दिन-प्रतिदिन... और मैं दबा हुआ हूँ उसके नीचे हर समय।

फिर मैं... मेरा क्या हुआ! क्या मैं भी हमेशा से ऐसा था - उदासीन, हर तरफ से असंपृक्त... कितना कुछ चाहता था मैं भी इस जिंदगी से, अपने और उमा के रिश्ते से! उम्मीदें थीं, चाव थे, इच्छाएँ - ढेर-ढेर-सी! और अब?... एक गहरा अवसाद और विरक्ति- हर चीज से, शायद जीवन से ही।

एक भारी अभाव से उपजी है ये भूख, ये लालसा... बहुत कुछ खो जाने के अहसास से घबराकर अब हर क्षति की पूर्ति चाहता हूँ - बीत गए समय की, आधी-अधूरी वासनाओं की... हुआ को अनहुआ करने की कोशिश, और क्या...! छूट जाना चाहता हूँ, हर उस बंधन से जो आलिंगन नहीं बन पाया! मुक्त हो जाना चाहता हूँ। रिश्तों की दुनिया में बँधुआ मजदूर बनकर रहना नहीं चाहता, संबंधों को ढोना नहीं, जीना चाहता हूँ... क्या ये चाहना बहुत ज्यादा, बहुत गलत है? सवालों के नागफनी चारों तरफ उगे रहते हैं और मैं इस बियावान में भटकता रहता हूँ। एक तरफ समाज है, इसके नियम-कानून, मोटी-मोटी पोथी और इसकी बूढ़ी, जर्जर रूढ़ियाँ, दूसरी तरफ एक अकेला मन, जो बस जीना चाहता है, जबतक जीवित है, जीना चाहता है...

मुख्तसर-सी बात है - जीवन को भोगना चाहता हूँ अब - स्वच्छंद होकर। संबंध के नाम पर एक और कारावास नहीं चाहता, रिश्तों की गुलामी नहीं चाहता। हर कोई आलिंगन बनने के बजाय हथकड़ी क्यों बन जाता है! प्यार के नाम पर एक नागपाश - वजूद को जकड़कर, पेंच कसकर साँस-साँस के लिए मोहताज करता हुआ...

अपनी सोच में शायद मैं बहुत दूर निकल आया था। दामिनी ने बाँह पर हल्के से छुआ तो खयाल आया। वह शायद मुस्करा रही थी - मेरी बीमारी तुम्हें भी लग रही है, जागकर सपने देखने लगते हो। अच्छा अशेष, इतना क्या सोचते हो? उसकी हल्के नशे की खुमार में डूबी आवाज जल तरंग की तरह हवा में बिखरकर खो गई थी। मैं देरतक उसकी मृदुल ठुनक अपने भीतर महसूस करता बैठा रह गया था। कभी-कभी किसी बहुत भरे हुए-से क्षण में कुछ कहने की इच्छा नहीं होती। लगता है, जो अनुभव के स्तर पर जी रहे हैं, उसे शब्दों से दरकाकर नष्ट न कर दें। कुछ ऐसी ही मनःस्थिति में था इस समय। हवा में फूलते रात रानी के साथ दामिनी की हल्की, मीठी देह गंध थी - मिली-जुली, मगर मैं उनके पार्थक्य को समझ सकता था, अनुभूति के किसी अनाम स्तर पर। सुगंध का भी एक चेहरा होता है, बहुत पारदर्शी, मगर होता है...

दामिनी ने अचानक पूछा था, तुमने ताजमहल देखा है न अशेष? मेरे हाँ में सर हिलाने पर उसने न जाने कैसी इच्छा भरी आवाज में कहा था - एकबार मैंने भी देखा था, चाँदनी रात में! स्कूल टूर पर गई थी। कैसा लगा था? मेरे प्रश्न पर उसके स्वर में जैसे सपने घिर आए थे - अद्भुत - एक नीली नदी के पहलू में सिमटी हुई प्यार की अनोखी कहानी - प्रतीत होता है, ख्वाब और मुहब्बत को संगमरमर में गूँथकर समय के सीने पर एक तस्वीर की तरह जड़ दिया गया है - हमेशा-हमेशा के लिए, एक पूरे काल खंड और उसकी जीवंत अनुभूति के साथ...

प्यार वहाँ का एक ठहरा हुआ रोज का मौसम है। वहाँ कोई हो और प्रेम में न हो, ये संभव नहीं लगता। कहते हुए दामिनी की आँखों में जैसे सपनों की मृदुल क्यारियाँ खिल आई थीं, नर्म, चटकीले फूलों से भरी हुईं... मधु की बूँद की तरह उसके शब्द मेरी कानों में टपकते रहे थे, वह स्वप्न बुन रही थी - मीठी, रंगीन सलाइयों से -

ताज प्रेम के होने के साक्ष्य में खड़ा है, उसका होना एक तरह से प्रेम के होने -निरंतर बने रहने का एक शाश्वत प्रतिश्रृति-सा है... उसे देखकर आश्वासन मिलता है - दुनिया के खूबसूरत होने का, उसके बने रहने का - बहुत आगे तक... जरा सोचो तो, कहते हुए दामिनी की आँखें विस्फारित हो चली थीं - कभी ये ढह गया तो... उफ्! ताजमहल का खंडहर प्रेम का सबसे बड़ा दुःस्वप्न है...

मैं अब भी आँखें मूँदे उसे चुपचाप सुनता रहा था। उसे सुनना या देखना एक तरह से कविता को जीना था - उसकी पूरी नजाकत और रवानगी के साथ... कुछ क्षणों के लिए उसके चुप हो जाने के बाद भी जैसे हवा में उसकी आवाज के मुलायम रेश बचे रह गए थे - पारदर्शी फूलों की तरह तैरते हुए...

न जाने कितनी देर बाद उसने फिर बोलना शुरू किया था, कहीं बहुत दूर से - शायद वह फिर वहीं लौट गई थी - अपने बचपन में, अपनी माँ के पास! मैं अपनी मुट्ठी में उसका हाथ समेटे उसकी हल्की हरारत को महसूसता रहा था, जैसे किसी डरी हुई चिड़िया की लरज... वह कह रही थी - मैं सुन रहा था, यही उसके साथ होना था - सही अर्थों में! ऐसे क्षणों में वह मुझसे इससे ज्यादा की कोई अपेक्षा भी नहीं रखती है, जानता हूँ। कोई हो जो संवेदना के स्तर पर साथ हो, संग-संग बहे दूरतक, मगर खामोशी से...

वह कह रही थी, उस दिन चाँदनी रात में ताजमहल को देखते हुए मैं पहली बार समझ पाई थी - हमारा घर भी एक ताजमहल की तरह है, जहाँ मेरी माँ के प्यार को चेहरा नहीं मिला था, वरन् उनका यकीन दफ्न हुआ था - उनके जीते जी ही! न जाने किस देश की थी माँ, कहाँ से आई थी। मैंने बहुत बार पूछा था उनसे, मगर न जाने क्यों वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाहती थीं। हर बार चुप रह जाती थी। मगर एकबार एक कहानी सुनाते हुए वे अचानक रो पड़ी थीं। आज समझ पाई हूँ, इतने सालों के बाद कि वह कहानी उनकी ही थी। उस कहानी की राजकुमारी मेरी माँ ही थीं। अपने माँ-बाप की इकलौती संतान जो बहुत प्यार और नाजों से पली-बढ़ी थी, एकदिन अपने माँ-बाप और प्रियजनों को छोड़कर अपने प्रेमी का हाथ पकड़कर उसके साथ सुदूर देश में चली आई थी।

पीछे छूट गए थे उसके सारे सपने और प्यार, दुलार की एक भरी-पुरी दुनिया। अपने महल से चलते समय उसके पास उसके प्रियतम का प्यार, विश्वास और वादों का ही एकमात्र संबल था। उन्हीं पर निर्भर होकर वह उतनी दूर चली आई थी। मगर अपने देश पहुँचते ही उसका प्रेमी उसे एक कारावास में डालकर कहीं चला गया था।

अब राजकुमारी उस कारावास में रातदिन अकेली रहती और अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती। वह उस देश की बोली नहीं जानती थी, उसे वहाँ का खाना भी नहीं रुचता था। उसका रंग दूध में घुले केसर की तरह था और वह गाती कोयल की तरह थी। मगर उस देश के लोग गहरे श्याम वर्ण के थे तथा हमेशा कौओं की तरह कटु बोलते थे। वे सभी उसके रूप, रंग और गुण को घृणा और संशय की दृष्टि से देखते थे। कोई उससे बोलता भी नहीं था। यह सब तो वह शायद सह भी जाती, मगर उसके दुख का चरम ये था कि उसका वह प्रेमी जिसके लिए उसने अपना लगभग सबकुछ छोड़ दिया था, भी उससे बोलता नहीं था। वह अछोर चुप्पी की एक काली कोठरी में कैद थी और इसी कैद में रातदिन घुट-घुटकर राजकुमारी एकदिन स्नेह और साहचर्य के अभाव में अंततः मर ही गई...

कहते हुए माँ जैसे राजकुमारी की उसी मौत से होकर गुजर रही थी। उसदिन उनके साथ मैं भी खूब रोई थी। शायद मुझे भी उनकी नियति का आभास हो गया था। मैंने माँ की ओर बेआवाज बढ़ती मौत के कदमों की आहट न जाने कैसे सुन ली थी। मैं अब देख सकती थी, गहरे आतंक और भय के साथ - माँ की ओर शनैः-शनैः बढ़ती आसन्न मृत्यु को... कितना सहम गई थी मैं उसदिन... माँ को छोड़ ही नहीं रही थी किसी तरह, कसकर लिपटी हुई थी उनसे। दामिनी की आवाज में अजीब कँपकँपी भरी हुई थी। वह जैसे बिल्कुल अपने कल में हो गई थी - उसकी पूरी भयावहता को शिद्दत से जीती हुई। मैंने उसकी अँगुलियाँ अपने बाएँ हाथ की मुट्ठी में समेट ली थीं। वे पसीने से नम थीं, हल्के-हल्के लरजती हुईं।

मेरी छुअन की आश्वस्ति धीरे-धीरे उसके स्वर में उतर आई थी। थोड़ी देर ठहरकर सहज आवाज में उसने कहा था - शायद उसी दिन माँ ने कहा था, इस तरह से कि मैं न सुन पाऊँ - कभी-कभी मृत्यु जीवन से बेहतर विकल्प होती है... मैं उनकी बात का तात्पर्य समझ नहीं पाई थी, मगर न जाने संवेदना के स्तर पर क्या महसूस किया था कि और-और उदास हो गई थी। हवा और समंदर के निरंतर शोर के बीच सन्नाटे के कफन में लिपटी माँ म़ुझे उस निसंग द्वीप की तरह प्रतीत हुई थीं जिसके चारों तरफ आकाश की अनंत चुप्पी और समंदर के अनवरत हाहाकार के सिवा कुछ भी नहीं होता। यह निर्जन द्वीप जितना बाहर होता है, उससे कहीं ज्यादा अंदर होता है। एक डूब - सतत डूब - बनी रहती है उसके अस्तित्व में, उसका सफर नीचे की ओर अधिक होता है ऊपर के बनिस्बत!

दामिनी की आवाज में दबी हुई सिसकियों का हल्का कंपन था, उसके आगे के शब्द पानी में घुल-से गए थे। वह शायद फिर रोने लगी थी। हमारे सामने बीयर की न जाने कितनी खाली बोतलें इकट्ठी हो गई थीं। उषा कई बार खाने के लिए इस बीच पूछ चुकी थी। जाने रात का क्या बजा था उस समय...

दामिनी ने अचानक अपनी बोझिल पलकें उठाई थीं - अशेष, न जाने शादी के कितने वर्षों बाद पापा ने एकदिन बिल्कुल निर्लिप्त और सहज भाव से माँ से कह दिया था कि वे उनसे प्रेम नहीं करते! ऐसा कहते हुए उनमें जरा भी हिचकिचाहट या ग्लानि नहीं थी। मगर सुनकर माँ शर्मिंदा हो गई थीं - इसी प्यार के लिए कभी अपने रिश्तों, खुशियों और सपनों की एक भरी-पूरी दुनिया छोड़ आई थी...

उसदिन माँ के लिए पापा ही नहीं - उनकी यकीन की पूरी दुनिया, उनके भगवान - सबकुछ झूठा पड़ गया था! कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा था - सबकुछ पहले की तरह चलता रहा था, बस एक यकीन - बहुत मासूम यकीन, हमेशा के लिए खत्म हो गया था। पापा ने अपने वर्षों के रूखे व्यवहार, अवज्ञा को उसदिन एक स्पष्ट नाम दे दिया था। मेरे लेखे यह दुनिया का क्रूरतम अपराध था, मगर इसके लिए आजतक कोई सजा नहीं बनी। कितनी अजीब बात है... दामिनी सामने की मेज पर सर रखकर ढह गई थी - अशेष, भगवान होते हैं न...?

उस दिन के बाद मैंने दामिनी में सूक्ष्म बदलाव देखे थे। जाहिर तौर पर वह वही थी - पहले की तरह, मगर कहीं कुछ अलक्ष्य दरक गया था। मैं कह नहीं सकता था क्या और कहाँ, मगर महसूस सकता था। उसकी आँखों की पिघलती हुई पुतलियों में, तरल चावनी में कुछ अनमन, उदास और तटस्थ हो चला था। उसकी मुस्कराहट की उजली मसृन धूप में वह पहलीवाली ऊष्मा नहीं बची थी जो मुझे कभी नर्म हरारत से भर देती थी। मेरी बंद मुट्ठियों से कुछ बहुत खूबसूरत, अनमोल निःशब्द झर रहा था। मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था इसके लिए, मुझे मालूम नहीं था, मैं क्या कर सकता हूँ। यकीन काँच की तरह नाजुक होता है, दरक जाता है हल्के टकोर से। शायद कुछ ऐसा ही हुआ था दामिनी के साथ। कहीं से चोट खा गई थी। एक समय के बाद निराश होने लगा था मैं, अंदर कुछ कसक रहा था रातदिन...

दामिनी के अबाध समर्पण की घड़ियों में न जाने मुझे ऐसा क्यों प्रतीत होता था कि सिर्फ द्वार ही खुले हैं, इन कपाटों के पीछे पूरा घर खाली है। वहाँ कोई नहीं रहता, अशरीरी उच्छ्वासों के सिवा। ठीक जैसे थाईलैंड के मंदिरों में होता है - एकबार देखा था मैंने जब वहाँ घूमने गया था - वहाँ सिर्फ मंदिर होते हैं, अंदर देव मूर्तियाँ नहीं!

सुरों के आरोह-अवरोह-सी नर्म देह की रेखाओं में प्राणों का संकेत नहीं, हृदय का स्पंदन नहीं। मैं उसके महकते बालों में अपना चेहरा छिपाता, वह अधीर आग्रह से मेरा चेहरा उठाती - देखो अशेष, मेरी आँखों में देखो, आज मैं अपनी पलकों के आँचल में तुम्हारे लिए ढेर-सा आकाश चुन लाई हूँ। मुझे उसकी आँखों के गुलाबी कोयों में निमंत्रण के मादक संकेत मिलते, इच्छाओं की रसमसाती झील दिखती। वह अधैर्य अपनी लंबी बरौनियाँ झपकाती - ठीक से देखो, यहाँ मैं हूँ, तुम हो, तुम्हारा सपना है। हमारा वह घर है जिसकी नींव को ईट-पत्थरों की जरूरत नहीं। मैं उसके गुदाज सीने में अपना चेहरा धँसा देता - इन हसीन वादियों में मेरा घर है - नर्म, मुलायम कबूतरों की-सी हरारत भरी... और ये तुम्हारी जाँघें- मेरे एकमात्र गंतव्य की ओर जानेवाली उजली, चिकनी सड़कें... वह गहरी साँस लेकर अपना चेहरा फेर लेती - तुम कब मुझ तक पहुँचोगे अशेष, मुझे तुम्हारा कितना इंतजार है, बहुत अकेली हूँ...

उसकी देह की गर्म झील में डूबता-उतराता मैं सोच नहीं पाता, अब मुझे और कहाँ पहुँचना है! मैं उसके कान की लवें सहलाता, गालों के नर्म गड्ढों में फिसलता... मैं क्या कुछ नहीं पा गया था! वह कहती, हमारे बीच से यह देह की मिट्टी हटा दो। दीवार बनी हमेशा खड़ी रहती है, एक-दूसरे तक पहुँचने नहीं देती।

पागल थी वह। अपने शरीर से परे होकर न जाने अब क्यों सोच और अहसास बनकर जीना चाहती थी। कहती थी, इस हाड़-मांस के मीना बाजार में बहुत अकेलापन है, जैसे राम का वनवास... वैदेही के हिस्से का जंगल उन्होंने अपने राजप्रसाद में जिया था... ये उनका सबसे बड़ा वनवास था। एक राज की बात बताऊँ? औरतें मन की अतल गहराई में किसी ऐसे ही राम को चाहती हैं जो कृष्ण की तरह महारास का साथी न होकर उसके जीवन के निसंग वनवासों का साथी हो, फिर चाहे ये वनवास उसी के हाथों क्यों न मिला हो... देह के स्वाद में डूबकर कोई मन के अंतर में भीगना ही नहीं चाहता...
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: औरत जो एक नदी है

Post by Jemsbond »

मैं समझने की कोशिश करता, मगर समझ नहीं पाता। पुरुष हूँ, देह और मन- दोनों स्तर पर एकसाथ जी सकता हूँ और कोई द्वंद्व भी महसूस नहीं करता। मन मीरा बनकर वैराग्य की माला फेरता है तो तन राधा की तरह महारास में मगन हुआ रहता है। मैं उसे समझाने की कोशिश करता - मगर इसमें गलत क्या है! देह ही तो प्यार की जमीन है। वह उदास हो जाती - मगर यही उसकी हद तो नहीं होनी चाहिए... तुमलोग इसी जंगल में क्यों भटकते रहते हो!

सोने के मृग के पीछे तो हमारे राम भी भटक गए, फिर हम माटी के पुतले क्या हैं! फिर, तुम भी तो भटकती हो... मैं उसे अपने ऊपर खींच लेता। वह सहज मुस्कराती -प्यार में सबकुछ सही होता है। गलत तो वह होता है जो प्यार में नहीं होता।

कभी-कभी मुझे उसका अपनी इच्छाओं के संदर्भ में इतना मुखर होना खल भी जाता था। कहता था, अपनी वासना को लेकर तुममें कोई वर्जना, कोई इनहिबिशन नहीं... वह बिंदास हँसती - यू हिप्पोक्रेट मैन, हर जगह अपना ही आधिपत्य चाहते हो, घर में भी, बाजार और बिस्तर पर भी... औरत तुम्हारी मर्जी की करती रहे हमेशा और अपनी इच्छा या खुशी भी जताए तो तुमलोगों को नागवार गुजरती है, एक बात निकाल दो अपने दिमाग से कि औरत सिर्फ भोग्या है। वह भी भोगती है! फर्क बस इतना है कि वह तुमलोगों की तरह संभोग में अपने अहम के साथ अकेली नहीं रहना चाहती, अपने साथी का दैहिक और मानसिक स्तर पर बराबर का साथ चाहती है, जितना लेती है, उतना, बल्कि उससे भी ज्यादा देना चाहती है! सम+भोग तो सही अर्थ में वही करती है... वह शब्दों को रुक-रुककर उच्चारती है - सबकुछ अकेले हड़पने के चक्कर में तुम मर्द कितने अकेले रह गए हो...

इतनी सहजता से वह अपने विगत संबधों की लंबी सूची मुझे गिनाती कि कभी-कभी मैं अपनी कुढ़न छिपा नहीं पाता, पूछता, तुम्हें ग्लानि नहीं होती? वह झट जोगन बन जाती - जब तक स्त्री अपनी इच्छा से किसी का वरण नहीं कर लेती, कुँवारी ही रहती है। वैसे, माटी की देह का क्या है, टूटता-फूटता रहता है... और फिर एक बात कहूँ, इस मामले में स्त्री लंबी दौड़ की खिलाड़ी होती है, वह पुरुष का आखिरी प्रेम होना चाहती है। पुरुष तो पहला प्रेमी - वह भी देह के संदर्भ में - होकर ही खुश हो लेता है। कितना सतही होता है उसका ये पाना, वह कभी समझ ही नहीं पाता!

उसकी उपालंभ से भरी आँखें मुझे गहरे तक दाग गई थी। ऐसे मौकों पर वह मुझसे कितनी दूर हो जाया करती थी - समानांतर दौड़ते नदी के दो किनारों की तरह, जहाँ बाँह भर की दूरी जीवन भर का अभाव बना रहता है।

एकबार बिस्तर पर रोम-रोम से रीत गई-सी पड़ी-पड़ी वह शिकायत कर बैठी थी - मेरा सबकुछ जस का तस रह गया है अशेष। तुम मुझे लेते क्यों नहीं? मैं तुम पर पूरी तरह खत्म हो जाना चाहती हूँ। तुम मुझे सूद-मूल में कमा लो, मैं तुमपर पाई-पाई खर्च हो जाऊँगी... जानते हो टैगोर क्या कहते हैं - दूँगा उसे जिसे बिना मूल्य दे सकूँगा - हर औरत बस यही चाहती है।

मेरे द्वारा उपहार में लाई हुई मोतियों की माला अपने गले में डालते हुए उसका यह कहना अजीब विरोधाभास से भरा हुआ था। वह जैसे विसंगतियों का एक गुंजल थी। भोग्या बनी स्वयं जीवन को हर स्तर पर पूरी शिद्दत से भोगती वह न जाने किस क्षण संन्यास की विरक्ति से भर उठेगी, कहना कठिन था। उसका साहचर्य मुझे सुख के साथ असुरक्षा की गहरी कुरेदती भावना से रातदिन ग्रसित रखता था।

दूसरी तरफ तरफ उमा थी और उसकी अंतहीन शिकायतें, जो गलत भी नहीं थीं। कौन था गलत यहाँ - मैं, उमा या फिर दामिनी...! शायद हममें से कोई भी नहीं। ये हालात थे... गलत समय या स्थिति में सही भी गलत ही हो जाता है। दामिनी कहती है, प्यार कभी गलत नहीं हो सकता। मैं सोचता हूँ, प्यार की अभिव्यक्ति तो गलत हो सकती है...

मैंने बातों के छिलके उतारने छोड़ दिए हैं - इससे कभी कुछ हासिल नहीं होता। जीना चाहता हूँ, खुश होना चाहता हूँ... इसमें कहाँ क्या गलत है, इसकी विवेचना दुनिया करती रहे। अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हुए हम दूसरों के रास्ते मे आ जाते हैं... अनजाने ही। दुश्मनी नहीं करते, मगर दुश्मन बन जाते हैं, बिना पाप किए पापी हो जाते हैं... मैं उमा का कसूरवार था, दामिनी का भी, मगर बिना कसूर किए... बस, उनकी राह में आ गया! पाप-पुण्य जैसा कहीं कुछ होता भी है? ये हालात होते हैं और विवशताएँ... मैं अक्सर सोचता हूँ, जब उमा के सवाल कचोटने लगते हैं या फिर दामिनी के शब्द तकलीफ पहुँचाते हैं। प्यार खुशियाँ लाता है, मगर किस कीमत पर... खुशियों की ही कीमत पर! घर फूँककर उजाला करना...।

दामिनी क्या चाहती है, मैं समझ नहीं पाता। वह अपने जिस्म और रूह के बीच उलझी रहती है - उसे दोनों चाहिए - पूरा-पूरा! नशे में अपनी जपा फूल बनी आँखों को झपकाकर कहती है - देह साध्य नहीं, सिर्फ साधन होनी चाहिए... मैं इन तर्कों के मकड़जाल में नहीं उलझना चाहता, जो महसूस करता हूँ, देखता हूँ, छूता हूँ, उसे सच मानता हूँ। ये हाड़-मांस की स्थूल दुनिया मेरे लिए सच है। देह से परे क्या रह जाता है... मैं हवा को मुट्ठी में बाँधने की ख्वाहिश नहीं रखता। निरगुन कोन देस को वासी... एक से प्यार करने का अर्थ दूसरे से नफरत करना नहीं होता। सीधे-सादे शब्दों में मेरे लिए प्यार का जो अर्थ है, वह मैं उमा से करता हूँ और दामिनी से भी करता हूँ। यदि इस बात को समझने, स्वीकार करने की सामर्थ्य दामिनी या उमा में होती तो शायद मैं उन्हें यह सच बताने की जुर्रत भी कर लेता। झूठ बोलने के लिए हम अक्सर विवश किए जाते हैं, सच सुनना कौन चाहता है...

शायद मैं डिफेंसिव हो रहा हूँ... क्या करें, स्वयं को बचाना सेल्फ इमेज और एस्टीम के लिए जरूरी होता है। ईगो - अपने अहम की रक्षा! अपराधबोध से मुक्त होने की कवायद, ताकि रातों को चैन से सोया जा सके।

दामिनी से एकबार स्पष्ट पूछा भी था, क्या उसे मर्दों से घृणा है। उसने कहा था, मर्दों से नहीं, मगर हाँ, शायद मर्दों की टिपिकल प्रवृत्ति, जो स्त्री विरोधी है, से घृणा करती हूँ। उसके पास अगर औरतों से ज्यादा - ज्यादा कह रही हूँ - बेहतर नहीं - कुछ है तो बस अहंकार का वह टोकरा, जिसकी वजह से वह स्वयं को सिर्फ पुरुष होने के नाते स्त्री से श्रेष्ठ समझता है। दोनों - स्त्री और पुरुष - अपनी-अपनी जगह अन्याय का शिकार होते हैं, मगर जहाँ स्त्री-पुरुष संबंध की बात है, वहाँ जरूर पुरुष ने ही स्त्री के साथ अन्याय किया है। सभ्यता के हम रोज नए-नए सोपान चढ़ रहे हैं, मगर अंदर वही जंगल बना हुआ है और उसका वही जंगली राज - माइट इज राइट... तुम अपनी सभ्यता के इतने लंबे सफर के पद-चिह्न हम औरतों की देह पर देख सकते हो - नखों, खुरों से लेकर सिगरेट से जलाए गए धब्बों तक...

कहाँ, मेरी आँखें तो इतना सबकुछ नहीं देख पातीं... मैं उसे छेड़ता हूँ, वह बुरा मान जाती है - आँखें तो होती ही हैं अंधी, ये तो मन है जो देखता है। वह मन पैदा करो, इतना स्थूल मत बन जाओ कि तुममें और कद्दू, लौकी में कोई फर्क ही न रह जाय...

कभी-कभी मुझे दामिनी के जीवन की ट्रेजेडी भी बहुत कृत्रिम, एक हदतक रोमानी प्रतीत होती थी। वाइन पीकर रोना भी एक तरह की ऐय्याशी होती है, किसी-किसी के लिए समय गुजारने का एक हसीन तरीका... सुनकर दामिनी इसबार नाराज नहीं हुई थी, बस धीरे से कहा था, किसी जलपक्षी की तरह गंभीर और उदास आवाज में -

इतना जजमेंटल क्यों हो रहे हैं! दुनिया में बहुतों के दुख होंगे - बहुत ज्यादा, मगर इसी से मेरे दुख तो कम नहीं हो जाते न? जब कोई भूख से रोता है, कोई किसी और बात के लिए रोता है। दुख को हम आकार या वजन में क्यों बाँटने लगते हैं? यहाँ कोई कंपटीशन नहीं हो रहा है, इस मामले में किसी को मुझसे आगे निकलना हो तो शौक से निकले...

मुझे कौतुहल होता था, अपनी माँ का जीवन, उनका अनुभव देखकर भी दामिनी किस तरह अब भी प्यार पर यकीन किए बैठी थी। उसके लिए तो अबतक सब झूठ हो जाना चाहिए था। सुनकर वह हँसी थी - तुम नहीं समझोगे, एक तरफ मेरे पापा थे, मगर दूसरी तरफ मेरी माँ भी तो थीं! प्यार होता है, उसपर लोग अपना सबकुछ कुर्बान कर देते हैं, यह सच्चाई भी तो मेरी आँखों के सामने ही थी न? अशेष, अविश्वास में जीने से अच्छा है विश्वास के हाथों मारा जाना, कभी कहा भी था शायद तुमसे। वह गजल सुनी है - 'हर जर्रा चमकता है अनवर-ए-ईलाही से, हर साँस ये कहती है, हम हैं तो खुदा भी है...' ...तो प्यार है, यकीन है...

ऐसा कहते हुए उसकी आँखों में ध्रुवतारा-सा कुछ अडोल चमक आया था। न जाने क्यों मैंने अपनी नजरें झुका ली थीं उस क्षण - उनका सामना नहीं कर पाया था।

उसदिन हम आइनोक्स में फिल्म देखने गए थे। किस्मत से उसदिन लगभग पूरा हॉल ही खाली था। थोड़ी ही देर में दामिनी ऊब गई थी - क्या बकवास फिल्म है अशेष! ऐसी फिल्म दिखाने लाए ही क्यों?

मैं तो जानबूझकर ही लाया था, मेरी शरारत भरी मुस्कराहट से वह चौंकी थी -

क्या मतलब?

मतलब... नहीं तो ऐसा खाली हॅाल कहाँ से मिलता... मैं उसके बहुत करीब होकर बैठा था।

बदमाश कहीं के... उसने नाराजगी दिखाई थी, हँसते हुए...

उसके बाद आधी फिल्म छोड़कर ही हम मिरामार बीच चले गए थे। पैदल ही, माँडवी के किनारे-किनारे। शाम के समय पूरी नदी रँगी हुई थी, शहर भी - आकाश के टेसुआ रंग में। सूरज थोड़ी देर पहले ढला था, हवा अब ठंडी होने लगी थी। दूर नदी के सीने पर तैरते हुए कैसिनो की नीली बत्तियाँ एक-एककर जल उठी थीं। पानी में नावों की परछाइयाँ लंबी होकर डोल रही थी। सड़क के किनारे सैलानियों की भीड़ जमा थी। पास ही लगे बाजार में बिकते अलफोंसों आम की महक से हवा तर हो रही थी। गर्मी की एक खूबसूरत शाम, गंध और रंग भरी... मुझे सबकुछ बहुत सुखद लग रहा था।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Jemsbond
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Re: औरत जो एक नदी है

Post by Jemsbond »

हम जाकर मिरामार बीच पर बैठ गए थे। चारों तरफ ऊँचे, लंबे पेड़ों की कतारें और उनके चीरे, महीन पत्तों के बीच से झाँकता हुआ रंगभरा सँझाता आकाश... दामिनी ने उसदिन तसर सिल्क की हल्की नीली साड़ी पहनी हुई थी। ढीले जूड़े में पीले चंपा की एक अधखिली कली। पास बैठने पर उसकी मीठी गंध मेरे नासारंध्र से टकराई थी।

- हम दोनों आज साथ-साथ कितने खुश हैं न दामिनी... मैंने उसकी हथेली खोलकर उसमें एक मुट्ठी रेत उँड़ेली थी।

- हाँ, उसने वह रेत अपनी मुट्ठी अलगाकर धीरे-धीरे हवा में उड़ा दी थी - काश! ये समय यूँ ही ठहरा रह जाए...

- दो इनसान एक साथ इतना खुश रहते हैं, और कभी-कभी क्या हो जाता है कि वही इनसान किसी और के लिए असह्य हो उठते हैं...

- कहीं कुछ गलत हो जाता है। बल्कि मुझे तो लगता है, कोई कभी गलत नहीं होता, ये हालात होते हैं या फिर हमारी अपेक्षाएँ जो गलत होती हैं... इनसान बुरा भी शायद ही होता है, हाँ, भिन्न जरूर होता है और अपने से भिन्न को न सह पाने की असहिष्णुता ने ही तो पूरी दुनिया को हमेशा से तनाव में डाल रखा है। किसी को हम उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पाते जो वह है। रिश्ता जुडते ही हम उसे बदलने में लग जाते हैं, वह बना देना चाहते हैं जो वह नहीं है। और फिर इस गलत कोशिश में न खुद खुश रह पाते हैं, न औरों को ही रहने देते हैं। कोई ये क्यों नहीं सोचता कि अगर पूरी दुनिया एक जैसी होती तो सबकुछ कितना उबाऊ और एकरस हो जाता...

एक क्षण के लिए रुककर वह रेत पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती रही थी, किसी सोच में डूबी हुई-सी, फिर मेरी आँखों में झाँका था, अपनी आँखों के ढेर सारे सवाल लिए -

यहाँ रिश्ते के नामपर ये हिंसा क्यों होती है अशेष, जिससे हम प्यार करने का दावा करते हैं, उसे ही तोड़ डालते हैं, धीमे जहर से मार डालते हैं, उसकी हर खुशी, उपलब्धि से ईर्ष्या करते हैं, चाहते हैं, वह वह न रह जाय, कोई और बन जाय - जो वह नहीं है। पापा ने यही किया था मेरी माँ के साथ। माँ का अपना व्यक्तित्व था जिसे वे बदलकर अपने मन मुताबिक नहीं बना पाए। औरत का कुछ अपना हो, निजस्व हो, यह मर्द बर्दाश्त नहीं कर पाता, चाहता है, औरत उसकी परछाईं भर बनकर रह जाय। शायद इसीलिए पापा माँ से चिढ़ने लगे थे। उन्हें जब बदल या झुका नहीं पाए, तब उन्हें पराजित करने का दूसरा तरीका ढूँढ़ निकाला - उन्हें पूरी तरह नजरअंदाज कर उनके मर्म और आत्मसम्मान पर चोट पहुँचाकर... उनके किसी सवाल का जबाव देना तो दूर, उन्होंने माँ से बोलना ही छोड़ दिया था।

माँ इस अपमान और गहरी अवज्ञा को सह नहीं पाईं... अंततः टूट ही गईं...

एक छोटे-से विराम के बाद वह बोली थी, अवसन्न आवाज में - जनते हो अशेष, यह दुनिया की सबसे बड़ी और क्रूरतम सजा है। यही सजा पापा ने मेरी माँ को दी थी। कुछ घंटे या एक दिन में नहीं, एक उमर तक उन्हें तिल-तिलकर मारा था - हर रोज, हर क्षण...

उसी मौत के साक्ष्य में मेरे बचपन की दूधिया हँसी घुलकर रह गई है अशेष! अपनी निरंतर मरती माँ को देखते हुए मैं कौन-सा सपना देख सकती थी। नहीं होता था मुझसे कुछ भी - हँसना, बोलना, मुस्कराना... माँ मेरे लिए गाती थी, मुस्कराती थी, मगर उनसे चुपचाप रिसते दुख मुझतक पहँच ही जाते थे, अदृश्य, अरूप वन्या की तरह।

एक दिन - जब मैं कुछ बड़ी हो गई थी - माँ से कहा था - माँ, हमेशा हँसने की जरूरत नहीं। कभी रो लिया करो, इट्स ओके - सच! उसदिन माँ ने मुझे किन गीली नजरों से देखा था, जैसे चोरी करते हुए रँगे हाथों पकड़ी गई हों। उनकी झेंप को मिटाने के लिए मैं एकबार फिर से अनजान बन गई थी।

देर शाम तक समुद्र तट पर बैठकर उस दिन हम दामिनी की कॉटेज में लौट आए थे। तबतक दामिनी का मूड बदल गया था। अपनी माँ के प्रसंग पर अक्सर दामिनी के साथ यही होता था, वह अपने अतीत में देरतक के लिए गुम जाती थी। कमरे में अपने बिस्तर पर लेटकर वह देरतक बोलती रही थी, छोटी-मोटी बात... मैंने फ्रिज से रेड वाइन निकाल ली थी। साथ में उषा मछली के कटलेट्स रख गई थी। यह वह बहुत अच्छा बनाती थी। खाते हुए मैंने गौर किया था, दामिनी न जाने कब चुप हो गई थी। जैसे उसे झपकी आ गई हो।

उसकी बातें खत्म होने के बाद भी देरतक कमरे में चक्कर काटती रही थीं, जैसे किसी मंदिर के गर्भ-गृह में जलकर बुझ चुकी धूप की गंध...! मैं उसी में डूबा बैठा रहा था, कुछ कहने की इच्छा नहीं हो रही थी। मैं चाहता था, आज दामिनी अपने बंद मुट्ठी-से मन से निकलकर आकाश हो जाय - उन्मुक्त, स्वच्छंद और असीम! संकुल हृदय दिगंत का विस्तार पा ले, कहीं बँधा न रहे, घिरा न हो... ये उसके कन्फेशन का दिन था - सबकुछ-सबकुछ कह लेने का, सुना देने का दिन। उसने ही मुझसे यह माँगा था - किसी वरदान की तरह! मैंने स्वेच्छा से उसे दिया भी था। अगर वह खुश हो लेना चाहती है तो जरूर हो ले, रोकर ही सही!

मेरे खयालों से अनजान उसने फिर कहा था - मैंने माँ की डायरियाँ देखी थी - तुम्हें बताया था। खूबसूरत, रूहानी कविताएँ लिखती थीं वे। अपनी अनकही। उनकी मौत के कुछ दिनों बाद मैं उनका कमरा साफ कर रही थी। अप्रैल की एक खुशनुमा सुबह थी वह - चटकीली धूप और नर्म-मुलायम हवा से लबरेज। वह हमेशा का बोझिल-सा कमरा यकायक हल्का-फुल्का हो आया था। अलगनी पर माँ की हल्की पीली सूती साड़ी का लाल पाड़ झिलमिला रहा था। श्रृंगार मेज पर उनकी चूड़ियाँ बेतरतीब बिखरी पड़ी थीं। न जाने मन में क्या आया था कि मैंने आईने पर चिपकी उनकी लाल बिंदी उठाकर अपने माथे पर लगा लिया था और फिर चौंककर देखा था, मैं बिल्कुल अपनी माँ जैसी दिख रही हूँ! उस क्षण मैं रोना नहीं चाहती थी, मगर बस वही किया - देरतक रोती रही। कोई-कोई पल सिर्फ सच के लिए होता है। उसमें झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। मैं अपने छद्म से थक गई थी, थोड़ी देर के लिए सही, अपने आप में होना चाहती थी, अपनी माँ की याद में होना चाहती थी - रोना चाहती थी...

माँ की देह पर पापा को बिलखते हुए देखकर मेरे आँसू सूख गए थे। अंदर विद्रोह और धिक्कार का ऐसा तीव्र बवंडर उठा था कि मैं उसमें आपाद-मस्तक ढँककर रह गई थी। अंदर का सच - घिनौना सच - मुझपर जाहिर था, इसलिए मैं उनके झूठ को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। क्या मृत्यु के उस क्षण में भी पापा को उन्हें सिर्फ छलना ही था। कम-से-कम आज तो माँ को यह सब नहीं मिलना चाहिए था!

अचानक उठकर दामिनी खिड़की पर खड़ी हो गई थी। बाहर आकाश का रंग बदल रहा था। हवा में आते हुए नए मौसम की गंध थी - बहुत नया, मगर वही पुराना, चिर परिचित... मैंने उस गंध को पहचानने की कोशिश की थी - गंध के भी चेहरे होते हैं, रंग भी! जैसे आम की फूलती मँजरी की गंध के साथ गर्मी की किसी दोपहरी, अमराई या बचपन में अपने ननिहाल में बिताई गर्मी की छुट्टियों की याद एकदम से ताजा हो उठती है - किसी जीवंत तस्वीर की तरह। ऐसा कि हाथ बढ़ाकर उन्हें छुआ जा सके!

न जाने मेरी उँगलियों के पोरों में उस क्षण जीवन का कौन-सा अनुभव स्पर्श बनकर धड़क रहा था जब दामिनी ने मुझे संबोधित किया था, जाने कहाँ से, यादों के किस गाँव से... एक चूर होती आवाज - काँच के किरचों की तरह - महीन, धारदार - पापा को और शायद वहाँ उपस्थित सभी लोगों को मेरा अपनी मृत माँ के सिरहाने यूँ निर्लिप्त और भावहीन होकर बैठी रहना आश्चर्य में डाल रहा था। दुख मनाना, शोक व्यक्त करना हमारे समाज में एक रस्म भी है, सामाजिक व्यवहार! सभी को, विशेषकर स्त्रियों को इसमें पारंगत होना ही चाहिए। वर्ना छी-छी होती है... अब दामिनी की आवाज में हँसी-सी घुल आई थी। वह कह रही थी - किसी ने मुझे सुनाकर कहा भी था - आजकल के बच्चे - सेल्फ सेंटर्ड, स्वार्थी... माँ-बाप की भी नहीं पड़ी है उन्हें - ऐसे अवसर में भी... उनकी बात पर किसी ने गहरा उच्छ्वास भरा था।

मुझमें उस वक्त एक गहरा आक्रोश और जिद भरी हुई थी। किसी का कुछ नहीं गया था, सब रस्म निभा रहे थे। दुनिया तो मेरी लुटी थी। मैं किसी भी स्तर पर उनसे- उन कृतिम और दिखावटी लोगों से अपनी माँ को बाँटना नहीं चाहती थी - रोकर भी नहीं। कैसे दो बूँद बहाकर मैं अपने अंदर से उनके दुख को कम हो जाने देती! अब जो था यही था मेरे लिए - माँ की थाती, माँ की निशानी - उनकी विरासत... मुझे सहेजना था उनको - एक पूरी उम्र के लिए!

डायरी के एक पन्ने में माँ ने लिखा था - समय की आँखों में हींग-हल्दी और पसीने से लिथड़ी हुई कामवालियों के लिए लालसा देखती हूँ और शर्म से गड़ जाती हूँ। ये वही समय है जिसके लिए मैंने अपनी सपनों और इच्छाओं की एक पूरी दुनिया छोड़ दी, जिसके प्यार को पाकर मैं स्वयं को दुनिया की सबसे अमीर औरत मानने लगी थी। समय से शादी करने के बाद मैंने किसी को लिखा था, मैंने अपने सबसे अच्छे दोस्त से शादी कर ली है। अब याद करती हूँ तो अपने ही भोले यकीन पर तरस आता है। कितनी मासूम थी, इस तरह से यकीन करना आता था।

ये पक्तियाँ पढ़कर मुझे भी शर्म महसूस हुई थी। माँ की स्थिति में होकर सोचना चाहा था। उनकी संपूर्ण आस्था और समर्पण का ये तो प्रतिदान नहीं होना चाहिए था! पापा से शादी करने के लिए उन्होंने लगभग अपने सारे ही रिश्ते ठुकरा दिए थे। ससुराल के अजनबी माहौल में पापा के सिवाय उनका कोई नहीं था। यहाँ की भाषा, संस्कृति, खान-पान - सभी कुछ माँ के लिए नया था। उस नए और अजनबी माहौल में व्यवस्थित और सहज होने के लिए उनको पापा के साथ और सहानुभूति की सख्त जरूरत थी। मगर पापा ने उसी कठिन समय में माँ का साथ छोड़ दिया था।

पापा के इस व्यवहार से माँ बिल्कुल अवाक रह गई थी। लोग विश्वासघात करते हैं, मगर इस आकस्मिकता से... माँ सह नहीं पाई थी, टूट गई थी एकदम से - अचानक! लोग झूठे निकलते हैं। मगर भगवान...? पापा माँ के लिए भगवान ही थे। उस उम्र में जब इनसान आदर्शवादी होता है और प्यार, यकीन जैसी खूबसूरत चीजों में भरोसा रखता है, माँ ने पापा की बातों और व्यवहार पर यकीन करके उन्हें अपना भगवान ही मान लिया था। अंधविश्वास था उनका उनपर। वे बहुत भावुक और रोमांटिक प्रकृति की थीं, शायद मन से अकेली भी। उनके बहुत बड़े घर में सुख-सुविधाएँ तो खूब थीं, मगर आत्मीयता की गरमाहट उतनी नहीं थी। उनके पिताजी बड़े आदमी थे, बहुत व्यस्त भी। माँ हमेशा सामाजिक कामों या किटी पार्टियों में उलझी हुई। बहुत बड़े अभाव से जन्मी थी उनके अंदर प्यार की गहरी भूख। अपने सारे सपनों, इच्छाओं-कामनाओं का आरोपण उन्होंने पापा पर कर दिया था। वे शायद अपनी हर अधूरी इच्छाओं की पूर्ति पापा से करना चाहती थीं। बहुत ज्यादा उम्मीदें वे अपने इस रिश्ते से लगा बैठी थीं। आखिर इसी संबंध पर उन्होंने अपना सबकुछ लगा दिया था। एक तरह से पूरे जीवन का निवेश ही।

समुद्र के किनारे चलते हुए जैसे वह हर बार अपने अतीत में चलने लगती थी। कई बार मैं यह देख चुका था। एकदिन बाघातोर समंदर के तट पर चलते हुए भी उसने कहा था - माँ का जीवन स्वप्न भंग के एक अंतहीन सिलसिले की तरह ही था - अछोर और यातना भरा! उनका हिसाब दिन, महीनों से नहीं लगाया जा सकता। दुखों के एक पल में न जाने कितनी सदियाँ होती हैं - कटती हैं, मगर नहीं कटतीं... इन्हीं छोटे-छोटे पलों से बना था माँ का जीवन, इसलिए लंबा था। उनके सिरे नहीं मिलते थे... उन्होंने अंततः काट ही लिया था अपना जीवन, मगर कोई पूछे कि कैसे... दामिनी चलते-चलते रुक गई थी, उसके पीछे उमड़ती हुई अबाध्य लहरें भी! कभी कोई क्षण जैसे तस्वीर-सा बन जाता है, स्मृति के फ्रेम में हमेशा के लिए जड़ जाने के लिए। यह क्षण भी कुछ ऐसा ही था। उसकी गीली आँखों का सूनापन देखकर अचानक इच्छा हुई थी, इस दुनिया को सिरे से बदल दूँ, सबकुछ तहस-नहस कर दूँ, यहाँ बहुत कुछ गलत होता है - यहाँ मेरी दामिनी को दुख पहुँचता है... कभी-कभी तुम मुझे क्या कुछ करने पर आमादा कर देती हो दामिनी...!

मेरी आँखों का मौन उसतक पहुँचा था या नहीं, कह नहीं सकता, मगर वह हल्की हो आई थी, बरसे हुए बादल की तरह। उसके गहरे कासनी आँचल में इस समय सारे आकाश का रंग था - चेहरे पर भी - अबीरी हो रहा था, न जाने किस सोच में... उसके चेहरे पर जल-बिंदुओं की तरह ठहरा हुआ उसका मन होता था - टल-मल - स्पष्ट... कितनी पारदर्शी थी वह - काँच के नाजुक गहने की तरह... उसे छूते हुए ध्यान रखना पड़ता था, कुछ चटक न जाय!

अपने बेतरतीब उड़ते बालों को एक जूड़े में समेटने का असफल प्रयास करते हुए वह एक पत्थर पर बैठ गई थी - ऐसा क्यों है अशेष कि हम हमेशा अपने अतीत या भविष्य में ही जीना पसंद करते हैं? वर्तमान जो सच है और हमारे सामने है, अदेखा रह जाता है...

- जो अप्राप्य है, वही लोभनीय है... पाया हुआ अपना आकर्षण खो देता है - ह्यूमन नेचर! मैं उसके बगल में बैठ गया था, अपनी गीली होती पैंट की परवाह किए बगैर। मेरी बात पर वह सोच में पड़ गई थी - तुमने मुझे भी तो पा लिया है... आगे की बात करने के लिए शायद उसे शब्दों की तलाश थी, एकदम से रुक गई थी। मैं अपने बयान की पकड़ में आ गया था, अब क्या कहूँ सोच रहा था। उसने अचानक अपनी बात का रुख मोड़ दिया था -

अशेष, तुम अपनी पत्नी से कभी प्यार करते थे...? उसके सवाल ने मुझे चौंकाया था - कभी... मैं अपनी पत्नी से कब प्यार नहीं करता था! मगर ये जवाब मैं उसे दे नहीं सकता था। उसकी आँखों की झिलमिल बता रही थी, उसकी मुझसे क्या अपेक्षा है... वह सुनना चाहती है कि मैं उमा से कभी प्यार नहीं करता था, ये रिश्ता एक मजबूरी और समझौता है, मैं उससे - सिर्फ उससे प्यार करता हूँ। ऐसा इंगित तो कभी मैंने ही किया था न। अब मैंने वही सब कहा भी। वह सुनी और संतुष्ट हुई - प्यार किया नहीं जाता है, ये तो घटित होता है!

- हाँ, और होता भी है बस एकबार... मैंने उसका हाथ पकड़ा था - उसके बाद तो सिर्फ दुहराया ही जाता है...

उसने मेरी आँखों में गहरा झाँका था - मगर तुम दुहराना भी मत...

- तुम पागल हो... उससे जो कुछ भी मैं इस क्षण कह रहा था उसमें कितनी सच्चाई थी, कह नहीं सकता, मगर झूठ कहने का इरादा भी नहीं था। ये समय विश्लेषण, विवेचन का नहीं, विशुद्ध भावनाओं का है और मैं उसमें पूरी तरह डूबा हुआ हूँ। प्रेम इनसान को क्या सिर्फ ईमानदार बनाता है? वह उसे बेईमान भी बना देता है - अधिकतर... मैं अपनी किसी बेईमानी पर शर्मिंदा नहीं था, जो कुछ किया था, उसी की लगन में किया था, उसी के लिए किया था। प्यार में सबकुछ सही होता है, गलत तो वह होता है जो प्यार में नहीं होता... एकबार शायद दामिनी ने ही यह कहा था। कभी उसने कैफियत माँगी तो उसकी यही बात दुहरा दूँगा।

उसका धूपछाँही व्यक्तित्व मुझे भूलभुलैया जैसा प्रतीत होता। कभी सुबह की लिली-सी ताजी, चमकीली तो कभी सावन के आकाश की तरह मेघिल और उदास... खासकर इच्छा के चरम क्षणों में मैंने उसे किसी जंगली बिल्ली की तरह सांघातिक और उत्तेजक पाया है। अपनी पूरे सामर्थ्य और दैहिक शक्ति से से भी उसे दमित और संतुष्ट न कर पाने की कुंठा में मैं बार-बार उसकी देह पर उत्पात मचाता रहा, मगर निष्फल! वह मेरी हताशा देखकर गहरी यातना में भी मँजीरे की तरह बज उठती थी। ऐसे में उसकी उजली हँसी उसकी आँखों से होते हुए उसके सुडौल उरोजों पर फैल जाती थी - ठीक जलतरंग की मीठी ठुनक की तरह!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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