लौट आओ तुम

Jemsbond
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Re: लौट आओ तुम

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‘पगली कहीं की, माली ने हमें जो़र से थोड़ी मारा है, वह तो हमें डरा रहे थे।’

‘देखें तो?’ अनुपम की पीठ से कमीज उठाकर निशान देखने की उसकी कोशिश, हमेशा ही व्यर्थ गई।

अब तो अनुपम एम्.एस्-सी फाइनल की परीक्षा दे चुका होगा। बकौल उसके मामा... इस वर्ष से ही कम्पटीशन्स् की तैयारी करेगा। अचानक अनुपम, नीरज, आरती सबसे मिल आने के लिए मीता बेचैन-सी हो उठी।

होस्टल पहुँच, साथ ले जानेवाले सूटकेस में वो पेन्टिंग रखती मीता एक बार फिर मुस्करा उठी। बिस्तर पर लेटते ही उसने अगले दिन का कार्यक्रम निश्चित कर डाला था-सुबह एडिटिंग निबटाने के बाद पूरे दो सप्ताह का कार्यक्रम तैयार था। अलका दी को दायित्व दे जाने से निर्धारित तिथियों में विश्वनाथ कैसेट ले लिया करेगा। निश्चिन्त मन सोई मीता, सुबह साढ़े सात तक सोई रह गई थी। चाटर्ड बस सवा आठ पर चल देती है। जल्दी-जल्दी तैयार हो, एक बिस्किट के साथ चाय के दो घूँट निगल, मीता नीचे आ गई।

जबसे उसने घर छोड़ा है, सुबह-शाम का नाश्ता-खाना कब चैन से नसीब होता है? अम्मा तो उसके स्कूल-काॅलेज जाते समय भी शोर मचाए रखती थींµ

‘खाना ठीक से नहीं खाएगी तो दिमाग क्या खाक काम करेगा?

बाबूजी अम्मा की इस लाॅजिक पर खूब हँसा करतेµ

‘तुम्हारे विचार में तो पहलवानों के दिमाग तेज़ होने चाहिए, मनों खाते हैं।’

‘आप ऐसी ही बातें करके इन बच्चों को बिगाड़ डालते हैं, मेरी एक नहीं सुनते। माना मैं आप जितनी पढ़ी-लिखी नहीं, पर उतनी मूर्ख भी नहीं कि बच्चों का अच्छा-बुरा न समझ सकूँ।’

‘अरे रे रे... तुम तो नाराज़ हो गई। भला तुम इनका अच्छा-बुरा नहीं जानोगी तो क्या मैं जानूगा? मैं तो स्वयं तुमपर निर्भर हूँ, भई।’ बाबूजी निरीह बन जाते।

‘हमें ही क्यों यहां इतने और लोग जो हैं?’

‘अगर हमें यूरोप-टिप से अचानक न लौटना पड़ता तो दस दिन बाद ही तो यहां पहुचते। बस हमारे आंसू पोंछने के लिए डाइरेक्टर साहब ने पूरी टीम को दार्जिलिंग के लिए बुक कर दिया।’


‘मुझे नही जाना है दार्जिलिंग! घर वालों से मिले कितने महीने बीत गए हैं।’

‘टाई कर देखो, तुम्हारी लीव ग्रांट होने से रही। वैसे एक बात जरूर है, तुम और लड़कियों से बहुत अलग हो।

‘क्योें’

‘वे ऐसे दौरों को दूसरों से छीनना चाहती है जबकि तुम्हें इनके प्रति कोई उत्साह ही नहीं।’

‘हर एक की अपनी रूचि-अरूचि होती है।’

‘वो बात नहीं, और किसी बात के संदर्भ में कहा था मैंने।’

‘किस संदर्भ में नवीन?’

‘छोड़ो, न समझो वही अच्छा है, पर दार्जिलिंग के लिए तैयारी कर डालो। जो वुलेन्स यूरोप के लिए खरीदे थे, कम से कम दार्जिलिंग में तो इस्तेमाल कर डालें वर्ना पैसे बेकार गए, न?’

‘बात पैसों की नहीं है, इस समय इतना होम-सिक महसूस कर रही हूॅ कि बस लगता है उड़कर पहुंच जांउ।’

‘नौकरी में सबसे पहले जिस चीज को छोड़ना चाहिए वो भावुकता है, पर तुम्हें शायद सबसे ज्यादा सगाव इसी वीकनेस से है।’

’तुम इसे वीकनेस कहते हो?’

‘वीकनेस और स्ट्रेन्थ दोनों ही हो सकती हैं। कहीं इसी भावुकता ने लड़की का कैरियर नष्ट कर डाला तो कहीं इसी के बल पर देवी कहलाई।’

‘मुझे न देवी बनना हैं और न दानवी, बस मीता ही रह जांऊष्वही काफी हैं। एक बात तय है, मुझे दार्जिलिंग जाने के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता, मैं घर जा रही हूँ।’

‘एक नेक सलाह मेरी भी मान देखिए... इस चांस को मत खोइए। विश्वास दिलाता हूँ, कोई तकलीफ़ नहीं होने दूंगा। लौटकर भी तो जाया जा सकता है, पर चांस दोबारा शायद ही मिले।’

‘क्या करना है चांस लेकर। स्टेशन डाइरेक्टर बनने की तमन्ना नहीं हैं मेंरी।’

‘शांतिपूर्वक काम तो करना चाहेंगी? बाॅस और नेता को नाराज कर, जी नहीं सकेंगी। मुझ पर विश्वास है न? चलकर देखिए कितना एन्ज्वाँय करेंगी प्लीज।’

‘नवीन के जुड़े हाथ देख मीता हंस पड़ी थी।

‘मुझे साथ ले जाने की कोई खा़स वजह?’

‘तुम्हारे साथ जो सहजता, है दूसरों के साथ संभव नहीं। अपने को न जाने क्या समझती हैं ये लड़कियाॅ, जो उनके नखरे उठाए वही ठीक है।’

‘मैंने तो सुना है लड़कियाँ तूम्हारे नखरे उठाती है।’

‘हां कैमरे जैसा ट्रम्प कार्ड जो अपने पास है। तो चलोगी न?’

‘ठीक है, एक बार तूम्हारे मन की बात ही सही, चलूंगी।’

‘थैंक्यू।’ नवीन का चेहरा खिल उठा।

दार्जिलिंग के मनोहारी दृश्यों ने मीता को मुग्ध कर लिया। होटल की बालकनी से दिखता कचनजंगा का शिखर मीता को बहुत अच्छा लगाा था।

आलोक जी का कार्यक्रम वहां दो दिनों के लिए नियत था। स्थानीय नेताओं से बातें करते आलोक जी के धैर्य पर मीता आश्चर्य कर उठती। विरोधी दलों के व्यक्तियों की अभद्र, अत्तेजित कर देने वाली बातें, वे किस शांति से सुन पाते थे।

शाम को गवर्नमेंट हाउस में गवर्नर की ओर से दिए गए रात्रिभोज में पूरी टी.वी. टीम को शामिल होना था। डिनर के पूर्व स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक-कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। पारम्परिक गीतों और नृत्यों ने समां बांध रखा था।

डिनर के बाद होटल पहुंचने पर मीता का टेलीफा़ेन बजा थाµ ‘हेलो...।’

‘अगर नींद नहीं आ रही है तो कुछ देर के लिए मेरे रूम मे आ सकती हैं’

’जी... मैं सोने ही जा रही थी, अगर ़जरूरी बात हो तो चेंज करके आ सकती हूँ।’ मीता लड़खड़ा आई थी। अलका दी ने रात में कभी कहीं अकेले न जाने की चेतावनी जो दी थी। आलोक जी को उस समय उससे क्या काम पड़ गया था? मीता का पूरा शरीर कंटकित हो उठा।

‘ओ.के. आप सोइए, फिर कभी सही...।’

जागते-सोते रात बीत गई थी क्यों बुलाया था आलोक जी ने... अगर बह गई होती तो? सुबह की ठंडी हवा ने मीता को जगाया था। कन्धें पर शाल डाल वह बाहर आ गई। सामने के पहाड़ों के पीछे से उभरते लाल सूर्य ने उसका अभिषेक किया और ढेर सारी चिड़ियों ने गीत गा अभिनंदन।

‘सुप्रभात। लगता है रात ठीक से सो नही पाईं।’

भोर के उस मनभावन रूप-सागर में डूबी मीता जान भी न सकी कब आलोक जी उसके पास आ खडे़ हुए थे।

‘जी...। आप बहुत जल्दी उठ गए?’ अपने को सम्हाल मीता ने पूछा था।

‘मैं शायद सोया ही नहीं, इसलिए जागने का सवाल ही नहीं उठता। हां आप जरूर जल्दी जाग गई। क्या हमेशा की अर्ली राइजर हैं?’
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‘अम्मा ने रोज जल्दी जगा, ऐसी ही आदत डाल दी है। उनका कहना है देर तक सोने वाले शनीचर होते हैं।’ अम्मा की वो बात याद करती मीता के ओंठ मुस्कान में फैल गए।

‘कल रात आपको क्यों याद किया, जानना चाहेंगी?’

न जाने क्यों मीता का मुंह लाल हो गया था। अनुत्तरित मीता को एक पल ताक, आलोक जी ने कहा थाµ

‘महादेवी वर्मा की कुछ पक्तियाँ पढ़ते-पढ़ते अचानक आप याद आ गईं।’

‘कौन सी पंक्तिया? मीता अपनी उत्सुकता रोक नहीं सकी थी।

‘मैं नीर भरी दुख की बदरी...’ ताज्जुब इसी बात का है कि उन पंक्तियों से आपकी याद क्यों आई? आप का चेहरा तो हमेशा उल्लास और उत्साह से दमकता है फिर ऐसा क्यों हुआ?’

‘शायद इसलिए कि अन्दर से मैं बहुत उदास-दुखी हूँ।’

‘आप उदास या दुखी क्यों होंगी मीता जी? उज्ज्वल भविष्य के साथ, आपका वर्तमान भी...’

‘उन बातों को जाने दीजिए। आप यहां पहले भी आ चुके हैं?

‘कई बार, पर लगता है आज ही जान पाया दार्जिलिंग की सुबह कितनी सुन्दर है।’

‘इसके पहले आप कभी जल्दी जागे ही नहीं होंगे इसलिए...।’

‘शायद ठीक कह रही हैं, इसके पहले...। आप यहां के टूरिस्ट स्पाॅट्स देखना चाहेंगी? यूरोप का कार्यक्रम तो एन्ज्वाॅय नहीं कर पाईं, यहां दार्जिलिंग का आनंद उठा लें।’

‘अगर समय मिला तो देख लूंगी... आप परेशान न हों।’

‘गजानन बाबू से कह दूंगा कार अरेंज हो जाएगी। कल की बैठकों में आपकी ज़रूरत नहीं है।’

‘तब तो मैं टाइगर हिल जाना चाहूंगी, सुना है वहां सूर्योदय का दृश्य बहुत अदभुत होता है।’

‘जरूर जाइएगा। बतसिया लूप की रेल में भी जरूर बैठिएगा। मुझे विश्वास है, आपको अच्छा लगेगा।’

‘थैंक्स’।’

‘आइए एक कप गर्म काफ़ी हो जाए? गजानन को मेरे जागने की खबर नहीं हुई वर्ना आज की ये सुहानी सुबह भी उसके नाम करनी पड़ती।’

आलोक जी की बात ख़त्म होते न होते सामने से हड़बड़ाए गजानन बाबू भागते से आते दिखे थे।

‘सर, आज इतनी जल्दी जाग गए? तबियत तो ठीक है, न?

‘एकदम ठीक हूँ, पर गजानन जी आप अपनी कोई चर्चा छेड़ें उसके पहले एक कप गर्म काफी लेने देंगे?’ आलोक जी के स्वर मे स्नेह और परिहास का संगम था।

‘अभी लें, सर। आपने अभी तक चाय-काॅफ़ी भी नहीं ली। मुझे माफ़ करेें, देर तक सोता रह गया।’

‘आप ठीेक टाइम से उठे हैं, गजानन बाबू। अगर थोड़ा और पहले जाग जाते तो मुश्किल हो जाती।’

‘थैंक्यू सर।’ कृतज्ञ भाव से सिर झुका गजानन बाबू काॅॅफ़ी का आर्डर देेने अन्दर चले गये।

‘मैं चलती हूँ।’

‘अरे वाह, फिर गजानन की काॅफी का क्या होगा? बेचारा मायूस हो जाएगा, उस पर तो दया कीजिए।’

आलोेक जी की नाटकीय मुद्रा पर मीता हंस पड़ी। तेजी से आते गजानन बाबू के साथ वेटर के हाथ में काॅफ़ी की टेª थी। लाॅन में पड़ी टेबिल पर ट्रे रख, वेटर ने काफी का मग आलोक जी की ओर बढ़ाया था।

‘मैडम को दीजिए।’ कहते आलोक जी ने झुककर ट्रे से दूसरा मग उठा लिया।

‘बिस्किट, मैडम...।’

नो थैंक्स। इतनी जल्दी कुछ खाने की आदत नहीं है। बस यही काफ़ी है।

‘बिस्किट तो हल्के होते है, मैडम। अकेली चाय-काॅफ़ी पीना नुक्सानदेह होता है, एसिडिटी हो जाती है।’ गजानन बाबू ने अपनी जानकारी दी।

अब आप समझ सकती हैं, कैसे मुझे चैबीसों घंटे इनकी डाॅक्टरी सलाह पर जीना पड़ता है।’ आलोक जी ने विवशता जताई।

‘ठीक ही तो है। आपके व्यस्त जीवन में बहुत जरूरी है कोई आपकी ठीक देखभाल करता रहे।’

मीता की सहज रूप में कही बात पर गजानन बाबू और आलोक जी जैसे दोनों ही अस्थिर से हो उठे थे। आलोक जी कप रख उठ खड़े हुए।

‘थैंक्स फ़ाॅर दि कम्पनी। गजानन जी, चलें आज का काम शुरू करें।’

‘यस सर।’

मीता से आंखे चुराते से गजानन बाबू आलोक जी के पीछे-पीछे चल दिये। विस्मित मीता उनकी पीठ ताकती रह गई।

दिन में चहकते नवीन ने आकर चैंकाया थाµ

‘वाउ... ग्रेट न्यूज फाॅर मिस मीता।’

‘क्या हुआ? बड़े खुश नजर आ रहे हो?

‘बात ही ऐसी है, सुनोगी तो उछल पड़ोगी... गजानन बाबू ने हमारे लिए गाड़ी भेजी है। दार्जिलिंग के टूरिस्ट स्पाॅट देखने जाने के लिए हम फ्री हैं।’

‘मेरा मूड नहीं है, तुम चले जाओ नवीन।’

‘कमाल करती है, अगर आप न गई तो हमारा मूड खराब हो जाएगा। अब जल्दी उठिए, मैडम, देर हो रही है। बाकी सीनियर आराम फ़र्मा रहे हैं, हम दोनों ही चल सकते है।’

नवीन कभी बडे़ अपनेपन से मीता को तुम पुकार लेता तो कभी आप कह, अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करता।

बेमन से मीता को उठना पड़ा था। बतसिया लूप की टेªन में बैठी मीता को आलोक जी की बात याद आ रही थीµउन्होंने कैसे जान लिया उसे उस छोटी सी रेलगाड़ी की यात्रा में बहुत आनंद आएगा।

माल की छोटी-छोटी दुकानों में विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी। उस चैरस जमीन के टुकड़े पर खुशी बिखरी पड़ी थी। पर्यटक खुशी के रंग में रंगे, एकसार हो गए थे।

‘कुछ खरीदना नहीं है, मीता जी?’

‘क्या खरीदूं?।’

‘ये कहिए, क्या न खरीदूं। मेरा तो जी चाहता है सब कुछ खरीद ले जाऊँ।’

‘जी चाहने से ही तो सब कुछ नहीं हो जाता नवीन?’

‘हमेशा अपनी विवशता का रोना-रोते रहना ज़रूरी है क्या? कभी तो हंसा करो।’

‘तुम नहीं जानते...’

‘क्या नहीं जानता? यही न कि घर के सारे दायित्व आप निभा रही हैं, पर क्या इस तरह की लड़की आप अकेली ही हैं? हर घर में मज़बूरी का जीवन जीता, कोई न कोई ज़रूर मिलेगा। मेरे बारे में कितना जानती हैं, आप?’

नवीन के उस आक्रोश पर मीता अवाक रह गई थी। शायद उससे इस तरह बोलने का नवीन का पहला अवसर था। पनिआई आँखें चुराती मीता, माल से नीचे नेपाली मार्केट की ओर उतरने लगी थी।

‘आई एम साॅरी, मुझे माफ़ कर दो। तुम्हारा दिल दुखाने का मेरा कतई इरादा नहीं था।’

‘इट्स ओ.के.! तुमने ठीक ही कहा मैं व्यर्थ ही सबका मूड खराब कर देती हूँ।’

‘ये तो नाराज़गी वाली बात हुई। चलो इसी बात पर मूरी ओर से एक आइक्रीम हो जाए। शायद आइसक्रीम से गुस्सर ठंडा हो जाए।’

इस सर्दी में आइसक्रीम? तुम मुझे नीरज की याद दिला जाते हो, वो भी ऐसे ही लड़ाई करने के बाद सौदा करता है।’

‘नीरज कौन’

‘मेरा भाई। हम दोनों खूब झगड़ते थे और बाद में वह कैडबरीज या आइसक्रीम खिला, अपनी ग़लती मान लेता था।’

नवीन जैसे चुप सा पड़ गया था। उसके मुंह के भाव पढ़ पाना कठिन था।

‘क्या हुआ नवीन? क्या आइसक्रीम की बात टालना चाहते हो?’

‘नहीं वैसा कोई इरादा नहीं है। मैं जो कहता हूँ उसे पूरा जरूर करता हूँ। चलो उस पाॅर्लर में चलते हैं।’

दोनों माल के दाहिने कोने पर बने पाॅर्लर की ओर बढ़े चले थे। सामने गर्म दोसे बन रहे थे।

‘नवीन आइसक्रीम के पहले एक-एक दोसा हो जाए।’

‘साॅरी, अपनी जेब एक ही चीज का खर्चा उठा सकती है, चुन लो।’

‘क्यों क्या दोसा मैं नहीं खिला सकती? आओ दोसा मेरी ओर से चलेगा।’

‘एक लड़की से खर्च कराना हमारी संस्कृति नहीं, वह भी अपनी छोटी बहन से। चलो आज घाटा ही सही।’

‘तुमने मुझे बहिन माना है, नवीन?’

‘क्यों तुम्हारे भाई लायक गुण नहीं हैं मुझमें?’ नवीन गम्भीर था।

ओह नवीन, तुम्हारे साथ हमेशा अपने को सुरक्षित पाती रही हूँµशायद हमेशा यही एहसास हुआ मेरे साथ मेरा बड़ा भाई है। ‘मीता का गला भर सा आया था।

‘फिर वही भावुकता, तुम लड़कियां भी बस। या तो लड़ोगी या रोओगी। इसी चक्कर में दोसा ठंडा हो जाएगा और आइसक्रीम पिघल जाएगी।’

मीता हंस पड़ी थी। मन जैसे फूल सा हल्का हो आया था। नवीन में हमेशा उसने भाई पाया,ष्शायद इसीलिए वह उसके साथ इतनी सहज रहती थी।

‘कल सुबह टाइगर-हिल ज़रूर चलना है, जाग सकोगे न? सुबह चार बजे पहुंचने के लिए तीन बजे चलना पडे़गा।’

‘मुझे नहीं जाना है। इतनी सर्दी में मेरा क्या दिमाग खराब हुआ है जो चार बजे कांपते हुए सूर्योदय देखने जाऊँ?’

‘ठीक है मत जाओ। अकेले ही जाउंगी, पर बाद में पछताओगे।’

‘पछताना मेंरी आदत में नही। जो बीत गई, सो बात गई।’

उस रात मीता को बहुत मीठी नींद आई थी, पर सोने के पहले ये बात दिमाग में जरूर आईµआलोक जी ने महादेवी वर्मा की उन भावुक पंक्तियों के साथ उसे याद किया था और उसने क्या अंट-संट सोच डाला था। रजाई ऊपर तक खींच, मानो उसने अपनी शर्म छिपाई थी।

दो बजे अलार्म की कर्कश आबाज़ ने मीता को मीठी नींद से जगाया था। रात में ही गजानन बाबू ने कार का इंतजाम कर दिया था।

ठीक ढ़ाई बजे चलकर चार बजे टाइगर हिल पहुंचना होगा, वर्ना सूर्योदय का दृश्य नहीं देख पांएगी, मैडम।’

‘ठीक है मैं तैयार रहूँगी।’ उत्साहित मीता ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की थी कि उसके साथ कोई जा भी रहा था या नहीं?’

लांग कोट पहिनना उसे कभी पंसद नहीं था, पर सुबह की बर्फीली हवा की चुनौती उससे ही झेली जा सकती थी। सिर पर स्कार्फ, बांध, मीता नीचे रिसेप्शन पर उतर आई थी।

लांउज में गजानन बाबू उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

‘वाह मैडम, मान गया। आप सचमुच धुन की पक्की हैं, वर्ना इस समय रज़ाई से बाहर आ पाना क्या संभव है?’

‘आप भी तो उठे हैं, गजानन जी, क्या आप भी चल रहे है?’

मंत्री जी के साथ जाना तो मेरी मजबूरी ठहरी मैडम।’

‘क्या मंत्रीजी भी जा रहे हैं?’

‘बस आपका इंतजार था। उन्हें अभी खबर करता हूँ। ये लीजिए शांति बाबू और नागेन्द्र जी भी आ गए।’
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Re: लौट आओ तुम

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ए.एस.डी. और प्रोड्यूसर के साथ नवीन नहीं था। जरूर वह गहरी नींद में सो रहा था, पर आलोक जी जैसा व्यस्त आदमी साइट-सीइंग के लिए समय व्यर्थ करे। मीता को ताज्जुब हो रहा था।

कुर्ते-पजामे के साथ शाल ओढ़े आलोक जी के चेहरे पर ताज़गी थी ए.एस.डी., प्रोड्यूसर ने श्र(ापूर्वक अभिवादन किया था। मीता ने शायद नमस्ते के लिए हाथ उठाए भर थे।

‘हेलो। सब चलने को तैयार हैं... चलें गजानन?’

‘आइए सर, गाड़ी तैयार है। मैडम आप भी आएं। हम लोग दूसरी गाड़ी में आते हैं। गर्म चाय का थर्मस लेना है।’

‘चलिए।’ मीता को हाथ से आगे बढ़ने का संकेत करते आलोक जी चल दिये थे।

कार के बन्द शीशों के बीच आलोक जी के सानिन्घ्य से मीता को गर्मी सी लगन लगी थी। आलोक जी ने सीट के पीछे सिर टिका आंखे मुंद ली थी।

करीब एक-डेढ़ घ्ंाटे बाद, कार टाइगर हिल पहुंच गई थी।

गजानन जी की कार पांच-सात मिनट बाद आ पहुंची थी।

‘सर, आपने सिक्यूरिटी नहीं लाने दी है। कहीं किसी ने पहिचान लिया तो?’

‘कुछ नहीं होगा, गजानन। मीता जी मेरे साथ चलेंगी, किसी को आभास भी नहीं होगा। यही आनंद तो मैं भूल गया हूँ, गजानन। अपने आप में मस्त, दूर तक पहिचाना न जाना।’

‘मीताजी प्लीज, आप सर के साथ ही रहें, लोग समझेंगे कोई कपॅल सूर्याेदय देखने आया है। जो मैंने कहा उसे माइंड न करें, यह जरूरी है... इसीलिए... प्लीज...’

शर्म से मीता के कान की लवें तक लाल हो उठी थीं। काश््ा वह इस बात को पहले जान पाती तो, भला यहां इस तरह आलोक जी की रक्षिका बन आती? पर अब चारा ही क्या था।

सूर्योदय की प्रर्तीक्षा में खडे़ ढे़र सारे लोगों से जरा हटकर मीता और आलोक जी खड़े थे। गजानन ने काफी का कप जैसे ही पेश किया, आलोक जी झुंझला उठे थे।

‘कभी तो मुझे भी आम आदमी की तरह एन्ज्वाॅय करने का अधिकार होना चाहिए यहां भी वही वी.आई.पी. ट्रीटमेंट। आइ एक फ़ेड-अप।’

‘साॅरी, सर। आपकी उठते ही काॅफी की आदत है, इसलिए...’

‘लाइए इस समय सूर्योदय के साथ गर्म-गर्म काॅॅफी से आनन्द दुगना हो जाएगा।’ मीता ने हाथ बढ़ा काॅफ़ी का मग थाम लिया। गजानन बाबू का मुख चमक उठा।

‘आप बहुत उदार हैं, मीता जी। साॅरी गजानन।’ आलोक जी हल्के से मुस्करा दिये।

पहाड़ों के पीछे से उगता लाल सूर्य देखना, एक अभूतपूर्व अनुभव था।

‘कितना अद्भुत कितना सुन्दर, है न?’ मीता के चेहरे पर लाल रश्मियां प्रतिबिम्बित थीं।

‘हां, सचमुच बहूत ही अपूर्व और अद्भुत है। मीता के चेहरे पर आलोक जी की दृष्टि गड़ सी गई थी।’

‘थैंक्स। आपके कारण ये सब देख सका वर्ना...।’ आलोक जी ने अपना बाक्य अधूरा छोड़ दिया था।

वापिस आते आलोक जी पूरे समय मौन ही रहे थे।

मीता ने नवीन को चिढ़ाया थाµ

‘इतना सुन्दर दृश्य देख पाना, सबका सौभाग्य नहीं होता। कुंए के पास आकर प्यासा लौटता, तुम्हें ही देखा है।’

‘चलो मेंरी जगह तुमने तो उस दृश्य को आंखांे में कैद कर लिया है, न? तुम्हारी आंखों की चमक से उसकी सुन्दरता की कल्पना कर सकता हूँ।’

‘आलोक जी भी मुग्ध थे...।’

‘क्या आलोक जी भी गए थे।’

‘हां... आं... सब तुम्हारे जैसे आलसी थोड़े हैं कि एक दिन की नींद भी सैक्रीफाइस न कर सकें।’

‘ताज्जूब है। शायद जिंदगी में पहली बार उन्होंने इस तरह के फालतू काम के लिए अपना टाइम वेस्ट किया होगा, पर क्यों?’

‘तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे उनका पर्सनल बायोडाटा तुम्हारे पास हो।’

‘ऐनी हाओ, ये आलोक जी तुम्हें कुछ ज़्यादा ही इम्पोंर्टेंस नहीं दे रहे हैं?’

‘मुझे तो नहीं लगता।’

‘अगर लगे, तो बी केयरफुल। इन लोगों से दूरी ही भली।’

‘ओ.के. बिग ब्रदर, और कोई सलाह?’

दोनों हंस पड़े।

दरर्जिलिंग से वापिस लौट, मीता अपनी पुरानी दिनचर्या में व्यस्त हो गई थी। उसके पीछे अम्मा और आरती के पत्र आए थे। घर न पहुंचने की अम्मा और आरती दोनों की ही शिकायत थी। उससे न मिल पाने की बजह से नीरज भी उदास रहा। दिल्ली में नीरज की दो महीने की ट्रेनिंग हैं, उसके बाद वह मीता के पास पहुचेगा। आरती के एक्जाम्स के लिए शुभकामना-कार्ड भी नहीं भेज सकी थीं। शाम को उसे लम्बा सा पत्र लिखने का निर्णय ले, मीता ने काम शुरू किया था।

पिछले दो दिनों से अलका दी के न आने से मीता चिन्तित हो उठी।

क्या बात है नवीन, अलका दी नहीं दिखाई दे रही हैं। कहीं टूर पर गई हैं क्या?’

‘शायद बीमार हैं, एक सप्ताह की छुट्टी की ऐप्लीकेशन आई है।’

‘क्या हुआ?’

‘पता नहीं, अपने बारे में उन्हें कभी बात करते देखा है क्या?’

‘उनका घर कहंा है?’

‘वो भी पता नहीं, पर शायद रामदीन से पता लग जाए, आफ़िस का सबसे पुराना मेसेंजर है, न।’

रामदीन के बताए पते पर पहुचने में मीता को काफी मुश्किल उठानी पड़ी थी। सकरी गली से पहुंच जिस घर का जीर्णद्वार खटखटाया, वह उस घर की हालत का परिचायक था। दरवाजा एक सात-आठ वर्ष की लड़की ने खोला था।

‘किससे मिलना है आंटी?’

‘अलका जी हैं?’

‘कौन मम्मी?’

‘कौन है दिव्या, किससे बातें कर रहे है?’ अन्दर से अलका दी की आवाज आई थी।

‘देखो न मम्मी, ये कौन आंटी आई हैं?’

‘कौन हैं?’ कहती अलका दी बाहर आ गई थी।

‘अरे मीता... यहां...?’

आप दो दिनों से नहीं आ रही थीं पता लगा, बीमार हैं सो देखने चली आई।’ अलका दी को उस बच्ची द्वारा मम्मी पुकारे जाने की बात ने मीता को उलझन में डाल दिया था।

‘यहां का पता रामदीन ने बताया होगा?’

‘उनके अलावा और कोई आपका पता कहां जानता है अलका दी।’

उसने भी तुझे बता दिया, वर्ना और किसी को वह बताने वाला नहीं। आओ, मीता इधर ही बैठोगी या आंगन में चलें। शाम को गर्मियों में आंगन अच्छा रहता है।,

‘तो चलिए वहीं बैठा जाए।’

‘दिव्या, ये तेरी मीता आंटी हैं, इन्हें क्या खिलाया जाए?’

‘टाॅफ़ी दूं मम्मी?’ बच्ची की भोली बात पर दोनों हंस पड़ी थीं।

‘हमे तो पता ही नहीं था आप यहां रहती हैं, वर्ना आपके लिए ढ़ेर सी टाॅफ़ी जरूर लाते।’ मीता ने प्यार से कहा।

‘इसे देख ताज्जुब में पड़ गई न?

‘शायद...।’

‘मेरी बेटी है।’

‘पर आपने कभी चर्चा नहीं की?’

‘बहुत सी बातें हैं मीता, किस-किस की चर्चा की जाए। वैसे लोगों ने मेरी जितनी लम्बी कहानी सुनाई होगी, उससे छोटी ही है।’

आपके बारे में मैंने कभी लोगों से कुछ नहीं जानना चाहा, अलका दी। अगर किसी ने कोशिश भी की तो वहीं रोक दिया, पर आज सब कुछ जान पाने की उत्सुकता ज़रूर जाग गई है।

आपके जीवन में जरूर कुछ अनहोना घटा है, यह तो समझती थी, पर क्या हुआ, नहीं जान सकी।’

‘सुरमा।’

अलका दी की आवाज पर एक आदिवासी युवती कमरे में आई थी।

‘सुरमा, इन दीदी के लिए चाय पिलाएगी? खाना तो तैयार है न?’

‘अभी लाई, दीदी। खाना जब कहें लगा दूं।’

‘आप बेकार ही तकल्लुफ कर रही हैं अलका दी। अभी भरपेट खाकर निकली थी। सोचा छुट्टी का दिन आपके साथ ही गुजारूं।’

‘बड़ी बहिन के साथ पूरे दिन रहने के लिए घर से खाना खाकर आना होता है, मीता?’

‘सोचा, आप बीमार हैं असुविधा न हो, बस इसीलिए वर्ना...।’

‘अच्छा-अच्छा जान गई। अपनी अलका दी का बड़ा ख्याल है न तुझे। सुरमा, तू हमें चाय देकर, बेबी को खाना खिला दे।’

‘नहीं, मम्मी हम आपके साथ खाना खाएंगे।’ दिव्या ठुनक गई थी।

‘अरे वाह! हमारी बेटी इतनी जल्दी भूल गई, आज तुम्हें शीला आंटी ने बुलाया है, न? खाना खाकर आराम नहीं करोगी तो वहां मूवी देखते-देखते नींद आ जाएगी।’

‘ठीक है, मम्मी। तुम आंटी के साथ खा लेना। बाॅय, आंटी।’ दिव्या का चेहरा चमक उठा था।’

‘बड़ी प्यारी बच्ची हैं।’

‘काश्, अपना सा उजला भाग्य भी साथ लाती।’ अलका दी ने उसांस ली थी

‘आपने कैसे जाना, उसकी भाग्य-भविष्यदृष्टा तो आप हैं नहीं। भगवान उसे सारे सुख देंगे।’ मीता ने जैसे तसल्ली सी दी थी।

‘जन्म के पहले ही ये अपना भाग्य, लिखा लाई थी, मीता।तेरी ही तरह मुझे भी मजवूरी में नौकरी करनी पड़ी थी। उम्र के उस मोड़ पर हर लड़की मोहक लगती है, मैं कुछ ज्यादा ही आकर्षक थी। साथ काम करने वालों की लोलुप, शरीर-बींधती दृष्टियां आसानी से सह पाना कठिन लगता, पर मजबूरी मेरी ही थी। उन जाड़ों में शाम कितनी जल्दी गहरी हो जाती थी, जानती है न?’

‘कौन सी शाम की बात कह रही हैं, अलका,दी?’

‘एक काली शाम थी वो। काम की क्वालिटी बढ़िया हो इसके लिए मैं खुद एडिटिंग के लिए बैठती थी, काम करते कब सब लोग घर चले गए, पता ही नहीं लगा। अचानक एडिटिंग कर रहे नरेश ने काम बन्द कर, मेरे कंधे पर हाथ धर कहा थाµ

‘कब तक काम कराएंगी, मिस, भूख लग आई हैµइतनी देर काम करने का इनाम मिलना चाहिए।’

कंधे पर नरेश के हाथ के बढ़ते दबाव से मैं घबरा गई थी। हल्के से उसका हाथ हटाने की कोशिश की तो उसने दोनों हाथों को मेरे चारों ओर लपेट मुझे उपने सीने से जकड़ लिया था। डर से मेरी बुरी हालत थी। अपने को छुड़ाने के प्रयास में मैं चीखती जा रही थी। तभी पीछे से किसी ने आकर नरेश को खींच, एक ओर कर दिया था।

‘ये क्या तमाशा है, आई विल ससपंेड यू।’ सीनियर प्रोड्यूसर नवीन्द्र नाथ को देख, मैं रो पड़ी थी।

‘घबराइए नहीं। चलिए बहुत देर हो गई है, आपको मेरी गाड़ी घर पहंुचा देगी। और मिस्टर नरेश, मीट मी इन माई आफिस। मैं इंतजार कर रहा हूँ।

‘थैंक्यू सर।’ आंसुओ के बीच बस उतना ही कह सकी थी।

‘इट्स ओ.के. डोंट बी अपसेट। आगे से कोई प्रॅाब्लेम आए, सीधे मेरे पास चली आना। अब ये आंसू पोंछ डालो वर्ना घर के लोग परेशान होंगे।’

‘बड़े प्यार से अपने रूमाल से जब उन्होंने मेरे आँसू पोंछे तो मुझे उस स्नेह भरे स्पर्श में बड़े भाई के हाथ के स्पर्श सा अनुभव हुआ था, मीता।

‘फिर क्या हुआ, अलका दी?’

अगले दिन नरेश ने आकर माफ़ी मांगी थी। नवीन्द्र नाथ जी ने मुझे अपने कमरे में बुलाकर कहा थाµ

‘वैसे तो मैं नरेश को आसानी से ससपेंड कर सकता हूँ, मैं उस घटना का चश्मदीद गवाह हूँ, पर इसमें तुम्हारी बदनामी हो सकती हैं। लोग हमेशा लड़की को ही दोष देते हैं। एक बार इस तरह की घटना की शिकार हुई लड़की पर सब आदमी शिकारी नजर रखने लगते हैं, कब चांस मिले और... खैर वो सब छोड़ो। इसीलिए मैंने उसे चेतावनी देकर, तुमसे मांफ़ी मांगने को कहा था। अगर तुम उसे माफी न देना चाहो तो मैं उस पर कोई और ऐक्शन ले सकता हूँ।

‘नहीं सर, आपने जो कहा वह ठीेक है। मैं भी नहीं चाहती वो बात कहीं बाहर जाए। थैंक्यू सर, आपकी हमेशा आभारी रहूँगी।’

‘फिर वही तकल्लुफ। मुझे अपना ही समझो, अलका। बाई दि वे, तुम्हारे घर में और कौन-कौन है?’

‘माँ, एक छोटी बहिन और एक छोटा भाई... बस।’

‘पिता...?’

‘पिता जी का पिछले साल स्वर्गवास हो गया। बहुत लम्बी बीमारी का कष्ट उन्हें झेलना पड़ा था, सर। मत्यू के तीन वर्षो पूर्व से उनका आफ़िस जाना बन्द हो गया था।’

‘ओह, तुम सबको बहुत कष्ट उठाना पड़ा होगा, मैं समझ सकता हूँ। मेरे पिताजी भी हमे बचपन में ही छोड़ गए थे। तुम मुझझे कोई संकोच नहीं रखना, अलका। अगर तुम्हारे किसी काम आ सका, तो अपने को भाग्यशाली मानूंगा।’

उस दिन के बाद से अनजाने ही मैं उनके निकट होती गई थी। लगता था वे मेरी हर तकलीफ़ सिर्फ समझते ही नहीं बल्कि भोगते थे। मुझे कभी उदास नहीं होने देते थे। पर एक बात जरूर खलती थी, उन्होंने कभी मुझे अपने घर पर आने का निमंत्रण नहीं दिया। एक बार मैंने ही कहा थाµ

‘आपके साथ भाभी जी से मिलना चाहती हूँ, कब ले चलेंगे?’

‘उनसे मिलने के लिए तो प्रतीक्षा करनी होगी...।’

‘मतलब, वो कहीं बाहर गई हुई है?’
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Re: लौट आओ तुम

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‘क्या कहूँ, अलका। सच तो यह है जिस आदमी की जिंदगी में दुख आ जाए तो वहां से वो हटने का नाम ही नही लेता। मेरी पत्नी को गहस्थ जीवन से वैराग्य सा हो गया है। बहुत समझाया पर घरबार बच्चों का मोह छोड़ हरिद्वार जा बसी हैं। अपने माता-पिता के गुरू के आश्रम में जीवन काट रही है और यहां उसके बिना बच्चे और मैं अनाथ हो गया हूँ, अलका...।’ नवीन्द्र जी का स्वर रूंध गया था।

‘इस उम्र में वैराग्य का कोई कारण तो रहा होगा, सर?’

‘बात कहने में भी संकोच होता है बचपन से उसके घर में इन गुरूजी का आना-जाना था, न जाने उन्होंने कैसा वशीकरण मंत्र पढ़ा कि उसके पीछे दीवानी हो गई।’

‘ऐसा भी संभव है क्या? पति न सही बच्चों का मोह छोड़ पाना क्या स्त्री को आसान होता है।’

‘यही बात तो समझ में नही आती, अलका। बेचारे बच्चे मां के रहते, बिन मां के हो गए हैं। बड़ी लड़की को होस्टेल भेज दिया, अब इस वर्ष से छोटा बेटा भी नेतरहाट चला गया। एकदम अकेला छूट गया हूँ मैं, अलका...।’

अलका का मन उनके प्रति भीग उठा। सब कुछ पाकर भी इन्सान कितना असहाय हो सकता है। नवीन्द्र जी के लिए अलका के मन मे ढे़र सा नेह उमड़ आया था।

‘ऐसा क्यों सोचते हैं, हम सब भी तो आपके हैं।’

‘सच कहती हो, अलका? ओह। अलका ये बात कहकर तुमने मुझे नया जीवन दे दिया। मैं तुम्हारा कितना आभारी हूँ।

अलका के मस्तक पर निःसंकोच उन्होने चुम्बन दे, कृतज्ञता ज्ञापित की थी। अलका ने भी उसका अर्थ उन्यथा कहां लिया था। उसके बाद नवीन्द्र जी का अलका के घर आना-जाना शुरू हो गया था। ड्यूटी के बाद अलका को उसके घर डाॅप करना उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया था।

अलका की मां, भाई-बहिन भी उन्हें खूब सम्मान देते। जल्दी वापिस लौटने की बात पर अलका रोक लेतीµ

‘यहीं खाना खाकर जाइए। वहां नौकर के हाथ का कच्चा-पक्का खाना खाते हैं, यहां मां का पकाया खाकर देखिए।’

‘सच मैं कितना भाग्यशाली हूँ। मुझे यहां अपना परिवार मिल गया है।’

नवीन्द्र जी आराम से देर रात तक बैठे बतियाते रहते। भाई-बहिन भी अब अधिकारपूर्वक उनसे अपनी फर्माइशें करने लगे थे। ऐसे नवीन्द्र के साथ जब एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए अलका को दूसरे शहर जाने के लिए कहा गया तो घर में किसी को भी आपत्ति का सबाल ही नहीं उठता था। अनहोनी वहीं घटी थीµ

देर रात प्रोग्राम कवरेज के बाद डिनर से जब लौटी तो साथ में नवीन्द्र जी ही थे। खाने के पहले शायद ज्यादा ही पी गए थे। होटल पहुंच, अलका के साथ जब उसके कमरे में जाने लगे तो उसने कहा थाµ

‘बहुत रात हो गई है, अब आप अपने कमरे में जाकर आराम करें।’

‘नहीं, में तुम्हारे साथ रहूंगा अलका। थोड़ी देर को अपने पास रहने दो... प्लीज...। इस वक्त बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ बस थोड़ी देर रहने दो।’

उनके कातर स्वर पर अलका पिघल गई थी।

‘ठीक है। पर, थोड़ी देर में जाना पडे़गा।’

कमरे में पहुंच अलका को जबरन पलंग पर बैठा उन्होंने उसकी गोदी में सिर रख दिया था। अलका ने सिर हटाने की कोशिश की तो वे रो पड़े थेµ

‘प्जीज अलका, मुझे मत हटाओ, मैं मर जाऊंगा। तुम्हारे सहारे मैं जी रहा हूँ। आई लव यू अलका...।’

‘ये क्या कह रहे हैं सर? आप होश में नहीं हैं, प्लीज अपने कमरे में जाइए।’

‘मैं पूरे होश में हूँ, अलका, आई लव यू, आई लव यू...।’

अलका पर उनका दबाव बढ़ता गया था और विरोध के बावजूद अलका अवश होती गई थी माथा, गाल, ओंठ सब उनके चुम्बनों से भीग गए थे। अन्ततः अलका अपने पर नियंत्रण न रख सकी थी।

‘वो रात मेरे जीवन की काल-रात्रि थी, मीता। दूसरे दिन सुबह अपने से घृणा हो आई थी, पर नवीन्द्र जी ने बाहों में भर दिलासा दिया थाµ

‘मुझे माफ़ करना, अलका, मैं संयम और विवेक खो बेठा था। विश्वास दिलाता हूँ, हमेशा तुम्हारा रहूँगा।’ बात खत्म करते नवीन्द्र जी ने ललाट पर फिर स्नेह-चिहन अंकित कर दिया था।

उस कवरेज कार्यक्रम के बाद घर लौटी अलका जैसे एकदम बदल चुकी थी। मां उसका उतरा चेहरा देख घबरा गई थीµ

‘क्या बीमार पड़ गई थी, अलका? चेहरा ऐसा बुझा सा क्यों हैं?’

‘शायद थकान है, अम्मा बस इसीलिए...।’

बार-बार नहाकर भी अलका को अपना बदन गन्दा ही लगता रहा। दो कौर मंुह में डाल, सिर तक चादर ओढ़, दिन भर मुंह ढ़ापे पड़ी रही थी।

ये क्या हो गया? जिन्हें अपना गुरूजन जान, सम्मान का पात्र माना था, उनके साथ ऐसा संबंध...छिः... अलका को अपने से घृणा हो आई थी। काश वह प्रतिरोध कर पाती, क्यों वह इतनी कमजोर पड़ गई थी। क्या उसके मन में भी उनके लिए कमजोरी थी? नहीं ऐसा तो वह सोच भी नहीं सकती। कैसे सबसे अपना मुंह छिपाए।

दूसरे दिन अलका कार्यालय नहीं गई थी। अम्मा से वो सब बता पाने का साहस वह बटोर नहीं सकी थी, वे तो पहले ही टूट चुकी हैं। जवान लड़की के साथ जो कुछ हुआ, क्या सह सकेंगी? अकेले उस बोझ को ढ़ोते रहना कैसे होगा? भाई-बहिनों के निष्पाप चेहरे देख अलका अपने को माफ़ नहीं कर पा रही थी।

दूसरे दिन शाम को नवीन्द्र नाथ जी घर आ पहुंचे थे।

‘क्या बात है मांजी, अलका दो दिनों से आफ़िस नहीं आ रही है?’

‘न जाने क्यों सुस्त सी पड़ी है, लाख पूछा जवाब नहीं देती, न जाने क्या हुआ है। तुम्हीं पूछ देखो, बेटा।’

नवीन्द्र जी का अलका के पास भेज, अम्मा उनके भोजन की व्यवस्था के लिए रसोई में घुस गई थीं। भाई-बहिन नवीन्द्र जी की लाई मिठाई खा, होमवर्क में जुट गए थे।

‘कैसी हो, अलका?’

निरूत्तरित अलका ने मुंह अठाकर भी नहीं देखा था। कमरे के हलके प्रकाश में उसका उदास चेहरा और ज्यादा मायूस लग रहा था।

‘मुझसे बहुत नाराज़ हो, अलका? मेंरी ओर नहीं देखोगी? जानती हो, दो दिन से पानी भी गले से नीचे उतार पाना मुश्किल लग रहा है। तुम्हारा अपराधी हूँ, जो चाहो सजा दे दो, पर यूँ मुझसे नाता न तोड़ो।’

अलका के मौन पर दृढ़ शब्दों में नवीन्द्र जी ने कहा थाµ

‘ठीक है अब मत्यु ही मेरा सही दंड है। अपना मुंह तुम्हें कभी नहीं दिखाऊंगा, यही चाहती हो न? मैं जा रहा हूँ, अलका।’

नवीन्द्र जी उठ खड़े हुए थे। अलका ने उनके मुंह पर जैसे मत्यु की छाया पढ़ ली थी। झटके से उठ, अलका ने उनकी राह रोक ली थीµ

‘आप ऐसा नहीं करेंगे। आपको जीवित रहना होगा।’

‘किसके लिए, अलका?मेरे जीवन की किसे जरूरत है। तुम्हारा अपराधी बन जाने से मौत अच्छी। मुझे मत रोको, अलका, वर्ना मैं कमजोर पड़ जाऊंगा।’

‘नहीं मैं आपको नहीं जाने दूँगी, मेरे लिए जीना पड़ेगा आपको।’
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Re: लौट आओ तुम

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अलका के कांपते अधरों से न जाने वो बात कैसे निकली थी, शायद पिछले दो दिनों से जिस उधेड़बुन में वह थी, उसका यही एकमात्र समाधान शेष था। भारतीय परिवार में पत्नी-बढ़ी अलका के मन में एक ही बात सर्वाेपरि थी-शरीर का स्वामी केवल पति ही हो सकता है। दूसरे की भोग्या लड़की की कहीं इज्ज़त नहीं। अब जब नवीन्द्र जी उसे स्वयं स्वीकार कर रहे थे, तो दूसरा विकल्प क्या शेष था? माना कि वे विवाहित, दो बच्चों के पिता थे, पर उनके जीवन में पत्नी का स्थान तो रिक्त था। वह उनकी पत्नी ही नहीं, बच्चों की मां बनकर दिखाएगी।

अलका के मन का बोझ उतर सा गया था। उस रात नवीन्द्र जी काफी प्रसन्न घर लौटे थे।

अलका और नवीन्द्र जी के संबंध घनिष्ठ होते गए थे। आफ़िस में लोगों ने अलका से अगर कुछ कहना चाहा तो उसने कान नहीं दिए। नवीन्द्र जी ने उसे समझा रखा था कि आफ़िस के लोग उनसे जलते हैं। उनकी खुशी से उन्हें बैर है। प्रायः काम करने के बाद अलका नवीन्द्र जी के कमरे में ही जा बैठती थी। दोनों को साथ आते-जाते देख, पीठ पीछे फब्तियां कसी जाती, पर दोनों ने उन बातों की कभी पर्वाह नहीं की। अब वे अलका के घर भी उसके कमरे में सीधे चले जाते। उनके निःसकोच कमरे में जाने पर अम्मा ने आपत्ति की थीµ

‘इस तरह बिना पूछे तुम्हारे कमरे में जाना क्या ठीक है? तुम मना क्यों नहीं करती?’

‘तुम ही मना कर दो, अम्मा। मुझे संकोच होता है।’

‘इधर तू आॅफ़िस से भी बहुत देर में आती है। लोगों को तो मौका चाहिए, एक बार बदनाम हो गई तो कहीं की नहीं रहेगी।’

अलका ने नवीन्द्र जी से जब वो सब बताया तो वे हंस पड़े थे।

‘अम्मा पुराने विचारों की ठहरी, मैं उन्हें समझा दूंगा।’

‘पर हमें कोई निर्णय तो लेना ही होगा, कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो...।’ अलका की जुबांन लड़खड़ा गई थी।

‘गड़बड़ कैसी? तुम प्रिकाॅशन तो लेती हो न?’

‘कभी कभी उसका मौका ही कहां देते हो...जब-तबऋजहां मौका मिला नहीं कि...।’

‘देखो अलका, जब तक मेरी पत्नी से कानूनन संबंध-विच्छेद नहीं हो जाता, हमे किसी परेशानी में नहीं पड़ना है, समझी।’ नवीन्द्र जी कुछ नाराज़ से दिख रहे थे।

‘संबधं-विच्छेद के लिए आपने कहीं पहल की है? अगर पति-पत्नी एक-दो वर्षो से अलग रह रहे हैं तो कानूनन तलाक मिल जाता है।’

‘लगता है आजकल वकीलोें से बात कर रही हो, मुझे भी चिन्ता है, मैं देख लूंगा, तुम्हें इस बारे मेें किसी से चर्चा नहीं करनी है।’

उस दिन की बात अलका के मन में गड़ सी गई थी। कहींे वह बहाना तो नहीं कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से सुबह-सुबह उसे मतली सी आने लगी थी। अम्मा के दिए चूरन या घरेलू नुस्खों से कोई फायदा नहीं हो रहा था। डाक्टर ने जब बताया वह मां बनने वाली है तो अलका स्तब्ध रह गई थी।

नवीन्द्र जी ने जब वह बात सुनी तो बेतरह झुंझला उठे।

‘तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो, इतनी अक्ल तो होनी चाहिए थी। मैं सरकारी नौकरी में हूँµनौकरी चली गई तो कहीं का नहीं रहूँगा।’

‘अब तो कुछ करना ही पड़ेगा वर्ना मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी।’ अलका रो पड़ी थी।

‘उन दिनो अबर्शन अपराघ माना जाता था मीता, स्वयं मैं इसे पाप ले गए। मेरा दुर्भाग्य सफ़ाई के बाद भी कोई अंश बचा रह गया और... मुझे बिन ब्याही मां बनना पड़ा।’

‘नवीन्द्र जी ने विवाह क्यों नहीं किया, अलका दी?’

‘उसने कभी विवाह की बात सोची ही नहीं थी मीता... वह तो आदमखारं शेर से भी ज्यादा ख़ंूख्वार निकला। उसकी सच्चाई जानोगी तो...

‘क्या सचाई थी, अलका दी...।’

‘यही कि उसकी पत्नी सचमुच सती-सावित्री थी। जिस पर वैराग्य का झूठा दोश्लगा, उसने मेरी सहानुुभूति जीती थी। वस्तुतः वह स्त्री अपने मन-मंदिर में उस धूर्त नवीन्द्र नाथ को पति-परमेश्वर रूप में प्रतिष्ठित कर, उसकी पूजा करती थी। पति कभी पाप कर ही नहीं सकता और इस आदमी ने उसकी इसी सिधाई का फ़ायदा उठाया। टी.वी. पर नई लड़कियां आने को उतावली रहती हैं, इसने न जाने कितनों को मसल कर बर्बाद कर डाला था मीता, उन्हीं में से एक मैं अभागिन भी थी।’

‘कैसे वो सब झेल पाई होंगी, अलका दी?’

अम्मा पर तो पहाड़ टूट पड़ा था। छोटे भाई-बहिन टुकुर-टुकुर मेरा मुंह ताकते रह गए थे। अम्मा के दूर के रिश्ते की बहिन ने सहारा दिया था। उनके पास पाँच महीने रह, दिव्या को जनम दिया था। हाथ में महीने भर की बेटी दठाए सीधे केंद्र-निर्देशक के पास पहुंची थी। सारी कहानी सुन, वह चुप रह गए थे।

उन्ही से पता लगा मेरे जाने के बाद ही नवीन्द्र नाथ ने बी.बी.सी. में अपना ट्रांसफ़र करा लिया था। अब वह लंदन में ऐश की जिंदगी जी रहा है। मैंने अधिकारियों को पत्र लिखने चाहे, पर उन बातों का मेरे पास क्या प्रमाण था मीता? डाइरेक्टर साहब भले आदमी थे, मुझे शान्त रहने की सलाह दे, यहां ट्रांसफर कर, दिया।

मेरी बदनामी मेरे साथ हर जगह पहुंच जाती है। चाह कर भी दिव्या को न अनाथालय में दे सकी, न उसे मार सकी, अन्ततः उसकी मां हूं न?

बात समाप्त करती अलका की आंखे भर आई थीं। निःशब्द मीता ने उसके हाथों पर अपनी हथेली धर दी थी।

‘सच अलका दी, आपने बहुत सहा है, पर द्रिव्या का भविष्य क्या होगा?’

‘वही सोच मुझे परेशान करता है मीता, सोचती हूँ इसे अनाथ कहकर किसी बोर्डिगं-हाउस में डाल दूं।’

‘ये क्या समस्या का ठीक समाधान होगा? आप पुनर्विवाह की बात भी तो सोच सकती हैं, अलका दी?’

पुनबर्ववाह? मेरे इस अतीत के साथ भला मुझसे कौन विवाह करेगा, मीता? लड़की का चरित्र ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है, वही खो दी तो क्या शेष रहा? जानती है अम्मा ने मुझसे हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया। भाई-बहिन मेरी छाया से भी दूर भागते हैं। कभी उनके लिए मैं ही सब कुछ थी। न जाने कैसे उनके दिन कटते होंगे। मैं उनकी भी अपराधी हूँ, मीता।’

‘अपने को नवीन्द्र जी के हाथों सौंप देना आपकी गलती जरूर थी, पर उस गलती का आपने कम मूल्य तो नहीं चुकाया हैं। गलती का दंड दिव्या को क्यों मिले?’

तुम ठीक कहती हो मीता, मेरे अपराध का दंड दिव्या क्यों भोगे? इसीलिए सोचती हूँ उसके जीवन से मेरा दूर हो जाना ही उसके हित में है। मैं हार चुकी हूँ, उसके लिए कुछ कर पाना कैसे संभव होगा, मीता?’

‘अगर अपनी लड़ाई आपने ठीक से लड़ी होती तो आज यह स्थिति नहीं आती अलका दी। और अब भी आप नकरात्मक रूख अपना रही हैं, ये ठीक नहीं है।’

‘क्या ठीक है मीता?’

‘दिव्या को उसके असली पिता से उसका हक दिलवाइए। उसे पिता का नाम मिलना ही चाहिए।’

‘असली पिता के नाम से भी घृणा होती है, मीता। उस बाप के नाम से भी वह अपमानित ही रहेगी।’

‘फिर उसे अपना नाम दीजिए, अलका दी, अगर उतना साहस नहीं तो दूसरा पिता उसे क्यों नहीं मिल सकता? दुनिया में सब नवीन्द्र नाथ ही नहीं हैं। आपने कोशिश की थी अलका दी?’

‘नहीं, कभी नहीं। मुझे आदमी। ज़ात से ही नफ़रत हो गई। अगर किसी ने सहानुभूति जतानी चाही तो उसे दूर झटक दिया?’

‘ऐसा कोई था। अलका दी?’

‘कभी नवीन्द्र नाथ पर मुकदमंे की बात सोची थी, बकील था। वो कभी हम साथ पढ़ते थे। उसने नवीन्द्र नाथ से मेरे अपमान का बदला दिलाने के लिए कसम खाई थी, पर मैंने ही छोड़ दिया। बहुत दिनों तक घर आता रहा, दिव्या से खेलता था...।’

‘फिर?’

‘मैं ट्रान्सफ़र ले, इस अनजान शहर में आ गई।’

‘असका कोई अता-पता भी नही रखा?’

‘क्या होता?’

‘शायद तुम्हारे ज़ख्मों पर वह मरहम रख पाता।’

‘क्या पता वह भी मुझसे मेरी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाता।’

‘हमदर्दी भी तो हो सकती थी?’

‘हमदर्दी के नाम से ही चिढ़ हो आती है, मीता।’

‘किसी पर भी विश्वास न कर सकीं तो कैसे जिएंगी, अलका दी।’

‘जी तो रही ही हूँ...।’

‘ये भी कोई जीना है, अलका दी? आज से आप दिव्या की चिन्ता छोड़ दें, उसका दायित्व मैं लेती हूँ।’

‘मीता, हमेशा से तुझमें अपनापन पाती रही। आज दिव्या की जिम्मेवारी की बात कह, तूने मुझो खरीद लिया है। दिव्या तेरे संरक्षण में अपना भविष्य संवार सकेगी विश्वास है।’ प्यार से अलका दी ने मीता को अपने से चिपटा लिया। चाय पीती मीता अचानक कह बैठी थीµ

‘आज समझ में आया, कहीं भी बाहर जाते समय आप मेरे लिए क्यों चिन्तित रहती थीं।’

‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है, मीता, फिर तू इतनी भोली है कि हमेशा तुझे देख, अपना अतीत याद आ जाता था।’

‘कल आफ़िस आ रही हैं, अलका दी?’

‘कल तो शायद न आ संकू, आज ही बुखार उतरा है। घर में पडे़-पडे़ जी ऊब जाता था, आज तेरे आने से मन बदल गया।’

‘अब तो अक्सर आकर परेशान करूंगी।’

‘तेरे आने से पेशानी कैसी? बहुत अच्छा लगेगा, मीता।’

घर आकर बहुत देर तक मीता सो नहीं सकी। अलका दी पर बहुत करूणा उमड़ रही थी। वैसी गलती क्यों हो जाती है... काश अलका दी अपने पर नियंत्रण रख सकी होतीं। अम्मा ठीक ही कहती हैंµ विनाश काले-विपरीत बुद्वि।’
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