मंगल सूत्र by munshi prem chand

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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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सन्तकुमार ने धडकते हुए मन से कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं-

तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं

सन्तकुमार ने माथा। झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है

-आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं

-यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं

-मैं रहस्य नहीं हूं मैं तो साग कहती हूं मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए पे्रेम को जगा दे हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है और उससे उब गई हूं अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं जहां त्याग है, रूदन है, उत्सर्ग है सीव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी उफंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पडता है आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं बाबू जी को एक हजार रूपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है- मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं बुध्दि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड सकता वही दशा मेरी है उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।

तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी। कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतिया कसने लगेगी पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं मुख पर एक निश्ंचित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।

बोला-कितनी ही बार बिल्कुल यही मेरे विचार हैं मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।।

तिब्बी प्रसन्न होकर बोली-आपने मुझे कभी बताया नहीं

-आप भी तो आज ही खुली हैं

-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए

सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा

तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं उनका हाथ पकडकर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता

और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी। वह यकायक मिल गया है

सन्तकुमार ने रूखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी

-अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें-

इस विशुध्द मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।

-कुछ न पूछो बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है

-मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं जिस व्यवस्था से सारे समाज का उध्दार हो सकता है वह थोडे से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है

सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है और उठ खडे हुए यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था। जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो

तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न-

-आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आउंगा

-कब आइएगा-

-जल्द ही आउंगा

-काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती

सन्तकुमार बरामदे से कूदकर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही वह कठोर थी।, चंचल थी।, दुर्लभ थी।, रूपगर्विता थी।, चतुर थी।, किसी को कुछ समझती न थी।, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था। और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने वह आसन पा लिया था। और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरूष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को डफलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती अब उन्हें विलंब न करना चाहिए कौन जाने कब तिब्बी विरूध्द हो जाय और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे वहीं मतभेद हो जाएगा यहां से वह सीधे मिृ सिन्हा के घर पहुंचे शाम हो गई थी। कुहरा पडना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खडे थे इन्हें देखते ही पूछाµ

-किधर से-

-वहीं से आज तो रंग जम गया

-सच

-हां जी उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी गेर दी हो

-गिर क्या, बाजी मार ली है अपने गादर से आज ही जिद्र छेड़ो

-आपको भी मेरे साथ चलना पडेगा

-हां, हां( मैं तो चलूंगा ही मगर तुम तो बडे खुशनसीब निकले-यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती मगर एक बात है, औरत समझदार है उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाउं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है,और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है

सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ-तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे

-हां, अब भी हूं, लेकिन रूपये की जो शर्त है डाक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है ,उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए बोले-मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर

सन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा-जरूरत सब कुछ सिखा देती है स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है

-वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है मैं थोडे से रूपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता

दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर आत्मा जैसी चीज है कहां- और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही- अगर सौ रूपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, गाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो-

सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा-अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पडेगा इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है- धर्म वह है जिससे समाज का हित हो अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो इससे समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं-

देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है उन मर्यादाओं को तोड दो और समाज का अंत हो जाएगा

दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे देवकुमार मर्यादाओं और सिध्दांतों और धर्म-बंधनों की आड ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थे

सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा-बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई क्या आप इसे अधर्म कहेंगे- व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं मानें या न मानें, आपको अख्तियार है
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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देवकुमार ने लाचार होकर कहा-तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो-

-कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरूध्द कोई कार्रवाई न करें

मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता

सन्तकुमार ने आंखें निकाल कर उत्तेजित स्वर में कहा-तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पडेगी

सिन्हा ने सन्तकुमार को डांटा-क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार बाबू जी को दो-चार दिन सोचने का मौका दो तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जायगी तो देखना वह क्या करते हैं हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है हिन्दुस्तान जैसे फार्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं हम सिविल सर्जन से इसकी तसदीक करा देंगे

देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा-मेरे जीते-जी यह धांधली नहीं हो सकती हरगिज नहीं मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से किया मुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं है अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता हूं

और वह आवेश में आकर कमरे में टहलने लगे

सन्तकुमार ने भी खडे होकर धमकाते हुए कहा-तो मेरा भी आपको चेलेंज है या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे

-मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है

सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया-तुम आज दर्खास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें आपको हिरासत में ले लिया जाय

देवकुमार ने मुट्ठी तानकर द्रोध के आवेश में पूछा-मैं पागल हूं-

-जी हां, आप पागल हैं आपके होश बजा नहीं हैं ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौडे आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरूध्द व्यवहार करना भी पागलपन है

-तुम दोनों खुद पागल हो

-इसका फैसला तो डाक्टर करेगा

-मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है-

-जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायंगे

-तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो मैं गोली मार दूंगा

-बिल्कुल पागलों की-सी धमकी सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है

और दोनों मित्र उठ खडे हुए देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न लीब उनके जीवन की नीति थी।-आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे खासकर सिध्दांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे वह इस षडयंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे- जिस दृढता से सिन्हा ने धमकी दी थी। वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था। कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे उनका आत्माभिमान गरज उठा-नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े डाक्टर भी क्या अंधा है- उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड गया हो हुश वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता उनकी बुध्दि सूर्य के प्रकाश की भाति निर्मल है कभी नहीं वह इन लौंडों के धौंस में न आयेंगे

लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था। कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरूष थे अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खूद सीले हुए थे क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो जब तक बडे भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा- उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी। जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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लेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके तो एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ- और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे- उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही क्या वह भी उनके हाथ से छिन जायगा- उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।

शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें- उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावें- वह सब कुछ खुद झेल लेंगे और दुखी होने की बात भी क्यों हो- जीवन तो अनुभूतियों का नाम है यह भी एक अनुभव होगा जरा इसकी भी सैर कर लें

यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया घर में जाकर पंकजा से चाय बनाने को कहा

शैव्या ने पूछा-सन्तकुमार क्या कहता था।-

उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा-कुछ नहीं, वही पुराना खत

-तुमने तो हामी नहीं भरी न-

देवकुमार स्त्रीसे एकात्मता का अनुभव करके बोले-कभी नहीं

-न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया

-सामाजिक संस्कार हैं और क्या-

-इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए- साधु भी तो है, पंकज भी तो है, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं-

-मगर कसरत ऐसे ही आदमियों की है, यह समझ लो

उस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड दिया दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे लेकिन उनके अंतर में जैसे चोर-सा बैठा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने बढ़ी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी।, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी। जितनी खुद सारा यश पाने से होतीब उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था। मानो उनका मस्तक कुछ उंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है वही लोग जब सन्तकुमार की चितकबरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे-

इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर न किया उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मिृ मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता कुछ समझ में न आता क्या करे दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जाते

सन्तकुमार कहता-जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूं।

सिन्हा समझाता-मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर तो दिल में होता ही है न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है जो व्यक्ति सत्य के लिए बडे से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है

-ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते मैं न जानता था। तुम इतने भावुक हो

-उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे इसके लिए शहादतों की जरूरत है वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि. कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते

पृं देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असीव था। मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप-ही-आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों हैं- कर्म और संस्कार का आश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो गिर यह भेद क्यों है- क्यों एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी गूलों की सेज पर सोता है यह सर्वात्म है या घोर अनात्म- बुध्दि जवाब देती-यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है मगर शंका पूछती-सबको समान अवसर कहां है- बाजार लगा हुआ है जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाय- इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुध्दि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी।, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी। जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी। जो रोज मार्ग में ईटें पडे देखता है और बचकर निकल जाता है रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने फोड लेता है तो उसकी निवारण-शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहां है न्याय- कहां हैं- एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है दूसरा अमीर आदमी दिन-दहाडे दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है कुछ आदमी तरह-तरह के हथियार बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमाकर अपना गुलाम बना लेते हैं लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते हैं, शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंग-रेलियां मनाते हैं यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार- यही न्याय है-
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हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं लेकिन उन्हें देवता क्यों कहो- कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहो देवता वह है जो न्याय की रक्षा करे और उसके लिए प्राण दे देब अगर वह जानकर अनजान बनता है तो धर्म से गिरता है अगर उसकी आंखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति का मिथ्याएं गैलाकर इस अनीति को अमर बनाया है मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पडेगा दरिंदों के बीच में उनसे लडने के लिए हथियार बांधना पडेगा उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जडता है आज जो इतने ताल्लुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं और क्या उन्होंने वह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया- पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रूपये खर्च करना क्या जरूरी था।- और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक-मंडली खोलकर हजारों रूपये उसमें डुबाना अनिवार्य था।- वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई- अगर उन्हें मुर्ति की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लडके क्यों न मुर्ति की संपत्ति भोगें- अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लडके क्यों तपस्या करें-

और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायं बाकी उन्हें मिल जाय अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया अब किसी तरह नहीं हिल सकता और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और गूले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो ।

एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साग-साग कह दिया-अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लडके आपके उपर दावा करेंगे।

गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे,और बाजार अच्छा देखकर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे सारा कारोबर अंग्रेजी ढग से करते थे उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित्त करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जडवादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पडे तो सूद पर रूपए देते थे,मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खडे रहते थे चलते वक्त आदमियों को दो-चार रूपए इनाम दे आते थे गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के अपने हकों के लिए लडना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।।

देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये उनकी बड़ी इज्जत करते थे उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे पंडा-पुजारियों के नाम से चिढते थे, दूषित दान प्रथा। पर एक पैम्लेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।

एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहै उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आयाब गिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुध्दि भ्रष्ट हो गई है बेतुकी बातें कर रहे हैं देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह ख़याल और मजबूत हो गया

सुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भाव से बोले-कहिए, घर में तो सब कुशल तो है-

देवकुमार ने विद्रोह के भव से कहा-जी हां, सब आपकी कृपा है

-बड़ा लडका तो वकालत कर रहा है न-

-जी हां

-मगर चलती न होगी और आप की पुस्तकें भी आजकल कम बिकती होंगी यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रें का यह अनादर आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते

-आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं हूं

-धन-संकट में तो होंगे ही मुझ से जो कुछ सेवा आप कहें, उसके लिए तैयार हूं मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरूष से मेरा परिचय है आप की कुछ सेवा करना मेरे लिए गौरव की बात होगी
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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