मंगल सूत्र by munshi prem chand

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Jemsbond
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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सन्तकुमार ऐसा खुश था। गोया आधी मंजिल तय हो गई बोला-आपने खूब उचित जवाब दिया

सिन्हा ने तनी हुई ढोल की-सी आवाज में चोट मारी-ऐसे-ऐसे सेठों को डफलियों पर नचाते हैं यहां

सन्तकुमार स्वप्न देखने लगे-यहीं हम दोनो के बंगले बनेंगे दोस्त

-यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे

-अंदाज से कितने दिन में गैसला हो जायगा-

-छ: महीने के अंदर

-बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगे

मगर समस्या थी।, रूपये कहां से आवें देवकुमार निस्पृह आदमी थे धन की कभी उपासना नहीं की कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करतेब किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी। जहां से कोई बड़ी रकम मिलती उन्होंने समझा था। सन्तकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं- उनके भक्तों की कागी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी। कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रध्दा उनके चरणों में अर्पण करेंब मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो

और शीघ्र ही इसका परिणाम निकला एक भक्त ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाय क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी। ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृध्दावस्था में भी आर्थिक-चिंताओं से मुक्त न हो- साहित्य यों नहीं फल-फूल सकता जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा( और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया अचरज की बात यह थी। कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे बात चल पड़ी एक कमेटी बन गई एक राजा साहब उसके प्रधान बन गये मि.सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी।, पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे मिस कामत और मिस मलिक की ओर से भी समर्थन हो गया महिलाओं को पुरूषों से पीछे न रहना चाहिए जेठ में तिथि निश्चित हुई नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारियां होने लगीं ।

आखिर वह तिथि आ गयी आज शाम को वह उत्सव होगा दूर-दूर से साहित्य-प्रेमी आए हैं सोरांव के कुंअर साहब वह थैली भेंट करेंगे आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड’ामा खेला जायगा, प्रीति-भोज होगा, कवि-सम्मेलन होगा शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है राजा साहब सभापति हैं

देवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पडा ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था। उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको की जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं गैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले- यह दान ही है, और कुछ नहीं एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा,लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाय से लगते थे नेकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी।, लोभ दूसरी ओर मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पडा उना जीवन बौध्दिक था, और बुध्दि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है नीति का सहारा मिल जाए तो गिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी। जिसके सिर में दर्द हो रहा हो उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए कुछ अच्छा नहीं लग रहा है सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, उपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और सारा यशगान अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा-किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रक्खा, वह कौन-सा प्रकाश था। जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।

सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुर्खी दौड गई यह दान नहीं प्राविडेंट गंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है, क्या वह दान है- उन्होंने जनता की सेवा की है, तन-मन से की है, इस धुन से की है, जो बडे-से-बडे वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्या लाज आये?

राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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