मंगल सूत्र by munshi prem chand

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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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मि.सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं उन्हें ेदेखकर सभी आदमी आइए, आइए करते हैं,लेकिन उनके पीठ गेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं उनका पेशा है मुकदमे बनाना जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए- मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृध्दि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकतेब कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिध्दियां मिल गई थीं शानदार बंगले में रहते थे, बडे बडे रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था। कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बडे-बडे घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकते सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबध्द होता था। कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्तकुमार के साथ के पढै हुए थे दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है

नौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं गोरे-चिक्रे आदमी, उंचा कद, एकहरा बदन, बडे-बडे बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूंछें साग, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पडता है कोई बड़ा रईस है सन्तकुमार नीची अचकन पहने, गेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं

सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो मैं कहता हूं हमारी -तेह है ऐसी सैकड़ो नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराये हैं पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है

सन्तकुमार ने दुविधा में पडकर कहा-लेकिन गादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा

-उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है

-लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है

-तो उन्हें भी गोली मारोब हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है

-यह साबित करना आसान नहीं है जिसने बड़ी-बड़ी किताों लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे-

सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा किताा लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बातब मैं तो कहता हूं, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताों न लिखकर दलाली करें, यह खोंचे लगायें यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है रूपये का जुगाड तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड दो और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू देना चाहिए तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लडकी है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस चुडैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो गिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका जो रूपवान् हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देखकर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है,मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पडेगी तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी जरा मुश्किल से काबू में आयेगी अपनी सारी कला खर्च करनी पडेगी

-यह कला मैं खूब सीख चुका हूं

-तो आज शाम को आना क्लब में

-जरूर आउंगा

-रूपये का प्रबंध भी करना

-वह तो करना ही पडेगा

इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा, गोरा चिक्राब जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था। ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी।, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाबब उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढती थी।, मगर संसार की गति से वाकिफ थी।, और अपनी उपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी।, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था। और प्रांजल भाषा मेब मिजाज में नगासत इतनी थी। कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असफ्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी। कि किसी स्त्रीया पुरूष में जरा भी कुरूचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी। और पुरूष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था। और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रूचि न थी।, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी।, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरूषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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मगर इसके साथ ही वह सरल न थी। और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महभव न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतज्र्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता,जो विहृलता देखी थी। उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतना थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी। और उनके मनोरहस्यों को पढने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण्ा अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था। और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी। जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के गूहडपन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी।, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था। कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लडती

एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा-तुम उसे छोड क्यों नहीं देते-

सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पडेगे फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है उसने तो अपने आपको नहीं बनाया ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई ।

-मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं

सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।

तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है- अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।

सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथा।र्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है

फीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी ृ समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोडना तो असीव है केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है

संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ

तिब्बी ने डांटकर कहा-कुर्सियां साग क्यों नहीं कीं- देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है- मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी,मगर तुझे याद ही नहीं रहती बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी

नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साग कर दीं और फिर जाने को हुआ

तिब्बी ने गिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है मेजें रख दीं- टी-टेबल क्यों नहीं लाया- चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे-

उसने बूढे नौकर के दोनो कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गादी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है

बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रूपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी। पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रध्दा थी। वह उसे इस घर से बांधे हुए थी। और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड के थे लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी।, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी। उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनो ही घरों में लडकियां भी थीं बहुए भी थीं सब उसका आदर करती थीं बहुएं तो उससे लजाती थीं अगर उससे कोई बात बिगड भी जाती तो मन में रख लेती थीं उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहाब बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लडती थी। और यह लडकी बडे-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती लोग कहते हैं पढने से अक्ल आती है यही है वह अक्ल उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे- जो लडकी उसकी अपनी लडकी से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाये- अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है

घूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।

तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोयाब आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता

बैरा ने चाय मेज पर रख दी तिब्बी ने प्याली सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली-तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं

सन्तकुमार ने एक घूंट पीकर कहा-कम-से-कम इसका स्वांग तो करते ही हैं

-मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं जिस प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय

-उस पर भी तो पुरूषों पर आक्षेप किये जाते हैं

तिब्बी चौंकी यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है

अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पडेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरूष देवता होते हैं- आप भी जो वगादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से मैं इसे वगादारी नहीं कहती बिच्छू के डक तोडकर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता

सन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा-अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियों का पातिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी-

तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी

-क्यों-

-इसलिए कि मर्दो ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं वह केवल पुरूष के आधार पर जी सकती है उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरूष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है बिन ब्याही स्त्रीरोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है यह सारा मदोऊ का अपराध है आप भी पुष्पा को नहीं छोड रहे हैं इसीलिए न कि आप पुरूष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता

सन्तकुमार ने कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता अगर मैं आज उसे छोड दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी

तिब्बी मुस्कराई-मेरी तरफ से आप निश्ंचित रहिए मगर एक ही क्षण के बाद उसने ग़ीाीर होकर कहा-लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं

-मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पडे

आपके उपर मुझे सचमुच दया आती है क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए शायद मैं उन्हे रास्ते पर ला सकूं

सन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उनके मर्म पर चोट लगी है

-उनका रास्ते पर आना असीव है मिस त्रिवेणी वह उलटे आप ही के उपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगा

तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी

-तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी

-ऐसा क्यों-

-बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने लगें

-तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतर्फा डिग्री दे दूं-

-मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं आपसे अपनी मनोव्यथा। कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।

तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया-तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं- डरना तो मुझे चाहिए

सन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा-मै आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहीं

तिब्बी निर्भयता से बोली-जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए

-मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता

-आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं-

-यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं

-मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे

-दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं

-अधिकतर शिकारी किस्म केब स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं पुरूषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं

-जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं

-स्त्रीरूप नहीं देखती पुरूष जब गिरेगा रूप पर इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों मैं रूपवती हूं, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे
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सन्तकुमार ने धडकते हुए मन से कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं-

तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं

सन्तकुमार ने माथा। झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है

-आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं

-यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं

-मैं रहस्य नहीं हूं मैं तो साग कहती हूं मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए पे्रेम को जगा दे हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है और उससे उब गई हूं अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं जहां त्याग है, रूदन है, उत्सर्ग है सीव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी उफंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पडता है आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं बाबू जी को एक हजार रूपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है- मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं बुध्दि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड सकता वही दशा मेरी है उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।

तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी। कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतिया कसने लगेगी पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं मुख पर एक निश्ंचित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।

बोला-कितनी ही बार बिल्कुल यही मेरे विचार हैं मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।।

तिब्बी प्रसन्न होकर बोली-आपने मुझे कभी बताया नहीं

-आप भी तो आज ही खुली हैं

-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए

सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा

तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं उनका हाथ पकडकर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता

और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी। वह यकायक मिल गया है

सन्तकुमार ने रूखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी

-अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें-

इस विशुध्द मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।

-कुछ न पूछो बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है

-मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं जिस व्यवस्था से सारे समाज का उध्दार हो सकता है वह थोडे से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है

सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है और उठ खडे हुए यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था। जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो

तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न-

-आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आउंगा

-कब आइएगा-

-जल्द ही आउंगा

-काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती

सन्तकुमार बरामदे से कूदकर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही वह कठोर थी।, चंचल थी।, दुर्लभ थी।, रूपगर्विता थी।, चतुर थी।, किसी को कुछ समझती न थी।, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था। और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने वह आसन पा लिया था। और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरूष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे
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Re: मंगल सूत्र by munshi prem chand

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सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को डफलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती अब उन्हें विलंब न करना चाहिए कौन जाने कब तिब्बी विरूध्द हो जाय और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे वहीं मतभेद हो जाएगा यहां से वह सीधे मिृ सिन्हा के घर पहुंचे शाम हो गई थी। कुहरा पडना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खडे थे इन्हें देखते ही पूछाµ

-किधर से-

-वहीं से आज तो रंग जम गया

-सच

-हां जी उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी गेर दी हो

-गिर क्या, बाजी मार ली है अपने गादर से आज ही जिद्र छेड़ो

-आपको भी मेरे साथ चलना पडेगा

-हां, हां( मैं तो चलूंगा ही मगर तुम तो बडे खुशनसीब निकले-यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती मगर एक बात है, औरत समझदार है उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाउं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है,और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है

सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ-तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे

-हां, अब भी हूं, लेकिन रूपये की जो शर्त है डाक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है ,उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए बोले-मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर

सन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा-जरूरत सब कुछ सिखा देती है स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है

-वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है मैं थोडे से रूपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता

दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर आत्मा जैसी चीज है कहां- और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही- अगर सौ रूपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, गाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो-

सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा-अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पडेगा इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है- धर्म वह है जिससे समाज का हित हो अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो इससे समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं-

देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है उन मर्यादाओं को तोड दो और समाज का अंत हो जाएगा

दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे देवकुमार मर्यादाओं और सिध्दांतों और धर्म-बंधनों की आड ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थे

सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा-बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई क्या आप इसे अधर्म कहेंगे- व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं मानें या न मानें, आपको अख्तियार है
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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