अलंकार

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Jemsbond
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Re: अलंकार

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एफरायम और सिरापियन के अधिष्ठाताओं ने इस अद्भुत तपस्या का समाचार सुना तो उसके दर्शनों से अपने नेत्रों को कृतार्थ करने की इच्छा परकट की। उनकी नौका के त्रिकोण पालों को दूर से नदी में आते देखकर पापनाशी के मन में अनिवार्यतः यह विचार उत्पन्न हुआ कि ईश्वर ने मुझे एकान्त से भी योगियों के लिए आदर्श बना दिया है। दोनों महात्माओं ने जब उसे देखा तो उन्हें बड़ा कुतूहल हुआ और आपस में परामर्श करके उन्होंने सर्वसम्मति से ऐसी अमानुषिक को तपस्या का त्याज्य ठहराया। अतएव उन्होंने पापनाशी से नीचे उतर आने का अनुरोध किया।

वह बोला-’यह जीवनपरणाली परम्परागत व्यवहार के सर्वथा विरुद्ध है। धर्मसिद्घान्त इसकी आज्ञा नहीं देते।’

लेकिन पापनाशी ने उत्तर दिया-’योगी जीवन के नियमों और परम्परागत व्यवहारों की परवाह नहीं करता। योगी स्वयं असाधारण व्यक्ति होता है, इसलिए यदि उसका जीवन भी असाधारण हो तो आश्चर्य की क्या बात है। मैं ईश्वर की परेरणा से यहां च़ा हूं। उसी के आदेश से उतरुंगा।’

नित्यपरति धर्म के इच्छुक आकर पापनाशी के शिष्य बनते और उसी स्तम्भ के नीचे अपनी कुटिया बनाते थे। उनमें से कई शिष्यों ने अपने गुरु का अनुकरण करने के लिए मन्दिर के दूसरे स्तम्भों पर च़कर तप करना शुरू किया। पर जब उनके अन्य सहचरों ने इसकी निन्दा की, और वह स्वयं धूप और कष्ट न सह सके, तो नीचे उतर आये।

देश के अन्य भागों से पापियों और भक्तों के जत्थेके-जत्थे आने लगे। उनमें से कितने ही बहुत दूर से आते थे। उनके साथ भोजन की कोई वस्तु न होती थी। एक वृद्घा विधवा को सूझी कि उनके हाथ ताजा पानी, खरबूजे आदि फल बेचे जायें तो लाभ हो। स्तम्भ के समीप ही उसने मिट्टी के कुल्हड़ जमा किये। एक नीली चादर तानकर उसने नीचे फलों की टोकरियां सजाईं और पीछे खड़ी होकर हांक लगाने लगी-ठंडा पानी, ताजा फल, जिसे खाना या पानी पीना हो चला आवे। इसकी देखादेखी एक नानबाई थोड़ीसी लाल ईंटें लाया और समीप ही अपना तन्दूर बनाया। इसमें सादी और खमीरी रोटियां सेंककर वह गराहकों को खिलाता था। यात्रियों की संख्या दिनपरतिदिन ब़ने लगी। मिस्त्र देश के बड़ेबड़े शहरों से भी लोग आने लगे। यह देखकर एक लोभ आदमी ने मुसाफिरों और नौकरों, ऊंटों, खच्चरों आदि को ठहराने के लिए एक सराय बनवाई। थोड़े ही दिन में उस स्तम्भ के सामने एक बाजार लग गया जहां मदुए अपनी मछलियां और किसान अपने फलमेवे लालाकर बेचने लगे। एक नाई भी आ पहुंचा जो किसी वृक्ष की छांह में बैठकर यात्रियों की हजामत बनाता था और दिल्लगी की बातें करके लोगों को हंसाता था। पुराना मन्दिर इतने दिन उजड़े रहने के बाद फिर आबाद हुआ। जहां रातदिन निर्जनता और नीरवता का आधिपत्य रहता था, वहां अब जीवन के दृश्य और चिह्न दिखाई देने लगे। हरदम चहलपहल रहती। भठियारों ने पुराने मन्दिर के तहखानों के शराबखाने बना दिये और स्तम्भ पर पापनाशी के चित्र लटकाकर उसके नीचे यूनानी और मिस्त्री लिपियों में यह विज्ञापन लगा दिये-’अनार की शराब, अंजीर की शराब और सिलिसिया की सच्ची जौ की शराब यहां मिलती है।’ दुकानदारों ने उन दीवारों पर जिन पर पवित्र और सुन्दर बेलबूटे अंकित किये हुए थे, रस्सियों से गूंथकर प्याज लटका दिये। तली हुई मछलियां, मरे हुए खरहे और भेड़ों की लाशें सजाई हुई दिखाई देने लगीं। संध्या समय इस खंडहर के पुराने निवासी अर्थात चूहे सफ बांधकर नदी की ओर दौड़ते और बगुले सन्देहात्मक भाव से मर्दन उठाकर ऊंची कारनिसों पर बैठ जाते; लेकिन वहां भी उन्हें पाकशालाओं के धुएं, शराबियों के शोरगुल और शराब बेचने वालों की हांकपुकार से चैन न मिलता। चारों तरफ कोठी वालों ने सड़कें, मकान, चर्च धर्मशालाएं और ऋषियों के आश्रम बनवा दिये। छः महीने न गुजरने पाये थे कि वहां एक अच्छाखासा शहर बस गया, जहां रक्षाकारी विभाग, न्याय, कारागार, सभी बन गये और वृद्ध मुंशी ने एक पाठशाला भी खोल ली। जंगल में मंगल हो गया, ऊसर में बाग लहराने लगा।

यात्रियों का रातदिन तांता लगा रहता। शैनःशैनः ईसाई धर्म के परधान पदाधिकारी भी श्रद्घा के वशीभूत होकर आने लगे। ऐन्टियोक का परधान जो उस समय संयोग से मिस्त्र में था, अपने समस्त अनुयायियों के साथ आया। उसने पापनाशी के असाधारण तप की मुक्तकंठ से परशंसा की। मिस्त्र के अन्य उच्च महारथियों ने इस सम्मति का अनुमोदन किया। एफरायम और सिरापियन के अध्यक्षों ने यह बात सुनी तो उन्होंने पापनाशी के पास आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और पहले इस तपस्या के विरुद्ध जो विचार परकट किये थे उनके लिए लज्जित हुए और क्षमा मांगी। पापनाशी ने उत्तर दिया-’बन्धुओं, यथार्थ यह है कि मैं जो तपस्या कर रहा हूं वह केवल उन परलोभनों और दुरिच्छाओं के निवारण के लिए है जो सर्वत्र मुझे घेरे रहते हैं और जिनकी संख्या तथा शक्ति को देखकर मैं दहल उठता हूं। मनुष्य का बाह्यरूप बहुत ही सूक्ष्म और स्वल्प होता है। इस ऊंचे शिखर पर से मैं मनुष्यों की चींटियों के समान जमीन पर रेंगते देखता हूं। किन्तु मनुष्य को अन्दर से देखो तो यह अनन्त और अपार है। वह संसार के समाकार है क्योंकि संसार उसके अन्तर्गत है। मेरे सामने जो कुछ है-यह आश्रय, यह अतिथिशालाएं, नदी पर तैरने वाली नौकाएं, यह गराम खेत, वनउपवन, नदियां, नहरें, पर्वत, मरुस्थल वह उसकी तुलना नहीं कर सकते जो मुझमें है। मैं अपने विराट अन्तस्थल में असंख्य नगरों और सीमाशून्य पर्वतों को छिपाये हुए हूं, और इस विराट अन्तस्थल पर इच्छाएं उसी भांति आच्छादित हैं जैसे निशा पृथ्वी पर आच्छादित हो जाती है। मैं, केवल मैं, अविचार एक जगत हूं।’

सातवें महीने में इस्कन्द्रिया से बुबेस्तीस और सायम नाम की दो वंध्या स्त्रियां, इस लालसा में आयीं कि महात्मा के आशीवार्द और स्तम्भ के अलौकिक गुणों से उनके संतान होगी। अपनी ऊसर देह को पत्थर से रगड़ा। इन स्त्रियों के पीछे जहां तक निगाह पहुंचती थी, रथों, पालकियों और डोलियों का एक जुलूस चला आता था जो स्तम्भ के पास आकर रुक गया और इस देवपुरुष के दर्शन के लिए धक्काधक्का करने लगा। इन सवारियों में से ऐसे रोगी निकले जिनको देखकर हृदय कांप उठता था। माताएं ऐसे बालकों को लायी थीं जिनके अंग टे़े हो गये थे, आंखें निकल आयी थीं और गले बैठ गये थे। पापनाशी ने उनकी देह पर अपना हाथ रखा। तब अन्धे, हाथों से टटोलते, पापनाशी की ओर दो रक्तमय छिद्रों से ताकते हुए आये। पक्षाघात पीड़ित पराणियों ने अपने गतिशून्य सूखे तथा संकुचित अंगों की पापनाशी के सम्मुख उपस्थित किया। लंगड़ों ने अपनी टांगें दिखायीं। कछुई के रोग वाली स्त्रियां दोनों हाथों से अपनी छाती को दबाये हुए आयी और उसके सामने अपने जर्जर वक्ष खोल दिये। जलोदर के रोगी, शराब के पीपों की भांति फूले हुए, उसके सममुख भूमि पर लेटाये गये। पापनाशी ने इन समस्त रोगी पराणियों को आशीवार्द दिया। फीलपांव से पीड़ित हब्शी संभलसंभलकर चलते हुए आये और उसकी ओर करुण नेत्रों से ताकने लगे। उसने उनके ऊपर सलीब का चिह्न बना दिया। एक युवती बड़ी दूर से डोली में लायी गयी थी। रक्त उगलने के बाद तीन दिन से उसने आंखें न खोली थीं। वह एक मोम की मूर्ति की भांति दीखती थी और उसके मातापिता ने उसे मुर्दा समझकर उसकी छाती पर खजूर की एक पत्ती रख दी थी। पापनाशी ने ज्योंही ईश्वर से परार्थना की, युवती ने सिर उठाया और आंखें खोल दीं।

यात्रियों ने अपने घर लोटकर इन सिद्धियों की चचार की तो मिरगी के रोगी भी दौड़े। मिस्त्र के सभी परान्तों से अगणित रोगी आकर जमा हो गये। ज्योंही उन्होंने यह स्तम्भ देखा तो मूर्छित हो गये, जमीन पर लौटने लगे और उनके हाथपैर अकड़ गये। यद्यपि यह किसी को विश्वास न आयेगा, किन्तु वहां जितने आदमी मौजूद थे, सबके-सब बौखला उठे और रोगियों की भांति कुलांचें खाने लगे। पंडित और पुजारी, स्त्री और पुरुष सबके-सब तलेऊपर लोटनेपोटने लगे। सबों के अंग अकड़े हुए थे, मुंह से फिचकुर बहता था, मिट्टी से मुट्ठियां भरभरकर फांकते और अनर्गल शब्द मुंह से निकालते थे।

पापनाशी ने शिखर पर से यह कुतूहलजनक दृश्य देखा तो उसके समस्त शरीर में विप्लवसा होने लगा। उसने ईश्वर से परार्थना की-’भगवान्’, मैं ही छोड़ा हुआ बकरा हूं, और मैं अपने ऊपर इन सारे पराणियों के पापों का भार लेता हूं, और यही कारण है कि मेरा शरीर परेतों और पिशाचों से भरा हुआ है।’

जब कोई रोगी चंगा होकर जाता था तो लोग उसका स्वागत करते थे, उसका लुजूस निकालते थे, बाजे बजाते, फूल उड़ाते और उसके घर तक पहुंचाते थे, और लाखों कंठों से यह ध्वनि निकलती थी-’हमारे परभु मसीह फिर अवतरित हुए !’

बैसाखियों के सहारे चलने वाले दुर्बल रोगी जब आरोग्य लाभ कर लेते थे तो अपनी बैसाखियां इसी स्तम्भ में लटका देते थे। हजारों बैसाखियां लटकती हुई दिखाई देती थीं और परतिदिन उनकी संख्या ब़ती ही जाती थी। अपनी मुराद पाने वाली स्त्रियां फूल की माला लटका देती थीं। कितने ही यूनानी यात्रियों ने पापनाशी के परति श्रद्घामय दोहे अंकित कर दिये। जो यात्री आता था, वह स्तम्भ पर अपना नाम अंकित कर देता था। अतएव स्तम्भ पर जहां तक आदमी के हाथ पहुंच सकते थे, उस समय की समस्त लिपियों-लैटिन, यूनानी, मिस्त्री, इबरानी, सुरयानी और जन्दी-का विचित्र सम्मिश्रण दृष्टिगोचर था।

जब ईस्टर का उत्सव आया तो इस चमत्कारों और सिद्धियों के नगर में इतनी भीड़भाड़ हुई देशदेशान्तरों के यात्रियों का ऐसा जमघट हुआ कि बड़ेबड़े बुड्ढे कहते कि पुराने जादूगरों के दिन फिर लौट आये। सभी परकार के मनुष्य, नाना परकार के वस्त्र पहने हुए वहां नजर आते थे। मिस्त्रनिवासियों के धरीदार कपड़े, अरबों में ीले पाजामे, हब्शियों के श्वेत जांघिए, यूनानियों के ऊंचे चुगे, रोमनिवासियों के नीचे लबादे, असभ्य जातियों के लाल सुथने और वेश्याओं की किमखाब की पेशवाजें, भांतिभांति की टोपियों, मुड़ासों, कमरबन्दों और जूतों-इन सभी कलेवरों की झांकियां मिल जाती थीं। कहीं कोई महिला मुंह पर नकाब डाले, गधे पर सवार चली जाती थी, जिसके आगओगे हब्शी खोजे मुसाफिरों को हटाने के लिए छड़ियां घुमाते, ‘हटो, बचो, रास्ता दो’ का शोर मचाते रहते थे। कहीं बाजीगरों के खेल होते थे। बाजीगर जमींन पर एक जाजिम बिछाये, मौन दर्शकों के समान अद्भुत छलांगें मारता और भांतिभांति के करतब दिखाता था। कभी रस्सी पर च़कर ताली बाजाता, कभी बांस गाड़कर उस पर च़ जाता और शिखर पर सिर नीचे पैर ऊपर करके खड़ा हो जाता। कहीं मदारियों के खेल थे, कहीं बन्दरों के नाच, कहीं भालुओं की भद्दी नकलें। सपेरे पिटारियों में से सांप निकालकर दिखाते, हथेली पर बिच्छू दिखाते और सांप का विष उतारने वाली जड़ी बेचते थे। कितना शोर था, कितना धूल, कितनी चकमदमक। कहीं ऊंटवान ऊंटों को पीट रहा है। और जोरजोर से गालियां दे रहा है, कहीं फेहरी वाले गली में एक झोली लटकाये चिल्लाचिल्लाकर को़ की बातीजें और भूतपरेत आदि व्याधियों के मंत्र बेचते फिरते हैं, कहीं साधुगण स्वर मिलाकर बाइबिल के भजन गा रहे हैं, कहीं भेड़ें मिमिया रही हैं कहीं गधे रंेंग रहे हैं, मल्लाह यात्रियों को पुकारते हैं ‘देर मत करो !’ कहीं भिन्नभिन्न परान्तों की स्त्रियां अपने खोये हुए बालकों को पुकार रही हैं, कोई रोता है और कहीं खुशी में लोग आतिशबाजी छोड़ते हैं। इन समस्त ध्वनियों के मिलने से ऐसा शोर होता था कि कान के परदे फटे जाते थे। और इन सबसे परबल ध्वनि उन हब्शी लड़कों की थी जो गले फाड़कर खजूर बेचते फिरते थे। और इन समस्त जनसमूह को खुले हुए मैदान में भी सांस लेने को हवा न मयस्सर होती थी। स्त्रियों के कपड़ों की महक, हब्शियों के वस्त्रों की दुर्गन्ध, खाना पकाने के धुएं, और कपूर, लोहबान आदि की सुगन्ध से, जो भक्तजन महात्मा पापनाशी के सम्मुख जलाते थे, समस्त वायुमंडल दूषित हो गया था, लोगों के दम घुटने लगते थे।

जब रात आयी तो लोगों ने अलाव जलाये, मशालें और लालटेनें जलायी गयीं, किन्तु लाल परकाश की छाया और काली सूरतों के सिवा और कुछ न दिखाई देता था। मेले के एक तरफ एक वृद्ध पुरुष तेली धुआंती कुप्पी जलाये, पुराने जमाने की एक कहानी कह रहा था। श्रोता लोग घेरा बनाये हुए थे। बुड्े का चेहरा धुंधले परकाश में चमक रहा था। वह भाव बनाबनाकर कहानी कहता था, और उसकी परछाईं उसके परत्येक भाव को ब़ाबढ़ाकर दिखाती थी। श्रोतागण परछाईं के विकृत अभिनय देखदेखकर खुश होते थे। यह कहानी बिट्रीऊ की परेमकथा थी। बिट्रीऊ ने अपने हृदय पर जादू कर दिया था और छाती से निकालकर एक बबूल के वृक्ष में रखकर स्वयं वृक्ष का रूप धारण कर लिया था। कहानी पुरानी थी। श्रोताओं ने सैकड़ों ही बार इसे सुना होगा, किन्तु वृद्ध की वर्णशैली बड़ी चित्ताकर्षक थी। इसने कहानी को मजेदार बना दिया था। शराबखानों में मद के प्यासे कुरसियों पर लेटे हुए भांतिभांति के सुधारस पान कर रहे थे और बोतलें खाली करते चले जाते थे। नर्तकियां आंखों में सुरमा लगाये और पेट खोले उनके सामने नाचती और कोई धार्मिक या शृंगार रस का अभिनय करती थीं।

एकांत कमरों में युवकगण चौपड़ या कोई खेल खेलते थे, और वृद्धजन वेश्याओं से दिल बहला रहे थे। इन समस्त दृश्यों के ऊपर वह अकेला, स्थिर, अटल स्तम्भ खड़ा था। उसका गोरूपी कलश परकाश की छाया में मुंह फैलाये दिखाई देता था, और उसके ऊपर पृथ्वीआकाश के मध्य पापनाशी अकेला बैठा हुआ यह दृश्य देख रहा था। इतने में चांद ने नल के अंचल में से सिर निकाला, पहाड़ियां नीले परकाश में चमक उठीं और पापनाशी को ऐसा भासित हुआ मानो थायस की सजीव मूर्ति नाचते हुए जल के परकाश में चमकती, नीले गगन में निरालंब खड़ी है।

दिन गुजरते जाते थे और पापनाशी ज्यों का त्यों स्तम्भ पर आसन जमाये हुए था। वर्षाकाल आया तो आकाश का जल लकड़ी की छत से टपकटपक उसे भिगोने लगा। इससे सरदी खाकर उसके हाथपांव अकड़ उठे, हिलनाडोलना मुश्किल हो गया। उधर दिन को धूप की जलन और रात को ओस की शीत खातेखाते उसके शरीर की खाल फटने लगी और समस्त देह में घाव, छाले और गिल्टियां पड़ गयीं। लेकिन थायस की इच्छा अब भी उसके अन्तःकरण में व्याप्त थी और वह अन्तवेर्दना से पीड़ित होकर चिल्ला उठता था- ‘भगवान ! मेरी ओर भी सांसत कीजिए, और भी यातनाएं अभी पीछे पड़ी हुई हैं, विनाश वासनाएं अभी तक मन का मंथन कर रही हैं। भगवान्, मुझ पर पराणिमात्र की विषयवासनाओं का भार रख दीजिए, उन सबों को पराश्यिचत करुंगा। यद्यपि यह असत्य है कि यूनानी कुतिये ने समस्त संसार का पापभार अपने ऊपर लिया था, जैसा मैंने किसी समय एक मिथ्यावादी मनुष्य को कहते सुना था, लेकिन उस कथा में कुछ आशय अवश्य छिपा हुआ है जिसकी सचाई अब मेरी समझ में आ रही है, क्योंकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जनता के पाप धमार्त्माओं की आत्माओं में परविष्ट होते हैं और वह इस भांति विलीन हो जाते हैं, मानो कुएं में गिरे पड़े हों। यही कारण है कि पुण्यात्माओं के मन में जितना मल भरा रहता है, उतना पापियों के मन में कदापि नहीं रहता। इसलिए भगवान्, मैं तुझे धन्यवाद देता हूं कि तूने मुझे संसार का मलकुंड बना दिया है।

एक दिन उस पवित्र नगर में यह खबर उड़ी, और पापनाशी के कानों में भी पहुंची कि एक उच्च राज्यपदाधिकारी, जो इस्कन्द्रिया की जलसेना का अध्यक्ष था, शीघर ही उस शहर की सैर करने आ रहा है-नहीं बल्कि रवाना हो चुका है।

यह समाचार सत्य था। वयोवृद्ध कोटा, जो उस साल नील सागर की नदियों और जलमार्गों का निरीक्षण कर रहा था, कई बार इस महात्मा और इस नगर को देखने की इच्छा परकट कर चुका था। इस नगर का नाम पापनाशी ही के नाम पर ‘पापमोचन’ रखा गया था। एक दिन परभातकाल इस पवित्र भूमि के निवासियों ने देखा कि नील नदी श्वेत पालों से आच्छन्न हो गयी है। कोटा एक सुनहरी नौका पर, जिस पर बैंगनी रंग के पाल लगे हुए थे, अपनी समस्त नाविकशक्ति के आगओगे निशाना उड़ाता चला आता है। घाट पर पहुंचकर वह उतर पड़ा और अपने मन्त्री तथा अपने वैद्य अरिस्टीयस के साथ नगर की तरफ चला। मन्त्री के हाथ में नदी के मानचित्र आदि थे। और वैद्य से कोटा स्वयं बातें कर रहा था। वृद्घावस्था में उसे वैद्यराज की बातों में आनन्द मिलता था।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: अलंकार

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कोटा के पीछ सहस्त्रों मनुष्यों का जुलूस चला और जलतट पर सैनिकों की वर्दियां और राज्यकर्मचारियों के चुगेही-चुगे दिखाई देने लगे। इन चुगों में चौड़ी बैंगनी रंग की गांठ लगी थी, जो रोम की व्यवस्थापकसभा के सदस्यों का सम्मानचिह्न थी। कोटा उस पवित्र स्तम्भ के समीप रुक गया और महात्मा पापनाशी को ध्यान से देखने लगा। गरमी के कारण अपने चुगे के दामन से मुंह पर का पसीना वह पोंछता था। वह स्वभाव से विचित्र अनुभवों का परेमी था, और अपनी जलयात्राओं में उसने कितनी ही अद्भुत बातें देखी थीं। वह उन्हें स्मरण रखना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि अपना वर्तमान इतिहासगरन्थ समाप्त करने के बाद अपनी समस्त यात्राओं का वृत्तान्त लिखे और जोजो अनोखी बातें देखी हैं उसका उल्लेख करे। यह दृश्य देखकर उसे बहुत दिलचस्पी हुई।

उसने खांसकर कहा-’विचित्र बात है ! और यह पुरुष मेरा मेहमान था। मैं अपने यात्रावृत्तान्त में वह अवश्य लिखूंगा। हां, गतवर्ष इस पुरुष ने मेरे यहां दावत खायी थी, और उसके एक ही दिन बाद एक वेश्या को लेकर भाग गया था।’

फिर अपने मन्त्री से बोला-’पुत्र, मेरे पत्रों पर इसका उल्लेख कर दो। इसे स्तम्भ की लम्बाईचौड़ाई भी दर्ज कर देना। देखना, शिखर पर जो गाय की मूर्ति बनी हुई है, उसे न भूलना।’

तब फिर अपना मुंह पोंछकर बोला-’मुझसे विश्वस्त पराणियों ने कहा है कि इस योगी ने साल भर से एक क्षण के लिए भी नीचे कदम नहीं रखा। क्यों अरिस्टीयस यह सम्भव है ! कोई पुरुष पूरे साल भर तक आकाश में लटका रह सकता है?’

अरिस्टीयस ने उत्तर दिया-किसी अस्वस्थ या उन्मत्त पराणी के लिए जो बात सम्भव है। आपको शायद यह बात न मालूम होगी कि कतिपय शरीरिक और मानसिक विकार न हो, असम्भव है। आपको शायद यह बात न मालूम होगी कि कतिपय शारीरिक और मानसिक विकारों से इतने अद्भुत शक्ति आ जाती है जो तन्दुरुस्त आदमियों में कभी नहीं आ सकती। क्योंकि यथार्थ में अच्छा स्वास्थ्य या बुरा स्वास्थ्य स्वयं कोई वस्तु नहीं है। वह शरीर के अंगपरत्यंग की भिन्नभिन्न दशाओं का नाममात्र है। रोगों के निदान से मैंने वह बात सिद्ध की है कि वह भी जीवन की आवश्यक अवस्थाएं हैं। मैं बड़े परेम से उनकी मीमांसा करता हूं, इसलिए कि उन पर विजय पराप्त कर सकूं। उनमें से कई बीमारियां परशंसनीय है और उनमें बहिर्विकार के रूप में अद्भुत आरोग्यवर्द्धक शक्ति छिपी रहती है। उदाहरणः कभीकभी शारीरिक विकारों से बुद्धिशक्तियां परखर हो जाती हैं, बड़े वेग से उनका विकास होने लगता है। आप सिरोन को तो जानते हैं। जब वल बालक था तो वह तुतलाकर बोलता था और मन्दबुद्धि था। लेकिन जब एक सी़ी पर से गिर जाने के कारण उसकी कपालित्र्कया हो गयी तो वह उच्चश्रेणी का वकील निकला, जैसाकि आप स्वयं देख रहे हैं। इस योगी का कोई गुप्त अंग अवश्य ही विकृत हो गया है। इनके अतिरिक्त इस अवस्था में जीवन व्यतीत करना इतनी असाधारण बात नहीं है, जितनी आप समझ रहे हैं। आपको भारतवर्ष के योगियों की याद है ? वहां के योगीगण इसी भांति बहुत दिनों तक निश्चल रह सकते हैं-एकदो वर्ष नहीं, बल्कि बीस, तीस, चालीस वर्षों तक। कभीकभी इससे भी अधिक। यहां तक कि मैंने तो सुना है कि वह निर्जल; निराहार सौसौ वर्षों तक समाधिस्थ रहते हैं।’

कोटा ने कहा-ईश्वर की सौगन्ध से कहता हूं, मुझे यह दशा अत्यन्त कुतूहलजनक मालूम हो रही है। यह निराले परकार का पागलपन है। मैं इसकी परशंसा नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य का जन्म चलने और काम करने के निमित्त हुआ है और उद्योगहीनता सामराज्य के परति अक्षम्य अत्याचार है। मुझे ऐसे किसी धर्म का ज्ञान नहीं है जो ऐसी आपत्तिजनक त्रि्कयाओं का आदेश करता हो। सम्भव है, एशियाई सम्परदायों में इसकी व्यवस्था हो। जब मैं शाम (सीरिया) का सूबेदार था तो मैंने ‘हेरा’ नगर के द्वार पर एक ऊंचा चबूतरा बना हुआ देखा। एक आदमी साल में दो बार उस पर च़ता था और वहां सात दिनों तक चुपचाप बैठा रहता था। लोगों को विश्वास था कि यह पराणी देवताओं से बातें करता था और शाम देश को धनधान्यपूर्ण रखने के लिए उनसे विनय करता था। मुझे यह परथा निरर्थकसी जान पड़ी, किन्तु मैंने उसे उठाने की चेष्टा नहीं की। क्योंकि मेरा विचार है कि राज्यकर्मचारियों को परजा के रीतिरिवाजों में हस्तक्षेप न करना चाहिए, बल्कि इनको मयार्दित रखना उनका कर्तव्य है। शासकों की नीति कदापि न होनी चाहिए कि परजा को किसी विशेष मत की ओर खींचें, बल्कि उथको ‘उसी मत की रक्षा करनी चाहिए जो परचलित हो, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, क्योंकि देश, काल और जाति की परिस्थिति के अनुसार ही उसका जन्म और विकास हुआ है। अगर शासन किसी मत को दमन करने की चेष्टा करता है, तो वह अपने को विचारों में त्र्कान्तिकारी और व्यवहारों में अत्याचारी सिद्ध करता है, और परजा उससे घृणा करे तो सर्वथा क्षम्य है। फिर आप जनता के मिथ्या विचारों का सुधार क्योंकर कर सकते हैं अगर तुम उनको समझने और उन्हें निरक्षेप भाव से देखने में असमर्थ हैं ? अरिस्टोयस, मेरा विचार है कि इस पक्षियों के बसाये हुए मेघनगर को आकाश में लटका रहने दूं। उस पर नैसर्गिक शक्तियों का कोप ही क्या कम है कि मैं भी उसको उजाड़ने में अगरसर बनूं। उसके उजाड़ने से मुझे अपयश के सिवा और कुछ हाथ न लगेगा। हां, इस आकाश निवासी योगी के विचारों और विश्वासों को लेखबद्ध करना चाहिए।

यह कहकर उसने फिर खांसा और अपने मन्त्री के कन्धे पर हाथ रखकर बोला-’पुत्र, नोट कर लो कि ईसाई सम्परदाय के कुछ अनुयायियों के मतानुसार स्तम्भों के शिखर पर रहना और वेश्याओं को ले भागना सराहनीय कार्य है। इतना और ब़ा दो कि यह परथाएं सृष्टि करने वाले देवताओं की उपासना के परमाण हैं। ईसाई धर्म ईश्वरवादी होकर देवताओं के परभाव को अभी तक नहीं मिटा सका। लेकिन इस विषय में हमें स्वयं इस योगी ही से जिज्ञासा करनी चाहिए।

तब फिर उठाकर और धूप से आंखों को बचाने के लिए हाथों की आड़ करके उसने उच्चस्वर में कहा-इधर देखो पापनाशी ! अगर तुम अभी यह नहीं भूले हो कि तुम एक बार मेरे मेहमान रह चुके हो तो मेरी बातों का उत्तर दो। तुम वहां आकाश पर बैठे क्या कर रहे हो ? तुम्हारे वहां जाने का और रहने का क्या उद्देश्य है ? क्या तुम्हारा विचार है कि इस स्तम्भ पर च़कर तुम देश का कुछ कल्याण कर सकते हो ?

पापनाशी ने कोटा को केवल परतिमावादी तुच्छ दृष्टि से देखा और उसे कुछ उत्तर देने योग्य न समझा। लेकिन उसका शिष्य लेवियन समीप आकर बोला-’मान्यवर, वह ऋषि समस्त भूमण्डल के पापों को अपने ऊपर लेता और रोगियों को आरोग्य परदान करता है।’

कोटा-’कसम खुदा की, यह तो बड़ी दिल्लगी की बात है तुम कहते हो अरिस्टीयस, यह आकाशवासी महात्मा चिकित्सा करता है। यह तो तुम्हारा परतिवादी निकला। तुम ऐसे आकाशरोही वैद्य से क्योंकर पेश पा सकोगे ?’

अरिस्टीयस ने सिर हिलाकर कहा-यह बहुत सम्भव है कि वह बाजेबाजे रोगों की चिकित्सा करने में मुझसे कुशल हो। अदाहरणतः मिरगी ही को ले लीजिए। गंवारी बोलचाल में लोग इसे ‘देवरोग’ कहते हैं, यद्यपि सभी रोग दैवी हैं, क्योंकि उनके सृजन करने वाले तो देवगण ही हैं। लेकिन इस विशेष रोग का कारण अंशतः कल्पनाशक्ति में है और आप यह रोगियों की कल्पना पर जितना परभाव डाल सकता है, उतना मैं अपने चिकित्सालय में खरल और दस्ते से औषधियों घोंटकर कदापि नहीं डाल सकता। महाशय, कितनी ही गुप्त शक्तियां हैं जो शास्त्र और बुद्धि से कहीं ब़कर परभावोत्पादक हैं।’

कोटा-’वह कौन शक्तियां हैं ?’

अरिस्टीयस-’मूर्खता और अज्ञान।’

कोटा-’मैंने अपनी बड़ीबड़ी यात्राओं में भी इससे विचित्र दृश्य नहीं देखा, और मुझे आशा है कि कभी कोई सुयोग्य इतिहासलेखक ‘मोचननगर’ की उत्पत्ति का सविस्तार वर्णर करुंगा। लेकिन हम जैसी बहुधन्धी मनुष्यों को किसी वस्तु के देखने में चाहे वह कितनाही कुतूहलजनक क्यों न हो, अपना बहुत समय न गंवाना चाहिए। चलिए, अब नहरों का निरीक्षण करें। अच्छा पापनाशी, नमस्कार। फिर कभी आऊंगा। लेकिन अगर तुम फिर कभी पृथ्वी पर उतरो और इस्कन्द्रिया आने का संयोग हो तो मुझे न भूलना। मेरे द्वार तुम्हारे स्वागत के लिए नित्य खुले हैं। मेरे यहां आकर अवश्य भोजन करना।’

हजारों मनुष्यों ने कोटा के यह शब्द सुने। एक ने दूसरे से कहा-ईसाइयों में और भी नमक मिर्च लगाया। जनता किसी की परशंसा बड़े अधिकारियों के मुंह से सुनती है तो उसकी दृष्टि में उस परशंसित मनुष्य का आदरसम्मान सतगुण अधिक हो जाता है। पापनाशी की ओर भी ख्याति होने लगी। सरलहृदय मतानुरागियों ने इन शब्दों को और भी परिमार्जित और अतिशयोक्तिपूर्ण रूप दे दिया। किंवदन्तियां होने लगीं कि महात्मा पापनाशी ने स्तम्भ के शिखर पर बैठेबैठे, जलसेना के अध्यक्ष को ईसाई धर्म का अनुगामी बना लिया। उसके उपदेशों में यह चमत्कार है कि सुनते ही बड़ेबड़े नास्तिक भी मस्तक झुका देते हैं। कोटा के अन्तिम शब्दों में भक्तों को गुप्त आशय छिपा हुआ परतीत हुआ। जिस स्वागत की उस उच्च अधिकारी ने सूचना दी थी वह साधारण स्वागत नहीं था। वह वास्तव में एक आध्यात्मिक भोज, एक स्वगीर्य सम्मेलन, एक पारलौकिक संयोग का निमंत्रण था। उस सम्भाषण की कथा का बड़ा अद्भुत और अलंकृत विस्तार किया गया। और जिनजिन महानुभावों ने यह रचना की उन्होंने स्वयं पहले उस पर विश्वास किया। कहा जाता था कि जब कोटा ने विशद तर्कवितर्क के पश्चात सत्य को अंगीकार किया और परभु मसीह की शरण में आया तो एक स्वर्गदूत आकाश से उसके मुंह का पसीना पोंछने आया। यह भी कहा जाता था कि कोटा के साथ उसके वैद्य और मन्त्री ने भी ईसाई धर्म स्वीकार किया। मुख्य ईसाई संस्थाओं के अधिष्ठाताओें ने यह अलौकिक समाचार सुना तो ऐतिहासिक घटनाओं में उसका उल्लेख किया। इतने ख्यातिलाभ के बाद यह कहना किंचित मात्र भी अतिशयोक्ति न थी कि सारा संसार पापनाशी के दर्शनों के लिए उत्कंठित हो गया। पराच्य और पाश्चात्य दोनों ही देशों के ईसाइयों की विस्मित आंखें उनकी ओर उठने लगीं। इटली के परधान नगरों ने उसके नाम अभिनन्दनपत्र भेजे और रोम के कैंसर कॉन्स्टैनटाइन ने, जो ईसाई धर्म का पक्षपाती था उनके पास एक पत्र भेजा। ईसाई दूत इस पत्र को बड़े आदरसम्मान के साथ पापनाशी के पास लाये। लेकिन एक रात को जब वह नवजात नगर हिम की चादर ओ़े सो रहा था, पापनाशी के कानों में यह शब्द सुनाई दिये-पापनाशी, तू अपने कर्मों से परसिद्ध और अपने शब्दों से शक्तिशाली हो गया है। ईश्वर ने अपनी कीर्ति को उज्ज्वल करने के लिए तुझे इस सवोर्च्च पद पर पहुंचाया है। उसने तुझे अलौकिक लीलाएं दिखाने, रोगियों को आरोग्य परदान करने, नास्तिकों को सन्मार्ग पर लाने, पापियों का उद्घार करने, एरियन के मतानुयायियों के मुख में कालिमा लगाने और ईसाई जगत में शान्ति और सुखसामराज्य स्थापित करने के लिए नियुक्त किया है।’

पापनाशी ने उत्तर दिया-’ईश्वर की जैसी आज्ञा।’

फिर आवाज आयी थी-’पापनाशी, उठ जा, और विधमीर कॉन्सटेन्स को उसके राज्यपरासाद में सन्मार्ग पर ला, जो अपने पूज्य बन्धु कॉन्सटेनटाइन का अनुकरण न करके एरियस और माक्र्स के मिथ्यावाद में फंसा हुआ है। जा, विलम्ब न कर। अष्टधातु के फाटक तेरे पहंुचते ही आपही-आप खुल जायेंगे, और तेरी पादुकाओं की ध्वनि; कैसरों के सिंहासन के सम्मुख सजे भवन की स्वर्णभूमि पर परतिध्वनित होगी और तेरी परतिभामय वाणी कॉन्स्टैनटाइन के पुत्र के हृदय को परास्त कर देगी। संयुक्त और अखण्ड ईसाई सामराज्य पर राज्य करेगा और जिस परकार जीव देह पर शासन करता है, उसी परकार ईसाई धर्म सामराज्य पर शासन करेगा। धनी, रईस, राजयाधिकारी, राज्यसभा के सभासद सभी तेरे अधीन हो जायेंगे। तू जनता को लोभ से मुक्त करेगा और असभ्य जातियों के आत्र्कमणों का निवारण करेगा। वृद्ध कोटा जो इस समय नौकाविभाग का परधान है। तुझे शासन का कर्णधार बना हुआ देखकर तेरे चरण धोयेगा। तेरे शरीरान्त होने पर तेरी मृतदेह इस्कन्द्रिया जायेगी और वहां का परधान मठधारी उसे एक ऋषि का स्मारकचिह्न समझकर उसका चुम्बन करेगा ! जा !’

पापनाशी ने उत्तर दिया-’ईश्वर की जैसी आज्ञा !’
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Jemsbond
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Re: अलंकार

Post by Jemsbond »

यह कहकर उसने उठकर खड़े होने की चेष्टा की, किन्तु उस आवाज ने उसकी इच्छा को ताड़कर कहा-’सबसे महत्व की बात यह है कि तू सी़ी द्वारा मत उतर ! यह तो साधारण मनुष्यों कीसी बात होगी। ईश्वर ने तुझे अद्भुत शक्ति परदान की है। तुझ जैसे परतिभाशाली महात्मा को वायु में उड़ना चाहिए। नीचे कूद पड़, स्वर्ग के दूत तुझे संभालने के लिए खड़े हैं, तुरन्त कूद पड़।’

पापनाशी न उत्तर दिया-’ईश्वर की इस संसार में उसी भांति विषय हो जैसे स्वर्ग में है!’

अपनी विशाल बांहें फैलाकर, मानो कि बृहदाकर पक्षी ने अपने छिदरे पंख फैलाये हों, वह नीचे कूदने वाला ही था कि सहसा एक डरावनी, उपहाससूचक हास्यध्वनि उसके कानों में आयी। भीत होकर उसने पूछा-यह कौन हंस रहा है।’

उस आवाज ने उत्तर दिया-’चौंकते क्यों हो ? अभी तो तुम्हारी मित्रता का आरम्भ हुआ है। एक दिन ऐसा आयेगा जब मुझसे तुम्हारा परिचय घनिष्ठ हो जायेगा। मित्रवर, मैंने ही तुझे इस स्तम्भ पर च़ने की परेरणा की थी और जिस निरापदभाव से तुमने मेरी आज्ञा शिरोधार्य की उससे मैं बहुत परसन्न हूं। पापनाशी, मैं तुमसे बहुत खुश हूं।’

पापनाशी ने भयभीत होकर कहा-’परभु, परभु ! मैं तुझे अब पहचान गया, खूब पहचान गया। तू ही वह पराणी है जो परभु मसीह को मन्दिर के कलश पर ले गया था और भूमंडल के समस्त सामराज्यों का दिग्दर्शन कराया था।’

‘तू शैतान है ! भगवान्, तुम मुझसे क्यों पराङ्मुख हो ?’

वह थरथर कांपता हुआ भूमि पर गिर पड़ा और सोचने लगा-

मुझे पहले इसका ज्ञान क्यों न हुआ ? मैं उन नेत्रहीन, वधिर और अपंग मनुष्यों से भी अभागा हूं जो नित्य शरण आते हैं। मेरी अन्तर्दृष्टि सर्वथा ज्योतिहीन हो गयी है, मुझे दैवी घटनाओं का अब लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता और अब मैं उन भरष्टबुद्धि पागलों की भांति हूं जो मिट्टी फांकते हैं और मुर्दों की लाशें घसीटते हैं। मैं अब नरक के अमंगल और स्वर्ग के मधुर शब्दों में भेद करने के योग्य नहीं रहा। मुझसे अब उस नवजात शिशु का नैसर्गिक ज्ञान भी नहीं रहा जो माता के स्तनों के मुंह से निकल जाने पर रोता है, उस कुत्ते कासा भी, जो अपने स्वामी के पद चिह्नों की गन्ध पहचानता है, उस पौधे (सूर्यमुखी) कासा भी जो सूर्य की ओर अपना मुख फेरता रहता है। मैं परेतों और पिशाचों के परिहास का केन्द्र हूं। यह सब मुझ पर तालियां बजा रहे हैं, जो अब ज्ञात हुआ, कि शैतान ही मुझे यहां खींचकर लाया। जब उसने मुझे इस स्तम्भ पर च़ाया तो वासना और अहंकार दोनों ही मेरे साथ च़ आये ! मैं केवल अपनी इच्छाओं के विस्तार ही से शंकायमान नहीं होता। एटोनी भी अपनी पर्वतगुफा में ऐसे ही परलोभनों से पीड़ित है। मैं चाहता हूं कि इन समस्त पिशाचों की तलवार मेरी देह को छेद स्वर्गदूतों के सम्मुख मेरी धज्जियां उड़ा दी जायें। अब मैं अपनी यातनाओं से परेम करना सीख गया हूं। लेकिन ईश्वर मुझसे नहीं बोलता, उसका एक शब्द भी मेरे कानों में नहीं आता। उसका यह निर्दय मौन, यह कठोर निस्तब्धता आश्चर्यजनक है। उसने मुझे त्याग दिया है-मुझे, जिसका उसके सिवा और कोई अवलम्ब न था। वह मुझे इस आफत में अकेला निस्सहाय छोड़े हुए है। वह मुझसे दूर भागता है, घृणा करता है। लेकिन मैं उसका पीछा नहीं छोड़ सकता। यहां मेरे पैर जल रहे हैं, मैं दौड़कर उसके पास पहुंचूंगा।

यह कहते ही उसने वह सी़ी थाम ली जो स्तम्भ के सहारे खड़ी थी, उस पर पैर रखे और एक डण्डा नीचे उतरा कि उसका मुख गोरूपी कलश के सम्मुख आ गया। उसे देखकर गोमूर्ति विचित्र रूप से मुस्कराई। उसे अब इसमें कोई सन्देह न था कि जिस स्थान को उसने शांतिलाभ और सत्कीर्ति के लिए पसंद किया था, वह उसके सर्वनाश और पतन का सिद्ध हुआ। वह बड़े वेग से उतरकर जमीन पर आ पहुंचा। उसके पैरों को अब खड़े होने का भी अभ्यास न था, वे डगमगाते थे। लेकिन अपने ऊपर इस पैशाचिक स्तंभ की परछाईं पड़ते देखकर वह जबरदस्ती दौड़ा, मानो कोइर कैदी भाग जाता हो। संसार निद्रा में मग्न था। वह सबसे छिपा हुआ उस चौक से होकर निकला जिसके चारों ओर शराब की दुकानें, सराएं, धर्मशालाएं बनी हुई थीं और एक गली में घुस गया, जो लाइबिया की पहाड़ियों की ओर जाती थी। विचित्र बात यह थी कि एक कुत्ता भी भूंकता हुआ उसका पीछा कर रहा था और जब एक मरुभूमि के किनारे तक उसे दौड़ा न ले गया, उसका पीछा न छोड़ा। पापनाशी ऐसे देहातों में पहुंचा जहां सड़कें या पगडंडियां न थीं, केवल वनजन्तुओं के पैरों के निशान थे। इस निर्जन परदेश में वह एक दिन और रात लगातार अकेला भागता चला गया।

अन्त में जब वह भूख, प्यास और थकान से इतना बेदम हो गया कि पांव लड़खड़ाने लगे, ऐसा जान पड़ने लगा कि अब जीता न बचूंगा तो वह एक नगर में पहुंचा जो दायेंबायें इतनी दूर तक फैला हुआ था कि उसकी सीमाएं नीले क्षितिज में विलीन हो जाती थीं। चारों ओर निस्तब्धता छायी हुई थी, किसी पराणी का नाम न था। मकानों की कमी न थी, पर वह दूरदूर पर बने हुए थे, और उन मिस्त्री मीनारों की भांति दीखते थे जो बीच में काट लिये गये हों। सबों की बनावट एकसी थी, मानो एक ही इमारत की बहुतसी नकलें की गयी हों। वास्तव में यह सब कबरें थीं। उनके द्वार खुले ओर टूटे हुए थे, और उनके अन्दर भेड़ियों और लकड़बग्घों की चमकती हुई आंखें नजर आती थीं, जिन्होंने वहां बच्चे दिये थे। मुर्दे कबरों के सामने बाहर पड़े हुए थे जिन्हें डाकुओं ने नोचखसोट लिया था और जंगली जानवरों ने जगहजगह चबा डाला था। इस मृतपुरी में बहुत देश तक चलने के बाद पापनाशी एक कबर के सामने थककर गिर पड़ा, जो छुहारे के वृक्षों से ंके हुए एक सोते के समीप थी। यह कबर खूब सजी हुई थी, उसके ऊपर बेलबूटे बने हुए थे, किन्तु कोई द्वार न था। पापनाशी ने एक छिद्र में से झांका तो अन्दर एक सुन्दर, रंगा हआ तहखाना दिखाई पड़ा जिसमें सांपों के छोटेछोटे बच्चे इधरउधर रेंग रहे थे। उसे अब भी यही शंका हो रही थी कि ईश्वर ने मेरा हाथ छोड़ दिया है और मेरा कोई अवलम्ब नहीं है।

उसने एक दिन दीर्घ नि:श्वास लेकर कहा-’इसी स्थान में मेरा निवास होगा, यही कबर अब मेरे परायश्चित और आत्मदमन का आश्रयस्था न होगी।’

उसके पैर तो उठ न सकते थे, लेटेलेटे खिसकता हुआ वह अन्दर चला गया, सांपों को अपने पैरों से भगा दिया और निरन्तर अठारह घण्टों तक पक्की भूमि पर सिर रखे हुए औंधे मुंह पड़ा रहा। इसके पश्चात वह उस जलस्त्रोत पर गया और चिल्लू से पेट भर पानी पिया। तब उसने थोड़े छुहारे तोड़े और कई कमल की बेलें निकाकर कमल गट्टे जमा किये। यही उसका भोजन था। क्षुआ और तृषा शान्त होने पर उसे ऐसा अनुमान हुआ कि यहां वह सभी विघ्नबाधाओं से मुक्त होकर कालक्षेप कर सकता है। अतएव उसने इसे अपने जीवन का नियम बना लिया। परातःकाल से संध्या तक वह एक क्षण के लिए भी सिर ऊपर न उठाता था।

एक दिन जब वह इस भांति औंधे मुंह पड़ा हुआ था तो उसके कानों में किसी के बोलने की आवाज आयी-ष्पााणाचित्रों को देख, तुझे ज्ञान पराप्त होगा।

यह सुनते ही उसने सिर उठाया और तहखाने की दीवारों पर दृष्टिपात किया तो उसे चारों ओर सामाजिक दृश्य अंकित दिखाई दिये। जीवन की साधारण घटनाएं जीतीजागती मूर्तियों द्वारा परकट की गयी थीं। यह बड़े पराचीन समय की चित्रकारी थी और इतनी उत्तम कि जान पड़ता मूर्तियां अब बोलना ही चाहती हैं। चित्रकार ने उनमें जान डाल दी थी। कहीं कोई नानबाई रोटियां बना रहा था और गोलों को कुप्पी की तरह फुलाकर आग फूंकता था, कोई बतखों के पर नोंच रहा था ओैर कोई पतीलियों में मांस पका रहा था। जरा और हटकर एक शिकारी कन्धों पर हिरन लिये जाता था जिसकी देह में बाण चुभे दिखाई देते थे। एक स्थान पर किसान खेती का कामकाज करते थे। कोई बोता था, कोई काटता था, कोई अनाज बखारों से भर रहा था। दूसरे स्थान पर कई स्त्रियां वीणा, बांसुरी और तम्बूरों पर नाच रही थीं। एक सुन्दर युवती सितार बजा रही थी। उसके केशों में कमल का पुष्प शोभा दे रहा था। केश बड़ी सुन्दरता से गुंथे हुए थे। उसके स्वच्छ महीन कपड़ों से उसके निर्मल अंगों की आभा झलकती थी। उसके मुख और वक्षस्थल की शोभा अद्वितीय थी। उसका मुख एक ओर को फिरा हुआ था, पर कमलनेत्र सीधे ही ताक रहे थे। सवारंग अनुपम, अद्वितीय, मुग्धकर था। पापनाशी ने उसे देखते ही आंखें नीची कर लीं और उस आवाज को उत्तर दिया-’तू मुझे इन तस्वीरों का अवलोकन करने का आदेश क्यों देता है। इसमें तेरी क्या इच्छा है ? यह सत्य है कि इन चित्रों में परतिमावादी पुरुष के सांसारिक जीवन का अंकन किया गया है जो यहां मेरे पैरों के नीचे* एक कुएं की तह में, काले पत्थर के सन्दूक में बन्द, गड़ा हुआ है। उनसे एक मरे हुए पराणी की याद आती है, और यद्यपि उनके रूप बहुत चमकीले हैं, पर यथार्थ में वह केवल छाया नहीं, छाया की छाया है, क्योंकि मानवजीवन स्वयं छायामात्र है। मृतदेह का इतना महत्व इतना गर्व !’

उस आवाज ने उत्तर दिया-’अब वह मर गया है लेकिन एक दिन जीवित था। लेकिन तू एक दिन मर जायेगा और तेरा कोई निशान न होगा। तू ऐसा मिट जायेगा मानो कभी तेरा जन्म ही नहीं हुआ था।’

उस दिन से पापनाशी का चित्त आठों पहर चंचल रहने लगा। एक पल के लिए उसे शान्ति न मिलती। उस आवाज की अविश्रान्त ध्वनि उसके कानों में आया करती। सितार बजाने वाली युवती अपनी लम्बी पलकों के नीचे सक उसकी ओर टकटकी लगाये रहती। आखिर एक दिन वह भी बोली-’पापनाशी, इधर देख ! मैं कितनी मायाविनी और रूपवती हूं ! मुझे प्यार क्यों नहीं करता ? मेरे परेमालिंगन में उस परेमदाह को शान्त कर दे जो तुझे विकल कर रहा है। मुझसे तू व्यर्थ आशंकित है। तू मुझसे बच नहीं सकता, मेरे परेमपाशों से भाग नहीं सकता ! मैं नारी सौन्दर्य हूं। हतबुद्धि ! मूर्ख ! तू मुझसे कहां भाग जाने का विचार करता है ? तुझे कहां शरण मिलेगी ? तुझे सुन्दर पुष्पों की शोभा में, खजूर के वृक्षों के फूलों में, उसकी फलों से लदी हुई डालियों में, कबूतरों के पर में, मृगाओं की छलांगों में, जलपरपातों के मधुर कलरव में, चांद की मन्द ज्योत्स्ना में, तितलियों के मनोहर रंगों में, और यदि अपनी आंखें बंद कर लेगा, तो अपने
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