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देवकी – ‘जा कर समझाओ-बुझाओ और क्या करोगे। उनसे कहो, भैया, हमारा डोंगा क्यों मझधार में डुबाए देते हो। तुम घर के लड़के हो। तुमसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहते क्या हैं।’

देवकी – ‘आखिर क्यों? कोई हरज है?’

देवकी ने इस आपत्ति का महत्व नहीं समझा। बोली – ‘यह तो कोई बात नहीं आज अगर कमलाप्रसाद मुसलमान हो जाए, तो क्या हम उसके पास आना-जाना छोड़ देंगे? हमसे जहाँ तक हो सकेगा, हम उसे समझाएँगे और उसे सुपथ पर लाने का उपाय करेंगे।’

देवकी – ‘नहीं, क्षमा कीजिए। इस जाने से न जाना ही अच्छा। मैं ही कल बुलवा लूँगी।’

देवकी – ‘प्रेमा उन लड़कियों में नहीं कि तुम उसका विवाह जिसके साथ चाहो कर दो। जरा जा कर उसकी दशा देखो तो मालूम हो। जब से यह खबर मिली है, ऐसा मालूम होता है कि देह में प्राण ही नहीं। अकेले छत पर पड़ी हुई रो रही है।’

देवकी – ‘कौन! मैं कहती हूँ कि वह इसी शोक में रो-रो कर प्राण दे देगी। तुम अभी उसे नहीं जानते।’

बदरीप्रसाद बाहर चले गए। देवकी बड़े असमंजस में पड़ गई। पति के स्वभाव से वह परिचित थी, लेकिन उन्हें इतना विचार-शून्य न समझती थी। उसे आशा थी कि अमृतराय समझाने से मान जाएँगे, लेकिन उनके पास जाए कैसे। पति से रार कैसे मोल ले।

देवकी ने कहा- ‘रोओ मत बेटी, मैं कल उन्हें बुलाऊँगी। मेरी बात वह कभी न टालेंगे।’

देवकी ने विस्मय से प्रेमा की ओर देखा, लड़की यह क्या कह रही है, यह उसकी समझ में न आया।

देवकी ने कहा – ‘और तेरा क्या हाल होगा, बेटी?’

देवकी ने आँसू भरी आँखों से कहा – ‘माँ-बाप किसके सदा बैठे रहते हैं बेटी! अपनी आँखों के सामने जो काम हो जाए, वही अच्छा! लड़की तो उनकी नहीं क्वाँरी रहने पाती, जिनके घर में भोजन का ठिकाना नहीं। भिक्षा माँग कर लोग कन्या का विवाह करते हैं। मोहल्ले में कोई लड़की अनाथ हो जाती है, तो चंदा माँग कर उसका विवाह कर दिया जाता है। मेरे यहाँ किस बात की कमी है। मैं तुम्हारे लिए कोई और वर तलाश करूँगी। यह जाने-सुने आदमी थे, इतना ही था, नहीं तो बिरादरी में एक से एक पड़े हुए हैं। मैं कल ही तुम्हारे बाबूजी को भेजती हूँ।’

प्रेमा ने जमीन की तरफ देखते हुए कहा – ‘नहीं अम्माँ जी, मेरे लिए आप कोई फिक्र न करें। मैंने क्वाँरी रहने का निश्चय कर लिया है।’

कमलाप्रसाद ने आते-ही-आते कहार से पूछा – ‘बरफ लाए?’

कमलाप्रसाद ने गरज कर कहा – ‘जोर से बोलो, बरफ लाए कि नहीं? मुँह में आवाज नहीं है?’

कहार ने देखा कि अब बिना मुँह खोले कानों के उखड़ जाने का भय है, तो धीरे से बोला – ‘नहीं, सरकार।’

कहार – ‘पैसे न थे।’

कहार – ‘हाँ हुजूर, किसी ने सुना नहीं।’

कमलाप्रसाद ने कपड़े भी नहीं उतारे। क्रोध में भरे हुए घर में आ कर माँ से पूछा – ‘क्या अम्माँ, बदलू तुमसे बर्फ के लिए पैसे लेने आया था?’

कमलाप्रसाद – ‘नहीं, उनसे तो भेंट नहीं हुई। उनकी तरफ गया तो था, लेकिन जब सुना कि वह किसी सभा में गए हैं, तो मैं सिनेमा चला गया। सभाओं का तो उन्हें रोग है और मैं उन्हें बिल्कुल फिजूल समझता हूँ। कोई फायदा नहीं। बिना व्याख्यान सुने भी आदमी जीता रह सकता है और व्याख्यान देने वालों के बगैर भी दुनिया के रसातल चले जाने की संभावना नहीं। जहाँ देखो वक्ता-ही-वक्ता नजर आते हैं, बरसाती मेढकों की तरह टर्र-टर्र किया और चलते हुए। अपना समय गँवाया और दूसरों को हैरान किया। सब-के-सब मूर्ख हैं।’

कमलाप्रसाद ने जोर से कहकहा मार कर कहा – ‘और ये सभाओंवाले क्या करेंगे। यही सब तो इन सभी को सूझती है। लाला अब किसी विधवा से शादी करेंगे। अच्छी बात है, मैं जरूर बारात में जाऊँगा, चाहे और कोई जाए या न जाए। जरा देखूँ, नए ढंग का विवाह कैसा होता है? वहाँ भी सब व्याख्यानबाजी करेंगे। इन लोगों के किए और क्या होगा। सब-के-सब मूर्ख हैं, अक्ल किसी को छू नहीं गई।’

कमलाप्रसाद- ‘इस वक्त तो बादशाह भी बुलाए तो न जाऊँ। हाँ, किसी दिन जा कर जरा कुशल-क्षेम पूछ आऊँगा। मगर है बिल्कुल सनकी। मैं तो समझता था, इसमें कुछ समझ होगी। मगर निरा पोंगा निकला। अब बताओ, बहुत पढ़ने से क्या फायदा हुआ? बहुत अच्छा हुआ कि मैंने पढ़ना छोड़-छाड़ दिया। बहुत पढ़ने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। जब आँखें कमजोर हो जाती हैं, तो बुद्धि कैसे बची रह सकती है? तो कोई विधवा भी ठीक हो गई कि नहीं? कहाँ हैं मिसराइन, कह दो अब तुम्हारी चाँदी है, कल ही संदेशा भेज दें। कोई और न जाए तो मैं जाने को तैयार हूँ। बड़ा मजा रहेगा। कहाँ हैं मिसरानी, अब उनके भाग्य चमके। रहेगी बिरादरी ही की विधवा न? कि बिरादरी की भी कैद नहीं रही?’

कमलाप्रसाद – ‘यह सभावाले जो कुछ न करें, वह थोड़ा। इन सभी को बैठे-बैठे ऐसी ही बेपर की उड़ाने की सूझती है। एक दिन पंजाब से कोई बौखल आया था, कह गया, जात-पाँत तोड़ दो, इससे देश में फूट बढ़ती है। ऐसे ही एक और जाँगलू आ कर कह गया, चमारों-पासियों को भाई समझना चाहिए। उनसे किसी तरह का परहेज न करना चाहिए। बस, सब-के-सब, बैठे-बैठे यही सोचा करते हैं कि कोई नई बात निकालनी चाहिए। बुड्ढे गांधी जी को और कुछ न सूझी तो स्वराज्य ही का डंका पीट चले। सबों ने बुद्धि बेच खाई है।’

पूर्णा को देखते ही प्रेमा दौड़ कर उसके गले से लिपट गई। पड़ोस में एक पंडित वसंत कुमार रहते थे। किसी दफ्तर में क्लर्क थे। पूर्णा उन्हीं की स्त्री थी, बहुत ही सुंदर, बहुत ही सुशील। घर में दूसरा कोई न था। जब दस बजे पंडित जी दफ्तर चले जाते, तो यहीं चली आती और दोनों सहेलियाँ शाम तक बैठी हँसती-बोलती रहतीं। प्रेमा को इतना प्रेम था कि यदि किसी दिन वह किसी कारण से न आती तो स्वयं उसके घर चली जाती। आज वसंत कुमार कहीं दावत खाने गए थे। पूर्णा का जी उब उठा, यहाँ चली आई। प्रेमा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई।

प्रेमा – ‘भैया में किसी तरफ ताकने की लत नहीं है। यही तो उनमें एक गुण है। पतिदेव कहीं गए हैं क्या?’

प्रेमा – ‘सभा में नहीं गए? आज तो बड़ी भारी सभा हुई है।’

प्रेमा – ‘आज की सभा देखने लायक थी। तुम होती तो मैं भी जाती, समाज सुधार पर एक महाशय का बहुत अच्छा व्याख्यान हुआ।’

प्रेमा ने हँस कर कहा – ‘नहीं बहन, समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं और जब तक दोनों की उन्नति न होगी, जीवन सुखी न होगा। पुरुष के विद्वान होने से क्या स्त्री विदुषी हो जाएगी? पुरुष तो आखिरकार सादे ही कपड़े पहनते हैं, फिर स्त्रियाँ क्यों गहनों पर जान देती हैं? पुरूषों में तो कितने ही क्वाँरे रह जाते हैं, स्त्रियों को क्यों बिना विवाह किए जीवन व्यर्थ जान पड़ता ? बताओ? मैं तो सोचती हूँ, क्वाँरी रहने में जो सुख है, वह विवाह करने में नहीं है।’

प्रेमा ने अमृतराय की प्रतिज्ञा का हाल न कहा। वह जानती थी कि इससे पूर्णा की निगाह में उनका आदर बहुत कम जो जाएगा। बोली – ‘वह स्वयं विवाह न करेंगे।’

प्रेमा – ‘नहीं बहन, झूठ नहीं है। विवाह करने की इच्छा नहीं है। शायद कभी नहीं थी। दीदी के मर जाने के बाद, वह कुछ विरक्त-से हो गए थे। बाबूजी के बहुत घेरने पर और मुझ पर दया करके वह विवाह करने पर तैयार हुए थे, पर अब उनका विचार बदल गया है और मैं भी समझती हूँ कि जब एक आदमी स्वयं गृहस्थी के झंझट में न फँस कर कुछ सेवा करना चाहता है, तो उसके पाँव की बेड़ी न बनना चाहिए। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, पूर्णा, मुझे इसका दुःख नहीं है, उनकी देखा-देखी मैं भी कुछ कर जाऊँगी।’

प्रेमा – ‘बिना कहे भी तो आदमी अपनी इच्छा प्रकट कर सकता है ।’

प्रेमा – ‘नहीं पूर्णा, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। पत्र-वत्र न लिखना, मैं किसी के शुभ-संकल्प में विघ्न न डालूँगी। मैं यदि और कोई सहायता नहीं कर सकती, तो कम-से-कम उनके मार्ग का कंटक न बनूँगी।’

प्रेमा – ‘ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो आदमी सह न सके। वह जानते हैं कि मुझे इससे दुःख नहीं, हर्ष होगा, नहीं तो वह कभी यह इरादा न करते। मैं ऐसे सज्जन प्राणी का उत्साह बढ़ाना अपना धर्म समझती हूँ। उसे गृहस्थी में नहीं फँसाना चाहती।’

प्रेमा – ‘तो फिर उन्हें भी होगा।’

प्रेमा – ‘तो मैं भी अपना हृदय कठोर बना लूँगी।’

प्रेमा ने हारमोनियम सँभाला और पूर्णा गाने लगी।
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काशी के आर्य-मंदिर में पंडित अमरनाथ का व्याख्यान हो रहा था। श्रोता लोग मंत्रमुग्ध से बैठे सुन रहे थे। प्रोफेसर दाननाथ ने आगे खिसक कर अपने मित्र बाबू अमृतराय के कान में कहा – ‘रटी हुई स्पीच है।’ अमृतराय स्पीच सुनने में तल्लीन थे। कुछ जवाब न दिया।

अमृतराय ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। एक क्षण के बाद दाननाथ ने फिर कहा – ‘भाई, मैं तो जाता हूँ।’

दाननाथ – ‘तुम कब तक बैठे रहोगे?’

दाननाथ – ‘बस, हो निरे बुद्धू, अरे स्पीच में है क्या? रट कर सुना रहा है।’

दाननाथ – ‘अजी घंटों बोलेगा। राँड़ का चर्खा है या स्पीच है।’

दाननाथ – ‘पछताओगे। आज प्रेमा भी खेल में आएगी।’

दाननाथ – ‘मुझे क्या गरज पड़ी है जो आपकी तरफ से क्षमा माँगता फिरूँ।’

दाननाथ इतनी आसानी से छोड़ने वाले आदमी न थे। घड़ी निकाल कर देखी, पहलू बदला और अमरनाथ की ओर देखने लगे। उनका ध्यान व्याख्यान पर नहीं, पंडित जी की दाढ़ी पर था। उसके हिलने में उन्हें बड़ा आनंद आया। बोलने का मर्ज था। ऐसा मनोरंजक दृश्य देख कर वह चुप कैसे रहते? अमृतराय का हाथ दबा कर कहा – ‘आपकी दाढ़ी कितनी सफाई से हिल रही है, जी चाहता है, नोच कर रख लूँ।’

अमरनाथ जी ने कहा – ‘मैं आपके सामने व्याख्यान देने नहीं आया हूँ।’

अमरनाथ – ‘बातें बहुत हो चुकीं, अब काम करने का समय है।’

अमरनाथ – ‘आप लोगों में जिन महाशयों को पत्नी-वियोग हो चुका है, वह कृपया हाथ उठाएँ।’

अमरनाथ – ‘आप लोगों में कितने महाशय ऐसे हैं, जो वैधव्य की भँवर में पड़ी हुई अबलाओं के साथ अपने कर्तव्य का पालन करने का साहस रखते हैं। कृपया वे हाथ उठाए रहें।’

दाननाथ ने अमृतराय के कान में कहा – ‘यह तुम क्या कर रहे हो! हाथ नीचे करो।’

वक्ता ने कहा – ‘इतनी बड़ी सभा में केवल एक हाथ उठा देखता हूँ। क्या इतनी बड़ी सभा में केवल एक ही हृदय है, और सब पाषाण हैं?’

दाननाथ – ‘मुझमें नक्कू बनने का साहस नहीं है।’

सभा विसर्जित हो गई। लोग अपने-अपने घर चले। पंडित अमरनाथ भी विदा हुए। केवल एक मनुष्य अभी तक सिर झुकाए सभा-भवन में बैठा हुआ था। यह बाबू अमृतराय थे।

अमृतराय ने चौंक कर कहा – ‘हाँ-हाँ, चलो।’

दाननाथ के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। बोले – ‘आज तुम्हें यह क्या सूझी।’

दाननाथ – ‘प्रेमा सुनेगी तो क्या कहेगी?’

दाननाथ – ‘अजी जाओ भी, बातें बनाते हो। उसे तुमसे कितना प्रेम है, तुम खूब जानते हो। यद्यपि अभी विवाह नहीं हुआ, लेकिन सारा शहर जानता है कि वह तुम्हारी मँगेतर है। सोचो, उसे तुम कितनी बार प्रेम-पत्र लिख चुके हो। तीन साल से वह तुम्हारे नाम पर बैठी हुई है। भले आदमी, ऐसा रत्न तुम्हें संसार में और कहाँ मिलेगा? अगर तुमने उससे विवाह न किया तो तुम्हारा जीवन नष्ट हो जाएगा। तुम कर्तव्य के नाम पर जो चाहे करो पर उसे अपने हृदय से नहीं निकाल सकते।’

दाननाथ ने अमरनाथ का नाम आते ही नाक सिकोड़ कर कहा – ‘क्या कहना है, वाह! रट कर एक व्याख्यान दे दिया और तुम लट्टू हो गए। वह बेचारे समाज की क्या खाक व्यवस्था करेंगे? यह अच्छा सिद्धांत है कि जिसकी पहली स्त्री मर गई हो, वह विधवा से विवाह करे!’

दाननाथ – ‘बस, तुम्हारे न्याय-पथ पर चलने ही से तो सारे संसार का उद्धार हो जाएगा। तुम अकेले कुछ नहीं कर सकते। हाँ, नक्कू बन सकते हो!’

दाननाथ सरल स्वभाव के मनुष्य थे। जीवन के सरलतम मार्ग पर चलने ही में वह संतुष्ट थे। किसी सिद्धांत या आदर्श के लिए कष्ट सहना उन्होंने न सीखा था। वह एक कॉलेज में अध्यापक थे। दस बजे कॉलेज जाते। एक बजे लौट आते। बाकी सारा दिन सैर-सपाटे और हँसी-खेल में काट देते थे।

दाननाथ यह लंबा व्याख्यान सुन कर बोले – ‘तो तुमने निश्चय कर लिया?’

दाननाथ – ‘और प्रेमा?’

दाननाथ ने तिरस्कार-भाव से कहा – ‘क्या बातें करते हो। तुम समझते हो, प्रेमा कोई बाजार का सौदा है, जी चाहा लिया, जी चाहा न लिया। प्रेम एक बीज है, जो एक बार जम कर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। कभी-कभी तो जल, प्रकाश और वायु बिना ही जीवन पर्यंत जीवित रहता है। प्रेमा केवल तुम्हारी मँगेतर नहीं है, वह तुम्हारी प्रेमिका भी है। यह सूचना उसे मिलेगी तो उसका हृदय भग्न हो जाएगा। कह नहीं सकता, उसकी क्या दशा हो जाए। तुम उस पर घोर अन्याय कर रहे हो।’

बोले – ‘अगर वह उतनी ही सहृदय है, जितना मैं समझता हूँ, तो मेरी प्रतिज्ञा पर उसे दुःख न होना चाहिए। मुझे विश्वास है कि उसे सुन कर हर्ष होगा, कम-से-कम मुझे ऐसी ही आशा है।’

अमृतराय का मकान आ गया। टमटम रूक गया। अमृतराय उतर कर अपने कमरे की तरफ चले। दाननाथ जरा देर तक इंतजार में खड़े रहे कि यह मुझे बुलावें तो जाऊँ, पर जब अमृतराय ने उनकी तरफ फिर कर भी न देखा, तो उन्हें भय हुआ, मेरी बातों से कदाचित इन्हें दुःख हुआ है। कमरे के द्वार पर जा कर बोले – ‘क्यों भाई, मुझसे नाराज हो गए क्या?’

दाननाथ ने स्नेह से अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोले – ‘फिर सोच लो, ऐसा न हो पीछे पछताना पड़े।’

यह संकेत किसकी ओर था, दाननाथ से छिपा न रह सका। जब अमृतराय की पहली स्त्री जीवित थी, उसी समय दाननाथ से प्रेमा के विवाह की बातचीत हुई थी। जब प्रेमा की बहन का देहांत हो गया तो उसके पिता लाला बदरीप्रसाद ने दाननाथ की ओर से मुँह फेर लिया । दाननाथ विद्या, धन और प्रतिष्ठा किसी बात में भी अमृतराय की बराबरी न कर सकते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि प्रेमा भी अमृतराय ही की ओर झुकी हुई मालूम होती थी। दाननाथ इतने निराश हुए कि आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय कर लिया। दोनों मित्रों में किसी प्रकार का द्वेष-भाव न आया। दाननाथ यों देखने में तो नित्य प्रसन्नचित्त रहते थे, लेकिन वास्तव में वह संसार से विरक्त से हो गए थे। उनका जीवन ही आनंद-विहीन हो गया था। अमृतराय को अपने प्रिय मित्र की आंतरिक व्यथा देख-देख कर दुःख होता था। वह अपने चित्त को इस परीक्षा के लिए महीनों से तैयार कर रहे थे। किंतु प्रेमा-जैसी अनुपम सुंदरी का त्याग करना आसान न था। ऐसी दशा में अमृतराय की ये बातें सुन कर दाननाथ का हृदय आशा से पुलकित हो उठा। जिस आशा को उन्होंने हृदय को चीर कर निकाल डाला था, जिसकी इस जीवन में वह कल्पना भी न कर सकते थे, जिसकी अंतिम ज्योति बहुत दिन हुए शांत हो चुकी थी, वही आशा आज उनके मर्मस्थल को चंचल करने लगी। इसके साथ ही अमृतराय के देवोपम त्याग ने उन्हें वशीभूत कर लिया। वह गदगद कंठ से बोले – ‘क्या इसीलिए तुमने आज प्रतिज्ञा कर डाली? अगर वह मित्र तुम्हारी इस उदारता से लाभ उठाए, तो मैं कहूँगा वह मित्र नहीं, शत्रु है और यही क्या निश्चय है कि इस दशा में प्रेमा का विवाह तुम्हारे उसी मित्र से हो?’

दाननाथ ने तिरस्कार का भाव धारण करके कहा – ‘तुम उसे इतना नीच समझना चाहते हो, तो समझ लो, लेकिन मैं कहे देता हूँ कि यदि मैं उस मित्र का ठीक अनुमान कर सका हूँ, तो वह अपने बदले तुम्हें निराशा की भेंट न होने देगा।’

यह कहते हुए दाननाथ बाहर निकल आए और अमृतराय द्वार पर खड़े, उन्हें रोकने की इच्छा होने पर भी बुला न सके।
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Re: Pratigya

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होली का दिन आया। पंडित वसंत कुमार के लिए यह भंग पीने का दिन था। महीनों पहले से भंग मँगवा रखी थी। अपने मित्रों को भंग पीने का नेवता दे चुके थे। सवेरे उठते ही पहला काम जो उन्होंने किया, वह भंग धोना था।

सहसा बाबू कमलाप्रसाद आ पहुँचे। यह जमघट देख कर बोले – ‘क्या हो रहा है? भई, हमारा हिस्सा भी है न?’

कमलाप्रसाद – ‘अजी मीठी पिलाओ, नमकीन क्या? मगर यार, केसर और केवड़ा जरूर हो, किसी को भेजिए मेरे यहाँ से ले आए। किसी लौंडे को भेजिए जो मेरे घर जा कर प्रेमा से माँग लाए। कहीं धर्मपत्नी जी के पास न चला जाए, नहीं तो मुफ्त गालियाँ मिलें। त्योहार के दिन उनका मिजाज गरम हो जाया करता है। यार वसंत कुमार, धर्मपत्नियों को प्रसन्न रखने का कोई आसान नुस्खा बताओ। मैं तो तंग आ गया।’

कमलाप्रसाद – ‘तो यार, तुम बड़े भाग्यवान हो। क्या पूर्णा तुमसे कभी नहीं रूठती?’

कमलाप्रसाद – ‘कभी किसी चीज के लिए हठ नहीं करती?’

कमलाप्रसाद – ‘तो यार, तुम बड़े भाग्यवान हो। यहाँ तो उम्र कैद हो गई है। अगर घड़ी भर भी घर से बाहर रहूँ, तो जवाब-तलब होने लगे। सिनेमा रोज जाता हूँ और रोज घंटों मनावन करनी पड़ती है।’

कमलाप्रसाद – ‘वाह वाह! यह तो तुमने खूब कही। कसम अल्लाह पाक की, खूब कही। जिस कल वह बिठाए, उस कल बैठ जाऊँ? फिर झगड़ा ही न हो, क्यों? अच्छी बात है। कल दिन भर घर से निकलूँगा ही नहीं, देखूँ तब क्या कहती है। देखा, अब तक लौंडा केसर और केवड़ा ले कर नहीं लौटा। कान में भनक पड़ गई होगी, प्रेमा को मना कर दिया होगा। भाई, अब तो नहीं रहा जाता, आज जो कोई मेरे मुँह लगा तो बुरा होगा। मैं अभी जा कर सब चीजें भेज देता हूँ। मगर जब तक मैं न आऊँ, आप न बनवाइएगा। यहाँ इस फन के उस्ताद हैं। मौरूसी बात है। दादा तोले भर का नाश्ता करते हैं। उम्र में कभी एक दिन का भी नागा नहीं किया। मगर क्या मजाल कि नशा हो जाए।’

पूर्णा ने उबटन एक प्याली में उठाते हुए कहा -’ यह देखो, मैं तो पहले ही से बैठी हुई हूँ।’

पूर्णा – ‘पहले जरा यहाँ आ कर बैठ जाव, उबटन तो मल दूँ, फिर नहाने जाना।’

पूर्णा – ‘वाह, उबटन क्यों न मलवाओगे? आज की तो यह रीति है, आके बैठ जाव।’

पूर्णा ने लपक कर उनका हाथ पकड़ लिया और उबटन भरा हाथ उनकी देह में पोत दिया। तब बोली -’सीधे से कहती थी, तो नहीं मानते थे अब तो बैठोगे।’

पूर्णा – ‘अब गंगा जी कहाँ जाओगे। यहीं नहा लेना।।’

पूर्णा – ‘अच्छा, तो जल्दी लौट आना, यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत दूर तैर जाया करते हो।’

मगर वहाँ जा कर देखा तो फूल इतनी ही दूर और आगे थे। अब कुछ थकान मालूम होने लगी थी, किंतु बीच में कोई रेत ऐसा न था कि जिस पर बैठ कर दम लेते। आगे बढ़ते ही गए। कभी हाथों से जोर मारते, कभी पैरों से जोर लगाते फूलों तक पहुँचे। पर, उस वक्त तक सारे अंग शिथिल हो गए थे। यहाँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा, तो हाथ न उठ सका। आखिर उनको दाँतों में दबाया और लौटे। मगर, जब वहाँ से उन्होंने किनारे की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ, मानो एक हजार कोस की मंजिल है। शरीर बिल्कुल अशक्त हो गया था और जल-प्रवाह भी प्रतिकूल था। उनकी हिम्मत छूट गई। हाथ-पाँव ढीले पड़ गए। आस-पास कोई नाव या डोंगी न थी और न किनारे तक आवाज ही पहुँच सकती थी। समझ गए, यहीं जल-समाधि होगी। एक क्षण के लिए पूर्णा की याद आई। हाय, वह उनकी बाट देख रही होगी, उसे क्या मालूम कि वह अपनी जीवन-लीला समाप्त कर चुके। वसंत कुमार ने एक बार फिर जोर मारा, पर हाथ पाँव हिल न सके। तब उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। तट पर लोगों ने डूबते देखा। दो-चार आदमी पानी में कूदे, पर एक ही क्षण में वसंत कुमार लहरों में समा गए। केवल कमल के फूल पानी पर तैरते रह गए, मानो उस जीवन का अंत हो जाने के बाद उसकी अतृप्त लालसा अपनी रक्त-रंजित छटा दिखा रही हो।
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लाला बदरीप्रसाद की सज्जनता प्रसिद्ध थी। उनसे ठग कर तो कोई एक पैसा भी न ले सकता था, पर धर्म के विषय में वह बड़े ही उदार थे। स्वार्थियों से वह कोसों भागते थे, पर दीनों की सहायता करने में भी न चूकते थे। फिर पूर्णा तो उनकी पड़ोसिन ही नहीं, ब्राह्मणी थी। उस पर उनकी पुत्री की सहेली। उसकी सहायता वह क्यों न करते? पूर्णा के पास हल्के दामों के दो-चार गहनों के सिवा और क्या था। षोडसी के दिन उसने वे सब गहने ला कर लाला जी के सामने रख दिए, और सजल नेत्रों से बोली – ‘मैं अब इन्हें रख कर क्या करूँगी।’

बदरीप्रसाद ने करुण-कोमल स्वर में कहा – ‘मैं इन्हें ले कर क्या करूँगा, बेटी? तुम यह न समझो कि मैं धर्म या पुण्य समझ कर यह काम कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है। इन गहनों को अपने पास रखो। कौन जाने किस वक्त इनकी जरूरत पड़े। जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हें अपनी बेटी समझता रहूँगा। तुम्हें कोई तकलीफ न होगी।’

षोडसी बड़ी धूम से हुई। कई सौ ब्राह्मणों ने भोजन किया। दान-दक्षिणा में भी कोई कमी न की गई।

रात के बारह बज गए थे। लाला बदरीप्रसाद ब्राह्मणों को भोजन करा के लेटे, तो देखा – प्रेमा उनके कमरे में खड़ी है। बोले – ‘यहाँ क्यों खड़ी हो, बेटी – रात बहुत हो गई, जा कर सो रहो।’

प्रेमा – ‘आपने अभी कुछ भोजन नहीं किया है न?’

बदरीप्रसाद – ‘अब इतनी रात गए मैं भोजन न करूँगा। थक भी बहुत गया हूँ। लेटते ही लेटते सो जाऊँगा।’

यह कह कर बदरीप्रसाद चारपाई पर बैठ गए और एक क्षण के बाद बोले – ‘क्यों बेटी, पूर्णा के मैके कोई नहीं है? मैंने उससे नहीं पूछा कि शायद उसे कुछ दुःख हो।’

प्रेमा – ‘मैके में कौन है। माँ-बाप पहले ही मर चुके थे, मामा ने विवाह कर दिया। मगर जब से विवाह हुआ, कभी झाँका तक नहीं। ससुराल में भी सगा कोई नहीं है। पंडित जी के दम से नाता था।’

बदरीप्रसाद ने बिछावन की चादर बराबर करते हुए कहा – ‘मैं सोच रहा हूँ, पूर्णा को अपने ही घर में रखूँ तो क्या हरज है? अकेली औरत कैसे रहेगी।’

प्रेमा – ‘होगा तो बहुत अच्छा, पर अम्माँ जी मानें तब तो?’

बदरीप्रसाद – ‘मानेगी क्यों नहीं, पूर्णा तो इनकार न करेगी?’

प्रेमा – ‘पूछूँगी। मैं समझती हूँ उन्हें इनकार न होगा।’

बदरीप्रसाद – ‘अच्छा मान लो, वह अपने ही घर में रहे तो उसका खर्च बीस रुपए में चल जाएगा न?’

प्रेमा ने आर्द्र नेत्रों से पिता की ओर देख कर कहा – ‘बड़े मजे से। पंडित जी पचास रुपए ही तो पाते थे।’

बदरीप्रसाद ने चिंतित भाव से कहा – ‘मेरे लिए बीस, पच्चीस, साठ सब बराबर हैं, लेकिन मुझे अपनी जिंदगी ही की तो नहीं सोचनी है। अगर आज मैं न रहूँ, तो कमलाप्रसाद कौड़ी फोड़ कर न देगा, इसलिए कोई स्थायी बंदोबस्त कर जाना चाहता हूँ। अभी हाथ में रुपए नहीं हैं, नहीं तो कल ही चार हजार रुपए उनके नाम किसी अच्छे बैंक में रख देता। सूद से उसकी परवरिश होती रहती। यह शर्त कर देता कि मूल में से कुछ न दिया जाए।’

सहसा कमलाप्रसाद आँखें मलते हुए आ कर खड़े हो गए और बोले – ‘अभी आप सोए नहीं? गरमी लगती हो, तो पंखा ला कर रख दूँ। रात तो ज्यादा हो गई।’

बदरीप्रसाद – ‘नहीं गरमी नहीं है। प्रेमा से कुछ बातें करने लगा था। तुमसे भी कुछ सलाह लेना चाहता था, तो तुम आप ही आ गए। मैं यह सोच रहा हूँ कि पूर्णा यहीं आ कर रहे तो क्या हरज है?’

कमलाप्रसाद ने आँखें फाड़ कर कहा – ‘यहाँ! अम्माँ जी कभी न राजी होंगी।’

बदरीप्रसाद – ‘अम्माँ जी की बात छोड़ो, तुम्हें तो कोई आपत्ति नहीं है? मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ।’

कमलाप्रसाद ने दृढ़ता से कहा – ‘मैं तो कभी इसकी सलाह न दूँगा। दुनिया में सभी तरह के आदमी हैं, न जाने क्या समझें। दूर तक सोचिए।’

बदरीप्रसाद – ‘उसके पालन-पोषण का तो कुछ प्रबंध करना ही होगा।’

कमलाप्रसाद – ‘हम क्या कर सकते हैं?’

बदरीप्रसाद – ‘तो और कौन करेगा?’

कमलाप्रसाद – ‘शहर में हमीं तो नहीं रहते। और भी बहुत से धनी लोग हैं। अपनी हैसियत के मुताबिक हम भी कुछ सहायता कर देंगे।’

बदरीप्रसाद ने कटाक्ष-भाव से कहा – ‘तो चंदा खोल दिया जाए, क्यों? अच्छी बात है, जाओ घूम-घूम कर चंदा जमा करो।’

कमलाप्रसाद – ‘मैं क्यों चंदा जमा करने लगा।’

बदरीप्रसाद – ‘तब कौन करेगा?’

कमलाप्रसाद इसका कुछ जवाब न दे सके। कुछ देर के बाद बोले – ‘आखिर आपने क्या निश्चय किया है?’

बदरीप्रसाद – ‘मैं क्या निश्चय करूँगा? मेरे निश्चय का अब मूल्य ही क्या? निश्चय तो वही है, जो तुम करो। मेरा क्या ठिकाना? आज मैं कुछ कर जाऊँ, कल मेरी आँख बंद होते ही तुम उलट-पुलट दो, व्यर्थ में बदनामी हो।’

कमलाप्रसाद ने बहुत दुःखित हो कर कहा – ‘आप मुझे इतना नीच समझते हैं। यह मुझे न मालूम था।’

बदरीप्रसाद बेटे को बहुत प्यार करते थे, यह देख कर कि मेरी बात से उसे चोट लगी है, तुरंत बात बनाई – ‘नहीं-नहीं मैं तुम्हें नीच नहीं समझता। बहुत संभव है कि आज हम जो बात कर सकते हैं, वह कल स्थिति के बदल जाने से न कर सकें।’

कमलाप्रसाद – ‘ईश्वर न करे कि मैं वह विपत्ति झेलने के लिए बैठा रहूँ, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आप जो कुछ कर जाएँगे, उसमें कमलाप्रसाद को कभी किसी दशा में आपत्ति न होगी। आप घर के स्वामी हैं। आप ही ने यह संपत्ति बनाई है। आपको इस पर पूरा अधिकार है। निश्चय करने के पहले मैं जो चाहे कहूँ, लेकिन जब आप एक बात तय कर देंगे, तो मैं उसके विरुद्ध जीभ तक न हिलाऊँगा।’

बदरीप्रसाद – ‘तो कल पूर्णा के नाम चार हजार रुपए बैंक में जमा कर दो और यह शर्त लगा दो कि मूल में से कुछ न ले सके। उसके बाद रुपए हमारे हो जाएँगे।’

कमलाप्रसाद को मानो चोट-सी लगी। बोले – ‘खूब सोच लीजिए।’

बदरीप्रसाद ने निश्चयात्मक स्वर में कहा – ‘खूब सोच लिया है। देखना केवल यह है कि इसे स्वीकार करती है या नहीं।’

कमलाप्रसाद – ‘क्या उसके स्वीकार करने में भी कोई संदेह है?’
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बदरीप्रसाद ने तिरस्कार-भाव से कहा – ‘तुम्हारी यह बड़ी बुरी आदत है कि तुम सब को स्वार्थी समझने लगते हो। कोई भला आदमी दूसरों का एहसान सिर पर नहीं लेना चाहता। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। गए घरों की बात जाने दो, लेकिन जिसमें आत्म-सम्मान का कुछ भी अंश है, वह दूसरों की सहायता नहीं लेना चाहता। मुझे तो संदेह ही नहीं, विश्वास है कि पूर्णा कभी इस बात पर राजी न होगी। वह मेहनत-मजूरी कर सकेगी, तो करेगी, लेकिन जब तक विवश न हो जाए, हमारी सहायता कभी न स्वीकार करेगी।’

प्रेमा ने बड़ी उत्सुकता से कहा – ‘मुझे भी यह संदेह है। राजी होगी भी तो बड़ी मुश्किल से।’

बदरीप्रसाद – ‘तुम उससे इसकी चर्चा करना। कल ही।’

प्रेमा – ‘नहीं दादा, मुझसे न बनेगा। वह और मैं दोनों ही अब तक बहनों की तरह रही हैं, मुझसे इस ढंग की बात अब न करते बनेगी। मैं तो रोने लगूँगी।’

बदरीप्रसाद – ‘तो मैं ही सब ठीक कर लूँगा। हाँ, कल शाम मुझे अवकाश न मिलेगा, तब तक तुम्हारी अम्माँ जी से भी बातें होंगी। शायद वह उसके यहाँ रहने पर राजी हो जाएँ।’

कमलाप्रसाद गृह-प्रबंध में अपने को लासानी समझते थे। यों तो बुद्धि विकास में वह अपने को अफलातूं से रत्ती-भर भी कम न समझते थे। पर गृह-प्रबंध में उनकी सिद्धि सर्वमान्य थी। सिनेमा रोज देखते थे, पर क्या मजाल थी कि जेब से एक पैसा भी खर्च करें। मैनेजर से दोस्ती कर रखी थी, उल्टे उसके यहाँ कभी-कभी दावत खा आते थे। पैसे का काम धेले में निकालते थे और बड़ी सुंदरता से कभी-कभी लाला बदरीप्रसाद से इस विषय में उनकी ठन भी जाया करती थी। बूढ़े लाला जी बेटे की इस कुत्सित मनोवृत्ति पर कभी-कभी खरी-खरी कह डालते थे। कमलाप्रसाद समझ गए कि लाला जी इस वक्त कोई आपत्ति न सुनेंगे, बल्कि आपत्ति से उल्टा असर होने की संभावना थी। इसलिए उन्होंने कूटनीति से काम लेने का निश्चय किया। प्रातःकाल पूर्णा के द्वार पर जा कर आवाज दी। पूर्णा पहले तो उनसे परदा करती थी, पर अब बहुरिया बन कर बैठने से कैसे काम चल सकता था। उन्हें अंदर बुला लिया। बरामदे में चारपाई पड़ी हुई थी। कमलाप्रसाद बाबू उस पर जा बैठे। एक क्षण में पूर्णा आ कर उनके सामने खड़ी हो गई। पूर्णा का माथा घूँघट से ढका हुआ था, पर दोनों सजल आँखें कृतज्ञता और विनय से भरी हुई भूमि की ओर ताक रही थीं। कमलाप्रसाद उसे देख कर अवाक-सा रह गया। वह इस इरादे से आया था कि इसे किसी भाँति यहाँ से टाल दूँ। मैके चले जाने की प्रेरणा करूँ। उसे इसकी जरा भी चिंता न थी कि इस अबला का भविष्य क्या होगा। उसका निर्वाह कैसे होगा, उसकी रक्षा कौन करेगा, इसका उसे लेश-मात्र भी ध्यान न था। वह केवल इस समय उसे यहाँ से टाल कर अपने रुपए बचा लेना चाहता था, पर विधवा की सरल, निष्कलंक, दीन-मूर्ति देख कर उसे अपनी कुटिलता पर लज्जा आ गई। कौन प्राणी ऐसा हृदय-हीन है जो किसी कोमल पुष्प को तोड़ कर भाड़ में फेंक दे। जीवन में पहली बार उसे सौंदर्य का आकर्षण हुआ। अँधेरे घर में दीपक जल उठा। बोले – ‘तुम्हें यहाँ अब अकेले रहने में तो बड़ा कष्ट होगा। उधर प्रेमा भी अकेले घबराया करती है। उसी घर में तुम भी क्यों न चली जाओ। क्या कोई हरज है?’

पूर्णा सिर नीचा किए एक क्षण तक सोचने के बाद बोली- ‘हरज तो कुछ नहीं है, बाबूजी यहाँ भी तो आप ही लोगों के भरोसे पड़ी हूँ।’

कमलाप्रसाद – ‘तो आज चली चलो। बाबूजी की भी यही इच्छा है। मैं जा कर आदमियों को असबाब ले जाने के लिए भेज देता हूँ।’

पूर्णा – ‘नहीं बाबूजी, इतनी जल्दी न कीजिए। जरा सोच लेने दीजिए।’

कमलाप्रसाद – ‘इसमें सोचने की कौन-सी बात है। अकेले कैसे पड़ी रहोगी?’

पूर्णा – ‘अकेली तो नहीं हूँ महरी भी तो यहीं सोने को कहती है।’

कमलाप्रसाद – ‘अच्छा, वह बिल्लो। हाँ बुढ़िया है तो सीधी; लेकिन टर्री है। आखिर मेरे घर चलने में तुम्हें क्या असमंजस है?’

पूर्णा – ‘कुछ नहीं, असमंजस क्या है?’

कमलाप्रसाद – ‘तो आदमियों को जा कर भेज दूँ।’

पूर्णा – ‘भेज दीजिएगा, अभी जल्दी क्या है?’

कमलाप्रसाद – ‘तुम व्यर्थ ही इतना संकोच कर रही हो पूर्णा, क्या तुम समझती हो तुम्हारा जाना मेरे घर के प्राणियों को बुरा लगेगा?’

कमलाप्रसाद का अनुमान ठीक था। पूर्णा को वास्तव में यही आपत्ति थी, पर वह संकोच-वश इसे प्रकट न कर सकती थी। उसने समझा, बाबू जी ने मेरे मन की बात ताड़ ली। इससे वह लज्जित भी हो गई। बाबू साहब के घर वालों के विषय में ऐसी धारणा उसे न करनी चाहिए थी, पर कमलाप्रसाद ने उसके संकोच का शीघ्र ही अंत कर दिया, बोले – ‘तुम्हारा यह अनुमान बिल्कुल स्वाभाविक है, पूर्णा लेकिन सोचो, मेरे घर में ऐसा कौन-सा आदमी है जो तुम्हारा विरोध कर सके। बाबू जी की स्वयं यह इच्छा है। मुझे तुम खूब जानती हो। पं. वसंत कुमार से मेरी कितनी गहरी दोस्ती थी, यह तुमसे छिपा नहीं, प्रेमा तुम्हारी सहेली ही है, अम्माँ जी को तुमसे कितना प्रेम है, वह तुम खूब जानती ही हो, रह गई सुमित्रा, उसे जरा कुछ बुरा लगेगा। तुमसे कोई परदा नहीं, लेकिन उसकी बातों की परवाह कौन करता है? उसे खुश रखने का भी तुम्हें एक गुर बताए देता हूँ। कभी-कभी यह मंत्र फूँक दिया करना, फिर वह कभी तुम्हारी बुराई न करेगी। बस उसकी सुंदरता की तारीफ करती रहना। यह न समझना कि रंभा या उर्वशी कहने से वह समझ जाएगी कि यह मुझे बना रही है। तुम चाहे जितना बढ़ाओ, वह उसे यथार्थ ही समझेगी। इसी मंत्र से मैं उसे नचाया करता हूँ यही मंत्र तुम्हें बताए देता हूँ।’

पूर्णा को हँसी आ गई, बोली – ‘आप तो उनकी हँसी उड़ा रहे हैं भला ऐसा कौन होगा, जिसे इतनी समझ न हो।’

कमलाप्रसाद – ‘इतनी समझ को तुम साधारण बात समझ रही हो, पर यह साधारण बात नहीं। तुमको यह सुन कर आश्चर्य तो होगा, पर अपनी तारीफ सुन कर हम इतने मतवाले हो जाते हैं कि फिर हममें विवेक की शक्ति ही लुप्त हो जाती है। बड़े-से-बड़ा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुन कर फूल उठता है। हाँ, प्रशंसा करने वाले शब्दों में भक्ति का भाव रहना आवश्यक है। यदि ऐसा न होता, तो कवियों को झूठी तारीफों के पुल बाँधने के लिए हमारे राजे-महाराजे पुरस्कार क्यों देते। बताओ? राजा साहब तमंचे की आवाज सुन कर चौंक पड़ते हैं, कानों में उँगली डाल लेते हैं और घर में भागते हैं, पर दरबार का कवि उन्हें वीरता में अर्जुन और द्रोणाचार्य से दो हाथ और ऊँचा उठा देता है, तो राजा साहब की मूँछें खिल उठती हैं, उन्हें एक क्षण के लिए भी यह ख्याल नहीं आता कि यह मेरी हँसी उड़ाई जा रही है। ऐसी तारीफों में हम शब्दों को नहीं, उनके अंदर छिपे हुए भावों को ही देखते हैं। सुमित्रा रंग-रूप में अपने बराबर किसी को नहीं समझती। न जाने उसे यह खब्त कैसे हो गया। यह कहते बहुत दु:ख होता है पूर्णा, पर इस स्त्री के कारण मेरी जिंदगी खराब हो गई। मुझे मालूम ही न हुआ कि प्रेम किसे कहते हैं। मैं संसार में सबसे अभागा प्राणी हूँ और क्या कहूँ। पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। सुमित्रा से बोलने को जी नहीं चाहता, पर मुँह से कुछ नहीं कहता कि कहीं घर में कुहराम न मच जाए। लोग समझते हैं, मैं आवारा हूँ, सिनेमा और थिएटर में प्रमोद के लिए जाता हूँ, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूँ पूर्णा, मैं सिनेमा में केवल अपनी हार्दिक वेदनाओं को भुलाने के लिए जाता हूँ, अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को और कैसे शांत करूँ, दिल की आग को कैसे बुझाऊँ। कभी-कभी जी में आता है, संन्यासी हो जाऊँ और कदाचित एक दिन यही करना पड़ेगा। तुम समझती होगी, यह महाशय कहाँ का पचड़ा ले बैठे। क्षमा करना, न जाने आज क्यों तुमसे ये बातें करने लगा। आज तक मैंने इन भावों को किसी से प्रकट नहीं किया था। व्यक्ति हृदय ही से सहानुभूति की आशा होती है, बस यही समझ लो। तो मैं जा कर आदमियों को भेजे देता हूँ, तुम्हारा असबाब उठा ले जाएँगे।’

पूर्णा को अब क्या आपत्ति हो सकती थी। उसका जी अब भी इस घर को छोड़ने को न चाहता था, पर वह इस अनुरोध को टाल न सकी। उसे यह भय भी हुआ कि कहीं यह मेरे इनकार से और भी दुःखी न हो जाएँ। आश्रयविहीन अबला के लिए इस समय तिनके का सहारा ही बहुत था, तो वह नौका की कैसे अवहेलना करती, पर वह क्या जानती थी कि वह उसे उबारने वाली नौका नहीं वरन एक विचित्र जल-जंतु है, जो उसकी आत्मा को निगल जाएगा?
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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