Pratigya

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पूर्णा को अपने घर से निकलते समय बड़ा दुःख होने लगा। जीवन के तीन वर्ष इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सुख देखे, यहीं वैधव्य के दुःख भी देखे। अब उसे छोड़ते हुए हृदय फट जाता था। जिस समय चारों कहार उसका असबाब उठाने के लिए घर आए, वह सहसा रो पड़ी। उसके मन में कुछ वैसे ही भाव जाग्रत हो गए, जैसे शव को उठाते समय शोकातुर प्राणियों के मन में आ जाते हैं। यह जानते हुए भी कि लाश घर में नहीं रह सकती, जितनी जल्द उसका दाहसंस्कार क्रिया हो जाए उतना ही अच्छा है। वे एक क्षण के लिए मोह के आवेश में आ कर पाँव से चिमट जाते हैं, और शोक से विह्वल हो कर करूण स्वर में रूदन करने लगते हैं, वह आत्म-प्रवंचना, जिसमें अब तक उन्होंने अपने को डाल रखा था कि कदाचित अब भी जीवन के कुछ चिह्न प्रकट हो जाएँ, एक परदे के समान आँखों के सामने से हट जाती है और मोह का अंतिम बंधन टूट जाता है, उसी भाँति पूर्णा भी घर के एक कोने में दीवार से मुँह छिपा कर रोने लगी। अपने प्राणेश की स्मृति का यह आधार भी शोक के अपार सागर में विलीन हो रहा था। उस घर का एक-एक कोना उसके लिए मधुर-स्मृतियों से रंजित था, सौभाग्य-सूर्य के अस्त हो जाने पर भी यहाँ उसकी कुछ झलक दिखाई देती थी। सौभाग्य-संगीत का अंत हो जाने पर भी यहाँ उसकी प्रतिध्वनि आती रहती थी। घर में विचरते हुए उसे अपने सौभाग्य का विषादमय गर्व होता रहता था। आज सौभाग्य-सूर्य का वह अंतिम प्रकाश मिटा जा रहा था, सौभाग्य-संगीत की प्रतिध्वनि एक अनंत शून्य में डूबी जाती थी, वह विषादमय गर्व हृदय को चीर कर निकला जाता था।

संध्या समय वह अपनी महरी बिल्लो के साथ रोती हुई इस भाँति चली मानो कोई निर्वासित हो। पीछे फिर-फिर कर अपने प्यारे घर को देखती जाती थी, मानो उसका हृदय वहीं रह गया हो।

देवकी को सुमित्रा की कोई बात न भाती थी। उसका हँसना-बोलना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, पहनना-ओढ़ना सभी उन्हें फूहड़पन की चरम सीमा का अतिक्रमण करता हुआ जान पड़ता था, और वह नित्य उसकी प्रचंड आलोचना करती रहती थी। उसकी आलोचना में प्रेम और सद्भाव का आधिक्य था या द्वेष का, इसका निर्णय करना कठिन था। सुमित्रा तो द्वेष ही समझती थी। इसीलिए वह उन्हें और भी चिढ़ाती रहती थी – देवकी सबेरे उठने का उपदेश करती थी, सुमित्रा पहर दिन चढ़े उठती थी, देवकी घूँघट निकालने को कहती थी, सुमित्रा इसके जवाब में आधा सिर खुला रखती थी। देवकी महरियों से अलग रहने की शिक्षा देती थी, सुमित्रा महरियों से हँसी-दिल्लगी करती रहती थी। सुमित्रा को पूर्णा का यहाँ आना अच्छा नहीं लग रहा है, यह उससे छिपा न रह सका, पहले ही से उसने पति के इस प्रस्ताव पर नाक सिकोड़ी थी। पर, यह जानते हुए कि इनके मन में जो इच्छा है उसे यह पूरा ही करके छोड़ेंगे, उसने विरोध करके अपयश लेना उचित न समझा था। सुमित्रा सास के मन के भाव ताड़ रही थी। और यह भी जानती थी कि पूर्णा भी अवश्य ही ताड़ रही है। इसलिए पूर्णा के प्रति उसके मन में स्नेह और सहानुभूति उत्पन्न हो गई। अब तक देवकी पूर्णा को आदर्श गृहिणी कह कर बखान करती रहती थी। उसको दिखा कर सुमित्रा को लज्जित करना चाहती थी। इसलिए सुमित्रा पूर्णा से जलती थी। आज देवकी के मन में वह भाव न था, इसलिए सुमित्रा के मन में भी वह भाव न रहा।

ग्यारह बजे थे। पूर्णा प्रकाश में आँखें हटा कर खिड़की के बाहर अंधकार की ओर देख रही थी। उस गहरे अँधेरे में उसे कितने सुंदर दृश्य दिखाई दे रहे थे – वही अपना खपरैल का घर था, वही पुरानी खाट थी, वही छोटा-सा आँगन था, और उसके पतिदेव दफ्तर से आ कर उसकी ओर साहस मुख और सप्रेम नेत्रों से ताकते हुए जेब से कोई चीज निकाल कर उसे दिखाते और फिर छिपा लेते थे। वह बैठी पान लगा रही थी, झपट कर उठी और पति के दोनों हाथ पकड़ कर बोली – ‘दिखा दो क्या है? पति ने मुट्ठी बंद कर ली। उसकी उत्सुकता और बढ़ी उसने खूब जोर लगा कर मुट्ठी खोली, पर उसमें कुछ न था। वह केवल कौतुक था। आह! उस कौतुक, उस क्रीड़ा में उसे अपने जीवन की व्याख्या छिपी हुई मालूम हो रही थी।’

पूर्णा ने आँसू पोंछ डाले और आवाज सँभाल कर बोली – ‘यह तो तुम झूठ कहती हो बहन। यह सोचती तो तुम आती क्यों?’

पूर्णा ने कुछ आशंकित हो कर पूछा – ‘तुम अब तक कैसे जाग रही हो?’

पूर्णा – ‘तो क्यों सोती हो सारे दिन?’

सुमित्रा हँसने लगी। एक क्षण में सहसा उसका मुख गंभीर हो गया। बोली – ‘अपने माता-पिता की धन-लिप्सा का प्रायश्चित कर रही हूँ, बहन और क्या।’ यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गई।

सुमित्रा किसी अंतर्वेदना से विकल हो कर बोली – ‘तुम देख लेना बहन, एक दिन यह महल ढह जाएगा। यही अभिशाप मेरे मुँह से बार-बार निकलता है।’ पूर्णा ने विस्मित हो कर कहा – ‘ऐसा क्यों कहती हो बहन? फिर उसे एक बात याद हो गई। पूछा – ‘क्या अभी भैयाजी नहीं आए?’

पूर्णा ने एक लंबी साँस खींच कर कहा – ‘मेरे भाग्य से अपने भाग्य की तुलना न करो, बहन पराश्रय से बड़ी विपत्ति दुर्भाग्य के कोश में नहीं है।’

सुमित्रा चली गई। पूर्णा ने बत्ती बुझा दी और लेटी, पर नींद कहाँ? आज ही उसने इस घर में कदम रखा था और आज ही उसे अपनी जल्दबाजी पर खेद हो रहा था। यह निश्चय था कि वह बहुत दिन यहाँ न रह सकेगी।
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लाला बदरीप्रसाद के लिए अमृतराय से अब कोई संसर्ग रखना असंभव था, विवाह तो दूसरी बात थी। समाज में इतने घोर अनाचार का पक्ष ले कर अमृतराय ने अपने को उनकी नजरों से गिरा दिया। उनसे अब कोई संबंध करना बदरीप्रसाद के लिए कलंक की बात थी। अमृतराय के बाद दाननाथ से उत्तम वर उन्हें कोई और न दिखाई दिया। अधिक खोज-पूछ करने का अब समय भी न था। अमृतराय के इंतजार में पहले ही बहुत बिलंब हो चुका था, बिरादरी में लोग उँगलियाँ उठाने लगे थे। नए संबंध की खोज में विवाह के एक अनिश्चित समय तक टल जाने का भय था। इसलिए मन इधर-उधर न दौड़ा कर उन्होंने दाननाथ ही से बात पक्की करने का निश्चय कर लिया। देवकी ने भी कोई आपत्ति न की। प्रेमा ने इस विषय में उदासीनता प्रकट की। अब उसके लिए सभी पुरुष समान थे, वह किसी के साथ जीवन का निर्वाह कर सकती थी। उसकी चलती तो वह अविवाहिता ही रहना पसंद करती, पर जवान लड़की बैठी रहे, यह कुल के लिए घोर अपमान की बात थी। इस विषय में किसी प्रकार का दुराग्रह करके वह माता-पिता का दिल न दुखाना चाहती थी। जिस दिन अमृतराय ने वह भीषण प्रतिज्ञा की, उसी दिन प्रेमा ने समझ लिया कि अब जीवन में मेरे लिए सुख लोप हो गया, पर अविवाहिता रह कर अपनी हँसी कराने की अपेक्षा किसी की हो कर रहना कहीं सुलभ था। आज दो-तीन साल पहले दाननाथ ही से उसके विवाह की बातचीत हो रही थी, यह वह जानती ही थी बीच में परिस्थिति न बदल गई होती, तो आज वह दाननाथ के घर होती। दाननाथ को वह कई बार देख चुकी थी। वह रसिक हैं, सज्जन हैं, विद्वान हैं, यह उसे मालूम था। उनकी सच्चरित्रता पर भी किसी को संदेह न था, देखने में भी बहुत ही सजीले-गठीले आदमी थे। ब्रह्मचर्य की कांति मुख पर झलकती थी। उससे उन्हें प्रेम था, यह भी उससे छिपा न था। आँखें हृदय के भेद खोल ही देती हैं। अमृतराय ने हँसी-हँसी में प्रेमा से इसकी चर्चा भी कर दी थी। यह सब होते हुए प्रेमा को इनका जो कुछ खयाल था, वह इतना ही था कि वह अमृतराय के गहरे दोस्त हैं। उनमें बड़ी घनिष्ठता है। वह धनी नहीं थे, पर यह कोई ऐब न था, क्योंकि प्रेमा विलासिनी न थी। क्यों उसका मन अमृतराय की ओर बढ़ता था और दाननाथ की ओर से खिंचता था, इसका कोई कारण वह स्पष्ट नहीं कर सकती थी, पर इस परिस्थिति में उसके लिए और कोई उपाय नहीं था। फिर भी अब तक उसने दाननाथ को कभी इस दृष्टि से न देखा था। उसने मन में एक संकल्प कर लिया था। अब हृदय में वह स्थान खाली हो जाने के बाद दाननाथ को वहाँ प्रतिष्ठित करने में उसे क्षोभ नहीं हुआ। उसने मन को टटोल कर देखा, तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह दाननाथ से प्रेम भी कर सकती है। बदरीप्रसाद विवाह के विषय में उसकी अनुमति आवश्यक समझते थे। कितनी ही बातों में वह बहुत ही उदार थे। प्रेमा की अनुमति पाते ही उन्होंने दाननाथ के पास पैगाम भेज दिया।

अंत में बहुत सोचने-विचारने के बाद उन्होंने यही स्थिर किया कि एक बार अमृतराय को फिर टटोलना चाहिए। यदि अब भी उनका मत वह बदल सके, तो उन्हें आनंद ही होगा, इसमें कोई संदेह न था। जीवन का सुख तो अभिलाषा में है। यह अभिलाषा पूरी हुई, तो कोई दूसरी खड़ी होगी। जब एक-न-एक अभिलाषा का रहना निश्चित है, तो यही क्यों न रहे? इससे सुंदर, आनंदप्रद और कौन-सी अभिलाषा हो सकती है? इसके सिवा यह भय भी था कि कहीं जीवन का यह अभिनय वियोगांत न हो। प्रथम प्रेम कितना अमिट होता है, यह वह खूब जानते थे।

प्रकाश की एक सूक्ष्म रेखा चिक में प्रवेश करती हुई अमृतराय के मुख पर पड़ी। अमृतराय चौंक पड़े। वह मुख पीतवर्ण हो रहा था। आठ-दस दिन पहले जो कांति थी, उसका कहीं नाम तक न था। घबरा कर कहा – ‘यह तुम्हारी क्या दशा है? कहीं लू तो नहीं लग गई? कैसी तबीयत है?’

दाननाथ हँस पड़े, पर अमृतराय को हँसी नहीं आई। गंभीर स्वर में बोले – ‘सारी दुनिया के सिद्धांत चाटे बैठे हो, अभी स्वास्थ्य-रक्षा पर बोलना पड़े तो इस विषय के पंडितों को भी लज्जित कर दोगे, पर इतना नहीं हो सकता कि शाम को सैर ही कर लिया करो।’

इन उच्छृंखल शब्दों में विनोद के साथ कितनी आत्मीयता, कितना प्रगाढ़ स्नेह भरा हुआ था कि दोनों ही मित्रों की आँखें सजल हो गईं। दाननाथ तो मुस्करा पड़े, लेकिन अमृतराय का मुख गंभीर हो गया। दाननाथ तो हँसमुख थे, पर विनोद की शैली किसी मर्मांतक वेदना का पता दे रही थी।

अमृतराय ने यह प्रसंग छेड़ कर दाननाथ पर बड़ा एहसान किया, नहीं तो वह यहाँ घंटों गपशप करते रहने पर भी यह प्रश्न मुख पर न ला सकते। अब भी उनके मुख के भाव से कुछ ऐसा जान पड़ा कि यह प्रसंग व्यर्थ छेड़ा गया। बड़े संकोच के साथ बोले – ‘हाँ, संदेशा तो आया है, पर मैंने जवाब दे दिया।’

दाननाथ – ‘जो मेरे जी में आया।’

‘यही कि, मुझे स्वीकार नहीं है।’

‘नहीं, यह बात नहीं मैं खुद उसके योग्य नहीं हूँ।’

दाननाथ ने बिजली का बटन दबाते हुए कहा – ‘तुम इस काम को जितना आसान समझते हो, उतना आसान नहीं है। कम-से-कम मेरे लिए।’

दाननाथ अब भी निश्चिंत नहीं हुए थे। उनके मन में, एक नहीं सैकड़ों बाधाएँ आ रही थीं। इस भय से कि यह नई शंका सुन कर अमृतराय हँस न पड़े, वह स्वयं हँस कर बोले – ‘मुझ जैसे लफंगे को प्रेमा स्वीकार करेगी, यह भी ध्यान में आया है जनाब के?’

दाननाथ चिंता में डूब गए। यद्यपि उनकी शंकाओं का प्रतिकार हो चुका था, पर अब भी उनके मन में ऐसी अनेक बातें थीं। जिन्हें वे प्रकट न कर सकते थे। उनका रूप अलक्षित, अव्यक्त था। शंका तर्क से कट जाने पर भी निर्मूल नहीं होती। मित्र से बेवफाई का खयाल उनके दिल में कुछ इस तरह छिप कर बैठा हुआ था कि उस पर कोई वार हो ही नहीं सकता था।

दाननाथ खिड़की के सामने खड़े सिगरेट पी रहे थे। पूछा – ‘कैसा खत है?’

‘तुम मेरी गरदन पर छुरी चला रहे हो।’

‘तो गोली ही क्यों न मार दो कि हमेशा का झंझट मिट जाए।’

यह धमकी अपना काम कर गई। दाननाथ ने पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया और तब बिगड़ कर बोले – ‘देख लेना मैं आज संखिया खा लेता हूँ कि नहीं। यह पत्र रखा ही रह जाएगा। ‘सबेरे राम नाम सत्त होगी।’

तब अमृतराय ने हँस कर कहा- ‘संखिया न हो, तो मैं दे दूँगा। एक बार किसी दवा में डालने के लिए मँगवाई थी।’

अमृतराय अपनी हँसी को न रोक सके।
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लाला बदरीप्रसाद को दाननाथ का पत्र क्या मिला आघात के साथ ही अपमान भी मिला। वह अमृतराय की लिखावट पहचानते थे। उस पत्र की सारी नम्रता, विनय और प्रण, उस लिपि में लोप हो गए। मारे क्रोध के उनका मस्तिष्क खौल उठा। दाननाथ के हाथ क्या टूट गए, जो उसने अमृतराय से यह पत्र लिखाया। क्या उसके पाँव में मेंहदी लगी थी, जो यहाँ तक न आ सकता था? और यह अमृतराय भी कितना निर्लज्ज है। वह ऐसा पत्र कैसे लिख सकता है! जरा भी शर्म नहीं आई।

लाला दाननाथ जी, आपने अमृतराय से यह पत्र लिखा कर मेरा और प्रेमा का जितना आदर किया है, उसका आप अनुमान नहीं कर सकते। उचित तो यही था कि मैं उसे फाड़ कर फेंक देता और आपको कोई जवाब न देता, लेकिन…

बदरीप्रसाद ने कागज की ओर सिर झुकाए हुए कहा – ‘अमृतराय का कोई खत नहीं आया।’

बदरीप्रसाद – ‘हाँ, आदमी तो उन्हीं का था, पर खत दाननाथ का था। उसी का जवाब लिख रहा हूँ। महाशय ने अमृतराय से खत लिखाया है और नीचे अपने दस्तखत कर दिए हैं। अपने हाथ से लिखते शर्म आती थी, बेहूदा, शोहदा…’

बदरीप्रसाद- ‘यह पड़ा तो है, देख क्यों नहीं लेती?’

बदरीप्रसाद – ‘तो देखो। अभी तो शुरू किया है। ऐसी खबर लूँगा कि बच्चा सारा शोहदापन भूल जाए।’

बदरीप्रसाद ने कड़क कर पूछा – ‘फाड़ क्यों दिया। तुम कौन होती हो मेरा खत फाड़नेवाली?’

बदरीप्रसाद – ‘हाँ और क्या, लड़की तो तुम्हारी है, मेरी तो कोई होती ही नहीं।’

बदरीप्रसाद – ‘दुनिया योग्य वरों से खाली नहीं, एक-से-एक पड़े हुए हैं।’

बदरीप्रसाद – ‘उसने अपने हाथ से क्यों खत नहीं लिखा? मेरा तो यही कहना है। क्या उसे इतना भी मालूम नहीं कि इसमें मेरा कितना अनादर हुआ? सारी परीक्षाएँ तो पास किए बैठा है। डॉक्टर भी होने जा रहा है, क्या उसको इतना भी नहीं मालूम? स्पष्ट बात है दोनों मिल कर मेरा अपमान करना चाहते हैं।’

बदरीप्रसाद ने हँस कर कहा – ‘मैं तुम्हें तलाश करने गया था।’

बदरीप्रसाद ने झेंपते हुए कहा – ‘इतना तो मैं भी समझता हूँ, क्या ऐसा गँवार हूँ?’

बदरीप्रसाद – ‘मुझे अब यह अफसोस हो रहा है कि पहले दानू से क्यों न विवाह कर दिया। इतने दिनों तक व्यर्थ में अमृतराय का मुँह क्यों ताकता रहा। आखिर वही करना पड़ा।’

बदरीप्रसाद – ‘लेकिन प्रेमा उसे स्वीकार करेगी, पहले यह तो निश्चय कर लो। ऐसा न हो, मैं यहाँ हामी भर लूँ और प्रेमा इनकार कर ले। इस विषय में उसकी अनुमति ले लेनी चाहिए।’

बदरीप्रसाद – ‘अच्छा, तभी तुम बार-बार मैके जाया करती थी। अब समझा।’

बदरीप्रसाद – ‘तुमने अपनी बात कह डाली, तो मैं भी कहे डालता हूँ, मेरा भी एक मुसलमान लड़की से प्रेम हो गया था। मुसलमान होने को तैयार था। रंगरूप में अप्सरा थी, तुम उसके पैरों की धूल को भी नहीं पहुँच सकती। मुझे अब तक उसकी याद सताया करती है।’

बदरीप्रसाद – ‘जरा प्रेमा को बुला लो, पूछ लेना ही अच्छा है।’

बदरीप्रसाद – ‘रो-रो कर प्राण तो न दे देगी।’

बदरीप्रसाद – ‘अच्छा, मैं ही एक बार उससे पूछूँगा। इन पढ़ी-लिखी लड़कियों का स्वभाव कुछ और हो जाता है। अगर उनके प्रेम और कर्तव्य में विरोध हो गया, तो उनका समस्त जीवन दुःखमय हो जाता है। वे प्रेम और कर्तव्य पर उत्सर्ग करना नहीं जानती या नहीं चाहती। हाँ, प्रेम और कर्तव्य में संयोग हो जाए, तो उनका जीवन आदर्श हो जाता है। ऐसा ही स्वभाव प्रेमा का भी जान पड़ता है। मैं दानू को लिखे देता हूँ कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन प्रेमा से पूछ कर ही निश्चय कर सकूँगा।’

बदरीप्रसाद ने जरा माथा सिकोड़ कर पूछा – ‘कमाने का ढंग कैसा, मैं नहीं समझा?’

बदरीप्रसाद – ‘पचास ही हजार बनाए, तो क्या बनाए, मैं तो समझता हूँ, एक लाख से कम पर हाथ न मारेंगे।’

बदरीप्रसाद – ‘जा कर कुछ दिनों उनकी शागिर्दी करो, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।’

बदरीप्रसाद – ‘जरा भी नहीं। तुम कभी झूठ बोले ही नहीं, भला आज क्यों झूठ बोलने लगे। सत्य के अवतार तुम्हीं तो हो।’

कमलाप्रसाद – ‘अच्छा, मैं ही झूठा सही, इसमें झगड़ा काहे का, थोड़े दिनों में आपकी कलई खुल जाएगी। आप जैसे सरल जीव संसार में न होते तो ऐसे धूर्तों की थैलियाँ कौन भरता?’

कमलाप्रसाद – ‘यहाँ इन बातों से नहीं डरते। लगी-लिपटी बातें करना भाता ही नहीं। कहूँगा सत्य ही, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। वह हमारा अपमान करते हैं, तो हम उनकी पूजा न करेंगे। आखिर वह हमारे कौन होते हैं, जो हम उनकी करतूतों पर परदा डालें? मैं तो उन्हें इतना बदनाम करूँगा कि वह शहर में किसी को मुँह न दिखा सकेंगे।’

बदरीप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा – ‘दाननाथ! वह भला क्यों अमृतराय पर आक्षेप करने लगा। उससे जैसे मैत्री है, वैसी तो मैंने और कहीं देखी नहीं।’

बदरीप्रसाद – ‘कमलाप्रसाद कहते थे?’

बदरीप्रसाद – ‘कमलाप्रसाद झूठ बोल रहा है, सरासर झूठ! दानू को मैं खूब जानता हूँ। उसका-सा सज्जन बहुत कम मैंने देखा है। मुझे तो विश्वास है कि आज अमृतराय के हित के लिए प्राण देने का अवसर आ जाए, तो दानू शौक से प्राण दे देगा। आदमी क्या हीरा है। मुझसे जब मिलता है, बड़ी नम्रता से चरण छू लेता है।’

बदरीप्रसाद – ‘अबकी डॉक्टर हो जाएगा।

पत्र का आशय क्या है, प्रेमा इसे तुरंत ताड़ गई। उसका हृदय जोर से धड़कने लगा। उसने काँपते हुए हाथों से पत्र ले लिया पर कैसा रहस्य! लिखावट तो साफ अमृतराय की है। उसकी आँखें भर आईं। लिखावट पर यह लिपि देख कर एक दिन उसका हृदय कितना फूल उठता था। पर आज! वही लिपि उसकी आँखों में काँटों की भाँति चुभने लगी। एक-एक अक्षर, बिच्छू की भाँति हृदय में डंक मारने लगा। उसने पत्र निकाल कर देखा – वही लिपि थी, वही चिर-परिचित सुंदर स्पष्ट लिपि, जो मानसिक शांति की द्योतक होती है। पत्र का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके लिए पहले ही से तैयार थी। उसको निश्चय था कि दाननाथ इस अवसर पर न चूकेंगे। उसने इस पत्र का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ इनकार। पर यह पत्र अमृतराय की कलम से निकलेगा, इसकी संभावना ही उसकी कल्पना से बाहर थी। अमृतराय इतने हृदय-शून्य हैं, इसका उसे गुमान भी न हो सकता था। वही हृदय जो अमृतराय के साथ विपत्ति के कठोरतम आघात और बाधाओं की दुस्सह यातनाएँ सहन करने को तैयार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अतुल प्रेम, वह असीम भक्ति जो प्रेमा ने उसमें बरसों से संचित कर रखी थी, एक दीर्घ शीतल विश्वास के रूप में निकल गई। उसे ऐसा जान पड़ा मानो उसके संपूर्ण अंग शिथिल हो गए हैं, मानो हृदय भी निस्पंद हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमात्र भी अधिकार नहीं है। उसके मुख, से ये शब्द निकल पड़े – ‘आपकी जो इच्छा हो वह कीजिए, मुझे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी – जब कुएँ में गिरना है, तो जैसे पक्का वैसे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे किसी ने उसे सचेत कर दिया। वह तुरंत पत्र को वहीं फेंक कर अपने कमरे में लौट आई और खिड़की के सामने खड़ी हो कर फूट-फूट कर रोने लगी।’

संध्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके तारे निकलते आते थे। प्रेमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मृतियाँ जागृत होने लगीं। देखते-देखते सारा गगन-मंडल तारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मृतियों से आच्छन्न हो गया, पर इन असंख्य तारों से आकाश का अंधकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?
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वैशाख में प्रेमा का विवाह दाननाथ के साथ हो गया। शादी बड़ी धूम-धाम से हुई। सारे शहर के रईसों को निमंत्रित किया। लाला बदरीप्रसाद ने दोनों हाथों से रुपए लुटाए। मगर दाननाथ की ओर से कोई तैयारी न थी। अमृतराय चंदा करने के लिए बिहार की ओर चले थे और ताकीद कर गए थे कि धूम-धाम मत करना। दाननाथ उनकी इच्छा की अवहेलना कैसे करते।

पूर्णा के आने से कमलाप्रसाद और सुमित्रा एक-दूसरे से और पृथक हो गए। सुमित्रा के हृदय पर लदा हुआ बोझा उठ-सा गया। कहाँ तो वह दिन-ब-दिन विरक्तावस्था में खाट पर पड़ी रहती थी, कहाँ अब वह हरदम हँसती-बोलती रहती थी, कमलाप्रसाद की उसने परवाह ही करना छोड़ दी। वह कब घर में आता है, कब जाता है, कब खाता है, कब सोता है, उसकी उसे जरा भी फिक्र न रही। कमलाप्रसाद लंपट न था। सबकी यही धारणा थी कि उसमें चाहे और कितने ही दुर्गुण हों, पर यह ऐब न था। किसी स्त्री पर ताक-झाँक करते उसे किसी ने न देखा था। फिर पूर्णा के रूप ने उसे कैसे मोहित कर लिया, यह रहस्य कौन समझ सकता है। कदाचित पूर्णा की सरलता, दीनता और आश्रय-हीनता ने उसकी कुप्रवृत्ति को जगा दिया। उसकी कृपणता और कायरता ही उसके सदाचार का आधार थी। विलासिता महँगी वस्तु है। जेब के रुपए खर्च करके भी किसी आफत में फँस जाने की जहाँ प्रतिक्षण संभावना हो, ऐसे काम में कमलाप्रसाद जैसा चतुर आदमी न पड़ सकता था। पूर्णा के विषय में कोई भय न था। वह इतनी सरल थी कि उसे काबू में लाने के लिए किसी बड़ी साधना की जरूरत न थी और फिर यहाँ तो किसी का भय नहीं, न फँसने का भय, न पिट जाने की शंका। अपने घर ला कर उसने शंकाओं को निरस्त कर दिया था। उसने समझा था, अब मार्ग में कोई बाधा नहीं रही। केवल घरवालों की आँख बचा लेना काफी था और यह कुछ कठिन न था, किंतु यहाँ भी एक बाधा खड़ी हो गई और वह सुमित्रा थी।

सुमित्रा ने कहा – ‘अकेली पड़ी-पड़ी क्या करूँ? फिर यह भी तो अच्छा नहीं लगता कि मैं आराम से सोऊँ और वह अकेली रोया करे। उठना भी चाहती हूँ, तो चिमट जाती है, छोड़ती ही नहीं। मन में मेरी बेवकूफी पर हँसती है या नहीं यह कौन जाने; मेरा साथ उसे अच्छा न लगता हो, यह बात नहीं।’

‘मैं ऐसा नहीं समझती।’

‘ऐसी समझ का न होना ही अच्छा है।’

कमलाप्रसाद के चरित्र में अब एक विचित्र परिवर्तन होता जाता था। नौकरों पर डाँट-फटकार भी कम हो गई। कुछ उदार भी हो गया। एक दिन बाजार से बंगाली मिठाई लाए और सुमित्रा को देते हुए कहा – ‘जरा अपनी सखी को भी चखाना। सुमित्रा ने मिठाई ले ली; पर पूर्णा से उसकी चर्चा तक न की।’ दूसरे दिन कमलाप्रसाद ने पूछा – ‘पूर्णा ने मिठाई पसंद की होगी?’ सुमित्रा ने कहा – ‘बिल्कुल नहीं, वह तो कहती थी, मुझे मिठाई से कभी प्रेम न रहा।’

कमलाप्रसाद ने कहा – ‘अरे! पूर्णा भी यहीं है। क्षमा करना पूर्णा, मुझे मालूम न था। यह देखो सुमित्रा दो साड़ियाँ लाया हूँ। सस्ते दामों में मिल गईं। एक तुम ले लो, एक पूर्णा को दे दो।’

पूर्णा ने सिर हिला कर कहा – ‘नहीं, मैं रेशमी साड़ी ले कर क्या करूँगी।’

सुमित्रा – ‘छूत की चीज नहीं; पर शौक की चीज तो है। सबसे पहले तो तुम्हारी पूज्य माताजी ही छाती पीटने लगेंगी।’

सुमित्रा – ‘बहुत अच्छी हैं, तो प्रेमा के पास भेज दूँ। तुम्हारी बेसाही हुई साड़ी पा कर अपना भाग्य सराहेगी। मालूम होता है, आजकल कहीं कोई रकम मुफ्त हाथ आ गई है। सच कहना, किसकी गर्दन रेती है। गाँठ के रूपए खर्च करके तुम ऐसी फिजूल की चीजें कभी न लाए होगे।’

सुमित्रा – ‘माँगते तो वह यों ही दे देते, तिजोरी तोड़ने की नौबत न आती। मगर स्वभाव को क्या करो।’

पूर्णा को सुमित्रा की कठोरता बुरी मालूम हो रही थी। एकांत में कमलाप्रसाद सुमित्रा को जलाते हों, पर इस समय तो सुमित्रा ही उन्हें जला रही थी। उसे भय हुआ कि कहीं कमलाप्रसाद मुझसे नाराज हो गए, तो मुझे इस घर से निकलना पड़ेगा। कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके यहाँ एक दिन भी निबाह नहीं हो सकता, यह वह जानती थी। इसलिए वह सुमित्रा को समझाती रहती थी। बोली – ‘मैं तो बराबर समझाया करती हूँ, बाबूजी पूछ लीजिए झूठ कहती हूँ?’

कमलाप्रसाद – ‘तुम व्यर्थ बात बढ़ाती हो, सुमित्रा! मैं यह कब कहता हूँ कि तुम इनके साथ उठना-बैठना छोड़ दो, मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही।’

कमलाप्रसाद – ‘कुछ झूठ कह रहा हूँ? पूर्णा खुद देख रही हैं। तुम्हें उनके सत्संग से कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए थी। इन्हें यहाँ लाने का मेरा एक उद्येश्य यह भी था। मगर तुम्हारे ऊपर इनकी सोहब्बत का उल्टा ही असर हुआ। यह बेचारी समझाती होगीं, मगर तुम क्यों मानने लगीं। जब तुम मुझी को नहीं गिनतीं, तो वह बेचारी किस गिनती की हैं। भगवान सब दुःख दे, पर बुरे का संग न दे। तुम इनमें से एक साड़ी रख लो पूर्णा, दूसरी मैं प्रेमा के पास भेजे देता हूँ।’

कमलाप्रसाद – ‘इनकी करतूतें देखती जाओ! इस पर मैं ही बुरा हूँ, मुझी में जमाने-भर के दोष हैं।’

कमलाप्रसाद – ‘मैं तुम्हें तो नहीं देता।’

कमलाप्रसाद – ‘तुम उनकी ओर से बोलने वाली कौन होती हो? तुमने अपना ठीका लिया है या जमाने भर का ठीका लिया है। बोलो पूर्णा, एक रख दूँ न? यह समझ लो कि तुमने इनकार कर दिया, तो मुझे बड़ा दुःख होगा।’

यह कह कर उसने कमलाप्रसाद की ओर विवश नेत्रों से देखा। उनमें कितनी दीनता, कितनी क्षमा-प्रार्थना भरी हुई थी। मानो वे कह रही थीं – ‘लेना तो चाहती हूँ पर लूँ कैसे! इन्हें आप देख ही रहे हैं, क्या घर से निकालने की इच्छा है?’

कमलाप्रसाद ने कोई उत्तर नहीं दिया। साड़ियाँ चुपके से उठा लीं और पैर पटकते हुए बाहर चले गए।
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Jemsbond
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Re: Pratigya

Post by Jemsbond »

साड़ियाँ लौटा कर और कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके भी पूर्णा का मनोरथ पूरा न हो सका। वह उस संदेह को जरा भी न दूर कर सकी, जो सुमित्रा के हृदय पर किसी हिंसक पशु की भाँति आरूढ़ हो गया था। बेचारी दोनों तरफ से मारी गई। कमलाप्रसाद तो नाराज हो ही गया था, सुमित्रा ने भी मुँह फुला लिया। पूर्णा ने कई बार इधर-उधर की बातें करके उसका मन बहलाने की चेष्टा की; पर जब सुमित्रा की त्योरियाँ बदल गईं; और उसने झिड़क कर कह दिया – इस वक्त मुझसे कुछ न कहो पूर्णा, मुझे कोई बात नहीं सुहाती। मैं जन्म से ही अभागिनी हूँ, नहीं तो इस घर में आती ही क्यों? तुम आती ही क्यों! तुम आईं, तो समझी थी और कुछ न होगा, तो रोना ही सुना दूँगी, पर बात कुछ और ही हो गई। तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह तो सब मेरे भाग्य का दोष है। इस वक्त जाओ, मुझे जरा एकांत में रो लेने दो – तब पूर्णा को वहाँ से उठ जाने के सिवा और कुछ सूझ न पड़ा। वह धीरे से उठ कर दबे पाँव अपने कमरे में चली गई। सुमित्रा एकांत में रोई हो, या न रोई हो; पर पूर्णा अपने दुर्भाग्य पर घंटों रोती रही। अभी तक सुमित्रा को प्रसन्न करने की चेष्टा में वह इस दुर्घटना की कुछ विवेचना कर न सकी थी। अब आँखों में आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती हुई वह इन सारी बातों की मन-ही-मन आलोचना करने लगी। कमलाप्रसाद क्या वास्तव में एक साड़ी उसके लिए लाए थे? क्यों लाए थे? एक दिन को छोड़ कर तो वह फिर कभी कमलाप्रसाद से बोली तक नहीं थी। उस दिन भी वह स्वयं कुछ न बोली थी। कमलाप्रसाद की ही बातें सुन रही थी। हाँ, उससे अगर भूल हुई, तो यही कि वह वहाँ आने पर राजी हो गई; लेकिन करती क्या; और अवलंब ही क्या था? कोई आगे-पीछे नजर भी तो नहीं आता था! आखिर जब इन्हीं लोगों का दिया खाती थी,तो यहाँ आने में कौन-सी बाधा थी? जब से वह यहाँ आई, उसने कभी कमलाप्रसाद से बातचीत नहीं की। फिर कमलाप्रसाद ने उसके लिए रेशमी साड़ी क्यों ली? वह तो एक ही कृपण हैं, उदारता उनमें कहाँ से आ गई? सुमित्रा ने भी तो साड़ियाँ न माँगी थीं। अगर उसके लिए साड़ी लानी थी, तो मेरे लिए लाने की क्या जरूरत थी? मैं उसकी ननद नहीं, देवरानी नहीं, जेठानी नहीं, केवल आसरैत हूँ।

लेकिन इस घर को त्याग देने का संकल्प करके भी पूर्णा निकल न सकी? कहाँ जाएगी? जा ही कहाँ सकती है? इतनी जल्दी चला जाना क्या इस लाँछन को और भी सुदृढ़ न कर देगा। विधवा पर दोषारोपण करना कितना आसान है। जनता को उसके विषय में नीची-से-नीची धारणा करते देर नहीं लगती, मानो कुवासना ही वैधव्य की स्वाभाविक वृत्ति है, मानो विधवा हो जाना मन की सारी दुर्वासनाओं, सारी दुर्बलताओं का उमड़ आना है। पूर्णा केवल करवट बदल कर रह गई।

बारह बजे के पहले तो कमलाप्रसाद कभी अंदर सोने न आते, लेकिन आज एक बज गया, दो बज गए, फिर भी उनकी आहट न मिली। यहाँ तक कि तीन बजे के बाद उसके कानों में द्वार बंद होने की आवाज सुनाई पड़ी। सुमित्रा ने अंदर से किवाड़ बंद कर लिए थे। कदाचित अब उसे भी आशा न रही, पर पूर्णा अभी तक प्रतीक्षा कर रही थी। यहाँ तक कि शेष रात भी इंतजार में कट गई। कमलाप्रसाद नहीं आए।

पूर्णा सारे दिन कमलाप्रसाद से दो-चार बातें करने का अवसर खोजती रही, पर वह घर में आए ही नहीं और मर्दानी बैठक में वह स्वयं संकोच-वश न जा सकी। आज इच्छा न रहते हुए भी उसे भोजन करना पड़ा। उपवास करके लोगों को मनमानी आलोचनाएँ करने का अवसर वह क्यों देती?

पूर्णा ने मुस्करा कर कहा – ‘मैं चलूँगी, यहाँ अकेली कैसे रहूँगी?’

पूर्णा ने बात बनाई – ‘बेचारे आ कर लौट गए होंगे।’

पूर्णा – ‘मना लेने में कोई बड़ी हानि तो न थी?’

पूर्णा – ‘तुम तो हँसी उड़ाती हो। पति किसी कारण रूठ जाए, तो क्या उसे मनाना स्त्री का धर्म नहीं है?’

पूर्णा – ‘तुम्हीं अपने दिल से सोचो।’

पूर्णा ने जरा भौहें चढ़ा कर कहा – ‘बहन, तुम कैसी बातें करती हो? एक तो ब्राह्मणी, दूसरे विधवा, फिर नाते से बहन, मुझे वह क्या कुदृष्टि से देखेंगे? फिर उनका कभी ऐसा स्वभाव नहीं रहा।’

पूर्णा – ‘तो आज क्यों नहीं बीमार पड़ जातीं।’

पूर्णा – ‘बड़ी निर्दयी हो बहन, आज चली जाना, तुम्हें मेरी कसम।’

दस-बारह दिन बीत गए थे। एक दिन आधी रात के बाद पूर्णा को सुमित्रा के कमरे का द्वार खुलने की आहट मिली। उसने समझा, शायद कमलाप्रसाद आए हैं। अपने द्वार पर खड़ी हो कर झाँकने लगी। सुमित्रा अपने कमरे से दबे पाँव निकल कर इधर-उधर सशंक नेत्रों से ताकती, मर्दाने कमरे की ओर चली जा रही थी। पूर्णा समझ गई, आज रमणी का मान टूट गया। बात ठीक थी। सुमित्रा ने आज पति को मना लाने का संकल्प कर लिया था। वह कमरे से निकली, आँगन को भी पार किया, दालान से भी निकल गई, पति-द्वार पर भी जा पहुँची। वहाँ वह एक क्षण तक खड़ी सोच रही थी, कैसे पुकारूँ? सहसा कमलाप्रसाद के खाँसने की आवाज सुन कर वह भागी, बेतहाशा भागी, और अपने कमरे में आ कर ही रूकी। उसका प्रेम-पीड़ित हृदय मान का खिलौना बना हुआ था। रमणी का मान अजेय है, अमर है, अनंत है।

किंतु पूर्णा अभी तक द्वार पर खड़ी थी। सुमित्रा की वियोग-व्यथा कितनी दुःसह हो रही थी, यह सोच कर उसका कोमल हृदय द्रवित हो गया। क्या इस अवसर पर उसका कुछ भी उत्तरदायित्व न था? क्या इस भाँति तटस्थ रह कर तमाशा देखना ही उसका कर्तव्य था? इस सारी मानलीला का मूल कारण तो यही था, तब वह क्या शांतचित्त से दो प्रेमियों को वियोगाग्नि में जलते देख सकती थी? कदापि नहीं। इसके पहले भी कई बार उसके जी में आया था कि कमलाप्रसाद को समझा-बुझा कर शांत कर दे, लेकिन कितनी ही शंकाएँ उसका रास्ता रोक कर खड़ी हो गई थी। आज करूणा ने उन शंकाओं का शमन कर दिया। वह कमलाप्रसाद को मनाने चली। उसके मन में किसी प्रकार का संदेह न था। कमलाप्रसाद को वह शुरू से ही अपना बड़ा भाई समझती आ रही थी, भैया कह कर पुकारती भी थी। फिर उसे उनके कमरे में जाने की जरूरत ही क्या थी? वह कमरे के द्वार पर खड़ी हो कर उन्हें पुकारेगी, और कहेगी – भाभी को ज्वर हो आया है, आप जरा अंदर चले आइए। बस, यह खबर पाते ही कमलाप्रसाद दौड़े अंदर चले जाएँगे, इसमें उसे लेशमात्र भी संदेह नहीं था। तीन साल के वैवाहिक जीवन का अनुभव होने पर भी पुरुष-संसार से अनभिज्ञ थी। अपने मामा के छोटे-से गाँव में उसका बाल-जीवन बीता था। वहाँ सारा गाँव उसे बहन या बेटी कहता था। उस कुत्सित वासनाओं से रहित संसार में वह स्वछंद रूप से खेत, खलिहान में विचरा करती थी। विवाह भी ऐसे पुरुष से हुआ, जो जवान हो कर भी बालक था, जो इतना लज्जाशील था कि यदि मुहल्ले की कोई स्त्री घर आ जाती, तो अंदर कदम न रखता। वह अपने कमरे से निकली और मर्दाने कमरे के द्वार पर जा कर धीरे से किवाड़ पर थपकी दी। भय तो उसे यह था कि कमलाप्रसाद की नींद मुश्किल से टूटेगी, लेकिन वहाँ नींद कहाँ? आहट पाते ही कमलाप्रसाद ने द्वार खोल दिया और पूर्णा को देखकर कौतूहल से बोला – ‘क्या है पूर्णा, आओ बैठो।’

कमलाप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा – ‘मनाने आई थीं, सुमित्रा? झूठी बात। मुझे कोई मनाने नहीं आया था। मनाने ही क्यों लगी। जिससे प्रेम होता है, उसे मनाया जाता है। मैं तो मर भी जाऊँ, तो किसी को रंज न हो। हाँ, माँ-बाप रो लेंगे। सुमित्रा मुझे क्यों मनाने लगी। क्या तुमसे कहती थी?’

कमलाप्रसाद ने मानो यह बात नहीं सुनी। समीप आ कर बोले – ‘यहाँ कब तक खड़ी रहोगी। अंदर आओ, तुमसे कुछ कहना है।’

कमलाप्रसाद उसकी घबराहट देख कर पलंग पर जा बैठा और आश्वासन देता हुआ बोला – ‘डरो मत पूर्णा, आराम से बैठो मैं भी आदमी हूँ, कोई काटू नहीं हूँ। आखिर मुझसे क्यों इतनी भागी-भागी फिरती हो? मुझसे दो बात करना भी तुम्हें नहीं भाता। तुमने उस दिन साड़ी लौटा दी, जानती हो मुझे कितना दुःख हुआ?’

‘कमलाप्रसाद ने यह बात न सुनी। उसकी आतुर दृष्टि पूर्णा के रक्तहीन मुखमंडल पर जमी हुई थी। उसके हृदय में कामवासना की प्रचंड ज्वाला दहक उठी। उसकी सारी चेष्टा, सारी चेतनता, सारी प्रवृत्ति एक विचित्र हिंसा के भाव से आंदोलित हो उठी। हिंसक पशुओं की आँखों में शिकार करते समय जो स्फूर्ति झलक उठती है, कुछ वैसी ही स्फूर्ति कमलाप्रसाद की आँखों में झलक उठी। वह पलंग से उठा और दोनों हाथ खोले हुए पूर्णा की ओर बढ़ा। अब तक पूर्णा भय से काँप रही थी। कमलाप्रसाद को अपनी ओर आते देख कर उसने गर्दन उठा कर आग्नेय नेत्रों से उसकी ओर देखा। उसकी दृष्टि में भीषण संकट तथा भय था, मानो वह कह रही थी – खबरदार। इधर एक जौ-भर भी बढ़े, तो हम दोनों में से एक का अंत हो जाएगा। इस समय पूर्णा को अपने हृदय में एक असीम शक्ति का अनुभव हो रहा था, जो सारे संसार की सेनाओं को अपने पैरों-तले कुचल सकती थी। उसकी आँखों की वह प्रदीप्त ज्वाला, उसकी वह बँधी हुई मुट्ठियाँ और तनी हुई गर्दन देख कर कमलाप्रसाद ठिठक गया, होश आ गए, एक कदम भी आगे बढ़ने की उसे हिम्मत न पड़ी। खड़े-खड़े बोला – ‘यह रूप मत धारण करो, पूर्णा। मैं जानता हूँ कि प्रेम-जैसी वस्तु छल-बल से नहीं मिल सकती, न मैं इस इरादे से तुम्हारे निकट आ रहा था। मैं तो केवल तुम्हारी कृपा-दृष्टि का अभिलाषी हूँ। जिस दिन से तुम्हारी मधुर छवि देखी है, उसी दिन से तुम्हारी उपासना कर रहा हूँ। पाषाण प्रतिमाओं की उपासना पत्र-पुष्प से होती है, किंतु तुम्हारी उपासना मैं आँसुओं से करता हूँ। मैं झूठ नहीं कहता पूर्णा। अगर इस समय तुम्हारा संकेत पा जाऊँ, तो अपने प्राणों को भी तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर दूँ। यही मेरी परम अभिलाषा है। मैं बहुत चाहता हूँ कि तुम्हें भूल जाऊँ, लेकिन मन किसी तरह नहीं मानता। अवश्य ही पूर्व जन्म में तुमसे मेरा कोई घनिष्ठ संबंध रहा होगा, कदाचित उस जन्म में भी मेरी यह लालसा अतृप्त ही रही होगी। तुम्हारे चरणों पर गिर कर एक बार रो लेने की इच्छा से ही मैं तुम्हें लाया। बस, यह समझ लो कि मेरा जीवन तुम्हारी दया पर निर्भर है। अगर तुम्हारी आँखें मेरी तरफ से यों ही फिरी रहीं, तो देख लेना, एक दिन कमलाप्रसाद की लाश या तो इसी कमरे में तपड़ती हुई पाओगी, या गंगा-तट पर, मेरा यह निश्चय है।
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