ऋचा (उपन्यास)

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Jemsbond
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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“थैंक्स, विशाल! मुझे खुशी है, तुम दूसरे पुरूषों की तरह नहीं सोचते। तुमसे बात करके मन हल्का हो गया।”

“अजी, हम चीज ही ऐसी हैं। एक बात बताऊॅं, जब साथ रहने लग जाओगी, तब तुम्हारे मन पर कोई बोझ नहीं रहने दूँगा। मुझसे शादी करोगी, ऋचा?”

विशाल का प्रश्न इतना अप्रत्याशित था कि ऋचा चैंक गई-

“क्या क्या आ ?”

“हाँ ऋचा, मुझसे शादी करोगी?”

“विशाल, तुमने यह सवाल इतना अचानक पूछा है कि मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।”

“समझने के लिए जितना चाहिए वक्त ले लो, पर जवाब ‘हाँ’ में चाहिए।” विशाल हॅंस दिया।

“वाह! यह अच्छी जबरदस्ती है। तुम्हारे घरवाले क्या तैयार होंगे?”

“यह मेरी जिम्मेवारी है। मेरी छोटी बहिन माधवी तो तुम्हारी भक्त बन बैठी है।”

“अरे वाह! कोई मेरी पूजा करे, ऐसा तो कुछ भी नहीं है।”

“तुम्हारी प्रेरणा से एयरफ़ोर्स ज्वाइन करने की जिद किए बैठी है। शायद तुम्हारा कोई लेख छपा था, बिना अपने पाँव पर खड़ी औरत का कोई वजूद नहीं, वह तो बस एक कठपुतली भर है।”

“हाँ, पर क्या यह गलत है, विशाल?”

“मैंने कब कहा कि यह गलत है। अगर मेरा सोच ऐसा ही होता तो क्या तुम जैसी जुझारू लड़की से शादी करने की हिम्मत कर पाता?” विशाल परिहास पर उतर आया।

“मुझे खुशी है, माधवी एयरफ़ोर्स ज्वाइन कर रही है। हमारी उसे बधाई जरूर देना, विशाल।”

“बधाई तो जरूर दूँगा, पर घर में उसके इस निर्णय से तूफान आ गया है। एयरफ़ोर्स में लड़की के जाने की कल्पना से ही अम्मा को लगता है, वह बमबारी करेगी।” विशाल ने हॅंस दिया।

“माधवी के इस निर्णय में तुम्हारी क्या भूमिका है, विशाल?”

“मेरी भूमिका नगण्य है, पर माधवी के मंगेतर ने सगाई तोड़ने की धमकी दे डाली है। स्कूल-कॅालेज की नौकरी तक तो बात बर्दाश्त की जा सकती है, पर एयरफ़ोर्स की नौकरी उसे सहृय नहीं है।”

“माधवी का क्या फ़ैसला है?”

“तुम्हारी तरह अपनी बात पर अटल है। रोहित अगर सगाई भी तोड़ दे तो उसे फर्क नहीं पड़नेवाला। यूनीवर्सिटी में एन.सी.सी. की बेस्ट कैडेट रही है माधवी।”

“मुझे बहुत खुशी है, विशाल। लड़कियाँ अब अपने पिंजरे से बाहर आ रही हैं। वक्त मिलते ही माधवी से मिलकर उसकी पीठ जरूर ठोंकूँगी।”

अखबार के दफ्तर में पता लगा, सम्पादक जी चार दिन के अवकाश पर गए हैं। सुधा और सुनीता की केस-रिपोर्ट छपने को देकर, ऋचा दूसरे कामों में व्यस्त हो गई। रिपोर्टे पढ़कर सीतेश पास आया था –

“ऋचा जी, सुधा की रिपोर्ट में क्या दोषी युवक और उसके पिता का नाम देना चाहिए? याद है, पिछली बार कामिनी के केस में कम्पनी का नाम दिया गया था, अपराधी का नाम काट दिया गया था।”

“अगर एक बार कोई ग़लती हो जाए तो क्या उसे दोबारा दोहराना समझदारी है, सीतेश? रिपोर्ट जैसी दी है, वैसी ही छपेगी।”

“एक बार फिर सोच लीजिए। ये लोग बहुत इंफ्लुएंशियल हैं। हमारा दैनिक मुश्किल में पड़ सकता है। कम-से-कम इन्क्वॅायरी कराने की बात ही छोड़ दीजिए।”

“ओह। तो तुम्हें अपनी नौकरी जाने का डर है? डरो नहीं, मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। ऐसा कुछ होने से हम हार नहीं मानेंगे, समझे।”

परेशान-सा सीतेश चला गया।

दूसरे दिन ऋचा की दी गई पूरी रिपोर्ट विस्तार में छपी थी। रिपोर्टिग में भी ऋचा के नाम का उल्लेख था। ऋचा उत्साहित हो उठी। अब होटल वालों को सुधा के साथ न्यायपूर्ण फेसला देना होगा। सुनीता का केस तो पहले से ही मजबूत है। कार्यालय जाने के पहले घबराया नीरज आ पहुँचा।

“ऋचा, यह तुमने क्या किया? सुधा का नाम अखबार में छप गया। घर-मुहल्ले में तहलका मच गया है। सुबह से पड़ोसियों ने पूछ-पूछकर परेशान कर डाला है।”

“सुधा के साथ अन्याय हुआ है, उसे चुपचाप सहना क्या ठीक बात है, नीरज?”

“बात न्याय-अन्याय की नहीं है, बात लड़की की बदनामी की है। हमारा ख़ानदान बदनाम हो जाएगा। जानती हो, सुबह-सुबह परेश के घर से फ़ोन आ गया, उन्होंने सुधा के साथ परेश की सगाई तोड़ दी है। रो-रोकर माँ का बुरा हाल है।”

“तुम्हारी माँ तो तुम्हारी शादी होने पर भी रोई थीं, सुधा के अपमान के सामने उनका रोना महत्वहीन है, नीरज।”

“नहीं, ऋचा। हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। हमें अपने घर की बहू-बेटियों का नाम अखबार में नहीं उछालना है। अच्छा हो, कल के पेपर में समाचार का खण्डन छाप दो।”

“वाह नीरज, तुम भी ऐसा ही सोचते हो? वो नीरज कहाँ गया जिसने घरवालों की चिन्ता न कर स्मिता से विवाह किया था?”

“मेरी बात और है, मैं पुरूष हूँ। पुरूष के सौ खून माफ़ किए जा सकते हैं, पर लड़की के नाम पर धब्बा लग जाए तो उसे कभी मिटाया नहीं जा सकता।”

“स्मिता क्या लड़की नहीं थी? क्या उसका सम्मान दाँव पर नहीं लगा था? अगर स्मिता ने साहस के साथ कदम उठाया तो सुधा को अन्याय के विरूद्ध कदम उठाने का हक क्यों नहीं है, नीरज?”

“स्मिता के साथ मैं था, पर सुधा का मंगेतर उसका साथ कहाँ तक दे पाएगा? तुमने हमें सचमुच मुश्किल में डाल दिया, ऋचा।”

“मुझे दुःख है, नीरज, मैंने तुम्हें समझने में भूल की। मेरा ख्याल था, सुधा के साथ हुए अन्याय में तुम उसके साथ खड़े होगे। अब मुझे ही कुछ करना होगा।”

“देखो ऋचा, जो करो, सोच-समझकर करना। हम पर और ज्यादा कीचड़ मत उछालना।”

परेशान नीरज वापस चला गया, पर ऋचा का मन खट्टा हो गया। नीरज भी अन्ततः एक सामान्य पुरूष ही निकला। स्मिता के साथ नीरज के विवाह में भी शायद स्मिता की भूमिका ही ज्यादा अहम् थी। अगर स्मिता ने नीरज के सिवा किसी और के साथ शादी न करने का अल्टीमेटम न दे दिया होता तो शायद नीरज अपनी समस्याओं के बहाने बनाकर अलग हट गया होता। स्मिता जैसी भीरू लड़की भी नीरज से ज्यादा साहसी निकली। हो सकता है, कहीं नीरज के मन में स्मिता के पिता की सम्पत्ति का भी थोड़ा-सा लोभ रहा हो। अपने सोच पर ऋचा को झुँझलाहट हो आई, बेकार मंे नीरज को दोष देना क्या ठीक है। मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की का नाम ऐसी घटनाओं में छपना, आज भी सामान्य बात नहीं मानी जाती। वैसे भी लड़़की के साथ अच्छा-बुरा कुछ भी हो, दोषी लड़की ही ठहराई जाती है। कार्यालय से जल्दी निकलकर ऋचा ने परेश से मिलने जाने की बात तय कर डाली।
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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कुर्सी पर बैठते ही फ़ोन की घण्टी बज उठी। बेमन से फोन उठा ऋचा ने जैसे ही ‘हेलो’ कहा, दूसरी ओर से धमकी भरा पुरूष-स्वर सुनाई दिया-

“अपने को बड़ी तीसमारखाँ समझती है? यह क्या उल्टा-सीधा छाप दिया है। जानती है, इसका क्या अंजाम होगा? सीधे-सीधे कल के अखबार में माफ़ी माँग ले, वरना सुधा की तरह तेरा भी इन्तज़ाम कर देंगे।”

फ़ोन काट दिया गया था। ऋचा का चेहरा तमतमा आया-‘डरपोक कहीं का, हिम्मत है तो सामने आकर बात करे!’

“किसकी बात कर रही हैं, ऋचा जी। जब से पहुँचा हूँ, कोई बार-बार आपका नाम पूछ रहा था।” सीतेश कंसर्न दिख रहा था।

“शहर में गुण्डों की तो कमी नहीं है। सोचते हैं, धमकी देकर अपने गुनाह छिपा लेंगे, लेकिन वे ऋचा को नहीं जानते।”

“आप ठीक कह रही हैं, पर कभी-कभी इन गुण्डों से पंगा लेना भारी पड़ सकता है, ऋचा जी। इसीलिए कल भी मैंने आपसे रिपोर्ट में अपराधी का नाम न देने को कहा था।”

“वाह सीतेश। पत्रकार हो, पर पत्रकारिता में लाग-लपेट कर बात कहने की सलाह देते हो। तुम्हीं सोचो, विश्वसनीयता के लिए नाम देना जरूरी है या नहीं? होटल में शराब में धुत्त युवक एक लड़की का शील-हरण करने की कोशिश करे, ऐसे लड़के का नाम छिपाना क्या ठीक है?”

“आपकी बात में सच्चाई है, पर इस घटना के साथ जिस लड़की का नाम जुड़ेगा, क्या लोग उसकी ओर उॅंगली उठाने से बाज आएँगे।”

“किसी-न-किसी को तो साहस करना ही होगा, वरना ऐसी घटनाएँ अन्तहीन कहानियाँ भर बनकर रह जाएँगी।”

“मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूँ। काश् हमारे देश की हर लड़की आप जैसी साहसी होती।” सीतेश ने पेन उठा काम शुरू कर दिया।

कार्यालय का काम जल्दी निबटा, ऋचा ने साइकिल परेश के आॅफिस की ओर मोड दी। ऋचा का परिचय पा, परेश चैंक गया।

“परेश जी, आपसे कुछ बात करनी है।”

“देखिए, अगर आप सुधा के बारे में बात करने आई हैं तो क्षमा करें। सुधा के विषय में मेरी ज्यादा जानकारी नहीं है।”

“हाँ, यह दुर्भाग्य ही है कि अरेन्ज्ड मैरिजेस में शादी के पहले लड़का या लड़की एक-दूसरे से अनजान ही होते हैं, फिर भी शादी का जुआ खेलने को तैयार हो जाते हैं।” ऋचा ने लम्बी साँस ली।

“इसके लिए तो आप सिर्फ मुझे ही दोष नहीं दे सकतीं, ऋचा जी।”

“देखिए, परेश जी। शादी के लिए आपने वर्किग-गर्ल की शर्त रखी थी, इससे उम्मीद बॅंधी थी कि आप खुले ख्यालाातों वाले इन्सान होंगे।”

“हर इन्सान अलग होता है, ऋचा जी। वैसे आप मुझसे क्या आशा रखती हैं?”

“सिर्फ इतनी कि इस मुश्किल के वक्त आप सुधा का साथ दें। अपने सम्मान की रक्षा करना क्या अपराध है? अगर वह अपनी बेइज्ज़ती चुपचाप पी जाती तो क्या वह विवाह के लिए उपयुक्त पात्री थी?”

“आपने यह कैसे समझ लिया, अब सुधा मेरे साथ विवाह के लिए उपयुक्त पात्री नहीं है?”

“क्या? आप सच कह रहे हैं?”

“आपको इस सच पर शंका क्यांे है? सुधा से मेरी सगाई हुई है और सगाई तोड़ने का मेरा कतई कोई इरादा नहीं है।”

“लेकिन आपके घर से मॅंगनी तोड़ने का फोन गया था।”

“वह मेरी माँ का ग़लत कदम था। मुझे सुधा के साहस पर गर्व है। खुशी है, मेरी होनेवाली जीवन-संगिनी इतने दृढ़ चरित्र वाली है। “

“ओह परेश जी, आपने मेरे दिल का बोझ कम कर दिया। असल में वह खबर मैंने ही प्रेस में दी थी, इसलिए अपने को अपराधी समझ रही थी।” ऋचा के चेहरे पर खुशी थी।

“आइए, इसी बात पर एक-एक ठण्डा कोक हो जाए।” परेश मुस्करा रहा था।

“नो थैंक्स! स्बसे पहले सुधा को यह खुशखबरी देनी है।”

“वह काम मैं पहले ही कर चुका हूँ। आज शाम सुधा से मिलने जा रहा हूँ। इस केस में आगे की कार्रवाई पर चर्चा करनी है। बिना इन्क्वॅायरी किसी को काम से हटा देना अन्याय है।”

“आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। अक्सर लड़कियाँ बदनामी के डर से सच छिपा जाती हैं, इसीलिए गुण्डों की हिम्मत बढ़ जाती है। मै। हर कदम पर आपके साथ हूँ।”

“थैंक्स! मुझे विश्वास है, हम दोनों मिलकर सुधा का केस जीतेंगे।” उमगी ऋचा घर पहुँची तो माँ का रूका बाँध बह चला-

“अपनी करनी का नतीजा देख लिया। तुझे अपनी चिन्ता न सही, भाई और बाप की तो सोच।”

“क्या हुआ, माँ?”

“होना क्या है, सुबह से लगातार फ़ोन पर फ़ोन आ रहे हैं। तूने किसी पर झूठा इलज़ाम लगाया है। वे लोग तेरे बाप और भाई की जान लेने की धमकी दे रहे हैं।” रोती माँ ने आँखों पर आँचल रख लिया।

“परेशान मत हो, माँ। ऐसी गीदड़ धमकियाँ देने वालों से डरना बेकार है।” माँ को तसल्ली देती ऋचा की आँखों के सामने छोटे भाई और पिता के चेहरे तैर गए। पिता हमेशा की तरह शान्त थे। हर मुश्किल में ऋचा को पिता से सहारा मिलता रहा है। पिता की कुर्सी के पास पड़े मूढ़े पर बैठ, ऋचा ने सवाल किया था –

“क्या आप भी समझते हैं, मैंने ग़लती की है, बाबू जी? क्या अन्याय के प्रतिकार में व्यक्ति की हैसियत देखी जानी चाहिए?”

“नहीं, बेटी। तू एक पत्रकार है ओर सच्चा पत्रकार चुनौती न ले तो काहे का पत्रकार। तेरा तो काम ही सच को उजागर करना है, ऋचा।”

“थैंक्यू, बाबू जी! कुछ देर के लिए तो मैं ही अपने को अपराधी मान बैठी थी। आपसे हमेशा हिम्मत मिली है, आज भी वैसा ही हुआ, पर माँ का डर भी तो अकारण नहीं है।”

“देख, ऋचा, मैंने हमेशा ऊपरवाले पर विश्वास रखा है। जीवन देने या लेनेवाला सिर्फ भगवान् है। तू परेशान मत हो।”

ऋचा का मन हल्का हो आया। सीधे-सादे पिता से ऋचा को बहुत स्नेह और साहस मिला है। कभी पिता ने अपने लिए भी ऊॅंचे सपने देखे थे, पर छोटी उम्र में ही उनके कंधों पर लम्बे-चैड़े परिवार का बोझ डाल, बाबा स्वर्ग सिधार गए। पिता के सपने बस सपने बनकर ही रह गए। तीन छोटी बहिनों के विवाह के बाद उनकी कमर झुक गई। ऋचा के अन्दर की आग को उन्होंने पहचाना था। ऋचा में उन्हें अपनी प्रतिच्छवि दिखती। माँ के विरोधों के बावजूद अपने सीमित साधनों में भी बाबू जी ने उसे उच्च शिक्षा दिलाई। बाहर आने-जाने की आज़ादी दी, वरना आज इला दीदी की तरह वह भी किसी घर के चैखट से बॅंधी जी रही होती। बिस्तर पर लेटी ऋचा को परेश और विशाल की याद हो आई। दुनिया में सभी इन्सान एक-से नहीं होते, परेश ने ठीक कहा। विशाल, परेश और नीरज कितने अलग-अलग हैं। अचानक ऋचा को याद आया, विशाल ने कल शाम पिक्चर देखने जाने का प्रोग्राम बना रखा है। अपनी व्यस्तता में भी विशाल मनोरंजन के लिए समय निकाल ही लेता है। अगर कल विशाल ने अपने सवाल का जवाब माँगा तो? ऋचा सोच में पड़ गई। विशाल उसे अच्छा लगता है, उसके साथ वह अपने को पूर्ण पाती है, शादी के लिए और क्या चाहिए। हल्की मुस्कान के साथ ऋचा ने आँखें मॅंूद लीं।

कार्यालय पहुँचते ही पता लगा, सम्पादक जी वापस आ गए हैं। ऋचा के बैठते ही उनके पास से बुलाहट आ गई।

“ऋचा, तुम बार-बार एक-सी ग़लती क्यों दोहराती हो?”

“मैं आपका मतलब नहीं समझी, सर।”
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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“होटल की जिस घटना को तुमने छपवाया है, क्या पुलिस में उसकी रिपोर्ट लिखवाई गई है? मुझे पता लगा है, सुधा की ओर से कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाई गई है। इस तरह की बेबुनियाद बातें छापने से हमारे दैनिक का रेपुटेशन खराब हो सकता है।”

“अगर यह बात सच नहीं तो सुधा को अचानक नौकरी से क्यों निकाल गया, सर?”

“टेम्परेरी नौकरी वालों को कभी भी निकाला जा सकता है, उसके लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं होती, ऋचा।”

“लेकिन सुधा के केस में वजह है, सर। मैं इस केस को यूँ ही नहीं छोड़ने वाली, पहले ही वोमेन आर्गनाइजेशन से सम्पर्क कर चुकी हूँ। उन्होंने होटल-मालिक के सामने इन्क्वॅायरी-कमेटी बैठाने की शर्त रख दी है। जब तक इन्क्वॅायरी-कमेटी की रिपोर्ट नहीं आ जाती, सुधा निलम्बित रहेगी।” कुछ गर्व से ऋचा ने जानकारी दी।

“देखो ऋचा, मेरी सलाह मानो, इस मामले को वीमेन आॅर्गनाइजेशन के लिए छोड़ दो। मैं नहीं चाहता, तुम किसी भारी मुसीबत में पड़ो।”

“इसका मतलब आप भी जानते हैं, दोषी साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि ख़तरनाक इन्सान है। आपको तो अपराधी को सज़ा दिलवाने में मदद करनी चाहिए, सर।”

“हर इन्सान की अपनी सीमा होती है, कुछ मजबूरियाँ होती हैं। मैं नहीं चाहता, आज के बाद कभी सुधा के केस से जुड़े लोगों के नाम छापे जाएँ।”

“उस स्थिति में मेरा इस्तीफ़ा स्वीकार करें, सर। मैं बन्धनों में रहकर अपना फ़र्ज पूरा नहीं कर सकती।”

“चपरासी के हाथ अपना इस्तीफ़ा भेजकर ऋचा ने ‘महिला जागरण’ के कार्यालय की ओर साइकिल मोड़ दी।”

‘महिला जागरण’ की सचिव शकुन्तला जी ने गर्मजोशी के साथ ऋचा का स्वागत किया। आगे की कार्रवाई के लिए ऋचा ने कुछ पैम्फ़्लेेट्स बनाकर बाँटने की सलाह दी। होटल के सामने धरना देने के लिए ऋचा ने अपना नाम दे दिया। अगर दो दिन के भीतर इन्क्वॅायरी-कमेटी न बैठाई गई तो ऋचा द्वारा अनशन शुरू कर दिया जाएगा। खबर सब अखबारों में दे दी गई थी।

‘महिला जागरण’ की सदस्याओं के उत्साह से ऋचा आशान्वित हो उठी। पिक्चर-हाॅल में विशाल से मिलने की बात थी। ऋचा सीधे पिक्चर-हाॅल पहुँच गई। विशाल प्रतीक्षा में खड़ा था।

ज़हे किस्मत, हमारी ऋचा जी को याद तो रहा, यहाँ हम इन्तज़ार कर रहे हैं।” नाटकीय अन्दाज में बात कह विशाल ने ऋचा को हॅंसा दिया।

“याद कैसे नहीं रहता, टिकट के पैसों के अलावा डिनर और आइसक्रीम भी तो तुम्हीं खिलाने वाले हो न, विशाल। टिकट के पैसे कैसे वेस्ट कराती।”

“चलिए हम न सही, हमारे पैसों का तो दर्द है आपको।”़

“दर्द तो बहुतों का है, विशाल। शायद इसीलिए खुद चैन से नहीं रह पाती।”

“अब क्या हुआ, ऋचा। ऐसी मायूसी वाली बातें तुम तो नहीं करती थीं।”

“हाँ, विशाल। आज दैनिक की नौकरी से इस्तीफ़ा दे आई।”

संक्षेप में ऋचा ने विशाल को पूरी बात सुना डाली। एक क्षण मौन रहने के बाद विशाल ने समझाने के अन्दाज में कहा था –

“सम्पादक ने ठीक कहा, उनकी कुछ मजबूरियाँ जरूर रही होंगी। जहाँ तक मैं जानता हैूं, सुधा के दोषी बहुत पैसे वाले लोग हैं। पैसों से कुछ भी खरीदा जा सकता है।, इन्सान का ईमान भी। शायद तुम्हारे दैनिक को चलाने के लिए उनका पैसा अहम भूमिका निभा सकता है। चलो पिक्चर शुरू होनेवाली है।”

पिक्चर मंे ऋचा का मूड उखड़ा ही रहा। विशाल का प्यार-भरा स्पर्श भी उसके मन को सहला नहीं सका। बाहर निकलकर डिनर व आइसक्रीम खाते काफी देर हो गई। घर में माँ की परेशानी का अन्दाजा ऋचा आसानी से लगा सकती थी। विशाल को साथ देख, माँ की परेशानी और ज्यादा बढ़ जाएगी। माँ को विशाल के बारे में बताने के लिए लम्बी भूमिका बाँधनी होगी। विशाल की प्यार-भरी दृष्टि से भीगी ऋचा ने साइकिल घर की ओर मोड़ दी।

कल ऋचा क्या करेगी? यही सवाल उसे परेशान कर रहा था। नए काम की तलाश में न जाने कितने दिन लग जाएँ। अगर ऋचा की सामथ्र्य होती तो वह स्वंय अपना दैनिक निकालती, पर उसे जितना मिल गया, वही क्या कम है। आज अपनी योग्यता के बल पर वह जो चाहे, कर सकती है।

अचानक ऋचा की साइकिल के पहिए में कुछ फंसता-सा लगा। जब तक वह सम्हल पाती, साइकिल समेत नीचे गिर पड़ी। अॅंधेरे से दो-तीन युवक बाहर आए और धरती पर गिरी ऋचा को बाँहों मे उठाकर भाग चले। पेड़ों के घने झुरमुट में खड़ी वैन में ऋचा को जबरन ढकेल, दाँएँ-बाँएँ बैठे दो युवको ने ऋचा को दबोच लिया। तीसरे ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। ऋचा का हाथ-पाँव मारना व्यर्थ गया। युवकों की पकड़ बेहद मजबूत थी। सूनी सड़क पर तेजी से दौड़ती गाड़ी एक विशाल ।फ़ार्म-हाउस में जा रूकी थी। ऋचा को धकियाते युवक फ़ार्म-हाउस के अन्दर ले गए।

“क्यों, हमारे खिलाफ़ धरना देगी? हमें बरबाद करेगी?” एक ने चुनौती दी।

“यही तुम्हारी मर्दानगी है? अगर सच्चे मर्द हो तो सामने आकर लड़ो। लड़कियों पर जोर-आजमाइश करना तो कायरों का काम है।”

“वाह-वाह! जयन्त, जरा बता तो दे, हम मर्द हैं या नहीं।” एक युवक ने कुटिल मुस्कान के साथ गन्दा-सा इशारा किया।

इशारा समझ ऋचा का सर्वांग काॅप उठा।

“नहीं ई ई तुम ऐसा नहीं कर सकते! मुझे जाने दो।” ऋचा बेबस चीख रही थी।

“हम क्या कर सकते हैं, अभी मालूम हो जाएगा। जयन्त, पहले तेरा नम्बर है, तेरा ही नाम तो अखबार में आया है। चाँटा भी तूने ही खाया है। तेरे बाद हम आते हैं।” युवकों ने शराब की बोतल खोल मॅंुह से लगा ली।

जयन्त को आगे बढ़ता देख, ऋचा ने पूरी शक्ति से धक्का दिया, पर जयन्त ने ऋचा की चोटी पकड़ धमकाया –

“ये तेरे अखबार का दफ्तर नहीं है, यहाँ तेरी नहीं चलेगी। इस जगह के हम मालिक हैं, यहाँ हमारी मर्जी चलती है।”

ऋचा पूरी शक्ति से संघर्ष कर रही थी, पर तीन-तीन युवकों के सामने वह कमजोर पड़ती जा रही थी। तीनों युवकों ने उसको बेबस कर दिया। ऋचा की चीखें, कराहों मे बदल चुकी थी।

न जाने कितनी देर बाद अर्द्ध चैतन्य ऋचा को झकझोर कर सुनाया गया-

“अपनी करनी का अंजाम तो तुझे भुगतना ही था। अब जा, अपने बलात्कार की कहानी अखबार में छपवा। हम भी तो देखें, कल तेरी कैसी रिपोर्ट छपती है।”
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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तीनों के सम्मिलित अट्टहास ने ऋचा को चैतन्य कर दिया। फटे कपड़ों को किसी तरह चुन्नी से ढाॅप ऋचा खुले दरवाजे से लड़खड़ाते कदमांे से बाहर चलती गई। न जाने कितनी देर में वह पुलिस. थाने पहुँच सकी थी। थाने में इन्स्पेक्टर अतुल को सम्पर्क करना चाहा तो पता लगा, दो दिन पहले उसका

ट्रान्सफ़र दूसरे शहर में कर दिया गया था। उसे तत्काल वहाँ की ड्यूटी ज्वाइन करने के आॅर्डर दिए गए थे।

ड्यूटी पर तैनात इन्स्पेक्टर ने जब अश्लील सवाल पूछने शुरू किए तो ऋचा कष्ट के बावजूद पूरी तरह जाग गई।

“इन्स्पेक्टर, मैं एक जर्नलिस्ट हूँ। इस तरह के बेहूदा सवालों से इस घटना का कोई सरोकार नहीं है। आप मेरी रिपोर्ट दर्ज कीजिए, वरना अभी हायर अथाॅरिटीज को खबर करती हूँ।”

ऋचा के तेवर से इन्स्पेक्टर का रूख बदल गया। रिपोर्ट लिखवाती ऋचा को कामिनी का केस याद हो आया। नहीं, वह कहीं कोई ग़लती नहीं छोडे़गी। अपराधियों को दण्ड दिलाकर ही रहेगी।

“इन्स्पेक्टर मेरा मेडिकल-चेकअप जरूरी है। मैं चाहती हूँ, सिस्टर मारिया को भी बुला लिया जाए। उनसे कहिए, मेरे लिए कपड़े भी लेती आएँ।”

आधे घण्टे के भीतर सिस्टर मारिया और डाॅक्टर निवेदिता पहुँच गई। सिस्टर मारिया ने ऋचा को सीने से चिपटा तसल्ली दी थी। उनके प्यार से ऋचा की आँखों में आँसू आ गए।

“नहीं, ऋचा। तूझे हिम्मत रखनी है। ये आॅसू कमज़ोरी की निशानी हैं और तू कमज़ोर लड़की नहीं है। आँसू तो अब वे कमीने बहाएँगे। वे नहीं जानते, उन्होंने किससे टक्कर ली है।”

सिस्टर मारिया की बातों ने ऋचा में नई हिम्मत भर दी। नहीं, वह नहीं रोएगी। उसने कोई ग़लती नहीं की है।

मेडिकल-रिपोर्ट द्वारा बलात्कार की पुष्टि हो गई। डाॅक्टर को ताज्जुब था, उतनी पीड़ा के साथ ऋचा ने फ़ार्म-हाउस से थाने तक की दूरी कैसे तय की? ऋचा को फौरन मेडिकल-एड की जरूरत थी। ऋचा ने युवकों के नाम और फ़ार्म-हाउस का पता बताते हुए इन्स्पेक्टर से कहा-

“अभी वे तीनों अपनी घिनौनी करतूत का जश्न मना रहे होंगे। उन्हें रंगे हाथों पकड़ना आसान है, क्योंकि उस जगह बलात्कार के कई सबूत आसानी से मिल जाएँगे।”

“नहीं, ऋचा, अक्सर पुलिसवाले सबूत जुटा पाने में कामयाब नहीं हो पाते। इन्स्पेक्टर, आपके साथ मैं चलूंगी। मेरी आँखों से बलात्कार के चिन्ह छिप सकना आसान नहीं होगा।” सिस्टर मारिया का चेहरा सख्त था।

“सिस्टर, आप पुलिसवालों के केस में दख़लअन्दाज़ी न करें तो अच्छा है। हमें अपना काम करने दीजिए।” इन्स्पेक्टर चिडचिड़ा उठा।

“घबराइए नहीं, आपके काम में बाधा नहीं बनूँगी। एक चश्मदीद गवाह के रहने से तो आपका केस म।ज़बूत ही बनेगा।”

मजबूरन सिस्टर मारिया को साथ लेकर इन्स्पेक्टर को जाना पड़ा था। अस्पताल से ऋचा ने घर फोन किया था। पिता से कहा, एक दुर्घटना में चोट लग गई है। विशाल केा ख़बर करने का बहुत जी चाहा, पर फ़ोन विशाल के पड़ोसी के घर था। उतनी रात में उसे बुलाना शायद ठीक नहीं होता। डाॅक्टर से पेन और कागज़ लेकर ऋचा ने पूरी रिपोर्ट लिखकर अखबार के कार्यालय में फ़ोन किया था। सम्पादक पूरी बात सुनते ही घबरा गए-

“मैंने तुम्हें पहले ही आगाह किया था। अब अपनी ज़िन्दगी खराब कर डाली।”

“ज़िन्दगी मेरी खराब नहीं हुई है, सर। ज़िन्दगी तो अब मैं उनकी ख़त्म करूँगी। आपसे बस इतना जानना चाहती थी कि क्या आप यह खबर अपने दैनिक में छापेंगे या नहीं?”

सम्पादक के मौन पर ऋचा कहती गई- “एक बात जान लीजिए, शहर के हर अखबार में जब यह खबर छपेगी कि आपके दैनिक में काम करने वाली लड़की के साथ ये हादसा हुआ और आपके दैनिक मे खबर नदारद होगी तो लोग क्या अनुमान लगाएँगे, आप समझ ही सकते हैं।”

“ठीक है, किसी को भेजकर रिपोर्ट कलेक्ट करा लेता हूँ। मुझे अफ़सोस है, तुम्हारे साथ ऐसा हादसा हुआ। एनी हेल्प?”

“जी नहीं, धन्यवाद।”
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Re: ऋचा (उपन्यास)

Post by Jemsbond »


फ़ोन रखकर ऋचा ने आश्वस्ति की साँस ली थी। घबराए माता-पिता के पहुँचते ही शोर-सा मच गया। माँ ने ऋचा को सीने से लिपटा आँसू बहाने शुरू कर दिए।

डाॅक्टर ने जब घटना की जानकारी दी तो माॅ-बाप पत्थर की बुत से बन गए। अन्त मंे मौन माँ ने ही तोडा-

“हाय राम, ये क्या हो गया? लड़की ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। सुन, किसी को ख़बर तो नहीं हुई है?”

“ख़बर तो मैंने ही पुलिस में दी है, माँ।”

क्या. आ . क्या, तेरा दिमाग तो ठीक है? अपनी ही बर्बादी की कहानी खुद सुना डाली? सुनते हैं जी, अब देख लो आज़ादी का नतीजा। हाय! हम तो लुट गए, बर्बाद हो गए! माँ ने पंचम सुर में रोना शुरू कर दिया।

“चुप रहो, यह अस्पताल है। यहाँ रोने से कोई फ़ायदा नहीं। ऋचा इतने बड़े हादसे को झेलकर आई है, कैसी पीली पड़ गई है।”

“अरे, अब तो पूरी ज़िन्दगी का रोना हो गया जी। थाने में रपट लिखाकर बड़ा नाम कमा आई है। इसके लच्छन तो पहले ही से ऐसे थे। हे राम, यह जनमते ही क्यों न मर गई।” माँ का सीना फटा जा रहा था।

“अब चुप भी रहो। लोग सुन रहे हैं। घर चलकर जितना जी चाहे, रो लेना।” पिता ने माँ को शान्त करने का निष्फल प्रयास किया।

डाॅक्टर ने ऋचा को एक सप्ताह बेड-रेस्ट के साथ अस्पताल से छुट्टी दी थी। घर जाती ऋचा की पीठ ठांेक डाॅक्टर निवेदिता ने ऋचा के पिता से कहा-

“आपकी बेटी बहुत बहादुर है। ऐसी बेटी पर गर्व किया जा सकता है। इस वक्त उसे आपलोगों की हमदर्दी चाहिए। उसे टूटने मत दीजिएगा।”

शहर के सभी अखबारों में ऋचा के बलात्कार की ख़बर छप गई थी। घर में तनाव का माहौल बना था। माँ ने रो-रोकर आँखें सुजा डालीं। आकाश सहमा-सहमा दूर से दीदी को असहाय आँखों से ताक रहा

था। मुहल्ले-पड़़ोस वाले ताक-झाॅक करके टोह ले रहे थे। कुछेक ने तो सीधे-सीधे अखबार का हवाला दे, अपनी राय दे डाली-

“यह सच नहीं हो सकता। अक्सर अखबार वाले छोटी-सी घटना नमक-मिर्च लगाकर छापते हैं। हमारी ऋचा बेटी वैसी लड़की नहीं है। ठीक कहा न, भाई साहब?”

शून्य में निहारते पिता हाँ-ना कुछ भी नहीं कह पाते। घर में ग़मी जैसा माहौल बन गया था। माँ की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, फिर भी ऋचा को कोसते बाज नहीं आतीं। स्वंय ऋचा का रोम-रोम जल रहा था। दुःस्वप्न की तरह सारी घटना बार-बार आॅखों के सामने नाच जाती। शारीरिक कमज़ोरी के बावजूद, वह ओठ भींचे दर्द सह रही थी, पर मानसिक छअपटाहट में उसे विशाल याद आ रहा था। विशाल का कहीं पता नहीं था, इतनी बड़ी घटना उससे अनदेखी तो नहीं रह सकती।

स्मिता आते ही ऋचा के गले में बाँहे डाल बिलख पड़ी।

“हमारी वजह से तेरे साथ यह हादसा हो गया, ऋचा। सुधा का तो रो-रोकर बुरा हाल है।”

“तू कैसे आ पाई, स्मिता? घर से इजाज़त कैसे मिल सकी?” मुश्किल से ओठ भींचे ऋचा इतना ही पूछ सकी।

“अम्मा जी ने तो सबको घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी है, ऋचा। बड़ी मुश्किल से नीरज को मना सकी। हाॅस्पिटल जाने का बहाना बनाकर तेरे पास आई हूंॅ, ऋचा।”

“तब तू फ़ौरन लौट जा। अगर सच बताकर आने की इजाज़त नहीं तो झूठ का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं है, स्मिता। सच्चाई का मैंने हमेशा साथ दिया है, झूठ से मुझे नफ़रत है। ॠचा उत्तेजित हो उठी।

“मुझे माफ़ कर दे। तू ठीक कह रही है, अब मैं नहीं डरूँगी। विशाल जी आए?”

“नहीं, शायद वह भी मुझे फ़ेस करते डर रहे हैं। अन्ततः वह भी तो पुरूष हैं।” ऋचा ने लम्बी साँस ली।

परेश को देखकर ऋचा विस्मय में पड़ गई। वह मामूली-सा दिखनेवाला इन्सान, बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले विशाल से कहीं ज्यादा मजबूत निकला।

“आपको बधाई देने आया हूँ, ऋचा जी। अपने स्वार्थ के लिए सभी जीते हैं, पर आपने सुधा की वजह से जो कुछ सहा है, उसके कारण हम दोनों आपके आजीवन ऋणी रहेंगे।”

“धन्यवाद। मैंने अपना फ़र्ज-भर निभाया है, परेश जी।”
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