ऋचा (उपन्यास)

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Jemsbond
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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“नहीं, ऋचा। हम कुछ नहीं भूले हैं, पर तेरे केस का इतना टेन्शन था कि खुशी मनाने का जी ही नहीं चाहा। अब जल्दी ही सबको घर बुलाकर दावत दूँगी।” स्मिता का चेहरा चमक रहा था।

“स्मिता के पास एक और खुशखबरी है, ऋचा।” मुस्कराते नीरज ने कहा।

“वाह! क्या बात है, स्मिता! तू तो छुपी-रूस्तम निकली। एक के बाद एक सरप्राइज दे रही है। जल्दी बता कौन-सी खुशखबरी है।”

“मम्मी-पापा ने हमे माफ़ कर दिया, ऋचा!” स्मिता का चेहरा खुशी से जगमगा रहा था।

“सच! यह तो सचमुच खुशी की बात है। लगता है, वे नाना-नानी बनने वाले हैं, यह खबर उन तक पहुँच गई। क्यों ठीक कह रही हूँ न?”

“नहीं, ऋचा! उन्हें तो यह बात बाद में पता लगी, पर उसके पहले उन्हें प्रशान्त की सच्चाई पता लग गई थी।”

“प्रशान्त की सच्चाई? क्या मतलब है, तेरा, स्मिता?” ऋचा विस्मित थी।

“हाँ, ऋचा! पपा को उनके यू.एस.ए. के मित्रों से पता लगा, प्रशान्त ने एक अमेरिकी लड़की से विवाह कर रखा था। बूढ़े माँ-बाप की सेवा के लिए उसे स्मिता जैसी एक सीधी-सादी लड़की चाहिए थी।”

“हे भगवान्! तू बाल-बाल बच गई, स्मिता! अगर मुझे वह प्रशान्त नामधारी जीव मिल जाए तो काले पानी की सज़ा दिलवा दूँ।” ऋचा का आक्रोश देख विशाल हॅंस पड़ा।

“ग़नीमत है, प्रशान्त को फाँसी पर नहीं लटकाओगी।”

“यह हॅंसने की बात नहीं हैं, विशाल! विदेश ख़ासकर अमेरिका का भूत आज की युवा पीढ़ी पर इस कदर हावी है कि आँखें बन्द कर लड़कियाँ अमेरिका में बसे लड़कों को चुन लेती हैं। बाद में भले ही आठ-आठ आँसू रोने पड़े।”

“शुक्र भगवान् का, तुम्हें किसी अमेरिका में बसे लड़के ने प्रोपोज नहीं किया। वैसे स्मिता तो सचमुच समझदार निकली, प्रशान्त के आकर्षण से बिल्कुल अछूती रही। विशाल की बात पर सब हॅंस पड़े।”

“इसके लिए तो क्रेडिट मुझे मिलना चाहिए। भई, मै हूँ ही ऐसा इन्सान जिसके आगे प्रशान्त जैसे लोग पानी भरें।” काॅलर उठा, नीरज ने गर्व से कहा।

“यह तो सच बात है। अरे, हम भारतीय युवक तो होते ही कमाल के हैं।” इस बार परेश ने अप्रत्यक्ष रूप में अपनी तारीफ़ कर डाली।

“अब असली बात तो बता, तेरे ममी-पापा ने क्या कहा, स्मिता?”

“सबकुछ बड़े नाटकीय ढंग से हुआ। दरवाजे की दस्तक पर मैंने ही दरवाजा खोला। मम्मी-पापा को देख, बिल्कुल जड़ रह गई।”

मम्मी ने बड़े प्यार से पूछा- “कैसी है, स्मिता बेटी?”

मेरे मॅंुह से कोई जवाब ही नहीं निकला। पीछे से सासू माँ के आ जाने पर बड़ी मुश्किल से कह सकी, “अम्मा जी, ये हमारे मम्मी-पापा हैं।”

सासू माँ की खुशी का ठिकाना न था। थालों में मिठाइयाँ, बड़े-बड़े कीमती उपहारों ने उनके सारे गिले-शिकवे दूर कर दिए।

“इतने दिनों बाद बेटी की सुध ली, समधिन जी। हमने तो बहू से कई बार कहा, माँ के घर हो आओ। अरे, माँ-बाप से भी भला कोई नाराज़ होता है।”

“असल में ग़लती हमारी ही थी। हमने हीरा पहचानने में देर कर दी। कोयले को हीरा समझ बैठे थे।” मम्मी की आवाज में अपराध-बोध स्पष्ट था।

“नीरज बेटा कहाँ है?” इतनी देर बाद पापा के बोल फूटे थे।

“बस आता ही होगा। बैंक में बड़ा अफ़सर है सो काम में देर हो ही जाती है।” गर्व से सासू माँ का चेहरा चमक उठा।

तभी नीरज स्कूटर से आ पहुँचे। स्मिता की जगह नीरज की माँ ने उमग कर समधी-समधिन का परिचय दे डाला।

गम्भीर नीरज ने बस अभिवादन भर किया।

“बैठो, बेटा! बड़े थके-से लग रहे हो?” स्मिता के पापा ने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा।

“जी नहीं! यह तो मेरा रोज़ का काम है। अभी फ्रेश होकर आता हूँ।”

नीरज के जाने के बाद सासू माँ भी पीछे-पीछे नाश्ते-चाय का इन्तजाम करने चली गई।

स्मिता से मम्मी ने पूछा- “खुश तो हो, बेटी?”

“हाँ, मम्मी! यहाँ हमें कोई तकलीफ़ नहीं है। सब हमें बहुत प्यार करते है।”

“हमसे ग़लती हो गई, स्मिता बेटी। हम प्रायश्चित करना चाहते हैं। मैं चाहता हूँ, तुम दोनों मेरे नए फ़ार्म-हाउस में शिफ्ट कर जाओ। वह फ़ार्म-हाउस मैंने नीरज के नाम कर दिया है।” पापा ने स्मिता से कहा।

कमरे में आते नीरज के कानों में पापा के वे शब्द पड़ गए थे। शांतिपूर्ण स्वर में कहा-

“नहीं, पापा! हमें बस आपका आशीर्वाद चाहिए। जल्दी ही मुझे घर मिलनेवाला है, आप परेशान न हों। हमे अपने इस छोटे से घर में कोई तकलीफ़ नहीं है।”

“नीरज बेटा! हमसे भूल हो गई। हमारा सबकुछ अन्ततः स्मिता का ही तो है।”

“मैंने पहले ही कह दिया था, मुझे आपके धन से कोई लेना-देना नहीं है। स्मिता से बड़ा धन और क्या होगा और वह धन मेरे पास है।”

“मैं तुम्हारे विचारों की कद्र करना हूँ, नीरज, पर माँ-बाप का भी बेटी के लिए कोई फ़र्ज होता है।”

“इस बारे में आप स्मिता से बात कर लीजिए, पापा! अगर स्मिता कुछ स्वीकार करना चाहे तो मुझे आपत्ति नहीं होगी।”

“पापा, आपने और मम्मी ने पढ़ा-लिखाकर मुझे इस योग्य बनाया है। आपके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकॅंूगी। आज हमे आशीर्वाद देकर आपने सब कुछ दे दिया। इससे अधिक हमें और कुछ नहीं चाहिए।” स्मिता का गला भर आया।

“मुझे अपनी बेटी पर गर्व है। तुमने सच्चा जीवनसाथी चुना है, स्मिता बेटी! भगवान् तुम दोनों को सदैव सुखी रखंे।”

स्मिता की माँ ने स्मिता के गले में हार पहना, हाथों में कंगन भी पहना दिए। स्मिता के विरोध पर आँसू-भरी आँखों से बोली, “इसे मेरा आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर ले, बेटी! बड़ी साध थी, तेरी शादी खूब धूमधाम से करूँगी, पर अपनी ही ग़लती से वह सुख खो दिया।”

सासू माँ अपने और सुधा-रागिनी के गहने-कपड़े पाकर फूली न समाई। उनके जाने के बाद भी उनके गुण-गान करती रहीं।

स्मिता की बातें सब मन्त्र-मुग्ध सुनते रहे। ऋचा के चेहरे पर गर्व छलक आया।
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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“तूने तो कमाल कर दिया, स्मिता! हाथ आई सुख-सम्पत्ति ठुकरा देना बिरलों को ही सम्भव होता है। तू सचमुच गर्व किए जाने योग्य है।”

“यह बात तो सच है, स्मिता ने जिस वैभव का परित्याग कर मेरे साथ कष्टों का जीवन जिया, वह साधारण लड़की को सम्भव नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, फिर पास आए सुख को ठुकराकर, स्मिता मेरी आदर की पात्री बन गई है।” स्मिता पर स्नेहभरी दृष्टि डाल, गर्वित नीरज ने कहा।

“हियर-हियर! ये हुई न बात। भई, नीरज और स्मिता की जोड़ी नम्बर वन सिद्ध हो गई।” विशाल ने ताली बजाकर घोषणा कर दी।

“विशाल भाई, देख लीजिएगा, मेरी और सुधा की जोड़ी भी कम नहीं रहेगी।” परेश ने शान से कहा।

“बाई दि वे, हमारी जोड़ी के बारे में सबकी क्या राय है?” विशाल ने हॅंसकर पूछा।

“अरे, आप दोनों तो हम सबके आदर्श हैं। कोशिश करके भी हम आपसे बराबरी नहीं कर सकते।” पूरी सच्चाई से परेश ने कहा।

बातों में वक्त कब निकल गया, पता ही नहीं लगा। अचानक विशाल की दृष्टि घड़ी पर गई। रात के साढ़े नौ बज रहे थे। ऋचा की ओर देखकर कहा- “लगता है, आज खुशी से ही सबका पेट भर दोगी। खाना खिलाने की ज़रूरत नहीं है।”

विशाल की बात पर सबको उठने का उपक्रम करते देख, ऋचा ने आदेश दे डाला-

“बिना खाना खाए कोई नहीं जाएगा। आधे घण्टे में भोजन सर्व कर दिया जाएगा।”

“लगता है, ऋचा के पास कोई जादुई चिराग है, इतने लोगों के लिए आधे घण्टे में खाना तैयार हो जाएगा।” नीरज ने परिहास किया।

“जी हाँ, मेरे पास एक नहीं, आठ-दस जादुई चिराग़ हैं। आप सब क्या चिराग़ों से कम हैं। सबको हेल्प करनी होगी। ये लीजिए। आप सब मटर छीलिए, स्मिता, तू आलू छील दे। मिनटों में आलू-मटर की सब्जी और पूरी तैयार।”

सबको काम देकर ऋचा रसोई में चली गई। जल्दी-जल्दी आटा गॅंूथ, एक ओर भिण्डी छौंक दी। उतनी देर में स्मिता छीले हुए आलू-मटर ले आई। दोनों ने मिलकर पूरियाँ सेंक डालीं। ठीक आधे घण्टे में खाना मेज पर तैयार रखा था। उसे खाने का स्वाद ही अनोखा था। विशाल बड़ा खुश दिख रहा था।

“भई, यह हमारी ओर से आप सबकी पहली दावत है, यकीन रखिए जल्दी ही आपको शानदार पार्टी मिलेगी।”

“नहीं, विशाल! मैंने तय किया है, जब तक सुनीता को न्याय नहीं मिल जाता, हम ऐसा कोई आयोजन नहीं करेंगे।” गम्भीरता से ऋचा ने कहा।

“आपको क्या शक है कि विशाल सुनीता को न्याय नहीं दिला पाएँगे?” परेश ने जानना चाहा।

“मुझे विशाल की सफलता पर पूरा विश्वास है, पर सुनीता का डर तब तक दूर नहीं होगा, जब तक कोर्ट से उसके पक्ष में फ़ैसला न हो जाए।”

“सुनीता को किस बात का डर है? जब तक कोर्ट में उसका केस विचाराधीन है, उसका पति कोई हिमाकत करने की जुर्रत शायद ही करे।” नीरज ने अपनी राय दी।

“तुम कोर्ट की स्थिति जानते ही हो। पैसों के बल पर झूठेे गवाह खड़े किए जा सकते है। सुनीता को चरित्रहीन सिद्ध करके उससे उसका बच्चा छीना जा सकता है, नीरज।”

“परेशान मत हो, ऋचा! मैने सब तैयारी कर रखी है। सुनीता का बच्चा उसके साथ ही रहेगा।” दृढ़ स्वर में विशाल ने कहा।

दूसरी सुबह ऋचा को कागजों के बीच देख, विशाल ने सहास्य पूछा- “क्या कोई नई रिपोर्ट तैयार की जा रही है? कहीं अपराधी यह बन्दा ही तो नहीं है?”

“अपराधी तो तुम ज़रूर हो, तुमने ही तो अपना अखबार निकालने की सज़ा दी है। उसी की तैयारी कर रही हूँ।”

“वाह, तुम्हारी तत्परता तो माननी पड़ेगी। बात मॅुह से निकली नहीं, और तुम्हारा काम शुरू हो गया। मुझे पूरा विश्वास है, तुम्हारी पत्रिका बहुत सफल रहेगी।”

“विशाल, मैंने तय यिा है, मैं अखबार की जगह एक महिला पत्रिका निकालूँगी। बताओ पत्रिका का नाम ‘तेजस्विनी’ रखूँ या ‘अपराजिता’? इस पत्रिका द्वारा महिलाओं के शोषण और अन्याय के विरूद्ध मुहिम छेड़ी जाएगी।”

“ओह, तब तो डर है, कहीं इसका पहला निशाना मुझपर ही न साधा जाए।”

“ऐसा तो ज़रूर हो सकता है। तैयार रहिए, जनाब। जरा-सी चूक का भारी भुगतान देना पड़ सकता है।”

“इसीलिए तो वकील बना हूँ। ज़रूरत पड़ने पर अपना मुकदमा खुद लड़ सकॅंू।”
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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ऋचा के उत्साह का अन्त नहीं था। पत्रिका की रूपरेखा बनाने मे पूरी तरह से जुट गईं। सुखद आश्चर्य तब हुआ जब सीतेश और एक दो और पुराने सह्कर्मियों ने उसके साथ काम करने की इच्छा व्यक्त की।

अचानक एक दिन सुनीता के पति राकेश को अपने सामने देख ऋचा चैंक गई।

“तुम यहाँ?”

“हाँ, समझौता करना चाहता हूँ।”

“कैसा समझौता?”

“सुनीता को समझाइए, कोर्ट-कचहरी का चक्कर छोड़कर, सीधे-सीधे घरवाली की तरह घर में रहे। चार पैसे क्या कमाती है, दिमाग खराब हो गया।” आवाज में नफ़रत की बू आ रही थी।

“घरवाली बनकर ही तो वह रह रही थी, इसीलिए उसे जलाकर ख़त्म करना चाहा था?”

“गुस्से में तो ऐसा हो ही जाता है। अगर वह मेरा कहा मानकर चलेगी तो ऐसा नहीं होगा।”

“अच्छा, इसका मतलब, जिस दिन तुम्हारी मर्जी के खिलाफ़ कुछ करेगी तो गुस्से में उसे फिर जलाया जा सकता है।” तल्ख़ी से ऋचा ने कहा।

“अब आप तो बात के पीछे ही पड़ गई हैं। आखिर आपको भी वकील साहब की बात मानकर ही तो चलना होगा। आपके साथ जो हुआ, उसके बात क्या दूसरा कोई आपके साथ शादी के लिए तैयार होता? उपकार किया है उन्होंने आपके साथ।” व्यंग्य से होंठ टेढ़े कर राकेश बोला।

“निकल जाओ! गेट आउट! जाओ वरना………” क्रोध से ऋचा का पूरा शरीर काँपने लगा।

“जाता हूँ! सच बात कहने का साहस रखता हूँ। सुनने का साहस रखने की कोशिश कीजिए। आगे-पीछे सब यही बात तो करते हैं।”

राकेश के चले जाने के बाद भी ऋचा बहुत देर तक स्तब्ध बैठी रही। राकेश जैसे निकृष्ट व्यक्ति की बात ने उसे क्यों उद्वेलित कर दिया! वह जानती है, लोग उसे लेकर बातें बनाते हैं, पर ऋचा जैसी लड़की क्यों उन बातों की परवाह करे। उसने निर्णय सोच-समझकर ही लिया था। क्या विशाल के मन में भी कभी ऐसे ही ख्याल आते होंगे।

शाम को विशाल के आने पर पूरी घटना सुनाकर अचानक ऋचा पूछ बैठी-“विशाल, सच कहना, तुम्हारे मन में भी तो कभी यह बात आती होगी?”

“अपने विशाल को बस इतना ही जान सकी हो, ऋचा? तुम जैसी पत्नी पाकर मैं गौरवान्वित हूँ। फिर यह सवाल मत पूछना।” विशाल गम्भीर था।

“माफ़ करना, फिर ऐसी ग़लती नहीं होगी, विशाल।”

सुनीता के पास जाकर ऋचा ने राकेश की बातें बताना ज़रूरी समझा। कहीं ऐसा तो नहीं, सुनीता, राकेश की बातों से सहमत हो जाए। पति आम स्त्री की कमजोरी होता है।

ऋचा से सारी बातें सुनकर सुनीता का चेहरा घृणा से विकृत हो उठा।

“राकेश इन्सान नहीं हैवान है। अपनी हार उसे सहन नहीं है। किसी भी तरीके से वह मुझे फिर हासिल कर, दिखाना चाहता है कि वह पुरूष है, उसकी अधीनता मुझे स्वीकार करनी ही होगी।”

“तुम्हारा पक्का निश्चय है, तुम राकेश के पास वापस नहीं जाना चाहतीं।”

“नहीं, उसके साथ रहने का सवाल ही नहीं उठता। मुझे अपने बेटे का भविष्य बनाना है। उस जैसे शराबी, चरित्रहीन इन्सान के साथ रहकर बेटे का भविष्य नहीं बिगाड़ना है।”

“तब तुम निश्चिंत रहो। तुम केस ज़रूर जीतोगी।”

सुनीता के घर से लौटने के बाद ऋचा बड़ा हल्का महसूस कर रही थी। उसे खुशी थी, सुनीता में अपने अधिकारों के लड़ने की हिम्मत आ गई है। विशाल ने परिहास कर डाला-

“भई मुझे तो डर है, तुम्हारी प्रेरणा से और भी न जाने कितनी पत्नियाँ अपने पतियों को अत्याचार का आरोपी बनाकर, तलाक के मुकदमे न दायर करा दें।”

“अच्छा है, तुम्हारी इनकम तो खूब बढ़ जाएगी। चाहो तो फ़ीस भी बढ़ा सकते हो। मेरा मुकदमा जीतने के बाद जनाब का यश तो खूब फैल गया है।”

“वह तुम्हारा नहीं, मेरा केस था, ऋचा! वैसे मेरा फ़ैसला है, मजबूर स्त्रियों के मुकदमे बिना फ़ीस लडॅंूगा।” विशाल गम्भीर हो आया। ऋचा मुग्ध निहारती रह गई।
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Re: ऋचा (उपन्यास)

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अन्ततः सुनीता के मुकदमे की तारीख भी आ गई। कोर्ट मंे ऋचा के साथ स्मिता, सुधा, रागिनी, नीरज, परेश सभी उपस्थित थे। सिस्टर मारिया, मुकदमे की ख़ास गवाह थी। ऋचा के समझाने पर मीना के साथ दो पड़ोसी भी राकेश और उसकी माँ के खिलाफ़ गवाही के लिए आ गए थे।

राकेश के खिलाफ़ लगे आरोप सही पाए गए। पत्नी की हत्या के प्रयासों के साथ उसपर हिंसा करने के लिए राकेश और उसकी माँ को दोषी ठहराया गया। राकेश को हत्या के प्रयास के कारण आजीवन कारावास तथा माँ को पाँच वर्षो की सजा सुनाई गई। सुनीता को बेटे की परवरिश का दायित्व दिया गया।

बेटे को गोद में लिए सुनीता की आॅखों में खुशी के आॅसू थे। प्रेस-फोटोग्राफरों ने सुनीता के बेटे सहित फ़ोटो उतार, उसे बधाई दी। सुनीता की माँ और भाई ने विशाल के सामने हाथ जोड़ अपनी कृतज्ञता जताई। माँ ने कहा- “विशाल बेटा, तुमने हमारी बेटी को नई ज़िन्दगी दी है। हम तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूलेंगे।” सुनीता की माँ का स्वर गद्गद था।

“बेटा, हम तुम्हारी फ़ीस देने लायक तो नहीं, पर हमसे जो भी बन पड़ेगा, जरूर देंगे।”

“वाह ! एक ओर मुझे बेटा कह रही हैं, दूसरी ओर फ़फ़ीस की बात कहकर पराया बना रही हैं।”

“एक बात कहूँ, विशाल को अपनी फ़ीस नहीं चाहिए, पर मैं अपना हिस्सा नहीं छोड़नेवाली। आपने मुझसे तो पूछा ही नहीं, मुझे क्या चाहिए?” ऋचा ने हॅंसते हुए कहा।

“तुझे क्या चाहिए, बेटी?”

“आपके हाथ का बना खाना खाने जरूर आऊॅंगी।” स्नेह और आदर से अपनी बात कह, ऋचा ने सुनीता की विधवा माँ का मन जीत लिया।

“मेरा घर, तेरा ही घर हैं, जब चाहे आ जा। तेरा मनपसन्द खाना बनाने में माँ को बेहद खुशी होगी, ऋचा।” उल्लसित सुनीता ने कहा।

“ऐ ऋचा, तू कब से ऐसी पेटू हो गई? पन्द्रह दिन ठहर जा। सुधा और रागिनी की शादी में डबल खाना और मिठाई खा लेना।”

“अरे हाँ, मैं तो भूल ही गई थी। अब एक समय उपवास रखना शुरू कर दूँगी ताकि जमकर खा सकॅंू।”

खुशी-खुशी सब घर लौटे थे। घर में एक सुदर्शन युवक के साथ माधवी को प्रतीक्षा करते देख विशाल और ऋचा चैंक उठे।

“माधवी तू, अचानक। कोई खास बात है क्या?”

“हाँ भइया, यह स्क्वैड्रन-लीडर मोहनीश हैं।”

मोहनीश ने शालीनता से उठकर विशाल और ऋचा का अभिवादन किया। सबके बैठ जाने पर मोहनीश ने कहा- “यहाँ आने की एक ख़ास वजह है। मैं माधवी के साथ विवाह की अनुमति चाहता हूँ। हम दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते हैं।”

“क्यों माधवी, क्या यह सच है?” विशाल ने परिहासवश पूछा।

“जी, भइया।”

“देख, माधवी, तू बड़ी भोली है। तूने अच्छी तरह से छानबीन तो कर ली है। कहीं धोखे का कोई चांस तो नहीं है?”

“यह क्या सचमुच एयरफ़ोर्स में हैं? देखने से तो फ़िल्मी हीरो लगते है।” छिपाते हुए भी ऋचा के होंठों पर मुस्कान आ ही गई।

एक पल को विस्मित माधवी, ऋचा का परिहास समझ गई।

“हाँ, भाभी, मैंने तो खोजबीन नहीं की है। तुम अनुभवी हो, पता लगा दो, प्लीज! तुम्हारा एहसान मानूँगी।”

सबकी सम्मिलित हॅंसी से कमरा गॅंूज उठा।

डिनर तक विशाल जान चुका था, मोहनीश एक अच्छे परिवार का लड़का है। उसके माता-पिता माधवी से मिलकर अपनी सहमति दे चुके हैं। माधवी का उत्फुल्ल चेहरा उसकी खुशी बता रहा था। विशाल और ऋचा ने शीघ्र ही माता-पिता की सहमति से मोहनीश के घर विवाह का प्रस्ताव लेकर जाने का फ़ैसला सुना दिया। अन्ततः एक भाई होने के नाते बहिन के लिए सुयोग्य वर उसे ही तो ढॅूँढ़ना था। मोहनीश हर तरह से माधवी के योग्य था। माता-पिता को विशाल की पसन्द पर पूरा विश्वास होगा, इसमें कोई शंका नहीं थी। माधवी का मुख खुशी से चमक उठा।

दोनों को विदा कर रात के एकान्त में विशाल ने शैतानी से पूछा- “क्या हमारी मधु-यामिनी अब माधवी का विवाह होते तक स्थगित रहेगी?” हाँ, वैसे याद आया, शायद हमें सुधा और रागिनी के विवाह की भी तो प्रतीक्षा करनी होगी।

“प्रतीक्षा कर सकते हो?” शोखी से ऋचा ने पूछा।

“अजी, आज तक वही तो कर रहा हूँ। शायद ज़िन्दगी इन्तज़ार में ही बितानी होगी।” विशाल ने लम्बी साँस लेकर बाँहें फैला दीं।

विशाल की फैली बाँहों में मुस्कराती ऋचा समा गई। बाहर निखरी चाँदनी कमरे को रूपहला बना गई।

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