‘‘देवयानी”
हर रोज़ की तरह कमलकांत ड्राइंग-रूम में बैठे, समाचार-पत्र पढ़ रहे थे। किशन चाय की प्याली लाया तो अख़बार से नज़र हटा, चाय की प्याली मुँह से लगा ली। एक घूँट चाय ले, फिर अख़बार पर नज़र डाली तो एक समाचार देख, उनके चेहरे का रंग उड़ गया। ख़बर में प्रसिद्ध समाज-सेवी अमरकांत की आकस्मिक मृत्यु की सूचना छपी थी। अख़बार हाथ से छूट गया। सिर सोफ़े की पीठ से टिका, आँखें मूद लीं। उनकी ये हालत देख, कुर्सियाँ साफ कर रहा किशन, कमलकांत के बड़े बेटे शशिकांत को बुला लाया।
‘‘पापा ……… क्या हुआ ? आप ठीक तो हैं ? किशन, पानी ला।‘‘
शशिकांत के घबराए स्वर से कमलकांत ने आँखें खोलीं। आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली।
‘‘पापा, आप कुछ बोलते क्यों नहीं ? ‘‘
‘‘अमर ……. हमारा अमर नहीं रहा, शशि।‘‘ मुश्किल से इतना कह, सामने पडा़ अख़बार शशि को थमा दिया।
सूचना पढ़, शशिकांत स्तब्ध रह गया घर में आग की तरह यह खबर फैल गई। अमर की माँ ढ़ाड़े मारकर रो पड़ी। रोते-रोते- अस्फुट शब्दों में किसी अभागिन कल्याणी को कोसती गईं।
ख़बर दो दिन पहले की थी, यानी अब तक अमर का नश्वर शरीर भी राख हो चुका होगा। किसने उसे मुखाग्नि दी होगी। हाँ, उसकी बेटी…..। शायद देवयानी नाम है, उसका, क्या उसी ने पिता की चिता को अग्नि दी होगी ? उस हाहाकार के बीच घर के बड़े बेटे शशिकांत के मन में एक सवाल उमड़ रहा था। अमर के न रहने पर दोनों मां-बेटी क्या करेंगी ? कहीं वे दोनों इस घर में तो नहीं आ जाएँगी, पर क्या माँ-पापा, उन्हें आश्रय देंगे ? पिछले दस वर्षो से अमर घर से निष्कासित है, इस बीच उसकी चर्चा करना भी निषिद्ध रहा। पुरानी कहानी, शशिकांत को अच्छी तरह याद है……
राय बहादुर कमलकांत को अपने उच्च कुल-गोत्र पर बड़ा अभिमान था। दो सुयोग्य बेटों के पिता के रूप में बिरादरी में उनका बहुत सम्मान था। बड़ा बेटा शशिकांत पी.डब्लू.डी में इंजीनियर था और जब छोटे बेटे अमर ने प्रशासनिक परीक्षा में सफलता पाई तो मानो उनके सपने आकाश छूने लगे। शशिकांत का विवाह एक नामी परिवार की इकलौती बेटी से हो चुका था और आज वो एक पुत्र रोहन और पुत्री रितु का पिता था। कलक्टर दामाद पाने के लिए धनी परिवार वालों की लाइन लग गई थी।
कमलकांत कुछ निश्चय कर पाते कि गाँव से वयोवृद्ध पिता की बीमारी की ख़बर आ गई। कमलकांत असमंजस में पड़ गए। पिता की गांव न छोड़ने की ज़िद से वह परिचित थे। उन्हें शहर ला पाना असंभव था। एक जरूरी काम की वजह से उनका गाँव जाना कठिन था। पिता की परेशानी का समाधान, अमर ने आसानी से कर दिया-
‘‘आप परेशान न हों, पापा। मेरी ट्रेनिंग शुरू होने में अभी एक महीने का वक्त है। मैं बाबा की सेवा के लिए चला जाऊँगा।‘‘
‘‘उन्हें क्या तू सम्हाल पाएगा, अमर?‘ कमलकांत शंकित थे।
‘‘क्यों नहीं, पापा। जब मैं छोटा था, बाबा ने मुझे सम्हाला, अब उन्हें मेरी ज़रूरत है। मैं उन्हें अच्छी तरह सम्हाल लूँगा।‘‘ अमर को अपने पर पूरा विश्वास था।
‘‘हाँ-हाँ, वो तो जानता हूँ, तू अपने बाबा का लाड़ला पोता है। ठीक कहता है, शायद तू ही उन्हें सम्हाल सकता है।‘‘ कमलकांत ने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा।
पैतृक गांव में पहुँचे अमर की आंखों के सामने पुरानी मीठी यादों की तस्वीरें उभरती आईं। दादी जब तक जीवित रहीं, वे सब साल में दो बार होली-दीवाली पर गाँव जरूर आते। दादी का प्यार गाँव के जीवन में मिठास भर देता। पेड़ से कच्चे-पक्के आम-अमरूद तोड़ने का मज़ा ही और होता। माँ की मृत्यु के बाद कमलकान्त ने बहुत कोशिश की पिता।कोऽपने साथ शहर ले आएं, पर बाबा तैयार नहीं हुए। उस घर में पत्नी की स्मृतियाँ थीं, कमलकांत के जन्म से जुड़ी यादें थीं। अन्ततः पिता को पुराने सेवक रामदीन के सहारे छोड़, वे सपरिवार शहर आगए। अब कभी-कभी बाबा के पास कमलकांत हो आते। युवा होते पुत्रों के पास पढ़ाई का बोझ बढ़ता गया और गाँव जाने के लिए समय कम पड़ता गया।
अमर को देख, बाबा की आँखों में खुशी की चमक आगई।
‘‘चल, मेरी बीमारी ने मेरे अमर को तो बुला लिया।‘‘
‘‘क्यों बाबा, तुमने ही तो हमे भुला दिया है, वर्ना क्या शहर में हमारे साथ न रहते ?‘‘
तू नहीं समझेगा, रे। इस घर के कोने-कोने में पुरानी यादें हैं। उन्हें बटोर कर शहर कैसे जाऊँ, अमर ?‘‘ बाबा की आवाज़ भीग आई।
रामदीन ने अमर के ठहरने की पूरी व्यवस्था कर रखी थी। बाबा को दलिया और दवा खिलाने के बाद जब अमर बिस्तर पर लेटा तो याद आया, दादी रात में कहानियाँ सुनाया करती थीं। शशि को महाभारत और रामायण की कहानियाँ सुनना पसंद था, पर अमर मचल जाता-
‘‘हमें ये कहानियाँ नहीं सुननी हैं, हमें भगत सिंह की कहानी सुनाओ।‘‘
दादी प्यार से उसका सिर सहला, आशीर्वाद देतीं –
‘‘तू एक दिन ज़रूर भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस की तरह महान इंसान बनेगा।‘‘
अमर के सोच में एक मीठे गीत ने बाधा डाल दी। किसी लड़की की मीठी आवाज़ में गाए गीत ने, उसे सोच में डाल दिया – गाँव में कौन ऐसी सुर-साधना कर सकता है ? सुबह रामदीन से पूछने का निर्णय ले, अमर सो गया।
दूसरी सुबह बाबा कुछ अच्छा महसूस कर रहे थे। बुख़ार के साथ खांसी में भी कुछ कमी आई थी। अमर को रात का गीत याद हो आया। रामदीन से पूछा –
‘‘रामदीन रात में कोई गीत गा रहा था। गाँव में इतना अच्छा संगीत का ज्ञान होना ताज्जुब की बात है।‘‘
‘‘वो हमारे मास्टरजी की बेटी कल्याणी रही, भइया। बड़ी गुणी बिटिया है। बाबा से उसे बहुत प्यार है। तुम नहीं जानते, जब तब आकर बाबा के काम करके हमारी मदद करती है।‘‘ स्नेह से वृद्ध रामदीन का स्वर गदगद था।
‘‘क्या गांव में कोई नए मास्टरजी आए हैं, रामदीन?‘‘
‘‘अरे नहीं, भइया। वही मास्टरज़ी हैं, जो बाबा के कहने पर तुम दोनों भाइयों को पढ़ाने आया करते थे। तुम उनके आने पर छिप जाया करते थे।‘‘ रामदीन के झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान आ गई।
‘‘हां, मुझे पहाड़े याद करना अच्छा नहीं लगता था और मास्टरजी बार-बार पहाड़े रटाते थे। आज मास्टरजी से मिलकर आऊँगा।‘‘
‘‘ठीक है, पहले दूध पीकर नाश्ता कर लो। तुम्हारा मनपसंद हलवा बनाया है।‘‘
नाश्ता करने के बाद अमर गाँव का चक्कर लगाने निकल आया। बाबा आराम कर रहे थे, घर लौटने की जल्दी का सवाल नहीं था। शुरूआती जाड़ों की गुनगुनी धूप से गाँव नहाया हुआ था। मुग्ध हष्टि से गाँव की शोभा निहारता अमर काफ़ी दूर निकल आया। अचानक उसे प्यास महसूस होने लगी। चारों ओर नज़र दौड़ाने पर पानी कहीं नज़र नहीं आया। कहते हैं, कुंआ प्यासे के पास नहीं आता, पर उस दिन वो कहावत झूठी पड़ गई। सामने से दो युवतियाँ मटकों में पानी लिए आती दिखी थीं। सिर और कमर पर मटकों के साथ सहज रूप में चलते रहना, विस्मयकारी था। आगें बढ़ अमर ने अनुरोध कर ही डाला।
देवयानी
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देवयानी
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Re: देवयानी
‘‘क्या एक प्यासे को आपके मटके में से थोड़ा- सा पानी मिल सकता है ?‘‘
‘‘अरे वाह। दो कोस दूर से ये पानी किसी को मुफ़्त में पिलाने के लिए नहीं लाए हैं। इतनी ही प्यास लगी है तो नाक की सीध में चले जाओ। झरने से प्यास बुझा लेना।‘‘ पहली युवती ने सीधा जवाब दिया।
‘‘छिः, शन्नो। ऐसे नहीं कहते। प्यासे को पानी पिलाना तो पुन्य का काम है।‘‘ दूसरी लड़की ने शांति से कहा।
‘‘ऐ कल्याणी, तू अपना ज्ञान न बघार। पानी मुफ़्त में नहीं मिलता।‘‘ शन्नो नाम की युवती ने शोखी से कहा।
‘‘क्या गाँव में मेहमान से पैसे लेकर पानी पिलाया जाता है?‘‘ अमर ने ताज़्जुब से पूछा।
‘‘नहीं-नहीं, मेहमान तो देवता-समान होते हैं। लीजिए पानी पी लीजिए।‘‘ कल्याणी नाम की युवती ने सिर का घड़ा उतार, कमर के मटके से पानी की धार उंडेली। अमर मीठा पानी पीता ही चला गया।
‘‘हाय राम, ये कैसी प्यास है, जी ? कल्याणी का पूरा मटका ही खाली कर दिया।‘‘ शन्नो ने आँखें नचाईं।
‘‘ओह। आई एम सॉरी। पानी इतना मीठा था और मुझे इतनी प्यास लगी थी, इसलिए पता ही नहीं लगा, आपका पूरा घड़ा खाली हो गया।‘‘ अमर संकुचित था।
‘‘काई बात नहीं, हम फिर पानी ले आँएंगे।‘‘
‘‘नहीं-नहीं, मुझे मटका दीजिए, मैं पानी भर लाऊँगा।‘‘ अमर ने अनुरोध किया।
‘‘ना-ना, कल्याणी। ऐसी ग़लती ना करना वर्ना इनका क्या भरोसा उसी पास वाली गंदी नदी से पानी भर लाएँगें।‘‘ शन्नो ने चेतावनी दी।
‘‘क्यों, क्या गाँव में साफ़ पानी का अकाल पड़ गया है ?‘‘
‘‘कहाँ से आएगा साफ़ पानी ? नदी के पानी में शहर का कचरा बहकर आता है। कुएँ के पानी पर भरोसा रखो तो बीमारी को दावत दो।‘‘ धीमी आवाज़ में कल्याणी ने कहा।
‘‘अच्छा इसीलिए झरने से पानी लाना पड़ता है। साफ़ पानी तो सबसे पहली ज़रूरत है, उसका तो इंतजा़म करना ही होगा।‘‘ अमर सोच में पड़ गया।
‘‘आप क्या इंतज़ाम कर पाएँगे ? चार दिनों को मेहमान बनकर आए हैं, चले जाएँगे। वैसे किसके घर आना हुआ है?‘‘ कल्याणी ने गंभीरता से कहा।
‘‘राधाकांत जी का छोटा पोता अमर हूँ। अच्छा लाओ, अपना घड़ा दे दो, अभी पानी ले आता हूँ।‘‘
‘‘ओह ! आप बाबा के घर आए हैं। हमारी भूल माफ़ करना। हाँ, हम मेहमानों से काम नहीं कराते। शाम को मटके भर लाएँगे। चल, शन्नो।‘‘
अमर के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना कल्याणी, शन्नो को साथ ले, चली गई।
दोनों को जाते देखता, अमर सोच में पड़ गया। शन्नो के मुकाबले कल्याणी गंभीर युवती थी। गाँव में वैसी भाषा और शालीनता देख पाना एक अनुभव था। कल्याणी के सौभ्य चेहरे में सादगी का आकर्षण था। अगर वो शहर में होती तो आधुनिक प्रसाधन उसे सुंदरी का खि़ताब ज़रूर दे देते। न जाने किसकी बेटी है, कल्याणी। बातों से लगता है, वह पढ़ी-लिखी है। शायद गाँव की लड़कियों में शिक्षा का उजाला फैल गया है। ये तो शुभ संकेत है। दो-चार लोगों से पता पूछ, अमर मास्टरजी के घर पहुँच गया।
घर के बाहर की दीवारों पर सुंदर मधुबनी शैली में बने चित्रों को देख, अमर विस्मित था। दरवाज़ा खटखटाने पर जिस लड़की ने द्वार खोला, उसे देख, अमर चौंक गया। ये तो पानी मिलाने वाली लड़की कल्याणी थी।
‘‘अरे आप, यहाँ ?‘‘ कल्याणी भी विस्मित थी।
‘‘मास्टरजी हैं ?‘‘
‘‘हाँ, आप बाबूजी से मिलने आए हैं ?
आइए, बाबूजी बैठक में हैं।‘‘ कल्याणी ने अमर को बैठक में आमंत्रित किया।
सादी सी बैठक में स्वच्छता और सुरूचि थी। बेंत की चार कुर्सियाँ और एक दीवान के अलावा बीच में एक मेज़ थी। मेज़ पर एक कलात्मक टोकरी में रखे ताजे़ हरसिंगार के फूल अपनी मीठी खुशबू बिखेर रहे थे। कुर्सी पर बैठे मास्टरजी पुस्तक पढ़ रहे थे। अमर के आने पर उन्होंने दृष्टि उठा देखा, पर पहचान न सके। कल्याणी ने परिचय कराया –
‘‘बाबूजी, ये राधा बाबा के पोते हैं । आपसे मिलने आए हैं।
‘‘अरे, तुम शशि तो नहीं हो सकते, अमर हो न ? क्यों ठीक पहचाना न ? मास्टरजी के चेहरे पर स्नेह भरी मुस्कान आ गई।
‘‘आपसे ग़लती कैसे हो सकती है, मास्टजी ?‘‘ आदर से पाँव छू, अमर ने कहा।
‘‘अरे कल्याणी बेटी, अमर के लिए पानी-शर्बत तो ला। प्यास लगी होगी।‘‘
‘‘नहीं-नहीं, उसकी ज़रूरत नहीं, एक मटका पानी पीकर आया हूँ।‘‘ अमर ने शरारती नज़र पास खड़ी कल्याणी पर डाली।
‘‘इस बार बहुत दिनों बाद आए हो। क्या काम कर रहे हो ?‘‘
‘‘जी, मास्टरजी। पहले तो पढ़ाई का बोझ था, फिर कम्पटीशन की तैयारी की वजह से एकाध दिन के लिए ही गाँव आ सका। आपके आशीर्वाद से इस बार प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया हूँ।‘‘
‘‘वाह ! ये तो बड़ी खुशी की बात है। ये ख़बर तो पूरे गाँव के लिए गौरव की बात है। सुना कल्याणी, हमारा अमर कलक्टर बन गया है।‘‘ मास्टरजी सच्चे दिल से खुश थे।
‘‘कल्याणी की पढ़ाई का क्या हाल है ? गांव में तो लड़कियों की पढ़ाई का ठीक इंतज़ाम नहीं था।‘‘
‘‘आज भी वही हाल है, अमर। न जाने कितनी अर्ज़ियां दीं । शहर जाकर खुद मिला। बार-बार कहा लड़कियों के लिए बारहवीं तक की पढ़ाई की व्ययस्था कर दी जाए, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता है ? कल्याणी ने मेट्रिक पास कर लिया है, अब घर पर ही बारहवीं की तैयारी कर रही है।‘‘ मास्टरजी की आवाज़ में गर्व का पुट था।
‘‘वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बात है। आप जैसे पिता के साथ कल्याणी बारहवीं ही क्यों बी.ए, एम.ए तक कर लेगी।‘‘ अमर की बात में सच्चाई थी।
‘‘नहीं, बेटा। मेरा भी यही सपना था, पर शायद ये सपना सच न हो सके।‘‘ मास्टरजी ने लंबी साँस ली।
‘‘ऐसा क्या कह रहे हैं, मास्टरजी ?‘‘
‘‘वो इसलिए कि तुम्हारे मास्टरजी कल्याणी की उच्च शिक्षा में मदद नहीं कर सकते। हालात की मज़बूरियों की वजह से मेट्रिक के बाद बेसिक टीचर की ट्रेनिंग लेकर, नौकरी करनी पड़ी। कल्याणी को बारहवीं की पढ़ाई में मैं मदद नहीं कर सकता।‘‘ मास्टरजी उदास हो गए।
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Re: देवयानी
‘‘निराश न हों, मास्टरजी। अपका सपना ज़रूर सच होगा। मैं यहाँ एक महीने तक रूक सकता हूँ। इस बीच कल्याणी की कठिनाइयों को दूर करने में मदद दे सकता हूँ।‘‘
‘‘तूम्हारा बड़ा उपकार होगा, बेटा।‘‘
‘‘ऐसा न कहें, मास्टरजी। आप मेरे गुरू रहे हैं। गुरू का ऋण तो शिष्य कभी नहीं उतार सकता, पर अगर आपके लिए कुछ कर सका तो मेरा सौभाग्य होगा।‘‘
‘‘आजकल तुम जैसे विचारों वाले लड़के कहाँ मिलते हैं, अमर ? जब समय मिले, कल्याणी की मदद कर देना। बेचारी अपने आप पढ़ने की हिम्मत कर रही है।‘‘ मास्टरजी ने कल्याणी पर प्यार भरी नज़र डाली।
‘‘तुम्हारी किस विषय में रूचि है, कल्याणी ?‘‘
‘‘जी, मुझे समाज शास्त्र बहुत अच्छा लगता है।‘‘ शर्माती कल्याणी ने जवाब दिया।
‘‘तुम्हारी संगीत में भी तो रूचि है, कल्याणी।‘‘ अमर को कल्याणी का रात वाला गीत याद हो आया।
‘‘संगीत को विषय की तरह नहीं, शौक की तरह लेती हूँ। आपने कैसे जाना, मुझे संगीत प्रिय है ?‘‘ कल्याणी की बड़ी-बड़ी आँखों में विस्मय था।
‘‘कल रात तुम्हारा गीत सुन पाने का सौभाग्य मिल सका था, कल्याणी।‘‘
‘‘ओह, रात मेरी सहेली तारा की सगाई थी। सबकी ज़िद पर गाना पड़ा।‘‘ कल्याणी के चेहरे पर लाज थी।
‘‘हमारी बेटी अच्छी कलाकार भी है, अमर। घर के बाहर इसी ने चित्रकारी की है। बड़े अच्छे चित्र बनाती है, कल्याणी। बेटी, अमर को अपने बनाए चित्र तो दिखाना।‘‘
‘‘आप तो बेकार ही अपनी बेटी की बड़ाई करते हैं, बाबूजी। हमारे घरेलू चित्र क्या तारीफ़ लायक हैं ?‘‘ कल्याणी संकोच से भर गई।
‘‘तुम खुद ही देखकर तय करना, अमर। कल्याणी के चित्र तारीफ़ लायक हैं या नहीं।‘‘
अपनें चित्र दिखाती उन्नीस वर्षीया कल्याणी, अल्हड़ बालिका बन गई। उत्साह से दिखाए गए चित्रों में राम-कथा के अंश चित्रित थे।
‘‘वाह ! तुम तो बहुत अच्छी कलाकार हो। जानती हो आजकल विदेशों तक में ऐसे पारम्परिक चित्रों की माँग है।‘‘
‘‘सच ?‘‘ कल्याणी विस्मित थी। दूसरे दिन से अमर, कल्याणी को पढ़ाने मास्टरजी के घर जाने लगा। कल्याणी की मेधा और पढ़ाई में उसकी रूचि, अमर को विस्मित करती। काश् इस लड़की को शहर में अपनी प्रतिभा विकसित करने का मौका मिल पाता।
गाँव में रहते अमर को वहाँ की समस्याएँ अनायास ही परेशान करने लगीं। ग़रीबी, गंदगी, अशिक्षा, चिकित्सकीय सुविधाओं का अभाव जैसी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी थीं। ग्राम-प्रधान या बी.डी.ओ. से बात करने का ख़ास नतीजा़ न निकलता देख, अमर ने जिला कलक्टर से मिलकर गाँव की समस्याएं समझाईं। अमर की पोजीशन जान, कलक्टर ने समस्याओं के समाधान संबंधी शीघ्र कार्रवाई के निर्देश दिए।
अचानक एक रात सोए बाबा, सुबह न उठ सके। शहर से पूरा परिवार आ गया। बाबा की अर्थी के साथ पूरा गाँव था। तीसरे दिन शुद्धि-हवन के बाद जब कमलकांत का परिवार शहर वापसी की तैयारियाँ कर रहा था। तो मास्टरजी ने अमर से कहा-
‘‘अगर तुम चले गए तो गाँव सुधार के लिए जो काम हो रहे हैं, वो सब अधूरे रह जाएँगे। क्या कुछ दिन और नहीं रूक सकते ?‘‘
ग़ौर करने पर मास्टरजी की बात की सच्चाई स्पष्ट थी। क्या भोले गाँव वालों की ज़रूरतें पूरी कराना, अमर का फर्ज़ नहीं था ? ये सच था जो भी काम शुरू हो रहे थे, उनके पीछे अमर था। माता-पिता के विरोध के बावजूद अमर ने गाँव में रूकने का निर्णय ले लिया। कमलकांत ने सोचा ट्रेनिंग पर जाते वक्त अमर खुद ही घर वापस आ जाएगा। कुछ दिन उसे अपने मन की कर लेने दो, पर कमलकांत का सोचा कहाँ हो सका ?
गाँव के मोह ने अमर को इस तरह से बाँध लिया कि उतनी बड़ी नौकरी छोड़ते उसे ज़रा-सी तकलीफ़ नहीं हुई। प्रशासनिक सेवा का चांस छोड़ने की बात ने पूरे परिवार को चौंका दिया। पिता के सपने टूट गए। सबका समझाना बेकार गया। अमर ने गाँव में रहकर ।ग्रामोद्धार का संकल्प ले डाला।
‘‘स्कूल की मास्टरी ही करनी थी तो इतनी पढ़ाई करने की क्या ज़रूरत थी। ‘‘पिता दहाड़े।
‘‘पढ़ाई से ही तो अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है, पापा। स्कूल की मास्टरी करके न जाने कितने बच्चों का भविष्य सँवार सकूँगा। ‘‘शांत पर दृढ़ स्वर में अपनी बात कहकर अमर ने सबको चुप करा दिया।
अमर के गाँव में रहने की ज़िद परिवार वालों ने दिल पर पत्थर रखकर मान ली, पर उसने तो गज़ब ही कर डाला। छोटी-सी बीमारी से मास्टरजी की मौत के बाद कल्याणी के साथ विवाह करने की बात से उसने पिता को ज़बरदस्त धक्का पहुँचा दिया।
‘‘नहीं, कभी नहीं। उस मामूली मास्टर की बेटी हमारे घर की बहू नहीं बन सकती। अपने खांदान का नाम मिट्टी में मिलाकर ही दम लोगे ?‘‘ पिता दहाड़े।
‘‘हाँ, उस मनहूस लड़की के लिए हमारे घर में जगह नहीं है। माँ-बाप नहीं रहे और खांदान में भी उसका कोई नहीं है।‘‘ माँ ने विरोध किया।
‘‘कल्याणी मनहूस नहीं, गुणवान लड़की है। उसमें इस घर की बहू बनने लायक सभी गुण हैं।‘‘ अमर ने समझाना चाहा।
‘‘चुप रह। बंद कर अपना कल्याणी-पुराण। मेरे जीते जी वो हमारी बहू नहीं बन सकती।‘
‘‘मैं वचनबद्ध हूँ। मास्टरजी के अंतिम समय में मैने बेसहारा कल्याणी का दायित्व लेने का वचन दिया है।‘‘
‘‘ये क्यों नहीं कहता, मास्टर की उस चालाक छोकरी ने तुझे अपने जाल में फँसा लिया है, इसीलिए कलक्टरी छोड़, गाँव में बस गया।‘‘ कमलकांत की आवाज़ में घृणा थी।
‘‘कल्याणी के लिए ऐसे अपमान जनक शब्द मुझे सहन नहीं होंगे, पापा। मै उससे प्यार करता हूँ। सच्चाई ये है, कल्याणी इस विवाह के लिए तैयार नहीं है, पर ये मेरा अपना निर्णय है।‘‘
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Re: देवयानी
‘‘वाह ! ये तो नई बात है, उस लड़की की औक़ात ही क्या है जो हमारे बेटे से शादी के लिए तैयार न हो।‘‘ व्यंग्य से कमलकांत के ओंठ फैल गए।
‘‘वो एक स्वाभिमानी लड़की है, पापा। उसका डर ठीक था, मेरे परिवार वाले उसे अपने घर की बहू बनाने को तैयार नहीं होंगे।‘‘
‘‘अगर उसे इतनी समझ है तो क्या तेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं। बहुत हो गया अब गाँव छोड़, वापस आ जा।‘‘
‘‘अब गाँव ही मेरा कर्म- क्षेत्र है और कल्याणी मेरी जीवन-संगिनी बनेगी, ये मेरा दृढ़ निश्चय है।‘‘
‘‘अगर तेरी यही ज़िद है तो याद रख, अगर तूने उस लड़की से शादी की तो तेरे साथ हमारा रिश्ता हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा।‘‘
‘‘ठीक है, पापा। आपको कल्याणी के साथ ही मुझे स्वीकार करना होगा। अगर आपको मेरी शर्त मंजूर नहीं, तो मै हमेशा के लिए जारहा हूँ।
माँ के रोने और विनती के बावजूद अमर रूका नहीं था। तब से आज तक उस बात को बारह बरस बीत गए। अमर को पुरखों की हवेली में रहने न देने की ज़िद में, कमलकांत ने पुरखों की गाँव वाली हवेली भी बेच डाली। अमर को रहने के लिए मास्टरजी का दो कमरो वाला घर ही काफ़ी था। कमलकांत को विश्वास था, गाँव की तकलीफ़ों से घबराकर, अमर वापस आ जाएगा, पर अमर ने कभी भी पलट कर गाँव का रूख नहीं किया। दूसरों के मुँह से वे सुनते रहे, पूर्वजों के गाँव के कायाकल्प के लिए अमर कृत-संकल्प है। अशिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और गंदगी जैसी समस्याओं को दूर करने के साथ गाँव वालों की गरीबी दूर करने के लिए सरकारी योजनाएँ लागू करा रहा है। गाँव वालों के बीच उसे देवता का दर्ज़ा मिला हुआ है। बेटे की तारीफ़े सुन कमलकांत और उनकी पत्नी अमर को देखने को बेचैन हो उठते, पर कल्याणी के कारण वे उसके पास न जा सके। अमर के घर आने का सवाल ही नहीं उठता था। उसने तो साफ़ कह दिया था, कल्याणी के बिना वह घर में कदम नहीं रखेगा। अमर के घर बेटी का जन्म हुआ, इसकी ख़बर भी गाँव के चौधरी से ही मिली थी। चौधरी, अमर को आशीषते न थकते। कमलकांत जी बहुत भाग्यवान हैं, जो उन्हें अमर जैसा बेटा मिला है।
पुत्र की मृत्यु का शोक मनाते एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि गाँव के चौधरी के साथ कल्याणी और उनके अमर की बेटी देवयानी, उनके घर आ पहुँची। देवयानी के उदास निष्प्रभ चेहरे पर बुद्धि प्रदीप्त आँखें अनायास ही अमर की याद दिला गईं। विषाद की प्रतिभा सरीखी कल्याणी ने आंसू भरी आँखों के साथ सास-श्वसुर के पाँव छूने चाहे तो दोनों ने पाँव पीछे खींच, अस्फुट शब्दों में न जाने क्या कहा। चौधरी ने स्थिति स्पष्ट कर दी –
‘‘अमर बाबू तो देवता थे। उन्होंने तो गाँव की काया ही पलट दी। ये तो गाँव वालों का ही दुर्भाग्य था, अमर बाबू छोड़कर चले गए। न जाने कैसा जानलेवा बुखार चढ़ा, हज़ार जतन के बाद भी पारा नीचे ही नहीं उतरा।‘‘
‘‘डॉक्टर कुछ नहीं कर सका ?‘‘ भर्राए गले से कमलकांत इतना ही पूछ सके।
‘‘अब क्या कहें, हमारी किस्मत ही खराब थी। डाक्टर बाबू, किसी शादी में कहीं दूर के शहर गए हुए थे। कम्पांउडर से जो बन पड़ा, किया। शहर लाने का वक्त अमर बाबू ने दिया ही कहां ? सोचा गया बुख़ार है, चला जाएगा।‘‘ चौधरी ने लंबी साँस ली।
‘‘ये सब इसी की वजह से हुआ है। मेरा बेटा बेइलाज चला गया।‘‘ कल्याणी पर जलती दृष्टि डाल
अमर की माँ रो पड़ी।
‘‘ऐसी बात नहीं है, माँजी। कल्याणी बिटिया ने तो उस दिन से दाना-पानी ही छोड़ दिया है। होनी को कौन टाल सकता है। अमर बाबू गाँव के अस्पताल को बढ़ाना चाह रहे थे। शहर से दो नए डाक्टर आने वाले थे, पर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था।‘‘ चौधरी ने अँगोछे से आँसू पोंछ डाले।
‘‘हम यहां नहीं रहेंगे, हम अपने घर जाएँगे, माँ।‘‘ देवयानी ने बात कहकर दृढ़ता से ओंठ भींच लिए, ठीक वैसे ही जैसे अपनी तकलीफ़ छिपाने को अमर ओंठ भींचकर दर्द सह जाता था।
‘‘नहीं, देवयानी बिटिया। अब यही तुम्हारा घर है। ये तुम्हारे बाबा-दादी हैं।’’ चौधरी ने देवयानी को समझाना चाहा।
‘‘नहीं, हमारा इन दोनों से कोई रिश्ता नहीं हैं, इन्हें तुम वापस ले जाओ, चौधरी।’’ रूखी आवाज़ में कमलकांत ने कहा।
‘‘साहब जी, इस बिटिया की क्या ग़लती है। ये तो आप के बेटे की अखिरी निशानी है। क्या इसमें आपको अपने बेटे की झलक नहीं मिलती ?’’ कमलकांत की दृष्टि देवयानी पर पड़ी तो वे चौंक उठे। बिल्कुल अमर जैसा सौम्य-तेजस्वी चेहरा, वैसे ही आँखों में कुछ कर गुजरने की आग जैसे धधक रही थी। निःशब्द कल्याणी ने कमलकांत के हाथ में एक चिट्ठी पकड़ा दी।
चिट्ठी अमर की थी। पिता के सामने कभी न झुकने के उसके निर्णय को, बेसहारा युवा पत्नी और मासूम बेटी के भविष्य ने झुकने को विवश कर दिया। पत्र में चंद पंक्तियाँ थीं-
पूज्य पापा,
पिछले कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है। न जाने क्यों ऐसा आभास-सा हो रहा है, मानों मेरा अंत निकट है। ये पत्र कल्याणी के पास आपके नाम छोड़ रहा हूँ। अगर कभी मैं न रहूँ तो इसे आप तक पहुँचाना उसका दायित्व है।
एक अनुरोध है, अपने इस नालायक बेटे की ग़लती की सज़ा कल्याणी और देवयानी को मत दीजिएगा। मेरे अपराध में इनकी कोइ भागीदारी नहीं है। अगर मैं न रहा तो इन दोनों को अपनी शरण में ले लीजिएगा। इन्हें अकेले छोड़ना सुरक्षित नहीं होगा।
आपके प्रति अपने कर्तव्य नहीं निभा सका, इसका दुख है। बहुत सी ग़लतियों के लिए आपसे क्षमा मिली है। इस बार भी माफ़ करेगें न ?
आपका लाड़ला बेटा,
अमर……….
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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बन्धन
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Re: देवयानी
चिट्ठी के एक-एक शब्द में मानों अमर साकार था। दिवंगत बेटे की अंतिम इच्छा का तिरस्कार कर पाना संभव नहीं था। कल्याणी और देवयानी को घर में जगह ज़रूर दे दी गई, पर उनके प्रति दुर्भाव में कमी नहीं आई। जब-तब बेटे की मौत के लिए कल्याणी को जिम्मेदार ठहरा, सास ताने देकर भड़ास निकालती रहती। जेठ और जिठानी की आंखों में तो खटकती ही, उन्हें डर जो था कहीं पिता की जायदाद में से देवयानी को भी हिस्सा न मिल जाए।
हवेली जैसे घर में एक छोटा-सा कोठरीनुमा कमरा देख, देवयानी को अपने पिता का खुला छोटा सा प्यारा घर याद हो आया।
‘‘माँ, बाबा का घर इतना बड़ा है, पर हमें ये छोटा-सा कमरा क्यों दिया गया हैं इसकी खिड़की इतनी छोटी है कि हवा भी नहीं आयेगी।’’
‘‘ऐसे नहीं कहते, देवयानी। अब हमारा यही घर है। हम दोनों के लिए इतनी जगह काफ़ी है, बेटी।’’ माँ की आँसू भरी आँखें देखकर, देवयानी जैसे सब समझ गई।
‘‘हाँ, माँ। हमारे लिए ज्यादा जगह क्यों चाहिए। हम दो ही तो हैं। पापा तो चले गए।’’ कल्याणी बेटी को सीने से चिपटा रो पड़ी।
कल्याणी की आँखों से झरते आँसुओं को अपनी हथेली से पोंछती देवयानी ने माँ को बच्चों-सा दिलासा दिया।
‘‘पापा कहते थे, रोना अच्छी बात नहीं है, माँ, बड़े होकर हम तुम्हारे लिए खूब बड़ा सा घर बनवाएंगे।’’
आदत के अनुसार पहली सुबह देवयानी पाँच बजे सवेरे उठ गई। गाँव में रोज़ अमर के साथ ताज़ी हवा में घूमने के बाद झरने के ठंडे पानी से हाथ-मुँह धो, उगते सूर्य को प्रणाम कर घर लौटती थी। कल्याणी उनके लिए गर्म दूध का ग्लास तैयार रखती। इस नए घर में सुबह छह बजे तक सन्नाटा था।
सात बजते-बजते रोहन और रितु को स्कूल भेजने की तैयारी का शोर शुरू हो गया। कल्याणी कमरे में पूजा कर रही थी। आवाज़ें सुन, प्रसन्न मुख देवयानी बाहर आ गई। रोहन और रितु स्कूल यूनीफ़ॉर्म पहने तैयार थे। मेज़ पर दोनों के लिए दूध के ग्लास रखे हुए थे। दादी दोनों से दूध पीने के लिए मनुहार कर रही थीं। रितु ने मुँह बनाकर दूध के प्रति वितृष्णा जताई तो देवयानी ताज़्जुब में पड़ गई। चट मेज़ से दूध-भरा ग्लास उठा, एक सांस में दूध खत्म कर, विजयी निगाह से रितु को देखा था।
‘‘देखा रितु दीदी, हम कितनी जल्दी दूध पी लेते हैं।’’ चेहरे पर हँसी आ भी न पाई थी कि रागिनी-ताई का ज़ोरदार थप्पड़, देवयानी के गाल पर आ पड़ा था।
‘‘भुक्कड़, लड़की, रितु का दूध पी गई। दूसरे के हिस्से की चोरी करते शरम नहीं आती।’’
‘‘हमने चोरी नहीं की, रितु दीदी को दिखाना चाहते थे, हम कितनी जल्दी दूध पी सकते हैं।’’ रोती देवयानी के गाल पर उँगलियाँ उभर आई थीं।’’ दादी ने वहीं से दासी को आवाज़ दी थी-
‘‘कमली इस भुक्कड़ लड़की को चाय दे- दे। देख, रात की रोटी पड़ी हो तो वो भी दे दे। न जाने कहाँ की पेटू आई है।’’
‘‘नहीं, हम बासी रोटी नहीं खाते।’’ सुबकती देवयानी इतना ही कह सकी।
‘‘ओह् हो, तो क्या महारानी जी गाँव में मोहन भोग खाती थीं। सुना अम्माजी ये गाँव की छोकरी कैसी बातें बनाती है।’’ रागिनी के चेहरे पर आक्रोश झलक आया था।
अपमान से देवयानी की आँखें जल उठीं। उसके पापा कहते थे बच्चों को चाय नहीं पीनी चाहिए, पर उस दिन के बाद से देवयानी को जो मिल जाता गले से नीचे उतार लेती।
दो-चार दिनों में ही कल्याणी अपनी स्थिति समझ गई। घर में उसकी स्थिति पुत्रवधू की नहीं, दास-दासी से भी बदतर थी। कम से कम उनसे नफ़रत तो नहीं की जाती। देवयानी को ये समझ पाना मुश्किल लगता घर के दूसरे लोग और उसके समवयस्क उससे बात क्यों नहीं करते। रोहन और रितु के पास जाने पर वे उसे हिकारत की निगाह से देख, मुँह मोड़ लेते।
देवयानी गाँव के स्कूल की सबसे मेधावी छात्रा थी। उसे पिता की बुद्धि और माँ का सौम्य सौंदर्य मिला था। न जाने क्यों उसे स्कूल भेजने की बात कोई नहीं सोचता। रितु और रोहन को ललक से स्कूल जाते देखती। कभी-कभी रितु या रोहन उससे अपना बैग कार तक पहुंचाने को कहते तो देवयानी खिल जाती। बैग उठाए देवयानी मानो खुद को स्कूल जाता महसूस करती।
बार-बार अपनी पुरानी किताबों के पृष्ठ पलटती देवयानी थक चुकी थी।
‘‘माँ, हम भी रितु दीदी के साथ स्कूल जाएँगे। हमे घर में अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘अच्छा, बेटी। तेरे बाबा से बात करूँगी।’’ सच्चाई ये थी श्वसुर से कुछ माँगने का कल्याणी में साहस नहीं था। वह तो उनकी निगाह में अपराधिन थी, जिसने उनके बेटे को उनसे छीना था।
एक दिन रितु की किताब पढ़ती देवयानी ऐसी अभिभूत थी कि रितु का आना उसे पता ही नहीं चला। अपनी किताब देवयानी के हाथ में देख, रितु का पारा चढ़ गया। गुस्से में किताब छीनने के प्रयास में किताब का एक पृष्ठ फट गया। अब तो रितु ने घर सिर पर उठा लिया।
‘‘मम्मी, इस लड़की ने मेरी किताब फाड़ दी, इसे घर से निकाल दो।’’
बेटी को रोता देखा, बिना कुछ पूछे रागिनी ने देवयानी को धुन डाला।
‘‘जिसका खाएगी, उसी को परेशान करेगी। ख़बरदार जो कभी आगे से रितु या रोहन के कमरे में पैर भी धरा। बहुत मारूँगी, जो फिर रितु की किताब चोरी से पढ़ी।’’
देवयानी स्तब्ध रह गई। शरीर की चोट से ज़्यादा उसके मन पर जो चोट लगी, उसे माँ से छिपाए रखने की समझ उसमें आ गई थी। दुखी माँ को और दुख पहुँचाने से क्या फायदा ? जिस दिन देवयानी को रितु की पुरानी फ़्राकें पहनने को दी गई, वह विद्रोह कर वैसी
‘‘हम पुरानी फ़्राकें नहीं पहनेंगे। हमे भी नई फ़्राक चाहिए।’’
‘‘ऐसा नहीं कहते बेटी। बड़ी बहन की फ़्राक पहनने से कोई छोटा थोड़ी हो जाता है।’’
माँ के कहने पर देवयानी ने वो ढीली-ढाली, लंबी फ़्राक पहन ली, पर उसे देख, रोहन का हंसते-हँसते बुरा हाल हो गया।
‘‘ऐ रितु, देख, हमारे घर एक बंदरिया आई है। नाच बंदरिया, नाच।’’
दोनों भाई-बहनों की हंसी ने देवयानी को रूला दिया। उसके बाद देवयानी ने रितु की फ़्राक कभी नहीं पहनी।
उस दिन रितु अपने खाने का डिब्बा स्कूल ले जाना भूल गई। रागिनी परेशान थी, कैसे रितु के पास डिब्बा पहुँचाए। अचानक सामने खड़ी देवयानी को देख, उसे समस्या का समाधान मिल गया। देवयानी के हाथ खाने का डिब्बा थमा, निर्देश दिए थे-
‘‘देख, ये डिब्बा रितु के हाथ में ही देना। वो पाँचवी क्लास में हैं और हाँ भूलकर भी ये मत कहना तेरा रितु से कोई नाता है। पूछने पर कह देना तू गाँव से आई है। समझ गई न ?।
हामी में सिर हिला, देवयानी, रितु के स्कूल उड़कर पहुंच जाना चाहती थी।
रितु का स्कूल देख, देवयानी विस्मित रह गई। ये तो एक नई दुनिया थी। इतना बड़ा स्कूल, इतने बड़े खेल के मैदान और इतने ढेर सारे हँसते-खिलखिलाते बच्चे। काश् देवयानी भी उनमें से एक होती।
पाँचवी कक्षा के बाहर खड़ी देवयानी कक्षा में पढ़ाए जाने वाले पाठ को सुनती अपना स्कूल जाने का मकसद भूल गई। टीचर ने एक सवाल पूछा, क्लास के बच्चों में से किसी का हाथ जवाब देने के लिए नहीं उठा। बाहर खड़ी देवयानी से नहीं रहा गया, मीठी आवाज़ में पूछा-
‘‘टीचर जी, हम इसका जवाब बता सकते हैं। बताएं-
‘‘हाँ-हाँ, जरूर बताओ, पर तुम कौन हो, यहाँ बाहर खड़ी हो ? टीचर ने ताज़्जुब से देवयानी को देखा।
सवाल का ठीक जवाब देकर देवयानी ने बताया, वह रितु का डिब्बा पहुँचाने आई है।
‘‘तुम कहाँ पढ़ती हो, देवयानी ?’’
‘‘हम गाँव में पढ़ते थे। शहर आकर हम स्कूल नहीं जाते। माँ कहती है, जिसके पापा नहीं होते, वो पढ़ने नहीं जाते।’’
देवयानी का उदास मुँह देखकर टीचर का मन भर आया। देवयानी के सिर पर प्यार से हाथ धर कर कहा-
‘‘ये सच नहीं है, देवयानी। तुम एक बुद्धिमान लड़की हो। तुम्हें खूब पढ़ना चाहिए। भगवान तुम्हारी मदद ज़रूर करेंगे।’’
उत्साह से उमगती देवयानी ने टीचर की बात बताकर माँ से कहा, वो ज़रूर पढे़गी, भगवान जी जरूर उसकी मदद करेंगे। कल्याणी की आँखें छलछला आईं, आज अगर अमर होते तो क्या उनकी दुलारी बिटियां की ये स्थिति होती। अमर तो कल्याणी को भी बी.ए. की परीक्षा दिलाने को तैयार कर रहे थे, पर बेटी के जन्म के बाद कल्याणी का स्वास्थ्य खराब हो गया और पढ़ाई पूरी न हो सकी। अमर का कहना था, औरत को इस लायक बनना चाहिए कि ज़रूरत के वक्त किसी पर आश्रित न रहे। काश कल्याणी बी.ए. करके, अपने पाँवों पर खड़ी हो पाती। अचानक कल्याणी जैसे चैतन्य हो आई। जो उसके साथ हुआ, उसकी बेटी के साथ नहीं होना चाहिए।
कल्याणी को अपने सामने देख कमलकांत चौंक गए। धीमी आवाज़ में कल्याणी ने विनती की-
‘‘ एक विनती है, पापा जी ?’’
‘‘क्या कहना चाहती हो ?’’ रूखे स्वर में कमलकांत ने पूछा।
वो देवयानी को खूब पढ़ाना चाहते थे। कहते थे उसे डाक्टर बनाएँगे। उनकी ये इच्छा आप ही पूरी कर सकते हैं, पापा जी।’’ कल्याणी का स्वर निरीह हो आया।
‘‘मैं क्या कर सकता हूँ ? आवाज़ में फिर वही रूखापन था।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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