ऋतुसंहार

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Jemsbond
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ऋतुसंहार

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ऋतुसंहार

ऋतुसंहार को कालिदास की प्रथम रचना स्वीकार किया गया है। अत: प्रथम सोपान होने के कारण रघुवंश अथवा शाकुंतलम जैसी परिपक्वता का अभाव स्वाभाविक है। काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में ऋतुसंहार के उद्धरण आलङ्कारिकों ने इसलिए नहीं दिये कि महाकवि कालिदास के ही अधिक प्रौढ़ उदाहरण विद्यमान थे। मल्लिनाथ ने भी सरल ग्रंथ होने के कारण इस पर टीका नहीं लिखी होगी। इस प्रकार ये तर्क कमज़ोर है। वस्तुत: ऋतुसंहार के पर्यालोचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें कालिदासीय प्रतिभा बीज-रूप में विद्यमान है। ऋतुसंहार में छ: सर्ग हैं। इन सर्गों में क्रमश: छ: ऋतुओं –

ग्रीष्म,
वर्षा,
शरद,
हेमंत,
शिशिर तथा
बसंत का चित्रण किया गया है।

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !

सूर्य भीषण हो गया अब,चन्द्रमा स्पृहणीय सुन्दर

कर दिये हैं रिक्त सारे वारिसंचय स्नान कर-कर

रम्य सुखकर सांध्यवेला शांति देती मनोहर ।

शान्त मन्मथ का हुआ वेग अपने आप बुझकर

दीर्घ तप्त निदाघ देखो, छा गया कैसा अवनि पर
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: ऋतुसंहार

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प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !

सविभ्रमसस्मित नयन बंकिम मनोहर जब चलातीं
प्रिय कटाक्षों से विलासिनी रूप प्रतिमा गढ़ जगातीं
प्रवासी उर में मदन का नवल संदीपन जगा कर
रात शशि के चारु भूषण से हृदय जैसे भूला कर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

तीव्र जलती है तृषा अब भीम विक्रम और उद्यम
भूल अपना, श्वास लेता बार बार विश्राम शमदम
खोल मुख निज जीभ लटका अग्रकेसरचलित केशरि
पास के गज भी न उठ कर मारता है अब मृगेश्वर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

किरण दग्ध, विशुष्क अपने कण्ठ से अब शीत सीकर
ग्रहण करने, तीव्र वर्धित तृषा पीड़ित आर्त्त कातर
वे जलार्थी दीर्घगज भी केसरी का त्याग कर डर
घूमते हैं पास उसके, अग्नि सी बरसी हहर कर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

क्लांत तन मन रे कलापी तीक्ष्ण ज्वाला मे झुलसता
बर्ह में धरशीश बैठे सर्प से कुछ न कहता,
भद्रमोथा सहित कर्म शुष्क-सर को दीर्घ अपने
पोतृमण्डल से खनन कर भूमि के भीतर दुबकने
वराहों के यूथ रत हैं, सूर्य्य-ज्वाला में सुलग कर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्रसे फैला विकल फन
निकल सर से कील भीगे भेक फनतल स्थित अयमन,
निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,
भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,
एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

रवि प्रभा से लुप्त शिर- मणि- प्रभा जिसकी फणिधर
लोल जिहव, अधिर मारुत पीरहा, आलीढ़
सूर्य्य ताप तपा हुआ विष अग्नि झुलसा आर्त्त कातर
त॓षाकुल मण्डूक कुल को मारता है अब न विषधर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

प्यास से आकुल फुलाये वक्त्र नथुने उठा कर मुख
रक्त जिह्व सफेन चंचल गिरि गुहा से निकल उन्मुख
ढ़ूंढने जल चल पड़ा महिषीसमूह अधिर होकर
धूलि उड़ती है खुरों के घात से रूँद ऊष्ण सत्वर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!



सुधर-मधुर विचित्र है जलयन्त्र मन्दिर और गृहो में

चन्द्रकान्ता मणि लटकती, झूलती वातायनों में

सरस चन्दन लेप कर तन ग्लानि हरने को निरत मन,

व्यस्त है सब, लो प्रिये ! अब हँस उठा है नील निस्वन,

तिमिर हर कर, अमृत निर्झर शान्त शशधर मुसकराया,

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !





प्रिया सुख उच्छ्वास कपिल सुप्त मदन जगा रहे है

गीत तन्त्री से उलझ कर गूंज कर पुलका रहे हैं.

शान्त स्तब्ध निशीथ में सुरभित मनोहर हर्म्यतल में

गीत गतिलय में विसुध कामी पिपासा में विकल है,

गूँजती झंकार पर मनुहार स्वर रह-रह कर कँपाया,
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: ऋतुसंहार

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प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !







मेखला से बंध दुकूल सजे सघन मनहर हुए हैं,

अलसभार नितम्ब माँसल-बिम्ब से कंपित हुए हैं

हार के आभरण में स्तन चन्दनांकित हिल रहे हैं

शुद्ध स्नान कषायगंधित अंग, अलकें झूम हँसतीं

रूप की ज्योत्स्ना बिछा कर ग्रीष्म का अवसाद हरतीं

योषिताएँ कामियों को तृप्ति देती हैं मधुतर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



क्वणित नूपुर गूँज, लाक्षा रागरंजित चरण धर-धर

प्रिय नितंबिनि सलज पग-पग पर गुँजाती हंस कल स्वर

मदन छवि साकार करतीं स्वर्ण रशना को डुला कर

तुहिन से सित हार चंदन लिप्त स्तन पर थिरक थिरक कर

इन्द्रजाल न डाल देते, कर न किसका हृदय आतुर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



स्वेद से आतुर, चपल कर वस्त्र निज भारी हटा कर

योषिताएँ बहुमूल् सुरम्य अपने पौंछ सत्वर

गोल उन्नत गौर यौवनमय स्तनों को घेर देतीं

पारदर्श महीन अंशुक में उन्हें बांध लेतीं

शान्ति के निश्वास ले उद्वेग ऊष्मा का हटाकर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



शीत चन्दन सुरभिमय जल सिक्त व्यंजनों का अनिल रे,

कुसुममाला से सुसज्जित पयोधर माँसल सुघर रे

वल्लकी के काकली कल गीत स्वर कोमल लहराते

सुप्त सोये काम को है फिर जगा देते पुलकते,

हेम झीनी किरण बिछ झिलमिल रिझाती रूप छाया

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



निशा में सित हर्म्य में सुख नींद में सोई सुघरवर

योषिताओं के बदन को बार-बार निहार कातर

चन्द्रमा चिर काल तक, फिर रात्रिक्षय में मलिन होकर

लाज में पाण्डुर हुआ-सा है विलम जाता चकित उर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



लूओं पर चढ़ घुमर घिरती धूलि रह-रह हरहरा कर

चण्ड रवि के ताप से धरती धधकती आर्त्र होकर

प्रिय वियोग विदग्ध मानस जो प्रवासी तप्त कातर

असह लगता है उन्हें यह यातना का ताप दुष्कर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



तीव्र आतप तप्त व्याकुल आर्त्त हो महती तृषा से

शुष्कतालू हरिण चंचल भागते हैं वेग धारे

वनांतर में तोय का आभास होता दूर क्षण भर

नील अन्जन-सदृश नभ को वारि शंका में विगुर कर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !



सविभ्रम सस्मित नयन बंकिम मनोहर जब चलातीं

प्रिय कटाक्षों से विलासिनी रूप प्रतिमा गढ़ जगातीं

प्रवासी उर में मदन का नवल संदीपन जगा कर

रात शशि के चारु भूषण से हृदय जैसे भुला कर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!



तीव्र जलती है तृषा अब भीम विक्रम और उद्यम

भूल अपना, श्वास लेता बार-बार विश्राम शमदम

खोल मुख निज जीभ लटका अग्रकेसरचलित केशरि

पास के गज भी न उठ कर मारता है अब मृगेश्वर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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किरण दग्ध, विशुष्क अपने कण्ठ से अब शीत सीकर

ग्रहण करने, तीव्र वर्धित तृषा पीड़ित आर्त्त कातर

वे जलार्थी दीर्घगज भी केसरी का त्याग कर डर

घूमते हैं पास उसके, अग्नि सी बरसी हहर कर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!



क्लांत तन-मन रे कलापी तीक्ष्ण ज्वाला मे झुलसता

बर्ह में धर शीश बैठे सर्प से कुछ न कहता,

भद्रमोथा सहित कर्म शुष्क-सर को दीर्घ अपने

पोतृमण्डल से खनन कर भूमि के भीतर दुबकने

वराहों के यूथ रत हैं, सूर्य्य-ज्वाला में सुलग कर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!



दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्र से फैला विकल फन

निकल सर से कील भीगे भेक फन-तल स्थित अयमन,

निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,

भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,

एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!



रवि प्रभा से लुप्त शिर-मणि-प्रभा जिसकी फणिधर

लोल जिहव, अधिर मारुत पी रहा, आलीढ़

सूर्य्य ताप तपा हुआ विष अग्नि झुलसा आर्त्त कातर

त॓षाकुल मण्डूक कुल को मारता है अब न विषधर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!



प्यास से आकुल फुलाये वक्त्र नथुने उठा कर मुख

रक्त जिह्व सफेन चंचल गिरि-गुहा से निकल उन्मुख

ढ़ूंढने जल चल पड़ा महिषी-समूह अधिर होकर

धूलि उड़ती है खुरों के घात से रूँद ऊष्ण सत्वर

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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लो प्रिये हेमन्त आया!
लिप्त कालीयक तनों पर

सुरत उत्सव का प्रसाधन,

सुखकमल पर दिख रहा

कस्तूरिका का पत्र लेखन,

चिकुर कालागुरु सुगंधित

धूप से, यों तन सजाया

लो प्रिये हेमन्त आया!



लो प्रिये हेमन्त आया!

सुरत श्रम से पाण्डु कृश मुख हो चले, नव रूप धर कर,

तरुण कामी पा रहे हैं हर्ष का उत्कर्ष मनहर,

दसन से क्षत ओष्ठ पीड़ित हो गए हैं केलि करते,

इसलिए वे उच्चारण विमुक्त होकर है न करते

रति चतुरस्त्री ने उसे मुस्कान में अपनी छिपाया,

लो प्रिये हेमन्त आया!

लो प्रिये हेमन्त आया!

दन्त-क्षत से अधर व्याकुल,

तरुण मद से नयन धूर्णित

मीन कुच कर सधन मर्दित

लेप सब करते विचूर्णित,

अंगना तन में सुरत ने

मधुर निर्दय भोग पाया,

लो प्रिये हेमन्त आया!

लो प्रिये हेमन्त आया!

नव प्रवालोद्गम कुसुम प्रिय, लोध पुष्प प्रफुल्ल सुन्दर,

पके शाली, तुहिन हत हो पद्य खोये मलिन होकर,

किन्तु कुसुम राग रंजित अब विलासिनि पनिस्तन है,

रूपरशालिनि वक्ष पे अब कुन्द इन्दु तुषार सित है

हरि मोती के रहे हिल, नयन में उल्लास छाया,

लो प्रिये हेमन्त आया!

लो प्रिये हेमन्त आया!

बाहुयुग्मों पर विलासिनि

के वलय अन्गद नहीं हैं

नव दुकूल न नितम्बों पर

कमल श्री पद में नहीं है,

पीन उन्नत स्तनों पर

अंशुक नहीं वे सूक्ष्म दिखते,

हेम रत्न प्रदीप्त मेखल

से नितम्ब न और सजते,

नुपूरों में हंस रव

बजता न पग-पग पर गुंजाया

प्रिये हेमन्त आया!

लो प्रिये हेमन्त आया!

शोभनीय सुडोल स्तन का

नैशः अतिमर्दन हुआ है

अतः मन में शीत के

कुछ खेद का आतुर हुआ है

भोर पत्तों के किनारों

पर तुहिन जो दिख रहा है

अश्रु है हेमन्त उर के,

पर व्यथा ने है रुलाया

लो प्रिये हेमन्त आया!

लो प्रिये हेमन्त आया!

व्याप्त प्रचुर सुशालि धान्यों

से हुआ रमणीय सुन्दर

हिरनियों के झुण्ड से

शोभित हुआ अब अवनि प्रान्तर

अति मनोहर क्रौञ्च के

कलनाद से गुंजित मनोहर

दूर सीमान्तर ललित तक

एक जादू सा रिझाया,

शोभनीय सुडोल स्तन का

लो प्रिये हेमन्त आया!

लो प्रिये हेमन्त आया!

चिर सुरत कर केलि श्रमश्लथ
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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