गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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चन्दर जब पोस्टकार्ड लिख रहा था तो सुधा ने कहा, ''सुनो, उसे लिख देना कि पापा की सुधा, पापा की जान बचाने के एवज में आपकी बहुत कृतज्ञ है और कभी अगर हो सके तो आप इलाहाबाद जरूर आएँ!...लिख दिया?''
''हाँ!'' चन्दर ने पोस्टकार्ड जेब में रखते हुए कहा।
''चन्दर, हम भी सोशलिस्ट पार्टी के मेम्बर होंगे!'' सुधा ने मचलते हुए कहा।
''चलो, अब तुम्हें नयी सनक सवार हुई। तुम क्या समझ रही हो सोशलिस्ट पार्टी को। राजनीतिक पार्टी है वह। यह मत करना कि सोशलिस्ट पार्टी में जाओ और लौटकर आओ तो पापा से कहो-अरे हम तो समझे पार्टी है, वहाँ चाय-पानी मिलेगा। वहाँ तो सब लोग लेक्चर देते हैं।''
''धत्, हम कोई बेवकूफ हैं क्या?'' सुधा ने बिगडक़र कहा।
''नहीं, सो तो तुम बुद्धिसागर हो, लेकिन लड़कियों की राजनीतिक बुद्धि कुछ ऐसी ही होती है!'' चन्दर बोला।
''अच्छा रहने दो। लड़कियाँ न हों तो काम ही न चले।'' सुधा ने कहा।
''अच्छा, सुधा! आज कुछ रुपये दोगी। हमारे पास पैसे खतम हैं। और सिनेमा देखना है जरा।'' चन्दर ने बहुत दुलार से कहा।
''हाँ-हाँ, जरूर देंगे तुम्हें। मतलबी कहीं के!'' सुधा बोली, ''अभी-अभी तुम लड़कियों की बुराई कर रहे थे न?''
''तो तुम और लड़कियों में से थोड़े ही हो। तुम तो हमारी सुधा हो। सुधा महान।''
सुधा पिघल गयी-''अच्छा, कितना लोगे?'' अपनी पॉकेट में से पाँच रुपये का नोट निकालकर बोली, ''इससे काम चल जाएगा?''
''हाँ-हाँ, आज जरा सोच रहे हैं पम्मी के यहाँ जाएँ, तब सेकेंड शो जाएँ।''
''पम्मी रानी के यहाँ जाओगे। समझ गये, तभी तुमने चाचाजी से ब्याह करने से इनकार कर दिया। लेकिन पम्मी तुमसे तीन साल बड़ी है। लोग क्या कहेंगे?'' सुधा ने छेड़ा।
''ऊँह, तो क्या हुआ जी! सब यों ही चलता है!'' चन्दर हँसकर टाल गया।
''तो फिर खाना यहीं खाये जाओ और कार लेते जाओ।'' सुधा ने कहा।
''मँगाओ!'' चन्दर ने पलँग पर पैर फैलाते हुए कहा। खाना आ गया। और जब तक चन्दर खाता रहा, सुधा सामने बैठी रही और बिनती दौड़-दौडक़र पूड़ी लाती रही।
जब चन्दर पम्मी के बँगले पर पहुँचा तो शाम होने में देर नहीं थी। लेकिन अभी फर्स्ट शो शुरू होने में देरी थी। पम्मी गुलाबों के बीच में टहल रही थी और बर्टी एक अच्छा-सा सूट पहने लॉन पर बैठा था और घुटनों पर ठुड्डी रखे कुछ सोच-विचार में पड़ा था। बर्टी के चेहरे पर का पीलापन भी कुछ कम था। वह देखने से इतना भयंकर नहीं मालूम पड़ता था। लेकिन उसकी आँखों का पागलपन अभी वैसा ही था और खूबसूरत सूट पहनने पर भी उसका हाल यह था कि एक कालर अन्दर था और एक बाहर।
पम्मी ने चन्दर को आते देखा तो खिल गयी। ''हल्लो, कपूर! क्या हाल है। पता नहीं क्यों आज सुबह से मेरा मन कह रहा था कि आज मेरे मित्र जरूर आएँगे। और शाम के वक्त तुम तो इतने अच्छे लगते हो जैसे वह जगमग सितारा जिसे देखकर कीट्स ने अपनी आखिरी सानेट लिखी थी।'' पम्मी ने एक गुलाब तोड़ा और चन्दर के कोट के बटन होल में लगा दिया। चन्दर ने बड़े भय से बर्टी की ओर देखा कि कहीं गुलाब को तोड़े जाने पर वह फिर चन्दर की गरदन पर सवार न हो जाए। लेकिन बर्टी कुछ बोला नहीं। बर्टी ने सिर्फ हाथ उठाकर अभिवादन किया और फिर बैठकर सोचने लगा।
पम्मी ने कहा, ''आओ, अन्दर चलें।'' और चन्दर और पम्मी दोनों ड्राइंग रूम में बैठ गये।
चन्दर ने कहा, ''मैं तो डर रहा था कि तुमने गुलाब तोडक़र मुझे दिया तो कहीं बर्टी नाराज न हो जाए, लेकिन वह कुछ बोला नहीं।''
पम्मी मुसकरायी, ''हाँ, अब वह कुछ कहता नहीं और पता नहीं क्यों गुलाबों से उसकी तबीयत भी इधर हट गयी। अब वह उतनी परवाह भी नहीं करता।''
''क्यों?'' चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।
''पता नहीं क्यों। मेरी तो समझ में यह आता है कि उसका जितना विश्वास अपनी पत्नी पर था वह इधर धीरे-धीरे हट गया और इधर वह यह विश्वास करने लगा है कि सचमुच वह सार्जेंट को प्यार करती थी। इसलिए उसने फूलों को प्यार करना छोड़ दिया।''
''अच्छा! लेकिन यह हुआ कैसे? उसने तो अपने मन में इतना गहरा विश्वास जमा रखा था कि मैं समझता था कि मरते दम तक उसका पागलपन न छूटेगा।'' चन्दर ने कहा।
''नहीं, बात यह हुई कि तुम्हारे जाने के दो-तीन दिन बाद मैंने एक दिन सोचा कि मान लिया जाए अगर मेरे और बर्टी के विचारों में मतभेद है तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं उसके गुलाब चुराकर उसे मानसिक पीड़ा पहुँचाऊँ और उसका पागलपन और बढ़ाऊँ। बुद्धि और तर्क के अलावा भावना और सहानुभूति का भी एक महत्व मुझे लगा और मैंने फूल चुराना छोड़ दिया। दो-तीन दिन वह बेहद खुश रहा, बेहद खुश और मुझे भी बड़ा सन्तोष हुआ कि लो अब बर्टी शायद ठीक हो जाए। लेकिन तीसरे दिन सहसा उसने अपना खुरपा फेंक दिया, कई गुलाब के पौधे उखाड़कर फेंक दिये और मुझसे बोला, ''अब तो कोई फूल भी नहीं चुराता, अब भी वह इन फूलों में नहीं मिलती। वह जरूर सार्जेंट के साथ जाती है। वह मुझे प्यार नहीं करती, हरगिज नहीं करती, और वह रोने लगा।'' बस उसी दिन से वह गुलाबों के पास नहीं जाता और आजकल बहुत अच्छे-अच्छे सूट पहनकर घूमता है और कहता है-क्या मैं सार्जेंट से कम सुन्दर हूँ! और इधर वह बिल्कुल पागल हो गया है। पता नहीं किससे अपने-आप लड़ता रहता है।''
चन्दर ने ताज्जुब से सिर हिलाया।
''हाँ, मुझे बड़ा दु:ख हुआ!'' पम्मी बोली, ''मैंने तो, हमदर्दी की कि फूल चुराने बन्द कर दिये और उसका नतीजा यह हुआ। पता नहीं क्यों कपूर, मुझे लगता है कि हमदर्दी करना इस दुनिया में सबसे बड़ा पाप है। आदमी से हमदर्दी कभी नहीं करनी चाहिए।''
चन्दर ने सहसा अपनी घड़ी देखी।
''क्यों, अभी तुम नहीं जा सकते। बैठो और बातें सुनो, इसलिए मैंने तुम्हें दोस्त बनाया है। आज दो-तीन साल हो गये, मैंने किसी से बातें ही नहीं की हैं और तुमसे इसलिए मैने मित्रता की है कि बातें करूँगी।''
चन्दर हँसा, ''आपने मेरा अच्छा उपयोग ढूँढ़ निकाला।''
''नहीं, उपयोग नहीं, कपूर! तुम मुझे गलत न समझना। जिंदगी ने मुझे इतनी बातें बतायी हैं और यह किताबें जो मैं इधर पढ़ने लगी हूँ, इन्होंने मुझे इतनी बातें बतायी हैं कि मैं चाहती हूँ कि उन पर बातचीत करके अपने मन का बोझ हल्का कर लूँ। और तुम्हें बैठकर सुननी होंगी सभी बातें!''
''हाँ, मैं तैयार हूँ लेकिन किताबें पढ़नी कब से शुरू कर दीं तुमने?'' चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।
''अभी उस दिन मैं डॉ. शुक्ला के यहाँ गयी। उनकी लड़की से मालूम हुआ कि तुम्हें कविता पसन्द है। मैंने सोचा, उसी पर बातें करूँ और मैंने कविताएँ पढ़नी शुरू कर दीं।''
''अच्छा, तो देखता हूँ कि दो-तीन हफ्ते में भाई और बहन दोनों में कुछ परिवर्तन आ गये।''
पम्मी कुछ बोली नहीं, हँस दी।
''मैं सोचता हूँ पम्मी कि आज सिनेमा देखने जाऊँ। कार है साथ में, अभी पन्द्रह मिनट बाकी है। चाहो तो चलो।''
''सिनेमा! आज चार साल से मैं कहीं नहीं गयी हूँ। सिनेमा, हौजी, बाल डांस-सभी जगह जाना बन्द कर दिया है मैंने। मेरा दम घुटेगा हॉल के अन्दर लेकिन चलो देखें, अभी भी कितने ही लोग वैसे ही खुशी से सिनेमा देखते होंगे।'' एक गहरी साँस लेकर पम्मी बोली, ''बर्टी को ले चलोगे?''
''हाँ, हाँ! तो चलो उठो, फिर देर हो जाएगी!'' चन्दर ने घड़ी देखते हुए कहा।
पम्मी फौरन अन्दर के कमरे में गयी और एक जार्जेट का हल्का भूरा गाउन पहनकर आयी। इस रंग से वह जैसे निखर आयी। चन्दर ने उसकी ओर देखा, तो वह लजा गयी और बोली, ''इस तरह से मत देखो। मैं जानती हूँ यह मेरा सबसे अच्छा गाउन है। इसमें कुछ अच्छी लगती होऊँगी। चलो!'' और आकर उसने बेतकल्लुफी से उसके कन्धे पर हाथ रख दिया।
दोनों बाहर आये तो बर्टी लॉन पर घूम रहा था। उसके पैर लडख़ड़ा रहे थे। लेकिन वह बड़ी शान से सीना ताने था। ''बर्टी, आज मिस्टर कपूर मुझे सिनेमा दिखलाने जा रहे हैं। तुम भी चलोगे?''
''हूँ!'' बर्टी ने सिर हिलाकर जोर से कहा, ''सिनेमा जाऊँगा? कभी नहीं। भूलकर भी नहीं। तुमने मुझे क्या समझा है? मैं सिनेमा जाऊँगा?'' धीरे-धीरे उसका स्वर मन्द पड़ गया...''अगर सिनेमा में वह सार्जेंट के साथ मिल गयी तो! तो मैं उसका गला घोंट दूँगा।'' अपने गले को दबाते हुए बर्टी बोला और इतनी जोर से दबा दिया अपना गला कि आँखें लाल हो गयीं और खाँसने लगा। खाँसी बन्द हुई तो बोला, ''वह मुझे प्यार नहीं करती। वह सार्जेंट को प्यार करती है। वह उसी के साथ घूमती है। अगर वह मिल जाएगी सिनेमा में तो उसकी हत्या कर डालूँगा, तो पुलिस आएगी और खेल खत्म हो जाएगा। तुम जानते हो मि. कपूर, मैं उससे कितना नफरत करता हूँ...और...और लेकिन नहीं, कौन जानता है मैं नफरत करता होऊँ और वह मुझे...कुछ समझ में नहीं आता, मैं पागल हूँ, ओफ।'' और वह सिर थामकर बैठ गया।
पम्मी ने चन्दर का हाथ पकडक़र कहा, ''चलो, यहाँ रहने से उसका दिमाग और खराब होगा। आओ!''
दोनों जाकर कार में बैठे। चन्दर खुद ही ड्राइव कर रहा था। पम्मी बोली, ''बहुत दिन से मैंने कार नहीं ड्राइव की है। लाओ, आज ड्राइव करूँ।''
पम्मी ने स्टीयरिंग अपने हाथ में ले ली। चन्दर इधर बैठ गया।
थोड़ी देर में कार रीजेंट के सामने जा पहुँची। चित्र था-'सेलामी, ह्वेयर शी डांस्ड' ('सेलामी, जहाँ वह नाची थी')। चन्दर ने टिकट लिया और दोनों ऊपर बैठ गये। अभी न्यूज रील चल रही थी। सहसा पम्मी ने कहा, ''कपूर, सेलामी की कहानी मालूम है?''
''न! क्या यह कोई उपन्यास है!'' चन्दर ने पूछा।
''नहीं, यह बाइबिल की एक कहानी है। असल में एक राजा था हैराद। उसने अपने भाई को मारकर उसकी पत्नी से अपनी शादी कर ली। उसकी भतीजी थी सेलामी, जो बहुत सुन्दर थी और बहुत अच्छा नाचती थी। हैराद उस पर मुग्ध हो गया। लेकिन सेलामी एक पैगम्बर पर मुग्ध थी। पैगम्बर ने सेलामी के प्रणय को ठुकरा दिया। एक बार हैराद ने सेलामी से कहा कि यदि तुम नाचो तो मैं तुम्हें कुछ दे सकता हूँ। सेलामी नाची और पुरस्कार में उसने अपना अपमान करने वाले पैगम्बर का सिर माँगा! हैराद वचनबद्ध था। उसने पैगम्बर का सिर तो दे दिया लेकिन बाद में इस भय से कि कहीं राज्य पर कोई आपत्ति न आये, उसने सेलामी को भी मरवा डाला।''
चन्दर को यह कहानी बहुत अच्छी लगी। तब तो चित्र बहुत ही अच्छा होगा, उसने सोचा। सुधा की परीक्षा है वरना सुधा को भी दिखला देता। लेकिन क्या नैतिकता है इन पाश्चात्य देशों की कि अपनी भतीजी पर ही हैराद मुग्ध हो गया। उसने कहा पम्मी से-
''लेकिन हैराद अपनी भतीजी पर ही मुग्ध हो गया?''
''तो क्या हुआ! यह तो सेक्स है मि. कपूर। सेक्स कितनी भयंकर शक्तिशाली भावना है, यह भी शायद तुम नहीं समझते। अभी तुम्हारी आँखों में बड़ा भोलापन है। तुम रूप की आग के संसार से दूर मालूम पड़ते हो, लेकिन शायद दो-एक साल बाद तुम भी जानोगे कि यह कितनी भयंकर चीज है। आदमी के सामने वक्त-बेवक्त, नाता-रिश्ता, मर्यादा-अमर्यादा कुछ भी नहीं रह जाता। वह अपनी भतीजी पर मोहित हुआ तो क्या? मैंने तो तुम्हारे यहाँ एक पौराणिक कहानी पढ़ी थी कि महादेव अपनी लड़की सरस्वती पर मुग्ध हो गये।''
''महादेव नहीं, ब्रह्मा।'' चन्दर बोला।
''हाँ, हाँ, ब्रह्माï। मैं भूल गयी थी। तो यह तो सेक्स है। आदमी को कहाँ ले जाता है, यह अन्दाज भी नहीं किया जा सकता। तुम तो अभी बच्चों की तरह भोले हो और ईश्वर न करे तुम कभी इस प्याले का शरबत चखो। मैं भी तो तुम्हारी इसी पवित्रता को प्यार करती हूँ।'' पम्मी ने चन्दर की ओर देखकर कहा, ''तुम जानते हो, मैंने तलाक क्यों दिया? मेरा पति मुझे बहुत चाहता था लेकिन मैं विवाहित जीवन के वासनात्मक पहलू से घबरा उठी! मुझे लगने लगा, मैं आदमी नहीं हूँ बस मांस का लोथड़ा हूँ जिसे मेरा पति जब चाहे मसल दे, जब चाहे...ऊब गयी थी! एक गहरी नफरत थी मेरे मन में। तुम आये तो तुम बड़े पवित्र लगे। तुमने आते ही प्रणय-याचना नहीं की। तुम्हारी आँखों में भूख नहीं थी। हमदर्दी थी, स्नेह था, कोमलता थी, निश्छलता थी। मुझे तुम काफी अच्छे लगे। तुमने मुझे अपनी पवित्रता देकर जिला दिया...।''
चन्दर को एक अजब-सा गौरव अनुभव हुआ और पम्मी के प्रति एक बहुत ऊँची आदर-भावना। उसने पवित्रता देकर जिला दिया। सहसा चन्दर के मन में आया-लेकिन यह उसके व्यक्तित्व की पवित्रता किसकी दी हुई है। सुधा की ही न! उसी ने तो उसे सिखाया है कि पुरुष और नारी में कितने ऊँचे सम्बन्ध रह सकते हैं।
''क्या सोच रहे हो?'' पम्मी ने अपना हाथ कपूर की गोद में रख दिया।
कपूर सिहर गया लेकिन शिष्टाचारवश उसने अपना हाथ पम्मी के कन्धे पर रख दिया। पम्मी ने दो क्षण के बाद अपना हाथ हटा लिया और बोली, ''कपूर, मैं सोच रही हूँ अगर यह विवाह संस्था हट जाए तो कितना अच्छा हो। पुरुष और नारी में मित्रता हो। बौद्धिक मित्रता और दिल की हमदर्दी। यह नहीं कि आदमी औरत को वासना की प्यास बुझाने का प्याला समझे और औरत आदमी को अपना मालिक। असल में बँधने के बाद ही, पता नहीं क्यों सम्बन्धों में विकृति आ जाती है। मैं तो देखती हूँ कि प्रणय विवाह भी होते हैं तो वह असफल हो जाते हैं क्योंकि विवाह के पहले आदमी औरत को ऊँची निगाह से देखता है, हमदर्दी और प्यार की चीज समझता है और विवाह के बाद सिर्फ वासना की। मैं तो प्रेम में भी विवाह-पक्ष में नहीं हूँ और प्रेम में भी वासना का विरोध करती हूँ।''
''लेकिन हर लड़की ऐसी थोड़े ही होती है!'' चन्दर बोला, ''तुम्हें वासना से नफरत हो लेकिन हर एक को तो नहीं।''
''हर एक को होती है। लड़कियाँ बस वासना की झलक, एक हल्की सिहरन, एक गुदगुदी पसन्द करती हैं। बस, उसी के पीछे उन पर चाहे जो दोष लगाया जाय लेकिन अधिकतर लड़कियाँ कम वासनाप्रिय होती हैं, लड़के ज्यादा।''
चित्र शुरू हो गया। वह चुप हो गयी। लेकिन थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि चित्र भ्रमात्मक था। वह बाइबिल की सेलामी की कहानी नहीं थी। वह एक अमेरिकन नर्तकी और कुछ डाकुओं की कहानी थी। पम्मी ऊब गयी। अब जब डाकू पकडक़र सेलामी को एक जंगल में ले गये तो इंटरवल हो गया और पम्मी ने कहा, ''अब चलो, आधे ही चित्र से तबीयत ऊब गयी।''
दोनों उठ खड़े हुए और नीचे आये।
''कपूर, अबकी बार तुम ड्राइव करो!'' पम्मी बोली।
''नहीं, तुम्हीं ड्राइव करो'' कपूर बोला।
''कहाँ चलें,'' पम्मी ने स्टार्ट करते हुए कहा।
''जहाँ चाहो।'' कपूर ने विचारों में डूबे हुए कहा।
पम्मी ने गाड़ी खूब तेज चला दी। सड़कें साफ थीं। पम्मी का कालर फहराने लगा और उड़कर चन्दर के गालों पर थपकियाँ लगाने लगा। चन्दर दूर खिसक गया। पम्मी ने चन्दर की ओर देखा और बजाय कालर ठीक करने के, गले का एक बटन और खोल दिया और चन्दर को पास खींच लिया। चन्दर चुपचाप बैठ गया। पम्मी ने एक हाथ स्टीयरिंग पर रखा और एक हाथ से चन्दर का हाथ पकड़े रही जैसे वह चन्दर को दूर नहीं जाने देगी। चन्दर के बदन में एक हल्की सिहरन नाच रही थी। क्यों? शायद इसलिए कि हवा ठंडी थी या शायद इसलिए कि...उसने पम्मी का हाथ अपने हाथ से हटाने की कोशिश की। पम्मी ने हाथ खींच लिया और कार के अन्दर की बिजली जला दी।
कपूर चुपचाप ठाकुर साहब के बारे में सोचता रहा। कार चलती रही। जब चन्दर का ध्यान टूटा तो उसने देखा कार मैकफर्सन लेक के पास रुकी है।
दोनों उतरे। बीच में सड़क थी, इधर नीचे उतरकर झील और उधर गंगा बह रही थी। आठ बजा होगा। रात हो गयी थी, चारों तरफ सन्नाटा था। बस सितारों की हल्की रोशनी थी। मैकफर्सन झील काफी सूख गयी थी। किनारे-किनारे मछली मारने के मचान बने थे।
''इधर आओ!'' पम्मी बोली। और दोनों नीचे उतरकर मचान पर जा बैठे। पानी का धरातल शान्त था। सिर्फ कहीं-कहीं मछलियों के उछलने या साँस लेने से पानी हिल जाता था। पास ही के नीवाँ गाँव में किसी के यहाँ शायद शादी थी जो शहनाई का हल्का स्वर हवाओं की तरंगों पर हिलता-डुलता हुआ आ रहा था। दोनों चुपचाप थे। थोड़ी देर बाद पम्मी ने कहा, ''कपूर, चुपचाप रहो, कुछ बात मत करना। उधर देखो पानी में। सितारों का प्रतिबिम्ब देख रहे हो। चुप्पे से सुनो, ये सितारे क्या बातें कर रहे हैं।''
पम्मी सितारों की ओर देखने लगी। कपूर चुपचाप पम्मी की ओर देखता रहा। थोड़ी देर बाद सहसा पम्मी एक बाँस से टिककर बैठ गयी। उसके गले के दो बटन खुले हुए थे। और उसमें से रूप की चाँदनी फटी पड़ती थी। पम्मी आँखें बन्द किये बैठी थी। चन्दर ने उसकी ओर देखा और फिर जाने क्यों उससे देखा नहीं गया। वह सितारों की ओर देखने लगा। पम्मी के कालर के बीच से सितारे टूट-टूटकर बरस रहे थे।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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सहसा पम्मी ने आँखें खोल दीं और चन्दर का कन्धा पकडक़र बोली, ''कितना अच्छा हो अगर आदमी हमेशा सम्बन्धों में एक दूरी रखे। सेक्स न आने दे। ये सितारे हैं, देखो कितने नजदीक हैं। करोड़ों बरस से साथ हैं, लेकिन कभी भी एक दूसरे को छूते तक नहीं, तभी तो संग निभ जाता है।'' सहसा उसकी आवाज में जाने क्या छलक आया कि चन्दर जैसे मदहोश हो गया-बोली वह-''बस ऐसा हो कि आदमी अपने प्रेमास्पद को निकटतम लाकर छोड़ दे, उसको बाँधे न। कुछ ऐसा हो कि होठों के पास खींचकर छोड़ दे।'' और पम्मी ने चन्दर का माथा होठों तक लाकर छोड़ दिया। उसकी गरम-गरम साँसें चन्दर की पलकों पर बरस गयीं...''कुछ ऐसा हो कि आदमी उसे अपने हृदय तक खींचकर फिर हटा दे।'' और चन्दर को पम्मी ने अपनी बाँहों में घेरकर अपने वक्ष तक खींचकर छोड़ दिया। वक्ष की गरमाई चन्दर के रोम-रोम में सुलग उठी, वह बेचैन हो उठा। उसके मन में आया कि वह अभी यहाँ से चला जाए। जाने कैसा लग रहा था उसे। सहसा पम्मी बोली, ''लेकिन नहीं, हम लोग मित्र हैं और कपूर, तुम बहुत पवित्र हो, निष्कलंक हो और तुम पवित्र रहोगे। मैं जितनी दूरी, जितना अन्तर, जितनी पवित्रता पसन्द करती हूँ, वह तुममें है और हम लोगों में हमेशा निभेगी जैसे इन सितारों में हमेशा निभती आयी है।''
चन्दर चुपचाप सोचने लगा, ''वह पवित्र है। एकाएक उसका मन जैसे ऊबने लगा। जैसे एक विहग शिशु घबराकर अपने नीड़ के लिए तड़प उठता है, वैसे ही वह इस वक्त तड़प उठा सुधा के पास जाने के लिए-क्यों? पता नहीं क्यों? यहाँ कुछ है जो उसे जकड़ लेना चाहता है। वह क्या करे?
पम्मी उठी, वह भी उठा। बाँस का मचान हिला। लहरों में हरकत हुई। करोड़ों साल से अलग और पवित्र सितारे हिले, आपसे में टकराये और चूर-चूर होकर बिखर गये।
रात-भर चन्दर को ठीक से नींद नहीं आयी। अब गरमी काफी पड़ने लगी थी। एक सूती चादर से ज्यादा नहीं ओढ़ा जाता था और चन्दर ने वह भी ओढ़ना छोड़ दिया था, लेकिन उस दिन रात को अक्सर एक अजब-सी कँपकँपी उसे झकझोर जाती थी और वह कसकर चादर लपेट लेता था, फिर जब उसकी तबीयत घुटने लगती तो वह उठ बैठता था। उसे रात-भर नींद नहीं आयी; बार-बार झपकी आयी और लगा कि खिड़की के बाहर सुनसान अँधेरे में से अजब-सी आवाजें आती हैं और नागिन बनकर उसकी साँसों में लिपट जाती हैं। वह परेशान हो उठता है, इतने में फिर कहीं से कोई मीठी सतरंगी संगीत की लहर आती है और उसे सचेत और सजग कर जाती है। एक बार उसने देखा कि सुधा और गेसू कहीं चली जा रही हैं। उसने गेसू को कभी नहीं देखा था लेकिन उसने सपने में गेसू को पहचान लिया। लेकिन गेसू तो पम्मी की तरह गाउन पहने हुए थी! फिर देखा बिनती रो रही है और इतना बिलख-बिलखकर रो रही है कि तबीयत घबरा जाए। घर में कोई नहीं है। चन्दर समझ नहीं पाता कि वह क्या करे! अकेले घर में एक अपरिचित लड़की से बोलने का साहस भी नहीं होता उसका। किसी तरह हिम्मत करके वह समीप पहुँचा तो देखा अरे, यह तो सुधा है। सुधा लुटी हुई-सी मालूम पड़ती है। वह बहुत हिम्मत करके सुधा के पास बैठ गया। उसने सोचा, सुधा को आश्वासन दे लेकिन उसके हाथों पर जाने कैसे सुकुमार जंजीरें कसी हुई हैं। उसके मुँह पर किसी की साँसों का भार है। वह निश्चेष्ट है। उसका मन अकुला उठा। वह चौंककर जाग गया तो देखा वह पसीने से तर है। वह उठकर टहलने लगा। वह जाग गया था लेकिन फिर भी उसका मन स्वस्थ नहीं था। कमरे में ही टहलते-टहलते वह फिर लेट गया। लगा जैसे सामने की खुली खिडक़ी से सैकड़ों तारे टूट-टूटकर भयानक तेजी से आ रहे हैं और उसके माथे से टकरा-टकराकर चूर-चूर हो जाते हैं। एक मर्मान्तक पीड़ा उसकी नसों में खौल उठी और लगा जैसे उसके अंग-अंग में चिताएँ धधक रही हैं।
जैसे-तैसे रात कटी और सुबह उठते ही वह यूनिवर्सिटी जाने से पहले सुधा के यहाँ गया। सुधा लेटी हुई पढ़ रही थी। डॉ. शुक्ला पूजा कर रहे थे। बुआजी शायद रात को चली गयी थीं। क्योंकि बिनती बैठी तरकारी काट रही थी और खुश नजर आ रही थी। चन्दर सुधा के कमरे में गया। देखते ही सुधा मुसकरा पड़ी। बोली कुछ नहीं लेकिन आते ही उसने चन्दर के अंग-अंग को अपनी निगाहों के स्वागत में समेट लिया। चन्दर सुधा के पैरों के पास बैठ गया।
''कल रात को तुम कार लेकर वापस आये तो चुप्पे से चले गये!'' सुधा बोली, ''कहो, कल कौन-सा खेल देखा?''
''कल बहुत बड़ा खेल देखा; बहुत बड़ा खेल, सुधी!'' चन्दर व्याकुलता से बोला, ''अरे जाने कैसा मन हो गया कि रात-भर नींद ही नहीं आयी।'' और उसके बाद चन्दर सब बता गया। कैसे वह सिनेमा गया। उसने पम्मी से क्या बात की। उसके बाद कैसे कार पर उसने चन्दर को पास खींच लिया। कैसे वे लोग मैकफर्सन झील गये और वहाँ पम्मी पागल हो गयी। फिर कैसे चन्दर को एकदम सुधा की याद आने लगी और फिर रात-भर चन्दर को कैसे-कैसे सपने आये। सुधा बहुत गम्भीर होकर मुँह में पेन्सिल दबाये कुहनी टेके बस चुपचाप सुनती रही और अन्त में बोली, ''तो तुम इतने परेशान क्यों हो गये, चन्दर! उसने तो अच्छी ही बात कही थी। यह तो अच्छा ही है कि ये सब जिसे तुम सेक्स कहते हो, यह सम्बन्धों में न आए। उसमें क्या बुराई है? क्या तुम चाहते हो कि सेक्स आए?''
''कभी नहीं, तुम मुझे अभी तक नहीं समझ पायीं।''
''तो ठीक है, तुम भी नहीं चाहते कि सेक्स आए और वह भी नहीं चाहती कि सेक्स आए तो झगड़ा क्या है? क्यों, तुम उदास क्यों हो इतने?'' सुधा बोली बड़े अचरज से।
''लेकिन उसका व्यवहार कैसा है?'' चन्दर ने सुधा से कहा।
''ठीक तो है। उसने बता दिया तुम्हें कि इतना अन्तर होना चाहिए। समझ गये। तुम लालची आदमी, चाहते होगे यह भी अन्तर न रहे! इसीलिए तुम उदास हो गये, छिह!'' होंठों में मुसकराहट और आँखों में शरारत की झलक छिपाते हुए सुधा बोली।
''तुम तो मजाक करने लगीं।'' चन्दर बोला।
सुधा सिर्फ चन्दर की ओर देखकर मुसकराती रही। चन्दर सामने लगी हुई तसवीर की ओर देखता रहा। फिर उसने सुधा के कबूतरों-जैसे उजले मासूम नन्हे पैर अपने हाथ में ले लिये और भर्रायी हुई आवाज में बोला, ''सुधा, तुम कभी हम पर विश्वास न हार बैठना।''
सुधा ने किताब बन्द करके रख दी और उठकर बैठ गयी। उसने चन्दर के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, ''पागल कहीं के! हमें कहते हो, अभी सुधा में बचपन है और तुममें क्या है! वाह रे छुईमुई के फूल! किसी ने हाथ पकड़ लिया, किसी ने बदन छू लिया तो घबरा गये! तुमसे अच्छी लड़कियाँ होती हैं।'' सुधा ने उसके दोनों हाथ झकझोरते हुए कहा।
''नहीं सुधी, तुम नहीं समझतीं। मेरी जिंदगी में एक ही विश्वास की चट्टान है। वह हो तुम। मैं जानता हूँ कि कितने ही जल-प्रलय हों लेकिन तुम्हारे सहारे मैं हमेशा ऊपर रहूँगा। तुम मुझे डूबने नहीं दोगी। तुम्हारे ही सहारे मैं लहरों से खेल भी सकता हूँ। लेकिन तुम्हारा विश्वास अगर कभी हिला तो मैं किन अँधेरी गहराइयों में डूब जाऊँगा, यह कभी मैं सोच नहीं पाता।'' चन्दर ने बड़े कातर स्वर में कहा।
सुधा बहुत गम्भीर हो गयी। क्षण-भर वह चन्दर के चेहरे की ओर देखती रही, फिर चन्दर के माथे पर झूलती हुई एक लट को ठीक करती हुई बोली, ''चन्दर, और मैं किसके विश्वास पर चल रही हूँ, बोलो! लेकिन मैंने तो कभी नहीं कहा कि चन्दर अपना विश्वास मत हारना! और क्या कहूँ। मुझे अपने चन्दर पर पूरा विश्वास है। मरते दम तक विश्वास रहेगा। फिर तुम्हारा मन इतना डगमगा क्यों गया? बुरी बात है न?''
चन्दर ने सुधा के कन्धे पर अपना सिर रख दिया। सुधा ने उसका हाथ लेकर कहा, ''लाओ, यहाँ छुआ था पम्मी ने तुम्हें!'' और उसका हाथ होठों तक ले गयी। चन्दर काँप गया, आज सुधा को यह क्या हो गया है। लेकिन होंठों तक हाथ ले जाकर झाड़ने-फूँकनेवालों की तरह सुधा ने फूँककर कहा, ''जाओ, तुम्हारे हाथ से पम्मी के स्पर्श का जहर उतर गया। अब तो ठीक हो गये! पवित्र हो गये! छू-मन्तर!''
चन्दर हँस पड़ा। उसका मन शान्त हो गया। सुधा में जादू था। सचमुच जादू था। बिनती चाय ले आयी। दो प्याले। सुधा बोली, ''अपने लिए भी लाओ।'' बिनती ने सिर हिलाया।
सुधा ने चन्दर की ओर देखकर कहा, ''ये पगली जाने क्यों तुमसे झेंपती है?''
''झेंपती कहाँ हूँ?'' बिनती ने प्रतिवाद किया और प्याला भी ले आयी और जमीन पर बैठ गयी। सुधा ने प्याला मुँह से लगाया और बोली, ''चन्दर, तुमने पम्मी को गलत समझा है। पम्मी बहुत अच्छी लड़की है। तुमसे बड़ी भी है और तुमसे ज्यादा समझदार, और उसी तरह व्यवहार भी करती है। तुम अगर कुछ सोचते हो तो गलत सोचते हो। मेरा मतलब समझ गये न।''
''जी हाँ, गुरुआनीजी, अच्छी तरह से!'' चन्दर ने हाथ जोडक़र विनम्रता से कहा। बिनती हँस पड़ी और उसकी चाय छलक गयी। नीचे रखी हुई चन्दर की जरीदार पेशावरी सैंडिल भीग गयी। बिनती ने झुककर एक अँगोछे से उसे पोंछना चाहा तो सुधा चिल्ला उठी-''हाँ-हाँ, छुओ मत। कहीं इनकी सैंडिल भी बाद में आके न रोने लगे। सुन बिनती, एक लड़की ने कल इन्हें छू लिया तो आप आज उदास थे। अभी तुम सैंडिल छुओ तो कहीं जाके कोतावली में रपट न कर दें।''
चन्दर हँस पड़ा। और उसका मन धुलकर ऐसे निखर गया जैसे शरद का नीलाभ आकाश।
''अब पम्मी के यहाँ कब जाओगे?'' सुधा ने शरारत-भरी मुसकराहट से पूछा।
''कल जाऊँगा! ठाकुर साहब पम्मी के हाथ अपनी कार बेच रहे हैं तो कागज पर दस्तखत करना है।'' चन्दर ने कहा, ''अब मैं निडर हूँ। कहो बिनती, तुम्हारे ससुर का क्या कोई खत नहीं आया।''
बिनती झेंप गयी। चन्दर चल दिया।
थोड़ी दूर जाकर फिर मुड़ा और बोला, ''अच्छा सुधा, आज तक जो काम हो बता दो फिर एक महीने तक मुझसे कोई मतलब नहीं। हम थीसिस पूरी करेंगे। समझीं?''
''समझे!'' हाथ पटककर सुधा बोली।
सचमुच डेढ़ महीने तक चन्दर को होश नहीं रहा कि कहाँ क्या हो रहा है। बिसरिया रोज सुधा और बिनती को पढ़ाने आता रहा, सुधा और बिनती दोनों ही का इम्तहान खत्म हो गया। पम्मी दो बार सुधा और चन्दर से मिलने आयी लेकिन चन्दर एक बार भी उसके यहाँ नहीं गया। मिश्रा का एक खत बरेली से आया लेकिन चन्दर ने उसका भी जवाब नहीं दिया। डॉक्टर साहब ने अपनी पुस्तक के दो अध्याय लिख डाले लेकिन उसने एक दिन भी बहस नहीं की। बिनती उसे बराबर चाय, दूध, नाश्ता, शरबत और खरबूजा देती रही लेकिन चन्दर ने एक बार भी उसके ससुर का नाम लेकर नहीं चिढ़ाया। सुधा क्या करती है, कहाँ जाती है, चन्दर से क्या कहती है, चन्दर को कोई होश नहीं, बस उसका पेन, उसके कागज, स्टडीरूम की मेज और चन्दर है कि आखिर थीसिस पूरी करके ही माना।
7 मई को जब उसने थीसिस का आखिरी पन्ना लिखकर पूरा किया और सन्तोष की साँस ली तो देखा कि शाम के पाँच बजे हैं, सायबान में अभी परदा पड़ा है लेकिन धूप उतार पर है और लू बन्द हो गयी है। उसकी कुर्सी के पीछे एक चटाई बिछाये हुए सुधा बैठी है। ह्यूगो का अधपढ़ा हुआ उपन्यास बगल में खुला हुआ औंधा पड़ा है और आप चन्दर की एक मोटी-सी इकनॉमिक्स की किताब खोले उस पर कलम से कुछ गोदा-गोदी कर रही है।
''सुधा!'' एक गहरी साँस लेकर अँगड़ाई लेते हुए चन्दर ने कहा, ''लो, आज आखिरकार जान छूटी। बस, अब दो-तीन महीने में माबदौलत डॉक्टर बन जाएँगे!''
सुधा अपने कार्य में व्यस्त। चन्दर ने क्या कहा, यह सुनकर भी गुम। चन्दर ने हाथ बढ़ाकर चोटी झटक दी। ''हाय रे! हमें नहीं अच्छा लगता, चन्दर!'' सुधा बिगडक़र बोली, ''तुम्हारे काम के बीच में कोई बोलता है तो बिगड़ जाते हो और हमारा काम थोड़े ही महत्वपूर्ण है!'' कहकर सुधा फिर पेन लेकर गोदने लगी।
''आखिर कौन-सा उपनिषद लिख रही हैं आप? जरा देखें तो!'' चन्दर ने किताब खींच ली। टाजिग की इकनॉमिक्स की किताब में एक पूरे पन्ने पर सुधा ने एक बिल्ली बनायी थी और अगर निगाह जरा चूक जाए तो आप कह नहीं सकते थे यह चौरासी लाख योनियों में से किस योनि का जीव है, लेकिन चूँकि सुधा कह रही है कि यह बिल्ली है, इसलिए मानना होगा कि यह बिल्ली ही है।
चन्दर ने सुधा की बाँह पकडक़र कहा, ''उठ! आलसी कहीं की, चल उठा ये पोथा! चलके पापा के पैर छू आएँ?''
सुधा चुपचाप उठी और आज्ञाकारी लड़की की तरह मोटी फाइल उठा ली। दरवाजे तक पहुँचकर रुक गयी और चन्दर के कन्धे पर फाइलें टिकाकर बोली, ''ऐ चन्दर, तो सच्ची अब तुम डॉक्टर हो जाओगे?''
''और क्या?''
''आहा!'' कहकर जो सुधा उछली तो फाइल हाथ से खिसकी और सभी पन्ने जमीन पर।
चन्दर झल्ला गया। उसने गुस्से से लाल होकर एक घूँसा सुधा को मार दिया। ''अरे राम रे!'' सुधा ने पीठ सीधी करते हुए कहा, ''बड़े परोपकारी हो डॉक्टर चन्दर कपूर! हमें बिना थीसिस लिखे डिग्री दे दी! लेकिन बहुत जोर की थी!''
चन्दर हँस पड़ा।
खैर दोनों पापा के पास गये। वे भी लिखकर ही उठे थे और शरबत पी रहे थे। चन्दर ने जाकर कहा, ''पूरी हो गयी।'' और झुककर पैर छू लिये। उन्होंने चन्दर को सीने से लगाकर कहा, ''बस बेटा, अब तुम्हारी तपस्या पूरी हो गयी। अब जुलाई से यूनिवर्सिटी में जरूर आ जाओगे तुम!''
सुधा ने पोथा कोच पर रख दिया और अपने पैर बढ़ाकर खड़ी हो गयी। ''ये क्या?'' पापा ने पूछा।
''हमारे पैर नहीं छुएँगे क्या?'' सुधा ने गम्भीरता से कहा।
''चल पगली! बहुत बदतमीज होती जा रही है!'' पापा ने कृत्रिम गुस्से से कहा, ''चन्दर! बहुत सिर चढ़ी हो गयी है। जरा दबाकर रखा करो। तुमसे छोटी है कि नहीं?''
''अच्छा पापा, अब आज मिठाई मिलनी चाहिए।'' सुधा बोली, ''चन्दर ने थीसिस खत्म की है?''
''जरूर, जरूर बेटी!'' डॉक्टर शुक्ला ने जेब से दस का नोट निकालकर दे दिया, ''जाओ, मिठाई मँगवाकर खाओ तुम लोग।''
सुधा हाथ में नोट लिये उछलते हुए स्टडी रूम में आयी, पीछे-पीछे चन्दर। सुधा रुक गयी और अपने मन में हिसाब लगाते हुए बोली, ''दस रुपये पौंड ऊन। एक पौंड में आठ लच्छी। छह लच्छी में एक शाल। बाकी बची दो लच्छी। दो लच्छी में एक स्वेटर। बस एक बिनती का स्वेटर, एक हमारा शाल।''
चन्दर का माथा ठनका। अब मिठाई की उम्मीद नहीं। फिर भी कोशिश करनी चाहिए।
''सुधा, अभी से शाल का क्या करोगी? अभी तो बहुत गरमी है!'' चन्दर बोला।
''अबकी जाड़े में तुम्हारा ब्याह होगा तो आखिर हम लोग नयी-नयी चीज का इन्तजाम करें न। अब डॉक्टर हुए, अब डॉक्टरनी आएँगी!'' सुधा बोली।
खैर, बहुत मनाने-बहलाने-फुसलाने पर सुधा मिठाई मँगवाने को राजी हुई। जब नौकर मिठाई लेने चला गया तो चन्दर ने चारों ओर देखकर पूछा, ''कहाँ गयी बिनती? उसे भी बुलाओ कि अकेले-अकेले खा लोगी!''
''वह पढ़ रही है मास्टर साहब से!''
''क्यों? इम्तहान तो खत्म हो गया, अब क्या पढ़ रही है?'' चन्दर ने पूछा।
''विदुषी का दूसरा खण्ड तो दे रही है न सितम्बर में!'' सुधा बोली।
''अच्छा, बुलाओ बिसरिया को भी!'' चन्दर बोला।
''अच्छा, मिठाई आने दो।'' सुधा ने कहा और फाइल की ओर देखकर कहा, ''मुझे इस कम्बख्त पर बहुत गुस्सा आ रहा है।''
''क्यों?''
''इसकी वजह से तुम डेढ़ महीने सीधे से बोले तक नहीं। इम्तहान वाले दिन सुबह-सुबह तुम्हें हाथ जोडऩे आयी तो तुमने सिर पर हाथ भी नहीं रखा!'' सुधा ने शिकायत के स्वर में कहा।
''तो अब आशीर्वाद दे दें। अब तो खत्म हुई थीसिस। अब जितना चाहो बात कर लो। थीसिस न लिखते तो फिर तुम्हारे चन्दर को उपाधि कहाँ से मिलती?'' चन्दर ने दुलार से कहा।
''तो फिर कन्वोकेशन पर तुम्हारी गाउन हम पहनकर फोटो खिंचाएँगे!'' सुधा मचलकर बोली। इतने में नौकर मिठाई ले आया। ''जाओ, बिनतीजी को बुला लाओ।'' चन्दर ने कहा।
बिनती आयी।
''तुम पढ़ चुकी!'' चन्दर ने पूछा।
''अभी नहीं।'' बिनती बोली।
''अच्छा, अब आज पढ़ाई बन्द करो, उन्हें भी बुला लाओ। मिठाई खाई जाए।'' चन्दर ने कहा।
''अच्छा!'' कहकर बिनती जो मुड़ी तो सुधा बोली, ''अरे लालचिन! ये तो पूछ ले कि मिठाई काहे की है?''
''मुझे मालूम है!'' बिनती मुसकराती हुई बोली, ''उनके यहाँ आज गये होंगे, पम्मी के यहाँ फिर आज कुछ उस दिन जैसी बात हुई होगी।''
सुधा हँस पड़ी। चन्दर झेंप गया। बिनती चली गयी बिसरिया को बुलाने।
''अब तो ये तुमसे बोलने लगी!'' सुधा ने कहा।
''हाँ, यह है बड़ी सुशील लड़की और बहुत शान्त। हमें बहुत अच्छी लगती है। बोलना तो जैसे आता ही नहीं इसे।''
''हाँ, लेकिन अब खूब सीख रही है। इसकी गुरु मिली है गेसू। हमसे भी ज्यादा गेसू से पटने लगी है इसकी। दोनों ब्याह करने जा रही हैं और दोनों उसी की बातें करती हैं जब मिलती हैं तब।'' सुधा बोली।
''और कविता भी करती है यह, तुम एक बार कह रही थीं?'' चन्दर ने पूछा।
''नहीं जी, असल में एक बड़ी सुन्दर-सी नोट-बुक थी, उसमें यह जाने क्या लिखती थी? हमें नहीं दिखाती थी। बाद में हमने देखा कि एक डायरी है। उसमें धोबी का हिसाब लिखती थी।''
''तो कविता नहीं लिखतीं! ताज्जुब है, वरना सोलह बरस के बाद प्रेम करके कविता करना तो लड़कियों का फैशन हो गया है, उतना ही व्यापक जितना उलटा पल्ला ओढ़ना।'' चन्दर बोला।
''चला तुम्हारा नारी-पुराण!'' सुधा बिगड़ी।
मिठाई खाने वाले आये। आगे-आगे बिनती, पीछे-पीछे बिसरिया। अभिवादन के बाद बिसरिया बैठ गया। ''कहो बिसरिया, तुम्हारी शिष्या कैसी है?''
''बस अद्वितीय।'' कवि बिसरिया ने सिर हिलाकर कहा। सुधा मुसकरा दी, चन्दर की ओर देखकर।
''और ये सुधा कैसी थी?''
''बस अद्वितीय।'' बिसरिया ने उसी तरह कहा।
''दोनों अद्वितीय हैं? साथ ही!'' चन्दर ने पूछा।
सुधा और बिनती दोनों हँस दीं। बिसरिया नहीं समझ पाया कि उसने कौन-सी हँसने की बात की थी और जब नहीं समझ पाया तो पहले सिर खुजलाने लगा फिर खुद भी हँस पड़ा। उसकी हँसी पर तीनों और हँस पड़े।
''चन्दर, मास्टर साहब भी खूब हैं। एक दिन बिनती को महादेवी की वह कविता पढ़ा रहे थे, 'विरह का जलजात जीवन,' तो पढ़ते-पढ़ते बड़ी गहरी साँस भरने लगे।''
चन्दर और बिनती दोनों हँस पड़े। बिसरिया पहले तो खुद हँसा फिर बोला, ''हाँ भाई, क्या करें, कपूर! तुम तो जानते ही हो, मैं बहुत भावुक हूँ। मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। एक बार तो ऐसा हुआ कि पर्चे में एक करुण रस का गीत आ गया अर्थ लिखने को। मैं उसे पढ़ते ही इतना व्यथित हो गया कि उठकर टहलने लगा। प्रोफेसर समझे मैं दूसरे लड़के की कॉपी देखने उठा हूँ, तो उन्होंने निकाल दिया। मुझे निकाले जाने का अफसोस नहीं हुआ लेकिन कविता पढक़र मुझे बहुत रुलाई आयी।''
सुधा हँसी तो चन्दर ने आँख के इशारे से मना किया और गम्भीरता से बोला, ''हाँ भाई बिसरिया, सो तो सही है ही। तुम इतने भावुक न हो तो इतना अच्छा कैसे लिख सकते हो? तो तुमने पर्चा छोड़ दिया?''
''हाँ, मैं पर्चे वगैरह की क्या परवाह करता हूँ? मेरे लिए इन सभी वस्तुओं का कुछ भी अर्थ नहीं। मैं भावना की उपासना करता हूँ। उस समय परीक्षा देने की भावना से ज्यादा सबल उस कविता की करुण भावना थी। और इस तरह मैं कितनी बार फेल हो चुका हूँ। मेरे साथ वह पढ़ता था न हरिहर टंडन, वह अब बस्ती कॉलेज का प्रिन्सिपल है। एक मेरा सहपाठी था, वह रेडियो का प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव है...''
''और एक तुम्हारा सहपाठी तो हमने सुना कि असेम्बली का स्पीकर भी है!'' चन्दर बात काटकर बोला। सुधा फिर हँस पड़ी। बिनती भी हँस पड़ी।
खैर मिठाई का भोग प्रारम्भ हुआ। बिसरिया कुछ तकल्लुफ कर रहा था तो बिनती बोली, ''खाइए, मिठाई तो विरह-रोग और भावुकता में बहुत स्वास्थ्यप्रद होती है!''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

''अच्छा, अब तो बिनती का कंठ फूट निकला! अपने गुरुजी को बना रही है।'' चन्दर बोला।
बिसरिया थोड़ी देर बाद चला गया। ''अब मुझे एक पार्टी में जाना है।'' उसने कहा। जब आखिर में एक रसगुल्ला बच रहा तो बिनती हाथ में लेकर बोली, ''कौन लेगा?'' आज पता नहीं क्यों बिनती बहुत खुश थी और बहुत बोल रही थी।
चन्दर बोला, ''हमें दो!''
सुधा बोली, ''हमें!''
बिनती ने एक बार चन्दर की ओर देखा, एक बार सुधा की ओर। चन्दर बोला, ''देखें बिनती हमारी है या सुधा की है।''
बिनती ने झट रसगुल्ला सुधा के मुख में रख दिया और सुधा के सिर पर सिर रखकर बोली-
''हम अपनी दीदी के हैं!'' सुधा ने आधा रसगुल्ला बिनती को दे दिया तो बिनती चन्दर को दिखलाकर खाते हुए सुधा से बोली, ''दीदी, ये हमें बहुत बनाते हैं, अब हम भी तुम्हारी तरह बोलेंगे तो इनका दिमाग ठीक हो जाएगा।''
''हम-तुम दोनों मिलके इनका दिमाग ठीक करेंगे?'' सुधा ने प्यार से बिनती को थपथपाते हुए कहा, ''अब हम तश्तरियाँ धोकर रख दें।'' और तश्तरियाँ उठाकर चल दी।
''पानी नहीं दोगी?'' चन्दर बोला।
बिनती पानी ले आयी और बोली, ''हम तो आपका इतना काम करते हैं और आप जब देखो तब हमें बनाते रहते हैं। आपको क्या आनन्द आता है हमें बनाने में?''
चन्दर ने पल-भर बिनती की ओर देखा और बोला, ''असल में बनने के बाद जब तुम झेंप जाती हो तो...हाँ ऐसे ही।''
बिनती ने फिर झेंपकर मुँह छिपा लिया और लाज से सकुचाकर इन्द्रवधू बन गयी। बिनती देखने-सुनने में बड़ी अच्छी थी। उसकी गठन तो सुधा की तरह नहीं थी लेकिन उसके चेहरे पर एक फिरोजी आभा थी जिसमें गुलाल के डोरे थे। आँखें उसकी बड़ी-बड़ी और पलकों में इस तरह डोलती थीं जैसे किसी सुकुमार सीपी में कोई बहुत बड़ा मोती डोले। झेंपती थी तो मुँह पर साँझ मुसकरा उठती थी और गालों में फूलों के कटोरों जैसे दो छोटे-छोटे गड्ढो। और बिनती के अंग-अंग में एक रूप की लहर थी जो नागिन की तरह लहराती थी और उसकी आदत थी कि बात करते समय अपनी गरदन जरा टेढ़ी कर लेती थी और अँगुलियों से अपने आँचल का छोर उमेठने लगती थी।
इस वक्त चन्दर की बात पर झेंप गयी और उसी तरह आँचल के छोर को उमेठती हुई, मुसकान छिपाकर उसने ऐसी निगाह से चन्दर की ओर देखा जिसमें थोड़ी लाज, थोड़ा गुस्सा, थोड़ी प्रसन्नता और थोड़ी शरारत थी।
चन्दर एकदम बोला उठा, ''अरे सुधा, सुधा, जरा बिनती की आँख देखो इस वक्त!''
''आयी अभी।'' बगल के कमरे में तश्तरी रखते हुए सुधा बोली।
''बड़े खराब हैं आप?'' बिनती बोली।
''हाँ, बनाओगी न आज से हमें? हमारा दिमाग ठीक करोगी न? बहुत बोल रही थी, अब बताओ!''
''बताएँ क्या? अभी तक हम बोलते नहीं थे तभी न?''
''अब अपनी ससुराल में बोलना टुइयाँ ऐसी! वहीं तुम्हारे बोल पर रीझेंगे लोग।'' चन्दर ने फिर छेड़ा।
''छिह, राम-राम! ये सब मजाक हमसे मत किया कीजिए। दीदी से क्यों नहीं कहते जिनकी अभी शादी होने जा रही है।''
''अभी उनकी कहाँ, अभी तो तय भी नहीं हुई।''
''तय ही समझिए, फोटो इनकी उन लोगों ने पसन्द कर ली। अच्छा एक बात कहें, मानिएगा!'' बिनती बड़े आग्रह और दीनता के स्वर में बोली।
''क्या?'' चन्दर ने आश्चर्य से पूछा। बिनती आज सहसा कितना बोलने लगी है। बिनती बोली, नीचे जमीन की ओर देखती हुई-''आप हमसे ब्याह के बारे में मजाक न किया कीजिए, हमें अच्छा नहीं लगता।''
''ओहो, ब्याह अच्छा लगता है लेकिन उसके बारे में मजाक नहीं। गुड़ खाया गुलगुले से परहेज!''
''हाँ, यही तो बात है।'' बिनती सहसा गम्भीर हो गयी-''आप समझते होंगे कि मैं ब्याह के लिए उत्सुक हूँ, दीदी भी समझती हैं; लेकिन मेरा ही दिल जानता है कि ब्याह की बात सुनकर मुझे कैसा लगने लगता है। लेकिन फिर भी मैंने ब्याह करने से इनकार नहीं किया। खुद दौड़-दौडक़र उस दिन दुबेजी की सेवा में लगी रही, इसलिए कि आप देख चुके हैं कि माँ का व्यवहार मुझसे कैसा है? आप यहाँ इस परिवार को देखकर समझ नहीं सकते कि मैं वहाँ कैसे रहती हूँ, कैसे माँजी की बातें बर्दाश्त करती हूँ, वह नरक है मेरे लिए, माँ की गोद नरक है और मैं किसी तरह निकल भागना चाहती हूँ। कुछ चैन तो मिलेगा!'' बिनती की आँखों में आँसू आ गये और सिसकती हुई बोली, ''लेकिन आप या दीदी जब यह कहते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं कितनी नीच हूँ, कितनी पतित हूँ कि खुद अपने ब्याह के लिए व्याकुल हूँ, लेकिन आप न कहा करें तो अच्छा है!'' बिनती को आँसुओं का तार बँध गया था।
सुधा बगल के कमरे से सब कुछ सुन रही थी। आयी और चन्दर से बोली, ''बहुत बुरी बात है, चन्दर! बिनती, क्यों रो रही हो, रानी? बुआ का स्वभाव ही ऐसा है, उससे हमेशा अपना दिल दुखाने से क्या लाभ?'' और पास जाकर उसको छाती से लगाकर सुधा बोली, ''मेरी राजदुलारी! अब रोना मत, ऐं! अच्छा, हम लोग कभी मजाक नहीं करेंगे! बस अब चुप हो जाओ, रानी बिटिया की तरह जाओ मुँह धो आओ।''
बिनती चली गयी। चन्दर लज्जित-सा बैठा था।
''लो, अब तुम्हें भी रुलाई आ रही है क्या?'' सुधा ने बहुत दुलार से कहा, ''तुम उससे ससुराल का मजाक मत किया करो। वह बहुत दु:खी है और बहुत कदर करती है तुम्हारी। और किसी की मजाक की बात और है। हम या तुम कहते हैं तो उसे लग जाता है।''
''अच्छा, वो कह रही थी, तुम्हारी फोटो उन लोगों ने पसन्द कर ली है''-चन्दर ने बात बदलने के खयाल से कहा।
''और क्या, कोई हमारी शक्ल तुम्हारी तरह है कि लोग नापसन्द कर दें।'' सुधा अकड़कर बोली।
''नहीं, सच-सच बताओ?'' चन्दर ने पूछा।
''अरे जी,'' लापरवाही से मुँह बिचकाकर सुधा बोली, ''उनके पसन्द करने से क्या होता है? मैं ब्याह-उआह नहीं करूँगी। तुम इस फेर में न रहना कि हमें निकाल दोगे यहाँ से।''
इतने में बिनती आ गयी। वह भी उदास थी। सुधा उठी और बिनती को पकड़ लायी और ढकेलकर चन्दर के बगल में बिठा दिया।
''लो, चन्दर! अब इसे दुलार कर लो तो अभी गुरगुराने लगे। बिल्ली कहीं की!'' सुधा ने उसे हल्की-सी चपत मारकर कहा। बिनती का मुँह अपनी हथेलियों में लेकर अपने मुँह के पास लाकर आँखों में आँख डालकर कहा, ''पगली कहीं की, आँसू का खजाना लुटाती फिरती है।''
''चन्दर!'' डॉ. शुक्ला ने पुकारा और चन्दर उठकर चला गया।
सुधा पर इन दिनों घूमना सवार था। सुबह हुई कि चप्पल पहनी और गायब। गेसू, कामिनी, प्रभा, लीला शायद ही कोई लड़की बची होगी जिसके यहाँ जाकर सुधा ऊधम न मचा आती हो, और चार सुख-दु:ख की बातें न कर आती हो। बिनती को घूमना कम पसन्द था, हाँ जब कभी सुधा गेसू के यहाँ जाती थी तो बिनती जरूर जाती थी, उसे सुधा की सभी मित्रों में गेसू सबसे ज्यादा पसन्द थी। डॉक्टर शुक्ला के ब्यूरो में छुट्टी हो चुकी थी पर वे सुधा का ब्याह तय करने की कोशिश कर रहे थे। इसलिए वह बाहर भी नहीं गये थे। चन्दर डेढ़ महीने तक लगातार मेहनत करने के बाद पढ़ाई-लिखाई की ओर से आराम कर रहा था और उसने निश्चित कर लिया था कि अब बरसात के पहले वह किताब छुएगा नहीं। बड़े आराम के दिन कटते थे उसके। सुबह उठकर साइकिल पर गंगा नहाने जाता था और वहाँ अक्सर ठाकुर साहब से भी मुलाकात हो जाती थी। डॉक्टर शुक्ला ने भी कई दफे इरादा किया कि वे गंगाजी चला करें लेकिन एक तो उनसे दिन में काम नहीं होता था, शाम को वे घूमते और सुबह उठकर किताब लिखते थे।
एक दिन सुबह लिख रहे थे कि चन्दर आया और उनके पैर छूकर बोला, ''प्रान्तीय सरकार का वह पुरस्कार कल शाम को आ गया!''
''कौन-सा?''
''वह जो उत्तर प्रान्त में माता और शिशुओं की मृत्यु-संख्या पर मैंने निबन्ध लिखा था, उसी पर।''
''तो क्या पदक आ गया?'' डॉक्टर शुक्ला ने कहा।
''जी,'' अपनी जेब में से एक मखमली डिब्बा निकालकर चन्दर ने दिया। पदक बहुत सुन्दर था। जगमगाता हुआ स्वर्णपदक जिसमें प्रान्तीय राजमुद्रा अंकित थी।
''ईश्वर तुम्हें बहुत यशस्वी करे जीवन में।'' डॉक्टर शुक्ला ने पदक उसकी कमीज में अपने हाथों से लगा दिया, ''जाओ, अन्दर सुधा को दिखा आओ।''
चन्दर जाने लगा तो डॉक्टर साहब ने बुलाया, ''अच्छा, अब सुधा की शादी का इन्तजाम करना है। हमसे तो कुछ होने से रहा, तुम्हीं को सब करना होगा। और सुनो, जेठ दशहरा को लड़के का भाई और माँ देखने आ रही हैं। और बहन भी आएँगी गाँव से।''
''अच्छा?'' चन्दर बैठ गया कुर्सी पर और बोला, ''कहाँ है लड़का? क्या करता है?''
''लड़का शाहजहाँपुर में है। घर के जमींदार हैं ये लोग। लड़का एम. ए. है। और अच्छे विचारों का है। उसने लिखा है कि सिर्फ दस आदमी बारात में आएँगे, एक दिन रुकेंगे। संस्कार के बाद चले जाएँगे। सिवा लड़की के गहने-कपड़े और लड़के के गहने-कपड़ों के और कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे।''
''अच्छा, ब्राह्मणों में तो ऐसा कुल नहीं मिलेगा।''
''तभी तो! सुधा की किस्मत है, वरना तुम बिनती के ससुर को तो देख ही चुके हो। अच्छा जाओ, सुधा से मिल आओ।''
वह सुधा के कमरे में आ गया। सुधा थी ही नहीं। वह आँगन में आया। देखा महराजिन खाना बना रही है और बिनती बरामदे में बुरादे की अँगीठी पर पकोड़ियाँ बना रही है।
''आइए,'' बिनती बोली, ''दीदी तो गयी हैं गेसू को बुलाने। आज गेसू की दावत है।...पीढ़े पर बैठिएगा, लीजिए।'' एक पीढ़ा चन्दर की ओर बिनती ने खिसका दिया। चन्दर बैठ गया। बिनती ने उसके हाथ में मखमली डिब्बा देखा तो पूछा, ''यह क्या लाये? कुछ दीदी के लिए है क्या? यह तो अँगूठी मालूम पड़ती है।''
''अँगूठी, वह क्या दाल में मिला के खाएगी! जंगली कहीं की! उसे क्या तमीज है अँगूठी पहनने की!''
''हमारी दीदी के लिए ऐसी बात की तो अच्छा नहीं होगा, हाँ!'' उसे बिनती ने उसी तरह गरदन टेढ़ी कर आँखें डुलाते हुए धमकाया-''उन्हें नहीं अँगूठी पहननी आएगी तो क्या आपको आएगी? अब ब्याह में सोलहों सिंगार करेंगी! अच्छा, दीदी कैसी लगेंगी घूँघट काढ़ के? अभी तक तो सिर खोले चकई की तरह घूमती-फिरती हैं।''
''तुमने तो डाल ली आदत, ससुराल में रहने की!'' चन्दर ने बिनती से कहा।
''अरे हमारा क्या!'' एक गहरी साँस लेते हुए बिनती ने कहा, ''हम तो उसी के लिए बने थे। लेकिन सुधा दीदी को ब्याह-शादी में न फँसना पड़ता तो अच्छा था। दीदी इन सबके लिए नहीं बनी थीं। आप मामाजी से कहते क्यों नहीं?''
चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपचाप बैठा हुआ सोचता रहा। बिनती भी कड़ाही में से पकौड़ियाँ निकाल-निकालकर थाली में रखने लगी। थोड़ी देर बाद जब वह घी में पकौड़ियाँ डाल चुकी तब भी वह वैसे ही गुमसुम बैठा सोच रहा था।
''क्या सोच रहे हैं आप? नहीं बताइएगा। फिर अभी हम दीदी से कह देंगे कि बैठ-बैठे सोच रहे थे।'' बिनती बोली।
''क्या तुम्हारी दीदी का डर पड़ा है?'' चन्दर ने कहा।
''अपने दिल से पूछिए। हमसे नहीं बन सकते आप!'' बिनती ने मुसकराकर कहा और उसके गालों में फूलों के कटोरे खिल गये-''अच्छा, इस डिब्बे में क्या है, कुछ प्राइवेट!''
''नहीं जी, प्राइवेट क्या होगा, और वह भी तुमसे? सोने का मेडल है। मिला है मुझे एक लेख पर।'' और चन्दर ने डिब्बा खोलकर दिखला दिया।
''आहा! ये तो बहुत अच्छा है। हमें दे दीजिए।'' बिनती बोली।
''क्या करेगी तू?'' चन्दर ने हँसकर पूछा।
''अपने आनेवाले जीजाजी के लिए कान के बुन्दे बनवा लेंगे।'' बिनती बोली, ''अरे हाँ, आपको एक चीज दिखाएँगे।''
''क्या?''
''यह नहीं बताते। देखिएगा तो उछल पडि़एगा।''
''तो दिखाओ न!''
''अभी तो दीदी आ रही होंगी। दीदी के सामने नहीं दिखाएँगे।''
''सुधा से छिपाकर हम कुछ नहीं कर सकते, यह तुम जानती हो।'' चन्दर बोला।
''छिपाने की बात थोड़े ही है। देखकर तब उन्हें बता दीजिएगा। वैसे वह खुद ही सुधा दीदी से क्या छिपाते हैं? लो, सुधा दीदी तो आ गयीं...''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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चन्दर ने पीछे मुडक़र देखा। सुधा के हाथ में एक लम्बा-सा सरकंडा था और उसे झंडे की तरह फहराती हुई चली आ रही थी। चन्दर हँस पड़ा।
''खिल गये दीदी को देखते ही!'' बिनती बोली और एक गरम पकौड़ी चन्दर के ऊपर फेंक दी।
''अरे, बड़ी शैतान हो गयी हो तुम इधर! पाजी कहीं की!'' चन्दर बोला।
सुधा चप्पल उतारकर अन्दर आयी। झूमती-इठलाती हुई चली आ रही थी।
''कहो, सेठ स्वार्थीमल!'' उसने चन्दर को देखते ही कहा, ''सुबह हुई और पकौड़ी की महक लग गयी तुम्हें!'' पीढ़ा खींचकर उसके बगल में बैठ गयी और सरकंडा चन्दर के हाथ पर रखते हुए बोली, ''लो, यह गन्ना। घर में बो देना। और गँडेरी खाना! अच्छा!'' और हाथ बढ़ाकर वह डिबिया उठा ली और बोली, ''इसमें क्या है? खोलें या न खोलें?''
''अच्छा, खत तक तो हमारे बिना पूछे खोल लेती हो। इसे पूछ के खोलोगी!''
''अरे हमने सोचा शायद इस डिबिया में पम्मी का दिल बन्द हो। तुम्हारी मित्र है, शायद स्मृति-चिह्नï में वही दे दिया हो।'' और सुधा ने डिबिया खोली तो उछल पड़ी, ''यह तो उसी निबन्ध पर मिला है जिसका चार्ट तुम बनाये थे!''
''हाँ!''
''तब तो ये हमारा है।'' डिबिया अपने वक्ष में छिपाकर सुधा बोली।
''तुम्हारा तो है ही। मैं अपना कब कहता हूँ?'' चन्दर ने कहा।
''लगाकर देखें!'' और उठकर सुधा चल दी।
''बिनती, दो पकौड़ी तो दो।'' और दो पकौड़ियाँ लेकर खाते हुए चन्दर सुधा के कमरे में गया। देखा, सुधा शीशे के सामने खड़ी है और मेडल अपनी साड़ी में लगा रही है। वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। सुधा ने मेडल लगाया और क्षण-भर तनकर देखती रही फिर उसे एक हाथ से वक्ष पर चिपका लिया और मुँह झुकाकर उसे चूम लिया।
''बस, कर दिया न गन्दा उसे!'' चन्दर मौका नहीं चूका।
और सुधा तो जैसे पानी-पानी। गालों से लाज की रतनारी लपटें फूटीं और एड़ी तक धधक उठीं। फौरन शीशे के पास से हट गयी और बिगड़कर बोली, ''चोर कहीं के! क्या देख रहे थे?''
बिनती इतने में तश्तरी में पकौड़ी रखकर ले आयी। सुधा ने झट से मेडल उतार दिया और बोली, ''लो, रखो सहेजकर।''
''क्यों, पहने रहो न!''
''ना बाबा, परायी चीज, अभी खो जाये तो डाँड़ भरना पड़े।'' और मेडल चन्दर की गोद में रख दिया।
बिनती ने धीमे से कहा, ''या मुरली मुरलीधर की अधरा न धरी अधरा न धरौंगी।''
चन्दर और सुधा दोनों झेंप गये। ''लो, गेसू आ गयी।''
सुधा की जान में जान आ गयी। चन्दर ने बिनती का कान पकडक़र कहा, ''बहुत उलटा-सीधा बोलने लगी है!''
बिनती ने कान छुड़ाते हुए कहा, ''कोई झूठ थोड़े ही कहती हूँ!''
चन्दर चुपचाप सुधा के कमरे में पकौडिय़ाँ खाता रहा। बगल के कमरे में सुधा, गेसू, फूल और हसरत बैठे बातें करते रहे। बिनती उन लोगों को नाश्ता देती रही। उस कमरे में नाश्ता पहुँचाकर बिनती एक गिलास में पानी लेकर चन्दर के पास आयी और पानी रखकर बोली, ''अभी हलुआ ला रही हूँ, जाना मत!'' और पल-भर में तश्तरी में हलुआ रखकर ले आयी।
''अब मैं चल रहा हूँ!'' चन्दर ने कहा।
''बैठो, अभी हम एक चीज दिखाएँगे। जरा गेसू से बात कर आएँ।'' बिनती बड़े भोले स्वर में बोली, ''आइए, हसरत मियाँ।'' और पल-भर में नन्हें-मुन्ने-से छह वर्ष के हसरत मियाँ तनजेब का कुरता और चूड़ीदार पायजामे पर पीले रेशम की जाकेट पहने कमरे में खरगोश की तरह उछल आये।
''आदाबर्ज।'' बड़े तमीज से उन्होंने चन्दर को सलाम किया।
चन्दर ने उसे गोद में उठाकर पास बिठा दिया। ''लो, हलुआ खाओ, हसरत!''
हसरत ने सिर हिला दिया और बोला, ''गेसू ने कहा था, जाकर चन्दर भाई से हमारा आदाब कहना और कुछ खाना मत! हम खाएँगे नहीं।''
चन्दर बोला, ''हमारा भी नमस्ते कह दो उनसे जाकर।''
हसरत उठ खड़ा हुआ-''हम कह आएँ।'' फिर मुडक़र बोला, ''आप तब तक हलुआ खत्म कर देंगे?''
चन्दर हँस पड़ा, ''नहीं, हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे, जाओ।''
हसरत सिर हिलाता हुआ चला गया।
इतने में सुधा आयी और बोली, ''गेसू की गजल सुनो यहाँ बैठकर। आवाज आ रही है न! फूल भी आयी है इसलिए गेसू तुम्हारे सामने नहीं आएगी वरना फूल अम्मीजान से शिकायत कर देगी। लेकिन वह तुमसे मिलने को बहुत इच्छुक है, अच्छा यहीं से सुनना बैठे-बैठे...''
सुधा चली गयी। गेसू ने गाना शुरू किया बहुत महीन, पतली लेकिन बेहद मीठी आवाज में जिसमें कसक और नशा दोनों घुले-मिले थे। चन्दर एक तकिया टेककर बैठ गया और उनींदा-सा सुनने लगा। गजल खत्म होते ही सुधा भागकर आयी-''कहो, सुन लिया न!'' और उसके पीछे-पीछे आया हसरत और सुधा के पैरों में लिपटकर बोला, ''सुधा, हम हलुआ नहीं खाएँगे!''
सुधा हँस पड़ी, ''पागल कहीं का। ले खा।'' और उसके मुँह में हलुआ ठूँस दिया। हसरत को गोद में लेकर वह चन्दर के पास बैठ गयी और गेसू के बारे में बताने लगी, ''गेसू गर्मियाँ बिताने नैनीताल जा रही है। वहीं अख्तर की अम्मी भी आएँगी और मँगनी की रस्म वहीं पूरी करेंगी। अब वह पढ़ेगी नहीं। जुलाई तक उसका निकाह हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से जा रहे हैं ये लोग। वगैरह-वगैरह।''
बिनती बैठी-बैठी गेसू और फूल से बातें करती रही। थोड़ी देर बाद सुधा उठकर चली गयी। तुम जाना मत, आज खाना यहीं खाना, मैं बिनती को तुम्हारे पास भेज रही हूँ, उससे बातें करते रहना।''
थोड़ी देर बाद बिनती आयी। उसके हाथ में कुछ था जिसे वह अपने आँचल से छिपाये हुई थी। आयी और बोली, ''अब दीदी नहीं हैं, जल्दी से देख लीजिए।''
''क्या है?'' चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।
''जीजाजी की फोटो।'' बिनती ने मुसकराकर कहा और एक छोटी-सी बहुत कलात्मक फोटो चन्दर के हाथ में रख दी।
''अरे यह तो मिश्र है। कॉमरेड कैलाश मिश्र।'' और चन्दर के दिमाग में बरेली की बातें, लाठी चार्ज...सभी कुछ घूम गया। चन्दर के मन में इस वक्त जाने कैसा-सा लग रहा था। कभी बड़ा अचरज होता, कभी एक सन्तोष होता कि चलो सुधा के भाग्य की रेखा उसे अच्छी जगह ले गयी, फिर कभी सोचता कि मिश्र इतना विचित्र स्वभाव का है, सुधा की उससे निभेगी या नहीं? फिर सोचता, नहीं सुधा भाग्यवान है। इतना अच्छा लड़का मिलना मुश्किल था।
''आप इन्हें जानते हैं?'' बिनती ने पूछा।
''हाँ, सुधा भी उन्हें नाम से जानती है शक्ल से नहीं। लेकिन अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा लड़का।'' चन्दर ने एक गहरी साँस लेकर कहा और फिर चुप हो गया। बिनती बोली, ''क्या सोच रहे हैं आप?''
''कुछ नहीं।'' पलकों में आये हुए आँसू रोककर और होठों पर मुसकान लाने की कोशिश करते हुए बोला, ''मैं सोच रहा हूँ, आज कितना सन्तोष है मुझे, कितनी खुशी है मुझे, कि सुधा एक ऐसे घर जा रही है जो इतना अच्छा है, ऐसे लड़के के साथ जा रही है जो इतना ऊँचा''...कहते-कहते चन्दर की आँखें भर आयीं।
बिनती चन्दर के पास खड़ी होकर बोली, ''छिह, चन्दर बाबू! आपकी आँखों में आँसू! यह तो अच्छा नहीं लगता। जितनी पवित्रता और ऊँचाई से आपने सुधा के साथ निबाह किया है, यह तो शायद देवता भी नहीं कर पाते और दीदी ने आपको जैसा निश्छल प्यार दिया है उसको पाकर तो आदमी स्वर्ग से भी ऊँचा उठ जाता है, फौलाद से भी ज्यादा ताकतवर हो जाता है, फिर आज इतने शुभ अवसर पर आप में कमजोरी कहाँ से? हमें तो बड़ी शरम लग रही है। आज तक दीदी तो दूर, हम तक को आप पर गर्व था। अच्छा, मैं फोटो रख तो आऊँ वरना दीदी आ जाएँगी!'' बिनती ने फोटो ली और चली गयी।
बिनती जब लौटी तो चन्दर स्वस्थ था। बिनती की ओर क्षण भर चन्दर ने देखा और कहा, ''मैं इसलिए नहीं रोया था बिनती, मुझे यह लगा कि यहाँ कैसा लगेगा। खैर जाने दो।''
''एक दिन तो ऐसा होता ही है न, सहना पड़ेगा!'' बिनती बोली।
''हाँ, सो तो है; अच्छा बिनती, सुधा ने यह फोटो देखी है?'' चन्दर ने पूछा।
''अभी नहीं, असल में मामाजी ने मुझसे कहा था कि यह फोटो दिखा दे सुधा को; लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। मैंने उनसे कह दिया कि चन्दर आएँगे तो दिखा देंगे। आप जब ठीक समझें तो दिखा दें। जेठ दशहरा अगले ही मंगल को है।'' बिनती ने कहा।
''अच्छा।'' एक गहरी साँस लेकर चन्दर बोला।
बिनती थोड़ी देर तक चन्दर की ओर एकटक देखती रही। चन्दर ने उसकी निगाह चुरा ली और बोला, ''क्या देख रही हो, बिनती?''
''देख रही हूँ कि आपकी पलकें झपकती हैं या नहीं?'' बिनती बहुत गम्भीरता से बोली।
''क्यों?''
''इसलिए कि मैंने सुना था, देवताओं की पलकें कभी नहीं गिरतीं।''
चन्दर एक फीकी हँसी हँसकर रह गया।
''नहीं, आप मजाक न समझें। मैंने अपनी जिंदगी में जितने लोग देखे, उनमें आप-जैसा कोई भी नहीं मिला। कितने ऊँचे हैं आप, कितना विशाल हृदय है आपका! दीदी कितनी भाग्यशाली हैं।''
चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। ''जाओ, फोटो ले आओ।'' उसने कहा, ''आज ही दिखा दूँ। जाओ, खाना भी ले आओ। अब घर जाकर क्या करना है।''
पापा को खाना खिलाने के बाद चन्दर और सुधा खाने बैठे। महराजिन चली गयी थी। इसलिए बिनती सेंक-सेंककर रोटी दे रही थी। सुधा एक रेशमी सनिया पहने चौके के अन्दर खा रही थी। और चन्दर चौके के बाहर। सुबह के कच्चे खाने में डॉक्टर शुक्ला बहुत छूत-छात का विचार रखते थे।
''देखो, आज बिनती ने रोटी बनायी है तो कितनी मीठी लग रही है, एक तुम बनाती हो कि मालूम ही नहीं पड़ता रोटी है कि सोख्ता!'' चन्दर ने सुधा को चिढ़ाते हुए कहा।
सुधा ने हँसकर कहा, ''हमें बिनती से लड़ाने की कोशिश कर रहे हो! बिनती की हमसे जिंदगी-भर लड़ाई नहीं हो सकती!''
''अरे हम सब समझते हैं इनकी बात!'' बिनती ने रोटी पटकते हुए कहा और जब सुधा सिर झुकाकर खाने लगी तो बिनती ने आँख के इशारे से पूछा, ''कब दिखाओगे?''
चन्दर ने सिर हिलाया और फिर सुधा से बोला, ''तुम उन्हें चिट्ठी लिखोगी?''
''किन्हें?''
''कैलाश मिश्रा को, वही बरेली वाले? उन्होंने हमें खत लिखा था उसमें तुम्हें प्रणाम लिखा था।'' चन्दर बोला।
''नहीं, खत-वत नहीं लिखते। उन्हें एक दफे बुलाओ तो यहाँ।''
''हाँ, बुलाएँगे अब महीने-दो महीने बाद, तब तुमसे खूब परिचय करा देंगे और तुम्हें उसकी पार्टी में भी भरती करा देंगे।'' चन्दर ने कहा।
''क्या? हम मजाक नहीं करते? हम सचमुच समाजवादी दल में शामिल होंगे।'' सुधा बोली, ''अब हम सोचते हैं कुछ काम करना चाहिए, बहुत खेल-कूद लिये, बचपन निभा लिया।''
''उन्होंने अपना चित्र भेजा है। देखोगी?'' चन्दर ने जेब में हाथ डालते हुए पूछा।
''कहाँ?'' सुधा ने बहुत उत्सुकता से पूछा, ''निकालो देखें।''
''पहले बताओ, हमें क्या इनाम दोगी? बहुत मुश्किल से भेजा उन्होंने चित्र!'' चन्दर ने कहा।
''इनाम देंगे इन्हें!'' सुधा बोली और झट से झपटकर चित्र छीन लिया।
''अरे, छू लिया चौके में से?'' बिनती ने दबी जबान से कहा।
सुधा ने थाली छोड़ दी। अब छू गयी थी वह; अब खा नहीं सकती थी।
''अच्छी फोटो देखी दीदी। सामने की थाली छूट गयी!'' बिनती ने कहा।
सुधा ने हाथ धोकर आँचल के छोर से पकडक़र फोटो देखी और बोली, ''चन्दर, सचमुच देखो! कितने अच्छे लग रहे हैं। कितना तेज है चेहरे पर, और माथा देखो कितना ऊँचा है।'' सुधा फोटो देखती हुई बोली।
''अच्छी लगी फोटो? पसन्द है?'' चन्दर ने बहुत गम्भीरता से पूछा।
''हाँ, हाँ, और समाजवादियों की तरह नहीं लगते ये।'' सुधा बोली।
''अच्छा सुधा, यहाँ आओ।'' और चन्दर के साथ सुधा अपने कमरे में जाकर पलँग पर बैठ गयी। चन्दर उसके पास बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी अँगूठी घुमाते हुए बोला, ''सुधा, एक बात कहें, मानोगी?''
''क्या?'' सुधा ने बहुत दुलार और भोलेपन से पूछा।
''पहले बता दो कि मानोगी?'' चन्दर ने उसकी अँगूठी की ओर एकटक देखते हुए कहा।
''फिर, हमने कभी कोई बात तुम्हारी टाली है! क्या बात है?''
''तुम मानोगी चाहे कुछ भी हो?'' चन्दर ने पूछा।
''हाँ-हाँ, कह तो दिया। अब कौन-सी तुम्हारी ऐसी बात है जो तुम्हारी सुधा नहीं मान सकती!'' आँखों में, वाणी में, अंग-अंग से सुधा के आत्मसमर्पण छलक रहा था।
''फिर अपनी बात पर कायम रहना, सुधा! देखो!'' उसने सुधा की उँगलियाँ अपनी पलकों से लगाते हुए कहा, ''सुधी मेरी! तुम उस लड़के से ब्याह कर लो!''
''क्या?'' सुधा चोट खायी नागिन की तरह तड़प उठी-''इस लड़के से? यही शकल है इसकी हमसे ब्याह करने की! चन्दर, हम ऐसा मजाक नापसन्द करते हैं, समझे कि नहीं! इसलिए बड़े प्यार से बुला लाये, बड़ा दुलार कर रहे थे!''
''तुम अभी वायदा कर चुकी हो!'' चन्दर ने बहुत आजिजी से कहा।
''वायदा कैसा? तुम कब अपने वायदे निभाते हो? और फिर यह धोखा देकर वायदा कराना क्या? हिम्मत थी तो साफ-साफ कहते हमसे! हमारे मन में आता सो कहते। हमें इस तरह से बाँध कर क्यों बलिदान चढ़ा रहे हो!'' और सुधा मारे गुस्से के रोने लगी।
चन्दर स्तब्ध। उसने इस दृश्य की कल्पना ही नहीं की थी। वह क्षण भर खड़ा रहा। वह क्या कहे सुधा से, कुछ समझ ही में नहीं आता था। वह गया और रोती हुई सुधा के कंधे पर हाथ रख दिया। ''हटो उधर!'' सुधा ने बहुत रुखाई से हाथ हटा दिया और आँचल से सिर ढकती हुई बोली, ''मैं ब्याह नहीं करूँगी, कभी नहीं करूँगी। किसी से नहीं करूँगी। तुम सभी लोगों ने मिलकर मुझे मार डालने की ठानी है। तो मैं अभी सिर पटककर मर जाऊँगी।'' और मारे तैश के सचमुच सुधा ने अपना सिर दीवार पर पटक दिया। ''अरे!'' दौडक़र चन्दर, ने सुधा को पकड़ लिया। मगर सुधा ने गरजकर कहा, ''दूर हटो चन्दर, छूना मत मुझे।'' और जैसे उसमें जाने कहाँ की ताकत आ गयी है, उसने अपने को छुड़ा लिया।
चन्दर ने दबी जबान से कहा, ''छिह सुधा! यह तुमसे उम्मीद नहीं थी मुझे। यह भावुकता तुम्हें शोभा नहीं देती। बातें कैसी कर रही हो तुम! हम वही चन्दर हैं न!''
''हाँ, वही चन्दर हो! और तभी तो! इस सारी दुनिया में तुम्हीं एक रह गये हो मुझे फोटो दिखाकर पसन्द कराने को।'' सुधा सिसक-सिसककर रोने लगी-''पापा ने भी धोखा दे दिया। हमें पापा से यह उम्मीद नहीं थी।''
''पगली! कौन अपनी लड़की को हमेशा अपने पास रख पाया है!'' चन्दर बोला।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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''तुम चुप रहो, चन्दर। हमें तुम्हारी बोली जहर लगती है। 'सुधा, यह फोटो तुम्हें पसन्द है?' तुम्हारी जबान हिली कैसे? शरम नहीं आयी तुम्हें। हम कितना मानते थे पापा को, कितना मानते थे तुम्हें? हमें यह नहीं मालूम था कि तुम लोग ऐसा करोगे।'' थोड़ी देर चुपचाप सिसकती रही सुधा और फिर धधककर उठी-''कहाँ है वह फोटो? लाओ, अभी मैं जाऊँगी पापा के पास! मैं कहूँगी उनसे हाँ, मैं इस लड़के को पसन्द करती हूँ। वह बहुत अच्छा है, बहुत सुन्दर है। लेकिन मैं उससे शादी नहीं करूँगी, मैं किसी से शादी नहीं करूँगी! झूठी बात है...'' और उठकर पापा के कमरे की ओर जाने लगी।
''खबरदार, जो कदम बढ़ाया!'' चन्दर ने डाँटकर कहा, ''बैठो इधर।''
''मैं नहीं रुकूँगी!'' सुधा ने अकडक़र कहा।
''नहीं रुकोगी?''
''नहीं रुकूँगी।''
और चन्दर का हाथ तैश में उठा और एक भरपूर तमाचा सुधा के गाल पर पड़ा। सुधा के गाल पर नीली उँगलियाँ उपट आयीं। वह स्तब्ध! जैसे पत्थर बन गयी हो। आँख में आँसू जम गये। पलकों में निगाहें जम गयीं। होठों में आवाजें जम गयीं और सीने में सिसकियाँ जम गयीं।
चन्दर ने एक बार सुधा की ओर देखा और कुर्सी पर जैसे गिर पड़ा और सिर पटककर बैठ गया। सुधा कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गयी। चन्दर के घुटनों पर सिर रख दिया। बड़ी भारी आवाज में बोली, ''चन्दर, देखें तुम्हारे हाथ में चोट तो नहीं आयी।''
चन्दर ने सुधा की ओर देखा, एक ऐसी निगाह से जिसमें कब्र मुँह फाड़कर जमुहाई ले रही थी। सुधा एकाएक फिर सिसक पड़ी और चन्दर के पैरों पर सिर रखकर बोली, ''चन्दर, सचमुच मुझे अपने आश्रय से निकालकर ही मानोगे! चन्दर, मजाक की बात दूसरी है, जिंदगी में तो दुश्मनी मत निकाला करो।''
चन्दर एक गहरी साँस लेकर चुप हो गया। और सिर थामकर बैठ गया। पाँच मिनट बीत गये। कमरे में सन्नाटा, गहन खामोशी। सुधा चन्दर के पाँवों को छाती से चिपकाये सूनी-सूनी निगाहों से जाने कुछ देख रही थी दीवारों के पार, दिशाओं के पार, क्षितिजों से परे...दीवार पर घड़ी चल रही थी टिक...टिक...
चन्दर ने सिर उठाया और कहा, ''सुधा, हमारी तरफ देखो-'' सुधा ने सिर ऊपर उठाया। चन्दर बोला, ''सुधा, तुम हमें जाने क्या समझ रही होगी, लेकिन अगर तुम समझ पाती कि मैं क्या सोचता हूँ! क्या समझता हूँ।'' सुधा कुछ नहीं बोली, चन्दर कहता गया, ''मैं तुम्हारे मन को समझता हूँ, सुधा! तुम्हारे मन ने जो तुमसे नहीं कहा, वह मुझसे कह दिया था-लेकिन सुधा, हम दोनों एक-दूसरे की जिंदगी में क्या इसीलिए आये कि एक-दूसरे को कमजोर बना दें या हम लोगों ने स्वर्ग की ऊँचाइयों पर साथ बैठकर आत्मा का संगीत सुना सिर्फ इसीलिए कि उसे अपने ब्याह की शहनाई में बदल दें?''
''गलत मत समझो चन्दर, मैं गेसू नहीं कि अख्तर से ब्याह के सपने देखूँ और न तुम्हीं अख्तर हो, चन्दर! मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे लिए राखी के सूत से भी ज्यादा पवित्र रही हूँ लेकिन मैं जैसी हूँ, मुझे वैसी ही क्यों नहीं रहने देते! मैं किसी से शादी नहीं करूँगी। मैं पापा के पास रहूँगी। शादी को मेरा मन नहीं कहता, मैं क्यों करूँ? तुम गुस्सा मत हो, दुखी मत हो, तुम आज्ञा दोगे तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ, लेकिन हत्या करने से पहले यह तो देख लो कि मेरे हृदय में क्या है?'' सुधा ने चन्दर के पाँवों को अपने हृदय से और भी दबाकर कहा।
''सुधा, तुम एक बात सोचो। अगर तुम सबका प्यार बटोरती चलती हो तो कुछ तुम्हारी जिम्मेदारी है या नहीं? पापा ने आज तक तुम्हें किस तरह पाला। अब क्या तुम्हारा यह फर्ज है कि तुम उनकी बात को ठुकराओ? और एक बात और सोचो-हम पर कुछ विश्वास करके ही उन्होंने कहा है कि मैं तुमसे फोटो पसन्द कराऊँ? अगर अब तुम इनकार कर देती हो तो एक तरफ पापा को तुमसे धक्का पहुँचेगा, दूसरी ओर मेरे प्रति उनके विश्वास को कितनी चोट लगेगी। हम उन्हें क्या मुँह दिखाने लायक रहेंगे भला! तो तुम क्या चाहती हो? महज अपनी थोड़ी-सी भावुकता के पीछे तुम सभी की जिंदगी चौपट करने के लिए तैयार हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता है। क्या कहेंगे पापा, कि चन्दर ने अभी तक तुम्हें यही सिखाया था? हमें लोग क्या कहेंगे? बताओ। आज तुम शादी न करो। उसके बाद पापा हमेशा के लिए दु:खी रहा करें और दुनिया हमें कहा करे, तब तुम्हें अच्छा लगेगा?''
''नहीं।'' सुधा ने भर्राये हुए गले से कहा।
''तब, और फिर एक बात और है न सुधी! सोने की पहचान आग में होती है न! लपटों में अगर उसमें और निखार आये तभी वह सच्चा सोना है। सचमुच मैंने तुम्हारे व्यक्तित्व को बनाया है या तुमने मेरे व्यक्तित्व को बनाया है, यह तो तभी मालूम होगा जबकि हम लोग कठिनाइयों से, वेदनाओं से, संघर्षों से खेलें और बाद में विजयी हों और तभी मालूम होगा कि सचमुच मैंने तुम्हारे जीवन में प्रकाश और बल दिया था। अगर सदा तुम मेरी बाँहों की सीमा में रहीं और मैं तुम्हारी पलकों की छाँव में रहा और बाहर के संघर्षों से हम लोग डरते रहे तो कायरता है। और मुझे अच्छा लगेगा कि दुनिया कहे कि मेरी सुधा, जिस पर मुझे नाज था, वह कायर है? बोलो। तुम कायर कहलाना पसन्द करोगी?''
''हाँ!'' सुधा ने फिर चन्दर के घुटनों में मुँह छिपा लिया।
''क्या? यह मैं सुधा के मुँह से सुन रहा हूँ! छिह पगली! अभी तक तेरी निगाहों ने मेरे प्राणों में अमृत भरा है और मेरी साँसों ने तेरे पंखों में तूफानों की तेजी। और हमें-तुम्हें तो आज खुश होना चाहिए कि अब सामने जो रास्ता है उसमें हम लोगों को यह सिद्ध करने का अवसर मिलेगा कि सचमुच हम लोगों ने एक-दूसरे को ऊँचाई और पवित्रता दी है। मैंने आज तक तुम्हारी सहायता पर विश्वास किया था। आज क्या तुम मेरा विश्वास तोड़ दोगी? सुधा, इतनी क्रूर क्यों हो रही हो आज तुम? तुम साधारण लड़की नहीं हो। तुम ध्रुवतारा से ज्यादा प्रकाशमान हो। तुम यह क्यों चाहती हो कि दुनिया कहे, सुधा भी एक साधारण-सी भावुक लड़की थी और आज मैं अपने कान से सुनूँ! बोलो सुधी?'' चन्दर ने सुधा के सिर पर हाथ रखकर कहा।
सुधा ने आँखें उठायीं, बड़ी कातर निगाहों से चन्दर की ओर देखा और सिर झुका लिया। सुधा के सिर पर हाथ फेरते हुए चन्दर बोला-
''सुधा, मैं जानता हूँ मैं तुम पर शायद बहुत सख्ती कर रहा हूँ, लेकिन तुम्हारे सिवा और कौन है मेरा? बताओ। तुम्हीं पर अपना अधिकार भी आजमा सकता हूँ। विश्वास करो मुझ पर सुधा, जीवन में अलगाव, दूरी, दुख और पीड़ा आदमी को महान बना सकती है। भावुकता और सुख हमें ऊँचे नहीं उठाते। बताओ सुधा, तुम्हें क्या पसन्द है? मैं ऊँचा उठूँ तुम्हारे विश्वास के सहारे, तुम ऊँची उठो मेरे विश्वास के सहारे, इससे अच्छा और क्या है सुधा! चाहो तो मेरे जीवन को एक पवित्र साधन बना दो, चाहो तो एक छिछली अनुभूति।''
सुधा ने एक गहरी साँस ली, क्षण-भर घड़ी की ओर देखा और बोली, ''इतनी जल्दी क्या है अभी, चन्दर? तुम जो कहोगे मैं कर लूँगी!'' और फिर वह सिसकने लगी-''लेकिन इतनी जल्दी क्या हैï? अभी मुझे पढ़ लेने दो!''
''नहीं, इतना अच्छा लड़का फिर मिलेगा नहीं। और इस लड़के के साथ तुम वहाँ पढ़ भी सकती हो। मैं जानता हूँ उसे। वह देवताओं-सा निश्छल है। बोलो, मैं पापा से कह दूँ कि तुम्हें पसन्द है?''
सुधा कुछ नहीं बोली।
''मौन का मतलब हाँ है न?'' चन्दर ने पूछा।
सुधा ने कुछ नहीं कहा। झुककर चन्दर के पैरों को अपने होठों से छू लिया और पलकों से दो आँसू चू पड़े। चन्दर ने सुधा को उठा लिया और उसके माथे पर हाथ रखकर कहा, ''ईश्वर तुम्हारी आत्मा को सदा ऊँचा बनाएगा, सुधा!'' उसने एक गहरी साँस लेकर कहा, ''मुझे तुम पर गर्व है,'' और फोटो उठाकर बाहर चलने लगा।
''कहाँ जा रहे हो! जाओ मत!'' सुधा ने उसका कुरता पकडक़र बड़ी आजिजी से कहा, ''मेरे पास रहो, तबीयत घबराती है?''
चन्दर पलँग पर बैठ गया। सुधा तकिये पर सिर रखकर लेट गयी और फटी-फटी पथराई आँखों से जाने क्या देखने लगी। चन्दर भी चुप था, बिल्कुल खामोश। कमरे में सिर्फ घड़ी चल रही थी, टिक...टिक...
थोड़ी देर बाद सुधा ने चन्दर के पैरों को अपने तकिये के पास खींच लिया और उसके तलवों पर होठ रखकर उसमें मुँह छिपाकर चुपचाप लेटी रही। बिनती आयी। सुधा हिली भी नहीं! चन्दर ने देखा वह सो गयी थी। बिनती ने फोटो उठाकर इशारे से पूछा, ''मंजूर?'' ''हाँ।'' बिनती ने बजाय खुश होने के चन्दर की ओर देखकर सिर झुका लिया और चली गयी।
सुधा सो रही थी और चन्दर के तलवों में उसकी नरम क्वाँरी साँसें गूँज रही थीं। चन्दर बैठा रहा चुपचाप। उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह हिले और सुधा की नींद तोड़ दे। थोड़ी देर बाद सुधा ने करवट बदली तो वह उठकर आँगन के सोफे पर जाकर लेट रहा और जाने क्या सोचता रहा।
जब उठा तो देखा धूप ढल गयी है और सुधा उसके सिरहाने बैठी उसे पंखा झल रही है। उसने सुधा की ओर एक अपराधी जैसी कातर निगाहों से देखा और सुधा ने बहुत दर्द से आँखें फेर लीं और ऊँचाइयों पर आखिरी साँसें लेती हुई मरणासन्न धूप की ओर देखने लगी।
चन्दर उठा और सोचने लगा तो सुधा बोली, ''कल आओगे कि नहीं?''
''क्यों नहीं आऊँगा?'' चन्दर बोला।
''मैंने सोचा शायद अभी से दूर होना चाहते हो।'' एक गहरी साँस लेकर सुधा बोली और पंखे की ओट में आँसू पोंछ लिये।
चन्दर दूसरे दिन सुबह नहीं गया। उसकी थीसिस का बहुत-सा भाग टाइप होकर आ गया था और उसे बैठा वह सुधार रहा था। लेकिन साथ ही पता नहीं क्यों उसका साहस नहीं हो रहा था वहाँ जाने का। लेकिन मन में एक चिन्ता थी सुधा की। वह कल से बिल्कुल मुरझा गयी थी। चन्दर को अपने ऊपर कभी-कभी क्रोध आता था। लेकिन वह जानता था कि यह तकलीफ का ही रास्ता ठीक रास्ता है। वह अपनी जिंदगी में सस्तेपन के खिलाफ था। लेकिन उसके लिए सुधा की पलक का एक आँसू भी देवता की तरह था और सुधा के फूलों-जैसे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उसे पागल बना देती थी। सुबह पहले तो वह नहीं गया, बाद में स्वयं उसे पछतावा होने लगा और वह अधीरता से पाँच बजने का इन्तजार करने लगा।
पाँच बजे, और वह साइकिल लेकर पहुँचा। देखा, सुधा और बिनती दोनों नहीं हैं। अकेले डॉक्टर शुक्ला अपने कमरे में बैठे हैं। चन्दर गया। ''आओ, सुधा ने तुमसे कह दिया, उसे पसन्द है?'' डॉक्टर शुक्ला ने पूछा।
''हाँ, उसे कोई एतराज नहीं।'' चन्दर ने कहा।
''मैं पहले से जानता था। सुधा मेरी इतनी अच्छी है, इतनी सुशील है कि वह मेरी इच्छा का उल्लंघन तो कर ही नहीं सकती। लेकिन चन्दर, कल से उसने खाना-पीना छोड़ दिया है। बताओ, इससे क्या फायदा? मेरे बस में क्या है? मैं उसे हमेशा तो रख नहीं सकता। लेकिन, लेकिन आज सुबह खाते वक्त वह बैठी भी नहीं मेरे पास बताओ...'' उनका गला भर आया-''बताओ, मेरा क्या कसूर है?''
चन्दर चुप था।
''कहाँ है सुधा?'' चन्दर ने पूछा।
''गैरेज में मोटर ठीक कर रही है। मैं इतना मना किया कि धूप में तप जाओगी, लू लग जाएगी-लेकिन मानी ही नहीं! बताओ, इस झल्लाहट से मुझे कैसा लगता है?'' वृद्ध पिता के कातर स्वर में डॉक्टर ने कहा, ''जाओ चन्दर, तुम्हीं समझाओ! मैं क्या कहूँ?''
चन्दर उठकर गया। मोटर गैरेज में काफी गरमी थी, लेकिन बिनती वहीं एक चटाई बिछाये पड़ी सो रही थी और सुधा इंजन का कवर उठाये मोटर साफ करने में लगी हुई थी। बिनती बेहोश सो रही थी। तकिया चटाई से हटकर जमीन पर चला गया था और चोटी फर्श पर सोयी हुई नागिन की तरह पड़ी थी। बिनती का एक हाथ छाती पर था और एक हाथ जमीन पर। आँचल, आँचल न रहकर चादर बन गया था। चन्दर के जाते ही सुधा ने मुँह फेरकर देखा-''चन्दर, आओ।'' क्षीण मुसकराहट उसके होठों पर दौड़ गयी। लेकिन इस मुसकराहट में उल्लास लुट चुका था, रेखाएँ बाकी थीं। सहसा उसने मुडक़र देखा-''बिनती! अरे, कैसे घोड़ा बेचकर सो रही है! उठ! चन्दर आये हैं!'' बिनती ने आँखें खोलीं, चन्दर की ओर देखा, लेटे-ही-लेटे नमस्ते किया और आँचल सँभालकर फिर करवट बदलकर सो गयी।
''बहुत सोती है कम्बख्त!'' सुधा बोली, ''इतना कहा इससे कमरे में जाकर पंखे में सो! लेकिन नहीं, जहाँ दीदी रहेगी, वहीं यह भी रहेगी। मैं गैरेज में हूँ तो यह कैसे कमरे में रहे। वहीं मरेगी जहाँ मैं मरूँगी।''
''तो तुम्हीं क्यों गैरेज में थीं! ऐसी क्या जरूरत थी अभी ठीक करने की!'' चन्दर ने कहा, लेकिन कोशिश करने पर भी सुधा को आज डाँट नहीं पा रहा था। पता नहीं कहाँ पर क्या टूट गया था।
''नहीं चन्दर, तबीयत ही नहीं लग रही थी। क्या करती! क्रोसिया उठायी, वह भी रख दिया। कविता उठायी, वह भी रख दी। कविता वगैरह में तबीयत नहीं लगी। मन में आया, कोई कठोर काम हो, कोई नीरस काम हो लोहे-लक्कड़, पीतल-फौलाद का, तो मन लग जाए। तो चली आयी मोटर ठीक करने।''
''क्यों, कविता में भी तबीयत नहीं लगी? ताज्जुब है, गेसू के साथ बैठकर तुम तो कविता में घंटों गुजार देती थीं!'' चन्दर बोला।
''उन दिनों शायद किसी को प्यार करती रही होऊँ तभी कविता में मन लगता था!'' सुधा उस दिन की पुरानी बात याद करके बहुत उदास हँसी हँसी-''अब प्यार नहीं करती होऊँगी, अब तबीयत नहीं लगती। बड़ी फीकी, बड़ी बेजार, बड़ी बनावटी लगती हैं ये कविताएँ, मन के दर्द के आगे सभी फीकी हैं।'' और फिर वह उन्हीं पुरजों में डूब गयी। चन्दर भी चुपचाप मोटर की खिडक़ी से टिककर खड़ा हो गया। और चुपचाप कुछ सोचने लगा।
सुधा ने बिना सिर उठाये, झुके-ही-झुके, एक हाथ से एक तार लपेटते हुए कहा-
''चन्दर, तुम्हारे मित्र का परिवार आ रहा है, इसी मंगल को। तैयारी करो जल्दी।''
''कौन परिवार, सुधा?''
''हमारे जेठ और सास आ रही हैं, इसी बैसाखी को हमें देखने। उन्होंने तिथि बदल दी है। तो अब छह ही दिन रह गये हैं।''
चन्दर कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद सुधा फिर बोली-
''अगर उचित समझो तो कुछ पाउडर-क्रीम ले आना, लगाकर जरा गोरे हो जाएँ तो शायद पसन्द आ जाएँ! क्यों, ठीक है न!'' सुधा ने बड़ी विचित्र-सी हँसी हँस दी और सिर उठाकर चन्दर की ओर देखा। चन्दर चुप था लेकिन उसकी आँखों में अजीब-सी पीड़ा थी और उसके माथे पर बहुत ही करुण छाँह।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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