गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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सुधा कुछ नहीं बोली, चुपचाप रह गयी। चन्दर ने दो क्षण प्रतीक्षा की कि सुधा अब कुछ बोले लेकिन सुधा फिर भी चुप। चन्दर फिर मुड़ा। क्षण-भर बाद सुधा ने पूछा, ''चन्दर, और जल्दी नहीं लौट सकते?''
जल्दी! सुधा अगर कहे तो चन्दर जाये भी न, चाहे उसे इस्तीफा देना पड़े। क्या सुधा भूल गयी कि चन्दर के व्यक्तित्व पर अगर किसी का शासन है तो सुधा का! वह जो अपनी जिद से, उछलकर, लडक़र, रूठकर चन्दर से हमेशा मनचाहा काम करवाती रही है...आज वह इतनी दीनता से, इतनी विनय से, इतने अन्तर और इतनी दूरी से क्यों कह रही है कि जल्दी नहीं लौट सकते? क्यों नहीं वह पहले की तरह दौडक़र चन्दर का कॉलर पकड़ लेती और मचलकर कहती, 'ए, अगर जल्दी नहीं लौटे तो...' लेकिन अब तो सुधा बरामदे में खड़ी होकर गम्भीर-सी, डूबती हुई-सी आवाज में पूछ रही है-जल्दी नहीं लौट सकते! चन्दर का मन टूट गया। चन्दर की उमंग चट्टान से टकराकर बिखर गयी...उसने बहुत भारी-सी आवाज में पूछा, ''क्यों?''
''जल्दी लौट आते तो पूजा करके तुम्हारे साथ नाश्ता कर लेते! लेकिन अगर ज्यादा काम हो तो रहने दो, मेरी वजह से हरज मत करना!'' उसने उसे ठण्डे, शिष्ट और भावहीन स्वर में कहा।
हाय सुधा! अगर तुम जानती होती कि महीनों उद्भ्रान्त चन्दर का टूटा और प्यासा मन तुमसे पुराने स्नेह की एक बूँद के लिए तरस उठा है तो भी क्या तुम इसी दूरी से बातें करती! काश, कि तुम समझ पाती कि चन्दर ने अगर तुमसे कुछ दूरी भी निभायी है तो उससे खुद चन्दर कितना बिखर गया है। चन्दर ने अपना देवत्व खो दिया है, अपना सुख खो दिया है, अपने को बर्बाद कर दिया है और फिर भी चन्दर के बाहर से शान्त और सुगठित दिखने वाले हृदय के अन्दर तुम्हारे प्यार की कितनी गहरी प्यास धधक रही है, उसके रोम-रोम में कितनी जहरीली तृष्णा की बिजलियाँ कौंध रही हैं, तुमसे अलग होने के बाद अतृप्ति का कितना बड़ा रास्ता उसने आग की लपटों में झुलसते हुए बिताया है। अगर तुम इसे समझ लेती तो तुम चन्दर को एक बार दुलारकर उसके जलते हुए प्राणों पर अमृत की चाँदनी बिखेरने के लिए व्यग्र हो उठती; लेकिन सुधा, तुमने अपने बाह्य विद्रोह को ही समझा, तुमने उस गम्भीर प्यार को समझा ही नहीं जो इस बाहरी विद्रोह, इस बाहरी विध्वंस के मूल में पयस्विनी की पावन धारा की तरह बहता जा रहा है। सुधा, अगर तुम एक क्षण के लिए इसे समझ लो...एक क्षण-भर के लिए चन्दर को पहले की तरह दुलार लो, बहला लो, रूठ लो, मना लो तो सुधा चन्दर की जलती हुई आत्मा, नरक चिताओं में फिर से अपना गौरव पा ले, फिर से अपनी खोयी हुई पवित्रता जीत ले, फिर से अपना विस्मृत देवत्व लौटा ले...लेकिन सुधा, तुम बरामदे में चुपचाप खड़ी इस तरह की बातें कर रही हो जैसे चन्दर कोई अपरिचित हो। सुधा, यह क्या हो गया है तुम्हें? चन्दर, बिनती, पम्मी सभी की जिंदगी में जो भयंकर तूफान आ गया है, जिसने सभी को झकझोर कर थका डाला है, इसका समाधान सिर्फ तुम्हारे प्यार में था, सिर्फ तुम्हारी आत्मा में था, लेकिन अगर तुमने इनके चरित्रों का अन्तर्निहित सत्य न देखकर बाहरी विध्वंस से ही अपना आगे का व्यवहार निश्चित कर लिया तो कौन इन्हें इस चक्रवात से खींच निकालेगा! क्या ये अभागे इसी चक्रवात में फँसकर चूर हो जाएँगे...सुधा...
लेकिन सुधा और कुछ नहीं बोली। चन्दर चल दिया। जाकर लगा जैसे कॉलेज के परीक्षा भवन में जाना भी भारी मालूम दे रहा था। वह जल्दी ही भाग आया।
हालाँकि सुधा के व्यवहार ने उसका मन जैसे तोड़-सा दिया था, फिर भी जाने क्यों वह अब आज सुधा को एक प्रकाशवृत्त बनकर लपेट लेना चाहता था।
जब चन्दर लौट आया तो उसने देखा-सुधा तो उसी के कमरे में है। उसने उसके कमरे के एक कोने में दरी हटा दी है, वहाँ पानी छिड़क दिया और एक कुश के आसन पर सामने चौकी पर कोई पोथी धरे बैठी है। चौकी पर एक श्वेत वस्त्र बिछाकर धूपदानी रख दी है जिसमें धूप सुलग रही है। लॉन से शायद कूछ फूल तोड़ लायी थी जो धूपदानी के पास रखे हुए थे। बगल में एक रुद्राक्ष की माला रखी थी। एक शुद्ध श्वेत रेशम की धोती और केवल एक चोली पहने हुए पल्ले से बाँहों तक ढँके हुए वह एकाग्र मनोयोग से ग्रन्थ का पारायण कर रही थी। धूपदानी से धूम्र-रेखाएँ मचलती हुईं, लहराती हुईं, उसके कपोलों पर झूलती हुईं सूखी-रूखी अलकों से उलझ रही थीं। उसने नहाकर केश बाँधे नहीं थे...चन्दर ने जूते बाहर ही उतार दिये और चुपचाप पलँग पर बैठकर सुधा को देखने लगा। सुधा ने सिर्फ एक बार बहुत शान्त, बहुत गहरी आकाश-जैसी स्वच्छ निगाहों से चन्दर को देखा और फिर पढऩे लगी। सुधा के चारों ओर एक विचित्र-सा वातावरण था, एक अपार्थिव स्वर्गिक ज्योति के रेशों से बुना हुआ झीना प्रकाश उस पर छाया हुआ था। गले में पड़ा हुआ आँचल, पीठ पर बिखरे हुए सुनहले बाल, अपना सबकुछ खोकर विरक्ति में खिन्न सुहाग पर छाये हुए वैधव्य की तरह सुधा लग रही थी। माँग सूनी थी, माथे पर रोली का एक बड़ा-सा टीका था और चेहरे पर स्वर्ग के मुरझाये हुए फूलों की घुलती हुई उदासी, जैसे किसी ने चाँदनी पर हरसिंगार के पीले फूल छींटे दे दिये हों।
थोड़ी देर तक सुधा स्पष्ट स्वरों में पढ़ती रही। उसके बाद उसने पोथी बन्द कर रख दी। उसके बाद आँख बन्द कर जाने किस अज्ञात देवता को हाथ जोडक़र नमस्कार किया...फिर उठ खड़ी हुई और फर्श पर चन्दर के पास बैठ गयी। आँचल कमर में खोंस लिया और बिना सिर उठाये बोली, ''चलो, नाश्ता कर लो!''
''यहीं ले आओ!'' चन्दर बोला। सुधा उठी और नाश्ता ले आयी। चन्दर ने उठाकर एक टुकड़ा मुँह में रख लिया। लेकिन जब सुधा उसी तरह फर्श पर चुपचाप बैठी रही तो चन्दर ने कहा, ''तुम भी खाओ!''
''मैं!'' वह एक फीकी हँसी हँसकर बोली, ''मैं खा लूँ तो अभी कै हो जाये। मैं सिवा नींबू के शरबत और खिचड़ी के अब कुछ नहीं खाती। और वह भी एक वक्त!''
''क्यों?''
''असल में पहले मैंने एक व्रत किया, पन्द्रह दिन तक केवल प्रात:काल खाने का, तब से कुछ ऐसा हो गया कि शाम को खाते ही मन बिगड़ जाता है। इधर और कई रोग हो गये हैं।''
चन्दर का मन रो आया। सुधा, तुम चुपचाप इस तरह अपने को मिटाती रहीं! मान लिया चन्दर ने एक खत में तुम्हें लिख ही दिया था कि अब पत्र-व्यवहार बन्द कर दो! लेकिन क्या अगर तुम पत्र भेजतीं तो चन्दर की हिम्मत थी कि वह उत्तर न देता! अगर तुम समझ पातीं कि चन्दर के मन में कितना दुख है!
चन्दर चाहता था कि सुधा की गोद में अपने मन की सभी बातें बिखेर दे...लेकिन सुधा कहे, कुछ शिकायत करे तो चन्दर अपनी सफाई दे...लेकिन सुधा तो है कि शिकायत ही नहीं करती, सफाई देने का मौका ही नहीं देती...यह देवत्व की मूर्ति-सी पथरीली सुधा! यह चन्दर की सुधा तो नहीं! चन्दर का मन बहुत भर आया। उसके रुँधे गले से पूछा, ''सुधा, तुम बहुत बदल गयी हो। खैर और तो जो कुछ है उसके लिए अब मैं क्या कहूँ, लेकिन अपनी तन्दुरुस्ती बिगाड़कर क्यों तुम मुझे दुख दे रही हो! अब यों भी मेरी जिंदगी में क्या रहा है! लेकिन एक ही सन्तोष था कि तुम सुखी हो। लेकिन तुमने मुझसे वह सहारा छीन लिया...पूजा किसकी करती हो?''
''पूजा कहाँ, पाठ करती हूँ, चन्दर! गीता का और भागवत का, कभी-कभी सूर सागर का! पूजा अब भला किसकी करूँगी? मुझ जैसी अभागिनी की पूजा भला स्वीकार कौन करेगा?''
''तब यह एक वक्त का भोजन क्यों?''
''यह तो प्रायश्चित्त है, चन्दर!'' सुधा ने एक गहरी साँस लेकर कहा।
''प्रायश्चित...?'' चन्दर ने अचरज से कहा।
''हाँ, प्रायश्चित्त...'' सुधा ने अपने पाँव के बिछियों को धोती के छोर से रगड़ते हुए कहा, ''हिन्दू गृह तो एक ऐसा जेल होता है जहाँ कैदी को उपवास करके प्राण छोड़ने की भी इजाजत नहीं रहती, अगर धर्म का बहाना न हो! धर्म के बहाने उपवास करके कुछ सुख मिल जाता है।''
एक क्षण आता है कि आदमी प्यार से विद्रोह कर चुका है, अपने जीवन की प्रेरणा-मूर्ति की गोद से बहुत दिन तक निर्वासित रह चुका है, उसका मन पागल हो उठता है फिर से प्यार करने को, बेहद प्यार करने को, अपने मन का दुलार फूलों की तरह बिखरा देने को। आज विद्रोह का तूफान उतर जाने के बाद अपनी उजड़ी हुई जिंदगी में बीमार सुधा को पाकर चन्दर का मन तड़प उठा। सुधा की पीठ पर लहराती हुई सूखी अलकें हाथ में ले लीं। उन्हें गूँथने का असफल प्रयास करते हुए बोला-
''सुधा, यह तो सच है कि मैंने तुम्हारे मन को बहुत दुखाया है, लेकिन तुम तो हमारी हर बात को, हमारे हर क्रोध को क्षमा करती रही हो, इस बात का तुम इतना बुरा मान गयी?''
''किस बात का, चन्दर!'' सुधा ने चन्दर की ओर देखकर कहा, ''मैं किस बात का बुरा मान गयी!''
''किस बात का प्रायश्चित्त कर रही हो तुम, इस तरह अपने को मिटाकर!''
''प्रायश्चित्त तो मैं अपनी दुर्बलता का कर रही हूँ, चन्दर!''
''दुर्बलता?'' चन्दर ने सुधा की अलकों को घटाओं की तरह छिटकाकर कहा।
''दुर्बलता-चन्दर! तुम्हें ध्यान होगा, एक दिन हम लोगों ने निश्चय किया था कि हमारे प्यार की कसौटी यह रहेगी चन्दर, दूर रहकर भी हम लोग ऊँचे उठेंगे, पवित्र रहेंगे। दूर हो जाने के बाद चन्दर, तुम्हारा प्यार तो मुझमें एक दृढ़ आत्मा और विश्वास भरता रहा, उसी के सहारे मैं अपने जीवन के तूफानों को पार कर ले गयी; लेकिन पता नहीं मेरे प्यार में कौन-सी दुर्बलता रही कि तुम उसे ग्रहण नहीं कर पाये...मैं तुमसे कुछ नहीं कहती। मगर अपने मन में कितनी कुंठित हूँ कि कह नहीं सकती। पता नहीं दूसरा जन्म होता है या नहीं; लेकिन इस जन्म में तुम्हें पाकर तुम्हारे चरणों पर अपने को न चढ़ा पायी। तुम्हें अपने मन की पूजा में यकीन न दिला पायी, इससे बढ़कर और दुर्भाग्य क्या होगा? मैं अपने व्यक्तित्व को कितना गर्हित, कितना छिछला समझने लगी हूँ, चन्दर!''
चन्दर ने नाश्ता खिसका दिया। अपनी आँख में झलकते हुए आँसू को छिपाते हुए चुपचाप बैठ गया।
''नाश्ता कर लो, चन्दर! इस तरह तुम्हें अपने पास बिठाकर खिलाने का सुख अब कहाँ नसीब होगा! लो।'' और सुधा ने अपने हाथ से उसे एक नमकीन सेव खिला दिया। चन्दर के भरे आँसू सुधा के हाथों पर चू पड़े।
''छिह, यह क्या, चन्दर!''
''कुछ नहीं...'' चन्दर ने आँसू पोंछ डाले।
इतने में महराजिन आयी और सुधा से बोली, ''बिटिया रानी! लेव ई नानखटाई हम कल्है से बनाय के रख दिया रहा कि तोके खिलाइबे!''
''अच्छा! हम भी महराजिन, इतने दिन से तुम्हारे हाथ का खाने के लिए तरस गये, तुम चलो हमारे साथ!''
''हियाँ चन्दर भइया के कौन देखी? अब बिटिया इनहूँ के ब्याह कर देव, तो हम चली तोहरे साथ!''
सुधा हँस पड़ी, चन्दर चुपचाप बैठा रहा। महराजिन खिचड़ी डालने चली गयी। सुधा ने चुपचाप नानखटाई की तश्तरी उठाकर एक ओर रख दी-चन्दर चुप, अब क्या बात करे! पहले वह दोनों घंटों क्या बात करते थे! उसे बड़ा ताज्जुब हुआ। इस वक्त कोई बात ही नहीं सूझती है। पहले जाने कितना वक्त गुजर जाता था, दोनों की बातों का खात्मा ही नहीं होता था। सुधा भी चुप थी। थोड़ी देर बाद चन्दर बोला, ''सुधी, तुम सचमुच पूजा-पाठ में विश्वास रखती हो...''
''क्यों, करती तो हूँ, चन्दर! हाँ, मूर्ति जरूर नहीं पूजती, पर कृष्ण को जरूर पूजती हूँ। अब सभी सहारे टूट गये, तुमने भी मुझे छोड़ दिया, तब मुझे गीता और रामायण में बहुत सन्तोष मिला। पहले मैं खुद ताज्जुब करती थी कि औरतें इतना पूजा-पाठ क्यों करती हैं, फिर मैंने सोचा-हिन्दू नारी इतनी असहाय होती है, उसे पति से, पुत्र से, सभी से इतना लांछन, अपमान और तिरस्कार मिलता है कि पूजा-पाठ न हो तो पशु बन जाये। पूजा-पाठ ही ने हिन्दू नारी का चरित्र अभी तक इतना ऊँचा रखा है।''
''मैं तो समझता हूँ यह अपने को भुलावा देना है।''
''मानती हूँ चन्दर, लेकिन अगर कोई हिन्दू धर्म की इन किताबों को ध्यान से पढ़े तब वह जाने, क्या है इनमें! जाने कितनी ताकत देती हैं ये! अभी तक जिंदगी में मैंने यह सोचा है कि पुरुष हो या नारी, सभी के जीवन का एकमात्र सम्बल विश्वास है, और इन ग्रन्थों में सभी संशयों को मिटाकर विश्वास का इतना गहन उपदेश है कि मन पुलक उठता है।...मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाती। चन्दर, जब बिनती के ब्याह में तुमने मेरा पत्र लौटा दिया तो मैं तड़प उठी। एक अविश्वास मेरी नस-नस में गुँथ गया। मैंने समझ लिया कि तुम्हारी सारी बातें झूठी थीं। एक जाने कैसी आग मुझे हरदम झुलसाती रहती थी! मेरा स्वभाव बहुत बिगड़ गया था। मुझे हरेक से नफरत हो गयी थी। हरेक पर झल्ला उठती थी...किसी बात में मुझे चैन नहीं मिलता था। धीरे-धीरे मैंने इन किताबों को पढऩा शुरू किया। मुझे लगने लगा कि शान्ति धीरे-धीरे मेरी आत्मा पर उतर रही है। मुझे लगा कि यह सभी ग्रन्थ पुकार-पुकारकर कह रहे हैं-'संशयात्मा विनश्यति!' धीरे-धीरे मैंने इन बातों को अपने जीवन पर घटाना शुरू किया, तो मैंने देखा कि सारी भक्ति की किताबें और उनका दर्शन बड़ा मनोहर रूपक है, चन्दर! कृष्ण प्यार के देवता हैं। वंशी की ध्वनि विश्वास की पुकार है। धीरे-धीरे तुम्हारे प्रति मेरे मन में जगा हुआ अविश्वास मिट गया, मैंने कहा, तुम मुझसे अलग ही कहाँ हो, मैं तो तुम्हारी आत्मा का एक टुकड़ा हूँ जो एक जनम के लिए अलग हो गयी। लेकिन हमेशा तुम्हारे चारों ओर चन्द्रमा की तरह चक्कर लगाती रहूँगी, जिस दिन मैंने पढ़ा-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
तो मुझे लगा कि तुम्हारा खोया हुआ प्यार मुझे पुकारकर कह रहा है-मेरी शरण में चले आओ, और सिवा तुम्हारे प्यार के मेरा भगवान और है ही क्या...उसके बाद से चन्दर, मेरे मन में विश्वास और प्रेम झलक आया, अपने जीवन की परिधि में आने वाले हर व्यक्ति के लिए। सभी मुझे बहुत चाहने लगे...लेकिन चन्दर, जब बिनती यहाँ से दिल्ली जाते वक्त मेरे साथ गयी और उसने सब हाल बताया तो मुझे कितना दु:ख हुआ। कितनी ग्लानि हुई। तुम्हारे ऊपर नहीं, अपने ऊपर।''
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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बातें भावनात्मक स्तर से उठकर बौद्धिक स्तर पर आ चुकी थीं। चन्दर फौरन बोला, ''सुधा, ग्लानि की तो कोई बात नहीं, कम-से-कम मैंने जो कुछ किया है उस पर मुझे जरा-सी भी शर्म नहीं!'' चन्दर के स्वर में फिर एक बार गर्व और कड़वाहट-सी आ गयी थी-''मैंने जो कुछ किया है उसे मैं पाप नहीं मानता। तुम्हारे भगवान ने तुम्हें जो कुछ रास्ता दिखलाया, वह तुमने किया। मेरे भगवान ने जो रास्ता मुझे दिखलाया, वह मैंने किया। तुम जानती ही हो मेरी जिंदगी की पवित्रता तुम थी, तुम्हारी भोली निष्पाप साँसें मेरे सभी गुनाह, मेरी सभी कमजोरियाँ सुलाती रही हैं। जिस दिन तुम मेरी जिंदगी से चली गयीं, कुछ दिन तक मैंने अपने को सँभाला। इसके बाद मेरी आत्मा का कण-कण द्रोह कर उठा। मैंने कहा, स्वर्ग के मालिक साफ-साफ सुनो। तुमने मेरी जिंदगी की पवित्रता को छीन लिया है, मैं तुम्हारे स्वर्ग में वासना की आग धधकाकर उसे नरक से बदतर बना दूँगा। और मैंने होठों के किनारे चुम्बन की लपटें सुलगानी शुरू कर दीं...धीरे-धीरे महाश्मशान के सन्नाटे में करोड़ों वासना की लपटें जहरीले साँपों की तरह फुँफकारने लगीं। मेरे मन को इसमें बहुत सन्तोष मिला, बहुत शान्ति मिली। यहाँ तक कि बिनती के लिए मैं अपने मन की सारी कटुता भूल गया। मैं कैसे कह दूँ कि यह सब गुनाह था। सुधा, अगर ठीक से देखो, गम्भीरता से समझो तो जो कुछ तुम्हारे लिए मेरे मन में था, उसी की प्रतिक्रिया वह है जो मेरे मन में पम्मी के लिए है। तुम्हारा दुलार और पम्मी की वासना दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। अपने पहलू को सही और दूसरे पहलू को गलत क्यों कहती हो? देवता की आरती में जलता हुआ दीपक पवित्र है और उससे निकला हुआ धुआँ अपवित्र! दीप-शिखा नैतिक है और धूम-रेखा अनैतिक? ग्लानि किस बात की, सुधा?'' चन्दर ने बहुत आवेश में कहा।
''छिह, चन्दर! तुम मुझे समझे नहीं! मैं नैतिक-अनैतिक की बात ही नहीं करती। मेरे भगवान ने, मेरे प्यार ने मुझे अब उस दुनिया में पहुँचा दिया है जो नैतिक-अनैतिक से उठकर है। तुमने अपने भगवान से विद्रोह किया, लेकिन उन्होंने तुम्हारी बात पर कोई फैसला भी तो दिया होता। वे इतने दयालु हैं कि कभी मानव के कार्यों पर फैसला ही नहीं देते। दंड तो दूर की बात, वे तो केवल आदमी को समझाकर, उसकी कमजोरियाँ समझकर उसे क्षमा करने और उसे प्यार करने की बात कहते हैं, चन्दर! वहाँ नैतिकता-अनैतिकता का प्रश्न ही नहीं।''
''तब? यह ग्लानि किस बात की तुम्हें!'' चन्दर ने पूछा।
''ग्लानि तो मुझे अपने पर थी, चन्दर! रहा तुम्हारा पम्मी से सम्बन्ध तो मैं बिनती की तरह नहीं सोचती, इतना विश्वास रखो। मेरी पाप और पुण्य की तराजू ही दूसरी है। फिर कम-से-कम अब इतना देख-सुनकर मैं यह नहीं मानती कि शरीर की प्यास ही पाप है! नहीं चन्दर, शरीर की प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजा। आत्मा की पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं। आत्मा की अभिव्यक्ति शरीर से है, शरीर का संस्कार, शरीर का सन्तुलन आत्मा से है। जो आत्मा और शरीर को अलग कर देता है, वही मन के भयंकर तूफानों में उलझकर चूर-चूर हो जाता है। चन्दर, मैं तुम्हारी आत्मा थी। तुम मेरे शरीर थे। पता नहीं कैसे हम लोग अलग हो गये! तुम्हारे बिना मैं केवल सूक्ष्म आत्मा रह गयी। शरीर की प्यास, शरीर की रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयीं। पति को शरीर देकर भी मैं सन्तोष न दे पायी...और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गये। शरीर में डूब गये...पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा...पाप की वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तड़पोगे, तभी तक मैं भी तड़पूँगी...दोनों में से किसी को भी चैन नहीं और कभी चैन नहीं मिलेगा...''
''लेकिन फिर...''
''हटाओ इन सब बातों को, चन्दर! तुमने व्यर्थ यह बात उठायी। मैं अब बात करना भूलती जा रही हूँ। मैं तो आयी थी तुम्हें देखकर कुछ मन का ताप मिटाने। उठो, खाना खाएँ!'' सुधा बोली।
''नहीं, मैं चाहता हूँ, बातें सुलझ जाएँ, सुधा!'' चन्दर ने सुधा के हाथ पर अपना सिर रखकर कहा, ''मेरी तकलीफ अब बेहद बढ़ती जा रही है। मैं पागल न हो जाऊँ!''
''छिह, ऐसी बात नहीं सोचते। उठो!'' चन्दर को उठाकर सुधा बोली। दोनों ने खाना खाया। महराजिन बड़े दुलार से परसती रहीं और सुधा से बातें करती रहीं। खाना खाकर चन्दर लेट गया और सोचने लगा, अब क्या सचमुच उसके और सुधा के बीच में कोई इतना भयंकर अन्तर आ गया है कि दोनों पहले जैसे नहीं हो सकते?
लगभग चार बजे वह जागा तो उसने देखा कि उसके पाँवों के पास सिर रखकर सुधा सो रही है। पंखे की हवा वहाँ तक नहीं पहुँचती। वह पसीने से तर-बतर हो रही है। चन्दर उठा, उसे नींद में ऐसा लगा कि जैसे इधर कुछ हुआ ही नहीं है। सुधा वही सुधा है, चन्दर वही चन्दर है। उसने सुधा के पल्ले से सुधा के माथे और गले का पसीना पोंछ दिया और हाथ बढ़ाकर पंखा उसकी ओर घुमा दिया। सुधा ने आँखें खोलीं, एक अजीब-सी निगाह से चन्दर की ओर देखा और चन्दर के पाँव को खींचकर वक्ष से लगा फिर आँख बन्द करके लेट गयी। चन्दर ने अपना एक हाथ सुधा के माथे पर रख लिया और वह चुपचाप बैठा सोचने लगा, आज से लगभग साल-भर पहले की बात, जब उसने पहले-पहल सुधा को कैलाश का चित्र दिखाया था, और सुधा रो-धोकर उसके पाँवों में इसी तरह मुँह छिपाकर सो गयी थी...और आज...सुधा साल-भर में कहाँ से कहाँ जा पहुँची है! चन्दर कहाँ से कहाँ पहुँच गया है! काश कि कोई उनकी जिंदगी की स्लेट से इस वर्ष-भर में खींची हुए मानसिक रेखाओं को मिटा सके तो कितने सुखी हो जाएँ दोनों! चन्दर ने सुधा को हिलाया और बोला-
''सुधा, सो रही हो?''
''नहीं।''
''उठो।''
''नहीं चन्दर, पड़ी रहने दो। तुम्हारे चरणों में सबकुछ भूलकर एक क्षण के लिए भी सो सकूँगी, मुझे इसका विश्वास नहीं था। सबकुछ छीन लिया है तुमने, एक क्षण की आत्म-प्रवंचना क्यों छीनते हो?'' सुधा ने उसी तरह पड़े हुए जवाब दिया।
''अरी, उठ पगली!'' चन्दर के मन में जाने कहाँ मरा पड़ा हुआ उल्लास फिर से जिन्दा हो उठा था। उसने सुधा की बाँह में जोर से चुटकी काटते हुए कहा, ''उठती है या नहीं, आलसी कहीं की!''
सुधा उठकर बैठ गयी। क्षण-भर चन्दर की ओर पथरायी हुई निगाह से देखती रही और बोली, ''चन्दर, मैं जाग रही हूँ। तुम्हीं ने उठाया है मुझे...चन्दर। कहीं सपना तो नहीं है कि फिर टूट जाए!'' और सुधा सिसक-सिसक कर रो पड़ी। चन्दर की आँखों में आँसू आ गये। थोड़ी देर बाद वह बोला, ''सुधा, कोई जादूगर अगर हम लोगों के मन से यह काँटा निकाल देता तो मैं कितना सुखी होता! लेकिन सुधा, अब मैं तुम्हें दुखी नहीं करूँगा।''
''यह तो तुमने पहले भी कहा था, चन्दर! लेकिन इधर जाने कैसे हो गये। लगता है तुम्हारे चरित्र में कहीं स्थायित्व नहीं...इसी का तो मुझे दुख है, चन्दर!''
''अब रहेगा, सुधा! तुम्हें खोकर, तुम्हारे प्यार को खोकर मैं देख चुका हूँ कि मैं आदमी नहीं रह पाता, जानवर बन जाता हूँ। सुधा, अगर तुम आज से महीनों पहले मिल जातीं तो जो जहर मेरे मन में घुट रहा है, वह तुहारे सामने व्यक्त करके मैं बिल्कुल निश्चिन्त हो जाता। अच्छा सुधा, यहाँ आओ। चुपचाप लेट जाओ, मैं तुमसे सबकुछ कह डालूँ, फिर सब भूल जाऊँ। बोलो, सुनोगी?''
सुधा चुपचाप लेट गयी और बोली, ''चन्दर! या तो मत बताओ या फिर सभी स्पष्ट बता दो...''
''हाँ, बिल्कुल स्पष्ट सुधी; तुमसे कुछ छिपा सकता हूँ भला!'' चन्दर ने हल्की-सी चपत मारकर कहा, ''आज मन जैसे पागल हो रहा है तुम्हारे चरणों पर बिखर जाने के लिए...जादूगरनी कहीं की! देखो सुधा-पिछली दफे तुमने मुझे बहुत कुछ बताया था, कैलाश के बारे में!''
''हाँ।''
''बस, उसके बाद से एक अजीब-सी अरुचि मेरे मन में तुम्हारे लिए होने लगी थी; मैं तुमसे कुछ छिपाऊँगा नहीं। तुम्हारे जाने के बाद बर्टी आया। उसने मुझसे कहा कि औरत केवल नयी संवेदना, नया स्वाद चाहती है और कुछ नहीं, अविवाहित लड़कियाँ विवाह, और विवाहित लड़कियाँ नये प्रेमी...बस यही उनका चरम लक्ष्य है। लड़कियाँ शरीर की प्यास के अलावा और कुछ नहीं चाहतीं...जैसे अराजकता के दिनों में किसी देश में कोई भी चालाक नेता शक्ति छीन लेता है, वैसे ही मानसिक शून्यता के क्षणों में बर्टी जैसे मेरा दार्शनिक गुरु हो गया। उसके बाद आयी पम्मी। उससे मैंने कहा कि क्या आवश्यक है कि पुरुष और नारी के सम्बन्धों में सेक्स हो ही? उसने कहा, 'हाँ, और यदि नहीं है तो प्लेटानिक (आदर्शवादी) प्यार की प्रतिक्रिया सेक्स की ही प्यास में होती है।' अब मैं तुम्हें अपने मन का चोर बतला दूँ। मैंने सोचा कि तुम भी अपने वैवाहिक जीवन में रम गयी हो। शरीर की प्यास ने तुम्हें अपने में डुबा दिया है और जो अरुचि तुम मेरे सामने व्यक्त करती हो वह केवल दिखावा है। इसलिए मन-ही-मन मुझे तुमसे चिढ़-सी हो गयी। पता नहीं क्यों यह संस्कार मुझमें दृढ़-सा हो गया और इसी के पीछे मैं तुम्हीं को नहीं, पम्मी को छोड़कर सभी लड़कियों से नफरत-सी करने लगा। बिनती को भी मैंने बहुत दुख दिया। ब्याह में जाने के पहले ही बहुत दुखी होकर गयी। रही पम्मी की बात तो मैं उस पर इसलिए खुश था कि उसने बड़ी यथार्थ-सी बात कही थी। लेकिन उसने मुझसे कहा कि आदर्शवादी प्यार की प्रतिक्रिया शारीरिक प्यास में होती है। तुमको इसका अपराधी मानकर तुमसे तो नाराज हो गया लेकिन अन्दर-ही-अन्दर वह संस्कार मेरा व्यक्तित्व बदलने लगा। सुधा, पता नहीं, तुम्हारे जीवन में प्रतिक्रिया के रूप में शारीरिक प्यास जागी या नहीं पर मेरे मन के गुनाह तो तूफान की तरह लहरा उठे। लेकिन तुमसे एक बात नहीं छिपाऊँगा। वह यह कि ऐसे भी क्षण आये हैं जब पम्मी के समर्पण ने मेरे मन की सारी कटुता धो दी है....बोलो, तुम कुछ तो बोलो, सुधा!''
''तुम कहते चलो, चन्दर! मैं सुन रही हूँ।''
''हाँ...लेकिन उस दिन गेसू आयी। उसने मुझे फिर पुराने दिनों की याद दिला दी और फिर जैसे पम्मी के लिए आकर्षण उखड़-सा गया। अच्छा सुधा, एक बात बताओ। तुम यह मानती हो कि कभी-कभी एक व्यक्ति के माध्यम से दूसरे व्यक्ति की भावनाओं की अनुभूति होने लगती है?''
''क्या मतलब?''
''मेरा मतलब जैसे मुझे गेसू की बातों में उस दिन ऐसा लगा, जैसे तुम बोल रही हो। और दूसरी बात तुम्हें बताऊँ। तुम्हारे पीछे बिनती रही मेरे पास। सारे अँधेरे में वही एक रोशनी थी, बड़ी क्षीण, टिमटिमाती हुई, सारहीन-सी। बल्कि मुझे तो लगता था कि वह रोशन ही इसलिए थी कि उसमें रोशनी तुम्हारी थी। मैंने कुछ दिन बिनती को बहुत प्यार किया। मुझे ऐसा लगता था कि अभी तक तुम मेरे सामने थीं, अब तुम उसके माध्यम से आती हो। लगता था जैसे वह एक व्यक्तित्व नहीं है, तुम्हारे व्यक्तित्व का ही अंश है। उस लड़की में जिस अंश तक तुम थीं वह अंश बार-बार मेरे मन में रस उभार देता था। क्यों सुधा! मन की यह भी कैसी अजब-सी गति है!''
सुधा थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, ''भागवत में एक जगह एक टीका में हमने पढ़ा था चन्दर कि जिसको भगवान बहुत प्यार करते हैं, उसमें उनकी अंशाभिव्यक्ति होती है। बहुत बड़ा वैज्ञानिक सत्य है यह! मैं बिनती को बहुत प्यार करती हूँ, चन्दर!''
''समझ गया मैं।'' चन्दर बोला, ''अब मैं समझा, मेरे मन में इतने गुनाह कहाँ से आये। तुमने मुझे बहुत प्यार किया और वही तुम्हारे व्यक्तित्व के गुनाह मेरे व्यक्तित्व में उतर आये!''
सुधा खिलखिलाकर हँस पड़ी। चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर बोली, ''इसी तरह हँसते-बोलते रहते तो क्यों यह हाल होता? मनमौजी हो। जब चाहो खुश हो गये, जब चाहो नाराज हो गये!''
उसके बाद वह उठी और बाहर से एक तश्तरी में कुछ फल काटकर लायी। चन्दर ने देखा-आम। ''अरे आम! अभी कहाँ से आम ले आयीï? कौन लाया?''
''लखनऊ उतरी थी? वहाँ से तुम्हारे लिए लेती आयी।''
चन्दर ने एक आम की फाँक उठाकर खायी और किसी पुरानी घटना की याद दिलाने के लिए आँचल से हाथ पोंछ दिये। सुधा हँस पड़ी और बड़ी दुलार-भरी ताडऩा के स्वर में बोली, ''बोलो, अब तो दिमाग नहीं बिगाड़ोगे अपना?''
''कभी नहीं सुधी, लेकिन पम्मी का क्या होगा? पम्मी से मैं सम्बन्ध नहीं तोड़ सकता। व्यवहार चाहे जितना सीमित कर दूँ।''
''मैं कब कहती हूँ, मैं तुम्हें कहीं से कभी बाँधना ही नहीं चाहती। जानती हूँ कि अगर चाहूँ भी तो कभी अपने मन के बाहुपाश ढीले कर तुम्हें चिरमुक्ति तो मैं न दे पाऊँगी, तो भला बन्धन ही क्यों बाँधूँ! पम्मी शाम को आएगी?''
''शायद...''
दरवाजा खटका और गेसू ने प्रवेश किया। आकर, दौडक़र सुधा से लिपट गयी। चन्दर उठकर चला आया। ''चले कहाँ भाईजान, बैठिए न।''
''नहा लूँ, तब आता हूँ...'' चन्दर चल दिया। वह इतना खुश था, इतना खुश कि बाथ-रूम में खूब गाता रहा और नहा चुकने के बाद उसे खयाल आया कि उसने बनियाइन उतारी ही नहीं थी। नहाकर कपड़े बदलकर वह आया तब भी गुनगुना रहा था। कमरे में आया तब देखा गेसू अकेली बैठी है।
''सुधा कहाँ गयी?'' चन्दर ने नाचते हुए स्वर में कहा।
''गयी है शरबत बनाने।'' गेसू ने चुन्नी से सिर ढँकते हुए और पाँवों को सलवार से ढँकते हुए कहा। चन्दर इधर-उधर बक्स में रूमाल ढूँढऩे लगा।
''आज बड़े खुश हैं, चन्दर भाई! कोई खायी हुई चीज मिल गयी है क्या? अरे, मैं बहन हूँ कुछ इनाम ही दे दीजिए।'' गेसू ने चुटकी ली।
''इनाम की बात क्या, कहो तो वह चीज ही तुम्हें दे दूँ!''
''हाँ, कैलाश बाबू के दिल से पूछिए।'' गेसू बोली।
''उनके दिल से तुम्हीं बात कर सकती हो!''
गेसू ने झेंपकर मुँह फेर लिया।
सुधा हाथ में दो गिलास लिए आयी। ''लो गेसू, पियो।'' एक गिलास गेसू को देकर बोली, ''चन्दर, लो।''
''तुम पियो न!''
''नहीं, मैं नहीं पिऊँगी। बर्फ मुझे नुकसान करेगी!'' सुधा ने चुपचाप कहा। चन्दर को याद आ गया। पहले सुधा चिढ़-चिढ़कर अपने आप चाय, शरबत पी जाती थी...और आज...
''क्या ढूँढ़ रहे हो, चन्दर?'' सुधा बोली।
''रूमाल, कोई मिल ही नहीं रहा!''
''साल-भर में रूमाल खो दिये होंगे! मैं तो तुम्हारी आदत जानती हूँ। आज कपड़ा ला दो, कल सुबह रूमाल सी दूँ तुम्हारे लिए।'' और उठकर उसने कैलाश के बक्स से एक रूमाल निकालकर दे दिया।
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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उसके बाद चन्दर बाजार गया और कैलाश के लिए तथा सुधा के लिए कुछ कपड़े खरीद लाया। इसके साथ ही कुछ नमकीन जो सुधा को पसन्द था, पेठा, एक तरबूज, एक बोतल गुलाब का शरबत, एक सुन्दर-सा पेन और जाने क्या-क्या खरीद लाया। सुधा ने देखकर कहा, ''पापा नहीं हैं, फिर भी लगता है मैं मायके आयी हूँ!'' लेकिन वह कुछ खा-पी नहीं सकी।
चन्दर खाना खाकर लॉन में बैठ गया, वहीं उसने अपनी चारपाई डलवा ली। सुधा के बिस्तर छत पर लगे थे। उसके पास महराजिन सोनेवाली थीं। सुधा एक तश्तरी में तरबूज काटकर ले आयी और कुर्सी डालकर चन्दर भी चारपाई के पास बैठ गया। चन्दर तरबूज खाता रहा...थोड़ी देर बाद सुधा बोली-
''चन्दर, बिनती के बारे में तुम्हारी क्या राय है?''
''राय? राय क्या होती? बहुत अच्छी लड़की है! तुमसे तो अच्छी ही है!'' चन्दर ने छेड़ा।
''अरे, मुझसे अच्छी तो दुनिया है, लेकिन एक बात पूछें? बहुत गम्भीर बात है!''
''क्या?''
''तुम बिनती से ब्याह कर लो।''
''बिनती से? कुछ दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?''
''नहीं! इस बारे में पहले-पहले 'ये' बोले कि चन्दर से बिनती का ब्याह क्यों नहीं करती, तो मैंने चुपचाप पापा से पूछा। पापा बिल्कुल राजी हैं, लेकिन बोले मुझसे कि तुम्हीं कहो चन्दर से। कर लो; चन्दर! बुआजी अब दखल नहीं देंगी।''
चन्दर हँस पड़ा, ''अच्छी खुराफातें तुम्हारे दिमाग में उठती हैं! याद है, एक बार और तुमने ब्याह करने के लिए कहा था?''
सुधा के मुँह से एक हल्का नि:श्वास निकल पड़ा-''हाँ, याद है! खैर, तब की बात दूसरी थी, अब तो तुम्हें कर लेना चाहिए।''
''नहीं सुधा, शादी तो मुझे नहीं ही करनी है। तुम कह क्यों रही हो? तुम मेरे-बिनती के सम्बन्धों को कुछ गलत तो नहीं समझ रही हो?''
''नहीं जी, लेकिन यह जानती हूँ कि बिनती तुम पर अन्धश्रद्धा रखती है। उससे अच्छी लड़की तुम्हें मिलेगी नहीं। कम-से-कम जिंदगी तुम्हारी व्यवस्थित हो जाएगी।''
चन्दर हँसा, ''मेरी जिंदगी शादी से नहीं, प्यार से सुधरेगी, सुधा! कोई ऐसी लड़की ढूँढ़ दो जो तुम्हारी जैसी हो और प्यार करे तो मैं समझूँ भी कि तुमने कुछ किया मेरे लिए। शादी-वादी बेकार है और कोई बात करनी है या नहीं?''
''नहीं चन्दर, शादी तो तुम्हें करनी ही होगी। अब मैं ऐसे तुम्हें नहीं रहने दूँगी। बिनती से न करो तो दूसरी लड़की ढूँढूँगी। लेकिन शादी करनी होगी और मेरी पसन्द से करनी होगी।''
चन्दर एक उपेक्षा की हँसी हँसकर रह गया।
सुधा उठ खड़ी हुई।
''क्यों, चल दीं?''
''हाँ, अब नींद आ रही होगी तुम्हें, सोओ।''
चन्दर ने रोका नहीं। उसने सोचा था, सुधा बैठेगी। जाने कितनी बातें करेंगे! वह सुधा से उसका सब हाल पूछेगा, लेकिन सुधा तो जाने कैसी तटस्थ, निरपेक्ष और अपने में सीमित-सी हो गयी है कि कुछ समझ में नहीं आता। उसने चन्दर से सबकुछ जान लिया लेकिन चन्दर के सामने उसने अपने मन को कहीं जाहिर ही नहीं होने दिया, सुधा उसके पास होकर भी जाने कितनी दूर थी! सरोवर में डूबकर पंछी प्यासा था।
करीब घंटा-भर बाद सुधा दूध का गिलास लेकर आयी। चन्दर को नींद आ गयी थी। वह चन्दर के सिरहाने बैठ गयी-''चन्दर, सो गये क्या?''
''क्यों?'' चन्दर घबराकर उठ बैठा।
''लो, दूध पी लो।'' सुधा बोली।
''दूध हम नहीं पिएँगे।''
''पी लो, देखो बर्फ और शरबत मिला दिया है, पीकर तो देखो!''
''नहीं, हम नहीं पिएँगे। अब जाओ, हमें नींद लग रही है।'' चन्दर गुस्सा था।
''पी लो मेरे राजदुलारे, चमक रहे हैं चाँद-सितारे...'' सुधा ने लोरी गाते हुए चन्दर को अपनी गोद में खींचकर बच्चों की तरह गिलास चन्दर के मुँह से लगा दिया। चन्दर ने चुपचाप दूध पी लिया। सुधा ने गिलास नीचे रखकर कहा, ''वाह, ऐसे तो मैं नीलू को दूध पिलाती हूँ।''
''नीलू कौन?''
''अरे मेरा भतीजा! शंकर बाबू का लड़का।''
''अच्छा!''
''चन्दर, तुमने पंखा तो छत पर लगा दिया है। तुम कैसे सोओगे?''
''मुझे नींद आ जाएगी।''
चन्दर फिर लेट गया। सुधा उठी नहीं। वह दूसरी पाटी से हाथ टेककर चन्दर के वक्ष के आर-पार फूलों के धनुष-सी झुककर बैठ गयी। एकादशी का स्निग्ध पवित्र चन्द्रमा आसमान की नीली लहरों पर अधखिले बेल के फूल की तरह काँप रहा था। दूध में नहाये हुए झोंके चाँदनी से आँख-मिचौली खेल रहे थे। चन्दर आँखें बन्द किये पड़ा था और उसकी पलकों पर, उसके माथे पर, उसके होठों पर चाँदी की पाँखुरियाँ बरस रही थीं। सुधा ने चन्दर का कॉलर ठीक किया और बड़े ही मधुर स्वर में पूछा, ''चन्दर, नींद आ रही है?''
''नहीं, नींद उचट गयी!'' चन्दर ने आँख खोलकर देखा। एकादशी का पवित्र चन्द्रमा आकाश में था और पूजा से अभिषिक्त एकादशी की उदास चाँदनी उसके वक्ष पर झुकी बैठी थी। उसे लगा जैसे पवित्रता और अमृत का चम्पई बादल उसके प्राणों में लिपट गया है।
उसने करवट बदलकर कहा, ''सुधा, जिंदगी का एक पहलू खत्म हुआ। दर्द की एक मंजिल खत्म हो गयी। थकान भी दूर हो गयी, लेकिन अब आगे का रास्ता समझ में नहीं आता। क्या करूँ?''
''करना बहुत है, चन्दर! अपने अन्दर की बुराई से लड़ लिये, अब बाहर की बुराई से लड़ो। मेरा तो सपना था चन्दर कि तुम बहुत बड़े आदमी बनोगे। अपने बारे में तो जो कुछ सोचा था वह सब नसीब ने तोड़ दिया। अब तुम्हीं को देखकर कुछ सन्तोष मिलता है। तुम जितने ऊँचे बनोगे, उतना ही चैन मिलेगा। वर्ना मैं तो नरक में भुन रही हूँ।''
''सुधा, तुम्हारी इसी बात से मेरी सारी हिम्मत, सारा बल टूट जाता है। अगर तुम अपने परिवार में सुखी होती तो मेरा भी साहस बँधा रहता। तुम्हारा यह हाल, तुम्हारा यह स्वास्थ्य, यह असमय वैराग्य और पूजा, यह घुटन देखकर लगता है क्या करूँ? किसके लिए करूँ?''
''मैं भी क्या करूँ, चन्दर! मैं यह जानती हूँ कि अब ये भी मेरा बहुत खयाल रखते हैं, लेकिन इस बात पर मुझे और भी दुख होता है। मैं इन्हें सन्तुलित नहीं कर पाती और उनकी खुलकर उपेक्षा भी नहीं कर पाती। यह अजब-सा नरक है मेरा जीवन भी, लेकिन यह जरूर है चन्दर कि तुम्हें ऊँचा देखकर मैं यह नरक भी भोग ले जाऊँगी। तुम दिल मत छोटा करो। एक ही जिंदगी की तो बात है, उसके बाद...''
''लेकिन मैं तो पुनर्जन्म में विश्वास ही नहीं करता।''
''तब तो और भी अच्छा है, इसी जन्म में जो सुख दे सकते हो, दे लो। जितना ऊँचे उठ सकते हो, उठ लो।''
''तुम जो रास्ता बताओ वह मैं अपनाने के लिए तैयार हूँ। मैं सोचता हूँ, अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठूँ...लेकिन मेरे साथ एक शर्त है। तुम्हारा प्यार मेरे साथ रहे!''
''तो वह अलग कब रहा, चन्दर! तुम्हीं ने जब चाहा मुँह फेर लिया। लेकिन अब नहीं। काश कि तुम एक क्षण का भी अनुभव कर पाते कि तुमसे दूर वहाँ, वासना के कीचड़ में फँसी हुई मैं कितनी व्याकुल, कितनी व्यथित हूँ तो तुम ऐसा कभी न करते! मेरे जीवन में जो कुछ अपूर्णता रह गयी है चन्दर, उसकी पूर्णता, उसकी सिद्धि तुम्हीं हो। तुम्हें मेरे जन्म-जन्मान्तर की शान्ति की सौगन्ध है, तुम अब इस तरह न करना! बस ब्याह कर लो और दृढ़ता से ऊँचाई की ओर चलो।''
''ब्याह के अलावा तुम्हारी सब बातें स्वीकार हैं। लेकिन फिर भी तुम अपना प्यार वापस नहीं लोगी कभी?''
''कभी नहीं।''
''और हम कभी नाराज भी हो जाएँ तो बुरा नहीं मानोगी?''
''नहीं!''
''और हम कभी फिसलें तो तुम तटस्थ होकर नहीं बैठोगी बल्कि बिना डरे हुए मुझे खींच लाओगी उस दलदल से?''
''यह कठिन है चन्दर, आखिर मेरे भी बन्धन हैं। लेकिन खैर...अच्छा यह बताओ, तुम दिल्ली कब आओगे?''
''अब दिल्ली तो दशहरे में आऊँगा। गर्मियों में यहीं रहूँगा।...लेकिन हो सका तो लौटने के बाद शाहजहाँपुर आऊँगा।''
सुधा चुपचाप बैठी रही। चन्दर भी चुपचाप लेटा रहा। थोड़ी देर बाद चन्दर ने सुधा की हथेली अपने हाथों पर रख ली और आँखें बन्द कर लीं। जब वह सो गया तो सुधा ने धीरे-से हाथ उठाया, खड़ी हो गयी। थोड़ी देर अपलक उसे देखती रही और धीरे-धीरे चली आयी।
दूसरे दिन सुबह सुधा ने आकर चन्दर को जगाया। चन्दर उठ बैठा तो सुधा बोली-''जल्दी से नहा लो, आज तुम्हारे साथ पूजा करेंगे!''
चन्दर उठ बैठा। नहा-धोकर आया तो सुधा ने चौकी के सामने दो आसन बिछा रखे थे। चौकी पर धूप सुलग रही थी और फूल गमक रहे थे। ढेर-के-ढेर बेलें और अगस्त के फूल। चन्दर को बिठाकर सुधा बैठी। उसने फिर वही वेश धारण कर लिया था। रेशम की धोती और रेशम का एक अन्तर्वासक, गीले बाल पीठ पर लहरा रहे थे।
''लेकिन मैं बैठा-बैठा क्या करूँगा?'' उसने पूछा।
सुधा कुछ नहीं बोली। चुपचाप अपना काम करती गयी। थोड़ी देर बाद उसने भागवत खोली और बड़े मधुर स्वरों में गोपिका-गीत पढ़ती रही। चन्दर संस्कृत नहीं समझता था, पूजा में विश्वास नहीं करता था, लेकिन वह क्षण जाने कैसा लग रहा था! चन्दर की साँस में धूप की पावन सौरभ के डोरे गुँथ गये थे। उसके घुटनों पर रह-रहकर सद्य:स्नाता सुधा के भीगे केशों से गीले मोती चू पड़ते थे। कृशकाय, उदास और पवित्र सुधा के पूजा के प्रसाद जैसे मधुर स्वर में श्रीमद्भागवत के श्लोक उसकी आत्मा को अमृत से धो रहे थे। लगता था, जैसे इस पूजा की श्रद्धान्वित बेला में उसके जीवन-भर की भूलें, कमजोरियाँ, गुनाह सभी धुलता जा रहा था।...जब सुधा ने भागवत बन्द करके रख दिया तो पता नहीं क्यों चन्दर ने प्रणाम कर लिया-भागवत को या भागवत की पुजारिन को, यह नहीं मालूम।
थोड़ी देर बाद सुधा ने पूजा की थाली उठायी और उसने चन्दर के माथे पर रोली लगा दी।
''अरे मैं!''
''हाँ तुम! और कौन...मेरे तो दूसरा न कोई!'' सुधा बोली और ढेर-के-ढेर फूल चन्दर के चरणों पर चढ़ाकर, झुककर चन्दर के चरणों को प्रणाम कर लिया। चन्दर ने घबराकर पाँव खींच लिए, ''मैं इस योग्य नहीं हूँ, सुधा! क्यों लज्जित कर रही हो?''
सुधा कुछ नहीं बोली...अपने आँचल से एक छलकता हुआ आँसू पोंछकर नाश्ता लाने चली गयी।
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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जब वह यूनिवर्सिटी से लौटा तो देखा, सुधा मशीन रखे कुछ सिल रही है। चन्दर ने कपड़े बदलकर पूछा, ''कहो, क्या सिल रही हो?''
''रूमाल और बनियाइन! कैसे काम चलता था तुम्हारा? न सन्दूक में एक भी रूमाल है, न एक भी बनियाइन। लापरवाही की भी हद है। तभी कहती हूँ ब्याह कर लो!''
''हाँ, किसी दर्जी की लड़की से ब्याह करवा दो!'' चन्दर खाट पर बैठ गया और सुधा मशीन पर बैठी-बैठी सिलती रही। थोड़ी देर बाद सहसा उसने मशीन रोक दी और एकदम से घबरा कर उठी।
''क्या हुआ, सुधा...''
''बहुत दर्द हो रहा है....'' वह उठी और खाट पर बेहोश-सी पड़ रही। चन्दर दौडक़र पंखा उठा लाया। और झलने लगा। ''डॉक्टर बुला लाऊँ?''
''नहीं, अभी ठीक हो जाऊँगी। उबकाई आ रही है!'' सुधा उठी।
''जाओ मत, मैं पीकदान उठा लाता हूँ।'' चन्दर ने पीकदान उठाकर रख दिया और सुधा की पीठ सहलाने लगा। फिर सुधा हाँफती-सी लेट गयी। चन्दर दौड़कर इलायची और पानी ले आया। सुधा ने इलायची खायी और फिर पड़ रही। उसके माथे पर पसीना झलक आया।
''अब कैसी तबीयत है, सुधा?''
''बहुत दर्द है अंग-अंग में...मशीन चलाना नुकसान कर गया।'' सुधा ने बहुत क्षीण स्वरों में कहा।
''जाऊँ किसी डॉक्टर को बुला लाऊँ?''
''बेकार है, चन्दर! मैं तो लखनऊ में दिखा आयी। इस रोग का क्या इलाज है। यह तो जिंदगी-भर का अभिशाप है!''
''क्या बीमारी बतायी तुम्हें?''
''कुछ नहीं।''
''बताओ न?''
''क्या बताऊँ, चन्दर!'' सुधा ने बड़ी कातर निगाहों से चन्दर की ओर देखा और फूट-फूटकर रो पड़ी। बुरी तरह सिसकने लगी। सुधा चुपचाप पड़ी कराहती रही। चन्दर ने अटैची में से दवा निकालकर दी। कॉलेज नहीं गया। दो घंटे बाद सुधा कुछ ठीक हुई। उसने एक गहरी साँस ली और तकिये के सहारे उठकर बैठ गयी। चन्दर ने और कई तकिये पीछे रख दिये। दो ही घंटे में सुधा का चहेरा पीला पड़ा गया। चन्दर चुपचाप उदास बैठा रहा।
उस दिन सुधा ने खाना नहीं खाया। सिर्फ फल लिये। दोपहर को दो बजे भयंकर लू में कैलाश वापस आया और आते ही चन्दर से पूछा, ''सुधा की तबीयत तो ठीक रही?'' यह जानकर कि सुबह खराब हो गयी थी, वह कपड़े उतारने के पहले सुधा के कमरे में गया और अपने हाथ से दवा देकर फिर कपड़े बदलकर सुधा के कमरे में जाकर सो गया। बहुत थका मालूम पड़ता था।
चन्दर आकर अपने कमरे में कॉपियाँ जाँचता रहा। शाम को कामिनी, प्रभा तथा कई लड़कियाँ, जिन्हें गेसू ने खबर दे दी थी, आयीं और सुधा और कैलाश को घेरे रहीं। चन्दर उनकी खातिर-तवज्जो में लगा रहा। रात को कैलाश ने उसे अपनी छत पर बुला लिया और चन्दर के भविष्य के कार्यक्रम के बारे में बात करता रहा। जब कैलाश को नींद आने लगी, तब वह उठकर लॉन पर लौट आया और लेट गया।
बहुत देर तक उसे नींद नहीं आयी। वह सुधा की तकलीफों के बारे में सोचता रहा। उधर सुधा बहुत देर तक करवटें बदलती रही। यह दो दिन सपनों की तरह बीत गये और कल वह फिर चली जाएगी चन्दर से दूर, न जाने कब तक के लिए!
सुबह से ही सुधा जैसे बुझ गयी थी। कल तक जो उसमें उल्लास वापस आ गया था, वह जैसे कैलाश की छाँह ने ही ग्रस लिया था। चन्दर के कॉलेज का आखिरी दिन था। चन्दर कैलाश को ले गया और अपने मित्रों से, प्रोफेसरों से उसका परिचय करा लाया। एक प्रोफेसर, जिनकी आदत थी कि वे कांग्रेस सरकार से सम्बन्धित हर व्यक्ति को दावत जरूर देते थे, उन्होंने कैलाश को भी दावत दी क्योंकि वह सांस्कृतिक मिशन में जा रहा था।
वापस जाने के लिए रात की गाड़ी तय रही। हफ्ते-भर बाद ही कैलाश को जाना था अत: वह ज्यादा नहीं रुक सकता था। दोपहर का खाना दोनों ने साथ खाया। सुधा महराजिन का लिहाज करती थी, अत: वह कैलाश के साथ खाने नहीं बैठी। निश्चय हुआ कि अभी से सामान बाँध लिया जाए ताकि पार्टी के बाद सीधे स्टेशन जा सकें।
जब सुधा ने चन्दर के लाये हुए कपड़े कैलाश को दिखाये तो उसे बड़ा ताज्जुब हुआ। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, कपड़े रख लिये और चन्दर से जाकर बोला, ''अब जब तुमने लेने-देने का व्यवहार ही निभाया है तो यह बता दो, तुम बड़े हो या छोटे?''
''क्यों?'' चन्दर ने पूछा।
''इसलिए कि बड़े हो तो पैर छूकर जाऊँ, और छोटे हो तो रुपया देकर जाऊँ!'' कैलाश बोला। चन्दर हँस पड़ा।
घर में दोपहर से ही उदासी छा गयी। न चन्दर दोपहर को सोया, न कैलाश और न सुधा। शाम की पार्टी में सब लोग गये। वहाँ से लौटकर आये तो सुधा को लगा कि उसका मन अभी डूब जाएगा। उसे शादी में भी जाना इतना नहीं अखरा था जितना आज अखर रहा था। मोटर पर सामान रखा जा रहा था तो वह खम्भे से टिककर खड़ी रो रही थी। महराजिन एक टोकरी में खाने का सामान बाँध रही थी।
कैलाश ने देखा तो बोला, ''रो क्यों रही हो? छोड़ जाएँ तुम्हें यहीं? चन्दर से सँभलेगा!'' सुधा ने आँसू पोंछकर आँखों से डाँटा-''महराजिन सुन रही हैं कि नहीं।'' मोटर तक पहुँचते-पहुँचते सुधा फूट-फूटकर रो पड़ी और महराजिन उसे गले से लगाकर आँसू पोंछने लगीं। फिर बोलीं, ''रोवौ न बिटिया! अब छोटे बाबू का बियाह कर देव तो दुई-तीन महीना आयके रह जाव। तोहार सास छोडि़हैं कि नैं?''
सुधा ने कुछ जवाब नहीं दिया और पाँच रुपये का नोट महराजिन के हाथ में थमाकर आ बैठी।
ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गयी थी। सेकेंड क्लास में चन्दर ने इन लोगों का बिस्तर लगवा दिया। सीट रिजर्व करवा दी। गाड़ी छूटने में अभी घंटा-भर देर थी। सुधा की आँखों में विचित्र-सा भाव था। कल तक की दृढ़ता, तेज, उल्लास बुझ गया था और अजब-सी कातरता आ गयी थी। वह चुप बैठी थी। चन्दर से जब नहीं देखा गया तो वह उठकर प्लेटफार्म पर टहलने लगा। कैलाश भी उतर गया। दोनों बातें करने लगे। सहसा कैलाश ने चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, ''हाँ यार, एक बात बहुत जरूरी थी।''
''क्या?''
''इन्होंने तुमसे बिनती के बारे में कुछ कहा?''
''कहा था!''
''तो क्या सोचा तुमने?''
''मैं शादी-वादी नहीं करूँगा।''
''यह सब आदर्शवाद मुझे अच्छा नहीं लगा, और फिर उससे शादी करके सच पूछो तो बहुत बड़ी बात करोगे तुम! उस घटना के बाद अब ब्राह्मïणों में तो वर उसे मिलने से रहा। और ये कह रही थीं कि वह तुम्हें मानती भी बहुत है।''
''हाँ, लेकिन इसके मतलब यह नहीं कि मैं शादी कर लूँ। मुझे बहुत कुछ करना है।''
''अरे जाओ यार, तुम सिवा बातों के कुछ नहीं कर सकते।''
''हो सकता है।'' चन्दर ने बात टाल दी। वह शादी तो नहीं ही करेगा।
थोड़ी देर बाद चन्दर ने पूछा, ''इन्हें दिल्ली कब भेजोगे?''
''अभी तो जिस दिन मैं जाऊँगा, उस दिन ये दिल्ली मेरे साथ जाएँगी, लेकिन दूसरे दिन शाहजहाँपुर लौट जाएँगी।''
''क्यों?''
''अभी माँ बहुत बिगड़ी हुई हैं। वह इन्हें आने थोड़े ही देती थीं। वह तो लखनऊ के बहाने मैं इन्हें ले आया। तुम शंकर भइया से कभी जिक्र मत करना-अब दिल्ली तो इसलिए चली जाएँ कि मैं दो-तीन महीने बाद लौटूँगा...फिर शायद सितम्बर, अक्टूबर में ये तीन-चार महीने के लिए दिल्ली जाएँगी। यू नो शी इज कैरीइङ्!''
''हाँ, अच्छा!''
''हाँ, यही तो बात है, पहला मौका है।''
दोनों लौटकर कम्पार्टमेंट में बैठ गये।
सुधा बोली, ''तो सितम्बर में आओगे न, चन्दर?''
''हाँ-हाँ!''
''जरूर से? फिर वक्त कोई बहाना न बना देगा।''
''जरूर आऊँगा!''
कैलाश उतरकर कुछ लेने गया तो सुधा ने अपनी आँखों से आँसू पोंछकर झुककर चन्दर के पाँव छू लिये और रोकर बोली, ''चन्दर, अब बहुत टूट चुकी हूँ...अब हाथ न खींच लेना...'' उसका गला रुँध गया।
चन्दर ने सुधा के हाथों को अपने हाथ में ले लिया और कुछ भी नहीं बोला। सुधा थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली-
''चन्दर, चुप क्यों हो? अब तो नफरत नहीं करोगे? मैं बहुत अभागी हूँ, देवता! तुमने क्या बनाया था और अब क्या हो गयी!...देखो, अब चिठ्ठी लिखते रहना। नहीं तो सहारा टूट जाता है...'' और फिर वह रो पड़ी।
कैलाश कुछ किताबें और पत्रिकाएँ खरीदकर वापस आ गया। दोनों बैठकर बातें करते रहे। यह निश्चय हुआ कि जब कैलाश लौटेगा तो बजाय बम्बई से सीधे दिल्ली जाने के, वह प्रयाग से होता हुआ जाएगा।
गाड़ी चली तो चन्दर ने कैलाश को बहुत प्यार से गले लगा लिया। जब तक गाड़ी प्लेटफॉर्म के अन्दर रही, सुधा सिर निकाले झाँकती रही। प्लेटफार्म के बाहर भी पीली चाँदनी में सुधा का फहराता हुआ आँचल दिखता रहा। धीरे-धीरे वह एक सफेद बिन्दु बनकर अदृश्य हो गया। गाड़ी एक विशाल अजगर की तरह चाँदनी में रेंगती चली जा रही थी।
जब मन में प्यार जाग जाता है तो प्यार की किरन बादलों में छिप जाती है। अजब थी चन्दर की किस्मत! इस बार तो, सुधा गयी थी तो उसके तन-मन को एक गुलाबी नशे में सराबोर कर गयी थी। चन्दर उदास नहीं था। वह बेहद खुश था। खूब घूमता था और गरमी के बावजूद खूब काम करता था। अपने पुराने नोट्स निकाल लिये थे और एक नयी किताब की रूपरेखा सोच रहा था। उसे लगता था कि उसका पौरुष, उसकी शक्ति, उसका ओज, उसकी दृढ़ता, सभी कुछ लौट आया है। उसे हरदम लगता कि गुलाबी पाँखुरियों की एक छाया उसकी आत्मा को चूमती रहती है। वह जब कभी लेटता तो उसेलगता कि सुधा फूलों के धनुष की तरह उसके पलँग के आर-पार पाटी पर हाथ टेके बैठी है। उसे लगता-कमरे में अब भी धूप की सौरभ लहरा रही है और हवाओं में सुधा के मधुर कंठ के श्लोक गूँज रहे हैं।
दो ही दिन में चन्दर को लग रहा था कि उसकी जिंदगी में जहाँ जो कुछ टूट-फूट गया है, वह सब सँभल रहा है। वह सब अभाव धीरे-धीरे भर रहा है। उसके मन का पूजा-गृह खँडहर हो चुका था, सहसा उस पर जैसे किसी ने आँसू छिड़ककर जीवन के वरदान से अभिषिक्त कर दिया था। पत्थर के बीच दबकर पिसे हुए पूजा-गीत फिर से सस्वर हो उठे थे। मुरझाये हुए पूजा-फूलों की पाँखुरियों में फिर रस छलक आया था और रंग चमक उठे थे। धीरे-धीरे मन्दिर का कँगूरा फिर सितारों से समझौता करने की तैयारी करने लगा था। चन्दर की नसों में वेद-मन्त्रों की पवित्रता और ब्रज की वंशी की मधुराई पलकों में पलकें डालकर नाच उठी थी। सारा काम जैसे वह किसी अदृश्य आत्मा की आत्मा की आज्ञा से करता था। वह आत्मा सिवा सुधा के और भला किसकी थी! वह सुधामय हो रहा था। उसके कदम-कदम में, बात-बात में, साँस-साँस में सुधा का प्यार फिर से लौट आया था।
तीसरे दिन बिनती का एक पत्र आया। बिनती ने उसे दिल्ली बुलाया था और मामाजी (डॉक्टर शुक्ला) भी चाहते थे कि चन्दर कुछ दिन के लिए दिल्ली चला आये तो अच्छा है। चन्दर के लिए कुछ कोशिश भी कर रहे थे। उसने लिख दिया कि वह मई के अन्त में या जून के प्रारम्भ में आएगा। और बिनती को बहुत, बहुत-सा स्नेह। उसने सुधा के आने की बात नहीं लिखी क्योंकि कैलाश ने मना कर दिया था।
सुबह चन्दर गंगा नहाता, नयी पुस्तकें पढ़ता, अपने नोट्स दोहराता। दोपहर को सोता और रेडियो बजाता, शाम को घूमता और सिनेमा देखता, सोते वक्त कविताएँ पढ़ता और सुधा के प्यार के बादलों में मुँह छिपाकर सो जाता। जिस दिन कैलाश जाने वाला था, उसी दिन उसका एक पत्र आया कि वह और सुधा दिल्ली आ गये हैं। शंकर भइया और नीलू उसे पहुँचाने बम्बई जाएँगे। चन्दर सुधा के इलाहाबाद जाने का जिक्र किसी को भी न लिखे। यह उसके और चन्दर के बीच की बात थी। खत के नीचे सुधा की कुछ लाइनें थीं।
''चन्दर,
राम-राम। तुमने मुझे जो साड़ी दी थी वह क्या अपनी भावी श्रीमती के नाप की थी? वह मेरे घुटनों तक आती है। बूढ़ी होकर घिस जाऊँगी तो उसे पहना करूँगी-अच्छा स्नेह। और जो तुमसे कह आयी हूँ उन बातों का ध्यान रहेगा न? मेरी तन्दुरुस्ती ठीक है। इधर मैंने गाँधीजी की आत्मकथा पढ़नी शुरू की है।
तुम्हारी-सुधा।
''...और हाँ, लालाजी! मिठाई खिलाओ, दिल्ली में बहुत खबर है कि शरणार्थी विभाग में प्रयाग के एक प्रोफेसर आने वाले हैं!''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

कैलाश तो अब बम्बई चल दिया होगा। बम्बई के पते से उसने बधाई का एक तार भेज दिया और सुधा को एयर मेल से उसने एक खत भेजा जिसमें उसने बहुत-सी मिठाइयों का चित्र बना दिया था।
लेकिन वह पसोपेश में पड़ गया। दिल्ली जाए या न जाए। वह अपने अन्तर्मन से सरकारी नौकरी का विरोधी था। उसे तत्कालीन भारतीय सरकार और ब्रिटिश सरकार में ज्यादा अन्तर नहीं लगता था। फिर हर दृष्टिकोण से वह समाजवादियों के अधिक समीप था। और अब वह सुधा से वायदा कर चुका था कि वह काम करेगा। ऊँचा बनेगा। प्रसिद्ध होगा, लेकिन पद स्वीकार कर ऊँचा बनना उसके चरित्र के विरुद्ध था। किन्तु डॉक्टर शुक्ला कोशिश कर कर रहे थे। चन्दर केन्द्रीय सरकार के किसी ऊँचे पद पर आए, यह उनका सपना था। चन्दर को कॉलेज की स्वच्छन्द और ढीली नौकरी पसन्द थी। अन्त में उसने यह सोचा कि पहले नौकरी स्वीकार कर लेगा। बाद में फिर कॉलेज चला आएगा-एक दिन रात को जब वह बिजली बुझाकर, किताब बन्द कर सीने पर रखकर सितारों को देख रहा था और सोच रहा था कि अब सुधा दिल्ली लौट गयी होगी, अगर दिल्ली रह गया तो बँगले में किसे टिकाया जाएगा...इतने में किसी व्यक्ति ने फाटक खोलकर बँगले में प्रवेश किया। उसे ताज्जुब हुआ कि इतनी रात को कौन आ सकता है, और वह भी साइकिल लेकर! उसने बिजली जला दी। तार वाला था।
साइकिल खड़ी कर, तार वाला लॉन पर चला गया और तार दे दिया। दस्तखत करके उसने लिफाफा फाड़ा। तार डॉक्टर साहब का था। लिखा था कि ''अगली ट्रेन से फौरन चले आओ। स्टेशन पर सरकारी कार होगी सलेटी रंग की।'' उसके मन ने फौरन कहा, चन्दर, हो गये तुम केन्द्र में!
उसकी आँखों से नींद गायब हो गयी। वह उठा, अगली ट्रेन सुबह तीन बजे जाती थी। ग्यारह बजे थे। अभी चार घंटे थे। उसने एक अटैची में कुछ अच्छे-से-अच्छे सूट रखे, किताबें रखीं, और माली को सहेजकर चल दिया। मोटर को स्टेशन से वापस लाने की दिक्कत होती, ड्राइवर अब था नहीं, अत: नौकर को अटैची देकर पैदल चल दिया। राह में सिनेमा से लौटता हुआ रिक्शा मिल गया।
चन्दर ने सेकेंड क्लास का टिकट लिया और ठाठ से चला। कानपुर में उसने सादी चाय पी और इटावा में रेस्तराँ-बार में जाकर खाना खाया। उसके बगल में मारवाड़ी दम्पति बैठे थे जो सेकेंड क्लास का किराया खर्च करके प्रायश्चितस्वरूप एक आने की पकौड़ी और दो आने की दालमोठ से उदर-पूर्ति कर रहे थे। हाथरस स्टेशन पर एक मजेदार घटना घटी। हाथरस में छोटी और बड़ी लाइनें क्रॉस करती हैं। छोटी लाइन ऊपर पुल पर खड़ी होती है। स्टेशन के पास जब ट्रेन धीमी हुई तो सेठजी सो रहे थे। सेठानी ने बाहर झाँककर देखा और निस्संकोच उनके पृथुल उदर पर कर-प्रहार करके कहा, ''हो! देखो रेलगाड़ी के सिर पर रेलगाड़ी!'' सेठ एकदम चौंककर जागे और उछलकर बोले, ''बाप रे बाप! उलट गयी रेलगाड़ी। जल्दी सामान उतार। लुट गये राम! ये तो जंगल है। कहते थे जेवर न ले चल।''
चन्दर खिलखिलाकर हँस पड़ा। सेठजी ने परिस्थिति समझी और चुपचाप बैठ गये। चन्दर करवट बदलकर फिर पढ़ने लगा।
इतने में ऊपर की गाड़ी से उतर कर कोई औरत हाथ में एक गठरी लिये आयी और अन्दर ज्यों ही घुसी कि मारवाड़ी बोला, ''बुड्ढी, यह सेकेंड क्लास है।''
''होई! सेकेण्ड-थर्ड तो सब गोविन्द की माया है, बच्चा!''
चन्दर का मुँह दूसरी ओर था, लेकिन उसने सोचा गोविन्दजी की माया का वर्णन और विश्लेषण करते हुए रेल के डब्बों के वर्गीकरण को भी मायाजाल बताना शायद भागवतकार की दिव्यदृष्टि से सम्भव होगा। लेकिन यह भी मारवाड़ी कोई सुधा तो था नहीं कि वैष्णव साहित्य और गोविन्दजी की माया का भक्त होता। जब उसने कहा-गार्ड साहब को बुलाऊँ? तो बुढ़िया गरज उठी-''बस-बस, चल हुआँ से, गार्ड का तोर दमाद लगत है जौन बुलाइहै। मोटका कद्दू!''
चन्दर हँस पड़ा, कम-से-कम गाली की नवीनता पर। दूसरी बात; गाड़ी उस समय ब्रजक्षेत्र में थी, वहाँ यह अवधी का सफल वक्ता कौन है! उसने घूमकर देखा। एक बुढ़िया थी, सिर मुड़ाये। उसने कहीं देखा है इसे!
''कहाँ जाओगी, माई?''
''कानपुर जाबै।''
''लेकिन यह गाड़ी तो दिल्ली जाएगी?''
''तुहूँ बोल्यो टुप्प से! हम ऐसे धमकावे में नै आइत। ई कानपुर जइहै!'' उसने हाथ नचाकर चन्दर से कहा। और फिर जाने क्यों रुक गयी और चन्दर की ओर देखने लगी। फिर बोली, ''अरे चन्दर बेटवा, कहाँ से आवत हौ तू!''
''ओह! बुआजी हैं। सिर मुड़ा लिया तो पहचान में ही नहीं आतीं!'' चन्दर ने फौरन उठकर पाँव छुए। बुआजी वृन्दावन से आ रही थीं। वह बैठ गयीं, बोलीं, ''ऊ नटिनियाँ मर गयी कि अबहिन है?''
''कौन?''
''ओही बिनती!''
''मरेगी क्यों?''
''भइया! सुकुल तो हमार कुल डुबोय दिहिन। लेकिन जैसे ऊ हमरी बिटिया के मड़वा तरे से उठाय लिहिन वैसे भगवान चाही तो उनहू का लड़की से समझी!''
चन्दर कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद खुद बड़बड़ाती हुई बुआजी बोलीं, ''अब हमें का करै को है। हम सब मोह-माया त्याग दिया। लेकिन हमरे त्याग में कुच्छौ समरथ है तो सुकुल को बदला मिलिहै!''
कानपुर की गाड़ी आयी तो चन्दर खुद उन्हें बिठाल आया। विचित्र थीं बुआजी, बेचारी कभी समझ ही नहीं पायीं कि बिनती को उठाकर डॉक्टर साहब ने उपकार किया या अपकार और मजा तो यह है कि एक ही वाक्य के पूर्वार्द्ध में मायामोह से विरक्ति की घोषणा और उत्तरार्द्ध में दुर्वासा का शाप...हिन्दुस्तान के सिवा ऐसे नमूने कहीं भी मिलने मुश्किल हैं। इतने में चन्दर की गाड़ी ने सीटी दी। वह भागा। बुआजी ने चन्दर का खयाल छोड़कर अपने बगल के मुसाफिर से लड़ना शुरू कर दिया।
वह दिल्ली पहुँचा। दो-तीन साल पहले भी वह दिल्ली आया था लेकिन अब दिल्ली स्टेशन की चहल-पहल ही दूसरी थी। गाड़ी घंटा-भर लेट थी। नौ बज चुके थे। अगर मोटर न मिली तो भी इतनी मशहूर सड़क पर डॉक्टर साहब का बँगला था कि चन्दर को विशेष दिक्कत न होती। लेकिन ज्यों ही वह प्लेटफॉर्म से बाहर निकला तो उसने देखा कि जहाँ मरकरी की बड़ी सर्चलाइट लगी है, ठीक उसी के नीचे सलेटी रंग की शानदार कार खड़ी थी जिसके आगे-पीछे क्राउन लगा था और सामने तिरंगा, आगे लाल वर्दी पहने एक खानसामा बैठा है। और पीछे एक सिख ड्राइवर खड़ा है। चन्दर का सूट चाहे जितना अच्छा हो लेकिन इस शान के लायक तो नहीं ही था। फिर भी वह बड़े रोब से गया और ड्राइवर से बोला, ''यह किसकी मोटर है?''
''सर्कारी गड्डी हैज्जी।'' सिख ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।
''क्या यह डॉक्टर शुक्ला ने भेजी है?''
''जी हाँ, हुजूर!'' एकदम उसका स्वर बदल गया-''आप ही उनके लड़के हैं-चन्दर बहादुर साहब?'' उसने उतरकर सलाम किया। दरवाजा खोला, चन्दर बैठ गया। कुली को एक अटैची के लिए एक अठन्नी दी। मोटर उड़ चली।
चन्दर बहुत उदार विचारों का था लेकिन आज तक वह डॉक्टर साहब की उन्नीसवीं सदी वाली पुरानी कार पर ही चढ़ा था। इस राजमुकुट और राष्ट्रीय ध्वज से सुशोभित मोटर पर खानसामे के साथ चढऩे का उसका पहला ही मौका था। उसे लगा जैसे इस समय तिरंगे का गौरव और महान ब्रिटिश साम्राज्य के इस क्राउन का शासनदम्भ उसके मन को उड़ाये लिये जा रहा है। चन्दर तनकर बैठा लेकिन थोड़ी देर बाद स्वयं उसे अपने मन पर हँसी आ गयी। फिर वह सोचने लगा कि जिन लोगों के हाथ में आज शासन-सत्ता है; मोटरों और खानसामों ने उनके हृदयों को इस तरह बदल दिया है। वे भी तो बेचारे आदमी हैं, इतने दिनों से प्रभुता के प्यासे। बेकार हम लोग उन्हें गाली देते हैं। फिर चन्दर उन लोगों का खयाल करके हँस पड़ा।
दिल्ली में इलाहाबाद की अपेक्षा कम गरमी थी। कार एक बँगले के अन्दर मुड़ी और पोर्टिको में रुक गयी। बँगला नये सादे अमेरिकन ढंग का बना हुआ था। खानसामे ने उतरकर दरवाजा खोला। चन्दर उतर पड़ा। ड्राइवर ने हॉर्न दिया। दरवाजा खुला और बिनती निकली। उसका मुँह सूखा हुआ था, बाल अस्त-व्यस्त थे और आँखें जैसे रो-रोकर सूज गयी थीं। चन्दर का दिल धक्-से हो गया, राह-भर के सुनहरे सपने टूट गये।
''क्या बात है, बिनती? अच्छी तो हो?'' चन्दर ने पूछा।
''आओ, चन्दर?'' बिनती ने कहा और अन्दर जाते ही दरवाजा बन्द कर दिया और चन्दर की बाँह पकडक़र सिसक-सिसककर रो पड़ी। चन्दर घबरा गया। ''क्या बात है? बताओ न! डॉक्टर साहब कहाँ हैं?''
''अन्दर हैं।''
''तब क्या हुआ? तुम इतनी दु:खी क्यों हो?'' चन्दर ने बिनती के सिर पर हाथ रखकर पूछा...उसे लगा जैसे इस समस्त वातावरण पर किसी बड़े भयानक मृत्यु-दूत के पंखों की काली छाया है...''क्या बात है? बताती क्यों नहीं?''
बिनती बड़ी मुश्किल से बोली, ''दीदी...सुधा दीदी...''
चन्दर को लगा जैसे उस पर बिजली टूट पड़ी-''क्या हुआ सुधा को?'' बिनती कुछ नहीं बोली, उसे ऊपर ले गयी और कमरे के पास जाकर बोली, ''उसी में हैं दीदी!''
कमरे के अन्दर की रोशनी उदास, फीकी और बीमार थी। एक नर्स सफेद पोशाक पहने पलँग के सिरहाने खड़ी थी, और कुर्सी पर सिर झुकाये डॉक्टर साहब बैठे थे। पलँग पर चादर ओढ़े सुधा पड़ी थी। नर्स सामने थी, अत: सुधा का चेहरा नहीं दिखाई पड़ रहा था। चन्दर के भीतर पाँव रखते ही नर्स ने आँख के इशारे से कहा, ''बाहर जाइए।'' चन्दर ठिठककर खड़ा हो गया, डॉक्टर साहब ने देखा और वे भी उठकर चले आये।
''क्या हुआ सुधा को?'' चन्दर ने बहुत व्याकुल, बहुत कातर स्वर में पूछा। डॉक्टर साहब कुछ नहीं बोले। चुपचाप चन्दर के कन्धे पर हाथ रखे हुए अपने कमरे में आये और बहुत भारी स्वर में बोले, ''हमारी बिटिया गयी, चन्दर!'' और आँसू छलक आये।
''क्या हुआ उसे?'' चन्दर ने फिर उतने ही दु:खी स्वर में पूछा।
डॉक्टर साहब क्षण-भर पथराई आँखों से चन्दर की ओर देखते रहे, फिर सिर झुकाकर बोले, ''एबॉर्शन!'' थोड़ी देर बाद सिर उठाकर व्याकुल की तरह चन्दन का कन्धा पकडक़र बोले, ''चन्दर, किसी तरह बचाओ सुधा को, क्या करें कुछ समझ में नहीं आता...अब बचेगी नहीं...परसों से होश नहीं आया। जाओ कपड़े बदलो, खाना खा लो, रात-भर जागरण होगा...''
लेकिन चन्दर उठा नहीं, कुर्सी पर सिर झुकाये बैठा रहा।
सहसा नर्स आकर बोली, ''ब्लीडिंग फिर शुरू हो गयी और नाड़ी डूब रही है। डॉक्टर को बुलाइए...फौरन!'' और वह लौट गयी।
डॉक्टर साहब उठ खड़े हुए। उनकी आँखों में बड़ी निराशा थी। बड़ी उदासी से बोले, ''जा रहा हूँ, चन्दर! अभी आता हूँ!'' चन्दर ने देखा, कार बड़ी तेजी से जा रही है। बिनती आकर बोली, ''खाना खा लो, चन्दर!'' चन्दर ने सुना ही नहीं।
''यह क्या हुआ, बिनती!'' उसने घबराई आवाज में पूछा।
''कुछ समझ में नहीं आता, उस दिन सुबह जीजाजी गये। दोपहर में पापा ऑफिस गये थे। मैं सो रही थी, सहसा जीजी चीखी। मैं जागी तो देखा दीदी बेहोश पड़ी हैं। मैंने जल्दी से फोन किया। पापा आये, डॉक्टर आये। उसके बाद से पापा और नर्स के अलावा किसी को नहीं जाने देते दीदी के पास। मुझे भी नहीं।''
और बिनती रो पड़ी। चन्दर कुछ नहीं बोला। चुपचाप पत्थर की मूर्ति-सा कुर्सी पर बैठा रहा। खिडक़ी से बाहर की ओर देख रहा था।
थोड़ी देर में डॉक्टर साहब वापस आये। उनके साथ तीन डॉक्टर थे और एक नर्स। डॉक्टरों ने करीब दस मिनट देखा, फिर अलग कमरे में जाकर सलाह करने लगे। जब लौटे तो डॉक्टर साहब ने बहुत विह्वïल होकर कहा, ''क्या उम्मीद है?''
''घबराइए मत, घबराइए मत-अब तो जब तक अन्दरूनी सब साफ नहीं हो जाएगा तब तक खून जाएगा। नब्ज के लिए और होश के लिए एक इंजेक्शन देते हैं-अभी।''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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