गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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एक दिन चन्दर आया तो देखा कि बिनती कहीं गयी है और सुधा चुपचाप बैठी हुई बहुत-से पुराने खतों को सँभाल रही है। एक गम्भीर उदासी का बादल घर में छाया हुआ है। चन्दर आया। देखा, सुधा आँख में आँसू भरे बैठी है।
''क्या बात है, सुधा?''
''रुखसती की चिठ्ठी आ गयी चन्दर, परसों शंकर बाबू आ रहे हैं।''
चन्दर के हृदय की धडक़नों पर जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया। वह चुपचाप बैठ गया। ''अब सब खत्म हुआ, चन्दर!'' सुधा ने बड़ी ही करुण मुस्कान से कहा, ''अब साल-भर के लिए विदा और उसके बाद जाने क्या होगा?''
चन्दर कुछ नहीं बोला। वहीं लेट गया और बोला, ''सुधा, दु:खी मत हो। आखिर कैलाश इतना अच्छा है, शंकर बाबू इतने अच्छे हैं। दुख किस बात का? रहा मैं तो अब मैं सशक्त रहूँगा। तुम मेरे लिए मत घबराओ!''
सुधा एकटक चन्दर की ओर देखती रही। फिर बोली, ''चन्दर! तुम्हारे जैसे सब क्यों नहीं होते? तुम सचमुच इस दुनिया के योग्य नहीं हो! ऐसे ही बने रहना, चन्दर मेरे! तुम्हारी पवित्रता ही मुझे जिन्दा रख सकेगी वर्ना मैं तो जिस नरक में जा रही हूँ...''
''तुम उसे नरक क्यों कहती हो! मेरी समझ में नहीं आता!''
''तुम नहीं समझ सकते। तुम अभी बहुत दूर हो इन सब बातों से, लेकिन...'' सुधा बड़ी देर तक चुप रही। फिर खत सब एक ओर खिसका दिये और बोली, ''चन्दर, उनमें सबकुछ है। वे बहुत अच्छे हैं, बहुत खुले विचार के हैं, मुझे बहुत चाहते हैं, मुझ पर कहीं से कोई बन्धन नहीं, लेकिन इस सारे स्वर्ग का मोल जो देकर चुकाना पड़ता है उससे मेरी आत्मा का कण-कण विद्रोह कर उठता है।'' और सहसा घुटनों में मुँह छिपाकर रो पड़ी।
चन्दर उठा और सुधा के माथे पर हाथ रखकर बोला, ''छिह, रोओ मत सुधा! अब तो जैसा है, जो कुछ भी है, बर्दाश्त करना पड़ेगा।''
''कैसे करूँ, चन्दर! वह इतने अच्छे हैं और इसके अलावा इतना अच्छा व्यवहार करते हैं कि मैं उनसे क्या कहूँ? कैसे कहूँ?'' सुधा बोली।
''जाने दो सुधी, जैसी जिंदगी हो वैसा निबाह करना चाहिए, इसी में सुन्दरता है। और जहाँ तक मेरा खयाल है वैवाहिक जीवन के प्रथम चरण में ही यह नशा रहता है, फिर किसको यह सूझता है। आओ, चलो चाय पीएँ! उठो, पागलपन नहीं करते। परसों चली जाओगी, रुलाकर नहीं जाना होता। उठो!'' चन्दर ने अपने मन की जुगुप्सा पीकर ऊपर से बहुत स्नेह से कहा।
सुधा उठी और चाय ले आयी। चन्दर ने अपने हाथ से एक कप में चाय बनायी और सुधा को पिलाकर उसी में पीने लगा। चाय पीते-पीते सुधा बोली-
''चन्दर, तुम ब्याह मत करना! तुम इसके लिए नहीं बने हो।''
चन्दर सुधा को हँसाना चाहता था-''चल स्वार्थी कहीं की! क्यों न करूँ ब्याह? जरूर करूँगा! और जनाब, दो-दो करूँगा! अपने आप तो कर लिया और मुझे उपदेश दे रही हैं!''
सुधा हँस पड़ी। चन्दर ने कहा-
''बस ऐसे ही हँसती रहना हमेशा, हमारी याद करके और अगर रोयी तो समझ लो हम उसी तरह फिर अशान्त हो उठेंगे जैसे अभी तक थे!...'' फिर प्याला सुधा के होठों से लगाकर बोला, ''अच्छा सुधी, कभी तुम सुनो कि मैं उतना पवित्र नहीं रहा जितना कि हूँ तो तुम क्या करोगी? कभी मेरा व्यक्तित्व अगर बिगड़ गया, तब क्या होगा?''
''होगा क्या? मैं रोकने वाली कौन होती हूँ! मैं खुद ही क्या रोक पायी अपने को! लेकिन चन्दर, तुम ऐसे ही रहना। तुम्हें मेरे प्राणों की सौगन्ध है, तुम अपने को बिगाडऩा मत।''
चन्दर हँसा, ''नहीं सुधा, तुम्हारा प्यार मेरी ताकत है। मैं कभी गिर नहीं सकता जब तक तुम मेरी आत्मा में गुँथी हुई हो।''
तीसरे दिन शंकर बाबू आये और सुधा चन्दर के पैरों की धूल माथे पर लगाकर चली गयी...इस बार वह रोयी नहीं, शान्त थी जैसे वधस्थल पर जाता हुआ बेबस अपराधी।
जब तक आसमान में बादल रहते हैं तब तक झील में बादलों की छाँह रहती है। बादलों के खुल जाने के बाद कोई भी झील उनकी छाँह को सुरक्षित नहीं रख पाती। जब तक सुधा थी, चन्दर की जिंदगी का फिर एक बार उल्लास और उसकी ताकत लौट आयी थी, सुधा के जाते ही वह फिर सबकुछ खो बैठा। उसके मन में कोई स्थायित्व नहीं रहा। लगता था जैसे वह एक जलागार है जो बहुत गहरा है, लेकिन जिसमें हर चाँद, सूरज, सितारे और बादल की छाँह पड़ती है और उनके चले जाने के बाद फिर वह उनका प्रतिबिम्ब धो डालता है और बदलकर फिर वैसा ही हो जाता है। कोई भी चीज पानी को रँग नहीं पाती, उसे छू नहीं पाती, हाँ, लहरों में उनकी छाया का रूप विकृत हो जाता है।
चन्दर को चारों ओर की दुनिया सहज गुजरते हुए बादलों का निस्सार तमाशा-सी लग रही थी। कॉलेज की चहल-पहल, ढलती हुई बरसात का पानी, थीसिस और डिग्री, बर्टी का पागलपन और पम्मी के खत-ये सभी उसके सामने आते और सपनों की तरह गुजर जाते। कोई चीज उसके हृदय को छू न पाती। ऐसा लगता था कि चन्दर एक खोखला व्यक्ति है जिसमें सिर्फ एक सापेक्ष अन्त:करण मात्र है, कोई निरपेक्ष आत्मा नहीं और हृदय भी जैसे समाप्त हो गया था। एक जलहीन हल्के बादल की तरह वह हवा के हर झोंके पर तैर रहा था। लेकिन टिकता कभी भी नहीं था। उसकी भावनाएँ, उसका मन, उसकी आत्मा, उसके प्राण, उसका सबकुछ सो गया था और वह जैसे नींद में चल-फिर रहा था, नींद में सबकुछ कर रहा था। जाने के आठ-नौ रोज बाद सुधा का खत आया-
''मेरे भाग्य!
मैं इस बार तुम्हें जिस तरह छोड़ आयी हूँ उससे मुझे पल-भर को चैन नहीं मिलता। अपने को तो बेच चुकी, अपने मन के मोती को कीचड़ में फेंक चुकी, तुम्हारी रोशनी को ही देखकर कुछ सन्तोष है। मेरे दीपक, तुम बुझना मत। तुम्हें मेरे स्नेह की लाज है।
मेरी जिंदगी का नरक फिर मेरे अंगों में भिदना शुरू हो गया है। तुम कहते हो कि जैसे हो निबाह करना चाहिए। तुम कहते हो कि अगर मैंने उनसे निबाह नहीं किया तो यह तुम्हारे प्यार का अपमान होगा। ठीक है, मैं अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए निबाह करूँगी, लेकिन मैं कैसे सँभालूँ अपने को? दिल और दिमाग बेबस हो रहे हैं, नफरत से मेरा खून उबला जा रहा है। कभी-कभी जब तुम्हारी सूरत सामने होती है तो जैसे अपना सुख-दुख भूल जाती हूँ, लेकिन अब तो जिंदगी का तूफान जाने कितना तेज होता जा रहा है कि लगता है तुम्हें भी मुझसे खींचकर अलग कर देगा।
लेकिन तुम्हें अपने देवत्व की कसम है, तुम मुझे अब अपने हृदय से दूर न करना। तुम नहीं जानते कि तुम्हारी याद के ही सहारे मैं यह नरक झेलने में समर्थ हूँ। तुम मुझे कहीं छिपा लो-मैं क्या करूँ, मेरा अंग-अंग मुझ पर व्यंग्य कर रहा है, आँखों की नींद खत्म है। पाँवों में इतना तीखा दर्द है कि कुछ कह नहीं सकती। उठते-बैठते चक्कर आने लगा है। कभी-कभी बदन काँपने लगता है। आज वह बरेली गये हैं तो लगता है मैं आदमी हूँ। तभी तुम्हें लिख भी रही हूँ। तुम दुखी मत होना। चाहती थी कि तुम्हें न लिखूँ लेकिन बिना लिखे मन नहीं मानता। मेरे अपने! तुमने तो यही सोचकर यहाँ भेजा था कि इससे अच्छा लड़का नहीं मिलेगा। लेकिन कौन जानता था कि फूल में कीड़े भी होंगे।
अच्छा, अब माँजी नीचे बुला रही हैं...चलती हूँ...देखो अपने किसी खत में इन सब बातों का जिक्र मत करना! और इसे फाड़कर फेंक देना।
तुम्हारी अभागिन-सुधी।''
चन्दर को खत मिला तो एक बार जैसे उसकी मूर्च्छा टूट गयी। उसने खत लिया और बिनती को बुलाया। बिनती हाथ में साग और डलिया लिये आयी और पास बैठ गयी। चन्दर ने वह खत बिनती को दे दिया। बिनती ने पढ़ा और चन्दर को वापस दे दिया और चुपचाप तरकारी काटने लगी।
वह उठा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद बिनती चाय लेकर आयी और चाय रखकर बोली, ''आप दीदी को कब खत लिख रहे हैं?''
''मैं नहीं लिखूँगा!'' चन्दर बोला।
''क्यों?''
''क्या लिखूँ बिनती, कुछ समझ में नहीं आता!'' कुछ झल्लाकर चन्दर ने कहा। बिनती चुपचाप बैठ गयी। थोड़ी देर बाद चन्दर बड़े मुलायम स्वर में बोला, ''बिनती, एक दिन तुमने कहा था कि मैं देवता हूँ, तुम्हें मुझ पर गर्व है। आज भी तुम्हें मुझ पर गर्व है?''
''पहले से ज्यादा!'' बिनती बोली।
''अच्छा, ताज्जुब है!'' चन्दर बोला, ''अगर तुम जानती कि आजकल कभी-कभी मैं क्या सोचता हूँ तो तुम्हें ताज्जुब होता! तुम जानती तो, सुधा के इस खत से मुझे जरा-सा भी दुख नहीं हुआ, सिर्फ झल्लाहट ही हुई है। मैं सोच रहा था कि क्यों सुधा इतना स्वाँग भरती है दुख और अंतर्द्वंद्व का! किस लड़की को यह सब पसन्द नहीं? किस लड़की के प्यार में शरीर का अंश नहीं होता? लाख प्रतिभाशालिनी लड़कियाँ हों लेकिन अगर वे किसी को प्यार करेंगी तो उसे अपनी प्रतिभा नहीं देंगी, अपना शरीर ही देंगी और यदि वह अस्वीकार कर लिया जाय तो शायद प्रतिहिंसा से तड़प भी उठेंगी। अब तो मुझे ऐसा लगने लगा कि सेक्स ही प्यार है, प्यार का मुख्य अंश है, बाकी सभी कुछ उसकी तैयारी है, उसके लिए एक समुचित वातावरण और विश्वास का निर्माण करना है...जाने क्यों मुझे इस सबसे बहुत नफरत होती जाती है। अभी तक मैं सेक्स और प्यार को दो चीजें समझता था, प्यार पर विश्वास करता था, सेक्स से नफरत, अब मुझे दोनों ही एक चीजें लगती हैं और जाने कैसे अरुचि-सी हो गयी है इस जिंदगी से। तुम्हारी क्या राय है, बिनती?''
''मेरी? अरे, हम बे-पढ़े-लिखे आदमी, हम क्या आपसे बात करेंगे! लेकिन एक बात है। ज्यादा पढऩा-लिखना अच्छा नहीं होता।''
''क्यों?'' चन्दर ने पूछा।
''पढ़ने-लिखने से ही आप और दीदी जाने क्या-क्या सोचते हैं! हमने देहात में देखा है कि वहाँ लड़कियाँ समझती हैं कि उन्हें क्या करना है। इसलिए कभी इन सब बातों पर अपना मन नहीं बिगाड़तीं। बल्कि मैंने तो देखा है सभी शादी के बाद मोटी होकर आती हैं। और दीदी अब छोटी-सी नहीं कि ऐसी उनकी तबीयत खराब हो जाय। यह सब मन में घुटने का नतीजा है। जब यह होना ही है तो क्यों दीदी दु:खी होती हैं? उन्हें तो और मोटी होना चाहिए।'' बिनती बोली।
इस समस्या का इतना सरल समाधान सुनकर चन्दर को हँसी आ गयी।
''अब तुम ससुराल जा रही हो। मोटी होकर आना!''
''धत्, आप तो मजाक करने लगे!''
''लेकिन बिनती, तुम इस मामले में बड़ी विद्वान मालूम देती हो। अभी तक यह विद्वत्ता कहाँ छिपा रखी थी?''
''नहीं, आप मजाक न बनाइए तो मैं सच बताऊँ कि देहाती लड़कियाँ शहर की लड़कियों से ज्यादा होशियार होती हैं इन सब मामलों में।''
''सच?'' चन्दर ने पूछा। वह गाँव की जिंदगी को बेहद निरीह समझता था।
''हाँ और क्या? वहाँ इतना दुराव, इतना गोपन नहीं है। सभी कुछ उनके जीवन का उन्मुक्त है। और ब्याह के पहले ही वहाँ लड़कियाँ सबकुछ...''
''अरे नहीं!'' चन्दर ने बेहद ताज्जुब से कहा।
''लो यकीन नहीं होता आपको? मुझे कैसे मालूम हुआ इतना। मैं आपसे कुछ नहीं छिपाती, वहाँ तो सब लोग इसे इतना स्वाभाविक समझते हैं जितना खाना-पीना, हँसना-बोलना। बस लड़कियाँ इस बात में सचेत रहती हैं कि किसी मुसीबत में न फँसें!''
चन्दर चुपचाप बैठ चाय पीता रहा। आज तक वह जिंदगी को कितना पवित्र मानता रहा था लेकिन जिंदगी कुछ और ही है। जिंदगी अब भी वह है जो सृष्टि के आरम्भ में थी...और दुनिया कितनी चालाक है! कितनी भुलावा देती है! अन्दर से मन में जहर छिपाकर भी होठों पर कैसी अमृतमयी मुसकान झलकाती रहती है! यह बिनती जो इतनी शान्त, संयत और भोली लगती थी, इसमें भी सभी गुन भरे हैं। इस दुनिया में? चन्दर ने जिंदगी को परखने में कितना बड़ा धोखा खाया है।...जिंदगी यह है-मांसलता और प्यास और उसके साथ-साथ अपने को छिपाने की कला।
वह बैठा-बैठा सोचता रहा। सहसा उसने पूछा-
''बिनती, तुम भी देहात में रही हो और सुधा भी। तुम लोगों की जिंदगी में वह सब कभी आया?''
बिनती क्षण-भर चुप रही, फिर बोली, ''क्यों, क्या नफरत करोगे सुनकर!''
''नहीं बिनती, जितनी नफरत और अरुचि दिल में आ गयी है उससे ज्यादा आ सकती है भला! बताना चाहो तो बता दो। अब मैं जिंदगी को समझना चाहता हूँ, वास्तविकता के स्तर पर!'' चन्दर ने गम्भीरता से पूछा।
''मैंने आपसे कुछ नहीं छिपाया, न अब छिपाऊँगी। पता नहीं क्यों दीदी से भी ज्यादा आप पर विश्वास जमता जा रहा है। सुधा दीदी की जिंदगी में तो यह सब नहीं आ पाया। वे बड़ी विचित्र-सी थीं। सबसे अलग रहती थीं और पढ़तीं और कमल के पोखरे में फूल तोड़ती थीं, बस! मेरी जिंदगी में...''
चन्दर ने चाय का प्याला खिसका दिया। जाने किस भाव से उसने बिनती के चेहरे की ओर देखा। वह शान्त थी, निर्विकार थी और बिना किसी हिचक के कहती जा रही थी।
चन्दर चुप था। बिनती ने अपने पाँवों से चन्दर के पाँवों की उँगलियाँ दबाते हुए पूछा, ''क्या सोच रहे हैं आप? सुन रहे हैं आप?''
''जाने दो, मैं नहीं सुनूँगा। लेकिन तुम मुझ पर इतना विश्वास क्यों करती हो?'' चन्दर ने पूछा।
''जाने क्यों? यहाँ आकर मैंने दीदी के साथ आपका व्यवहार देखा। फिर पम्मी वाली घटना हुई। मेरे तन-मन में एक विचित्र-सी श्रद्धा आपके लिए छा गयी। जाने कैसी अरुचि मेरे मन में दुनिया के लिए थी, आपको देखकर मैं फिर स्वस्थ हो गयी।''
''ताज्जुब है! तुम्हारे मन की अरुचि दूर हो गयी दुनिया के प्रति और मेरे मन की अरुचि बढ़ गयी। कैसे अन्तर्विरोध होते हैं मन की प्रतिक्रियाओं में! एक बात पूछूँ, बिनती! तुम मेरे इतने समीप रही हो। सैकड़ों बार ऐसा हुआ होगा जो मेरे विषय में तुम्हारे मन में शंका पैदा कर देता, तुम सैकड़ों बार मेरे सिर को अपने वक्ष पर रखकर मुझे सान्त्वना दे चुकी हो। तुम मुझे बहुत प्यारी हो, लेकिन तुम जानती हो मैं तुम्हें प्यार नहीं करता हूँ, फिर यह सब क्या है, क्यों है?''
बिनती चुप रही-''पता नहीं क्यों है? मुझे इसमें कभी कोई पाप नहीं दिखा और कभी दिखा भी तो मन ने कहा कि आप इतने पवित्र हैं, आपका चरित्र इतना ऊँचा है कि मेरा पाप भी आपको छूकर पवित्र हो जाएगा।''
''लेकिन बिनती...''
''बस?'' बिनती ने चन्दर को टोककर कहा, ''इससे अधिक आप कुछ मत पूछिए, मैं हाथ जोड़ती हूँ!''
चन्दर चुप हो गया।
चन्दर जितना सुलझाने का प्रयास कर रहा था, चीजें उतनी ही उलझती जा रही थीं। सुधा ने जिंदगी का एक पक्ष चन्दर के सामने रखा था। बिनती उसे दूसरी दुनिया में खींच लायी। कौन सच है, कौन झूठ? वह किसका तिरस्कार करे, किसको स्वीकार करे। अगर सुधा गलती पर है तो चन्दर का जिम्मा है, चन्दर ने सुधा की हत्या की है...लेकिन कितनी भिन्न हैं दोनों बहनें! बिनती कितनी व्यावहारिक, कितनी यथार्थ, संयत और सुधा कितनी आदर्श, कितनी कल्पनामयी, कितनी सूक्ष्म, कितनी ऊँची, कितनी सुकुमार और पवित्र।
जीवन की समस्याओं के अन्तर्विरोधों में जब आदमी दोनों पक्षों को समझ लेता है तब उसके मन में एक ठहराव आ जाता है। वह भावना से ऊपर उठकर स्वच्छ बौद्धिक धरातल पर जिंदगी को समझने की कोशिश करने लगता है। चन्दर अब भावना से हटकर जिंदगी को समझने की कोशिश करने लगा था। वह अब भावना से डरता था। भावना के तूफान में इतनी ठोकरें खाकर अब उसने बुद्धि की शरण ली थी और एक पलायनवादी की तरह भावना से भाग कर बुद्धि की एकांगिता में छिप गया था। कभी भावुकता से नफरत करता था, अब वह भावना से ही नफरत करने लगा था। इस नफरत का भोग सुधा और बिनती दोनों को ही भुगतना पड़ा। सुधा को उसने एक भी खत नहीं लिखा और बिनती से एक दिन भी ठीक से बातें नहीं की।
जब भावना और सौन्दर्य के उपासक को बुद्धि और वास्तविकता की ठेस लगती है तब वह सहसा कटुता और व्यंग्य से उबल उठता है। इस वक्त चन्दर का मन भी कुछ ऐसा ही हो गया था। जाने कितने जहरीले काँटे उसकी वाणी में उग आये थे, जिन्हें वह कभी भी किसी को चुभाने से बाज नहीं आता था। एक निर्मम निरपेक्षता से वह अपने जीवन की सीमा में आने वाले हर व्यक्ति को कटुता के जहर से अभिषिक्त करता चलता था। सुधा को वह कुछ लिख नहीं सकता था। पम्मी यहाँ थी नहीं, ले-देकर बची अकेली बिनती जिसे इन जहरीले वाणों का शिकार होना पड़ रहा था। सितम्बर बीत रहा था और अब वह गाँव जाने की तैयारी कर रही थी। डॉक्टर साहब ने दिसम्बर तक की छुट्टी ली थी और वे भी गाँव जाने वाले थे। शादी के महीने-भर पहले से उनका जाना जरूरी था।
चन्दर खुश नहीं था, नाराज नहीं था। एक स्वर्गभ्रष्ट देवदूत जिसे पिशाचों ने खरीद लिया हो, उन्हीं की तरह वह जिंदगी के सुख-दु:ख को ठोकर मारता हुआ किनारे खड़ा सभी पर हँस रहा था। खास तौर से नारी पर उसके मन का सारा जहर बिखरने लगा था और उसमें उसे यह भी अकसर ध्यान नहीं रहता था कि वह किससे क्या बात कर रहा है। बिनती सबकुछ चुपचाप सहती जा रही थी, बिनती को सुधा की तरह रोना नहीं आता था; न उसकी चन्दर इतनी परवा ही करता था जितनी सुधा की। दोनों में बातें भी बहुत कम होती थीं, लेकिन बिनती मन-ही-मन दु:खी थी। वह क्या करे! एक दिन उसने चन्दर के पैर पकड़कर बहुत अनुनय से कहा-''आपको यह क्या होता जा रहा है? अगर आप ऐसे ही करेंगे तो हम दीदी को लिख देंगे!''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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चन्दर बड़ी भयावनी हँसी हँसा-''दीदी को क्या लिखोगी? मुझे अब उसकी परवा नहीं। वह दिन गये, बिनती! बहुत बन लिये हम।''
''हाँ, चन्दर बाबू, आप लड़की होते तो समझते!''
''सब समझता हूँ मैं, कैसा दोहरा नाटक खेलती हैं लड़कियाँ! इधर अपराध करना, उधर मुखबिरी करना।''
बिनती चुप हो गयी। एक दिन जब चन्दर कॉलेज से आया तो उसके सिर में दर्द हो रहा था। वह आकर चुपचाप लेट गया। बिनती ने आकर पूछा तो बोला, ''क्यों, क्यों मैं बतलाऊँ कि क्या है, तुम मिटा दोगी?''
बिनती ने चन्दर के सिर पर हाथ रखकर कहा, ''चन्दर, तुम्हें क्या होता जा रहा है? देखो कैसी हड्डियाँ निकल आयी हैं इधर। इस तरह अपने को मिटाने से क्या फायदा?''
''मिटाने से?'' चन्दर उठकर बैठ गया-''मैं मिटाऊँगा अपने को लड़कियों के लिए? छिह, तुम लोग अपने को क्या समझती हो? क्या है तुम लोगों में सिवा एक नशीली मांसलता के? इसके लिए मैं अपने को मिटाऊँगा?''
बिनती ने चन्दर को फिर लिटा दिया।
''इस तरह अपने को धोखा देने से क्या फायदा, चन्दर बाबू? मैं जानती हूँ दीदी के न होने से आपकी जिंदगी में कितना बड़ा अभाव है। लेकिन...''
''दीदी के न होने पर? क्या मतलब है तुम्हारा?''
''मेरा मतलब आप खूब समझते हैं। मैं जानती हूँ, दीदी होतीं तो आप इस तरह न मिटाते अपने को। मैं जानती हूँ दीदी के लिए आपके मन में क्या था?'' बिनती ने सिर में तेल डालते हुए कहा।
''दीदी के लिए क्या था?'' चन्दर हँसा, बड़ी विचित्र हँसी-''दीदी के लिए मेरे मन में एक आदर्शवादी भावुकता थी जो अधकचरे मन की उपज थी, एक ऐसी भावना थी जिसके औचित्य पर ही मुझे विश्वास नहीं, वह एक सनक थी।''
''सनक!'' बिनती थोड़ी देर तक चुपचाप सिर में तेल ठोंकती रही। फिर बोली, ''अपनी साँसों से बनायी देवमूर्ति पर इस तरह लात तो न मारिए। आपको शोभा नहीं देता!'' बिनती की आँख में आँसू आ गये, ''कितनी अभागी हैं दीदी!''
चन्दर एकटक बिनती की ओर देखता रहा और फिर बोला, ''मैं अब पागल हो जाऊँगा, बिनती!''
''मैं आपको पागल नहीं होने दूँगी। मैं आपको छोडक़र नहीं जाऊँगी।''
''मुझे छोडक़र नहीं जाओगी!'' चन्दर फिर हँसा-''जाइए आप! अब आप श्रीमती बिनती होने वाली हैं। आपका ब्याह होगा। मैं पागल हो रहा हूँ, इससे क्या हुआ? इन सब बातों से दुनिया नहीं रुकती, शहनाइयाँ नहीं बंद होतीं, बन्दनवार नहीं तोड़े जाते!''
''मैं नहीं जाऊँगी चन्दर अभी, तुम मुझे नहीं जानते। तुम्हारी इतनी ताड़ना और व्यंग्य सहकर भी तुम्हारे पास रही, अब दुनिया-भर की लांछना और व्यंग्य सहकर तुम्हारे पास रह सकती हूँ।'' बिनती ने तीखे स्वर में कहा।
''क्यों? तुम्हारे रहने से क्या होगा? तुम सुधा नहीं हो। तुम सुधा नहीं हो सकती! जो सुधा है मेरी जिंदगी में, वह कोई नहीं हो सकता। समझीं? और मुझ पर एहसान मत जताओ! मैं मर जाऊँ, मैं पागल हो जाऊँ, किसी का साझा! क्यों तुम मुझ पर इतना अधिकार समझने लगीं-अपनी सेवा के बल पर? मैं इसकी रत्ती-भर परवा नहीं करता। जाओ, यहाँ से!'' और उसने बिनती को धकेल दिया, तेल की शीशी उठाकर बाहर फेंक दी।
बिनती रोती हुई चली गयी। चन्दर उठा और कपड़े पहनकर बाहर चल दिया, ''हूँ, ये लड़कियाँ समझती हैं अहसान कर रही हैं मुझ पर!''
बिनती के जाने की तैयारी हो गयी थी और लिया-दिया जाने वाला सारा सामान पैक हो रहा था। डॉक्टर साहब भी महीने-भर की छुट्ट लेकर साथ जा रहे थे। उस दिन की घटना के बाद फिर बिनती चन्दर से बिल्कुल ही नहीं बोली थी। चन्दर भी कभी नहीं बोला।
ये लोग कार पर जाने वाले थे। सारा सामान पीछे-आगे लादा जाने वाला था। डॉक्टर साहब कार लेकर बाजार गये थे। चन्दर उनका होल्डॉल सँभाल रहा था। बिनती आयी और बोली, ''मैं आपसे बातें कर सकती हूँ?''
''हाँ, हाँ! तुम उस दिन की बात का बुरा मान गयीं! अमूमन लड़कियाँ सच्ची बात का बुरा मान जाती हैं! बोलो, क्या बात है?'' चन्दर ने इस तरह कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो।
बिनती की आँख में आँसू थे, ''चन्दर, आज मैं जा रही हूँ!''
''हाँ, यह तो मालूम है, उसी का इन्तजाम कर रहा हूँ!''
''पता नहीं मैंने क्या अपराध किया चन्दर कि तुम्हारा स्नेह खो बैठी। ऐसा ही था चन्दर तो आते ही आते इतना स्नेह तुमने दिया ही क्यों था?...मैं तुमसे कभी भी दीदी का स्थान नहीं माँग रही थी...तुमने मुझे गलत क्यों समझा?''
''नहीं, बिनती! मैं अब स्नेह इत्यादि पसन्द नहीं करता हूँ। पूर्ण परिपक्व मनुष्य हूँ और ये सब भावनाएँ अब अच्छी नहीं लगतीं मुझे। स्नेह वगैरह की दुनिया अब मुझे बड़ी उथली लगती है!''
''तभी चन्दर! इतने दिन मैंने रोते-रोते बिताये। तुमने एक बार पूछा भी नहीं। जिंदगी में सिवा दीदी और तुम्हारे, कौन था? तुमने मेरे आँसुओं की परवा नहीं की। तुम्हें कसूर नहीं देती; कसूर मेरा ही होगा, चन्दर!''
''नहीं, कसूर की बात नहीं बिनती! औरतों के रोने की कहाँ तक परवा की जाए, वे कुत्ते, बिल्ली तक के लिए उतने ही दु:ख से रोती हैं।''
''खैर, चन्दर! ईश्वर करे तुम जीवन-भर इतने मजबूत रहो। मैंने अगर कभी तुम्हारे लिए कुछ किया, वैसे किया भी क्या, लेकिन अगर कुछ भी किया तो सिर्फ इसलिए कि मेरे मन की जाने कितनी ममता तुमने जीत ली, या मैं हमेशा इस बात के लिए पागल रहती थी कि तुम्हें जरा-सी भी ठेस न पहुँचे, मैं क्या कर डालूँ तुम्हारे लिए। तुमने, तुम्हारे व्यक्तित्व ने मुझे जादू में बाँध लिया था। तुम मुझसे कुछ भी करने के लिए कहते तो मैं हिचक नहीं सकती थी-लेकिन खैर, तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी। तुम पर भार हो उठती थी मैं। मैंने अपने को खींच लिया, अब कभी तुम्हारे जीवन में आने का साहस नहीं करूँगी। यह भी कैसे कहूँ कि कभी तुम्हें मेरी जरूरत पड़ेगी। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे तूफानी व्यक्तित्व के सामने मैं बहुत तुच्छ हूँ, तिनके से भी तुच्छ। लेकिन आज जा रही हूँ, अब कभी यहाँ आने का साहस न करूँगी। लेकिन क्या चलते वक्त आशीर्वाद भी न दोगे? कुछ आगे का रास्ता न बताओगे?''
बिनती ने झुककर चन्दर के पैर पकड़ लिये और सिसक-सिसककर रोने लगी। चन्दर ने बिनती को उठाया और पास की कुर्सी पर बिठा दिया और सिर पर हाथ रखकर बोला, ''आशीर्वाद देवताओं से माँगा जाता है। मैं अब प्रेत हो चुका हूँ, बिनती!''
चन्दर अब एकान्त चाहता था और वह चन्दर को मिल गया था। पूरा घर खाली, एक महराजिन, माली और नौकर। और सारे घर में सिर्फ सन्नाटा और उस सन्नाटे का प्रेत चन्दर। चन्दर चाहे जितना टूट जाये, चाहे जितना बिखर जाये, लेकिन चन्दर हारने वाला नहीं था। वह हार भी जाये लेकिन हार स्वीकार करना उसे नहीं आता था। उसके मन में अब सन्नाटा था, अपने मन के पूजागृह में स्थापित सुधा की पावन, प्रांजल देवमूर्ति को उसने कठोरता से उठाकर बाहर फेंक दिया था। मन्दिर की मूर्तिमयी पवित्रता, बिनती को अपमानित कर दिया था और मन्दिर के पूजा-उपकरणों को, अपने जीवन के आदर्शों और मानदंडों को उसने चूर-चूर कर डाला था, और बुतशिकन विजेता की तरह क्रूरता से हँसते हुए मन्दिर के भग्नावशेषों पर कदम रखकर चल रहा था। उसका मन टूटा हुआ खँडहर था जिसके उजाड़, बेछत कमरों में चमगादड़ बसेरा करते हैं और जिसके ध्वंसावशेषों पर गिरगिट पहरा देते हैं। काश कि कोई उन खँडहरों की ईंटें उलटकर देखता तो हर पत्थर के नीचे पूजा-मन्त्र सिसकते हुए मिलते, हर धूल की पर्त में घंटियों की बेहोश ध्वनियाँ मिलतीं, हर कदम पर मुरझाये हुए पूजा के फूल मिलते और हर शाम-सवेरे भग्न देवमूर्ति का करुण रुदन दीवारों पर सिर पटकता हुआ मिलता...लेकिन चन्दर ऐसा-वैसा दुश्मन नहीं था। उसने मन्दिर को चूर-चूर कर उस पर अपने गर्व का पहरा लगा दिया था कि कभी भी कोई उस पर खँडहर के अवशेष कुरेदकर पुराने विश्वास, पुरानी अनुभूतियाँ, पुरानी पूजाएँ फिर से न जगा दे। बुतशिकन तो मन्दिर तोडऩे के बाद सारा शहर जला देता है, ताकि शहर वाले फिर उस मन्दिर को न बना पाएँ-ऐसा था चन्दर। अपने मन को सुनसान कर लेने के बाद उसने अपनी जिंदगी, अपना रहन-सहन, अपना मकान और अपना वातावरण भी सुनसान कर लिया था। अगहन आ गया था, लेकिन उसके चारों ओर जेठ की दुपहरी से भी भयानक सन्नाटा था।
बिनती जब से गयी उसने कोई खत नहीं भेजा था। सुधा के भी पत्र बन्द हो चुके थे। पम्मी के दो खत आये। पम्मी आजकल दिल्ली घूम रही थी, लेकिन चन्दर ने पम्मी को कोई जवाब नहीं दिया। अकेला...अकेला...बिल्कुल अकेला...सहारा मरुस्थल की नीरस भयावनी शान्ति और वह भी जब तक कि काँपता हुआ लाल सूरज बालू के क्षितिज पर अपनी आखिरी साँसें तोड़ रहा हो और बालू के टीलों की अधमरी छायाएँ लहरदार बालू पर धीरे-धीरे रेंग रही हों।
बिनती के ब्याह को पन्द्रह दिन रह गये थे कि सुधा का एक पत्र आया...
''मेरे देवता, मेरे नयन, मेरे पंथ, मेरे प्रकाश!

आज कितने दिनों बाद तुम्हें खत लिखने का मौका मिल रहा है। सोचा था, बिनती के ब्याह के महीने-भर पहले गाँव आ जाऊँगी तो एक दिन के लिए तुम्हें आकर देख जाऊँगी। लेकिन इरादे इरादे हैं और जिंदगी जिंदगी। अब सुधा अपने जेठ और सास के लड़के की गुलाम है। ब्याह के दूसरे दिन ही चला जाना होगा। तुम्हें यहाँ बुला लेती, लेकिन यहाँ बन्धन और परदा तो ससुराल से भी बदतर है।
मैंने बिनती से तुम्हारे बारे में बहुत पूछा। वह कुछ नहीं बतायी। पापा से इतना मालूम हुआ कि तुम्हारी थीसिस छपने गयी है। कन्वोकेशन नजदीक है। तुम्हें याद है, वायदा था कि तुम्हारा गाउन पहनकर मैं फोटो खिंचवाऊँगी। वह दिन याद करती हूँ तो जाने कैसा होने लगता है! एक कन्वोकेशन की फोटो खिंचवाकर जरूर भेजना।
क्या तुमने बिनती को कोई दु:ख दिया था? बिनती हरदम तुम्हारी बात पर आँसू भर लाती है। मैंने तुम्हारे भरोसे बिनती को वहाँ छोड़ा था। मैं उससे दूर, माँ का सुख उसे मिला नहीं, पिता मर गये। क्या तुम उसे इतना भी प्यार नहीं दे सकते? मैंने तुम्हें बार-बार सहेज दिया था। मेरी तन्दुरुस्ती अब कुछ-कुछ ठीक है, लेकिन जाने कैसी है। कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता है। जी मिचलाने लगता है। आजकल वह बहुत ध्यान रखते हैं। लेकिन वे मुझको समझ नहीं पाये। सारे सुख और आजादी के बीच मैं कितनी असन्तुष्ट हूँ। मैं कितनी परेशान हूँ। लगता है हजारों तूफान हमेशा नसों में घहराया करते हैं।
चन्दर, एक बात कहूँ अगर बुरा न मानो तो। आज शादी के छह महीने बाद भी मैं यही कहूँगी चन्दर कि तुमने अच्छा नहीं किया। मेरी आत्मा सिर्फ तुम्हारे लिए बनी थी, उसके रेशे में वे तत्व हैं जो तुम्हारी ही पूजा के लिए थे। तुमने मुझे दूर फेंक दिया, लेकिन इस दूरी के अँधेरे में भी जन्म-जन्मान्तर तक भटकती हुई सिर्फ तुम्हीं को ढूँढूँगी, इतना याद रखना और इस बार अगर तुम मिल गये तो जिंदगी की कोई ताकत, कोई आदर्श, कोई सिद्धान्त, कोई प्रवंचना मुझे तुमसे अलग नहीं कर सकेगी। लेकिन मालूम नहीं पुनर्जन्म सच है या झूठ! अगर झूठ है तो सोचो चन्दर कि इस अनादिकाल के प्रवाह में सिर्फ एक बार...सिर्फ एक बार मैंने अपनी आत्मा का सत्य ढूँढ़ पाया था और अब अनन्तकाल के लिए उसे खो दिया। अगर पुनर्जन्म नहीं है तो बताओ मेरे देवता, क्या होगा? करोड़ों सृष्टियाँ होंगी, प्रलय होंगे और मैं अतृप्त चिनगारी की तरह असीम आकाश में तड़पती हुई अँधेरे की हर परत से टकराती रहूँगी, न जाने कब तक के लिए। ज्यों-ज्यों दूरी बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों पूजा की प्यास बढ़ती जा रही है! काश मैं सितारों के फूल और सूरज की आरती से तुम्हारी पूजा कर पाती! लेकिन जानते हो, मुझे क्या करना पड़ रहा है? मेरे छोटे भतीजे नीलू ने पहाड़ी चूहे पाले हैं। उनके पिंजड़े के अन्दर एक पहिया लगा है और ऊपर घंटियाँ लगी हैं। अगर कोई अभागा चूहा उस चक्र में उलझ जाता है तो ज्यों-ज्यों छूटने के लिए वह पैर चलाता है त्यों-त्यों चक्र घूमने लगता है; घंटियाँ बजने लगती हैं। नीलू बहुत खुश होता है लेकिन चूहा थककर बेदम होकर नीचे गिर पड़ता है। कुछ ऐसे ही चक्र में फँस गयी हूँ, चन्दर! सन्तोष सिर्फ इतना है कि घंटियाँ बजती हैं तो शायद तुम उन्हें पूजा के मन्दिर की घंटियाँ समझते होगे। लेकिन खैर! सिर्फ इतनी प्रार्थना है चन्दर! कि अब थककर जल्दी ही गिर जाऊँ!
मेरे भाग्य! खत का जवाब जल्दी ही देना। पम्मी अभी आयी या नहीं?
तुम्हारी, जन्म-जन्म की प्यासी-सुधा।''
चन्दर ने खत पढ़ा और फौरन लिखा-
''प्रिय सुधा,
तुम्हारी पत्र बहुत दिनों के बाद मिला। तुम्हारी भाषा वहाँ जाकर बहुत निखर गयी है। मैं तो समझता हूँ कि अगर खत कहीं छुपा दिया जाये तो लोग इसे किसी रोमांटिक उपन्यास का अंश समझें, क्योंकि उपन्यासों के ही पात्र ऐसे खत लिखते हैं, वास्तविक जीवन के नहीं।
खैर, मैं अच्छा हूँ। हरेक आदमी जिंदगी से समझौता कर लेता है किन्तु मैंने जिंदगी से समर्पण कराकर उसके हथियार रख लिये हैं। अब किले के बाहर से आनेवाली आवाजें अच्छी नहीं लगतीं, न खतों के पाने की उत्सुकता, न जवाब लिखने का आग्रह। अगर मुझे अकेला छोड़ दो तो बहुत अच्छा होगा। मैं विनती करता हूँ, मुझे खत मत लिखना-आज विनती करता हूँ क्योंकि आज्ञा देने का अब साहस भी नहीं, अधिकार भी नहीं, व्यक्तित्व भी नहीं। खत तुम्हारा तुम्हें भेज रहा हूँ।
कभी जिंदगी में कोई जरूरत आ पड़े तो जरूर याद करना-बस, इसके अलावा कुछ नहीं।
अपने में सन्तुष्ट-चन्द्रकुमार कपूर।''
उसके बाद फिर वही सुनसान जिंदगी का ढर्रा। खँडहर के सन्नाटे में भूलकर आयी हुई बाँसुरी की आवाज की तरह सुधा का पत्र, सुधा का ध्यान आया और चला गया। खँडहर का सन्नाटा, सन्नाटे के उल्लू, गिरगिट और पत्थर काँपे और फिर मुस्तैदी से अपनी जगह पर जम गये और उसके बाद फिर वही उदास सन्नाटा, टूटता हुआ-सा अकेलापन और मूर्च्छित दोपहरी के फूल-सा चन्दर...
नवम्बर का एक खुशनुमा विहान; सोने के काँपते तारे सुबह की ठण्डी हवाओं में उलझे हुए थे। आकाश एक छोटे बच्चे के नीलम नयनों की तरह भोला और स्वच्छ लग रहा था। क्यारियाँ शरद के फूलों से भर गयी थीं और एक नयी ताजगी मौसम और मन में पुलक उठी थी। चन्दर अपना पुराना कत्थई स्वेटर और पीले रंग के पश्मीने का लम्बा कोट पहने लॉन पर टहल रहा था। छोटे-छोटे पिल्ले दूब पर किलोल कर रहे थे। सहसा एक कार आकर रुकी और पम्मी उसमें से कूद पड़ी और क्वाँरी हिरणी की तरह दौडक़र चन्दर के पास पहुँच गयी-''हलो माई ब्वॉय, मैं आ गयी!''
चन्दर कुछ नहीं बोला, ''आओ, ड्राइंगरूम में बैठो!'' उसने उसी मुर्दा-सी आवाज में कहा। उसे पम्मी के आने की कोई प्रसन्नता नहीं थी। पम्मी उसके उदास चेहरे को देखती रही, फिर उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोली, ''क्यों कपूर, कुछ बीमार हो क्या?''
''नहीं तो, आजकल मुझे मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता। अकेला घर भी है!'' उसने उसी फीकी आवाज में कहा।
''क्यों, मिस सुधा कहाँ है? और डॉक्टर शुक्ला!''
''वे लोग मिस बिनती की शादी में गये हैं।''
''अच्छा, उसकी शादी भी हो गयी, डैम इट। जैसे ये लोग पागल हो गये हैं, बर्टी, सुधा, बिनती!...क्यों, मिलते-जुलते क्यों नहीं तुम?''
''यों ही, मन नहीं होता।''
''समझ गयी, जो मुझे तीन-चार साल पहले हुआ था, कुछ निराशा हुई है तुम्हें!'' पम्मी बोली।
''नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।''
''कहना मत अपनी जबान से, स्वीकार कर लेने से पुरुष का गर्व टूट जाता है।...यही तो तुम्हारे चरित्र में मुझे प्यारा लगता है। खैर, यह ठीक हो जाएगा...! मैं तुम्हें ऐसे नहीं रहने दूँगी।''
''मसूरी में इतने दिन क्या करती रहीं?'' चन्दर ने पूछा।
''योग-साधन!'' पम्मी ने हँसकर कहा, ''जानते हो, आजकल मसूरी में बर्फ पड़ रही है। मैंने कभी बर्फ के पहाड़ नहीं देखे थे। अँगरेजी उपन्यासों में बर्फ पड़ने का जिक्र सुना बहुत था। सोचा, देखती आऊँ। क्या कपूर! तुम खत क्यों नहीं लिखते थे?''
''मन नहीं होता था। अच्छा बर्टी की शादी कब होगी?'' चन्दर ने बात टालने के लिए कहा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

''हो भी गयी। मैं आ भी नहीं पायी कि सुनते हैं जेनी एक दिन बर्टी को पकड़क़र खींच ले गयी और पादरी से बोली, 'अभी शादी करा दो।' उसने शादी करा दी। लौटकर जेनी ने बर्टी का शिकारी सूट फाड़ डाला और अच्छा-सा सूट पहना दिया। बड़े विचित्र हैं दोनों। एक दिन सर्दी के वक्त बर्टी स्वेटर उतारकर जेनी के कमरे में गया तो मारे गुस्से के जेनी ने सिवा पतलून के सारे कपड़े उतारकर बर्टी को कमरे से बाहर निकाल दिया। मैं तो जब से आयी हूँ, रोज नाटक देखती हूँ। हाँ, देखो यह तो मैं भूल ही गयी थी...'' और उसने अपनी जेब से पीतल की एक छोटी-सी मूर्ति निकालकर मेज पर रखी-''एक भोटिया औरत इसे बेच रही थी। मैंने इसे माँगा तो वह बोली-यह सिर्फ मर्दों के लिए है।' मैंने पूछा, 'क्यों?' तो बोली-'इसे अगर मर्द पहन ले तो उस पर किसी औरत का जादू नहीं चलता। वह औरत या तो मर जाती है या भाग जाती है या उसका ब्याह किसी दूसरे से हो जाता है।' तो मैंने सोचा, तुम्हारे लिए लेती चलूँ।''
चन्दर ने देखा वह अवलोकितेश्वर की महायानी मूर्ति थी। उसने हँसकर उसे ले लिया फिर बोला, ''और क्या लायी अपने लिए?''
''अपने लिए एक नया रहस्य लायी हूँ।''
''क्या?''
''इधर देखो, मेरी ओर, मैं सुन्दर लगती हूँ?''
चन्दर ने देखा। पम्मी अठारह साल की लड़की-सी लगने लगी है। चेहरे के कोने भी जैसे गोल हो गये थे और मुँह पर बहुत ही भोलापन आ गया था, आँखों में क्वाँरापन आ गया था, चेहरे पर सोना और केसर, चम्पा, हरसिंगार घुल-मिल गये थे।
''सचमुच पम्मी, लगता है जैसे कौमार्य लौट आया है तुम पर तो! परियों के कुंज से अपना बचपन फिर चुरा लायी क्या?''
''नहीं कपूर, यही तो रहस्य लायी हूँ, हमेशा सुन्दर बने रहने का और परियों के कुंजों से नहीं, गुनाहों के कुंजों से। मैंने हिमालय की छाँह में एक नया संगीत सुना कपूर, मांसलता का संगीत। मसूरी के समाज में घुल-मिल गयी और मादक अनुभूतियाँ बटोरती रही-बिना किसी पश्चात्ताप के और मैंने देखा कि दिनों-दिन निखरती जा रही हूँ। कपूर, सेक्स इतना बुरा नहीं जितना मैं समझती थी। तुम्हारी क्या राय है?''
''हाँ, मैं देख रहा हूँ, सेक्स लोगों को उतना बुरा नहीं लगता, जितना मैं समझता था।''
''नहीं चन्दर, सिर्फ इतना ही नहीं, अच्छा मान लो जैसे तुम आजकल उदास हो और तुम्हारा सिर इस तरह अपनी गोद में रख लूँ तो कुछ सन्तोष नहीं होगा तुम्हें?'' और पम्मी ने चन्दर का सिर सचमुच अपने श्वासान्दोलित वक्ष से चिपका लिया। चन्दर झल्लाकर अलग हट गया। कैसी अजब लड़की है! थोड़ी देर चुप बैठा रहा, फिर बोला-
''क्यों पम्मी, तुम एक लड़की हो, मैं तुम्हीं से पूछता हूँ-क्या लड़कियों के प्रेम में सेक्स अनिवार्य है?''
''हाँ।'' पम्मी ने स्पष्ट स्वरों में जोर देकर कहा।
''लेकिन पम्मी, मैं तुमसे नाम तो नहीं बताऊँगा लेकिन एक लड़की है जिसको मैंने प्यार किया है लेकिन शायद वह मुझसे शादी नहीं कर पाएगी। मेरे उसके कोई शारीरिक सम्बन्ध भी नहीं हैं। क्या तुम इसे प्यार नहीं कहोगी?''
''कुछ दिन बाद जब उसकी शादी हो जाये तब पूछना, तुम्हारा सारा प्रेम मर जाएगा। पहले मैं भी तुमसे कहती थी-पुरुष और नारी के सम्बन्धों में एक अन्तर जरूरी है। अब लगता है यह सब एक भुलावा है।'' अपने से पम्मी ने कहा।
''लेकिन दूसरी बात तो सुनो, उसी की एक सखी है। वह जानती है कि मैं उसकी सखी को प्यार करता हूँ, उसे नहीं कर सकता। कहीं सेक्स की तृप्ति का सवाल नहीं फिर भी वह मुझे प्यार करती है। इसे तुम क्या कहोगी?'' चन्दर ने पूछा।
''यह और दूसरे ढंग की परिस्थिति है। देखो कपूर, तुमने हिप्नोटिज्म के बारे में नहीं पढ़ा। ऐसा होता है कि अगर कोई हिप्नोटिस्ट एक लड़की को हिप्नोटाइज कर रहा है और बगल में एक दूसरी लड़की बैठी है जो चुपचाप यह देख रही है तो वातावरण के प्रभाव से अकसर ऐसा देखा जाता है कि वह भी हिप्नोटाइज हो जाती है, लेकिन वह एक क्षणिक मानसिक मूर्च्छा होती है जो टूट जाती है।'' पम्मी ने कहा।
चन्दर को लगा जैसे बहुत कुछ सुलझ गया। एक क्षण में उसके मन का बहुत-सा भार उतर गया।
''पम्मी, मुझे तुम्हीं एक लड़की मिली जो साफ बातें करती हो और एक शुद्ध तर्क और बुद्धि के धरातल से। बस, मैं आजकल बुद्धि का उपासक हूँ, भगवान से चिढ़ है।''
''बुद्धि और शरीर बस यही दो आदमी के मूल तत्व हैं। हृदय तो दोनों के अन्त:संघर्ष की उलझन का नाम है।'' पम्मी ने कहा और सहसा घड़ी देखते हुए बोली, ''नौ बज रहे हैं, चलो साढ़े नौ से मैटिनी है। आओ, देख आएँ!''
''मुझे कॉलेज जाना है, मैं जाऊँगा नहीं कहीं!''
''आज इतवार है, प्रोफेसर कपूर?'' पम्मी चन्दर को उठाकर बोली, ''मैं तुम्हें उदास नहीं होने दूँगी, मेरे मीठे सपने! तुमने भी मुझे इस उदासी के इन्द्रजाल से छुड़ाया था, याद है न?'' और चन्दर के माथे पर अपने गरम मुलायम होठ रख दिये।
माथे पर पम्मी के होठों की गुलाबी आग चन्दर की नसों को गुदगुदा गयी। वह क्षण-भर के लिए अपने को भूल गया...पम्मी के रेशमी फ्रॉक के गुदगुदाते हुए स्पर्श, उसके वक्ष की अलभ्य गरमाई और उसके स्पर्श के जादू में खो गया। उसके अंग-अंग में सुबह की शबनम ढलकने लगी। पम्मी उसके बालों को अँगुलियों से सुलझाती रही। फिर कपूर के गाल थपथपाकर बोली, ''चलो!'' कपूर जाकर बैठ गया। ''तुम ड्राइव करो।'' पम्मी बोली। चन्दर ड्राइव करने लगा और पम्मी कभी उसके कॉलर, कभी उसके बाल, कभी उसके होठों से खेलती रही।
सात चाँद की रानी ने आखिर अपनी निगाहों के जादू से सन्नाटे के प्रेत को जीत लिया। स्पर्शो के सुकुमार रेशमी तारों ने नगर की आग को शबनम से सींच दिया। ऊबड़-खाबड़ खंडहर को अंगों के गुलाब की पाँखुरियों से ढँक दिया और पीड़ा के अँधियारे को सीपिया पलकों से झरने वाली दूधिया चाँदनी से धो दिया। एक संगीत की लय थी जिसमें स्वर्गभ्रष्ट देवता खो गया, संगीत की लय थी या उद्दाम यौवन का भरा हुआ ज्वार था जो चन्दर को एक मासूम फूल की तरह बहा ले गया...जहाँ पूजा-दीप बुझ गया था, वहाँ तरुणाई की साँस की इन्द्रधनुषी समाँ झिलमिला उठी थी, जहाँ फूल मुरझाकर धूल में मिल गये थे वहाँ पुखराजी स्पर्शों के सुकुमार हरसिंगार झर पड़े....आकाश के चाँद के लिए जिंदगी के आँगन में मचलता हुआ कन्हैया, थाली के प्रतिबिम्ब में ही भूल गया...
चन्दर की शामें पम्मी के अदम्य रूप की छाँह में मुस्करा उठीं। ठीक चार बजे पम्मी आती, कार पर चन्दर को ले जाती और चन्दर आठ बजे लौटता। प्यार के बिना कितने महीने कट गये, पम्मी के बिना एक शाम नहीं बीत पाती, लेकिन अब भी चन्दर ने अपने को इतना दूर रखा था कि कभी पम्मी के होठों के गुलाबों ने चन्दर के होठों के मूँगे से बातें भी नहीं की थीं।
एक दिन रात को जब वह लौटा तो देखा कि अपनी कार आ गयी है। उसका मन फूल उठा। जैसे कोई अनाथ भटका हुआ बच्चा अपने संरक्षक की गोद के लिए तड़प उठता है, वैसे ही वह पिछले डेढ़ महीने से डॉक्टर साहब के लिए तरस गया था। जहाँ इस वक्त उसके जीवन में सिर्फ नशा और नीरसता थी, वहीं हृदय के एक कोने में सिर्फ एक सुकुमार भावना शेष रह गयी थी, वह थी डॉक्टर शुक्ला के प्रति। वह भावना कृतज्ञता की भावना नहीं थी, डॉक्टर शुक्ला इतने दूर नहीं थे कि अब वह उनके प्रति कृतज्ञ हो, इतने बड़े हो जाने पर भी वह जब कभी डॉक्टर को देखता था तो लगता था जैसे कोई नन्हा बच्चा अपने अभिभावक की गोद में आकर निश्चिन्त हो जाता हो।
उसने पास आकर देखा, डॉक्टर साहब बरामदे में टहल रहे थे। चन्दर दौडक़र उनके पाँव पर गिर पड़ा। डॉक्टर साहब ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए बोले-''कन्वोकेशन हो गया? डिग्री जीत लाये?''
''जी हाँ!'' बड़ी विनम्रता से चन्दर ने कहा।
''बहुत ठीक, अब डी. लिट्. की तैयारी करो। तुम्हें जल्दी ही सेंट्रल गवर्नमेंट में जाना है।'' डॉक्टर साहब बोले, ''मैं तो पंद्रह जनवरी को दिल्ली जा रहा हूँ। कम-से-कम साल भर के लिए?''
''इतनी जल्दी; ऑफर कब आया?'' चन्दर ने अचरज से पूछा।
''मैं उन दिनों दिल्ली गया था न, तभी एजुकेशन मिनिस्टर से बात हुई थी!'' डॉक्टर साहब ने चन्दर को देखते हुए कहा, ''अरे, तुम कुछ दुबले हो रहे हो! क्यों महराजिन ने ठीक से काम नहीं किया?''
''नहीं!'' चन्दर हँसकर बोला, ''बिनती की शादी ठीक-ठाक हो गयी?''
''बिनती की शादी!'' डॉक्टर साहब ने सिर झुकाये हुए, टहलते हुए एक बड़ी फीकी हँसी हँसकर कहा, ''बिनती और तुम्हारी बुआजी दोनों अन्दर हैं।''
''अन्दर हैं!'' चन्दर को यह रहस्य कुछ समझ में ही नहीं आता था। ''इतनी जल्दी बिनती लौट आयी?''
''बिनती गयी ही कहाँ?'' डॉक्टर साहब ने बहुत चुपचाप सिर झुका कर कहा और बहुत करुण उदासी उनके मुँह पर छा गयी। वह बेचैनी से बरामदे में टहलने लगे। चन्दर का साहस नहीं हुआ कुछ पूछने का। कुछ अमंगल अवश्य हुआ है।
वह अन्दर गया। बुआजी अपनी कोठरी में सामान रख रही थीं और बिनती बैठी सिल पर उरद की भीगी दाल पीस रही थी! बिनती ने चन्दर को देखा, दाल में सने हुए हाथ जोड़कर प्रणाम किया, सिर को आँचल से ढँककर चुपचाप दाल पीसने लगी, कुछ बोली नहीं। चन्दर ने प्रणाम किया और जाकर बुआ के पैर छू लिये।
''अरे चन्दर है, आओ बेटवा, हम तो लुट गये!'' और बुआ वहीं देहरी पर सिर थामकर बैठ गयीं।
''क्या हुआ, बुआजी?''
''होता का भइया! जौन बदा रहा भाग में ओ ही भवा।'' और बुआ अपनी धोती से आँसू पोंछकर बोलीं, ''ईं हमरी छाती पर मूँग दरै के लिए बदी रही तौन जमी है। भगवान कौनों को ऐसी कलंकिनी बिटिया न दे। तीन भाँवरी के बाद बारात उठ गयी, भइया! हमारा तो कुल डूब गया।'' और बुआजी ने उच्च स्वर में रुदन शुरू किया। बिनती ने चुपचाप हाथ धोये और उठकर छत पर चली गयी।
''चुप रहो हो। अब रोय-रोय के काहे जिउ हल्कान करत हउ। गुनवन्ती बिटिया बाय, हज्जारन आय के बिटिया के लिए गोड़े गिरिहैं। अपना एकान्त होई के बैठो!'' महराजिन ने पूड़ी उतारते हुए कहा।
''आखिर बात क्या हुई, महराजिन?'' चन्दर ने पूछा।
महराजिन ने जो बताया उससे पता लगा कि लड़के वाले बहुत ही संकीर्णमना और स्वार्थी थे। पहले मालूम हुआ कि लड़काउन्होंने ग्रेजुएट बताया था। वह था इंटर फेल। फिर दरवाजे पर झगड़ा किया उन्होंने। डॉक्टर साहब बहुत बिगड़ गये, अन्त में मड़वे में लोगों ने देखा कि लड़के के बायें हाथ की अँगुलियाँ गायब हैं। डॉक्टर साहब इस बात पर बिगड़े और उन्होंने मड़वे से बिनती को उठवा दिया। फिर बहुत लड़ाई हुई। लाठी तक चलने की नौबत आ गयी। जैसे-तैसे झगड़ा निपटा। तीन भाँवरों के बाद ब्याह टूट गया।
''अब बताओ, भइया!'' सहसा बुआ आँसू पोंछकर गरज उठीं-''ई इन्हें का हुइ गवा रहा, इनकी मति मारी गयी। गुस्से में आय के बिनती को उठवाय लिहिन। अब हम एत्ती बड़ी बिटिया लै के कहाँ जाईं? अब हमरी बिरादरी में कौन पूछी एका? एत्ता पढ़-लिख के इन्हें का सूझा? अरे लड़की वाले हमेशा दब के चलै चाहीं।''
''अरे तो क्या आँख बन्द कर लेते? लँगड़े-लूले लड़के से कैसे ब्याह कर देते, बुआ! तुम भी गजब करती हो!'' चन्दर बोला।
''भइया, जेके भाग में लँगड़ा-लूला बदा होई ओका ओही मिली। लड़कियन को निबाह करै चाही कि सकल देखै चाही। अबहिन ब्याह के बाद कौनों के हाथ-गोड़ टूट जाये तो औरत अपने आदमी को छोड़ के गली-गली की हाँड़ी चाटै? हम रहे तो जब बिनती तीन बरस की हुई गयी, तब उनकी सकल उजेले में देखा रहा। जैसा भाग में रहा तैसा होता!''
चन्दर ने विचित्र हृदय-हीन तर्क को सुना और आश्चर्य से बुआ की ओर देखने लगा।....बुआजी बकती जा रही थीं-
''अब कहते हैं कि बिनती को पढ़उबै! ब्याह न करबै! रही-सही इज्जत भी बेच रहे हैं। हमार तो किस्मत फूट गयी...'' और वे फिर रोने लगीं, ''पैदा होते काहे नहीं मर गयी कुलबोरनी...कुलच्छनी...अभागिन!''
सहसा बिनती छत से उतरी और आँगन में आकर खड़ी हो गयी, उसकी आँखों में आग भरी थी-''बस करो, माँजी!'' वह चीखकर बोली, ''बहुत सुन लिया मैंने। अब और बर्दाश्त नहीं होता। तुम्हारे कोसने से अब तक नहीं मरी, न मरूँगी। अब मैं सुनूँगी नहीं, मैं साफ कह देती हूँ। तुम्हें मेरी शक्ल अच्छी नहीं लगती तो जाओ तीरथ-यात्रा में अपना परलोक सुधारो! भगवान का भजन करो। समझी कि नहीं!''
चन्दर ने ताज्जुब से बिनती की ओर देखा। वह वही बिनती है जो माँजी की जरा-जरा-सी बात से लिपटकर रोया करती थी। बिनती का चेहरा तमतमाया हुआ था और गुस्से से बदन काँप रहा था। बुआ उछलकर खड़ी हो गयीं और दुगुनी चीखकर बोलीं, ''अब बहुत जबान चलै लगी है। कौन है तोर जे के बल पर ई चमक दिखावत है? हम काट के धर देबै, तोके बताय देइत हई। मुँहझौंसी! ऐसी न होती तो काहे ई दिन देखै पड़त। उन्हें तो खाय गयी, हमहूँ का खाय लेव!'' अपना मुँह पीटकर बुआ बोलीं।
''तुम इतनी मीठी नहीं हो माँजी कि तुम्हें खा लूँ!'' बिनती ने और तड़पकर जवाब दिया।
चन्दर स्तब्ध हो गया। यह बिनती पागल हो गयी है। अपनी माँ को क्या कह रही है!
''छिह, बिनती! पागल हो गयी हो क्या? चलो उधर!'' चन्दर ने डाँटकर कहा।
''चुप रहो, चन्दर! हम भी आदमी हैं, हमने जितना बर्दाश्त किया है, हमीं जानते हैं। हम क्यों बर्दाश्त करें! और तुमसे क्या मतलब? तुम कौन होते हो हमारे बीच में बोलने वाले?''
''क्या है यह सब? तुम लोग सब पागल हो गये हो क्या? बिनती, यह क्या हो रहा है?'' सहसा डॉक्टर साहब ने आकर कहा।
बिनती दौडक़र डॉक्टर साहब से लिपट गयी और रोकर बोली, ''मामाजी, मुझे दीदी के पास भेज दीजिए! मैं यहाँ नहीं रहूँगी।''
''अच्छा बेटी! अच्छा! जाओ चन्दर!'' डॉक्टर साहब ने कहा। बिनती चली गयी तो बुआ जी से बोले, ''तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। उस पर गुस्सा उतारने से क्या फायदा? हमारे सामने ये सब बातें करोगी तो ठीक नहीं होगा।''
''अरे हम काहे बोलबै! हम तो मर जाईं तो अच्छा है...'' बुआजी पर जैसे देवी माँ आ गयी हों इस तरह से झूम-झूमकर रो रही थीं...''हम तो वृन्दावन जाय के डूब मरीं! अब हम तुम लोगन की सकल न देखबै। हम मर जाईं तो चाहे बिनती को पढ़ायो चाहे नचायो-गवायो। हम अपनी आँख से न देखबै।''
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बन्धन
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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उस रात को किसी ने खाना नहीं खाया। एक विचित्र-सा विषाद सारे घर पर छाया हुआ था। जाड़े की रात का गहन अँधेरा खामोश छाया हुआ था, महज एक अमंगल छाया की तरह कभी-कभी बुआजी का रुदन अँधेरे को झकझोर जाता था।
सभी चुपचाप भूखे सो गये...
दूसरे दिन बिनती उठी और महराजिन के आने के पहले ही उसने चूल्हा जलाकर चाय चढ़ा दी। थोड़ी देर में चाय बनाकर और टोस्ट भूनकर वह डॉक्टर साहब के सामने रख आयी। डॉक्टर साहब कल की बातों से बहुत ही व्यथित थे। रात को भी उन्होंने खाना नहीं खाया था, इस वक्त भी उन्होंने मना कर दिया। बिनती चन्दर के कमरे में गयी, ''चन्दर, मामाजी ने कल रात को भी कुछ नहीं खाया, तुमने भी नहीं खाया, चलो चाय पी लो!''
चन्दर ने भी मना किया तो बिनती बोली, ''तुम पी लोगे तो मामाजी भी शायद पी लें।'' चन्दर चुपचाप गया। बिनती थोड़ी देर में गयी तो देखा दोनों चाय पी रहे हैं। वह आकर मेवा निकालने लगी।
चाय पीते-पीते डॉक्टर साहब ने कहा, ''चन्दर, यह पास-बुक लो। पाँच सौ निकाल लो और दो हजार का हिसाब अलग करवा दो।...अच्छा देखो, मैं तो चला जाऊँगा दिल्ली, बिनती को शाहजहाँपुर भेजना ठीक नहीं है। वहाँ चार रिश्तेदार हैं, बीस तरह की बातें होंगी। लेकिन मैं चाहता हूँ अब आगे जब तक यह चाहे, पढ़े! अगर कहो तो यहाँ छोड़ जाऊँ, तुम पढ़ाते रहना!''
बिनती आ गयी और तश्तरी में भुना मेवा रखकर उसमें नमक मिला रही थी। चन्दर ने एक स्लाइस उठायी और उस पर नमक लगाते हुए बोला, ''वैसे आप यहाँ छोड़ जाएँ तो कोई बात नहीं है, लेकिन अकेले घर में अच्छा नहीं लगता। दो-एक रोज की बात दूसरी होती है। एकदम से साल-भर के लिए...आप समझ लें।''
''हाँ बेटा, कहते तो तुम ठीक हो! अच्छा, कॉलेज के होस्टल में अगर रख दिया जाए!'' डॉक्टर साहब ने पूछा।
''मैं लड़कियों को होस्टल में रखना ठीक नहीं समझता हूँ।'' चन्दर बोला, ''घर के वातावरण और वहाँ के वातावरण में बहुत अन्तर होता है।''
''हाँ, यह भी ठीक है। अच्छा तो इस साल मैं इसे दिल्ली लिये जा रहा हॅँ। अगले साल देखा जाएगा...चन्दर, इस महीने-भर में मेरा सारा विश्वास हिल गया। सुधा का विवाह कितनी अच्छी जगह किया गया, मगर सुधा पीली पड़ गयी है। कितना दु:ख हुआ देखकर! और बिनती के साथ यह हुआ! सचमुच यह जाति, विवाह सभी परम्पराएँ बहुत ही बुरी हैं। बुरी तरह सड़ गयी हैं। उन्हें तो काट फेंकना चाहिए। मेरा तो वैसे इस अनुभव के बाद सारा आदर्श ही बदल गया।''
चन्दर बहुत अचरज से डॉक्टर साहब की ओर देखने लगा। यही जगह थी, इसी तरह बैठकर डॉक्टर साहब ने जाति-बिरादरी, विवाह आदि सामाजिक परम्पराओं की कितनी प्रशंसा की थी! जिंदगी की लहरों ने हर एक को दस महीने में कहाँ से कहाँ लाकर पटक दिया है। डॉक्टर साहब कहते गये...''हम लोग जिंदगी से दूर रहकर सोचते हैं कि हमारी सामाजिक संस्थाएँ स्वर्ग हैं, यह तो जब उनमें धँसो तब उनकी गंदगी मालूम होती है। चन्दर, तुम कोई गैर जात का अच्छा-सा लड़काढूँढ़ो। मैं बिनती की शादी दूसरी बिरादरी में कर दूँगा।''
बिनती, जो और चाय ला रही थी, फौरन बड़े दृढ़ स्वर में बोली, ''मामाजी, आप जहर दे दीजिए लेकिन मैं शादी नहीं करूँगी। क्या आपको मेरी दृढ़ता पर विश्वास नहीं?''
''क्यों नहीं, बेटी! अच्छा, जब तक तेरी इच्छा हो, पढ़!''
दूसरे दिन डॉक्टर साहब ने बुआजी को बुलाया और रुपये दे दिये।
''लो, यह पाँच सौ पहले खर्चे के हैं और दो हजार में से तुम्हें धीरे-धीरे मिलता रहेगा।''
दो-तीन दिन के अन्दर बुआ ने जाने की सारी तैयारी कर ली, लेकिन तीन दिन तक बराबर रोती रहीं। उनके आँसू थमे नहीं। बिनती चुप थी। वह भी कुछ नहीं बोली, चौथे दिन जब वह सामान मोटर पर रखवा चुकीं तो उन्होंने चन्दर से बिनती को बुलवाया। बिनती आयी तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया-और बेहद रोयीं। लेकिन डॉक्टर साहब को देखते ही फिर बोल उठीं-''हमरी लड़की का दिमाग तुम ही बिगाड़े हो। दुनिया में भाइयौ अपना नै होत। अपनी लड़की को बिया दियौ! हमरी लड़की...'' फिर बिनती को चिपटाकर रोने लगीं।
चन्दर चुपचाप खड़ा सोच रहा था, अभी तक बिनती खराब थी। अब डॉक्टर साहब खराब हो गये। बुआ ने रुपये सँभालकर रख लिये और मोटर पर बैठ गयीं। समस्त लांछनों के बावजूद डॉक्टर साहब उन्हें पहुँचाने स्टेशन तक गये।
बिनती बहुत ही चुप-सी हो गयी थी। वह किसी से कुछ नहीं बोलती और चुपचाप काम किया करती थी। जब काम से फुरसत पा लेती तो सुधा के कमरे में जाकर लेट जाती और जाने क्या सोचा करती। चन्दर को बड़ा ताज्जुब होता था बिनती को देखकर। जब बिनती खुश थी, बोलती-चालती थी तो चन्दर बिनती से चिढ़ गया था, लेकिन बिनती के जीवन का यह नया रूप देखकर पहले की सभी बातें भूल गया। और उससे फिर बात करने की कोशिश करने लगा। लेकिन बिनती ज्यादा बोलती ही नहीं।
एक दिन दोपहर को चन्दर यूनिवर्सिटी से लौटकर आया और उसने रेडियो खोल दिया। बिनती एक तश्तरी में अमरूद काटकर ले आयी और रखकर जाने लगी। ''सुनो बिनती, क्या तुमने मुझे माफ नहीं किया? मैं कितना व्यथित हूँ, बिनती! अगर तुमको भूल से कुछ कह दिया तो तुम उसका इतना बुरा मान गयीं कि दो-तीन महीने बाद भी नहीं भूलीं!''
''नहीं, बुरा मानने की क्या बात है, चन्दर!'' बिनती एक फीकी हँसी-हँसकर बोली, ''आखिर नारी का भी एक स्वाभिमान है, मुझे माँ बचपन से कुचलती रही, मैंने तुम्हें दीदी से बढक़र माना। तुम भी ठोकरें लगाने से बाज नहीं आये, फिर भी मैं सब सहती गयी। उस दिन जब मंडप के नीचे मामाजी ने जबरदस्ती हाथ पकड़कर खड़ा कर दिया तो मुझे उसी क्षण लगा कि मुझमें भी कुछ सत्व है, मैं इसीलिए नहीं बनी हूँ कि दुनिया मुझे कुचलती ही रहे। अब मैं विरोध करना, विद्रोह करना भी सीख गयी हूँ। जिंदगी में स्नेह की जगह है, लेकिन स्वाभिमान भी कोई चीज है। और तुम्हें अपनी जिंदगी में किसी की जरूरत भी तो नहीं है!'' कहकर बिनती धीरे-धीरे चली गयी।
अपमान से चन्दर का चेहरा काला पड़ गया। उसने रेडियो बन्द कर दिया और तश्तरी उठाकर नीचे रख दी और बिना कपड़े बदले पम्मी के यहाँ चल दिया।
मनुष्य का एक स्वभाव होता है। जब वह दूसरे पर दया करता है तो वह चाहता है कि याचक पूरी तरह विनम्र होकर उसे स्वीकार करे। अगर याचक दान लेने में कहीं भी स्वाभिमान दिखलाता है तो आदमी अपनी दानवृत्ति और दयाभाव भूलकर नृशंसता से उसके स्वाभिमान को कुचलने में व्यस्त हो जाता है। आज हफ्तों के बाद चन्दर के मन में बिनती के लिए कुछ स्नेह, कुछ दया जागी थी, बिनती को उदास मौन देखकर; लेकिन बिनती के इस स्वाभिमान-भरे उत्तर ने फिर उसके मन का सोया हुआ साँप जगा दिया था। वह इस स्वाभिमान को तोड़कर रहेगा, उसने सोचा।
पम्मी के यहाँ पहुँचा तो अभी धूप थी। जेनी कहीं गयी थी, बर्टी अपने तोते को कुछ खिला रहा था। कपूर को देखते ही हँसकर अभिवादन किया और बोला, ''पम्मी अन्दर है!'' वह सीधा अन्दर चला गया। पम्मी अपने शयन-कक्ष में बैठी हुई थी। कमरे में लम्बी-लम्बी खिड़कियाँ थीं जिनमें लकड़ी के चौखटों में रंग-बिरंगे शीशे लगे हुए थे। खिड़कियाँ बन्द थीं और सूरज की किरणें इन शीशों पर पड़ रही थीं और पम्मी पर सातों रंग की छायाएँ खेल रही थीं। वह झुकी हुई सोफे पर अधलेटी कोई किताब पढ़ रही थी। चन्दर ने पीछे से जाकर उसकी आँखें बन्द कर लीं और बगल में बैठ गया।
''कपूर!'' अपनी सुकुमार अँगुलियों से चन्दर के हाथ को आँखों पर से हटाते हुए पम्मी बोली और पलकों में बेहद नशा भरकर सोनजुही की मुस्कान बिखेरकर चन्दर को देखने लगी। चन्दर ने देखा, वह ब्राउनिंग की कविता पढ़ रही थी। वह पास बैठ गया।
पम्मी ने उसे अपने वक्ष पर खींच लिया और उसके बालों से खेलने लगी। चन्दर थोड़ी देर चुप लेटा रहा, फिर पम्मी के गुलाबी होठों पर अँगुलियाँ रखकर बोला, ''पम्मी, तुम्हारे वक्ष पर सिर रखकर मैं जाने क्यों सबकुछ भूल जाता हूँ? पम्मी, दुनिया वासना से इतना घबराती क्यों है? मैं ईमानदारी से कहता हूँ कि अगर किसी को वासनाहीन प्यार करके, किसी के लिए त्याग करके मुझे जितनी शान्ति मिलती है, पता नहीं क्यों मांसलता में भी उतनी ही शान्ति मिलती है। ऐसा लगता है कि शरीर के विकार अगर आध्यात्मिक प्रेम में जाकर शान्त हो जाते हैं तो लगता है आध्यात्मिक प्रेम में प्यासे रह जाने वाले अभाव फिर किसी के मांसल-बन्धन में ही आकर बुझ पाते हैं। कितना सुख है तुम्हारी ममता में!''
''शी!'' चन्दर के होठों को अपनी अँगुलियों से दबाती हुई पम्मी बोली, ''चरम शान्ति के क्षणों को अनुभव किया करो। बोलते क्यों हो?''
चन्दर चुप हो गया। चुपचाप लेट रहा।
पम्मी की केसर श्वासें उसके माथे को रह-रहकर चूम रही थीं और चन्दर के गालों को पम्मी के वक्ष में धड़कता हुआ संगीत गुदगुदा रहा था। चन्दर का एक हाथ पम्मी के गले में पड़ी इमीटेशन हीरे की माला से खेलने लगा। सारस के पंखों से भी ज्यादा मुलायम सुकुमार गरदन से छूटने पर अँगुलियाँ लाजवन्ती की पत्तियों की तरह सकुचा जाती थीं। माला खोल ली और उसे उतारकर अपने हाथ में ले लिया। पम्मी ने माला लेने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि गले के बटन टच-से टूट गये...बर्फानी चाँदनी उफनकर छलक पड़ी। चन्दर को लगा उसके गालों के नीचे बिजलियों के फूल सिहर उठे हैं और एक मदमाता नशा टूटते हुए सितारों की तरह उसके शरीर को चीरता हुआ निकल गया। वह काँप उठा, सचमुच काँप उठा। नशे में चूर वह उठकर बैठ गया और उसने पम्मी को अपनी गोद में डाल लिया। पम्मी अनंग के धनुष की प्रत्यंचा की तरह दोहरी होकर उसकी गोद में पड़ रही। तरुणाई का चाँद टूटकर दो टुकड़े हो गया था और वासना के तूफान ने झीने बादल भी हटा दिये थे। जहरीली चाँदनी ने नागिन बनकर चन्दर को लपेट लिया। चन्दर ने पागल होकर पम्मी को अपनी बाँहों में कस लिया, इतनी प्यास से लगा कि पम्मी का दीपशिखा-सा तन चन्दर के तन में समा जाएगा। पम्मी निश्चेष्ट आँखें बन्द किये थी लेकिन उसके गालों पर जाने क्या खिल उठा था! चन्दर के गले में उसने मृणाल-सी बाँहें डाल दी थीं। चन्दर ने पम्मी के होठों को जैसे अपने होंठों में समेट लेना चाहा...इतनी आग...इतनी आग...नशा...
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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''ठाँय!'' सहसा बाहर बन्दूक की आवाज हुई। चन्दर चौंक उठा। उसने अपने बाहुपाश ढीले कर दिये। लेकिन पम्मी उसके गले में बाँहें डाले बेहोश पड़ी थी। चन्दर ने क्षण-भर पम्मी के भरपूर रूप यौवन को आँखों से पी लेना चाहा। पम्मी ने अपनी बाँहें हटा लीं और नशे में मखमूर-सी चन्दर की गोद से एक ओर लुढ़क गयी। उसे अपने तन-बदन का होश नहीं था। चन्दर ने उसके वस्त्र ठीक किये और फिर झुककर उसकी नशे में चूर पलकें चूम लीं।
''ठाँय!'' बन्दूक की दूसरी आवाज हुई। चन्दर घबराकर उठा।
''यह क्या है, पम्मी?''
''होगा कुछ, जाओ मत।'' अलसायी हुई नशीली आवाज में पम्मी ने कहा और उसे फिर खींचकर बिठा लिया। और फिर बाँहों में उसे समेटकर उसका माथा चूम लिया।
''ठाँय!'' फिर तीसरी आवाज हुई।
चन्दर उठ खड़ा हुआ और जल्दी से बाहर दौड़ गया। देखा बर्टी की बन्दूक बरामदे में पड़ी है, और वह पिंजड़े के पास मरे हुए तोते का पंख पकडक़र उठाये हुए है। उसके घावों से बर्टी के पतलून पर खून चू रहा था। चन्दर को देखते ही बर्टी हँस पड़ा, ''देखा! तीन गोली में इसे बिल्कुल मार डाला, वह तो कहो सिर्फ एक ही लगी वरना...'' और पंख पकड़कर तोते की लाश को झुलाने लगा।
''छिह! फेंको उसे; हत्यारे कहीं के! मार क्यों डाला उसे?'' चन्दर ने कहा।
''तुमसे मतलब! तुम कौन होते हो पूछने वाले? मैं प्यार करता था उसे, मैंने मार डाला!'' बर्टी बोला और आहिस्ते से उसे एक पत्थर पर रख दिया। रूमाल निकालकर फाड़ डाला। आधा रूमाल उसके नीचे बिछा दिया और आधे से उसका खून पोंछने लगा। फिर चन्दर के पास आया। चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, ''कपूर! तुम मेरे दोस्त हो न! जरा रूमाल दे दो।'' और चन्दर का रूमाल लेकर तोते के पास खड़ा हो गया। बड़ी हसरत से उसकी ओर देखता रहा। फिर झुककर उसे चूम लिया और उस पर रूमाल ओढ़ा दिया। और बड़े मातम की मुद्रा में उसी के पास सिर झुकाकर बैठ गया।
''बर्टी, बर्टी, पागल हो गये क्या?'' चन्दर ने उसका कन्धा पकड़ाकर हिलाते हुए कहा, ''यह क्या नाटक हो रहा है?''
बर्टी ने आँखें खोलीं और चन्दर को भी हाथ पकडक़र वहीं बिठा लिया और बोला, ''देखो कपूर, एक दिन तुम आये थे तो मैंने तोता और जेनी दोनों को दिखाकर कहा था कि जेनी से मैं नफरत करता हूँ, उससे शादी कर लूँगा और तोते से मैं प्यार करता हूँ, इसे मार डालूँगा। कहा था कि नहीं? कहो हाँ।''
''हाँ, कहा था।'' चन्दर बोला, ''लेकिन क्यों कहा था?''
''हाँ, अब पूछा तुमने! तुम पूछोगे 'मैंने क्यों मार डाला' तो मैं कहूँगा कि इसे अब मर जाना चाहिए था, इसलिए इसे मार डाला। तुम पूछोगे, 'इसे क्यों मर जाना चाहिए?' तो मैं कहूँगा, 'जब कोई जीवन की पूर्णता पर पहुँचा जाता है तो उसे मर जाना चाहिए। अगर वह अपनी जिंदगी का लक्ष्य पूरा कर चुका है और नहीं मरता तो यह उसका अन्याय है। वह अपनी जिंदगी का लक्ष्य पूरा कर चुका था, फिर भी नहीं मरता था। मैं इसे प्यार करता था लेकिन यह अन्याय नहीं सह सकता था, अत: मैंने इसे मार डाला!''
''अच्छा, तो तुम्हारे तोते की भी जिंदगी का कोई लक्ष्य था?''
''हरेक की जिदगी का लक्ष्य होता है। और वह लक्ष्य होता है सत्य को, चरम सत्य को जान जाना। वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिन्दा रहता है, तो उसकी यह असीम बेहयाई है। मैंने इसे वह सत्य सिखा दिया। फिर भी यह नहीं मरा तो मैंने मार डाला। फिर तुम पूछोगे कि वह चरम सत्य क्या है? वह सत्य है कि मौत आदमी के शरीर की हत्या करती है। और आदमी की हत्या गला घोंट देती है। मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत के पास से आ रहे हो। और सम्भव है उसने तुम्हारी आत्मा की हत्या कर डाली हो...''
''ऊँह! अब तुम जल्दी ही पूरे पागल हो जाओगे?'' चन्दर ने कहा और फिर वह पम्मी के पास लौट गया। पम्मी उसी तरह मदहोश लेटी थी। उसने जाते ही फिर बाँहें फैलाकर चन्दर को समेट लिया और चन्दर उसके वक्ष की रेशमी गरमाई में डूब गया।
जब वह लौटा तो बर्टी हाथ में खुरपा लिये एक गड्ढï बन्द कर रहा था। ''सुनो, कपूर! यहाँ मैने उसे गाड़ दिया। यह उसकी समाधि है। और देखो, आते-आते यहाँ सिर झुका देना। वह बेचारा जीवन का सत्य जान चुका है। समझ लो वह सेंट पैरट (सन्त शुकदेव) हो गया है!''
''अच्छा, अच्छा!'' चन्दर सिर झुकाकर हँसते हुए आगे बढ़ा।
''सुनो, रुको कपूर!'' फिर बर्टी ने पुकारा और पास आकर चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, ''कपूर, तुम मानते हो कि नहीं कि पहले मैं एक असाधारण आदमी था।''
''अब भी हो।'' चन्दर हँसते हुए बोला।
''नहीं, अब मैं असाधारण नहीं हूँ, कपूर! देखो, तुम्हें आज रहस्य बताऊँ। वही आदमी असाधारण होता है जो किसी परिस्थिति में किसी भी तथ्य को स्वीकार नहीं करता, उनका निषेध करता चलता है। जब वह किसी को भी स्वीकार कर लेता है, तब वह पराजित हो जाता है। मैं तो कहूँगा असाधारण आदमी बनने के लिए सत्य को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए।''
''क्या मतलब, बर्टी! तुम तो दर्शन की भाषा में बोल रहे हो। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूँ, भाई!'' चन्दर ने कौतूहल से कहा।
''देखो, अब मैंने विवाह स्वीकार कर लिया। जेनी को स्वीकार कर लिया। चाहे यह जीवन का सत्य ही क्यों न हो पर महत्ता तो निषेध में होती है। सबसे बड़ा आदमी वह होता है जो अपना निषेध कर दे...लेकिन मैं अब साधारण आदमी हूँ। सस्ती किस्म का अदना व्यक्ति। मुझे कितना दुख है आज। मेरा तोता भी मर गया और मेरी असाधारणता भी।'' और बर्टी फिर तोते की कब्र के पास सिर झुकाकर बैठ गया।
वह घर पहुँचा तो उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसने उफनी हुई चाँदनी चूमी थी, उसने तरुणाई के चाँद को स्पर्शों से सिहरा दिया था, उसने नीली बिजलियाँ चूमी थीं। प्राणों की सिहरन और गुदगुदी से खेलकर वह आ रहा था, वह पम्मी के होठों के गुलाबों को चूम-चूमकर गुलाबों के देश में पहुँच गया था और उसकी नसों में बहते हुए रस में गुलाब झूम उठे थे। वह सिर से पैर तक एक मदहोश प्यास बना हुआ था। घर पहुँचा तो जैसा उल्लास से उसका अंग-अंग नाच रहा हो। बिनती के प्रति दोपहर को जो आक्रोश उसके मन में उभर आया था, वह भी शान्त हो गया था।
बिनती ने आकर खाना रखा। चन्दर ने बहुत हँसते हुए, बड़े मीठे स्वर में कहा, ''बिनती, आज तुम भी खाओ।''
''नहीं, मैं नीचे खाऊँगी।''
''अरे चल बैठ, गिलहरी!'' चन्दर ने बहुत दिन पहले के स्नेह के स्वर में कहा और बिनती के पीठ में एक घूँसा मारकर उसे पास बिठा लिया-''आज तुम्हें नाराज नहीं रहने देंगे। ले खा, पगली!''
नफरत से नफरत बढ़ती है, प्यार से प्यार जागता है। बिनती के मन का सारा स्नेह सूख-सा गया था। वह चिड़चिड़ी, स्वाभिमानी, गम्भीर और रूखी हो गयी थी लेकिन औरत बहुत कमजोर होती है। ईश्वर न करे, कोई उसके हृदय की ममता को छू ले। वह सबकुछ बर्दाश्त कर लेती है लेकिन अगर कोई किसी तरह उसके मन के रस को जगा दे, तो वह फिर अपना सब अभिमान भूल जाती है। चन्दर ने, जब वह यहाँ आयी थी, तभी से उसके हृदय की ममता जीत ली थी। इसलिए चन्दर के सामने सदा झुकती आयी लेकिन पिछली बार से चन्दर ने ठोकर मारकर सारा स्नेह बिखेर दिया था। उसके बाद उसके व्यक्तित्व का रस सूखता ही गया। क्रोध जैसे उसकी भौंहों पर रखा रहता था।
आज चन्दर ने उसको इतने दुलार से बुलाया तो लगा वह जाने कितने दिनों का भूला स्वर सुन रही है। चाहे चन्दर के प्रति उसके मन में कुछ भी आक्रोश क्यों न हो, लेकिन वह इस स्वर का आग्रह नहीं टाल सकती, यह वह भली प्रकार जानती थी। वह बैठ गयी। चन्दर ने एक कौर बनाकर बिनती के मुँह में दे दिया। बिनती ने खा लिया। चन्दर ने बिनती की बाँह में चुटकी काट कर कहा-''अब दिमाग ठीक हो गया पगली का! इतने दिनों से अकड़ी फिरती थी!''
''हूँ!'' बिनती ने बहुत दिन के भूले हुए स्नेह के स्वर में कहा, ''खुद ही तो अपना दिमाग बिगाड़े रहते हैं और हमें इल्जाम लगाते हैं। तरकारी ठण्डी तो नहीं है?''
दोनों में सुलह हो गयी...जाड़ा अब काफी बढ़ गया था। खाना खा चुकने के बाद बिनती शाल ओढ़े चन्दर के पास आयी और बोली, ''लो, इलायची खाओगे?'' चन्दर ने ले ली। छीलकर आधे दाने खुद खा लिये, आधे बिनती के मुँह में दे दिये। बिनती ने धीरे से चन्दर की अँगुली दाँत से दबा दी। चन्दर ने हाथ खींच लिया। बिनती उसी के पलँग पर पास ही बैठ गयी और बोली, ''याद है तुम्हें? इसी पलँग पर तुम्हारा सिर दबा रही थी तो तुमने शीशी फेंक दी थी।''
''हाँ, याद है! अब कहो तुम्हें उठाकर फेंक दूँ।'' चन्दर आज बहुत खुश था।
''मुझे क्या फेंकोगे!'' बिनती ने शरारत से मुँह बनाकर कहा, ''मैं तुमसे उठूँगी ही नहीं!''
जब अंगों का तूफान एक बार उठना सीख लेता है तो दूसरी बार उठते हुए उसे देर नहीं लगती। अभी वह अपने तूफान में पम्मी को पीसकर आया था। सिरहाने बैठी हुई बिनती, हल्का बादामी शाल ओढ़े, रह-रहकर मुस्कराती और गालों पर फूलों के कटोरे खिल जाते, आँख में एक नयी चमक। चन्दर थोड़ी देर देखता रहा, उसके बाद उसने बिनती को खींचकर कुछ हिचकते हुए बिनती के माथे पर अपने होठ रख दिये। बिनती कुछ नहीं बोली। चुपचाप अपने को छुड़ाकर सिर झुकाये बैठी रही और चन्दर के हाथ को अपने हाथ में लेकर उसकी अँगुलियाँ चिटकाती रही। सहसा बोली, ''अरे, तुम्हारे कफ का बटन टूट गया है, लाओ सिल दूँ।''
चन्दर को पहले कुछ आश्चर्य हुआ, फिर कुछ ग्लानि। बिनती कितना समर्पण करती है, उसके सामने वह...लेकिन उसने अच्छा नहीं किया। पम्मी की बात दूसरी है, बिनती की बात दूसरी। बिनती के साथ एक पवित्र अन्तर ही ठीक रहता-
बिनती आयी और उसके कफ में बटन सीने लगी...सीते-सीते बचे हुए डोरे को दाँत से तोड़ती हुई बोली, ''चन्दर, एक बात कहें मानोगे?''
''क्या?''
''पम्मी के यहाँ मत जाया करो।''
''क्यों?''
''पम्मी अच्छी औरत नहीं है। वह तुम्हें प्यार नहीं करती, तुम्हें बिगाड़ती है।''
''यह बात गलत है, बिनती! तुम इसीलिए कह रही हो न कि उसमें वासना बहुत तीखी है!''
''नहीं, यह नहीं। उसने तुम्हारी जिंदगी में सिर्फ एक नशा, एक वासना दी, कोई ऊँचाई, कोई पवित्रता नहीं। कहाँ दीदी, कहाँ पम्मी? किस स्वर्ग से उतरकर तुम किस नरक में फँस गये!''
''पहले मैं भी यही सोचता था बिनती, लेकिन बाद में मैंने सोचा कि माना किसी लड़की के जीवन में वासना ही तीखी है, तो क्या इसी से वह निन्दनीय है? क्या वासना स्वत: में निन्दनीय है? गलत! यह तो स्वभाव और व्यक्तित्व का अन्तर है, बिनती! हरेक से हम कल्पना नहीं माँग सकते, हरेक से वासना नहीं पा सकते। बादल है, उस पर किरण पड़ेगी, इन्द्रधनुष ही खिलेगा, फूल है, उस पर किरण पड़ेगी, तबस्सुम ही आएगा। बादल से हम माँगने लगें तबस्सुम और फूल से माँगने लगें इन्द्रधनुष, तो यह तो हमारी एक कवित्वमयी भूल होगी। माना एक लड़की के जीवन में प्यार आया, उसने अपने देवता के चरणों पर अपनी कल्पना चढ़ा दी। दूसरी के जीवन में प्यार आया, उसने चुम्बन, आलिंगन और गुदगुदी की बिजलियाँ दीं। एक बोली, 'देवता मेरे! मेरा शरीर चाहे जिसका हो, मेरी पूजा-भावना, मेरी आत्मा तुम्हारी है और वह जन्म-जन्मान्तर तक तुम्हारी रहेगी...' और दूसरी दीपशिखा-सी लहराकर बोली, 'दुनिया कुछ कहे अब तो मेरा तन-मन तुम्हारा है। मैं तो बेकाबू हूँ! मैं करूँ क्या? मेरे तो अंग-अंग जैसे अलसा कर चूर हो गये है तुम्हारी गोद में गिर पडऩे के लिए, मेरी तरुणाई पुलक उठी है तुम्हारे आलिंगन में पिस जाने के लिए। मेरे लाज के बन्धन जैसे शिथिल हुए जाते हैं? मैं करूँ तो क्या करूँ? कैसा नशा पिला दिया है तुमने, मैं सब कुछ भूल गयी हूँ। तुम चाहे जिसे अपनी कल्पना दो, अपनी आत्मा दो, लेकिन एक बार अपने जलते हुए होठों में मेरे नरम गुलाबी होठ समेट लो न!' बताओ बिनती, क्यों पहली की भावना ठीक है और दूसरी की प्यास गलत?''
बिनती कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली, ''चन्दर, तुम बहुत गहराई से सोचते हो। लेकिन मैं तो एक मोटी-सी बात जानती हूँ कि जिसके जीवन में वह प्यास जग जाती है वह फिर किसी भी सीमा तक गिर सकता है। लेकिन जिसने त्याग किया, जिसकी कल्पना जागी, वह किसी भी सीमा तक उठ सकता है। मैंने तो तुम्हें उठते हुए देखा है।''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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