गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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''अपमान! किसने तुम्हारा अपमान किया, सुधा? पम्मी ने तो कुछ भी नहीं कहा? तुम पागल तो नहीं हो गयीं?'' चन्दर ने सुधा के पैरों पर हाथ रखते हुए कहा।
''पागल हो नहीं गयी तो हो जाऊँगी!'' उसने पैर हटा लिये, ''तुम, पम्मी, गेसू, पापा डॉक्टर सब लोग मिलकर मुझे पागल कर दोगे। पापा कहते है ब्याह करो, पम्मी कहती है मत करो, गेसू कहती है तुम प्यार करती हो और तुम...तुम कुछ भी नहीं कहते। तुम मुझे इस नरक में बरसों से सुलगते देख रहे हो और बजाय इसके कि तुम कुछ कहो, तुमने मुझे खुद इस भट्टी में ढकेल दिया!...चन्दर, मैं पागल हूँ, मैं क्या करूँ?'' सुधा बड़े कातर स्वर में बोली। चन्दर चुप था। सिर्फ सिर झुकाये, हाथों पर माथा रखे बैठा था। सुधा थोड़ी देर हाँफती रही। फिर बोली-
''तुम्हें क्या हक था कल पम्मी के यहाँ ले जाने का? उसने क्यों कल गीत में कहा कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ?'' सुधा बोली। चन्दर ने बिनती की ओर देखा-''क्यों बिनती? बिनती से मैं कुछ नहीं छिपाता!'' ''क्यों पम्मी ने कल कहा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती! मेरा मन मुझे धोखा नहीं दे सकता। मैं तुमसे सिर्फ जाने क्या करती हूँ...फिर पम्मी ने कल ऐसी बात क्यों कही? मेरे रोम-रोम में जाने कौन-सा ज्वालामुखी धधक उठता है ऐसी बातें सुनकर? तुम क्यों पम्मी के यहाँ ले गये?''
''तुम खुद गयी थीं, सुधा!'' चन्दर बोला।
''तो तुम रोक नहीं सकते थे! तुम कह देते मत जाओ तो मैं कभी जा सकती थी? तुमने क्यों नहीं रोका? तुम हाथ पकड़ लेते। तुम डाँट देते। तुमने क्यों नहीं डाँटा? एक ही दिन में मैं तुम्हारी गैर हो गयी? गैर हूँ तो फिर क्यों आये हो? जाओ यहाँ से। मैं कहती हूँ; जाओ यहाँ से?'' दाँत पीसकर सुधा बोली।
''सुधा...''
''मैं तुम्हारी बोली नहीं सुनना चाहती। जाते हो कि नहीं...'' और सुधा ने अपने माथे पर से उठाकर आइस-बैग फेंक दिया। बिनती चौंक उठी। चन्दर चौंक उठा। उसने मुडक़र सुधा की ओर देखा। सुधा का चेहरा डरावना लग रहा था। उसका मन रो आया। वह उठा, क्षण-भर सुधा की ओर देखता रहा और धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया।
बरामदे के सोफे पर आकर सिर झुकाकर बैठ गया और सोचने लगा, यह सुधा को क्या हो गया? परसों शाम को वह इसी सोफे पर सोया था, सुधा बैठी पंखा झल रही थी। कल शाम को वह हँस रही थी, लगता था तूफान शान्त हो गया पर यह क्या? अन्तर्द्वंद्व ने यह रूप कैसे ले लिया?
और क्यों ले लिया? जब वह अपने मन को शान्त रख सकता है, जब वह सभी कुछ हँसते-हँसते बरदाश्त कर सकता है तो सुधा क्यों नहीं कर सकती? उसने आज तक अपनी साँसों से सुधा का निर्माण किया है। सुधा को तिल-तिल बनाया, सजाया, सँवारा है फिर सुधा में यह कमजोरी क्यों?
क्या उसने यह रास्ता अख्तियार करके भूल की? क्या सुधा भी एक साधारण-सी लड़की है जिसके प्रेम और घृणा का स्तर उतना ही साधारण है? माना उसने अपने दोनों के लिए एक ऐसा रास्ता अपनाया है जो विलक्षण है लेकिन इससे क्या! सुधा और वह दोनों ही क्या विलक्षण नहीं हैं? फिर सुधा क्यों बिखर रही है? लड़कियाँ भावना की ही बनी होती हैं? साधना उन्हें आती ही नहीं क्या? उसने सुधा का गलत मूल्यांकन किया था? क्या सुधा इस 'तलवार की धार' पर चलने में असमर्थ साबित होगी? यह तो चन्दर की हार थी।
और फिर सुधा ऐसी ही रही तो चन्दर? सुधा चन्दर की आत्मा है; इसे अब चन्दर खूब अच्छी तरह पहचान गया। तो क्या अपनी ही आत्मा को घोंट डालने की हत्या का पाप चन्दर के सिर पर है?
तो क्या त्याग मात्र नाम ही है? क्या पुरुष और नारी के सम्बन्ध का एक ही रास्ता है-प्रणय, विवाह और तृप्ति! पवित्रता, त्याग और दूरी क्या सम्बन्धों को, विश्वासों को जिन्दा नहीं रहने दे सकते? तो फिर सुधा और पम्मी में क्या अन्तर है? क्या सुधा के हृदय के इतने समीप रहकर, सुधा के व्यक्तित्व में घुल-मिलकर और आज सुधा को इतने अन्तर पर डालकर चन्दर पाप कर रहा है? तो क्या फूल को तोड़कर अपने ही बटन होल में लगा लेना ही पुण्य है और दूसरा रास्ता गर्हित है? विनाशकारी है? क्यों उसने सुधा का व्यक्तित्व तोड़ दिया है?
किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा। विचार-शृंखला टूट गयी...बिनती थी। ''क्या सोच रहे हैं आप?'' बिनती ने पूछा, बहुत स्नेह से।
''कुछ नहीं!''
''नहीं बताइएगा? हम नहीं जान सकते?'' बिनती के स्वर में ऐसा आग्रह, ऐसा अपनापन, ऐसी निश्छलता रहती थी कि चन्दर अपने को कभी नहीं रोक पाता था। छिपा नहीं पाता था।
''कुछ नहीं बिनती! तुम कहती हो, सुधा को इतने अन्तर पर मैंने रखा तो मैं देवता हूँ! सुधा कहती है, मैंने अन्तर पर रखा, मैंने पाप किया! जाने क्या किया है मैंने? क्या मुझे कम तकलीफ है? मेरा जीवन आजकल किस तरह घायल हो गया है, मैं जानता हूँ। एक पल मुझे आराम नहीं मिलता। क्या उतनी सजा काफी नहीं थी जो सुधा को भी किस्मत यह दण्ड दे रही है? मुझी को सभी बचैनी और दु:ख मिल जाता। सुधा को मेरे पाप का दण्ड क्यों मिल रहा है? बिनती, तुमसे अब कुछ नहीं छिपा। जिसको मैं अपनी साँसों में दुबकाकर इन्द्रधनुष के लोक तक ले गया, आज हवा के झोंके उसे बादलों की ऊँचाई से क्यों ढकेल देना चाहते हैं? और मैं कुछ भी नहीं कर सकता?'' इतनी देर बाद बिनती के ममता-भरे स्पर्श में चन्दर की आँखें छलछला आयीं।
''छिह, आप समझदार हैं! दीदी ठीक हो जाएँगी! घबराने से काम नहीं चलेगा न! आपको हमारी कसम है। उदास मत होइए। कुछ सोचिए मत। दीदी बीमार हैं, आप इस तरह से करेंगे तो कैसे काम चलेगा! उठिए, दीदी बुला रही हैं।''
चन्दर गया। सुधा ने इशारे से पास बुलाकर बिठा लिया। ''चन्दर, हमारा दिमाग ठीक नहीं है। बैठ जाओ लेकिन कुछ बोलना मत, बैठे रहो।''
उसके बाद दिन भर अजब-सा गुजरा। जब-जब चन्दर ने उठने की कोशिश की, सुधा ने उसे खींचकर बिठा लिया। घर तो उसे जाने ही नहीं दिया। बिनती वहीं खाना ले आयी। सुधा कभी चन्दर की ओर देख लेती। फिर तकिये में मुँह गड़ा लेती। बोली एक शब्द भी नहीं, लेकिन उसकी आँखों में अजब-सी कातरता थी। पापा आये, घंटों बैठे रहे; पापा चले गये तो उसने चन्दर का हाथ अपने हाथ में ले लिया, करवट बदली और तकिये पर अपने कपोलों से चन्दर की हथेली दबाकर लेटी रही। पलकों से कितने ही गरम-गरम आँसू छलककर गालों पर फिसलकर चन्दर की हथेली भिगोते रहे।
चन्दर चुप रहा। लेकिन सुधा के आँसू जैसे नसों के सहारे उसके हृदय में उतर गये और जब हृदय डूबने लगा तो उसकी पलकों पर उतर आये। सुधा ने देखा लेकिन कुछ भी नहीं बोली। घंटा-भर बहुत गहरी साँस ली; बेहद उदासी से मुसकराकर कहा, ''हम दोनों पागल हो गये हैं, क्यों चन्दर? अच्छा, अब शाम हो गयी। जरा लॉन पर चलें।''
सुधा चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर खड़ी हो गयी। बिनती ने दवा दी, थर्मामीटर से बुखार देखा। बुखार नहीं था। चन्दर ने सुधा के लिए कुरसी उठायी। सुधा ने हँसकर कहा, ''चन्दर, आज बीमार हूँ तो कुरसी उठा रहे हो, मर जाऊँगी तो अरथी उठाने भी आना, वरना नरक मिलेगा! समझे न!''
''छिह, ऐसा कुबोल न बोला करो, दीदी?''
सुधा लॉन में कुरसी पर बैठ गयी। बगल में नीचे चन्दर बैठ गया। सुधा ने चन्दर का सिर अपनी कुरसी में टिका लिया और अपनी उँगलियों से चन्दर के सूखे होठों को छूते हुए कहा, ''चन्दर, आज मैंने तुम्हें बहुत दु:खी किया, क्यों? लेकिन जाने क्यों, दु:खी न करती तो आज मुझे वह ताकत न मिलती जो मिल गयी।'' और सहसा चन्दर के सिर को अपनी गोद में खींचती हुई-सी सुधा ने कहा, ''आराध्य मेरे! आज तुम्हें बहुत-सी बातें बताऊँगी। बहुत-सी।''
बिनती उठकर जाने लगी तो सुधा ने कहा, ''कहाँ चली? बैठ तू यहाँ। तू गवाह रहेगी ताकि बाद में चन्दर यह न कहे कि सुधा कमजोर निकल गयी।'' बिनती बैठ गयी। सुधा ने क्षण-भर आँखें बन्द कर लीं और अपनी वेणी पीठ पर से खींचकर गोद में ढाल ली और बोली, ''चन्दर, आज कितने ही साल हुए, जबसे मैंने तुम्हें जाना है, तब से अच्छे-बुरे सभी कामों का फैसला तुम्ही करते रहे हो। आज भी तुम्हीं बताओ चन्दर कि अगर मैं अपने को बहुत सँभालने की कोशिश करती हूँ और नहीं सँभाल पाती हूँ, तो यह कोई पाप तो नहीं? तुम जानते हो चन्दर, तुम जितने मजबूत हो उस पर मुझे घमंड है कि तुम कितनी ऊँचाई पर हो, मैं भी उतना ही मजबूत बनने की कोशिश करती हूँ, उतने ही ऊँचे उठने की कोशिश करती हूँ, अगर कभी-कभी फिसल जाती हूँ तो यह अपराध तो नहीं?''
''नहीं।'' चन्दर बोला।
''और अगर अपने उस अन्तर्द्वंद्व के क्षणों में तुम पर कठोर हो जाती हूँ, तो तुम सह लेते हो। मैं जानती हूँ, तुम मुझे जितना स्नेह करते हो, उसमें मेरी सभी दुर्बलताएँ धुल जाती हैं। लेकिन आज मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ चन्दर कि मुझे खुद अपनी दुर्बलताओं पर शरम आती है और आगे से मैं वैसी ही बनूँगी जैसा तुमने सोचा है, चन्दर।''
चन्दर कुछ नहीं बोला सिर्फ घास पर रखे हुए सुधा के पाँवों पर अपनी काँपती उँगलियाँ रख दीं। सुधा कहती गयी, ''चन्दर, आज से कुछ ही महीने पहले जब गेसू ने मुझसे पूछा था कि तुम्हारा दिल कहीं झुका था तो मैंने इनकार कर दिया था, कल पम्मी ने पूछा, तुम चन्दर को प्यार करती हो तो मैंने इनकार कर दिया था, मैं आज भी इनकार करती हूँ कि मैंने तुम्हें प्यार किया है, या तुमने मुझे प्यार किया है। मैं भी समझती हूँ और तुम भी समझते हो लेकिन यह न तुमसे छिपा है न मुझसे कि तुमने जो कुछ दिया है वह प्यार से कहीं ज्यादा ऊँचा और प्यार से कहीं ज्यादा महान है।...मैं ब्याह नहीं करना चाहती थी, मैंने परसों इनकार कर दिया था, इतनी रोयी थी, खीझी थी, बाद में मैंने सोचा कि यह गलत है, यह स्वार्थ है। जब पापा मुझे इतना प्यार करते हैं तो मुझे उनका दिल नहीं दुखाना चाहिए। पर मन के अन्दर की जो खीझ थी, जो कुढऩ थी, वह कहीं तो उतरती ही। वह मैं अपने पर उतार देना चाहती थी, मन में आता था अपने को कितना कष्ट दे डालूँ इसीलिए अपने गैरेज में जाकर मोटर सँभाल रही थी, लेकिन वहाँ भी असफल रही और अन्त में वह खीझ अपने मन पर भी न उतारकर उस पर उतारी जिसको मैंने अपने से भी बढ़कर माना है। वह खीझ उतरी तुम पर!''
चन्दर ने सुधा की ओर देखा। सुधा मुसकराकर बोली, ''न, ऐसे मत देखो। यह मत समझो कि अपने आज के व्यवहार के लिए मैं तुमसे क्षमा मागूँगी। मैं जानती हूँ, माँगने से तुम दु:खी भी होगे और डाँटने भी लगोगे। खैर, आज से मैं अपना रास्ता पहचान गयी हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझे कितना सँभलकर चलना है। तुम्हारे सपने को पूरा करने के लिए मुझे अपने को क्या बनाना होगा, यह भी मैं समझ गयी हूँ। मैं खुश रहूँगी, सबल रहूँगी और सशक्त रहूँगी और जो रास्ता तुम दिखलाओगे उधर ही चलूँगी। लेकिन एक बात बताओ चन्दर, मैंने ब्याह कर लिया और वहाँ सुखी न रह पायी, फिर और उन्हें वह भावना, उपासना न दे पायी और फिर तुम्हें दु:ख हुआ, तब?''
चन्दर ने घास का एक तिनका तोडक़र कहा, ''देखो सुधा, एक बात बताओ। अगर मैं तुम्हें कुछ कह देता हूँ और उसे तुम मुझी को वापस दे देती हो तो कोई बहुत ऊँची बात नहीं हुई। अगर मैंने तुम्हें सचमुच ही स्नेह या पवित्रता जो कुछ भी दिया है, उसे तुम उन सभी के जीवन में ही क्यों नहीं प्रतिफलित कर सकती जो तुम्हारे जीवन में आते हैं, चाहे वह पति ही क्यों न हों। तुम्हारे मन के अक्षय स्नेह-भंडार के उपयोग में इतनी कृपणता क्यों? मेरा सपना कुछ और ही है, सुधा। आज तक तुम्हारी साँसों के अमृत ने ही मुझे यह सामग्री दी कि मैं अपने जीवन में कुछ कर सकूँ और मैं भी यही चाहता हूँ कि मैं तुम्हें वह स्नेह दूँ जो कभी घटे ही न। जितना बाँटो उतना बढ़े और इतना मुझे विश्वास है कि तुम यदि स्नेह की एक बूँद दो तो मनुष्य क्या से क्या हो सकता है। अगर वही स्नेह रहेगा तो तुम्हारे पति को कभी कोई असन्तोष क्या हो सकता है और फिर कैलाश तो इतना अच्छा लड़का है, और उसका जीवन इतना ऊँचा कि तुम उसकी जिंदगी में ऐसी लगोगी, जैसे अँगूठी में हीरा। और जहाँ तक तुम्हारा अपना सवाल है, मैं तुमसे भीख माँगता हूँ कि अपना सब कुछ खोकर भी अगर मुझे कोई सन्तोष रहेगा तो यह देखकर कि मेरी सुधा अपने जीवन में कितनी ऊँची है। मैं तुमसे इस विश्वास की भीख माँगता हूँ।''
''छिह, मुझसे बड़े हो ,चन्दर! ऐसी बात नहीं कहते! लेकिन एक बात है। मैं जानती हूँ कि मैं चन्द्रमा हूँ, सूर्य की किरणों से ही जिसमें चमक आती है। तुमने जैसे आज तक मुझे सँवारा है, आगे भी तुम अपनी रोशनी अगर मेरी आत्मा में भरते गये तो मैं अपना भविष्य भी नहीं पहचान सकूँगी। समझे!''
''समझा, पगली कहीं की!'' थोड़ी देर चन्दर चुप बैठा रहा फिर सुधा के पाँवों से सिर टिकाकर बोला-''परेशान कर डाला, तीन रोज से। सूरत तो देखो कैसी निकल आयी है और बैसाखी को कुल चार रोज रह गये। अब मत दिमाग बिगाड़ना! वे लोग आते ही होंगे!''
''बिनती! दवा ले आ...'' बिनती उठकर गयी तो सुधा बोली, ''हटो, अब हम घास पर बैठेंगे!'' और घास पर बैठकर वह बोली, ''लेकिन एक बात है, आज से लेकर ब्याह तक तुम हर अवसर पर हमारे सामने रहना, जो कहोगे वह हम करते जाएँगे।''
''हाँ, यह हम जानते हैं।'' चन्दर ने कहा और कुछ दूर हटकर घास पर लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा। शाम हो गयी थी और दिन-भर की उड़ी हुई धूल अब बहुत कुछ बैठ गयी थी। आकाश के बादल ठहरे हुए थे और उन पर अरुणाई झलक रही थी। एक दुरंगी पतंग बहुत ऊँचे पर उड़ रही थी। चन्दर का मन भारी था। हालाँकि जो तूफान परसों उठा था वह खत्म हो गया था, लेकिन चन्दर का मन अभी मरा-मरा हुआ-सा था। वह चुपचाप लेटा रहा। बिनती दवा और पानी ले आयी। दवा पीकर सुधा बोली, ''क्यों, चुप क्यों हो, चन्दर?''
''कोई बात नहीं।''
''फिर बोलते क्यों नहीं, देखा बिनती, अभी-अभी क्या कह रहे थे और अब देखो इन्हें।'' सुधा बोली।
''हम अभी बताते हैं इन्हें!'' बिनती बोली और गिलास में थोड़ा-सा पानी लेकर चन्दर के ऊपर फेंक दिया। चन्दर चौंककर उठ बैठा और बिगड़क़र बोला, ''यह क्या बदतमीजी है? अपनी दीदी को यह सब दुलार दिखाया करो।''
''तो क्यों पड़े थे ऐसे? बात करेंगे ऋषि-मुनियों जैसे और उदास रहेंगे बच्चों की तरह! वाह रे चन्दर बाबू!'' बिनती ने हँसकर कहा, ''दीदी, ठीक किया न मैंने?''
''बिल्कुल ठीक, ऐसे ही इनका दिमाग ठीक होगा।''
''इतने में डॉक्टर शुक्ला आये और कुरसी पर बैठ गये। सुधा के माथे पर हाथ रखकर देखा, ''अब तो तू ठीक है?''
''हाँ, पापा!''
''बिनती, कल तुम्हारी माताजी आ रही हैं। अब बैसाखी की तैयारी करनी है। सुधा के जेठ आ रहे हैं और सास।''
सुधा चुपचाप उठकर चली गयी। चन्दर, बिनती और डॉक्टर साहब बैठे उस दिन का बहुत-सा कार्यक्रम बनाते रहे।
चन्दर को सबसे बड़ा सन्तोष था कि सुधा ठीक हो गयी थी। बैसाख पूनो के एक दिन पहले ही से बिनती ने घर को इतना साफ कर डाला था कि घर चमक उठा था। यह बात तो दूसरी है कि स्टडी-रूम की सफाई में बिनती ने चन्दर के बहुत-से कागज बुहारकर फेंक दिये थे और आँगन धोते वक्त उसने चन्दर के कपड़ों को छीटों से तर कर दिया था। उसके बदले में चन्दर ने बिनती को डाँटा था और सुधा देख-देखकर हँस रही थी और कह रही थी, ''तुम क्यों चिढ़ रहे हो? तुम्हें देखने थोड़े ही आ रही हैं हमारी सास।''
बैशाखी पूनो की सुबह डॉक्टर साहब और बुआजी गाड़ी लेकर उनको लिवा लाने गये थे। चन्दर बाहर बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था और सुधा अन्दर कमरे में बैठी थी। अब दो दिन उसे बहुत दब-ढँककर रहना होगा। वह बाहर नहीं घूम सकती थी; क्योंकि जाने कैसे और कब उसकी सास आ जाएँ और देख लें। बुआ उसे समझा गयी थीं और उसने एक गम्भीर आज्ञाकारी लड़की की तरह मान लिया था और अपने कमरे में चुपचाप बैठी थी। बिनती कढ़ी के लिए बेसन फेंट रही थी और महराजिन ने रसोई में दूध चढ़ा रखा था।
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

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सुधा चुपके से आयी, किवाड़ की आड़ से देखा कि पापा और बुआ की मोटर आ तो नहीं रही है! जब देखा कि कोई नहीं है तो आकर चुप्पे से खड़ी हो गयी और पीछे से चन्दर के हाथ से अखबार ले लिया। चन्दर ने पीछे देखा तो सुधा एक बच्चे की तरह मुसकरा दी और बोली, ''क्यों चन्दर, हम ठीक हैं न? ऐसे ही रहें न? देखा तुम्हारा कहना मानते हैं न हम?''
''हाँ सुधी, तभी तो हम तुमको इतना दुलार करते हैं!''
''लेकिन चन्दर, एक बार आज रो लेने दो। फिर उनके सामने नहीं रो सकेंगे।'' और सुधा का गला रुँध गया और आँख छलछला आयी।
''छिह, सुधा...'' चन्दर ने कहा।
''अच्छा, नहीं-नहीं...'' और झटके से सुधा ने आँसू पोंछ लिये। इतने में गेट पर किसी कार का भोंपू सुनाई पड़ा और सुधा भागी।
''अरे, यह तो पम्मी की कार है।'' चन्दर बोला। सुधा रुक गयी। पम्मी ने पोर्टिको में आकर कार रोकी।
''हैलो, मेरे जुड़वा मित्र, क्या हाल है तुम लोगों का?'' और हाथ मिलाकर बेतकल्लुफी से कुर्सी खींचकर बैठ गयी।
''इन्हें अन्दर ले चलो, चन्दर! वरना अभी वे लोग आते होंगे!'' सुधा बोली।
''नहीं, मुझे बहुत जल्दी है। आज शाम को बाहर जा रही हूँ। बर्टी अब मसूरी चला गया है, वहाँ से उसने मुझे भी बुलाया है। उसके हाथ में कहीं शिकार में चोट लग गयी है। मैं तो आज जा रही हूँ।''
सुधा बोली, ''हमें ले चलिएगा?''
''चलिए। कपूर, तुम भी चलो, जुलाई में लौट आना!'' पम्मी ने कहा।
''जब अगले साल हम लोगों की मित्रता की वर्षगाँठ होगी तो मैं चलूँगा।'' चन्दर ने कहा।
''अच्छा, विदा!'' पम्मी बोली। चन्दर और सुधा ने हाथ जोड़े तो पम्मी ने आगे बढक़र सुधा का मुँह हथेलियों में उठाकर उसकी पलकें चूम लीं और बोली, ''मुझे तुम्हारी पलकें बहुत अच्छी लगती हैं। अरे! इनमें आँसुओं का स्वाद है, अभी रोयी थीं क्या?'' सुधा झेंप गयी।
चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर पम्मी ने कहा, ''कपूर, तुम खत जरूर लिखते रहना। चलते तो बड़ा अच्छा रहता। अच्छा, आप दोनों मित्रों का समय अच्छी तरह बीते।'' और पम्मी चल दी।
थोड़ी देर में डॉक्टर साहब की कार आयी। सुधा ने अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर लिये, बिनती ने सिर पर पल्ला ढक लिया और चन्दर दौड़कर बाहर गया। डॉक्टर साहब के साथ जो सज्जन उतरे वे ठिगने-से, गोरे-से, गोल चेहरे के कुलीन सज्जन थे और खद्दर का कुरता और धोती पहने हुए थे। हाथ में एक छोटा-सा सफरी बैग था। चन्दर ने लेने को हाथ बढ़ाया तो हँसकर बोले, ''नहीं जी, क्या इतना-सा बैग ले चलने में मेरा हाथ थक जाएगा। आप लोग तो खातिर करके मुझे महत्वपूर्ण बना देंगे!''
सब लोग स्टडी रूम में गये। वहीं डॉक्टर शुक्ला ने परिचय कराया-''यह हमारे शिष्य और लड़के, प्रान्त के होनहार अर्थशास्त्री चन्द्रकुमार कपूर और आप शाहजहाँपुर के प्रसिद्ध काँग्रेसी कार्यकर्ता और म्युनिसिपल कमिश्नर श्री शंकरलाल मिश्र।''
''अब तू नहाय लेव संकरी, फिर चाय ठंडाय जइहै।'' बुआजी ने आकर कहा। आज बुआजी ने बहुत दिनों पहले की बूटीदार साड़ी पहन रखी थी और शायद वह खुश थीं क्योंकि बिनती को डाँट नहीं रही थीं।
''नहीं, मैं तो वेटिंग-रूम में नहा चुका। चाय मैं पीता नहीं। खाना ही तैयार कराइए।'' और घड़ी देखकर शंकर बाबू बोले, ''मुझे जरा स्वराज्य-भवन जाना है और दो बजे की गाड़ी से वापस चले जाना है और शायद उधर से ही चला जाऊँगा।'' उन्होंने बहुत मीठे स्वर से मुसकराते हुए कहा।
''यह तो अच्छा नहीं लगता कि आप आये भी और कुछ रुके नहीं।'' डॉक्टर शुक्ला बोले।
''हाँ, मैं खुद रुकना चाहता था लेकिन माँजी की तबीयत ठीक नहीं है। कैलाश भी कानपुर गया हुआ है। मुझे जल्दी जाना चाहिए।''
बिनती ने लाकर थाली रखी। चन्दर ने आश्चर्य से डॉक्टर साहब की ओर देखा। वे हँसकर बोले, ''भाई, यह लोग हमारी तरह छूत-पाक नहीं मानते। शंकर तुम्हारे सम्प्रदाय के हैं, यहीं कच्चा खाना खा लेंगे।''
''इन्हें ब्राह्मïण कहत के है, ई तो किरिस्तान है, हमरो धरम बिगाडिऩ हिंयाँ आय कै!'' बुआजी बोलीं। बुआजी ने ही यह शादी तय करायी थी, लड़काबताया था और दूर के रिश्ते से वे कैलाश और शंकर की भाभी लगती थीं।
शंकर बाबू ने हाथ धोये और कुर्सी खींचकर बैठ गये। चन्दर, की ओर देखकर बोले, ''आइए, होनहार डॉक्टर साहब, आप तो मेरे साथ खा सकते हैं?''
''नहीं, आप खाइए।'' चन्दर ने तकल्लुफ करते हुए कहा।
''अजी वाह! मैं ब्राह्मïण हूँ, शुद्ध; मेरे साथ खाकर आपको जल्दी मोक्ष मिल जाएगा। कहीं हाथ में तरकारी लगी रह गयी तो आपके लिए स्वर्ग का फाटक फौरन खुल जाएगा! खाओ।''
दो कौर खाने के बाद शंकर बाबू ने बुआजी से कहा, ''यही बहू है, जो लड़की थाली रख गयी थी?''
''अरे राम कहौ, ऊ तो हमार छोरी है बिनती! पहचनत्यौ नै। पिछले साल तो मुन्ने के विवाह में देखे होबो!'' बुआजी बोलीं।
शंकर बाबू कैलाश से काफी बड़े थे लेकिन देखने में बहुत बड़े नहीं लगते थे। खाते-पीते बोले, ''डॉक्टर साहब! लड़की से कहिए, रोटी दे जाये। मैं इसी तरह देख लूँगा, और ज्यादा तडक़-भड़क की कोई जरूरत नहीं!''
डॉक्टर साहब ने बुआजी को इशारा किया और वे उठकर चली गयीं। थोड़ी देर में सुधा आयी। सादी सफेद धोती पहने, हाथ में रोटी लिये दरवाजे पर आकर हिचकी, फिर आकर चन्दर से बोली, ''रोटी लोगे!'' और बिना चन्दर की आवाज सुने रोटी चन्दर के आगे रखकर बोली, ''और क्या चाहिए?''
''मुझे कढ़ी चाहिए!'' शंकर बाबू ने कहा। सुधा गयी और कढ़ी ले आयी। शंकर बाबू के सामने रख दी। शंकर बाबू ने आँखें उठाकर सुधा की ओर देखा, सुधा ने निगाहें नीची कर लीं और चली गयी।
''बहुत अच्छी है लड़की!'' शंकर बाबू ने कहा। ''इतनी पढ़ी-लिखी लड़की में इतनी शर्म-लिहाज नहीं मिलती। सचमुच जैसे आपकी एक ही लड़की थी, आपने उसे खूब बनाया है। कैलाश के बिल्कुल योग्य लड़की है। यह तो कहिए डॉक्टर साहब कि शिष्टा प्रबल होती है वरना हमारा कहाँ सौभाग्य था! जब से मेरी पत्नी मरी तभी से माताजी कैलाश के विवाह की जिद कर रही हैं। कैलाश अन्तर्जातीय विवाह करना चाहता था, लेकिन हमें तो अपनी जाति में ही इतना अच्छा सम्बन्ध मिल गया।''
''तो तोहरे अबहिन कौन बैस ह्वा गयी। तुहौ काहे नाही बहुरिया लै अउत्यौ। सुधी के अकेल मन न लगी!'' बुआजी बोलीं।
शंकर बाबू कुछ नहीं बोले। खाना खाकर उन्होंने हाथ धोये और घड़ी देखी।
''अब थोड़ा सो लूँ, या जाने दीजिए। आइए, बातें करें हम और आप,'' उन्होंने चन्दर से कहा। एक बजे तक चन्दर शंकर बाबू से बातें करता रहा और डॉक्टर साहब और सुधा वगैरह खाना खाते रहे। शंकर बाबू बहुत हँसमुख थे और बहुत बातूनी भी। चन्दर को तो कैलाश से भी ज्यादा शंकर बाबू पसन्द आये। बातें करने से मालूम हुआ कि शंकर बाबू की आयु अभी तीस वर्ष से अधिक की नहीं है। एक पाँच वर्ष का बच्चा है और उसी के होने में उनकी पत्नी मर गयी। अब वे विवाह नहीं करेंगे, वे गाँधीवादी हैं, काँग्रेस के प्रमुख स्थानीय कार्यकर्ता हैं और म्युनिसिपल कमिश्नर हैं। घर के जमींदार हैं। कैलाश बरेली में पढ़ता था। अब भी कैलाश का कोई इरादा किसी प्रकार की नौकरी या व्यापार करने का नहीं है, वह मजदूरों के लिए साप्ताहिक पत्र निकालने का इरादा कर रहा है। वह सुधा को बजाय घर पर रखने के अपने साथ रखेगा क्योंकि वह सुधा को आगे पढ़ाना चाहता है, सुधा को राजनीति क्षेत्र में ले जाना चाहता है।
बीच में एक बार बिनती आयी और उसने चन्दर को बुलाया। चन्दर बाहर गया तो बिनती ने कहा, ''दीदी पूछ रही हैं, ये कितनी देर में जाएँगे?''
''क्यों?''
''कह रही हैं अब चन्दर को याद थोड़े ही है कि सुधा भी इसी घर में है। उन्हीं से बातें कर रहे हैं।''
चन्दर हँस दिया और कुछ नहीं कहा। बिनती बोली, ''ये लोग तो बहुत अच्छे हैं। मैं तो कहूँगी सुधा दीदी को इससे अच्छा परिवार मिलना मुश्किल है। हमारे ससुर की तरह नहीं हैं ये लोग।''
''हाँ, फिर भी सुधा इतनी सेवा नहीं कर रही है इनकी। बिनती, तुम सुधा को कुछ शिक्षा दे दो इस मामले में।''
''हाँ-हाँ, हम सेवा करने की शिक्षा दे देंगे और ब्याह करने के बाद की शिक्षा अपनी पम्मी से दिलवा देना। खुद तो उनसे ले ही चुके होंगे आप!''
चन्दर झेंप गया। ''पाजी कहीं की, बहुत बेशरम हो गयी है। पहले मुँह से बोल नहीं निकलता था!''
''तुमने और दीदी ने ही तो किया बेशरम! हम क्या करें? पहले हम कितना डरते थे!'' बिनती ने उसी तरह गर्दन टेढ़ी करके कहा और मुसकराकर भाग गयी।
जब डॉक्टर साहब आये तो शंकर बाबू ने कहा, ''अब तो मैं जा रहा हूँ, यह माला मेरी ओर से बहू को दे दीजिए।'' और उन्होंने बड़ी सुन्दर मोतियों की माला बैग से निकाली और बुआजी के हाथ में दे दी।
''हाँ, एक बात है!'' शंकर बाबू बोले, ''ब्याह हम लोग महीने भर के अन्दर ही करेंगे। आपकी सब बात हमने मानी, यह बात आपको हमारी माननी होगी।''
''इतनी जल्दी!'' डॉक्टर शुक्ला चौंक उठे, ''यह असम्भव है, शंकर बाबू ! मैं अकेला हूँ, आप जानते हैं।''
''नहीं, आपको कोई कष्ट न होगा।'' शंकर बाबू बहुत मीठे स्वर में बोले, ''हम लोग रीति-रसम के तो कायल हैं नहीं। आप जितना चाहे रीति-रसम अपने मन से कर लें। हम लोग तो सिर्फ छह-सात आदमियों के साथ आएँगे। सुबह आएँगे, अपने बँगले में एक कमरा खाली करा दीजिएगा। शाम को अगवानी और विवाह कर दें। दूसरे दिन दस बजे हम लोग चले जाएँगे।''
''यह नहीं होगा।'' डॉक्टर साहब बोले, ''हमारी तो अकेली लड़की है और हमारे भी तो कुछ हौसले हैं। और फिर लड़की की बुआ तो यह कभी भी नहीं स्वीकार करेंगी।''
''देखिए, मैं आपको समझा दूँ, कैलाश शादियों में तड़क-भड़क के सख्त खिलाफ है। पहले तो वह इसलिए जाति में विवाह नहीं करना चाहता था, लेकिन जब मैंने उसे भरोसा दिलाया कि बहुत सादा विवाह होगा तभी वह राजी हुआ। इसीलिए इसे आप मान ही लें फिर विवाह के बाद तो जिंदगी पड़ी है। आपकी अकेली लड़की है जितना चाहिए, करिए। रहा कम समय का तो शुभस्य शीघ्रम्! फिर आपको कुछ खास इन्तजाम भी नहीं करना, अगर कुछ हो तो कहिए मैं यहीं रह जाऊँ, आपका काम कर दूँ!'' शंकर बाबू हँसकर बोले।
कुछ देर तक बातें होती रहीं, अन्त में शंकर बाबू ने अपने सौजन्य और मीठे स्वभाव से सभी को राजी कर ही लिया। उसके बाद उन्होंने सबसे विदा माँगी, चलते वक्त बुआजी और डॉक्टर साहब के पैर छुए, चन्दर से हाथ मिलाया और शंकर बाबू सबका मन जीतकर चले गये।
बुआजी ने माला हाथ में ली, उसे उलट-पलटकर देखा और बोलीं, ''एक ऊ आये रहे जूताखोर! एक ठो कागज थमाय के चले गये!'' और एक गहरी साँस लेके चली गयीं।
डॉ. साहब ने सुधा को बुलाया। उसके हाथ में वह माला रखकर उसे चिपटा लिया। सुधा पापा की गोद में मुँह छिपाकर रो पड़ी।
उसके बाद सुधा चली गयी और चन्दर, डॉक्टर साहब और बुआजी बैठे शादी के इन्तजाम की बातें करते रहे। यह तय हुआ कि अभी तो इन्हीं की इच्छानुसार विवाह कर दिया जाए फिर यूनिवर्सिटी खुलने पर सभी को बुलाकर अच्छी दावत वगैरह दे दी जाए। यह भी तय हुआ कि बुआजी गाँव जाकर अनाज, घी, बडिय़ाँ और नौकर वगैरह का इन्तजाम कर लाएँ और पन्द्रह दिन के अन्दर लौट आएँ। अगवानी ठीक छह बजे शाम को हो जाए और सुबह के नाश्ते में क्या दिया जाए, यह सभी डॉक्टर साहब ने तय कर डाला। लेकिन निश्चय यह किया गया कि चूँकि आदमी बहुत कम आ रहे हैं, अत: सुबह-शाम के नाश्ते का काम यूनिवर्सिटी के किसी रेस्तराँ को दे दिया जाए।
इसी बीच में बिनती खरबूजा और शरबत लाकर रख गयी और चन्दर ने बहुत आराम से शरबत पीते हुए पूछा, ''किसने बनाया है?''
''सुधा दीदी ने।''
''आज बड़ी खुश मालूम पड़ती है, चीनी बहुत कम छोड़ी है!'' चन्दर बोला। बुआ और बिनती दोनों हँस पड़ीं।
थोड़ी देर बाद चन्दर उठकर भीतर गया तो देखा कि सुधा अपने पलँग पर बैठी सामने एक किताब रखे जाने क्या देख रही है और सामने वह माला पड़ी है। चन्दर गया और बोला, ''सुधा! आज मैं बहुत खुश हूँ।''
सुधा ने आँखें उठायीं और चन्दर की ओर देखकर मुसकराने की कोशिश की और बोली, ''मैं भी बहुत खुश हूँ।''
''क्यों, तय हो गया इसलिए?'' बिनती ने पूछा।
''नहीं, चन्दर बहुत खुश हैं इसलिए!'' और एक गहरी साँस लेकर किताब बन्द कर दी।
''कौन-सी किताब है, सुधा?'' चन्दर ने पूछा।
''कुछ नहीं, इस पर उर्दू के कुछ अशआर लिखे हैं जो गेसू ने सुनाये थे।'' सुधा बोली।
चन्दर ने बिनती की ओर देखा और कहा, ''बिनती, कैलाश तो जैसा है वैसा ही है, लेकिन शंकरबाबू की तारीफ मैं कर नहीं सकता। क्या राय है तुम्हारी?''
''हाँ, है तो सही; दीदी इतनी सुखी रहेंगी कि बस! दीदी, हमें भूल मत जाना, समझीं!'' बिनती बोली।
''और हमें भी मत भूलना सुधा!'' चन्दर ने सुधा की उदासी दूर करने के लिए छेड़ते हुए कहा।
''हाँ, तुम्हें भूले बिना कैसे काम चलेगा।'' सुधा ने और भी गहरी साँस लेते हुए कहा और एक आँसू गालों पर फिसल ही आया।
''अरे पगली, तुम सब कुछ अपने चन्दर के लिए कर रही हो, उसकी आज्ञा मानकर कर रही हो। फिर यह आँसू कैसे? छिह! और यह माला सामने रखे क्या कर रही हो?'' चन्दर ने बहलाया।
''माला तो दीदी इसलिए सामने रखे थीं कि बतलाऊँ...बतलाऊँ!'' बिनती बोली, ''असल में रामायण की कहानी तो सुनी है चन्दर, तुमने? रामचन्द्र ने अपने एक भक्त को मोती की माला दी तो वह उसे दाँत से तोडक़र देख रहा था कि उसके अन्दर रामनाम है या नहीं। सो यह माला सामने रखकर देख रही थीं, इसमें कहीं चन्दर की झलक है या नहीं?''
''चुप गिलहरी कहीं की?'' सुधा हँस पड़ी, ''बहुत बोलना आ गया है!'' सुधा ने हँसते हुए बनावटी गुस्से से कहा। फिर सुधा तकिये से टिककर बैठ गयी-''आज गेसू नहीं है। मुझे गेसू की बहुत याद आ रही है।''
''क्यों?''
''इसलिए कि आज उसके कई शेर याद आ रहे हैं। एक दफे उसने सुनाया था-
ये आज फिजा खामोश है क्यों, हर जर्रे को आखिर होश है क्यों?
या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका।'
इसी की अन्तिम पंक्ति है-
मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफाँ भी हमारा हो न सका'!''
''वाह! यह पंक्ति बहुत अच्छी है,'' चन्दर ने कहा।
''आज गेसू होती तो बहुत-सी बातें करते!'' सुधा बोली, ''देखो चन्दर, जिंदगी भी क्या होती है! आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। आज से तीन-चार महीने पहले मैंने क्या सोचा था! क्लास-रूम से भागकर हम लोग पेड़ के नीचे लेटकर बातें करते थे, तो मैं हमेशा कहती थी-मैं शादी नहीं करूँगी। पापा को समझा लूँगी। उस दिन क्या मालूम था कि इतनी जल्दी जुए के नीचे गरदन डाल देनी होगी और पापा को भी जीतकर किसी दूसरे से हार जाना होगा। अभी उसकी तय भी नहीं हुई और महीने-भर बाद मेरी...'' सुधा थोड़ी देर चुप रही और फिर-''और दूसरी बात उसकी, जो मैंने तुम्हें बतायी थी। उसने कहा था जब किसी के कदम हट जाते हैं सिर के नीचे से, तब मालूम होता है कि हम किसका सपना देख रहे थे। पहले हमें भी नहीं मालूम होता था कि हमारे सिर किसके कदमों पर झुक चुके हैं। याद है? मैंने तुम्हें बताया था, तुमने पूछा था!''
''याद है।'' चन्दर ने कहा। बिनती उठकर चली गयी लेकिन सुधा या चन्दर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया। चन्दर बोला, ''लेकिन सुधा, इन सब बातों को सोचने से क्या फायदा, आगे का रास्ता सामने है, बढ़ो।''
''हाँ, सो तो है ही देवता मेरे! कभी-कभी जाने कितनी पुरानी बातें मन में आ ही जाती हैं और मन करता है कि मैं सोचती ही जाऊँ। जाने क्यों मन को बड़ा सन्तोष मिलता है। और चन्दर, जब मैं वहाँ रहूँगी, तुमसे दूर, तो इन्हीं स्मृतियों के अलावा और क्या शेष रहेगा...तुम्हें वह दिन याद है जब मैं गेसू के यहाँ नहीं जा पायी थी और उस स्थान पर हम लोगों में झगड़ा हो गया था...चन्दर, वहाँ सब कुछ है लेकिन मैं लड़ूँगी-झगड़ूँगी किससे वहाँ?''
चन्दर एक फीकी-सी हँसी हँसकर बोला, ''अब क्या जन्म-भर बच्ची ही बनी रहोगी!''
''हाँ चन्दर, चाहती तो यही थी लेकिन जिंदगी तो जबरदस्ती सब सुख छीन लेती है और बदले में कुछ भी नहीं देती। आओ, चलो लॉन पर चलें। शाम को तुमसे बातें ही करेंगे!''
उसके बाद सुधा रात को आठ बजे उठी, जब बुआ तैयार होकर स्टेशन जा रही थीं और ड्राइवर मोटर निकाल रहा था। और उदास टिमटिमाते हुए सितारों ने देखा कि चन्दर और सुधा दोनों की आँखों में आँसुओं की अवशेष नमी झिलमिला रही थी। उठते हुए सुधा ने क्षण-भर चन्दर की ओर देखा, चन्दर ने सिर झुका लिया और बहुत उदास आवाज में कहा, ''चलो सुधा, बहुत देर कर दी हम लोगों ने।''
पन्द्रह दिन बाद बुआ आयीं तो उन्होंने घर की शक्ल ही बदल दी। दरवाजे पर और बरसाती में हल्दी के हाथों की छाप लग गयी, कमरों का सभी सामान हटाकर दरियाँ बिछा दी गयीं और सबसे अन्दर वाले कमरे में सुधा का सब सामान रख दिया गया। स्टडी-रूम की सभी किताबें समेट दी गयीं और वहाँ एक बड़ी-सी मशीन लाकर रख दी गयी जिस पर बैठकर बिनती सिलाई करती थी। उसी को कपड़े और गहनों का भंडार-घर बनाया गया और उसकी चाबी बिनती या बुआ के पास रहती थी। गाँव से एक महराजिन, एक कहारिन और दो मजदूर आये थे, वे सभी गैरेज में सोते थे और दिन-भर काम करते थे और 'पानी पीने' को माँगते रहते थे। सभी कुर्सियाँ और सोफासेट निकलवाकर सायबान में लगवा दिये गये थे। रसोई के पार वाली कोठरी में कुल्हड़, पत्तलें, प्याले वगैरह रखे थे और पूजा वाले कमरे में शक्कर, घी, तरकारी और अनाज था। मिठाई कहाँ रखी जाएगी, इस पर बुआजी, महराजिन और बिनती में घंटे-भर तक बहस हुई लेकिन जब बुआजी ने बिनती से कहा, ''आपन लड़के-बच्चे का बियाह कियो तो कतरनी अस जबान चलाय लिह्यो, अबहिन हर काम में काहे टाँग अड़ावा करत हौ!'' तो बिनती चुप हो गयी और अन्त में बुआजी की राय सर्वोपरि मानी गयी। बुआजी की जबान जितनी तेज थी, हाथ भी उतने ही तेज। चार बोरा गेहूँ उन्होंने साफ करके कोठरियों में भरवा दिये। कम-से-कम पाँच तरह की दालें लायी थीं। बेसन पिसवाया, दाल दरवायी, पापड़ बनवाये, मैदा छनवाया, सूजी दरवायी, बरी-मुँगौरी डलवायीं, चावल की कचौरियाँ बनवायीं और सबको अलग-अलग गठरी में बाँधकर रख दिया। रात को अकसर बुआजी, महराजिन तथा गाँव की महरिन ढोलक लेकर बैठ जातीं और गीत गातीं। बिनती उनमें भी शामिल रहती।
सच पूछो तो सुधा के ब्याह का जितना उछाह बुआ को नहीं था, उतना बिनती को था। वह सुबह से उठकर झाड़ू लेकर सारा घर बुहार डालती थी, इसके बाद नहाकर तरकारी काटती, उसके बाद फिर चाय चढ़ाती। डॉक्टर साहब, चन्दर, सुधा सभी को चाय देती, बैठकर चन्दर अगर कुछ हिसाब लिखाता तो हिसाब लिखती, फिर अपनी मशीन पर बैठ जाती और बारह-एक बजे तक सिलाई करती रहती, फिर दोपहर को चावल और दाल बीनती, शाम को खरबूजे काटती, शरबत बनाती और रात-भर जाग-जागकर गाती या दीदी को हँसाने की कोशिश करती। एक दिन सुधा ने कहा, ''मेरे ब्याह में तो इतनी खुश है, अपने ब्याह में क्या करेगी?'' तो बिनती ने जवाब दिया, ''अपने ब्याह में तो मैं खुद बैंड बजाऊँगी, वर्दी पहनकर!''
घर चमक उठा था जैसे रेशम! लेकिन रेशम के चमकदार, रंगीन उल्लास भरे गोले के अन्दर भी एक प्राणी होता है, उदास स्तब्ध अपनी साँस रोककर अपनी मौत की क्षण-क्षण प्रतीक्षा करने वाला रेशम का कीड़ा। घर के इस सारे उल्लास और चहल-पहल से घिरा हुआ सिर्फ एक प्राणी था जिसकी साँस धीरे-धीरे डूब रही थी, जिसकी आँखों की चमक धीरे-धीरे कुम्हला रही थी, जिसकी चंचलता ने उसकी नजरों से विदा माँग ली थी, वह थी-सुधा। सुधा बदल गयी थी। गोरा चम्पई चेहरा पीला पड़ गया था, और लगता था जैसे वह बीमार हो। खाना उसे जहर लगने लगा था, अपने कमरे को छोड़कर कहीं जाती न थी। एक शीतलपाटी बिछाये उसी पर दिन-रात पड़ी रहती थी। बिनती जब हँसती हुई खाना लाती और सुधा के इनकार पर बिनती के आँसू छलछला आते तब सुधा पानी के घूँट के सहारे कुछ खा लेती और उदास, फिर अपनी शीतलपाटी पर लेट जाती। स्वर्ग को कोई इन्द्रधनुषों से भर दे और शची को जहर पिला दे, कुछ ऐसा ही लग रहा था वह घर।
डॉक्टर शुक्ला का साहस न होता था सुधा से बोलने का। वह रोज बिनती से पूछ लेते-''सुधा खाना खाती है या नहीं?'' बिनती कहती, ''हाँ।'' तो एक गहरी साँस लेकर अपने कमरे में चले जाते।
चन्दर परेशान था। उसने इतना काम शायद कभी भी न किया हो अपनी जिंदगी में। सुनार के यहाँ, कपड़े वाले के यहाँ, फिर राशनिंग अफसर के यहाँ, पुलिस बैंड ठीक कराने पुलिस लाइंस, अर्जी देने मैजिस्ट्रेट के यहाँ, रुपया निकालने बैंक, शामियाने का इन्तजाम, पलँग, कुर्सी वगैरह का इन्तजाम, खाने-परोसने के बरतनों के इन्तजाम और जाने क्या-क्या...और जब बुरी तरह थककर आता, जेठ की तपती हुई दोपहरी में, तब बिनती आकर बताती-सुधा ने आज फिर कुछ नहीं खाया तो उसका मन होता था वह सिर पटक-पटक दे। वह सुधा के पास जाता, सुधा आँसू पोंछकर बैठती, एक टूटी-फूटी मुसकान से चन्दर का स्वागत करती। चन्दर उससे पूछता, ''खाती क्यों नहीं?''
''खाती तो हूँ चन्दर, इससे ज्यादा गरमियों में मैं कभी नहीं खाती थी।'' सुधा कहती और इतने दृढ़ स्वर से कि चन्दर से कुछ प्रतिवाद नहीं करते बनता।
अब बाहरी काम लगभग समाप्त हो गये थे। वैसे तो सभी जगह हल्दी छिडक़कर पत्र रवाना किये जा चुके थे लेकिन निमंत्रण-पत्र भी बहुत सुन्दर छपकर आये थे, हालाँकि कुछ देर हो गयी थी। ब्याह को अब कुल सात दिन बचे थे। चन्दर सुबह दस बजे एक डिब्बे में निमंत्रण-पत्र और लिफाफा-भरे हुए आया और स्टडी-रूम में बैठ गया। बिनती बैठी हुई कुछ सिल रही थी।
''सुधा कहाँ है? उसे बुला लाओ।''
सुधा आयी, सूजी आँखें, सूखे होठ, रूखे बाल, मैली धोती, निष्प्राण चेहरा और बीमार चाल। हाथ में पंखा लिये थी। आयी और चन्दर के पास बैठ गयी-''कहो, क्या कर आये, चन्दर! अब कितना इन्तजाम बाकी है?''
''अब सब हो गया, सुधा रानी! आज तो पैर जवाब दे रहे हैं। साइकिल चलाते-चलाते पैर में जैसे गाँठें पड़ गयी हों।'' चन्दर ने कार्ड फैलाते हुए कहा, ''शादी तुम्हारी होगी और जान मेरी निकली जा रही है मेहनत से।''
''हाँ चन्दर, इतना उत्साह तो और किसी को नहीं है मेरी शादी का!'' सुधा ने कहा और बहुत दुलार से बोली, ''लाओ, पैर दबा दूँ तुम्हारे?''
''अरे पागल हो गयी?'' चन्दर ने अपने पैर उठाकर ऊपर रख लिये।
''हाँ, चन्दर!'' गहरी साँस लेते हुए सुधा बोली, ''अब मेरा अधिकार भी क्या है तुम्हारे पैर छूने का। क्षमा करना, मैं भूल गयी थी कि मैं पुरानी सुधा नहीं हूँ।'' और टप से दो आँसू गिर पड़े। सुधा ने पंखे की ओट कर आँखें पोंछ लीं।
''तुम तो बुरा मान गयीं, सुधा!'' चन्दर ने पैर नीचे रखते हुए कहा।
''नहीं चन्दर, अब बुरा-भला मानने के दिन बीत गये। अब गैरों की बात का भी बुरा-भला नहीं मान पाऊँगी, फिर घर के लोगों की बातों का बुरा-भला क्या...छोड़ो ये सब बातें। ये क्या निमंत्रण-पत्र छपा है, देखें!''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

चन्दर ने एक निमंत्रण-पत्र उठाया, उसे लिफाफे में भरकर उस पर सुधा का नाम लिखकर कहा, ''लो, हमारी सुधा का ब्याह है, आइएगा जरूर!''
सुधा ने निमंत्रण पत्र ले लिया-''अच्छा!'' एक फीकी हँसी हँसकर बोली, ''अच्छा, अगर हमारे पतिदेव ने आज्ञा दे दी तो आऊँगी आपके यहाँ। उनका भी नाम लिख दीजिए वरना बुरा न मान जाएँ।'' और सुधा उठ खड़ी हुई।
''कहाँ चली?'' चन्दर ने पूछा।
''यहाँ बहुत रोशनी है! मुझे अपना अँधेरा कमरा ही अच्छा लगता है।'' सुधा बोली।
''चलो बिनती, वहीं कार्ड ले चलो!'' चन्दर ने कहा, ''आओ सुधा, आज कार्ड लिखते जाएँगे, तुमसे बात करते जाएँगे। जिंदगी देखो, सुधी! आज पन्द्रह दिन से तुमसे दो मिनट बैठकर बात भी न कर सके।''
''अब क्या करना है, चन्दर! जैसा कह रहे हो वैसा कर तो रही हूँ। अभी कुछ और बाकी है क्या? बता दो वह भी कर डालूँ। अब तो रो-पीटकर ऊँचा बनना ही है।''
बिनती ने कार्ड समेटे तो सुधा डाँटकर बोली-''रख इसे यहीं; चली उठा के! बड़ी चन्दर की आज्ञाकारी बनी है। ये भी हमारी जान की गाहक हो गयी अब! हमारे कमरे में लायी ये सब, तो टाँग तोड़ दूँगी! पाजी कहीं की!''
बिनती ने कार्ड धर दिये। नौकर ने आकर कहा, ''बाबूजी, कुम्हार अपना हिसाब माँगता है!''
''अच्छा, अभी आया, सुधा!'' और चन्दर चला गया।
और इस तरह दिन बीत रहे थे। शादी नजदीक आती जा रही थी और सभी का सहारा एक-दूसरे से छूटता जा रहा था। सुधा के मन पर जो कुछ भी धीरे-धीरे मरघट की उदासी की तरह बैठता जा रहा था और चन्दर अपने प्यार से, अपनी मुसकानों से, अपने आँसुओं से धो देने के लिए व्याकुल हो उठा था, लेकिन यह जिंदगी थी जहाँ प्यार हार जाता है, मुसकानें हार जाती हैं, आँसू हार जाते हैं-तश्तरी, प्याले, कुल्हड़, पत्तलें, कालीनें, दरियाँ और बाजे जीत जाते हैं। जहाँ अपनी जिंदगी की प्रेरणा-मूर्ति के आँसू गिनने के बजाय कुल्हड़ और प्याले गिनवाकर रखने पड़ते हैं और जहाँ किसी आत्मा की उदासी को अपने आँसुओं से धोने के बजाय पत्तलें धुलवाना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, जहाँ भावना और अन्तर्द्वंद्व के सारे तूफान सुनार और बिजलीवालों की बातें में डूब जाते हैं, और जहाँ दो आँसुओं में डूबते हुए व्यक्तियों की पुकार शहनाइयों की आवाज में डूब जाती है और जिस वक्त कि आदमी के हृदय का कण-कण क्षतविक्षत हो जाता है, जिस वक्त उसकी नसों में सितारे टूटते हैं, जिस वक्त उसके माथे पर आग धधकती है, जिस वक्त उसके सिर पर से आसमान और पाँव तले से धरती हट जाती है, उस समय उसे शादी की साड़ियों का मोल-तोल करना पड़ता है और बाजे वाले को एडवान्स रुपया देना पड़ता है।
ऐसी थी उस वक्त चन्दर की जिंदगी और उस जिंदगी ने अपना चक्र पूरी तरह चला दिया था। करोड़ों तूफान घुमड़ाते हुए उसे नचा रहे थे। वह एक क्षण भी कहीं नहीं टिक पाता था। एक पल भी उसे चैन नहीं था, एक पल भी वह यह नहीं सोच पाता था कि उसके चारों ओर क्या हो रहा है? वह बेहोशी में, मूर्छा में मशीन की तरह काम कर रहा था। आवाजें थीं कि उसके कानों से टकराकर चली जाती थीं, आँसू थे कि हृदय को छू नहीं पाते थे, चक्र उसे फँसाकर खींचे लिये जा रहा था। बिजली से भी ज्यादा तेज, प्रलय से भी ज्यादा सशक्त वह खिंचा जा रहा था। सिर्फ एक ओर। शादी का दिन। सुधा ने नथुनी पहनी, उसे नहीं मालूम। सुधा ने कोरे कपड़े पहने, उसे नहीं मालूम। सुधा ने चूड़े पहने, उसे नहीं मालूम। घर में गीत हुए, उसे नहीं मालूम। सुधा ने चूल्हा पूजते वक्त अपना सिर पटक दिया, उसे नहीं मालूम...वह व्यक्ति नहीं था, तूफान में उड़ता हुआ एक पीला पत्ता था जो वात्याचक्र में उलझ गया था और झोंके उसे नचाये जा रहे थे...
और उसे होश आया तब, जब बिनती जबरदस्ती उसका हाथ पकडक़र खींच ले गयी बारात आने के एक दिन पहले। उस छत पर, जहाँ सुधा पड़ी रो रही थी, चन्दर को ढकेलकर चली आयी।
चन्दर के सामने सुधा थी। सुधा, जिससे वह पता नहीं क्यों बचना चाहता था। अपनी आत्मा के संघर्षों से, अपने अन्त:करण के घावों की कसक से घबराकर जैसे कोई आदमी एकान्त कमरे से भागकर भीड़ में मिल जाता है, भीड़ के निरर्थक शोर में अपने को खो देना चाहता है, बाहर के शोर में अन्दर का तूफान भुला देना चाहता है; उसी तरह चन्दर पिछले हफ्ते से सब कुछ भूल गया; उसे सिर्फ एक चीज याद रहती थी-शादी का प्रबन्ध। सुबह से लेकर सोने के वक्त तक वह इतना काम कर डालना चाहता था कि उसे एक क्षण भी बैठने का मौका न मिले, और सोने से पहले वह इतना थक जाये, इतना चूर-चूर हो जाये कि लेटते ही नींद उसे जकड़ ले और उसे बेहोश कर दे। लेकिन उस वक्त बिनती उसे उसके विस्मरण-स्थल से खींचकर एकान्त में ले आयी है जहाँ उसकी ताकत और उसकी कमजोरी, उसकी पवित्रता और उसका पाप, उसकी मुसकान और उसके आँसू, उसकी प्रतिभा और उसकी विस्मृति; उसकी सुधा अपनी जिंदगी के चिरन्तन मोड़ पर खड़ी अपना सब कुछ लुटा रही थी। चन्दर को लगा जैसे उसको अभी चक्कर आ जाएगा। वह अकुलाकर खाट पर बैठ गया।
शाम थी, सूरज डूब रहा था और दिन-भर की तपी हुई छत पर जलती हुई बरसाती के नीचे एक खरहरी खाट पर सुधा लेटी थी। एक महीन पीली धोती पहने, कोरी मारकीन की कुर्ती, पहने, रूखे चिकटे हुए बाल और नाक में बहुत बड़ी-सी नथ। पन्द्रह दिन के आँसुओं ने चेहरे को जाने कैसा बना दिया। न चेहरे पर सुकुमारता थी, न कठोरता। न रूप था, न ताजगी। सिर्फ ऐसा लगता था कि जैसा सुधा का सब कुछ लुट चुका है। न केवल प्यार और जिंदगी लुटी है, वरन आवाज भी लुट गयी है और नीरवता भी। वैभव भी लुट गया और याचना भी।
सुधा ने अपने पीले पल्ले से आँसू पोंछे और उठकर बैठ गयी। दोनों चुप। पहले कौन बोले! बिनती आयी, चन्दर और सुधा का खाना रखकर चली गयी। ''खाना खाओगी, सुधा?'' चन्दर ने पूछा। सुधा कुछ बोली नहीं सिर्फ सिर हिला दिया। और डूबते हुए सूरज और उड़ते हुए बादलों की ओर देखकर जाने क्या सोचने लगी। चन्दर ने थाली खिसका दी और सुधा को अपनी ओर खींचकर बोला, ''सुधा, इस तरह कैसे काम चलेगा। तुम्हीं को देखकर तो मैं अपना धीरज सँभालूँगा, बताओ और तुम्हीं यह कर रही हो!'' सुधा चन्दर के पास खिसक आयी और दो मिनट तक चुपचाप चन्दर की ओर फटी हुई पथरायी आँखों से देखती रही और एकदम हृदय को फाड़ देने वाली आवाज में चीखकर रो उठी-''चन्दर, अब क्या होगा!''
चन्दर की समझ में नहीं आया, वह क्या करे! आँसू उसके सूख चुके थे। वह रो नहीं सकता था। उसके मन पर कहीं कोई पत्थर रखा था जो आँसुओं की बूँदों को बनने के साथ ही सोख लेता था लेकिन वह तड़प उठा, ''सुधा!'' वह घबराकर बोला, ''सुधा, तुम्हें हमारी कसम है-चुप हो जाओ! चुप...बिल्कुल चुप...हाँ...ऐसे ही!'' सुधा चन्दर के पाँवों में मुँह छिपाये थी-''उठकर बैठो ठीक से सुधा...इतना समझ-बूझकर यह सब करती हो, छिह! तुम्हें अपना दिल मजबूत करना चाहिए वरना पापा को कितना दुख होगा।''
''पापा ने तो मुझसे बोलना भी छोड़ दिया है, चन्दर! पापा से कह दो आज तो बोल लें, कल से हम उन्हें परेशान करने नहीं आएँगे, कभी नहीं आएँगे। अब उनकी सुधा को सब ले जा रहे हैं, जाने कहाँ ले जा रहे हैं!'' और फिर वह फफक-फफककर रो पड़ी।
चन्दर ने बिनती से पापा को बुलवाया। सुधा को रोते हुए देखकर बिनती खड़ी हो गयी, ''दीदी, रोओ मत दीदी, फिर हम किसके भरोसे रहेंगे यहाँ?'' और सुधा को चुप कराते-कराते बिनती भी रोने लगी। और आँसू पोंछते हुए चली गयी।
पापा आये। सुधा चुप हो गयी और कुछ कहा नहीं, फिर रोने लगी। डॉक्टर शुक्ला भर्राये गले से बोले, ''मुझे यह रोआई अच्छी नहीं लगती। यह भावुकता क्यों? तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो। इसी दिन के लिए तुम्हें पढ़ाया-लिखाया गया था! भावुकता से क्या फायदा?'' कहते-कहते डॉक्टर शुक्ला खुद रोने लगे। ''चलो चन्दर यहाँ से! अभी जनवासा ठीक करवाना है।'' चन्दर और डॉक्टर शुक्ला दोनों उठकर चले गये।
अपनी शादी के पहले, हमेशा के लिए अलग होने से पहले सुधा को इतना ही मौका मिला...उसके बाद...
सुबह छह बजे गाड़ी आती थी, लेकिन खुशकिस्मती से गाड़ी लेट थी; डॉक्टर शुक्ला तथा अन्य लोग बारात का स्वागत करने स्टेशन पर जा रहे थे और चन्दर घर पर ही रह गया था जनवासे का इन्तजाम करने। जनवासा बगल में था। माथुर साहब के बँगले के दोनों हॉल और कमरा खाली करवा लिये गये थे। चन्दर सुबह छह ही बजे आ गया था और जनवासे में सब सामान लगवा दिया था। नहाने का पानी और बाकी इन्तजाम कर वह घर आया। जलपान का इन्तजाम तो केदार के हाथ में था लेकिन कुछ तौलिये भिजवाने थे।
''बिनती, कुछ तौलिये निकाल दो।'' चन्दर ने बिनती से कहा।
बिनती उर्द की दाल धो रही थी। उसने फौरन उठकर हाथ धोये और कमरे की ओर चली गयी।
''ऐ बिनती...'' बुआजी ने भंडारे के अन्दर से आवाज लगायी-''जाने कहाँ मर गयी मुँहझौंसी! अरे सिंगार-पटार बाद में कर लियो, काम में तनिक दीदा नै लगते। बेसन का कनस्टर कहाँ रखा है?''
''अभी आये!'' बिनती ने चन्दर से कहा और अपनी माँ के पास दौड़ी, पन्द्रह मिनट हो गये लेकिन बिनती लौटी ही नहीं। ब्याह का घर! हर तरफ से बिनती की पुकार मचती और बिनती पंख लगाये उड़ रही थी। जब बिनती नहीं लौटी तो चन्दर ने सुधा को ढुँढक़र कहा, ''सुधी, एक बहुत बड़ा-सा तौलिया निकाल दो।''
सुधा चुपचाप उठी और स्टडी-रूम में चली गयी। चन्दर भी पीछे-पीछे गया।
''बैठो, अभी निकालकर लाते हैं!'' सुधा ने भरी हुई आवाज में कहा और बगल के कमरे में चली गयी। वहाँ से लौटी तो उसके हाथ में मीठे की तश्तरी थी।
''अरे खाने का वक्त नहीं है, सुधा! आठ बजे लोग आ जाएँगे।''
''अभी दो घंटे हैं, खा लो चन्दर! अब कभी तुम्हारे काम में हरजा करके खाने को नहीं कहूँगी!'' सुधा बोली। चन्दर चुप।
''याद है, चन्दर! इसी जगह आँचल में छिपाकर नानखटाई लायी थी। आओ, आज अपने हाथ से खिला दूँ। कल ये हाथ पराये हो जाएँगे। और सुधा ने एक इमरती तोडक़र चन्दर के मुँह में दे दी। चन्दर की आँखों में दो आँसू छलक आये-सुधा ने अपने हाथ से आँसू पोंछ दिये और बोली, ''चन्दर, घर में कोई खाने का खयाल करने वाला नहीं है। खाते-पीते जाना, तुम्हें हमारी कसम है। मैं शाहजहाँपुर से लौटकर आऊँगी तो दुबले मत मिलना।'' चन्दर कुछ बोला नहीं। आँसू बहते गये, सुधा खिलाती गयी, वह खाता गया। सुधा ने गिलास में पानी दिया, उसने हाथ धोया और जेब से रूमाल निकाला।
''क्यों, आज आँचल में हाथ नहीं पोंछोगे?'' सुधा बोली। चन्दर ने आँचल हाथ में ले लिया और पलकों पर आँचल दबाकर फूट-फूटकर रो पड़ा।
''छिह, चन्दर! आज तो हम सँभल गये हैं, हमने सब स्वीकार कर लिया चुपचाप। अब तुम कमजोर मत बनो, तुमने कहा था, मैं शान्त रहूँ तो शान्त हो गयी। अब क्यों मुझे भी रुलाओगे! उठो।'' चन्दर उठ खड़ा हुआ।
सुधा ने एक पान चन्दर के मुँह में देकर कत्था उसकी कमीज से लगा दिया। चन्दर कुछ नहीं बोला।
''अरे, आज तो लड़ लो, चन्दर! आज से खत्म कर देना।''
इतने में बिनती तौलिया ले आयी। ''दीदी, इन्हें कुछ खिला दो। ये खा नहीं रहे हैं।'' बिनती ने कहा।
''खिला दिया।'' सुधा बोली, ''देखो चन्दर, आज मैं नहीं रोऊँगी लेकिन एक शर्त पर। तुम बराबर मेरे सामने रहना। मंडप में रहोगे न?''
''हाँ, रहूँगा।'' चन्दर ने आँसू पीते हुए कहा।
''कहीं चले मत जाना! मेरी आखिरी बिनती है।'' सुधा बोली। चन्दर तौलिया लेकर चला आया।
चूँकि बारात में कुल आठ ही लोग थे अत: घर की और माथुर साहब की दो ही कारों से काम चल गया। जब ये लोग आये तो नाश्ते का सामान तैयार था और चन्दर चुपचाप बैठा था। उसने फौरन सबका सामान लगवाया और सामान रखवाकर वह जा ही रहा था कि कैलाश ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर उसे पीछे घुमा लिया और गले से लगकर बोला, ''कहाँ चले कपूर साहब, नमस्ते! चलो, पहले नाश्ता करो।'' और खींचकर वह चन्दर को ले गया। अपने बगल की मेज पर बिठाकर, उसकी चाय अपने हाथ से बनायी और बोला, ''कुछ नाराज थे क्या, कपूर? खत का जवाब क्यों नहीं देते थे?''
''हम तो बराबर खत का जवाब देते रहे, यार!'' कपूर चाय पीते हुए बोला।
''अच्छा तो हम घूमते रहे इधर-उधर, खत गड़बड़ हो गये होंगे।...लो, समोसा खाओ!'' कैलाश ने कहा। चन्दर ने सिर हिलाया तो बोला, 'अरे, वाह म्याँ? शादी तुम्हारी नहीं हो रही है, हमारी हो रही है, समझे? तुम क्यों तकल्लुफ कर रहे हो। अच्छा कपूर...काम तो तुम्हीं पर होगा सब!''
''हाँ!'' कपूर बोला।
''बड़ा अफसोस है, यार!'' जब हम लोग पहली दफा मिले थे तो यह नहीं मालूम था कि तुम और डॉक्टर साहब इतना अच्छा इनाम दोगे, अपने को बचाने का। हमारे लायक कोई काम हो तो बताओ!''
''आपकी दुआ है!'' चन्दर ने सिर झुकाकर कहा, और सभी हँस पड़े। इतने में शंकर बाबू डॉक्टर साहब के साथ आये और सब लोग चुप हो गये।
दिन भर के व्यवहार से चन्दर ने देखा कि कैलाश भी उतना ही अच्छा हँसमुख और शालीन है जितने शंकर बाबू थे। वह उसे राजनीतिक क्षेत्र में जितना फौलादी लगा था, घरेलू जिंदगी में उतना ही अच्छा लगा। चन्दर का मन खुशी से नाच उठा। सुधा की ओर से वह थोड़ा निश्चिन्त हो गया। अब सुधा निभा ले जाएगी। वह मौका निकालकर घर में गया। देखा, सुधा को औरतें घेरे हुए बैठी हैं और महावर लगा रही हैं। बिनती कनस्तर में से घी निकाल रही थी। चन्दर गया और बिनती की चोटी घसीटकर बोला, ''ओ गिलहरी, घी पी रही है क्या?''
बिनती ने दंग होकर चन्दर की ओर देखा। आज तक कभी अच्छे-भले में तो चन्दर ने उसे नहीं चिढ़ाया था। आज क्या हो गया? आज जबकि पिछले पन्द्रह रोज से चन्दर के होठ मुसकराना भूल गये हैं।
''आँख फाड़कर क्या देख रही है? कैलाश बहुत अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा। अब सुधा बहुत सुखी रहेगी। कितना अच्छा होगा, बिनती! हँसती क्यों नहीं गिलहरी!'' और चन्दर ने बिनती की बाँह में चुटकी काट ली।
''अच्छा! हमें दीदी समझा है क्या? अभी बताती हूँ।'' और घी भरे हाथ से चन्दर की बाँह पकड़कर बिनती ने जोर से घुमा दी। चन्दर ने अपने को छुड़ाया और बिनती को चपत मारकर गुनगुनाता हुआ चला गया।
बिनती ने कनस्तर के मुँह पर लगा घी पोंछा और मन में बोली, 'देवता और किसे कहते हैं?'
शाम को बारात चढ़ी। सादी-सी बारात। सिर्फ एक बैंड था। कैलाश ने शेरवानी और पायजामा पहना था, और टोपी। सिर्फ एक माला गले में पड़ी थी और हाथ में कंगन बँधा था। मौर पीछे किसी आदमी के हाथ में था। जयमाला की रस्म होने वाली थी। लेकिन बुआजी ने स्पष्ट कर दिया कि हमारी लड़की कोई ऐसी-वैसी नहीं कि ब्याह के पहले भरी बारात में मुँह खोलकर माला पहनाये। लेकिन घूँघट के मामले पर सुधा ने दृढ़ता से मना किया था, वह घूँघट बिल्कुल नहीं करेगी।
अन्त में पापा उसे लेकर मंडप में आये। घर का काम-काज निबट गया था। सभी लोग आँगन में बैठे थे। कामिनी, प्रभा, लीला सभी थीं, एक ओर बाराती बैठे थे। सुधा शान्त थी लेकिन उसका मुँह ग्रहण के चन्द्रमा की तरह निस्तेज था। मंडप का एक बल्ब खराब हो गया था और चन्दर सामने खड़ा उसे बदल रहा था। सुधा ने जाते-जाते चन्दर को देखा और आँसू पोंछकर मुसकराने लगी और मुसकराकर फिर आँसू पोंछने लगीं। कामिनी, प्रभा, लीला तमाम लड़कियाँ कैलाश पर फब्तियाँ कस रही थीं। सुधा सिर झुकाये बैठी थी। पापा से उसने कहा, ''बिनती को हमारे पास भेज दो।'' बिनती आकर सुधा के पीछे बैठ गयी। कैलाश ने आँख के इशारे से चन्दर को बुलाया। चन्दर जाकर पीछे बैठा तो कैलाश ने कहा, ''यार, यहाँ जो लोग खड़े हैं इनका परिचय तो बता दो चुपके से!'' चन्दर ने सभी का परिचय बताया। कामिनी, प्रभा, लीला सभी के बारे में जब चन्दर बता रहा था तो बिनती बोली, ''बड़े लालची मालूम देते हैं आप? एक से सन्तोष नहीं है क्या? वाह रे जीजाजी!'' कैलाश ने मुसकराकर चन्दर से पूछा, ''इसका ब्याह तय हुआ कि नहीं?''
''हो गया।'' चन्दर ने कहा।
''तभी बोलने का अभ्यास कर रही हैं; मंडप में भी इसीलिए बैठी हैं क्या?'' कैलाश ने कहा। बिनती झेंप गयी और उठकर चली गयी।
संस्कार शुरू हुआ। कैलाश के हाथ में नारियल और उसकी मुठ्ठी पर सुधा के दोनों हाथ। सुधा अब चुप थी। इतनी चुप...इतनी चुप कि लगता था उसके होठों ने कभी बोलना जाना ही नहीं। संस्कार के दौरान ही पारस्परिक वचन का समय आया। कैलाश ने सभी प्रतिज्ञाएँ स्वयं कहीं। शंकरबाबू ने कहा, लड़की भी शिक्षित है और उसे भी स्वयं वचन करने होंगे। सुधा ने सिर हिला दिया। एक असन्तोष की लहर-सी बारातियों में फैल गयी। चन्दर ने बिनती को बुलाया। उसके कान में कहा, ''जाकर सुधा से कह दो कि पागलपन नहीं करते। इससे क्या फायदा?'' बिनती ने जाकर बहुत धीरे से सुधा के कान में कहा। सुधा ने सिर उठाकर देखा। सामने बरामदे की सीढिय़ों पर चन्दर बैठा हुआ बड़ा चिन्तित-सा कभी शंकरबाबू की ओर देखता और कभी सुधा की ओर। सुधा से उसकी निगाह मिली और वह सिहर-सा उठा, सुधा क्षण-भर उसकी ओर देखती रही। चन्दर ने जाने क्या कहा और सुधा ने आँखों-ही-आँखों में उसे क्या जवाब दे दिया। उसके बाद सुधा नीचे रखे हुए पूजा के नारियल पर लगे हुए सिन्दूर को देखती रही फिर एक बार चन्दर की ओर देखा। विचित्र-सी थी वह निगाह, जिसमें कातरता नहीं थी, करुणा नहीं थी, आँसू नहीं थे, कमजोरी नहीं थी, था एक गम्भीरतम विश्वास, एक उपमाहीन स्नेह, एक सम्पूर्णतम समर्पण। लगा, जैसे वह कह रही हो-सचमुच तुम कह रहे हो, फिर सोच लो चन्दर...इतने दृढ़ हो...इतने कठोर हो...मुझसे मुँह से क्यों कहलवाना चाहते हो...क्या सारा सुख लूटकर थोड़ी-सी आत्मवंचना भी मेरे पास नहीं छोड़ोगे?...अच्छा लो, मेरे देवता! और उसने हारकर सिसकियों से सने स्वरों में अपने को कैलाश को समर्पित कर दिया। प्रतिज्ञाएँ दोहरा दीं और उसके बाद साड़ी का एक छोर खींचकर, नथ की डोरी ठीक करने के बहाने उसने आँसू पोंछ लिये।
चन्दर ने एक गहरी साँस ली और बगल में बैठी हुई बुआजी से कहा, ''बुआजी, अब तो बैठा नहीं जाता। आँखों में जैसे किसी ने मिर्च भर दी हो।''
''जाओ...जाओ, सोय रहो ऊपर, खाट बिछी है। कल सुबह दस बजे विदा करे को है। कुछ खायो पियो नै, तो पड़े रहबो!'' बुआ ने बड़े स्नेह से कहा।
चन्दर ऊपर गया तो देखा एक खाट पर बिनती औंधी पड़ी सिसक रही है। ''बिनती! बिनती!'' उसने बिनती को पकडक़र हिलाया। बिनती फूट-फूटकर रो पड़ी।
''उठ पगली, हमें तो समझाती है, खुद अपने-आप पागलपन कर रही है।'' चन्दर ने रुँधे गले से कहा।
बिनती उठकर एकदम चन्दर की गोद में समा गयी और दर्दनाक स्वर में बोली, ''हाय चन्दर...अब...क्या...होगा?''
चन्दर की आँखों में आँसू आ गये, वह फूट पड़ा और बिनती को एक डूबते हुए सहारे की तरह पकडक़र उसकी माँग पर मुँह रखकर फूट-फूटकर रो पड़ा। लेकिन फिर भी सँभल गया और बिनती का माथा सहलाते हुए और अपनी सिसकियों को रोकते हुए कहा, ''रो मत पगली!''
धीरे-धीरे बिनती चुप हुई। और खाट के पास नीचे छत पर बैठ गयी और चन्दर के घुटनों पर हाथ रखकर बोली, ''चन्दर, तुम आना मत छोड़ना। तुम इसी तरह आते रहना! जब तक दीदी ससुराल से लौट न आएँ।''
''अच्छा!'' चन्दर ने बिनती की पीठ पर हाथ रखकर कहा, ''घबराते नहीं। तुम तो बहादुर लड़की हो न! सब चीज बहादुरी से सहना चाहिए। कैसी दीदी की बहन हो? क्यों?''
बिनती उठकर नीचे चली गयी।
चन्दर लेट रहा। उसकी पोर-पोर में दर्द हो रहा था। नस-नस को जैसे कोई तोड़ रहा हो, खींच रहा हो। हड्डियों के रेशे-रेशे में थकान मिल गयी थी लेकिन उसे नींद नही आयी। आँगन में पुरोहितजी के मंत्र-पाठ का स्वर और बीच-बीच में आने वाले किसी बाराती या औरतों की आवाजें उसके मन को अस्त-व्यस्त कर देती थीं। उसकी थकान और उसकी अशान्ति ही उसको बार-बार झटके से जगा देती थी। वह करवट बदलता, कभी ऊपर देखता, कभी आँखें बन्द कर लेता कि शायद नींद आ जाए लेकिन नींद नहीं ही आयी। धीरे-धीरे नीचे का रव भी शान्त हो गया। संस्कार भी समाप्त हुआ। बाराती उठकर चलने लगे और वह आवाजों से यह पहचानने की कोशिश करने लगा कि अब कौन क्या कर रहा है। धीरे-धीरे सब शोर शान्त हो गया।
चन्दर ने फिर करवट बदली और आँख बन्द कर ली। धीरे-धीरे एक कोहरा उसके मन पर छा गया। वह इतना जागा कि अब अगर वह आँख भी बन्द करता तो जब पलकें पुतलियों से छा जातीं तो एक बहुत कड़ुआ दर्द होने लगा था। जैसे-तैसे उसकी थोड़ी-सी आँख लगी...
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

किसी ने सहसा जगा दिया। पलक बन्द करने में जितना दर्द हुआ था उतना ही पलकें खोलने में। उसने पलकें खोलीं-देखा सामने सुधा खड़ी थी...
माँग और माथे में सिन्दूर, कलाई में कंगन, हाथ में अँगूठियाँ, कड़े, चूड़े, गले में गहने, बड़ी-सी नथुनी डोरे के सहारे कान में बँधी हुई, आँखें-जिनमें भादों की घटाओं की गरज खामोश हो रही बरसात-सी हो गयी थी।
वह क्षण-भर पैताने खड़ी रही। चन्दर उठकर बैठ गया! उसका दिल इस तरह धडक़ रहा था जैसे किसी के सामने भाग्य का रूठा हुआ देवता खड़ा हो। सुधा कुछ बोली नहीं। उसने दोनों हाथ जोड़े और झुककर चन्दर के पैरों पर माथा टेक दिया। चन्दर ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, ''ईश्वर तुम्हारा सुहाग अटल करे! तुम बहुत महान हो। मुझे तुम पर आज से गर्व है। आज तक तुम जो कुछ थी उससे कहीं ज्यादा हो मेरे लिए, सुधा!''
सुधा कुछ बोली नहीं। आँचल से आँसू पोंछती हुई पायताने जमीन पर बैठ गयी। और अपने गले से एक बेले का हार उतारा। उसे तोड़ डाला और चन्दर के पाँव खींचकर खाट के नीचे जमीन पर रख लिये।
''अरे यह क्या कर रही हो, सुधा।'' चन्दर ने कहा।
''जो मेरे मन में आएगा!'' बहुत मुश्किल से रुँधे गले से सुधा बोली, ''मुझे किसी का डर नहीं, तुम जो कुछ दंड दे चुके हो, उससे बड़ा दंड तो अब भगवान भी नहीं दे सकेंगे?'' सुधा ने चन्दर के पाँवों पर फूल रखकर उन्हें चूम लिया और अपनी कलाई में बँधी हुई एक पुड़िया खोलकर उसमें से थोड़ा-सा सिन्दूर उन फूलों पर छिडक़कर, चन्दर के पाँवों पर सिर रखकर चुपचाप रोती रही।
थोड़ी देर बाद उठी और उन फूलों को समेटा। अपने आँचल के छोर में उन्हें बाँध लिया और उठकर चली...धीमे-धीमे नि:शब्द...
''कहाँ चली, सुधा?'' चन्दर ने सुधा का हाथ पकड़ लिया।
''कहीं नहीं!'' अपना हाथ छुड़ाते हुए सुधा ने कहा।
''नहीं-नहीं, सुधा, लाओ ये हम रखेंगे!'' चन्दर ने सुधा को रोकते हुए कहा।
''बेकार है, चन्दर! कल तक, परसों तक ये जूठे हो जाएँगे, देवता मेरे!'' और सुधा सिसकते हुए चली गयी।
एक चमकदार सितारा टूटा और पूरे आकाश पर फिसलते हुए जाने किस क्षितिज में खो गया।
दूसरे दिन आठ बजे तक सारा सामान स्टेशन पहुँच गया था। शंकर बाबू और डॉक्टर साहब पहले ही स्टेशन पहुँच गये थे। बाराती भी सब वहीं चले गये थे। कैलाश और सुधा को स्टेशन तक लाने का जिम्मा चन्दर पर था। बहुत जल्दी करते-कराते भी सवा नौ बजे गये थे। उसने फिर जाकर कहा। कैलाश और सुधा खड़े हुए थे। पीछे से नाइन सुधा के सिर पर पंखा रखी थी और बुआजी रोचना कर रही थीं। चन्दर के जल्दी मचाने पर अन्त में उन्हें फुरसत मिली और वह आगे बढ़े। मोटर पर सुधा ने ज्यों ही पाँव रखा कि बिनती पाँव से लिपट गयी और रोने लगी। सुधा जोर से बिलख-बिलखकर रो पड़ी। चन्दर ने बिनती को छुड़ाया। सुधा पीछे बैठकर खिड़की पर मुँह रखकर सिसकती रही। मोटर चल दी। सुधा मुडक़र अपने घर की ओर देख रही थी। बिनती ने हाथ जोड़े तो सुधा चीखकर रो पड़ी। फिर चुप हो गयी।
स्टेशन पर भी सुधा बिल्कुल शान्त रही। सुधा और कैलाश के लिए सेकेंड क्लास में एक बर्थ सुरक्षित थी। बाकी लोग ड्योढ़े में थे। शंकर बाबू ने दोनों को उस डिब्बे में पहुँचाया और बोले, ''कैलाश, तुम जरा हमारे साथ आओ। मिस्टर कपूर, जरा बहू के पास आप रहिए। मैं डॉक्टर साहब को यहाँ भेज रहा हूँ।''
चन्दर खिडक़ी के पास खड़ा हो गया। शंकर बाबू का छोटा बच्चा आकर अपनी नयी चाची के पास बैठ गया और उनकी रेशमी चादर से खेलने लगा। चन्दर चुपचाप खड़ा था।
सहसा सुधा ने उसके हाथों पर अपना मेहँदी लगा हाथ रख दिया और धीमे से कहा, ''चन्दर!'' चन्दर ने मुडक़र देखा तो बोली, ''अब कुछ सोचो मत। इधर देखो!'' और सुधा ने जाने कितने दुलार से चन्दर से कहा, ''देखो, बिनती का ध्यान रखना। उसे तुम्हारे ही भरोसे छोड़ रही हूँ और सुनो, पापा को रात को सोते वक्त दूध में ओवल्टीन जरूर दे देना। खाने-पीने में गड़बड़ी मत करना, यह मत समझना कि सुधा मर गयी तो फिर बिना दूध की चाय पीने लगो। हम जल्दी से आ जाएँगे। पम्मी का कोई खत आये तो हमें लिखना।''
इतने में डॉक्टर साहब और कैलाश आ गये। कैलाश कम्पार्टमेंट के बाथरूम में चला गया। डॉक्टर साहब आये और सुधा के सिर पर हाथ रखकर बोले, ''बेटा! आज तेरी माँ होती तो कितना अच्छा होता। और देख, महीने-भर में बुला लेंगे तुझे! वहाँ घबराना मत।''
गाड़ी ने सीटी दी।
पापा ने कहा, ''बेटा, अब ठीक से रहना और भावुकता या बचपना मत करना। समझी!'' पापा ने आँख से रूमाल लगा लिया-''विवाह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। अब तुम्हारी नयी जिंदगी है। अब तक बेटी थी, अब बहू हो...।''
सुधा बोली, ''पापा, तुम्हारा ओवल्टीन का डिब्बा शीशे वाली मेज पर है। उसे पी लिया करना और पापा, बिनती को गाँव मत भेजना। चन्दर को अब घर पर ही बुला लो। तुम अकेले पड़ गये! और हमें जल्दी बुला लेना...''
गार्ड ने सीटी दी। कैलाश ने जल्दी से डॉक्टर साहब के पैर छुए। चन्दर से हाथ मिला लिया। सुधा बोली, ''चन्दर, ये पुर्जा बिनती को देना और देखो मेरा नतीजा निकले तो तार देना।'' गाड़ी चल पड़ी। ''अच्छा पापा, अच्छा चन्दर...'' सुधा ने हाथ जोड़े और खिडक़ी पर टिककर रोने लगी। और बार-बार आँसू पोंछ-पोंछकर देखने लगी।...
गाड़ी प्लेटफार्म के बाहर चली गयी तब चन्दर मुड़ा। उसके बदन में पोर-पोर में दर्द हो रहा था। वह कैसे घर पर पहुँचा उसे मालूम नहीं।
दो
चन्दर को हफ्ते-भर तक होश नहीं रहा। शादी के दिनों में उसे एक नशा था जिसके बल पर वह मशीन की तरह काम करता गया। शादी के बाद इतनी भयंकर थकावट उसकी नसों में कसक उठी कि उसका चलना-फिरना मुश्किल हो गया था। वह अपने घर से होटल तक खाना खाने नहीं जा पाता था। बस पड़ा-पड़ा सोता रहता। सुबह नौ बजे सोता; पाँच बजे उठता; थोड़ी देर होटल में बैठकर फिर वापस आ जाता। चुपचाप छत पर लेटा रहता और फिर सो जाता। उसका मन एक उजड़े हुए नीड़ की तरह था जिसमें से विचार, अनुभूति, स्पन्दन और रस के विहंगम कहीं दूर उड़ गये थे। लगता था, जैसे वह सब कुछ भूल गया है। सुधा, बिनती, पम्मी, डॉक्टर साहब, रिसर्च, थीसिस, सभी कुछ! ये सब चीजें कभी-कभी उसके मन में नाच जातीं लेकिन चन्दर को ऐसा लगता कि ये किसी ऐसी दुनिया की चीजें हैं जिसको वह भूल गया है, जो उसके स्मृति-पटल से मिट चुकी है, कोई ऐसी दुनिया जो कभी थी, कहीं थी, लेकिन किसी भयंकर जलप्रलय ने जिसका कण-कण ध्वस्त कर दिया था। उसकी दुनिया अपनी छत तक सीमित थी, छत के चारों ओर की ऊँची दीवारों और उन चारदीवारों से बँधे हुए आकाश के चौकोर टुकड़े तक ही उसके मन की उड़ान बँध गयी थी। उजाला पाख था। पहले वह लुब्धक तारे की रोशनी देखता फिर धीरे-धीरे चाँद की दूधिया रोशनी सफेद कफन की तरह छा जाती और वह मन में थके हुए स्वर जैसे चाँदनी को ओढ़ता हुआ-सा कहता, ''सो जा मुरदे...सो जा।''
छठे दिन उसका मन कुछ ठीक हुआ। थकावट, जो एक केंचुल की तरह उस पर छायी हुई थी, धीरे-धीरे उतर गयी और उसे लगा जैसे मन में कुछ टूटा हुआ-सा दर्द कसक रहा है। यह दर्द क्यों है, कैसा है, यह उसके कुछ समझ में नहीं आता था। पाँच बजे थे लेकिन धूप बिल्कुल नहीं थी। पीले उदास बादलों की एक झीनी तह ने ढलते हुए आषाढ़ के सूरज को ढँक लिया था। हवा में एक ठंडक आ गयी थी; लगता था कि झोंके किसी वर्षा के देश से आ रहे हैं। वह उठा, नहाया और बिनती के घर चल पड़ा।
डॉक्टर शुक्ला लॉन पर हाथ में किताब लिये टहल रहे थे। पाँच दिनों में जैसे वह बहुत बूढ़े हो गये थे। बहुत झुके हुए-से निस्तेज चेहरा, डबडबायी आँखें और चाल में जैसे उम्र थक गयी हो। उन्होंने चन्दर का स्वागत भी उस तरह नहीं किया जैसे पहले करते थे। सिर्फ इतना बोले, ''चन्दर, दो दफे ड्राइवर को भेजकर बुलाया तो मालूम हुआ तुम सो रहे हो। अब अपना सामान यहीं ले आओ।'' और वे बैठकर किताब उलट-पलट कर देखने लगे। अभी तक वे बूढ़े थे, उनका व्यक्तित्व तरुण था। आज लगता था जैसे उनके व्यक्तित्व पर झुर्रियाँ पडऩे लगी हैं, उनके व्यक्तित्व की कमर भी झुक गयी है। चन्दर कुछ नहीं बोला। चुपचाप खड़ा रहा। सामने आकाश पर एक अजब-सी जर्दी छा रही थी। डॉक्टर साहब ने किताब बन्द की और बोले, ''सुना है...कॉलेज के प्रिन्सिपल आ गये हैं। जाऊँ जरा उनसे तुम्हारे बारे में बात कर आऊँ। तुम जाओ, सुधा का खत आया है बिनती के पास।''
''बुआजी हैं?'' चन्दर ने पूछा।
''नहीं, आज ही सुबह तो गयीं। हम लोग कितना रोकते रहे लेकिन उन्हें कहीं और चैन ही नहीं पड़ता। बिनती को बड़ी मुश्किल से रोका मैंने।'' और डॉक्टर साहब गैरेज की ओर चल पड़े।
चन्दर भीतर गया। सारा घर इतना सुनसान था, इतना भयंकर सन्नाटा कि चन्दर के रोएँ-रोएँ खड़े हो गये। शायद मौत के बाद का घर भी इतना नीरव और इतना भयानक न लगता होगा जितना यह शादी के बाद का घर। सिर्फ रसोई से कुछ खटपट की आवाज आ रही थी। ''बिनती!'' चन्दर ने पुकारा। बिनती चौके में थी। वह निकल आयी। बिनती को देखते ही चन्दर दंग हो गया। वह लड़की इतनी दुबली हो गयी थी कि जैसे बीमार हो। रो-रोकर उसकी आँखें सूज गयी थीं और होठ मोटे पड़ गये थे। चन्दर को देखते ही उसने कड़ाही उतारकर नीचे रख दी और बिखरी हुई लटें सुधारकर, आँचल ठीक कर बाहर निकल आयी। कमरे से खींचकर एक चौकी आँगन में डालकर चन्दर से बहुत उदास स्वर में बोली, ''बैठिए!''
''घर कितना सूना लग रहा है बिनती, तुम अकेले कैसे रहती होगी?'' चन्दर ने कहा। बिनती की आँखों में आँसू छलछला आये।
''बिनती, रोती क्यों हो? छिह! मुझे देखो। मैं कैसे पत्थर बन गया हूँ। क्यों? तुम तो इतनी अच्छी लड़की हो।'' चन्दर ने बिनती के कन्धे पर हाथ रखकर कहा।
बिनती ने आँसू भरी पलकें चन्दर की ओर उठायीं और बड़े ही कातर स्वर में कहा, ''आप देवता हो सकते हैं, लेकिन हरेक तो देवता नहीं है। फिर आपने कहा था आप आएँगे बराबर। पिछले हफ्ते से आये भी नहीं। यह भी नहीं सोचा कि हमारा क्या हाल होगा! रोज सुबह-शाम कोई भी आता तो हम दौडक़र देखते कि आप आये हैं या नहीं। दीदी आपकी थीं! बस उन तक आपका रिश्ता था। हम तो आपके कोई नहीं हैं।''
''नहीं बिनती! इतने थक गये थे कि हम कहीं आने-जाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। बुआजी को जाने क्यों दिया तुमने? उन्हें रोक लेती!'' चन्दर ने कहा।
''अरे, वह थीं तो रोने भी नहीं देती थीं। मैं दो-तीन दिन तक रोयी तो मुझ पर बहुत बिगड़ीं और महराजिन से बोलीं, ''हमने तो ऐसी लड़की ही नहीं देखी। बड़ी बहन का ब्याह हो गया तो मारे जलन के दिन-रात आँसू बहा-बहाकर अमंगल बनाती है। जब बखत आएगा तभी शादी करेंगे कि अभी ही किसी के साथ निकाल दूँ।'' बिनती ने एक गहरी साँस लेकर कहा, ''आप समझ नहीं सकते कि जिंदगी कितनी खराब है। अब तो हमारी तबीयत होती है कि मर जाएँ। अभी तक दीदी थीं, सहारा दिये रहती थीं। हिम्मत बँधाये रहती थीं, अब तो कोई नहीं हमारा।''
''छिह, ऐसी बातें नहीं करते, बिनती! महीने-भर में सुधा आ जाएगी। और माँ की बातों का क्या बुरा मानना?''
''आप लड़की होते तो समझते, चन्दर बाबू!'' बिनती बोली और जाकर एक तश्तरी में नाश्ता ले आयी, ''लो, दीदी कह गयी थीं कि चन्दर के खाने-पीने का खयाल रखना लेकिन यह किसको मालूम था कि दीदी के जाते ही चन्दर गैर हो जाएँगे।''
''नहीं बिनती, तुम गलत समझ रही हो। जाने क्यों एक अजीब-सी खिन्नता मन में आ गयी थी। कुछ करने की तबीयत ही नहीं होती थी। आज कुछ तबीयत ठीक हुई तो सबसे पहले तुम्हारे ही पास आया। बिनती! अब सुधा के बाद मेरा है ही कौन, सिवा तुम्हारे?'' चन्दर ने बहुत उदास स्वर में कहा।
''तभी न! उस दिन मैं बुलाती रह गयी और आप यह गये, वह गये और आँख से ओझल! मैंने तो उसी दिन समझ लिया था कि अब पुराने चन्दर बाबू बदल गये।'' बिनती ने रोते हुए कहा।
चन्दर का मन भर आया था, गले में आँसू अटक रहे थे लेकिन आदमी की जिंदगी भी कैसी अजब होती है। वह रो भी नहीं सकता था, माथे पर दुख की रेखा भी झलकने नहीं दे सकता था, इसलिए कि सामने कोई ऐसा था, जो खुद दुखी था और सुधा की थाती होने के नाते बिनती को समझाना उसका पहला कर्तव्य था। बिनती के आँसू रोकने के लिए वह खुद अपने आँसू पी गया और बिनती से बोला, ''लो, कुछ तुम भी खाओ।'' बिनती ने मना किया तो उसने अपने हाथ से बिनती को खिला दिया। बिनती चुपचाप खाती रही और रह-रहकर आँसू पोंछती रही।
इतने में महराजिन आयी। बिनती ने चौके के काम समझा दिये और चन्दर से बोली, ''चलिए, ऊपर चलें।'' चन्दर ने चारों ओर देखा। घर का सन्नाटा वैसा ही था। सहसा उसके मन में एक अजीब-सी बात आयी। सुधा के साथ कभी भी कहीं भी वह जा सकता था, लेकिन बिनती के साथ छत पर अकेले जाने में क्यों उसके अन्त:करण ने गवाही नहीं दी। वह चुपचाप बैठा रहा। बिनती कुछ भी हो, कितनी ही समीप क्यों न हो, बिनती सुधा नहीं थी, सुधा नहीं हो सकती थी। ''नहीं, यहीं ठीक है।'' चन्दर बोला।
बिनती गयी। सुधा का पत्र ले आयी। चन्दर का मन जाने कैसा होने लगा। लगता था जैसे अब आँसू नहीं रुकेंगे। उसके मन में सिर्फ इतना आया कि अभी बहत्तर घंटे पहले सुधा यहीं थी, इस घर की प्राण थी; आज लगता है जैसे इस घर में सुधा थी ही नहीं...
आँगन में अँधेरा होने लगा था। वह उठकर सुधा के कमरे के सामने पड़ी हुई कोच पर बैठ गया और बिनती ने बत्ती जला दी। खत छोटा-सा था-
''डॉक्टर चन्दर बाबू,
क्या तुम कभी सोचते थे कि तुम इतनी दूर होगे और मैं तुम्हें खत लिखूँगी। लेकिन खैर!
अब तो घर में चैन की बंसी बजाते होंगे। एक अकेले मैं ही काँटे-जैसी खटक रही थी, उसे भी तुमने निकाल फेंका। अब तुम्हें न कोई परेशान करता होगा, न तुम्हारे पढ़ने-लिखने में बाधा पहुँचती होगी। अब तो तुम एक महीने में दस-बारह थीसिस लिख डालोगे।
जहाँ दिन में चौबीस घंटे तुम आँख के सामने रहते थे, वहाँ अब तुम्हारे बारे में एक शब्द सुनने के लिए तड़प उठती हूँ। कई दफे तबीयत आती है कि जैसे बिनती से तुम्हारे बारे में बातें करती थी वैसे ही इनसे (तुम्हारे मित्र से) तुम्हारे बारे में बातें करूँ लेकिन ये तो जाने कैसी-कैसी बातें करते हैं।
और सब ठीक है। यहाँ बहुत आजादी है मुझे। माँजी भी बहुत अच्छी हैं। परदा बिल्कुल नहीं करतीं। अपने पूजा के सारे बरतन पहले ही दिन हमसे मँजवाये।
देखो, पापा का ध्यान रखना। और बिनती को जैसे मैं छोड़ आयी हूँ उतनी ही मोटी रहे। मैं महीने-भर बाद आकर तुम्हीं से बिनती को वापस लूँगी, समझे? यह न करना कि मैं न रहूँ तो मेरे बजाय बिनती को रुला-रुलाकर, कुढ़ा-कुढ़ाकर मार डालो, जैसी तुम्हारी आदत है।
चाय ज्यादा मत पीना-खत का जवाब फौरन!
तुम्हारी-सुधा।''
चन्दर ने चिठ्ठी एक बार फिर पढ़ी, दो बार पढ़ी, और बार-बार पढ़ता गया। हलके हरे कागज पर छोटे-छोटे काले अक्षर जाने कैसे लग रहे थे। जाने क्या कह रहे थे, छोटे-छोटे अर्थात कुछ उनमें अर्थ था जो शब्द से भी ज्यादा गम्भीर था। युगों पहले वैयाकरणों ने उन शब्दों के जो अर्थ निश्चित किये थे, सुधा की कलम से जैसे उन शब्दों को एक नया अर्थ मिल गया था। चन्दर बेसुध-सा तन्मय होकर उस खत को बार-बार पढ़ता गया और किस समय वे छोटे-छोटे नादान अक्षर उसके हृदय के चारों ओर कवच-जैसे बौद्धिकता और सन्तुलन के लौह पत्र को चीरकर अन्दर बिंध गये और हृदय की धड़कनों को मरोडऩा शुरू कर दिया, यह चन्दर को खुद नहीं मालूम हुआ जब तक कि उसकी पलकों से एक गरम आँसू खत पर नहीं टपक पड़ा। लेकिन उसने बिनती से वह आँसू छिपा लिया और खत मोड़क़र बिनती को दे दिया। बिनती ने खत लेकर रख लिया और बोली, ''अब चलिए खाना खा लीजिए!'' चन्दर इनकार नहीं कर सका।
महराजिन ने थाली लगायी और बोली, ''भइया, नीचे अबहिन आँगन धोवा जाई, आप जाय के ऊपर खाय लेव।''
चन्दर को मजबूरन ऊपर जाना पड़ा। बिनती ने खाट बिछा दी। एक स्टूल डाल दिया। पानी रख दिया और नीचे थाली लाने चली गयी। चन्दर का मन भारी हो गया था। यह वही जगह है, वही खाट है जिस पर शादी की रात वह सोया था। इसी के पैताने सुधा आकर बैठी थी अपने नये सुहाग में लिपटी हुई-सी। यही पर सुधा के आँसू गिरे थे...।
बिनती थाली लेकर आयी और नीचे बैठकर पंखा करने लगी।
''हमारी तबीयत तो है ही नहीं खाने की, बिनती!'' चन्दर ने भर्राये हुए स्वर में कहा।
''अरे, बिना खाये-पीये कैसे काम चलेगा? और फिर आप ऐसा करेंगे तो हमारी क्या हालत होगी? दीदी के बाद और कौन सहारा है! खाइए!'' और बिनती ने अपने हाथ से एक कौर बनाकर चन्दर को खिला दिया! चन्दर खाने लगा। चन्दर चुप था, वह जाने क्या सोच रहा था। बिनती चुपचाप बैठी पंखा झल रही थी।
''क्या सोच रहे हैं आप?'' बिनती ने पूछा।
''कुछ नहीं!'' चन्दर ने उतनी ही उदासी से कहा।
''नहीं बताइएगा?'' बिनती ने बड़े कातर स्वर से कहा।
चन्दर एक फीकी मुसकान के साथ बोला, ''बिनती! अब तुम इतना ध्यान न रखा करो! तुम समझती नहीं, बाद में कितनी तकलीफ होती है। सुधा ने क्या कर दिया है यह वह खुद नहीं समझती!''
''कौन नहीं समझता!'' बिनती एक गहरी साँस लेकर बोली, ''दीदी नहीं समझती या हम नहीं समझते! सब समझते हैं लेकिन जाने मन कैसा पागल है कि सब कुछ समझकर धोखा खाता है। अरे दही तो आपने खाया ही नहीं।'' वह पूड़ी लाने चली गयी।
और इस तरह दिन कटने लगे। जब आदमी अपने हाथ से आँसू मोल लेता है, अपने-आप दर्द का सौदा करता है, तब दर्द और आँसू तकलीफ-देह नहीं लगते। और जब कोई ऐसा हो जो आपके दर्द के आधार पर आपको देवता बनाने के लिए तैयार हो और आपके एक-एक आँसू पर अपने सौ-सौ आँसू बिखेर दे, तब तो कभी-कभी तकलीफ भी भली मालूम देने लगती है। लेकिन फिर भी चन्दर के दिन कैसे कट रहे थे यह वही जानता था। लेकिन अकबर के महल में जलते हुए दीपक को देखकर अगर किसी ने जाड़े की रात जमुना के घुटनों-घुटनों पानी में खड़े होकर काट दी, तो चन्दर अगर सुधा के प्यारे-प्यारे खतों के सहारे समय काट रहा था तो कोई ताज्जुब नहीं। अपने अध्ययन में प्रौढ़, अपने विचारों में उदार होने के बावजूद चन्दर अपने स्वभाव में बच्चा था, जिससे जिंदगी कुछ भी करवा सकती थी बशर्ते जिंदगी को यह आता हो कि इस भोले-भाले बच्चे को कैसे बहलावा दिया जाये।
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Jemsbond
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Re: गुनाहों का देवता-धर्मवीर भारती

Post by Jemsbond »

बहलावे के लिए मुसकानें ही जरूरी नहीं होती हैं, शायद आँसुओं से मन जल्दी बहल जाता है। बिनती के आँसुओं में चन्दर सुधा की तसवीर देखता था और बहल जाता था। वह रोज शाम को आता और बिनती से सुधा की बातें करता, जाने कितनी बातें, जाने कैसी बातें और बिनती के माध्यम से सुधा में डूबकर चला आता था। चूँकि सुधा के बिना उसका दिन कटना मुश्किल था, एक क्षण कटना मुश्किल था इसलिए बिनती उसकी एक जरूरत बन गयी थी। वह जब तक बिनती से सुधा की बात नहीं कर लेता था, तब तक जैसे वह बेचैन रहता था, तब तक उसकी किसी काम में तबीयत नहीं लगती थी।
जब तक सुधा सामने रही, कभी भी उसे यह नहीं मालूम हुआ कि सुधा का क्या महत्व है उसकी जिंदगी में। आज जब सुधा दूर थी तो उसने देखा कि सुधा उसकी साँसों से भी ज्यादा आवश्यक थी उसकी जिंदगी के लिए। लगता था वह एक क्षण सुधा के बिना जिन्दा नहीं रह सकता। सुधा के अभाव में बिनती के माध्यम से वह सुधा को ढूँढ़ता था और जैसे सूरज के डूब जाने पर चाँद सूरज की रोशनी उधार लेकर रात को उजियारा कर देता है उसी तरह बिनती सुधा की याद से चन्दर के प्राणों पर उजियारी बिखेरती रही। चन्दर बिनती को इस तरह अपनी साँसों की छाँह में दुबकाये रहा जैसे बिनती सुधा का स्पर्श हो, सुधा का प्यार हो।
बिनती भी चन्दर के माथे पर उदासी के बादल देखते ही तड़प उठती थी। लेकिन फिर भी बिनती चन्दर को हँसा नहीं पायी। चन्दर का पुराना उल्लास लौटा नहीं। साँप का काटा हुआ जैसे लहरें लेता है वैसे ही चन्दर की नसों में फैला हुआ उदासी का जहर रह-रहकर चन्दर को झकझोर देता था। उन दिनों दो-दो तीन-तीन दिन तक चन्दर कुछ नहीं करता था, बिनती के पास भी नहीं जाता था, बिनती के आँसुओं की भी परवाह नहीं करता था। खाना नहीं खाता था, और अपने को जितनी तकलीफ हो सकती थी, देता था। फिर ज्यों ही सुधा का कोई खत आता था, वह उसे चूम लेता और फिर स्वस्थ हो जाता था। बिनती चाहे जितना करे लेकिन चन्दर की इन भयंकर उदासी की लहरों को चन्दर से छीन नहीं पायी थी। चाँद कितनी कोशिश क्यों न करे, वह रात को दिन नहीं बना सकता।
लेकिन आदमी हँसता है, दुख-दर्द सभी में आदमी हँसता है। जैसे हँसते-हँसते आदमी की प्रसन्नता थक जाती है वैसे ही कभी-कभी रोते-रोते आदमी की उदासी थक जाती है और आदमी करवट बदलता है। ताकि हँसी की छाँह में कुछ विश्राम कर फिर वह आँसुओं की कड़ी धूप में चल सके।
ऐसी ही एक सुबह थी जबकि चन्दर के उदास मन में आ रहा था कि वह थोड़ी देर हँस भी ले। बात यों हुई थी कि उसे शेली की एक कविता बहुत पसन्द आयी थी जिसमें शैली ने भारतीय मलयज को सम्बोधित किया है। उसने अपना शेली-कीट्स का ग्रन्थ उठाया और उसे खोला तो वही आम के अचार के दाग सामने पड़ गये जो सुधा ने शरारतन डाल दिये थे। बस वह शेली की कविता तो भूल गया और उसे याद आ गयी आम की फाँक और सुधा की शरारत से भरी शोख आँखें। फिर तो एक के बाद दूसरी शरारत प्राणों में उठ-उठकर चन्दर की नसों को गुदगुदाने लगी और चन्दर उस दिन जाने क्यों हँसने के लिए व्याकुल हो उठा। उसे ऐसा लगा जैसे सुधा की यह दूरी, यह अलगाव सभी कुछ झूठ है। सच तो वे सुनहले दिन थे जो सुधा की शरारतों से मुसकराते थे, सुधा के दुलार में जगमगाते थे। और कुछ भी हो जाये, सुधा उसके जीवन का एक ऐसा अमर सत्य है जो कभी भी डगमगा नहीं सकता। अगर वह उदास होता है, दु:खी होता है तो वह गलत है। वह अपने ही आदर्श को झूठा बना रहा है, अपने ही सपने का अपमान कर रहा है। और उसी दिन सुधा का खत भी आया जिसमें सुधा ने साफ-साफ तो नहीं पर इशारे से लिखा था कि वह चन्दर के भरोसे ही किसी तरह दिन काट रही थी। उसने सुधा को एक पत्र लिखा, जिसमें वही शरारत, वही खिझाने की बातें थीं जो वह हमेशा सुधा से करता था लेकिन जिसे वह पिछले तीन महीने में भूल गया था।
उसके बाद वह बिनती के यहाँ गया।
बिनती अपनी धोती में क्रोशिया की बेल टाँक रही थी। ''ले गिलहरी, तेरी दीदी का खत! लाओ, मिठाई खिलाओ।''
''हम काहे को खिलाएँ! आप खिलाइए जो खिले पड़े हैं आज!'' बिनती बोली।
''हम! हम क्यों खिलाएँगे! यहाँ तो सुधा का नाम सुनते ही तबीयत कुढ़ जाती है!''
''अरे चलिए, आपका घर मेरा देखा है। मुझसे नहीं बन सकते आप!'' बिनती ने मुँह चिढ़ाकर कहा, ''आज बड़े खुश हैं!''
''हाँ, बिनती...'' एक गहरी साँस लेकर चन्दर चुप हो गया, ''कभी-कभी उदासी भी थक जाती है!'' और मुँह झुकाकर बैठ गया।
''क्यों, क्या हुआ?'' बिनती ने चन्दर की बाँह में सुई चुभो दी-चन्दर चौंक उठा। ''हमारी शक्ल देखते ही आपके चेहरे पर मुहर्रम छा जाता है!''
''अजी नहीं, आपका मुख-मंडल देखकर तो आकाश में चन्द्रमा भी लज्जित हो जाता होगा, श्रीमती बिनती विदुषी!'' चन्दर ने हँसकर कहा। आज चन्दर बहुत खुश था।
बिनती लजा गयी और फिर उसके गालों में फूल के कटोरे खिल गये और उसने चन्दर के कन्धे से फिर सूई चुभोकर कहा, ''आपको एक बड़े मजे की बात बतानी है आज!''
''क्या?''
''फिर हँसिएगा मत! और चिढ़ाइएगा नहीं!'' बिनती बोली।
''कुछ तेरे ब्याह की बात होगी!'' चन्दर ने कहा।
''नहीं, ब्याह की नहीं, प्रेम की!'' बिनती ने हँसकर कहा और झेंप गयी।
''अच्छा, गिलहरी को यह रोग कब सेï?'' चन्दर ने हँसकर पूछा, ''अपनी माँजी की शकल देखी है न, काटकर कुएँ में फेंक देंगी तुझे!''
''अब क्या करें, कोई सिर पर प्रेम मढ़ ही दे तो!'' बिनती ने बड़े आत्मविश्वास से कहा। थी बड़ी खुले स्वभाव की लड़की।
''आखिर कौन अभागा है वह! जरा नाम तो सुनें।'' चन्दर बोला।
''हमारे महाकवि मास्टर साहब।'' बिनती ने हँसकर कहा।
''अच्छा, यह कब से! तूने पहले तो कभी बताया नहीं।''
''अब तो जाकर हमें मालूम हुआ। पहले सोचा दीदी को लिख दें। फिर कहा वहाँ जाने किसके हाथ में चिठ्ठी पड़े। तो सोचा तुम्हें बता दें!''
''हुआ क्या आखिर?'' चन्दर ने पूछा।
''बात यह हुई कि पहले तो हम दीदी के साथ पढ़ते थे तब तो मास्टर साहब कुछ नहीं बोलते थे, इधर जबसे हम अकेले पढऩे लगे तब से कविताएँ समझाने के बहाने दुनिया-भर की बातें करते रहे। एक बार स्कन्दगुप्त पढ़ाते-पढ़ाते बड़ी ठंडी साँस लेकर बोले, काश कि आप भी देवसेना बन सकतीं। बड़ा गुस्सा आया मुझे। मन में आया कह दूँ कि मैं तो देवसेना बन जाती लेकिन आप अपना कवि सम्मेलन का पेशा छोड़कर स्कन्दगुप्त कैसे बन पाएँगे। लेकिन फिर मैंने कुछ कहा नहीं। दीदी से सब बात कह दी। दीदी तो हैं ही लापरवाह। कुछ कहा ही नहीं उन्होंने। और मास्टर साहब वैसे अच्छे हैं, पढ़ाते भी अच्छा हैं, लेकिन यह फितूर जाने कैसे उनके दिमाग में चढ़ गया।'' बिनती बड़े सहज स्वभाव से बोली।
''लेकिन इधर क्या हुआ?'' चन्दर ने पूछा।
''अभी कल आये, एक हाथ में उनके एक मोटी-सी कॉपी थी। दे गये तो देखा वह उनकी कविताओं का संग्रह है और उसका नाम उन्होंने रखा है 'बिनती'। अभी आते होंगे। क्या करें कुछ समझ में नहीं आता। अभी तक दीदी के भरोसे हमने सब छोड़ दिया था। वह पता नहीं कब आएँगी।''
''अच्छा लाओ, वह संग्रह हमें दे दो।'' चन्दर ने कहा, ''और बिसरिया से कह देना वह चन्दर के हाथ पड़ गया। फिर कल सुबह तुम्हें मजा दिखलाएँगे। लेकिन हाँ, यह पहले बता दो कि तुम्हारा तो कुछ झुकाव नहीं है उधर, वरना बाद में हमें कोसो?'' चन्दर ने छेड़ते हुए कहा।
''अरे हाँ, मुसलमान भी हो तो बेहना के संग! कवियों से प्यार लगाकर कौन बवालत पाले!'' बिनती ने झेंपते हुए कहा।
दूसरे दिन सुबह पहुँचा तो बिसरिया साहब पढ़ा रहे थे। बिसरिया की शक्ल पर कुछ मायूसी, कुछ परेशानी, कुछ चिन्ता थी। उसको बिनती ने बता दिया कि संग्रह चन्दर के पास पहुँच गया है। चन्दर को देखते ही वह बोला, ''अरे कपूर, क्या हाल है?'' और उसके बाद अपने को निर्दोष बताने के लिए फौरन बोला, ''कहो, हमारा संग्रह देखा है?''
''हाँ देखा है, जरा आप इन्हें पढ़ा लीजिए। आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।'' चन्दर ने इतने कठोर स्वर में कहा कि बिसरिया के दिल की धडक़नें डूबने-सी लगीं। वह काँपती हुई आवाज में बहुत मुश्किल से अपने को सम्हालते हुए बोला, ''कैसी बातें? कपूर, तुम कुछ गलत समझ रहे हो।''
कपूर एक उपेक्षा की हँसी हँसा और चला गया। डॉक्टर साहब पूजा करके उठे थे। दोनों में बातें होती रहीं। उनसे मालूम हुआ कि अगले महीने में सम्भवत: चन्दर की नियुक्ति हो जाएगी और तीन दिन बाद डॉक्टर साहब खुद सुधा को लाने के लिए शाहजहाँपुर जाएँगे। उन्होंने बुआजी को पत्र लिखा है कि यदि वह आ जाएँ तो अच्छा है, वरना चन्दर को दो-तीन दिन बाद यहीं रहना पड़ेगा क्योंकि बिनती अकेली है। चन्दर की बात दूसरी है लेकिन और लोगों के भरोसे डॉक्टर साहब बिनती को अकेले नहीं छोड़ सकते।
अविश्वास आदमी की प्रवृत्तियों को जितना बिगाड़ता है, विश्वास आदमी को उतना ही बनाता है। डॉक्टर साहब चन्दर पर जितना विश्वास करते थे, सुधा चन्दर पर जितना विश्वास करती थी और इधर बिनती उस पर जितना विश्वास करने लगी थी उसके कारण चन्दर के चरित्र में इतनी दृढ़ता आ गयी थी कि वह फौलाद बन गया था। ऐसे अवसरों पर जब मनुष्य को गम्भीरतम उत्तरदायित्व सौंपा जाता है तब स्वभावत: आदमी के चरित्र में एक विचित्र-सा निखार आ जाता है। यह निखार चन्दर के चरित्र में बहुत उभरकर आया था और यहाँ तक कि बुआजी अपनी लड़की पर अविश्वास कर सकती थीं, वह भी चन्दर को देवता ही मानती थीं, बिनती पर और चाहे जो बन्धन हो लेकिन चन्दर के हाथ में बिनती को छोड़कर वे निश्चिन्त थीं।
डॉक्टर साहब और चन्दर बैठे बातें कर ही रहे थे कि बिनती ने आकर कहा, ''चलिए, मास्टर साहब आपका इन्तजार कर रहे हैं!'' चन्दर उठ खड़ा हुआ। रास्ते में बिनती बोली, ''हमसे बहुत नाराज हैं। कहते हैं तुम्हें हम ऐसा नहीं समझते थे!'' चन्दर कुछ नहीं बोला। जाकर बिसरिया के सामने कुर्सी पर बैठ गया। ''तुम जाओ, बिनती!'' बिनती चली गयी तो चन्दर ने कहा, बहुत गम्भीर स्वरों में, ''बिसरिया साहब, आपका संग्रह देखकर बहुत खुशी हुई लेकिन मेरे मन में सिर्फ एक शंका है। यह 'बिनती' नाम के क्या माने हैं?''
बिसरिया ने अपने गले की टाई ठीक की, वह गरमी में भी टाई लगाता था, और दिन में नाइट कैप पहनता था। टाई ठीक कर, खँखारकर बोला, ''मैं भी यही समझता था कि आपको यह गलत-फहमी होगी। लेकिन वास्तविक बात यह है कि मुझे मध्यकाल की कविता बहुत पसन्द है, खासतौर में उसमें बिनती (प्रार्थना) शब्द बड़ा मधुर है। मैंने यह संग्रह तो बहुत पहले तैयार किया था। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ जब मैं बिनती से मिला। मैंने उनसे कहा कि यह संग्रह भी बिनती नाम का है। फिर मैंने उन्हें लाकर दिखला दिया।''
चन्दर मुसकराया और मन-ही-मन कहा, 'है बिसरिया बहुत चालाक। लेकिन खैर मैं हार नहीं मान सकता।' और बहुत गम्भीर होकर बैठ गया।
''तो यह संग्रह इस लड़की के नाम पर नहीं है?''
''बिल्कुल नहीं।''
''और बिनती के लिए आपके मन में कहीं कोई आकर्षण नहीं?''
''बिल्कुल नहीं। छिह, आप मुझे क्या समझते हैं।'' बिसरिया बोला।
''छिह, मैं भी कैसा आदमी हूँ, माफ करना बिसरिया! मैंने व्यर्थ में शक किया।''
बिसरिया यह नहीं जानता था कि यह दाँव इतना सफल होगा। वह खुशी से फूल उठा। सहसा चन्दर ने एक गहरी साँस ली।
''क्या बात है चन्दर बाबू?'' बिसरिया ने पूछा।
''कुछ नहीं बिसरिया, आज तक मुझे तुम्हारी प्रतिभा, तुम्हारी भावना, तुम्हारी कला पर विश्वास था, आज से उठ गया।''
''क्यों?''
''क्यों क्या? अगर बिनती-जैसी लड़की के साथ रहकर भी तुम उसके आन्तरिक सौन्दर्य से अपनी कला को अभिसिंचित न कर सके तो तुम्हारे मन में कलात्मकता है; यह मैं विश्वास नहीं कर पाता। तुम जानते हो, मैं पुराने विचारों का संकीर्ण, बड़ा बुजुर्ग तो हूँ नहीं, मैं भी भावनाओं को समझता हूँ। मैं सौन्दर्य-पूजा या प्यार को पाप नहीं समझता और मुझे तो बहुत खुशी होती यह जानकर कि तुमने ये कविताएँ बिनती पर लिखी हैं, उसकी प्रेरणा से लिखी हैं। यह मत समझना कि मुझे इससे जरा भी बुरा लगता। यह तो कला का सत्य है। पाश्चात्य देशों में तो लोग हर कवि को प्रेरणा देने वाली लड़कियों की खोज में वर्षों बिता देते हैं, उसकी कविता से ज्यादा महत्व उसकी कविता के पीछे रहने वाले व्यक्तित्व को देते हैं। हिन्दोस्तान में पता नहीं क्यों हम नारी को इतना महत्वहीन समझते हैं, या डरते हैं, या हममें इतना नैतिक साहस नहीं है। तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी प्रतिभा किसी हालत में मुझे विदेश के किसी कवि से कम नहीं लगती। मैंने सोचा था, जब तुम अपनी कविताओं के प्रेरणात्मक व्यक्तित्व का नाम घोषित करोगे तो सारी दुनिया बिनती को और हमारे परिवार को जान जाएगी। लेकिन खैर, मैंने गलत समझा था कि बिनती तुम्हारी प्रेरणा-बिन्दु थी।'' और चन्दर चुपचाप गम्भीरता से बिसरिया के संग्रह के पृष्ठ उलटने लगा।
बिसरिया के मन में कितनी उथल-पुथल मची हुई थी। चन्दर का मन इतना विशाल है, यह उसे कभी नहीं मालूम था। यहाँ तो कुछ छिपाने की जरूरत ही नहीं और जब चन्दर इतनी स्पष्ट बातें कर रहा है तो बिसरिया क्यों छिपाये।
''कपूर, मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाऊँगा। मैं कह नहीं सकता कि बिनती जी मेरे लिए क्या हैं। शेक्सपियर की मिराण्डा, प्रसाद की देवसेना, दाँते की बीएत्रिस, कीट्स की फैनी और सूर की राधा से बढ़कर माधुर्य अगर मुझे कहीं मिला है तो बिनती में। इतना, इतना डूब गया मैं बिनती में कि एक कविता भी नहीं लिख पाया। मेरा संग्रह छपने जा रहा था तो मैंने सोचा कि इसका नाम ही क्यों न 'बिनती' रखूँ।''
चन्दर ने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकी। दरवाजे के पास छिपी खड़ी हुई बिनती खिलखिलाकर हँस पड़ी। चन्दर बोला, ''नाम तो 'बिनती' बहुत अच्छा सोचा तुमने, लेकिन सिर्फ एक बात है। मेरे जैसे विचार के लोग सभी नहीं होते। अगर घर के और लोगों को यह मालूम हो गया, मसलन डॉक्टर साहब को, तो वह न जाने क्या कर डालेंगे। इन लोगों को कविता और उसकी प्रेरणा का महत्व ही नहीं मालूम। उस हालत में अगर तुम्हारी बहुत बेइज्जती हुई तो न हम कुछ बोल पाएँगे न बिनती। डॉक्टर साहब पुलिस को सौंप दें, यह अच्छा नहीं लगता। वैसे मेरी राय है कि तुम बिनती ही नाम रखो; बड़ा नया नाम है; लेकिन यह समझ लो कि डॉक्टर साहब बहुत सख्त हैं इस मामले में।''
बिसरिया की समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे। थोड़ी देर तक सिर खुजलाता रहा, फिर बोला, ''क्या राय है कपूर, तुम्हारी? अगर मैं कोई दूसरा नाम रख दूँ तो कैसा रहेगा?''
''बहुत अच्छा रहेगा और सुरक्षित रहेगा। अभी अगर तुम बदनाम हो गये तो आगे तुम्हारी उन्नति के सभी मार्ग बन्द हो जाएँगे। आदमी प्रेम करे मगर जरा सोच-समझकर; मैं तो इस पक्ष में हूँ।''
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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