पहचान

Jemsbond
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Re: पहचान

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चुँधियार्इ आँखों और मैले दाँतों वाले बन्ने उस्ताद के मुँह से बदबू फूटा करती थी।
जल्द ही बन्ने उस्ताद की 'शागिर्दी' से उसने स्वयं को आजाद कर लिया। उसने जान लिया था कि टेलर मास्टर कभी लखपति बनकर ऐश की जिंदगी नहीं गुजार पाता। वह तो ताउम्र 'टेलरर्इ' ही करता रह जाता है।
इससे कहीं अच्छा है कि यूनुस मन्नू भार्इ से स्कूटर, मोटर-साइकिल की मिस्त्रीगिरी सीखे।
पंद्रह
यूनुस की विद्यालयीन पढ़ार्इ ही खटार्इ में पड़ी थी, किसी विश्वविद्यालय का मुँह देखना उसके नसीब में कहाँ था?
वैसे भी हर किसी के मुकद्दर में विश्वविद्यालयीन पढ़ार्इ का 'जोग' नहीं होता।
फुटपथिया लोगों का अपना एक अलग विश्वविद्यालय होता है, जहाँ व्यावहारिक शास्त्र की तमाम विद्याएँ सिखार्इ जाती हैं।
हाँ, फर्क बस इतना है कि इन विश्वविद्यालयों में 'माल्थस' की थ्योरी पढ़ार्इ जाती है न डार्विन का विकासवाद।
छात्र स्वयमेव दुनिया की तमाम घोषित, अघोषित विज्ञान एवं कलाओं में महारत हासिल कर लेते हैं।
प्राध्यापकीय योग्यता के लिए शिक्षा और उम्र का बंधन नहीं होता। वे अनपढ़ हो सकते हैं, बुजुर्ग या बच्चे भी हो सकते हैं। कभी-कभी तो पशुओं के क्रिया-व्यापार से भी ये फुटपथिया विद्यार्थी ज्ञान अर्जित कर लेते हैं।
ये अनौपचारिक प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों को जीने की कला सिखाते हैं।
जो विद्यार्थी जितना तेज हुआ, वह उतनी जल्दी व्यावहारिक ज्ञान ग्रहण कर लेता है। संगत के कारण विद्यार्थी निगाह बचा कर गलत काम करने, बहाना बनाने और बच निकलने का हुनर सीख जाता है। यहाँ सिखाया भी तो जाता है कि जो पकड़ा गया वही चोर। जो पकड़ से बचा वह बनता है गलियों का बेताज बादशाह।
इन विश्वविद्यालयों की कक्षाएँ उजाड़-खंडहरात में, गैरेजों में, सिनेमा-हाल और चाय-पान की गुमटियों में लगती हैं।
'प्रेक्टिकल-ट्रेनिंग' के लिए नगर के आवारा-लोफर, गँजेड़ी-भँगेड़ी, दुराचारी-बलात्कारी, युवकों की संगत जरूरी होती है।
बस-ट्रक चालकों और खलासियों से भूगोल, नागरिक शास्त्र और भारतीय दंड विधान का सार सरलता से उनकी समझ में आ जाता है।
मोटर गैरेज में काम सीख कर मेकेनिकल-इंजीनियरिंग और आटो-मोबाइल इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा किया जाता है।
दर्जियों की दुकान में बैठकर 'ड्रेस-डिजाइनर' और 'फैशन-टेक्नोलॉजी' की डिग्री मिल जाती है।
नार्इ की दुकान से 'ब्यूटी पार्लर' का डिप्लोमा मिल जाता है।
सिविल ठेकेदार के पास मुंशीगीरी कर लेने के बाद आदमी आसानी से सिविल इंजीनियर जितनी योग्यता प्राप्त कर लेता है।
विद्युत ठेकेदार के पास काम सीखने पर इलेक्ट्रीशियन का डिप्लोमा मिला समझो।
काम-शास्त्र के सैद्धांतिक पक्ष से वे कमसिनी में ही वाकिफ हो जाते हैं और प्रेक्टिकल का अवसर निम्न-मध्यमवर्गीय समाजों में उन्हें सहज ही मिल जाता है। चचेरे-ममेरे भार्इ-बहिन, चाचा-मामा, बुआ-चाची-मामी, नौकर-नौकरानी, पिता या अध्यापक, इनमें से कोर्इ एक या अधिक लोग उन्हें वयस्क अनुभवों से मासूम बचपन ही में पारंगत बना देते हैं।
राजनीति-शास्त्र सीखने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं। आजकल हर चीज में 'पोलिटिक्स' की बू आती है।
यूनुस और उसके जैसे तमाम सुविधाहीन बच्चे ऐसे ही विश्वविद्यालयों के छात्र थे।
बड़े भार्इ सलीम की असमय मृत्यु से गमजदा यूनुस को एक दिन उसके आटोमोबाइल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक यानी मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भार्इ ने गुरु-गंभीर वाणी में समझाया था - 'बेटा, मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन 'लढ़ा' जरूर हूँ। अब तुम पूछोगे कि ये लढ़ार्इ क्या होती है तो सुनो, एम्मे, बीए जैसी एक डिग्री और होती है जिसे हम अनपढ़ लोग 'एलेलपीपी' कहते हैं। जिसका फुल फार्म होता है, लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, समझे। इस डिग्री की पढ़ार्इ फर्ज-अदायगी के मदरसे में होती है जहाँ मेहनत की कापी और लगन की कलम से 'लढ़ार्इ' की जाती है।'
यूनुस मन्नू भार्इ की ज्ञान भरी बातें ध्यान से सुना करता।
असुविधाओं से भरपूर अव्यवस्थित घरेलू माहौल में स्कूली शिक्षा की किसे फिक्र!
वह अच्छी तरह जानता था कि अकादमिक तालीम उसके बूते की बात नहीं।
उसे भी अब इस 'लढ़ार्इ' जैसी कोर्इ डिग्री बटोरनी होगी।
इसीलिए वह मन्नू उस्ताद की बात गिरह में बाँध कर रक्खे हुए था।
मन्नू भार्इ की छोटी सी मोटर-साइकिल रिपेयर की गैरेज थी।
नगर के बाहर पहाड़ी नाले के पुल को पार करते ही दुचकिया, तिनचकिया, चरचकिया, छचकिया जैसी तमाम गाड़ियों की मरम्मत के लिए गैरेज हैं। टायरों में हवा भरने वाले बिहारी मुसलमानों की दुकानें भी इधर ही हैं।
मन्नू भार्इ की गैरेज पुल पार करते ही पहले मोड़ पर है।
बन्ने उस्ताद के दर्जीगीरी वाले अनुभव से मायूस यूनुस को गैरेज का माहौल ठीक लगा।
गैरेज के अंदर एक लकड़ी का बोर्ड था, जिस पर क्रम से पाना-पेंचिस आदि सजा कर टाँग दिए जाते। यूनुस का काम होता, सुबह मन्नू भार्इ के घर जाकर उनसे गैरेज की चाभी ले आता। एक बित्ते का एक झाड़ू था, जिससे वह पहले गैरेज के बाहर सफार्इ करता। फिर गैरेज का शटर उठाता। अंदर रिपेयर के लिए आर्इ स्कूटर-मोटर साइकिलें बेतरतीबी से रखी रहतीं। एक-एक कर तमाम गाड़ियों को वह गैरेज से बाहर निकालता। फिर गैरेज के अंदर झाड़ू लगाता। इस बीच कोर्इ नट-बोल्ट, वाशर या कोर्इ अन्य पार्ट गिरा मिलता तो उसे उठाकर यथास्थान रख देता। मन्नू भार्इ के आने से पूर्व यदि कोर्इ कस्टमर आता तो वह उनकी समस्या सुनता और उसके लायक रिपेयर का काम होता तो कर देता।
इस छोटी-मोटी रिपेयरिंग से अपना जेब-खर्च बनाता।
रात गैरेज बंद होने से पहले वह तमाम पाना-पेंचिस को जले मोबिल से धोता, पोंछता और फिर उन्हें दीवार पर टँगे बोर्ड पर क्रमानुसार सजा देता।
मन्नू भार्इ और यूनुस मिलकर मरम्मत के लिए तमाम गाड़ियों को गैरेज के अंदर ठूँसते।
यूनुस जब घर जाने के लिए सलाम करता तो मन्नू भार्इ उसे रोकते और फिर कभी दस, कभी बीस रुपए का नोट पकड़ा देते।
अपनी इस छोटी-मोटी कमार्इ से यूनुस बहुत खुश रहता।
नन्हा यूनुस बड़ा जहीन था...
कहा भी जाता है कि ये सिक्खड़े-सरदार और म्लेच्छ-मुसल्ले बड़े हुनरमंद होते हैं। तकनीकी दक्षता में इनका कोर्इ सानी नहीं।
मेहनत और मरम्मत के काम ये कितनी सफार्इ से करते हैं। नार्इ, दर्जी और सब्जियों की दुकानें अधिकांशतः मुसलमानों की हैं। अंडा, मुर्गा, मछली और गोश्त की दुकानों पर भी मुसलमानों का कब्जा है।
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद नगर में हिंदू कसाइयों ने 'झटका' वाली दुकानें लगार्इं। हमीद चिकवा बताता है कि उन लोगों ने अपनी मीटिंग में फैसला लिया है कि 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय हिंदू यदि मांसाहारी हैं तो वे मुसलमान चिकवों से गोश्त न खरीदें, बल्कि 'झटका' वाली दुकानों से गोश्त खरीदें।
इससे मुसलमानों के इस एकछत्र व्यवसाय पर कुछ तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
सिक्खड़ों को तो सन चौरासी में औकात बता दी गर्इ थी। मुसल्लों को गोधरा के बहाने गुजरात में तगड़ा सबक सिखा दिया गया।
सिख तो समझ गए और मुख्यधारा में आ गए, लेकिन इन म्लेच्छ-मुसलमानों को ये कांग्रेसी और कम्युनिस्ट चने के झाड़ पर चढ़ाए रखते हैं। और वो जो एक ठो ललुआ है, वो चारा डकार कर मुसलमानों का मसीहा बना बैठा है।
यूनूस ने कम उम्र में ही जान लिया था कि उसके अस्तित्व के साथ जरूर कुछ गड़बड़ है।
चौक के तिलकधारी मुनीम जी कहा करते - 'अगर ये हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षवादी नपुंसक हिंदू शांत रहें तो 'आर-पार' की बात हो ही जाए। सेकुलर कहते हैं ये शिखंडी साले खुद को।'
उनके हमखयाल चौबेजी हाँ में हाँ मिलाते - 'हिंदू हित की बात करने वाले को ये चूतिए सांप्रदायिक कहते हैं। हमें अछूत समझते हैं।'
शिशु मंदिर के प्रधानपाठक विश्वकर्मा सर कहाँ चुप रहते, वैसे भी उन्हें गुरूर था कि वह इस कस्बे के सर्वमान्य बुद्धिजीवी हैं, किंतु राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित मुनीम जी और चौबे जी उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं देते - 'अब समय आ गया है कि हम अपना 'होमलैंड' बना लें। इन मुसल्लों को द्वितीय नागरिकता मिले और इन्हें मताधिकार से वंचित किया जाए। तुष्टिकरण की सारी राजनीति स्वमेव खत्म हो जाएगी।'
अपने समय की चुनौतियों से बाखबर और बेखबर यूनुस, मन्नू भार्इ को काम करते बड़े ध्यान से देखा करता।
उनकी हरेक स्टाइल की नकल किया करता।
मन्नू भार्इ चाय बहुत पीते थे।
कोर्इ ग्राहक आया नहीं कि आर्डर कर देते - 'यूनुस, तनि भाग कर चारठो चाय ले आ।'
वहीं यूनुस को चाय की आदत पड़ी।
मन्नू भार्इ को अल्सर हो गया था।
सुनते हैं कि अब वह इस दुनिया में नहीं हैं।
सोलह
मोटर साइकिल मिस्त्री मन्नू भार्इ के बाद उसे एक और उस्ताद मिला - 'डाक्टर'। यह कोर्इ एमबीबीएस या झोला छाप डाक्टर का जिक्र नहीं, बल्कि सरदार शमशेर सिंह डोजर ऑपरेटर का किस्सा है।
सरदार शमशेर सिंह कहा करता - 'सर दर्द, कमर दर्द, बुखार की दवा लिखने वाला जब डाक्टर कहलाता है तो तमाम रोगों को दूर भगाने वाली दारू की सलाह देने वाले को डाक्टर क्यों नहीं कहा जाता?'
दूसरे डाक्टर वह होते हैं जो किसी खास विषय पर शोध करते हैं और विश्वविद्यालय से उन्हें 'डाक्टरेट' की डिग्री मिलती है। अधिकांश लोगों को यह डिग्री गहन अध्ययन के पश्चात मिलती हैं और कुछ लोगों को उनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण विश्वविद्यालय स्वयं 'डीलिट' की मानद उपाधि से सम्मानित करता है।
सरदार शमशेर सिंह को दारू के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त थी, इसलिए फुटपथिया विश्वविद्यालय के कुलपतियों ने उसे मानद 'डाक्टरेट' की उपाधि से सम्मानित किया था। डाक्टर की शागिर्दी में यूनुस 'बुलडोजर' और 'पेलोडर' चलाना सीख गया। 'पोकलैन' भी वह बहुत बढ़िया चलाता।
'पोकलैन' हाथी की सूँड़ की तरह का एक खनन-यंत्र है, जिसके 'बूम' और 'बकेट' का 'मूवमेंट' ठीक हाथी के सूँड़ के जैसा है। जिस तरह से कोर्इ हाथी अपनी सूँड़ की मदद से ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से हरी-भरी डालियाँ तोड़कर उसी सूँड़ की सहायता से ग्रास अपने मुँह में डालता है, उसी तरह से 'पेलोडर' मशीन काम करती है।
शायद दुनिया के तकनीशियनों, अभियंताओं, सर्जकों और वास्तुकारों ने प्राकृतिक तत्वों और जीव-जंतुओं की उपस्थिति से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी कुशलता और दक्षता में वृद्धि की है।
कोयला की खुली खदानों और धरती की काया-कल्प कर देने वाली परियोजनाओं की जान हैं ये भीमकाय उपकरण। चाहे विशालकाय पहाड़ कटवा कर चटियल मैदान बना दें या बड़ी-बड़ी नहरें खोद डालें।
यूनुस के हुनर की सभी तारीफ करते। वह 'डाक्टर' का चेला जो ठहरा!
'डाक्टर' अब रिटायर हो चुका है।
अपने खालू का यूनुस इसीलिए अहसान माना करता कि उन्होंने 'डाक्टर' से उसके लिए सिफारिश की। 'डाक्टर' के कारण ठेकेदारों में आज उसकी अपनी 'मार्केट-वैल्यू' है।
खाला ने उसे काफी समझाया था कि वह अपनी जिंदगी को खुद एक नए साँचे में ढाले। अपने बड़े भार्इ सलीम की तरह हड़बड़ी न करे।
जो भी काम सीखे पूरी लगन और र्इमानदारी के साथ सीखे। खाला कहा करती थी - 'सुनो सबकी, लेकिन करो मन की। दूसरों के इशारे पर नाचना बेवकूफी है।'
इसीलिए काम सीखने के लिए यूनुस ने खाला की सलाह मानी।
उसने 'डाक्टर' की दारू या अन्य ऐब नहीं बल्कि उसके हुनर को आत्मसात किया। यही यूनुस की पूँजी थी।
यूनुस ने कोर्इ कसर न छोड़ी काम सीखने में।
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'डाक्टर' को स्वीकार करना पड़ा कि उसने आज तक इतने चेले बनाए किंतु इस 'कटुए' जैसा एक भी नहीं। बहुत से शागिर्द बने, जिनने उससे शराब पीनी सीखी। नशे में धुत रहना सीखा। रंडीबाजी सीखी किंतु काम न सीखा।
इसीलिए यूनुस को वह कहा करता - 'ये बड़ा लायक चेला निकला।' यूनुस को अब भी सिहरन होती है, जाड़े की उन कड़कड़ाती अँधेरी रातों को यादकर। जब कोयले की ओपन-कास्ट खदान के 'डंपिंग-एरिया' में वह डाक्टर के साथ काम सीखने जाया करता था।
सिंगरौली क्षेत्र मे कोयले की बड़ी-बड़ी खुली खदानें हैं।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर कोयले का अकूत भडार है सिंगरौली क्षेत्र में। रिहंद नदी पर बांधा गया विशालकाय बाँध। कोयले और पानी के योग से बिजली बनाने के बड़े-बड़े विद्युत-गृह। लाखों टन कोयले से बनने वाली हजारों मेगावाट बिजली। इस बिजली की राष्ट्रीय पूर्ति में सिंगरौली क्षेत्र की पर्याप्त हिस्सेदारी है।
सिंगरौली क्षेत्र देश का एक प्रमुख ऊर्जा-तीर्थ है।
एक बार में एक सौ बीस टन कोयला ढोकर चलने वाले भीमकाय डंपर। सैकड़ों टन बारूद की ब्लास्टिंग से चूर-चूर चट्टानों का पहाड़ अपनी पीठ पर उठाए, अलमस्त हाथी की तरह झूम-झूम कर चलते डंपर। उन डंपरों के चलने से ऐसा शोर होता ज्यों सैंकड़ों सिंह दहाड़ रहे हो। एक-एक डंपर एक बड़ी फैक्टरी के बराबर हैं।
डंपर के चलने के लिए चौड़ी सड़कें बनार्इ जाती हैं। इन्हें हाल-रोड कहा जाता है। हाल-रोड पर डंपर चलने के पूर्व पानी के टैंकर से जल-सिंचन किया जाता है ताकि धूल के बादल न उठें। बालुर्इ पत्थर की धूल फेफड़े के लिए नुकसानदेह होती है। फेफड़े के छिद्रों में कोयला और पत्थर की धूल के असुरक्षित सेवन से खदान-कर्मियों को न्यूमोकोनियोसिस, सिलकोसिस जैसी बीमारियाँ हो जाती हैं।
सिंगरौली क्षेत्र की कोयला खदानों में बड़ी-बड़ी ड्रेगलाइनें हैं। जमीन की सतह से डेढ़ सौ फीट तक गहरे से मिट्टी खोदकर तीन सौ फीट की दूरी पर ले जाकर 'डंप' करने वाला यंत्र 'ड्रेगलाइन'। यूनुस बड़े शौक से उस भीमकाय यंत्र को चलते हुए देखा करता, एकदम मंत्रमुग्ध होकर। रस्सों के सहारे 'बकेट' का संचालन। लंबे-लंबे 'बूम' पर घिर्रियों के सहारे रस्सों का अद्भुत खेल। 'डाक्टर' उर्फ शमशेर सिंह एक दिन यूनुस को ड्रेगलाइन दिखाने ले गए। पास जाकर उसे डर लगा था। रात का समय। सैकड़ों बल्बों के प्रकाश से ड्रेगलाइन का चप्पा-चप्पा प्रकाशमान था। इतनी रोशनी कि आँखें चुंधिया जाएँ। इतने बल्ब कि गिना न जा सके। मार्चिंग पैड से लेकर बूम के टॉप तक तेज रोशनी के सर्चलारइटें। 'डाक्टर' उसे एक जीप में बिठाकर ड्रेगलाइन तक ले गया था। जीप पाँच सौ मीटर की दूरी पर रोक दी गर्इ। वहाँ से अब पैदल जाना था। उतनी बड़ी ड्रेगलाइन के समक्ष इंसान कितना बौना नजर आता है। हाथी के समीप चींटी की सी हैसियत। ड्रेगलाइन एक घंटे में एक हजार मजदूरों के एक माह काम के बराबर मिट्टी हटाती है। इसे मात्र एक आदमी चलाता है। ड्रेगलाइन-आपरेटर। जिसका वेतन खदान के सभी श्रमिकों से ज्यादा होता है।
ड्रेगलाइन के पीछे दो डोजर लगातार चल रहे थे। वे ड्रेगलाइन की अगली 'सिटिंग' के लिए समतल जगह बना रहे थे।
डाक्टर ने यूनुस से कहा कि घूमती हुर्इ ड्रेगलाइन में चढ़ना होगा। ड्रेगलाइन का मार्चिंग-पैड ही जमीन से बीस फुट ऊँचा था। उस पर सीढ़ी लगी थी। डाक्टर उचक कर उस सीढ़ी पर चढ़ गया और जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ने लगा। यूनुस ने भी उसका पीछा किया। अब वे मार्चिंग-पैड पर थे। ड्रेगलाइन अपनी जगह पर बैठे-बैठे घूम-घूम कर मिट्टी उठाकर फेंक रहा था। फिर डाक्टर पचास फुट ऊँचे मशीन-रूम की तरफ जाने वाली सीढ़ी पर चढ़ने लगा। यूनुस भी पीछे-पीछे चढ़ गया। मशीन-रूम से गरम हवा निकल रही थी, जिससे अब ठंड लगनी कम हो गर्इ थी। मशीन-रूम का दरवाजा बंद था। डाक्टर ने धक्का मारकर दरवाजा खोला तो यंत्रों के चलने से उत्पन्न भयानक शोर से लगा कि कान के पर्दे फट जाएँगे। यूनुस ने कान हाथों से बंद कर लिए। मशीन-रूम में बड़े-बड़े मोटर, जेनेरेटर और जाने कितने उपकरण लगे थे। जिनके चलने से वहाँ शोर था।
डाक्टर युनुस को ड्रेगलाइन की क्रियाविधि के बारे में बताने लगा। डंप-रोप को घुमाने के लिए ड्रम लगा हुआ है। ड्रेग-रोप घुमाने के लिए ड्रम किधर है। यूनुस ने जाना कि आठ-दस फैक्टरियों के बराबर ड्रेगलाइन में मोटर-जेनेरेटर लगे हैं।
फिर वे लोग आपरेटर केबिन की तरफ गए। दो दरवाजा खोलने पर एक कारीडार मिला। जिस पर कालीन बिछा हुआ था। यहाँ तकनीशियन आराम कर रहे थे। डाक्टर ने यहाँ अपना जूता उतारा। यूनुस ने भी जूते उतारे। फिर एक काँच का दरवाजा खोल कर वे आपरेटर केबिन में जा पहुँचे। एकदम वातानुकूलित कमरा। काँच का घर। पीछे तरफ वायरलैस-सेट। बीच में आपरेटर की सीट। जिस पर एक सरदार जी आराम से बैठकर हाथ और पैर के संचालन से ड्रेगलाइन चला रहे थे। यूनुस को लेकर डाक्टर सामने की तरफ आ गया। यहाँ से नीचे कोयले की परत दिखलार्इ दे रही थी। जिसके ऊपर के ओवर-बर्डन को ड्रेगलाइन की बकेट से उठाकर सरदार जी तीन सौ फुट दूर किनारे डाल रहे थे। इस फेंकी हुर्इ मिट्टी का एक नया पहाड़ बनता जा रहा था। बड़ी लय-ताल बद्ध क्रिया थी ड्रेगलाइन की।
ड्रेगलाइन-आपरेटर के सामने और दोनों तरफ जाने कितने लीवर, बटन और सिग्नलिंग-लाइट्स लगे हुए थे। बीच-बीच में सरदारजी कंट्रोल-रूम से वायरलेस के जरिए बात करता जाता था। फिर सरदारजी ने डाक्टर की फरमाइश पर असिस्टेंट से कहा कि डाक्टर को 'पाँगड़ा' सुनवा दे यारा!
यूनुस ने उस दिन वहाँ चाय भी पी। आपरेटर की सुख-सुविधा की वहाँ पूरी व्यवस्था थी। यदि वह थक जाए या उसे हाजत लगी हो तो असिस्टेंट मौजूद रहता, जो ड्रेगलाइन आपरेशन जारी रखता।
ऐसी ही एक और हैरत-अंगेज मशीन है ड्रिलिंग-मशीन। ये जमीन में एक सौ पचास फुट गहरे और एक फुट व्यास के छेद करती है, जिनमें डेढ़ से दो टन बारूद डालकर ब्लास्टिंग की जाती है। एक बार में चार-पाँच सौ टन बारूद की ब्लास्टिंग होती है। आस-पास का इलाका दहल जाता है। धूल और रंग-बिरंगी गैसों के बादल काफी देर तक छाए रहते हैं। कहते हैं कि सिंगरौली क्षेत्र में खदान खुलने से पहले हर तरह के जंगली जानवर रहा करते थे। यह एक अभयारण्य की तरह था। खदान खुलने से जंगलात कम हुए। नगर बसे। जानवर जाने कहाँ गायब हो गए। आज भी सियार, मोर, लोमड़ी और बनमुर्गियाँ यहाँ नजर आते हैं। कर्इ लोग बाघ आदि देखने का दावा भी करते हैं।
धरती के गर्भ में सदियों से छिपी हैं कोयले की मोटी परतें।
कोयले की परत के ऊपर सख्त बालुर्इ परतदार तलछट चट्टानें हैं।
यूनुस ने ओवरमैन मुखर्जी दा से एक बार पूछा था कि दादा, ये कोयला बना कैसे?
बांग्लादेश से राँची आकर बसे मुखर्जी दा के सामने के दो दाँत टूटे हुए हैं। वह कुछ भी कहें, 'हत् श्शाला' कहे बिना अपनी बात पूरी न करते।
उन्होंने बताया कि करोड़ों बरस पूर्व यहाँ घने जंगल हुआ करते थे। फिर महाजलप्लावन हुआ होगा और वे सारे जंगलात पानी में डूब गए होंगे। पेड़-पौधे, वन्य जंतु, वनस्पतियाँ आदि सड़-गलकर कार्बनिक पदार्थों में तब्दील हो गए। कालांतर में उन पर बालू-मिट्टी की परतें जमती चली गर्इं। धीरे-धीरे उच्च ताप और दाब सहते-सहते जंगलात कोयले में बदल गए होंगे। इसीलिए अभी भी इन कोयले की परतों में वृक्षों के फासिल्स यानी जीवाश्म पाए जाते हैं।
कोयला कहीं-कहीं धरती की सतह के काफी नीचे मिलता है। उसकी क्वालिटी अच्छी होती है। उस कोयले को निकालने के लिए सुरंगें बनार्इ जाती हैं या चानक खोदे जाते हैं। ऐसी खदानों को अंडर-ग्राउंड खदानें कहा जाता है।
जिन स्थानों में कोयले की परत धरती की सतह से थोड़ा-बहुत नीचे मिलती है, उन कोयले की परतों का खनन 'ओपन-कास्ट' विधि से किया जाता है। ऐसी खदानें ओपन-कास्ट माइन या खुली खदानें कहलाती हैं।
ब्लास्टिंग के बाद चूर्ण हुर्इ चट्टानों को शावेल जैसे उत्खनन यंत्र खोदकर डंपरों पर लाद देते हैं। इन चट्टानों के चूर्ण को खनन-शब्दावली में 'ओवर-बर्डन' कहा जाता है। ओवर-बर्डन को डंपरों के जरिए डंपिंग एरिया में भेजा जाता है। 'डंपिंग एरिया' में ओवर-बर्डन डंप होते-होते एक पहाड़ सा बन जाता है।
सदियों पुराने पहाड़ कटकर ओवर-बर्डन के नए पहाड़ों में बदल जाते हैं। ओवर-बर्डन के पहाड़ इंसान के हाथ की रचना हैं। इन नए पहाड़ों की चोटियों को समतल कर उन पर वृक्षारोपण किया जाता है।
कोयला निकल जाने के बाद बाकी बचे गड्ढे को कृत्रिम झील में बदल दिया जाता है। इसी डंपिंग-एरिया में बुलडोजर चला करते हैं, जो डंपर द्वारा लार्इ गर्इ चट्टानों को 'डोज' कर समतल बनाता है, ताकि उन पर दुबारा डंपर आकर ओवर-बर्डन की डंपिंग कर सकें।
यूनुस उसी बुलडोजर की आपरेटरी सीखने खदान आया करता।
डंपिंग-एरिया में शेर की तरह दहाड़ते डंपर आते तो उन्हें देख कलेजा दहल जाता। डंपर आपरेटर जब रिवर्स-गियर लगाता तो उसका आडियो-विजुअल अलार्म बजने लगता -पीं पाँ पीं पांकृ...
डंपर पीछे चलकर बुलडोजर से बनार्इ गर्इ मेड़ पर आकर रुकता। फिर डंपर आपरेटर 'डंप लीवर' उठाता और ओवर-बर्डन का ढेर भरभराकर सैकड़ों फुट नीचे गहरार्इ में गिर जाता। कुछ माल मेड़ पर बच जाता जिसे डोजर-आपरेटर, डोजर की सहायता से साफ करता, ताकि अगला डंपर उस जगह पर आकर सुरक्षित 'अनलोड' कर सके।
डंपिंग क्षेत्र में किनारे की मेड़ बनाना ही असली हुनर का काम है। उस मेड़ को 'बर्म' कहा जाता है। अगर ये बर्म कमजोर बने तो डंपर के अनियंत्रित होकर नीचे लुढ़कने का खतरा बना रहता है। असुरक्षित डंपिंग-क्षेत्र में कर्इ दुर्घटनाएँ घट चुकी हैं।
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इससे करोड़ों रुपए की लागत से आयातित डंपर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और कर्इ बार आपरेटर की जान भी जाती है। बुलडोजर से डोजिंग करना एक तरह की कला है। जिस तरह मूर्तिकार छेनी-हथोड़ी से बेजान पत्थरों पर जान फूँकता है, उसी तरह कुशल डोजर-आपरेटर, डोजर की ब्लेड के कलात्मक इस्तेमाल से ऊबड़-खाबड़ धरा का रूप बदल देता है।
यूनुस अपनी बेजोड़ मेहनत और लगन से जल्द ही इस हुनर में माहिर हो गया।
इससे उसके पियक्कड़ उस्ताद 'डाक्टर' का भी लाभ हुआ।
सेकेंड शिफ्ट की ड्यूटी में शाम घिरते ही यूनुस को बुलडोजर पकड़ा कर 'डाक्टर' दारू-भट्टी चला जाता।
कोयला खदान के श्रमिकों और कुछ अधिकारियों के मन में ये धारणा है कि दारू-शराब फेफड़े में जमी कोयले की धूल को काट फेंकती है। साथ ही एक नारा और गूँजता कि दारू के बिना खदान का मजदूर जिंदा नहीं रह सकता।
इसीलिए कोयला-खदान क्षेत्र में दारू के अड्डे बहुतायत में मिलते हैं।
लोक कहते कि मरने के बाद कोयला खदान के मजदूरों को जलाने में लकड़ी कम लगेगी, क्योंकि उनके फेफड़े में वैसे भी कोयले की धूल जमी होगी, जो स्वतः जलेगी।
मुखर्जी दा कहते - 'ये आदमी भी श्शाला गुड क्वालिटी का कोयला होता है।'
यूनुस ने कभी दारू नहीं पी।
हो सकता है इसके पीछे खाला-खालू का डर हो, या मन में बैठी बात कि मुसलमानों के लिए शराब हराम है। ठीक इसी तरह यूनुस बिना तस्दीक के बाहर गोश्त नहीं खाता। उसे पक्का भरोसा होना चाहिए कि गोश्त हलाल है, झटका नहीं। दोस्तों के साथ पार्टी-वार्टी में वह मछली का प्रोग्राम बनवाता या फिर शाकाहारी खाना खाता।
ओपन कास्ट कोयला खदान की हैवी मशीनों को चलाना सीखने के बाद उसमें आत्मविश्वास जागा।
सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, हाँ अब वह बड़ी आसानी से किसी प्राइवेट नौकरी में तीन-चार हजार रुपए महीना का आदमी बन गया था।
खालू ने यूनुस के लिए कोयला-परिवहन करने वाली कंपनी 'मेहता कोल एजेंसी' यानी 'एमसीए' के मैनेजर से बात की।
मैनेजर ने जवाब दिया कि जगह खाली होने पर विचार किया जाएगा।
खालू जान गए कि प्राइवेट में भी हुनर की बदौलत नौकरी का जुगाड़ कर पाना उनके बस की बात नहीं, इसलिए वह हार मान गए।
लेकिन खाला कहाँ हार मानने वाली थीं।
मजदूर यूनियन के नेता चौबेजी से खाला की अच्छी बोलचाल थी। चौबेजी उनके मैके गाँव के थे। कॉलरी में इस तरह के संबंध काफी महत्व रखते हैं।
खाला के निमंत्रण पर चौबेजी एक दिन क्वाटर आए तो यूनुस दौड़कर उनके लिए दो बीड़ा पान ले आया। पान चबाते हुए चौबेजी ने कहा था - 'सबेरे दस बजे मेहतवा के आफिस पर लइकवा को भेज दें। आगे जौन होर्इ तौन ठीकै होर्इ।'
और वाकर्इ, चौबेजी की बात पर उसे अस्थायी तौर पर काम मिल गया।
'परमानेंट' के बारे में चौबेजी को विश्वास दिलाया गया कि काम देखकर जल्द ही बालक को परमानेंट कर दिया जाएगा।
एक बात जरूर यूनुस को सुना दी गर्इ कि कंपनी अपनी आवश्यकतानुसार, काम पड़ने पर अपने कर्मचारियों को देश के किसी भी हिस्से में काम करने भेज सकती है। एमसीए का कारोबार बिहार, बंगाल, झारखंड, एमपी और छत्तीसगढ़ में फैला है। इनमें से किसी भी प्रांत में उन्हें भेजा जा सकता है।
मरता क्या न करता, यूनुस ने तमाम शर्तें मान लीं।
इसके अलावा कोर्इ चारा भी तो न था।
भीमकाय सरकारी डंपरों में लदकर कोयला कोल-यार्ड तक पहुँचता।
वहाँ उनमें से शेल-पत्थर आदि को छाँटा जाता है। कोल-यार्ड को पहली निगाह में कोर्इ बाहरी आदमी कोयला-खदान ही समझेगा। सैकड़ों एकड़ में फैले विस्तृत-क्षेत्र में कोयले के टीले। इन्हें अब प्राइवेट दस-टनिया डंपरों में भरकर रेलवे साइडिंग तक पहुँचाने का काम एमसीए का था। इन दस-टनिया डंपरों से सीधे ग्राहकों तक भी कोयला पहुँचाया जाता।
कोयला-यार्ड में पेलोडर मशीन से दस-टनिया डंपरों में कोयला भरा करता था यूनुस। उसकी कार्यकुशलता, लगनशीलता, कर्मठता और मृदु व्यवहार के कारण मुंशी-मैनेजर उसे बहुत मानते थे। कोर्इ उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।
न जाने क्यों ऐसे हालात बने कि उसे खाला का घर छोड़ने को निर्णय लेना पड़ गया।
वैसे भी उसे लग रहा था कि उसका दाना-पानी अब उठा ही समझो। वो तो अच्छा हुआ कि बड़े भार्इ सलीम की तरह अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में उसकी गिनती नहीं थी। उसकी एक 'मार्केट वैल्यू' बन चुकी है। उसे मालूम था कि इस बहुत कुछ पाने के लिए वह ढेर सारा खो भी रहा है। यानी तपती-चिलचिलाती धूप में घनी आम की छाँह जैसी अपनी सनूबर को...
वह सनूबर को दिल की गहराइयों से प्यार करता था।
फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' का एक मशहूर गाना वह अक्सर गुनगुनाया करता -'ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना।' बिग बी अमिताभ की तर्ज पर इसे यूँ भी कहा जा सकता है - 'सनूबर के बिना जीना भी कोर्इ जीना है लल्लू, अंय...'
क्या अब वह सनूबर से कभी मिल पाएगा?
यूनुस जानता है कि वह सनूबर के लायक नहीं।
मखमल में टाट का पैबंद, यही तो खाला ने उसके बारे में कहा था।
खाला जानती थी कि वह सनूबर को चाहता है। सनूबर भी उसे पसंद करती है, लेकिन सिर्फ एक-दूसरे को चाह लेने से कोर्इ किसी की जीवन-संगिनी तो बन नहीं सकती।
यूनुस के पास सनूबर को खुश रखने के लिए आवश्यक संसाधन कहाँ?
'माना कि दिल्ली मे रहोगे, खाओगे क्या गालिब?'
अब सनूबर उसकी कभी न हो पाएगी!
दुनिया में कुछ इंसान भाग्यवश स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ सी इच्छाएँ भी पूरी नहीं हो पाती हैं... क्यों?
ऐसे ही कितने सवालों से जूझता रहा यूनुस...
सत्रह
प्लेटफार्म के मुख्य-द्वार पर एक लड़की दिखी।
यूनुस चौंक उठा।
कहीं ये सनूबर तो नहीं।
वैसी ही पतली-दुबली काया।
उस लड़की के पीछे एक मोटा आदमी और ठिगनी औरत थी, जो शायद उसके माँ-बाप हों।
वे प्रथम श्रेणी के प्रतीक्षालय की तरफ जा रहे थे।
यूनुस सनूबर को बड़ी शिद्दत से याद करने लगा।
उसे याद आने लगीं वो सब बातें, जिनसे शांत जीवन में हलचल मची।
जमाल साहब का खाला के घर में प्रभाव बढ़ता गया। हरेक मामलात में उनकी दखलंदाजी होने लगी।
रमजान के महीने में वह रात को खाला के घर में ही रुकने लगे। रमजान में सुबह सूरज उगने से पूर्व कुछ खाना पड़ता है, जिसे सेहरी करना कहते हैं। गेस्ट हाउस में कहाँ ताजा रोटी रात के दो-तीन बजे बनती। इसलिए खाला की कृपा से ये जमाल साहब शाम को जो घर आते तो फिर सुबह फजिर की नमाज के बाद ही वापस गेस्ट-हाउस जाते।
र्इद में वह नागपुर जाते, लेकिन खाला और खालू की जिद के कारण वह अपने माता-पिता और भार्इ-बहनों के पास नहीं जा पाए।
जाने कैसा जादू कर रखा था खाला ने उन पर...
असली कारण तो यूनुस को बाद में पता चला।
हुआ ये कि इस बीच एक ऐसी बात हुर्इ कि यूनुस को खाला के घर अपनी औकात का अंदाजा हुआ।
उस दिन उसने जाना कि यदि यहाँ रहना है तो अपमानित होकर रहना होगा।
उसने जाना कि पराधीनता क्या होती है?
उसने जाना कि गरीबी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
उसने जाना कि पराश्रित होकर जीने से अच्छा मर जाना है।
और उसी समय उसके मन में अपने परों के भरोसे अपने आकाश में उड़ने की इच्छा जागी।
हुआ ये कि सनूबर ने यूनुस के कपड़े बिना धोए यूँ ही फींच-फाँच कर सुखा दिए थे। कपड़ों में साबुन लगाया ही नहीं था।
ग्रीस-तेल और पसीने की बदबू कपड़े में समार्इ हुर्इ थी।
यूनुस का पारा सातवें आसमान में चढ़ गया।
उसने आव देखा न ताव, सनूबर की पिटार्इ कर दी।
सनूबर चीख-चीख कर रोती रही।
खाला ने यूनुस को जाहिल, गँवार, खबीस, राच्छस, भुक्खड़, एहसान-फरामोश और भगोड़ा आदि जाने कितनी उपाधियों से नवाजा।
यूनुस उस दिन ड्यूटी गया तो फिर घर लौटकर न आया। उसने कल्लू के घर रहने की ठान ली थी। जैसे अन्य लड़के जीवन गु़जार रहे हैं, वैसे वह भी रह लेगा। खाला के घर में हुर्इ बेइज्जती से उसका मन टूट चुका था।
दूसरे दिन जब वह घर न लौटा तो खालू स्वयं एमसीए की वर्कशाप में आए। उन्होंने यूनुस को घूरकर देखा।
फिर पूछा - 'घर काहे नहीं आता बे!'
यूनुस खालू से बहुत डरता था।
उसकी रूह काँप गर्इ।
उसने कहा - 'ओवर-टाइम कर रहा था। आज आऊँगा।'
खालू मुतास्सिर हुए।
उसकी जान बची।
शाम ड्यूटी से छूटने पर उसने मनोहरा के होटल से गर्मागर्म समोसे खरीदे। साथ में इमली की खटमीठी चटनी रखवार्इ। सनूबर को समोसे बहुत पसंद हैं।
वाकर्इ, उसे किसी ने कुछ न कहा।
सभी ने दिल लगाकर समोसे खाए।
खाला के कहने पर सनूबर ने दो समोसे अपने जमाल अंकल के लिए रख दिए।
उस रात सभी ने लूडो खेली।
जमाल अंकल, खाला, सनूबर और यूनुस।
यूनुस के बगल में सनूबर थी और उसके बगल में जमाल अंकल। टी-टेबल के चारों तरफ बैठे थे वे।
यूनुस ने खेल के दरमियान महसूस किया कि टेबल के नीचे एक दूसरा खेल जारी है। जमाल अंकल के पैर सनूबर के पैर से बार-बार टकराते हैं। ऐसे संपर्क के दौरान दोनों बात-बेबात खूब हँसते हैं।
उसके पल्टे हुए गुलाबी होंठ जब हँसने की मुद्रा में होते तो यूनुस को दीवाना बना जाते थे, लेकिन आज उसे वे होंठ किसी चुड़ैल के रक्त-रंजित होठों की तरह दिखे।
उसे सनूबर की बेवफार्इ पर बड़ा गुस्सा आया।
उस रात खालू की नाइट-शिफ्ट थी।
खालू खाना खाकर ड्यूटी चले गए।
जमाल साहब भी जाना चाहते थे कि टीवी पर गुलाम अली की गजलों का कार्यक्रम आने लगा।
'चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है'
मुरकियों वाली खनकदार आवाज में गु़लाम अली अपनी सुरों का जादू बिखेर रहे थे। यूनुस भी गुलाम अली को पसंद करता था, लेकिन जमाल साहब की रुचि जानकर उसे जाने क्यों गुलाम अली की आवाज नकियाती सी लगी। आवाज ऐसे लगी जैसे पान की सुपारी गले में फँसी हुर्इ हो।
जैसे जुकाम से नाक जाम हो।
वह टीवी के सामने से हट गया।
अंदर किचन में उसका बिस्तर बिछता था।
चटार्इ के साथ गुदड़ी लिपटी रहती। सुबह चटार्इ लपेट दी जाती और रात में वह सोने से पूर्व चटार्इ बिछा लेता। ओढ़ने के लिए एक चादर थी। तकिया वह लगाता न था।
किचन की लाइट बंद हो तब भी बाहर आँगन की रोशनी खिड़की से छनकर किचन में आती। उसे उस धुँधली रोशनी में सोने की आदत थी।
टीवी वाले कमरे से ठहाके गूँज रहे थे।
यूनुस के कान में कुछ अफवाहें पड़ चुकी थीं कि जमाल साहब बड़ा शातिर आदमी है। नागपुर में 'डोनेशन' वाले इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ कर निकला है जमाल साहब। सुनते हैं कि वहाँ वह गुंडा था गुंडा।
उसकी खूब चलती थी वहाँ।
बाहरी लड़कों से महीना वसूली करता था जमाल साहब।
खालू ने उसे घर घुसा कर अच्छा नहीं किया है।
एक के मुँह से यूनुस ने सुना कि जमाल साहब की नजर खुली बोरी और बंद बोरी की शक्कर, दोनों में है।
खुली बोरी और बंद बोरी की बात यूनुस समझ सकता था, क्योंकि फुटपाथी विश्वविद्यालय के कोर्स के मुहावरों में ये भी था।
खुली बोरी यानी खाला और बंद बोरी माने सनूबर!
यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।
गुलाम अली की आवाज किसी तेज छुरी की तरह उसकी गर्दन रेत रही थी -
'तुम्हारे खत में नया इक सलाम किसका था
न था रकीब तो आखिर वो नाम किसका था'
'वफा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कि ये कलाम किसका था'
सनूबर की खिलखिलाहट सुनकर यूनुस का दिल रो रहा था।
उसने करवट लेकर अपने कान को कुहनी से दबा लिया।
आवाज मद्धम हो गर्इ।
नींद लाने के लिए कलमे का विर्द करने लगा -
'ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह।'
पता नहीं उसे नींद आर्इ या नहीं, लेकिन रात अचानक उसे अपना पैजामा गीला लगा।
हाथ से टटोला तो गीली-चिपचिपी हो गर्इं उँगलियाँ, यानी...
उसका दिमाग खराब हो गया।
नींद उचट गर्इ।
पेशाब का दबाव मसाने पर था।
वह उठा।
खिड़की के पल्लों से छनकर पीली रोशनी के धब्बे कमरे में फैले हुए थे। ठीक उसके पैजामे में उतर आए धब्बों की तरह।
उसे कमजोरी सी महसूस हो रही थी। जाने क्यों स्वप्न में हुए स्खलन के बाद उसकी हालत पस्त हो जाती है।
उठने की हिम्मत न हुर्इ।
वह कुछ पल बैठा रहा।
तभी उसके कान खड़े हुए।
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Re: पहचान

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पहले कमरे से फुसफुसाने की आवाज आ रही थी। तख्त भी हौले-हौले चरमरा रहा था।
यूनुस ने किचन से लगे बच्चों के कमरे में झाँका। वहाँ सनूबर अपने अन्य भार्इ-बहनों के साथ सोर्इ हुर्इ थी।
इसका मतलब पहले कमरे में खाला हैं। फिर उनके साथ कौन है? खालू की तो नाइट शिफ्ट है।
यूनुस के मन में जिज्ञासा के साथ भय भी उत्पन्न हुआ।
वह दबे पाँव पहले कमरे के दरवाजे की झिर्रियों से अंदर झाँकने लगा।
पहले कमरे में भी अँधेरा ही था।
हाँ, रोशनदान के जरिए सड़क के खंभे से रोशनी का एक बड़ा टुकड़ा सीधे दीवाल पर आ चिपका था।
अँधेरे की अभ्यस्त उसने तख्त पर निगाहें टिकार्इं।
देखा खाला के साथ जमाल साहब आपत्तिजनक अवस्था में हैं।
उसकी टाँगें थरथराने लगीं।
उसका कंठ सूख गया।
हाथ में जुंबिश होने लगी।
दिल की धड़कनें तेज क्या हुर्इं कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया।
इसी ऊहा-पोह में वहाँ से भागना चाहा कि उसके पैरों की आहट सुनकर खाला की दबी सी चीख निकली।
यूनुस तत्काल अपने बिस्तर पर आकर लेट गया।
पहले कमरे की गतिविधि में विघ्न पैदा हो चुका था। वहाँ से आने वाली आहटें बढ़ीं। फिर बाहर का दरवाजा खुलने की आवाज आर्इ। फिर स्कूटर के स्टार्ट होने की आवाज आर्इ और लगा कि फुर्र से उड़ गर्इ हो स्कूटर।
यूनुस को काटो तो खून नहीं।
आँखें बंद किए, करवट बदले वह अब खाला की हरकतों का अंदाजा लगाने लगा।
लगता है खाला ने पहले बच्चों के कमरे की लाइट जलाकर वहाँ का जायजा लिया है।
अब वह किचन की तरफ आ रही हैं।
लाइट जलाकर यहाँ भी वह यूनुस के पास कुछ देर खड़ी रहीं।
उनका शातिर दिमाग माजरा समझना चाह रहा था।
फिर वह पुनः पहले कमरे में चली गर्इं।
यूनुस की जान में जान आर्इ।
वह उसी तरह पड़ा रहा जबकि पेशाब के जोर से मसाने फटने को थे।
जमाल साहब और खाला की हकीकत, सनूबर का जमाल साहब की तरफ झुकाव और सनूबर के साथ जमाल साहब के रिश्ते को लेकर खाला-खालू के ख्वाब...
पूरी पहेली यूनुस के सामने थी।
उस पहेली का हल भी उसके सामने था।
लेकिन उसमें यूनुस का कोर्इ रोल न था...
इस स्थिति से निपटने के लिए यूनुस के दिमाग में एक बात आर्इ।
क्यों न सनूबर को वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाए! उसके बाद जो होगा, सो होगा।
अठारह
जब यूनुस ड्यूटी से घर लौटा, उस समय दिन के बारह बजे थे।
खाला घर में नहीं थीं। हस्बेमामूल खाला पड़ोसियों के घर बैठने गर्इ हुर्इ थीं।
सनूबर लगता है स्कूल नहीं गर्इ थी और किचन में चावल पका रही थी।
यूनुस आजकल सनूबर से ज्यादा बातें नहीं करता। बस, काम भर की बातें। वह सीधे आँगन में पानी की टंकी की तरफ हाथ-मुँह धोने चला गया।
गमछे से मुँह पोंछते हुए वह पहले कमरे में चला गया। पर्दा उठा हुआ था। बाहर से रोशनी अंदर आ रही थी। शायद बिजली नहीं थी, वरना इस घर में टीवी कम ही बंद रहता है।
यूनुस तख्त पर लेट गया।
उसने आँखें बंद कर लीं।
उसके माथे पर गहरी लकीरें थीं।
सनूबर कब आकर दरवाजे के पास खड़ी हुर्इ उसे पता न चला। जब सनूबर ने दरवाजा खोला तो चूँ... की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुर्इ।
उसने सनूबर के चेहरे को ध्यान से देखा।
उसे लगा कि सनूबर उससे कुछ कहना चाह रही है।
यूनुस उठ बैठा।
उसने सनूबर के पलटे हुए होंठ और भारी पलकों में कैद उदास आँखों को बड़ी हसरत से देखा। कितना प्यार था सनूबर से उसको।
सनूबर तख्त के पास कुर्सी पर बैठ गर्इ।
यूनुस को लगा कि उसके दिल की गहराइयों से आवाज गूँजी हो - 'सनूबर...!'
सनूबर कुछ न बोली।
'सनूबर, तुम्हें मालूम है, तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है।'
यूनुस की बहकी-बहकी बातें सुनकर सनूबर डरी हुर्इ लग रही थी।
'डरो नहीं, ये सच है... तुम्हारे साथ तुम्हारी मम्मी एक खेल खेल रही हैं।'
सनूबर ने अपने कान पर हाथ रख लिए - 'क्या बक रहे हो, यूनुस...?'
'सच सनूबर, तुम्हें जमाल साहब से हुशियार रहना चाहिए। वह बड़ा धोखेबाज है। मैं कैसे कहूँ कि जमाल अंकलवा कितना कमीना है।'
तभी दीवाल घड़ी टनटनार्इ - 'टन्न!'
सनूबर ने घड़ी देखी - 'एक बज गए, मम्मी आती होंगी।'
यूनुस की समझ में न आ रहा था कि बीती रात की दास्तान को वह किन लफ्जों में बयान करे।
फिर भी हिम्मत करके वह बोला - 'सनूबर! वो जमाल सहबवा तुमसे हमदर्दी का दिखावा करता है और जानती हो वो कितना कमीना है कि सुनोगी तो... अच्छा किसी से बताओगी तो नहीं न!'
सनूबर इतने में झुँझला गर्इ।
'नहीं बाबा, किसी से नहीं कहूँगी, तुम बताओ तो सही।'
'तो सुनो, कल रात मैंने अपनी आँखों से देखा। अल्ला-कसम, कलाम-पाक की कसम जो झूठ बोलूँ मुझे मौत आ जाए। मैंने जमाल साहब और खाला को कल रात एक साथ एक बिस्तर पर देखा है सनूबर... तुम्हें विश्वास हो या न हो ये सच है सनूबर...'
सनूबर ने अपने कान बंद कर लिए।
वह रोने लगी।
'कल रात वो हालात देखने के बाद कहाँ सो पाया हूँ, सनूबर!'
यूनुस का मन तो हल्का हुआ लेकिन सनूबर तो जैसे बेजान हो गर्इ।
खाला आर्इं तो यूनुस आँखें बंद किए सोने का नाटक करता रहा।
सनूबर अपने कमरे में लेटी रही।
खाला यूनुस के पास कुर्सी पर बैठ कर चीखीं - 'कहाँ मर गर्इ कुतिया...'
सनूबर ने जवाब न दिया तो उठ कर अंदर गर्इं और सनूबर को झिंझोड़कर उठाते हुए बोलीं - 'कैसे पसरी है महारानी, खाना-वाना बनेगा या आज हड़ताल है? इसीलिए उनसे कहती हूँ कि लड़कियन को पढ़वाइए मत, लेकिन सुनें तब न! आजकल अपने जमाल अंकल की शह पाकर हरामजादी जबान लड़ाना सीख गर्इ है।'
सनूबर कुछ न बोली और उठ बैठी।
यूनुस ने भी आवाज सुनकर नींद खुलने का अभिनय किया।
तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से घर आ गए और संयोग से लाइट भी आ गर्इ। छुटकी जमीला ने बस्ता यूनुस की गोद पर पटककर टीवी ऑन किया।
टीवी से चिपककर घंटों वह कार्टून प्रोग्राम देखा करती है।
यूनुस ने देखा कि सनूबर गाली खाकर भी न उठी तो खाला स्वयं किचन में घुसीं।
खाना तो वैसे तैयार ही था।
बस दाल छौंकना बाकी था।
दुपहर में सब्जी बनती न थी। दाल-भात अचार वगैरा के साथ खाया जाता। खालू 'हरियर मिर्च' के साथ खाना खा लेते थे।
दाल छौंक कर खाला ने यूनुस को आवाज दी।
यूनुस उठा और किचन के पास दालान में अपनी सोने की जगह नंगे फर्श पर बैठ गया।
सनूबर वैसे ही गुमसुम लेटी रही और खाला के संग यूनुस ने खाना खा लिया।
यूनुस जानता था कि सनूबर इतनी आसानी से उसकी बात पर विश्वास करेगी नहीं। वह अपने तर्इं छानबीन जरूर करेगी।
पता नहीं उसने क्या छानबीन की और उससे उसे क्या हासिल हुआ लेकिन अगली सुबह यूनुस ने अपने बिस्तर पर अपनी बगल में गर्माहट पार्इ तो जाना कि सनूबर उसकी बगल में लेटी है।
वह घबरा कर उठ बैठा।
सनूबर ने उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा।
यूनुस ने पहले कमरे और अंदर वाले कमरे की तरफ देखा। आहट लेने की कोशिश की। दीवाल घड़ी पाँच बार टनटनार्इ।
इसका मतलब सभी सो रहे हैं।
खालू तो ड्यूटी गए हुए हैं।
वह सनूबर के बगल में लेट गया।
सनूबर ने उसे बाँहों में भर लिया।
पतली-दुबली सनूबर का नर्म-गुनगुना आलिंगन...
सनूबर उसके कानों में फुसफुसार्इ - 'मुझे भगा कर ले चलो इस जहन्नुम से यूनुस...!'
उस दिन उसे एहसास हुआ कि वह कितना कमजोर आदमी है।
उस दिन उसने फैसला किया कि अब वह अपने लिए एक नर्इ जमीन तलाशेगा...
एक नया आसमान बनाएगा...
एक नए सपने को साकार करेगा...

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Re: पहचान

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एक नर्इ पहचान
एक
घंटी की टनटनाहट के साथ प्लेटफार्म में हलचल मच गर्इ।
रात के ठिठुरते अंधियारे को चीरती पैसेंजर की सीटी नजदीक आती गर्इ और चोपन-कटनी पैसेंजर ठीक साढ़े बारह बजे प्लेटफार्म पर आकर रुकी।
इक्का-दुक्का मुसाफिर गाड़ी से उतरे। पूरी गाड़ी अमूमन खाली थी।
यूनुस जल्दी से इंजन की तरफ भागा। वह इंजिन के पीछे वाली पहली बोगी में बैठना चाहता था। यदि खालू आते भी हैं तो इतनी दूर पहुँचने में उन्हें समय तो लगेगा ही।
पहली बोगी में वह चढ़ गया।
दरवाजे से लगी पहली सीट पर एक साधू महाराज लेटे थे।
अगली लाइन में कोर्इ न था। हाँ, वहाँ अँधेरा जरूर था। वैसे भी यूनुस अँधेरी जगह खोज भी रहा था। उसने अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पर फेंक दिया और ट्रेन से नीचे उतर आया।
वह चौकन्ना सा चारों तरफ देख रहा था।
अचानक उसके होश उड़ गए।
स्टेशन के प्रवेश-द्वार पर खालू नीले ओवर-कोट में नजर आए। उनके साथ एक आदमी और था। वे लोग बड़ी फुर्ती से पहले गाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ गए।
यूनुस तत्काल बोगी पर चढ़ गया और टॉयलेट में जा छिपा।
उसकी साँसें तेज चल रही थीं।
ट्रेन वहाँ ज्यादा देर रुकती नहीं थी।
तभी उसे लगा कि कोर्इ उसका नाम लेकर आवाज दे रहा है - यू...नू...स! यू...नू...स!
यूनुस टॉयलेट में दुबक कर बैठ गया।
गाड़ी की सीटी की आवाज आर्इ और फिर गाड़ी चल पड़ी।
वह दम साधे दुबका रहा।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तब उसकी साँस में साँस आर्इ।
बैग कंधे पर टाँगे हुए ही वह खड़े-खड़े मूतने लगा।
वाश-बेसिन के पानी से उँगलियों को धोते वक्त उसकी निगाहें आर्इने पर गर्इं।
आर्इने के दाहिनी तरफ स्केच पेन से स्त्री-पुरुष के गोपन-संबंधों को बयान करता एक बचकाना रेखांकन बना हुआ था।
यूनुस ने दिल बहलाने के लिए उस टॉयलेट की अन्य दीवारों पर निगाह दौड़ार्इ।
दीवार में चारों तरफ उसी तरह के चित्र बने थे और साथ में अश्लील फिकरे भी दर्ज थे।
यूनुस टॉयलेट से बाहर निकला, लेकिन वह चौकन्ना था।
ट्रेन की खिड़की से उसने बाहर झाँका।
दो पहाड़ियों के बीच से गुजर रही थी गाड़ी। आगे जाकर महदइया की रोशनी दिखार्इ देगी क्योंकि अगला स्टेशन महदइया है।
सिंगरौली कोयला क्षेत्र का आखिरी कोना महदइया यानी गोरबी ओपन-कास्ट खदान।
हो सकता है कि खालू ने खबर की हो तो महदइया स्टेशन में उनके मित्र उसे खोजने आए हुए हों।
पहाड़ियाँ समाप्त हुर्इं और रोशनी के कुमकुम जगमगाते नजर आने लगे।
इसका मतलब स्टेशन करीब है।
महदइया स्टेशन के प्लेटफार्म में प्रवेश करते समय ट्रेन की गति धीमी हुर्इ तो यूनुस पुनः एक टॉयलेट में जा घुसा। वह किसी तरह के खतरे का सामना नहीं करना चाहता था।
उसका अंदाज सही था।
इस प्लेटफार्म पर भी उसे अपने नाम की गूँज सुनार्इ पड़ी। इसका मतलब ये सच था कि खालू ने यहाँ भी अपने दोस्तों को फोन कर दिया था।
वह टॉयलेट में दुबक कर बैठा रहा और पाँच मिनट बाद ट्रेन सीटी बजा कर आगे बढ़ ली।
यूनुस ने राहत की साँस ली।
टॉयलेट से वह बाहर निकला।
उसने देखा कि साधू महाराज के पैर के पास एक स्त्री बैठी है। वह एक देहाती औरत थी। साधू महाराज के वह पाँव दबा रही थी।
यूनुस ने उस सीट के सामने ऊपर वाली बर्थ पर अपना बैग रखा। फिर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ कर शीशे के पार अँधेरे की दीवार को भेदने की बेकार सी कोशिश करने के बाद अपनी बर्थ पर उचक कर चढ़ गया।
उसे नींद आने लगी थी।
एअर-बैग से उसने गर्म चादर निकाली और उसे ओढ़ लिया। एयर-बैग अपने सिरहाने रख लिया ताकि चोरी का खतरा न रहे।
ट्रेन की लकड़ी की बेंच ठंडा रही थी। वैसे तो उसने गर्म कपड़े पर्याप्त मात्रा में पहन रखे थे, लेकिन ठंड तो ठंड ही थी। रात के एक-डेढ़ बजे की ठंड। उसका सामना के करने लिए औजार तो होने ही चाहिए।
वह उठ बैठा और अपनी जेब से सिगरेट निकाल ली। सिगरेट सुलगाते हुए साधू महाराज की तरफ उसकी निगाह गर्इ।
देहाती स्त्री बड़ी श्रद्धा से साधू महाराज के पैर दबा रही थी।
साधू महाराज यूनुस को सिगरेट सुलगाते देख रहे थे। दोनों की निगाहें मिलीं।
यूनुस ने महसूस किया कि वह भी धूम्रपान करना चाहता है।
यूनुस बर्थ से नीचे उतरा।
उसने महाराज की तरफ सिगरेट बढ़ार्इ।
साधू महाराज खुश हुआ।
उसने सिगरेट सुलगार्इ और गाँजा की तरह उस सिगरेट के सुट्टे मार कर बाकी बची सिगरेट स्त्री को दे दी।
स्त्री प्रसन्न हुर्इ।
उसने सिगरेट को पहले माथे से लगाया फिर भोले बाबा का प्रसाद समझ उस सिगरेट को पीने लगी।
स्त्री के बाल लटियाए हुए थे। हो सकता है कि वह सधुआइन बनने की प्रक्रिया में हो। उसके माथे पर भभूत का एक बड़ा सा टीका लगा हुआ था।
उसकी आँखों में शर्मो-हया एकदम न थी। वह एक यंत्रचालित इकार्इ सी लग रही थी। तमाम आडंबर से निरपेक्ष, साधू महाराज की सेवा में पूर्णतया समर्पित...
साधू महाराज ने पूछा - 'कौन बिरादरी का है तू?'
यूनुस को मालूम है कि बाहर पूछे गए ऐसे प्रश्नों का क्या जवाब दिया जाए। जिससे माहौल न बिगड़े और काम भी चल जाए।
एक बार उसने सच बोलने की गलती की थी, जिसके कारण उसे बेवजह तकलीफ उठानी पड़ी थी।
उसे कटनी में स्थित उस धर्मशाला का स्मरण हो आया, जहाँ वह एक रात रुकना चाहता था।
तब सिंगरौली के लिए चौबीस घंटे में एक ट्रेन चला करती थी। कोतमा से वह कटनी जब पहुँचा तब तक सुबह दस बजे चोपन जाने वाल पैसेंजर गाड़ी छूट चुकी थी। अब दो रास्ते बचे थे। वापस कोतमा लौआ जाए या फिर कटनी में ही रहकर चौबीस घंटे बिताए जाएँ। वैसे कटनी घूमने-फिरने लायक नगर तो है ही। कुछ सिनेमाघरों में 'केवल वयस्कों के लिए' वाली पिक्चर चल रही थीं। ट्रेन में ही एक मित्र बना युवक उससे बोला कि चलो, स्टेशन के बाहर एक धर्मशाला है। मात्र दस रुपए में चौबीस घंटे ठहरने की व्यवस्था। खाना इंसान कहीं भी खा लेगा। हाँ, एक ताला पास में होना चाहिए। धर्मशाला में ताला नहीं मिलता। जो भी कमरा मिले उसमे ग्राहक अपना ताला स्वयं लगाता है। यूनुस ने कहा था कि ताला खरीद लिया जाएगा।
वे लोग स्टेशन के बाहर निकले और सड़क के किनारे बैठे एक ताला-विक्रेता से यूनुस ने दस रुपए वाला एक सस्ता सा ताला खरीद लिया।
वे दोनों धर्मशाला पहुँचे।
पीली और गेरुआ मिट्टी से पुती हुर्इ एक पुरानी इमारत का बड़ा सा प्रवेश-द्वार। जिसके माथे पर अंकित था - 'जैन धर्मशाला'।
वे अंदर घुसे।
अंदर द्वार से लगा हुआ प्रबंधक का कमरा था।
उस समय वहाँ कोर्इ भी न था।
सहयात्री ने कहा कि चलो, धर्मशाला देख तो लो।
वे दोनों अंदर की तरफ पहुँचे। दुतल्ला में चारों तरफ कमरे ही कमरे बने थे। बीच में एक उद्यान था। उद्यान के अंदर एक मंदिर। पानी का कुआँ, हैंड-पंप, और नल के कनेक्शन भी थे।
वे वापस आए।
प्रबंधक महोदय आ चुके थे।
वह एक कृशकाय वृद्ध थे।
चश्मे के पीछे से झाँकती आँखें।
उन्होंने रजिस्टर खोल कर लिखना शुरू किया - 'नाम?'
सहयात्री ने बताया - 'कमल गुप्ता।'
- 'पिता का नाम?'
- 'श्री विमल प्रसाद गुप्ता'
- 'कहाँ से आना हुआ और कटनी आने का उद्देश्य?'
- 'चिरमिरी से कटनी आया, रेडियो का सामान खरीदने।'
- 'ताला है न?'
कमल गुप्ता ने बताया - 'हाँ!'
प्रबंधक महोदय ने रजिस्टर में कमल से हस्ताक्षर करवाकर उसे कमरा नंबर पाँच आवंटित किया।
फिर उन्होंने यूनुस को संबोधित किया।
- 'नाम?'
- 'जी, मुहम्मद यूनुस।'
स्वाभाविक तौर पर यूनुस ने जवाब दिया।
प्रबंधक महोदय ने उसे घूर कर देखा। उनकी भृकुटि तन गर्इ थी। चेहरे पर तनाव के लक्षण साफ दिखलार्इ देने लगे।
लंबा-चौड़ा रजिस्टर बंद करते हुए बोले - 'ये धर्मशाला सिर्फ हिंदुओं के लिए है। तुम कहीं और जाकर ठहरो।'
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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