पहचान

Jemsbond
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Re: पहचान

Post by Jemsbond »

फिर बड़े हाफिज्जी ने मश्विरा दिया - 'तुम कहो तो वहाँ के इमाम से इस मंसूब के लिए बात करूँ। अल्लाह चाहेगा तो बात बन भी सकती है।'
नाना ने हामी भर दी।
और इस तरह बात पक्की हुर्इ और फिर उनका निकाह भी हो गया।
शादी के बाद पुरुष की किस्मत बदलती है।
यह बात अब्बा पर भी चरितार्थ हुर्इ।
उन्हें सिंचार्इ विभाग में अस्थायी चपरासी की नौकरी मिली।
उनमें पढ़ने की लगन तो थी ही।
प्राइवेट तौर पर हार्इ स्कूल की परीक्षा में बैठे।
उस साल परीक्षा केंद्र में जम कर नकल हुर्इ।
अब्बा पास हो गए और इस पढ़ार्इ के बदौलत वहीं तरक्की पाकर बाबू बन गए।
'डिस्पेच क्लर्क'।
ठेकेदार के मुंशी वगैरा आते और चिट्ठी-पत्री पाने के लिए खर्चा करते।
इससे थोड़ी बहुत ऊपरी आमदनी भी हो जाती थी।
राज्य-सरकार की नौकरी में वैसे भी तनख्वाह काफी कम थी।
कहते हैं कि अम्मा की शादी के बाद खाला भी पिता जहूर मियाँ को अकेला छोड़कर कोतमा अपनी बड़ी बहिन के ससुराल आ गर्इं।
शायद इसीलिए अब्बा मूड में रहते हैं तो कहते हैं कि एक ठो साली के अलावा मुझे दहेज में कहाँ कुछ मिला। ठग लिया ससुरे ने।
यूनुस ने अपनी अम्मा के मुँह से सुना कि खाला रोया करतीं और अल्लाह से दुआ माँगती कि अल्लाह मियाँ, या तो हमें अपने पास बुला लो या फिर हमरा निकाह करवा दो।
अब्बा और अम्मा के प्रयासों से पास के गाँव की विधवा के इकलौते बेटे से खाला का निकाह हुआ।
खालू फौज में नौकरी करते थे।
खालू की अंधी-बूढ़ी विधवा माँ कतर्इ नहीं चाहती थीं कि उनका लख्ते-जिगर, नूरे-नजर, कुलदीपक पुत्र फौज में भरती होकर जान जोखिम में डाले।
इसीलिए खालू ने अपनी माँ से चोरी-छिपे भरती-अभियान में भाग लिया।
कद-काठी तो ठीक थी ही।
गाँव का खेला-खाया जिस्म।
उनका चयन कर लिया गया था।
वे जानते थे कि माँ राजी न होंगी, सो उन्हें बिना बताए नौकरी ज्वाइन कर ली।
जब ट्रेनिंग के लिए बुलावा आया तो माँ को पता चला।
बेटे की जिद के आगे माँ झुकी।
बूढ़ी विधवा ने बेटे को घर से बाँधने के लिए युक्ति सोची। लगी अपने चाँद से बेटे के लिए कोर्इ हूर-परी सी बहू।
इधर-उधर बात चलार्इ।
फिर जहूर मियाँ की बेटी के बारे यूनुस के अब्बा से जानकारी मिली तो जैसे उनकी मन की मुराद पूरी हुर्इ।
सोचा गरीब घर की लड़की है। दिखावा न करेगी और बेटे की गृहस्थी की गाड़ी को ढंग से खींच ले जाएगी।
सो उन्होंने हामी भर दी।
खाला की उम्र तब तेरह-चौदह की होगी और खालू की चौबीस-पच्चीस।
वैसे कायदे से देखा जाए तो जोड़ी बेमेल थी।
लेकिन गाँव-गिराँव की लड़कियाँ अल्पायु में ही वैवाहिक जीवन की बारीकियाँ जान-समझ जाती हैं।
अरहर के खेत, नदी-नाले के घाट, पनघट-पगडंडी आदि में वे यौन क्रियाओं के गूढ़ सबक सीख जाती हैं।
बकरियाँ चराते-चराते खाला भी कुछ ज्यादा उच्छृंखल हो चुकी थीं।
कहते हैं कि उनके कर्इ आशिक थे।
वह बहुत होशियार थीं।
लाइन सभी को देती थीं, किंतु एक सीमा तक... बस्स!
हाँ, ममदू पहलवान की विनय के आगे उनकी एक न चलती, खाला इस तरह पिघलतीं, जैसे आग के आगे बर्फ।
विवाह के बाद खालू कुछ दिन गाँव में रहे।
खाला के तब दिन दशहरा और रात दीवाली हुआ करती थी।
फिर जैसे ही छुट्टियाँ खत्म हुर्इं, खाला की आँखों में आँसू देकर खालू फौज में वापस लौट गए। उन्होंने सुहागरात में खाला से कर्इ वादे करवाए।
जैसे कि उनकी विधवा माँ की देखभाल के लिए उन्होंने विवाह किया है, इसलिए उनकी देखभाल में कोर्इ चूक न हो।
जैसे कि वे घर में अकेले हैं, गाँव में तमाम खेती योग्य भूमि है, उसे इस्तेमाल लायक बनाया जाए ताकि फौज से रिटायरमेंट लेकर जब वह लौटें, तब आराम से खेती-किसानी करके दिन गुजारे जाएँगे।
जैसे खालू को अपनी और घर की इज्जत से प्यार है, खाला से ऐसा कोर्इ कदम न उठे, जिससे इस घर की मर्यादा पर बट्टा लगे।
खाला प्रेम की पींगें झूलती हर बात पर 'हाँ' कह देतीं।
उन्हें क्या मालूम था कि वादा करना आसान है और उसे निभाना कितना कठिन होता है।
खालू के फौज में वापस लौटते ही उनका मन ससुराल में न लगा।
बूढ़ी अंधी सास बड़ा हुज्जत करती।
बात-बात पर टोकती।
वैसे भी खाला एक आजाद पंछी की तरह अपने मैके में पली-बढ़ी थीं। उन्हें किसी का अंकुश या लगाम कहाँ बर्दाश्त होता।
सास की कल-कल से तंग आकर एक दिन वे अपने मैके चली गर्इं।
खालू की अनुपस्थिति में उनके अधिकतर दिन मैके में ही गुजरे। विवाह हो जाने के बाद ममदू पहलवान से उनका इश्क अब बेधड़क चल निकला। उनके प्रेम की गाड़ी पटरी या बिना पटरी के भी धकाधक दौड़ने लगी।
सात
खालू जब तक बाहर रहते, खाला ज्यादातर अपने मैके में रहती थीं।
खालू के गाँव में पीने का पानी की तकलीफ थी। निस्तार के लिए तो गाँव के बाहर तालाब मे लोग पहुँचते थे। गाँव के बड़े गृहस्थ पटेल के घर एक कुआँ था। उसमें साल भर पानी रहता। खालू की फौज की कमार्इ से खालू की वृद्धा माँ ने एक कुआँ खुदवाया था, जिसमें जेठ महीना छोड़ साल भर पानी रहता था। बुढ़िया ने सोचा था कि बहू आएगी तो उसे आराम रहेगा।
लेकिन बहू को कहाँ थी सास की चिंता।
वह तो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जिंदा थी।
खालू छुट्टियों पर आते तो एक-दो दिन गाँव में रहते, फिर उनका मन उचट जाता। फौज में परिवार की कमी तो खलती है, वरना फौज जैसा सुख और कहाँ?
खालू किसी न किसी बहाने बूढ़ी माँ को मना कर अपने ससुराल चले जाते। वहाँ जाकर खाला के मोहपाश में ऐसा बँधते कि फिर उन्हें दीन-दुनिया का होश न रहता। वे ये भी भूल जाते कि उन्हें फौज में वापस भी जाना है।
खाला के रेशमी रूप का जादू और समर्पण की पेशेवराना अदा का मर्म खालू कहाँ समझ सकते थे। अकाल-ग्रस्त आदमी भूख की शिद्दत में कहाँ तय कर पाता है कि दिया गया खाना जूठा है या बासी। वह तो ताबड़-तोड़ पेट की आग बुझाने में जुट जाता है।
खालू की बूढ़ी माँ इसी गम में असमय मर गर्इं कि उस रंडी, छिनाल बहुरिया ने उसके बेटे पर जाने कैसा जादू कर दिया है। उसके इकलौते बेटे पर उस जादूगरनी ने ऐसा टोना किया कि वह अपनी बूढ़ी माँ को एकदम भूल गया।
सनूबर का जन्म उसके ननिहाल में हुआ।
कर्इ दिन बाद बूढ़ी सास को सूचना मिली कि वह दादी बन गर्इ हैं।
उनकी बहू ने एक लड़की पैदा की है। ये खबर पाकर बुढ़िया ने अपना माथा पीट लिया था।
फिर भी लोक-मर्यादा का लिहाज कर रिश्ते के एक भतीजे को साथ लेकर वह बहू के मैके गर्इं।
खाला छठी नहा चुकी थीं।
वे आँगन में खाट पर बैठी सनूबर के बदन की मालिश कर रही थीं।
बुढ़िया सास को देख उनका माथा ठनका।
फिर भी उन्होंने सलाम किया और दोनों को पैरा से बने मोढ़े पर बिठाया।
घर में उनके भार्इ न थे। केवटिन भाभी भर थी।
खाला ने उन्हें आवाज लगार्इ।
खालू की बुढ़िया माँ ने उन्हें किसी को बुलाने से मना कर दिया।
वैसे भी उस घर में वे खाना-पानी नहीं पी सकती थीं, क्योंकि खाला के भार्इ ने एक कुजात को अपनी ब्याहता बनाकर रखा है।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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बस उन्होंने इतना ही कहा कि एक बार नवजात बच्ची को प्यार करेंगी और फिर चली जाएँगी। हाँ, यदि यहाँ कोर्इ तकलीफ हो तो बहू भी चाहे तो साथ चल सकती है।
सनूबर अपनी दादी की गोद में आकर खेलने लगी।
दादी ने अपने भतीजे से पूछा - 'किस पर गर्इ है बच्ची?'
भतीजा कैसे निर्णय लेता कि बच्ची किस पर गर्इ है।
उसे तो बच्ची सिर्फ रूई का गोला लग रही थी।
हाँ, फिर भी उसने उस बच्ची के चेहरे की कुछ विशेषता बुढ़िया को बताने लगा।
तभी घर में ममदू पहलवान आ गया।
भतीजे ने जो ममदू पहलवान को देखा तो उसे ऐसा लगा कि जैसे बच्ची का चेहरे की बनावट कहीं उस पहलवान से तो नहीं मिलती है?
भतीजा अभी नादान था।
उसने ऐसे ही कह दिया कि इन चचा जैसी तो दिखती है ये लड़की।
खाला के चेहरे का रंग उड़ गया।
ममदू पहलवान के तो जैसे पैरों तले जमीन निकल गर्इ।
भतीजे को क्या पता था कि उसने क्या कह दिया?
बस, फिर क्या था। बुढ़िया सास ने अपने अंधेपन को कोसा और भतीजे से कहा कि तत्काल वापस चले।
उन्होंने वहीं अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनार्इ।
बेटे को सारी बात बताने का संकल्प लिया।
वह इतना नाराज न होतीं यदि उनकी छिनाल बहू ने पोता जना होता या उस नवजात शिशु के नैन-नक्श ददिहाल या ननिहाल किसी पर होते।
बुढ़िया माँ हमेशा ताने दिया करतीं कि उसके बेटे के साथ उस चुड़ैल बहू ने छल किया है। वह बदचलन है। वह बेवा बिचारी क्या करें, उस चुड़ैल ने तो उनके बेटे पर जादू किया हुआ है। उसके गबरू जवान बेटे को नजरबंद करके रखा हुआ है।
लेकिन ये भी सच है कि खालू को इतनी संतानों का पिता कहलाने का गौरव खाला ही ने तो उपलब्ध कराया है।
इसी बात पर वह अपनी सास को प्रताड़ित किया करती - 'अगर तुम्हारे बिटवा जैसे मउगे-फउजी के भरोसे रहती तो इस खानदान में र्इंटा-पथरा भी न हुआ होता। फिर देखते कैसे चलता तेरा वंश!'
फौज का खाया-पिया जिस्म खाला के आगे बौना हो जाता।
नतीजतन खालू जिस बच्चे को सामने पाते, पीट डालते।
यूनुस सब जानता समझता था। वह ये भी जानता था कि दुधारू गाय की लात भी प्यारी होती है। खाला जो खालू की चोरी और कभी सीनाजोरी में अपने गरीब खानदान वालों की माली मदद करती हैं, उसके आगे लोग उनके गुनाह नजरअंदाज कर देते हैं।
इसी तरह खाला सभी की कोर्इ न कोर्इ मजबूरी जानती। उनसे जुड़े तमाम लोग उनके एहसानों के बोझ तले दबे हुए हैं।
खालू को खाला एक पालतू जानवर बना कर रखतीं।
खालू जब कभी गुस्साते तो बच्चों को मारते-पीटते। खाने की थाली पटकते। तमतमाए खालू घर से निकल जाते। लेकिन उनका गुस्सा ज्यादा देर तक टिकता नहीं। जल्द ही वह खाला की लल्लो-चप्पो करने लगते।
आठ
ऐसी बात नहीं है कि खालू की बूढ़ी माँ कलकलहिन थी या कि खाला पर कोर्इ झूठा इल्जाम लगाया गया था।
यूनुस को भी खाला की गैर-जरूरी चंचलता पसंद न आती। उसे लगता कि एक उम्र के बाद इंसान को गंभीर हो जाना चाहिए।
खाला जब गैर मर्दों से ठिठोलियाँ करतीं तो यूनुस का दिमाग खराब हो जाता।
यूनुस अक्सर खाला की दिनचर्या के बारे में सोचा करता। खाला जमाने से बेपरवाह सिर्फ अपनी ही धुन में लगी रहतीं। लगता उन्हें किसी प्रकार की कोर्इ चिंता ही न हो। सिर्फ अपने लिए जीना...
सुबह उठते ही सबसे पहले खाला आर्इने के सामने आ खड़ी होतीं।
होंठ पर बह आए लार और आँख की कीचड़ गमछे के कोर साफ करतीं।
अपने बिखरे बालों को सँवारतीं।
चेहरे को कर्इ कोणों से देखतीं।
फिर आँगन में जाकर टंकी के पानी से कुल्ला करतीं और चेहरे पर पानी के छींटें मारकर तौलिए से रगड़कर चेहरा साफ करतीं।
उसके बाद टूथ-ब्रश में ढेर सारा पेस्ट लगाकर बाहर आँगन में आ जातीं। टूथ-पेस्ट खालू मिलेटरी कैंटीन से लाया करते थे।
बाहर फाटक के पास खड़े होकर अड़ोस-पड़ोस की झाड़ू बुहारती औरतों से गप्प का पहला दौर चलातीं। जिसमें बीती रात के मनगढ़ंत अनुभवों पर दाँत निपोरा जाता। पेस्ट से उत्पन्न झाग क्यारी में थूकते हुए खाला तेज आवाज में हँसतीं।
खाला का सीना और कूल्हे भारी हैं।
बिना अंतर्वस्त्रों के मैक्सी के लबादे में उनके जिस्म के उभार-उतार स्पष्ट दीखते।
खाला का मैक्सी पहनना यूनुस को फूटी आँख न भाता। वैसे भी उनका जिस्म किसी ढोल के आकार का था। ऐसे जिस्म पर सलवार-कुर्ता या फिर साड़ी ठीक रहती। मैक्सी वैसे तो तन ढाँपने का विकल्प होता है। ठीक है कि उसे रात में सोते समय पहना जाए या फिर घर के काम-काज करते हुए जिस्म पर डाल ले इंसान। किसी पराए मर्द के सामने या फिर घर से बाहर निकलने की दशा में इंसान को शालीन पोशाक पहननी चाहिए। या फिर मैक्सी जरूरी ही हो तो किसी के सामने आने से पूर्व दुपट्टा डाल लेना चाहिए।
सनूबर को भी अपनी मम्मी का ये पहनावा पसंद न आता। वह अक्सर उन्हें टोका करती कि मम्मी मैक्सी पहन कर बाहर न निकला करो। मैक्सी तो बेडरूम-ड्रेस होती है।
लेकिन खाला किसी की सही सलाह मान लें तो फिर खाला किस बात की!
मुँह धोने के बाद खाला किचन की तरफ जातीं, जहाँ सनूबर के संग नाश्ता बनाने लगतीं।
नाश्ता-वास्ता के बाद सनूबर बर्तन धोने भिड़ जाती और खाला टंकी के पास टब भर कपड़े लेकर बैठ जातीं। कपड़े धोने के बाद वे वहीं नहाने लगतीं। खाला बाथरूम में कभी नहीं नहाया करतीं थी।
नहा-धोकर खाला बेड-रूम आ जातीं। फिर श्रृंगार-मेज और आलमारी के दरमियान उनका एक घंटा गुजर जाता।
इस बीच सनूबर बर्तन धोकर नहा लेती और स्कूल जाने की तैयारी करने लगती।
तभी खाला की आवाज गूँजती - 'अरे हरामी, हीटर में दाल चढ़ार्इ है या अइसे ही स्कूल भाग जाएगी?'
सनूबर स्कूल ड्रेस पहने बड़बड़ाती हुर्इ किचन में घुसती और कुकर में दाल पकने के लिए चढ़ा देती।
कुकर पुराना हो चुका है, उसका प्रेशर ठीक से बनता नहीं, इसलिए उसमें दाल पकने मे समय लगता है।
सभी बच्चे स्कूल चले जाते और खाला बन-ठन कर बाहर निकल आतीं।
तब तक एक-दो पड़ोसिनें भी खाली हो जातीं।
फिर उनमें गप्पें होतीं तो समय जैसे ठहर जाता।
एक-दो बच्चे हॉफ-टाइम पर घर आते तो भी खाला टस से मस न होतीं। बच्चे स्वयं खाने का सामान खोजकर खाते।
दुपहर के एक बजे के आस-पास औरतों की सभा विसर्जित होती।
घर आकर खाला भात के लिए अदहन चढ़ातीं और जल्दी-जल्दी चावल चुनने बैठ जातीं। चावल पसाकर फुर्सत पातीं, तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से लौटने लगते। दुपहर के खाने में सब्जी कभी बनी तो ठीक वरना अचार के साथ दाल-भात खाना पड़ता। देहाती टमाटर के दिनों में सनूबर जब स्कूल से लौटती तो खालू के लिए टमाटर की चटनी सिल में पीसती थी।
दुपहर खाना खाकर खाला टीवी देखते-देखते सो जातीं।
शाम को नींद खुलती तो फिर वही आर्इने के सामने वाला दृश्य दुहरातीं।
फिर फ्रेश होकर साड़ी-ब्लाउज पहनतीं। साड़ी पहनने का उनका सलीका किसी अफसराइन की तरह का होता। चेहरे को पाउडर-लिपिस्टिक-काजल से सजातीं।
तब तक उन्हीं की तरह उनकी कोर्इ सहेली आ जाती और उसके साथ बाजार निकल जातीं। सब्जियाँ या अन्य सामान वह स्वयं खरीदा करतीं थीं।
खालू तो गेहूँ पिसवाने और चावल-दाल लाने जैसे भारी काम करते।
सात-आठ बजे तक खाला लौटतीं।
फिर सनूबर के साथ बैठकर रात के खाने की तैयारी में लग जातीं।
इस बीच कोर्इ मिलने वाला या वाली आ जाए तो फिर पूछना ही क्या?
बच्चे पढ़ें या फिर उधम-बाजी करें, खाला पर कोर्इ असर न पड़ता।
उन्हें तो हामी भरने वाला मिल जाए तो आन-तान की हाँकती रहेंगी।
सनूबर इसीलिए बड़बड़ाया करती कि मम्मी के कारण घर में इतना हल्ला-गुल्ला मचा रहता है कि पढ़ार्इ में दिल नहीं लग पाता। गप्पें हाँकने के क्रम में खाला घर आए लोगों को चाय-नमकीन भी कराया करतीं। जिसके लिए सनूबर को परेशान होना पड़ता।
ऐसे घर में अनुशासन की कल्पना भी व्यर्थ थी।
नौ
यूनुस याद करने लगा अपनी जिंदगी का वह मनहूस दिन, जब जमाल साहब उसके जीवन में आए और एक निश्चित दिशा में चलती उसकी जीवन की गाड़ी पटरी से उतर गर्इ...
उसे अच्छी तरह याद है वो जुमा का दिन था, क्योंकि उस दिन घर में गोश्त-पुलाव पका था। होता ये कि जुमा की नमाज अदा करके घर आने पर सब एक साथ बैठकर खाना खाते। यूनुस नमाज के बाद पढ़े जाने वाले सलातो-सलाम में शामिल न होता। उसमें इतना धैर्य कहाँ होता। वह फजर नमाज पढ़कर मस्जिद से सबसे पहले भागने वालों में शामिल रहता। वैसे भी वह भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
गर्मी के कारण उसे गोश्त-पुलाव के साथ प्याज खाने का मन हुआ। इसलिए घर आकर यूनुस ने सबसे पहले सब्जी की टोकरी से एक प्याज उठाया। फिर उसे काटने के लिए छुरी खोजने रसोर्इ में घुसा।
सनूबर स्कूली ड्रेस पहने हुए किचन में उकड़ू बैठकर चपड़-चपड़ गोश्त-पुलाव खा रही थी। यूनुस को देख वह मुस्करार्इ और अपने प्लेट से गोश्त की एक बोटी उठाकर यूनुस की ओर बढ़ार्इ। यूनुस ने उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में शरारत और मुहब्बत के मिले-जुले भाव देखे।
यूनुस ने बोटी मुँह के हवाले की।
एकदम रसगुल्ले की तरह मुँह में पिघल गया था गोश्त... वाकर्इ रहमत चिकवा खालू के नाम पर अच्छा गोश्त देता है।
सनूबर ने यूनुस के हाथ में प्याज देखकर उससे प्याज माँग लिया।
खाना खत्म कर प्लेट में ही हाथ धोकर सनूबर एक तश्तरी में प्याज काटने लगी। प्याज के पतले-पतले गोल टुकड़े।
तभी खाला किचन की तरफ आर्इं।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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यूनुस के मुँह को चलता देख उन्होंने पूछा - 'गोश्त कैसा बना है?'
यूनुस ने रहमत चिकवा की बड़ार्इ करते हुए कहा - 'एक नंबर का माल है खाला! रहमतवा खालू के नाम पर माल ठीक देता है।'
वाकर्इ पैसे भी दो और माल भी ठीक न मिले, कितना तकलीफ होता है। कुकर में गलाते-गलाते मर जाओ। गोश्त भी इतना बदबूदार निकल आए कि घिन हो जाए। आदमी गोश्त खाने से तौबा कर ले।
खाला ने कहा - 'अल्लाह का फजल है कि रहमतवा ठीकै गोश्त देता है।'
अमूमन जुमा और इतवार के दिन रहमत चिकवा की दुकान से तीन पाव गोश्त मँगवाया जाता। यूनुस ही गोश्त लेने जाता। कालोनी के बाहर रेलवे लाइन के उस पास नाले के एक तरफ कसाइयों की दुकानें प्रतिदिन सजतीं। रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से कब्जा करके चिकवा लोगों ने अपने घर और दुकानें बना ली थीं। कहते हैं कि आरपीएफ वाले आकर वसूली कर जाते हैं। रेलवे वालों से मिली भगत है सब।
उस अघोषित मुहल्ले को कसार्इ टोला कहा जाता।
रहमत चिकवा खालू के गाँव का था, इसलिए अस्सी रुपए किलो का माल उनके घर साठ रुपए के हिसाब से आता।
यूनुस कभी सोचता कि इतने काम सीखे उसने लेकिन कसार्इ का काम न सीखा। वैसे घर में बकरीद के मौके पर होने वाली कुरबानी में बाहर से कसार्इ न बुलवाया जाता। अब्बू और सलीम भइया बकरे को जिबह कर खालपोशी कर लेते तो यूनुस बोटियाँ बना लेता था। असली कलाकारी तो खाल को सही-सलामत बकरे के जिस्म से अलग करने में है। उस खाल को स्थानीय मदरसे में भेजा जाता। जिसकी नीलामी होती और प्राप्त पैसे से मदरसे की आमदनी हो जाती।
गोश्त लेने खाला यूनुस को सुबह सात बजे दौड़ा देतीं। कहतीं कि चिकवा ससुरे सुबह ठीक माल दिए तो ठीक वरना बाद में दो-नंबरिया माल मिलता है।
सात बजे रहमत अपनी दुकान सजा नहीं पाता था। इसलिए यूनुस सीधे उसके घर चले जाता।
घर के बाहर ही तो गोश्त की दुकान थी।
रहमत चिकवा की एक बेटी थी। साँवली सी नटखट लड़की। नैन-नक्श तीखे। साँवली रंगत।
यूनुस को देख जाने क्यों वह मुस्कराती।
रहमत की बीवी उसे 'बानू' कह कर पुकारती। वह देहाती जुबान में बातें करती।
उसमें एक ही ऐब था। उसके पीले-मटमैले टेढ़े-मेढ़े दाँत। जब वह हँसती या कुछ बोलती तो उसके दाँत बाहर निकल आते और सारा मजा किरकिरा हो जाता।
वह जब भी रहमत के घर जाता, वहाँ टट्टर की चारदीवारी के अंदर बकरियों की मिमियाहट गूँज रही होती और 'बानू' आँगन में झाड़ू लगाते मिलती।
जब वह झुकती तो कुर्ते के कटाव से उसके उभार छलक आते। यूनुस को यकीन है कि 'बानू' जानबूझ कर उसे यह दर्शन-सुख देना चाहती थी।
फिर रहमत के लिए चाय या पानी लेकर आती तो यूनुस भी उसमें शामिल हो जाता।
चाय के कप या गिलास पकड़ाते समय वह आसानी से अपने हाथों का स्पर्श उसके हाथ से होने देती। कप पकड़े वह उसका चेहरा निहारता। बस, यहीं गड़बड़ हो जाती। आँखें मिलते ही 'बानू' मुस्कराती। उसके होंठ पलट जाते और खपरैल से मटमैले दाँत बाहर निकल आते। खूबसूरती का तिलस्म टूट जाता। यूनुस को ऐसा महसूस होता जैसे उसने रहमत की दुकान के कोने में पड़े, बकरों के कटे सिर देखे हों, जिनके दाँत इसी तरह बाहर निकले रहते हैं।
रहमत चिकवा खस्सी के नाम पर कैसा भी गोश्त काट कर बेचने के लिए बदनाम है। ऐसी-वैसी बकरी काट कर रहमत बड़ी सफार्इ से उसके मादा अंगों की गवाही निकाल देता। फिर उस जगह किसी बकरे के नर-अंग बड़ी सफार्इ से 'फिट' कर देता। फिर चीख-चीख कर ग्राहकों को बुलाता - 'अल्ला कसम भार्इजान, खस्सी है खस्सी! एक नंबर का माल!'
मियाँ भार्इ तो अंदाज लगा लेते कि मामला क्या है, लेकिन चोरी-छिपे मटन खाने वाले हिंदू ग्राहक क्या समझते! वे तो वैसे ही नजर बचाकर मटन खरीदने आते या फिर उनके चेले आते। उन्हें बेवकूफ बनाना तो रहमत के बाएँ हाथ का खेल था। वे आसानी से उसके झाँसे में आ जाते।
खालू से अच्छे संबंधों के कारण रहमत चिकवा उन्हें सही माल देता।
दस
किस्सा कोताह ये कि जुमा की नमाज पढ़कर जब खालू घर आए तो वह अकेले न थे। उनके साथ एक युवक था।
खालू ने उन्हें पहले कमरे में प्लास्टिक की कुर्सी पर बिठाया। फिर पसीना पोंछते हुए अंदर आवाज लगार्इ - 'पीछे वाला कूलर बंद है का?'
खाला अंदर से बड़बड़ार्इ - 'बाहर आग बरसन लाग है त मुआ कूलर केतना ठंडक करी?'
वाकर्इ उस बरस गर्मी बहुत पड़ी थी।
फिर खालू ने यूनुस को आवाज देकर घड़े से दो गिलास ठंडा पानी मँगवाया।
यूनुस पानी लेकर आया। देखा कि आगंतुक एक सुदर्शन युवक है। खालू ने उसे इस तरह घूरते देख डाँटा - 'सलाम करो।'
यूनुस ने सलाम किया।
खालू उस व्यक्ति से बतियाने लगे - 'साढ़ू का बेटा है। यहीं 'एमसीए' में पेलोडर चलाता है। आजकल मुसलमानों का हुनर ही तो सहारा है। नौकरी में तो 'मीम' की कटार्इ तो आप देखते ही हैं।'
यहाँ खालू का 'मीम' से तात्पर्य अरबी के 'मीम' वर्ण से था। मीम माने हिंदी का 'म'। दूसरे शब्दों में मीम माने मुसलमान।
आगंतुक के माथे पर बल पड़ गए - 'गल्त बात है भार्इजान, हकीकतन ऐसा नहीं है। मियाँ लोग 'एजूकेशन' पर कहाँ ध्यान देते हैं। अपने पास घर हो न हो, कपड़े-लत्ते हों न हों, बच्चों की किताब-कापी हो न हो लेकिन थोड़ी कमार्इ आर्इ नहीं कि नवाब बन जाएँगे। गोश्त-पुलाव उड़ाएँगे। बच्चे धड़ाधड़ पैदा किए जाएँगे। अल्ला मियाँ हैं ही रिज्क देने के लिए।'
उन साहब ने जैसे यूनुस के मन की बात की हो।
यही तो सच है। खाली-पीली अपने हिंदू भाइयों को कोसना कहाँ तक उचित है। इंसान को पहले अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए। कहाँ कमी है? ये नहीं कि माइक उठाया और लगे कोसने गैरों को।
तब तक खाला भी कमरे में आ गर्इं।
खालू ने आगंतुक से खाला का परिचय, जमाल साहब के नाम से कराया। बताया उनके नए साहब हैं। नागपुर के रहने वाले।
खाला ने उन्हें सलाम किया।
खाला वहीं तख्त पर बैठ कर जमाल साहब का जायजा लेने लगीं। वह बत्तीस-तैंतीस साल के जवान थे। साँवली रंगत और चेहरे पर मोटी मूँछ। कुछ-कुछ संजय दत्त की तरह की हेयर स्टइल। जमाल साहब से खाला ने आदतन पूछा-पाछी शुरू की। पता चला कि उनके वालिद वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड की किसी खदान में कार्मिक प्रबंधक हैं। जमाल साहब की शादी नहीं हुर्इ है, इसीलिए उन्होंने क्वाटर एलॉट नहीं करवाया था। वह आफीसर्स गेस्ट रूम में रहते हैं।
गर्मी के मारे जैसे जान निकली जा रही हो।
खाला अपने आँचल से पंखे का काम लेने लगीं, जिससे उनके पेट का कुछ हिस्सा और छाती दिखने लगी।
जमाल साहब ने जो समझा हो, लेकिन यूनुस को यह सब बहुत बुरा लगा।
खाला जमाल साहब से बेतकल्लुफ हुर्इं और उन्हें खाने का न्योता दिया।
फिर क्या था।
वहीं तख्त पर दस्तरख्वान बिछाया गया।
किचन में सनूबर ने जो सलाद के लिए प्याज काटा था, उसे मेहमान के लिए पेश किया जाने लगा। खालू और जमाल साहब ने साथ-साथ खाना खाया।
बीच में एक बार सालन घटा तो सनूबर को आवाज देकर खालू ने बुलाया था।
सनूबर एक कटोरी सालन पहुँचा आर्इ थी।
सनूबर का सालन पहुँचाना यूनुस को अच्छा नहीं लगा।
खाला ने सनूबर का परिचय जमाल साहब से कराया - 'बड़की बिटिया है। नवमी में पढ़ती है।'
सनूबर ने जमाल साहब को सलाम किया तो खाला ने टोका - 'गधी, खाते समय सलाम नहीं करते न!'
सनूबर झेंप कर भाग गर्इ।
ग्यारह
फिर जमाल साहब खाला के घर अक्सर आने लगे।
खालू घर में हों या न हों, खाला उनकी खूब खातिर-तवज्जो करतीं।
जमाल साहब आते तो टीवी खोलकर बैठ जाते। घर में उर्दू का एक अखबार आता था। खालू सनूबर से उनके लिए भजिए-पकौड़ी तलवातीं। जमाल साहब कड़ी पत्ती और कम चीनी वाली चाय बड़े शौक से पीते। घर में अच्छे कप न थे। खाला ने बर्तन वाले की दुकान से बोन-चायना वाला कीमती कप-सेट खरीदा था।
जमाल साहब का प्रमोशन हुआ तो वह मिठार्इ का डिब्बा लेकर आए।
यूनुस उस दिन घर पर ही था।
रसमलार्इ की दस कटोरियाँ थीं। बनारसी स्वीट्स की खास मिठार्इ।
खाला ने तो रसमलार्इ खाकर ऐलान कर दिया कि अपने इस जीवन में उन्होंने ऐसी उम्दा मिठार्इ कभी न खार्इ थी। खालू ठहरे कंजूस। छेना की मिठार्इ कभी लाते नहीं। फातिहा-दरूद के लिए वही मनोहरा के होटल से खूब मीठे पेड़े ले आते।
कभी कोर्इ आया या किसी के घर गए तो खोवा की मिठाइयाँ या बिस्किट वगैरा से स्वागत होता। रसमलार्इ जैसी मिठार्इ उन्होंने कभी न खार्इ थी।
रसमलार्इ का रस जो कटोरी में बचा था, वे उसे सुड़कते हुए पीने लगीं।
जमाल साहब हँस दिए।
सनूबर, छोटकी और अन्य बच्चों के साथ यूनुस ने भी पूरा स्वाद लेते हुए रसमलार्इ खार्इ।
खाला अपनी देहाती में उतर आर्इं जिसका लब्बोलुआब था कि वाकर्इ दुनिया में एक से एक लजीज चीजें हैं।
इस तरह जमाल साहब उस परिवार में एक सदस्य की तरह शामिल हो गए।
जब उनका मन गेस्ट-हाउस के खाने से ऊब जाता तो वे बिना संकोच खाला के घर आ जाते। वो चाहे कैसा समय हो, खाला और सनूबर, उनके लिए तत्काल कुछ न कुछ खाने की व्यवस्था अवश्य कर देतीं।
जमाल साहब के सामने कभी-कभी खाला सनूबर को डाँटने लगतीं या गरियाने लगतीं तो सनूबर नाराज हो जाती। इस आवाज में सुबकती कि जमाल साहब तक उसके नाक सुड़कने की आवाज पहुँच जाए।
फिर जमाल साहब खाला को समझाते कि इतनी सुघड़-समझदार बिटिया को इस तरह नहीं डाँटा-मारा करते। सनूबर तो घर-रखनी है। सभी का ख्याल रखती है।
सनूबर उन्हें जमाल अंकल कहती।
यूनुस उन्हें साहब ही कहता।
पूरे घरवालों में जमाल साहब की बढ़ती जा रही लोकप्रियता से उसे चिढ़ होने लगी।
चिढ़ का एक और कारण ये भी था कि जमाल साहब के आ जाने से सनूबर अब यूनुस का खास ख्याल नहीं रख पाती।
यूनुस ठेकेदारी मजदूर ठहरा! उसकी ड्यूटी का टाइम बड़ा अटपटा था। कभी अलस्सुबह जाना पड़ता और कभी रात के बारह बजे बुलौवा आ जाता। कभी रात के बारह-एक बजे घर वापस लौटता। कपड़े मैले-कुचैले हो जाते। कपड़ों में ग्रीस-मोबिल के दाग लगे होते।
पहले आदतन वह कपड़े स्वयं धोता था। फिर सनूबर मेहरबानी करके उसके कपड़े धोने लगी। अब ये यूनुस का अधिकार बन गया कि सनूबर ही उसके कपड़े धोए।
जमाल अंकल के कारण सनूबर को अब किचन में कुछ ज्यादा समय देना पड़ता था। खाला तो सिर्फ हा-हा, ही-ही करती रहतीं। कभी पापड़ तलने को कहेंगी, कभी चाय बनाने का आदेश पारित करेंगी।
खालू आ जाते तो वह भी पूछा करते कि साहब की खिदमत में कोर्इ कसर तो नहीं रह गर्इ है।
यूनुस ने यह भी गौर किया कि खाला जमाल साहब के सामने सनूबर को कुछ ज्यादा ही डाँटती हैं।
इससे जमाल साहब उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं। कहते हैं कि बच्चों को प्यार से समझाना चाहिए।
अक्सर इस बात पर सनूबर सुबकने लगती।
जमाल अंकल उसे अपने पास बुलाते और बिठाकर समझाते कि माँ-बाप की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। साथ ही साथ वह खाला को भी समझाते कि बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करें।
फिर वह दिन भी आया कि जमाल साहब ने आफीसर्स गेस्ट हाउस के मेस में खाना बंद कर दिया और खालू के घर में उनका खाना बनने लगा।
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Jemsbond
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Re: पहचान

Post by Jemsbond »

जीप आती और सुबह का नाश्ता करके वह खदान चले जाते। दुपहर के खाने का पक्का नहीं रहता। यदि देर हो जाती तो वे वहीं कहीं केंटीन वगैरा में कुछ खा-पी लेते। रात का खाना वह खालू के घर ही खाते। उन्होंने संकोच के साथ कुछ पैसे भी देने चाहे, लेकिन खाला ने मना कर दिया।
इसके बदले वह स्वयं कभी गोश्त और कभी अन्य सामान के लिए जेब से पैसे निकालकर देते।
कुल मिलाकर वह भी घर के स्थायी सदस्य बन चुके थे।
रात के दस-ग्यारह बजे तक वह घर में डटे रहते। कभी टीवी देखते और कभी बच्चों को पढ़ाने लगते। बच्चों के साथ वह हँसी-मजाक बहुत करते, जिससे बच्चों का मन लगा रहता।
अड़ोसियों-पड़ोसियों के सामने खाला-खालू का सीना चौड़ा होता रहता कि एक अधिकारी उनका रिश्तेदार है। खाला जमाल साहब को अपना दूर का रिश्तेदार बतातीं, उधर खालू उन्हें अपना रिश्तेदार सिद्ध करते। वैसे वह उन दोनों के रिश्तेदार किसी भी कोण से हो नहीं सकते थे क्योंकि खाला-खालू तो एमपी के थे और जमाल साहब नागपुर तरफ के रहने वाले।
लोगों को इससे क्या फर्क पड़ता।
आप अपने घर में जिसे बुलाओ, बिठाओ, खिलाओ-पिलाओ या सुलाओ। इससे मुहल्ले वालों की सेहत में क्या फर्क पड़ सकता है। बस, फुर्सत में सभी उस घर में पनप रहे किसी नए रिश्ते की, किसी नर्इ कहानी के पैदा होने की उम्मीद टाँगे बैठे थे।
यूनुस को जमाल साहब का इस तरह घर में छा जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वह देख रहा था कि खाला भी जमाल साहब के सामने खूब चहकती रहती हैं। सनूबर के भी हाव-भाव ठीक नहीं रहते हैं। सभी जमाल साहब को लुभाने की तैयारी में संलग्न दिखते हैं।
एक दिन यूनुस ने खाला के मुँह से सुना कि वह जमाल साहब को अपना दामाद बनाना चाह रही हैं।
अरे, ये भी कोर्इ बात हुर्इ। कहाँ जमाल साहब और कहाँ फूल सी लड़की सनूबर। दोनों के उम्र में सोलह-सत्रह बरस का अंतर...
क्या ये कोर्इ मामूली अंतर है?
खाला कहने लगीं - 'जब तेरे खालू से मेरा निकाह हुआ तब मैं बारह साल की थी और तेरे खालू तीस बरस के जवान थे। क्या हम लोग में निभ नहीं रही है?'
यूनुस क्या जवाब देता।
सनूबर ने भी तो उस मंसूबे का विरोध नहीं किया था। कहीं उसके मन में भी तो अफसराइन बनने की आकांक्षा नहीं?
यूनुस के पास खानाबदोशी जीवन और असुविधाओं-अभावों का अंबार है जबकि जमाल साहब का साथ माने पाँचों उँगलियाँ घी में होना।
बारह
तभी दूसरी घंटी बजी।
टनननन टन्न टनन...
सिंगरौली के एक स्टेशन पहले से गाड़ी छूटने का सिग्नल। यानी अगले पंद्रह मिनट बाद गाड़ी प्लेटफार्म पर आ जाएगी। यात्रीगण मुस्तैद हुए।
यूनुस के अंदर घर बना चुका डर अभी खत्म न हुआ था। खालू कभी भी आ सकते हैं। उनके सहकर्मी पांडे अंकल इन सब मामलात में बहुत तेज हैं। खालू कहीं उनकी बुल्लेट में बैठ धकधकाते आ न रहे हों। एक बार गाड़ी पकड़ा जाए, उसके बाद 'फिर हम कहाँ तुम कहाँ!'
प्लेटफार्म पर वह ऐसी जगह खड़ा था, जहाँ ठंड से बचने के लिए रेलवे कर्मचारियों ने कोयला जला रखा था। इस जगह से मुख्य द्वार पर आसानी से नजर रखी जा सकती थी। उसने सोच रखा था यदि खालू दिखार्इ दिए तो वह अँधेरे का लाभ उठाकर प्लेटफार्म के उस पार खड़ी माल गाड़ी के पीछे छिप जाएगा। इस बीच यदि पैसेंजर आर्इ तो चुपचाप चढ़कर संडास में छिप जाएगा। फिर कहाँ खोज पाएँगे खालू उसे।
उसे मालूम नहीं कि अब वह घर लौट भी पाएगा या अपने बड़े भार्इ सलीम की तरह इस संसार रूपी महासागर में कहीं खो जाएगा।
यूनुस को सलीम की याद हो आर्इ...
उसे यही लगता कि सलीम मरा नहीं बल्कि हमेशा की तरह घर से रूठ कर परदेस गया है। किसी रोज ढेर सारा उपहार लिए हँसता-मुस्कराता सलीम घर जरूर लौट आएगा।
सलीम, यूनुस की तरह एक रोज घर से भाग कर किसी 'परदेस' चला गया था। 'परदेस' जहाँ नौजवानों की बड़ी खपत है। 'परदेस' जहाँ सपनों को साकार बनाने के ख्वाब देखे जाते हैं। वह 'परदेस' चाहे दिल्ली हो या मुंबर्इ, कलकत्ता हो या अहमदाबाद। उच्च-शिक्षा प्राप्त लोगों का 'परदेस' वाकर्इ परदेस होता है, वह यूएसए, यूके, गल्फ आदि नामों से पुकारा जाता है।
यूनुस अपने गृह-नगर की याद कब का बिसार चुका है। उस जगह में याद रहने लायक कशिश ही कहाँ थी? मध्य प्रदेश के पिछड़े इलाके का एक गुमनाम नगर कोतमा...
आसपास के कोयला खदानों के कारण यहाँ की व्यापारिक गतिविधियाँ ठीक-ठाक चलती हैं।
नगर-क्षेत्र में बाहरी लोग आ बसे और नगर की सीमा के बाहर मूल शहडोलिया सब विस्थापित होते गए। यहाँ रेल और सड़क यातायात की सुविधा है। एक-दो पैसेंजर गाड़ियाँ आती हैं। पास में अनूपपुर स्टेशन है, जहाँ से कटनी या फिर बिलासपुर के लिए गाड़ियाँ मिलती हैं।
कोतमा इस रूट का बड़ा स्टेशन है। लोग कहते हैं कि सफर के दौरान कोतमा आता है तो यात्रियों को स्वयमेव पता चल जाता है। कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़-मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह किस्म के हैं। हल्ला-गुल्ला, अनावश्यक लड़ार्इ-झगड़े की आवाज से यात्रियों को अंदाज हो जाता है कि महाशय, कोतमा आ गया। रेल में पहले से जगह पा चुकी सवारियाँ सजग हो जाती हैं कि कहीं दादा किस्म के लोग उन्हें उठा न फेंकें।
कोतमा में हिंदू-मुसलमान सभी लोग रहते हैं किंतु नगर के एक कोने में एक उपनगर है लहसुर्इ। जिसे कोतमा के बहुसंख्यक 'मिनी पाकिस्तान' कहते हैं। जिसके बारे में कर्इ धारणाएँ बहुसंख्यकों के दिलो-दिमाग में पुख्ता हैं। जैसे लहसुर्इ के बाशिंदे अमूमन जरायमपेशा लोग हैं। ये लोग स्वभावतः अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इनके पास देसी कट्टे-तमंचे, बरछी-भाले और कर्इ तरह के असलहे रहते हैं। लहसुर्इ मे खुले आम गौ-वध होता है। लहसुर्इ के निवासी बड़े उपद्रवी होते हैं। इनसे कोर्इ ताकत पंगा लहीं ले सकती। ये बड़े संगठित हैं। पुलिस भी इनसे घबराती है।
लहसुर्इ और कोतमा के बीच की जगह पर स्थित है यादव जी का मकान। उसी में किराएदार था यूनुस का परिवार।
इमली गोलार्इ के नाम से जाना जाता है वह क्षेत्र।
यादव जी कोयला खदान में सिक्यूरिटी इंस्पेक्टर थे। वे बांदा के रहने वाले थे। घर के इकलौते चिराग। शायद इसीलिए नाम उनका रखा गया था कुलदीप सिंह यादव।
सो गाँव में धर्म-पत्नी खेत और घर की देखभाल किया करतीं। यादव जी इसी कारण परदेस में अकेले ही जिंदगी बसर करने लगे। शुरू में थोड़े अंतराल के बाद छुट्टियाँ लेकर घर जाया करते थे। फिर कोयला खदान क्षेत्र में आसानी से मुँह मारने का जुगाड़ पाकर उनके देस जाने की आवृत्ति कम होती गर्इ।
कुलदीप सिंह यादव जी स्वभाव से चंचल प्रकृति के थे। देस में 'बावन बीघा पुदीना' उगाने वाले यादव जी का, इधर-उधर मुँह मारते-मारते, एक युवा विधवा के साथ ऐसा टाँका भिड़ा कि उनकी भटकती हुर्इ कश्ती को किनारा मिल गया।
वह विधवा पनिका जाति की स्त्री थी। उसने भी कर्इ घाट का पानी पिया था। लगता था कि जैसे वह भी अब थक गर्इ हो। दोनों ने वफादारी की और आजन्म साथ निभाने की कसमें खार्इं।
पनिकाइन, यादव जी के नाम से खूब गाढ़ा सिंदूर अपनी माँग में भरने लगी।
यादव जी भी छिनरर्इ छोड़कर उस पनिकाइन के पल्लू से बँध गए।
धीरे-धीरे उनका छटे-छमाहे देस जाना बंद हुआ और फिर देस में भेजे जाने वाले मनी-आर्डर की राशि में भी कटौती होने लगी।
यादव जी के प्रतिद्वंदियों ने यादव जी की अपने परिजनों से विरक्ति की खबर देस में यादवाइन तक पहुँचार्इ।
यादवाइन बड़ी सीधी-सादी ग्रामीण महिला थी। उसने घर में मेहनत करके बाल-बच्चों को पाला-पोसा था। गाँव-गिराँव के गाय-गोबर, कीचड़-कांदों और बिन बिजली बत्ती की असुविधाओं को झेला था। यादव जी की बेवफार्इ उसे कहाँ बर्दाश्त होती। उसने अपने जवान होते बच्चों के दिलों में पिता के खिलाफ नफरत के बीज बोए।
बच्चे युवा हुए तो उन्हें नाकारा बाप को सबक सिखाने कोतमा भेजा।
बच्चे कोतमा आए और उन्होंने अपने बाप को नर्इ माँ के सामने ही खूब मारा-पीटा।
जब यादव जी लड़कों से दम भर पिट चुके तब कोयला-खदान में बसे उनके जिला-जवारियों ने आकर बीच-बचाव किया।
इस घटना से यादव जी की खूब थू-थू हुर्इ।
मजदूर यूनियन के नेतागण, खदान के कर्मचारीगण और यादव जी के बच्चों के बीच पंचइती हुर्इ। यादव जी की वैध पत्नी के त्याग और धैर्य की तारीफें हुर्इं। यादव जी के चंचल चरित्र और नर्इ पत्नी की वैधता पर खूब टीका-टिप्पणी हुर्इ। फिर सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि बैंक में यादव जी के खाते से प्रत्येक महीने तीन हजार रुपया बांदा में उनकी पत्नी के खाते में स्थानांतरित होगा।
यदि यादव जी इससे इनकार करेंगे तो फिर अंजाम के लिए स्वयं जिम्मेदार होंगे। लड़के जवान हो ही गए हैं।
पनिकाइन छनछनाती रह गर्इ। यादव जी ने इन नर्इ परिस्थितियों से समझौता कर लिया। यादव जी सोच रहे थे कि ये बला कैसे भी टले, टले तो सही।
बैंक मैनेजर ने व्यवस्था बना दी। तनख्वाह जमा होते ही तीन हजार रुपए कोतमा से निकलकर बांदा में उनकी पत्नी के खाते में जमा होने लगे। इस तरह सारे भावनात्मक संबंध खत्म करके बच्चे गाँव वापस चले गए।
यादव जी बाल काले न कराएँ तो एकदम बूढ़े दिखें। दाँत टूट जाने के कारण गाल पिचक गए हैं और चेहरा चुहाड़ सा नजर आता है। बनियाइन-चड्ढी में मकान के बाहर बने खटाल में गाय-भैंस को घास-भूसा खिलाते रहते हैं। पानी मिले दूध के व्यापार की देखभाल स्वयं करते हैं।
पनिकाइन की जवानी अभी ढल रही है। कहते हैं कि स्त्री अपनी अधेड़ावस्था में ज्यादा मादक होती है। यह फार्मूला पनिकाइन पर फिट बैठता है। पाँच फुट ऊँची पनिकाइन। जबरदस्त डील-डौल। भरा-भरा बदन। दूध-घी सहित निश्चिंत जीवन पाकर पनिकाइन कितना चिकना गर्इ है। कहते हैं कि यादव जी को एकदम 'चूसै डार' रही है ये नार!
यूनुस जब बच्चा था तब उसने उन दोनों को खटाल में बिछी खाट पर विवस्त्र गुत्थम-गुत्था देखा था।
ये था यूनुस के फुटपाथी विश्वविद्यालय में कामशास्त्र का व्यवहारिक पाठ्यक्रम...


तेरह
कोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को 'टा-टा' कहके 'परदेस' उड़ जाता है।
कहते हैं कि 'परदेस' मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहाँ नौजवानों की बेहद जरूरत है। जहाँ हिंदुस्तान के सभी प्रांत के युवक काम की तलाश में आते हैं।
ठीक उसी तरह, जिस तरह महानगरों के युवक अच्छे भविष्य की तलाश में विदेश जाने को लालायित रहते हैं।
सुरसा के मुख से हैं ये औद्योगिक मकड़जाल।
बेहतर जिंदगी की खोज में भटकते जाने कितने युवकों को निगलने के बाद भी सुरसा का पेट नहीं भरता। कभी उसका जी नहीं अघाता। उसकी डकार कभी किसी को सुनार्इ नहीं देती। तभी तो हिंदुस्तान के सुदूर इलाकों से अनगिनत युवक अपनी फूटी किस्मत जगाने महानगरों की ओर भागे चले आते हैं।
अपनी जन्मभूमि, गाँव-घर, माँ-बाप, भार्इ-बहन, संगी-साथी और कमसिन प्रेमिकाओं को छोड़कर।
उन युवकों को दिखलार्इ देता है पैसा, खूब सारा पैसा। इतना पैसा कि जब वे अपने गाँव लौटें तो उनके ठाट देखकर गाँव वाले हक्के-बक्के रह जाएँ।
आलोचक लोग दाँतों तले उँगलियाँ दबाकर कहें कि बिटवा, निकम्मा-आवारा नहीं बल्कि कितना हुशियार निकला!
लेकिन क्या उनके ख्वाब पूरे हो पाते हैं।
हकीकतन उनके तमाम मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं।
रुपया कमाना कितना कठिन होता है, उन्हें जब पता चलता तब तक वे शहर के पेट की आग बुझाने वाली भट्टी के लिए र्इंधन बन चुके होते हैं। शुरू में उन्हें शहर से मुहब्बत होती है। फिर उन्हें पता चलता है कि उनकी जवानी का मधुर रस चूसने वाली धनाढ्य बुढ़िया की तरह है ये शहर। जो हर दिन नए-नए तरीके से सज-सँवरकर उन पर डोरे डालती है। उन्हें करारे-करारे नोट दिखाकर अपनी तरफ बुलाती है। सदियों के अभाव और असुविधाओं से त्रस्त ये युवक उस बुढ़िया के इशारे पर नाचते चले जाते हैं।
बुढ़िया के रंग-रोगन वाले जिस्म से उन्हें घृणा हो उठती है, लेकिन उससे नफरत का इजहार कितना आत्मघाती होगा उन्हें इसका अंदाज रहता है।
उन्हें पता है कि देश में भूखे-बेरोजगार युवकों की कमी नहीं। बुढ़िया तत्काल दूसरे नौजवान तलाश लेगी।
शहर में रहते-रहते वे युवक गाँव में प्रतीक्षारत अपनी प्रियतमा को कब बिसर जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चल पाता है। उनकी संवेदनाएँ शहर की आग में जल कर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं जिसमें मतलब भर के कर्इ पते, टेलीफोन नंबर वगैरा दर्ज रहते हैं, सिर्फ उसे एक पते को छोड़कर, जहाँ उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहाँ उनका बचपन बीता था। जहाँ उनके वृद्ध माता-पिता हैं, जहाँ खट्ठे-मीठे प्रेम का 'ढार्इ आखर' वाला पाठ पढ़ा गया था। जहाँ की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं।
हाँ, वे इतना जरूर महसूस करते कि अब इस शहर के अलावा उनका कोर्इ ठिकाना नहीं।
पता नहीं, शहर उन्हें पकड़ लेता है या कि वे शहर को जकड़ लेते हैं।
एक भ्रम उन्हें सारी जिंदगी शहर में जीने का आसरा दिए रहता है कि यही है वह मंजिल, जहाँ उनकी पुरानी पहचान गुम हो सकती है।
यही है वह संसार जहाँ उनकी नर्इ पहचान बन पार्इ है।
यही है वह जगह, जहाँ उन्हें 'फलनवा के बेटा' या कि 'अरे-अबे-तबे' आदि संबोधनों से पुकारा नहीं जाएगा। जहाँ उनका एक नाम होगा जैसे - सलीम, श्याम, मोहन, सोहन...
यही है वह दुनिया, जहाँ चमड़ी की रंगत पर कोर्इ ध्यान नहीं देगा। आप गोरे हों या काले, लंबे हों या नाटे। महानगरीय-सभ्यता में इसका कोर्इ महत्व नहीं है।
यही है वह स्थल, जहाँ वे होटल में, बस-रेल में, नार्इ की दुकान की दुकान में, सभी के बराबर की हैसियत से बैठ-उठ सकेगे।
यहीं है वह मंजिल, जहाँ उनकी जात-बिरादरी और सामाजिक हैसियत पर कोर्इ टिप्पणी नहीं होगी, जहाँ उनके सोने-जागने, खाने-पीने और इठलाने का हिसाब-किताब रखने में कोर्इ दिलचस्पी न लेगा। जहाँ वे एकदम स्वतंत्र होंगे। अपने दिन और रात के पूरे-पूरे मालिक।
लेकिन क्या यह एक भ्रम की स्थिति है? क्या वाकर्इ ऐसा होता है?
फिर भी यदि यह एक भ्रम है तो भी 'दिल के बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है।'। इसी भ्रम के सहारे वे अनजान शहरों में जिंदगी गुजारते हैं। आजीवन अपनी छोटी-छोटी, तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं।
कितने मामूली होते हैं ख्वाब उनके!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Re: पहचान

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एक-डेढ़ घंटे की लोकल बस या रेल-यात्रा दूरी पर मिले अस्थायी काम। एक छोटी सी खोली। करिश्मा कपूर सा भ्रम देती पत्नी। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते बच्चे। टीवी, फ्रिज, कूलर। छोटा सा बैंक बैलेंस कि हारी-बीमारी में किसी के आगे हाथ न पसारना पड़े।
विडंबना देखिए कि उन्हें पता भी नहीं चलता और एक दिन यथार्थ वाली दुनिया बिखर जाती । उस स्वप्न-नगरी के वे एक कलपुर्जे बन जाते।
गाँव-गिराँव से उन्हें खोजती-भटकती खबरें आकर दस्तक देतीं कि बच्चों के लौट आने की आस लिए मर गए बूढ़े माँ-बाप।
खबरें बतातीं कि छोटे भार्इ लोग जमींदार की बेकारी खटते हैं और फिर साँझ ढले गाँजा-शराब में खुद को गर्क कर लेते हैं।
खबरें बतातीं कि उनकी जवान बहनें अपनी तन-मन की जरूरतें पूरी न होने के कारण सामंतों की हवस का सामान बन चुकी हैं।
खबरें बतातीं कि उनकी मासूम महबूबाओं की इंतजार में डूबी रातों का अमावस कभी खत्म नहीं हुआ।
इस तरह एक दिन उनका सब-कुछ बिखर जाता।
ये बिखरना क्या किसी नव-निर्माण का संकेत तो नहीं?
चौदह
खाला का दबाव था, सो खालू को 'एक्शन' में आना ही था।
खालू उसे 'मदीना टेलर' के मालिक बन्ने उस्ताद के पास ले आए।
मस्जिद पारा में स्थित यतीमखाना के सामने अंजुमन कमेटी की तरफ से तीन दुकानें बनार्इ गर्इ हैं। इन दुकानों से यतीमखाना के प्रबंध के लिए आय हो जाती है। ये सभी दुकानें मुसलमान व्यापारियों को ही दी जातीं। एक दुकान में आटा चक्की थी, दूसरे में किराने का सामान और तीसरी दुकान के माथे पर टँगा बोर्ड - मदीना टेलर, सूट-स्पेशलिस्ट
मदीना टेलर के मालिक थे बन्ने उस्ताद। बन्ने उस्ताद एक पारंपरिक दर्जी थे। कहते हैं शुरू में वे लेडीज टेलर के नाम से जाने जाते थे। पैसे कमाकर स्वयं कारीगर रखने लगे, और तब अचानक नाम वाले बन गए। आजकल शादी-ब्याह के अवसर पर मध्यमवर्गीय परिवार दूल्हे के लिए कोट-पैंट जरूर बनवाते हैं। शादी मे जो एक बार थ्री-पीस सूट लड़का पहन लेता है, फिर अपनी जिंदगी में अपने खर्चे से वह कहाँ एक भी सूट सिलवा पाता है। यदि किस्मत से बेटे का बाप बना तो फिर भावी समधी के बजट पर बेटे की शादी में कोट सिलवा सके तो उसका भाग्य! बन्ने उस्ताद शहर से अच्छे कारीगर उठा लाए थे, जिसके कारण उनकी दुकान ठीक चला करती।
उनकी वेशभूषा बड़ी हास्यास्पद रहती। अलीगढ़ी पाजामे पर कढ़ार्इ वाला बादामी कुर्ता। आँखें इस तरह मिचमिचाते ज्यों बहुत तेज धूप में कहीं दूर की चीज को गौर से देख रहे हों। हँसते-बोलते तो ऊबड़-खाबड़ मैले दाँतों के कारण चेहरा चिंपैंजी सा दिखार्इ देता।
यूनुस, बन्ने उस्ताद का हुलिया देख बमुश्किल-तमाम अपनी हँसी रोक सका।
खालू के सामने उन्होंने यूनुस को बड़े प्यार से अपने पास बुलाया। यूनुस ने उन्हें सलाम किया तो बन्ने उस्ताद ने मुसाफा के लिए हाथ बढ़ाया।
यूनुस का हाथ अपने हाथों में लेकर बड़ी देर तक नसीहतों की बौछार करते रहे।
'दर्जीगिरी आसान पेशा नहीं बरखुरदार! टेढ़े-मेढ़े कपड़े सिलकर आज कोर्इ भी दर्जी बन जाता है, हैना...! बड़ा मुश्किल हुनर है टेलरिंग, समझे। शहर के तमाम नामवर टेलर मेरे शागिर्द रहे हैं। 'पोशाक-टेलर्स' वाला मुनव्वर अंसारी हो या 'माडर्न-टेलर' वाले कासिम मियाँ, सभी इस नाचीज की मार-डाँट खाकर आज शान से कमा-खा रहे हैं, हैना...'
खालू उनकी बात के समर्थन में सिर हिला रहे थे।
यूनुस का हाथ उस्ताद ने छोड़ा नहीं था, कभी उनकी पकड़ हल्की पड़ती कभी सख्त। यूनुस चाहता उसके हाथ पकड़ से आजाद हो जाएँ, लेकिन उसने महसूस किया कि उसकी जद्दोजहद को बन्ने उस्ताद भाँप रहे हैं।
वे बड़ी व्यग्रता से अपना यशोगान कर रहे थे और यूनुस की हथेली पसीने से भींग गर्इ। उसने खालू को देखा जो निर्विकार बैठे थे।
अचानक बन्ने उस्ताद ने उसे अपने समीप खींचा। यूनुस ने सोचा कि कहीं ये गोद में बिठाना तो नहीं चाहते।
उसके जिस्म ने विरोध किया।
उसके बदन की ऐंठन को उस्ताद ने महसूस किया और हाथ छोड़ यूनुस की पीठ सहलाने लगे - 'देखो बरखुरदार, हाँ क्या नाम बताया तुमने अपना... हाँ यूनुस। यहाँ कर्इ लड़के काम सीख रहे हैं, हैना... उनसे गप्पबाजी मत करना। जैसा काम मिले, काम करना। सिलार्इ मशीन चलाने की हड़बड़ी मत दिखाना। सीनियरों की बातें मानना। मुझे शिकायत मिली तो समझो छुट्टी हैना...। यदि लगन रहेगी तो एक दिन तुम भी नायाब टेलर बन जाओगे, हैना...'
बन्ने उस्ताद की नसीहतें उसकी समझ में न आर्इं।
हाँ, उनके मुँह से निकलती पायरिया की बदबू से उसका दम जरूर घुटने लगा था।
यूनुस ने उस्ताद के हाथों को अपने जिस्म की बोटियों का हिसाब लगाते पाया। उसने देखा कि दुकान के कारीगर और लड़के मंद-मंद मुस्करा रहे हैं।
लिहाजा उसने 'मदीना टेलर' जाना शुरू कर दिया।
वह सुबह खाला के घर नाश्ता करके निकलता था। दुपहर दो से तीन बजे तक खाना खाने की मुहलत मिलती और रात आठ बजे लड़कों को छुट्टी मिलती। कारीगर ठेका के मुताबिक काफी रात तक काम में व्यस्त रहते। तीज-त्योहार या शादी-ब्याह के अवसर पर तो सारी रात मशीनें चलती रहतीं।
यूनुस का मन दुकान में रमने लगा था। धीरे-धीरे सहकर्मी लड़कों से उसे बन्ने उस्ताद के बारे में कर्इ गोपनीय सूचनाएँ मिलने लगीं।
दुकान में चार सिलार्इ मशीनें और एक पीको-कढ़ार्इ की मशीन थी। सामने एक तरफ बन्ने उस्ताद का काउंटर था। मशीनों के पीछे फर्श पर दरी बिछी हुर्इ थी, जिस पर शागिर्दों का अड्डा होता। यहाँ काज-बटन, तुरपार्इ और तैयार कपड़े पर प्रेस करने का काम होता।
तीनों शागिर्दों से यूनुस का परिचय हुआ। ये सभी बारह-तेरह बरस के कमसिन बच्चे थे।
नाटे कद का बब्बू गठीले बदन का था और यतीमखाने में हाफिज बनने आया था। यतीमखाने की जेल और कठोर अनुशासन से तंग आकर वह बन्ने उस्ताद के यहाँ टिक गया।
दूसरे का नाम जब्बार था जो पास के गाँव की विधवा का बेटा था।
तीसरा बड़ा हीरो किस्म का लड़का था। बिहार के छपरा जिले का रहने वाला। भुखमरी से तंग आकर अपने मामू के घर आया तो फिर यहीं रह गया। गोरा-चिकना खूबसूरत शमीम। बन्ने उस्ताद का मुँहलगा शागिर्द।
शमीम के पीठ पीछे जब्बार और बब्बू उसे 'बन्ने उस्ताद का लौंडा' नाम से याद करते और अश्लील इशारा करके खूब हँसते।
बब्बू से यूनुस की खूब पटती।
उसने यूनुस को अपनी रामकहानी कर्इ खंडों में बतार्इ थी। उनके बीच में खूब निभती। बन्ने उस्ताद उन्हें सिर जोड़े देखते तो काउंटर से चिल्लाते - 'ए लौंडो! गप मारने आते हो का इहाँ?'
बब्बू झारखंड का रहने वाला था। उसके अब्बा बचपन में मर गए थे। वह पेशे से धुनिया थे। नगर-नगर फेरी लगाकर रजार्इ-गद्दे बनाया करते। उनका कोर्इ पक्का पड़ाव न था। खानाबदोशों सी जिंदगी थी।
अब्बा के इंतकाल के दो साल बाद उसकी अम्मी ने दूसरी शादी कर ली। सौतेला बाप बब्बू और उसकी बहिन से नफरत करता। बहिन तो छोटी थी। उसे नफरत-मुहब्बत में भेद क्या पता? हाँ, बब्बू घृणा से भरपूर आँखों का मतलब समझने लगा था। अल्ला मियाँ से यही दुआ माँगा करता कि उसे इस दोजख से जल्द निजात मिल जाए।
तभी गाँव आए मौलवी साहब ने उससे मध्यप्रदेश चलने को कहा। बताया कि वहाँ मुसलमानों की अच्छी आबादी है। एक यतीमखाना भी अभी-अभी खुला है। बच्चे वहाँ कम हैं। यतीमखाने में खाने-रहने की समस्या का समाधान हो जाएगा, साथ ही दीनी तालीम भी वह हासिल कर लेगा।
कहते हैं कि खानदान में यदि कोर्इ एक व्यक्ति कु़रआन मजीद को हिफ्ज (कंठस्थ) कर ले तो उसकी सात पुश्तों को जन्नत में जगह मिलती है। इससे दुनिया सध जाएगी और आखिरत (परलोक) भी सँवर जाएगी। बब्बू की अम्मा मौलवी साहब की बातों से प्रभावित हुर्इं और इस तरह बब्बू उनके साथ यहाँ आ गया।
मस्जिद की छत पर बड़े-बड़े तीन हाल थे।
एक हाल में मौलवी साहब रहा करते। दूसरे हाल में मदरसा चलाया जाता। तीसरा हाल यतीम बच्चों के लिए था।
नहाने-धोने के लिए मस्जिद के बाहर एक कुआँ था, जिसमें तकरीबन दस फुट नीचे पानी मिलता था। यह बारहमासा कुआँ था जो कभी न सूखता। संभवतः समीप के नाले के कारण ऐसा हो।
पेशाब और वजू के लिए तो मस्जिद ही में व्यवस्था थी, किंतु पाखाने जाने के लिए डब्बा लेकर मस्जिद के उत्तर तरफ लिप्टस के जंगल की तरफ जाना पड़ता था। शुरू के कुछ दिन बब्बू का मन वहाँ खूब लगा, किंतु वह गाँव के उस आजाद परिंदे की तरह था जिसे पिंजरे में कै़द रहना नापसंद हो।
वहाँ की यांत्रिक दिनचर्या से उसका मन उचट गया।
फजिर की अजान सुबह पाँच बजे होती। अजान देने से पहले मुअज्जिन चीखते हुए किसी जिन्नात की तरह आ धमकता - 'शैतान के बहकावे में मत आओ लड़कों। जाग जाओ।'
सुबह के समय ही तो बेजोड़ नींद आती है। ऐसी नींद में विघ्न डालना शैतान का काम होना चाहिए। मुअज्जिन खामखा शैतान को बदनाम किया करता। उन मासूम बच्चों की नींद के लिए शैतान तो वह स्वयं बन कर आता।
मुअज्जिन मरदूद आकर जिस्म से चादरें खींचता, और बेदर्दी से उन्हें उठाता। बड़े हाफिज्जी के डर से लड़के विरोध भी न कर पाते। जानते थे कि यदि मुअज्जिन ने बड़े हाफिज्जी से शिकायत कर दी तो गजब हो जाएगा।
किसी तरह मन मारकर लड़के उठते।
आँखें मिचमिचाते कोने में पर्दा की गर्इ जगह पर जाकर ढेर सारा मूतते।
हुक्म था कि नींद में यदि कपड़े या जिस्म नापाक हो गया हो तो नहाना फर्ज है। नापाक बदन से नमाज अदा करने पर अल्लाह तआला गुनाह कभी माफ नहीं करते। ये गुनाह-कबीरा है। उसने किसी लड़के को सुबह उठने के साथ नहाते नहीं देखा था। हाँ, मुअज्जिन या हाफिज्जी जरूर किसी-किसी सुबह नहाया करते थे। इसका मतलब वे रात-बिरात नापाक हुआ करते थे।
उसे तो वजू करना भी अखरता था। कर्इ बार उसने कायदे से आँख-मुँह धोए बगैर नमाज अदा की थी। बाद में दुआ करते वक्त वह अल्लाह तआला से अपनी इस गलती के लिए माफी माँग लिया करता था।
एक सुबह उसने पाया कि उसका पाजामा सामने की तरह गीला-चिपचिपा है। उसने अपने साथी महमूद को यह बात बतलार्इ थी। फिर उसी हालत में बिना नहाए उसने नमाज अदा की थी।
महमूद मुअज्जिन का चमचा था।
उसने मुअज्जिन को सारी बात बतार्इ और मुअज्जिन ने उसकी पेशी हाफिज्जी के सामने कर दी।
हाफिज्जी ने उसके बदन पर छड़ी से खूब धुलार्इ की।
वह खूब रोया।
उसने यतीमखाना से भाग जाने की योजना बनार्इ।
बन्ने उस्ताद की दुकान में लड़कों को काम करते देख वह 'मदीना टेलर' गया। बन्ने उस्ताद ने उसे काम पर रख लिया। मौलवी साहब और हाफिज्जी ने बारहा चाहा कि बब्बू यतीमखाना लौट आए, किंतु बब्बू ने उस मस्जिद में जाना क्या जुमा की नमाज पढ़ना भी बंद कर दिया। वह जुमा पढ़ने एक मील दूर की मस्जिद में जाया करता था।
वहाँ चार कारीगर थे। उनमें से तीन पतले-दुबले युवक थे, जो चौखाने की लुंगी और बनियाइन पहने सिर झुकाए मशीन से जूझते रहते। घंटे-डेढ़ घंटे बाद कोर्इ एक बीड़ी पीने दुकान से बाहर निकलता। बाकी दो उसके लौटने का इंतजार करते। वे एक साथ दुकान खाली न करते। दुकान में काम की अधिकता रहती।
चौथा कारीगर सुल्तान भार्इ थे। इन्हें बन्ने उस्ताद फूटी आँख न सुहाते, लेकिन सुल्तान भार्इ बड़ी 'गुरू' चीज थे।
बन्ने उस्ताद की अनुपस्थिति में सुल्तान भार्इ के हाथों दुकान की कमान रहती।
जब बन्ने भार्इ दुकान में मौजूद रहते तब अक्सर सुल्तान भार्इ के लिए उस्तानी का घर से बुलावा आता। कभी बन्ने भार्इ स्वयं सुल्तान भार्इ को यह कह कर रवाना किया करते कि मियाँ घर चले जाओ, बेगम ने आपको याद किया है। हैना...
सुल्तान भार्इ तीस-पैंतीस के छरहरे युवक थे। हमेशा टीप-टाप रहा करते।
धीरे-धीरे यूनुस ने जाना कि सुल्तान भार्इ का बन्ने उस्ताद की बीवी के साथ चक्कर चलता है। बन्ने उस्ताद अपने चिकने शागिर्द छपरइहा लौंडे शमीम के इश्क में गिरफ्तार हैं और जागीर लुटाने को तैयार रहते हैं।
'मदीना टेलर' में तीन माह गुजारे थे उसने। इस अवधि मे उससे काज-बटन, तैयार कपड़ों में प्रेस और तुरपार्इ के अलावा कोर्इ काम न लिया गया। काज-बटन लगाते और तुरपार्इ करते उसकी उँगलियाँ छिद गर्इं। सुर्इ के बारीक छेद में धागा डालते-डालते आँखें दुखने लगीं, लेकिन उस्ताद उसे कैंची और इंची टेप पकड़ने न देते।
कारीगर सत्तर-अस्सी की रफ्तार में सिलार्इ मशीन दौड़ाते। जाने कितने मील सिलार्इ का रिकार्ड वे बना चुके होंगे। यूनुस का मन करता कि उसे भी 'एक्को बार' सिलार्इ मशीन चलाने का मौका मिल जाता।
ऐसा ही दुख उसे तब भी हुआ था जब तकरीबन साल भर दिल लगाकर फील्डिंग करवाने के बाद भी उन नामुराद लड़कों ने उसे बल्लेबाजी का अवसर प्रदान नहीं किया था।
हुआ ये कि मुहल्ले में मुगदर के बल्ले और कपड़े की गेंद से क्रिकेट खेलते-खेलते उसके मन में आया कि वह भी असली क्रिकेट क्यों नहीं खेल सकता है?
वह नगर के अमीर लड़कों की जी-हुजूरी करते-करते उनके साथ क्रिकेट खेलने जाने लगा था।
डाक्टर चतुर्वेदी का लड़का बंटी और दवा दुकान वाले गोयल का लड़का सुमीत क्रिकेट टीम के सर्वेसर्वा थे। बाहर से उन लोगों ने क्रिकेट का काफी सामान मँगवाया था। मैदान के पीछे चपरासी का घर था, जहाँ वे लोग खेल का सामान रखते थे। उन लोगों के पास असली बेट, बॉल, स्टंप्स, ग्लब्स, हेलमेट और लेग गार्ड आदि सामान थे।
जब उसने साल भर के निष्ठापूर्ण खेल सहयोग के एवज में बल्लेबाजी का अवसर पाने की बात कही तो वे सभी हँस पड़े।
बंटी ने कहा कि यदि वह वाकर्इ क्रिकेट के लिए सीरियस है तो उसे एक सौ रुपए महीने की मेंबरशिप देनी होगी।
'झोरी में झाँट नहीं सराए में डेरा' - यही तो कहा था सुमीत ने।
मन मसोस कर रह गया था यूनुस।
वहाँ बल्लेबाजी करने को न मिली और यहाँ बन्ने उस्ताद के सख्त आदेश के कारण सिलार्इ मशीन पर हाथ साफ करने का मौका न मिल पा रहा था।
घर में हाथ से चलने वाली सिलार्इ मशीन है। अम्मा को सिलार्इ आती नहीं थी। अब्बू ही कभी सिलार्इ करने बैठते तो यूनुस या बेबिया से हैंडल घुमाने को कहते। उस मशीन में सिलार्इ बहुत धीमी गति से होती। पैर से चलने वाली मशीन यूँ फर्र...फर्र... चलती कि क्या कहने!
बन्ने उस्ताद कभी मूड में होते तो बताते कि बड़े शहरों में आजकल बिजली के मोटर से 'एटोमेटिक' मशीनें चलती हैं। ऐसी-ऐसी दुकानें हैं जहाँ सैकड़ों मशीनें घुरघुराती रहती हैं।
यहाँ जैसा नहीं कि एक दिन में एक कारीगर दो जोड़ी कपड़े सिल ले, तो बहुत। वहाँ एक आदमी एक बार में कोर्इ एक काम करता है। जैसे कुछ लोग सिर्फ कालर सिलते हैं। कुछ आस्तीन सिलते हैं। कुछ आगा तैयार करते हैं। कुछ पीछा तैयार करते हैं। कुछ कारीगरों के पास आस्तीन जोड़ने का काम रहता है। कुछ के पास कालर फिट करने का काम। कुछ कारीगर 'फाइनल टच' देकर कपड़े को तैयार माल वाले सेक्शन भेज देते हैं। जहाँ कपड़े पर प्रेस किया जाता है और उन्हें डब्बों में बंद किया जाता है। एकदम किसी फैक्ट्री की तरह होता है सारा काम।
यूनुस इच्छा जाहिर करता कि कपड़ा कटिंग का काम मिल जाए या सिलार्इ मशीन में ही बैठने दिया जाए।
बन्ने उस्ताद हिकारत से हँसकर जवाब देते - 'अभी तो मँजार्इ चल रही है मियाँ, इतनी जल्दी उस्तादी सिखा दी तो मेरी हँसार्इ होगी। लोग कहेंगे कि बन्ने उस्ताद ने कैसा शागिर्द तैयार किया है।'
इसके अलावा बन्ने उस्ताद की एक आदत उसे नापसंद थी। बन्ने उस्ताद काम सिखाते वक्त उसकी जाँघ पर चिकोटियाँ काटते, पीठ थपथपाते और उनका हाथ कब बहककर कमर के नीचे पहुँच जाता उन्हें खयाल ही न रहता।
उनकी अनुपस्थिति में लड़के उस्ताद की हरकतों पर खूब मजाक किया करते।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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