पहचान

Jemsbond
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Re: पहचान

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इससे करोड़ों रुपए की लागत से आयातित डंपर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और कर्इ बार आपरेटर की जान भी जाती है। बुलडोजर से डोजिंग करना एक तरह की कला है। जिस तरह मूर्तिकार छेनी-हथोड़ी से बेजान पत्थरों पर जान फूँकता है, उसी तरह कुशल डोजर-आपरेटर, डोजर की ब्लेड के कलात्मक इस्तेमाल से ऊबड़-खाबड़ धरा का रूप बदल देता है।
यूनुस अपनी बेजोड़ मेहनत और लगन से जल्द ही इस हुनर में माहिर हो गया।
इससे उसके पियक्कड़ उस्ताद 'डाक्टर' का भी लाभ हुआ।
सेकेंड शिफ्ट की ड्यूटी में शाम घिरते ही यूनुस को बुलडोजर पकड़ा कर 'डाक्टर' दारू-भट्टी चला जाता।
कोयला खदान के श्रमिकों और कुछ अधिकारियों के मन में ये धारणा है कि दारू-शराब फेफड़े में जमी कोयले की धूल को काट फेंकती है। साथ ही एक नारा और गूँजता कि दारू के बिना खदान का मजदूर जिंदा नहीं रह सकता।
इसीलिए कोयला-खदान क्षेत्र में दारू के अड्डे बहुतायत में मिलते हैं।
लोक कहते कि मरने के बाद कोयला खदान के मजदूरों को जलाने में लकड़ी कम लगेगी, क्योंकि उनके फेफड़े में वैसे भी कोयले की धूल जमी होगी, जो स्वतः जलेगी।
मुखर्जी दा कहते - 'ये आदमी भी श्शाला गुड क्वालिटी का कोयला होता है।'
यूनुस ने कभी दारू नहीं पी।
हो सकता है इसके पीछे खाला-खालू का डर हो, या मन में बैठी बात कि मुसलमानों के लिए शराब हराम है। ठीक इसी तरह यूनुस बिना तस्दीक के बाहर गोश्त नहीं खाता। उसे पक्का भरोसा होना चाहिए कि गोश्त हलाल है, झटका नहीं। दोस्तों के साथ पार्टी-वार्टी में वह मछली का प्रोग्राम बनवाता या फिर शाकाहारी खाना खाता।
ओपन कास्ट कोयला खदान की हैवी मशीनों को चलाना सीखने के बाद उसमें आत्मविश्वास जागा।
सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, हाँ अब वह बड़ी आसानी से किसी प्राइवेट नौकरी में तीन-चार हजार रुपए महीना का आदमी बन गया था।
खालू ने यूनुस के लिए कोयला-परिवहन करने वाली कंपनी 'मेहता कोल एजेंसी' यानी 'एमसीए' के मैनेजर से बात की।
मैनेजर ने जवाब दिया कि जगह खाली होने पर विचार किया जाएगा।
खालू जान गए कि प्राइवेट में भी हुनर की बदौलत नौकरी का जुगाड़ कर पाना उनके बस की बात नहीं, इसलिए वह हार मान गए।
लेकिन खाला कहाँ हार मानने वाली थीं।
मजदूर यूनियन के नेता चौबेजी से खाला की अच्छी बोलचाल थी। चौबेजी उनके मैके गाँव के थे। कॉलरी में इस तरह के संबंध काफी महत्व रखते हैं।
खाला के निमंत्रण पर चौबेजी एक दिन क्वाटर आए तो यूनुस दौड़कर उनके लिए दो बीड़ा पान ले आया। पान चबाते हुए चौबेजी ने कहा था - 'सबेरे दस बजे मेहतवा के आफिस पर लइकवा को भेज दें। आगे जौन होर्इ तौन ठीकै होर्इ।'
और वाकर्इ, चौबेजी की बात पर उसे अस्थायी तौर पर काम मिल गया।
'परमानेंट' के बारे में चौबेजी को विश्वास दिलाया गया कि काम देखकर जल्द ही बालक को परमानेंट कर दिया जाएगा।
एक बात जरूर यूनुस को सुना दी गर्इ कि कंपनी अपनी आवश्यकतानुसार, काम पड़ने पर अपने कर्मचारियों को देश के किसी भी हिस्से में काम करने भेज सकती है। एमसीए का कारोबार बिहार, बंगाल, झारखंड, एमपी और छत्तीसगढ़ में फैला है। इनमें से किसी भी प्रांत में उन्हें भेजा जा सकता है।
मरता क्या न करता, यूनुस ने तमाम शर्तें मान लीं।
इसके अलावा कोर्इ चारा भी तो न था।
भीमकाय सरकारी डंपरों में लदकर कोयला कोल-यार्ड तक पहुँचता।
वहाँ उनमें से शेल-पत्थर आदि को छाँटा जाता है। कोल-यार्ड को पहली निगाह में कोर्इ बाहरी आदमी कोयला-खदान ही समझेगा। सैकड़ों एकड़ में फैले विस्तृत-क्षेत्र में कोयले के टीले। इन्हें अब प्राइवेट दस-टनिया डंपरों में भरकर रेलवे साइडिंग तक पहुँचाने का काम एमसीए का था। इन दस-टनिया डंपरों से सीधे ग्राहकों तक भी कोयला पहुँचाया जाता।
कोयला-यार्ड में पेलोडर मशीन से दस-टनिया डंपरों में कोयला भरा करता था यूनुस। उसकी कार्यकुशलता, लगनशीलता, कर्मठता और मृदु व्यवहार के कारण मुंशी-मैनेजर उसे बहुत मानते थे। कोर्इ उसे छोड़ने को तैयार नहीं था।
न जाने क्यों ऐसे हालात बने कि उसे खाला का घर छोड़ने को निर्णय लेना पड़ गया।
वैसे भी उसे लग रहा था कि उसका दाना-पानी अब उठा ही समझो। वो तो अच्छा हुआ कि बड़े भार्इ सलीम की तरह अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में उसकी गिनती नहीं थी। उसकी एक 'मार्केट वैल्यू' बन चुकी है। उसे मालूम था कि इस बहुत कुछ पाने के लिए वह ढेर सारा खो भी रहा है। यानी तपती-चिलचिलाती धूप में घनी आम की छाँह जैसी अपनी सनूबर को...
वह सनूबर को दिल की गहराइयों से प्यार करता था।
फिल्म 'मुकद्दर का सिकंदर' का एक मशहूर गाना वह अक्सर गुनगुनाया करता -'ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना।' बिग बी अमिताभ की तर्ज पर इसे यूँ भी कहा जा सकता है - 'सनूबर के बिना जीना भी कोर्इ जीना है लल्लू, अंय...'
क्या अब वह सनूबर से कभी मिल पाएगा?
यूनुस जानता है कि वह सनूबर के लायक नहीं।
मखमल में टाट का पैबंद, यही तो खाला ने उसके बारे में कहा था।
खाला जानती थी कि वह सनूबर को चाहता है। सनूबर भी उसे पसंद करती है, लेकिन सिर्फ एक-दूसरे को चाह लेने से कोर्इ किसी की जीवन-संगिनी तो बन नहीं सकती।
यूनुस के पास सनूबर को खुश रखने के लिए आवश्यक संसाधन कहाँ?
'माना कि दिल्ली मे रहोगे, खाओगे क्या गालिब?'
अब सनूबर उसकी कभी न हो पाएगी!
दुनिया में कुछ इंसान भाग्यवश स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ सी इच्छाएँ भी पूरी नहीं हो पाती हैं... क्यों?
ऐसे ही कितने सवालों से जूझता रहा यूनुस...
सत्रह
प्लेटफार्म के मुख्य-द्वार पर एक लड़की दिखी।
यूनुस चौंक उठा।
कहीं ये सनूबर तो नहीं।
वैसी ही पतली-दुबली काया।
उस लड़की के पीछे एक मोटा आदमी और ठिगनी औरत थी, जो शायद उसके माँ-बाप हों।
वे प्रथम श्रेणी के प्रतीक्षालय की तरफ जा रहे थे।
यूनुस सनूबर को बड़ी शिद्दत से याद करने लगा।
उसे याद आने लगीं वो सब बातें, जिनसे शांत जीवन में हलचल मची।
जमाल साहब का खाला के घर में प्रभाव बढ़ता गया। हरेक मामलात में उनकी दखलंदाजी होने लगी।
रमजान के महीने में वह रात को खाला के घर में ही रुकने लगे। रमजान में सुबह सूरज उगने से पूर्व कुछ खाना पड़ता है, जिसे सेहरी करना कहते हैं। गेस्ट हाउस में कहाँ ताजा रोटी रात के दो-तीन बजे बनती। इसलिए खाला की कृपा से ये जमाल साहब शाम को जो घर आते तो फिर सुबह फजिर की नमाज के बाद ही वापस गेस्ट-हाउस जाते।
र्इद में वह नागपुर जाते, लेकिन खाला और खालू की जिद के कारण वह अपने माता-पिता और भार्इ-बहनों के पास नहीं जा पाए।
जाने कैसा जादू कर रखा था खाला ने उन पर...
असली कारण तो यूनुस को बाद में पता चला।
हुआ ये कि इस बीच एक ऐसी बात हुर्इ कि यूनुस को खाला के घर अपनी औकात का अंदाजा हुआ।
उस दिन उसने जाना कि यदि यहाँ रहना है तो अपमानित होकर रहना होगा।
उसने जाना कि पराधीनता क्या होती है?
उसने जाना कि गरीबी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
उसने जाना कि पराश्रित होकर जीने से अच्छा मर जाना है।
और उसी समय उसके मन में अपने परों के भरोसे अपने आकाश में उड़ने की इच्छा जागी।
हुआ ये कि सनूबर ने यूनुस के कपड़े बिना धोए यूँ ही फींच-फाँच कर सुखा दिए थे। कपड़ों में साबुन लगाया ही नहीं था।
ग्रीस-तेल और पसीने की बदबू कपड़े में समार्इ हुर्इ थी।
यूनुस का पारा सातवें आसमान में चढ़ गया।
उसने आव देखा न ताव, सनूबर की पिटार्इ कर दी।
सनूबर चीख-चीख कर रोती रही।
खाला ने यूनुस को जाहिल, गँवार, खबीस, राच्छस, भुक्खड़, एहसान-फरामोश और भगोड़ा आदि जाने कितनी उपाधियों से नवाजा।
यूनुस उस दिन ड्यूटी गया तो फिर घर लौटकर न आया। उसने कल्लू के घर रहने की ठान ली थी। जैसे अन्य लड़के जीवन गु़जार रहे हैं, वैसे वह भी रह लेगा। खाला के घर में हुर्इ बेइज्जती से उसका मन टूट चुका था।
दूसरे दिन जब वह घर न लौटा तो खालू स्वयं एमसीए की वर्कशाप में आए। उन्होंने यूनुस को घूरकर देखा।
फिर पूछा - 'घर काहे नहीं आता बे!'
यूनुस खालू से बहुत डरता था।
उसकी रूह काँप गर्इ।
उसने कहा - 'ओवर-टाइम कर रहा था। आज आऊँगा।'
खालू मुतास्सिर हुए।
उसकी जान बची।
शाम ड्यूटी से छूटने पर उसने मनोहरा के होटल से गर्मागर्म समोसे खरीदे। साथ में इमली की खटमीठी चटनी रखवार्इ। सनूबर को समोसे बहुत पसंद हैं।
वाकर्इ, उसे किसी ने कुछ न कहा।
सभी ने दिल लगाकर समोसे खाए।
खाला के कहने पर सनूबर ने दो समोसे अपने जमाल अंकल के लिए रख दिए।
उस रात सभी ने लूडो खेली।
जमाल अंकल, खाला, सनूबर और यूनुस।
यूनुस के बगल में सनूबर थी और उसके बगल में जमाल अंकल। टी-टेबल के चारों तरफ बैठे थे वे।
यूनुस ने खेल के दरमियान महसूस किया कि टेबल के नीचे एक दूसरा खेल जारी है। जमाल अंकल के पैर सनूबर के पैर से बार-बार टकराते हैं। ऐसे संपर्क के दौरान दोनों बात-बेबात खूब हँसते हैं।
उसके पल्टे हुए गुलाबी होंठ जब हँसने की मुद्रा में होते तो यूनुस को दीवाना बना जाते थे, लेकिन आज उसे वे होंठ किसी चुड़ैल के रक्त-रंजित होठों की तरह दिखे।
उसे सनूबर की बेवफार्इ पर बड़ा गुस्सा आया।
उस रात खालू की नाइट-शिफ्ट थी।
खालू खाना खाकर ड्यूटी चले गए।
जमाल साहब भी जाना चाहते थे कि टीवी पर गुलाम अली की गजलों का कार्यक्रम आने लगा।
'चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है'
मुरकियों वाली खनकदार आवाज में गु़लाम अली अपनी सुरों का जादू बिखेर रहे थे। यूनुस भी गुलाम अली को पसंद करता था, लेकिन जमाल साहब की रुचि जानकर उसे जाने क्यों गुलाम अली की आवाज नकियाती सी लगी। आवाज ऐसे लगी जैसे पान की सुपारी गले में फँसी हुर्इ हो।
जैसे जुकाम से नाक जाम हो।
वह टीवी के सामने से हट गया।
अंदर किचन में उसका बिस्तर बिछता था।
चटार्इ के साथ गुदड़ी लिपटी रहती। सुबह चटार्इ लपेट दी जाती और रात में वह सोने से पूर्व चटार्इ बिछा लेता। ओढ़ने के लिए एक चादर थी। तकिया वह लगाता न था।
किचन की लाइट बंद हो तब भी बाहर आँगन की रोशनी खिड़की से छनकर किचन में आती। उसे उस धुँधली रोशनी में सोने की आदत थी।
टीवी वाले कमरे से ठहाके गूँज रहे थे।
यूनुस के कान में कुछ अफवाहें पड़ चुकी थीं कि जमाल साहब बड़ा शातिर आदमी है। नागपुर में 'डोनेशन' वाले इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ कर निकला है जमाल साहब। सुनते हैं कि वहाँ वह गुंडा था गुंडा।
उसकी खूब चलती थी वहाँ।
बाहरी लड़कों से महीना वसूली करता था जमाल साहब।
खालू ने उसे घर घुसा कर अच्छा नहीं किया है।
एक के मुँह से यूनुस ने सुना कि जमाल साहब की नजर खुली बोरी और बंद बोरी की शक्कर, दोनों में है।
खुली बोरी और बंद बोरी की बात यूनुस समझ सकता था, क्योंकि फुटपाथी विश्वविद्यालय के कोर्स के मुहावरों में ये भी था।
खुली बोरी यानी खाला और बंद बोरी माने सनूबर!
यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।
गुलाम अली की आवाज किसी तेज छुरी की तरह उसकी गर्दन रेत रही थी -
'तुम्हारे खत में नया इक सलाम किसका था
न था रकीब तो आखिर वो नाम किसका था'
'वफा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कि ये कलाम किसका था'
सनूबर की खिलखिलाहट सुनकर यूनुस का दिल रो रहा था।
उसने करवट लेकर अपने कान को कुहनी से दबा लिया।
आवाज मद्धम हो गर्इ।
नींद लाने के लिए कलमे का विर्द करने लगा -
'ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह।'
पता नहीं उसे नींद आर्इ या नहीं, लेकिन रात अचानक उसे अपना पैजामा गीला लगा।
हाथ से टटोला तो गीली-चिपचिपी हो गर्इं उँगलियाँ, यानी...
उसका दिमाग खराब हो गया।
नींद उचट गर्इ।
पेशाब का दबाव मसाने पर था।
वह उठा।
खिड़की के पल्लों से छनकर पीली रोशनी के धब्बे कमरे में फैले हुए थे। ठीक उसके पैजामे में उतर आए धब्बों की तरह।
उसे कमजोरी सी महसूस हो रही थी। जाने क्यों स्वप्न में हुए स्खलन के बाद उसकी हालत पस्त हो जाती है।
उठने की हिम्मत न हुर्इ।
वह कुछ पल बैठा रहा।
तभी उसके कान खड़े हुए।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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पहले कमरे से फुसफुसाने की आवाज आ रही थी। तख्त भी हौले-हौले चरमरा रहा था।
यूनुस ने किचन से लगे बच्चों के कमरे में झाँका। वहाँ सनूबर अपने अन्य भार्इ-बहनों के साथ सोर्इ हुर्इ थी।
इसका मतलब पहले कमरे में खाला हैं। फिर उनके साथ कौन है? खालू की तो नाइट शिफ्ट है।
यूनुस के मन में जिज्ञासा के साथ भय भी उत्पन्न हुआ।
वह दबे पाँव पहले कमरे के दरवाजे की झिर्रियों से अंदर झाँकने लगा।
पहले कमरे में भी अँधेरा ही था।
हाँ, रोशनदान के जरिए सड़क के खंभे से रोशनी का एक बड़ा टुकड़ा सीधे दीवाल पर आ चिपका था।
अँधेरे की अभ्यस्त उसने तख्त पर निगाहें टिकार्इं।
देखा खाला के साथ जमाल साहब आपत्तिजनक अवस्था में हैं।
उसकी टाँगें थरथराने लगीं।
उसका कंठ सूख गया।
हाथ में जुंबिश होने लगी।
दिल की धड़कनें तेज क्या हुर्इं कि उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया।
इसी ऊहा-पोह में वहाँ से भागना चाहा कि उसके पैरों की आहट सुनकर खाला की दबी सी चीख निकली।
यूनुस तत्काल अपने बिस्तर पर आकर लेट गया।
पहले कमरे की गतिविधि में विघ्न पैदा हो चुका था। वहाँ से आने वाली आहटें बढ़ीं। फिर बाहर का दरवाजा खुलने की आवाज आर्इ। फिर स्कूटर के स्टार्ट होने की आवाज आर्इ और लगा कि फुर्र से उड़ गर्इ हो स्कूटर।
यूनुस को काटो तो खून नहीं।
आँखें बंद किए, करवट बदले वह अब खाला की हरकतों का अंदाजा लगाने लगा।
लगता है खाला ने पहले बच्चों के कमरे की लाइट जलाकर वहाँ का जायजा लिया है।
अब वह किचन की तरफ आ रही हैं।
लाइट जलाकर यहाँ भी वह यूनुस के पास कुछ देर खड़ी रहीं।
उनका शातिर दिमाग माजरा समझना चाह रहा था।
फिर वह पुनः पहले कमरे में चली गर्इं।
यूनुस की जान में जान आर्इ।
वह उसी तरह पड़ा रहा जबकि पेशाब के जोर से मसाने फटने को थे।
जमाल साहब और खाला की हकीकत, सनूबर का जमाल साहब की तरफ झुकाव और सनूबर के साथ जमाल साहब के रिश्ते को लेकर खाला-खालू के ख्वाब...
पूरी पहेली यूनुस के सामने थी।
उस पहेली का हल भी उसके सामने था।
लेकिन उसमें यूनुस का कोर्इ रोल न था...
इस स्थिति से निपटने के लिए यूनुस के दिमाग में एक बात आर्इ।
क्यों न सनूबर को वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाए! उसके बाद जो होगा, सो होगा।
अठारह
जब यूनुस ड्यूटी से घर लौटा, उस समय दिन के बारह बजे थे।
खाला घर में नहीं थीं। हस्बेमामूल खाला पड़ोसियों के घर बैठने गर्इ हुर्इ थीं।
सनूबर लगता है स्कूल नहीं गर्इ थी और किचन में चावल पका रही थी।
यूनुस आजकल सनूबर से ज्यादा बातें नहीं करता। बस, काम भर की बातें। वह सीधे आँगन में पानी की टंकी की तरफ हाथ-मुँह धोने चला गया।
गमछे से मुँह पोंछते हुए वह पहले कमरे में चला गया। पर्दा उठा हुआ था। बाहर से रोशनी अंदर आ रही थी। शायद बिजली नहीं थी, वरना इस घर में टीवी कम ही बंद रहता है।
यूनुस तख्त पर लेट गया।
उसने आँखें बंद कर लीं।
उसके माथे पर गहरी लकीरें थीं।
सनूबर कब आकर दरवाजे के पास खड़ी हुर्इ उसे पता न चला। जब सनूबर ने दरवाजा खोला तो चूँ... की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुर्इ।
उसने सनूबर के चेहरे को ध्यान से देखा।
उसे लगा कि सनूबर उससे कुछ कहना चाह रही है।
यूनुस उठ बैठा।
उसने सनूबर के पलटे हुए होंठ और भारी पलकों में कैद उदास आँखों को बड़ी हसरत से देखा। कितना प्यार था सनूबर से उसको।
सनूबर तख्त के पास कुर्सी पर बैठ गर्इ।
यूनुस को लगा कि उसके दिल की गहराइयों से आवाज गूँजी हो - 'सनूबर...!'
सनूबर कुछ न बोली।
'सनूबर, तुम्हें मालूम है, तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है।'
यूनुस की बहकी-बहकी बातें सुनकर सनूबर डरी हुर्इ लग रही थी।
'डरो नहीं, ये सच है... तुम्हारे साथ तुम्हारी मम्मी एक खेल खेल रही हैं।'
सनूबर ने अपने कान पर हाथ रख लिए - 'क्या बक रहे हो, यूनुस...?'
'सच सनूबर, तुम्हें जमाल साहब से हुशियार रहना चाहिए। वह बड़ा धोखेबाज है। मैं कैसे कहूँ कि जमाल अंकलवा कितना कमीना है।'
तभी दीवाल घड़ी टनटनार्इ - 'टन्न!'
सनूबर ने घड़ी देखी - 'एक बज गए, मम्मी आती होंगी।'
यूनुस की समझ में न आ रहा था कि बीती रात की दास्तान को वह किन लफ्जों में बयान करे।
फिर भी हिम्मत करके वह बोला - 'सनूबर! वो जमाल सहबवा तुमसे हमदर्दी का दिखावा करता है और जानती हो वो कितना कमीना है कि सुनोगी तो... अच्छा किसी से बताओगी तो नहीं न!'
सनूबर इतने में झुँझला गर्इ।
'नहीं बाबा, किसी से नहीं कहूँगी, तुम बताओ तो सही।'
'तो सुनो, कल रात मैंने अपनी आँखों से देखा। अल्ला-कसम, कलाम-पाक की कसम जो झूठ बोलूँ मुझे मौत आ जाए। मैंने जमाल साहब और खाला को कल रात एक साथ एक बिस्तर पर देखा है सनूबर... तुम्हें विश्वास हो या न हो ये सच है सनूबर...'
सनूबर ने अपने कान बंद कर लिए।
वह रोने लगी।
'कल रात वो हालात देखने के बाद कहाँ सो पाया हूँ, सनूबर!'
यूनुस का मन तो हल्का हुआ लेकिन सनूबर तो जैसे बेजान हो गर्इ।
खाला आर्इं तो यूनुस आँखें बंद किए सोने का नाटक करता रहा।
सनूबर अपने कमरे में लेटी रही।
खाला यूनुस के पास कुर्सी पर बैठ कर चीखीं - 'कहाँ मर गर्इ कुतिया...'
सनूबर ने जवाब न दिया तो उठ कर अंदर गर्इं और सनूबर को झिंझोड़कर उठाते हुए बोलीं - 'कैसे पसरी है महारानी, खाना-वाना बनेगा या आज हड़ताल है? इसीलिए उनसे कहती हूँ कि लड़कियन को पढ़वाइए मत, लेकिन सुनें तब न! आजकल अपने जमाल अंकल की शह पाकर हरामजादी जबान लड़ाना सीख गर्इ है।'
सनूबर कुछ न बोली और उठ बैठी।
यूनुस ने भी आवाज सुनकर नींद खुलने का अभिनय किया।
तब तक चिट्टे-पोट्टे स्कूल से घर आ गए और संयोग से लाइट भी आ गर्इ। छुटकी जमीला ने बस्ता यूनुस की गोद पर पटककर टीवी ऑन किया।
टीवी से चिपककर घंटों वह कार्टून प्रोग्राम देखा करती है।
यूनुस ने देखा कि सनूबर गाली खाकर भी न उठी तो खाला स्वयं किचन में घुसीं।
खाना तो वैसे तैयार ही था।
बस दाल छौंकना बाकी था।
दुपहर में सब्जी बनती न थी। दाल-भात अचार वगैरा के साथ खाया जाता। खालू 'हरियर मिर्च' के साथ खाना खा लेते थे।
दाल छौंक कर खाला ने यूनुस को आवाज दी।
यूनुस उठा और किचन के पास दालान में अपनी सोने की जगह नंगे फर्श पर बैठ गया।
सनूबर वैसे ही गुमसुम लेटी रही और खाला के संग यूनुस ने खाना खा लिया।
यूनुस जानता था कि सनूबर इतनी आसानी से उसकी बात पर विश्वास करेगी नहीं। वह अपने तर्इं छानबीन जरूर करेगी।
पता नहीं उसने क्या छानबीन की और उससे उसे क्या हासिल हुआ लेकिन अगली सुबह यूनुस ने अपने बिस्तर पर अपनी बगल में गर्माहट पार्इ तो जाना कि सनूबर उसकी बगल में लेटी है।
वह घबरा कर उठ बैठा।
सनूबर ने उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा।
यूनुस ने पहले कमरे और अंदर वाले कमरे की तरफ देखा। आहट लेने की कोशिश की। दीवाल घड़ी पाँच बार टनटनार्इ।
इसका मतलब सभी सो रहे हैं।
खालू तो ड्यूटी गए हुए हैं।
वह सनूबर के बगल में लेट गया।
सनूबर ने उसे बाँहों में भर लिया।
पतली-दुबली सनूबर का नर्म-गुनगुना आलिंगन...
सनूबर उसके कानों में फुसफुसार्इ - 'मुझे भगा कर ले चलो इस जहन्नुम से यूनुस...!'
उस दिन उसे एहसास हुआ कि वह कितना कमजोर आदमी है।
उस दिन उसने फैसला किया कि अब वह अपने लिए एक नर्इ जमीन तलाशेगा...
एक नया आसमान बनाएगा...
एक नए सपने को साकार करेगा...

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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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एक नर्इ पहचान
एक
घंटी की टनटनाहट के साथ प्लेटफार्म में हलचल मच गर्इ।
रात के ठिठुरते अंधियारे को चीरती पैसेंजर की सीटी नजदीक आती गर्इ और चोपन-कटनी पैसेंजर ठीक साढ़े बारह बजे प्लेटफार्म पर आकर रुकी।
इक्का-दुक्का मुसाफिर गाड़ी से उतरे। पूरी गाड़ी अमूमन खाली थी।
यूनुस जल्दी से इंजन की तरफ भागा। वह इंजिन के पीछे वाली पहली बोगी में बैठना चाहता था। यदि खालू आते भी हैं तो इतनी दूर पहुँचने में उन्हें समय तो लगेगा ही।
पहली बोगी में वह चढ़ गया।
दरवाजे से लगी पहली सीट पर एक साधू महाराज लेटे थे।
अगली लाइन में कोर्इ न था। हाँ, वहाँ अँधेरा जरूर था। वैसे भी यूनुस अँधेरी जगह खोज भी रहा था। उसने अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पर फेंक दिया और ट्रेन से नीचे उतर आया।
वह चौकन्ना सा चारों तरफ देख रहा था।
अचानक उसके होश उड़ गए।
स्टेशन के प्रवेश-द्वार पर खालू नीले ओवर-कोट में नजर आए। उनके साथ एक आदमी और था। वे लोग बड़ी फुर्ती से पहले गाड़ी के पिछले हिस्से की तरफ गए।
यूनुस तत्काल बोगी पर चढ़ गया और टॉयलेट में जा छिपा।
उसकी साँसें तेज चल रही थीं।
ट्रेन वहाँ ज्यादा देर रुकती नहीं थी।
तभी उसे लगा कि कोर्इ उसका नाम लेकर आवाज दे रहा है - यू...नू...स! यू...नू...स!
यूनुस टॉयलेट में दुबक कर बैठ गया।
गाड़ी की सीटी की आवाज आर्इ और फिर गाड़ी चल पड़ी।
वह दम साधे दुबका रहा।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली, तब उसकी साँस में साँस आर्इ।
बैग कंधे पर टाँगे हुए ही वह खड़े-खड़े मूतने लगा।
वाश-बेसिन के पानी से उँगलियों को धोते वक्त उसकी निगाहें आर्इने पर गर्इं।
आर्इने के दाहिनी तरफ स्केच पेन से स्त्री-पुरुष के गोपन-संबंधों को बयान करता एक बचकाना रेखांकन बना हुआ था।
यूनुस ने दिल बहलाने के लिए उस टॉयलेट की अन्य दीवारों पर निगाह दौड़ार्इ।
दीवार में चारों तरफ उसी तरह के चित्र बने थे और साथ में अश्लील फिकरे भी दर्ज थे।
यूनुस टॉयलेट से बाहर निकला, लेकिन वह चौकन्ना था।
ट्रेन की खिड़की से उसने बाहर झाँका।
दो पहाड़ियों के बीच से गुजर रही थी गाड़ी। आगे जाकर महदइया की रोशनी दिखार्इ देगी क्योंकि अगला स्टेशन महदइया है।
सिंगरौली कोयला क्षेत्र का आखिरी कोना महदइया यानी गोरबी ओपन-कास्ट खदान।
हो सकता है कि खालू ने खबर की हो तो महदइया स्टेशन में उनके मित्र उसे खोजने आए हुए हों।
पहाड़ियाँ समाप्त हुर्इं और रोशनी के कुमकुम जगमगाते नजर आने लगे।
इसका मतलब स्टेशन करीब है।
महदइया स्टेशन के प्लेटफार्म में प्रवेश करते समय ट्रेन की गति धीमी हुर्इ तो यूनुस पुनः एक टॉयलेट में जा घुसा। वह किसी तरह के खतरे का सामना नहीं करना चाहता था।
उसका अंदाज सही था।
इस प्लेटफार्म पर भी उसे अपने नाम की गूँज सुनार्इ पड़ी। इसका मतलब ये सच था कि खालू ने यहाँ भी अपने दोस्तों को फोन कर दिया था।
वह टॉयलेट में दुबक कर बैठा रहा और पाँच मिनट बाद ट्रेन सीटी बजा कर आगे बढ़ ली।
यूनुस ने राहत की साँस ली।
टॉयलेट से वह बाहर निकला।
उसने देखा कि साधू महाराज के पैर के पास एक स्त्री बैठी है। वह एक देहाती औरत थी। साधू महाराज के वह पाँव दबा रही थी।
यूनुस ने उस सीट के सामने ऊपर वाली बर्थ पर अपना बैग रखा। फिर खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ कर शीशे के पार अँधेरे की दीवार को भेदने की बेकार सी कोशिश करने के बाद अपनी बर्थ पर उचक कर चढ़ गया।
उसे नींद आने लगी थी।
एअर-बैग से उसने गर्म चादर निकाली और उसे ओढ़ लिया। एयर-बैग अपने सिरहाने रख लिया ताकि चोरी का खतरा न रहे।
ट्रेन की लकड़ी की बेंच ठंडा रही थी। वैसे तो उसने गर्म कपड़े पर्याप्त मात्रा में पहन रखे थे, लेकिन ठंड तो ठंड ही थी। रात के एक-डेढ़ बजे की ठंड। उसका सामना के करने लिए औजार तो होने ही चाहिए।
वह उठ बैठा और अपनी जेब से सिगरेट निकाल ली। सिगरेट सुलगाते हुए साधू महाराज की तरफ उसकी निगाह गर्इ।
देहाती स्त्री बड़ी श्रद्धा से साधू महाराज के पैर दबा रही थी।
साधू महाराज यूनुस को सिगरेट सुलगाते देख रहे थे। दोनों की निगाहें मिलीं।
यूनुस ने महसूस किया कि वह भी धूम्रपान करना चाहता है।
यूनुस बर्थ से नीचे उतरा।
उसने महाराज की तरफ सिगरेट बढ़ार्इ।
साधू महाराज खुश हुआ।
उसने सिगरेट सुलगार्इ और गाँजा की तरह उस सिगरेट के सुट्टे मार कर बाकी बची सिगरेट स्त्री को दे दी।
स्त्री प्रसन्न हुर्इ।
उसने सिगरेट को पहले माथे से लगाया फिर भोले बाबा का प्रसाद समझ उस सिगरेट को पीने लगी।
स्त्री के बाल लटियाए हुए थे। हो सकता है कि वह सधुआइन बनने की प्रक्रिया में हो। उसके माथे पर भभूत का एक बड़ा सा टीका लगा हुआ था।
उसकी आँखों में शर्मो-हया एकदम न थी। वह एक यंत्रचालित इकार्इ सी लग रही थी। तमाम आडंबर से निरपेक्ष, साधू महाराज की सेवा में पूर्णतया समर्पित...
साधू महाराज ने पूछा - 'कौन बिरादरी का है तू?'
यूनुस को मालूम है कि बाहर पूछे गए ऐसे प्रश्नों का क्या जवाब दिया जाए। जिससे माहौल न बिगड़े और काम भी चल जाए।
एक बार उसने सच बोलने की गलती की थी, जिसके कारण उसे बेवजह तकलीफ उठानी पड़ी थी।
उसे कटनी में स्थित उस धर्मशाला का स्मरण हो आया, जहाँ वह एक रात रुकना चाहता था।
तब सिंगरौली के लिए चौबीस घंटे में एक ट्रेन चला करती थी। कोतमा से वह कटनी जब पहुँचा तब तक सुबह दस बजे चोपन जाने वाल पैसेंजर गाड़ी छूट चुकी थी। अब दो रास्ते बचे थे। वापस कोतमा लौआ जाए या फिर कटनी में ही रहकर चौबीस घंटे बिताए जाएँ। वैसे कटनी घूमने-फिरने लायक नगर तो है ही। कुछ सिनेमाघरों में 'केवल वयस्कों के लिए' वाली पिक्चर चल रही थीं। ट्रेन में ही एक मित्र बना युवक उससे बोला कि चलो, स्टेशन के बाहर एक धर्मशाला है। मात्र दस रुपए में चौबीस घंटे ठहरने की व्यवस्था। खाना इंसान कहीं भी खा लेगा। हाँ, एक ताला पास में होना चाहिए। धर्मशाला में ताला नहीं मिलता। जो भी कमरा मिले उसमे ग्राहक अपना ताला स्वयं लगाता है। यूनुस ने कहा था कि ताला खरीद लिया जाएगा।
वे लोग स्टेशन के बाहर निकले और सड़क के किनारे बैठे एक ताला-विक्रेता से यूनुस ने दस रुपए वाला एक सस्ता सा ताला खरीद लिया।
वे दोनों धर्मशाला पहुँचे।
पीली और गेरुआ मिट्टी से पुती हुर्इ एक पुरानी इमारत का बड़ा सा प्रवेश-द्वार। जिसके माथे पर अंकित था - 'जैन धर्मशाला'।
वे अंदर घुसे।
अंदर द्वार से लगा हुआ प्रबंधक का कमरा था।
उस समय वहाँ कोर्इ भी न था।
सहयात्री ने कहा कि चलो, धर्मशाला देख तो लो।
वे दोनों अंदर की तरफ पहुँचे। दुतल्ला में चारों तरफ कमरे ही कमरे बने थे। बीच में एक उद्यान था। उद्यान के अंदर एक मंदिर। पानी का कुआँ, हैंड-पंप, और नल के कनेक्शन भी थे।
वे वापस आए।
प्रबंधक महोदय आ चुके थे।
वह एक कृशकाय वृद्ध थे।
चश्मे के पीछे से झाँकती आँखें।
उन्होंने रजिस्टर खोल कर लिखना शुरू किया - 'नाम?'
सहयात्री ने बताया - 'कमल गुप्ता।'
- 'पिता का नाम?'
- 'श्री विमल प्रसाद गुप्ता'
- 'कहाँ से आना हुआ और कटनी आने का उद्देश्य?'
- 'चिरमिरी से कटनी आया, रेडियो का सामान खरीदने।'
- 'ताला है न?'
कमल गुप्ता ने बताया - 'हाँ!'
प्रबंधक महोदय ने रजिस्टर में कमल से हस्ताक्षर करवाकर उसे कमरा नंबर पाँच आवंटित किया।
फिर उन्होंने यूनुस को संबोधित किया।
- 'नाम?'
- 'जी, मुहम्मद यूनुस।'
स्वाभाविक तौर पर यूनुस ने जवाब दिया।
प्रबंधक महोदय ने उसे घूर कर देखा। उनकी भृकुटि तन गर्इ थी। चेहरे पर तनाव के लक्षण साफ दिखलार्इ देने लगे।
लंबा-चौड़ा रजिस्टर बंद करते हुए बोले - 'ये धर्मशाला सिर्फ हिंदुओं के लिए है। तुम कहीं और जाकर ठहरो।'
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Jemsbond
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Re: पहचान

Post by Jemsbond »

सहयात्री कमल गुप्ता नहीं जानता था कि यूनुस मुसलमान है। सफर में बातचीत के दौरान नाम जानने की जरूरत उन दोनों को महसूस नहीं हुर्इ थी, शायद इसलिए वह भी उसे घूरने लगा।
यूनुस के हाथ में एक नया ताला था।
वह कभी प्रबंधक महोदय के दिमाग में लगे ताले को देखता और कभी अपने हाथ के उस ताले को, जिसे उसने कुछ देर पहले बाहर खरीदा था।
उसने अपनी जिंदगी के व्यावहारिक शास्त्र का एक और सबक हासिल किया था।
वह सबक था, देश-काल-वातावरण देखकर अपनी असलियत जाहिर करना।
उसने जाने कितनी गलतियाँ करके, जाने कितने सबक याद किए थे।
सलीम भार्इ के पास ऐसी सहज-बुद्धि न थी, वरना वह ऐसी गलतियाँ कभी न करता और गुजरात के कत्ले-आम में यूँ न मारा जाता।
इसीलिए जब साधू महाराज ने उसकी बिरादरी पूछी तो वह सचेत हुआ और तत्काल बताया - 'महाराज, मैं जात का कुम्हार हूँ।'
साधू महाराज के चेहरे पर सुकून छा गया।
चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल, कपड़ा-लत्ता और रंग-रूप से उसे कोर्इ नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान युवक है, जब तक कि वह स्वयं जाहिर न करे। उसे क्या गरज कि वह बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले।
वह इतना चालाक हो गया है कि लोगों के सामने 'अल्ला-कसम' नहीं बोलता, बल्कि 'भगवान-कसम' या 'माँ-कसम' बोलता है। 'अल्ला जाने क्या होगा' की जगह 'भगवान जाने' या फिर 'राम जाने' कह कर काम चला लेता है।
अगर कोर्इ साधू या पुजारी प्रसाद देता है तो बाकायदा झुक कर बार्इं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर उस पर प्रसाद लेता है और उसे खाकर दोनों हाथ सिर पर फेरता है। जबकि वही सलीम भार्इ हिंदुओं से पूजा-पाठ आदि का प्रसाद लेता ही नहीं था। यदि गलती से प्रसाद ले भी लिया तो फिर उसे खाता नहीं था, बल्कि चुपके से फेंक देता था।
यूनुस को यदि कोर्इ माथे पर टीका लगाए तो वह बड़ी श्रद्धा-भाव प्रकट करते हुए बड़े प्रेम से टीका लगवाता और फिर उसे घंटों न पोंछता।
ऐसी दशा में उस पर कोर्इ संदेह कैसे कर सकता है कि वह हिंदू नहीं है।
वैसे भी अनावश्यक अपनी धर्म-जाति प्रकट कर परदेश में इंसान क्यों खतरा मोल ले।
बड़ा भार्इ सलीम अगर यूनुस की तरह सजग-सचेत रहता। खामखा, मियाँ-कट दाढ़ी, गोल टोपी, लंबा कुर्ता और उठंगा पैजामा न धारण करता तो गुजरात में इस तरह नाहक न मारा जाता...
साधू महाराज ने यूनुस को आशीर्वाद दिया - 'तू बड़ा भाग्यशाली है बच्चा! तेरे उन्नत ललाट बताते हैं कि पूर्वजन्म में तू एक पुण्यात्मा था। इस जीवन में तुझे थोड़ा कष्ट अवश्य होगा लेकिन अंत में विजय तेरी होगी। तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।'
यूनुस साधू महाराज के चेहरे को देख रहा था।
उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुर्इ थी। उसकी आयु होगी यही कोर्इ पचासेक साल। चेहरे पर काइयाँपन की लकीरें।
साधू महाराज के आशीर्वाद से यूनुस को कुछ राहत मिली।
वह पुनः अपनी जगह पर चला गया और बैग से लुंगी निकालकर उसे बर्थ पर बिछा दिया ताकि लकड़ी की बेंच की ठंडक से रीढ़ की हड्डी बची रहे।
बर्थ पर चढ़ कर उसने जूते उतारकर पंखे पर अटका दिए।
अब वह सोना चाहता था।
एक ऐसी नींद कि उसमें ख्वाब न हों।
एकदम चिंतामुक्त संपूर्ण निद्रा...
जबकि यूनुस जानता है कि उसे नींद आसानी से नहीं आया करती। नींद बड़ी मान-मनौवल के बाद आया करती है।
उसने उल्टी तरफ करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा।
खटर खट खट... खटर खट खट
ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी।
सुबह छह बजे तक ट्रेन कटनी पहुँच जाएगी। फिर सात-साढ़े सात बजे बिलासपुर वाली पैसेंजर मिलती है। उससे बिलासपुर तक पहुँचने के बाद आगे कोरबा के लिए मन पड़ेगा तो ट्रेन या बस पकड़ी जाएगी।
बिलासपुर में स्टेशन के बाहर मलकीते से मुलाकात हो जाएगी।
मलकीते के पापा का एक ढाबा कोतमा में हुआ करता था। सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगों में वह होटल उजड़ गया। सिख समाज में ऐसा डर बैठा कि आम हिंदुस्तानी शहरी दिखने के लिए सिख लोगों ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते तब बच्चा था। अपने सिर पर रूमाल के जरिए वह केश बाँधा करता था। वह गोरा-नाटा खूबसूरत लड़का था। यूनुस को याद है कि लड़के उसे चिढ़ाया करते थे कि मलकीते अपने सिर में अमरूद छुपा कर आया करता है।
उसके पापा एक रिश्तेदार से मिलने राँची गए थे और इंदिरा गांधी की हत्या हो गर्इ। वे उस समय सफर कर रहे थे। सुनते हैं कि सफर के दौरान ट्रेन में उन्हें मार दिया गया था।
उस कठिन समय में मलकीते ने अपने केश कटवा लिए थे।
मलकीते के बारे में पता चला था कि सन चौरासी के बाद मलकीते की माली हालत खराब हो गर्इ थी।
तब मलकीते की मम्मी अपने भार्इ यानी मलकीते के मामा के पास बिलासपुर चली गर्इ थीं। वहीं मामा के होटल में मलकीते मदद करने लगा था।
स्टेशन के बाहर एक शाकाहारी और मांसाहारी होटल है - 'शेरे पंजाब होटल'।
यही तो पता है उसका।
इतने दिनों बाद मिलने पर जाने वह पहचाने या न पहचाने, लेकिन मलकीते एक नंबर का यार था उसका!
यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ार्इ के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोर्इ। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आँसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोर्इ जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।
लकीर का फकीर आदमी का जीना मुश्किल है।
जैसा देस वैसा भेस...
कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोर्इ न कोर्इ राह अवश्य निकल आएगी।
इसीलिए तो वह अम्मी-अब्बू, घर-द्वार, भार्इ-बहिन, रिश्ते-नाते आदि के मोह में फँसा नहीं रहा।
अपना रास्ता स्वयं चुनने की ललक ही तो है कि आज वह लगातार जलावतनी का दर्द झेल रहा है।
इसी उम्मीद में कि इस बार की छलाँग से शायद अल्लाह की बनार्इ इत्ती बड़ी कायनात में उसे भी कोर्इ स्वतंत्र पहचान मिल ही जाए...
दो
यूनुस ने सोचा कि सुबह कटनी पहुँच कर नाश्ता करने के बाद बिलासपुर वाली गाड़ी पकड़ी जाएगी।
कटनी का खयाल दिमाग में आया तो यूनुस को बड़की आपा याद हो आर्इ।
कहते हैं कि बड़की कटनी में कहीं रहती है।
खाला भी तो बता रही थीं कि अम्मा एक बार चोरी-छिपे उससे मिल आर्इ हैं। चूँकि उसने हिंदू धर्म अपना लिया है, इसलिए उसे अब बिरादरी में मिलाया तो नहीं जाएगा।
यूनुस सोच रहा था कि उनके घर में एक भी औलाद ठीक न निकली? इसका कारण क्या है?
उसने बचपन की तमाम घटनाओं को सूत्र-बद्ध करना चाहा। ज्ञात हुआ कि उसके अब्बा वंश-वृद्धि के पावन कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। इस पावन यज्ञ से फुर्सत पाने के बाद उनकी चिंता का केंद्र नौकरी हुआ करती। अब्बा दिन भर में एक कट्टा बीड़ी और एक रुपए की खैनी हजम कर जाते। चाय अमूमन घर में ही पीते। इसके बाद भी यदि समय बच जाता तो स्थानीय कादरिया-मस्जिद कमेटी के लोगों के बीच उठते-बैठते। उनके एक और हमदर्द दोस्त थे नन्हू भार्इ, जिन्हें यूनुस नन्हू चच्चा कहा करता।
अब्बा ने अपनी बेशुमार आल-औलाद की तालीम-तरबीयत, कपड़ा-लत्ता और खान-पान के बारे में कभी ध्यान नहीं दिया। बच्चे चाहे जैसे अपना जीवन गुजारें, स्वतंत्र हैं।
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अम्मा भी अब्बा के कदम से कदम मिलाकर चलती रहीं। उन्होंने प्रति तीन बरस पर एक संतान के औसत को बरकरार रखा। बच्चा अपने प्रयास से स्तन खोज कर मुँह में ठूँस ले तो ठीक, वरना अम्मा के भरोसे रहा तो भूखा ही रह जाएगा।
अम्मा ज्यादातर अपनी खाट में पसरे रहा करती थीं। ठंड के दिनों मे अब्बा या कि बड़की खाट के नीचे बोरसी में आग डाल कर रख दिया करते। यूनुस उस खाट में कभी-कभी सोता था। बोरसी की आँच से गुदड़ी गरमा जाती और पीठ की अच्छी सिंकार्इ हो जाती थी।
अम्मा अपने सुख-दुख या फिर अपनी हारी-बीमारी की चिंता किया करती थीं।
हाँ, दिन भर चाहे जिस हालत में रहें, शाम होते ही अच्छे से चेहरा धो-पोंछकर स्नो-पाउडर लगा लेतीं। आँखों में काजल और माँग 'अफसन' से भरतीं। जिस्म फैल-छितरा गया है तो क्या, बनना-सँवरना तो इंसान की फितरत होती है। हाँ, लिपिस्टिक की जगह होंठ पान की लाली से रँगे हुआ करते।
अम्मा को भी अब्बा की तरह अपनी ढेर संतानों की कोर्इ चिंता कभी नहीं रही।
इस अव्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि यूनुस की बड़ी बहिन बड़की अभी ठीक से जवान हो भी न पार्इ थी कि घर से भाग गर्इ।
यूनुस को याद है कि बड़की उसे कितना प्यार किया करती थी।
यूनुस तब चार-पाँच बरस का होगा।
बस जब देखो तब अपनी बड़की आपा के पास मँडराता रहता। अम्मा को तो बच्चों की सुध ही न रहती थी।
पड़ोस में एक सिंधी फलवाला रहता था।
सिंधी फलवाला सुबह नौ-दस बजे ठेले पर फल सजाया करता। वह नगर में घूम-घूम कर फल बेचा करता था। नौ बजे घर के सामने वाला सार्वजनिक नल खुला करता था। आधा-पौन घंटा भीड़ रहा करती, फिर जब लोग कम हो जाते तब बड़की बाल्टी लेकर पानी भरने निकलती। यूनुस भी अपनी बड़की आपा के पीछे एक डब्बा या डेगची लेकर पानी भरने चला आता।
बड़की आपा पानी भरने लगती और सिंधी फलवाले को देख मुस्कराया करती।
तब फलवाला यूनुस को इशारे से अपने पास बुलाता।
यूनुस फल की लालच में दौड़ा चला जाता।
सिंधी फलवाला उसे दो केले देता। कहता, एक अपनी आपा को दे देना।
यूनुस को बड़े शौक से अपने हिस्से का केला खाता और बड़की आपा के हिस्से का केला उसे दे देता। बड़की आपा केला हाथ में पकड़ती तो उसके गाल शर्म से लाल हो जाते। यूनुस को क्या पता था कि इस केले के माध्यम से उन दोनों के बीच किस तरह का 'कूट-संवाद' संपन्न होता था। वह तो चित्तीदार केले का मीठा स्वाद काफी देर तक अपनी जुबान में बसाए रखता था।
रात के नौ बजे बड़की आपा यूनुस का हाथ पकड़ कर टहलने निकलती।
तब सिंधी फलवाला फेरी लगाकर वापस लौट आता था।
बड़की आपा से जाने क्या इशारे-इशारे में वह बातें किया करता।
यूनुस को पुचकारकर पास बुलाता।
कोर्इ सड़ा सेब या केला उसके हाथ में पकड़ा देता।
यूनुस खुश हो जाता।
यूनुस रात में बड़की आपा के पास ही सोया करता था।
बड़की आपा उसे अच्छी तरह सीने से चिपका कर सुलाया करती और बहुत प्यार किया करती।
कभी-कभी सिंधी फलवाले का आपा के साथ किया गया व्यवहार नन्हे यूनुस को अच्छा नहीं लगता था। चूँकि बड़की आपा बुरा नहीं मानती थी और लजाकर हँस देती थी, इसलिए यूनुस सिंधी फलवाले की हरकतों को चुपचाप हजम कर जाया करता था।
एक दिन यूनुस के दोस्त छंगू ने उसे बताया कि यार, अगर तू बुरा न माने तो एक बात कहूँ। यूनुस ने उसे डपट दिया कि ज्यादा भूमिका न बाँधते हुए मुद्दे पर आ जाए।
छंगू बिचारा कहने में संकोच कर रहा था कि कहीं यूनुस उसे पीट न दे, इसलिए उसने एक बार फिर यूनुस से गछवा लिया कि भार्इ मेरे, तू बुरा तो नहीं मानेगा।
खीज कर यूनुस ने उसकी गर्दन पकड़ कर हिला दिया।
छंगू की आँखें बाहर निकलने को हो आर्इं, तब उसने कहा - 'छोड़ दे बे, बताता हूँ... कल रात घर के पिछवाड़े मैंने देखा था कि वो सिंधी फलवाला तेरी दीदी का चुम्मू ले रहा है।'
यूनुस का खून खौल उठा - 'तो?'
छंगू घबरा गया - 'इसीलिए मैं बोल रहा था कि बुरा न मानना।'
यूनुस ने उसे कुछ न कहा।
उसने स्वयं अपनी आँखों से ऐसा ही एक प्रतिबंधित दृश्य देखा था। वाकर्इ बड़की हद से आगे बढ़ रही है। अम्मा और अब्बा को तो बच्चे पैदा करने से फुर्सत मिलती नहीं कि वे बच्चों के बारे में सोचें।
एक दिन यूनुस पिछवाड़े आँगन में खड़े-खड़े मूत रहा था तब उसने अमरूद के पीछे देखा था कि सिंधी फलवाला और बड़की काफी देर तक एक दूसरे से चिपके खड़े थे।
यूनुस की समझ में न आया कि वह तत्काल क्या करे। उसने एक पत्थर उठाया और सिंधी फलवाले की पीठ पर दे मारा।
फलवाले ने बुरा नहीं माना, बल्कि मार खाकर वे दोनों बड़ी देर तक हँसते रहे थे।
सिंधी फलवाला यूनुस को साला कहा करता और एक मुहावरा उछाला करता - 'सारी खुदार्इ एक तरफ, जोरू का भार्इ एक तरफ!'
उस गुप-चुप चलती प्रेम कहानी की जानकारी सिर्फ यूनुस को थी।
सलीम भार्इ घर से ज्यादा मतलब न रखता लेकिन उसे बड़की की कारस्तानी का अंदाजा हो रहा था। उसने अम्मा से बताया भी था कि नालायक बड़की को डाँटिए कि उस सिंधी फलवाले से दूर रहे। लेकिन अम्मा को कहाँ फुरसत थी... उस समय छोटकी पेट में थी। वे तो अपनी सेहत को लेकर ही परेशान रहा करती थीं।
कहते हैं कि सलीम भार्इ ने एक बार अपने दोस्तों के साथ उस फलवाले को डराया-धमकाया भी था। उसके दोस्तों ने सिंधी फलवाले के ठेले पर बचे हुए फल लूट लिए थे और उसे चेतावनी दी थी कि अपनी आदतों से बाज आए।
जब सिंधी फलवाले और बड़की ने देखा कि उनके प्रेम-व्यापार के दुश्मन हजार हैं तो एक दिन बड़की आपा उस सिंधी फलवाले के साथ कहीं भाग गर्इ।
कहते हैं कि वे लोग कटनी चले गए हैं।
कटनी तो सिंधियों का गढ़ है गढ़...
इसीलिए यूनुस को कटनी से चिढ़ है।
बड़की के घर से भाग जाने के बाद जिसका मन सबसे ज्यादा हताहत हुआ वह सलीम भार्इ था। जाने क्यों अव्यवस्था का वह धुर विरोधी हुआ करता था। वह अपने दोस्तों में, अपने समाज में, अपनी और अपने परिवार की इज्जत बढ़ाने का प्रयास किया करता था। बड़की ने घर से भाग कर जैसे सरे-बाजार उसकी नाक कटा दी हो। सलीम भार्इ अपने दोस्तों के साथ कर्इ दिनों तक सिंधी फलवाले और उसके घरवालों की टोह लेता रहा था। यदि इस बीच वे मिल गए होते तो पक्का है कि फौजदारी हो जाती और बाकी जिंदगी सलीम भार्इ जेल में काटते।
बड़े जिद्दी स्वभाव का था सलीम भार्इ।
सुनता सबकी लेकिन करता अपने मन की।
होश सँभालते यूनुस के बड़े भार्इ सलीम ने देखा कि इस घर के रंग-मंच में अब ज्यादा दिन का रोल उसके लिए नहीं। अम्मा और अब्बा जिस तरह से घर चला रहे थे, उसमें सलीम को अपना भविष्य अंधकारमय लगा।
बड़की आपा के घर से भागने के बाद सलीम ने दोस्तों का साथ छोड़ दिया।
कुछ दिन वह घर में कैद रहा।
एकदम अज्ञातवास का जीवन...
अम्मा-अब्बा सभी उसकी हालत देख परेशान रहने लगे थे।
फिर एक दिन वह फजिर की अजान सुनकर जामा-मस्जिद की तरफ चला। वहाँ उसे नमाज पढ़ने के बाद तब्लीगी-जमात वालों के मुख से तकरीर सुनने को मिली। दिल्ली से जमात आर्इ हुर्इ थी। तब्लीगी-जमात वालों के रहन-सहन और जीवन-दर्शन से उसे प्रेरणा मिली।
उसके अशांत दिलो-दिमाग को सुकून मिला।
उन लोगों से वह इतना प्रभावित हुआ कि उस दिन घर न लौटा।
तब्लीग वालों के साथ ही मस्जिद में कयाम किया।
शाम को अस्र की नमाज के बाद जमात के लोग स्थानीय स्तर पर लोगों से सीधे संपर्क करने के लिए गश्त पर निकले।
वह भी उनके साथ गश्त पर निकला।
अमीरे-जमात किस तरह अपरिचित कलमा-गो लोगों को दीन-र्इमान की दावत दिया करते हैं, उसने देखा।
फिर मगरिब की नमाज के बाद जिक्र और र्इशा की नमाज के बाद अल्लाह की तस्बीह और याद और गहरी नींद का र्इनाम...
सलीम भार्इ तब नियमित रूप से जामा-मस्जिद में नमाज पढ़ने जाने लगा।
कभी-कभी चंद विदेशी मुसलमान भी धर्म-प्रचार और आत्मोत्थान के उद्देश्य से आया करते थे।
अब्बा तो कट्टर बरेलवी विचारों के थे। वे तब्लीगियों को 'मरदूद वहाबी' कहा करते और अक्सर एक तुकबंदी पढ़ा करते थे -
मरदूद वहाबी की यही निशानी
उठंगा पैजामा,
टकला सिर और काली पेशानी
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मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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