पहचान

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Jemsbond
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पहचान


लेखक--अनवर सुहैल


दोस्तो अनवर सुहैल का उपन्यास पहचान आपके लिए पेश कर रहा हूँ
एक
यूनुस एक बार फिर भाग रहा है।
ठीक इसी तरह उसका भार्इ सलीम भी भागा करता था।
लेकिन क्या भागना ही उसकी समस्या का समाधान है?
यूनुस ने अपना सिर झटक दिया।
विचारों के युद्ध से बचने के लिए वह यही तरीका अपनाता।
इस वक्त वह सिंगरौली स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़ा है।
सिंगरौली रेलवे स्टेशन।
अभी रात के ग्यारह बजे हैं।
कटनी-चौपन पैसेंजर रात बारह के बाद ही आएगी।
प्लेटफार्म कब्रिस्तान बना हुआ है। ठंड की चादर ओढ़ कर सोया कब्रिस्तान। धुँधली रोशनी में कुहरे की हिलती चादर। लोग चलते तो यूँ लगता जैसे कब्रों का रखवाला आकर दौरा कर जाता हो। जहाँ ऐसा लगता है कि कब्रों से उठकर आत्माएँ सफेद, काले कपड़े से बदन लपेटे गश्त कर रही हों।
आजकल भीड़ की कोर्इ वजह नहीं है।
कटनी-चोपन पैसेंजर की यही तो पहचान है कि बोगियों और मुसाफिरों की संख्या समान होती है।
यूनुस को भीड़ की परवाह भी नहीं।
सफर में सामान की हिफाजत का भरोसा हो जाए तो वह बैठने की जगह भी न माँगे।
उसके पास सामान भी क्या है? एक एअर-बैग ही तो है।
उसे कहीं भी टिका वह घूम-फिर सकता है।
दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड...
दिखार्इ देने वाला हर आदमी सिकुड़ा-सिमटा हुआ। बदन पर ढेरों कपड़े लादे। फिर भी ठंड से कँपकँपाए।
इधर ठंड कुछ अधिक पड़ती भी है। बघेल-खंड का इलाका है यह! दाँतों को कड़कड़ा देने वाली ठंड के लिए मशहूर सिंगरौली का रेलवे स्टेशन! पहाड़ी इलाका, कोयला खदान और ताप-विद्युत इकाइयों के कारण मानो जान बच जाती है, वरना ऐसी ठंड पड़ती कि अच्छे-खासे लोग टें बोल जाएँ।
स्टेशन-मास्टर के कमरे के बगल में प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी शयनयान के आरक्षित यात्रियों के लिए प्रतीक्षालय है। दरवाजे में लगे काँच पर धुंध छा गर्इ थी, इसलिए यूनुस ने भिड़काए दरवाजे़ को ठेलकर भीतर झाँका।
वहाँ एक अधेड़ आदमी और एक स्त्री बैठे हुए थे। एनटीपीसी या फिर कॉलरी का साहब हो। वैसे भी किसी ऐरे-गैरे के लिए प्रतीक्षालय नहीं खोला जाता।
प्रतीक्षालय के बगल में रनिंग-स्टाफ रूम था। फिर उसके बाद आरपीएफ के जवानों के लिए कमरा था।
उस कमरे के बाहर रात्रि-पाली के कर्मचारियों ने सिगड़ी में आग जला रखी थी। चार आदमी आग ताप रहे थे। उनके बीच थोड़ी सी जगह बची थी, जहाँ एक कुत्ता बदन सेंक रहा था। यूनुस कुत्ते के पास जा कर खड़ा हो गया। सिगड़ी की आँच की सिंकार्इ से उसे कुछ राहत मिली।
रेलवे के कर्मचारी अप-डाउन, एर्इएन, सायरन, डिरेल, सिग्नल आदि शब्दों का उच्चारण कर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर रहे थे।
मफलर से आँख छोड़ पूरा चेहरा लपेटे एक कर्मचारी बोला - 'भार्इजान, आज शाम तबीयत कुछ डाउन लग रही थी। कड़क चाय बनवाकर पी लेकिन पिकअप न बना। ऐसे सिग्नल मिले कि लगा इस बार पायलट डिरेल हुआ, तो फिर उठाना मुश्किल होगा। तभी दिमाग में सायरन बजा और तुरंत भट्टी पहुँचे। वहाँ फोर-डाउन वाला मिसरवा गार्ड मिल गया। दोनों ने मिलकर मूड बनाया। तब जाकर जान बची।'
यूनुस थोड़ी देर उनकी बात से लुत्फ उठाता रहा, फिर स्टेशन से बाहर निकल आया।
बाहर एक बड़ा सा पार्क है। पार्क के दोनों ओर दो सड़कें निकली हैं। दोनों सड़कें आगे जाकर मेन रोड से मिलती हैं।
पार्क के सामने रोड के किनारे-किनारे, एक लाइन से कर्इ टैक्सियाँ और एक मिनी-बस खड़ी थी। इन टैक्सियों या मिनी बसों के चालक अमूमन उनके मालिक होते हैं।
एक पेड़ का मोटा सा सूखा तना सुलगाए वे आग ताप रहे थे।
एक खलासीनुमा चेला चिलम बना रहा था।
यूनुस वहाँ रुका नहीं।
वह बार्इं ओर की ढाल-दार सड़क पर चल पड़ा। मेन रोड के उस पार तीन-चार होटल हैं।
ये होटल चौबीस घंटे सर्विस देते हैं। उन होटलों में लालटेन जल रही थी।
उसने होटल का जायजा लिया। पहला छोड़ दूसरे होटल में एक महिला भट्टी के पास खड़ी चाय बना रही थी।
यूनुस उसी होटल में घुसा।
सीधे भट्टी के पास पहुँच गया। उसने कंधे पर टँगा एअर-बैग उतार कर एक कुर्सी पर रख दिया। फिर हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए आग तापने लगा।
महिला ने उसे घूरकर देखा।
यूनुस को उसका घूरना अच्छा लगा।
वह तीस-बत्तीस साल की महिला थी। भट्टी की लाल आँच और लालटेन की पीली रोशनी के मिले-जुले प्रभाव में उसका चेहरा भला लग रहा था। जैसे ताँबर्इ-सुनहरी आभा लिए कोर्इ कांस्य-कृति।
महिला ने चाय केतली में ढालते हुए पूछा - 'क्या चाहिए?'
यूनुस ने मजा लेना चाहा - 'यहाँ क्या-क्या मिलता है?'
महिला ने उसे घूरकर देखा, फिर जाने क्या सोचकर हँस दी।
होटल के तीन हिस्से थे। आधे हिस्से में ग्राहक के बैठने की जगह। आधे हिस्से को दो भागों में टाट के पर्दे से अलग किया गया था। सामने का भाग रसोर्इ के रूप में था और बाकी आधा हिस्से में लगता है, उसकी आरामगाह थी।
आरामगाह से किसी वृद्ध के खाँसने की आवाज आर्इ, साथ ही लरजती आवाज में एक प्रश्न - 'पसिन्जर आ गर्इ का?'
महिला ने जवाब दिया - 'अभी नहीं।'
यूनुस को टाइम पास करना था, सो उसने आर्डर दिया - 'कड़क चाय, चीनी-पत्ती तेज रहेगी।'
महिला उसकी मंशा समझ गर्इ।
उसने बर्तन में स्पेशल चाय के लिए दूध डाला और फिर ढेर सारी पत्ती डालकर चाय खूब खौला दी।
चाय उसने दो गिलासों में ढाली।
एक चाय यूनुस को दी और दूसरी स्वयं पीने लगी।
यूनुस ने महसूस किया कि ठंड इतनी ज्यादा है कि चाय गिलास में ज्यादा देर गरम न रह पार्इ।
यूनुस ने चुस्की लेते हुए चाय का आनंद उठाया।
उसे अपने 'डाक्टर-उस्ताद' की बात याद हो आर्इ...
डोजर आपरेटर शमशेर सिंह उर्फ 'डाक्टर-उस्ताद' को ठंड नहीं लगती थी। वह कहा करता कि ठंड का इलाज आग या गर्म कपड़े नहीं बल्कि शराब, शबाब और कबाब है।
यूनुस ने शराब तो कभी छुर्इ नहीं थी, किंतु शबाब या कबाब से उसे परहेज न था।
शबाब के लिए तो वैसे भी सिंगरौली क्षेत्र बदनाम है।
औद्योगिक विकास की आँधी के कारण देश भर के उद्योगपति-व्यवसायी, टेक्नोक्रेट और कुशल-अकुशल श्रमिक-शक्ति सिंगरौली क्षेत्र में डेरा डाले हुए हैं। पहले तो लोग बिना परिवार के यहाँ आते हैं। बिना रिहाइशी इंतजाम के ये लोग हर तरह की जरूरत की वैकल्पिक व्यवस्था के अड्डे तलाश कर लेते हैं। इसीलिए यहाँ ऐसे कर्इ गोपनीय अड्डे हैं जहाँ जिस्म की भूख मिटार्इ जाती है।
ऐसे ही एक अड्डे से प्राप्त अनुभव को यूनुस ने याद किया।
दो
कल्लू नाम था उसका। वह बीना की खुली कोयला खदान में काम करता था।
यूनुस तब वहाँ कोयला-डिपो में पेलोडर चलाया करता था। वह प्राइवेट कंपनी में बारह घंटे की ड्यूटी करता था। तनख्वाह नहीं के बराबर थी। शुरू में यूनुस डरता था, इसलिए ईमानदारी से तनख्वाह पर दिन गुजारता था।
तब यदि खाला-खालू का आसरा न होता तो वह भूखों मर गया होता।
फिर धीरे-धीरे साथियों से उसने मालिक-मैनेजर-मुंशी की निगाह से बच कर पैसे कमाने की कला सीखी। वह पेलोडर या पोकलेन से डीजल चुरा कर बेचने लगा। अन्य साथियों की तुलना में यूनुस कम डीजल चोरी करता, क्योंकि वह दारू नहीं पीता था।
कल्लू उससे डीजल खरीदता था।
खदान की सीमा पर बसे गाँव में कल्लू की एक आटा-चक्की थी। वहाँ बिजली न थी। चोरी के डीजल से वह चक्की चलाया करता।
धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गई।
अक्सर कल्लू उससे प्रति लीटर कम दाम लेने का आग्रह करता कि किसके लिए कमाना भाई। जोरू न जाता फिर क्यूँ इत्ता कमाता। उनमें खूब बनती।
फुर्सत के समय यूनुस टहलते-टहलते कल्लू के गाँव चला जाता।
कालोनी के दक्खिनी तरफ, हार्इवे के दूसरी ओर टीले पर जो गाँव दिखता है, वह कल्लू का गाँव परसटोला था।
परसटोला यानी गाँव के किनारे यहाँ पलाश के पेड़ों का एक झुंड हुआ करता था। इसी तरह के कई गाँव इलाके में हैं जो कि अपनी हद में कुछ खास पेड़ों के कारण नामकरण पाते हैं, जैसे कि महुआर टोला, आमाडाँड़, इमलिया, बरटोला आदि। परसटोला गाँव में फागुन के स्वागत में पलाश का पेड़ लाल-लाल फूलों का श्रृंगार करता तो परसटोला दूर से पहचान में आ जाता।
परसटोला के पश्चिमी ओर रिहंद बाँध का पानी हिलोरें मारता। सावन-भादों में तो ऐसा लगता कि बाँध का पानी गाँव को लील लेगा। कुवार-कार्तिक में जब पानी गाँव की मिट्टी को अच्छी तरह भिगोकर वापस लौटता तो परसटोला के निवासी उस जमीन पर खेती करते। धान की अच्छी फसल हुआ करती। फिर जब धान कट जाता तो उस नम जगह पर किसान अरहर छींट दिया करते।
रिहंद बाँध को गोविंद वल्लभ पंत सागर के नाम से भी जाना जाता है। रिहंद बाँध तक आकर रेंड़ नदी का पानी रुका और फिर विस्तार में चारों तरफ फैलने लगा। शुरू में लोगों को यकीन नहीं था कि पानी इस तरह से फैलेगा कि जल-थल बराबर हो जाएगा।
इस इलाके में वैसे भी सांमती व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक नेतृत्व का अभाव था। जन-संचार माध्यमों की ऐसी कमी थी कि लोग आजादी मिलने के बाद भी कई बरस नहीं जान पाए थे कि अंग्रेजी राज खत्म हुआ। गहरवार राजाओं के वैभव के किस्से उन ग्रामवासियों की जुगाली का सामान थे।
फिर स्वतंत्र भारत का एक बड़ा पुरस्कार उन लोगों को यह मिला कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ा। वे ताम-झाम लेकर दर-दर के भिखारी हो गए। ऐसी जगह भाग जाना चाहते थे कि जहाँ महा-प्रलय आने तक डूब का खतरा न हो। ऐसे में मोरवा, बैढ़न, रेणूकूट, म्योरपुर, बभनी, चपकी आदि पहाड़ी स्थानों की तरफ वे अपना साजो-सामान लेकर भागे। अभी वे कुछ राहत की साँस लेना ही चाहते थे कि कोयला निकालने के लिए कोयला कंपनियों ने उनसे उस जगह को खाली कराना चाहा। ताप-विद्युत कारखाना वालों ने उनसे जमीनें माँगीं। वे बार-बार उजड़ते-बसते रहे।
कल्लू के बूढ़े दादा डूब के आतंक से आज भी भयभीत हो उठते थे। उनके दिमाग से बाढ़ और डूब के दृश्य हटाए नहीं हटते थे। हटते भी कैसे? उनके गाँव को, उनकी जन्म-भूमि को, उनके पुरखों की कब्रगाहों-समाधियों को इस नामुराद बाँध ने लील लिया था।
ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी बड़े जड़ जमाए पेड़ को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह रोपा जाए...
क्या अब वे लोग कहीं भी जम पाएँगे?
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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कल्लू के दादा की आँखें पनिया जातीं जब वह अपने विस्थापन की व्यथा का जिक्र करते थे। जाने कितनी बार उसी एक कथा को अलग-अलग प्रसंगों पर उनके मुख से यूनुस को सुन चुका था।
दादा एक सामान्य से देहाती थे। खाली न बैठते। कभी क्यारी खोदते, कभी घास-पात उखाड़ते या फिर झाड़ू उठाकर आँगन बुहारने लगते।
दुबली-पतली काया, झुकी कमर, चेहरे पर झुर्रियों का इंद्रजाल, आँखों पर मोटे शीशे का चश्मा, बदन पर एक बंडी, लट्ठे की परधनी, कंधे पर या फिर सिर पर पड़ा एक गमछा और चलते-फिरते समय हाथों में एक लाठी।
वह बताते कि उस साल बरस बरसात इतनी अधिक हुई कि लगा इंद्र देव कुपित हो गए हों। आसमान में काले-पनीले बादलों का आतंक कहर बरसाता रहा। बादल गरजते तो पूरा इलाका थर्रा जाता।
यूनुस भी जब सिंगरौली इलाके में आया था तब पहली बार उसने बादलों की इतनी तेज गड़गड़ाहट सुनी थी। शहडोल जिले में पानी बरसता है लेकिन बादल इतनी तेज नहीं गड़गड़ाया करते। शहडोल जिले में बारिश अनायास नहीं होती। मानसून की अवधि में निश्चित अंतराल पर पानी बरसता है। जबकि सिंगरौली क्षेत्र में इस तरह से बारिश नहीं होती। वहाँ अक्सर ऐसा लगता है कि शायद इस बरस भी बारिश नहीं होगी। एक-एक कर सारे नक्षत्र निकलते जाते हैं और अचानक कोई नक्षत्र ऐसा बरसता है कि सारी संभावनाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। लगता है कि बादल फट पड़ेंगे। अचानक आसमान काला-अँधेरा हो जाता है। फिर बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक के साथ ऐसी भीषण बरसात होती कि लगे जल-थल बराबर हो जाएगा।
वैसे इधर-उधर से आते-जाते लोगों से सूचना मिलती रहती कि पानी धीरे-धीरे फैल रहा है। लेकिन किसे पता था कि अनपरा, बीजपुर, म्योरपुर, बैढ़न, कोटा, बभनी, चपकी, बीजपुर तक पानी के विस्तार की संभावना होगी।
तब देश में कहाँ थी संचार क्रांति? कहाँ था सूचना का महाविस्फोट? तब कहाँ था मानवाधिकार आयोग? तब कहाँ थी पर्यावरण-संरक्षण की अवधारणा? तब कहाँ थे सर्वेक्षण करते-कराते परजीवी एनजीओ? तब कहाँ थे विस्थापितों को हक और न्याय दिलाते कानून?
नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व का दौर था। देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य। नए-नए लोकतंत्र में बिना शिक्षित-दीक्षित हुए, गरीबी और भूख, बेकारी, बीमारी और अंधविश्वास से जूझते देश के अस्सी प्रतिशत ग्रामवासियों को मतदान का झुनझुना पकड़ा दिया गया। उनके उत्थान के लिए राजधानियों में एक से बढ़कर एक योजनाएँ बन रही थीं। आत्म-प्रशंसा के शिलालेख लिखे जो रहे थे।
अंग्रेजी राज से आतंकित भारतीय जनता ने नेहरू सरकार को पूरा अवसर दिया था कि वह स्वतंत्र भारत को स्वावलंबी और संप्रभुता संपन्न बनाने में मनचाहा निर्णय लें।
देश में लोकतंत्र तो था लेकिन बिना किसी सशक्त विपक्ष के।
इसीलिए एक ओर जहाँ बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान आकार ले रहे थे वहीं दूसरी तरफ बड़े पूँजीपतियों को पूँजी-निवेश का जुगाड़ मिल रहा था।
यानी नेहरू का समाजवादी और पूँजीवादी विकास के घालमेल का मॉडल।
आगे चलकर ऐसे कर्इ सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को बाद की सरकारों ने कतिपय कारणों से अपने चहेते पूँजीपतियों को कौड़ी के भाव बेचने का षड्यंत्र किया।
पुराने लोग बताते हैं कि जहाँ आज बाँध है वहाँ एक उन्नत नगर था। गहरवार राजा की रियासत थी। केवट लोग बताते हैं कि अभी भी उनके महल का गुंबद दिखलाई पड़ता है।
गहरवार राजा भी होशियार नहीं थे। कहते हैं कि उनके पुरखों का गड़ा धन डूब गया है।
असल सिंगरौली तो बाँध में समा चुकी है।
आज जिसे लोग सिंगरौली नाम से पुकारते हैं वह वास्तव में मोरवा है।
तभी तो जहाँ सिंगरौली का बस-स्टैंड है उसे स्थानीय लोग पंजरेह बाजार नाम से पुकारते हैं।
कल्लू के दादा से खूब गप्पें लड़ाया करता था यूनुस।
वे बताया करते कि जलमग्न सिंगरौली रियासत में सभी धर्म-जाति के लोग बसते थे।
सिंगरौली रियासत धन-धान्य से परिपूर्ण थी।
तीज-त्योहार, हाट-बाजार और मेला-ठेला हुआ करता था। तब इस क्षेत्र में बड़ी खुशहाली थी। लोगों की आवश्यकताएँ सीमित थीं। फिर कल्लू के दादा राज कपूर का एक गीत गुनगुनाते - 'जादा की लालच हमको नहीं, थोड़ा से गुजारा होता है।'
मिर्जापुर, बनारस, रीवा, सीधी और अंबिकापुर से यहाँ के लोगों का संपर्क बना हुआ था।
यूनुस मुस्लिम था इसलिए एक बात वह विशेष तौर बताते कि सिंगरौली में मुहर्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था।
सभी लोग मिल-जुल कर ताजिया सजाते थे।
खूब ढोल-ताशे बजाए जाते।
तैंयक तक्कड़ धम्मक तक्कड़
सैंयक सक्कर सैंयक सक्कर
दूध मलीदा दूध मलिद्दा...
खिचड़ा बँटता, दूध-चीनी का शर्बत पिलाया जाता।
सिंगरौली के गहरवार राजा का भी मनौती ताजिया निकलता था। मुसलमानों के साथ हिंदू भाई भी शहीदाने-कर्बला की याद में अपनी नंगी-छाती पर हथेली का प्रहार कर लयबद्ध मातम करते।
'हस्सा-हुस्सैन... हस्सा-हुस्सैन'
कल्लू के दादा बताते कि उस मातम के कारण स्वयं उनकी छाती लहू-लुहान हो जाया करती थी। वह लाठी भाँजने की कला के माहिर थे। ताजिया-मिलन और कर्बला ले जाने से पहले अच्छा अखाड़ा जमता था। सैकड़ों लोग आ जुटते थे। थके नहीं कि सबील-शर्बत पी लेते, खिचड़ा खा लेते। रेवड़ियों और इलाइचीदाने का प्रसाद खाते-खाते अघा जाते थे।
यूनुस ने भी बचपन में एक बार दम भर कर मातम किया था, जब वह अम्मा के साथ उमरिया का ताजिया देखने गया था। सलीम भाई तो ताजिया को मानता न था। उसके अनुसार ये जहालत की निशानी है। एक तरह का शिर्क (अल्लाह के अलावा किसी दूसरी जात को पूजनीय बनाना) है। खैर, ताजिया की प्रतीकात्मक पूजा ही तो करते हैं मुजाविर वगैरा...
यूनुस ने सोचा कि अगर लोग उस ताजिया को सिर झुकाकर नमन करते हैं तो कहाँ मना करते हैं मुजाविर! उनका तो धंधा चलना चाहिए। उनका ईमान तो चढ़ौती में मिलने वाली रकम, फातिहा के लिए आई सामग्री और लोगों की भावनाओं का व्यावसायिक उपयोग करना ही तो होता है। साल भर इस परब का वे बेसब्री से इंतजार करते हैं। हिंदू-मुसलमान सभी मुहर्रम के ताजिए के लिए चंदा देते हैं।
उमरिया में तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत ताजिया बनाए जाते हैं। लाखों की भीड़ जमा होती है। औरतों और मर्दों का हुजूम। खूब खेल-तमाशे हुआ करते हैं। जैसे-जैसे रात घिरती जाती है, मातम और मर्सिया का परब अपना रंग जमाता जाता है। कर्इ हिंदू भाइयों पर सवारी आती है। लोग अँगुलियों के बीच ब्लेड के टुकड़े दबा कर नंगी छातियों पर प्रहार करते हैं, जिससे जिस्म लहू-लुहान हो जाता है।
र्इरानी लोग जो चाकू-छुरी, चश्मा आदि की फेरी लगाकर बेचा करते हैं, उनका मातम देख तो दिल दहल जाता है। वे लोग लोहे की जंजी़रों पर काँटे लगा कर अपने जिस्म पर प्रहार कर मातम करते हैं।
कुछ लोग शेर बनते हैं।
शेर का नाच यूनुस को बहुत पसंद आया था।
रंग-बिरंगी पन्नियों और कागजों की कतरनों से सुसज्जित ताजियए के नीचे से लोग पार होते। हिंदू और मुस्लिम औरतें, बच्चे और आदमी सभी बड़ी अकीदत के साथ ताजिए के नीचे से निकलते। यूनुस ने देखा था कि एक जगह एक महिला ताजिया के सामने अपने बाल छितराए झूम रही है।
डूब में बसे कस्बे में मुहर्रम के मनाए जाने का कुछ ऐसा ही दृश्य कल्लू के दादा बताया करते थे।
लोगों का जीवन खुशहाल था।
रबी और खरीफ की अच्छी खेती हुआ करती थी।
उस इलाके की खुशहाली पर अचानक ग्रहण लग गया।
लोगों ने सुना कि अब ये इलाका जलमग्न हो जाएगा।
किसी ने उस बात पर विश्वास नहीं किया।
सरकारी मुनादी हुर्इ तो बड़े-बुजुर्गों ने बात को हँस कर भुला दिया। अभी तो देश आजाद हुआ है। अंग्रेज भी ऐसा काम न करते, जैसा आजाद भारत के कर्णधार करने वाले थे।
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इस बात पर कौन यकीन कर सकता था कि गाँव के गाँव, घर-बार, कार्य-व्यापार, देव-स्थल, मस्जिदें, कब्रगाहें सब जलमग्न हो जाएँगी। और तो और गहरवार राजा का महल भी डूब जाएगा।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर बसा सिंगरौली क्षेत्र। उस क्षेत्र के लोगों की चिंता उत्तर प्रदेश की सरकार को थी और न मध्य प्रदेश की सरकार को।
रेणूकूट में बाँध बन कर तैयार हो चुका था। धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ रहा था। सरकारें खामोशी से डूब की प्रतीक्षा कर रही थीं। स्थानीय लोग ये मानने को मानसिक रूप से तैयार न थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद एक ऐसा समय भी आएगा जब उन्हें अपने पूर्वजों की समाधियों को, अपने कुल-देवताओं को, अपनी जन्म-भूमि को छोड़ना पड़ेगा। अपनी मातृभूमि से उन्हें बेदखल होना पड़ेगा। विस्थापन का दंश झेलना पड़ेगा।
लोगों को कहाँ मालूम था कि देश के एक बड़े उद्योगपति बिड़ला की इच्छा है कि उन्हें एल्यूमिनियम बनाने का एशिया-प्रसिद्ध प्लांट यहीं डालना है, क्योंकि ये एक पिछड़ा इलाका है। यहाँ किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा। किसी तरह की प्रशासनिक अड़चनों का सामना नहीं करना होगा। कम से कम लागत पर अत्यधिक लाभ का अवसर वहाँ था।
हवाई जहाज द्वारा इस इलाके की प्राकृतिक संपदा का आकलन हो चुका था।
बिड़ला जी द्वारा लाखों एकड़ की वन-भूमि पर कब्जा हो चुका था। प्लांट के लिए उपकरण आयात किए जा रहे थे।
आधुनिक युग के तीर्थ उद्योग-धंधे होंगे, नेहरू का नया मुहावरा देश की फिजा में गूँज रहा था।
नेहरू की तिलस्मी छवि के लिए देश में कोर्इ चैलेंज न था।
गांधी-नेहरू मित्र बिड़ला जी को अपने भावी उद्योग के लिए चाहिए थी सस्ती जमीन, आयातित उपकरण और पर्याप्त मात्रा में बिजली।
बिजली के लिए जरूरी था पानी और कोयला।
पानी के लिए तो नेहरू बनवा ही रहे थे बाँध और र्इंधन के लिए सिंगरौली क्षेत्र में था कोयले का अकूत भडार।
सिंगरौली क्षेत्र में है एशिया की सबसे मोटी कोयला परतों में से एक परत 'झिंगुरदह सीम' जो कि लगभग एक सौ पचास मीटर मोटी है।
झिंगुरदह खदान से कोयला 'एरियल रोप-वे' द्वारा बिड़ला जी के पावर प्लांट 'रेणुसागर' में आता। रेणूसागर में ताप-विद्युत तकनीकी से बिजली बनती जिसे सीधे रेणुकूट में स्थित एल्यूमिनियम कारखाने में भेजा जाता था।
कोयला उद्योग का जब इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण किया तभी से सिंगरौली कोयला क्षेत्र में सुव्यवस्थित कोयला उत्पादन की योजनाएँ बनीं। बाँध के इर्द-गिर्द मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों ने और एनटीपीसी ने अपने ताप-विद्युत केंद्र स्थापित किए।
एक समय था जब दादा-पुरखे किसी को शाप देते तो यही कहते थे - 'जा बैढ़न को...'
आज वही अभिशप्त बैढ़न नव-उद्यमियों, तकनीशियनों, पूँजीपतियों, पब्लिक स्कूलों, गैरसरकारी संगठनों, धार्मिक-आध्यात्मिक व्यवसायियों आदि के लिए स्वर्ग बना हुआ है।
एक से एक सर्वसुविधायुक्त नए-नए नगर स्थापित हो रहे हैं। बैढ़न में जमीन की कीमतें आकाश छू रही हैं।
आज सिंगरौली एक ऊर्जा-तीर्थ के रूप में याद किया जाता है।
तीन
कल्लू के गाँव के नीचे एक नाला बहता था। दर्रा-नाला। खदान से निकला पानी और कालोनी का निकासी पानी नाले में साल भर बहता। दर्रा-नाले के इर्द-गिर्द एक बस्ती आबाद हो गर्इ थी। यह ठेकेदारी मजदूरों की बस्ती थी। इस आबादी का नाम सफेदपोश लोगों ने आजाद नगर नाम दिया था।
आजाद नगर नाम के अनुसार ये बस्ती भारतीय दंड विधान की धाराओं, उपधाराओं आदि पाबंदियों से आजाद थी। इस बस्ती को समस्त वर्जनाओं से आजादी मिली हुर्इ थी। आजाद नगर में प्रचुरता से उपलब्ध था - शराब, शबाब, कबाब, जरायम-पेशा लोग, भूख-बीमारी-बेकारी और सट्टा-जुआ के अड्डे।
सभ्य-जन इधर का रुख न करते, वे उसे पाप-नगरी कहते। रावण की लंका और नर्क का द्वार कहते।
इस नर्क के निवासी थे तमाम मेहनतकश...
ये मेहनत-कश कार्ल-मार्क्स के देसी संस्करण वाले तमाम मजदूर संगठनों की निगाह से उपेक्षित थे। उनकी खुशहाली के लिए उन मजदूर संगठनों के पास कोर्इ कार्यक्रम न था। उन लोगों के लिए कोर्इ मानवाधिकार आयोग न था। कोर्इ टाउन-प्लानिंग कमेटी न थी। कोर्इ अस्पताल, कोर्इ नर्सिंग होम न था। उनके लिए कोर्इ रिक्शा-स्टेंड या बस-अड्डा न था। उनके बच्चों के लिए कोर्इ स्कूल न था। उनके लिए किसी तरह की औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा की कोर्इ व्यवस्था न थी।
उनकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए कोर्इ मौलवी, पंडित या पादरी न था।
उनमें ज्यादातर लोग कोयले के ढेर से पत्थर-शेल छाँट कर अलग करने वाले मजदूर थे। खदान चलाने के लिए भवन, नगर, सड़कें और विशालकाय वर्कशाप आदि निर्माण के काम में नियोजित सैकड़ों रेजा मजदूर और मिस्त्री। विद्युत, यांत्रिकीय, सिविल आदि काम के लिए कुशल-अकुशल ठेकेदारी कामगार। मेहनत-मशक्कत, नैन-मटक्का से लेकर गाने-बजाने तक में कुशल युवतियाँ।
आजाद नगर में कुछ छोटे-मोटे ठेकेदारों ने भी अपने आशियाने सजाए हुए थे।
पुलिस थाने के रिकार्ड में ये बस्ती तमाम अपराधों की जन्मदाता के नाम से मशहूर थी। इसलिए पुलिस यहाँ अक्सर दबिश करती और प्रकरण बनाया करती, लेकिन गलत काम पूरी तरह से बंद नहीं करवाती। लोग कहते कि यदि आजाद नगर सुधर गया या उजड़ गया तो फिर पुलिस विभाग की कमार्इ बंद हो जाएगी।
कल्लू आजाद नगर के उस हिस्से का नियमित ग्राहक था, जहाँ दारू और रूप का सौदा होता था।
ऐसे ही गप्प के दौरान यूनुस ने एक किशोरी के बारे में जानना चाहा, जो साइकिल पर दनदनाती फिरती है। लोग कहते हैं कि वह थानेदार और एक बड़े ठेकेदार की रखैल है।
कल्लू ने यूनुस की तरफ अविश्वास से देखा - 'का गुरू, तुम भी इस चक्कर में रहते हो?'
यूनुस क्या जवाब देता - 'तो क्या, मैं आदमी नहीं हूँ का?'
बस, फिर क्या था।
कल्लू एक दिन यूनुस को आजाद नगर ले गया।
पहले तो यूनुस ने ना-नुकुर की। उसे डर था कि कहीं ये बात खालू या खाला तक न पहुँचे। उसकी गत बन जाएगी। यदि सनूबर उसकी ये हरकत जान गर्इ तो जिंदगी भर माफ न करेगी। उसे कितना प्यार करती है सनूबर।
अरे, जब सनूबर की चचेरी बहन जमीला ने यूनुस को अपने हुस्न के जाल में फँसाना चाहा था तो सनूबर ने ही उसे बचाया था।
जमीला यूनुस से चार-पाँच साल बड़ी होगी। वह विवाहित थी। उस समय उसके बच्चा न हुआ था। एकदम पके आम की तरह गदरार्इ हुर्इ थी।
जमीला मैके आर्इ तो खाला से मिलने चली आर्इ। जमीला का शौहर खाड़ी देश कमाने गया था। जमीला के पास पैसे तो इफरात थे। इसीलिए वह दिल खोल कर खर्च करती थी। ऐसे मेहमान किसे बुरे लग सकते हैं।
जमीला की खाला से खूब पटती। वे जब भी मिलतीं, जाने क्या बातें करके खूब हँसतीं, ज्यों बचपन की बिछड़ी पक्की सहेली हों।
जमीला की नाक में पड़ी सोने की लौंग में एक नग गड़ा था। रोशनी पड़ने पर वह खूब चमकता। उसकी चमक से जमीला की आँखें दमकने लगतीं। यूनुस जब भी जमीला की तरफ देखता, उसकी नाक की लौंग की चमक के तिलस्म में उलझ कर रह जाता।
शायद इस बात से जमीला वाकिफ थी।
यूनुस ने महसूस किया कि जमीला उसकी तरफ कुछ अधिक झुकाव रखती है। ऐसा पहले न था। अब शायद यूनुस किशोरास्था से जवानी की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा था। काम-धंधा करने से उसके जिस्म में गजब की कशिश आ गर्इ थी। था भी यूनुस पाँच फीट सात इंच का गबरू जवान। हल्की-हल्की मूँछ और बाल संजय दत्त जैसे। यूनुस संजय दत्त का फैन था।
यूनुस नाइट-शिफ्ट खट के घर लौटा तो घड़ी में सुबह के दस बज रहे थे। रात पाली में पेलोडर चलाने के बाद यदि गाड़ी में कुछ खराबी आ जाए तो उसे वर्कशॉप लाकर खड़ा करना होता था। फिर गाड़ी में जो भी ब्रेक-डाउन हो उसे मेकेनिक को बतलाकर मरम्मत करवाना रात-पाली के आपरेटर का काम था। वहाँ का सुपरवाइजर एक मद्रासी था। बहुत कानून बतियाता था। सो इस प्रक्रिया में देर तो हो ही जाती।
जब वह घर पहुँचा उस समय खालू ड्यूटी गए हुए थे। खाला कहीं पड़ोस में गपियाने गर्इ थीं। गोद के बच्चे छोड़कर पढ़ने वाले सभी बच्चे स्कूल जा चुके थे।
यूनुस ने दरवाजा ढकेला तो वह खुल गया।
सन्नाटा देख वह बैठकी में रखे तखत पर बैठ गया कि आहट सुनकर कोर्इ बोलेगा। हो सकता है कि खाला गुसलखाने में हों।
लेकिन कुछ देर तक कोर्इ खट-पट नहीं हुर्इ तो वह उठा। रसोर्इ से होकर आँगन की तरफ गया। आँगन में पानी की टंकी थी, जहाँ परिवार के मर्द या फिर बच्चे नहाते-धोते थे।
हाथ-मुँह धोने वह टंकी के पास जा पहुँचा।
अभी वहाँ पहुँच कहाँ पाया था कि उसने जो दृश्य देखा तो उसके होश उड़ गए।
जमीला टंकी के पीछे खड़े-खड़े नहा रही थी।
उसकी कमर से ऊपर का हिस्सा खुला हुआ था।
साँवला जवान जिस्म...
साँचे में ढला बदन...
यूनुस ने उल्टे पाँव भागना चाहा, लेकिन तभी उसकी नाक की लौंग का नग चमचमाने लगा। उसकी चमक से निकली किरनों की रस्सी से यूनुस के पाँव बँध से गए थे।
आहट पाकर जमीला एकबारगी चौंकी, फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसने अपने जिस्म को छुपाया नहीं बल्कि दो मग पानी और जिस्म पर डाल लिया।
यूनुस के होश उड़ गए।
उसने जाना कि जमीला की हँसी में खुला आमंत्रण था।
जमीला एक चैलेंज की तरह उससे टकरार्इ थी।
घबराहट में यूनुस घर से निकल भागा, वह रुका नहीं।
वह तब तक न लौटा जब तक उसे विश्वास न हो गया कि अब घर में खाला और बच्चे आ गए होंगे।
दोपहर में जब वह आँगन में खटिया डाले धूप में सो रहा था, कि उसे लगा उसके ऊपर कोर्इ सोया हुआ है। वह जमीला थी, जो मौका पाकर यूनुस को छेड़ रही थी।
जमीला की छातियाँ उसकी छाती से आ लगी थीं।
यूनुस की साँस अटकने लगी।
जमीला के होंठ यूनुस के चेहरे पर अपना कमाल दिखाने लगे।
जमीला उसके कान में फुसफुसा कर गा रही थी -
'धीरे धीरे प्यार को बढ़ाना है
हद से गुजर जाना है...'
क्या यूनुस को उस समय तक 'हद से गुजर जाने' का मतलब पता चल पाया था?
ऐसा नहीं कि यूनुस कोर्इ संत था लेकिन वह उस समय सनूबर की आँखों की झील में डुबकियाँ लगा रहा था। सनूबर के पल्टे हुए होंठ जब मुस्कराते तो जैसे यूनुस के जेब खनखनाने लगते थे। यूनुस एकाएक रर्इस आदमी में बदल जाता था।
उसे सनूबर छोड़ और कोर्इ दूसरी लड़की कैसे प्यारी होती?
एक दिन उसने सनूबर से जमीला की हरकतों के बारे में बताया तो सनूबर खूब हँसी। उसने यूनुस को चिढ़ाया कि वह कैसा मर्द-बच्चा है। यहाँ तक कि सनूबर ने जमीला के साथ मिलकर उसकी हँसी भी उड़ार्इं थी।
यूनुस अपने प्यार के साथ बेवफार्इ नहीं करना चाहता था।
इस घटना के बाद उसने अपने लिए सनूबर के दिल में और ज्यादा जगह बना ली थी।
चार
यूनुस कोर्इ बाल-ब्रह्मचारी न था और न सदाचार के लिए कृत-संकल्पित युवक।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: पहचान

Post by Jemsbond »

वह अपने आसपास के अन्य सैकड़ों किशोरों और युवाओं की तरह अपनी शारीरिक क्षमताओं और कमजारियों के प्रति आशंकित रहता था। उसके मन में सहज जिज्ञासा थी कि इंसान के जीवन का ये कैसा अध्याय है, जिसके प्रति सयाने-बुजुर्ग इतनी घृणा का प्रदर्शन करते हैं। क्या वे वाकर्इ इन गोपन-क्रियाओं के प्रति अनासक्त होते हैं? नहीं, बल्कि इस अनूठी-प्राकृतिक क्रिया में वे आकंठ डूबे होते हैं।
यूनुस एक ऐसे निम्न-मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ था, जहाँ दो कमरे में पूरी गृहस्थी समार्इ हुर्इ थी।
जहाँ माता-पिता के बीच प्रेम और घृणा प्रकट करने के लिए कोर्इ पृथक व्यवस्था न थी।
जहाँ हर दो-चार साल के अंतराल में एक संतान का जन्म लेना साधारण घटना थी।
जहाँ बड़े-बुजुर्ग, बच्चों के सामने मुहल्ले के लोगों से खुलकर हँसी-ठिठोली करते थे।
जहाँ स्त्रियाँ आपस में गोपन रहस्यों पर इशारतन बतिया कर अवर्णनीय आनंद उठाया करतीं।
इन ठिठोलियों में देवर-भौजार्इ के रिश्ते से उपजी अश्लील शब्दावली आम थी।
बच्चे जान जाते थे कि जब सड़ा केला-पिलपिला पपीता कहा जाता है तो उसका भावार्थ क्या होता है ?
जब गहरा कुआँ और छोटी रस्सी की बात करके बड़े हँस रहे हैं तो उसका अर्थ क्या हो सकता है?
जब खलबट्टा से मसाला कुटार्इ की बात होती है तो मार कहाँ होती है।
परिणामतः उन परिवारों की बेटियाँ असमय युवा होकर नैन-मटक्का करते-करते घर से भाग जाती हैं या फिर बिन-ब्याही माँ बन जाती हैं।
उन परिवारों के लड़के बुआ-मौसी, चाची-काकी, अविवाहित दीदियों या फिर घरेलू नौकरानियों के संपर्क में आकर युवा अनुभवों का पाठ पढ़ते हैं।
इसीलिए यूनुस के, बचपन से जवानी तक के अध्याय निर्दोष न थे।
बीना कोयला खदान में काम के दौरान कल्लू यूनुस का अंतरंग मित्र बन गया।
कल्लू बाल-बच्चेदार किंतु बहुत लापरवाह किस्म का युवक था। यूनुस ने उसकी बीवी को देखा था। वह मुटा कर भैंस हो गर्इ थी।
कल्लू की मौसी दिखती थी वो।
कल्लू के लिए तीन लड़कियाँ और एक लड़का जन चुकी थी वो।
अगर सारे बच्चे जिंदा होते तो अब तक वह पाँच बार माँ बन चुकी थी। एक बार गर्भपात हुआ था। अब उसके जिस्म में रस न था। बच्चों को पाल ले, कल्लू को बस इतनी ही चाह थी उससे।
कल्लू इसीलिए इधर-उधर मुँह मारा करता।
कल्लू ने यूनुस को भी 'स्वाद चखने' का न्योता दिया।
वह कहा करता - 'तुम अपने अल्ला के पास जाओगे, तो अल्ला पूछेगा, धरती पर क्या किया? जब तुम बताओगे कि न मैंने दारू पिया, न जेल गया, न रंडीबाजी की तो अल्ला बड़ी जोर से हँसेगा और दो किक मार कर इस दुनिया में दुबारा भेज देगा कि बच्चू जब कुछ किया ही नहीं फिर यहाँ कैसे आ गए।'
इसी तरह की बातें करके वह यूनुस को तैयार करता।
और एक दिन यूनुस तैयार हो ही गया।
उसने कल्लू के प्रस्ताव को एक चैलेंज माना।
हालाँकि उसका अंतर्मन इस बात के लिए तैयार न था।
कल्लू उसे आजाद नगर के उस हिस्से में ले गया जहाँ जिस्म-फरोशी होती थी।
झोंपड़ियों की कतारें। बीच में गली। ठेले पर चना, मूँगफली, नमकीन और अंडे की दुकानें। कुछ पान की गुमटियाँ। चाय-समोसे के लिए होटल एक झोंपड़ी में।
माहौल में अजीब तरह की सड़ांध। जैसे कहीं कोर्इ जानवर मरा हो। हवा में हल्की सी नमी व्याप्त थी। बारिश का मौसम खत्म हुआ था और शरद का आगमन हो चुका था। सायंकालीन आकाश का रंग हल्का लाल, पीली और नीला था। सारे रंग धीरे-धीरे धुँधलाते जा रहे थे। लगता था कि जल्द ही आसमान पर सुरमर्इ रंगत छा जाएगी।
कामगार काम से छूटकर घर लौट रहे थे।
झोपड़ियों के दरवाजे खुलने लगे थे।
मर्द घर के बाहर खाट डाल कर बैठने लगे थे। गाँजा-चिलम का दौर शुरू हो रहा था। दारू पीने वाले मजदूर बन-ठन कर भट्टी की ओर जा रहे थे।
झोपड़ियों में अब चूल्हे सुलगाने का उपक्रम होने लगा। मजदूर अमूमन काम से लौट आए थे। दर्रा नाले में नहाकर औरतें, मर्द और बच्चे लौट रहे थे।
दर्रा नाला एक बदनाम जगह का पर्याय बन चुका था।
लोग जानते थे कि यहाँ सुबह से शाम तक मजदूर स्त्री-पुरुषों के नहाने का कार्यक्रम निर्विघ्न चला करता है।
बीना-वासी दर्रा-नाले को 'वैतरणी' का नाम देते या फिर उसे 'राम तेरी गंगा मैली' कहते। कॉलोनी के बदमाश लड़के स्कूल से भागकर दर्रा नाला के आसपास मँडराते रहते और छुप-छुप कर नहाती स्त्रियों को देखा करते।
यूनुस सहमा-सहमा आजाद-नगर के माहौल का जायजा ले रहा था। उसके मन में भय था कि कहीं खालू का कोर्इ साथी उसे यहाँ देख न ले, वरना शामत आ जाएगी।
वैसे भी यूनुस का खालू से छत्तीस का आँकड़ा था। खालू उसे फूटी आँख पसंद न करते।
कल्लू यूनुस का हाथ थामे एक झोंपड़ी के सामने रुका।
यह निचली छानी वाली एक मामूली सी झोंपड़ी थी। बाहर परछी थी। परछी में एक खाट बिछी थी। कल्लू ने यूनुस को परछी में खाट पर बैठने का इशारा किया। फिर वह अंदर चला गया।
यूनुस खाट पर बैठा ही था कि दो नंग-धड़ंग बच्चे उसके पास चले आए - 'मालिक, चना खाने को पैसा दो ना!'
यूनुस ने उन्हें फटकारा।
वे टरे नहीं, जिद पर अड़े रहे।
तब तक कल्लू झोंपड़ी से बाहर निकला। उसने यूनुस को परेशान करते बच्चों की पीठ पर धौल जमार्इ। बच्चे तुरंत रफूचक्कर हो गए।
कल्लू ने यूनुस से फुसफुसाकर कहा - 'पहले तुम जाओ, समझे।'
यूनुस क्या कहता, उसे तो अनुभव लेना था। उसने 'हाँ' में सिर हिला दिया।
उसके दिल की धड़कनें तेज हो चुकी थीं। उसने अपने सीने पर हाथ रखा। दिल बड़ी तेजी से धड़क रहा था। माथे पर पसीना चुचुआने लगा था।
हिम्मत करके वह खटिया से उठा।
कल्लू उसकी जगह खाट पर बैठ गया।
यूनुस झिझकते-झिझकते झोंपड़ी के दरवाजे के पास जाकर खड़ा हुआ।
वह टीना-टप्पर ठोंक-ठाँक कर बनाया गया एक काम-चलाऊ दरवाजा था। उसने कल्लू की तरफ देखा।
कल्लू ने आँख के इशारे से बताया कि दरवाजा ठेलकर वह घुस जाए।
यूनुस ने दरवाजे को धक्का दिया। दरवाजा खुल गया।
अंदर लालटेन की मद्धम रोशनी थी।
वह अंदर पहुँचा तो उसने देखा कि कोने में एक चारपार्इ है और जमीन पर भी बिस्तर बिछा है।
जमीन के बिस्तर पर एक अधेड़ महिला बैठी है। ठीक उसकी खाला की उम्र की महिला। उसने सिर्फ लहँगा और ब्लाउज पहन रखा है। वह एक छोटे से आर्इने को एक हाथ से पकड़े अपने होठों पर लिपिस्टिक लगा रही है।
यूनुस को देखकर उसने उसे खटिया पर बैठने का इशारा किया।
यूनुस का मन वितृष्णा से भर उठा।
उसकी रंगत साँवली थी जो लालटेन की मद्धम रोशनी में काली नजर आ रही थी।
महिला ने उसे एक बार फिर गौर से देखा और हँसी। यूनुस ने देखा कि उसके सामने के दो दाँत टूटे हैं।
लालटेन की धुँधली रोशनी में उसका हँसता चेहरा किसी चुड़ैल की तरह नजर आया।
यूनुस को उबकार्इ आने लगी।
अभी तक उसने कोठा देखा था तो सिर्फ सिनेमा में। जहाँ वेश्याओं का रोल नामी-गिरामी हीरोइनें किया करती हैं। रेखा, माधुरी दीक्षित, तब्बू, करिश्मा कपूर, रवीना आदि हीरोइनें जब वेश्याएँ बनती हैं तों कितनी खूबसूरत दिखा करती हैं। एक से बढ़कर एक हीरो इन वेश्याओं के दीवाने होते हैं। अरे, 'मंडी' पिक्चर में भी वेश्याएँ कितनी खूबसूरत थीं।
आजाद नगर में तो सारा हिसाब ही उल्टा-पुल्टा है।
महिला यूनुस के पास आकर खाट पर बैठ गर्इ।
उसने ब्लाउज के बटन खोलते हुए कहा - 'लेट नहीं, जल्दी करो। जादा टैम नहीं लेना।'
ब्लाउज के बटन खुले और... यूनुस को काटो तो खून नहीं।
वह तब तक बेहद घबरा चुका था।
अभ्यस्त महिला जान गर्इ कि बालक नर्वस है। उसने यूनुस का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा।
यूनुस ने उसके हाथ की सख्ती महसूस की। वह एक खुरदुरा-पथरीला हाथ था।
यूनुस की रही-सही ताकत जवाब दे गर्इ।
उसने महिला से हाथ छुड़ाया और उठते हुए बस इतना ही कहा - 'थोड़ा बाहर से होकर आता हूँ।'
और बिना देर किए कमरे से बाहर निकल आया।
कल्लू ने सवालिया निगाहों से उसे देखा और इशारों में पूछा - 'हो गया!'
यूनुस ने इशारे में बताया - 'हाँ!'
फिर कल्लू अंदर घुसा तो यूनुस तत्काल उस आजाद नगरी से नौ-दो ग्यारह हो गया।
उसके बाद उसने कल्लू की दोस्ती भी छोड़ दी थी।
पाँच
चाय कब खत्म हुर्इ, वह जान न पाया।
एक रुपए की एक कप चाय वह पी चुका था और उसे उस चाय की तासीर का इल्म भी न हुआ।
यूनुस को सनूबर 'चहेड़ी' कहती।
खालू चाय के दुश्मन हैं। चाय को खालू जहर कहा करते। खाला चाय की बेहद शौकीन थीं। खाला के घर के अजीब हालात थे। खालू जिस चीज के खिलाफ होते, खाला उस काम को धड़ल्ले से करतीं। खालू बड़बड़ाते तो खाला तिरस्कार से हँसतीं।
यूनुस का मन उस एक कप चाय से न भरा।
उसने होटल वाली से एक और कप चाय के लिए कहा।
केतली में चाय बची थी।
महिला उसे कप में ढालने लगी तो यूनुस ने उसे टोका - 'ठंडा गर्इ होगी। तनि गरमा लेर्इ।'
केतली की चाय को महिला ने भट्टी पर गरमाया।
फिर उसके लिए चाय कप में न ढाल कर काँच के गिलास में ढाली।
यूनुस ने देखा कि चाय की मात्रा एक कप से ज्यादा है।
गिलास देते वक्त यूनुस ने महसूस किया कि महिला ने अपनी अँगुलियों का स्पर्श होने दिया है। वह मुस्कराया।
इस बार की चाय ने उसे तृप्त किया।
उसने सोचा अब सिंगरौली स्टेशन की ठंड उसका बाल बाँका नहीं कर सकती।
चाय के पैसे देने लगा तो छुट्टा वापस करते हुए पूछा - 'कहाँ तक जाना है?'
यूनुस क्या बताता। हर बार तो वह ऐसे ही निकल पड़ता है, बिना गंतव्य के बारे में जाने। इस बार भी वह एक अंधी छलाँग लगा रहा है। हाँ, ये जरूर है कि ये छलाँग बिना बैसाखी के वह लगाएगा। वह स्वयं दौड़ेगा। फिर निशान देख कर कूद पड़ेगा। अब कितनी दूर तक उसकी छलाँग रहेगी ये तो वक्त बताएगा। उसे डर था कि कहीं रेफरी उसकी छलाँग को 'फाउल' न करार दे दे।
छुट्टा जेब में रखते हुए उसने महिला के प्रश्न का सहज उत्तर दिया - 'कटनी!'
सच भी है।
पहले तो उसे कटनी ही जाना है।
उसके बाद ही आगे की गाड़ी पकड़नी होगी।
वह वापस स्टेशन लौट आया।
प्लेटफार्म पर रनिंग-स्टाफ रूम के बाहर जलार्इ गर्इ आग के पास ही उसने खड़ा होना उचित समझा।
स्टाफ अब बतिया नहीं रहे थे। लगता है गप्पें मारते-मारते वे थक गए होंगे। अब वे ऊँघ रहे थे। उनके नीले ओवरकोट फर्श पर लिथड़ा रहे थे। उन्हें नींद सता रही थी।
यूनुस एक पेटी पर बैठ गया, जिसके साइड में लिखा था - 'ए बी दास, गार्ड'।
आँच में अब जान नहीं थी।
नया कोयला डालने पर ही कुछ ताप बढ़ता।
यूनुस ने स्वेटर के ऊपर विंड-चीटर पहन रखा था।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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Re: पहचान

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घर से निकला तब रात के नौ बजे थे। वातावरण काफी ठंडा हो गया था।
उसे हाथ और कानों में अधिक ठंड लगती थी।
बीना से औड़ी-मोड़ तक तो वह बस से आ गया। फिर औड़ी-मोड़ में उसे अगले साधन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी। सिंगरौली के लिए बनारस से बस आती है।
औड़ी-मोड़ इस इलाके की सबसे ठंडी जगह है।
उसे बस का बेसब्री से इंतजार था। वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी खालू की पहुँच से दूर निकल जाए। कहीं उनका कोर्इ साथी उसे यहाँ सफर करते रंगे-हाथ पकड़ न ले।
इसीलिए वह आरटीओ चेक-पोस्ट के पास जाकर खड़ा हो गया। यहाँ बस रुकती है।
बस आर्इ तो उसे कुछ राहत मिली।
यह उत्तर-प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बस थी।
लगता है राबर्ट्सगंज डिपो की बस थी। तभी तो एकदम खड़खड़ा रही थी।
बस के अंदर ठंड से बचने का सवाल न था। खिड़कियों के शीशे गायब थे। जिन खिड़कियों में शीशे थे भी तो वे ढंग से बंद न होते। पूरी बस में ठंडी हवा के तीर चल रहे थे।
यूनुस के हाथ और कान ठंडाने लगे और उसे सनूबर की याद हो आर्इ।
उसने तत्काल अपने विंड-चीटर के जेब की तलाशी ली।
वाकर्इ, सनूबर के दिल में उसके लिए एक कोना सुरक्षित है। वह अपना कर्तव्य भूली न थी। विंड-शीटर के एक जेब में सनूबर के हाथों से बुना दस्ताना था, और दूसरे में मफलर।
उसने दास्ताने पहने और जब मफलर से कान लपेटे तो लगा कि सनूबर अदृश्य रूप में उसकी सहयात्री है।
यूनुस भाग रहा था।
वह भाग रहा था, बहुत कुछ पाने के लिए और खो रहा था सनूबर का साथ।
वाकर्इ सनूबर है कि वह जिंदा है। उसने ही यूनुस के दिल में जिंदगी के चैलेंज को स्वीकार करने की इच्छा जगार्इ है।
सनूबर ने ही उसकी अंतरात्मा को ललकारा था कि यूनुस, जागो! दुनिया में कुछ कर दिखाना है तो समाज में पहले अपनी 'कुछ हटके' पहचान बनाओ!
वरना एक समय तो वह इतना हताश हो गया था कि उसे जीवन से मोह नहीं रह गया था। उसे ऐसा लगता था कि इतनी कम उम्र में इतने अपमान, इतने दुख उठाने से अच्छा है कि वह आत्महत्या कर ले।
वह दोस्तों के बीच और कभी-कभी खाला के सामने अक्सर कहता भी था कि जी करता है मर जाऊँ तो मुक्ति मिले।
मुक्ति...
लेकिन किससे?
जीवन से या कि दिन-प्रतिदिन के उलाहनों-तानों से?
लेकिन जीवन उसे सनूबर के रूप में अपने पास बुलाता - 'तुम मेरे हो। तुम्हें मेरी खातिर जीवित रहना है।'
जाने कैसे सनूबर इतनी संजीदा बातें बोलना सीख गर्इ है।
स्कूल जाती है न!
सहेलियों के बीच उठती-बैठती है।
घर में 'ब्लैक एंड व्हाइट' टीवी है। उसका चैनल बदल-बदल कर हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों से यही सब तो सीखते हैं कॉलोनी के बच्चे।
एक और डायलाग जो यूनुस को अच्छा लगता - 'मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी! तुम्हें मेरी खातिर आना होगा, यूनुस...'
वो मुहम्मद रफी का एक गाना है ना -
'हम इंतजार करेंगें तेरा कयामत तक
खुदा करे कि कयामत हो और तू आए।'
सनूबर की आँखें बड़ी-बड़ी हैं।
जब वह भावनाओं के बहाव में डूब-उतरा रही हो तब आँखें अधखुली रहतीं।
खोर्इ-खोर्इ सी, शून्य में ताकती आँखें।
सनूबर अभी कक्षा आठ की छात्रा ही तो है।
चौदह साल की उम्र में इतनी बड़ी बात...
'मेरी खातिर' और 'मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी!'
प्रेमातिरेक में डूबी भावुक बातें!
सनूबर कर्इ बातों में अपने खानदान से कुछ हट के नजर आती।
गोरी-चिट्टी सनूबर वाकर्इ अपने भार्इ-बहनों के बीच अलग दीखती। उसके नैन-नक्श अपनी माँ पर हैं। गोलाकार चेहरा, संतुलित बनावट, माथा कम चौड़ा और लंबे बाल।
खालू की परछार्इं भी नहीं पड़ी जरा सी।
यदि वह खालू या उनके खानदान के किसी का साया पड़ा होता तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखों की जगह अंदर की ओर धँसी हुर्इ गोल कटोरियाँ होतीं।
पतले होठों की जगह खालू की तरह मोटे और ऊपर की तरफ पल्टे हुए बेढंगे से होंठ होते।
सनूबर खाला-खालू की पहली संतान थी।
खालू भारतीय सेना की नौकरी पर थे तब सनूबर का जन्म हुआ था।
सैनिकों के बीच वयस्क मजाक हुआ करते। यदि सैनिक यूपी-बिहार का है और उसके बाप बनने की खबर आती तो हल्ला होता कि फलाँ ने अपना लँगोट गाँव भेज दिया था, सो बच्चा हो गया है।
यदि वह इन दोनों प्रांत छोड़ किसी अन्य प्रांत का है तब कहा जाता कि सैनिक को 'पत्र-पुत्र' की प्राप्ति हुर्इ है।
यानी घर से पत्र द्वारा सूचना आना कि फला सैनिक बाप बन गया है।
खालू तब राजस्थान बार्डर पर थे, जब उन्हें पत्र द्वारा सूचना मिली कि वे पहली संतान के पिता बन गए हैं।
लेकिन ये बात खालू बखूबी जानते थे कि सनूबर के रूप में 'पत्र-पुत्री' ही तो मिली है।
यूनुस को इन सबसे क्या? वह जानता था कि सनूबर एक अच्छी लड़की है। देखने-सुनने में ठीक है। पढ़-लिख रही है। घर का काम-काज ठीक-ठाक निपटा लेती है। कु़रआन पाक की तिलावत कर लेती है। रमजान माह में उन खास दिनों के अलावा बाकी के रोजे पूरे रखती है। नमाज यदा-कदा पढ़ लेती है।
रिश्ते में सनूबर और यूनुस भार्इ-बहिन थे।
खालाजाद भार्इ-बहिन!
यूनुस ये भी जानता था कि इस्लामी समाज में ये रिश्ता प्रेम या शादी के लिए बाधक नहीं!
छह
यूनुस ने अपनी अम्मा के मुँह से खाला के बारे में कर्इ बातें सुनी हैं।
खाला तब तेरह बरस की थीं, जब उनका ब्याह हुआ था।
यूनुस की अम्मा खाला से दो-तीन साल बड़ी थीं।
यूनुस का ननिहाल बेहद गरीबी में अपने दिन काटा करता था। असुविधाओं और घोर अभावों के बीच खाला और अम्मा पली-बढ़ीं।
उनके पिता मूलतः चरवाहा थे।
अपने गाँव और आस-पास के एक-दो गाँव वालों की बकरियाँ चराते थे।
यूनुस के नाना का नाम था जहूर मियाँ।
पतली-दुबली काया, हाथ-पैर किसी पेड़ की टहनी जैसे टेढ़े-मेढ़े, पिचके गालों पर झुर्रियाँ, ठुड्डी पर थोड़े से काले-सफेद बाल, मूँछें सफाचट, और गंजे सिर पर लपेटा गया गमछा। वह गमछा हमेशा उनके साथ रहता। बदन पर वह एक लट्ठे के कपड़े की बंडी और नीचे चौखाने वाला तहमद पहनते। जहूर मियाँ के कपड़े सप्ताह में दो बार धुलते।
खाला का नाम सकीना था।
यूनुस की अम्मा का नाम अमीना।
अम्मा बताती हैं कि खाला बचपन से ही बड़ी झगड़ालू थीं। वह गाँव के लड़कों को पीट दिया करती थीं। लड़के उनसे सीधा-सीधा लड़ने से घबराते। बोलते, ये सकीना मुसल्ली बड़ी बदमाश है। उससे निपटना हो तो उस पर चोरी से वार करो। लड़के मंसूबे बनाते रह जाते और अक्सर पिट जाते।
ऐसी दुष्ट लड़की थीं खाला।
सलवार-कुर्ता साल में एक बार बनता, र्इद के मौके पर। एक जोड़ी कपड़ा पिछले साल का और एक नए साल का। बस यही दो जोड़ी कपड़े हुआ करते थे। हाँ, दो बहनों के नए-पुराने कपड़ों को अगर एक कर दिया जाए तो इस तरह चार जोड़ी कपड़े हो जाते थे। नहाने-धोने के लिए पिता का तहमद बदन लपेटने के काम आ जाता।
गाँव में तीन कुएँ थे। एक तो बामनों का था। एक कुर्मियों का और तीसरे कुएँ का पानी मुसलमान और छोटी जाति के लोग इस्तेमाल करते। फिर प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में एक हैंड-पंप भी लग गया था।
पीने का पानी कुएँ से आता और नहाने-धोने के लिए वे गाँव के बाहर से बहने वाली पहाड़ी नदी जाया करते थे। जहाँ आराम से खाला और अम्मा अपनी सहेलियों के संग नहाया करतीं।
यूनुस की नानी बीमार रहा करतीं। उन्हें खून की उल्टियाँ होतीं। गाँव में टीबी जैसी बीमारी का नाम लोग मुँह में न लाते। भूत-जिन्न-चुड़ैल के प्रकोप ही सारी बीमारियों के कारण हुआ करते। सयाने हर विपत्ति का हल गंडे-तावीज, तंत्र-मंत्र और रिद्धि-सिद्धि के जरिए करते। गाँव में जगह-जगह देवताओं के चौतरे बने थे।
पिता जहूर मियाँ जड़ी-बूटियों के स्वयंभू विशेषज्ञ थे। जंगल में बकरियाँ चराते-चराते उन्हें न जाने कितनी जड़ी-बूटियों की जानकारी हो गर्इ थी। वह साँप-बिच्छी काटने का मंत्र भी जानते थे। अपनी पत्नी के इलाज के लिए वह अजीबो-गरीब जड़ियाँ घर लाते। उन्हें स्वयं कूटते-छानते। उनका अर्क निकालते और पत्नी का इलाज करते।
जुमा की नमाज पढ़ने कस्बे जाते तो बड़े हाफिज्जी से मिन्नतें करके पत्नी के लिए ताबीज ले आते। इन सब टोने-टोटकों के कारण या फिर आयु-रेखा के कारण माँ की तबीयत कभी नरम होती कभी गरम। वह असमय मर गर्इं।
कहने को तो माँ ने पाँच बच्चे जने, लेकिन बचे सिर्फ तीन ही।
यूनुस की अम्मा बतातीं - 'अम्मा जादे दिन नहीं जिंदा रहीं। नहीं तो हम लोग ऐसे यतीम न होते।'
यूनुस के एकमात्र मामा गँजेड़ी-शराबी निकल गए।
अपने आँगन में गाँजा के पौधे रोपने के अपराध में जेल भी काट आए हैं। उन्होंने विधिवत शादी-ब्याह किया नहीं। गाँव की एक केवटिन को संग रखे हैं, सो उनसे बहनों ने रिश्ता तोड़ लिया है। जात-बिरादरी से उन्हें 'बैकाट' कर दिया गया है। कहते हैं केवटिन के पहले मर्द से हुए बच्चों को वही पालते हैं। उनके घर में मुसलमानों का कोर्इ परब-त्योहार नहीं मनाया जाता। हाँ, दीवाली, होली, खुजलइयाँ, रामनवमी आदि परब मनाए जाते हैं।
यूनुस के नाना जहूर मियाँ के मरने के बाद यूनुस की अम्मा और खाला एक बार उनके चहल्लुम के अवसर पर गाँव गर्इ थीं।
तब मामा और उस केवटिन मामी ने उनकी खिदमत तो दूर यूनुस के अब्बा और खालू की भी कोर्इ आव-भगत न की। खालू वैसे भी क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति ठहरे। मिलिटरी के सैनिक। इतना गुस्साए कि खाला को तलाक देने की धमकी तक दे डाली। वो तो अब्बा के एक दोस्त बगल के गाँव में रहते थे। वह मिल गए और खालू को अब्बा वहीं ले गए। तब जाकर कहीं उनका गुस्सा ठंडाया था। फिर भी उन्होंने जीते जी उस गली में दुबारा कदम न रखने की कसम खा ही ली थी। किसी तरह चहल्लुम की फातिहा कराकर वे लोग जो वहाँ से लौटे तो फिर दुबारा उधर का रुख न किया।
मामा मरे चाहे चूल्हे में जाए।
यूनुस की अम्मा की शादी कोतमा में हुर्इ। यूनुस के अब्बा तब घूम-घूम कर अखबार बेचा करते थे। जहूर मियाँ को बड़े हाफिज्जी ने इस रिश्ते की जानकारी दी थी। बताया था कि लड़का यतीम जरूर है किंतु पढ़ा-लिखा है। उसमें कोर्इ ऐब नहीं। न कहो कभी बीड़ी पी लेता है। हाँ, खुद्दार है। स्वयं कमाता है। वहीं मदरसे में पला-बढ़ा है।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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