पहचान

Jemsbond
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Re: पहचान

Post by Jemsbond »

सहयात्री कमल गुप्ता नहीं जानता था कि यूनुस मुसलमान है। सफर में बातचीत के दौरान नाम जानने की जरूरत उन दोनों को महसूस नहीं हुर्इ थी, शायद इसलिए वह भी उसे घूरने लगा।
यूनुस के हाथ में एक नया ताला था।
वह कभी प्रबंधक महोदय के दिमाग में लगे ताले को देखता और कभी अपने हाथ के उस ताले को, जिसे उसने कुछ देर पहले बाहर खरीदा था।
उसने अपनी जिंदगी के व्यावहारिक शास्त्र का एक और सबक हासिल किया था।
वह सबक था, देश-काल-वातावरण देखकर अपनी असलियत जाहिर करना।
उसने जाने कितनी गलतियाँ करके, जाने कितने सबक याद किए थे।
सलीम भार्इ के पास ऐसी सहज-बुद्धि न थी, वरना वह ऐसी गलतियाँ कभी न करता और गुजरात के कत्ले-आम में यूँ न मारा जाता।
इसीलिए जब साधू महाराज ने उसकी बिरादरी पूछी तो वह सचेत हुआ और तत्काल बताया - 'महाराज, मैं जात का कुम्हार हूँ।'
साधू महाराज के चेहरे पर सुकून छा गया।
चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल, कपड़ा-लत्ता और रंग-रूप से उसे कोर्इ नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान युवक है, जब तक कि वह स्वयं जाहिर न करे। उसे क्या गरज कि वह बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले।
वह इतना चालाक हो गया है कि लोगों के सामने 'अल्ला-कसम' नहीं बोलता, बल्कि 'भगवान-कसम' या 'माँ-कसम' बोलता है। 'अल्ला जाने क्या होगा' की जगह 'भगवान जाने' या फिर 'राम जाने' कह कर काम चला लेता है।
अगर कोर्इ साधू या पुजारी प्रसाद देता है तो बाकायदा झुक कर बार्इं हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर उस पर प्रसाद लेता है और उसे खाकर दोनों हाथ सिर पर फेरता है। जबकि वही सलीम भार्इ हिंदुओं से पूजा-पाठ आदि का प्रसाद लेता ही नहीं था। यदि गलती से प्रसाद ले भी लिया तो फिर उसे खाता नहीं था, बल्कि चुपके से फेंक देता था।
यूनुस को यदि कोर्इ माथे पर टीका लगाए तो वह बड़ी श्रद्धा-भाव प्रकट करते हुए बड़े प्रेम से टीका लगवाता और फिर उसे घंटों न पोंछता।
ऐसी दशा में उस पर कोर्इ संदेह कैसे कर सकता है कि वह हिंदू नहीं है।
वैसे भी अनावश्यक अपनी धर्म-जाति प्रकट कर परदेश में इंसान क्यों खतरा मोल ले।
बड़ा भार्इ सलीम अगर यूनुस की तरह सजग-सचेत रहता। खामखा, मियाँ-कट दाढ़ी, गोल टोपी, लंबा कुर्ता और उठंगा पैजामा न धारण करता तो गुजरात में इस तरह नाहक न मारा जाता...
साधू महाराज ने यूनुस को आशीर्वाद दिया - 'तू बड़ा भाग्यशाली है बच्चा! तेरे उन्नत ललाट बताते हैं कि पूर्वजन्म में तू एक पुण्यात्मा था। इस जीवन में तुझे थोड़ा कष्ट अवश्य होगा लेकिन अंत में विजय तेरी होगी। तेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।'
यूनुस साधू महाराज के चेहरे को देख रहा था।
उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुर्इ थी। उसकी आयु होगी यही कोर्इ पचासेक साल। चेहरे पर काइयाँपन की लकीरें।
साधू महाराज के आशीर्वाद से यूनुस को कुछ राहत मिली।
वह पुनः अपनी जगह पर चला गया और बैग से लुंगी निकालकर उसे बर्थ पर बिछा दिया ताकि लकड़ी की बेंच की ठंडक से रीढ़ की हड्डी बची रहे।
बर्थ पर चढ़ कर उसने जूते उतारकर पंखे पर अटका दिए।
अब वह सोना चाहता था।
एक ऐसी नींद कि उसमें ख्वाब न हों।
एकदम चिंतामुक्त संपूर्ण निद्रा...
जबकि यूनुस जानता है कि उसे नींद आसानी से नहीं आया करती। नींद बड़ी मान-मनौवल के बाद आया करती है।
उसने उल्टी तरफ करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा।
खटर खट खट... खटर खट खट
ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी।
सुबह छह बजे तक ट्रेन कटनी पहुँच जाएगी। फिर सात-साढ़े सात बजे बिलासपुर वाली पैसेंजर मिलती है। उससे बिलासपुर तक पहुँचने के बाद आगे कोरबा के लिए मन पड़ेगा तो ट्रेन या बस पकड़ी जाएगी।
बिलासपुर में स्टेशन के बाहर मलकीते से मुलाकात हो जाएगी।
मलकीते के पापा का एक ढाबा कोतमा में हुआ करता था। सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगों में वह होटल उजड़ गया। सिख समाज में ऐसा डर बैठा कि आम हिंदुस्तानी शहरी दिखने के लिए सिख लोगों ने अपने केश कटवा लिए थे। मलकीते तब बच्चा था। अपने सिर पर रूमाल के जरिए वह केश बाँधा करता था। वह गोरा-नाटा खूबसूरत लड़का था। यूनुस को याद है कि लड़के उसे चिढ़ाया करते थे कि मलकीते अपने सिर में अमरूद छुपा कर आया करता है।
उसके पापा एक रिश्तेदार से मिलने राँची गए थे और इंदिरा गांधी की हत्या हो गर्इ। वे उस समय सफर कर रहे थे। सुनते हैं कि सफर के दौरान ट्रेन में उन्हें मार दिया गया था।
उस कठिन समय में मलकीते ने अपने केश कटवा लिए थे।
मलकीते के बारे में पता चला था कि सन चौरासी के बाद मलकीते की माली हालत खराब हो गर्इ थी।
तब मलकीते की मम्मी अपने भार्इ यानी मलकीते के मामा के पास बिलासपुर चली गर्इ थीं। वहीं मामा के होटल में मलकीते मदद करने लगा था।
स्टेशन के बाहर एक शाकाहारी और मांसाहारी होटल है - 'शेरे पंजाब होटल'।
यही तो पता है उसका।
इतने दिनों बाद मिलने पर जाने वह पहचाने या न पहचाने, लेकिन मलकीते एक नंबर का यार था उसका!
यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ार्इ के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोर्इ। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आँसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोर्इ जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।
लकीर का फकीर आदमी का जीना मुश्किल है।
जैसा देस वैसा भेस...
कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोर्इ न कोर्इ राह अवश्य निकल आएगी।
इसीलिए तो वह अम्मी-अब्बू, घर-द्वार, भार्इ-बहिन, रिश्ते-नाते आदि के मोह में फँसा नहीं रहा।
अपना रास्ता स्वयं चुनने की ललक ही तो है कि आज वह लगातार जलावतनी का दर्द झेल रहा है।
इसी उम्मीद में कि इस बार की छलाँग से शायद अल्लाह की बनार्इ इत्ती बड़ी कायनात में उसे भी कोर्इ स्वतंत्र पहचान मिल ही जाए...
दो
यूनुस ने सोचा कि सुबह कटनी पहुँच कर नाश्ता करने के बाद बिलासपुर वाली गाड़ी पकड़ी जाएगी।
कटनी का खयाल दिमाग में आया तो यूनुस को बड़की आपा याद हो आर्इ।
कहते हैं कि बड़की कटनी में कहीं रहती है।
खाला भी तो बता रही थीं कि अम्मा एक बार चोरी-छिपे उससे मिल आर्इ हैं। चूँकि उसने हिंदू धर्म अपना लिया है, इसलिए उसे अब बिरादरी में मिलाया तो नहीं जाएगा।
यूनुस सोच रहा था कि उनके घर में एक भी औलाद ठीक न निकली? इसका कारण क्या है?
उसने बचपन की तमाम घटनाओं को सूत्र-बद्ध करना चाहा। ज्ञात हुआ कि उसके अब्बा वंश-वृद्धि के पावन कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। इस पावन यज्ञ से फुर्सत पाने के बाद उनकी चिंता का केंद्र नौकरी हुआ करती। अब्बा दिन भर में एक कट्टा बीड़ी और एक रुपए की खैनी हजम कर जाते। चाय अमूमन घर में ही पीते। इसके बाद भी यदि समय बच जाता तो स्थानीय कादरिया-मस्जिद कमेटी के लोगों के बीच उठते-बैठते। उनके एक और हमदर्द दोस्त थे नन्हू भार्इ, जिन्हें यूनुस नन्हू चच्चा कहा करता।
अब्बा ने अपनी बेशुमार आल-औलाद की तालीम-तरबीयत, कपड़ा-लत्ता और खान-पान के बारे में कभी ध्यान नहीं दिया। बच्चे चाहे जैसे अपना जीवन गुजारें, स्वतंत्र हैं।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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अम्मा भी अब्बा के कदम से कदम मिलाकर चलती रहीं। उन्होंने प्रति तीन बरस पर एक संतान के औसत को बरकरार रखा। बच्चा अपने प्रयास से स्तन खोज कर मुँह में ठूँस ले तो ठीक, वरना अम्मा के भरोसे रहा तो भूखा ही रह जाएगा।
अम्मा ज्यादातर अपनी खाट में पसरे रहा करती थीं। ठंड के दिनों मे अब्बा या कि बड़की खाट के नीचे बोरसी में आग डाल कर रख दिया करते। यूनुस उस खाट में कभी-कभी सोता था। बोरसी की आँच से गुदड़ी गरमा जाती और पीठ की अच्छी सिंकार्इ हो जाती थी।
अम्मा अपने सुख-दुख या फिर अपनी हारी-बीमारी की चिंता किया करती थीं।
हाँ, दिन भर चाहे जिस हालत में रहें, शाम होते ही अच्छे से चेहरा धो-पोंछकर स्नो-पाउडर लगा लेतीं। आँखों में काजल और माँग 'अफसन' से भरतीं। जिस्म फैल-छितरा गया है तो क्या, बनना-सँवरना तो इंसान की फितरत होती है। हाँ, लिपिस्टिक की जगह होंठ पान की लाली से रँगे हुआ करते।
अम्मा को भी अब्बा की तरह अपनी ढेर संतानों की कोर्इ चिंता कभी नहीं रही।
इस अव्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि यूनुस की बड़ी बहिन बड़की अभी ठीक से जवान हो भी न पार्इ थी कि घर से भाग गर्इ।
यूनुस को याद है कि बड़की उसे कितना प्यार किया करती थी।
यूनुस तब चार-पाँच बरस का होगा।
बस जब देखो तब अपनी बड़की आपा के पास मँडराता रहता। अम्मा को तो बच्चों की सुध ही न रहती थी।
पड़ोस में एक सिंधी फलवाला रहता था।
सिंधी फलवाला सुबह नौ-दस बजे ठेले पर फल सजाया करता। वह नगर में घूम-घूम कर फल बेचा करता था। नौ बजे घर के सामने वाला सार्वजनिक नल खुला करता था। आधा-पौन घंटा भीड़ रहा करती, फिर जब लोग कम हो जाते तब बड़की बाल्टी लेकर पानी भरने निकलती। यूनुस भी अपनी बड़की आपा के पीछे एक डब्बा या डेगची लेकर पानी भरने चला आता।
बड़की आपा पानी भरने लगती और सिंधी फलवाले को देख मुस्कराया करती।
तब फलवाला यूनुस को इशारे से अपने पास बुलाता।
यूनुस फल की लालच में दौड़ा चला जाता।
सिंधी फलवाला उसे दो केले देता। कहता, एक अपनी आपा को दे देना।
यूनुस को बड़े शौक से अपने हिस्से का केला खाता और बड़की आपा के हिस्से का केला उसे दे देता। बड़की आपा केला हाथ में पकड़ती तो उसके गाल शर्म से लाल हो जाते। यूनुस को क्या पता था कि इस केले के माध्यम से उन दोनों के बीच किस तरह का 'कूट-संवाद' संपन्न होता था। वह तो चित्तीदार केले का मीठा स्वाद काफी देर तक अपनी जुबान में बसाए रखता था।
रात के नौ बजे बड़की आपा यूनुस का हाथ पकड़ कर टहलने निकलती।
तब सिंधी फलवाला फेरी लगाकर वापस लौट आता था।
बड़की आपा से जाने क्या इशारे-इशारे में वह बातें किया करता।
यूनुस को पुचकारकर पास बुलाता।
कोर्इ सड़ा सेब या केला उसके हाथ में पकड़ा देता।
यूनुस खुश हो जाता।
यूनुस रात में बड़की आपा के पास ही सोया करता था।
बड़की आपा उसे अच्छी तरह सीने से चिपका कर सुलाया करती और बहुत प्यार किया करती।
कभी-कभी सिंधी फलवाले का आपा के साथ किया गया व्यवहार नन्हे यूनुस को अच्छा नहीं लगता था। चूँकि बड़की आपा बुरा नहीं मानती थी और लजाकर हँस देती थी, इसलिए यूनुस सिंधी फलवाले की हरकतों को चुपचाप हजम कर जाया करता था।
एक दिन यूनुस के दोस्त छंगू ने उसे बताया कि यार, अगर तू बुरा न माने तो एक बात कहूँ। यूनुस ने उसे डपट दिया कि ज्यादा भूमिका न बाँधते हुए मुद्दे पर आ जाए।
छंगू बिचारा कहने में संकोच कर रहा था कि कहीं यूनुस उसे पीट न दे, इसलिए उसने एक बार फिर यूनुस से गछवा लिया कि भार्इ मेरे, तू बुरा तो नहीं मानेगा।
खीज कर यूनुस ने उसकी गर्दन पकड़ कर हिला दिया।
छंगू की आँखें बाहर निकलने को हो आर्इं, तब उसने कहा - 'छोड़ दे बे, बताता हूँ... कल रात घर के पिछवाड़े मैंने देखा था कि वो सिंधी फलवाला तेरी दीदी का चुम्मू ले रहा है।'
यूनुस का खून खौल उठा - 'तो?'
छंगू घबरा गया - 'इसीलिए मैं बोल रहा था कि बुरा न मानना।'
यूनुस ने उसे कुछ न कहा।
उसने स्वयं अपनी आँखों से ऐसा ही एक प्रतिबंधित दृश्य देखा था। वाकर्इ बड़की हद से आगे बढ़ रही है। अम्मा और अब्बा को तो बच्चे पैदा करने से फुर्सत मिलती नहीं कि वे बच्चों के बारे में सोचें।
एक दिन यूनुस पिछवाड़े आँगन में खड़े-खड़े मूत रहा था तब उसने अमरूद के पीछे देखा था कि सिंधी फलवाला और बड़की काफी देर तक एक दूसरे से चिपके खड़े थे।
यूनुस की समझ में न आया कि वह तत्काल क्या करे। उसने एक पत्थर उठाया और सिंधी फलवाले की पीठ पर दे मारा।
फलवाले ने बुरा नहीं माना, बल्कि मार खाकर वे दोनों बड़ी देर तक हँसते रहे थे।
सिंधी फलवाला यूनुस को साला कहा करता और एक मुहावरा उछाला करता - 'सारी खुदार्इ एक तरफ, जोरू का भार्इ एक तरफ!'
उस गुप-चुप चलती प्रेम कहानी की जानकारी सिर्फ यूनुस को थी।
सलीम भार्इ घर से ज्यादा मतलब न रखता लेकिन उसे बड़की की कारस्तानी का अंदाजा हो रहा था। उसने अम्मा से बताया भी था कि नालायक बड़की को डाँटिए कि उस सिंधी फलवाले से दूर रहे। लेकिन अम्मा को कहाँ फुरसत थी... उस समय छोटकी पेट में थी। वे तो अपनी सेहत को लेकर ही परेशान रहा करती थीं।
कहते हैं कि सलीम भार्इ ने एक बार अपने दोस्तों के साथ उस फलवाले को डराया-धमकाया भी था। उसके दोस्तों ने सिंधी फलवाले के ठेले पर बचे हुए फल लूट लिए थे और उसे चेतावनी दी थी कि अपनी आदतों से बाज आए।
जब सिंधी फलवाले और बड़की ने देखा कि उनके प्रेम-व्यापार के दुश्मन हजार हैं तो एक दिन बड़की आपा उस सिंधी फलवाले के साथ कहीं भाग गर्इ।
कहते हैं कि वे लोग कटनी चले गए हैं।
कटनी तो सिंधियों का गढ़ है गढ़...
इसीलिए यूनुस को कटनी से चिढ़ है।
बड़की के घर से भाग जाने के बाद जिसका मन सबसे ज्यादा हताहत हुआ वह सलीम भार्इ था। जाने क्यों अव्यवस्था का वह धुर विरोधी हुआ करता था। वह अपने दोस्तों में, अपने समाज में, अपनी और अपने परिवार की इज्जत बढ़ाने का प्रयास किया करता था। बड़की ने घर से भाग कर जैसे सरे-बाजार उसकी नाक कटा दी हो। सलीम भार्इ अपने दोस्तों के साथ कर्इ दिनों तक सिंधी फलवाले और उसके घरवालों की टोह लेता रहा था। यदि इस बीच वे मिल गए होते तो पक्का है कि फौजदारी हो जाती और बाकी जिंदगी सलीम भार्इ जेल में काटते।
बड़े जिद्दी स्वभाव का था सलीम भार्इ।
सुनता सबकी लेकिन करता अपने मन की।
होश सँभालते यूनुस के बड़े भार्इ सलीम ने देखा कि इस घर के रंग-मंच में अब ज्यादा दिन का रोल उसके लिए नहीं। अम्मा और अब्बा जिस तरह से घर चला रहे थे, उसमें सलीम को अपना भविष्य अंधकारमय लगा।
बड़की आपा के घर से भागने के बाद सलीम ने दोस्तों का साथ छोड़ दिया।
कुछ दिन वह घर में कैद रहा।
एकदम अज्ञातवास का जीवन...
अम्मा-अब्बा सभी उसकी हालत देख परेशान रहने लगे थे।
फिर एक दिन वह फजिर की अजान सुनकर जामा-मस्जिद की तरफ चला। वहाँ उसे नमाज पढ़ने के बाद तब्लीगी-जमात वालों के मुख से तकरीर सुनने को मिली। दिल्ली से जमात आर्इ हुर्इ थी। तब्लीगी-जमात वालों के रहन-सहन और जीवन-दर्शन से उसे प्रेरणा मिली।
उसके अशांत दिलो-दिमाग को सुकून मिला।
उन लोगों से वह इतना प्रभावित हुआ कि उस दिन घर न लौटा।
तब्लीग वालों के साथ ही मस्जिद में कयाम किया।
शाम को अस्र की नमाज के बाद जमात के लोग स्थानीय स्तर पर लोगों से सीधे संपर्क करने के लिए गश्त पर निकले।
वह भी उनके साथ गश्त पर निकला।
अमीरे-जमात किस तरह अपरिचित कलमा-गो लोगों को दीन-र्इमान की दावत दिया करते हैं, उसने देखा।
फिर मगरिब की नमाज के बाद जिक्र और र्इशा की नमाज के बाद अल्लाह की तस्बीह और याद और गहरी नींद का र्इनाम...
सलीम भार्इ तब नियमित रूप से जामा-मस्जिद में नमाज पढ़ने जाने लगा।
कभी-कभी चंद विदेशी मुसलमान भी धर्म-प्रचार और आत्मोत्थान के उद्देश्य से आया करते थे।
अब्बा तो कट्टर बरेलवी विचारों के थे। वे तब्लीगियों को 'मरदूद वहाबी' कहा करते और अक्सर एक तुकबंदी पढ़ा करते थे -
मरदूद वहाबी की यही निशानी
उठंगा पैजामा,
टकला सिर और काली पेशानी
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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बरेलवी लोगों की पोशाक देवबंदियों के ठीक विपरीत हुआ करती। देवबंदी जहाँ अपने सिर के बाल सफाचट करवाते हैं वहीं बरेलवी लोगों के बाल कान के ऊपर बढ़े होते हैं। देवबंदियों की मूँछें सफाचट रहेंगी जबकि बरेलवी लोग पतली-तराशी हुर्इ मूँछें रखते हैं। बरेलवियों का पैजामा या शलवार टखनों के नीचे तक रहती है। उनकी टोपियाँ काली रहती हैं। सफेद टोपियाँ हों तो कुछ आसमान की तरफ अतिरिक्त उठी हुर्इ रहेंगी। उनके कंधे पर शतरंजी डिजाइन का गमछा हुआ करता है।
यूनुस ने देवबंदी और बरेलवी दोनों तरह के मुसलमान करीब से देखे हैं। उसे आज तक समझ में नहीं आया कि बरेलवी लोगों के माथे पर बार-बार सिजदा करने से किसी तरह का दाग नहीं बनता है, जबकि इसी के उलट देवबंदी अभी महीने भर का पक्का नमाजी बना नहीं कि उसकी पेशानी पर गोल काला धब्बा उभर आता है।
ये ऐसी बुनियादी पहचान है जिसे दोनों अकीदे के लोग अपना अलग-अलग 'ड्रेस कोड' बनाए हुए हैं। इसी पहनावे और अन्य आउट-लुक से मुसलमान जान जाते हैं कि मियाँ किस अकीदे का है।
शिक्षित तबके का ओहदेदार मुसलमान जो इन सब लफड़ों में नहीं पड़ना चाहता उसके अकीदे के बारे में जानना मुश्किल होता है।
इसमें तो इतनी मुश्किल पेश आती है कि कोर्इ ये भी न जान सकें कि वह हिंदू है या मुसलमान...
यूनुस ने अपनी जीवन-यात्रा में इतना जान लिया था कि हिंदुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा...
सो उसे देखकर कोर्इ नहीं कह सकता था कि वह एक मुस्लिम युवक है।
अब्बा, सलीम भार्इ के तब्लीगी लोगों में उठने-बैठने का विरोध करते।
सलीम हर वह काम करता जिससे अब्बा को दुख पहुँचता। वह उन्हें तकलीफ पहुँचाकर सुकून हासिल किया करता था। जाने क्यों सलीम भार्इ इतना परपीड़क बन गया था।
तब्लीगी जमातें जब नगर में आतीं, अमीरे-जमात वजीर भार्इ सलीम को बुलवा भेजते। सलीम भार्इ उन जमात वालों का स्थानीय मददगार हुआ करता। वह आने वाली जमात का इस्तेकबाल करता। उन्हें मस्जिद के एक कमरे में ठहराता। उन्हें कहाँ खाना पकाना है, कहाँ नहाना है और कहाँ पैखाने जाना है, पीने के पानी की व्यस्था कहाँ से होगी, सभी जानकारी वह उपलब्ध कराता।
तब्लीगी जमात के लोग अत्यधिक अनुशासन में रहा करते। अमीरे-जमात के हुक्म का अक्षरशः पालन किया करते।
जमात वालों की बड़ी सख्त दिनचर्या हुआ करती थी।
घड़ी देख के तमाम काम...
यूनुस भी कभी-कभी सलीम भार्इ के साथ वहाँ जाया करता था।
जब नगर का सबसे भव्य मंदिर एक छोटे से चबूतरे पर था। जब यहाँ पुलिस थाना और रेलवे स्टेशन के अलावा कोर्इ पक्की इमारत न थी। तब नगर में मस्जिद के नाम पर बन्ने मियाँ की परछी हुआ करती थी। बन्ने मियाँ की आल-औलाद न थी। उन्होंने अपनी जमीन अंजुमन कमेटी को वसीयत कर दी थी।
बन्ने मियाँ ने एक पक्की मस्जिद के लिए स्वयं अपने हाथों से संगे-बुनियाद रखी थी। अल्लाह उनको करवट-करवट जन्नत बख्शे।
फिर स्थानीय स्तर पर चंदा करके वहाँ एक छोटा सा पक्का हाल बना।
मस्जिद के आँगन में एक कुआँ था। उस कुएँ का पानी बड़ा मीठा था। गर्मियों में भी पानी खत्म न होता। कमेटी वालों ने उस पर कवर लगा दिया। रस्सी-बाल्टी के लिए छोटा सा छेद था। कुएँ के एक तरफ दो कमरे थे, जिन्हें गुसलखाना कहा जाता था। दूसरी तरफ पिछवाड़े में इस्तिंजा (पेशाब) के लिए मूत्रालय था। फिर एक सीट वाला बैतुल-खुला यानी कि 'सेप्टिक टेंक' पैखाना था।
उस मस्जिद के पेश-इमाम बड़े काबिल बुजु़र्ग थे। संयमित जीवन वाले, नेक, परहेजगार और आध्यात्मिकता के हिमायती। लंबा कद, पतली-दुबली काया, लंबी सी सफेद दाढ़ी। बोलते तो मुँह पर हाथ रख लिया करते। कहते हैं कि उनके पास काफी रूहानी ताकत थी। वे गंडा-तावीज आदि नहीं दिया करते थे। हाँ, दुआएँ कसरत से दिया करते और उनकी दुआएँ 'अल्लाह रब्बुल इज्जत' की बारगाह में कु़बूल हुआ करती थी।
वे कु़रान-शरीफ का इतना मधुर पाठ किया करते कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध सुनता रहे। एकदम शुद्ध अरबी का उच्चारण। गले की बेहतरीन लयकारी। किरत ऐसी कि बस सुनते चले जाइए।
यूनुस कभी-कभी जुमा की नमाज पढ़ने उसी मस्जिद में जाता।
सलीम भार्इ वहाँ एक तरह से अवैतनिक मुअज्जिन बन चुका था। मुअज्जिन की अनुपस्थिति में वह मस्जिद का काम सँभाला करता था।
इसी कारण सलीम भार्इ किसी तरह का काम नहीं सीख पाया।
यूनुस धर्म पर आश्रित न था, बल्कि स्वाद-परिवर्तन के लिए धर्म के पास आया करता था। जैसे कि स्वाद-परिवर्तन करने के लिए पिक्चर देखना, कव्वाली सुनने जाना, फुटबाल मैच खेलना, बिजय भइया के साथ आरएसएस की शाखा में जाना या फिर गप्पें मारना...
सलीम भइया इसी तरह तब्लीग जमात वालों के साथ रहते-रहते जमात में चालीस-चालीस दिन के लिए बाहर निकल जाया करता था।
अब्बा पर उनके बरेलवी मौलानाओं से फतवा मिल चुका था कि ऐसा व्यक्ति जो देवबंदियों के अकीदे में विश्वास करे, उनके साथ उठे-बैठे, उसका बहिष्कार कर देना चाहिए, भले से वह अपना बेटा, बेटी, माँ या बाप या भार्इ-बहिन क्यों न हो!
अब्बा के पास आला हजरत इमाम अहमद रजा खाँ द्वारा बतार्इ निदेशिका थी, जिसे वह पहले कमरे की दीवार में लगाए हुए थे। उसकी कुछ बातें आज भी यूनुस को याद हैं।
वहाबियो, देवबंदियों से नफरत करो।
वहाबियो, देवबंदियों के मौलवियों के पीछे नमाज पढ़ना मना है। उसकी नमाज न होगी और नमाज पढ़ने वाला गुनहगार भी होगा।
अगर कोर्इ मुसलमान अपना निकाह या अपने बेटी-बेटे का निकाह, वहाबी या देवबंदी से करेगा तो निकाह हरगिज न होगा।
वहाबियों, देवबंदियों को दावत खिलाना, उनकी दावत खाना दोनों बातें नाजायज हैं।
सलीम भार्इ की गतिविधियाँ किसी से छिपी न थीं। वैसे भी वह जगह थी ही कितनी बड़ी कि बातें दबी रह सकें।
नगर के एक कोने में छींकिए तो दूसरे कोने तक आवाज चली जाए।
बरेलवी मौलानाओं, स्थानीय मदीना मस्जिद की कमेटी के मेंबरान की समझाइश से तंग आकर अब्बा ने ऐलान कर दिया था कि सलीम उनकी औलाद नहीं।
वे सलीम भार्इ को अपनी औलाद मानने से इनकार कर चुके थे।
इतने प्रतिबंधों से परेशान होकर सलीम भार्इ घर से भाग कर सिंगरौली खाला के पास चले गया।
वहाँ खालू ने सलीम भार्इ को बैढ़न में एक टीन के चादर से पेटियाँ बनाने वाले कारखाने में काम दिलवा दिया था।
वैसे खालू भी देवबंदियों से चिढ़ते थे।
वह एक कट्टर सुन्नी थे और बरेलवी अकीदे को मानते थे, लेकिन खाला के हस्तक्षेप के कारण वह सलीम भार्इ की उपस्थिति घर में बर्दाश्त किया करते थे।
शुरू में सलीम भार्इ बरेलवियों वाली मस्जिद में नमाज पढ़ता था, क्योंकि जिसके यहाँ वह काम सीखा करता था वह कट्टर स्वभाव का था। तब्लीगियों और देवबंदियों से बेतरह चिढ़ा करता था। जब सलीम भार्इ काम अच्छे से सीख गया तो वह एक दूसरे कारखाने में चला गया। ये भी एक मुसलमान का ही कारखाना था लेकिन ये जनाब देवबंदी खयालात के इंसान थे। वे जानते थे कि सलीम भार्इ के खालू बरेलवी हैं, फिर भी उन्होंने सलीम भार्इ को अपने यहाँ कारीगर रख लिया। अब सलीम भार्इ बैढ़न की देवबंदियों वाली मस्जिद में नमाज पढ़ने जाने लगा।
ये बात खालू को मालूम हुर्इ तो उन्होंने खाला से साफ-साफ कह दिया कि वे वहाबियों को अपने घर में सहन नहीं कर पाएँगे।
खाला ने सलीम भार्इ को समझाया-बुझाया। उसे दुनियादारी की बातें सिखाना चाहीं। सलीम भार्इ कहाँ मानने वाला था।
इस बीच खालू आ गए तो सलीम उन्हें ही तब्लीग करने लगा।
'कब्रों की पूजा ठीक नहीं। अस्ल चीज है नमाज, रोजा, हज और जकात। दीन में रार्इ-रत्ती का जोड़ने वाला बिदअती (देवबंदी लोग बरेलवियों को बिदअती कहते हैं और बरेलवी देवबंदियों को वहाबी!) कहलाता है। हुजूर सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिए यदि सच्ची मुहब्बत है तो एक सच्चे मुसलमान को हक पर चलना चाहिए। बिदअतियों से बचना चाहिए।'
इतना नसीहत सुनकर फौजी खालू तो जैसे आपे से बाहर हो गए।
उन्होंने खाला का लिहाज छोड़ सलीम भार्इ को तत्काल घर-निकाला का फरमान दे दिया था।
फिर सलीम भार्इ बैढ़न में कारखाने में ही रहने लगा था।
वहीं उसका रंग-रूप बदल गया था।
अब वह कमीज-पैंट पहनना छोड़कर कुर्ता-शलवार पहनने लगा था। चूँकि उसका बदन गठा हुआ था और कद दरमियाना था, सो उस पर घुटनों के नीचे झूलता कुर्ता और टखनों से उठी शलवार खूब जमती थी। सिर पर वह सफेद गोल टोपी लगाने लगा था। वह एक परंपरागत मुसलमान दिखता था। जैसे कि देवबंद के दारूल-उलूम के छात्र दिखा करते हैं।
खाला जब कभी बैढ़न जातीं तो सलीम भार्इ से मिला करतीं।
उन्हें सलीम भार्इ से बड़ी मुहब्बत थी।
सलीम भार्इ ने अपनी कमार्इ से खाला के लिए कर्इ साड़ियाँ खरीदी थीं।
फिर सुनने में आया कि किसी तब्लीग जमात के साथ सलीम गुजरात की तरफ चला गया है। गुजरात के वड़ोदरा से एक-दो खत बैढ़न के कारखाने में आए थे, जिसमें खाला के लिए सलीम भार्इ अलग से खत लिखा करता था।
सलीम भार्इ के आखिरी खत से पता चला था कि वह एक तब्लीगी परिवार में घर-जमार्इ बन गया है।
अच्छे खाते-पीते लोग हैं वे।
फिर एक दिन गुजरात के दंगों में उसके मारे जाने की खबर आर्इ।
सलीम भार्इ का पहनावा और रहन-सहन गोधरा-कांड के बाद के गुजरात में उसकी जान का दुश्मन बन गया था...
तीन
खटर खट् खट्, खटर खट् खट्...
ठंड से ठिठुरती हुर्इ ट्रेन की एक लंबी चीख...
ट्रेन की पटरियों के बदलने की आवाज के साथ ब्रेक की चीं...चाँ...
और ट्रेन रुक गर्इ।
खिड़कियों के बाहर रोशनी की झलक नहीं। इस लाइन के अधिकांश स्टेशन तो बिना बिजली-बत्ती वाले हैं।
संभावना है कि आउटर पर ट्रेन रुकी होगी या फिर कोर्इ स्टेशन ही हो।
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Jemsbond
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Re: पहचान

Post by Jemsbond »

चोपन से सिंगरौली के बीच सिंगल-लाइन है। वैसे तो रात की ये पैसेंजर फास्ट-पैसेंजर के नाम से चलती है और छोटे-मोटे स्टेशन में रुकती नहीं लेकिन क्रासिंग के नाम पर इसे रोका ही जाता है।
चाय-पानी के लिए रात के सफर में ब्योहारी ही एक स्टेशन है, जहाँ कुछ आशा की जा सकती है। दिन में सरर्इ-ग्राम और खन्ना बंजारी स्टेशन में चाय-नाश्ता मिलता है।
गार्ड, ड्राइवर और मुसाफिर ऐसी जगहों पर टूट पड़ते हैं।
यूनुस को नींद नहीं आ रही थी।
उसने नीचे की सीट पर निगाह दौड़ार्इ।
देखा कि साधू महाराज कंबल ओढ़े पड़े हैं।
उनके पैर उस स्त्री की गोद में हैं।
स्त्री गहरी नींद में है।
उसके वक्ष पर आँचल हटा हुआ है।
भरी-भरी छातियाँ और चेहरे पर सुकून के लक्षण...
यूनुस ने सोचा कि कितना मस्त जीवन है ये भी!
आत्म-विस्मृति का जीवन!
कमाने-खाने की कोर्इ चिंता नहीं।
लोक-लाज की फिक्र नहीं।
व्यक्तिगत धन-संपत्ति का मोह नहीं।
बस, एक अंतहीन यात्रा में चलता जीवन...
बड़े भार्इ सलीम ने ऐसी ही राह अपनार्इ थी। उसने सोचा था कि इसी तरह तब्लीग (धर्म-प्रचार) करते-करते वह दुनिया के साथ-साथ आखिरत (परलोक) के इम्तिहानात में कामयाब रहेगा। उसने स्वयं को पूर्ण-रूपेण उस धार्मिक आंदोलन के लिए समर्पित कर रखा था।
और एक आस्थावान, धार्मिक प्रवृत्ति का साधारण युवक सलीम गुजरात के दंगों की भेंट चढ़ गया था।
यूनुस सलीम भार्इ की याद में खो गया था...
उसे आज भी याद है वो दिन जब आधी रात घर की साँकल बजी थी।
घर में यूनुस और बेबिया भर थे।
अब्बा आफिस के काम से शहडोल गए थे।
अम्मा पड़ोसी मेहताब भार्इ के साथ गढ़वा पलामू गर्इ हुर्इ थीं।
मेहताब भार्इ की मँगनी होने वाली है। उसने स्वयं अम्मा को अपने साथ ले चलने की जिद की। अंधे को क्या चाहिए दो आँख। अम्मा को तो घर छोड़ने का कोर्इ न कोर्इ बहाना चाहिए। बेबिया और यूनुस तो हैं ही घर के कुत्ते। भौंक-भौंक कर घर की रखवाली यही लोग तो करते हैं।
बाकी लोग तो मालिक ठहरे।
दुबारा साँकल बजी तो यूनुस ने आवाज लगार्इ - 'कौन?'
लगा नन्हू चच्चा की आवाज है - 'मैं हूँ भार्इ, नन्हू...!'
यूनुस को आश्चर्य हुआ कि नन्हू चच्चा और इस समय!
बेबिया अंदर वाले कमरे में घोड़ा-हाथी बेच कर सो रही थी।
यूनुस ने जल्दी से चड्डी पर गमछा लपेटा और दरवाजा खोला।
नन्हू चच्चा ही तो थे।
पतली-दुबली काया, लुंगी और कुर्ता पहने, सिर पर दुपल्ली टोपी।
बेतरतीब सी खिचड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले - 'गुल्लू का फोन आवा है... तुहरे अब्बा कहाँ हैं?'
यूनुस ने उन्हें सलाम किया और अंदर आने को कहा।
नन्हू चच्चा बेहद घबराए हुए थे - 'अब्बा-अम्मा कौनो नहीं हैं का?'
यूनुस मन ही मन डर गया।
जाने क्या बात है कि नन्हू चच्चा ऐसे घबरा रहे हैं।
उसने जिगर कड़ा कर पूछा - 'का बात हो गर्इ चच्चा?'
नन्हू चच्चा की आँखें नम हो आर्इं।
'कुछ न पूछो, बस अपने अब्बा या अम्मा से बात करा दो बचवा!'
'दोनों नहीं हैं घर में, अब्बा तो शहडोल गए हैं, किसी भी समय आ सकते हैं लेकिन अम्मा बिहार गर्इ हुर्इ हैं। आप हम्में बताइए न का बात है?'
नन्हू चच्चा के बेटे गुल्लू यानी पीर गुलाम ने ही एक बार बताया था कि यूनुस का बड़ा भार्इ सलीम गुजरात के बड़ोदा शहर में रहता है।
वह तब्लीगी-जमात वालों के साथ गुजरात चला गया था।
वहीं एक तब्लीगी मियाँ भार्इ इस्माइल सिद्दीकी ने उसे अपना घर-जमार्इ बना लिया।
इस्माइल सिद्दीकी की छोटी-मोटी दुकानदारी है। इकलौती बेटी के लिए नेक दामाद सलीम। सलीम वहीं मजे में है।
पीर गुलाम जब भी बड़ोदा से कोतमा आता, सलीम भार्इ का संदेश लेकर आता। उसने एक बार बताया था कि अभागे सलीम ने ससुराल वालों के सामने अपने सगों को मरा हुआ मान लिया है। अब वह कभी लौटकर इधर नहीं आएगा। उसने अपने जीवन का मकसद जान लिया है। सलीम सरेआम ऐलान करता है कि उसने अल्लाह की बनार्इ इस कायनात में अपने नए माँ-बाप पाए हैं। उसकी मुमताज महल बीवी उसे अपना बादशाह, शहंशाह और सरताज मानती है।
उनके एक बेटा भी है शाहजादा सलीम की तरह...
अम्मा की ढेर सारी संतान हैं फिर भी वह पहलौठी औलाद सलीम को भूल न पातीं। उनका सलीम से लगाव कुछ ज्यादा ही था।
वह जितना सलीम भार्इ के बारे में उल्टी-सीधी सूचनाएँ पातीं, उनका दुख बढ़ता जाता। वह जार-जार आँसू बहातीं और अल्लाह-रसूल से उसके लिए दुआएँ माँगा करतीं।
पीर गुलाम से अम्मा ने सलीम की चोरी से बहू और बच्चे की फोटो भी मँगवार्इ थी। उस तस्वीर में सलीम भार्इ किसी मौलाना सा दिखलार्इ दे रहा था और उसकी बीवी बुर्के का घूँघट पलट कर चेहरा बाहर निकाले थी। उनका बच्चा ऐसा दिख रहा था जैसे रुई का गोला हो। अम्मा अपनी संदूकची में उस तस्वीर को सँभाल कर रखती है।
यूनुस ने नन्हू चच्चा से पूछा - 'क्या खबर आर्इ है?'
यूनुस के सामने केबिल टीवी के माध्यम से प्रसारित की जा रही गुजरात की दिल दहलाने वाली घटनाएँ कौंध गर्इं।
गोधरा-कांड के बाद गुजरात में मार-काट मची हुर्इ है। तमाम अखबार और टीवी के न्यूज चैनल गुजरात के दंगों को आम-जन के सामने लाने में भिड़े हुए हैं। एक से बढ़कर एक न्यूज रिपोर्टर कैमरा टीम के साथ जहाँ-तहाँ पिले पड़ रहे हैं ताकि दंगों का लाइव-कवरेज बना सकें।
ताकि उनके चैनल की टीआरपी अचानक बढ़ जाए।
ताकि उनके रिपोर्ट्स से मीडिया में तहलका मच जाए।
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Re: पहचान

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'ये देखिए, हाथ में पेट्रोल से भरी बोतलें लिए औरतें आगे बढ़ रही हैं। ये देखिए हरे रंग में पुता एक खास जाति के लोगों का मकान, पर्दे की ओट से झाँकती बुर्का ओढ़े औरतें, छत पर पत्थर र्इंट इकट्ठा करते बच्चे, नमाजें अदा करते बुजु़र्ग, और ये देखिए किस तरह तड़ातड़ बोतलें फेंकी जा रही हैं... यह एक्सक्लूसिव कवरेज सिर्फ इसी चैनल में आप देख रहे हैं... ये देखिए हमारे संवाददाता के साथ जनता कैसा बर्ताव कर रही है... लोग हमारा कैमरा तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं... इस सड़क पर देखिए पुलिस के सिपाही मौन खड़े भीड़ को अवसर दे रहे हैं... वो देखिए एक गर्भवती महिला किस तरह भागना चाह रही है... किस तरह त्रिशूल और लाठियाँ लिए, माथे पर गेरुआ पट्टी बाँधे युवक उस महिला को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए हैं... और... और... ये रहा उस महिला के पेट का त्रिशूल की नोक से चीरा जाना... देखिए किस तरह त्रिशूल की नोक पर अजन्मा बच्चा भीड़ के सिरों पर खुले आकाश में लहराया जा रहा है... याद रखिए ये लाइव-कवरेज हमारे चैनल पर ही दिखलाया जा रहा है... हमारे जाँबाज रिपोर्टरों ने अभी कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में अमरीकी हमले के दौरान अमरीकी सैनिकों की बहादुरी और आतंकवादियों के सफाए का आँखों देखा हाल आप लोगों तक पहुँचा कर मीडिया की दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था... और अब गुजरात में क्रिया के बाद की स्वाभाविक प्रतिक्रिया को पूरी र्इमानदारी के साथ आप लोगों तक पहुँचाया जा रहा है। रात नौ बजे पूरे घटना-क्रम पर फिर एक बार निगाह डालता हमारा दंगा-विशेष देखना न भूलें। इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं हीरे-जवाहरात के व्यापारी, चरस-हीरोइन के स्मगलर, जूता, साबुन, कंडोम और नेपकिन्स के निर्माता...
न्यूज के दूसरे-तीसरे चैनल भी यही सब दिखा रहे हैं। सभी दावा कर रहे हैं कि ये जो टीवी पर दिखाया जा रहा है, वह सब पहली बार उन्हीं के चैनल वालों ने दिखाया है। कि पूरे घटनाक्रम पर लगातार नजर रखी जा रही है। कि हमारे संवाददाता अपनी जान जोखिम पर डालकर दंगे की विश्वसनीय एवं आँखों देखी खबरें लगातार भेज रहे हैं। कि सिर्फ हमारा चैनल प्रस्तुत कर रहा है खसखसी दाढ़ी वाले मुख्य मंत्री और कवि-प्रधानमंत्री से सीधी बातचीत। मुख्य मंत्री, गृह मंत्री और प्रधान मंत्री कटघरे में। एकदम एक्सक्लूसिवली आपके लिए... जिसे प्रायोजित कर रहे हैं चड्ढी-बनियान, शीतल-पेय और बीयर के निर्माता...
विपक्ष में बैठे लोग, जिनके दामन में जाने कितने दंगों के दाग लगे थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में बाबरी-मस्जिद शहीद होने दी थी, घड़ियाली आँसू बहा रहे थे।
गुजरात की सुलगती आग में उनके गैर-सांप्रदायिक कार्यकर्ता कहाँ थे, ऐसे कठिन समय में उनका रोल क्या था? क्या वे कभी इन सवालों का जवाब दे पाएँगे?
पक्ष-विपक्ष संसद में आपस में नोंक-झोंक कर रहे थे कि विपक्षियों के कार्यकाल में कितने दंगे हुए। सन चौरासी के सिख-विरोधी दंगे के आँकड़े के आगे तो गुजरात में कुछ ज्यादा नहीं हुआ है। सांप्रदायिक दंगों का इतिहास पलट लें, हर दंगों में स्त्रियों के साथ बलात्कार हुए हैं। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में हुए इस 'सहज-प्रतिक्रियात्मक' कार्य में आँकड़ा उतना ज्यादा नहीं है। बहुसंख्यकों के आक्रोश का दमन स्थिति को और भयावह बना सकता था, इसलिए सरकार ने उन्हें थोड़ा सा मौका ही तो दिया था कि वे अपनी भावनाओं पर काबू पा लें। अभी तो कम ही हादसात हुए हैं।
मिलेटरी आदेश की प्रतीक्षा में कैंपों में दंड पेल रही थी।
पुलिस ऐसे समय में मूक दर्शक बनने की ऐतिहासिक भूमिका का तत्परता से पालन कर रही थी।
टीवी पर आती खबरों से फिर गुजरात धीरे-धीरे गायब होता गया कि नन्हू चच्चा ये कैसी खबर लेकर आ गए।
पीर गुलाम ने फोन पर क्या बात कही कि नन्हू चच्चा रात के बारह बजे समाचार पहुँचाने चले आए..
यूनुस का मन किसी अनहोनी की आशंका से विचलित हो रहा था।
नन्हू चच्चा चारपार्इ पर बैठे रहे।
फिर उन्होंने यूनुस से पानी माँगा।
लगता है कि बेबिया की नींद खुल गर्इ थी।
वह भकुआर्इ उठी थी।
यूनुस ने उससे चच्चा के लिए पानी लाने को कहा।
तभी दरवाजे की साँकल पुनः बजी।
लगता है कि अब्बा हैं, शायद ट्रेन से लौटे हों।
यूनुस ने लपक कर दरवाजा खोला, वाकर्इ अब्बा ही थे।
नन्हू चच्चा ने उन्हें सलाम किया और फिर अब्बा के लिए भी एक गिलास पानी मँगवाया।
अब्बा ने जब पानी पी लिया तो नन्हू चच्चा ने खँखारकर गला साफ किया और अब्बा के गले लगकर रो पड़े - 'अपना सलीम नहीं रहा... वो दंगे में मारा गया!'
यूनुस को काटो तो खून नहीं।
बेबिया तो दहाड़ मार कर रो पड़ी।
ये अचानक कैसी खबर सुन रहा था परिवार...
एकदम अप्रत्याशित खबर...
अब्बा की आँखें भी नम हो गर्इं - 'साफ-साफ बताएँ कि क्या बात है?'
नन्हू चच्चा के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे - 'इधर जब से गुजरात सुलगा हुआ था, मेरे बेटे पीर गुलाम की भी कोर्इ खबर नहीं मिल पार्इ थी। बाद में पीर गुलाम का फोन मिला कि वह ठीक है। मामला जब ठंडाया तो पीर गुलाम डरते-डरते आपके बेटे सलीम के मुहल्ले गया था। वहाँ उसे पता चला कि सलीम तब्लीग-जमात में चिल्ला काट कर लौटा था। जमात के लोग स्टेशन से अलग-अलग ऑटो बुक कराकर अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। सलीम दंगाइयों के बीच फँस गया था। सलीम को आटो-सहित जला कर मार डाला गया। तब्लीगी-जमात वालों ने ही घटना की खबर उसकी ससुराल में पहुँचार्इ थी। ससुराल वाले इस उम्मीद में थे कि शायद सलीम जान बचा कर कहीं छुपा होगा और मामला ठंडाने पर लौट आएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वह खबर सही थी। उस आटो के साथ सलीम भी जल कर खाक हो गया था।'
यूनुस को पीर गुलाम की बात याद हो आर्इ जो सलीम भार्इ को 'लादेन' के नाम से याद किया करता। तब्लीगी-जमात से जुड़ा होने के कारण सलीम भार्इ का गेट-अप एकदम ओसामा बिन लादेन की तरह दिखता था।
यूनुस को उसका लिबास और उसकी पहचान ले डूबी।
एक बार यूनुस खालू के इलाज के लिए पीजीआर्इ लखनऊ गया था।
वहाँ एक मौलवी नुमा बुजुर्ग दिखे तो आदतन उसने उन्हें सलाम किया।
वे बहुत नाराज दिखलार्इ दे रहे थे।
कैसा जमाना आ गया। हद हो गर्इ भार्इ। ये डाक्टर जिन्हें फरिश्ता भी कहा जाता है, मुसलमान मरीजों से चिढ़ते हैं। जान जाते हैं कि मरीज मुसलमान है तो फिर इलाज में लापरवाही करते हैं। सारे काफिर डाक्टर आरएसएस के एजेंट हैं। वे चाहते हैं कि 'मीम' का सही इलाज न होने पाए।
थोड़ी सी हुज्जत की नहीं कि इलाज ऐसा कर देंगे कि रिएक्शन हो जाएगा, दवा कोर्इ फायदा न करेगी।
यूनुस ने उन मौलवी साहब की बात का खंडन किया - 'अरे नहीं मौलवी साहब, एकदम गल्त कह रहे हैं आप! भला बताइए, हम भी तो मुसलमान हैं, लेकिन हमने तो ऐसा कोर्इ भेदभाव यहाँ नहीं होते देखा। डाक्टर बिचारे भरसक मरीज को तंदुरुस्त करने में लगे रहते हैं।'
फिर उसने मौलवी साहब का मन बदलने के लिए पूछा - 'आप कहाँ के रहने वाले हैं?'
उन्होंने कहा - 'जौनपुर जिले का रहने वाला हूँ।'
'ठीक है, लेकिन आपकी ये शिकायत वाजिब नहीं कि डाक्टर मरीजों से भेदभाव करते हैं। बीमारी जितनी बड़ी होगी, डाक्टर उतने सीरियस रहते हैं।'
'दुनिया देखी है मैंने बेटे, तुम मुसलमान जरूर हो, लेकिन तुम्हारा रहन-सहन एक आम हिंदू शहरी की तरह है। इसलिए तुम हिंदुओं के बीच खप जाते हो। हमें देखकर कोर्इ भी जान लेता है कि हम मुसलमान हैं। वे हमसे नफरत करने लगते हैं। सोचता हूँ कि इस मुल्क के उलेमा ये फतवा जारी कर दें कि मुसलमानों को दाढ़ी रखने की सुन्नत से छूट मिल जाए।'
यूनुस उन बुजुर्ग की बात सुनकर काँप गया था।
चार
पंकज उधास की गजल का एक शे'र यूनुस को याद हो आया -
दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
शाम ढले, इस सूने घर में मेला लगता है
दीवारों से, मिलकर रोना, अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे, ऐसा लगता है
जिंदगी के इस पड़ाव पर दुनिया भर की यादें यूनुस का पीछा कर रही थीं।
अब्बा, अम्मा, खाला, खालू, सलीम भार्इ, बड़की, सिंधी फलवाला, सनूबर, मलकीते, छंगू, जमाल साहब, डाक्टर, बन्ने उस्ताद, मन्नू भार्इ मिस्त्री, यादव जी, बानो और भी न जाने कितने जाने-अन्जाने चेहरे, हर चेहरे की एक अलग दास्तान...
उसकी नींद उचट चुकी थी।
चोपन-कटनी पैसेंजर किसी स्टेशन पर रुकी।
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