हथेली पर उगा चाँद

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Jemsbond
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हथेली पर उगा चाँद

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हथेली पर उगा चाँद

लेखक- अंजान

‘अभी मुनीम जी आकर बता गये हैं, मां जी आठ लाख में बाग़ का सौदा हो गया है ।’ मधू ने मुझे सूचना दी।’
’ बहू अभी पिछले दिनों जो बाग़ बिका था , वो कितने में गया था ?’
‘मां जी वह तो सस्ता ही हाथ से निकाल गया था सिर्फ तीन लाख में सौदा हो गया था ,लेकिन मां जी जो बाग अगले साल के लिए तैयार हो रहे हैं वो पन्द्रह – बीस लाख से कम नहीं देकर जावेंगे ।’
‘हाँ मधु कला जमुनी वाला जो बाग़ है उसके आम के तो क्या कहने , खाओ तो बस खाते ही जाओ भगवान की बड़ी मेहरबानी है कि सारे पेड़ एकदम मीठे हैं ।’
मां जी बोलती चली जा रहीं थीं ,उन्हें ये भी ख्याल नहीं रहा कि अब वह अकेली बैठी हैं , मधु जा चुकी है । नन्हीं रमिया से बड़ी मां जी का सफ़र जैसे तैर कर उनकी आँखों में आ गया ।
जल्दी- जल्दी बड़े- बड़े डग रखती रमिया उड़कर अपने रघुआ के पास पहुँच जाना चाहती थी ,जहाँ झोंपड़ी के पास बैठा नन्हा बेसब्री से उसका इंतजार करता होगा ,रोज ही तो सुखी बची रोटी या बासी दाल ,कभी कभी थोडा भात या जो छोटे ठाकुर खाते- खाते छोड़ देते वह भी रमिया के हिस्से में आ जाता था, लेकिन आज तो ठकुराइन के भाई ओरैय्या से आये तो आमों से भरा टोकरा भी लाये थे । ठकुराइन तो भाई को देख कर बहुत खुश हुई थीं और दौड़ दौड़ कर उनकी खातिरदारी में लग गई थीं ।पर वह बार बार बीच बीच में रमिया को निर्देश देती थीं -रमिया सफाई का ध्यान रख ,बच्चे आम खा खाकर रस टपका रहे हैं वहाँ पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं हैं। रमिया पीछे पीछे घूम घूम कर सफाई कर रही थी ,बच्चे स्वाद ले लेकर आम खा रहे थे, एक पल को उस लगा जैसे रघुआ भी आम का स्वाद ले रहा है , उसकी आँखों में सिर्फ रघुआ व् आम रस था ।तभी ठकुराइन की आवाज से जैसे वह चौंक पड़ी , ‘अरे रमिया तू खड़ी खड़ी क्या सोच रही है , बच्चे आम खा चुके हैं उनके हाथ पैर धुला दे ।’
बस इसी चिल्ल-पों में दिन निकाल गया था और रमिया घर जाने लगी ,तभी ठकुराइन ने पुकारा -‘अरे रमिया ये आम लेती जाना ज्यादा पके हैं यहाँ कोई नहीं खायेगा और तूने अपना खाना तो ले ही लिया होगा ?’
‘हाँ मालकिन ‘, कहकर रमिया चल दी थी। सचमुच बहार बैठा रघुआ उसका रास्ता देख रहा था। माँ के हाथ में आम देखकर तो जैसे उछल ही पड़ा था, उलट पुलट कर वह आम को देख रहा था ,चार साल का नन्हा रघुआ समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या है ,इसे कैसे खाया जायेगा ,इसका स्वाद कैसा होगा ..आज से पहले ऐसी अनोखी चीज देखी नहीं थी ,उसकी मासूम आँखें माँ से सब जानना चाहती थीं ।तभी रमिया दुलार से उसके पास बैठ गई और हाथ से आम साफ कर रघुआ को खिलाने लगी ,रघुआ खुश खुश आम खा रहा था लेकिन स्वाद जैसे रमिया को आ रहा था। वह मन ही मन ठकुराइन के भाई को सराह रही थी- हे भगवान हर गर्मी एक बार तो वह जरुर आ जाया करें आम लेकर, शायद इस तरह उसे भी एक दो आम मिल जायें और वह रघुआ को खिला सके ..
‘माँ और नहीं हैं ?’ रघुआ पूंछ रहा था –
तभी रमिया जैसे नींद से जागी -‘अरे तूने तीनों आम खा लिए ,मुझे तो ख्याल ही नहीं रहा ,एक आम कल के लिए बचा लेती।’
‘नहीं माँ मेरा मन तो और खाने को कर रहा है ,कल और लाएगी तू ?’
‘तू तो बिलकुल पगला है आज ही न जाने कैसे मिल गए तेरे भाग्य से वर्ना हमारे नसीब में तो बेटा सूखी रोटी ही लिखी है।’
रोटी भात खाकर रमिया वहीँ चटाई पर पसर गई ,लेकिन नन्हा रघुआ लेटा- लेटा आम के बारे में सोचता रहा -आम कहाँ से आता है ..सोचते सोचते वह भी निद्रा देवी की गोद में लुढ़क गया।
सुबह जब रमिया की आँख खुली तो रघुआ बगल में पड़ा मीठी नींद का आन्नद ले रहा था। रात खाए आम की गुठली वहीँ पड़ी थीं छिलके चूहे खींच ले गए थे ,रमिया ने गुठली उठा कर गड्ढा खोद कर झोंपड़ी के पीछे दबा दीं। हाथ मुंह धो चूल्हे में आग जलाकर, पचास पैसे का बकरी का दूध लाकर चाय बना कर प्यार से रघुआ को जगाने लगी।
सूरज ऊपर चढ़ आया है ,कहीं ठकुराइन के यहाँ पहुँचने में देर न हो जाये..यह सोचते ही उसके डग लम्बे लम्बे पड़ने लगे ,बस यों ही भागते दौड़ते दस साल निकाल गए ..तीन गुठली के तीन पेड़ उग गए थे। इस बार जब फागुन सुगबुगाया तो पेड़ भी जैसे शरमा से गए, उन पर भी बौर आने लगा था। नन्हा रघुआ अब बड़ा हो गया था और स्कूल जाने लगा था। स्कूल की बहन जी की मेहरबानी से रघुआ की फ़ीस माफ़ थी और कोपी किताब भी मिल जाती थीं ,कभी कभी कमीज निकर भी बहन जी स्कूल से ही दिलवा देती थीं। रघुआ पेड़ों को देखता जाता ,आता तो उन्हीं के नीचे चटाई बिछा कर पढता लिखता रहता था।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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कुह कुह की मीठी आवाज भी रघुआ को प्यारी लगती थी क्योंकि अब तो कोयल वहां चहचहाने लगीं थीं। देखते देखते बौर छोटी छोटी आमियों में बदल गया था। आमियाँ देखकर रमिया भी बहुत खुश थी , उसकी मेहनत रंग ला रही थी।
जब गुठली से बने पौधे अपना सिर उठा रहे थे तो रमिया को लगा था कि पौधा उखाड़ और घिसकर रघुआ को दे दे, ताकि रघुआ उसे बजा बजे कर बाजे का आनंद ले सके,गाँव के बच्चे भी तो पपैयया बजाते रहते थे, लेकिन रघुआ ने कभी पपैयया बजने की जिद्द नहीं की। वह तो बस पौधों को देखकर ही बहुत खुश था। रमिया ने धीरे से एक दिन बताया भी था कि ये पौधे बड़े होकर पेड़ बन जाते हैं और इन्हीं पेड़ों पर मीठे आम लगते हैं।
जब गुठली से बने पौधे अपना सिर उठा रहे थे तो रमिया को लगा था कि पौधा उखाड़ और घिसकर रघुआ को दे दे,ताकि रघुआ उसे बजा बजे कर बाजे का आनंद ले सके।गाँव के बच्चे भी तो पपैयया बजाते रहते थे। लेकिन रघुआ ने कभी पपैयया बजने की जिद्द नहीं की। वह तो बस पौधों को देखकर ही बहुत खुश था। रमिया ने धीरे से एक दिन बताया भी था कि ये पौधे बड़े होकर पेड़ बन जाते हैं और इन्हीं पेड़ों पर मीठे आम लगते हैं।
रघुआ के नन्हे से मन में ये बात जमकर बैठ गयी थी। वह पौधों के पास ही मंडराता रहता था। कभी रमिया कभी वह पानी देते रहते थे। जब पौधे थोड़े बड़े हुए तो रमिया ने सावधानी से उन्हें थोड़ी थोड़ी दूरी पर लगा उसके चारों तरफ कुछ झाड़ डाल दिए थे ताकि वह सुरक्षित बने रहें। समय के अभाव में वह ये सब करती करती थक जाती थी ,कभी कभी ठकुराईन के यहाँ से लौटने में रात हो जाती थी तो वह हारी-थकी निढाल सी होकर सो जाती ,जवानी में जैसे बुढ़ापे ने आ दबोचा था| वह सोचती कितने बरस की होगी ,कुछ ठीक तो पता नहीं ,हाँ जब वह दुल्हन बनी थी, घाघरा पहना था ,ओढ़नी को वह संभाल नहीं पा रही थी.. आई को कहते जरूर सुना था कि बिट्टी सात बरस की हो गई है, फिर दो बरस बाद गौना हो गया था। उसके चार बरस बाद उसकी कोख में कुछ हलचल होने लगी थी। कुछ समझते समझते तो रघुआ उसकी गोद में आ गया था। उसने जब तक रघुआ को ठीक से देखा , संभाला कि गाँव में बाढ़ का हल्ला हो गया था। रघुआ छोटा था इसलिए उसे खटिया सोने को मिली थी, बाकी सब चटाई पर सोये थे।
बादल जैसे गरज बरस कर फट पड़ना चाहता था ,रमिया कथरी लपेट नन्हें रघुआ को से चिपटा कर सो गई थी ,जब उसकी आँख खुली तो वह भय से चीख पड़ी उसकी खटिया पानी से जोर जोर से हिल रही थी।
तभी किसी के मजबूत हाथों ने उसे उठाकर नाव में रख दिया था। वह सावधानी से रघुआ को चिपटा रही थी, डर के मारे कुछ बोल नहीं सकी थी। लाशें बह रही थीं, जिसमे जरा भी साँस थी ,पुलिस वाले उसे उठाकर नाव में डाल रहे थे, लेकिन उसके घर का कोई दिखाई नहीं दे रहा था। उसकी जान तो बची थी पर भूखी आत्मा फडफडा रही थी। रघुआ का मोह उसे बांध रहा था। तीन दिन बाद उसे लाई चना मिला तो वह जैसे जी गई। किसी महात्मा ठाकुर ने वह लाई चना बंटवाया था। उन्हीं ठाकुर के यहाँ उसे काम पर रख दिया था, जिसे वह आज तक मेहनत से निभा रही थी और गुजर बसर कर रही थी।
पिछले दुखों को भूलकर और नन्ही नन्ही आमियों को देखकर वह ज्यादा ही प्रसन्न थी। एक दिन खुश होकर ठकुराइन ने थोडा गुड़ दिया तो उसने आमी की मीठी लोंजी बनाकर रघुआ को खिलाई, रघुआ को जैसे फिर वही मीठे आम मिल गए थे ,जिनका स्वाद वह अभी तक नहीं भूला था।
जब आम बड़े हुए तो वह कुछ आम बहनजी के लिए ले गया, उसने खुश होकर बताया -‘बहनजी ये मेरे पेड़ के आम हैं।’ बहनजी खुश होकर बोलीं -‘अरे रघु कितने पेड़ हैं तुम्हारे ?’
‘बहनजी तीन पेड़ हैं।’ रघु ने बताया।
‘अरे ,तब तो बहुत आम होंगे।’
‘नहीं बहनजी थोड़े आम लगे हैं सब तोड़ ले जाते हैं , मैं यहाँ आ जाता हूँ , माँ काम करने चली जाती है।’
‘अच्छा, मैं कल तेरे घर आउंगी, सात बजे ,जब तक तो तेरी माँ घर आ जाती होगी ?’
‘बहनजी अँधेरा होते होते आ जाती है।’
‘ ठीक है मैं आउंगी।’
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झुटपुट होते होते बहनजी वहां पहुँच गयीं ,रघु बहार बैठा था,तभी रमिया भी आ गई।
‘बहनजी आप हम गरीबों के घर ..?’ संकोच के मारे वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाई।
‘अरे नहीं रमिया सभी वही रोटी खाते हैं सभी मेहनत करते हैं अपने अपने ढंग से ..मैं तो तुम्हारे आमों के पेड़ देखने आई थी ,रघु मेरे लिए आम ले गया था कह रहा था मेरे पेड़ के आम हैं।’
हाँ बहनजी चलो आपको दिखाऊँ ..ऊँचे ऊँचे आम रह गए हैं नीचे तो किसी ने छोड़े नहीं, रघुआ का बड़ा मन था आपके लिए आम ले जाने का सो कच्चे ही ले गया पकने तक तो शायद रहते नहीं।’
‘हाँ तो मैं ये बताने आई हूँ ,अगर तुम्हारी समझ में आ जाये ..देखो मालकिन से कहकर बीच में चार घंटे की छुट्टी ले लिया करो, जितनी देर रघु स्कूल में रहता है ,तुम्हारी मालकिन दयालु हैं जरूर मान जाएँगी। हाँ, एक बात और थोड़े आम तोड़कर पेड़ के नीचे रख लिया करो और उन्हें तुम और रघु बेचते रहा करो जिससे कुछ पैसे भी तुम्हारे हाथ आते रहेंगे। ‘
‘लेकिन बहनजी हमारे पास तो तराजू बाट कुछ भी नहीं हैं ..?’
‘ओहो रमिया तुम तो बहुत भोली हो, गिन कर भी सौदा बिकता है ..जैसे एक रूपये के आठ या दस आम।’
‘पर बहनजी मुझे तो गिनती भी नहीं आतीं हैं।’ रघु तुम्हारे लिए ढेरी लगा जाया करेगा ,धीरे धीरे तुम खुद सीख लोगी। मैं कल आकर तुम्हें और रघु को बता जाउंगी ,तुम अपनी मालकिन से बात जरूर कर लेना, मैं यहाँ आती रहूंगी।’
आमों के बिकने से रमिया के घर की दशा सुधरने लगी। टूटी चटाई की जगह अब खाट आ गई थी ,तामचीनी के बर्तन की जगह अब स्टील के बर्तन आ गए थे ,पुराना छप्पर जगह जगह से टपकता रहता था सो बहनजी के कहने से वहाँ अब टीन की छत्त बन गई थी। जब भी बहन जी शहर जातीं रमिया के यहाँ कुछ न कुछ नया सामान आ जाता था। जो पैसे रमिया के पास आते वह बहनजी को थमा देती थी।
अब रमिया को पैसे का महत्त्व पता चल गया था। आम अब कम होने लगे थे ,रमिया को आगे की चिंता सताने लगी थी ,वह सोचती तो बहुत थी पर ठीक से कुछ समझ नहीं पाती थी कि वह क्या करके पैसे कमाने का जरिया बनाये ,उसने अपने मन की बात बहनजी को बताई।
बहनजी उसकी समझ और कुछ करने की लगन देखकर बहुत खुश हुई और उन्होंने बताया –
‘रमिया मैं तुम्हें टमाटर ,बैगन ,सेम और मिर्च के बीज लाकर दूंगी तुम घर के सामने क्यारी बनाकर बो देना ,समय पर पानी देती रहना ,चारों तरफ झाड़ भी लगा देना, कुछ दिन बाद मैं तुम्हें फूलगोभी ,बंदगोभी की पौध भी मंगवाकर दूंगी ,बस तुम दोनों लगन से काम करते रहो ,घर के बगल में भी खाली पड़ा है चाहो तो वहां भी खुदाई- गुड़ाई करके मेथी ,पालक ,धनिया, सरसों, मटर बो सकते हो। ऊपर से सब बड़े बनकर नहीं आते अपनी समझ बूझ मेहनत लगन से अपनी समस्याओं का समाधान कर लेते हैं और जीवन भर अपंग नहीं बने रहते हैं।
यह बात रघु और रमिया के अंदर तक उतर गई थी।
आम ख़त्म हो गए थे ,फिर भी रमिया सुबह उठते ही पेड़ों के नीचे चक्कर लगा आती थी उसे पेड़ों के नीचे बड़ा संतोष मिलता था| उठते ही जैसे ही रमिया वहां गई तो कुछ पके आम पड़े मिले ,जो शायद ऊपर फुन्गी पर लगे रह गए थे सबकी पहुँच से दूर और वे पकते ही चू पड़े थे। रमिया आम पाकर बहुत खुश हुई दोनों माँ बेटे ने आम खाए और गुठली झट घर के पीछे दबा दी।
बहनजी उसके लिए भगवान से कम नहीं थीं। वह उनका गुणगान करते थकती नहीं थी ,लेकिन बहनजी ये सब उसकी मेहनत और लगन का नतीजा बताती थीं।
मुट्ठी में रेत की तरह समय खिसकता रहा। रघु से रघुनाथ वह कब बन गया पता नहीं चला ,वह कब हवेली की मालकिन बन गई और रघु से रघुनाथ , रघुनाथ से सेठ रघुनाथ होकर आमों का जाना माना व्यापारी बन गया। काम सँभालने के लिए चार चार मूनीम रख लिए थे ,घर भी नौकरों -चाकरों से भरा था ,घर में चाँद सी बहू थी।
‘माँ जी दूध -हलवा ठंडा हो गया आप कहाँ खो गईं ..’
‘हाँ मधु आज को जीते हुए कल के पृष्ठ पलटने लगी थी ‘ मधु कुछ समझ पाती कि वो नाश्ता करने लगी लेकिन फिर सोच ने आ दबाया सोचते-सोचते रमिया को लगा जैसे उसकी हथेली पर चाँद उग आया हो और वह अपनी ही सोच पर मुस्कुरा पड़ी ,लेकिन तभी मधु की आवाज सुन वह रमिया का चोला उतार तत्काल बड़ी माँ जी बन गई।
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