प्रेम पूर्णिमा--मुंशी प्रेमचंद

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प्रेम पूर्णिमा--मुंशी प्रेमचंद

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प्रेम पूर्णिमा

प्रेमचंद (३१ जुलाई, १८८० – ८ अक्तूबर १९३६) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव वाले प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है इस उपन्यास में उन्होंने छोटी छोटी कहानियाँ लिखी हैं


ईश्वरीय न्याय

कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े ज़मींदार थे। मुंशी सत्य-नारायण उनके कारिंदा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन उनके हाथ में था, पर कभी उनकी नीयत डावांडोल न होती। उनके सुप्रबंध से रियासत दिनों-दिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे कर्मपरायण सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए उससे कुछ अधिक ही होता था। दुःख-सुख प्रत्येक अवसर पर पंडित जी उनके साथ उदारता से पेश आते। धीरे-धीरे मुंशीजी का विश्वास इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब का समझना भी छोड़ दिया। सम्भव है, उनमें आजीवन इसी तरह निभ जाती पर भावी प्रबल है।
प्रयाग में कुम्भ लगा तो पंडित जी स्नान करने गये, वहाँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गढ़े में फिसल पड़े या कोई जल-जंतु उन्हें खींच ले गया फिर उनका कोई पता नहीं चला। अब मुंशी सत्यनारायण के अधिकार और भी बढ़े। एक हतभागिनी विधवा और दो छोटे-छोटे बालकों के सिवा पंडितजी के घर में और कोई न था। अंत्येष्टि क्रिया से निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा- लाला ! पंडित जी तो हमें मंझधार में छोड़कर सुरपुर को सिधार गये, अब यह नैया तुम्हीं पार लगाओं, तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी ही लगाई हुई है। इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चें है इन्हें अपनाओं। जब तक मालिक जिए तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह भार को सँभाले रहोंगे।
सत्यनारायण ने रोते हुए जवाब दिया-भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे भाग्य फूट गए, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरूंगा, आप धीरज रखें। किसी प्रकार की चिंता न करें। मैं जीते-जी आपकी सेवा से मुँह न मोड़ूगा। आप केवल इतना कीजिएगा कि जिस किसी की शिकायत करूँ उसे डाँट दीजिएगा, नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जायेंगे।

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इस घटना के बाद कई वर्षों तक मुंशी जी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बडे़ कुशल थे। कभी एक कौड़ी का बल नहीं पड़ा। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडितजी को भूल-सा गए। दरबारों और कमेटियों में सम्मिलित होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। अन्य रईसों में भी उनका बड़ा आदर था मान-वृद्धि मँहगी वस्तु है और भानुकुंवरि, अन्य स्त्रियों के सदृश, पैसे को खूब पकड़ती थी। वह मनुष्य की मनोवृत्तियों से परिचित न थी। पंडितजी हमेशा लालाजी को इनाम-इकराम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के पंडितजी हमेशा लालाजी को इनाम का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिवाय वे खुद कभी-कभी कागजो की जाँच कर लिया करते थे। नाम मात्र ही को सही, पर इस निगरानी का डर जरूर बना रहता था; क्योंकि ईमान का सबसे बड़ा शत्रु अवसर है। भानुकुंवरि इन बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव जैसे प्रबल शत्रुओं के पंजें में पड़कर मुंशीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता।
कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे एक बहुत आबाद और उपजाऊ गाँव था।
पंडितजी इस गाँव को लेकर नदी के किनारे पक्का घाट, मंदिर, मकान आदि बनवाना चाहते थे। पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोग से अब वह गाँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी। बैनामा लिखा गया। रजिस्टरी हुई। रुपये मौजूद न थे; पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहाँ से 30 हजार रुपये मँगवाए और ठाकुर साहब की नजर किए गए। हाँ, काम-काज की आसानी के ख्याल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की, क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिक थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और बिलम्ब होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनाम लिये। असीम आनन्द में मग्न भानुकुंवरि के पास आये। परदा और यह शुभ समाचार सुनाया भानुकुंवरि ने सजल नेत्रों से उनकों धन्यवाद दिया। पंडितजी के नाम पर मंदिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।
मुंशीजी दूसरे दिन उस गांव में गये। आसामी नजराने लेकर नए स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों ने नावों में बैठकर गंगा की खूब सैर की मंदिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हटकर रमणीय स्थान चुना गया।

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यद्यपि इस गाँव को अपने नाम से लेते समय मुंशीजी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो चार दिनों में ही उसका अंकुर जम गया और धीरे-धीरे बढने लगा। मुंशीजी इस गाँव के आय-व्यय का हिसाब अलग रखते और अपनी स्वामिनी को उसका ब्यौरा समझने की जरूरत न समझते। भानुकुंवरि भी इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी पर दूसरे कारिंदों से ये सब बातें सुन-सुनकर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशीजी दगा तो न देंगे। वह अपने मन का यह भाव मुंशीजी से छिपाती थी, इस ख्याल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड्यंत्र ना रचा हो।
इस तरह कई साल गुजर गए। उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रूप धारण किया भानुकुंवरि को मुंशीजी के उस भाव के लक्षण दिखाई देने लगे। इधर मुंशी के मन में भी कानून ने नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गाँव मेरा है। हाँ, मैं भानुकुंवरि का 30 हजार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी, अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं ? मगर दोनों तरफ यह भाग अन्दर-ही अन्दर सुलगती रही मुंशीजी शस्त्र सज्जित हो कर आक्रमण के इन्तजार में थे और भानुकुंवरि इसके लिए अच्छा अवसर ढूँढ़ रही थी। एक दिन साहस करके उसने मुंशीजी को अन्दर बुलाया और कहा- लालाजी, ‘वरगदा’ में मंदिर का काम कब लगवाइएगा ? उसे लिये आठ साल हो गए, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिन्दगी का कौन ठिकाना, जो करना हैं, उसे कर ही डालना चाहिए।
इस ढंग से इस विषय को उठाकर भानुकुंवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परिचय दिया। मुंशीजी भी दिल में इसके कायल हो गए। जरा सोचकर बोले इरादा कई बार हुआ। पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की सब जमीन आसामियों के जोत में है और वह किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं।
भानुकुंवरि-यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए। इस गाँव के विषय में आपने कभी भूलकर भी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितना तहसील है,क्या मुनाफा है, कैसा गाँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए।
मुंशीजी संभल बैठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्री से बाजी ले जाना मुश्किल है। गाँव लेना ही है, तो अब क्या डर ! खुलकर बोले- आपको इससे सरोकार न था। इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा।
भानुकुंवरि के हृदय में कुठार-सा गया। परदे से निकल आयीं और मुंशीजी की तरफ तेज आँखों से देखकर बोलीं- आप क्या कहते हैं ? आपने गाँव मेरे लिया था या अपने लिए ? रुपये मैंने दिए थे या आपने ? उस पर जो खर्च पड़ा वह मेरा था। या आपका ? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते है।
मुंशीजी ने सावधानी से जवाब दिया-यह तो आप जानती ही हो कि गाँव मेरे नाम बय हुआ है। रुपया आपका लगा, पर उसका मैं देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल का खर्च, यह मैंने हमेशा अपने पास से किया है। उसका हिसाब किताब, आय –व्यय, सब अलग रखता आया हूँ।
भानुकंवरि ने क्रोध में काँपते हुए कहा- इस कपट का फल आपकों अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में यह छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती ? खैर, अब से मेरी रोकड़ और मेरी बही खाता आप कुछ न छुएँ, मेरा जो कुछ होगा ले लूंगी। जाइए एकान्त में बैठकर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि ये बालक अनाथ है; इनकी सम्पति हजम कर लूँगा ! इस भूल में रहना मैं तुम्हारे घर की ईंट तक बिकवा लूँगी !
यह कहकर भानुकुंवरि फिर परदे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियां क्रोध के बाद किसी-न-किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। वहाँ से उठ आये और दफ्तर में जाकर कुछ कागज उलट-पुलट करने लगे। पर भानुकुंवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और डाँटकर बोली- मेरा कोई कागज मत छूना, नहीं तो बुरा होगा; तुम विषैले साँप हो ! मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती !
मुंशीजी कागज कुछ कागज मुंशीजी कागज में कुछ काट-छाँट करना चाहते थे, पर विवश हो गए ! खजाने की कुंजी निकालकर फेंक दी, बही-खाते पटक दिये, किवाड़ धड़ाके से बंद किए और हवा की तरह सन्न से निकल गये। कपट में हाथ तो डाला पर कपट-मंत्र न जाना।
दूसरे कारिंदों ने यह कैफियत सुनी तो फूले न समाए। मुंशीजी के सामने उनकी दाल न गली न गलने पाती थी। भानुकुंवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे ! सब लोग इस विषय में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने विश्वासघात किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट-फूटकर निकलेगा। दोंनों ओर से मुकदमें बाजी की तैयारियाँ होने लगीं। एक तरफ न्याय का शरीर था; दूसरी ओर न्याय की आत्मा। प्रकृति को पुरुष से लड़ने का साहस हुआ था।
भानुकुंवरि ने लाला छक्कन लाल से पूछा-हमारा वकील कौन है ? छक्कन लाल ने इधर-उधर झाँककर कहा- वकील तो सेठजी है; पर सत्य-नारायण ने उन्हें पहले से ही गांठ में रखा होगा। इस मुकदमें के लिए बड़े होशियार वकील की जरूरत है। मेहरा बाबू की आजकल खूब चल रही। हाकिमों की कलम पकड़ लेते है। बोलते है तो जैसे मोटरकार छूट गई। सरकार, और क्या कहें, कई आदमियों को फाँसी से उतार लिया है। उनके सामने कोई वकील जबान तो खोल ही नहीं सकता। सरकार कहें तो वहीं कर लिया जाये।
छक्कन लाल की अत्युक्ति ने संदेह पैदा कर दिया। भानुकुंवरि ने कहा- नहीं पहले सेठ जी से पूछ लिया जाय। इसके बाद देखा जायगा। आप जाइए, उन्हें बुला लाइये। छक्कन लाल अपनी तकदीर को ठोंकते हुए सेठ जी के पास गये। सेठजी पंडित भृगुदत्त के जीवन-काल ही से उनके कानून-सम्बन्धी सब काम किया करते थे ! मुकदमें का हाल सुना, तो सन्नाटे में आ गए। सत्यनारायण को वह बड़ा नेकनीयत आदमी समझते थे। इनके पतन पर बड़ा खेद किया। उसी वक्त आये। भानुकुंवरि ने रो-रोकर उनसे अपनी विपत्ति की कथा कही और अपने दोनों लड़कों को उनके सामने खड़ा कर बोली- आप इन अनाथों की रक्षा कीजिए। इन्हें मैं आपकों सौंपती हूँ।
सेठजी ने समझौते की बात छेड़ी- आपस में लड़ाई अच्छी नही भानुकुंवरि, अन्यायी के साथ लड़ना अच्छा है।
सेठजी- पर हमारा पक्ष तो निर्बल है।
भानुकुंवरि फिर परदे से निकल आयी और फिर विस्मित होकर बोली- क्या हमारा पक्ष निर्बल है ? दुनिया जानती है कि गाँव हमारा है। उसे हमसे कौन ले सकता है ? नहीं, मैं सुलह कभी न करूँगी। आप कागजों को देखें । मेरे बच्चों की खातिर यह कष्ट उठाएं। आपका परिश्रम निष्फल न जायेगा। सत्यनारायण की नीयत पहले खराब न थी। देखिए, जिस मिती में गाँव लिया गया है। उस मिती में 30 हजार का क्या खर्च दिखाया गया है ! अगर उसने अपने नाम उधार लिया हो, तो देखिए, वार्षिक चुकाया गया है या नहीं। ऐसे नर-पिशाच से मैं कभी सुलह न करूँगी।
सेठजी ने समझ लिया कि इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा। कागजात देखें, अभियोग चलाने की तैयारियां होने लगीं।

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मुंशी सत्यनारायण लाल खिसियाए हुए मकान पहुँचे। लड़के ने मिठाई माँगी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए बरस पड़े कि उसने क्यों लड़के को उनके पास जाने दिया। अपनी वृद्घा माता को डाँटकर कहा- तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जरा लड़के को बहलाओं। एक तो मैं दिन-भर का थका-मांदा घर आऊँ और फिर लड़के को खिलाऊँ? मुझे दुनिया मे न और कोई काम है, न धंधा !
इस तरह घर में बावेला मचाकर वह बाहर आये और सोचने लगे- मुझसे बड़ी भूल हुई ! मैं कैसा मूर्ख हूँ ? इतने दिन तक सारे कागज-पत्र अपने हाथ में थे। जो चाहता कर सकता था। पर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। आज सिर पर आ पड़ी, सूझी ! मैं चाहता, तो बही-खाते सब नए बना सकता था, जिसमें इस गाँव का और इस रुपये का जिक्र ही नहीं होता। पर मेरी मूर्खता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रूठ जाती है। मुझे मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आएगी और कागजों में हाथ तक न लगाने देगी।
इसी उधेड़-बुन में मुंशीजी यकायक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया-क्यों न कार्यकर्ताओं को मिला लूँ। यद्यपि मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे से बात न करेंगे, तथापि उनमें ऐसा कोई भी नहीं, जो प्रलोभन से मुट्ठी में न आ जाय। हां, इसमें रुपया पानी की तरह बहाना पड़ेगा। पर इतना रुपया आए कहा से ? हाय दुर्भाग्य ! दो-चार दिन पहले चेत गया होता, तो कठिनाई न पड़ती। क्या जानता था कि वह डायन इस तरह वज्र-प्रहार करेगी ? बस-अब एक ही उपाय है। किसी तरह वे कागजात गुम कर दूँ। बड़ी जोखिम का काम है, पर करना ही पड़ेगा।
दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिर झुकाने पर फिर सँभलना कठिन हो जाता है। पाप के अथाह दलदल में जहाँ एक बार पड़े कि फिर प्रति क्षण नीचे ही चले जाते है। मुंशी सत्यनारायण-सा विचारशील मनुष्य इस समय इस फिक्र में था कि कैसे सेंध लगा पाऊँ ? मुंशीजी ने सोचा- क्या सेंध आसान है ? इसके वास्ते कितनी चतुरता साहस, कितनी बुद्धि, कितनी वीरता चाहिए ! कौन कहता है कि चोरी करना आसान काम है ? मैं जो कहीं पकड़ा गया, तो डूब मरने के शिवा और कोई मार्ग ही नहीं रहेगा।
बहुत सोचने विचारने पर भी मुंशीजी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का विश्वास न हो सका। हाँ, इससे सुगम एक दूसरी तदबीर नजर आई –क्यों न दफ्तर में आग लगा दूँ ? एक बोतल मिट्टी का तेल और एक दियासलाई की जरूरत हैं ! किसी बदमाश को मिला लूँ। मगर यह क्या मालूम कि वह वहीं कमरे में रखी है या नहीं। चुड़ैल ने उसे जरूर अपने पास रख ली होगी। नहीं, आग लगाना गुनाह बेलज्जत होगा।
बहुत देर तक मुंशी जी करवटे बदलते रहे। नए-नए मनसूबे सोचते पर फिर अपने ही तर्कों से उन्हें काट देते। जैसे वर्षा में बादलों को नई-नई सूरतें बनतीं और फिर हवा के वेग से बिगड़ जाती हैं, वही दशा उस समय उनके मनसूबों की हो रही थी।
पर इस मानसिक अशांति में भी एक विचार पूर्णरूप से स्थित था- किसी तरह इन कागजातों को अपने हाथ में लाना चाहिए। काम कठिन है- माना; पर हिम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली ? क्या 30 हजार की जायदाद दाल-भात का कौर है ? चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियां करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते है। बस एक छलांग का काम है। अगर पार हो गए तो राज करेंगे, गिर पड़े तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।

5

रात के दस बज गये थे। मुंशी सत्यनारायण कुंजियों का एक गुच्छा कमर में दबाएं घर से बाहर निकले। द्वार पर थोड़ा सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पड़े। मारे डर के छाती धड़कने लगी। जान पड़ा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गए। पुआल की तरफ ध्यान से देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई। तब हिम्मत, बँधी। बढ़े और मन को समझाने लगे – मैं कैसा बौखल हूं। अपने द्वार पर किसका डर ? और सड़क पर भी मुझे किसका डर है ? मैं तो अपनी राह जाता हूँ। कोई मेरी तरफ तिरछी आँखों से नहीं देख सकता है। हाँ, जब मुझें सेंध लगाते देख ले- वहीं पकड़ ले- तब अलबत्ते डरने की बात है ! तिस पर भी बचाव की युक्ति निकल सकती है।
अकस्मात् उन्होंने भानुकुंवरि के एक चपरासी को आते देखा। कलेजा धड़क उठा। लपककर एक अँधेरी गली में घुँस गये। बड़ी देर तक वहां खड़े रहे। जब वह सिपाही आँखों से ओझल हो गया, तब फिर सड़क पर आये। वह सिपाही आज सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने कितनी बार गालियाँ दी थीं, लातें भी मारी थीं। पर अभी उसे देखकर उनके प्राण सूख गए।
उन्होंने सिर्फ तर्क की शरण ली। मैं मानो भंग खाकर आया हूँ। इस चपरासी से इतना डरा। माना कि मुझे देख लेता, पर मेरा क्या कर सकता था ? हजारों आदमी रास्ता चल रहे है। उन्हीं में एक मैं भी हूँ। क्या वह अंतर्यामी है ? सबके हृदय का हाल जानता है ? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहां का कुछ हाल भी कहता, पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक भी न दिखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढ़े। सच है, पाप के पंजों में फँसा हुआ मन का पत्ता है, जो हवा के जरा से झोंके से गिर पड़ता है।
मुंशीजी बाजार पहुंचे। अधिकार दुकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें साँड़ और गायें बैठी हुई जुगाली कर रही थीं। केवल हलवाइयों की दुकाने खुली हुई थीं और कहीं-कहीं गजरेवाले हार की हाँक लगाते फिरते थे। सब हलवाई मुंशीजी को पहचानते थे। अतएव मुंशीजी ने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। यकायक उन्हें एक बग्घी आती हुई दिखाई दी। यह सेठ बल्लभदास वकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठजी के साथ कचहरी गये थे; पर आज यह बग्घी काल देव के समान भयंकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दुकान पर चढ़ गये। वहाँ विश्राम करने वाले साँड़ ने समझा ये मुझे पदच्युत करने आये हैं। माथा झुकाए, फुंकारता हुआ उठ बैठा। पर इसी बीच में बग्घी निकल गयी और मुंशी जी के जान आयी। अबकी उन्होंने तर्क का आश्रय न लिया। समझ गये कि इस समय इससे कोई लाभ नहीं। खैरियत यह हुई कि वकील ने देखा नहीं। वह एक घाघ है। मेरे चेहरे से ताड़ जाता।
कुछ विद्वान का कथन है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, पर वह कोरा अनुमान-ही-अनुमान हैं; बात अनुभव सिद्ध नहीं। सच बात यह है कि मनुष्य स्वाभवतः पाप-भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पाप से उसे कैसी घृणा होती है।
एक फरलांग आगे चलकर मुंशीजी को एक गली मिली। यही भानुकँवरि के घर का रास्ता था। एक धुँधली-सी लालटेन जल रही थी। जैसा मुंशीजी ने अनुमान किया था पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहाँ नाच हो रहा था। कई चमारिनें बनाव-सिंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग बजा-बजाकर गाते थे-
नाहीं घरे श्यामा, घेरी आये बदरा,
सोवत रहेऊँ सपन एक देखेऊँ रामा।
खुलि गई नींद, ढरक गए कजरा,
नाहीं घरे श्यामा, घेरी आये बदरा।

दोनों पहरेदार वहीं तमाशा देख रहे थे। मुंशीजी दबे पांव लालटेन के पास गये और जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस कार्य को जितना दुष्कर समझते थे, उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूर हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनाई देता था, हाथ-पाँव काँप रहे थे, सांस, बड़े वेग से चल रही थी; शरीर का रोम-रोम आँख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष जितनी चपलता, जितना साहस जितनी चेतनता, जितनी बुद्धि, जितना आसान था, वे इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा-शक्ति की सहायता कर रहे थे।
दफ्तर के दरवाजे पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। उसकी कुंजी आज बहुत तलाश करके बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ों में बहुत दबी जबान से प्रतिरोध किया, इस पर किसी ने ध्यान न दिया। मुंशीजी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुंशीजी को देखकर उसने एक तरफ सिर हिलाया। मानों उन्हें भीतर आने से रोका।
मुंशीजी के पैर थर-थर कांप रहे थे। एड़ियां जमीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था।
पल-भर में मुंशीजी ने बहियों को उलटा-पलटा; लिखावट उनकी आँखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहा था कि जरूरी कागजात छाँट लेते। उन्होंने सारी बहियों को समेट कर बड़ा गट्ठर बनाया और सिर पर रखकर तीर के समान कमरे से बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अंधेरी गली में गायब हो गए।
तंग, अंधेरी, दुर्गन्धपूर्ण, कीचड़ से भरी गलियों में वे नंगे पाँव, स्वार्थ, लोभ और कपट का वह बोझ लिये चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही जाती थी।
बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा के किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुषित हृदयों में कहीं-कहीं का धुँधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी रमाए पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह बाहर दहक रही थी। मुंशीजी ने अपना गट्ठर उतारा और चादर खूब मजबूत बाँधकर बलपूर्वक नदी में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया।

6

मुंशी सत्यनारायण के घर में दो स्त्रियाँ थीं –माता व पत्नी। वे दोनों अशिक्षित थीं। तिस पर भी मुंशीजी को गंगा में डूब मरने या कहीं जाने की जरूरत न होती थी। न वे बाडी पहनती थीं। न मोजे-जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थी। यहाँ तक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयर पिन, ब्रुचेज़ और जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो उन्हेंने नाम भी नहीं सुना था। बहू में आत्मसम्मान जरा भी नहीं था; न सास में आत्म गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घुड़कियां भीगी बिल्ली की तरह सह लेती थी- मूर्खे ! सास को बच्चें को नहलाने धुलाये, यहाँ तक कि घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे ! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टी का लौंदा थी। एक पैसे की जरूरत होती तो सास से मांगती। सारांश यह कि दोनों जनी अपने अधिकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी फूहड़ थी कि रोटियाँ भी अपने हाथ से बना लेती थीं। कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से मँगातीं। आगरेवाले की दुकान से ही चींजे खायी होती, तो उनका मजा जानती। बुढ़िया खूसट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-बैठी घास-पात कूटा करती।
मुंशीजी ने मां के पास जाकर कहा – अम्मा ! अब क्या होगा ? भानुकुंवरि ने मुझे जवाब दे दिया।
माता ने घबराकर पूछा –जवाब दे दिया ?
मुंशीजी- हां, बिलकुल बेकसूर !
माता-क्या बात हुई ? भानुकुंवरि का मिजाज तो ऐसा न था।
मुंशीजी-बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से कुछ गाँव लिया था, उसे मैंने अपने अधिकार में कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ-साफ बातें हुई, मैंने कह दिया कि यह गाँव मेरा है। मैंने अपने नाम से लिया है। उसमें तुम्हारा कोई इजारा नहीं। बस, बिगड़ गई, जो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमकाकर कहा, मैं तुमसे लड़कर अपना गाँव ले लूँगी!अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर हो गया। मगर इससे होता क्या है। गांव मेरा है। उस पर मेरा कब्जा है। एक नहीं, हजार मुकदमें चलाएं डिगरी मेरी ही होगी...
माता ने बहू की तरफ मर्मान्तक दृष्टि से देखा और बोली- क्यों भैया। यह गाँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते ?
मुंशीजी- लिया था तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गांव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकतीं। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकतीं। डेढ़ सौ गाँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती।
माता- बेटा, किसी के धन ज्यादा होता है, तो वह फेंक थोडे़ ही देता है। तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा चाहिए कि जिसकी गोद में इतने पले, जिसका इतने दिनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो ? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया। मजे से खाते हो पहनते हो घर में नारायण का दिया चार पैसा है, बाल-बच्चे हैं। और क्या चाहिए ? मेरा कहना मानो, इस कंलक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अजस मत लो। बरकत अपनी कमाई में होती है।। हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती।
मुंशीजी- ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनिया उन पर चलने लगे, सारे काम बन्द हो जाएँ ! मैंने इतने दिनों तक इनकी सेवा की। मेरी ही बदौलत ऐसे-2 चार-पाँच गाँव बढ़ गए। जब तक पंडित जी थे। मेरी नीयत का मान था। मुझे आँख में धूल डालने की जरूरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए, मगर मुसम्मात के एक बीड़े पान की कसम खाता हूँ। मेरी जात से उनकी हजारों रुपये मासिक की बचत होती थी। क्या उनकों इतनी समझ भी न थी कि यह बेचारा जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए ? हक कहकर न दो, इनाम कहकर दो, किसी तरह तो दो। मगर वें तो समझती थी कि मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल लिया है। मैंने आठ साल तक सब्र किया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहूँ। और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ ?अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोड़ू ? जमींदारी की लालसा लिए हुए क्यों मरूँ ? जब तक जीऊँगा, खुद खाऊँगा, मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ाएँगे।
माता की आंखों में आँसू भर आए। बोली-बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं। तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्हारे बाल-बच्चे हैं। आग में हाथ न डालों !
बहू ने सास की ओर देखकर कहा- हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी ही में मगन हैं।
मुंशीजी- अच्छी बात है, तुम लोग रोटी-दाल खाना, गजी-गाढ़ा पहनना, मुझे अब हलुवे-पूरी की इच्छा है।
माता- यह अधर्म मुझसे न देखा जायगा। मैं गंगा में डूब मरूँगी।
पत्नी- तुम्हें ये सब काँटे बोना हैं, तो मुझे मायके पहुँचा दो। मैं अपने बच्चों को लेकर इस घर में नहीं रहूँगी।
मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा– तुम लोगों की बुद्धि तो भाँग खा गई है। लाखों सरकारी नौकर रात-दिन दूसरो का गला दबा-दबाकर रिश्वतें लेते हैं। और चैन करते है। न उनके बाल-बच्चों को ही कुछ होता है, न उन्हीं को हैजा पकड़ता है। अधर्म उनको क्यों नहीं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा ! मैंने तो सत्य-वादियों को सदा दुःख झेलते ही देखा है। मैंने जो कुछ किया है, उसका सुख लूँटूगा ! तुम्हारे मन में जो आये, करो।

7

प्रातः काल दफ्तर खुला तो कागजात सब गायब थे। मुंशी छक्कनलाल बौखलाए-से घर में गये और मालकिन से पूछा –क्या कागजात आपने उठवा लिये है ? भानुकुंवरि ने कहा मुझे क्या खबर ! जहां आपने रखे होंगे, वहीं होंगे। फिर तो सारे घर में खलबली पड़ गई। पहरेदारों पर मार पड़ने लगी। भानुकुंवरि को तुरन्त मुंशी सत्यनारायण पर संदेह हुआ। मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की सहायता, के बिना यह काम होना असम्भव था। पुलिस में रपट हुई। एक ओझा नाम निकालने के लिए बुलाया गया। मौलवी साहब ने कुर्रा फेंका। ओझा ने नाम बताया किसी पुराने बैरी का काम है। मौलवी साहब ने फर्माया, किसी घर के भेदिये ने यह हरकत की है। शाम तक यही दौड़-धूप रही। फिर यह सलाह होने लगी इन कागजात के बगैर मुकदमा कैसे चलेगा ? पक्ष तो पहले ही निर्बल था। जो कुछ बल था, वह इसी बहीखाते का था। अब तो वे सबूत भी हाथ से गये। दावे में कुछ जान ही नहीं रही। मगर भानुकुंवरि ने कहा-बला से हार जायेंगे। हमारी चीज कोई छीन ले तो हमारा धर्म है कि उससे यथाशक्ति लड़ें। हारकर बैठे रहना कायरों का काम है। सेठजी (वकील) को इस दुर्घटना का समाचार मिला, तो उन्होंने भी यही कहा कि अब दावे में जरा भी जान नहीं है। केवल अनुमान और तर्क का भरोसा है। अदालत ने माना तो माना, नहीं तो हार माननी पड़ेगी। पर भानुकुंवरि ने एक न मानी। लखनऊ और इलाहाबाद से दो होशियार बैरिस्टर बुलवाए। मुकदमा शुरू हो गया।

सारे शहर में इस मुकदमें की धूम थी। कितने ही रईसों को भानुकुंवरि ने साक्षी बनाया था। मुकदमा शुरू होने के समय हजारों- आदमियों की भीड़ हो जाती थी। लोगों के इस खिंचाव का मुख्य कारण यह था कि भानुकुंवरि एक परदे की आड़ में बैठी हुई अदालत की कार्यवाही देखा करती थी, क्योंकि उसे अब अपने नौकरों पर जरा भी विश्वास नहीं था।
वादी के बैरिस्टर ने एक बड़ी मार्मिक वक्तृता दी। उसने सत्यनारायण की पूर्वावस्था का खूब अच्छा चित्र खींचा। उसने दिखलाया कि वे कैसे स्वामिभक्त कैसे-कार्य कुशल, कैसे धर्मशील थे। और स्वर्गवासी भृगुदत्त का उन पर पूर्ण विश्वास हो जाना किस तरह स्वाभाविक था। इसके बाद उसने सिद्ध किया कि मुंशी सत्यनारायण की आर्थिक अवस्था कभी ऐसी न थी कि वे इतना धन-संचय कर सकते। अंत में उसने मुंशीजी की स्वार्थपरता, कूटनीति, निर्दयता और विश्वास घात का ऐसा घृणोत्पादक चित्र खींचा कि लोग मुंशीजी को गालियाँ देने लगे। इसके साथ ही उसने पंडित जी के अनाथ बालकों की दशा का बड़ा ही करुणोत्पाक वर्णन किया, कैसे शोक और लज्जा की बात है कि ऐसा चरित्रवान, ऐसा नीतिकुशल मनुष्य इतना गिर जाय कि अपने ही स्वामी के अनाथ बालकों की गर्दन पर छुरी चलाने में संकोच न करें ? मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय विदारक उदाहरण मिलना कठिन है। इस कुटिल कार्य के परिणाम की दृष्टि से इस मनुष्य के पूर्व-परिचित सद्गुणों का गौरव लुप्त हो जाता है। क्योंकि वह असली मोती नहीं नकली काँच के दाने थे, जो केवल विश्वास जमाने के निमित्त दरअसल गए थे। वह केवल एक सुन्दर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल-छंदों से दूर रहनेवाले रईस को फँसाने के लिए फैलाया गया था। इस नरपशु का अंतःकरण कितना अंधकारमय, कितना कपटपूर्ण, कितना कठोर है और इसकी दुष्टता कितनी घोर कितनी अपावन है। अपने शत्रु के साथ दगा करना तो एक बार क्षम्य है, मगर इस मलिन हृदय मनुष्य ने उन बेबसों के साथ दगा की हैं, जिन पर मानव स्वभाव के अनुसार दगा करना अनुचित है। यदि आज हमारे पास बही खाते मौजूद होते, तो अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती। पर मुंशीजी के बरखास्त होते ही दफ्तर से उनका लुप्त हो जाना भी अदालत के लिए एक बड़ा सबूत है।

शहर के रईसों ने गवाही दी, सुनी-सुनाई बातें जिरह में उखड़ गई।
दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ।
प्रतिवादी के वकील ने अपनी वक्तृता शुरू की। उसमें गंभीर विचारों की अपेक्षा हास्य का आधिक्य था- यह एक विलक्षण न्याय-सिद्धान्त है कि किसी धनाढ्य मनुष्य का नौकर जो कुछ खरीदे, उसके स्वामी की चीज समझी जाए। इस सिद्धान्त के अनुसार हमारी गवर्नमेंट को अपने कर्मचारियों की सारी संपत्ति पर कब्जा कर लेना चाहिए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्ति नहीं कि हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे। और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया। पर हमसे ऋण चुकाने कोई तकाजा न करके वह जायदाद ही माँगी जाती है। यदि हिसाब के कागजात दिखलाए जाए तो यह साफ बता देंगे कि मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मित्र ने कहा है कि ऐसी अवस्था में बहियों का गुम हो जाना अदालत के लिए एक सबूत होना चाहिए। मैं भी उनकी उक्ति का समर्थन करता हूँ। यदि मैं आपसे ऋण लेकर अपना विवाह करूं। तो क्या आप मुझसे मेरी नवविवाहिता वधू को छीन लेंगे ?

हमारे सुयोग्य मित्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया है। अगर मुंशी सत्यनारायण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था, जब पंडित भृगुदत्त का स्वर्गवास हुआ। इतने विलंब की क्या जरूरत थी ? यदि आप शेर को फँसाकर उसके बच्चे को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते है, तो मैं आपकों बुद्धिमान न कहूँगा। यथार्थ बात यह है कि मुंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ हक था, वह पूरा कर दिया। आठ वर्ष तक तन-मन से स्वामी-संतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधुता का फल मिल रहा है।, वह बहुत ही दुःखजनक और हृदयविदारक है। इसमें भानुकुंवरि का कोई दोष नहीं। ये एक गुण सम्पन्न महिला है। मगर अपनी जाति के अवगुण उनमें भी विद्यमान है। ईमानदार मनुष्य स्वाभावतः स्पष्टभावी होता है, उसे अपनी बातों में नमक-मिर्च लगाने की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि मुंशी के मृदुभाषी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिल गया है। इस दावे की जड़ केवल इतनी है और कुछ नहीं। भानुकुंवरि यहाँ उपस्थित हैं। क्या वह कह सकती हैं कि आठ वर्ष की मुद्दत में कभी इस गाँव का जिक्र उनके सामने आया ? कभी उसके हानि लाभ आय-व्यय, लेन-देन की चर्चा उनसे की गई ? मान लीजिए कि मैं गवर्नमेंट का मुलाजिम हूँ। यदि आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो क्या शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पड़े। और संभव है कुछ दिनों आगरे की विशाल अतिथिशाला में रखा जाऊँ। जिस गाँव से भानुकुंवरि को कोई सरोकार न था, उसकी चर्चा उनसे क्यों की जाती ?
इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए, जिनमें अधिकांश आसपास के देहातों के जमींदार थे। उन्होंने बयान किया कि हमने मुंशी सत्यनारायण को असामियों को अपनी दस्तखती रसीदें देते और अपने नाम से खजाने में रुपया दाखिल करते देखा है।
इतने में संध्या हो गई। अदालत ने एक सप्ताह में फैसला सुनाने का हुक्म दिया।

8

सत्यनारायण को अब अपनी जीत में कोई संदेह न था। वादी पक्ष के गवाह उखड़ गए थे, और बहस भी सबूत से खाली थी। अब उसकी गिनती भी जमींदारों में होगी और संभव है, वह कुछ दिनों में रईस कहलाने लगें। पर किसी-न-किसी कारण से अब यह शहर के गण्यामान्य पुरुषों से आँखें मिलाते शरमाते थे। उन्हें देखते ही उनका सिर नीचा हो जाता। वह मन में डरते थे कि वे लोग कहीं इस विषय पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें। वह बाजार में निकलते, तो दूकानरों में कुछ काना फूसी होने लगती और लोग उन्हें तिरछी दृष्टि से देखने लगते। अब तक उन्हें विवेकशील और सच्चरित्र मनुष्य समझते थे; शहर के धनी-मानी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यपि मुंशीजी को अब तक किसी से टेढ़ी–तिरछी सुनने का संयोग न पड़ा था, तथापि उनका मन कहता था कि सच्ची बात किसी से छिपी नहीं है। चाहे अदालत से उनकी जीत हो जाय; पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें लोग स्वार्थी, कपटी और दगाबाज समझेंगे ! दूसरों की बात तो अब अलग रही, स्वयं उनके घर वाले उनकी अपेक्षा करते थे। बूढ़ी माता ने तीन दिन से मुँह में पानी नहीं डाला था। स्त्री बार-बार हाथ जोड़कर कहती थी कि अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बुरे काम का फल कभी अच्छा नहीं होता। तो पहले मुझी को विष खिला दो।
जिस दिन फैसला सुनाया जाने वाला था।, प्रातः काल एक कुँजड़िन तरकारियाँ लेकर आयी और मुंशिआइन से बोली- बहूजी, हमने बाजार में एक बात सुनी है। बुरा न मानों तो कहूँ। जिसको देखों, उसके मुँह में यही बात है कि लाला बाबू ने जालसाजी से पंडिताइन का कोई इलाका ले लिया। हमें तो इस पर यकीन नहीं आता। लाला बाबू ने न सँभाला होता, तो अब तक पंडिताइन का कहीं पता न लगता। एक अंगुल जमीन न बचती। इन्हीं ऐसा सरदार था कि उसको सँभाल लिया। तो क्या अब उन्हीं के साथ बदी करेंगे ? अरे बहू, कोई कुछ साथ लाया है कि ले जाएगा ? यही नेकी-बदी रह जाती है। बुरे फल का बुरा होता है। आदमी न देखे, पर अल्लाह सब कुछ देखता है।

बहूजी पर घड़ों पानी पड़ गया। जी चाहता था कि धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती, स्त्रियां स्वभावतः लज्जा की मूर्ति होती है। उनमें आत्माभिमान की मात्रा अधिक होती है। निंदा और अपमान उनसे सहन नहीं हो सकता। सिर झुकाए हुए बोली-बुआ ! मैं इन बातों को क्या जानूँ ? मैंने तो आज ही तुम्हारे मुँह से सुनी है। कौन-सी तरकारियाँ है ?
मुंशी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे हुए कुँजड़िन की बातें सुन रहे थे। उसके चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे-यह शैतान की खाला क्या कह रही थी ?
स्त्री ने पति की ओर से मुँह फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोली-क्या तुमने नहीं सुना ? तुम्हारा गुणगान कर रही थी। तुम्हारे पीछे देखो, किस-किसके मुँह से ये बातें सुननी पड़ती हैं और किस-किससे मुँह छिपाना पड़ता है ! मुंशी जी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीं दिया। आत्मा लज्जा से परास्त हो गई। जो मनुष्य सदैव सर्वसम्मानित रहता हो, जो सदा आत्माभिमान से सिर उठाकर चलता रहा हो, जिसकी सुकृति पर सारे शहर में चर्चा होती रही हो, वह कभी सर्वथा लज्जाशून्य नहीं हो सकता। लज्जा कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु है। कुवासनायों के भ्रम में पड़कर मुंशीजी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसे गुप्त रीति से पूरा कर ले जाऊँगा कि किसी को कानों-कान खबर न होगी। पर उनका यह मनोरथ सिद्ध न हुआ। बाधाएँ आ खड़ी हुईं। उनके हटाने में बड़े दुस्साहस से काम लेना पड़ा। पर यह भी उन्होंने लज्जा से बचने के निमित्त किया, जिसमें कोई यह न कहे कि अपनी स्वामिनी को धोखा दिया। इतना यत्न करने पर भी वह निंदा से न बच सके। बाज़ार की सौदा बेचनेवालियाँ भी अब उनका अपमान करती हैं।

कुवासनाओं से दबी हुई लज्जा-शक्ति इस कड़ी चोट को सहन न कर सकी। मुंशीजी सोचने लगें, अब मुझे धन सम्पत्ति मिल जायेगी, ऐश्वर्यवान हो जाऊँगा; परन्तु निन्दा से मेरा पीछा नहीं छूटेगा। अदालत का फैसला मुझे लोक निन्दा से न बचा सकेगा। ऐश्वर्य का फल क्या है ? मान और पर्यादा। उससे हाथ धो बैठा तो इस ऐश्वर्य को लेकर क्या करूँगा ? चित्त की शक्ति खोकर, लोक-लज्जा सहकर, जन समुदाय में नीच बनकर और अपने घर में कलह का बीज बोकर यह सम्पत्ति मेरे किस काम आएगी ? और यदि वास्तव में कोई न्याय शक्ति हो और वह मुझे इस दुष्कृत्य का दंड दे, तो मेरे लिए सिवाय मुँह में कालिख लगाकर निकल जाने के और कोई मार्ग न रहेगा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई विपत्ति पड़ती है, तो लोग उसके साथ सहानुभूति करते हैं। दुष्टों की विपत्ति लोगों के लिए व्यंग्य की सामग्री बन जाती है। उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया जाता है; मगर दुष्टों की विपत्ति ईश्वर के न्याय को सिद्ध करती है। परमात्मा इस दुर्दशा से किसी तरह मेरा उद्घार करे ! क्यों न जाकर मैं भानुकुंवरि के पैरों पर गिर पड़ू और विनय करूँ कि यह मुकदमा उठा लो ? शोक ! पहले यह बात मुझे न सूझी ? अगर कल तक मैं उनके पास चला गया होता, तो सब बात बन जाती। पर क्या हो सकता है? आज तो फैसला सुनाया जायगा।

मुंशीजी देर तक इसी विषय पर सोचते रहे, पर कुछ निश्चय न कर सके कि क्या करें?
भानुकुंवरि को भी विश्वास हो गया कि अब गाँव हाथ से गया। बेचारी हाथ मलकर रह गई। रात भर उसे नींद न आयी। रह-रहकर मुंशी सत्यनारायण पर क्रोध आता था। हाय ! पापी ढोल बजाकर मेरा तीस हजार का माल लिये जाता है और मैं कुछ नहीं कर सकती। आजकल के न्याय करनेवाले बिलकुल आँख के अँधे हैं। जिस बात को सारी दुनिया जानती है, उसमें भी उनकी दृष्टि पहुँचती। बस, दूसरों की आँख से देखते है। कोरे कागजों के गुलाम हैं। न्याय वह है कि दूध का दूध पानी का पानी कर दे। यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाय, खुद ही पाखंडियों के जाल में फँस जाय। इसी से तो ऐसे छली, कपटी, दगाबाज, दुरात्माओं का साहस बढ़ गया है। खैर, गाँव जाता है तो जाय, लेकिन सत्यनारायण तुम तो शहर में कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं रहे !
इस खयाल से भानुकुंवरि को कुछ शांति हुई। अपने शत्रु की हानि मनुष्य को अपने लाभ से भी अधिक प्रिय होती है। मानव-स्वाभाव ही कुछ ऐसा है। तुम हमारा एक गाँव ले गये, नारायण चाहेंगे, तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक की आग में जलोगे, तुम्हारे घर में कोई दिया जलाने वाला न रहेगा।
फैसले का दिन आ गया। आज इजलास से बड़ी भीड़ थी। ऐसे-ऐसे महानुभाव भी उपस्थित थे, जो बगुलों की तरह अफसरों की बधाई और विदाई के अवसरों मे ही नजर आया करते है। वकीलों और मुख्तारों की काली पलटन भी जमा थी। नियति समय पर जज साहब ने इजलास को सुशोभित किया। विस्तृत न्याय-भवन मे सन्नाटा छा गया। अहलमद ने संदूक से तजबीज निकाली। लोग उत्सुक होकर एक-एक कदम और आगे खिसक गए।
जज ने फैसला सुनाया- मुद्दई का दावा खारिज। दोनों पक्ष अपना-अपना खर्च सह लें!
यद्यपि फैसला लोगों के अनुमान के बाहर ही था, तथापि जज के मुँह से उसे सुनकर लोगों में हलचल-सी पड़ गई। उदासीन भाव से इस फैसले पर आलोचनाएं करते हुए लोग धीरे-धीरे कमरे से निकलने लगे।
एकाएक भानुकुंवरि घूँघट निकाले इजलास पर आकर खड़ी हो गई। जाने वाले लौट पड़े। जो बाहर निकल गए थे, दौड़कर आ गए और कौतूहल–पूर्वक भानुकुंवरि की तरफ ताकने लगे।
भानुकुंवरि ने कंपित स्वर में जज से कहा- सरकार, यदि हुक्म दें तो मैं मुंशीजी से कुछ पूछूँ ?
यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध थी, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी।
तब भानुकुंवरि ने सत्यनारायण की तरफ देखकर कहा- लालाजी ! सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर दी, गाँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सबकुछ होता है। ईमान से कह दो गांव किसका है ?
हजारों आदमी यह प्रश्न सुनकर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मुंशीजी विचार-सागर में डूब गए। हृदय-क्षेत्र में संकल्प और विकल्प में घोर संग्राम होने लगा। हजारों मनुष्य की आँखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ अब बात किसी से छुपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य बात मुँह से न निकल सकी। लज्जा ने जबान बंद कर ली, ‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बाधा न थी। किन्तु घोरतम पाप का जो दंड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बिगड़ता था। जीती-जितायी बाजी हाथ से जाती थी। पर सर्वोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, मिलने की पूरी आशा थी। आशा ने भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीक हुआ, जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्जवल करने का यह अंतिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूं। अब भी अपनी रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़कर भानुकुंवरि को प्रणाम किया और काँपते हुए स्वर में बोले- आपका।

हजारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली-सत्य की जय !
जज ने खड़े होकर कहा-यह कानून का न्याय का न्याय नहीं, ‘ईश्वरीय न्याय’ है।
इसे कथा न समझिए, सच्ची घटना है। भानुकुंवरि और सत्यनारायण अब भी जीवित हैं। मुंशीजी के इस नैतिक साहस पर लोग मुग्ध हो गए। मानवी न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो विलक्षण विजय पायी, उसकी चर्चा शहर-भर में महीनों रही। भानुकुंवरि मुंशीजी के घर गयीं। उन्हें मनाकर लायीं। फिर अपना कारोबार उन्हें सौपा और कुछ दिनों के उपरांत वह गाँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया। मुंशीजी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उचित न समझा कृष्णार्पण कर दिया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखियों और विद्यार्थियों की सहायता में खर्च होती है।


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शंखनाद

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शंखनाद

भानु चौधरी अपने गाँव के मुखिया थे। गाँव में उनका बड़ा मान था। दारोगाजी उन्हें टाट बिना जमीन पर बैठने न देते। मुखिया साहब की ऐसी धाक बँधी हुई थी। कि उनकी मर्जी बिना गांव में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था। कोई घटना चाहे वह सास-बहू का विवाद हो, चाहे मेंड़ या खेत का झगड़ा चौधरी साहब के शासनाधिकार को पूर्णरूप से सचेत करने के लिए काफी थी। वह तुरन्त घटनास्थल पर जा पहुँचते। तहकीकात होने लगती, ग्यारह और सबूत के सिवा किसी अभियोग को सफलता-सहित चलाने में जिन बातों की जरूरत होती है, उन सब पर विचार होता और चौधरी जी के दरबार से फैसला हो जाता। किसी को अदालत तक जाने की जरूरत न पड़ती। हाँ, इस कष्ट के लिए चौधरी साहब कुछ फीस जरूर ले लेते थे। यदि किसी अवसर पर फीस मिलने में असुविधा के कारण उन्हें धीरज से काम लेना पड़ता, तो गांव में आफत आ जाती थी, क्योंकि उनके धीरज और दारोगाजी के क्रोध में कोई घनिष्ठ सम्बन्ध था। सारांश यह है कि चौधरीजी से उनके दोस्त-दुश्मन सभी चौकन्ने रहते थे।

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चौधरी महाशय के तीन सुयोग्य पुत्र थे। बड़े लड़के बितान एक सुशिक्षित मनुष्य थे। डाकिए के रजिस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। ये बड़े अनुभवी बड़े मर्मज्ञ, बड़े नीति कुशल थे, मिर्जई की जगह कमीज पहनते कभी-कभी सिगरेट भी पीते, जिससे उनका गौरव बढ़ता था। यद्यपि उनके दुर्व्यसन बूढ़े चौधरी नापसन्द थे, पर बेचारे विवश थे, क्योंकि अदालत और कानून के मामले बितान के हाथों में थे। वह कानून का पुतला था। कानून के दफे जबान पर रखे रहते थे। गवाह गढ़ने में वह उस्ताद था। मझले लड़के शान चौधरी कृषि विभाग के अधिकारी थे, बुद्धि के मन्द, लेकिन शरीर से बड़े परिश्रमी। जहां घास न जमती हो, वहां केसर जमा दें। तीसरे लड़के का नाम गुमान था। यह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दंड था। मुहर्रम के ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते। मछली फँसाने का बड़ा शौकीन था, बड़ा रंगीला जवान था खंजडी बजा-बजाकर जब मीठे स्वर से खयाल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक था कि कोसो तक धावा मारता, पर घर वाले कुछ ऐसे शुष्क थे कि उनके व्यसनों से तनिक भी सहानुभूति न रखते थे। पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़की–धमकी, शिक्षा और उपदेश, स्नेह और विनय किसी का उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हाँ, भावजें अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थी। वह अभी तक उसे कड़वी दवाइयाँ पिलाएं जाती थीं। पर आलस्य वह राज-रोग है, जिसका रोगी भी कभी नहीं सँभलता।

ऐसा कोई बिरला ही दिन जाता होगा कि बाँके गुमान को भावजों के कटु वाक्य न सुनने पड़ते हों। यह विषैले शर कभी-कभी उसके कठोर हृदयों में चुभ भी जाते, किन्तु यह धाव रात-भर से अधिक न रहता भोर होते ही थकान के साथ ही यह पीड़ा भी शांत हो जाती। तड़का हुआ, उसके हाथ-मुँह धोया, बंशी उठायी और तलाश की ओर चल खड़ा हुआ। भावजें फूलों की वर्षा किया करतीं, बूढ़े चौधरी पैतरें बदलते रहते और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते, पर अपनी धुन में पूरा बाँका गुमान उन लोगों के बीच में से इस तरह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं किए। बाप समझता, बेटा ऐसी राह चला जिसमें तुम्हें भी चार पैसे मिलें और गृहस्थी का भी निर्वाह हो। भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे ? मैं पका आम हूँ आज टपक पडू या कल। फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा ? भाई बात भी न पूछेगे, भावजो के रंग देख ही रहे हो। तुम्हारे भी लड़के-बाले है; उनका भार कैसे सँभालोंगे ? खेती में जी न लगे, कहो कानिस्टेवली में भरती करा दूँ।

बाँका गुमान खड़ा-खड़ा बात सुनता रहा, लेकिन पत्थर का देवता था- कभी न पसीजता। इन महाशय के अत्याचार का दण्ड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। कड़ी मेहनत के घर में जितने काम होते, वह उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती कुएँ से पानी लाती, आटा पीसती और इतने पर भी जेठानियाँ सीधे मुँह बात न करतीं, वाक्य-बाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो बाँके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जाकर बोले– मुझे कोई दुकान खुलवा दीजिए। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया। फूले न समाए। कई सौ रुपये लगाकर कपड़े की दूकान खुलवा दी। गुमान के भाग जाग। तनजेब के चुननदार कुरते बनवाए, मलमल का साफा धानी रंग में रँगवाया। सौदा बिके या न बिके उसे लाभ ही होता था। दूकान खुली है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमें हुए है, चरस के दम और खयाल की तानें उड़ रही है–

‘चल झटपट री, जमुना तट री, उड़ी नटखट री।’

इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बाके गुमान ने खूब दिन खोलकर अरमान निकाले। यहां तक कि सारी लागत लाभ हो गई। टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुँएँ में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचाया- अरे राम ! हमारे बच्चे और हम चाथड़े को तरसें, गाढ़े का एक कुर्ता भी न नसीब हो और इतनी बड़ी दूकान निखट्टू का कफन बन गई। अब कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा? किन्तु बाके गुमान के तीवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह लिये वह घर में आया और फिर वहीं पुरानी चाल चलने लगा।
कानूनदाँ बितान उसके यह ठाट-बाट देखकर जल जाता। मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ मुझे नयनसुख का कुर्ता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बन-ठनकर निकले। ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे ब्याह में भी न मिले होंगें। मीठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अन्त में जब यह जलन न सही गई और अग्नि भड़की, तो एक दिन कानूनदां बितान की पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लायी और उन पर मिट्टी का तेल उड़ेलकर आग लगा दी। ज्वाला उठी। सारे कपड़े देखते-देखते जलकर राख हो गए। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है घर को जलाकर तब बुझेगी।

3

यह ज्वाला तो थोड़ी देर में शांत हो गई, परन्तु हृदय की आग ज्यों –की त्यों दहकती रही। अंत में एक दिन चौधरी ने घर के सब मेम्बरो को एकत्रित किया और इस गूढ़ विषय पर विचार करने लगे कि कैसे पार हो। बितान से बोले– बेटा, तुमने आज देखा, बात-की-बात में सैंकडों रुपये पर पानी फिर गया; अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो कि घर डूबने से बचे। मैं तो यह चाहता था कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूँ, मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है।
बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहगामिनी के सामने लोप हो जाती थी। वह सभी इसका उत्तर सोच ही रहे थे कि श्रीमतीजी बोली– दादा जी ! अब समझने-बुझाने से काम न चलेगा, सहते-सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूँ, गुमान क्या तुम्हारी कमाई में हक है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ और चाँदी के हिंडोले में झुलाओ। हममें न इतना बूता है, न इतना कलेजा। हम अपनी झोपड़ी अलग बना लेंगे। हां, जो कुछ हमारा हो, वह हमको मिलना चाहिए। बाँट-बखरा कर दीजिए। बला से चार आदमी हँसेंगे, अब कहाँ तक दुनिया की लाज ढोएँ।
नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का असर हुआ, वह उनके विकसित और प्रमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था कि इस प्रस्ताव को इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते। नीतिज्ञ महाशय गंभीरता से बोले- जायदाद मुश्तरका मन्कूला या गैर मन्कूला आपके हीनहयात तकसीम की जा सकती है, इनकी नजीरें मौजूद हैं। जमींदार को साकितुल मिल्कियत करने का कोई इस्तहकाक नहीं है।
अब मन्दबुद्धि शान की बारी आयी, पर बेचारा किसान, बैलों के पीछे आँखें बन्द करके चलनेवाला, ऐसे गूढ़ विषय पर कैसे मुँह खोलता। दुविधा में पड़ा हुआ था। तब उसकी सत्यवक्ता धर्मपत्नी ने अपनी जेठानी का अनुसरण कर यह कठिन कार्य सम्पन्न किया। बोली-बड़ी बहन ने जो कुछ कहा है, उसके सिवा और दूसरा उपाय नहीं है। कोई तो कलेजा तोड़-तोड़कर कमाए, मगर पैसे-पैसे को तरसे, तन ढाकने को वस्त्र तक न मिले और कोई सुख की नींद सोए और हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाए, ऐसी अंधेर नगरी में अब हमारा निबाह न होगा।
शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्त कंठ से अनुमोदन किया। अब बूढ़े चौधरी गुमान से बोले-क्यों बेटा, तुम्हें भी यही मंजूर है? अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। यह आग अब भी बुझ सकती है। काम सबको प्यारा होता है, चाम किसी को प्यारा नहीं होता। बोलो, क्या बोलते हो ! काम धंधा करोगे या अभी आँखें नहीं खुलीं।
गुमान में धैर्य की कमी नहीं थी। बातों को इस कान सुन, उस कान उड़ा देना उसका नित्यकर्म था। किन्तु भाइयों की इस ‘जनमुरीदी’ पर उसे क्रोध आ गया। बोला-भाइयों की जो इच्छा है, वह मेरे मन में भी लगी हुई है मैं भी इस जंजाल से अब भागना चाहता हूँ। मुझसे न मजूरी हुई, न होगी, जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह चक्की पीसे। मेरे भाग्य में तो चैन करना लिखा हुआ है, मैं क्यों अपना सिर ओखली में दूँ ? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता। आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हैं ? अपनी-अपनी फिक्र कीजिए; मुझे आध सेर आटे की कमी नहीं है।
इस तरह की भाषाएँ कितनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक साभाओं की तरह इनसे भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था। दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया; जतनसिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता। अन्त में बूढे चौधरी गये मनाकर लाये, अब वह पुरानी गाड़ी अड़ती मचलती हिलती चलने लगी।

4

पांडे के घर के चूहों की तरह चौधरी के बच्चे भी सयाने थे। उनके लिए घोड़े मिट्टी के घोडे़ और नावें कागज की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था ! गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल नहीं था, जिसे वह बीमारियों का घर न समझते हों। लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था। साधारण बच्चों की तरह यदि वह सोते भी हों, तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन गाँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरगार्टन की रंगीन गोलियाँ के ही संख्याएँ और दिनों के नाम याद हो गए थे। गुरदीन बूढ़ा-सा मैला कुचैला आदमी था, किंतु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान के मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर बालकों का ऐसा धावा होता कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रणस्थल से भागना पड़ता था और जहाँ बच्चों के लिए मिठाइयाँ थीं वहां गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थी। मां कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसे न रहने का बहाना करे, पर गुरदीन चटपट मिठाईयों का दोना बच्चे के हाथ में रख ही देता और स्नेहपूर्ण भाव से कहता- बहूजी ! पैसों की कुछ चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेगे; कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण ने तुमको बच्चे दिये हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है। उन्हीं की बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावें, फिर देखना, कैसी ठनगन करता हूँ ?

गुरदीन राम का यह व्यवहार चाहे वाणिज्य नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे ‘नौ नकद न तेरह उधार’ वाली कहावत अनुभवसिद्ध ही क्यों न हो, किन्तु मिष्टभाषी गुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार से पछताने या उनमें संशोधन करने की जरूरत नहीं हुई।
मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़ी बेचैनी से अपने दरवाजों पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे! कई उत्साही लड़के पेडों पर चढ़ गए थे और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गाँव से बाहर निकल गए थे। सूर्य भगवान अपना सुनहरा थाल लिए पूरब से पच्छिम जा पहुँचे थे कि गुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था मेरे घर चलो और कोई अपने घर का न्यौता देता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पड़ा। गुरदीन ने अपना खोंचा उतार दिया। मिठाइयों की लूट शुरू हो गई ! बालकों स्त्रियों का ठट्ट लग गया हर्ष-विषाद, संतोष और लोभ, ईर्ष्या और जलन की नाट्यशाला सज गई।
कानूनदाँ बितान की पत्नी भी अपने तीनों लड़कों को लिये हुए निकली। शान की पत्नी भी अपने दोनों लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीन ने मीठी-मीठी बात करनी शुरू की। पैसे झोली में रखे, धेले-धेले की मिठाई दी, धेले-धेले का आशीर्वाद। लड़के दोने लिये उछलते-कूदते घर में दाखिल हुए। अगर सारे गाँव में कोई ऐसा बालक था, जिसमें गुरदीन की उदारता से लाभ न उठाया हो, तो वह बाकें गुमान का लड़का धान था।
यह कठिन था कि बालक धान आपने भाइयों, बहिनों को हँस-हँस और उछल उछलकर मिठाइयाँ खाते देखते और सब्र कर जाए। उस पर तुर्रा यह कि वह उसे मिठाइयाँ दिखा-दिखाकर ललचाते और चिढ़ाते थे। बेचारा धान चीखता था और अपनी माता का आँचल पकड़-पकड़कर दरवाजे की तरफ खींचता था। पर वह अबला क्या करे ? उसका हृदय बच्चे के लिए ऐंठ-ऐंठ कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं था। अपने दुर्भाग्य पर, जेठनियों की निठुरता पर और सबसे ज्यादा अपने पति के निखट्टूपन पर कुढ़-कुढ़कर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता, तो क्यों दूसरों का मुँह देखना पड़ता, क्यों दूसरों के धक्के खाने पड़ते ? उसने धान को गोद में उठा लिया और प्यार से दिलासा देने लगी—बेटा! रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा, तो मैं तुम्हें बहुत-सी मिठाई ले दूँगी। इससे अच्छी मिठाई बाजार से मँगवा दूँगी, तुम कितनी मिठाई खाओगे। यह कहते कहते उसकी आँख भर आयीं; आह ! यह मनहूस मंगल आज फिर आवेगा और फिर यही बहाने करने पड़ेंगे ! हाय ! अपना प्यारा बच्चा धेले की मिठाई को तरसे और घर में किसी का पत्थर सा कलेजा न पसीजे। वह बेचारी तो इन चिंताओं में डूबी हुई थी और धान किसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश न चला, माँ की गोद से उतर कर जमीन पर लोटने लगा और रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली। माँ ने बहुत बहलाया फुसलाया, यहाँ तक कि उसे बच्चे की हठ पर क्रोध आ गया। मानव हृदय के रहस्य कभी समझ नहीं आते। कहाँ तो बच्चे को प्यार से चिपटाती थी, कहाँ ऐसी झल्लायी कि उसे दो तीन थप्पड़ जोर से लगाए और घुड़ककर बोली—चुप रह अभागे ! तेरा ही मुँह मिठाई खाने का है, अपने दिन को नहीं रोता। मिठाई खाने चला है !

बाँका गुमान अपनी कोठरी के द्वार पर बैठा हुआ यह कौतुक बड़े ध्यान से देख रहा था। वह इस बच्चे को बहुत चाहता था। इस वक्त के थप्पड़ उसके हृदय में तेज भाले के समान लगे और चुभ गए। शायद उसका अभिप्राय भी यही था। धुनिया रुई को धुनने के लिए ताँत पर चोट लगाता है।
जिस तरह पत्थर और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के हृदय में भी, चाहे वह कैसा ही क्रूर और कठोर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं। गुमान की आँखें भर आयीं। आँसू की बूँदें बहुधा हमारे हृदय की मलिनता को उज्जवल कर देती हैं। गुमान सचेत हो गया। उसने जाकर बच्चे को गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी से करुणोत्पादक स्वर में बोला—बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारा दोषी मैं हूँ, मुझको जो दंड चाहे दो।
परमात्मा ने चाहा तो कल से लोग इस घर में मेरा और मेरे बाल बच्चों का भी आदर करेंगे। तुमने मुझे आज सदा के लिए इस तरह जगा दिया, मानो मेरे कान में शंखनाद कर कर्मपथ में प्रवेश करने का उपदेश दिया हो।

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खून सफेद

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खून सफेद

चैत का महीना था, लेकिन वे खलियान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणास्थल बने हुए थे; जहाँ घरों से फाग और बसन्त का अलाप सुनाई पड़ता, वहाँ आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया, पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाए। खरीफ की फसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेव ने अपना सर्वस्व शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए। गोचर भूमि में घास न जमी। बादल आते, घटाएं उमड़तीं, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जाएगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटाएँ थीं।
किसानों ने बहुतेरे जप-तप किए, ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाएं, बलिदान किए, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गए, लेकिन इन्द्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी। बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए, धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखाई देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बरतन गिरवी रखे और अन्त में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और अब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा, तब जन्म भूमि पर जान देने वाले किसान बाल बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।

2

संध्या का समय था। जादोराय थका-माँदा आकर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला- दरखास्त नामंजूर हो गई। यह कहते-कहते वह आँगन में जमीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आँतें सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। घर में जो कुछ विभूति थी, गहने कपड़े, बरतन-भाँड़े सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भाँति आँखें चुराने लगा। केवल तकाबी का सहारा था, उसी के लिए दरखास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजूर हो गई, आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया।
देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये। पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलाए ? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी ? उसने आप कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दुख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीनहीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती।

हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रायः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था। और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाई में कोई संबंध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया और उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गई और हृदय-पीड़ा आँखों में न समा सकी।

3

दूसरे दिन वह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पृरुष के चित्त अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन हा पापी पेट! तू सब कुछ कर सकता है ! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा के सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं की ओट में छिप जाते हैं।
प्रभात का समय था। ये दोनों विपत्ति के सताए घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की वह गठरी सिर पर रखी, जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती रही। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से भेंट भी हुई, किसी ने इतना भी नहीं पूछा कि कहाँ जाते हो? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था।
जब ये लोग लालगंज पहुँचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा, मीलों तक आदमी-ही-आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुख के चिन्ह झलक रहे थे।
बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से हरहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढाँचे, जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे, मानों वह मरघट भूमि थी, जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कबर खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सबके-सब ऐसे निराश और विवश होकर काम में लगे हुए थे, मानो मृत्यु और भूख उनके सामने बैठी घूर रही है। इस आफत में न कोई किसी का मित्र था न हितू। दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं, जिनका कर्ता मनुष्य है; प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ है। मानवीय भाव बहुधा कपटी मित्रों की भाँति हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह ईश्वर-प्रदत्त गुण हमारा गला नहीं छोड़ता।

4

आठ दिन बीत गए थे। संध्या समय काम समाप्त हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बाग था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठी हुई थी। दोनों ऐसे कृश हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहचानी जाती थी। अब वह स्वाधीन कृषक नहीं रहे। समय के हेर-फेर से आज दोनों मजदूर बने बैठे हैं।
जादोराय ने बच्चे को जमीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुखार आ रहा है। कमल-सा चेहरा मुरझा गया है। देवकी ने धीरे से हिलाकर कहा- बेटा ! आँखें खोलो, देखो साँझ हो गई।
साधों ने आँख खोल दीं, बुखार उतर गया था, बोला- क्या हम घर आ गये मां ?
घर की याद आ गई, देवकी की आँखें डबडबा आयीं। उसने कहा- नहीं, बेटा ! तुम अच्छे हो जाओगे तो घर चलेगें। उठकर देखो, कैसा अच्छा बाग है ?
साधो माँ के हाथों के सहारे उठा और बोला- माँ, मुझे बड़ी भूख लगी है; लेकिन तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। मुझे क्या खाने को दोगी ?
देवकी के हृदय में चोट लगी, पर धीरज धरके बोली- नहीं बेटा, तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ- है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं, तो नरम-नरम रोटियाँ अभी बनाएं देती हूँ।
साधों ने माँ की गोद में सिर रख लिया और बोला- माँ मैं न होता तो तुम्हें इतना दुःख न होता। यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। यह वही बेसमझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुख और चिन्ता ने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्ति का फल है। कितना दुःखपूर्ण,कितना करुणाजनक व्यापार है !
इसी बीच में कई आदमी लालटेन लिये हुए वहाँ आये। फिर गाड़ियाँ आयीं। उन पर डेरे और खेमे लदे हुए थे। दम-के-दम यहां खेमे गड़ गए। सारे बाग में चहल-पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियाँ सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ, एक डेरे के नजदीक जाकर खड़ा हो गया।

5

पादरी मोहनदास खेमे से बाहर निकले, तो साधो उन्हें खड़ा दिखाई दिया। उसकी सूरत पर उन्हें तरस आ गया। प्रेम की नदी उमड़ आयी। बच्चे को गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बिठा दिया और तब बिस्कुट और केले खाने को दिये। लड़के ने अपनी जिन्दगी में इन स्वादिष्ट चीजों को कभी न देखा था। बुखार की बेचैन करने वाली भूख अलग मार रही थी। उसने खूब मन-भर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखते हुए पादरी साहब के पास जाकर बोला- तुम हमको रोज ऐसी चीजें खिलाओगे ?
पादरी साहब इन भोलेपन पर मुसकरा के बोले- मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं।
इस पर साधोराय ने कहा- अब मैं रोज तुम्हारे पास आऊँगा। माँ के पास ऐसी अच्छी चीजें कहाँ? वह मुझे रोज चने की रोटियाँ खिलाती है।
उधर देवकी ने रोटियाँ बनायीं और साधो को पुकारने लगी। साधो ने माँ के पास जाकर कहा–मुझे साहब ने अच्छी-अच्छी चीजें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं।
देवकी ने कहा- मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियां बनायी हैं आओ तुम्हें खिलाऊँ।
साधो बोला- अब मैं न खाऊँगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खिलाऊँगा। मैं अब उनके साथ रहा करूँगा। माँ ने समझा कि लड़का हँसी कर रहा है। उसे छाती से लगाकर बोली क्यों बेटा, हमको भूल जाओगे ? देखो, मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ !

साधो तुतलाकर बोला तुम तो मुझे रोज चने की रोटियाँ दिया करती हो, तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलाएंगे। यह कहकर वह फिर खेमे की ओर भागा और रात को वही सो रहा।
पादरी मोहनदास का पड़ाव वहाँ तीन दिन रहा। साधो दिन-भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयाँ दीं। उसका बुखार जाता रहा। वह भोले-भाले किसान यह देखकर साहब को आशार्वाद देने लगे। लड़का चंगा हो गया और आराम से है। साहब को परमात्मा सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान रख ली।
चौथे दिन रात को ही वहाँ से पादरी साहब ने कूच किया। सुबह को जब देवकी उठी, तो साधो का यहाँ पता न था। उसने समझा, कहीं टपके ढूँढ़ने गया होगा; किन्तु थोड़ी देर देखकर उसने जादोराय से कहा- लल्लू यहाँ नहीं है।
उसने भी यही कहा- कहीं टपके ढूँढ़ता होगा।

लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक्त हुआ, तब जादोराय को कुछ संशय हुआ। उसने कहा- तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिये आता हूं।
जादो ने आस-पास के सब बागों को छान डाला और अन्त में जब दस बज गए तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देखकर देवकी ढाढ़ें मारकर रोने लगी।
फिर दोनों अपने लाल की तलाश में निकले। अनेक विचार चित्त में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा विश्वास था कि उस साहब ने उस पर कोई मन्त्र डालकर वश में कर लिया। लेकिन जादो को इस कल्पना के मान लेने में कुछ सन्देह था। बच्चा इतनी दूर अनजान रास्ते पर अकेले नहीं जा सकता। फिर भी दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े के टापों के निशान देखते चले जाते थे। यहाँ तक कि एक सड़क पर आ पहुँचे। वहां गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस विशेष लीक की पहचान न हो सकती थी। घोड़े के टाप भी एक झाड़ी की तरफ जाकर गायब हो गए। आशा का सहारा टूट गया। दोपहर हो गई थी। दोनों धूप के मारे बेचैन और निराशा से पागल हो रहे थे। वहीं एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। देवकी विलाप करने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया।

जब जरा धूप की तेजी कम हुई, तो दोनों फिर आगे चले। किन्तु अब आशा की जगह निराशा साथ थी, घोड़े के टापों के साथ उम्मीद का धुंधला निशान गायब हो गया था।
शाम हो गई। इधर-उधर गायों, बैलों के झुण्ड निर्जीव से पड़े दिखाई देते थे। यह दोनों दुखिया हिम्मत हारकर एक पेड़ के नीचे टिक रहे। उसी वृक्ष पर मैने का एक जोड़ा बसेरा लिये हुए था। उनका नन्हा-सा शावक आज ही एक शिकारी के चंगुल में फँस गया था। दोनों दिन-भर उसे खोजते फिरे। इस समय निराश होकर बैठ रहे। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक दिखाई देती थी। इसी लिए वे बेचैन थे।

तीन दिन तक ये दोनों अपने खोए हुए लाल की तलाश करते रहे। दाने से भेंट नहीं; प्यास से बेचैन होते दो-चार घूँट पानी गले के नीचे उतार लेते।
आशा की जगह निराशा का सहारा था। दुख और करुणा के सिवाय और कोई वस्तु नहीं। किसी बच्चे के पैर के निशान देखते, तो उनके दिलों में आशा तथा भय की लहरें उठने लगतीं थी।
लेकिन प्रत्येक पग उन्हें अभीष्ट स्थान से दूर लिये जाता था।

6

इस घटना को हुए चौदह वर्ष बीत गए। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गई। चारों ओर रामराज्य दिखाई देने लगा। इंद्रदेव ने कभी उस तरह अपनी निर्दयता न दिखाई और न जमीन ने ही। उमड़ी हुई नदियों की तरह अनाज से ढेकियाँ भरी चलीं। उजड़े हुए गाँव बस गए। मजदूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद का तलाश में दौड़ने लगे। वही चैत के दिन थे। खलियानों में अनाज के पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानों की बढ़ती के तराने गा रहे थे। सुनारों के दरवाजे पर सारे दिन और आधी रात तक गाहकों का जमघट लगा रहता था। दरजी को सिर उठाने की फुरसत न थी। इधर-उधर दरवाजों पर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवी के पुजारियों को अजीर्ण हो रहा था।

जादोराय के दिन भी फिरे। घर पर छप्पर की जगह खपरैल हो गया है। दरवाजे पर अच्छे बैलों की जोड़ी बँधी हुई है। वह अब अपनी बहली पर सवार होकर बाजार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नहीं है। पेट पर इस सुदशा का विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल भी सफेद हो चले हैं। देवकी की गिनती भी गाँव की बूढी औरतों में होने लगी है। व्यावहारिक बातों में उसकी बड़ी पूछ हुआ करती है। जब वह किसी पड़ोसिन के घर जाती है, तो वहाँ की बहुएँ भय के मारे थरथराने लगती हैं। उसके कटु वाक्य और तीव्र आलोचना की सारे गाँव में धाक बँधी हुई है। महीन कपड़े अब उसे अच्छे नहीं लगते लेकिन गहनों के बारे में वह उतनी उदासीन नहीं है।
उनके लिए जीवन का दूसरा भाग इससे कम उज्जवल नहीं है। उनकी दो संतानें हैं। लड़का माधोसिंह अब खेतीबारी के काम में बाप की मदद करता है। लड़की का नाम शिवगौरी है। वह भी माँ को चक्की पीसने में सहायता दिया करती है और खूब गाती है। बर्तन धोना उसे पसंद नहीं लेकिन चौका लगाने में निपुण है। गुड़ियों के ब्याह करने से उसका जी कभी नहीं भरता। आये दिन गुड़ियों के विवाह होते रहते हैं। हाँ, इनमें किफायत का पूरा ध्यान रहता है। खोए हुए साधो की याद अभी बाकी है। उसकी चर्चा नित्य हुआ करती है और कभी बिना रुलाय नहीं रहती। देवकी कभी-कभी सारे दिन उस लाड़ले बेटे की सुध में अधीर रहा करती है।
साँझ हो गई थी। बैल दिन-भर के थके-माँदे सिर झुकाए चले आते थे। पुजारी ने ठाकुरद्वारे में घंटा बजाना शुरू किया।

आजकल फसल के दिन है। रोज पूजा होती है। जादोराय खाट पर बैठे नारियल पी रहे थे। शिवगौरी रास्ते में खड़ी उन बैलों को कोस रही थी, जो उसके भूमिस्थ विशाल भवन का निरादर करके उसे रौंदते चले जाते थे। घड़ियाल और घंटे की आवाज सुनते ही जादोराय भगवान का चरणामृत लेने के लिए उठे ही थे कि उन्हें अकस्मात् एक नवयुवक दिखाई पड़ा, जो भूंकते हुए कुत्तों को दुतकारता, बाईसिकल को आगे बढ़ाता हुआ चला आ रहा था। उसने उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। जादोराय ने गौर से देखा और तब दोनों एक दूसरे से लिपट गए। माधो भौंचक होकर बाईसिकल को देखने लगा। शिवगौरी रोती हुई घर में भागी और देवकी से बोली- दादा को साहब ने पकड़ लिया है। देवकी घबरायी हुई बाहर आयी। साधो उसे देखते ही उसके पैरों पर गिर प़डा। देवकी से छाती से लगाकर रोने लगी। गाँव के मर्द, औरतें और बच्चे सब जमा हो गए। मेला-सा लग गया।

7

साधो ने अपने माता-पिता से कहा- मुझ अभागे से जो कुछ अपराध हुआ हो, उसे क्षमा कीजिए। मैंने अपनी नादानी से स्वयं बहुत कष्ट उठाए और आप लोगों को भी दुःख दिया, लेकिन अब मुझे अपनी गोद में लीजिए।
देवकी ने रोकर कहा- जब हमको छोड़कर भागे थे, तो हम लोग तुम्हें तीन दिन तक बे-दाना-पानी के ढूँढ़ते रहे, पर जब निराश हो गए, तब अपने भाग्य को रोकर बैठ रहे। तब से आज तक कोई ऐसा दिन न गया कि तुम्हारी सुधि न आयी हो। रोते-रोते एक युग बीत गया; अब तुमने खबर ली है। बताओ बेटा ! उस दिन तुम कैसे भागे और कहां जाकर रहे ?
साधो ने लज्जित होकर उत्तर दिया-माताजी, अपना हाल क्या कहूँ ! मैं पहर रात रहे, आपके पास से उठकर भागा। पादरी साहब के पड़ाव का पता शाम ही को पूछ लिया था। बस पूछता हुआ उनके पास दोपहर को पहुँच गया। साहब ने मुझे पहले समझाया कि अपने घर लौट जाओ, लेकिन जब मैं किसी तरह राजी न हुआ, तो उन्होंने मुझे पूना भेज दिया। मेरी तरह वहाँ सैकड़ों लड़के थे। वहाँ बिस्कुट और नारंगियों का भला क्या जिक्र ! जब मुझे आप लोगों की याद आती, मैं अक्सर रोया करता। मगर बचपन की उम्र थी, धीरे-धीरे उन्हीं लोगों से हिल-मिल गया। हाँ, जब से कुछ होश हुआ है और अपना-पराया समझने लगा हूँ, तब से अपनी नादानी पर हाथ मलता रहा हूँ। रात-दिन आप लोगों की रट लगी हुई थी। आज आप लोगों के आशीर्वाद से यह शुभ दिन देखने को को मिला। दूसरों में बहुत दिन काटे, बहुत दिनों तक अनाथ रहा। अब मुझे अपनी सेवा में रखिए। मुझे अपनी गोद में लीजिए। मैं प्रेम का भूखा हूँ। बरसों से मुझे जो सौभाग्य नहीं मिला, वह अब दीजिए।

गाँव के बहुत से बुढ्ढे जमा थे। उनमें से जगतसिंह बोले- तो क्यों बेटा ? तुम इतने दिनों तक पादरियों के साथ रहे ? उन्होंने तुमको भी पादरी बना लिया होगा ?
साधो ने सिर झुकाकर कहा—जी हाँ, यह तो उनका दस्तूर है। जगतसिंह ने जादोराय की तरफ देखकर कहा यह बड़ी कठिन बात है। साधो बोला- बिरादरी मुझे जो प्रायश्चित बतलाएगी, मैं उसे करूँगा। मुझसे जो कुछ बिरादरी का अपराध हुआ है, नादानी से हुआ है लेकिन मैं उसका दण्ड भोगने के लिए तैयार हूँ।
जगतसिंह ने फिर जादोराय की तरफ कनखियों से देखा और गंभीरता से बोले- हिन्दू धर्म में ऐसा कभी नहीं हुआ है। यों तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें अपने घर में रख लें, तुम उनके लड़के हो, मगर बिरादरी कभी इस काम में शरीक न होगी। बोलो जादोराय! क्या कहते हो, कुछ तुम्हारे मन की भी तो सुन लें ?
जादोराय बड़ी दुविधा में था। एक ओर तो अपने प्यारे बेटे की प्रीति थी, दूसरी ओर बिरादरी का भय मारे डालता था। जिस लड़के के लिए रोते-रोते आँखें फूट गईं, आज वही सामने खड़ा आँखों में आँसू भरे कहता है, पिताजी ! मुझे अपनी गोद में लीजिए; और मैं पत्थर की तरह अचल खड़ा हूँ। शोक ! इन निर्दयी भाइयों को किस तरह समझाऊँ, क्या करूँ, क्या न करूँ ?
लेकिन मां की ममता उमड़ आयी। देवकी से न रहा गया। उसने अधीर होकर कहा- मैं अपने घर में रखूँगी और कलेजे से लगाऊँगी। इतने दिनों के बाद मैंने उसे पाया है, अब उसे नहीं छोड़ सकती।
जगतसिंह रुष्ट होकर बोले- चाहे बिरादरी छूट ही क्यों न जाए ?
देवकी ने भी गरम होकर जवाब दिया- हाँ चाहे बिरादरी छूट जाए। लड़के–वालों ही के लिए आदमी बिरादरी की आड़ पकड़ता है। जब लड़का न रहा, तो भला बिरादरी किस काम आएगी ?
इस पर कई ठाकुर लाल-लाल आँखें निकालकर बोले –ठाकुराइन ! ठकुराइन बिरादरी की तो खूब मर्यादा करती हो। लड़का चाहे किसी रास्ते पर जाए, लेकिन बिरादरी चूं तक न करे ? ऐसी बिरादरी कहीं होगी ! हम साफ-साफ कहे देते हैं कि अगर यह लड़का तुम्हारे घर में रहा, तो बिरादरी भी बता देगी कि वह क्या कर सकती है।
जगतसिंह कभी-कभी जादोराय से रुपये उधार लिया करते थे। मधुर स्वर से बोले- भाभी ! बिरादरी यह थोड़े ही कहती है कि तुम लड़के को घर से निकाल दो। लड़का इतने दिनों के बाद घर आया है तो हमारे सिर आँखों पर रहे बस, जरा खाने–पीने और छूत-छात का बचाव बना रहना चाहिए। बोलो जादो भाई ! अब बिरादरी को कहां तक दबाना चाहते हो ?

जादोराय ने साधो की तरफ करुणा भरे नेत्रों से देखकर कहा-बेटा, जहाँ तुमने हमारे साथ इतना सलूक किया है, वहाँ जगत भाई की इतनी कहा और मान लो !
साधो ने कुछ तीक्ष्ण शब्दों में कहा- क्या मान लूँ ? यह कि अपनों में गैर बनकर रहूँ, अपमान सहूँ; मिट्टी का घड़ा भी मेरे छूने से अशुद्ध हो जाय ! न, यह मेरा किया न होगा, इतनी निर्लज्ज नहीं !
जादोराय को पुत्र की यह कठोरता अप्रिय मालूम हुई। वे चाहते थे कि इस वक्त बिरादरी के लोग जमा हैं, उनके सामने किसी तरह समझौता हो जाय, फिर कौन देखता है कि हम उसे किस तरह रखते हैं ? चिढ़कर बोले- इतनी बात तो तुम्हें माननी ही पड़ेगी।
साधोराय इस रहस्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ी। बोला- मैं आपका लड़का हूँ। आपके लड़के की तरह रहूँगा। आपके भक्ति और प्रेम की प्रेरणा मुझे यहाँ तक लायी है। मैं अपने घर में रहने आया हूँ अगर यह नहीं है तो इसके सिवा मेरे लिए इसके और कोई उपाय नहीं है कि जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से भाग जाऊँ। जिनका खून सफेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है।
देवकी ने रोकर कहा- लल्लू मैं अब तुम्हें न जाने दूँगी।
साधो की आँखें भर आयीं, पर मुस्कराकर बोला- मैं तो तुम्हारी थाली में खाऊँगा।
देवकी ने उसे ममता और प्रेम की दृष्टि से देखकर कहा- मैंने तो तुझे छाती से दूध पिलाया है, तू मेरी थाली में खायगा तो क्या ? मेरा बेटा ही तो है, कोई और तो नहीं हो गया !
साधो इन बातों को सुनकर मतवाला हो गया। इनमें कितना स्नेह कितना अपनापन था। बोला- माँ, आया तो मैं इसी इरादे से था कि अब कहीं न जाऊँगा, लेकिन बिरादरी ने मेरे कारण यदि तुम्हें जातिच्युत कर दिया, तो मुझसे न सका जायगा। मुझसे इन गँवारों का कोरा अभिमान न देखा जाएगा। इसलिए। इस वक्त मुझे जाने दो। जब मुझे अवसर मिला करेगा तो तुम्हें देख जाया करूंगा। तुम्हारा प्रेम मेरे चित्त से नहीं जा सकता। लेकिन यह असम्भव है कि मैं इस घर में रहूँ और अलग खाना खाऊँ, अलग बैठूँ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।

देवकी घर में से पानी लायी । साधो मुँह धोने लगा। शिवगौरी ने माँ का इशारा पाया, तो डरते-डरते साधो के पास गयी, साधो को आदरपूर्वक दंडवत की। साधो ने पहले उन दोनों को आश्चर्य से देखा, फिर अपनी माँ को मुस्कराते देख समझ गया। दोनों लड़को को छाती से लगा लिया और तीनों भाई-बहिन प्रेम से हँसने-खेलने लगे। मां खड़ी यह दृश्य देखती थी और उमंग से फूली न समाती थी।
जलपान करके साधो ने बाईसिकल सँभाली और माँ-बाप के सामने सिर झुकाकर चल खड़ा हुआ- वहीं, जहाँ से तंग होकर आया था; उसी क्षेत्र में,जहाँ अपना कोई न था।
देवकी फूट-फूटकर रो रही थी और जादोराय आँखों में आँसू भरे, हृदय में एक ऐंठन-सी अनुभव करता हुआ सोचता था, हाय ! मेरे लाल, तू मुझसे अलग हुआ जाता है। ऐसा योग्य और होनहार लड़का हाथ से निकला जाता है और केवल इसलिए कि अब हमारा खून सफेद हो गया है।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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गरीब की हाय

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गरीब की हाय

मुंशी रामसेवक भौंहे चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले- ‘इस जीने से तो मरना भला है।’ मृत्यु को प्रायः इस तरह के जितने निमंत्रण दिये जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती, तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता।
मुंशी रामसेवक चांदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव चरित्र की दुर्बलताएँ उनके जीवन का आधार थीं। वह नित्य मुन्सिफी कचहरी के हाते में एक नीम के पेड़ के नीचे कागजों का बस्ता खोल एक टूटी-सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे। किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर कानूनी बहस या मुकदमे की पैरवी करते नहीं देखा। परंतु उन्हें सब लोग मुख्तार साहब कहकर पुरकारते थे। चाहे तूफान आये, पानी बरसे, ओले गिरें पर मुख्तार साहब वहां से टस से मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुण्ड-के-झुण्ड उनके साथ हो लेते। चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती। सबमें प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती हैं। इसे वकालत कहो या मुख्तारी, परन्तु यह केवल कुल-मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी ताँबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने से हिचकते थे।

मुंशीजी की कानूनदानी में कोई संदेह न था। परन्तु ‘पास’ के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था। खैर, जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था; नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ, पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किन्तु धनी वृद्धों की श्रद्धा थी। विधवाएँ अपना रुपया उनके यहां अमानत रखतीं। बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर रुपया एक बार उनकी मुठ्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह जरूरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज ले लेते थे। भला, बिना कर्ज लिए किसी का काम चल सकता है ? भोर को सांझ के करार पर रुपया लेते, पर वह साँझ कभी नहीं आती थी। सारांश मुंशीजी कर्ज लेकर देना सीखे नहीं थे। यह उनकी कुल-प्रथा थी।
यही सब मामले बहुधा मुंशी जी के सुख-चैन में विघ्न डालते थे। कानून और अदालत से तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उसका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था। परन्तु जब कोई दुष्ट उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर संदेह करता और उनके मुँह पर बुरा-भला कहने पर उतारू हो जाता, तब मुंशीजी के हृदय पर बड़ी चोट लगती। इस प्रकार की दुर्घटनाएँ प्रायः होती थीं। हर जगह ऐसे ओछे लोग रहते हैं, जिन्हें दूसरों को नीचा दिखाने में ही आनंद आता है। ऐसे लोगों का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशीजी के मुँह लग जाते थे। नहीं तो, एक कुँजड़िन की इतनी मजाल नहीं थी कि आँगन में जाकर उन्हें बुरा-भला कहे। मुंशीजी उसके पुराने गाहक थे; बरसों तक उससे साग-भाजी ली थी। यदि दाम न दिया जाय, तो कुँजड़िन को सन्तोष करना चाहिए था। दाम जल्दी या देर से मिल ही जाते। परन्तु वह मुँहफट कुँजड़िन दो ही बरसों में घबरा गई, और उसने कुछ आने पैसों के लिए एक प्रतिष्ठित आदमी का पानी उतार लिया। झुँझलाकर मुंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गए, तो इसमें उनका कुछ दोष न था।

2

इसी गाँव में मूँगा नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी। उसका पति ब्रह्मा की काली पलटन में हवलदार था और लड़ाई में वहीं मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे कामों के बदले मूँगा को पाँच सौ रुपये मिले थे। विधवा स्त्री, जमाना नाजुक था, बेचारी ने सब रुपये मुंशी रामसेवक को सौंप दिए, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से माँगकर अपना निर्वाह करती रही।
मुंशीजी ने यह कर्तव्य कई वर्ष तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा किया पर जब बूढ़ होने पर भी मूँगा नहीं मरी और मुंशी जी को यह चिंता हुई कि शायद उसमें से आधी रकम भी स्वर्ग-यात्रा के लिए नहीं छोड़ना चाहती, तो एक दिन उन्होंने कहा—मूँगा! तुम्हें मरना है या नहीं ? साफ-साफ कह दो कि मैं अपने मरने की फिक्र करूं ? उस दिन मूँगा की आँखे खुलीं, उसकी नींद टूटी, बोली—मेरा हिसाब कर दो। हिसाब का चिट्ठा तैयार था। ‘अमानत’ में अब एक कौड़ी बाकी न थी। मूँगा ने बड़ी कड़ाई से मुंशीजी का हाथ पकड़ कर कहा—अभी मेरे ढाई सौ रुपये तुमने दबा रखे हैं। मैं एक कौड़ी भी न छोड़ूंगी।
परन्तु अनाथों का क्रोध पटाखे की आवाज है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता। अदालत में उसका कुछ जोर न था। न लिखा-पढ़ी थी, न हिसाब-किताब। हाँ, पंचायत से कुछ आसरा था। पंचायत बैठी, कई गाँव के लोग इकट्ठे हुए। मुंशीजी नीयत और मामले के साफ थे, उन्हें पंचों का क्या डर ! सभा में खड़े होकर पंचों से कहा— ‘भाइयों! आप लोग सत्यनारायण और कुलीन हैं। मैं आप सब साहबों का दास हूँ। आप सब साहबों की उदारता और कृपा से, दया और प्रेम से मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है और आप लोग सोचते हैं कि इस अनाथिनी और विधवा स्त्री के रुपये हड़प कर गया हूं?’
पंचों ने एक स्वर से कहा—नहीं, नहीं ! आपसे ऐसा नहीं हो सकता।
रामसेवक—यदि आप सब सज्जनों का विचार हो कि मैंने रुपये दबा लिये, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं। मैं धनाढ्य नहीं हूँ, न मुझे उदार होने का घमंड है, पर अपनी कलम की कृपा से, आप लोगों की कृपा से किसी का मोहताज नहीं हूँ क्या मैं ऐसा ओछा हो जाऊँगा कि एक अनाथिनी के रुपये पचा लूँ ?
पंचों ने एक स्वर से फिर कहा—नहीं, नहीं ! आपसे ऐसा नहीं हो सकता। मुँह देखकर टीका काढ़ा जाता है। पंचों ने मुंशीजी को छोड़ दिया। पंचायत उठ गई। मूँगा ने आह भरकर संतोष किया और मन में कहा—अच्छा, अच्छा ! यहा न मिला तो न सही, वहाँ कहाँ जायेगा?

3

अब कोई मूँगा का दुःख सुननेवाला और सहायक न था। दरिद्रता से जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी; पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन उसने काम न करने की कसम खा ली। अब उसे रात-दिन रुपयों की रट लगी रहती। उठते-बैठते, सोते-जागते, उसे केवल एक काम था और वह मुंशी रामसेवक का भला मनाना। अपने झोपड़े के दरवाजे पर बैठी हुई वह रात-दिन उन्हें सच्चे मन से असीसा करती। बहुधा अपने असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के वाक्य और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुनकर अचम्भे में आ जाते।
धीरे-धीरे मूँगा पगली हो चली। नंगे-सिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती।
झोपड़ी के बदले अब वह मरघट पर, नदी के किनारे खंडहरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लटें, लाल-लाल आँखें, पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पाँव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँसी में भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गाँव में निकल आती, तो स्त्रियाँ घरों के किवाड़ बंद कर लेतीं। पुरुष कतराकर इधर-उधर से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते। यदि कोई लड़का भागता न था, तो वह मुंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था। बाप में जो कुछ कोर-कसर रह गई थी, वह बेटे में पूरी हो गई थी ! लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गाँव के काने लँगड़े आदमी उसकी सूरत से चिढ़ते थे और गालियाँ खाने में तो शायद ससुराल में आनेवाले दमाद को भी इतना आनंद न आता हो ! वह मूँगा के पीछे तालियाँ बजाता, कुत्तों को साथ लिए हुए उस समय तक रहता, जब तक वह बेचारी तंग आकर गाँव से निकल न जाती। रुपया-पैसा, होश-हवास खोकर उसे पगली की पदवी मिली और अब वह सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपने-आप घण्टों बातें किया करती जिसमें रामसेवक के मांस, हड्डी, चमड़े, आँखें, कलेजा आदि को खाने, मसलने, नोचने, खसोटने की बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमा तक पहुंच जाती, तो वह रामसेवक के घर की ओर मुँह करके खूब चिल्लाकर और डरावने शब्दों में हाँक लगाती, तेरा लोहू पीऊँगी।

प्रायः रात के सन्नाटे में यह गरजती हुई आवाज सुनकर स्त्रियाँ चौंक पड़ती थीं। परन्तु इस आवाज से भयानक उसका ठठाकर हँसना था ! मुंशीजी के लहू पीने की कल्पित खुशी में वह जोर से हँसा करती थी। इस, ठठाने से ऐसी आसुरिक उद्दण्डता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रात को सुनकर लोगों का खून ठंडा हो जाता था। मालूम होता, मानो, सैकड़ों उल्लू एक साथ हँस रहे हैं।
मुंशी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजे के आदमी थे। न उन्हें दीवानी का डर था न फौजदारी का। परंतु मूंगा के इन डरावने शब्दों को सुनकर वह भी सहम जाते। हमें मनुष्य के न्याय का डर न हो, परंतु ईश्वर के न्याय का डर प्रत्येक मनुष्य के मन में कभी-कभी ऐसी ही भावना उत्पन्न कर देता—उनसे अधिक उनकी स्त्री के मन में। उनकी स्त्री बड़ी ही चतुर थी। वह उनको इन सब बातों में प्रायः सलाह दिया करती थी। उन लोगों की भूल थी, जो लोग कहते थे कि मुंशीजी की जीभ पर सरस्वती विराजती हैं। वह गुण तो उनकी स्त्री को प्राप्त था। बोलने में वह उतनी ही तेज थी, जितना मुंशीजी लिखने में थे और यह दोनों स्त्री-पुरुष प्रायः अपनी अवश दशा में सलाह करते कि अब क्या करना चाहिए?

4

आधी रात का समय था। मुंशीजी नित्य नियम के अनुसार अपनी चिंता दूर करने के लिए शराब के दो-चार घूँट पीकर सो गए थे। यकायक मूँगा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से हाँक लगायी, ‘तेरा लहू पीऊँगी’ और खूब खिलखिलाकर हँसी।
मुंशीजी यह भयावह ठहाका सुनकर चौंक पड़े। डर के मारे पैर थर-थर काँपने लगे। कलेजा धक-धक करने लगा दिल पर बहुत जोर डाल कर उन्होंने दरवाजा खोला, जाकर नागिन को जगाया। नागिन ने झुँझलाकर कहा—क्या है; क्या कहते हो ?
मुंशीजी ने दबी आवाज से कहा—वह दरवाजे पर खड़ी है। नागिन उठ बैठी—क्या कहती है ?
‘तुम्हारा सिर।’
‘क्या दरवाजे पर आ गई ?’
‘हाँ, आवाज नहीं सुनती हो।’
नागिन मूँगा से नहीं, परन्तु उसके ध्यान से बहुत डरती थी, तो भी उसे विश्वास था कि मैं बोलने में उसे जरूर नीचा दिखा सकती हूँ। सँभलकर बोली—कहो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूं ? परंतु मुंशीजी ने मना किया।
दोनों आदमी पैर दबाए ड्योढ़ी में गये और दरवाजे से झाँककर देखा मूँगा की धुँधली मूरत धरती पर पड़ी थी और उसकी साँस तेजी से चलती हुई सुनाई देती थी। रामसेवक के लहू मांस की भूख में वह अपना लहू और मांस सुखा चुकी थी। एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था। परंतु उससे सारा गाँव थर-थर काँपता था। हम जीते मनुष्य से नहीं डरते, पर मुर्दे से डरते हैं। रात गुजरी। दरवाजा बंद था, पर मुंशीजी और नागिन ने बैठकर रात काटी, मूँगा भीतर नहीं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज को कौन रोक सकता था मूंगा से अधिक डरावनी उसकी आवाज थी।
भोर को मुंशीजी बाहर निकले और मूँगा से बोले—यहाँ क्यों पड़ी है ?
मूँगा बोली— तेरा लहू पीऊँगी।
नागिन ने बल खाकर कहा—तेरा मुँह झुलस दूंगी।
पर नागिन के विष ने मूँगा पर कुछ असर न किया। उसने जोर से ठहाका लगाया, नागिन खिसियानी-सी हो गई। हंसी के सामने मुँह बंद हो जाता है। मुंशीजी फिर बोले— यहां से उठ जा।
‘न उठूँगी।’
‘कब तक पड़ी रहेगी ?’
‘तेरा लहू पीकर जाऊंगी।’
मुंशीजी की प्रखर लेखनी का यहाँ कुछ जोर न चला और नागिन की आग-भरी बातें यहाँ सर्द हो गईं। दोनों घर में जाकर सलाह करने लगे, यह बला कैसे टलेगी ? इस आपत्ति से कैसे छुटकारा होगा ?

देवी आती है तो बकरे का खून पीकर चली जाती है, पर यह डाइन मनुष्य का खून पीने आयी है। वह खून, जिसका अगर एक बूँद भी कलम बनाने के समय निकल पड़ती थी, तो अठवारों और महीनों सारे कुनबे को अफसोस रहता और यह घटना गाँव में घर-घर फैल जाती। क्या वही लहू पीकर मूँगा का सूखा शरीर हरा हो जाएगा ?
गाँव में यह चर्चा फैल गई, मूँगा मुंशीजी के दरवाजे पर धरना दिये बैठी है। मुंशीजी के आगमन में गाँववालों को बड़ा मजा आता था। देखते-देखते सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गई। इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड़ रामगुलाम को पसंद न थी। मूँगा पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि यदि उसका वश चलता, तो वह इसे कुएँ में ढकेल देता। इस तरह का विचार उठते ही रामगुलाम के मन में गुदगुदी समा गई और वह बड़ी कठिनता से अपनी हँसी रोक सका। अहा ! वह कुएँ में गिरती तो क्या मजे की बात होती ! परन्तु यह चुड़ैल यहाँ से टलती ही नहीं क्या करूं ?
मुंशीजी के घर में एक गाय थी, जिसे खाली, दाना और भूसा तो खूब खिलाया जाता, पर वह सब उसकी हड्डियों में मिल जाता, उसका ढांचा पुष्ट होता जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हाँड़ी में घोला और सबका-सब बेचारी मूँगा पर उँड़ेल दिया। उसके थोड़े-बहुत छींटे दर्शकों पर भी डाल दिये। बेचारी मूँगा लदफद हो गई और लोग भाग खड़े हुए। कहने लगे, यह मुंशी रामगुलाम का दरवाजा है। यहाँ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है। जल्द भाग चलो, नहीं तो अब इससे भी बढ़ कर खातिर की जायगी। इधर भीड़ कम हुई, उधर रामगुलाम घर में जाकर खूब हँसा और खूब तालियाँ बजायीं। मुंशीजी ने व्यर्थ की भीड़ को ऐसे सहज में और ऐसे सुन्दर रूप से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के की पीठ ठोकी। सब लोग तो चम्पत हो गए, पर बेचारी मूँगा ज्यों-की-त्यों बैठी रह गई।

दोपहर हुई। मूँगा ने कुछ नहीं खाया। साँझ हुई। हजार कहने-सुने से भी खाना नहीं खाया। गाँव के चौधरी ने बड़ी खुशामद की। यहाँ तक कि मुंशीजी ने हाथ तक जोड़े, पर देवी प्रसन्न न हुई। निदान मुंशीजी उठकर भीतर चले गए। वह कहते थे कि रूठने वाले को भूख आप ही मना लिया करती है। मूँगा ने यह रात भी बिना दाना-पानी के काट दी। लालाजी और ललाइन ने आज फिर जाग-जागकर भोर किया। आज मूँगा की गरज और हँसी बहुत कम सुनाई पड़ती थी। घरवालों ने समझा, बला टली, सबेरा होते ही जो दरवाजा खोलकर देखा, तो वह अचेत पड़ी थी, मुंह पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं। वह इस दरवाजे पर मरने ही आयी थी। जिसने उसके जीवन की जमा-पूंजी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी सौंप दी। अपने शरीर की मिट्टी तक उसको भेंट कर दी। धन से मनुष्य को कितना प्रेम होता है ! धन अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा होता है, विशेषकर बुढ़ापे में। ऋण चुकाने के दिन ज्यों-ज्यों पास आते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है।

यह कहना यहाँ व्यर्थ है कि गांव में इस घटना से कैसी हलचल मची और मुंशी रामसेवक कैसे अपमानित हुए। एक छोटे-से गाँव में ऐसी असाधारण घटना होने पर जितनी हलचल हो सकती, उससे अधिक ही हुई। मुंशीजी का अपमान जितना होना चाहिए था, उससे बाल बराबर भी कम न हुआ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया। अब गाँव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने का, उन्हें छूने का रवादार न था। यदि किसी घर से कोई गाय खूँटे पर मर जाती है, तो वह आदमी महीनों द्वार-द्वार भी माँगता फिरता है। न नाई उसकी हजामत बनावे, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए। यह गोहत्या का प्रयाश्चित था। ब्रह्महत्या का दंड तो इससे भी कड़ा है और इसमें अपमान भी बहुत है। मूंगा यह जानती थी और इसीलिए इस दरवाजे पर आकर मरी थी। वह जानती थी मैं जीते-जी तो कुछ नहीं कर सकती, मरकर उससे बहुत कुछ कर सकती हूँ। गोबर का उपला जब जल कर खाक हो जाता है,, तब साधु-संत उसे माथे पर चढ़ाते हैं; पत्थर का ढेला आग में जलाकर आग से अधिक तीखा और मारक होता है।

5

मुंशी रामसेवक कानूनदाँ थे। कानून ने उन पर कोई दोष नहीं लगाया था। मूँगा किसी कानूनी दफा के अनुसार नहीं मरी थी। ताजीरात हिन्द में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था। इसलिए जो लोग उनसे प्रायश्चित करवाना चाहते थे, उनकी भारी भूल थी। कुछ हर्ज नहीं, कहार पानी न भरे, न सही। वह पानी भर लेंगे। अपना काम आप करने में भला लाज ही क्या ? बला से नाई बाल न बनावेगा। हजामत बनाने का काम ही क्या है ? दाढ़ी बहुत सुन्दर वस्तु है। दाढ़ी मर्द की शोभा और सिंगार है और जो फिर बालों से ऐसी घिन होगी, तो एक-एक आने में तो अस्तुरे मिलते हैं। धोबी कपड़े न धोएगा, इसकी भी कुछ परवाह नहीं। साबुन तो गली-गली कौड़ियों के मोल आता है। एक बट्टी साबुन में दर्जनों कपड़े ऐसे साफ हो जाते हैं, जैसे बगुले के पर। धोबी क्या खाकर ऐसा साफ कपड़ा धोएगा ? पत्थर पर पटक-पटकर कपड़ों का लत्ता निकाल लेता है। आप पहने, दूसरों को भाड़े पर पहनाए, भट्टी में चढ़ाए, रेह में भिगोए ! कपड़ों की तो दुर्गति कर डालता है। जभी तो कुर्ते दो-तीन साल से अधिक नहीं चलते। नहीं तो दादा हर पाँचवें बरस दो-तीन अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे। मुंशी रामसेवक और उनकी स्त्री ने दिन-भर तो यों ही कहकर अपने मन को समझाया। साँझ होते ही उनकी तर्कनाएं शिथिल हो गईं।

अब उनके मन पर भय ने चढ़ाई की। जैसे-तैसे रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था। बाहर का दरवाजा भूल से खुला रह गया था, पर किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि जाकर बन्द तो कर आये। निदान नागिन ने हाथ में दीया लिया। मुंशीजी ने कुल्हाड़ा, रामगुलाम ने गँड़ासा, इस ढंग से तीनों आदमी चौंकते-हिचकते दरवाजे पर आये। यहाँ मुंशीजी ने बहादुरी से काम लिया। उन्होंने निधड़क दरवाजे से बाहर निकलने की कोशिश की। काँपते हुए, पर ऊँची आवाज में नागिन से बोले—तुम व्यर्थ डरती हो, वह क्या यहाँ बैठी है ? पर उनकी प्यारी नागिन ने उन्हें अंदर खींच लिया और झुँझलाकर बोली—तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं। यह दंगल जीतकर तीनों आदमी रसोई के कमरे में आये और खाना पकने लगा।
परन्तु मूँगा उनकी आँखों में घुसी हुई थी। अपनी परछाई को देखकर मूँगा का भय होता था। अँधेरे कोने में मूँगा बैठी मालूम होती थी। वही हड्डियों का ढाँचा, वही बिखरे हुए बाल, वही पागलपन, वही डरावनी आँख, मूँगा का नखशिख दिखाई देता था। इसी कोठरी में आटे दाल के कई मटके रखे हुए थे, वहां कुछ पुराने चिथड़े भी पड़े हुए थे। एक चूहे को भूख ने बेचैन किया (मटकों ने कभी अनाज की सूरत न देखी थी; पर सारे गांव में मशहूर था कि इस घर के चूहे गजब के डाकू हैं), तो वह उन दानों की खोज में, जो मटकों से कभी नहीं गिरे थे, रेंगता हुआ इस चिथड़े के नीचे आ निकला। कपड़े में खड़खड़ाहट हुई। फैले हुए चिथड़े मूँगा की पतली टाँगे बन गईं, नागिन देखकर झिझकी और चीक उठी। मुंशीजी बदहवास होकर दरवाजे की ओर लपके, रामगुलाम दौड़कर उनकी टाँगे से लिपट गया। चूहा बाहर निकल आया। उसे देखकर इन लोगों के होश ठिकाने हुए। अब मुंशीजी साहस करके मटके की ओर चले। नागिन ने कहा—रहने भी दो, देख ली तुम्हारी मरदानगी।
मुंशीजी अपनी प्रिया नागिन के इस अनादर पर बहुत बिगड़े—क्या तुम समझती हो, मैं डर गया ? भला, डर की क्या बात थी ! मूँगा मर गयी; क्या वह बैठी है ? मैं कल नहीं दरवाजे के बाहर निकल गया था। तुम रोकती रहीं मैं न माना।
मुंशीजी की इस दलील ने नागिन को निरुत्तर कर दिया। कल दरवाजे के बाहर निकल जाना या निकलने की कोशिश करना साधारण काम न था। जिसके साहस का ऐसा प्रमाण मिल चुका हो, उसे डरपोक कौन कह सकता है ? यह नागिन की हठधर्मी थी।
खाना खाकर तीनों आदमी सोने के कमरे में आये। परन्तु मूँगा ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा। बातें करते थे, दिल को बहलाते थे, नागिन ने राजा हरदौल और रानी सारंधा की कहानियाँ कहीं, मुंशीजी ने फौजदारी के कई मुकदमों का हाल कह सुनाया। परन्तु तो भी, इन उपायों से भी मूँगा की मूर्ति उनकी आँखों के सामने से न हटती थी। जरा खटखटाहट होती तब तीनों चौंक पड़ते। उधर पत्तियों में सनसनाहट हुई कि इधर तीनों के रोंगटे खड़े हो गए। रह-हकर एक धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके कानों में आती थी—‘तेरा लहू पीऊँगी’।

आधी रात को नागिन नींद से चौंक पड़ी। वह इन दिनों गर्भवती थी लाल-लाल आँखोंवाली, तेज और नुकीले दाँतोंवाली मूँगा उसी की छाती पर बैठी हुई जान पड़ती थी। नागिन चीख उठी। बावली की तरह आँगन में भाग आयी और यकायक धरती पर चित्त गिर पड़ी। सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुंशीजी भी उसकी चीख सुनकर चौंके, पर डर के मारे आँखें न खुलीं। अंधों की तरह दरवाजा टटोलते रहे। बहुत देर के बाद उन्हें दरवाजा मिला। आँगन में आये नागिन जमीन पर पड़ी हाथ-पाँव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाये, पर रात-भर उसने आँखें न खोलीं। भोर को अकबक बकने लगी। थोड़ी देर में ज्वर हो आया। बदन लाल तवा-सा हो गया। साँज होते-होते सन्निपात हो आया और आधी रात के समय जब संसार में सन्नाटा छाया हुआ था, नागिन इस संसार से चल बसी। मूंगा के डर ने उसकी जान ली जब तक मूँगा जीती रही, वह नागिन की फुफकार से सदा डरती रही। पगली होने पर भी उसने कभी नागिन का सामना नहीं किया, पर अपनी जान देकर उसने आज नागिन की जान ली भय में बड़ी शक्ति है। मनुष्य हवा में एक गिरह भी नहीं लगा सकता, पर इसने हवा में एक संसार रच डाला है।
रात बीत गयी। दिन चढ़ता आता था, पर गाँव का कोई आदमी नागिन की लाश उठाने को आता न दिखाई दिया। मुंशीजी घर-घर घूमे पर कोई न निकला। भला, हत्यारे के दरवाजे पर कौन जाए ? हत्यारे की लाश कौन उठाए ? इस समय मुंशीजी का रोबदाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रतिभा एक भी काम न आयी। चारों ओर से हारकर मुंशीजी फिर अपने घर आये। यहाँ उन्हें अंधकार-ही-अंधकार दीखता था, दरवाजे तक तो आये, पर भीतर पैर नहीं रखा जाता था। न बाहर ही खड़े रह सकते थे। बाहर मूंगा थी, भीतर नागिन। जी को कड़ा करके ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए घर में घुसे। उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे। उनका अनुमान करना कठिन है। घर में लाश पड़ी हुई; न कोई आगे, न पीछे। दूसरा ब्याह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन में तो पचासवाँ लगा है। पर ऐसी सुयोग्य और मीठी बोलीवाली स्त्री कहाँ मिलेगी ? अफसोस ! अब तगादा करने वालों से बहस कौन करेगा, कौन उन्हें निरुत्तर करेगा? लेन-देन का हिसाब-किताब कौन इतनी खूबी से करेगा ? किसकी कड़ी आवाज तीर की तरह तगादेदारों की छाती में चुभेगी ? यह नुकसान अब पूरा नहीं हो सकता। दूसरे दिन मुंशीजी लाश को एक ठेलेगाड़ी पर लादकर गंगाजी की तरफ चले।

6

शव के साथ जाने वालों की संख्या कुछ भी न थी। एक स्वयं मुंशीजी, दूसरे उनके पुत्ररत्न रामगुलामजी ! इस बेइज्जती से मूँगा की लाश भी नहीं उठी थी। मूँगा ने नागिन की जान लेकर भी मुंशीजी का पिंड न छोड़ा। उनके मन में हर घडी मूंगा की मूर्ति विराजमान रहती थी। कहीं रहते, उनका ध्यान इसी ओर रहा करता था। यदि दिल-बहलाव का कोई उपाय होता, तो शायद वह इतने बेचैन न होते; पर गाँव का एक पुतली भी उनके दरवाजे की ओर न झाँकता था। बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आप ही बरतन धोते। सोच और क्रोध, चिंता और भय, इतने शत्रुओं के सामने एक दिमाग कब तक ठहर सकता ? विशेषकर वह दिमाग, जो रोज,-रोज कानून की बहसों में खर्च हो जाता था।
अकेले कैदी की तरह उनके दस-बारह दिन तो ज्यों-त्यों कर कटे। चौदहवें दिन मुंशीजी ने कपड़े बदले और बोरिया-बस्ता लिये हुए कचहरी चले। आज उनका चेहरा कुछ खिला हुआ था। जाते ही मेरे मुवक्किल मुझे घेर लेंगे। मेरी मातमपुर्सी करेंगे। मैं आँसुओं की दो-चार बूँदें गिरा दूंगा। फिर बैनामों, रेहनामों और सुलहनामों की भरमार हो जाएगी। मुट्ठी गरम होगी। शाम को जरा नशेपानी का रंग जम जाएगा, जिसके छूट जाने से जी और भी उचाट हो रहा था। इन्हीं विचारों में मग्न मुंशीजी कचहरी पहुँचे।

पर वहां रेहनामों की भरमार और बैनामों की बाढ़ और मुवक्किलों की चहल-पहल के बदले निराशा की रेतीली भूमि नजर आयी। बस्ता खोले घंटो बैठे रहे, पर कोई नजदीक भी न आया। किसी ने इतना भी न पूछा कि आप कैसे हैं ? नए मुवक्किल तो खैर, बड़े-बड़े पुराने मुवक्किल, जिनका मुंशीजी से कई पीढ़ियों से सरोकार था, आज उनसे मुँह छिपाने लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जिसकी मुंशीजी हँसी उड़ाते थे और जिसे शुद्ध लिखना भी न आता था, गोपियों में कन्हैया बना हुआ था। वाह रे भाग्य ! मुवक्किल यों मुँह फेरे चले जाते हैं, मानो कभी की जान-पहचान ही नहीं। दिन-भर कचहरी की खाक छानने के बाद मुंशीजी अपने घर चले। निराशा और चिन्ता में डूबे हुए ज्यों-ज्यों घर के निकट आते थे, मूँगा का चित्र सामने आता जाता था। यहाँ तक कि जब घर का द्वार खोला और दो कुत्ते, जिन्हें रामगुलाम ने बन्द कर रखा था, झटपट बाहर निकले, तो मुंशीजी के होश उड़ गए; एक चीख मारकर जमीन पर गिर पड़े।

मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर भय का जितना प्रभाव होता है, उतना और किसी शक्ति का नहीं ! प्रेम, चिन्ता, निराशा, हानि यह सब मन को अवश्य दुखित करते हैं; यह हवा के हलके झोंके हैं और भय प्रचंड आँधी है। मुंशीजी पर इसके बाद क्या बीती, मालूम नहीं। कई दिन तक लोगों ने उन्हें कचहरी जाते और वहाँ से मुरझाए हुए लौटते देखा। कचहरी जाना उनका कर्तव्य था और यद्यपि वहाँ मुवक्किलों का अकाल था, तो भी तगादेवालों से गला छुड़ाने और उनको भरोसा दिलाने के लिए अब यही एक लटका रह गया था। इसके बाद वह कई महीने तक दीख न पड़े। बद्रीनाथ चले गये।
एक दिन गाँव में एक साधु आया, भभूत रमाए, लम्बी-लम्बी जटाएँ, हाथ में कमण्डल। इसका चेहरा मुंशी रामसेवक से बहुत मिलता-जुलता था। बोलचाल भी अधिक भेद न था। वह एक पेड़ के नीचे धूनी रमाए बैठा रहा। उसी रात को मुंशी रामसेवक के घर धुआँ उठा, फिर आग की ज्वाला दीखने लगी और आग भड़क उठी। गांव के सैकड़ों आदमी दौड़े, आग बुझाने के लिए नहीं, तमाशा देखने के लिए। एक गरीब की हाय में कितना प्रभाव है ! रामगुलाम मुंशीजी के गायब हो जाने पर अपने मामा के यहाँ चल गया और वहाँ कुछ दिनों रहा, पर वहाँ उसकी चाल-ढाल किसी को पसंद न आयी।
एक दिन उसने किसी के खेत में मूली नोची। उसने दो-चार धौल लगाए। उस पर वह इस तरह बिगड़ा कि जब उसके चने खलिहान में आये, तो उसने आग लगा दी। सारा-का-सारा खलिहान जलकर खाक हो गया। हजारों रुपयों का नुकसान हुआ। पुलिस ने तहकीकातकी, रामगुलाम पकड़ा गया। इसी अपराध में वह चुनार के रिफार्मेटरी स्कूल में मौजूद है।


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दो भाई

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दो भाई

प्रातःकाल सूर्य की सुहावनी सुनहरी धूप-में कलावती दोनों बेटों को जाँघों पर बैठा दूध और रोटी खिलाती थी। केदार बड़ा था, माधव छोटा। दोनों मुँह में कौर लिये, कई पग उछल-कूदकर फिर जाँघों पर आ बैठते और अपनी तोतली बोली में उस प्रार्थना की रट लगाते थे, जिसमें एक पुराने सुहृदय कवि ने किसी जाड़े के सताए हुए बालक के हृदयोद्गार को प्रकट किया है—
‘‘दैव-दैव, घाम करो, तुम्हारे बालक को लगता जाड़ा।’
माँ उन्हें चुमकारकर बुलाती और बड़े-बड़े कौर खिलाती। उसके हृदय में प्रेम की उमंग थी और नेत्रों में गर्व की झलक। दोनों भाई बड़े हुए। साथ-साथ गले में बाँहें डाले खेलते थे। केदार की बुद्धि चुस्त थी, माधव का शरीर। दोनों में इतना स्नेह था कि साथ-साथ पाठशाला जाते, साथ-साथ खाते और साथ-साथ ही रहते थे।
दोनों भाइयों का ब्याह हुआ। केदार की बहू चम्पा अमित भाषिणी और चंचला थी। माधव की बहू श्यामा साँवली सलोनी, रूपराशि की खानि थी। बड़ी ही मृदुभाषिणी, बड़ी ही सुशीला और शांत स्वभाव थी।

केदार चम्पा पर मोहे और माधव श्यामा पर रीझे। परन्तु कलावती का मन किसी से न मिला। वह दोनों से प्रसन्न और दोनों से अप्रसन्न थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा का बहुत अंश इस व्यर्थ के प्रयत्न में व्यय होता था कि चम्पा अपनी कार्यकुशलता का एक भाग श्यामा के शांत स्वभाव से बदल ले।
दोनों भाई संतानवान हुए। हरा-भरा वृक्ष खूब फैला और फलों से लद गया ! कुत्सित वृक्ष में केवल एक फल दृष्टिगोचर हुआ, वह भी कुछ पीला-सा मुरझाया हुआ। किन्तु दोंनों अप्रसन्न थे। माधव को धन-सम्पत्ति की लालसा थी और केदार को संतान की अभिलाषा। भाग्य की इस कूटनीति ने शनैः-शनैः द्वेष का रूप धारण किया, जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारने-सुधारने में लगी रहती; उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलता थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अनीति कभी-कभी कटु शब्दों में निकल जाती। श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। परन्तु उसकी यह सहनशीलता चम्पा के क्रोध को शांत करने के बदले और बढ़ाती। यहाँ तक कि प्याला लबालब भर गया। हिरन भागने की राह न पाकर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्यामा समकोण बनाने वाली रेखाओं की भाँति अलग हो गई। उस दिन एक ही घर में दो चूल्हे जले, परन्तु भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही।

2

कई वर्ष बीत गए। दोनों भाई जो किसी समय एक ही पालथी पर बैठते थे, एक ही थाली में खाते थे और एक ही छाती से दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना कठिन हो गया। परन्तु कुल की साख में बट्टा न लगे, इसलिए ईर्ष्या और द्वेष की धधकी हुई आग को राख के नीचे दबाने की व्यर्थ चेष्टा की जाती थी। उन लोगों में अब भ्रात-स्नेह न था। केवल भाई के नाम की लाज थी। माँ अब भी जीवित थी, पर दोनों बेटों का वैमनस्य देखकर आँसू बहाया करती। हृदय में प्रेम था, पर नेत्रों में अभिमान न था। कुसुम वही था, परंतु वह छटा न थी।

दोनों भाई जब लड़के थे, तब एक को रोते देख, दूसरा भी रोने लगता था। तब वे नादान, बेसमझ और भोले थे। आज एक को रोते हुए देख, दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता ! वह समझदार और बुद्धिमान हो गए थे।
जब उन्हें अपने-पराये की पहचान न थी। उस समय यदि कोई छेड़ने के लिए एक को अपने साथ ले जाने की धमकी देता, तो दूसरा जमीन पर लोट जाता, और उस आदमी का कुर्ता पकड़ लेता। अब यदि एक भाई को मृत्यु भी धमकाती, तो दूसरे के नेत्रों में आँसू न आते। अब उन्हें अपने-पराये की पहचान हो गई थी।

बेचारे माधव की दशा शोचनीय थी। खर्च अधिक था और आमदनी कम। उस पर कुल-मर्यादा का निर्वाह। हृदय चाहे रोए, पर होंठ हँसते रहें। हृदय चाहे मलिन हो, पर कपड़े मैले न हों। चार पुत्र थे, चार पुत्रियाँ और आवश्यक वस्तुएँ मोतियों के मोल। कुछ पाइयों की जमींदारी कहाँ तक सम्हालती ? लड़कों का ब्याह अपने बस की बात थी, पर लड़कियों का विवाह कैसे टल सकता था ? दो पाई जमीन पहली कन्या के विवाह की भेंट हो गई। उस पर भी बाराती बिना भात खाए आँगन से उठ गए। शेष दूसरी कन्या के विवाह में निकल गई। साल बाद तीसरी लड़की का विवाह हुआ, पेड़-पत्ते भी न बचे। हाँ, अबकी डाल भरपूर थी। परंतु दरिद्रता और धरोहर में वही सम्बन्ध है, जो मांस और कुत्ते में।

3

इस कन्या का अभी गौना न हुआ था कि माधव पर दो साल के बकाया लगान का वारंट आ पहुँचा। कन्या के गहने गिरो (बंधक) रखे गए। गला छूटा। चम्पा इसी समय की ताक में थी। तुरंत नए-नए नातेदारों को सूचना दी, तुम लोग बेसुध बैठे हो, यहाँ गहनों का सफाया हुआ जाता है। दूसरे दिन एक नाई और दो ब्राह्मण माधव के दरवाजे पर आकर बैठ गए। बेचारे के गले में फाँसी पड़ गई। रुपये कहाँ से आएँ? न जमीन, न जायदाद, न बाग, न बगीचा। रहा विश्वास, वह कभी का उठ चुका था। अब यदि कोई संपत्ति थी, तो केवल वही दो कोठरियाँ, जिनमें उसने अपनी सारी आयु बितायी थी और उनका कोई ग्राहक न था। विलंब से नाक कटी जाती थी। विवश होकर केदार के पास आया और आँखों में आँसू भरे बोला—भैया, इस समय मैं बड़े संकट में हूँ, मेरी सहायता करो।
केदार ने उत्तर दिया— मद्धू ! आजकल मैं भी तंग हो रहा हूँ, तुमसे सच कहता हूँ।
चम्पा अधिकारपूर्ण स्वर से बोली—अरे तो क्या इनके लिए भी तंग हो रहे हैं ? अलग भोजन करने से क्या इज्जत अलग हो जाएगी ?
केदार ने स्त्री की ओर कनखियों से ताककर कहा—नहीं, नहीं, मेरा यह प्रयोजन नहीं था। हाथ तंग है तो क्या, कोई न कोई प्रबंध किया ही जाएगा।
चम्पा ने माधव से पूछा—पाँच बीस, से कुछ ऊपर ही पर गहने रखे थे न ? माधव ने उत्तर दिया—हाँ ! ब्याज सहित कोई सवा सौ रुपये होते हैं।
केदार रामायण पढ़ रहे थे। फिर पढ़ने में लग गए। चम्पा ने तत्त्व की बातचीत शुरू की—रुपया बहुत है, हमारे पास होता, तो कोई बात न थी, परंतु हमें भी दूसरे से दिलाना पड़ेगा और महाजन बिना कुछ लिखाए-पढ़ाए रुपया देते नहीं।
माधव ने सोचा, यदि मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ाने को होता, तो क्या और महाजन मर गए थे, तुम्हारे दरवाजे क्यों आता ? बोला—लिखने-पढ़ने को मेरे पास है ही क्या ? जो कुछ जगह-जायदाद है, वह यही घर है।

केदार और चम्पा ने एक दूसरे को मर्मभेदी नयनों से देखा और मन-ही-मन कहा—क्या आज सचमुच जीवन की प्यारी अभिलाषाएँ पूरी होंगी ? परंतु हृदय की यह उमंग मुँह तक आते-आते गंभीररूप धारण कर गई। चंपा बड़ी गंभीरता से बोली—घर पर तो कोई महाजन कदाचित ही रुपया दे। शहर हो तो कुछ किराया ही आवे, पर गँवई में तो कोई सेंत में रहने वाला भी नहीं। फिर साझे की चीज ठहरी।
केदार डरे कि कहीं चंपा की कठोरता से खेल बिगड़ न जाय। बोले—एक महाजन से मेरी जान-पहचान है, वह कदाचित कहने-सुनने में आ जाय।
चम्पा ने गर्दन हिलाकर इस युक्ति की सराहना की और बोली—पर दो-तीन बीसी से अधिक मिलना कठिन है।
केदार ने जान पर खेलकर कहा—अरे, बहुत दबाने से चार बीसी हो जाएँगे और क्या ?
अबकी चम्पा ने तीव्रदृष्टि से केदार को देखा और अनमनी—सी होकर बोली—महाजन ऐसे अंधे नहीं होते।
माधव अपने भाई-भावज के इस गुप्त रहस्य को कुछ-कुछ समझता था। वह चकित था कि इतनी बुद्धि कहाँ से मिल गई। बोला—और रुपये कहाँ से आएँगे।
चम्पा चिढ़कर बोली—और रुपयों के लिए और फिक्र करो। सवा सौ रुपये इन दो कोठरियों के इस जन्म में कोई न देगा। चार बीसी चाहो, तो एक महाजन से दिला दूँ, लिखा-पढ़ी कर लो।
माधव इन रहस्यमय बातों से सशंक हो गया। उसे भय हुआ कि यह लोग मेरे साथ कोई गहरी चाल चल रहे हैं। दृढ़ता के साथ अड़कर बोला—और कौन-सी फिक्र करूँ? गहने होते तो कहता, लाओ रख दूँ। यहाँ तो कच्चा सूत भी नहीं है। जब बदनाम हुए तो क्या दस के लिए, क्या पचास के लिए, दोनों एक ही बात है। यदि घर बेचकर मेरा नाम रह जाय, तो यहाँ तक स्वीकार है; परन्तु घर भी बेचूँ और उस पर प्रतिष्ठा धूल में मिले, ऐसा मैं न करूँगा केवल नाम का ध्यान है, नहीं एक बार नहीं कर जाऊँ, तो मेरा कोई क्या करेगा ? और सच पूछो तो मुझे अपने नाम की कोई चिंता नहीं है। मुझे कौन जानता है ? संसार तो भैया को हँसेगा।

केदार का मुँह सूख गया। चम्पा भी चकरा गई ! वह बड़ी चतुर वाक् निपुण रमणी थी। उसे माधव-जैसे गँवार से ऐसी दृढ़ता की आशा न थी। उसकी ओर आदर से देखकर बोली—लाल कभी-कभी तुम भी लड़कों की सी बातें करते हो। भला, इस झोपड़ी पर कौन सौ रुपये निकालकर देगा ? तुम सवा सौ के बदले सौ ही दिलाओ, मैं आज ही अपना हिस्सा बेचती हूँ। उतनी ही मेरी भी तो है। घर पर तो तुमको वही चार बीस मिलेंगे। हाँ, और रुपयों का प्रबंध हम आप कर देंगे। इज्जत हमारी-तुम्हारी एक ही है, वह न जाने पाएगी। वह रुपया अलग खाते में चढ़ा लिया जाएगा।
माधव की इच्छाएँ पूरी हुईं। उसने मैदान मार लिया ! सोचने लगा कि मुझे तो रुपयों से काम है, चाहे एक नहीं, दस खाते में चढ़ा लो। रहा मकान, वह जीते-जी नहीं छोड़ेने का। प्रसन्न होकर चला। उसके जाने के बाद केदार और चंपा ने कपट भेष त्याग दिया और देर तक एक-दूसरे को इस सौदे का दोषी सिद्ध करते रहे। अंत में मन को इस तरह संतोष दिया को भोजन बहुत मधुर नहीं, किन्तु भर–कठौती तो है। घर, हाँ, देखेंगे कि श्यामा रानी इस घर में कैसे राज करती है ?
केदार के दरवाजे पर दो बैल खड़े हैं। इनमें कितनी संघशक्ति, कितनी मित्रता और कितनी प्रेम है। दोनों एक ही जुएं में चलते हैं बस इनमें इतना ही नाता है। किन्तु अभी कुछ दिन हुए, जब इनमें से एक चम्पा के मैके मँगनी गया था, तो दूसरे ने तीन दिन तक नाँद में मुँह नहीं डाला। परन्तु शोक, एक गोद के खेले भाई, एक छाती से दूध पीनेवाले आज इतने बेगाने हो रहे हैं कि एक घर में रहना भी नहीं चाहते।

4

प्रातःकाल था। केदार के द्वार पर गाँव के मुखिया और नंबरदार विराजमान थे। मुंशी दातादयाल अभिमान से चारपाई पर बैठे रेहन का मसविदा तैयार करने में लगे थे। बारंबार कलम बनाते और बारंबार खत रखते, पर खत की शान न सुधरती। केदार का मुखारविंद विकसित था और चम्पा फूली नहीं समाती थी। माधव कुम्हलाया और म्लान था।
मुखिया ने कहा भाई ऐसा हितू, न भाई ऐसा शत्रु। केदार ने छोटे भाई की लाज रख ली।
नंबरदार ने अनुमोदन किया— भाई हो तो ऐसा हो।
मुख्तार ने कहा— भाई, सपूतों का यही काम है।
दातादयाल ने पूछा— रेहन लिखने वाले का नाम ?
बड़े भाई बोले— माधव वल्द शिवदत्त।
‘और लिखवाने वाले का ?’
‘केदार वल्द शिवदत्त।’
माधव ने बड़े भाई की ओर चकित होकर देखा। आँखें डबडबा आयीं। केदार उसकी ओर न देख सका। नम्बरदार, मुखिया और मुख्तार भी विस्मित हुए। क्या केदार खुद ही रुपया दे रहा है ? बातचीत तो किसी साहूकार की थी। जब घर ही में रुपया मौजूद है, तो इस रेहननामे की आवश्यकता ही क्या थी ? भाई-भाई में इतना अविश्वास ! अरे, राम ! राम ! क्या माधव 80 रुपये को भी मँहगा है ! और यदि दबा भी बैठता, तो क्या रुपये पानी में चले जाते ?

सभी की आँखें सैन द्वारा परस्पर बातें करने लगीं, मानो आश्चर्य की अथाह नदी में नौकाएँ डगमगाने लगीं।
श्यामा दरवाजे की चौखट पर खड़ी थी। वह सदा केदार की प्रतिष्ठा करती थी, परन्तु आज केवल लोक-रीति ने उसे अपने जेठ को आड़े हाथों में लेने से रोका।
बूढ़ी अम्मा ने सुना, तो सूखी नदी उमड़ आयी। उसने एक बार आकाश की ओर देखा और माथा ठोक लिया।
तब उसे उस दिन का स्मरण हुआ, जब ऐसा ही सुहावना सुनहरा प्रभात था और दो प्यारे-प्यारे बच्चे उसकी गोद में बैठे हुए उछल-कूदकर दूध-रोटी खाते थे। उस समय माता के नेत्रों में कितना अभिमान था, हृदय में कितनी उमंग और कितना उत्साह!

परन्तु आज, आह ! आज नयनों में लज्जा है और हृदय में शोक–संताप उसने पृथ्वी की ओर देखकर कातर स्वर में कहा—हे नारायण ! क्या ऐसे पुत्रों को मेरी ही कोख में जन्म लेना था !

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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