प्रेम पूर्णिमा--मुंशी प्रेमचंद

Jemsbond
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बलिदान

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बलिदान

मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का साहस नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से मित्रता कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो आंखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे मटियामेट कर दिया। धीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, गाहक टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। परन्तु उसके मुख पर अब भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है। इस पर काल की गति का प्रभाव नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। भले दिन मनुष्य के चरित्र पर सदैव के लिए अपना चिह्न छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है, केवल दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।

लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।
हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी थी। वह बीमार जरूर पड़ता, कुआँर मास में मलेरिया से कभी न बचता था। लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए ही चंगा हो जाता था। इस वर्ष कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवाह न की। परन्तु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू चारपाई से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत मालूम हुई। उसका लड़का गिरधारी कभी नीम की सीखे पिलाता, कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़। पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए।
एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए। बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; कुनैन क्यों नहीं खाते ? हरखू ने उदासीन भाव से कहा- तो लेते आना।

दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े है कि बिना दवा-दर्पण के अच्छे हो जाओगे।
हरखू ने उसी मंद भाव से कहा- तो लेते आना। लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना उसे दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से। न मंगलसिंह ने खबर ली, न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही ने। हरखू दालान में खाट पर पड़ा रहता। मंगल सिंह कभी नजर आ जाते तो कहता-भैया, वह दवा नहीं लाए ?
मंगलसिंह कतराकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते, तो उनसे भी यही प्रश्न करता। लेकिन वह भी नजर बचा जाते। या तो उसे सूझता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से प्रिय समझता था, अथवा जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी दशा दिनोंदिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम के साथ निकाला ! क्रियाकर्म बड़े हौसले से किया। कई गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया।
बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न डफली बजी, न भंग की नालियाँ बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मरता।
लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता। वह शरीर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।

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हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद-पाँस से लदी हुई मेंड-बाँध से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं। हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थीं। कोई साल-भर का लगान देने पर तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था। लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे। उनका विचार था कि गिरधारी के बाप ने खेतों को बीस वर्ष तक जोता है, इसलिए गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे, तो खेत उसी को देने चाहिए। अस्तु, जब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और उससे पूछा- खेती के बारे में क्या कहते हो ?
गिरधारी ने रोकर कहा- सरकार, इन्हीं खेतों ही का तो आसरा है, जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा।
ओंकारनाथ- नहीं, जरूर जोतो खेत तुम्हारे हैं। मैं तुमसे छोड़ने को नहीं कहता। हरखू ने उसे बीस साल तक जोता। उन पर तुम्हारा हक है। लेकिन तुम देखते हो, अब जमीन की दर कितनी बढ़ गई है। तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे दस रुपये मिल रहे हैं और नजराने के सौ अलग। तुम्हारे साथ रियासत करके लगान वही रखता हूँ, पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे।
गिरधारी- सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा ? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम में उठ गई। अनाज खलिहान में है। लेकिन दादा के बीमार हो जाने से उपज भी अच्छी नहीं हुई। रुपये कहाँ से लाऊँ ?
ओंकरानाथ- यह सच है, लेकिन मैं इससे ज्यादा रिआयत नहीं कर सकता।
गिरधारी-नहीं सरकार ! ऐसा न कहिए। नहीं तो हम बिना मारे मर जाएँगे। आप बड़े होकर कहते हैं, तो मैं बैल-बछिया बेचकर पचास रुपया ला सकता हूँ। इससे बेशी की हिम्मत मेरी नहीं पड़ती।
ओंकारनाथ चिढ़कर बोले- तुम समझते होगे कि हम ये रुपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंशी बजाते हैं। लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुजरती है, हम भी जानते हैं। कहीं यह चंदा, कहीं वह चंदा; कहीं यह नजर, कहीं वह नजर, कहीं यह इनाम, कहीं वह इनाम। इनके मारे कचूमर निकल जाता है। बड़े दिन में सैकड़ों रुपये डालियों में उड़ जाते हैं। जिसे डाली न दो, वही मुँह फुलाता है। जिन चीजों के लिए लड़के तरसकर रह जाते हैं, उन्हें बाहर से मँगवाकर डालियाँ सजाता हूँ। उस पर कभी कानूनगों आ गए, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया। सब मेरे मेहमान होते हैं। अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सबकी आँखों में काँटा बन जाऊँ। साल में हजार बारह सौ मोदी को इसी रसद-खुराक के मद में देने पड़ते हैं। यह सब कहाँ से आएँ ? बस, यही जी चाहता है कि छोड़कर चला जाऊँ। लेकिन हमें परमात्मा ने इसलिए बनाया है कि एक से रुपया सताकर लें और दूसरे को रो-रोकर दें, यही हमारा काम है। तुम्हारे साथ इतनी रियासत कर रहा हूँ। मगर तुम इतनी रियासत पर भी खुश नहीं होते तो हरि इच्छा। नज़राने में एक पैसे की भी रिआयत न होगी। अगर एक हफ्ते के अंदर रुपए दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं तो नहीं। मैं कोई दूसरा प्रबंध कर दूँगा।

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गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 100 रुपये का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था। सोचने लगा, अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही लेकर क्या करूँगा ? घर बेचूँ तो यहाँ लेने वाला ही कौन है ? और फिर बाप दादों का नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपये या 30 रुपये से अधिक न मिलेंगे। उधार लूँ तो देता कौन है ? अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़ हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं हैं, नहीं उन्हीं को बेचता। ले देकर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। साल-भर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती। खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती। हाय ! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रखीं, जिसकी मेड़ें बनायी, उसका मजा अब दूसरा उठाएगा।

वे खेत गिरधारी के जीवन का अंश हो गए थे। उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त में रँगी हुई थी। उनके एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो रहा था।
उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसो था, कोई बाईसो था, कोई नालबेला, कोई तलैयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था। वह इन खेतों की चर्चा इस, तरह करता, मानो वे सजीव हैं। मानो उसके भले-बुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मिठाइयाँ, सारे हवाई किले, इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे।

इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था। और वे ही सब हाथ से निकले जाते हैं। वह घबराकर घर से निकल जाता और घंटों खेतों की मेडों पर बैठा हुआ रोता, मानो उनसे विदा हो रहा है। इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बंदोबस्त न कर सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रुपये नजराने देकर 10 रुपये बीघे पर खेत ले लिये। गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली। एक क्षण के बाद वह अपने दादा का नाम लेकर बिलख-बिलखकर रोने लगा। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा मालूम होता था, मानो हरखू आज ही मरा है।

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लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी। और उसकी स्त्री को खूब लथेड़ा- कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं। देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है ? अपना और उसका लोहू एक कर दूँ। पड़ोसिन ने उसका पक्ष लिया, तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे ? सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चित्त बहुत शांत हो गया। किन्तु वही वायु, जो पानी में लहरे पैदा करती हैं, वृक्षों की जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती।
इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा ? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वार पर जाएँगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान को सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में धन न था, पर मान था। नाई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार ये सब उसका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ ? अब कौन उसकी बात पूछेगा ? कौन उसके द्वार आएगा ? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे, कौन बैलों को नाँद में लगाएगा। वह दिन अब कहां, जब गीत गाकर हल चलाता था। चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज का ढेर सामने रखे हुए अपने को राजा समझता था। अब अनाज को टोकरे भर-भरकर कौन लाएगा ? अब खेती कहाँ ? बखार कहाँ ?

यही सोचते-सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी। गाँव के दो-चार सज्जन, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुलकर न बोलता। उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नजरों में गिर गया हूँ।
अगर कोई समझता था कि तुमने क्रिया-कर्म में व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिये, तो उसे बहुत दु:ख होता। वह अपने उस काम पर जरा भी न पछताता। मेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है वह होगा, पर दादा के ऋण से तो उऋण हो गया; उन्होंने अपनी जिंदगी में चार को खिलाकर खाया। क्या मरने के पीछे उन्हें पिंडे-पानी को तरसाता ?
इस प्रकार तीन मास बीत गए और आषाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटाएँ आयीं, पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे। बढ़ई हलों की मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहर जाता, अपने हलों को निकाल देखता, इसकी मुठिया टूट गई है, इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है। देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा हुई बढ़ई के यहाँ गया और बोला- रज्जू, मेरे हाल भी बिगड़े हुए है, चलो बना दो। रज्जू ने उसकी ओर करुण-भाव से देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारी को होश आ गया, नींद से चौक पड़ा, ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आंखें भर आयीं। चुपचाप घर चला आया।

गाँव में चारों ओर हलचल मची हुई थी। कोई सन के बीज खोजता फिरता था, कोई जमींदार के चौपाल से धान के बीज लिये आता था, कहीं सलाह होती, किस खेत में क्या बोना चाहिए। गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था।

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एक दिन संध्या समय गिरधारी खड़ा अपने बैलों को खुजला रहा था कि मंगलसिंह आये और इधर-उधर की बातें करके बोले- गोई को बाँधकर कब तक खिलाओगे ? निकाल क्यों नहीं देते?
गिरधारी ने मलिन भाव से कहा-हाँ, कोई गाहक आये तो निकाल दूँ।
मंगलसिंह- एक गाहक तो हमीं हैं, हमीं को दे दो।
गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया आया और गरजकर बोला- गिरधारी ! तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं, वैसा कहो। तीन महीने से हील-हवाला करते चले आते हो। अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल को अगोरे बैठ रहें ?
गिरधारी ने दीनता से कहा-साह, जैसे इतने दिनों माने हो, आज और मान जाओ। कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा।
मंगल और तुलसी के इशारों से बातें की और तुलसी भुनभुनाता हुआ चला गया। तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला- तुम इन्हें ले लो, तो घर-के-घर ही में रह जाऊँ। कभी-कभी आँख से देख तो लिया करूँगा।
मंगलसिंह- मुझे अभी तो कोई ऐसा काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा।
गिरधारी- मुझे तुलसी के रुपये देने है, नहीं तो खिलाने को तो भूसा है।
मंगलसिंह- यह बड़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दे।
सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया। कार्यकुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का अच्छा सुअवसर मिला। 80 रुपये की जोड़ी 60 रुपये में ठीक कर ली।
गिरधारी ने अब तक बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह ! ये मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले, जिनके लिए पहर रात से उठकर छांटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिन्ता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा दिन-भर हरियाली उखाड़ा करता था, ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों के दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं।

जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया। जैसा कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी दालान में पड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था !
रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया। चारपाई पर पड़ा रहा। प्रात:काल सुभागी चिलम भरकर ले गयी, तो वह चारपाई पर न था। उसने समझा, कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा, तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँव के लोग जमा हो गए, चारों ओर खोज होने लगी, पर गिरधारी का पता न चला।

6

संध्या हो गई थी। अँधेरा छा रहा था। सुभागी ने दिया जलाकर गिरधारी ने सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वार की ओर तार रही थी कि सहसा उसे पैरों की आहट मालूम हुई। सुभागी का हृदय धड़क उठा। वह दौड़कर बाहर आयी इधर-उधर ताकने लगी। उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाँद के पास सिर झुकाएँ खड़ा है।
सुभागी बोल उठी- घर आओ, वहाँ खड़े क्या कर रहे हो, आज सारे दिन कहाँ रहे ?
यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली। गिरधारी ने कुछ उत्तर न दिया। वह पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर गायब हो गया। सुभागी चिल्लायी और मूर्च्छित होकर गिर पड़ी।
दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने नए खेत पर पहुँचे, अभी कुछ अँधेरा था। वह बैलों को हल में लगा रहे थे कि यकायक उन्होंने देखा कि गिरधारी खेत की मेड़ पर खड़ा है। वही, मिर्जई, वही पगड़ी, वही सोंटा।
कालिकादीन ने कहा- अरे गिरधारी ! मरदे आदमी, तुम यहाँ खड़े हो, और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है। कहाँ से आ रहे हो ?
यह कहते हुए बैलों को छोड़कर गिरधारी की ओर चले। गिरधारी पीछे हटने लगा और पीछेवाले कुएँ में कूँद पड़ा। कालिकादीन ने चीखमारी और हल-बैल वहीं छोड़कर भागा। सारे गाँव में शोर मच गया, लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करने लगे ! कालिकादीन को गिरधारी वाले खेतों में जाने की हिम्मत न पड़ी।
गिरधारी को गायब हुए छ: महीने बीत चुके हैं। उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्टे पर काम करता है और 20 रुपये महीना घर आता है। अब वह कमीज और अँगरेजी जूता पहनता है, घर में दोनों जून तरकारी पकती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है, लेकिन गाँव में उसका कुछ भी आदर नहीं। अब वह मजूर है। सुभागी अब पराये गाँव में आये कुत्ते की भाँति दबकती फिरती है। वह अब पंचायत में भी नहीं बैठती, वह अब मजदूर की माँ है।

कालिकादीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफा दे दिया है, क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ मँडराया करता है। अँधेरा होते ही वह मेंड़ पर आकर बैठ जाता है और कभी-कभी रात को उधर से उसके रोने की आवाज सुनाई देती है। वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं। उसे केवल अपने खेतों को देखकर संतोष होता है। दीया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है।
लाला ओंकारनाथ बहुत चाहते हैं कि ये खेत उठ जाएँ, लेकिन गाँव के लोग उन खेतों का नाम लेते डरते हैं।


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पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी तो कर ली थी, किन्तु सदा पछताया करते थे कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे। यदि किसी अन्य विभाग में नौकर होते, तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। यहाँ तो महीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं। वह भी इधर आये, उधर गायब। न खाने का सुख, पहनने का आराम। हमसे तो मजूर ही भले।
पंडितजी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे। एक ठाकुर अतिबलसिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में सियाहे-नवीस थे। इन दोनों आदमियों का वेतन पंडितजी से कुछ अधिक न था, तब भी उनकी चैन से गुजरती थी। संध्या को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते। दोनों आदमियों के पास टहलुवे थे। घर में कुर्सियाँ, मेजें, फर्श आदि सामग्रियाँ मौजूद थीं। ठाकुर साहब शाम को आराम-कुर्सी पर लेट जाते और खुशबूदार खमीरा पीते। मुंशीजी को शराब-कवाब का व्यसन था। अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए बोतल-की-बोतल साफ कर देते। जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते, सारे मुहल्ले में रोबदाब था। उन दोनों महाशयों को आता देखकर बनिये उठकर सलाम करते। उनके लिए बाजार में अलग भाव था। चार पैसे सेर की चीज टके में लाते। लकड़ी-ईधन मुफ्त में मिलता।

पंडितजी उनके इस ठाट-बाट देखकर कुढ़ते और अपने भाग्य कोसते। वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वी का साधारण पहाड़ों का भी ज्ञान न था, तिस पर भी ईश्नवर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी। यह लोग पंडितजी पर बड़ी कृपा रखते थे। कभी सेर आध सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी सी तरकारियाँ किन्तु इनके बदले में पंडितजी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती। ठाकुर साहब कहते पंडितजी ! यह लड़के हर घड़ी खेला करते हैं, जरा इनकी खबर लेते रहिए। मुंशीजी कहते- यह लड़के आवारा हुए जाते हैं। जरा इनका खयाल रखिए। यह बातें बड़ी अनुग्रहपूर्ण रीति से कही जाती थीं, मानो पंडितजी उनके गुलाम हैं। पंडितजी को यह व्यवहार असह्य लगता था, किन्तु इन लोगों को नाराज करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी अचार-चटनी चख लेते। केवल इतना ही नहीं, बाजार से चीजें भी सस्ती लाते। इसलिए बेचारे इस अनीति को विष की घूँट के समान पीते।

इस दुरवस्था से निकलने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े यत्न किए थे। प्रार्थनापत्र लिखे, अफसरों की खुशामदें कीं, पर आशा न पूरी हुई। अंत में हारकर बैठ रहे। हाँ, इतना था कि अपने काम में त्रुटि न होने देते। ठीक समय पर जाते, देर कर के आते, मन लगाकर पढ़ाते। इससे उनके अफसर लोग खुश थे। साल में कुछ इनाम देते और वेतन-वृद्धि का जब कभी अवसर आता, उनका विशेष ध्यान रखते। परन्तु इस विभाग की वेतन-वृद्धि ऊसर की खेती है। बड़े भाग्य से हाथ लगती है। बस्ती के लोग उनसे संतुष्ट थे, लड़कों की संख्या बढ़ गई थी और पाठशाला के लड़के तो उन पर जान देते थे। कोई उनके घर आकर पानी भर देता,कोई उनकी बकरी के लिए पत्ती तोड़ लाता। पंडितजी इसी को बहुत समझते थे।

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एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबलसिंह ने श्रीअयोध्याजी की यात्रा की सलाह की। दूर की यात्रा थी। हफ्तों पहले से तैयारियाँ होने लगीं। बरसात के दिन, सपरिवार जाने में अड़चन थी। किन्तु स्त्रियाँ किसी भाँति न मानती थीं। अंत में विवश होकर दोनों महाशयों ने एक-एक सप्ताह की छुट्टी ली और अयोध्याजी चले। पंडितजी को भी साथ चलने के लिए बाध्य किया। मेले ठेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम निकलते हैं। पंडितजी असमंजस में पड़े, परन्तु जब उन लोगों ने उनका व्यय देना स्वीकार किया तो इनकार न कर सके और अयोध्याजी की यात्रा का ऐसा सुअवसर पा कर न रुक सके।

बिल्हौर से एक बजे रात को गाड़ी छूटती थी। यह लोग खा-पीकर स्टेशन पर आ बैठे। जिस समय गाड़ी आयी, चारों और भगदड़-सी पड़ गई। हजारों यात्री जा रहे थे। उस उतावली में मुंशीजी पहले निकल गये। पंडितजी और ठाकुर साहब साथ थे। एक कमरे में बैठे। इस आफत में कौन किसका रास्ता देखता है।
गाड़ियों में जगह की बड़ी कमी थी, परन्तु जिस कमरे में ठाकुर साहब थे, उसमें केवल चार मनुष्य थे। वह सब लेटे हुए थे। ठाकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जायँ तो जगह निकल आये। उन्होंने एक मनुष्य से डाँटकर कहा-उठ बैठो जी देखते नहीं, हम लोग खड़े हैं।
मुसाफिर लेटे-लेटे बोला- क्यों उठ बैठे जी ? कुछ तुम्हारे बैठने का ठेका लिया है?
ठाकुर- क्या हमने किराया नहीं दिया है ?
मुसाफिर- जिसे किराया दिया हो, उसे जाकर जगह माँगो।
ठाकुर- जरा होश की बातें करो। इस डब्बे में दस यात्रियों की आज्ञा है।
मुसाफिर- यह थाना नहीं है, जरा जबान सँभालकर बातें कीजिए।
ठाकुर- तुम कौन हो जी ?
मुसाफिर- हम वही हैं, जिस पर आपने खुफिया-फरोशी का अपराध लगाया था जिसके द्वार से आप नकद 25 रु. लेकर टले थे।
ठाकुर- अहा ! अब पहचाना। परन्तु मैंने तो तुम्हारे साथ रिआयत की थी। चालान कर देता तो तुम सजा पा जाते।
मुसाफिर- और मैंने भी तो तुम्हारे साथ रिआयत की गाड़ी में खड़ा रहने दिया। ढकेल देता तो तुम नीचे चले जाते और तुम्हारी हड्डी-पसली का पता न लगता।
इतने में दूसरा लेटा हुआ यात्री जोर से ठट्टा मारकर हँसा और बोला- क्यों दरोगा साहब, मुझे क्यों नहीं उठाते ?
ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे। सोचते थे, अगर थाने में होता हो इनकी जबान खींच लेता, पर इस समय बुरे फँसे थे। वह बलवान मनुष्य थे, पर यह दोनों मनुष्य भी हट्टे-कट्टे पड़ते थे।
ठाकुर- संदूक नीचे रख दो, बस जगह हो जाय।
दूसरा मुसाफिर बोला- और आप ही क्यों न नीचे बैठ जाएँ। इसमें कौन-सी हेठी हुई जाती है। यह थाना थोड़े ही है कि आपके रोब में फर्क पड़ जाएगा।
ठाकुर साहब ने उसकी ओर भी ध्यान से देखकर पूछा- क्या तुम्हें भी मुझसे कोई बैर है?
‘जी हाँ, मैं तो आपके खून का प्यासा हूँ।’
‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, तुम्हारी तो सूरत भी नहीं देखी।’
दूसरा मुसाफिर- आपने मेरी सूरत न देखी होगी, पर आपकी मैंने देखी है। इसी कल के मेले में आपने मुझे कई डंडे लगाए, मैं चुपचाप तमाशा देखता था, पर आपने आकर मेरा कचूमर निकाल लिया। मैं चुपचाप रह गया, पर घाव दिल पर लगा हुआ है ! आज उसकी दवा मिलेगी।

यह कहकर उसने और भी पाँव फैला दिये और क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगा। पंडितजी अब तक चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मारपीट न हो जाय। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्योंही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहाँ से निकालकर दूसरे कमरे में बैठाया। इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठा-उठाकर जमीन पर फेंक दिया। जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे, तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफार्म पर गिर पड़े। गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजन ने सीटी दी। जाकर गाड़ी में बैठ गए।

3

उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुजरी। जरा पैर फैलाने की जगह न थी। आज उन्होंने जेब में बोतल भरकर रख ली थी ! प्रत्येक स्टेशन पर कोयला-पानी ले लेते थे। फल यह हुआ कि पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ गया। एक बार उल्टी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़े मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने को भी जगह न थी। लखनऊ तक तो उन्होंने किसी प्रकार जब्त किया। आगे चलकर विवश हो गए। एक स्टेशन पर उतर पड़े। खड़े न हो सकते थे। प्लेटफार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा, पर जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गई। गाड़ी चल दी। दरोगा जी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े। समझ गए कि हजरत आज ज्यादा चढ़ा गए। देखा तो मुंशी जी की दशा बिगड़ गई थी। ज्वर, पेट में दर्द, नसों में तनाव, कै और दस्त। बड़ा खटका हुआ। स्टेशन मास्टर ने यह दशा देखी तो समझा, हैजा हो गया है। हुक्म दिया कि रोगी को अभी बाहर ले जाओ। विवश होकर मुंशीजी को लोग एक पेड़ के नीचे उठा लाये। उनकी पत्नी रोने लगीं। हकीम डाक्टर की तलाश हुई। पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ से वहाँ एक छोटा-सा अस्पताल है। लोगों की जान में जान आयी। किसी से यह भी मालूम हुआ कि डाक्टर साहब बिल्हौर के रहने वाले हैं। ढांढस बँधा। दरोगाजी अस्पताल दौड़े। डाक्टर साहब से सारा समाचार कह सुनाया और कहा- आप चलकर जरा उन्हें देख तो लीजिए।

डॉक्टर का नाम था चोखेलाल। कम्पौंडर थे, लोग आदर से डाक्टर कहा करते थे। सब वृत्तांत सुनकर रुखाई से बोले- सबेरे के समय मुझे बाहर जाने की आज्ञा नहीं है।
दरोगा- तो क्या मुंशीजी को यहीं लायें ?
चोखेलाल- हाँ, आपका जी चाहे लाइए।
दरोगाजी ने दौड़-धूपकर एक डोली का प्रबंध किया। मुंशीजी को लादकर अस्पताल लाये। ज्यों ही बरामदे में पैर रखा, चोखेलाल ने डाँटकर कहा- हैजे (विसूचिका) को रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा नहीं है।
बैजनाथ अचेत तो थे नहीं, आवाज सुनी, पहचाना। धीरे से बोले- अरे, यह तो बिल्हौर के ही हैं; भला-सा नाम है तहसील में आया-जाया करते हैं। क्यों महाशय ! मुझे पहचानते हैं ?
चोखेलाल- जी हाँ, खूब पहचानता हूँ।
बैजनाथ- पहचानकर भी इतनी निठुरता। मेरी जान निकल रही है। जरा देखिए, मुझे क्या हो गया ?
चोखेलाल-हाँ, यह सब कर दूँगा और मेरा काम ही क्या है ! फीस ?
दरोगाजी- अस्पताल में कैसी फीस जनाबमन ?
चोखेलाल- वैसी ही जैसी इन मुंशीजी ने वसूल की थी जनाबमन।
दरोगा- आप क्या कहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता।
चोखेलाल- मेरा घर बिल्हौर में है। वहाँ मेरी थोड़ी-सी जमीन है। साल में दो बार उसकी देख-भाल के लिए जाना पड़ता है। जब तहसील में लगान दाखिल करने जाता हूँ, तो मुंशीजी डांटकर अपना हक वसूल लेते हैं। न दूँ तो शाम तक खड़ा रहना पड़े। स्याहा न हो। फिर जनाब, कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। मेरी फीस दस रुपये निकालिए। देखूँ, दवा दूँ, नहीं तो अपनी राह लीजिए।

दारोगा- दस रुपये !!
चोखेलाल-जी हाँ, और यहाँ ठहरना चाहें तो दस रुपये रोज।
दरोगाजी विवश हो गए। बैजनाथ की स्त्री से दस रुपये माँगे। तब उसे अपने बक्स की याद आयी। छाती पीट ली। दरोगाजी के पास भी अधिक रुपये नहीं थे, किसी तरह दस रुपये निकालकर चोखेलाल को दिये। उन्होंने दवा दी। दिन-भर कुछ फायदा न हुआ। रात को दशा सँभली। दूसरे दिन फिर दवा की आवश्यकता हुई। मुंशियाइन का एक गहना जो 20 रु. से कम का न था, बाजार में बेचा गया, तब काम चला। चोखेलाल को दिल में खूब गालियाँ दीं।

4

श्री अयोध्याजी में पहुँचकर स्थान की खोज हुई। पंडों के घर जगह न थी। घर-घर में आदमी भरे हुए थे। सारी बस्ती छान मारी, पर कहीं ठिकाना न मिला। अंत में यह निश्चय हुआ कि किसी पेड़ के नीचे डेरा जमाना चाहिए। किन्तु जिस पेड़ के नीचे जाते थे, वहीं यात्री पड़े मिलते। सिवाय खुले मैदान में रेत पर पड़े रहने के और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देखकर बिस्तरे बिछाए और लेटे। इतने में बादल घिर आये। बूंदें घिरने लगीं। बिजली चमकने लगी। गरज से कान के परदे फटे जाते थे। लड़के रोते थे, स्त्रियों के कलेजे काँप रहे थे। अब यहाँ ठहरना दुस्सह था, पर जाय कहाँ ?

अकस्मात् एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन लिये आता दिखाई दिया। वह निकट पहुँचा तो पंडितजी ने उसे देखा। आकृति कुछ पहचानी हुई मालूम हुई, किन्तु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है। पास जाकर बोले- क्यों भाई साहब ! यहाँ यात्रियों के रहने की जगह न मिलेगी ? वह मनुष्य रुक गया। पंडितजी की ओर ध्यान से देखकर बोला- आप पंडित चन्द्रधर तो नहीं है ?
पंडित प्रसन्न होकर बोले- जी हाँ। आप मुझे कैसे जानते हैं ?
उस मनुष्य ने सादर पंडितजी के चरण छुए और बोला- मैं आपका पुराना शिष्य हूँ। मेरा नाम कृपाशंकर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिलेहौर में डाक मुंशी रहे थे। उन्हीं दिनों मैं आपकी सेवा में पढ़ता था।
पंडितजी की स्मृति जागी : बोले- ओ हो, तुम्हीं हो कृपाशंकर। तब तो तुम दुबले-पतले लड़के थे, कोई आठ नौ साल हुए होगे।
कृपाशंकर- जी हाँ, नवाँ साल है। मैंने वहाँ से आकर इंट्रेंस पास किया। अब यहाँ म्युनिसिपैलिटी में नौकर हूँ। कहिए आप तो अच्छी तरह रहे ? सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गए।
पंडितजी- मुझे भी तुमसे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ। तुम्हारे पिता अब कहाँ हैं?
कृपाशंकर- उनका तो देहान्त हो गया। माताजी है। आप यहाँ कब आये ?
पंडितजी- आज ही आया हूँ। पंडों के घर जगह न मिली ! विवश हो यही रात काटने की ठहरी।
कृपाशंकर- बाल-बच्चे भी साथ हैं ?
पंडितजी- नहीं, मैं तो अकेला ही आया हूँ, पर मेरे साथ दरोगाजी और सियाहेनवील साहब हैं- उनके बाल-बच्चे भी साथ हैं।
कृपाशंकर- कुल कितने मनुष्य होंगे ?
पंडितजी- हैं तो दस, किन्तु थोड़ी सी जगह में निर्वाह कर लेंगे।
कृपाशंकर- नहीं साहब, बहुत-सी जगह लीजिए। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है। चलिए, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए। मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला।

कृपाशंकर ने कुली बुलाए। असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया। साफ-सुथरा घर था। नौकर ने चटपट चारपाइयाँ बिछा दीं। घर में पूरियाँ पकने लगीं। कृपाशंकर हाथ बाँधे सेवक की भाँति दौड़ता था। हृदयोल्लास से उसका मुख-कमल चमक रहा था। उसकी विनय और नम्रता से सबको मुग्ध कर लिया।
और सब लोग तो खा-पीकर सोए, किन्तु पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आई। उनकी विचार-शक्ति इस यात्रा की घटनाओं का उल्लेख कर रही थी। रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहृदयता और शालीनता प्रकाशमय दिखायी देती थी। पंडितजी ने आज शिक्षक का गौरव समझा। उन्हें आज इस पद की महानता ज्ञात हुई।
यह लोग तीन दिन अयोध्या रहे। किसी बात का कष्ट न हुआ कृपाशंकर ने उनके साथ धाम का दर्शन कराया।
तीसरे दिन जब लोग चलने लगे, तो वह स्टेशन तक पहुँचाने आया। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो उसने सजल नेत्रों से पंडितजी के चरण छुए और और बोला- कभी-कभी इस सेवक को याद करते रहिएगा।
पंडितजी घर पहुँचे तो उनके स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया था। उन्होंने फिर किसी दूसरे विभाग में जाने की चेष्टा नहीं की।

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सच्चाई का उपहार

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सच्चाई का उपहार

तहसीली मदरसा बराँव के प्रथमाध्यापक मुंशी भवानीसहाय को बागवानी का कुछ व्यसन था। क्यारियों में भाँति-भाँति के फूल और पत्तियाँ लगा रखी थीं। दरवाजों पर लताएँ चढ़ा दी थीं। इससे मदरसे की शोभा अधिक हो गई थी। वह मिडिल कक्षा के लड़कों से भी अपने बगीचे के सींचने और साफ करने में मदद लिया करते थे। अधिकांश लड़के इस काम को रुचि पूर्वक करते। इससे उनका मनोरंजन होता था किंतु दरजे में चार-पाँच लड़के जमींदारों के थे। उनमें ऐसी दुर्जनता थी कि यह मनोरंजक कार्य भी उन्हें बेगार प्रतीत होता। उन्होंने बाल्यकाल से आलस्य में जीवन व्यतीत किया था। अमीरी का झूठा अभिमान दिल में भरा हुआ था। वह हाथ से कोई काम करना निंदा की बात समझते थे। उन्हें इस बगीचे से घृणा थी। जब उनके काम करने की बारी आती, तो कोई-न-कोई बहाना करके उड़ जाते। इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को बहकाते और कहते, वाह ! पढ़ें फारसी, बेचें तेल ! यदि खुरपी-कुदाल ही करना है, तो मदरसे में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत ? यहाँ पढ़ने आते हैं, कुछ मजूरी करने नहीं आते। मुंशीजी इस अवज्ञा के लिए उन्हें कभी-कभी दंड दे देते थे। इससे उनका द्वेष और भी बढ़ता था। अंत में यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक दिन उन लड़कों ने सलाह करके उस पुष्पवाटिका को विध्वंस करने का निश्चय किया।

दस बजे मदरसा लगता था, किन्तु उस दिन वह आठ बजे ही आ गये और बगीचे में घुसकर उसे उजाड़ने लगे। कहीं पौधे उखाड़ फेंके कहीं क्यारियों को रौंद डाला, पानी की नीलियाँ तोड़ डालीं, क्यारियों की मेड़ें खोद डाली। मारे भय के छाती धड़क रही थी कि कहीं कोई देखता न हो। लेकिन एक छोटी सी फुलवाड़ी के उजड़ते कितनी देर लगती है ? दस मिनट में हरा-भरा बाग नष्ट हो गया। तब यह लड़के शीघ्रता से निकले, लेकिन दरवाजे तक आए थे कि उन्हें अपने सहपाठी की सूरत दिखाई दी। यह एक-दुबला-पतला, दरिद्र और चतुर लड़का था। उसका नाम बाजबहादुर था। बड़ा गम्भीर, शांत लड़का था। ऊधम पार्टी के लड़के उससे जलते थे। उसे देखते ही उनका रक्त सूख गया। विश्वास हो गया कि इसने जरूर देख लिया। यह मुंशीजी से कहे बिना न रहेगा। बुरे फँसे। आज कुशल नहीं है। यह राक्षस इस समय यहाँ क्या करने आया था ? आपस में इशारे हुए कि मिला लेना चाहिए। जगतसिंह उनका मुखिया था। आगे बढ़कर बोला—आज इतने सबेरे कैसे आ गए ? हमने तो आज तुमलोगों के गले की फाँसी छुड़ा दी। लाला बहुत दिक किया करते थे, यह करो, वह करो। मगर यार देखो, कहीं मुंशीजी से जड़ मत देना, नहीं तो लेने के देने पड़ जायँगे।

जयराम ने कहा—कह क्या देंगे, अपने ही तो हैं। हमने जो कुछ किया है, वह सबके लिए किया है, केवल अपनी ही भलाई के लिए नहीं। चलो यार, तुम्हें बाजार की सैर करा दें, मुँह मीठा करा दें।
बाजबहादुर ने कहा—नहीं, मुझे आज घर पर पाठ याद करने का अवकाश नहीं मिला। यहीं बैठकर पढ़ूंगा।
जगतसिंह—अच्छा, मुंशीजी से कहोगे तो न ?
बाजबहादुर—मैं स्वयं कुछ न कहूँगा, लेकिन उन्होंने मुझसे पूछा तो ?
जगतसिंह—कह देना, मुझे नहीं मालूम।
बाजबहादुर—यह झूठ मुझसे न बोला जाएगा।
जयराम—अगर तुमने चुगली खायी और हमारे ऊपर मार पड़ी, तो हम तुम्हें पीटे बिना न छोड़ेंगे।
बाजबहादुर—हमने कह दिया कि चुगली न खायँगे लेकिन मुंशीजी ने पूछा, तो झूठ भी न बोलेंगे।
जयराम—तो हम तुम्हारी हड्डियाँ भी तोड़ देंगे।
बाजबहादुर—इसका तुम्हें अधिकार है।

2

दस बजे जब मदरसा लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग की यह दुर्दशा देखी तो क्रोध से आग हो गए। बाग उजड़ने का इतना खेद न था, जितना लड़कों की शरारत का। यदि किसी साँड़ ने यह दुष्कृत्य किया होता, तो वह केवल हाथ मलकर रह जाते। किंतु लड़कों के इस अत्याचार को सहन न कर सके। ज्यों ही लड़के दरजे में बैठ गए, वह तेवर बदले हुए आए और पूछा—यह बाग किसने उजाड़ा है ?
कमरे में सन्नाटा छा गया। अपराधियों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मिडिल कक्षा के 25 विद्यार्थियों में कोई ऐसा न था, जो इस घटना को न जानता हो किंतु किसी में यह साहस न था कि उठकर साफ-साफ कह दे। सबके-सब सिर झुकाए मौन धारण किए बैठे थे।
मुंशीजी का क्रोध और भी प्रचंड हुआ। चिल्लाकर बोले—मुझे विश्वास है कि यह तुम्हीं लोगों में से किसी की शरारत है। जिसे मालूम हो, स्पष्ट कह दे, नहीं तो मैं एक सिरे से पीटना शुरू करूँगा, फिर कोई यह न कहे कि हम निरपराध मारे गए।
एक लड़का भी न बोला। वही सन्नाटा ! मुंशीजी—देवीप्रसाद, तुम जानते हो ?
देवी—जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।
‘शिवदत्त, तुम जानते हो ?’
‘जी नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम।’
‘बाजबहादुर, तुम कभी झूठ नहीं बोलते, तुम्हें मालूम है ?’
बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके मुख-मंडल पर वीरत्व का प्रकाश था। नेत्रों में साहस झलक रहा था। बोला-जी हाँ !
मुंशीजी ने कहा—शाबाश!
अपराधियों ने बाजबहादुर की ओर रक्तवर्ण आँखों से देखा और मन में कहा—अच्छा !

3

भवानीसहाय बड़े धैर्यवान मनुष्य थे। यथाशक्ति लड़कों को यातना नहीं देते थे, किन्तु ऐसी दुष्टता का दंड देने में वह लेश-मात्र भी दया न दिखाते थे। छड़ी मँगाकर पाँचों अपराधियों को दस-दस छड़ियाँ लगायीं, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रजिस्टर में उनके नाम के सामने काले चिह्न बना दिए।
बाजबहादुर से शरारत पार्टी वाले लड़के यों ही जला करते थे, आज उसकी सचाई के कारण उसके खून के प्यासे हो गए। यंत्रणा में सहानुभूति पैदा करने की शक्ति होती है। इस समय दरजे के अधिकांश लड़के अपराधियों के मित्र हो रहे थे। उनमें षड्यंत्र रचा जाने लगा कि आज बाजबहादुर की खबर ली जाय। ऐसा मारो कि फिर मदरसे में मुँह न दिखाए। यह हमारे घर का भेदी है।

दगाबाज ! बड़ा सच्चे की दुम बना है ! आज इस सचाई का हाल मालूम हो जायगा। बेचारे बाजबहादुर को इस गुप्त लीला की जरा भी खबर न थी। विद्रोहियों ने उसे अंधकार में रखने का पूरा यत्न किया था।
छुट्टी होने के बाद बाजबहादुर घर की तरफ चला। रास्ते में एक अमरूद का बाग था। वहां जगतसिंह और जयराम कई लडकों के साथ खड़े थे। बाजबहादुर चौंका, समझ गया कि यह लोग मुझे छेड़ने पर उतारू हैं। किंतु बचने का कोई उपाय न था। कुछ हिचकता हुआ आगे बढ़ा। जगत सिंह बोला—आओ लाला ! बहुत राह दिखायी! आओ, सचाई का इनाम लेते जाओ।
बाजबहादुर—रास्ते से हट जाओ, मुझे जाने दो।
जयराम—जरा सचाई का मजा तो चखते जाइए।
बाजबहादुर—मैंने तुमसे कह दिया कि जब मेरा नाम लेकर पूछेंगे तो मैं कह दूँगा।
जयराम—हमने भी तो कह दिया था कि तुम्हें इस काम का इनाम दिये बिना न छोड़ेंगे।
यह कहते ही वह बाजबहादुर की तरफ घूँसा तानकर बढ़ा। जगत सिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़ने चाहे। जयराम का छोटा भाई शिवराम अमरूद की एक टहनी लेकर झपटा। शेष लड़के चारों तरफ खड़े होकर तमाशा देखने लगे यह ‘रिजर्व’ सेना थी, जो आवश्यकता पड़ने पर मित्र-दल की सहायता के लिए तैयार थी। बाजबहादुर दुर्बल लड़का था। उसकी मरम्मत करने को वह तीन मजबूत लड़के काफी थे। सब लोग यही समझ रहे थे कि क्षण-भर में यह तीनों उसे गिरा लेंगे। बाजबहादुर ने देखा कि शत्रुओं ने शस्त्र-प्रहार करना शुरू कर दिया, तो उसने कनखियों से इधर-उधर देखा। तब तेजी से झपटकर शिवराम के हाथ से अमरूद की टहनी छीन ली और दो कदम पीछे हटकर टहनी ताने हुए बोला—तुम मुझे सचाई का इनाम या, सजा देनेवाले कौन होते हो ?

दोनों ओर से दाँव पेंच होंने लगे। बाजबहादुर था तो कमजोर, पर अत्यंत चपल और सतर्क था, उस पर सत्य का विश्वास हृदय को और भी बलवान बनाए हुए था। सत्य चाहे सिर कटा दे, लेकिन कदम पीछे नहीं हटता। कई मिनट तक बाजबहादुर उछल-उछलकर वार करता और हटाता रहा। लेकिन अमरूद की टहनी कहाँ तक थाम सकती। जरा देर में उसकी धज्जियाँ उड़ गईं। जब तक उसके हाथ में वह हरी तलवार रही कोई उसके निकट आने की हिम्मत न करता था। निहत्था होने पर भी वह ठोकरो और घूँसों से जबाव देता रहा। मगर अंत में अधिक संख्या ने विजय पायी। बाजबहादुर की पसली में जयराम का एक घूंसा ऐसा पड़ा कि वह बेदम होकर गिर पड़ा। आँखें पथरा गईं और मूर्च्छा-सी आ गई। शत्रुओं ने यह दशा देखी, तो उनके हाथों के तोते उड़ गए। समझे, इसकी जान निकल गई। बेतहाशा भागे।

4

कोई दस मिनट के पीछे बाजबहादुर सचेत हुआ। कलेजे पर चोट लग गई थी। घाव ओछा पड़ा था, जिस पर भी खड़े होने की शक्ति न थी। साहस करके उठा और लँगड़ाता हुआ घर की ओर चला।
उधर यह विजयीदल भागते-भागते जयराम के मकान पर पहुँचा। रास्ते ही में सारा दल तितर-बितर हो गया। कोई इधर से निकल भागा, कोई उधर से, कठिन समस्या आ पड़ी थी। जयराम के घर तक केवल तीन सुदृढ़ लड़के पहुँचे।व हाँ पहुँचकर उनकी जान में जान आयी।
जयराम—कहीं मर न गया हो, मेरा घूँसा खूब बैठ गया था।
जगतसिंह तुम्हें पसली में नहीं मारना चाहिए था। अगर तिल्ली फट गई होगी तो न बचेगा !
जयराम— यार, मैंने जान के थोड़े ही मारा था। संयोग ही था। अब बताओ, क्या किया जाए ?
जगतसिंह— करना क्या है, चुपचाप बैठे रहो।
जयराम— कहीं मैं अकेला तो न फसूंगा ?
जगतसिंह— अकेले कौन फँसेगा, सबके सब साथ चलेंगे।
जयराम— अगर बाजबहादुर मरा नहीं है, तो उठकर सीधे मुंशीजी के पास जाएगा!
जगतसिंह— और मुंशीजी कल हम लोगों की खाल अवश्य उधेड़ेंगे।
जयराम— इसलिए मेरा सलाह है कि कल से मदरसे जाओ ही नहीं। नाम कटा के दूसरी जगह चले चलें, नहीं तो बीमारी का बहाना करके बैठे रहें। महीने-दो-महीने के बाद जब मामला ठंडा पड़ जाएगा, तो देखा जाएगा।
शिवराम— और जो परीक्षा होनेवाली है ?
जयराम— ओ हो ! इसका तो खयाल ही न था। एक ही महीना तो और रह गया है।
जगतसिंह तुम्हें अबकी जरूर वजीफा मिलता।
जयराम— हां, मैंने बहुत परिश्रम किया था। तो फिर ?
जगतसिंह— कुछ नहीं, तरक्की तो हो ही जाएगी। वजीफे से हाथ धोना पड़ेगा। जयराम— बाजबहादुर के हाथ लग जाएगा।
जगतसिंह— बहुत अच्छा होगा, बेचारे ने मार भी तो खायी है।
दूसरे दिन मदरसा लगा। जगतसिंह, जयराम और शिवराम तीनों गायब थे। वलीमुहम्मद पैर में पट्टी बाँध आये थे, लेकिन भय के मारे बुरा हाल था। कल के दर्शकगण भी थरथरा रहे थे कि कहीं हम लोग गेहूँ के साथ घुन की तरह न पिस जायँ। बाजबहादुर नियमानुसार अपने काम में लगा हुआ था। ऐसा मालूम होता था कि मानो उसे कल की बातें याद ही नहीं है। किसी से उनकी चर्चा न की। हां, आज वह अपने स्वभाव के प्रतिकूल कुछ प्रसन्नचित्त देख पड़ता था। विशेषतः कल के योद्धाओं से वह अधिक हिला-मिला हुआ था। वह चाहता था कि यह लोग मेरी ओर से निःशंक हो जायँ। रात-भर की विवेचना के पश्चात् उसने यही निश्चय किया था और आज जब संध्या समय वह घर चला, तो उसे अपनी उदारता का फल मिल चुका था। उसके शत्रु लज्जित थे और उसकी प्रशंसा करते थे।

मगर यह तीनों अपराधी दूसरे दिन भी न आये, तीसरे दिन भी उनका कोई पता न था। वह घर से मदरसे को चलते, लेकिन देहात की तरफ निकल जाते। वहाँ दिन-भर किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहते, अथवा गुल्ली-डंडे खेलते। शाम को घर चले आते।
उन्होंने यह पता लगा लिया था कि समर के अन्य सभी योद्धागण मदरसे आते हैं और मुंशीजी उनसे कुछ नहीं बोलते, किन्तु चित्त से शंका दूर न होती थी। बाजबहादुर ने जरूर कहा होगा। हम लोगों के जाने की देर है। गये और बेभाव की पड़ी। यही सोचकर मदरसे आने का साहस न कर सकते थे।

5

चौथे दिन प्रातःकाल तीनों अपराधी बैठे सोच रहे थे कि आज किधर चलना चाहिए। इतने में बाजबहादुर आता हुआ दिखाई दिया। इन लोगों को आश्चर्य तो हुआ, परन्तु उसे अपने द्वार पर आते देखकर कुछ आशा बंध गई। यह लोग अभी बोलने भी न पाए थे कि बाजबहादुर ने कहा—क्यों मि. तुम लोग मदरसे क्यों नहीं आते ? तीनदिन से गैरहाजिरी हो रही है।
जगतसिंह— मदरसे क्या जायँ, जान भारी पड़ी है ? मुंशी जी एक हड्डी भी तो न छोड़ेंगे।
बाजबहादुर— क्यों, वलीमुहम्मद, दुर्गा, सभी तो जाते हैं। मुंशी जी ने किसी से भी कुछ कहा ?
जयराम— तुमने उन लोगों को छोड़ दिया होगा, लेकिन हमें भला तुम क्यों छोड़ने लगे ? तुमने एक-एक की तीन-तीन जड़ी होगी।
बाजबहादुर— आज मदरसे चलकर इसकी परीक्षा ही कर लो।
जगतसिंह— यह झाँसे रहने दीजिए। हमें पिटवाने की चाल है।
बाजबहादुर— तो मैं कहीं भागा तो नहीं जाता ? उस दिन सचाई की सजा दी थी, आज झूठ का इनाम देना।
जयराम— सच कहते हो, तुमने शिकायत नहीं की ?
बाजबहादुर— शिकायत की कौन बात थी। तुमने मुझे मारा, मैंने तुम्हें मारा। अगर तुम्हारा घूंसा न पड़ता, तो मैं तुम लोगों को रणक्षेत्र से भगाकर दम लेता। आपस के झगड़ों की शिकायत करना मेरी आदत नहीं है।
जगतसिंह— चलूँ तो यार, लेकिन विश्वास नहीं आता, तुम हमें झाँसे दे रहे हो, कचूमर निकलवा लोगे।
बाजबहादुर— तुम जानते हो, झूठ बोलने की मेरी बान नहीं है।
यह शब्द बाजबहादुर ने ऐसी विश्वासोत्पादक रीति से कहे कि उन लोगों का भ्रम दूर हो गया। बाजबहादुर के चले जाने के पश्चात् तीनों देर तक उसकी बातों की विवेचना करते रहे। अन्त में यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिए।

ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुँच गये, किंतु चित्त में आशंकित थे। चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।
मुंशीजी कमरे में आये। लड़कों ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, उन्होंने तीनों की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा—तुम लोग तीन दिन से गैर हाजिर हो। देखो, दरजे में जो इम्तहानी सवाल हुए हैं, उन्हें नकल कर लो।
फिर पढ़ाने में मग्न हो गए।

6

जब पानी पीने के लिए लड़कों को आध घंटे का अवकाश मिला, तो तीनों मित्र और उनके सहयोगी जमा होकर बातें करने लगे।
जयराम— हम तो जान पर खेलकर मदरसे से आये थे, मगर बाजबहादुर है बात का धनी।
वलीमुहम्मद— मुझे तो ऐसा मालूम होता है, वह आदमी नहीं, देवता है। यह आँखों-देखी बात न होती, तो मुझे कभी इस पर विश्वास न आता।
जगतसिंह— भलमनसी इसी को कहते हैं। हमसे बड़ी भूल हुई कि उसके साथ ऐसा अन्याय किया।
दुर्गा— चलो, उससे क्षमा माँगें।
जयराम— हाँ, तुम्हें खूब सूझी। आज ही।
जब मदरसा बंद हुआ, तो दरजे के सब लड़के मिलकर बाजबहादुर के पास गये। जगतसिंह उनका नेता बनकर बोला—भाई साहब, हम सबके-सब तुम्हारे अपराधी हैं। तुम्हारे साथ हम लोगों ने जो अत्याचार किया है, उस पर हम हृदय से लज्जित हैं। हमारा अपराध क्षमा करो। तुम सज्जनता की मूर्ति हो ! हम लोग उजड्ड, गँवार और मूर्ख हैं, हमें अब क्षमा प्रदान करो।
बाजबहादुर की आँखों में आँसू आये, बोला—मैं पहले भी तुम लोगों को अपना भाई समझता था और अब भी वही समझता हूँ। भाइयों के झगड़े में क्षमा कैसी ?
सबके-सब उससे गले मिले। इसकी चर्चा सारे मदरसे में फैल गई। सारा मदरसा बाजहबहादुर की पूजा करने लगा। वह अपने मदरसे का मुखिया, नेता और सिरमौर बन गया।
पहले उसे सचाई का दंड मिला; अबकी सचाई का उपहार मिला।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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ज्वालामुखी

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ज्वालामुखी

डिग्री लेने के बाद मैं नित्य लाइब्रेरी जाया करता। पत्रों या किताबों का अवलोकन करने के लिए नहीं। किताबों को तो मैंने न छूने की कसम खा ली थी। जिस दिन गजट में अपना नाम देखा, उसी दिन मिल और कैंट को उठाकर ताक पर रख दिया। मैं केवल अंग्रेजी पत्रों के ‘वांटेड’ कालमों को देखा करता। जीवन यात्रा की फिक्र सवार थी। मेरे दादा या परदादा ने किसी अंग्रेज को गदर के दिनों में बचाया होता अथवा किसी इलाके का जमींदार होता, तो कहीं ‘नामिनेशन’ के लिए उद्योग करता। पर मेरे पास कोई सिफारिश न थी। शोक ! कुत्ते, बिल्लियों और मोटरों की माँग सबको थी। पर बी.ए. पास का कोई पुरसाँहाल न था। महीनों इसी तरह दौड़ते गुजर गये, पर अपनी रुचि के अनुसार कोई जगह नजर न आयी। मुझे अक्सर अपने बी.ए. होने पर क्रोध आता था। ड्राइवर, फायरमैन, मिस्त्री, खानसामा या बावर्ची होता, तो मुझे इतने दिनों बेकार न बैठना पड़ता।

एक दिन मैं चारपाई पर लेटा हुआ एक पत्र पढ़ रहा था कि मुझे एक माँग अपनी इच्छा के अनुसार दिखाई दी। किसी रईस को एक ऐसे प्राइवेट सेक्रेटरी की जरूरत थी, जो विद्वान्, रसिक, सहृदय और रूपवान हो। वेतन एक हजार मासिक ! मैं उछल पड़ा। कहीं मेरा भाग्य उदय हो जाता और यह पद मुझे मिल जाता, तो जिंदगी चैन से कट जाती। उसी दिन मैंने अपना विनय-पत्र अपने फोटो से साथ रवाना कर दिया, पर अपने आत्मीय-गणों में किसी से इसका जिक्र न किया कि कहीं लोग मेरी हँसी न उड़ाएँ। मेरे लिए 30 रु. मासिक भी बहुत थे। एक हजार कौन देगा ? पर दिल से यह खयाल दूर न होता ! बैठे-बैठे शेखचिल्ली के मन्सूबे बाँधा करता। फिर होश में आकर अपने को समझाता कि मुझमें ऐसे ऊँचे पद के लिए कौन सी योग्यता है। मैं अभी कालेज से निकला हुआ पुस्तकों का पुतला हूँ। दुनिया से बेखबर ! उस पद के लिए एक-से एक विद्वान, अनुभवी पुरुष मुँह फैलाए बैठे होंगे। मेरे लिए कोई आशा नहीं। मैं रूपवान सही, सजीला सही, मगर ऐसे पदों के लिए केवल रूपवान होना काफी नहीं होता। विज्ञापन में इसकी चर्चा करने से केवल इतना अभिप्राय होगा कि कुरूप आदमी की जरूरत नहीं, और उचित भी है। बल्कि बहुत सजीलापन तो ऊँचे पदों के लिए कुछ शोभा नहीं देता मध्यम श्रेणी, तोंद भरा हुआ शरीर, फूले हुए गाल और गौरव-युक्त वाक्य-शैली यह उच्च पदाधिकारियों के लक्षण हैं और मुझे इनमें से एक भी मयस्सर नहीं। इसी आशा और भय में एक सप्ताह गुजर गया और अब निराश हो गया। मैं भी कैसा ओछा हूं कि एक बे सिर-पैर की बात के पीछे ऐसा फूल उठा, इसी को लड़कपन कहते हैं। जहाँ तक मेरा खयाल है, किसी दिल्लगीबाज ने आजकल के शिक्षित समाज की मूर्खता की परीक्षा करने के लिए यह स्वाँग रचा है। मुझे इतना भी न सूझा। मगर आठवें दिन प्रातःकाल तार के चपरासी ने मुझे आवाज दी। मेरे हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। लपका हुआ आया। तार खोलकर देखा, लिखा—स्वीकार है, शीघ्र आओ। ऐशगढ़।
मगर यह सुख-सम्वाद पाकर मुझे वह आनंद न हुआ, जिसकी आशा थी। मैं कुछ देर तक खड़ा सोचता रहा, किसी तरह विश्वास न आता था। जरूर किसी दिल्लगीबाज की शरारत है। मगर कोई मुजायका नहीं, मुझे भी इसका मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। तार दे दूँ कि एक महीने की तनख्वाह भेज दो। आप ही सारी कलई खुल जाएगी। मगर फिर विचार किया, कहीं वास्तव में नसीब जगा हो, तो इस उदंडता से बना-बनाया खेल बिगड़ जायगा चलो, दिल्लगी ही सही। जीवन में यह घटना भी स्मरणीय रहेगी। तिलस्म को खोल ही डालूं। यह निश्चय करके तार द्वारा अपने आने की सूचना दे दी और सीधे रेलवे स्टेशन पर पहुँचा। पूछने पर मालूम हुआ कि यह स्थान दक्खिन की ओर है।

टाइमटेबुल में उसका वृत्तांत विस्तार के साथ लिखा था। स्थान अतिरमणीय है, पर जलवायु स्वास्थ्यकर नहीं। हां, हृष्ट-पुष्ट नवयुवकों पर उसका असर शीघ्र नहीं होता। दृश्य बहुत मनोरम है, पर जहरीले जानवर बहुत मिलते हैं। यथासाध्य अँधेरी घाटियों में न जाना चाहिए। यह वृत्तांत पढ़कर उत्सुक्ता और भी बढ़ी जहरीले जानवर हैं तो हुआ करें।, कहाँ नहीं हैं। मैं अँधेरी घाटियों के पास भूलकर भी न जाऊंगा। आकर सफर का सामान ठीक किया और ईश्वर का नाम लेकर नियत समय पर स्टेशन की तरफ चला, पर अपने आलापी मित्रों से इसका कुछ जिक्र न किया, क्योंकि मुझे पूरा विश्वास था कि दो-ही-चार दिन में फिर अपना-सा मुँह लेकर लौटना पड़ेगा।

2

गाड़ी पर बैठा तो शाम हो गई थी। कुछ देर तक सिगार और पत्रों से दिल बहलाता रहा। फिर मालूम नहीं कब नींद आ गई। आँखें खुलीं और खिड़की से बाहर तरफ झाँका तो उषाकाल का मनोहर दृश्य दिखाई दिया। दोनों ओर हरे वृक्षों से ढकी हुई पर्वत-क्षेणियाँ, उन पर चरती हुई उजली-उजली गायें और भेंड़े सूर्य की सुनहरी किरणों में रँगी हुई बहुत सुन्दर मालूम होती थीं। जी चाहता था कि कहीं मेरी कुटिया भी इन्हीं सुखद पहाड़ियों में होती, जंगलों के फल खाता, झरनों का ताजा पानी पीता और आनंद के गीत गाता। यकायक दृश्य बदला कहीं उजले-उजले पक्षी तैरते थे और कहीं छोटी-छोटी डोंगियाँ निर्बल आत्माओं के सदृश्य डगमगाती हुई चली जाती थीं। यह दृश्य भी बदला। पहाड़ियों के दामन में एक गांव नजर आया, झाड़ियों और वृक्षों से ढका हुआ, मानो शांति और संतोष ने यहाँ अपना निवास-स्थान बनाया हो। कहीं बच्चे खेलते थे, कहीं गाय के बछड़े किलोले करते थे। फिर एक घना जंगल मिला। झुण्ड-के-झुण्ड हिरन दिखाई दिये, जो गाड़ी की हाहाकार सुनते ही चौकड़ियाँ भरते दूर भाग जाते थे। यह सब दृश्य स्वप्न के चित्रों के समान आँखों के सामने आते थे और एक क्षण में गायब हो जाते थे। उनमें एक अवर्णनीय शांतिदायिनी शोभा थी, जिससे हृदय में आकांक्षाओं के आवेग उठने लगते थे।

आखिर ऐशगढ़ निकट आया। मैंने बिस्तर सँभाला। जरा देर में सिगनल दिखाई दिया। मेरी छाती धड़कने लगी। गाड़ी रुकी। मैंने उतरकर इधर-उधर देखा, कुलियों को पुकारने लगा कि इतने में दो वरदी पहने हुए आदमियों ने आकर मुझे सादर सलाम किया और पूछा—‘आप....से आ रहे हैं न, चलिये मोटर तैयार है।’ मेरी बांछे खिल गईं। अब तक कभी मोटर पर बैठने का सौभाग्य न हुआ था। शान के सात जा बैठा। मन में बहुत लज्जित था कि ऐसे फटे हाल क्यों आया ? अगर जानता कि सचमुच सौभाग्य-सूर्य चमका है, तो ठाट-बाट से आता खैर, मोटर चली, दोनों तरफ मौलसरी के सघन वृक्ष थे। सड़क पर लाल वजरी बिछी हुई थी। सड़क हरे-भरे मैदान में किसी सुरम्य जलधार के सदृश बल खाती चली गई थी। दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि सामने एक शांतिमय सागर दिखाई दिया। सागर के उस पार पहाड़ी पर एक विशाल भवन बना हुआ था। भवन अभिमान से सिर उठाए हुए था, सागर संतोष से नीचे लेटा हुआ, सारा दृश्य काव्य, श्रृंगार और अमोद से भरा हुआ था।
हम सदर दरवाजे पर पहुँचे, कई आदमियों ने दौड़कर मेरा स्वागत किया। इनमें एक शौकीन मुंशीजी थे जो बाल सँवारे आँखों में सुर्मा लगाए हुए थे। मेरे लिए जो कमरा सजाया गया था, उसके द्वार पर मुझे पहुंचाकर बोले—सरकार ने फरमाया है, इस समय आप आराम करें, संध्या समय मुलाकात कीजिएगा।
मुझे अब तक इसकी कुछ खबर न थी कि यह ‘सरकार’ कौन है, न मुझे किसी से पूछने का साहस हुआ क्योंकि अपने स्वामी के नाम तक से अनभिज्ञ होने का परिचय नहीं देना चाहता था। मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरा स्वामी बड़ा सज्जन मनुष्य था। मुझे इतने आदर-सत्कार की कदापि आशा न थी। अपने सुसज्जित कमरे में जाकर जब मैंने एक आराम-कुर्सी पर बैठा, तो हर्ष से विह्वल हो गया। पहाड़ियों की तरफ से शीतल वायु के मंद-मंद झोंके आ रहे थे। सामने छज्जा था। नीचे झील थी। साँप के केंचुल के सदृश प्रकाश से पूर्ण, और मैं, जिसे भाग्य देवी ने सदैव अपना सौतेला लड़का समझा था, इस समय जीवन में पहली बार निर्विघ्न आनंद का सुख उठा रहा था।

तीसरे पहर शौकीन मुंशीजी ने आकर इत्तला दी कि सरकार ने याद किया है। मैंने इस बीच में बाल बना लिए थे। तुरन्त अपना सर्वोत्तम सूट पहना और मुंशीजी के साथ सरकार की सेवा में चला। इस, समय मेरे मन में यह शंका उठ रही थी कि मेरी बातचीत से स्वामी असंतुष्ट न हो जायँ और उन्होंने मेरे विषय में जो विचार स्थिर किया हो, उसमें कोई अंतर न पड़ जाय, तथापि मैं अपनी योग्यता का परिचय देने के लिए खूब तैयार था। हम कई बरामदों से होते अंत में सरकार के कमरे के दरवाजे पर पहुँचे। रेशमी परदा पड़ा हुआ था। मुंशीजी ने पर्दा उठाकर मुझे इशारे से बुलाया। मैंने काँपते हुए हृदय से कमरे में कदम रखा और आश्चर्य से चकित रह गया ! मेरे सामने सौंदर्य की एक ज्वाला दीप्तिमान थी।

3

फूल भी सुन्दर है और दीपक भी सुन्दर है। फूल में ठंडक और सुगंधि है, दीपक में प्रकाश और उद्दीपन। फूल पर भ्रमर उड़-उड़कर उसका रस लेता है, दीपक में पतंग जलकर राख हो जाता है। मेरे सामने कारचोबी मनसद पर जो सुन्दरी विराजमान थी, वह सौंदर्य की एक प्रकाशमय ज्वाला थी। फूल की पंखुड़ियाँ हो सकती हैं ज्वाला को विभक्त करना असम्भव है। उसके एक-एक अंग की प्रशंसा करना ज्वाला को काटना है। वह नख-शिख एक ज्वाला थी, वही दीपक, वही चमक वही लालिमा, वही प्रभा, कोई चित्रकार सौन्दर्य प्रतिमा का इससे इच्छा चित्र नहीं खींच सकता था। रमणी ने मेरी तरफ वात्सल्य दृष्टि से देखकर कहा—आपको सफर में कोई विशेष कष्ट तो नहीं हुआ ?
मैंने सँभलकर उत्तर दिया—जी नहीं, कोई कष्ट नहीं हुआ।
रमणी— यह स्थान पसंद आया ?
मैंने साहसपूर्ण उत्साह के साथ जवाब दिया—ऐसा सुन्दर स्थान पृथ्वी पर न होगा। हाँ गाइड-बुक देखने से विदित हुआ कि यहाँ का जलवायु जैसा सुखदप्रकट होता है, यथार्थ में वैसा नहीं, विषैले पशुओं की भी शिकायत है।

यह सुनते ही रमणी का मुख-सूर्य कांतिहीन हो गया। मैंने तो चर्चा इसलिए कर दी थी, जिससे प्रकट हो जाय कि यहाँ आने में मुझे भी कुछ त्याग करना पड़ा है, पर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस चर्चा से उसे कोई विशेष दुःख हुआ। पर क्षण-भर में सूर्य-मंडल से बाहर निकल आया, बोली—यह स्थान अपनी रमणीयता के कारण बहुधा लोगों की आँखों में खटकता है। गुण का निरादर करनेवाले सभी जगह होते हैं और यदि जलवायु कुछ हानिकर हो भी, तो आप जैसे बलवान मनुष्य को इसकी क्या चिन्ता हो सकती है। रहे विषैले जीव-जंतु, वह अपने नेत्रों के सामने विचर रहे हैं। अगर मोर, हिरन और हंस विषैले जीव हैं, जो निस्संदेह यहाँ विषैले जीव बहुत हैं।
मुझे संशय हुआ कहीं मेरे कथन से उसका चित्त खिन्न न हो गया हो। गर्व से बोला—इन गाइड-बुकों पर विश्वास करना सर्वथा भूल है।
इस वाक्य से सुंदरी का हृदय खिल गया, बोली—आप स्पष्टवादी मालूम होते हैं और यह मनुष्य का एक उच्च गुण है। मैं आपका चित्र देखते ही इतना समझ गई थी। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि इस पद के लिए मेरे पास एक लाख से अधिक प्रार्थनापत्र आये थे। कितने एम.ए.थे, कोई डी.एस-सी. था, कोई जर्मनी से पी-एच.डी. उपाधि किए हुए था, मानो यहाँ मुझे किसी दार्शनिक विषय की जाँच करवानी थी मुझे अबकी ही यह अनुभव हुआ कि देश में उच्च-शिक्षित मनुष्यों की इतनी भरमार है। कई महाशयों ने स्वरचित ग्रंथों की नामावली लिखी थी, मानो देश में लेखकों और पंडितों ही की आवश्कता है। उन्हें कालगति का लेशमात्र भी परिचय नहीं है। प्राचीन धर्म-कथाएँ अब केवल अंधभक्तों के रसास्वादन के लिए ही हैं, उनसे और कोई लाभ नहीं है। यह भौतिक उन्नति का समय है। आजकल लोग भौतिक सुख पर अपने प्राण अर्पण कर देते हैं। कितने ही लोगों ने अपने चित्र भी भेजे थे। कैसी-कैसी विचित्र मूर्तियाँ थीं, जिन्हें देख कर घंटों हँसिए। मैंने उन सभी को एक अलबम में लगा लिया है और अवकाश मिलने पर जब हँसने की इच्छा होती है, तो उन्हें देखा करती हूँ। मैं उस विद्या को रोग समझती हूँ, जो मनुष्य को बनमानुष बना दे। आपका चित्र देखते ही आँखें मुग्ध हो गईं। तत्क्षण आपको बुलाने को तार दे दिया।

मालूम नहीं क्यों, अपने गुण-स्वभाव की प्रशंसा की अपेक्षा हम अपने बाह्य गुणों की प्रशंसा से अधिक संतुष्ट होते हैं और एक सुंदरी के मुख से तो वह चलते हुए जादू के समान है। बोला—यथासाध्य आपको मुझसे असंतुष्ट होने का अवसर न मिलेगा।
सुन्दरी ने मेरी ओर प्रशंसापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—इसका मुझे पहले ही से विश्वास है। आइए, अब कुछ काम की बातें हो जायँ। इस घर को आप अपना ही समझिए और संकोच छोड़कर आनन्द से रहिए। मेरे भक्तों की संख्या बहुत है। वह संसार के प्रत्येक भाग में उपस्थित हैं और बहुधा मुझसे अनेक प्रकार की जिज्ञासा किया करते हैं। उन सबकों मैं आपके सुपुर्द करती हूं। आपको उनमें भिन्न-भिन्न स्वभाव के मनुष्य मिलेंगे। कोई मुझसे सहायता माँगता है, कोई मेरी निन्दा करता है, कोई सराहता है, कोई गालियाँ देता है। इन सब प्राणियों को संतुष्ट करना आपका काम है। देखिए, आज के पत्रों का ढेर है। एक महाशय कहते हैं—‘बहुत दिन हुए आपकी प्रेरणा से मैं अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति का अधिकारी बन बैठा था। अब उनका पुत्र वयस प्राप्त कर चुका है और मुझसे अपने पिता की जायदाद लौटाना चाहता है। इतने दिनों तक उस सम्पत्ति का उपभोग करने के पश्चात् अब उसका हाथ से निकलना अखर रहा है, आपकी इस विषय में क्या सहमति है ?’ इनको उत्तर दीजिए कि इस समय कूटनीति से काम लो, अपने भतीजे को कपट प्रेम से मिला लो। और जब वह निःशंक हो जाए तो उससे एक सादे स्टाम्प पर हस्ताक्षर करा लो। इसके पीछे पटवारी और अन्य कर्मचारियों की मदद से इसी स्टाम्प पर जायदाद का बैनामा लिखा लो। यदि एक लगाकर दो मिलते हों, तो आगा-पीछा मत करो।

यह उत्तर सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। नीति-ज्ञान को धक्का–सा लगा। सोचने लगा, यह रमणी कौन है और क्यों ऐसे अनर्थ का परामर्श देती है। ऐसे खुलम्खुल्ला तो कोई वकील भी किसी को यह राय न देगा। उसकी ओर संदेहात्मक भाव से देखकर बोला—यह तो सर्वथा न्यायविरुद्ध प्रतीत होता है।
कामिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली —न्याय की आपने भली कही। यह केवल धर्मान्ध मनुष्यों के मन का समझौता है, संसार में इसका अस्तित्व नहीं। बाप ऋण ले कर मर जाए, लड़का कौड़ी-कौड़ी भरे। विद्वान लोग इसे न्याय कहते हैं, मैं इसे घोर अत्याचार समझती हूँ। इस न्याय के परदे में गाँठ के पूरे महाजन की हेकड़ी साफ झलक रही है । एक डाकू किसी भद्र पुरुष के घर में डाका मारता है, लोग उसे पकड़कर कैद कर देते हैं, धर्मात्मा लोग इसे भी न्याय कहते हैं, किन्तु यहाँ भी वही धन और अधिकार की प्रचंडता है। भद्र पुरुष ने कितने ही घरों को लूटा, कितनों ही का गला दबाया और इस प्रकार धन-संचय किया, किसी को भी उन्हें आँख दिखाने का साहस न हुआ। डाकू ने जब उनका गला दबाया, तो वह अपने धन और प्रभुत्व के बस से उस पर वज्रप्रहार कर बैठे। इसे न्याय नहीं कहते। संसार में धन, छल, कपट धूर्तता का राज्य है यही जीवन-संग्राम है। यहां प्रत्येक साधन, जिससे हमारा काम निकले, जिससे हम अपने शत्रुओं पर विजय पा सकें न्यायनुकूल और उचित है। धर्म-युद्ध के दिन अब नहीं रहे। यह देखिए, यह एक दूसरे सज्जन का पत्र है। वह कहते हैं—‘मैंने प्रथम श्रेणी में एम.ए. पास किया, प्रथम श्रेणी में कानून की परीक्षा पास की, पर अब कोई मेरी बात भी नहीं पूछता।

अब तक यह आशा थी कि योग्यता और परिश्रम का अवश्य ही कुछ फल मिलेगा, पर तीन साल के अनुभव से ज्ञात हुआ कि यह केवल धार्मिक नियम है। तीन साल से घर की पूँजी खा चुका। अब विवश होकर आपकी शरण लेता हूँ। मुझ हतभाग्य मनुष्य पर दया कीजिए और मेरा बेड़ा पार लगाइए।’ इनको उत्तर दीजिए कि जाली दस्तावेज बनाइए और झूठे दावे चलाकर उनकी डिगरी करा लीजिए। थोड़े ही दिनों में आपका क्लेश निवारण हो जाएगा। यह देखिए, एक सज्जन और कहते हैं—‘लड़की सयानी हो गई है, जहाँ जाता हूं, लोग दायज की गठरी माँगते हैं, यहाँ पेट की रोटियों का ठिकाना नहीं, किसी तरह भलमनसी निभा रहा हूँ, चारों और निंदा हो रही है, जो आज्ञा हो, उसका पालन करूँ।’ इन्हें लिखिए, कन्या का विवाह किसी बुड्ढे खुर्राट सेठ से कर दीजिए। वह दायज लेने की जगह कुछ उलटे और दे जाएगा। अब आप समझ गए होंगे कि ऐसे जिज्ञासुओं को किस ढंग से उत्तर देने की आवश्यकता है। उत्तर संक्षिप्त होना चाहिए, बहुत टीका-टिप्पणी व्यर्थ होती है। अभी कुछ दिनों तक आपको यह काम कठिन जान पड़ेगा; पर आप चतुर मनुष्य हैं, शीघ्र आपको इस काम का अभ्यास हो जाएगा। तब आपको मालूम होगा कि इससे सहज और कोई उपाय नहीं है। आपके द्वारा सैकड़ों दारुण दुःख भोगने वालों का कल्याण होगा और वह आजन्म आपका यश गाएँगे।

4

मुझे यहाँ रहते एक महीने से अधिक हो गया, पर अब तक मुझ पर यह रहस्य न खुला कि यह सुन्दरी कौन है ? मैं किसका सेवक हूँ ? इसके पास इतना अतुल धन, ऐसी-ऐसी विलास की सामग्रियाँ कहाँ से आती हैं ? जिधर देखता था, ऐश्वर्य ही का आडम्बर दिखाई देता था। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी, मानो किसी तिलिस्म में फँसा हूँ। इन जिज्ञासाओं का इस रमणी से क्या सम्बन्ध है यह भेद भी न खुलता था। मुझे नित्य उससे साक्षात् होता था, उसके सम्मुख आते ही मैं अचेत-सा हो जाता था, उसकी चितवनों में एक आकर्षण था, जो मेरे प्राणों को खींच लिया करता था। मैं वाक्य-शून्य हो जाता, केवल छिपी हुई आँखों से उसे देखा करता था। पर मुझे उसकी मृदुल मुस्कान और रसमयी आलोचनाओं तथा मधुर, काव्यमय भावों में प्रेमानंद की जगह एक प्रबल मानसिक अशांति का अनुभव होता था। उसकी चितवनें केवल हृदय को बाणों के समान छेदती थीं, उसके कटाक्ष चित्त को व्यस्त करते थे। शिकारी अपने शिकार को खिलाने में जो आनंद पाता है, वही उस परम सुंदरी को मेरी प्रेमातुरता में प्राप्त होता था। वह एक सौंदर्य ज्वाला थी जलाने के सिवाय और क्या कर सकती है ? तिस, पर मैं पतंग की भाँति उस ज्वाला पर अपने को समर्पण करना चाहता था। यही आकांक्षा होती कि उन पदकमलों पर सिर रखकर प्राण दे दूँ। यह केवल उपासक की भक्ति थी, काम और वासनाओं से शून्य।

कभी-कभी वह संध्या के समय अपने मोटर-वोट पर बैठकर सागर की सैर करती तो ऐसा जान पड़ता, मानो चंद्रमा आकाश-लालिमा में तैर रहा है। मुझे इस दृश्य में सुख प्राप्त होता था।
मुझे अब अपने नियत कार्यों में खूब अभ्यास हो गया था मेरे पास प्रतिदिन पत्रों का पोथा पहुँच जाता था। मालूम नहीं, किस डाक से आता था। लिफाफों पर कोई मोहर न होती थी। मुझे इन जिज्ञासुओं में बहुधा वह लोग मिलते थे, जिनका मेरी दृष्टि में बड़ा आदर था; कितने ही ऐसे महात्मा थे, जिनमें मुझे श्रद्धा थी। बड़े-बड़े विद्वान लेखक और अध्यापक, बड़े-बड़े ऐश्वर्यवान रईस, यहाँ तक कि कितने ही धर्म के आचार्य, नित्य अपनी रामकहानी सुनाते थे।

उनकी दशा अत्यंत करुणाजनक थी। वह सबके-सब मुझे रँगे हुए सियार दिखाई देते थे। जिन लेखकों को मैं अपनी भाषा का स्तम्भ समझता था, उनसे घृणा होने लगी। वह केवल उचक्के थे, जिनकी सारी कीर्ति चोरी, अनुवाद और कतर-ब्यौंत पर निर्भर थी। जिन धर्म के आचार्यों को मैं पूज्य समझता था, वह स्वार्थ, तृष्णा और घोर नीचता के दलदल में फँसे हुए दिखाई देते थे। मुझे धीरे-धीरे यह अनुभव हो रहा था कि संसार की उत्पत्ति से अब तक, लाखों शताब्दियाँ बीत जाने पर भी मनुष्य वैसा ही क्रूर, वैसा ही वासनाओं का गुलाम बना हुआ है। बल्कि उस समय के लोग सरल प्रकृत्ति के कारण इतने कुटिल, दुराग्रहों में इतने चालाक न होते थे।

एक दिन संध्या समय उस रमणी ने मुझे बुलाया। मैं अपने घमंड में यह समझता था कि मेरे बाँकपन का कुछ-न-कुछ असर उस पर भी होता है। अपना सर्वोत्तम सूट पहना, बालसँवारे और विरक्त भाव से जाकर बैठ गया। यदि वह मुझे अपना शिकार बनाकर खेलती थी, तो मैं भी शिकार बनकर उसे खिलाना चाहता था।
ज्यों ही मैं पहुँचा, उस लावण्यमयी ने मुस्कराकर मेरा स्वागत किया, पर मुख-चंद्र कुछ मलिन था। मैंने अधीर होकर पूछा—सरकार का जी तो अच्छा है ?
उसने निराश भाव से उत्तर दिया —जी हाँ, एक महीने से एक कठिन रोग में फँस गई हूं। अब तक किसी भाँति अपने को सँभाल सकी हूं, पर अब रोग असाध्य होता जाता है। उसकी औषधि निर्दय मनुष्य के पास है। वह मुझे प्रतिदिन तड़पते देखता है, पर उसका पाषाण-हृदय जरा भी नहीं पसीजता।
मैं इशारा समझ गया। सारे शरीर में एक बिजली-सी दौड़ गई। साँस बड़े वेग से चलने लगी। एक उन्मत्तता का अनुभव होने लगा। निर्भय होकर बोला—सम्भव है, जिसे आपने निर्दय समझ रखा हो वह भी आपको ऐसा ही समझता हो और भय से मुँह खोलने का साहस न कर सकता हो।

सुंदरी ने कहा—तो कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे दोनों ओर की आग बुझे। प्रियतम! अब मैं अपने हृदय की दहकती हुई विरहाग्नि को नहीं छिपा सकती। मेरा सर्वस्व आपको भेंट है। मेरे पास वह खजाने हैं, जो कभी खाली न होंगे, मेरे पास वह साधन हैं, जो आपको कीर्ति के शिखर पर पहुँचा देंगे। मैं समस्त संसार को आपके पैरों पर झुका सकती हूं। बड़े-बड़े सम्राट भी मेरी आज्ञा को नहीं टाल सकते। मेरे पास वह मंत्र है, जिससे मैं मनुष्य के मनोवेगों को क्षण-मात्र में पलट सकती हूँ, आइए, मेरे हृदय से लिपटकर इस दाह-क्रांति को शांत कीजिए।
रमणी के चेहरे पर जलती हुई आग की-सी कांति थी। वह दोनों हाथ फैलाए कामोन्मत्त होकर मेरी ओर बढ़ी। उसकी आँखों से आग की चिनगारियाँ निकल रही थीं। परंतु जिस प्रकार अग्नि से पारा दूर भागता है उसी प्रकार मैं भी उसके सामने से एक कदम पीछे हट गया। उसकी प्रेमातुरता से मैं भयभीत हो गया, जैसे कोई निर्धन मनुष्य किसी के हाथों से सोने की ईंट लेते हुए भयभीत हो जाए। मेरा चित्त एक अज्ञात आशंका से काँप उठा। रमणी ने मेरी ओर अग्निमय नेत्रों से देखा, मानो किसी सिंहनी के मुँह से उसका आहार छिन जाए और सरोष होकर बोली— यह भीरुता क्यों ?
मैं— मैं आपका तुच्छ सेवक हूँ, इस महान् आदर का पात्र नहीं।
रमणी— आप मुझसे घृणा करते हैं ?
मैं— यह आपका मेरे साथ अन्याय है। मैं इस योग्य भी तो नहीं कि आपके तलुओं को आँखों से लगाऊँ। आप दीपक हैं, मैं पतंग हूँ, मेरे लिए इतना ही बहुत है।
रमणी नैराश्यपूर्ण क्रोध के साथ बैठ गई और बोली—वास्तव आप निर्दयी हैं, मैं ऐसा न समझती थी। आपमें अभी तक अपनी शिक्षा के कुसंस्कार लिपटे हुए हैं, पुस्तकों और सदाचार की बेड़ी आपके पैरों से नहीं निकलीं।

मैं शीघ्र ही अपने कमरे में चला आया और चित्त के स्थिर होने पर जब मैं इस घटना पर विचार करने लगा, तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि अग्निकुंड में गिरते गिरते बचा। कोई गुप्त शक्ति मेरी सहायक हो गई। यह गुप्त शक्ति क्या थी ?

5

मैं जिस कमरे में ठहरा हुआ था, उसके सामने झील के दूसरी तरफ छोटा—सा झोपड़ा था। उसमें एक वृद्ध पुरुष रहा करते थे। उनकी कमर तो झुक गई थी; पर चेहरा तेजमय था। वह कभी-कभी इस महल में आया करते थे। रमणी न जाने क्यों उनसे घृणा करती थी, मन में उनसे डरती थी। उन्हें देखते ही घबरा जाती मानो किसी असमंजस में पड़ी हुई है। उसका मुख फीका पड़ जाता, जाकर अपने किसी गुप्त स्थान में मुँह छिपा लेती। मुझे उसकी यह दशा देखकर कौतूहल होता था। कई बार उसने मुझसे भी उनकी चर्चा की थी, पर अत्यंत अपमान के भाव से। वह मुझे उनसे दूर-दूर रहने का उपदेश दिया करती थी, और यदि कभी मुझे उनसे बातें करते देख लेती, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते थे। कई दिनों तक मुझसे खुलकर न बोलती थी।

उस रात को मुझे देर तक नींद नहीं आयी। उधेड़बुन में पड़ा हुआ था। कभीजी चाहता, आओ आँख बंद करके प्रेम-रस का पान करें, संसार के पदार्थों का सुख भोगें, जो कुछ होगा, देखा जाएगा।
जीवन में ऐसे दिव्य अवसर कहाँ मिलते हैं ? फिर आप-ही-आप मन खिंच जाता था, घृणा उत्पन्न हो जाती थी।
रात के दस बजे होंगे कि हठात् मेरे कमरे का द्वार आप-ही-आप खुल गया और वही तेजस्वी पुरुष अंदर आये। यद्यपि मैं अपनी स्वामिनी के भय से उनसे बहुत कम मिलता था, पर उनके मुख पर ऐसी शांति थी और उनके भाव ऐसे पवित्र तथा कोमल थे कि हृदय में उनके सत्संग की उत्कंठा होती थी। मैंने उनका स्वागत किया और लाकर एक कुरसी पर बैठा दिया। उन्होंने मेरी ओर दयापूर्ण भाव से देखकर कहा—मेरे आने से तुम्हें कष्ट तो नहीं हुआ ?
मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया-आप-जैसे महात्माओं का दर्शन मेरे सौभाग्य की बात है।
महात्माजी निश्चिंत होकर बोले—अच्छा, तो सुनो और सचेत हो जाओ, मैं तुम्हें यह चेतावनी देने के लिए आया हूं। तुम्हारे ऊपर एक घोर विपत्ति आने वाली है। तुम्हारे लिए इस समय इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है कि यहाँ से चले जाओ। यदि मेरी बात न मानोगे तो जीवन पर्यन्त कष्ट भोगोगे और इस मयाजाल से कभी मुक्त न हो सकोगे। मेरा झोपड़ा तुम्हारे समाने था, मैं भी कभी-कभी यहाँ आया करता था, पर तुमने मुझसे मिलने की आवश्यकता न समझी। यदि पहले ही दिन तुम मुझसे मिलते, तो सहस्रों मनुष्यों का सर्वनाश करने के अपराध से बच जाते। निस्संदेह तुम्हारे कर्मों का फल है, जिसने आज तुम्हारी रक्षा की। अगर यह पिशाचिनी एक बार तुमसे प्रेमालिंगन कर लेती, तो फिर तुम कहीं के नहीं रहते। तुम उसी दम उसके अजायबखाने में भेज दिये जाते। वह जिस पर रीझती है, उसकी यही गत बनाती है। यही उसका प्रेम है। चलो, इस अजायब घर की सैर करो, तब तुम समझोगे कि आज किस आफत से बचे।

यह कहकर महात्माजी ने दीवार में एक बटन दबाया। तुरंत एक दरवाजा निकल आया। यह नीचे उतरने की सीढ़ी थी। महात्मा उसमें घुसे और मुझे भी बुलाया। घोर अंधकार में कई कदम उतरने के बाद एक बड़ा कमरा नजर आया। उसमें एक दीपक टिमटिमा रहा था। वहाँ मैंने जो घोर, वीभत्स और हृदयविदारक दृश्य देखे, उसका स्मरण करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इटली के अमर कवि ‘डैण्टी’ ने नरक का जो दृश्य दिखाया है, उससे कहीं भयावह, रोमांचकारी तथा नारकीय दृश्य मेरी आँखों के सामने उपस्थित था; सैकड़ों विचित्र देहधारी नाना प्रकार की अशुद्धियों में लिपटे हुए, भूमि पर पड़े कराह रहे थे। उनके शरीर मनुष्यों के से थे, लेकिन चेहरों का रुपांतर हो गया था। कोई कुत्ते से मिलता था, कोई गीदड़ से, कोई बनबिलाव से, कोई साँप से। एक स्थान पर एक मोटा, स्थूल मनुष्य एक दुर्बल, शक्तिहीन मनुष्य के गले में मुँह लगाए उसका रक्त चूस रहा था। एक ओर दो गिद्ध की सूरतवाले मनुष्य एक सड़ी हुई लाश पर बैठे उसका मांस नोच रहे थे। एक जगह एक अजगर की सूरत का मनुष्य एक बालक को निगलना चाहता था, पर बालक उसके गले में लटका हुआ था। दोनों ही जमीन पर पड़े छटपटा रहे थे। एक जगह मैंने अत्यंत पैशाचिक घटना देखी। दो नागिन की सूरत वाली स्त्रियाँ एक भेड़िये की सूरतवाले मनुष्य के गले में लिपटी हुई उसे काट रही थीं। वह मनुष्य घोर वेदना से चिल्ला रहा था। मुझसे अब और न देखा गया। तुरंत वहां से भागा और गिरता-पड़ता अपने कमरे में आकर दम लिया।

महात्माजी भी मेरे साथ चले आये। जब मेरा चित्त शांत हुआ तो उन्होंने कहा—तुम इतनी जल्दी घबरा गए, अभी तो इस रहस्य का एक भाग भी नहीं देखा। यह तुम्हारी स्वामिनी के बिहार का स्थान है और यही उसके पालतू जीव हैं। इन जीवों के पिशाचाभिनय देखने में उसका विशेष मनोरंजन होता है। यह सभी मनुष्य किसी समय तुम्हारे ही समान प्रेम और प्रमोद के पात्र थे, पर उनकी यह दुर्गति हो रही है। अब तुम्हें मैं यही सलाह देता हूँ कि इसी दम यहाँ से भागों, नहीं तो रमणी के दूसरे वार से कदापि न बचोगे।
यह कहकर महात्मा अदृश्य हो गए। मैंने भी अपनी गठरी बाँधी और अर्धरात्रि के सन्नाटे में चोरों की भाँति कमरे से बाहर निकला। शीतल आनंदमय समीर चल रहा था, सामने के सागर में तारे छिटक रहे थे, मेहंदी की सुगंधि उड़ रही थी। मैं चलने को तो चला, पर संसार-सुख-भोग का ऐसा सुअवसर छोड़ते हुए दुःख होता था। इतना देखने और महात्मा के उपदेश सुनने पर भी चित्त उस रमणी की ओर खिंचता था। मैं कई बार चला, कई बार लौटा, पर अंत में आत्मा ने इंद्रियों पर विजय पायी। मैंने सीधा मार्ग छोड़ दिया और झील किनारे-किनारे गिरता-पड़ा, कीचड़ में फँसता हुआ सड़क तक आ पहुँचा। यहाँ आकर मुझे एक विचित्र उल्लास हुआ, मानो कोई चिड़िया बाज के चंगुल से छूट गई हो।

यद्यपि मैं एक मास के बाद लौटा था, पर अब जो देखा, तो अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था। कमरे में जरा भी गर्द या धूल न थी। मैंने लोगों से इस घटना की चर्चा की, तो लोग खूब हँसे और मित्रगण तो अभी तक मुझे ‘प्राइवेट सेक्रेटरी’ कहकर बनाया करते हैं। सभी कहते हैं कि मैं एक मिनट के लिए भी कमरे से बाहर नहीं निकला, महीने-भर गायब रहने की तो बात ही क्या ? इसलिए अब मुझे भी विवश होकर यही कहना पड़ता है कि शायद मैंने कोई स्वप्न देखा है। कुछ-भी हो, परमात्मा को कोटि-कोटि धन्यावाद देता हूं कि मैं उस पापकुंड से बचकर निकल आया। वह चाहे स्वप्न ही हो, पर मैं उसे अपने जीवन का एक वास्तविक अनुभव समझता हूँ, क्योंकि उसने सदैव के लिए मेरी आँखें खोल दीं।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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महातीर्थ

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महातीर्थ

मुंशी इंद्रमणि की आमदनी कम थी और खर्च ज्यादा। अपने बच्चे के लिए दाई रखने का खर्च न उठा सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की सेवा-सुश्रुवा की फिक्र और दूसरे अपने बराबर वालों से हेठे बनकर रहने का अपमान इस खर्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था, हरदम उसे गले का हार बना रहता था। इसलिए दाई और भी जरूरी मालूम होती थी, पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह मुरौवत के वश दाई को जवाब देने का साहस नहीं कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने इनके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। अपना काम बड़ी मुस्तैदी और परिश्रम से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और व्यर्थ खुचड़ निकालना इंद्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के विरुद्ध था, पर सुखदा इस सम्बन्ध में अपने पति से सहमत न थी। उसे संदेह था कि दाई हमें लूटे लेती है। जब दाई बाजार से लौटती तो वह दालान में छिपी रहती कि देखूँ आटा कहीं छिपाकर तो नहीं रख देती, लकड़ी तो नहीं छिपा देती, उसकी लायी हुई चीजों को घंटे देखती, पूछताछ करती। बार-बार पूछती, इतना ही क्यों ? क्या इतना मँहगा हो गया ? दाई कभी तो इन संदेहात्मक प्रश्नों का उत्तर नम्रतापूर्वक देती, किंतु जब कभी बहू जी ज्यादा तेज हो जातीं, तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। शपथें खाती, सफाई की शहादतें पेश करती। वाद-विवाद में घंटों लग जाते थे। प्रायः नित्य यही दशा रहती थी और प्रतिदिन यह नाटक दाई के अश्रुपात के साथ समाप्त होता था दाई का इतनी सख्तियाँ झेलकर पड़े रहना सुखदा के संदेह को और भी पुष्ट करता था। उसे कभी विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया केवल बच्चे के प्रेमवश पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतनी बाल-प्रेम-शीला नहीं समझती थी !

2

संयोग से एक दिन दाई को बाजार से लौटने में जरा देर हो गई। वहाँ दो कुँजड़ियों में देवासुपर संग्राम मचा था। उनका चित्रमय हाव-भाव, उनका आग्नेय तर्क-वितर्क, उनके कटाक्ष और व्यंग सब अनुपम थे। विष के दो नद थे या ज्वाला के दो पर्वत, जो दोनों तरफ से उमड़कर आपस में टकरा गए थे ! क्या वाक्य–प्रवाह था, कैसी विचित्र विवेचना ! उनका शब्द-बाहुल्य, उनकी मार्मिक विचारशीलता, उनके आलंकृत शब्द-विन्यास और उनकी उपमाओं की नवीनता पर ऐसा कौन-सा कवि है, जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शांति विस्मयजनक थी। दर्शकों की एक खासी भीड़ थी। वह लाज को भी लज्जित करनेवाले इशारे, वह अश्लील शब्द, जिनसे मलिनता के भी कान खड़े होते, सहस्रों रसिकजनों के लिए मनोरंजन की सामग्री बने हुए थे।

दाई भी खड़ी हो गई कि देखूँ क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान न रहा। यकायक जब नौ के घंटे की आवाज कान में आयी, तो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली। सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही त्यौरी बदलकर बोली—क्या बाजार में खो गई थी ?
दाई विनयपूर्ण भाव से बोली—एक जान-पहचान की महरी भेंट हो गई। वह बातें करने लगी।
सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़कर बोली—यहाँ दफ्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है।
परन्तु दाई ने इस समय दबने में ही कुशल समझी, बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़ककर कहा—रहने दो, तुम्हारे बिना यह व्याकुल नहीं हुआ जाता।
दाई ने इस आज्ञा को मानना आवश्यक नहीं समझा। बहू जी का क्रोध ठंडा करने के लिए इससे उपयोगी और कोई उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाए लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोद से छीनकर बोली—तुम्हारी यह धूर्तता बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइयो। यहाँ जी भर गया।
दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच यह ऐसा मजबूत सम्बन्ध था, जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा के कटु वचनों को सुनकर भी उसे यह विश्वास न होता था कि वह मुझे निकालने पर प्रस्तुत है। पर सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कहीं और रुद्र को ऐसी निर्दयता से छीन लिया कि दाई से सह्य न हो सका। बोली—बहूजी ! मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो पाव घंटे की देर हुई होगी। इस पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ क्यों नहीं कह देतीं कि दूसरा दरवाजा देखो। नारायण ने पैदा किया है, तो खाने को भी देगा। मजदूरी का आकाल थोड़े ही है।

सुखदा ने कहा— तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है ? तुम्हारी जैसी लौडिनें गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं।
दाई ने जबाव दिया— हाँ, नारायण आपको कुशल से रखें, लौंडिने और दाइयां आपको बहुत मिलेंगी। मुझसे जो कुछ अपराध हुआ हो, क्षमा कीजिएगा। मैं जाती हूँ।
सुखदा— जाकर मरदाने में अपना हिसाब कर लो।
दाई— मेरी तरफ से रुद्र बाबू को मिठाइयाँ मँगवा दीजिएगा।
इतने में इंद्रमणि भी बाहर से आ गये, पूछा—क्या है क्या ? दाई ने कहा—कुछ नहीं। बहूजी ने जवाब दे दिया है, घर जाती हूँ।
इंद्रमणि गृहस्थी के जंजाल से इस प्रकार बचते थे, जैसे कोई नंगे पैर वाला मनुष्य काँटों से बचे। उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर काँटों में पैर रखने की हिम्मत न थी। खिन्न होकर बोले—बात क्या हुई ?
सुखदा ने कहा— कुछ नहीं। अपनी इच्छा। जी नहीं चाहता, नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गए।
इंद्रमणि ने झुंझलाकर कहा— तुम्हें बैठे-बैठाए एक-न-एक खुचड़ सूझती ही रहती है।
सुखदा ने तुनककर कहा— हाँ, मुझे तो इसका रोग है। क्या करूँ, स्वभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे यहाँ जरूरत नहीं है।

3

दाई घर से निकली तो आँखें डबडबाई हुई थीं। हृदय रुद्रमणि के लिए तड़प रहा था। जी चाहता था कि एक बार बालक को लेकर प्यार कर लूँ। पर यह अभिलाषा लिये हुए ही उसे घर से बाहर निकलना पड़ा।
रुद्रमणि दाई के पीछे-पीछे दरवाजे तक आया, पर दाई ने जब दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया, तो वह मचलकर जमीन पर लोट गया और अन्ना-अन्ना कहकर रोने लगा। सुखदा ने चुमकारा, प्यार किया, गोद में लेने की कोशिश की, मिठाई देने का लालच दिया, मेला दिखाने का वादा किया। इससे जब काम न चला तो बन्दर, सिपाही, लूलू और हौआ की धमकी दी। पर रुद्र ने वह रौद्र भाव धारण किया कि किसी तरह चुप न हुआ। यहाँ तक कि सुखदा को क्रोध आ गया, बच्चे को वहीं छोड़ दिया और आकर घर के धंधे में लग गयी। रोते-रोते रुद्र का मुँह और गाल लाल हो गए, आँखे सूज गईं। निदान वह वहीं जमीन पर सिसकते-सिसकते सो गया !
सुखदा ने समझा था कि बच्चा थोड़ी देर में रो-धो कर चुप हो जाएगा। पर रुद्र ने जागते ही अन्ना की रट लगायी। तीन बजे चंद्रमणि दफ्तर से आये और बच्चे की यह दशा देखी, तो स्त्री की तरफ कुपित नेत्रों से देखकर उसे गोद में उठा लिया और बहलाने लगे। जब अंत में रुद्र को यह विश्वास हो गया कि दाई मिठाई लेने गयी है तो उसे संतोष हुआ।
परंतु शाम होते ही उसने फिर झींखना शुरू किया— अन्ना ! मिठाई ला। इस तरह दो–तीन दिन बीत गए। रुद्र को अन्ना की रट लगाने और रोने के सिवा और कोई काम न था। वह, शांति प्रकृति कुत्ता, जो उसकी गोद से एक क्षण के लिए भी न उतरता था; वह मौनव्रतदारी बिल्ली, जिसे ताख पर देखकर वह खुशी से फूला न समाता था; वह पंखहीन चिड़िया, जिस पर वह जान देता था; सब उसके चित्त से उतर गए। वह उनकी तरफ आँख उठाकर भी न देखता। अन्ना जैसी जीती-जागती, प्यार करनेवाली, गोद में लेकर घुमाने वाली, थपक-थपककर सुलानेवाली, गा-गाकर खुश करने वाली चीज का स्थान उन निर्जीव चीजों से पूरा न हो सकता था। वह अक्सर सोते-सोते चौंक पड़ता और अन्ना-अन्ना पुकारकर हाथों से इशारा करता, मानो उसे बुला रहा है। अन्ना की खाली कोठरी में घंटों बैठा रहता। उसे आशा होती कि अन्ना यहाँ आती होगी। इस कोठरी का दरवाजा खुलते सुनता, अन्ना-अन्ना ! कहकर दौड़ता। समझता कि अन्ना आ गई। उसका भरा हुआ शरीर घुल गया। गुलाब जैसा चेहरा सूख गया, माँ और बाप उसकी मोहिनी हँसी के लिए तरसकर रह जाते थे। यदि बहुत गुदगुदाने या छेड़ने से हँसता भी, तो ऐसा जान पड़ता था कि दिल से नहीं हँसता, केवल दिल रखने के लिए हँस रहा है। उसे अब दूध से प्रेम नहीं था, न मिश्री से, न मेवे से, न मीठे बिस्कुट से, न ताजी इमरती से। उनमें मजा तब था, जब अन्ना अपने हाथों से खिलाती थीं। अब उनमें मजा नहीं था।
दो साल का लहलहाता हुआ सुन्दर पौधा मुरझा गया। वह बालक जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गरमी और भारीपन का अनुभव होता था, अब सूखकर काँटा हो गया था। सुखदा अपने बच्चे की यह दशा देखकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ती और अपनी मूर्खता पर पछताती।
इंद्रमणि जो शांतिप्रिय आदमी थे, अब बालक को गोद से अलग न करते थे, उसे रोज साथ हवा खिलाने ले जाते थे, नित्य नये खिलौने लाते थे, पर वह मुरझाया हुआ पौधा किसी तरह भी न पनपता था। दाई उसके लिए संसार का सूर्य थी। उस स्वाभाविक गर्मी और प्रकाश से वंचित रहकर हरियाली को बाहर कैसे दिखाता ? दाई के बिना उसे अब चारों ओर अँधेरा और सन्नाटा दिखाई देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गई थी। रुद्र उसकी सूरत देखते ही मुँह छिपा लेता था, मानो वह कोई डाइन या चुड़ैल है।

प्रत्यक्ष रूप में दाई को न देखकर रुद्र उसकी कल्पना में मग्न रहता। वहाँ उसकी अन्ना चलती-फिरती दिखाई देती थी। उसके वही गोद थी, वही स्नेह वही प्यारी-प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मजेदार मिठाइयाँ, वही सुहावना संसार, वही आनंदमय जीवन। अकेले बैठकर कल्पित अन्ना से बातें करता, अन्ना कुत्ता भूके। अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना, उजला-उजला घोड़ा दौड़े। सबेरा होते ही लोटा लेकर दाई की कोठरी में जाता और कहता— अन्ना, पानी। दूध का गिलास लेकर उसकी कोठरी में रख आता और कहता— अन्ना, दूध पिला। अपनी चारपाई पर तकिया रखकर चादर से ढाँक देता और कहता—अन्ना सोती है। सुखदा जब खाने बैठती, तो कटोरे उठा-उठाकर अन्ना की कोठरी में ले जाता और कहता— अन्ना, खाना खाएगी। अन्ना अब उसके लिए एक स्वर्ग की वस्तु थी, जिसके लौटने की अब उसे बिलकुल आशा न थी। रुद्र के स्वभाव में धीरे-धीरे बालकों को चपलता और सजीवता की तरह एक निराशाजनक धैर्य, एक आनंद-विहीन शिथिलता दिखाई देने लगी।

इस तरह तीन हफ्ते गुजर गए। बरसात का मौसम था। कभी बेचैन करने वाली गर्मी, कभी हवा के ठंडे झोंके। बुखार और जुकाम का जोर था। रुद्र की दुर्बलता इस ऋतु-परिवर्तन को बर्दाश्त न कर सकी। सुखदा उसे फलालैन का कुर्ता पहनाए रखती थी। उसे पानी के पास नहीं जाने देती। नंगे पैर एक कदम भी नहीं चलने देती। पर सर्दी लग ही गई। रुद्र को खाँसी और बुखार आने लगा।

4

प्रभात का समय था। रुद्र चारपाई पर आँख बंद किए पड़ा था। डाक्टरों का इलाज निष्फल हुआ। सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छाती में तेल मालिश कर रही थी और इंद्रमणि विषाद की मूर्ति बने हुए करुणापूर्ण आँखों से बच्चे को देख रहे थे। इधर सुखदा से बहुत कम बोलते थे। उन्हें उससे एक तरह की घृणा-सी हो गई थी। वह रुद्र की बीमारी का एकमात्र कारण उसी को समझते थे। वह उनकी दृष्टि में बहुत नीच स्वभाव की स्त्री थी। सुखदा ने डरते-डरते कहा—आज बडे़ हाकिम साहब को बुला लेते, शायद दवा से फायदा हो।
इंद्रमणि ने काली घटाओं की ओर देखकर रुखाई से जबाव दिया— बड़े हाकिम नहीं, यदि धन्वंतरि भी आएँ, तो भी उसे कोई फायदा न होगा।
सुखदा ने कहा— तो क्या अब किसी की दवा न होगी ?
इंद्रमणि— बस, इसकी एक ही दवा है, जो अलभ्य है।
सुखदा— तुम्हें तो बस, वही धुन सवार है। क्या बुढ़िया अमृत पिला देगी ?
इंद्रमणि—वह तुम्हारे लिए चाहे विष हो, पर लड़के के लिए अमृत ही होगी।
सुखदा—मैं नहीं समझती कि ईश्वरेच्छा उसके अधीन है।
इंद्रमणि—यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझीं तो रोओगी। बच्चे से भी हाथ धोना पड़ेगा।
सुखदा—चुप भी रहो, क्या अपशकुन मुंह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनाना है, तो बाहर चले जाओ।
इंद्रमणि— तो मैं बाहर जाता हूँ। पर याद रखो, यह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। यदि लड़के को तंदुरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ, उससे विनती और प्रार्थना करो, क्षमा माँगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसी की दया के अधीन है।

सुखदा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी आंखों से आँसू जारी थे।
इंदमणि ने पूछा— क्या मर्जी है, जाऊँ उसे बुला लाऊँ ?
सुखदा— तुम क्यों जाओगे, मैं आप चली जाऊँगी।
इंद्रमणि— नहीं, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। न जाने तुम्हारी जबान से क्या निकल पड़े कि जो वह आती हो तो भी न आये।
सुखदा ने पति की ओर फिर तिरस्कार की दृष्टि से देखा और बोली—हाँ, और क्या, मुझे अपने बच्चे की बीमारी का शोक थोड़े ही है। मैंने लाज के मारे तुमसे कहा नहीं, पर मेरे हृदय में यह बात बार-बार उठी है। यदि मुझे दाई के मकान का पता मालूम होता, तो मैं कब की उसे मना लायी होती। वह मुझसे कितनी ही नाराज हो, पर रुद्र से उसे प्रेम था। मैं आज उसकी पास जाऊँगी। तुम विनती करने को कहते हो, मैं उसके पैरों पड़ने के लिए तैयार हूँ। उसके पैरों को आँसुओं से भिगोऊँगी और जिस तरह राजी होगी, राजी करूंगी।

सुखदा ने बहुत धैर्य धरकर यह बातें कहीं, परन्तु उमड़े हुए आँसू अब न रुक सके। इंद्रमणि ने स्त्री को सहानुभूतिपूर्वक देखा और लज्जित हो बोले मैं तुम्हारा जाना उचित नहीं समझता। मैं खुद ही जाता हूँ।

5

कैलासी संसार में अकेली थी। किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था। परन्तु धीरे-धीरे उसकी सब पत्तियाँ गिर गई। अब उसकी सब हरियाली नष्ट-भ्रष्ट हो गई और अब वही एक सूखी हुई टहनी उस हरे-भरे पेड़ का चिह्न रह गई थी।
परन्तु रुद्र को पाकर इस सूखी टहनी में जान पड़ गई थी। इसमें हरी भरी पत्तियाँ निकल आई थीं। जीवन जो अब तक नीरस और शुष्क था, अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी थी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं, बल्कि सार्थक हो गया था।
कैलासी रुद्र की भोली-भाली बातों पर निछावर हो गई। पर वह अपना स्नेह सुखदा से छिपाती थी। इसीलिए कि माँ के हृदय में द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिपा कर मिठाइयाँ लाती और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती कि बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जाएगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नजर से बचाने के लिए ताबीज और गंडे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमें स्वार्थ की गंध भी न थी।
इस घर से निकलकर आज कैलासी की वह दशा थी, जो थिएटर में यकायक बिजली के लैम्पों के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूँज रही थीं। उसे अपना घर काटे खाता था। उस काल-कोठरी में दम घुटा जाता था।
रात ज्यों-ज्यों कर कटी। सुबह को वह घर में झाड़ू लगा रही थी। यकायक बाहर ताजे हलुवे की आवाज सुनकर बड़ी फुर्ती से बाहर निकल आई। तब तक याद आ गया, आज हलवा कौन खाएगा ? आज गोद मैं बैठ कर कौन चहकेगा ? वह मधुर गान सुनने के लिए, जो हलुवा खाते समय रुद्र की आँखों से, होंठो से और शरीर के एक-एक अंग से बरसता था, कैलासी का हृदय तड़प गया। वह व्याकुल होकर घर से बाहर निकली कि चल रुद्र को देख आऊँ। पर आधे रास्ते से लौट गयी।

रुद्र कैलासी के ध्यान से एक क्षण-भर के लिए भी नहीं उतरता था। वह सोते-सोते चौंक पड़ती, जान पड़ता, रुद्र डंडे का घोड़ा दबाए चला आता है। पड़ोसिनों के पास जाती, तो रुद्र ही की चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और जान में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरतापूर्ण व्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज इरादा करती थी कि आज रुद्र को देखने चलूँगी। उसके लिए बाजार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती ! घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती।
कभी दो-चार कदम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौन मुँह लेकर जाऊँ ? जो प्रेम को धूर्तता समझता हो, उसे कौन-सा मुँह दिखाऊँ ? कभी सोचती, यदि रुद्र मुझे न पहचाने तो ? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या ? नई दाई से हिल-मिल गया होगा। यह खयाल उसके पैरों पर जंजीर का काम कर जाता था।
इस तरह दो हफ्ते बीत गए। कैलासी का जी उचटा रहता, जैसे उसे कोई लम्बी यात्रा करनी हो। घर की चीजें जहाँ-की-तहाँ पड़ी रहतीं, न खाने की सुधि थी न कपड़े की,। रात-दिन रुद्र ही के ध्यान में डूबी रहती थी। संयोग से इन्हीं दिनों बद्रीनाथ की यात्रा का समय आ गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियाँ करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया की-सी थी, जो पिंजड़े से निकलकर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे विस्मृति का यह अच्छा अवसर मिल गया। यात्रा के लिए तैयार हो गई।

6

आसमान पर काली घटाएँ छायी हुई थीं और हलकी-हलकी फुहारें पड़ रही थीं। देहली स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। कुछ गाड़ियों पर बैठे थे, कुछ अपने घरवालों से विदा हो रहे थे। चारों तरफ एक हलचल–सी मची थी। संसार-माया आज भी उन्हें जकड़े हुए थी; कोई स्त्री को सावधान कर रहा था कि धान कट जाय, तो तालाब वाले खेत में मटर बो देना और बाग के पास गेहूं। कोई अपने जवान लड़के को समझा रहा था, असामियों पर बकाया लगान की नालिश करने में देर न करना और दो रुपये सैकड़ा सूद जरूर काट लेना। एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपने मुनीम से कह रहे थे कि माल आने में देर हो, तो खुद चले जाइएगा और चलतू माल लीजिएगा, नहीं तो रुपया फँस जाएगा। पर कोई-कोई ऐसे श्रद्धालु भी थे, जो धर्म-मग्न दिखाई देते थे। वे या तो चुपचाप असामान की ओर निहार रहे थे या माला फेरने में तल्लीन थे।
कैलासी भी एक गाड़ी में बैठी सोच रही थी, इन भले आदमियों को अब भी संसार की चिंता नहीं छोड़ती। वही बनिज-व्यापार, लेन-देन की चर्चा। रुद्र इस समय यहाँ होता तो बहुत रोता, मेरी गोद से कभी न उतरता। लौटकर उसे अवश्य देखने जाऊँगी। या ईश्वर, किसी तरह गाड़ी चले गर्मी के मारे जी व्याकुल हो रहा है। इतनी घटा उमड़ी हुई है, किंतु बरसने का नाम नहीं लेती। मालूम नहीं, यह रेलवाले क्यों देर कर रहे हैं। झूठ-मूठ इधर-उधर दौड़ते-फिरते हैं। यह नहीं कि झटपट गाड़ी खोल दें। यात्रियों की जान-में-जान आये एकाएक उसने इंद्रमणि को बाइसिकिल लिये प्लेटफार्म पर आते देखा। उनका चेहरा उतरा हुआ था और कपड़े पसीने से तर थे। वह गड़ियों में झाँकने लगे। कैलासी केवल यह जताने के लिए कि मैं भी यात्रा करने जा रही हूँ, गाड़ी से बाहर निकल आयी। इंद्रमणि उसे देखते ही लपककर करीब आ गए और बोले— क्यों कैलासी तुम भी यात्रा को चलीं ?
कैलासी ने सगर्व दीनता से उत्तर दिया— हाँ, यहाँ क्या करूं, जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं। मालूम नहीं, कब आँख बन्द हो जायँ। परमात्मा के यहाँ मुँह दिखाने का भो तो कोई उपाय होना चाहिए। रुद्र बाबू अच्छी तरह हैं
इंद्रमणि—अब तो जा ही रही हो। रुद्र का हाल पूछकर क्या करोगी ? उसे आशीर्वाद देती रहना।
कैलासी की छाती धड़कने लगी। घबराकर बोला— उनका जी अच्छा नहीं है क्या ?
इंद्रमणि—वह तो उसी दिन से बीमार है, जिस दिन तुम वहाँ से निकलीं। दो हफ्ते तक उसने अन्ना-अन्ना की रट लगायी। एक हफ्ते से खाँसी और बुखार मे पड़ा है। सारी दवाइयाँ करके हार गया, कुछ फायदा नहीं हुआ। मैंने सोचा कि चलकर तुम्हारी अनुनय-विनय करके लिवा लाऊँगा। क्या जाने तुम्हें देखकर उसकी तबीयत सँभल जाय। पर तुम्हारे घर पर आया, तो मालूम हुआ कि तुम यात्रा करने जा रही हो। अब किस मुँह से चलने को कहूँ ? तुम्हारे सात सलूक ही कौन-सा अच्छा किया था, जो इतना साहस करूँ ? फिर पुण्य कार्य में विघ्न डालने का भी डर है। जाओ, उसका ईश्वर मालिक है। आयु शेष है तो बच ही जाएगा, अन्यथा ईश्वरीय गति में किसी का क्या वश ?
कैलासी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सामने की चीजें तैरती हुई मालूम होने लगीं। हृदय भावी अशुभ की आशंका से दहल गया। हृदय से निकल पड़ा—‘या ईश्वर, मेरे रुद्र का बाल बाँका न हो।’ प्रेम से गला भर आया। विचार किया कि मैं कैसी कठोर हृदय हूँ। प्यारा बच्चा रो-रोकर हलकान हो गया और मैं उसे देखने तक नहीं गयी। सुखदा का स्वभाव अच्छा नहीं, न सही, किंतु रुद्र ने मेरा क्या बिगाड़ा था कि मैंने माँ का बदला बेटे से लिया। ईश्वर, मेरा अपराध क्षमा करो। प्यारा रुद्र मेरे लिए हुड़क रहा है। (इस ख्याल से कैलासी का कलेजा मसोस उठा और आँखों से आँसू बह निकले।) मुझे क्या मालूम था कि उसे मुझसे इतना प्रेम है ! नहीं मालूम, बच्चे की क्या दशा है। भयातुर हो बोली—दूध तो पीते हैं न ?
इंद्रमणि— तुम दूध पीने को कहती हो, उसने दो दिन से आँखें तक नहीं खोलीं।
कैलासी—या मेरे परमात्मा ! अरे कुली ! बेटा, आकर मेरा सामान गाड़ी से उतार दे। अब मुझे तीरथ नहीं सूझता। हाँ बेटा, जल्दी कर। बाबूजी देखो, कोई एक्का हो तो ठीक कर लो।
एक्का रवाना हुआ। सामने सड़क पर बग्घियाँ खड़ी थीं घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। कैलासी बार-बार झुंझलाती थी और एक्कावान से कहती थी, बेटा, जल्दी कर। मैं तुझे ज्यादे दे दूँगी। रास्ते में मुसाफिरों की भीड़ देखकर उसे क्रोध आता था। उसकी जी चाहता था कि घोड़े के पर लग जाते। लेकिन इंद्रमणि का मकान करीब आ गया, तो कैलासी का हृदय उछलने लगा। बार-बार हृदय से रुद्र के लिए शुभ आशीर्वाद निकलने लगी। ईश्वर करे, सब कुशल-मंगल हो। एक्का इंद्रमणि की गली की ओर मुड़ा। अकस्मात कैलासी के कान में रोने की ध्वनि पड़ी। कलेजा मुँह को आ गया। सिर में चक्कर आने लगा। मालूम न हुआ, नदी में डूबी जाती हूं। जी चाहा कि एक्के पर से कूद पड़ूं पर थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि कोई स्त्री विदा हो रही। संतोष हुआ। अंत में इंद्रमणि का मकान आ पहुँचा। कैलासी ने डरते-डरते दरवाजे की तरफ ताका—जैसे कोई घर से भागा हुआ अनाथ लड़का शाम को भूख-प्यासा घर आये और दरवाजे की ओर सटकी हुई आँखों से देखे कि कोई बैठा तो नहीं है। दरवाजे पर सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज बैठा सुरती मल रहा था। कैलासी को जरा ढाँढस हुआ। घर में बैठी तो नई दाई पुलटिस पका रही थी। हृदय में बल संचार हुआ सुखदा के कमरे में गयी, तो उनका हृदय गर्मी के मध्याह्नकाल के सदृश काँप रहा था। सुखदा रुद्र को गोद में लिये दरवाजे की ओर एकटक ताक रही थी। शोक और करुणा की मूर्ति बनी थी।
कैलासी ने सुखदा से कुछ नहीं पूछा। रुद्र को उसकी गोद से ले लिया और उसकी तरफ सजल नयनों से देखकर कहा—बेटा, आँखें खोलो।
रुद्र ने आँखे खोलीं, क्षण-भर दाई को चुपचाप देखता रहा, तब यकायक दाई के गले से लिपट कर बोला—अन्ना आई ! अन्ना आई !!
रुद का पीला मुरझाया हुआ चेहरा किल उठा, जैसे बुझते हुए दीपक में तेल पड़ जाए। ऐसा मालूम हुआ, मानो वह कुछ बढ़ गया है।
एक हफ्ता बीत गया। प्रातःकाल का समय था रुद्र आँगन में खेल रहा था इंद्रमणि ने बाहर से आकर उसे गोद में उठा लिया और प्यार से बोले-तुम्हारी अन्ना को मारकर भगा दें।
रुद्र ने मुँह बनाकर कहा—नहीं, रोएगी।
कैलासी बोला—क्यों बेटा, तुमने तो मुझे बद्रीनाथ नहीं जाने दिया। मेरी यात्रा का पुण्य-फल कौन देगा ?
इंद्रमणि ने मुस्कराकर कहा—तुम्हें उससे कहीं अधिक पुण्य हो गया। यह तीर्थ महातीर्थ है।

समाप्त

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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