उपन्यास -साथ चलते हुए...

Post Reply
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

Post by Jemsbond »

उसकी बात सुनकर वह गहरी साँस लेकर रह गई थी -
इन बातों का भी कुच्छो मतलब नहीं दीदिया... गरीबों का कोई सच्चा हमदर्द नहीं। सब हमरी ही चिता पर हाथ सेंकते हैं! सबके अपने-अपने सवार्थ हैं - फिर वह परशासन के लोग हों, पुलिस हो, पूँजीपति या यह नक्सलवादी... हमको तो हर तरफ से मरना है। पुलिस, महाजनों के हाथ से छूटते हैं तो नक्सलवादियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। औरतों का हाल तो और बुरा है, उसे घेरकर महाभोज लगा है। पुलिस लॉकअप में भी उसका बलात्कार होता है और अपने इन तथाकथित कामरेडों, गरीबों के हमदर्दों के द्वारा भी। उसके बचने का कोई उपाय नहीं दीदिया!
सुनकर वह सन्न रह गई थी। यह सब भी होता है। आखिर किसका यकीन किया जाय! सकालो पढी-लिखी है यह वह जानती थी, मगर इतनी समझदार भी है, यह पहली बार समझ सकी थी। उसने अपने आस-पास के हालात को बिल्कुल सही पकड़ा था।
- जितनी भी औरतें गई थी इन लोगों का साथ देने उनमें से अधिकतर के साथ यही हुआ है - बलात्कार, शोषण... कल ही एक ग्यारह वर्ष की बच्ची का हमल गिराया गया था, वह भी जंगल में... इतना खून बहा की मर गई! सूखे नाले के पास से उसके माँ-बाप उसकी अधखाई लाश उठाकर ले गए। हाईना खा गए थे उसे! ट्रेनिंग दिलवाने की बात करके उठा ले गए थे यही लोग। अब कहिए!
सुनकर वह भागती हुई अपने कमरे में आ गई थी। उस समय वह अपनी उबकाई रोक नहीं पा रही थी।
दो सप्ताह के बाद कौशल कोलकाता से लौटा था, बिल्कुल बदला हुआ-सा। लुटा-बिखरा चेहरा, बढ़ी हुई दाढ़ी... आकर देर तक चुपचाप बैठा रह गया था - एकदम अन्यमनस्क, खोया-खोया। न जाने किस सोच में एकदम गहरा डूबा हुआ था। अपर्णा ने अपनी तरफ से कुछ पूछा नहीं था, मगर उसे अचानक से देखकर उसकी आँखें जल उठी थीं। किसी तरह स्वयं को संयत किया था उसने।
- मिस्टर हडसन की लाश मिली है... सिर्फ धड़, सर गायब है... बहुत देर बाद कौशल ने कहा था। सुनकर वह स्तंभित रह गई थी।
- एक कप चाय पिला दो अपर्णा...
न जाने कितनी देर बाद कौशल ने उससे कहा था। फिर थोड़ी देर तक उसे देखता रहा था - तुम ठीक हो?
- हाँ... एक संक्षिप्त-सा जबाव देकर वह चुप रह गई थी, एक मान भरी चुप्पी...
- मुझे यहाँ से जाना पड़ा था अपर्णा... नयन के पिताजी ने खबर भिजवाई थी। कोलकाता में बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं - बताया था तुम्हें... उनकी मदद नहीं मिलती तो इस बार जरूर अंदर कर दिया जाता, सारी व्यवस्था हो चुकी थी।
- अंदर कर दिए जाते! किस अपराध में? उसे सुनकर आश्चर्य हुआ था।
- अपराध... उसके सवाल पर कौशल मुस्कराया था, एक बहुत थकी हुई मुस्कराहट- गरीबों का साथ देना... यह कम बड़ा अपराध है?
- मगर कोई हमें यह सब करने से कैसे रोक सकता है? लोकतंत्र है... दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी...
उसकी बात सुनकर कौशल के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कराहट छा गई थी - लोकतंत्र सिर्फ संविधान में है, सरकारी बयान और राजनेताओं के भाषणों में है, बाकी कहीं नहीं... वास्तविकता यह है कि यहाँ तो पूँजी और पूँजीपतियों का राज्य है। बाजार हर जगह घुस गया है और यही बाजार यहाँ सब कुछ तय करता है - नीति-नियम, कानून... सब कुछ!
- बाजार के पीछे पैसे की ताकत है और यह पैसा आज का सबसे बड़ा भगवान है... और गरीबों, गरीब देशों का यम भी। शहरों, जंगलों में पटी पड़ी ये लाशें... यह सब क्या कहती हैं? पूरी मनुष्य जाति पर चंद लोगों का राज, उनका कब्जा - इसी पैसे के बल पर! इन्हीं के कारण तो आज ये नक्सली, माओवादी इस तरह से सर उठा रहे हैं, विद्रोह पर उतर रहे हैं। आम लोग सामाजिक न्याय के अभाव में विवश होकर प्रतिरक्षा में हथियार उठा रहे हैं, एक आरपार की लड़ाई तो होनी ही है...
उसकी बातें सुनकर अपर्णा गहरे तक हिल गई थी। न जाने आगे क्या होनेवाला है।
- जो कुछ हो रहा है, क्या तुम उससे सहमत हो? क्या सारी समस्याओं का हल इस तरह से हो सकेगा - हथियार उठाकर खड़े हो जाने से...? लोकतंत्र का विकल्प यह माओवाद, नक्सलवाद हो सकता है?
- मैं नहीं जानता अपर्णा, सच कहो तो मैं खुद असमंजस में हूँ... दुनिया में पहले भी ऐसी सशस्त्र क्रांति हो चुकी है, मगर हुआ क्या, रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों का हश्र तुम्हारे सामने है। असल में बात यह है कि सत्ता में आते ही लोगों का चरित्र बदल जाता है। मनी करप्ट्स, बट पावर करप्ट्स नेसेसरिली...
- फिर इतने बलिदान, संघर्ष किसलिए, जब होना कुछ नहीं है...
अपर्णा की आवाज में गहरी निराशा थी। अपने ही अनजाने वह उठकर टहलने लगी थी। टहलती हुई खिड़की के पास जाकर वह बाहर देखने लगी थी, गहरे स्लेटी बादलों से आकाश ढँक आया था।
- शायद आज बारिश होगी...
कहते हुए उसके अंदर की हलचल उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। सहज दिखते हुए भी वह गहरे तनाव में थी।
कुछ देर की चुप्पी के बाद कौशल ने सर उठाया था -
ऐसे भी हाथ पर हाथ धरे हम चुपचाप बैठ तो नहीं सकते। कोशिश करना, कर्म करना हमारा फर्ज भी है और धर्म भी... आखिर हम मनुष्य है, पशु की तरह कैसे निर्विरोध अत्याचार सहकर जी सकते हैं। अपर्णा, जीवन की यही जिजीविषा हमें जिंदा रखती है... इनसान सबसे गरीब या दयनीय तब होता है जब उसके पास देखने के लिए कोई सपना नहीं होता या उसके हृदय में प्यार नहीं होता...
- हम हमारे वर्तमान लोकतंत्र में भी तो इन समस्याओं का हल ढूँढ़ सकते हैं कौशल? अपर्णा ने अपनी तरफ से सोचने का प्रयास किया था।
- अब तक तो ढूँढ़ ही रहे थे, आजादी के कितने साल बीत गए, बोलो! आजादी के बाद सत्ता और संसाधनों को हथियाने के चक्कर में पूरे राष्ट्रीय चरित्र का ऐसा गहरा पतन और विचलन हुआ है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस जमीन को घेरकर एक महाभोज लगा है - गिद्धों और भेड़ियों का महाभोज! ऐसी हालत में कितनी उम्मीद की जाय और कहाँ तक?
उसने आज तक कौशल को कभी इतना निराश नहीं देखा था। वह इस तरह से बैठा था कि जैसे सब कुछ हार आया हो। उसके झुके हुए कंधों की तरफ देखते हुए उसका मन भर आया था। क्या करे कि उसे थोड़ी सांत्वना मिल सके, वह यकायक सोच नहीं पाई थी। एक गहरी उदासी माहौल में तैर आई थी। दिन का रंग गहरा धूसर पड़ रहा था। बादल बरसने-बरसने को हो आए थे।
- इतने निराश होने की भी शायद जरूरत नहीं, हो सकता है, इसी संघर्ष से कुछ अच्छा नतीजा निकल आए...
अपर्णा ने कौशल को तसल्ली देनी चाही थी। वातावरण बहुत बोझिल हो आया था। एकदम दमघोटूँ!
- पता नहीं, अब तो एक तरह की निराशा-सी होने लगी है। इन मूवमेंट्स का भी चरित्र और रुख बदल रहा है। हर तरफ से निराश होकर गरीबों ने, आदिवासियों ने - एक पूरे सर्वहारा वर्ग ने - इन नक्सलियों का साथ दिया था, मगर उन्हें क्या मिला - वही सब जो अब तक सामंतवादी ताकतों से उन्हें मिलता रहा था - शोषण और अत्याचार... पूँजीवादी देशों के हाथों की कठपुतली बने अब यह संगठन - अधिकतर संगठन - अपनी नैतिकता और लक्ष्य से भटक चुके हैं। विदेशी पैसों की पट्टी इनकी आँखों में बँध गई है। अब तो यह भी सही-गलत का फैसला करने में बिल्कुल सक्षम नहीं रहे।
थोड़ा रुककर उसने फिर कहा था -
शुरू में कुछ ईमानदार लोग थे जो अपनी पूरी आस्था के साथ अन्याय और अत्याचार के खिलाफ इस लड़ाई में उतरे थे, उन लोगों की लड़ाई, जो अपने हक के लिए खड़े नहीं हो पाते, युगों की प्रताड़ना ने जिन्हें मूक और बधिर बना दिया है, मेरुदंड तोड़ दिया है। उन्हें जगाना, सतर होकर अपनी जमीन पर खड़े रहना सीखना, साथ में अन्यायी के पंजे में पंजे डालकर एक अंतहीन लड़ाई का आगाज करना... ऐसा ही सत था उनकी मंशा में, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता ; मगर... बीच में ही कुछ लोभी और अपराधिक मनोवृत्ति के लोगों ने इसे हाईजैक कर लिया। अब तो यह बहुत ही गलत किस्म के लोगों के हाथों में पँहुच चुका लगता है!
कहते हुए कौशल थोड़ी देर के लिए रुका था, जैसे अपने उलझे विचारों को एक क्रम देने का प्रयत्न कर रहा हो, फिर धीरे-धीरे बात आगे बढ़ाई थी, जैसे स्वयं से ही संबोधित हो-
महत उद्देश्य को लेकर शुरू हुआ यह मुहिम अब अधःपतन के कगार पर पहुँच गया है। महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है, पैसों की लूट लगी है। सरकारी अमला, राजनेता, जंगलों के ठेकेदार, बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय कंपनियाँ और यह तथाकथित क्रांतिकारी- नक्सली और माओवादी... सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं - अंदर से मिले हुए। पैसे और सत्ता की बंदरबाँट लगी है हर जगह...
- तुम क्या चाहते हो कौशल...?
- मैं किसी वाद के मकड़जाल में नहीं उलझना चाहता। एक संवेदनशील मनुष्य होने के नाते बस यही चाहता हूँ कि मनुष्य को मनुष्य होने का सम्मान मिले और वह अपने अधिकारों के साथ एक सुखी, सुरक्षित जीवन जी सके। इतना ही, और कुछ ज्यादा नहीं...
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

Post by Jemsbond »

उस दिन कौशल जल्दी चला गया था। अपर्णा उसे रोक नहीं पाई थी। न जाने क्यों पिछले कुछ समय से उसे अपना अकेलापन त्रस्त करने लगा था। कौशल के साथ ने उसकी आदत बदल दिया था। एकांत और अकेलेपन के बीच का अंतर अब धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा था। एकांत उसे अब भी प्रिय था, मगर रिश्तों की दुनिया में एकदम से बेघर हो जाना कहीं रह-रहकर दंश दे जाता था, बहुत गहरी और तकलीफदेह।
इन दिनों हर तरफ से लगातार बुरी खबरें आ रही थीं। रोज कहीं न कहीं विस्फोट, हत्या, पुलिस या आम लोगों की मौत... चारों तरफ पुलिस की गश्ती गाड़ियाँ घूम रही थीं, उन्होंने जंगल के भीतरी इलाके में अपनी दबिश बढ़ा दी थी।
अपर्णा ने आदिवासी बस्तियों में जाना कम कर दिया था, एक तरह से बंद ही। कभी-कभी हेल्थ सेंटर या आँगनबाड़ी जैसी संस्थाओं में जाती थी। कौशल अधिकतर व्यस्त रहता था, उससे मिलने पहले की तरह आ नहीं पाता था।
कुछ दिनों बाद मानसून के बादल आकाश में घिर आए थे। कई दिनों तक लगातार बारिश होती रही थी। पूरा जंगल एकदम से ताजी हरियाली में नहा उठा था। मोर के अनवरत केंका, पपीहे की पीक से वन-वनांतर गूँजते रहते। ऐसी सघन हरीतिमा शायद वह पहली बार देख रही थी। दूर-दूर तक बस मखमली घासों की बिछी हुई कालीन और झूमते-लहराते पेड़-पौधे...
प्रकृति के नयनाभिराम ऐश्वर्य ने अस्थायी तौर पर ही सही, उसके मन के अमित संताप को एक सीमा तक हर लिया था। एक दिन वह बारिश में देर तक भीगी थी, उसे लगा था, उसका बचपन लौट आया है। कोयल और सुगना नदियों की धाराएँ एकदम से उफन आई थीं। उनकी भरी-पूरी देह को देखकर यकीन नहीं आता था, कल तक यही नदियाँ रेत की ढूहों के बीच निस्तेज पड़ी रहती थीं। और भी न जाने कितनी बरसाती नदियाँ जादू की तरह अनायास पहाड़ों से फूट पड़ी थीं। तेज गति से नीचे उतरती उनकी धाराएँ पत्थरों से टकरातीं तो जलकणों के सफेद बादल-से छा जाते। वादियों में उद्दाम हवा की धमक और जल प्रपातों का शोर निरंतर गूँजता रहता। पहाड़ियों के माथे पर धुंध, धुआँ के बादल छाए रहते। जमीन से भाप उड़ता रहता। एकदम स्वप्नवत सब कुछ, मायावी...
एक दिन कौशल भी उसके साथ था। बँगले में लौटते हुए अचानक बारिश शुरू हो गई थी। उनके पास छाता नहीं था। पूरी तरह से भीग गए थे दोनों। यूँ साथ-साथ भीगना उसे अच्छा लगा था। इन दिनों उदासी की धूसर, गहरी अनुभूतियों के बीच रंगीन, पारदर्शी बुलबुलों की तरह कुछ अनायास खिल आता है, उसे एक सुखद आश्चर्य में डुबोते हुए...
वह अपनी हथेली में उन क्षणों की मीठी, अनाम अनुभूतियों को देर तक बाँधे रखती है, एकांत में उलटती-पलटती है, सिरहाने रखकर सो जाती है... सपनों में भी रंगों के हल्के-से छींटे पड़े हैं, सेमल के रेशमी फाहे की तरह कुछ आसपास उड़ता फिरता है रात दिन... न जाने कितने अनाम जंगली फूलों की गंध उसने धीरे-धीरे पहचानी हैं, उनसे मित्रता की है - रकम-रकम की...! कुछ सुंदर है जो फिर से अँखुआ रहा है, आकार ले रहा है रंगोली की तरह सारा मन जोड़कर, एक छोर से दूसरे छोर तक...
छोटी-छोटी चीजों में जादू है। हल्की, नन्हीं बूँदों में इंद्रधनुष सिमटा रहता है, पत्थरों के बीच टलमल करते पानी के मुट्ठी भर सोते में सारा आकाश बँधा पड़ा रहता है। वह देखती है और आश्चर्य में डूब जाती है - यही वह दुनिया है जहाँ वह अब तक जीती आई थी! देखा तो न जाने कब से है, मगर जाना अब है... एक नन्हीं-सी चिड़िया के पंखों में अनंत आकाश होता है, आँखों की पुतलियों में पूरा मन - संवेदनाओं से आर्द्र और आप्लावित... देह अनवरत पड़ती झींसी में गीली होती है और एक गर्म लौ में मन नहाता रहता है सूरजमुखी की तरह, सुनहली हँसी में भीगता रहता है क्षण-क्षण...
अंदर का कोई अँधेरा कोना गाहे-बगाहे कसमसाता है - यह पाप है, बहुत गलत... कोई दूसरा कोना मद से बोझिल मुस्कराता है - तत्क्षण - मगर बहुत खूबसूरत...
दुख और सुख की मायावी धूप-छाँव में वह निरंतर भटकती रहती है। दो जल भीगे नयनों की स्मृति जब-तब मन को छू आकूल कर जाती है तो न जाने किसकी अदृश्य उंगलियाँ देह पर पारदर्शी कविताएँ रचकर उसे समय-समय आपाद-मस्तक सिहरा भी जाती है। कभी उसे लगता है, वह स्वयं के लिए ही एक पहेली हो गई है। कितना असहाय लगता है ऐसे क्षणों में... दुर्बल बाँहों में अपना ही भार नहीं सँभलता। एक क्षण वह पत्थर होती है - ठोस, अडिग; दूसरे क्षण पानी - तरल, बहती हुई... वह सोचना चाहती है, वह कहाँ जा रही है, किस दिशा में... दिशा ज्ञान लुप्त-सा हो आया है। कभी लगता है, बहुत दूर निकल आई है, कभी महसूस होता है, कहीं गए ही नहीं, वहीं खड़े हैं जहाँ से चलना शुरू किया था...
एक दिन चाय पीते हुए कौशल ने कहा था, जानती हो अपर्णा, इस बार कोलकाता में अपनी बेटी से मिलकर समझ पाया, वह मुझसे बहुत दूर चली गई है। नयन ने उसे मेरे खिलाफ कर दिया है। उसकी आँखों को देखकर मुझे डर लगा, मैं अंदर तक सिहर गया। उनमें अपनत्व नहीं, एक अपरिचित दृष्टि है, किसी अनजान व्यक्ति की-सी। एक किस्म की घृणा... अब तक यही लगता रहा था कि मेरी बेटी मुझसे थोड़ी दूर है, शारीरिक रूप से, और कुछ नहीं। जब भी जिंदगी मौका देगी, मैं हाथ बढ़ाऊँगा और उसे छू लूँगा... मगर इस बार बहुत अजीब लगा। शायद मैंने उसे खो ही दिया है, हमेशा के लिए। मन की कच्ची जमीन पर जितनी आसानी से दाग लगते हैं उतनी आसानी से मिट भी जाते हैं। बहुत अकेला हो गया अचानक - पूरी तरह से - वह नहीं, उसकी उम्मीद भी नहीं...
कहते हुए उसकी आवाज न जाने कैसी हो आई थी, अचानक से बुझ गई लौ की तरह-एकदम निष्प्रभ... देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा था, एक तरह के संकोच के साथ, जैसे अपना अपराध कबूल रहा हो -
नयन के पिता मुझसे बहुत स्नेह रखते हैं। उनकी हमेशा से कोशिश रही है कि मैं और नयन एक हो जाए फिर से। इस बार भी वह यही कह रहे थे। दीया के लिए मैं कुछ भी कर सकता था, मगर नयन के अहंकार... उसने हर बार मुझे खाली हाथ लौटा दिया। वह कभी भी नहीं बदलेगी!
सुनकर वह कहीं से उदास हो गई थी, तो इस बार भी कौशल अपनी पत्नी के पास आपस के तनाव और मनमुटाव दूर करने गया था... और वह यहाँ... कितना सूना हो गया था उसके बिना उसका जीवन! कौशल उसके सपाट चेहरे की ओर देखता रहा था -
मैंने कहा था, मैं दीया के लिए कुछ भी कर सकता हूँ, आई होप यु अंडरस्टैंड, व्हाट आई मीन...
- यस, आई डु... किसी तरह वह इतना ही कह पाई थी। इसके बाद दोनों के बीच एक बहुत आश्वस्तिकर चुप्पी घिर आई थी। फिर अपर्णा ने ही बात का सूत्र दुबारा सँभाला था, ठहरे हुए लहजे में, जैसे बयान दे रही हो - कौशल, मैं अमेरिका लौट रही हूँ...
- क्या!
कौशल एकदम से चौंक पड़ा था -
अपर्णा, क्या मैंने तुम्हें दुख पहुँचाया...? पूछते हुए उसने अनायास उसका हाथ पकड़ लिया था।
- ऑफकोर्स नॉट... मुझे कुछ काम है, जाना पड़ेगा।
- कब लौटोगी? लौटोगी न? इस बार पूछते हुए उसके हाथ का दबाव बढ़ गया था।
- अभी तक इस विषय में सोचा नहीं। मगर...
न जाने क्या कहते-कहते वह यकायक ठहर गई थी। कौशल एकटक उसकी तरफ देख रहा था, वह उन आँखों की तपिश बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। कुछ देर तक चुप रहने के बाद कौशल अचानक उठ खड़ा हुआ था -
अब चलूँगा, कुछ जरूरी काम याद आ गया है...
अपर्णा उसे रोक नहीं पाई थी। खड़ी रही थी पत्थर की तरह। कौशल की जीप धूल उड़ाती हुई कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गई थी। उसके जाते ही एक भयावह सन्नाटा आसपास व्याप गया था। अपर्णा को लगा था, वह इस गहरे मौन में आपाद-मस्तक ढँक गई है। एकदम से सहम गई थी वह। कौशल से परे होकर उसके पास सन्नाटे के सिवा और कुछ होता क्यों नहीं! क्या उसका अपना अब कुछ भी नहीं रहा...
दूसरे दिन के डाक से आशुतोष की एक चिट्ठी आई थी - बेहद लंबी-चौड़ी! ...वह चाहता था कि अब वह उसके जीवन में वापस चली आए। तापसी उसे छोड़कर किसी और के पास चली गई है और अब उसे भी अपनी गलती का अहसास हो गया है। उसे दिल का दौरा पड़ा है। वह अपनी सारी गलतियों को सुधारना चाहता है और उसके साथ नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करना चाहता है। बाकी की जिंदगी दोनों साथ-साथ गुजारें यह उसकी हार्दिक इच्छा है। उसने काजोल की समाधि को भी संमरमर से बँधवाने की इच्छा जाहिर की थी जो अब तक उससे हो नहीं पाया था।
चिट्ठी पढ़कर वह देर तक चुपचाप बैठी रह गई थी। अंदर कहीं कोई प्रतिकिया उत्पन्न नहीं हुई थी। कभी-कभी उसे स्वयं से ही डर लगता था कि कहीं वह पत्थर की तो नहीं हो गई है। कोई आघात अब पीड़ा क्यों नहीं पहुँचाता! क्यों अंदर की हरी-भरी जमीन एकदम से ऊसर हो गई है! कोई अकेला फूल, एक चेहरा भर हँसी या क्षण भर की जुगनू-सी जलती-बुझती उमंग - कुछ भी जिसे जीवन या उसका संकेत कहा जा सके... वह स्वयं को ही बार-बार किसी उम्मीद से टटोलती और फिर गहरे तक निराश हो जाती। मन का एक हिस्सा मरु में परिवर्तित हो गया है, शायद हमेशा के लिए ही!
एक दिन कौशल ने न जाने कैसी इच्छा भरी आवाज में कहा था - 'कभी जिंदगी ने तुमसे माँगा तो उसे एक अवसर जरूर देना अपर्णा, मना मत कर देना।'
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

Post by Jemsbond »

वह कोई जवाब नहीं दे पाई थी। कौन-सा मौका वह दे इस जीवन को या स्वयं को? अब वह क्या पा सकती है या पाने की इच्छा रह गई है! आँखों के सामने सिर्फ काजोल का रक्तशून्य चेहरा और उदास आँखें हैं। उसकी कातर मिनती - माँ, मुझे जीना है, मुझे बचा लो माँ, मैं मरना नहीं चाहती, क्रिसमस आ रहा है, मुझे कैरोल गाना है... याद आते ही अपनी अक्षमता के तीव्र बोध से वह आपाद-मस्तक ढँक जाती है। उस बार क्रिसमस से पहले की रात फायर प्लेस के पास संता क्लॉज के लिए उपहार के मोजे लटकाते हुए उसने एकाग्र मन से प्रार्थना की थी - इस बार मेरी काजोल के लिए उपहार में खिलौने नहीं, एक लंबी उम्र रखना, एक स्वस्थ जिंदगी...
दूसरे दिन क्रिसमस की सुबह काजोल मर गई थी। संता क्लॉज मिठाई, खिलौने बाँटने के चक्कर में उसकी बेटी के मोजे में जिंदगी का उपहार रखना भूल गया था... चर्च के घंटे लगातार बज रहे थे, बर्फ गिरकर पूरी दुनिया कफन की तरह सफेद हो गई थी। गहरे मटमैले आकाश के नीचे एक उजली, निखरी दुनिया - दूर-दूर तक... उसने खिड़की पर पड़े लेश के सफेद पर्दे उठा दिए थे, फिर काजोल की तरफ देखा था। उसके चेहरे पर मौसम का वही बर्फ था, वही सर्द सन्नाटा... देखकर उसके अंदर सब कुछ हिम हो आया था। वह बुरी तरह हिल उठी थी। और नहीं, यह धैर्य, यह साहस, यह अंतहीन लड़ाई... कुछ तड़का था भीतर शीशे की दीवार की तरह। झनाके के साथ टूटकर बिखरा था। अचानक सुधबुध खोकर चिल्लाई थी - काजोलऽऽऽ... मगर तभी चर्च में बज उठी घंटियों की आवाज में जैसे उसकी चीख डूबकर रह गई थी।
पूरा संसार खुशी में झूम रहा था, नाच रहा था - ओ माई लॉर्ड! यु सेंट योर सन टु सेव अस, ओ माई लॉर्ड... उसकी काजोल को वह बचा न सकी, कोई बचा न सका... एक उतनी छोटी-सी जान को... उस दिन काजोल के साथ उसका भगवान, उसकी आस्था, उसका सब कुछ मर गया था। एक ही झटके में सब कुछ... उस दिन जो मर गया था वह आज तक जिंदा कहाँ हो सका...।
कभी-कभी साथ चलनेवाले किसी मोड़ पर आकर अलग रास्ते पर चल भी देते हैं, मगर आशुतोष ने जिस मुकाम पर उसका साथ छोडा था, वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। त्रुटियों को क्षमा किया जा सकता है, परंतु अपराध...!
पिछली बार पीने के बाद कौशल ब्रांडी की आधी बोतल छोड़ गया था। वही निकालकर वह शाम से पीती रही थी। पुनिया बँगले के अहाते में महुआ सुखाने के लिए डाल रही थी। बाँस की टोकरी में वह केंद के फल, महुआ, कचरा, आँवला और न जाने क्या-क्या चुनकर लाई थी। उसका दो साल का बेटा उसकी पीठ पर साड़ी से बँधा अँगूठा चूस रहा था। वह ब्रांडी के धीरे-धीरे गहराते खुमार में पुनिया के गले में तीन-चार लड़ियों में झूलती कूचफल की काली बिंदुओंवाली चटक लाल माला देखती रही थी। नीम तेल से चुपड़कर बाँधे गए जूड़े में भी उसने गुड़हल के रक्त लाल फूल खोंसे हैं। वह इस क्षण कितना सुखी, संतुष्ट दिख रही थी! उसे अनायास उस अपढ़, निर्धन वनबाला से रश्क-सा हो आया था। जो उसके पास है, उसके पास नहीं है - उसका बच्चा, उसके रिश्तों की भरी-पूरी दुनिया...
वह अपने में डूबी पड़ी रही थी, न जाने कितनी देर तक... और फिर न जाने अचानक कहाँ से प्रकट होकर कौशल ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रख दिया था। उसने उसे अलस भाव से मुड़कर देखा था।
'तुम रो रही हो अपर्णा?'
पूछते हुए कौशल के स्वर में कोई आश्चर्य नहीं था। न जाने वह कब से रोती रही थी, कौशल ने पूछा तो आभास हुआ। कौशल ने बैग से निकाकर ब्रांडी की नई बोतल मेज पर रखी थी। आज वह थर्मस में भरकर बर्फ भी ले आया था। गिलासों में हल्का भूरा द्रव्य उड़ेलकर दोनों धीरे-धीरे घूँट भरते रहे थे। कौशल ने उससे उसके रोने के बाबद कुछ भी नहीं पूछा था। उसे उसकी यही आदत सबसे भली लगती थी। वह कभी उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था। उसकी उपस्थिति में कभी भी अतिरिक्त सावधान होने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।
और फिर न जाने दुर्बलता का वह कौन-सा काँच-सा नाजुक क्षण था जब वह ग्लैशियर की तरह पिघलने लगी थी। युगों से जमा हिमखंड अब नदी बनकर बह जाना चाहता था। हजार उपेक्षा, उपालंभ में वह जी रही थी, परंतु कौशल का स्नेह भरा हाथ अपने कंधे पर पाकर आज वह छलक आई थी। कौशल के सीने पर अपना सर रखकर सिसकती हुई अपनी आपबीती सुनाती चली गई थी। कौशल बड़े धैर्य के साथ सब कुछ सुनता रहा था। न बढ़कर अपनी तरफ से कुछ पूछा था, न उसे रोने से ही रोका था। वह बाँध टूटी नदी की तरह निर्वाध बहती रही थी, आप्लावित होती रही थी। लग रहा था, आज वर्षो से बड़े यत्न से बाँथे गए सारे तटबंध एक-एककर टूट जाएँगे। कौशल भी यही चाहता था, अपर्णा शिला से मानवी बने, अहिल्या का अभिशाप समाप्त हो, वह फिर से जी उठे, धड़के, साँस ले...
धीरे-धीरे कृष्ण पक्ष का चाँद पलाश की गदरायी डालों के पीछे छिप गया था। ग्रीष्म की उसाँसें भरती-सी हवा महुआ, करोंजे की मादक गंध से बोझिल हो रही थी। बँगले के पीछे बने सर्वेंट्स क्वाटर से पुनिया के बच्चों के निरंतर बोलने और रोने की आवाजें अब आनी बंद हो गई थीं। बहुत देर तक लगातार बोलने के बाद अब वह बेतरह थककर ईजी चेयर पर निढाल होकर पड़ी थी। मगर अंदर से स्वयं को हल्का महसूस कर रही थी। लग रहा था, बहुत दिनों से लगातार टीसनेवाला कोई काँटा बाहर निकल गया है।
कौशल अपनी घड़ी देखते हुए उठ खड़ा हुआ था -
'अपर्णा, अब तुम सो जाओ, मैं चलूँगा...'
वह उसे बाँहों का सहारा देकर शयनकक्ष तक ले आया था और फिर एहतियात से उसे उसके बिस्तर पर लिटा दिया था। वह बिना कुछ कहे अपने इर्द-गिर्द उसकी मजबूत बाँहों को महसूसते हुए बिस्तर पर लेट गई थी। उसे लिटाकर कौशल सीधा खड़ा हो गया था-
'अब मैं चलता हूँ!'
कहते हुए उसकी दृष्टि बगल की मेज पर रखी काजोल की तस्वीर पर पड़ गई थी-
'ये काजोल है न? तुमने कभी उसकी तस्वीर दिखाई नहीं...'
फिर एक गहरी साँस लेकर वह मुड़कर जाने लगा था -
'मेरी दीया भी कुछ-कुछ ऐसी ही दिखती है!'
अचानक अपर्णा ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पीछे से पकड़ लिया था - 'कौशल, क्या हम दोनों एक बार फिर अपनी-अपनी काजोल को अपने जीवन में लौटाकर नहीं ला सकते?'
उसके प्रश्न पर कौशल निरुत्तर-सा खड़ा रह गया था। एक समय से उसके अंदर ही अंदर पनपती हुई इस अनाम इच्छा को आज अपर्णा ने एक स्पष्ट अभिव्यक्ति दे दी थी।
अपर्णा ने अधीर आग्रह से भरकर उसे अपने पास खींचकर बिठा लिया था -
'मुझे मेरी - हमारी - काजोल फिर से लौटा दो कौशल!'
कौशल बिना कुछ कहे उसके पास बैठ गया था। अपर्णा ने उसके सीने पर सर रखकर अपनी आँखें मूँद ली थी। बहुत दूर तक वह नंगे पाँव धूप और बारिश में निरंतर भागती रही है, अब उसे आश्रय चाहिए, एक छाँह चाहिए, ठीक ऐसी ही स्नेहिल - सब्ज और शीतल...
- मगर तुम तो अमेरिका लौटना चाहती थी...
कौशल की बाँहें उसके आसपास घिर आई थी।
- जहाँ मुझे लौटना था, अंततः वहीं लौट आई हूँ - तुम्हारे पास, अब ना मत करना...
अपर्णा की आवाज में पूरे आकाश का पिघलाव था, वह सर से पाँव तक पानी हो रही थी, बह रही थी - निर्वाध, निरंकुश... आज तक की सारी वर्जनाएँ ढह कर उसके आसपास ताश के पत्तों की तरह बिखर रही थीं...
- तुम मेरा ठिकाना हो, तुम्हें लौटाकर खुद कहाँ जाऊँगा...।
कहते हुए कौशल ने उसे अपने सीने में निविड़ होकर समेट लिया था -
तुममें मुझे मेरा घर, मेरा परिवार दिखने लगा है अपर्णा... और यह इश्क-मुहब्बत जैसी चीजों से भी कोई आगे की चीज है - बहुत गहरी और विस्तृत - ठीक तुम्हारे सपनों के आकाश जैसा... एक अपने परिवार से छूटकर बहुत बड़े सामाजिक परिवार से जुड़ा था... आज फिर उसी में तुम्हें भी पा गया... बहुत पूर्ण, बहुत सतुंष्ट महसूस कर रहा हूँ स्वयं को...
- तुम निश्चिंत रहना कौशल, तुम्हारे महत काम में मैं, यह हमारा संबंध कभी बाधा नहीं बनेगा, बल्कि मैं भी तुम्हारे हर काम में साथ दूँगी। अब हमारा हर सपना, हर उद्देश्य साझे का है, जानते हो न... कहकर अपर्णा देर तक अपनी आँसुओं से टलमल आँखें मूँदें पड़ी रही थी कौशल की बाँहों में। आज वह इस जागी हुई आँखों के सपने को जीना चाहती है, महसूसना चाहती है छूकर कि जब ख्वाब हकीकत बन जाते हैं तब कैसा लगता है... इस क्षण एक गहरी मौन प्रार्थना उसके पूरे वजूद में समाई हुई थी - यह सपना अब कभी न टूटे, पूरी जिंदगी - आखिरी नींद आने तक...
एक लंबी चुप्पी के बाद वह हल्के से बुदबुदाई थी, गहरी सिसकी के साथ, कुछ इस तरह कि स्वयं भी सुन न सके-
अब तुम आओगी न काजोल...
उसकी गीली, सांद्र आवाज में अबकी बार मुट्ठी भर जुगनुओं की टिमक थी, उनका छींट भर उजाला भी - गहरी उम्मीद और यकीन का, जो इस पल सहज पनपा था, कौशल के आश्वासन भरे सानिध्य में...
बाहर बँगले के पासवाले पाकड़ पर कोई रात का पक्षी रह-रहकर बोल रहा था। कहीं बहुत दूर जंगल की आदिम दुनिया से संथालों के माँदल की 'धप-धप' के साथ उनके गीतों की स्वर-लहरी रात के सन्नाटे में बहुत स्पष्ट होकर सुनाई पड़ रही थी। मौसम के अंत में पहुँची महुआ की उनींदी गंध में भीगी पूरब की हवा धीरे-धीरे चल पड़ी थी। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी शायद...


समाप्त
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Post Reply