उपन्यास -साथ चलते हुए...

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Jemsbond
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उपन्यास -साथ चलते हुए...

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उपन्यास ---साथ चलते हुए...

लेखक--जयश्री रॉय


बाहर फीके नीले आकाश में एक टुकड़ा चाँद उदास टँका था। पानी की महीन धार की तरह दूर चीरों की कतार पर चाँदनी उतर रही थी। चाँदी की पन्नियों की तरह ऊँचे पेड़ों के पत्ते चमक रहे थे। सोसायटी के स्वीमिंग पुल के पानी की सतह हल्के-हल्के लहराते हुए पंक्तिबद्ध जुगनुओं की तरह लगातार जल-बुझ रही थी। दूर बिल्डिंगों के माथे पर चमकते इश्तहार, उनकी सतरंगी रोशनियाँ - काँच की खिड़कियों, ऊँची इमारतों की सपाट दीवारों पर चमकती हुई, हजार रंगों में प्रतिबिंबित होती हुई... सब कुछ कितना मोहमय, स्वप्निल... जैसे सच न हो, इस दुनिया का न हो...
हाँ, यह सब सच नहीं, वह कोई सपना देख रही है जो थोड़ी ही देर में टूट जाएगा। इस कदर सपने से बाहर उसकी दुनिया बिल्कुल सुरक्षित है - वह, उसकी काजोल, उसकी तमाम खुशियों और खेल-खिलौनों के साथ। अभी, बस, थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा... वह सोचती है और रोती है। खुद को छला भी तो एक हद तक ही जाता है... थोड़ी ही देर में वह बेतरह थक आई थी। उसे वास्तविकता की तरफ लौटना पड़ेगा... अपने पाँवों से चलकर... इस विवशता की कोई कल्पना भी क्या कर सके...
हवा में बर्फ घुला था... अपने चेहरे पर चाकू की धार-सी फिरती हल्की हवा को महसूसते हुए उसने पूछा था, न जाने किससे - क्यों, मेरी काजोल ही क्यों...? न जाने कितनी बार... कोई जबाव नहीं मिला था, जैसा की हमेशा से होता है। आकाश, धरती - सब सपाट हो गया है, किसी अलंघ्य प्राचीर की तरह... कितनी ऊँची, कितनी कठोर, कितनी हृदयहीन... वह अदृश्य पाषाणों से टकराती फिरती है, शायद कोई दरवाजा कहीं खुला मिल जाय, कोई आस्ताना... छाति भर नालिश लिए, दुहाई लिए वह हर बंद दरवाजा खटखटाती है, साँकल खड़काती है - सुनो, कोई तो सुनो...
परदेश की जमीन पर बहुत पीछे छूट गए अपने भगवान की याद भी यकायक हो आई थी - कितने ही सारे नाम एक साथ! प्रार्थना करते हुए मन में कही गहरा अपराधबोध था। बचपन में हर बात के लिए कितनी आसानी से अपनी दादी के भगवान्जी के पास पहुँच जाती थी... परीक्षा में अच्छे अंक के लिए तो कभी हाऊसफुल चल रहे सिनेमा के टिकट के लिए... अब वह सरल विश्वास कहाँ रहा! संशय की चपेट में आकर जीवन का सब कुछ कितना कठिन और असाध्य हो गया है।
कभी-कभी ईर्ष्या होती है उन लोगों से जो अपनी सहज, सरल आस्था में निश्चिंत होकर जीते हैं। उनकी कोई समस्या नहीं। सारे प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं उनके पास। उनके सारे सुख-दुखों के जिम्मेदार उनके भगवान हैं और जो भी घटता है उनके साथ वह पहले से तय है जो उनके पिछले कर्मों का फल है...
उस रात उसने न जाने कितने दिनों के बाद उस तरह से डूबकर प्रार्थना की थी। जाने अपने किन पापों के लिए माफी माँगती रही थी - ईश्वर से, सबसे... अब कोई अहम नहीं, अभिमान नहीं, यहाँ प्रश्न काजोल का है, सिर्फ काजोल का...! कितनी मन्नतें, मिन्नतें, व्रत, उपवास, तीर्थ... काजोल ठीक हो गई तो वह यहाँ इतने का प्रसाद चढ़ाएगी, वहाँ अमुक देवी की थान में मत्था टेकेगी, यह करेगी, वह करेगी... कितनी भलनरेवल हो गई है वह, कितनी कमजोर... किसी डूबते हुए की तरह हर तिनके को पकड़ती हुई। कहीं से भी, कोई भी उसे थोड़ा आश्वासन दे दे, कह दे कि उसकी काजोल को कुछ नहीं होगा।
एक गहरी प्रार्थना के बाद जब वह सोने गई थी, मन बहुत हल्का हो आया था। लगा था, नहीं, सब ठीक हो जाएगा। पूरब में फैलती हल्की लाली में उसने काजोल का चेहरा एक बार फिर देखा था। वह किसी फरिश्ते की तरह मासूम और सुंदर लग रही थी। उसके छोटे-से बिस्तर में ही वह सिमट-सिकुड़कर सो गई थी - उसके नन्हें शरीर को अपनी बाँहों में लेकर... वह हल्के से कुनमुनाई थी और फिर नींद में डूब गई थी। उसे लगा था, वह कह रही है 'माई बार्वी, रोज...'
उसे उसके गुड्डे-गुड़ियों की दुनिया में रहने दो भगवान... इतनी बड़ी दुनिया है तुम्हारी, बस, एक छोटा-सा कोना, थोड़ी-सी हवा और जिंदगी... प्लीज भगवान... रोते हुए न जाने वह कब सो गई थी...
सुबह काजोल ने ही उसे उठाया था - माँ, उठोगी नहीं, मुझे स्कूल के लिए तैयार होना है... उसने उसकी दोनों नन्हीं हथेलियाँ अपने गालों से सटा ली थी - नम और ठंडे... उसे उस वक्त बुखार नहीं था।
- आज स्कूल नहीं, हमें हस्पताल जाना है, तुम्हारे कुछ टेस्ट करवाने...
उसने उसकी घुँघराली लटों को चूमते हुए कहा था, अपनी आवाज को सहज रखने की कोशिश करते हुए।
- प्लीज माँ, मुझे वहाँ नहीं जाना!
उसने रोनी-सी सूरत बनाई थी -
मुझे सुई से बहुत दुखता है...
- नहीं, कुछ नहीं होगा, मैं रहूँगी तुम्हारे साथ...
कहते हुए उसकी आँखें यकायक पिघल आई थीं। कहाँ बचा पाई थी वह अपनी बच्ची को उन कष्टकर सुइयों, दवाइयों से। केमो के पहले चक्र के कुछ ही दिनों बाद काजोल के सारे बाल झड़ गए थे। ओह, सोचकर वह आज भी गहरे आतंक और यातना में हो आती है... काजोल के रेशमी, घुँघराले बाल... कितने खूबसूरत थे! काजोल को दूध पीना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। मगर यह सुनकर कि दूध पीने से बाल जल्दी बड़े होते हैं, वह रोज नाक बंद करके एक गिलास दूध पी जाती थी, फिर आईने के सामने खड़ी होकर देखती थी, उसके बाल सचमुच बड़े हुए कि नहीं। रेपेंजल की तरह बाल होंगे मेरे, राजकुमार मेरे बाल पकड़कर बॉल्कनी तक आ जाएगा... काजोल अपने लंबे होते बालों को देखकर खुशी से किलकने लगती... वही बाल जब इस तरह से झड़ गए... उसे याद है, काजोल को गोद में लेकर उस दिन वह भी बहुत रोई थी।
...सुबह काजोल की चीख सुनकर उसकी नींद खुल गई थी। उसके कमरे में जाकर देखा था, काजोल बिस्तर में दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपाए चिल्लाए जा रही थी। उसके चारों तरफ बाल ही बाल बिखरे पड़े थे, बड़े-बड़े लच्छों में। उसका माथा सामने से बिल्कुल गंजा हो गया था। यह दृश्य देखकर वह एक पल के लिए सन्न होकर रह गई थी। हालाँकि डॉक्टर ने केमो के साथ बाल गिर जाने की बात पहले ही उसे बता दी थी, फिर भी अचानक वह दृश्य देखकर वह बेतरह घबरा उठी थी। दौड़कर काजोल को अपनी गोद में समेट लिया था। उसके बाद माँ-बेटी देर तक एक-दूसरे से लिपटकर रोती रही थी।
बाद में उसे इस बात पर बहुत ग्लानि हुई थी। अपनी बच्ची को सँभालने के बजाय वह खुद किस तरह से उसके सामने ऐसे कमजोर पड़ गई? इससे काजोल और भी असुरक्षित हो गई होगी, उसका डर बढ़ गया होगा।
मगर काजोल को अपनी माँ पर बहुत यकीन था - माँ की गोद में वह हमेशा सुरक्षित है। ठगी गई वह, अपने मासूम यकीन के हाथों मारी गई... माँ की गोद भी निरापद नहीं होती, वह अंत तक जान नहीं पाई...!
जानती वह भी कहाँ थी तब, सोचा था अपनी अथक सेवा, प्रार्थना और परिश्रम से काजोल को बचा लेगी... मगर कुछ भी काम न आ सका। आखिर काजोल चली गई, उसकी तरफ उम्मीद से निहारती हुई, बार-बार मदद के लिए पुकारती हुई - माँ... मुझे बचा लो, मुझे मरना नहीं है, मैं जीना चाहती हूँ...
काजोल के जाने के साथ ही तब तक का सारा पाया, सहेजा हुआ जैसे एकदम से निरर्थक हो गया था। अंततः मौन से जीवन हार ही गया था और उसके साथ वह भी... उस क्षण वह जोर से चीखना चाहती थी, पूरी दुनिया को तहस-नहस कर देना चाहती थी, मगर चुप खड़ी रह गई थी - हस्पताल के बिस्तर पर अपनी बेटी का प्राणहीन चेहरा देखते हुए! उस समय सफेद चादर पर उसके लंबे घुँघराले बाल, घनी काली भौंहें और बंद आँखों पर झँपी सघन बरौनिया कितनी स्पष्ट और विलक्षण दिख रही थीं...! केमो खत्म होने के बाद फिर से कितने खूबसूरत बाल निकले थे उसके...
एक गहरी साँस लेकर उसने अपने अंदर टटोला था, नहीं! कहीं आँसू की एक बूँद नहीं बची है! शायद वह पहले ही अपने सारे आँसू खर्च कर चुकी है। कभी-कभी रोने के लिए भी वह तरस जाती है। देर तक ऐंठती रहती है। इस रोने का एक अकेला सुख भी गया... इस परती जमीन में अब कोई नमी नहीं, कुछ सजल नहीं। सूखा और बस सूखा- मीलों तक, युगों तक...
आज भी रह-रहकर काजोल का प्रश्न उसे समय-असमय घेर लेता है - माँ, मैं ठीक हो जाऊँगी न? मैं नहीं मरूँगी न? वह अपनी मूक विवशता में खड़ी-खड़ी उसे देखती रही थी और अंदर की चीख बाहर के कभी न टूटनेवाले सन्नाटे में बदल कर रह गई थी। एक माँ के वश में अपने बच्चे की सुरक्षा न रह जाय... इस विवशता का कोई नजीर नहीं। उन क्षणों के निःशब्द कोलाहल में डूबकर वह आज एक प्रस्तर प्रतिमा में तब्दील होकर जी रही थी - सारी संवेदनाओं से खाली होकर एकदम सपाट और निर्विकार...
फ्युनरल के बाद घर लौटकर उसने आशुतोष को अपने भारी-भरकम बैगों के साथ तैयार पाया था। नीचे कार में तापसी बैठी थी। ऊपर फ्लैट से कार की खिड़की से झाँकता हुआ उसका डार्क ग्लासेस पहना हुआ आधा चेहरा ही दिख रहा था। शायद वह सिगरेट पी रही थी। अधीर होकर उसने इस बीच कई बार कार का हार्न बजाया था।
हाथ में आशुतोष का दिया चेक थामे वह देर तक कोई प्रतिकिया व्यक्त किए बगैर खड़ी रह गई थी। जिंदगी की सारी संवेदनाओं का मूल्य चुका दिया गया था - उसके समर्पण, प्रतिबद्धता का मूल्य! अंकों में समेट लिया गया था जीवन की गहनतम अनुभूतियों को - यही हासिल था उसके जीवन के पंद्रह वर्षों की शर्त रहित संबद्धता का। एक कागज के टुकड़े में उसके धड़कते हुए जीवनानुभूतियों की कीमत लिखी हुई थी। उसे उसका प्राप्य मिल गया था। उसने न देखती हुई-सी दृष्टि से उस चेक पर लिखे अंक को देखा था - ...नहीं, आशुतोष ने अपनी तरफ से कुछ कम नहीं आँकी थी उसकी कीमत!
अलग तो वह भी हो जाना चाहती थी उससे। एक लंबी कानूनी लड़ाई उसने भी लडी है इसके लिए। मगर अभी, इस समय... कोई शत्रु भी शायद ऐसा न करे!
काजोल के मृत चेहरे की स्मृति अभी भी उसके मानस में ताजा थी। अभी भी उसकी देह की मीठी गंध, साँसों का मद्धिम स्वर उसके आसपास था, उसे पूरी तरह घेरे हुए। अभी उसके लिए उसका रोना शेष था, अभी तो उसकी स्मृति में उसका पूरा जीवन ही जीना शेष था।
अपनी बेटी के ब्लड कैंसर के साथ पाँच वर्ष की अथक लड़ाई ने उसे हर तरह से निचोड़ लिया था। वह अंदर से एकदम असक्त, अवश हो आई थी। इसी लड़ाई ने उसे आज हर तरह से हरा दिया था। बेटी ने साथ छोड़ा तो आज पति भी हाथ में बैग लिए जाने के लिए तैयार खड़ा है! क्या वह उसे थोड़ा, बस थोड़ा समय नहीं दे सकता था? ...इतना कि वह अपनी - उन दोनों की - बेटी का मातम मना सके!
उसकी अबूझ चावनी और ठगी-सी चुप्पी ने आशुतोष को एकदम से अधैर्य कर दिया था। नीचे तापसी रह-रहकर हार्न बजाए जा रही थी। खिड़की की तरफ मुँह करके 'आई एम कमिंग डैमिट!' कहकर वह उसकी ओर मुखातिब हुआ था -
'क्या हुआ? कुछ और चहिए तुम्हें? कुछ कहती क्यों नहीं?'
उसकी झुँझलाई हुई आवाज से चौंककर वह स्वयं में लौटी थी -
'नहीं, कुछ भी तो नहीं! मगर आशुतोष, तुम क्यों घर छोड़कर जाने लगे! घर तुम्हारा है, तुम लोग रहो। मैं वापस देश लौट रही हूँ।'
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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कितनी आसानी से उसने एक ही पल में अपना सब कुछ दे दिया था उन्हें- आशुतोष और तापसी को। कल तक इन्हीं चीजों से - अपनी दुनिया से - कितना मोह था उसे! इस घर की एक-एक चीज, एक-एक दीवार तक से गहरा लगाव था। तिनका-तिनका जोड़कर इस घर को बनाया था। आज सब कुछ बेगाना हो गया, कितनी सहजता से। वह काजोल को खो चुकी है, अब और कुछ खो नहीं सकती। कुछ खोने के लिए उसके पास बचा ही नही है... अब तो बस छूटना है, मुक्त होना है... सब बंधन हो गया है, पाश हो गया है... दम घुट रहा है उसका, इतनी रद्दी, कबाड... कहाँ पैर रखे, कहाँ बैठे... हटा दो, सब कुछ हटा दो!
और अधिक प्रतीक्षा न कर पा के तापसी भी ऊपर उठ आई है और अब उसे कौतुक भरी आँखों से देख रही है। उसकी आँखों की चमक और होंठों की मुस्कान में आज वह अपना पराजय नहीं देखती। वह इन चीजों से परे चली गई है - बहुत दूर...
कल तक इसी औरत को देखकर वह सर से पाँव तक जल उठती थी। उसका नाम सुनना तक उसे गँवारा नहीं था। कितनी बार लड़ पड़ी है आशुतोष के साथ इसी को लेकर। मन ही मन उसकी मृत्यु कामना तक कर चुकी है। मगर आज उसके अंदर कोई दाह, कोई दंश नहीं। काजोल की नन्ही देह के साथ ही सब कुछ जलकर राख हो चुका है - उसकी घृणा, असंतोष और शिकायतें...
कहते हैं, दुख मनुष्य को माँजता है, उसका परिष्कार और शोधन करता है... आज वह इस तथ्य को समझ पा रही है। कल तक उसके अंदर न जाने कितनी अभावात्मक बातें ठूँसी हुई थीं, मगर आज सब कुछ धुल-पुँछकर स्वच्छ हो गया है। कहीं कोई कलुष नहीं, मैल नहीं, हिंसा नहीं है, सब कुछ जैसे किसी गंगा में सिरा आई है अस्थियों की तरह... मृत्यु के परस से जीवन की सारी बातें कितनी तुच्छ, कितनी नगण्य हो जाती हैं!
जीवन, इसकी चाह मनुष्य को स्वाथी बनाता है, संकुचित भी, मगर दुख हृदय को विस्तार देता है, उसकी संकुल परिधि को फैलाकर प्रशस्त करता है। जब से काजोल के लिए उसने प्रार्थना करना शुरू किया था, उसका स्वर बदल गया था। पहले अपने सुख, अपने हित से बढ़कर कभी कुछ ईश्वर से चाहा नहीं था। मगर काजोल के लिए जीवन और आरोग्य माँगते हुए उसने अपने अनजाने ही सारे विश्व के लिए शांति और समृद्धि माँगना शुरू कर दिया था - ईश्वर! सभी को सुख दो, वैभव और खुशियाँ दो, साथ में बस मेरी काजोल को भी थोड़ी-सी जिंदगी दे दो...
उसने अभी तक कुछ भी तो नहीं देखा था। कितनी मासूम थी उसकी दुनिया। वहाँ चंदा मामा में अब भी वह प्राचीन बुढ़िया बैठकर रात दिन चरखा कातती है, संता क्लॉज क्रिसमस की रात उसके मोजे में उसकी मनपसंद उपहार रख जाते हैं... उसे जीने दो भगवा! इतनी बड़ी दुनिया है तुम्हारी। इसका एक छोटा-सा कोना उसे दे दो। थोड़ी धूप, हवा और खुशियाँ... और क्या चाहिए उसे... उसकी एकाग्र मन से की गई प्रार्थनाएँ कहीं नहीं पहुँचीं... उसकी आस्था में कोई कमी थी या आसमान ही बहुत दूर था... वह नहीं जानती और न अब जानना ही चाहती है, क्या फर्क पड़ता है...
आज वह आशुतोष और इस औरत के लिए भी बस अच्छा ही चाहती है। कितनी छोटी-सी है ये जिंदगी। इसमें क्यों किसी की खुशी के रास्ते में आ जाना। वह किसी के सुख-शांति में बाधा नहीं बनना चाहती। उसे नहीं जीना तो क्या किसी और को नहीं जीना है... रहे सब अपनी मर्जी और खुशी से। वह किसी का रास्ता नहीं रोकेगी। किसी की खुशी के बीच आ जाना, यह भी तो एक तरह की हिंसा ही है।
'देश लौट रही हो!
आशुतोष के स्वर में गहरे आश्चर्य के साथ खुशी का भी रेश था। तापसी की भी बिन माँगे ही मन की मुराद पुरी हो गई थी। समंदर के किनारे तीन कमरों के इस खूबसूरत फ्लैट को वह आज तक ईर्ष्या और लोभ से देखा करती थी। उसके अपने अँधेरी गली के उस घुटन भरे कमरे की तुलना में यह घर स्वर्ग जैसा था। और अधिक प्रतीक्षा न कर पाके वह इसी बीच ऊपर उठ आई थी।
उसने आशुतोष का दिया हुआ चेक मेज पर रख दिया था। काजोल के बाद ये चीजें उसके लिए एकदम से बेमानी हो गई थी। इस खोने के बाद वह फिर कभी कुछ अर्जित नहीं पाएगी। काजोल उसे हमेशा के लिए हराकर चली गई है। उसने अपनी सूनी आँखें झपकाई थी, वहाँ - उसकी चावनी में - अब कुछ नहीं था - राग, द्वेष - कुछ भी नहीं। बस एक अडोल सन्नाटा और दर्द- किसी लंबे, सूने गलियारे की तरह - अंतहीन, अछोर, अझेल...
लायब्रेरी के अपने पार्ट टाइम नौकरी से उसने अब तक जो भी थोड़ा बहुत अर्जित किया है वह काफी होगा किसी तरह जी लेने के लिए। उसकी जरूरतें भी अब कितनी रह गई है... फिर उसका लेखन तो है ही। आर्थिक न सही, भावनात्मक सहारा तो वह देगा ही।
'मैंने नौकरी छोड़ने के लिए आवेदन पत्र दे दिया है। सारी औपचारिकताएँ पूरी होने तक सागरिका के पास रहूँगी, फिर देश...'
आशुतोष उसे अवाक-सा होकर देखे जा रहा था। चेहरे पर गहरी झेंप और ग्लानि के गड्मड्-से भाव थे। कहाँ तो वह एक लंबी-चौड़ी लड़ाई के लिए मन ही मन प्रस्तुत हो रहा था और कहाँ अब बिना किसी तनाव के उसे सब कुछ एकदम से मिल गया था। उसे जाते हुए देख वह कुछ कहते-कहते रुक गया था। तापसी ने बढ़कर उसका कंधा दबाया था, मगर न जाने क्यों उसने उसका हाथ अचानक झटक दिया था।
वह मुड़कर अपने कमरे में चली आई थी। अपने इतने दिनों के विवाहित जीवन से उसका हासिल बहुत थोड़ा ही था, इतना भी नहीं कि दो बक्से भर पाए। इस संबंध का असल वह खो चुकी थी - उसकी काजोल, उसकी बेटी... अब उसे क्या पाना था, क्या ले जाना था। काजोल जहाँ नहीं रह सकी, उसे भी नहीं रहना है। पड़ा रहने दो इन ईंट-पत्थरों को... इनसे सिर्फ बोझ ही बढ़ता है, आगे का सफर कठिन हो जाएगा... अकेली कहाँ उठा पाएगी इतना सब कुछ?
वह काजोल के कमरे में जाकर देखती है - उसकी अलमारी, पढ़ाई की मेज, खिलौने... मेज पर दवाई की शीशियाँ, जूठा चम्मच, कितना कुछ पड़ा है। उस दिन आखिरी बार अस्पताल जाते हुए काजोल ये दवाइयाँ खाकर गई थी। उससे निगली भी नहीं जाती थी इतनी सारी दवाइयाँ। कई बार उल्टी कर देती थी।
वह सूखी आँखों से सब कुछ देखती है। बीच-बीच में सीने से एक दीर्घ श्वास निकल आता है। मगर वह रो नहीं पाती। एक गहरी तकलीफ में अंदर का सब कुछ शून्य हो गया है। एकदम गूँगा, निर्वाक! सूखे में भाँय-भाँय करते हुए धरती-आकाश की तरह... आँखों में जलन है, और कुछ नहीं। सजलता के सारे सोते मर गए हैं, पानी पत्थर हो गया हैं...
अल्मारी खोलकर वह काजोल के कपड़े देखती है। उनमें अभी तक उसकी देह गंध बसी हुई है - ताजी और मीठी, फूलों की तरह... वह उनमें चेहरा धँसाए गहरी साँसें लेती है - सब कुछ अपने अंदर सहेज, समेट लेना है। घर खाली करना है, मगर इन सामानों से मन भर लेना है - कोने-कोने तक, आगे के निसंग सफर में यही साथ बनेंगे, संबल भी। न जाने धूप, बारिशों के कितने अनगिन मौसम आएँगे, तब यही होगा ओढ़ना-बिछौना... आश्रय! वह अपनी पूँजी सहेजती है - काजोल के रिबन - लाल रंग के। इनमें बँधे उसके बाल याद आते हैं - रेशमी, घुँघराले। उनका मसृन स्पर्श अब भी उसकी अंगुलियों के पोरों पर जीवंत है - धड़कता हुआ, स्पंदित...
उसकी मोतियों की माला, मखमली चप्पलों की जोड़ी... उनमें से झाँकते हुए दो गोरे, मुलायम पैर- एक जोड़े कबूतर की तरह... वे जैसे आज भी उसके आसपास दौड़ते फिर रहे हैं - माँ, जरा छुओ तो मुझे... वह आगे बढ़ती है और फिर थमककर रुक जाती है। चारों तरफ असहाय आँखों से तकती रहती है - काजोल, एक बार दिख जा बिटिया...
सारे घर में - हर जगह काजोल है, मगर कही नही है... भरा-पूरा घर खंडहर की तरह भाँय-भाँय करता है, उसे यकायक बहुत डर लगता है - मौत कितनी निष्ठुर है, कितनी भयंकर... एक स्याह दीवार की तरह अडिग खड़ी है उसके सामने। और उस पार है उसकी बच्ची - रोती हुई, उसे पुकारती हुई... वह अब भी उसकी आवाज, उसका अनवरत रुदन सुन सकती है!... ये आवाजें अब उसका पीछा कभी नहीं छोड़ेंगी।
एक पल के लिए उसकी इच्छा होती है, वह भागकर आशुतोष के पास जाए, एक रात के लिए, बस एक रात के लिए उसकी बाँहों में आश्रय माँगे। कहे कि आशुतोष! आज की रात बहुत भारी है मुझ पर, मुझे अपनी पनाह दे दो... जो खो गया है वह हम दोनों के साझे का था। हम दोनों ने अपने प्यार से रचा था उसको... उसके दुख भी हमारे साझे का है। साथ रोने का भी एक सुख होता है शायद, आज वही दे दो मुझे। बस, इतना ही, और कभी कुछ नहीं माँगूँगी तुमसे... अकेले यह दुख मुझसे उठाया नही जा रहा...
मगर वह देख सकती है, यही, इसी कमरे से - आशुतोष बैल्कनी में खड़ा है। तापसी उसके कंधे से टिकी साथ खड़ी है। पूरे फ्लैट में बनते हुए ब्नोकोली सूप की सुगंध फैली हुई थी।
दो प्रेमियों का एक सुंदर घर... इसमें उसकी जगह कहाँ है! काजोल के साथ उसके भी दिन समाप्त हो गए हैं इस घर में। अब उसे चली जाना चाहिए... अपनी परछाईं तक समेटकर...
वह हाथ-पाँव सिकोड़कर काजोल के बिस्तर पर लेट जाती है। उसके छोटे-से रेशमी तकिए पर खून के धब्बे फैले हैं। आँखों के सामने काजोल का चेहरा तैर आता है - नाक, मुँह से रिसता हुआ खून और डरी हुई आँखों की कातर चावनी... वह अपनी आँखें कसकर मूँद लेती है... कहीं हिमपात हो रहा है, अगजग सफेद हो गया है - कफन की तरह, एक शव बनी पूरी दुनिया उसमें लिपटी पड़ी है। कहीं कोई हलचल नहीं, स्पंदन नहीं, बस मृत्यु का-सा अंतहीन मौन और स्तब्धता...
वह चुपचाप पड़ी रहती है। अंदर दुख पत्थर की तरह कई पर्तों में जम चुका था। उस वक्त वह सिर्फ रोना चाहती थी, बहुत-बहुत रोना चाहती थी - अपनी काजोल के लिए! एक अर्से से जो पीड़ाएँ उसके अंतस में गाँठ बाँधती रही थीं, आज उसकी गिरहें खोलना उसके लिए जरूरी हो गया था, वर्ना वह जी नहीं पाएगी, खुलकर साँस नहीं ले पाएगी। अंदर एक आहत पक्षी की-सी छटपटाहट भरी हुई है, जैसे दो टूटे पंख लगातार फरफरा रहे हैं... पसलियों में अटकी एक आँसू की बूँद धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही है, इतनी बड़ी की उसे समूची डूबो दे...
वह अपने बिस्तर पर पड़ी रोती रही थी, शायद पूरी रात ही। लगा था, आज उसका मर्म ही आँसुओं में पिघलकर बह जाएगा। आशुतोष सामने की बाल्कनी में खड़ा देर तक सिगार पीता रहा था। तापसी ने विथोबेन का रिकार्ड लगा दिया था। शायद उसके रुदन की आवाज को दबाने के लिए। मगर उस रात उसकी आवाज दब नहीं पाई थी। पूरे घर की दीवारें, छत, दरवाजे - सब उसके आँसुओं में भीगकर तर-बतर हो गए थे। उसके रुदन में उसके पूरे जीवन के संबल के खो जाने की पीड़ा थी जो धीरे-धीरे उसके अंदर से बहकर पूरे घर में व्याप गई थी।



बीच में तापसी एक बार उसके कमरे में आई थी - उसे सूप का कप थमाने। सूप के कप से उठते वाष्प के पीछे उसका चेहरा लरजता हुआ-सा प्रतीत हुआ था। वह उसकी तरफ देखती रही थी - कभी वह उसकी अभिन्न सहेली हुआ करती थी। आज वह उसे पहचान भी नहीं पाती। कोई इतना भी कैसे बदल सकता है...
बहुत विश्वास किया था उसने उस पर। पंजाब के किसी छोटे-से शहर से आई थी। यहाँ आने के बाद उसके पति ने उसका जीना मुहाल कर रखा था। किसी ढाबेनुमा रेस्तराँ में अपने ससुरालवालों के साथ रोटियाँ बेलती रहती थी। कभी-कभी एक साथ कई सौ। ऊपर से ताने और तिरस्कार। माँ-बाप की इकलौती लड़की... खूब चाव और धूमधाम से शादी की गई थी उसकी। दहेज से घर भर दिया था बेटी का।
मगर इससे ससुरालवालों को संतुष्टि नहीं हुई। भूख और-और भड़क गई। नित नई चीजों की फरमाईशें होने लगी। न पूरी होने पर मार और अपमान। इसी तरह घुट-घुटकर जी रही थी जब उसे किसी परिचित के यहाँ शादी में मिली थी। खूब गोरी और तीखे नाक-नक्श की वह कमसिन लड़की उसे पहली ही नजर में भा गई थी।
उसकी प्रेरणा और सहायता से उसके बाद उसने स्वयं को स्वाबलंबी बनाया था। गाड़ी चलाना सीखकर, कंप्युटर कोर्स आदि करके सबसे पहले उसने अपने लिए एक नौकरी जुटाई थी और अंत में अपने पति से तलाक ले लिया था। उसके घरवाले इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। उनके लिए ससुराल में लड़कियों की तकलीफ एक आम बात थी जिससे कमोबेश सभी औरतों को अपने जीवन में कभी न कभी दो-चार होना ही पड़ता है।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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एक दिन वह अपने ससुराल से भागकर रात के दो बजे उसके घर पहुँची थी - सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में! चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था। उसके मुक्केबाज पति ने उसका चेहरा पंचिंग बैग समझकर कूट डाला था।
उसके बाद कानून की एक लंबी प्रक्रिया चली थी। उसे उसके पति से तलाक दिलवाने के लिए उसने रात दिन एक कर दिया था। उन दिनों एक बच्ची की तरह यही औरत उसकी गोद में सर रखकर रोया करती थी... कहती थी, अपर्णा दी, तुम मेरे पिछले जन्म की माँ हो!
एक बार उसे दो महीने के लिए अपने मायके जाना पड़ गया था। पिताजी बीमार थे, कई और भी काम निबटाने थे। आशुतोष पर तो नहीं, मगर हाँ, तापसी पर विश्वास था, पूरा घर उसके हवाले कर गई थी। आशुतोष को खाना बनाना बिल्कुल नहीं आता था। यह जिम्मेदारी उसने स्वेच्छा से उठाई थी। कहाँ था, अपर्णा दी, तुम निश्चिंत होकर जाओ, यहाँ मैं सब सँभाल लूँगी। आशुतोष जी को कोई तकलीफ नहीं होगी। वह बेफिक्र होकर चली गई थी।
लौटकर देखा था, तापसी ने उसका घर सँभाला नहीं था, पूरी तरह से हथिया लिया था। चारों तरफ इसी की चर्चा थी। आते ही परिचितों ने उसे सब कुछ बताया था। पार्टियों, उत्सवों में वह उसके गहने, कपड़े पहनकर आशुतोष की बीवी की तरह सम्मिलित हुआ करती थी। दिनों तक ऑफिस से छुट्टी लेकर आशुतोष घर में पड़ा रहता था। दोनों इसी बीच सात दिन के लिए कहीं एक साथ घूम भी आए थे। सब कुछ देख-सुनकर वह सन्न रह गई थी। कोई ऐसा भी कर सकता है! उसे यकीन करने में कठिनाई हो रही थी। आशुतोष पर नहीं, उसने तापसी पर विश्वास किया था, वह तो ऐसी नहीं थी! फिर...?
पूछने पर आशुतोष हिंसक हो उठा था। उसे न जाने क्या-क्या खरी-खोटी सुना गया था। तापसी भी सहज बनी रही थी। उसमें कहीं भी शर्म या किसी तरह का संकोच नहीं था। सीधी आँखों में आँखें डाले बिना पलक झपकाए बात करती थी। गजब का दुस्साहस था उसमें।
एक बार उसने दोनों को रंगे हाथों कार पार्किंग में पकड़ लिया था। फिर भी दोनों को शर्म नहीं आई थी। बड़ी ढिठाई से तापसी कहती रही थी, वह तो आशुतोष का मसाज कर रही थी। बर्फ में फिसलकर गिरने के बाद उसके पूरे शरीर में बहुत दर्द हो गया था। आशुतोष भी अपने कपड़े दुरुस्त करते हुए उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था - सच, अब बड़ा अच्छा लग रहा है। वह दुख और शर्म से गड़कर रह गई थी। बिना कुछ कहे वहाँ से उठ आई थी। कभी-कभी दूसरे की बेशर्मी देखकर इनसान स्वयं शर्मिंदा होकर रह जाता है।
उसके बाद काजोल बीमार पड़ गई थी और वह उसकी बीमारी को लेकर बुरी तरह उलझकर रह गई थी। उसे उन दिनों और किसी बात का होश नहीं रह गया था। क्लीनिक में, अस्पतालों में रात दिन बैठे-बैठे वह काजोल के सिवा और कुछ भी सोच नहीं पाती थी। आशुतोष को इस बात से मनमानी करने का अवसर मिल गया था। इस बीच उसने कई बार उन दोनों को एक साथ देखा था, मगर ध्यान नहीं दे पाई थी। वह अपनी मरती हुई बेटी की उस समय देखभाल करती कि अपने विश्वासघाती पति के पीछे जासूसी करती फिरती! उसके मन में गहरी वितृष्णाजन्य उदासीनता पैदा हो गई थी। सब भाड़ में जाय, उसे परवाह नहीं।
उन दिनों उसे लगातार अस्पताल में काजोल के साथ रहना पड़ता था। घर लौटकर समझ पाती थी, उसकी अनुपस्थिति में तापसी उसके फ्लैट में रात बिताकर जाती है। कभी आशुतोष के बिस्तर में तापसी के बालों के क्लीप पड़े मिल जाते थे तो कभी कहीं कुछ और। उसने अपने सोने का कमरा अलग कर लिया था। आशुतोष ने कोई आपत्ति नहीं की थी। इन दिनों वह शरीर से संतुष्ट था शायद, इसीलिए उससे भी अच्छा व्यवहार करता था।
शुरू-शुरू के दिनों में वह हर रात उसके पास आ जाता था। बिना सेक्स के वह रह ही नहीं पाता था। सालों उसने यह अत्याचार झेला था, मगर अब यह सब उसके लिए असह्य हो उठा था। कई बार वह उसे बुखार से तपती हुई काजोल के पास से हाथ पकड़कर खींच लाता था। काजोल के रोने की धीमी-धीमी आवाज सुनते हुए वह विवश पड़ी रुँधती रहती थी। निःशब्द रोते हुए सरहाने का तकिया भीग जाता था।
आशुतोष की गाढ़े अंधकार में थरथराती हुई कामुक आवाज - अरे कुछ नहीं, बुखार में थोड़ी अपसेट हो गई है... वह घृणा, क्रोध और विवशता में सुलग-सुलग उठती थी। कभी उसके हृदयहीन कमेंटस् - कितनी ठंडी हो तुम, कुछ मजा ही नहीं आता... एक बार ऐसे ही किसी क्षण में वह उसे अपने से परे धकेलकर काजोल के कमरे में भाग गई थी।
वहाँ जाकर उसने देखा था - काजोल फर्श पर बैठी सिसक रही है, नाक से बहते हुए ताजे खून से उसका चेहरा और सारा नाइट गाउन लिसरा हुआ है। उसने उसे उठाकर अपने सीने में भींच लिया था। किसी डरे हुए चिड़िया के बच्चे की तरह काजोल का पूरा शरीर उस क्षण थरथरा रहा था -
माँ, मुझे बहुत डर लग रहा था, तुम मुझे छोड़कर क्यों चली जाती हो?
- अब कभी नहीं जाऊँगी चंदा... प्रामिस...!
वह हिलक-हिलककर रो पड़ी थी। उस समय उसे अपने विवस्त्र शरीर का भी ख्याल नहीं आया था। उस दिन के बाद उसने आशुतोष को फिर कभी अपने पास फटकने नहीं दिया था।
तापसी की तरफ देखते हुए वह न जाने कहाँ-कहाँ भटकती चली गई थी। यंत्रणा का सिलसिला हर सिरे पर शुरू हो जाता है। कौन-सा हिस्सा है मन का जो दुखता नहीं... मना करने पर भी तापसी उसके सामने खड़ी रही थी - थोड़ा पी लो, सारा दिन कुछ खाया-पिया नहीं है तुमने...
आखिर उसने उसके हाथ से सूप का कप ले लिया था। उसके बाद उसने उसकी हथेली पर दो गोलियाँ रख दी थी, स्नायू को शांत रखनेवाली - ले लो, यु विल फिल बेटर...
उसने चुपचाप गोलियाँ गटक ली थी। कुछ देर चुप खड़ी रहने के बाद तापसी अचानक उसके पास बैठ गई थी। काफी देर तक दोनों के बीच एक असहज-सी खामोशी फैली रही थी। तापसी के चेहरे से उसके अंदर चल रहे किसी द्वंद्व का पता चल रहा था। जैसे वह कुछ कहना चाह रही हो, मगर कह नहीं पा रही हो। एक लंबी चुप्पी के बाद उसने उसकी तरफ देखा था, काँपती हुई-सी दृष्टि से -
मैं कोई सफाई नहीं दे रही अपर्णा... दी, मगर एक बात कहना चाहती हूँ।।
वह बिना कुछ कहे सूप के घूँट भरती रही थी।
- तुम जब अपने मायके गई थी...
- अब इन बातों को कहने-सुनने का कोई अर्थ नहीं... उसने बीच में ही उसे हाथ उठाकर टोका था।
- प्लीज, सुन लो, तुम्हारे लिए सुनना न सही, मेरे लिए कहना जरूरी है।
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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उसके बाद उसने उसे टोका नहीं था, मौन रहकर सुनती रही थी। अनायास तापसी की आँखों में आँसू भर आए थे - अपर्णा दी, तुम जब यहाँ नहीं थी, एक दिन मेरे ड्रिंक में कोई नशीली दवा मिलाकर मुझे बेसुधकर आशुतोष ने मुझे कई दिनों तक... सुनकर तापसी के साथ-साथ उसकी दृष्टि भी झुक गई थी। लगा था, कहीं से कसूरवार वह स्वयं भी है। इतना यकीन क्यों कर गई थी आशुतोष पर! उतना सब झेलने के बाद भी... मगर उसने तो... खैर! अब इन बातों में उलझने का कोई अर्थ भी नहीं रह गया है।
थोड़ी देर बाद तापसी ने फिर से बोलना शुरू किया था - जब भी मैं कुछ होश में आने लगती थी, वह जूस में मिलाकर मुझे फिर से कुछ पिला देता था, और मैं दुबारा अपना सुध-बुध खो बैठती थी। इसी तरह सोते-जागते, गहरे-हल्के नशे में मैं इस फ्लैट में सात दिनों तक पड़ी रही थी और जब पूरी तरह से होश में आई थी, मेरे पास वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं रह गया था। उसने कहा था, वह तुम्हें मना लेगा। हम तीनों साथ-साथ रहेंगे...
अचानक वह उसके पैरों के पास ढह गई थी-
यकीन करो, मैंने कभी तुम्हारा बुरा नहीं चाहा। यह सब बस हो गया... संयोग से जिस पुरुष के साथ मेरा संबंध बन गया वह तुम्हारा पति है... सच अपर्णा...दी...
- तुम कहना चाहती हो, तुम्हारा कोई कसूर नहीं? सब कुछ तुम्हारे अनचाहे, अनजाने...
इन सब बातों में दुबारा से न पड़ने के अपने निर्णय के बावजूद वह यह प्रश्न पूछे बिन नहीं रह पाई थी। प्रश्न सुनकर वह वहाँ पड़ी-पड़ी कुछ देर तक सिसकती रही थी और फिर धीरे-से अपना सर उठाया था -
झूठ नहीं कहूँगी, मुझे आशुतोष अच्छे लगते थे, मगर इससे आगे बढ़ने की शायद मैं अपनी तरफ से कभी हिम्मत नहीं कर पाती... तुम्हारा सुख देखकर भी ईर्ष्या होती थी। मैं सुंदर हूँ, कमउम्र भी, फिर भी मुझे कुछ नहीं मिला... और तुम, तुम्हारा ऐश्वर्य...
कहकर वह तेजी से उठकर वहाँ से चली गई थी। वह भी उसे रोककर उससे कुछ कह नहीं पाई थी। उसके सोचने-समझने की शक्ति जैसे एकदम से समाप्त हो गई थी। इतना सब कुछ एक साथ घटा था उसके साथ, वह सँभाल नहीं पा रही थी अपने आप को।
आँसुओं से भीगी उस रात के बाद लरजते हुए सही, वह जीवन की ओर पहला कदम बढ़ा पाई थी।
अपने घर से छूटकर वह फिर किसी एक जगह बँध नहीं पाई थी। स्वदेश लौटकर भी यहाँ-वहाँ भटकती ही रही थी। जब तक जाने का रास्ता खुला दिखता था, वह ठहरी रहती थी, मगर ज्यों ही कोई संबंध बंधन बनने लगता था, वह उसे तोड़कर चल देती। अब भटकन को ही उसने अपना ठिकाना बना लिया था। टूटे हुए साहिल पर घर बनाकर बार-बार बिखर जाने का एक अपना ही परवर्टेट किस्म का सुख होता है, यह उसने बेघर होकर जाना था। उसका घर उसकी काजोल से था, आशुतोष से था। अब जो वे नहीं तो वह इन ईंट-पत्थरों के मकानों का क्या करती!
कुछ दिन अल्मोड़ा में रहकर उसने अपनी दूसरी किताब पूरी की थी। स्कूल, कॉलेज के दिनों में लिखने-पढ़ने का शौक था। कॉलेज के मैगजीन में ही पहली बार छपी थी। फिर कुछ स्थानीय पत्रिकाओं में भी। शादी के बाद कई सालों तक सब कुछ छूट गया था। काजोल के थोड़ी बड़ी होने के बाद प्रवासी भारतीयों के प्रयास से छपनेवाली कुछ पत्रिकाओं के लिए उसने लिखा था, प्रसंशा भी मिली थी। फिर उसका पहला उपन्यास देश के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था से प्रकाशित हुआ था जिसकी अच्छी-खासी चर्चा हुई थी। इसके बाद अपने प्रकाशक के आग्रह पर उसने दूसरा उपन्यास शुरू किया था, मगर फिर अचानक काजोल के बीमार पर जाने की वजह से कई वर्षों तक कुछ भी लिखना संभव नहीं हो पाया था। अब जाकर इतने वर्षों के बाद उसने अपना अधूरा पड़ा हुआ उपन्यास पूरा किया था।
अर्चना के आग्रह पर वह छोटानागपुर के इस डाक बँगले में गर्मी की छुट्टियों तक रुकने के लिए तैयार हो गई थी। अर्चना उसके स्कूल के दिनों की मित्र थी। उसके पति यहाँ के जंगलों के ठेके लिया करते हैं। यह बँगला उन्हीं का था। अपने बेटे की परीक्षा पूरी होने के बाद वह भी यहाँ थोडे दिनों के लिए आनेवाली थी। दोनों ने एक ही साथ जीवन के बसंत, यौवन की उठान और फागुन, पतझड़ के दिन देखे थे। दोनों के सुख-दुख एक-से और साँझ के थे। तीन वर्ष पहले उसने भी एक सड़क दुर्घटना में अपनी पहली संतान को खो दिया था। दोनों के बीच सुख से ज्यादा दुख का रिश्ता था और शायद तभी इतना गहरा था।
यहाँ का हर तरह की आधुनिकता तथा भीड़-भाड़ से दूर शांत, वन्य जीवन उसे रास आ गया था। न कोई जाननेवाला न परेशान करनेवाला। वह घंटों जंगलों में भटकती रहती, या ईजी चेयर पर अधलेटी कोई किताब पढ़ती रहती। रातों को महुआ के नशे में बेसुध सो रहती, या बीच रात को उठकर जंगल के आदिम, अभेद्य दुनिया की रहस्यमयी संगीत सुनती रहती। कभी खिड़की के पास बनैले सूअरों का 'घोत-घोत' सुनाई पड़ता तो कभी दूर किसी भयभीत मोर का अनवरत केंका। गर्मी की ये लंबी दुपहरे वह प्रायः लिखते हुए बीता देती। आसपास जंगली फूलों की गंध, पहाड़ी सुग्गों का कलरव, चाँद का उठना, सघन पेड़ों के बीच से गुजरती हुई हवा का उदास मर्र-मर्र स्वर... उसे सब कुछ प्रिय लगने लगा था।
रातों को दूर से आती संथालों के माँदल की धप-धप और गीतों की स्वर-लहरी सुनती हुई वह बँगले के बरामदे में देर रात तक अनझिप आँखों से बैठी रहती। ऐसे में एक उदास सुकून से उसका नीरव मन भर उठता। कभी वह अतीत के सुख में डूब जाती तो कभी उसी सुख की स्मृति में आँखें भीगोती रहती। नीली धुंध में लिपटी रात उसे निशि की तरह दोनों हाथ फैलाकर अपने पास बुलाती। मोहाछन्न की तरह उसका मन चाहता कि वह बढ़े और हमेशा के लिए उन साँवली, अशरीरी बाँहों में खो जाए। कितनी रातें वह जागकर बीता चुकी है और कितने दिन सोकर, अब उसके पास हिसाब नहीं रह गया है। यह अच्छा है कि यहाँ वह समय के बंधन से छूट गई है। एक दूसरे से उलझे-गुँथे दिनों की एक लंबी फेहरिस्त कैलेंडर में दर्ज है, मगर उसकी याद में नहीं। ये दिन बस कट जाए किसी भी तरह।
वह भटकती फिरती है जाने कहाँ-कहाँ, मगर अपनी अंदरुनी दुनिया में आज भी खड़ी रहती है अपनी बेटी के सरहाने। काजोल मर गई है और वह मर रही है! बस, इतनी-सी बात है और यही बात है। हर बीतते दिन के साथ उसे प्रतीत होता है कि वह काजोल के थोड़ा और करीब हो गई है। दोनों के बीच की दूरी घट रही है। जीवन - ये जीवन ही तो है दोनों के बीच! साँसें, धड़कनें... क्या है? बाधा ही तो है... इन्हें हटाए बिना एक-दूसरे तक पहुँचा नहीं जा सकता। कैसी गहरी निराशाजन्य सोच है... मगर वह विवश हो गई है।
दुख ने जीवन में जो कुछ भी सुंदर था, उजला था को पूरी तरह से आच्छादित कर दिया है। पाले से ठिठुरी हुई हरियाली की तरह सब कुछ हो गया है, धीरे-धीरे मटमैला पड़ते हुए, जर्द होते हुए... कभी शायद ये बादल छँटे, धूप खिले... उसने सब कुछ समय के हाथों छोड़ दिया है। उसकी सोच, उसकी दुनिया तो बस काजोल, उसकी स्मृति के इर्द- गिर्द घूमती रहती है।वह जानती है, काजोल आज भी उसके बिना अकेली रह नहीं पाती होगी... कही खड़ी सीने से अपन छोटा-सा तकिया दबाए रो रही होगी - माँ! मुझे डर लग रहा है...
- मैं आती हूँ चंदा... रात-बिरात वह अपने कमरे का दरवाजा खोलकर खड़ी हो जाती है, सामने पसरे अंधकार को टटोलते हुए। वहाँ कोई नहीं होगा, वह जानती है, मगर मान नहीं पाती... कभी उसे डर लगता है, वह पागल हो जाएगी।
कई बार काउंसलर के पास भी गई थी, फिर जाना छोड़ दिया था। नींद की गोलियाँ भी बेकार हो गई थीं। बस सर भारी हो जाता था और आँखें लाल, ऊपर से दिन भर की थकावट और ऊँघ। अपने चारों तरफ काजोल के कपड़े, किताबें, फोटो आदि फैलाकर अनझिप आँखों से रात को ढलते देखना और सुबह का इंतजार करना। सुबह होते ही फिर उसी अभिशप्त रात की प्रतीक्षा... कि काजोल, उसकी स्मृति के साथ एकांत में हुआ जा सके। पूरी तरह से। काउंसलर ने कहा था, खुद को थोड़ा समय दो... उसने मान लिया था। इसकी कोई कमी नहीं... समय ही समय है उसके पास। और क्या है। कुछ भी तो नहीं।
खुद से निजात पाने के लिए वह यहाँ-वहाँ भटकती फिरती है। न जाने कहाँ-कहाँ। कभी जंगलों में घूम-घूमकर सेमल, पलाश और पुटुस के फूल इकट्ठा करती है और उन्हें लाकर गुलदस्ते में सजा देती है। पीले, सिंदूरी फूलों से कमरा दमक उठता है। वह उन्हें देखती है और एक अनाम गंध में भीगी लिखती रहती है। आँसुओं का अनुवाद पन्नों में उतरता है, संवेदनाएँ शब्द बन जाती हैं और जिंदगी धीरे-धीरे किताब की शक्ल अख्तियार कर लेती है। बाहर झिमाती दुपहरी में रसभीना महुआ निःशब्द टपकता रहता है, देखते ही देखते बँगले का अहाता सफेद फलों से अंट जाता है। हवा उसकी मादक गंध से बोझिल हो उठती है। दिन ढलता है अपनी अलस, मंथर गति से, वन-वनांतर में निझूम रात उतरती है, कभी आधे-पूरे चाँद के साथ, कभी असंख्य, अनगिन तारों के साथ... एक आदिम रहस्य-रोमांच से भरी समस्त वन भूमि थरथराती रहती है रात भर...
रास्तों में आते-जाते कई बार कौशल मिले थे। एक बार बँगले में आकर चाय भी पी गए थे। उसकी किताब की बहुत प्रशंसा भी की थी।
उस दिन सुबह-सुबह रेंजर साहब आ धमके थे। गेट के बाहर खड़ी उनकी जीप में बहुत सारे लोग ठूँसे बैठे शोर मचा रहे थे। वह देर से सोकर उठी थी और उस समय चाय का कप लेकर अलस भाव से बरामदे में बैठी हुई थी। उन्हें आया देखकर वह हडबड़ाकर उठ खड़ी हुई थी। ढीले जूड़े के बाल खुलकर पीठ पर बेतरतीब फैल गए थे। वह अपनी मुसी हुई अस्त-व्यस्त साड़ी में काफी असहज महसूस कर रही थी। मगर रेंजर साहब उसके आग्रह करने पर भी बैठे नहीं थे। वे काफी जल्दी में दिख रहे थे। खड़े-खड़े ही उसे दूसरे दिन उनके साथ पिकनिक में आने का निमंत्रण दिया था। उनके कई रिश्तेदार कोलकाता से गर्मी की छुट्टियाँ मनाने यहाँ आए हुए थे। सबने मिलकर पिकनिक जाने का कार्यक्रम बनाया था। न चाहते हुए भी उसे हाँ कहना पड़ा था।
दूसरे दिन सुबह-सुबह तीन-चार जीपों में भरकर वे घाटशिला पहुँचे थे। बड़े-बड़े पत्थरों के बीच गहरी बहती हुई नदी के किनारे एक अच्छी-सी जगह देखकर उन्होंने अपना सामान जमाया था। कुछ दूरी पर पत्थरों को जोड़कर बनाए गए चूल्हों पर बड़ी-बड़ी देगचियाँ चढ गई थीं। रेंजर साहब के बड़े जीजाजी उनके माली और खानसामा के साथ खाना बनाने में जुट गए थे। हाथ के करछुल को उन्होंने नाटकीय अंदाज से हवा में लहराया था -
'मुरगीर कॅसा माँगसो आर खिचुड़ी, केमोन...?'
'दारूण-दारूण...'
सभी कोरस में चिल्ला उठे थे। वह औरों के साथ मिलकर सूखी लकड़ियाँ चुन लाई थी। एक केंद के पेड़ के नीचे शतरंजी बिछाकर कुछ लोग बैठे थे। रेंजर साहब की पत्नी कमलिका सबके आग्रह पर रवींद्र संगीत गा रही थी - जे रातें मोर दुआर गुली भांगलो झॅरे... उनकी आवाज बेहद मीठी और सुरीली थी। गीत के बोल का दर्द तरल होकर हर तरफ अनायास व्याप गया था। वह शब्दों की पीड़ा में डूब-सी गई थी - कैसी गहरी चाह, कसक है आवाज में!
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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अपने बालों के ढीले-से बंगाली जूड़े में कमलिका ने सेमल के लाल फूल खोंस रखे थे। धूप की सफेद उजास में उनके गोरे चेहरे पर उसी की दुधिया आभा फैली थी। बिना बाँहवाले ब्लाउज से झाँकते उनके सुडौल हाथ बहुत सुंदर लग रहे थे। तराशी हुई अंगुलियों में हीरे, पन्ने की अँगूठियाँ दमक रही थीं। उनकी तरफ देखते हुए उसे अचानक ख्याल आया था, कमलिका का चेहरा बँगला सीने तारिका सुचित्रा सेन से बहुत मिलता है। वैसे ही आकर्षक, मांसल होंठ और दिलकश मुस्कराहट। हारानो सुर फिल्म देखने के बाद वह उसकी फैन हो गई थी। प्रायः एकांत में उस फिल्म के गीत गुनगुनाया करती थी - आमी जे तोमार, ओगो तुमी जे आमार...
उनके गीतों में डूबती हुई उसने थोड़ी दूर पर उधम मचाते हुए बच्चों को देखा था। उनकी माँएँ उन्हें बार-बार पानी के पास न जाने की हिदायत दे रही थी। एक घने पीपल के तने से पीठ टिकाए वह मुट्ठियों में भर-भरकर घास नोंचती रही थी। पीपल की नर्म, गुलाबी पत्तियों से छनकर आती धूप यहाँ-वहाँ तितली की तरह उड़ती फिर रही थी। गहरे लाल, नीले रंग के पतंगे जंगली फूलों पर हीरे की तरह जड़े चमक रहे थे। लकड़ी चुनते हुए उसे एक मोर पंख मिला था। उसने उसे अपने बालों में खोंस लिया था। ऐसा करते हुए उसने कौशल को अपनी तरफ देखते हुए पाया था। उसकी आँखों में कुछ बहुत जाना-पहचाना-सा था। उसने अपनी दृष्टि फेर ली थी। वह कुछ जानना-पहचानना नहीं चाहती।
एक छोटी-सी लड़की जिसका नाम शायद आलो था, अपनी सुनहरी चोटियाँ हिलाते हुए दौड़ती फिर रही थी। अपने लाल फ्राक के घेर में वह न जाने क्या-क्या चुन लाई थी - केंद, आँवला, कुचफल... धूप में उसके गाल टमाटर जैसे लाल हो रहे थे।
उसकी तरफ देखते हुए उसकी आँखों के सामने बहुत पीछे छूट गया एक चेहरा कौंध उठा था - काजोल का चेहरा! उसकी काली-डागर आँखों में संसार भर का कौतूहल हुआ करता था - माँ, यह क्या है? माँ, वह क्या है?
उसके अद्भुत सवालों के जवाब अधिकतर उसके पास नहीं होते थे। सोचते हुए वह यकायक बेतरह थक आई थी। पेड़ के तने से टिककर खुद को ढीला छोड़ते हुए उसने अपनी आँखें बंद कर ली थी। काजोल का चेहरा कंकर पड़े पानी की तरह हिलते हुए धीरे-धीरे खो गया था, मगर वह जानती थी, जल के अंदर हिलते सेंवार की तरह वह उसके अंतस की गहराई में हर क्षण बनी रहती है।
'मेरी बेटी दीया भी इतनी ही बड़ी है।'
न जाने कब कौशल उसके पास आ खड़ा हुआ था।
'अच्छा! आज साथ क्यों नहीं लाए?'
उसने आग्रह के साथ पूछा था।
'वह मेरे साथ नहीं, अपनी माँ के साथ रहती है। हमारे डिवोर्स के बाद उसकी कस्टडी उसकी माँ को मिली है।'
कौशल ने यह बात बहुत ही सपाट लहजे में कही थी।
'ओह!'
उसने चौंककर कौशल की तरफ देखा था। वह अब एकटक उस बच्ची को देख रहा था। उसकी आँखों में न जाने क्या था कि उसका अपना मन अनचन कर उठा था। दोनों के बीच कुछ साझा था - शायद किसी बहुत अपने को खो देने का दर्द! अपने ही अनजाने बढ़कर उसने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया था। कौशल ने एक पलक उसकी तरफ देखा था, फिर अपनी दृष्टि फेर ली थी। नहीं, अपनी गीली आँखों की नुमाइश नहीं की जा सकती। हँसना सबके साथ होता है, मगर रोना तो अकेले ही पड़ता है... यह बात अपर्णा भी जानती है, तभी तो इस तरह से अनजान बन गई है। नहीं, उसने कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं समझा...
खाना बन जाने के बाद कमलिका उन्हें बुलाने आई तो दोनों को एक साथ बैठे देखकर उसके होंठों पर कौतुक भरी मुस्कराहट फैल गई। मगर उसे देखकर भी दोनों ने एक-दूसरे का हाथ नहीं छोड़ा था। अपने में डूबे-से देर तक बैठे रहे थे। उनकी उंगलियाँ आपस में उलझी रही थीं।
उस दिन उसे लगा था, उसके अलक्ष्य कहीं एक दस्तक हुई है। वह अधीर आग्रह से अनायास आगे बढ़ना चाहती है, मगर ठहरी रह गई है, दरवाजा खोल नहीं पा रही है... एक वर्जित की ग्लानि... मन इतना डूबा हुआ है दुख की मटमैली अनुभूतियों में कि खुशी का क्षणिक अहसास भी अपराधबोध से भर देता है। अभी उसका मातम पूरा नहीं हुआ है, अभी उसका रोना शेष है! काजोल की गीली आँखों की स्मृति उसकी पलकों को सूखने नहीं देती। सारी हँसी, सारी खुशी एक नन्हे, निस्पंद देह पर वार आई है। एक रक्तहीन चेहरा और दो फीकी आँखों की कातर दृष्टि उसकी स्मृतियों का हासिल है, वहाँ वह मुस्कराहटों के लिए हथेली भर भी जगह कहाँ बनाए...
उसकी सूनी कोख उसके अंतस में, उसके रगो-रेश में व्याप गई है। अब यह शून्य कैसे पुरेगा, यह रीता हुआ मन - किसी परित्यक्त गाँव-सा... अब इसे कभी नहीं बसना है, कभी भी नहीं... बंजर रहेगा यह देश हमेशा, इसकी ऊसर जमीन पर कभी कोई फूल नहीं खिलेगा... वह निःस्तब्ध रात के एकांत में कराह-कराहकर रोती है, खिड़की पर खड़ा चाँद चुपचाप पिघलता है, उसके हिस्से की रात खत्म होती है, मगर नहीं होती... बनी रहती है - उसके मन में - अपने सारे अपरिमित अंधकार और सन्नाटे के साथ...
अपनी अभावात्मक मानसिक अवस्था में वह जिंदगी को अब कोई दूसरा मौका नहीं देना चाहती, और यही शायद उसकी यंत्रणा और त्रासदी है। एक मन की जमीन उर्वर हो रही है, शनैः-शनैः अखुँआ रही है, तैयार है खुशियों की सुनहरी फसल उगाने के लिए, दूसरा मन श्मशान बना पड़ा है - चिता की धधकती लपटों और चिरांध से भरी हुई... उसे जीवन का कोई उत्सव नहीं चाहिए, मेला नहीं चाहिए। अपने निर्जन में संपृक्त, संतुष्ट है वह!
कभी संवेदना के स्तर पर दिनों तक सपाट दीवार-सी बन जाती है वह, कभी इसी के आकस्मिक सैलाब से दुहरी होकर रह जाती है, बिखर-बिखर जाती है। यह अंदर की लड़ाई है जो उसे तोड़ रही है, निःशेष कर रही है - प्रतिदिन, तिल-तिल...
पिकनिक के दिन कौशल की आँखों के गहरे मौन ने उससे कुछ कहा था - शब्दों से परे होकर, बिल्कुल चुपचाप, मगर स्पष्ट... उसने उन्हें सुना नहीं, अनुभव किया था, अपने पूरे वजूद से। घर लौटकर उस रात के मौन में भी वही शब्द पारदर्शी तितली की तरह उसके आसपास उड़ते रहे थे। वह अपने सामने किताब खोले खिड़की पर झरते हुए चाँद को अनमन तकती रही थी।
जंगल के घने पर्दे के पीछे से निकलकर अब चाँदनी फैल रही थी - रहस्य की सफेद नदी बनकर - अपने में सब कुछ डुबोती हुई, समोती हुई। पलकों पर नींद भी थी और सपने भी, मगर न जाने कितनी रात तक वह अपने सामने पसरी तिलस्म की उस गहरी नीली दुनिया को तकती बैठी रह गई थी।
रात की नसों में सिमटा सन्नाटा धीरे-धीरे हवा में टपक रहा था - एक निःशब्द जादू की तरह... चारों तरफ उसी का असर था - जुगनू की तरह जल-जलकर बुझते हुए। वह बॉल्कनी में निकल आई थी। रात की चुप्पी को अपनी तेज आवाज से कुतरते हुए सैकड़ों झींगुरों का शोर और आसमान पर धुंध की तरह छाई हुई चाँदनी - सब कुछ एक आदिम रहस्य में डूबा हुआ। रात के उस पहर नींद और स्वप्न के रेशमी लिहाफ में पूरी दुनिया लिपटी हुई पड़ी थी...
वह सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गई थी। जैसे कोई निशि उसे अरण्य की निविड़ दुनिया से हाथ हिलाकर बुला रही हो। वह चाहती तो भी रुक नहीं पाती। उस रात वह ओस और चाँदनी में भीगती न जाने कहाँ-कहाँ गई रात तक भटकती रही थी। उसे प्रतीत हो रहा था, ये समय उसकी हथेली पर अनायास उतरकर ठहर गया है - अपने काल की अद्भुत गंध और स्वाद के साथ - जीवित और स्पंदित - तारीखों की लंबी फेहरिस्त और हादसों के दर्ज ब्योरों के साथ। वर्तमान में होकर वह जैसे अतीत में जी रही थी, देहातीत होकर, किसी रूह की तरह...
उसकी नासापुटों में बहुत पहले बीत गए समय की बासी, बोसीदा गंध भरी थी, किसी मंदिर के गर्भ-गृह में घुमड़ते हुए सुगंधित धुएँ की तरह... सभ्यता की चकाचौंध से दूर अरण्य के इस प्राचीन धरती पर उस रात वह रहस्य और रोमांच की एक अद्भुत अनुभूति में सराबोर हो गई थी। यह शायद उस रात का जादू और किन्हीं उदास आँखों की भीरु चावनी का हैंगओवर था जो उसे भटका रहा था। अतीत और वर्तमान किसी अलस नदी की तरह समानांतर में बहती रही थी उसके भीतर बहुत धीरे-धीरे...
उस रात न जाने क्यों उसे रह-रहकर रुक्की माझी की कहानी याद आती रही थी। पुनिया ने ही कभी सुनाई थी। इसी जंगल की निविड़ दुनिया मे उसका प्यार पनपा और एक दिन फना हो गया था। एक आदिवासी लड़की होकर उसे एक अंग्रेज से प्यार हो गया था।
वह अंग्रेज यहाँ के आदिवासियों पर कोई डाक्युमेंटरी फिल्म बना रहा था। फिल्म बनाने के दौरान दोनों में संबंध बढ़ा और अंत में प्यार हो गया।
इस कहानी का हश्र वही हुआ जो होना था - एक दिन वह अंग्रेज अपनी फिल्म पूरी करके रुक्की से जल्दी लौट आने का वादा करके अपने देश लौट गया। बाद में अपने समाज की बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी थी उसे। आखिर एक दिन उसने महुआ के पेड़ से लटककर अपनी जान दे दी थी। उस समय उसे नौ महीने का गर्भ था।
लोग कहते हैं, आज भी महुआ के मौसम में जब जंगल की हवा महुआ की तीखी, तुर्श गंध से बोझिल हो जाती है और आसमान में पूनम का चाँद एकदम गोल होकर उठता है, लोगों को रुक्की की आत्मा दिखती है - हाईवे के बीचोबीच खड़ी रहती है, हर गाड़ी को रुकने के लिए इशारे करते हुए। न जाने इसकी वजह से कितने वाहनों के साथ अब तक दुर्घटना घट चुकी थी। प्रेम होता ही है ऐसा, एक हाथ से जीवन देता है तो हिंसक होने पर दूसरे हाथ से जीवन लेता भी है।
न जाने उस रात उसे क्यों ऐसा ख्याल आया था कि रुक्की का चेहरा उसने भी कहीं देखा है, कहाँ, सोच नहीं पाई थी। जब महुआ की मादक गंध से हवा बोझिल हो उठती है और सुडौल चाँद बीच आकाश में जगमगाता है, उसकी शिराओं में कुछ सर्द-सा दौड़ता रहता है, वह चाहकर भी स्वयं को सँभाल नहीं पाती, अन्यमनस्क-सी हो जाती है। इस अद्भुत-सी अनुभूति ने उसे कई बार दिनों तक परेशान कर रखा था।
इस घटना के दूसरे दिन ही उसे तेज बुखार आ गया था। वह दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रह गई थी। बुखार में अपने बिस्तर में पड़े रहने के दौरान उसे अजीब-से सपने आते थे। अस्पष्ट और आपस में गडमड... चाँदनी के कोहरे में डूबा एक रक्तशून्य चेहरा और दो पारे-सी थरथराती उदास आँखें... कोई बार-बार उसका नाम लेकर बुलाता रहता। वह नींद में बेचैन करवटें बदलती या कभी चौंककर उठ बैठती। ऐसे में उसका पूरा शरीर पसीने में डूबा हुआ होता था।
उसकी बीमारी की वजह से इसके बाद प्रायः रोज ही कौशल उसके पास बँगले में आने लगा था। एक शिला कहीं से पिघल रही थी धीरे-धीरे - शायद दोनों के ही अलक्ष्य। कौशल ने ही बाद में बताया था, उसके पिता का बहुत बड़ा एस्टेट है यहाँ। पहले वह कोलकाता के किसी नामी अखबार के लिए काम करता था। डिवोर्स के बाद वह यहाँ कई साल हुए वापस चला आया था। उसकी पत्नी का नाम नयन था और वह वहाँ के किसी बहुत बड़े राजनीतिज्ञ की इकलौती बेटी थी।
कौशल यहाँ के चप्पे-चप्पे से वाकिफ था और यहाँ के स्थानीय लोग उसका बहुत ही सम्मान करते थे। वह यहाँ की बोली बहुत अच्छी तरह बोल लेता था। उसने गौर किया था, उसके साथ जंगलों में टहलते हुए रास्ते में वह स्थानीय लोगों से उनकी भाषा में रुक-रुककर बतियाता रहता था। एक बार उसने निहायत ही तटस्थ भाव से पूछ भी लिया था - आप इतना क्या बोलते रहते हैं इन लोगों के साथ! सुना है, आप कई-कई दिनों तक जंगलों में भी भटकते रहते हैं, चाँद सिंह कह रहा था...
- भटकता नहीं हूँ, जिंदगी की तलाश में रहता हूँ...
कौशल रहस्यमयी ढंग से मुस्कराया था -
कभी आप को भी ले चलूँगा साथ, स्वयं देख लीजिएगा, कैसे धरती की यह आदिम संतानें सभ्यता और विकास की दोहरी पाट में घुन की तरह पिसती जा रही हैं! एक प्राचीन और प्रांजल जीवन स्रोत के निरंतर मरते चले जाने की एक त्रासद गाथा है ये अपर्णा जी...
कहते हुए कौशल की आवाज में उदासी-सी भर गई थी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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