उपन्यास -साथ चलते हुए...

Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

Post by Jemsbond »

न जाने कितनी देर बाद कौशल ने कहा था - जानती हो अपर्णा, जिस दिन यह करोडों भूखे-नंगे लोग एक साथ उठ खड़े होंगे, अन्याय का यह साम्राज्य ध्वस्त होकर रह जाएगा... फ्रांस की खूनी क्रांति के विषय में सुना है न? ... उसी की तरह यहाँ भी खून की नदियाँ बहेंगी, ऐश्वर्य के राजप्रसाद ढहकर जमीन पर गिरेंगे, अन्यायियों के सर गिलोटिन में कटकर रास्तों में लुढ़कते फिरेंगे...
उसकी बात सुनकर अपर्णा सिहर उठी थी - कौशल...
- हाँ अपर्णा, यह छ्द्मवेशी राजे-महाराजे, उनके मंत्री, उनके पाले हुए गुंडे, धर्म के ठेकेदार... इनका अत्याचार अब चरम को पहुँच रहा है... इतिहास गवाह है, अब इनका प्रतिरोध होगा, प्रतिकार होगा... हर क्रिया की प्रतिक्रिया अनिवार्य है... बेजान वस्तु पर भी प्रहार करो तो टंकार उठती है, यह तो जीते-जागते मनुष्य हैं। कब तक चुप रहेंगे? कौशल की आवाज में अजीब खौल थी, गहरा उबाल -
रणभेरी बज उठी है... मुट्ठियाँ तन रही हैं, बाजू फड़क रहे हैं, झुके हुए सर, कंधे उठ रहे है, मेरुदंड सतर हो रहे हैं... शिराओं में रक्त का प्रवाह अब उष्ण हो रहा है... अन्यायी चेत जाए, अपनी सुखनिद्रा से जागे... युद्ध अवश्यमभावी है...
कौशल में जैसे कोई आसेव उतरा था। वह अजीब आवाज में बोल रहा था। नशे में चूर। सुनकर अपर्णा सचमुच डर गई थी - तुम यह सब क्या कह रहे हो कौशल... युद्ध! रणभेरी!
- हाँ, युद्ध, एक आर-पार की लड़ाई... अगर इसी तरह अन्याय, शोषण और दमन का यह भीषण चक्र चलता रहा तो एक दिन ऐसा ही होगा, निश्चित जानो... अपनी बात के अंत में आते-आते कौशल गहरी उत्तेजना में हाँफ रहा था।
उस रात बँगले के बरामदे में बैठी-बैठी शायद वह ऊँघ गई थी। न जाने कितनी देर बाद किसी की आहट पाकर यकायक उसकी आँख खुल गई थी। सामने मुल्की खड़ी थी - बदहवाश-सी। इससे पहले की वह उससे कोई सवाल कर पाती, उसके हाथ में कागज का एक पसीजा हुआ टुकड़ा थमाकर बँगले की सीढ़ियाँ उतरकर वह रात के अंधकार में तेजी से खो गई थी।
कुछ देर तक असमंजस की स्थिति में बैठे रहकर उसने हाथ की मुट्ठी में बंद उस कागज के टुकड़े को खोलकर पढ़ने का प्रयत्न किया था। बहुत जल्दी में कुछ शब्द घसीटकर लिखे गए थे। शायद पसीने से अधिकतर अक्षर धुँधला गए थे -
अपर्णा दी, इसी निविड़ अरण्य में घुटकर मर जाना मेरी नियति है। तुमसे पहले भी मुझे किसी ने धूप नहाई दुनिया में चलने का निमंत्रण दिया था। मगर वह स्वयं यहाँ के गहन अंधकार में खोकर रह गया। तुमने पापा की बंदूक देखी है और उनकी बातें भी सुनी है। वह जिस जमीन में आज मिट्टी बनकर मिल गया है, उसी जगह पर खड़ा है चंपा का वह पेड़ जिसके फूल मैं तुम्हें भेंट दिया करती थी। मैं मेरे पापा के अपाहिज जीवन की एकमात्र बैशाखी हूँ और वे मुझे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहेंगे। उनकी विवशता ने उन्हें बहुत स्वार्थी बना दिया है। यह जंगल मेरे लिए एक जिंदा कब्र ही है जहाँ मुझे अपनी या पापा की अंतिम साँस तक रहना पड़ेगा... जो कोई भी मुझे उनसे दूर ले जाने की कोशिश करेगा, उसका हश्र भी वही होगा जो बहुत पहले किसी का हुआ था। तुम जितनी दूर हो सके यहाँ से चली जाना। मैं इस जंगल में एक और चंपा का पेड़ नहीं रोपना चाहती...
वह चिट्ठी पढ़ते हुए उसकी दृष्टि धुँधला गई थी। मेरुदंड में बर्फ उतरने लगी थी। बहुत मुश्किल से अपने अंदर उठती हुई कँपकँपाहट को रोका था उसने। सामने पड़ी मेज पर मानिनी का दिया हुआ चंपा का फूल अभी तक पड़ा हुआ था जो उसने उसे कल उसके बँगले से आते हुए दिया था - पीला और मुर्झाया...
यही फूल वह कौशल को दिया करती थी। एक गहरी साँस लेकर उसने बाहर की तरफ देखा था। गहरे घने जंगल में उतरी रात देर तक बरसकर अभी-अभी फीके हुए बादल के पीछे से यकायक निकल आए चाँद से गोरी हो आई थी। चेहरे से टकराती भीगी हवा में कहीं आसपास खिलते चंपा की मादक गंध थी। उसे अपने नासापुटों में महसूसते हुए उसे अनायास ख्याल आया था, न जाने इस हत्यारे जंगल में इनसानी खून से सींचे हुए रक्त चंपा के और कितने ऐसे अभागे पेड़ होंगे...
इसके बाद और कई दिन नामालूम-से बीते थे। अपने उपन्यास को फिनिशिंग टच देते हुए वह कहीं बाहर नहीं निकल पाई थी। कौशल भी कोलकाता गया हुआ था किसी काम से, इसलिए उससे भी मुलाकात नहीं हो पाई थी। उस दिन दोपहर को खाने के बाद बरामदे में आ बैठी थी। उपन्यास के आखिरी दृश्य में कुछ संशोधन करने थे।
थोड़ी देर बाद डाकिया उस दिन का डाक दे गया था - कुछ पत्रिकाएँ, चिट्ठियाँ...
अभी वह उन्हें देख ही रही थी कि बँगले के अहाते में धूल उड़ाती हुई एक पुलिस की जीप आकर रुकी थी। जीप के रुकते ही दो सिपाही कूदकर नीचे उतरे थे और फिर भागते हुए बँगले के पीछे की तरफ सर्वेट क्वाटर की तरफ चले गए थे। घटना की आकस्मिकता से वह यकायक घबरा उठी थी। पुलिस यहाँ क्यों आई थी...
एक इंस्पेक्टर को अपनी ओर बढ़ते देख वह अपनी कुर्सी से कपड़े सँभालते हुए उठ खड़ी हुई थी।
नमस्ते मैडम! अशिष्ट ढंग से कहते हुए वह इंस्पेक्टर उसके सामने खड़ा हो गया था - क्षमा कीजिएगा, इस तरह से आना पड़ा... अच्छा, ये गोपाल कहाँ है?
जी... वह उनके प्रश्न का आशय समझ नहीं पाई थी।
गोपाल... नहीं जानती आप उसे! सुना है, आपका तो काफी आना-जाना होता है उनकी बस्तियों में...
वह कोई जबाव देती इससे पहले ही दो सिपाही पुनिया और उसके पति को धकेलते हुए वहाँ ले आए थे। पुनिया का बेटा उसकी पीठ से बँधा जोर-जोर से रो रहा था। पुनिया भी काफी घबराई हुई दिख रही थी। उसकी आँखों में आँसू थे। उसका पति अपना दोनों हाथ जोड़े थर-थर काँप रहा था।
- क्यों रे, गोपाल को कहाँ छिपा रखा है?
इंस्पेक्टर साहब ने पुनिया के पति को रूलर से कोंचा था - सच-सच बताना, वर्ना तुम सब भीतर जाओगे। महाजन को मारा है, नकदी भी लूटी है...
- हमको कुच्छो नहीं मालूम सरकार!
पुनिया अब जोर-जोर से रोने लगी थी।
- नक्सल का साथ दोगे तो... अगर इधर आया तो थाना जरूर खबर करना...
कहते हुए इंस्पेक्टर एक बार फिर उसकी तरफ मुडा था - मैडम, घूमने आई हैं इधर आप, रेंजर साहब कह रहे थे। यहाँ के लफड़े से दूर ही रहिए... वर्ना मुसीबत में पड़ जाएँगी। लिखती हैं आप...
कहते हुए उसने बिना पूछे उसकी पांडुलिपि उठा ली थी - जल,जंगल, जमीन... शुभचिंतक हैं आप आदिवासियों की... अच्छा है, लिखिए... अभी कल ही कुछ आपत्तिजनक दस्ताबेज जब्त किए है दास बाबू से - पत्रकार हैं, लिखते हैं - आप ही की तरह, अब जाएँगे अंदर कुछ वर्षों के लिए...
भद्दे ढंग से हँसते हुए उसने पांडुलिपि फिर से मेज पर रख दी थी - कुछ रोमांस-वोमांस पर लिखिए - गुलशन नंदा टाइप... कॉलेज के दिनों में खूब पढ़ते थे हम भी - लरजते आँसू, झील के उस पार... फिल्म भी बनी थी उन कहानियों पर! आपने देखी होगी? खासकर वो वाला गीत - एक बार मुझको पिला दे शराब देख फिर होता है क्या... मुमताज! एकदम मस्त... हम तो हॉल में उठकर नाचने लगते थे... जवानी के दिन थे... हा हा हा... अच्छा नमस्कार!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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उनके जाते ही उसने पुनिया से पूछा था - यह पुलिस गोपाल को क्यों ढूँढ़ रही थी? गोपाल को उसने कल रात बँगले के अहाते में देखा था। वह पुनिया की बहन का पति था। उनकी नई-नई शादी हुई थी। एक दिन पति-पत्नी शादी के बाद उसके पाँव छूने आए थे। गोपाल एक बेहद हँसमुख, सजीले स्वभाव का लड़का था। हमेशा हँसता रहता था। कितने खुश लगते थे दोनों पति-पत्नी एक साथ। कहाँ रहते हो पूछने पर दूर की पहाड़ियाँ दिखा दी थी - वहाँ माईजी...
- वहाँ... वहाँ कहाँ रे? वहाँ तो बस जंगल है...
- जंगल ही तो हमरा घर है माईजी...
पुनिया ने ही बाद में बताया था, गाँव के महाजन ने उनकी जमीन हथिया ली है। बाप-दादा के लिए उधार का ब्याज वर्षों से चुकाते रहे, मगर कर्ज खत्म न हुआ और अब न जाने कैसे-कैसे कागज दिखाकर उसकी बीघाभर जमीन भी हथिया ली। जवान खून था उसका, रोक नहीं पाया खुद को, पीट डाला महाजन को। अब पुलिस पीछे पड़ी है। जो भी सरपंच, महाजन या जमीदार के विरुद्ध आवाज उठाता है, उसे नक्सल कहकर अंदर करवा देते हैं या उसका एनकाउंटर करवा देते हैं।
कौशल सुनकर अनमन हो गया था - सामाजिक न्याय के अभाव में प्रतिरोध की चेतना कुंद होकर रह गई है लोगों की... कोई सर उठाता है तो कुचल दिया जाता है। यह एक चौतरफा लड़ाई है... और मंजिल दूर! मगर इसी से तो हारकर बैठ नहीं सकते...
- क्या कर सकेंगे? उसने झिझकते हुए पूछा था।
उसके अंदर एक अनाम डर घोंसला डाल चुका था, शायद इसमें कौशल के लिए उसकी चिंता छिपी थी। न जाने कहाँ-कहाँ फिरता है, किन लोगों के बीच उठता-बैठता है। वह सही है, वह जानती है, मगर समय सही नहीं। धूप की जड़ों में फैलती हुई काली, कदर्य परछाइयों को उसने महसूस लिया है। पथराए हुए मौन के ठीक पीछे कोई बवंडर दम साधे पड़ा है। एक छोटी-सी चिनगारी और बस, सब कुछ राख हो जायगा... बारूद की ढेर है यह रूँदी हुई जमीन, अपने भीतर आग के बीज अँखुआए पड़ी है - सदियों से स्तब्ध, निर्वाक... मगर रगो-रेश से खौलती हुई... कितनी आर्तनाद यहाँ की जमीन पर समय के साथ जमकर ठोस हुई है, अनगढ़ पठारों में तब्दील हुई है... सेमल की गंध से बोझिल हवा में घुली हल्की चिरांध को उसने सूँघ लिया है, तभी कहीं से अस्थिर है।
कौशल ने उसके सवाल का कोई जबाव नहीं दिया था, बस चुपचाप चलता रहा था। इस समय चाँद ठीक उसके पीछे था - खूब बड़ा और उजला... उसकी पीठ पर चमकता हुआ, किसी मुहर की तरह। आगे उसकी परछाई थी - दूर तक तैरती हुई... कुछ देर चलने के बाद कौशल अनायास उसकी ओर मुड़ा था - यदि कभी पुनिया की बहन तुम्हारे पास आए, उसे अपने पास छिपाकर रखना, माँ बननेवाली है वह...
- क्यों, वह क्यों आने लगी मेरे पास...? वह कहीं से लरज उठी थी - क्या हो रहा है यहाँ! कौशल ने फिर उसके सवाल का कोई जबाव नहीं दिया था - बस, इतना जरूर करना...
जंगल के माथे पर बादल घिर आए थे, साँवली, धूसर गठरियों की तरह - नीचे की ओर अपने भार से उतरते हुए, जैसे जमीन पर बिछ जाएँगे। ठंडी हवा में भीगी मिट्टी की गंध थी, कहीं दूर बारिश हो रही थी शायद। उन्होंने चलते हुए अपने कदम तेज कर दिए थे। काले, गंदले पानी से भरे हुए कोयला खदान के पास से गुजरते हुए उन्हें जानवर की देह की तेज दुर्गंध मिली थी। कौशल उसके पास सरक आया था -
हम यहाँ से जल्दी निकल चलें, सुना है, पड़ोस के जंगलों से कोई आदमखोर इस तरफ निकल आया है। कल ही जंगल से लकड़ी चुनकर लौटती हुई एक औरत पर हमला किया है, सदर अस्पताल में पड़ी है। लगता नहीं बचेगी। आधा चेहरा चबा डाला है, पहचान में नहीं आती...
सुनकर उसके शरीर पर काँटे उग आए थे।
कौशल ने उसके डर को समझा था शायद, इसलिए जब तक वह अपने कमरे में पहुँचकर अंदर से दरवाजा बंद नहीं कर लिया था, वह गेट पर खड़ा रह गया था।
उस रात उसने बैठकर पुराना अल्बम देखा था - काजोल की तस्वीरें - कितनी सारी - पहली बार अन्नप्रासन में खीर खाते हुए, घुटनों पर घिसटते हुए, डगमगाते कदमों से चलते हुए... सब कुछ याद आता है उसे। जैसे कल की घटी घटनाएँ हों। इच्छा होती है, उसे तस्वीर से निकालकर अपनी गोद में ले ले। जो इतना स्पष्ट, जीवंत है, वह कहीं नहीं... उसे यकीन करने में आज भी तकलीफ होती है। कई बार यथार्थ और कल्पना में फर्क करना कठिन हो जाता है। सब कुछ है, मगर नहीं है... काजोल की आवाज वह सुनती है, तुतली जबान में उसकी कविताएँ, उसका रोना, मचलना... उसका स्पर्श भी जीवित है - उसकी बाँहों में, गोद में! बालों की गंध, छोटे-छोटे हाथों की कोमल छुअन... वह हर पल जीती है उसे... इसलिए हर पल मरती भी है...
कितना त्रासद है यह सब कुछ उसके लिए - जिसमें उसकी खुशियाँ छिपी हैं, उसी में उसके दुख भी हैं - दुखों का उत्स... जिन स्मृतियों में वह रहना चाहती है, कभी उन्हीं को भुलाने की कामना करती है। उसका जीवन-मृत्यु, दुख-सुख- सब कुछ एक ही है, एक में है! वह अपनी काजोल की स्मृति के बिना जी नहीं सकती और उससे परे हुए बिना भी जी नहीं सकती। क्या करे वह... कहीं कोई हल नहीं! हारकर उसने सब कुछ वक्त के हाथों में छोड़ दिया है, जो होना है, वह समय ही तय करेगा। कुदरत की अपनी मर्जी, नियम और समय होता है, उसी के अनुसार सब कुछ होना है, होता रहा है।
न चाहते हुए भी अतीत बार-बार उसके सामने आ खड़ा होता है, तकलीफ देता है। जीवन का आधा जिस हिस्से में रख आई है, उसे भुलाया भी कैसे जा सकता है। कभी हँसी का कोई टुकड़ा, एक चेहरा, गंध, छुअन... यहाँ-वहाँ से निकलकर रास्ता रोक लेती है, हाथ पकड़ लेती है। वह छूटना चाहती है, मगर नहीं चाहती। वही खड़ी रह जाती है देर तक...
उसे याद आता है, एक पूरी रात रोने के बाद दूसरी सुबह वह जाने के लिए तैयार हो रही थी। आशुतोष और तापसी सुबह-सुबह शापिंग के लिए निकल गए थे। तापसी को फर्नीचर देखना था, उसे उनके बैठक का भूरा लेदर सोफा पसंद नहीं, वह कपड़ों का बना सोफा चाहती है। उनके जाने के बाद वह उस फ्लैट में अकेली रह गई थी। सागरिका ने फोन किया था, वह रात को दूसरे शहर से लौटते हुए उसे अपने साथ ले जाएगी। शायद दस बज जाए।
ड्रॉइंग रूम में बैठी वह सोचती रही थी। उस दिन वह हर तरह से मुक्त हो गई थी। शायद उसे खुश होना चाहिए था। अनचाहे रिश्ते का बोझ आज उतर ही गया था। मगर अंदर एक स्तब्ध चुप्पी अडोल दीवार की तरह खड़ी है। शोक और खुशी के बीच का अंतर खो गया है एकदम से...
वह अपने से बाहर निकलने की कोशिश में काँच की लंबी खिड़की से बाहर देखती है। वहाँ भी सब कुछ अंदर जैसा है - सफेद कागज पर अंकित चुप्पी की लंबी फेहरिस्त की तरह - एकदम शब्दहीन, निर्वाक...
कल रात से बर्फबारी हो रह है। रूई के गालों-से झरते आकाश के नीचे सबकु सफेद हो गया है। एक-एक फुट ऊँची बर्फ की चादर बिछी हुई है चारों तरफ। क्रिसमस के ऊँचे पेड़ बर्फ का लबादा ओढे ध्यान मग्न-से एक कतार में चुपचाप खड़े हैं। हर तरफ वही तटस्थ निःस्तब्धता और सील-सा बँधा हुआ एकांत... तेज हवा खिड़कियों पर दो हत्थड़-से मारते हुए गुजर रही हैं। काँच रह-रहकर झनझना रहे हैं।
वह एक गहरी साँस लेती है। एक बार फिर स्वयं को टटोलती है। अब वह क्या करना चाहती है? जिंदगी के नाम पर जो कुछ भी उसके पास बचा रह गया है, उसका कुछ तो बंदोबस्त करना है। सामने वही निरुत्तर मौन है - अहिल्या की तरह पाषाण खड़ा हुआ। उसे अनायास संदेह हुआ था - इस कुरुक्षेत्र के बाद उसके भीतर कुछ जीवित रह पाया है या नहीं - कुछ भी - हँसी या आँसू, जिसे जीवन का संकेत कहा जा सके। वह साँस लेती है, चलती-फिरती है, मगर अब शायद यह भी काफी नहीं। जीवन शायद इससे आगे की कोई चीज है। वह इस क्षण किसी हिसाब-किताब में उलझना नहीं चाहती थी। इन सब के लिए जिंदगी पड़ी है, खूब लंबी-चौड़ी...
सबसे पहले उसे यह तय करना है कि उसे खुद का करना क्या है। यकायक वह स्वयं को जिंदगी के बीचोबीच खड़ी पाती है - जैसे किसी नो मैन्सलैंड में - एकदम डिफेंसलेस और वलनरेवल... सारे सरहदों के पार... देश-विदेश के दायरे से परे...! बेघर शब्द की विडंवना को आपाद-मस्तक झेलते हुए!
पैतीस वर्ष की अवस्था है उसकी। वह यानी श्रीमती अपर्णा लाहिड़ी... आशुतोष लाहिड़ी की पत्नी, कल तक एक दस वर्ष की बच्ची की माँ - एक भरे-पूरे घर की मिस्ट्रेस... मगर आज नियति की एक ही ठोकर से हर रिश्ते से अचानक कटकर किसी भटके हुए नक्षत्र की तरह एकदम निसंग - अंतरिक्ष में यहाँ-वहाँ डोलती हुई, भारहीन, दिशाहीन, पूरी तरह से निरुद्देश्य...
अंदर किसी अनाम गहराई से एक घुमेर-सी उठती है और पहाड़ी धुंध की तरह अक्समात छाती चली जाती है। आसपास एक वृत्त-सा रचता है। आजकल वह अपनी हौलदिली को दोनों हाथों से समेटे खड़ी रहती है। ये डूबता हुआ-सा अहसास इन दिनों हमेशा बना रहता है। अवसाद के लिए वह कब से इलाज में है। गहरी, मटमैली अनुभूतियाँ अंदर पत्थर की तरह जमकर बँधने लगी है। इसके नीचे उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा चला गया है। पानी में तैरते हुए बर्फ की चट्टान की तरह - सतह पर कम और मन की नीली, स्याह गहराइयों में ज्यादा डूबा हुआ।
वह अपनी इन आर्द्र हथेलियों में क्या-क्या सहेजे, पूरा जीवन ही बिखरा पड़ा है। ठीक मेले के उठ जाने के बाद का-सा बिखराव... दूर-दूर तक...वह एक सिरा सँभालती है तो दूसरा सिरा हाथ से छूटकर गुम जाता है।
खिड़की से हटकर वह किचन में आ गई थी, कुछ करने, व्यस्त हो जाने की गरज से। आजकल यह बहुत जरूरी हो गया है - हर समय काम करना, खुद को उलझाए रखना। यह रात दिन का खुद से भागते रहना बहुत थका देनेवाला अनुभव था। मगर करे भी तो क्या, अपने भीतर दो घड़ी ठहरा भी तो नहीं जाता। वह परकोलेटर से उठते हुए भाप को अनमन देखती रही थी, अंदर हर क्षण घिर आते हुए आद्रता की बोझिल अनुभूति लिए।
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एकांत में हर आवाज शोर बन जाती है। इसी शोर से वह आजकल हर समय घिरी रहती है। सब कुछ - सब कोई उससे इतनी दूर चले गए हैं कि अब उनकी आहट तक नहीं आती - मन से तो बिल्कुल नहीं आती। मगर उसकी असली त्रासदी शायद यह है कि जो लोग आहट से भी परे चले गए हैं, वह आज भी उन्हीं के इंतजार में अपनी दहलीज पर खड़ी रहती है। उसे बस उन्हीं की प्रतीक्षा है - हर पल, हर घड़ी... काश वह अपने इस इंतजार से कभी छूट पाती... मगर शायद यह अपने आप से छुटने जैसा ही कठिन है। इनसान सिर्फ हार-मांस का ही बना हुआ कहाँ होता है। उसके रचाव में यह संवेदनाएँ भी तो होती हैं - हर रेशे में गुँथी हुईं - हवा और गंध की तरह...
वह चाय का कप लेकर ड्राइंग रूम में आती है। पूरा कमरा अपनी हर चीज के साथ तटस्थ दिखता है - होटलों जैसी साफ-सफाई और सायास गढ़ी गई सुंदरता... कहीं घर जैसा आत्मीय बिखराव नहीं जहाँ दो पल निश्चिंत होकर पैर फैलाया जा सके। विडंबना तो यह है कि यह सब उसी के हाथों रचा-गढ़ा गया है, मगर उसमें मन के चाव की जगह अनुशासन और नियमों में रहने की बाध्यता ही ज्यादा हावी रही है।
अपने ही अनजाने वह कब इस मशीनी व्यवस्था की हिस्सा हो गई उसे पता ही नहीं चला। फिर यह मन ही क्यों पड़ा रह गया पीछे - उस देश में जहाँ रिश्तों की एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त में आज उसका कोई नहीं। क्यों इन ठंडे-प्राणहीन मकानों में रह-रहकर उस घर की याद हो आती है जिसकी छत और दीवारें रिश्तों की महक और उनके प्यार-तकरार से बनी हुई थी। उनके आँगन की एक टुकड़ा जाड़े की रेशमी धूप मेह-बर्फ से ठिठुरते मटमैले मौसमों में बोरसी के सुखद ताप की तरह अब भी स्मृतियों में छा जाती है। जिस जमीन में नाल गढता है, मन भी वही आजन्म गढ़ा रह जाता है शायद... फिर इनसान की बाँहें किसी भी आसमान को क्यों न छू लें।
एक मौसम होता है जब पक्षी अपने देश लौट जाना चाहता है, यह मौसम भी कुछ वैसा ही था। एक मछली की तरह अपने क्षण-क्षण निकट आती मौत की बेला में वह भी जैसे प्रतिकूल लहरों में कूद पड़ना चाहती है, बह जाना चाहती है नियति की निर्मम दारा में। कहीं तो वह जमीन मिले जहाँ जीवन पहली बार अँखुआया था, फिर मृत्यु ही क्यों न वहाँ प्रतीक्षा में खड़ी मिले...
मगर बीच में यह पंद्रह साल खड़े हैं - आसमान से भी ऊँची दीवार की तरह! और विडंबना यह है कि यह दीवार उन्होंने ही खड़ी की है - एक-एक ईंट जोड़कर... इसे तोड़ना, ध्वस्त करना भी अब खुद को है और यही सबसे कठिन काम है। पूरी देह-मन को जो लताएँ घेरी हुई हैं, उन्हें काटकर फेंक देना इतना सहज नहीं। यह रिश्ते हैं - उसके सायास बनाए हुए, उससे जन्मे और पले-पुसे हुए...
पंद्रह साल पहले वह गहने और सिंदूर से दपदपाती हुई इस देश में आई थी, साथ में थे ढेरों सपने और उन्हें पूरे करने के वे सातों बचन जो उसे अपने जीवन साथी से एक महीने पहले शादी के मंडप में मिले थे। वही उसका संबल था जिसे सहेजे वह इस पराई जमीन पर अपना घर बाँधने आ गई थी - अपनी पूरी आस्था और यकीन के साथ। तब उसे पता नहीं था, बहते हुए साहिल से ठिकाना माँगने का नतीजा बिखराव के सिवा और कुछ भी नहीं होता, हो नहीं सकता...।
शुरू-शुरू के दिन सपने जैसे थे - खुली आँखों के जीते-जागते सपने... दिन के उजाले में आकार लेते हुए, रचते हुए, खूबसूरत खिलौने जैसे घर, साफ-सुथरी चौड़ी-चौड़ी सडकें, जगमगाती हुई दुकानें, बाग-बगीचे... परियों का, किस्से-कहानियों का देश, ठीक जैसे बचपन में माँ से सुनती थी।
वह एक बार फिर अपने बचपन की उमंग में उतर आई थी। बड़े चाव से अपना डॉल हाउस सजाया था। उसका पति आशुतोष इंजीनियर था - प्रतिष्ठित और संपन्न! उसके डॉल हाउस के लिए उसने जो भी माँगा उसे दिया गया। उसने खूब चाव से सजाया अपना डॉल हाउस। प्यार की उंगली से हर कोने में इंद्रधनुष रचाया, अपना मन ही ओढ़ा दिया पूरे घर को...
उसे नीला रंग पसंद था, उसका घर नीले सुख-स्वप्न-सा बनकर झिलमिलाने लगा। मगर कागज-गत्ते की दीवारों में वह घर की मजबूती कहाँ से लाती... ये तो ठोस रिश्तों से ही बन पाते हैं। सतह के चाक्-चिक्य में भूली वह सजती-सँवरती रही, पति के साथ पार्टियों में जाती रही। हर वीक एंड में बंच, छुट्टियों में तफरीह... जीवन एक कभी खत्म न होनेवाले जश्न की तरह बीत रही थी।
इस चहल-पहल और रौनक के बीच उसने उन अदृश्य दुश्मन हाथों को नहीं देखा जो निरंतर उसके घर में सेंध लगा रहे थे। या देखकर भी अदेखा कर दिया। शायद जागने के लिए जिस सपने के टूट जाने की शर्त लगी थी, वह उसे स्वीकार नहीं था।
गोद में काजोल आई तो वह और भी निश्चिंत हो गई। घर की सारी खिड़की-दरवाजे खोलकर अपने सपनों की दुनिया में खो गई। एक दबी-सी आहट तो कभी-कभी उसे भी आती रही थी, मगर उसने उसे सायास रोक दिया था। अंदर का एक निःशब्द पलायन, जिसका उसे स्वयं पता नहीं था। वह किसी भी अभाव को स्वीकारना नहीं चाहती थी, और इसी अस्वीकार में अपना सुरक्षा देखती थी शायद। मगर आँख मूँदने से ही तो कबूतर बच नहीं जाता बिल्ली की झपट से...! वे थे और अंतःसलिला की तरह अंदर ही अंदर फैल भी रहे थे। जिस दिन यह बात जाहिर हुई, तब तक उसका प्रायः पूरा ही घर इस डूब के हिस्से आ गया था।
जड़ों में लगे दीमक इसकी सारी मजबूती चाट गए थे। एक तरफ वह थी, दूसरी तरफ आशुतोष - हर क्षण दूर जाते हुए, बदलते हुए। वह अंगुल-अंगुल चौड़ाते हुए इस खाई को जितना भी पाटने का प्रयास करती, वह उतना ही अजनबी बन जाता। कहाँ क्या कमी रह गई थी, वह समझ नहीं पा रही थी। और एक दिन आशुतोष ने ही कहा था - कोई कमी नहीं है, तभी तो...
मन का आखिरी बूँद तक भर जाना एक नए तरह के अभाव को जन्म देता है, तब वह कहाँ जानती थी। पता होता तो वह अपने संबंध को इतना परफेक्ट नहीं बनने देती। उसने जैसे हर तरह से भरकर अपने रिश्ते को खाली कर दिया था।
अंततः आशुतोष ने भी यही इल्जाम दिया था उसे। सजा हुआ घर, सजी हुई वह... सब कुछ सजा हुआ! ऐसे सजे हुए डॉल हाउस में एक गुड्डे की तरह जीना उसके लिए कठिन हो गया था, वह असली जिंदगी जीना चाहता था, रोमांच से भरी - ये आशुतोष के शब्द थे - नेजे की तरह उसमे उतरते हुए, लहूलुहान करते हुए... वह रोई थी- मगर इसमें उसका क्या कसूर? उससे तो यही सब उम्मीद की गई थी। बार-बार उससे कहा गया था, अपना देशीपन छोड़ो, यहाँ की दुनिया अलग है। यहाँ के तौर-तरीके सीखो, वरना कभी एक्सेपटेड नहीं हो पाओगी।
उसके लंबे बाल कतरवा दिए गए, साड़ी छुडवा दी गई। पार्टियों में जींस पहने, हाथ में वाइन का गिलास लिए वह स्वयं को ही पहचान नहीं पाती। आशुतोष पीते-पीते अपनी सिगरेट उसके होंठों से लगा देता, सबके सामने दबोचकर चूम लेता। शुरू-शुरू में वह लाल पड़ जाती थी। एक समय के बाद समुद्र तट में नंगी-अधनंगी विदेशी भीड़ के बीच बिकनी में सन क्रीम लगाकर धूप सेंकना उसके लिए कोई असहज बात नहीं रह गई थी...।
इतना तो बदल लिया था उसने स्वयं को आसुतोष के लिए, और क्या चाहता था वह उससे? वह अपना चेहरा उतार देती? अपना जिस्म बदल देती? क्या करती, और क्या करती...? कई बार वह दीवारों से बातें करती, आसमान से पूछती, मगर एक सर्द सन्नाटे के सिवा हाथ कुछ भी न आता।
आशुतोष बिना किसी प्रश्न का जबाव दिए और-और दूर होता चला गया था। देर रात तक घर न लौटना, सेमिनार, कान्फ्रेंस के नाम पर हफ्तों गायब रहना... पहली बार उसके ऑफिस की बूढ़ी सेक्रेटरी ने उसे चेताया था - यू इनोसेंट गर्ल, अपने पति पर नजर रखो, ये गोरी चुड़ैलें रात दिन मर्दों पर घात लगाए बैठी रहती हैं! सुनकर वह सन्न रह गई थी। वह मद्रासी ईसाई औरत शायद दोनों की चमड़ी के साझे रंग के लिए उससे सहानुभूति कर गई थी। इसके बाद ही उसे पता चला था, आशुतोष ने दूसरे शहर में बाकायदा अपार्टमेंट ले रखा है, जहाँ वह अपनी ब्राजिलियन प्रेमिका के साथ दिनों तक पड़ा रहता है। सुनकर उसने पूरा घर सर पर उठा लिया था। यहाँ तक कि आशुतोष का चेहरा तक नोंच लिया था।
बात खुलने पर आशुतोष बिल्कुल ही लापरवाह हो गया था। अब तिनके की ओट भी नहीं रह गई थी। इंटरनेट पर देर रात तक चेटिंग, पोर्न साइट में जाना, फोन सेक्स... सब कुछ उसके सामने खुला पड़ा था। बेशर्मी की इस हद ने उसे अवाक करके रख दिया था।
'मैं कहाँ चला जा रहा हूँ, हर रात तुम्हारे पास ही तो लौट आता हूँ! ये घर, बच्चा, सुख-सुविधाएँ - क्यों खुश नहीं रह सकती तुम...?'
उसकी बातों का जबाव न देकर वह अपने मायके चली गई थी। मगर फिर छह महीने में लौट भी आई थी। माँ के बाद मायके में कुछ नहीं बचा था, यह उसे समझा दिया गया था। यहाँ से भी शुभचिंतकों के फोन आते थे - कोई अपना घर इस तरह नहीं छोड़ता। लौट आओ, सब कुछ तुम्हारा है।
मगर लौटकर भी कोई बात बनी नहीं थी। इसके विपरीत आशुतोष का हौसला और भी बढ़ गया था। उसने समझ लिया था, उसका और कहीं आसरा नहीं। उसकी विवशता को उसने तुरत-फुरत नकद भी कर लिया था। झगड़ा, उपालंभ, मान-मनुहार - कुछ भी काम नहीं आया था। और आखिर एक दिन थककर उसने संधि कर ली थी।
इस संधि के निर्मम शर्तों ने उसे धीरे-धीरे अवसाद की स्याह गहराइयों में धकेल दिया था। आशुतोष ने जो रास्ता चुन लिया था, उसमें शायद कोई यू टर्न नहीं था। गेंद उसने उसके पाले में डाल दिया था - यू टेक इट अॅर लीव इट, द चॉयस इज योरस्... वह क्या छोड़ती, बस जो मिला, ले लिया... ये जीने की जुगाड़ थी, अस्तित्व का सवाल था, कोई विकल्प भी कहाँ था। उसने अपनी बच्ची पर कानसेंट्रेट करना शुरू कर दिया।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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एक रोबोट की तरह वह चल-फिर रही थी, अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रही थी। मगर जिंदगी से खुशी, सुकून, यकीन जैसी नियामतें एक-एककर खोती चली गई थीं। वह कुछ भी नहीं कर पाई थी। अपने रिश्ते का असल ही उसका संबल था, अब जो वही नहीं था तो वह खुद चुकने से कैसे रह जाती। हर तरह से टूटती हुई वह खत्म होने के कगार पर पहुँच रही थी। हर दिन उसके अंदर से कुछ खोता जा रहा था। हर पल एक डूब अंदर बनी रहती थी। जैसे किसी तल टूटे जहाज का सफर - जितना सतह पर उससे ज्यादा नीचे की ओर...
समझौतों पर टिका हुआ रिश्ता आखिर कितना सहारा देता, और कब तक... मगर उसके सामने उसकी बच्ची का चेहरा था। खुद को भुलाकर वह उसके लिए जीने की कोशिश करती रही थी। वह नहीं चाहती थी, एक टूटे परिवार के घाव उसकी बच्ची को सहना पड़े। वह खुद जिंदगी की बारिश में भीगती हुई उसके लिए छतरी बनी हुई थी। उसे धूप, सर्दी-गर्मी से बचाना उसका अकेला मकसद रह गया था।
यहाँ सबके कदम के साथ कदम मिलाकर चलना सहज नहीं था उसके लिए। एक पागल दौड़ में यहाँ सभी शामिल हैं, मगर जाना कहाँ है शायद किसी को नहीं मालूम... बस पिछड़ जाने के डर से हमेशा त्रस्त हैं। यहाँ के ट्रेंडी लाइफ में कुछ भी आउट डेटेड नहीं हो सकता। अस्तित्व के खतरे ने सभी को हाँके में डाल रखा है, सभी भयभीत पशु की तरह दौड़ रहे हैं और दौड़ते हुए एक और जंगल में खोते जा रहे हैं। यहाँ सब कुछ इतना सधा-तना और योजनाबद्ध है कि एक पल के लिए भी असतर्क नहीं हुआ जा सकता। स्नायु जैसे प्रत्यंचा-सी चढ़ी रहती है हर समय। सब कुछ ठीक ढंग से करने की सायास चेष्टा, व्यवहार में ओढ़ी हुई सभ्यता, जबरन याद दिलाए गए एटिकेटस्...
प्रायवेसी की हद ये कि किसी का भला करते हुए भी दस बार सोचना पड़ता है कि हम किसी की प्रायवेसी या अधिकार के रास्ते में तो नहीं आ रहे हैं। पता नहीं, यहाँ लोग अपनी भलाई किस बात में देखते हैं। यहाँ आदमी जिस्म से जितना खुला है, मन से उतना ही बँधा हुआ है। वह हर कदम पर लकीरें खींचकर अपने लिए दायरे रच रहा है। एक-दूसरे से कट रहा है। अकेले होने और होते चले जाने की न जाने ये कैसी होड़ है, कैसी पागल जिद है...
जाने वह कब यहाँ की इस मशीनी जिंदगी का हिस्सा हो गई है, आईने के सामने खड़ी होकर उसे ख्याल आता है। आजकल वह स्वयं को शिनाख्त करने में ही जैसे असमर्थ हो गई थी। ये अंदर का सफर होता है जो इनसान को थका देता है। वह अपने ही अंदर के पत्थरों से टकराती रहती है, आहत होती रहती है। अपनों के बीच बढ़ते जा रहे फासलों को तय कर सके, वे पाँव वह कहाँ से लाए। ये काम जिन संवेदनाओं के बुते होते हैं, वे भी अब कहाँ रहे थे। जो पुल उन्हें एक-दूसरे तक पहुँचाता था, वह तो कब का टूट चुका था। अब उसके दुख दूसरी तरफ नहीं पहुँचते, न दूसरी तरफ की खुशियाँ इधर कभी दस्तक ही देती है। साझे का दुख-दर्द बँटकर चाहे कम न हो, मगर सह जाते हैं। अकेले की तो खुशियाँ भी बर्दाश्त नहीं होतीं। मन पर लगाम लगाए वह किस दौड़ का हिस्सा बनती, कहाँ तक पहुँचती...
वह जानती थी, एक दिन उसकी बच्ची भी औरों के बच्चों की तरह बड़ी हो जाएगी। इतनी बड़ी कि अपने माँ-बाप का कहा सुनना, मानना भी अपनी इनसल्ट समझ सके। वह यहाँ सालों से है। अपने परिचितों के घरों में देखती है, जो बच्चे कल तक इतने छोटे होते हैं कि वे टी.वी. पर क्या देख रहे हैं, माँ-बाप को ध्यान रखना पड़ता है, अचानक इतने बड़े हो जाते हैं कि हाई वे पर एक सौ अस्सी कि.मी. की तेज रफ्तार से गाड़ी चलाकर अपनी जान दे सकते हैं, नाइट क्लब में नशा करके जिस-तिस के साथ रात गुजार सकते हैं, और यह सब उनके अधिकार क्षेत्र में आता है! बात-बात पर उनका सीना निकालकर अपने बडों के सामने खड़ा हो जाना - इटस् माय लाइफ...
यहाँ लोग अपनी जिंदगी खुद पाते हैं, खुद जीते हैं। बीच में माँ-बाप या और कोई नहीं होता। हाँ, मदर्स डे या फादर्स डे में एक बड़े केक और फूल के साथ अपने माँ-बाप को यह लोग थैंक्स कहना कभी नहीं भूलते। आखिर यह औपचारिकता और शिष्टाचार का देश है - सभ्य लोगों का सभ्य देश... वह हैरत के साथ देखती है - लोगों के एक ही घर में कई-कई घर होते हैं और हर घर की अपनी-अपनी जिंदगी होती है!
गैर तो दूर की बात, अपने भी आवश्यकता के निहायत जरूरी क्षणों में इनमे बिना दस्तक दिए दाखिल नहीं हो सकते। हर दरवाजे पर 'डु नॉट डिस्टर्ब' की तख्ती लटकी रहती है। उठती जवानी का अबाध्य, उद्दंड व्यवहार, अवज्ञा, नशा... इन सब से लोगों को अकेले ही जुझना पड़ता है। एकल परिवार की विडंबनाएँ... जीवन के इन कठिन समय में संस्थाओं के अलावा शायद ही किसी अपने का साथ मिलता है। किसी के पास अतिरिक्त समय नहीं, समय का अभाव हर जीवन में बना रहता है।
अपने बच्चों की भलाई सोचते हुए अक्सर माँ-बाप उनके रास्ते का काँटा बन जाते हैं। वह आतंक के साथ देखती है, मिसेज मित्रा की पंद्रह वर्ष की बेटी अपनी माँ के मेडिसीन कैबिनेट से बर्थ कंट्रोल की गोलियाँ निकालकर बिंदास गटकती है और मिसेज मित्रा नजरें चुराती सामने खड़ी रह जाती हैं। सोलह वर्ष का बेटा कार पार्किंग में घंटों अपनी गर्लफ्रेंड के साथ कार में बंद होकर पड़ा रहता है और वे देखकर न देखने का बहाना करते हुए अपना सम्मान बचाती फिरती हैं।
कई बार पूरी-पूरी रात वे बच्चों की चिंता में जागकर काट देती हैं, मगर बच्चे उन्हें एक फोन करने की भी जरूरत नहीं समझते। पूछने पर वही जबाव मिलता है - नाउ वी आर बीग मॉम, स्टॉप बॅदरिंग... पार्टी, हाली डे आदि का सिलसिला कभी थमता ही नहीं। यहाँ आकर लोग यहाँ की सुख-सुविधाएँ देखते हैं, तो यहाँ का चलन और संस्कृति को भी झेलना ही पड़ेगा...
सबके अस्त--व्यस्त कमरे ठीक करते, खाना बनाते, लांड्री करते वह अक्सर सोचा करती थी कि वह अपनों के जीवन में क्या मायने रखती है। वह अपनी भूमिका तय नहीं कर पाती थी - वह अपनी बच्ची की माँ है या एक आया! एक पत्नी है, गृहिणी है या घर के काम करनेवाली एक अवैतनिक नौकरानी, जो कभी-कभी जिस्म की भूख मिटाने के भी काम आ सकती है। जीने के लिए इतनी सारी कठिन शर्तें... कभी-कभी उसने संजीदगी के साथ सोचा था, क्या मौत इससे बेहतर विकल्प नहीं!
जिस दिन उसने सुना था, आशुतोष की एक स्ट्रीप डांसर कीप ने उसके बच्चे को जन्म दिया है, वह अदालत में तलाक की अर्जी दे आई थी। सबने बहुत समझाया था, मगर उसके धैर्य की सीमा खत्म हो गई थी। उसका सीना आकाश से ज्यादा तो नहीं फैल सकता था न! धरती भी अंदर के दबाव से कभी फट पड़ती है, ढह जाती है, फिर वह तो हाँड़-मांस की एक इनसान ही थी। अपने अंदर सील की कठोरता कहाँ से लाए। दिल है और वह धड़केगा भी नहीं...!
तलाक की एक लंबी लड़ाई में भी वह अकेली ही रही। किसी से भावनात्मक सहारा तक नहीं मिला। सब अपनी-अपनी दुनिया में गुम थे। अपनों का साथ देने का, दुख-दर्द बाँटने का जो संस्कार अपनी जमीन, अपने देश में मिलता है, यहाँ लोग उनसे महरूम रह गए थे। दोष किसे देती! आसमान पाने की फिराक में अपने पाँव की जमीन भी खो बैठी थी। अब तो बस बहना और अंततः डूबना ही था।
चार साल तक हाथ में फाइल लिए वह इधर-उधर भटकती रही थी, वकीलों के हाथों शोषित होती रही थी। घरों में आग लगाकर हाथ सेंकनेवाले लोग थे वे। अच्छी संभावनाएँ दिखाकर गहरे पानी में ले जाकर हाथ छोड़ दिया था उसका। कानून ने भी कोई खास सहारा नहीं दिया था।
इन दिनों विदेशों में तलाक संबंधी कानून में बहुत सारे परिवर्तन आए थे। अब स्त्रियों को पहली जैसी सहूलियतें और लाभ नहीं मिलता है। एक तरह से उनके विरोध में ही कानून की कई धाराएँ खड़ी हो गई थीं। बच्चे के वयस्क हो चुकने की स्थिति में उनका प्राप्य सीधे उन्हें ही दे दिया जाता है। उसे बताया गया था तलाक हो जाने पर गुजारे लायक एक बँधी हुई रकम हर महीने पाँच साल तक उसे दिया जा सकता था। उसके बाद यह रकम भी मिलनी बंद हो जानेवाली थी। अदालत भविष्य के लिए अपनी योग्यता के अनुसार कोई काम ढूँढ़ने की सलाह तलाकशुदा औरतों को देती है। वैसे आशुतोष के पेंशन से उसे कुछ मिलनेवाला था जरूर, मगर वह पैसठ वर्ष की अवस्था के बाद ही।
इसी लड़ाई के बीच काजोल बीमार पड़ गई थी और वह सब कुछ भूलकर उसके साथ व्यस्त हो गई थी। सारी दुनिया पड़ी रहे, पहले काजोल, सिर्फ काजोल...
इन्ही दिनों उनके जीवन में तापसी का प्रवेश हुआ था। दुख की घड़ियों में वह सतर्क रहना भूल गई थी, दुनियादारी भूल गई थी, शी कुड नॉट केयरलेस... उसने एक बच्चे की तरह यकीन किया था, उसका तो यही हश्र होना था।
सुबह शॉपिंग के लिए निकलते हुए तापसी ने उसे सामानों का एक अदद लिस्ट पकड़ा दिया था, जो वह अपने साथ ले जा सकती थी। वह चाँदी का कटोरा जिससे उसने अपने बेटे को पहली बार अन्नप्रासन का खीर खिलाया था, अब महज एक सामान में तब्दील हो गया था। उसके बेगम अख्तर की गजलों का सी.डी. कलेक्शन भी अब पराया हो गया था, वह कश्मीरी कालीन भी जो उसने अपने हनीमून पर खरीदी थी।
पैसा आशुतोष का था, और पैसा जिसका होता है, सामान भी उसीका होता है, उसका नहीं जो उससे प्यार करता या सँभालता है। जो चीजें संवेदनाओं से जुडी थी, वे अब बेजान सामानों की फेहरिस्त में आ गई थीं। कल तक ये चीजें उसकी छुअन से धड़क-धड़क उठती थीं। उसकी उंगलियों के पोरों पर उनका स्पर्श हर क्षण जीवित था। बिना सोचे उसने काजोल के अन्न प्रासन का कटोरा उठा लिया था - इसकी कोई कीमत नहीं हो सकती थी...
जहाँ अपने होते हैं, वही अपना देश होता है। यही सोचकर एक दिन इस विदेश में आ बसी थी। मगर अपना परिवार खोने के बाद तो यह विदेश भी छूट गया था। बेघर हो जाना शायद सही अर्थों में इसी को कहते हैं। मगर इसका भी अपना एक परवटेड किस्म का सुख होता है, उसने पहली बार जाना था। कुछ भी खो जाने के भय से मुक्ति, निःशेष हो जाने की उपलब्धि... अचानक उसने लेंडिंग में जाकर अपना ओवरकोट पहन कर कानों पर शॉल लपेट ली थी - जरा ताजी हवा में घूम आएगी। झरते बर्फ में चलना उसे हमेशा अच्छा लगता है।
दरवाजा खोलते ही ठंडी हवा का रेला उसे झकझोर गया था। सारा दिन बैठे-बैठे कट गया था। अब शाम गहरी हो गई थी, रात से पहले का गहरा नीला अंधकार...
आज तक वह सुख-सुविधा की जिंदगी जीती रही थी, मगर एक कीड़े की तरह रेंगते हुए। आज भले वह यथार्थ की कठोर जमीन पर खड़ी है - मगर अपने पैरों पर, अपनी रीढ़ के बल पर खड़ी है! सामने निपट अँधेरे में डूबी सर्द रात है, मगर वह आगे बढ़ना चाहती है, रास्ता तलाशना चाहती है। अब बस, यही बात महत्व का है, बाकी सब गौण है।
उसने फ्रिज में एक शैंपेन की बोतल चिल करने के लिए रखी हुई है - आजादी, चाहे वह जिस कीमत पर भी मिली हो - उसका जश्न तो होना ही चाहिए। धीरे-धीरे टहलते हुए वह रूई के गालों-से झरते वर्फ के साथ अपने चेहरे पर सर्द हवा की हल्की थपथपाहट को आँखें मूँदकर महसूस करती है। उसे रात के और गहराने का इंतजार है, क्योंकि वह जानती है, सुबह ठीक उसके बाद ही आ सकेगी। एक उमर तक दूर-दूर तक भटकने के बाद आज उसे अपनी ओर लौटना अच्छा लग रहा है। एक निरर्थक तलाश को छोड़कर अपना देश, अपना घर अब उसे स्वयं ही बनना है...
न जाने रात का क्या समय हुआ था, जब उसके दरवाजे पर जोर से दस्तक हुई थी। थोड़ी देर पहले ही उसकी आँख लगी थी। खाने के बाद वह काफी देर तक पुनिया की बहन सकालो से बात करती रही थी। सकालो देर शाम को उनके यहाँ आई थी, काफी अस्त-व्यस्त अवस्था में। परेशान लग रही थी। बाद में उसी ने बताया था, गोपाल एक दिन पहले फरार हो गया है। पुलिस उसे ढूँढ़ रही है।
क्या वह सचमुच नक्सल बन गया है? उसके सवाल पर सकालो उसे टुकुर-टुकुर ताकती रही थी - अब ई हम का जाने दीदिया, बात तो सिरफ यही है कि गाँव के महाजन ने हमरी जमीन ले ली। पूछताछ करने लगे तो मार-पीट की। इसको भी गुस्सा आ गया, उल्टा हाथ छोड़ बैठा। फिर पुलिस आई, का जाने महाजन ने का समझाया-बुझाया, अब पुलिस कहती है कि उ नक्सल बन गया है...
कौशल के कहे अनुसार उसने उसे उस रात अपने कमरे में सुला लिया था। फर्श पर एक तरफ चटाई बिछाकर वह सोई थी।
दस्तक की आवाज से उसके साथ-साथ सकालो भी उठ बैठी थी। दरवाजा अभी तक लगातार खटखटाया जा रहा था। उसने सकालो की तरफ देखा था। वह गठरी बनी फर्श पर बैठी हुई थी। उसका चेहरा सफेद पड़ गया था। विस्फारित आँखों से वह उसे देख रही थी।
उसे अलमारी की ओट में छिपने का इशारा करके उसने दरवाजा खोल दिया था। सामने इंस्पेक्टर खड़ा था -
आपने दरवाजा खोलने में बड़ी देर की मैडम! सो रही होंगी। एक बात बताइए, इधर सकालो आई थी! दोनों औरत, मरद भागे हुए हैं, बहुत बड़ा कांड किए हैं इलाके में...
- नहीं, इधर तो नहीं आई...
कहते हुए उसने यथासाध्य अपनी आवाज को संयत रखने की कोशिश की थी। अंदर अनायास आतंक की सर्द लहरे घुमड़ने लगी थीं। क्या हो जो वे उसके कमरे की तलाशी लेने लगे...
- अच्छा, नहीं आई...!
इंस्पेक्टर ने एक बार कमरे के अंदर सरसरी-सी निगाह फिराई थी और फिर मुड़कर सीढ़ियाँ उतर गए थे - आखिर भागकर जाएँगे कहाँ...
दरवाजा बंदकर वह अपने बिस्तर पर बैठ गई थी। उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। सकालो भी आकर उसके सामने जमीन पर बैठ गई थी। वह भी शायद बहुत डर गई थी। दोनों एक-दूसरे से कुछ कह नहीं पाए थे। बस चुपचाप बैठे रह गए थे, बाहर की आहट लेते हुए। बाहर कोई जोर-जोर से बोल रहा था। उनमें पुनिया की आवाज भी सम्मिलित थी। वह रो रही थी शायद।
बहुत देर बाद, जब बाहर सुनाई देता हुआ शोर धीरे-धीर कम हुआ था, दोनों सो गए थे, न जाने कब! अपने ही अनजाने...
नींद में किसी पहर उसे अस्पष्ट-सा लगा था कि जैसे उसने कहीं दूर गोली चलने की आवाज सुनी हो। कुछ देर तक वह कान लगाकर सुनने की कोशिश करती रही थी, मगर फिर सब कुछ शांत हो गया था।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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सुबह उठकर उसने देखा था, सकालो का बिस्तर खाली पड़ा है। जाने कब वह उठकर चली गई थी। बाहर निकलकर उसने देखा था, महुए के पेड़ के नीचे बैठी पुनिया रो रही है। गेट के पास कुछ लोग खड़े आपस में धीमी आवाज में बाते कर रहे थे। उसे देखकर सब चुप हो गए थे।
बाद में पुनिया ने ही बताया था, भोर रात को पुलिस ने गोपाल को सूखे नाले के पास गोली मार दी है। उसकी लाश को सदर अस्पताल ले जाया गया है। सुनकर सकालो भी वहाँ चली गई है। पुनिया ने उसे बहुत मना किया था, मगर उसने उसकी एक नहीं सुनी थी।
सुनकर वह देर तक चुप रह गई थी। पुनिया की आँखों से बहते हुए आँसू ने उसे कहीं से बहुत छोटा, बहुत बौना कर दिया था। कोई कद नहीं है उसका - उन जैसे लोगों का...
कमरे में बंद होकर वह अपने उपन्यास के पन्ने निरुद्देश्य उलटती-पलटती रही थी। कागजों पर लिखे इन्कलाब और उनका झूठा गुमान... मगर आज... जब जिंदगी की कटु सच्चाइयाँ सामने नंगी होकर खड़ी हैं, दरवाजा बंद करके स्वयं को महफूज कर लेने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प उसके पास नहीं है। शब्द और शब्द... खोखले और निरर्थक! इनमें अर्थ कहाँ है, सामर्थ्य भी क्या है इनका! इनके वास्तविक अर्थ को जीने का साहस तो इनके रचयिता के पास भी नहीं है। शब्दों के कागजी हथियार और नारे...
यकायक सब कुछ निरर्थक प्रतीत होने लगा था। जी चाहा था, अपना लिखा सारा कुछ अपने ही हाथों से मिटा दे, फूँक डाले...
उसे सकालो की याद आई थी, शादी के बाद सद्य प्रस्फुटित कुमुदिनी की तरह झिलमिला रही थी - उसी दुधिया आभा और लहक के साथ। बसंत में खिले किसी अमलतास की तरह उसका वह रूप, लावण्य - युवा और कोरा... चेहरे पर बैशाख की भोर की तरह निश्छल, ताजी हँसी... कितनी प्रांजल, जीवंत! बरसाती नाले की तरह उफनता हुआ यौवन उसका - उद्दाम और अबाध्य... साक्षात जीवन थी वह - जीवन का शाश्वत उत्स... बात-बात पर हँसकर दुहरी होती हुई, जैसे अंतस में खुशी का कोई बाँध टूट गया हो! आँखों की चावनी में प्रथम अनुराग का रंग था - ढेर सारा... गोपाल की तरफ देखकर न जाने किस आंतरिक ऊष्मा में ओस की बूँद की तरह पिघली जा रही थी। प्रेम का स्वप्निल स्वाद, उसका मोहमय बंधन... कितना खूबसूरत रहा होगा सब कुछ उसके लिए!
उसे उस दिन उस अपढ़, वन्य लड़की से ईर्ष्या हो आई थी। कुछ नहीं था उसके पास, मगर प्यार था - पूरी छाती भरकर, किनारे तक छलकी पड़ रही थी। अपने मरु हुए जीवन में उसने बहुत ढूँढ़ा था उस रात, कहीं एक फूल या मुस्कराहट नहीं था। जो कुछ भी सुंदर था, कमनीय था, एकदम से निःशेष हो गया था जैसे। कितनी गरीब हो गई थी वह उस दिन उस निर्धन के सामने...!
उस रात वह रोई थी, न जाने किस लिए। एक अबूझ पीड़ा में मन डूब गया था बेतरह। रूप है, गुण है, विद्या है उसके पास, मगर किसी का बूँद भर प्यार नहीं... अपना इस तरह एकदम से बेघर होना, होते चले जाना उसे दंश देता रहा था। सो नहीं पाई थी रात भर। बिस्तर के दूसरे हिस्से का सूनापन दरअसल उसी के जीवन का शून्य है, इस सत्य को शिद्दत से महसूस कर पाई थी वह।
पुलिस कह रही थी गोपाल खूनी है। बछरा गाँव की हत्या और लूटपाट में उसी का हाथ था... उसे सुनकर यकीन नहीं हो पाया था। उस गहरे साँवले युवक की आँखों में कैसा उजलापन था। हँसता था तो जैसे उसके अंदर की अच्छाइयाँ उसके चेहरे पर दूध की तरह रिस आती थी। हाथ में जंगली बेर का दोना लेकर उससे मिलने आया था। लड़कियों की तरह शर्मीली हँसी हँस रहा था... वह किसी की हत्या करेगा!
शाम को रेंजर साहब ने अपने ड्राइवर चाँद सिंह को भेजा था, उसे अपने यहाँ लिवा ले जाने के लिए। उनके बेटे का जन्मदिन था। वह चली गई थी, कुछ देर स्वयं से दूर होना जरूरी हो गया था। कभी-कभी अपना स्व ही एक कारावास में परिवर्तित हो जाता है।
बँगले के लॉन में बैठने की व्यवस्था की गई थी। चारों तरफ पानी का छिड़काव किया गया था। ताजी छँटी मेहँदी की झाड़ियाँ महक रही थीं - गर्म, तीखी गंध। दो-चार दिन बारिश होकर रुक गई थी। तापमान फिर चढ़ गया था। वहाँ पहुँचकर उसे अच्छा लगा था। दिन भर अपने कमरे में बंद होकर घुटती रही थी।
कमलिका भाभी आज बहुत खूबसूरत दिख रही थी। उन्होंने ताँत की गहरी बैंगनी साड़ी पहनी थी। ढीले जूड़े में मोगरे की वेणी। अपने बेटे को गोद में लेकर बाहर निकल आई थी, मुस्कराते हुए-
बाबा, आज कितने दिन बाद आपके दर्शन हुए कहिए तो! उस घुमंतू जीव के साथ आप भी उसी की तरह बनती जा रही हैं...
उनका इशारा कौशल की तरफ था। सुनकर वह मुस्कराती रही थी। थोड़ी देर बाद रेंजर साहब भी अन्य परिचितों से निपटकर उसके पास आ खड़े हुए थे -
कैसी हैं मिस अपर्णा?
- अच्छी हूँ...
एक संक्षिप्त-सा जबाव देकर वह फिर चुप रह गई थी। आज वह किसी भी तरह सहज नहीं हो पा रही थी। मन के अंदर बार-बार गोपाल का हँसता हुआ चेहरा आ खड़ा होता था, फिर सकालो का - आँखों में लिसरा हुआ काजल, कातर, गीली दृष्टि... किसी की एक पूरी दुनिया उजड़ गई और किसी को खबर तक न हुई!
एक कोने में बैठकर वह आम की पन्नी पीती रही थी। बीच में कमलिका भाभी आकर अपने एक विदेशी मेहमान का उससे परिचय करवा गई थी - मिस्टर हडसन, आदिवासियों के जीवन पर कोई किताब लिख रहे हैं। इसी सिलसिले में पिछले एक साल से इस इलाके में रह रहे थे। यहाँ की भाषा भी थोड़ी-बहुत बोलने लगे थे।
आदिवासियों की संस्कृति, उनका रहन-सहन आदि पर मिस्टर हडसन देर तक विस्तार से बोलते रहे थे। अपनी किताब को लेकर हर लेखक की तरह काफी उत्साहित लगते थे। वह उनकी बात सुनकर 'हाँ न' में सिर हिलाती रही थी।
इस पूरे प्रसंग में एक छोटा-सा अध्याय दोनों के अलक्ष्य छूट गया था - गोपाल और सकालो का प्रसंग! ऐसा ही होता है अक्सर - कहते हुए वही हिस्सा छूट जाता है जो असली कहानी होता है... लोग यहाँ की धरती से कितनी सारी रंग-बिरंगी कथा-कहानियाँ बटोर ले जाते हैं- वण्य लावण्य से आप्लावित संथाल लड़कियाँ, चाँदनी रातों में उनका सफेद वस्त्रों में कतार बद्ध नृत्य, मांदल की लयबद्ध धप-धप, महुआ की मादक गंध से बोझिल हवा... इन सब के बीच कहने-सुनने से रह जाता है बस वह खालिस दुख जो यहाँ की मिट्टी में युगों से दबा पड़ा है! किसी गूँगे की अव्यक्त पीड़ा की तरह... मूक बहता है - निःशब्द रातों के निर्जन एकांत में, किसी की विवश आँखों से या शनैः-शनैः बँधकर समय के साथ पत्थर बन जाता है हृदय के किसी निभूत कोने में।
एक उर्वर धरती क्यों इस तरह धीरे-धीरे बाँझ बनकर ऊसर, उलंग पड़ी रह गई, कोई शायद ही कभी जान सके... जो धरा रह गया है अदेखे, अजाने - परित्यक्त, अवहेलित, वही इस मिट्टी का असल है, इसका एकमात्र संबल... उसके अंदर एक तेज दर्द रह-रहकर घुमड़ उठता है - इस अन्याय का कोई प्रतिकार नहीं...
- अद्भुत देश है आपका... मिस्टर हडसन ने रोहू मछली के कलिया में अपना पूरा पंजा डुबोते हुए कहा था। जाहिर है काँटा चुनकर मछली खाने में उन्हें खासी असुविधा हो रही थी। उनके झक सफेद सफारी सूट में शोरबे के लाल, पीले धब्बे लगे हुए थे। उनकी नाक लगातार झर रही थी, जिसे वे रह-रहकर सी-सी करते हुए रूमाल से पोंछ रह थे - योर फूड इज वेरी हॉट... बट वेरी टेस्टी, स्पेशली दिज गोल्डन करीज... आई रीयली लाइक देम अ लॉट... लाल होकर उनकी नाक अब आलू बुखारे की तरह दिख रही थी। विराट गोरे चेहरे में जैसे खून रिस आया था।
- तो जो मैं कह रहा था मिस आपना...
- ...कि हमारा देश बहुत अद्भुत है... अपर्णा ने धैर्य के साथ कहा था।
- यस-यस... बहुत फनी है... इतनी भाषाएँ, जात-पात, धर्म... हर दो कदम में सब कुछ बदल जाता है - मौसम, परिवेश, लोग... फिर भी एक डीस्टींक्ट कैरेक्टर है जिसे हम इंडियन कह सकते हैं... इनटरेस्टींग, मस्ट से, वेरी इनटरेस्टींग...
- जी...
अपर्णा अनमन होकर उसकी बातें सुनती रही थी। हर विदेशी की तरह उसके वही कौतूहल थे, वही आब्जर्वेशंस - होली काउ, गॉडेज काली हु ड्रिंक्स् ब्लड, एक्सट्रीम पोवर्टी, डर्टी कैलकेटा, डर्टी गैनजेस, योगा, हिमालया, स्लमस्...
सी-सी करते हुए वह लगातार बोले जा रहा था - क्या देश है... सब कुछ इतना सस्ता, सामान से लेकर इनसान तक... दो शाम खाना देकर आदमी से गधे की तरह काम करवा लो। मैं जंगल में कैंप डालता हूँ। कंधे पर मनों का बोझ उठाकर ये कुली मीलों धूप, बारिश में पैदल चलते हैं, मिट्टी-पत्थर तोड़ते हैं, रात-रात जागकर पहरा देते हैं, बस थोडे-से पैसे और खाने के लिए... सैड, वेरी सैड...
व्हिस्की की चुस्की लेते हुए अब मिस्टर हडसन काफी संजीदा दिख रहे थे।
- कल ही मैं कुछ आदिवासी महिलाओं की तस्वीरें ले रहा था, ऑलमोस्ट न्युड... शरीर पर कपड़े के नाम पर बस चिथडे... बट व्युटीफुल... मैंने एक नामी पत्रिका के लिए उन्हें आज सुबह ही मेल किया है। शीर्षक रखा है 'व्युटी इन रैग्स्...' हाउ डु यु लाइक इट?
- लवली... अपर्णा मुस्कराई थी - हमारी यह गरीबी, भूख, नंगापन तो बहुत ऊँचे दामों में बिकते होंगे आपके अमीर देशों में? एकजॉटीक व्युटी, एक्सट्रीम पोवर्टी... वेरी इनटरेस्टींग, थ्रीलिंग... इन्हें बेचकर आप लोगों ने अच्छा कमाया होगा... गुड बिजनेस, प्रॉफिटेबल, नहीं?
- येस... आई मीन नो... नथिंग ऑफ दैट शॉर्ट... उसकी बात सुनकर मिस्टर हडसन यकायक हडबड़ा-से गए थे
- एनी वे... इट्स बीन ए प्लेजर मीटिंग यु मिस्टर हडसन... अपर्णा वहाँ से उठकर एक और मेहमान के पास जा बैठी थी। उस समय उसके अंदर कुछ सुलग रहा था। अभागा देश, अभागे लोग और उनको घेरकर सबका महोत्सव...
बहुत देर बाद कौशल वहाँ पहुँचा था। तब तक अधिकतर मेहमान खाकर जा चुके थे। अपने बेटे को सुलाकर कमलिका भाभी उनके पास आ बैठी थी। उस समय रेंजर साहब उन्हें पिछले दिनों मारे गए एक आदमखोर की कहानी सुना रहे थे। कौशल को देखकर सभी उठ खड़े हुए थे -
लीजिए, हमारे मुख्य अतिथि महोदय अब पधार रहे हैं... कमलिका भाभी ने उसकी बाँह में चिकोटी काटी थी-
भतीजा तो 'काका काका' करके सो भी गया देवरजी।।
- इस बार माफ करना पड़ेगा भाभी, सच, भारी अन्याय हो गया है हमसे...
कौशल बहुत थका हुआ दिख रहा था। आते ही एक कुर्सी पड़ बैठ गया था -
कुछ ठंडा पिलाइए भाभी, गला सूख रहा है। आज जो गर्मी पड़ रही है...
- हाँ-हाँ... कमलिका, भई, कुछ लाओ...
रेंजर साहब उनके बगल में बैठ गए थे -
वहीं से आ रहे हो क्या?
पूछते हुए उनका स्वर अनायास मद्धिम पड़ गया था।
- हाँ, फूँक आया अभागे को... बड़ी मुश्किल से बॉडी मिल पाई, सकालो की हालत देखी नहीं जाती... कौशल ने अपना सर दोनों हाथों से थाम लिया था। इस समय वह कितना थका और विसन्न दिख रहा था! अपर्णा की इच्छा हुई थी, बढ़कर उसे अपनी गोद में खींच ले। मगर वह असंपृक्त-सी एक कोने में चुपचाप बैठी रह गई थी। एक समय के बाद कौशल की दृष्टि उस पर पड़ी थी -
थैंक्स अपर्णा...
- वह किसलिए... वह एकदम से सकुचा गई थी।
- आप जानती हैं, किसलिए... कल आपने आसरा न दिया होता तो सकालो भी मारी जाती, वे पूरी तरह से तैयार होकर आए थे...
ओह! वह एकदम से सिहर गई थी -
अब क्या होगा उसका?
- होना क्या है। वही होगा जो अब तक होता आया है...
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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