उपन्यास -साथ चलते हुए...

Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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कहते हुए वह अपनी मुट्ठियाँ भींच-भींचकर खोलता रहा था - कल हम विरोध प्रदर्शन के लिए एक बहुत बड़ी रैली निकाल रहे हैं। बंद का आह्वान भी किया है। कोलकाता से पार्टी वर्कर्स आ रहे हैं, कुछ नेता भी। साथ में निरंजनदा... आज सारी रात सोना नहीं हो सकेगा... बहुत काम है!
- मैं साथ चलूँ? उसने झिझकते हुए पूछा था।
- नहीं, आज रात नहीं। कल किसी को भेजता हूँ, धरना पर आ जाइए...
खा चुकने के बाद वह उठ खड़ा हुआ था- चलिए , आपको डाक बँगले पर छोड़ते हुए मैं चला जाऊँगा।
रेंजर साहब और कमलिका भाभी गेट तक उन्हें छोड़ने आए थे।
- कौशल, थोड़ा सँभल के भाई... कहते हुए रेंजर साहब की आवाज में गहरी चिंता थी।
- इसके जीवन में कोई बंधन होता तो यूँ मारा-मारा न फिरता...
गाड़ी में बैठते हुए उसने कमलिका भाभी को कहते हुए सुना था। मगर चुप रह गई थी। वह जानती थी, उनका इशारा किस तरफ था।
खुली जीप में तेज हवा के कारण उसके बाल अस्त-व्यस्त हो गए थे। उन्हें दोनों हाथों से समेटती हुई उसने कौशल को देखा था, गाड़ी चलाते हुए उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे - एकदम निर्विकार, उदासीन... अपने अंदर कहीं गहरा डूबा हुआ था वह, कई दिनों से। न जाने क्यों उसे एक गहरे निसंगताबोध ने अनायास आ घेरा था। बिना किसी आहट के कौशल जैसे अचानक उससे दूर चला जा रहा है। कई बार उसने उसे बहुत महत्वपूर्ण महसूस करवाया है। उसे अच्छा भी लगा है - यह सब - किसी के लिए होना, एक सकारात्मक अर्थ में...
एक अर्से से वह अकेली हो गई है, जी भी रही है, मगर न जाने क्यों, अकेले जीने की आदत अभी तक नहीं हो पाई है। यह एक विवशता ही है, किसी सही विकल्प के अभाव में। कई बार मन में हूक उठती है, मगर क्या किया जा सकता है...
जीप की डेड लाइटस् में रह-रहकर जंगली झाड़ियों के बीच कई जोड़ी आँखें जल उठ रही हैं। जंगली खरगोश, सियार जैसे छोटे-मोटे जीव-जंतु यहाँ-वहाँ भागते, छिपते नजर आ रहे हैं। वन प्रांतर में उतरी हल्की रुपहली रात - मौसम के एक टुकड़े नए चाँद में नहाई हुई, किसी जंगली फूल की तीखी, कटु गंध से गंधवती... झींगुर की आवाज से विदीर्ण होती हुई रह-रहकर...
उसे न जाने क्यों अनायास यह ख्याल आता है कि आजकी यह रात कभी खत्म न हो, यूँ ही चलती रहे दूर तक...
उसके मौन को सुनता हुआ-सा कौशल अनायास बोला था -
यह सब कुछ सच नहीं लगता न?
- क्या...?
उसका आशय समझते हुए भी वह अनजान बन गई थी।
- यही सब कुछ - ये निशिगंधा-सी महकती रात, ये यात्रा और... तुम...
उसकी आवाज में कहते हुए न जाने कैसी गहरी चाह सिमट आई थी कि वह एकदम से सिहर गई थी, अंदर तक! उसने गौर किया था, कौशल सबके सामने तो उसे आप कहकर संबोधित कर रहा था, मगर एकांत होते ही तुम पर उतर आया था।
- मैं... मैं यथार्थ नहीं हूँ!
- तो फिर...
कौशल ने कौतुक से एक पलक देखा था उसे। उसने अक्सर उसकी आँखों में गहरे बादल और एक टूटा हुआ इंद्रधनुष देखा है। वह जानता था, अपर्णा अपने सपनों से सताई हुई वह औरत है जिसने जागकर भी उन्हें टूटने नहीं दिया... अब सजा पा रही है पलछिन... एक दिन इसी तरह जाया हो जाएगी अपनी जिंदगी से पूरी तरह...
यह ख्याल अब उसे निर्लिप्त नहीं रहने देता। अंदर कुछ कसकता है काँटे की तरह। अपनी सोच में वह न जाने कहाँ तक निकला था कि अचानक सड़क के बीचोबीच एक जंगली सूअर के आ जाने से उसे ब्रेक लगाना पड़ गया था। ब्रेक के लगते ही अपर्णा स्वयं को न सँभाल पाकर झटके से आगे की ओर झुकी थी। वह शायद सामने के डैशबोर्ड से टकरा ही जाती, मगर कौशल ने उसे हाथ बढ़ाकर रोक लिया था - माफ करना, मुझे इस तरह से ब्रेक लगाना पड़ा...
गाड़ी के हेड लाइट में कुछ देर चौंधियाए-से खड़े रहकर वह जंगली सूअर सड़क से उतरकर पास की झाड़ियों में गुम हो गया था। कौशल ने फिर एक्सलेटर पर पाँव का दबाव बढ़ाया था - तो तुम यथार्थ नहीं हो?
- हाँ, नहीं हूँ, कुहासा हूँ, हो गई हूँ... आर्द्र, अस्पष्ट, स्पर्श से परे... दिखती हूँ, मगर कहीं हूँ नहीं... एक दिन समय की धूप, उसका निर्मम उत्ताप, ऊष्मा मुझे पिघला देगी, एकदम शून्य में बदल देगी। मेरा यह होना, होने का आभास भी शेष हो जायगा। बस, समय की बात है... वह जैसे किसी गहरे खोह से बोल रही थी। एकदम तंद्रालस, नींद में डूबी हुई-सी।
- तुम्हारा यह न होना-सा होना किसी के होने का सबब भी हो सकता है, कभी सोचा है इस पर? कौशल की बातें पहेली बनती जा रही थी। वह समझकर भी नहीं समझी थी। कुछ चीजों को जस की तस छोड़ देनी चाहिए। उनकी सार्थकता इसी में होती है और शायद सबका हित भी।
चूना भट्टा के पास से गुजरते हुए उसे करोंजे की गंध आई थी, वन्य और आदिम... कितनी पुरातन प्रतीत होती है यह रात... थमकी हुई - विस्मित-सी... एक बेसुध गंध पूरे वन-वनांतर से गीली साड़ी की तरह लिपटी हुई, रची हुई जमीन, पहाड़ों पर अदृश्य अल्पना की तरह... कैसा अद्भुत रूप-रंग है इस वनभूमि का... वह डूबने लगती है। मगर दूसरे ही पल फिर गड़हा के पास तेज दुर्गंध आने लगती है। कोई जानवर मर गया लगता था।
- पोचरों की गतिविधियाँ इन दिनों इलाके में बढ़ती ही जा रही है... कौशल ने रूमाल अपनी नाक पर रखते हुए कहा था।
- कल ही किसी ने दो साँभर मारे हैं। पुरानी हवेली के पास एक बाघ का बच्चा मिला है, एकदम दुधमुँहा। लगता है, उसकी माँ को भी किसी ने मार डाला है... ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन कुछ भी नहीं बचेगा - न इस वन के जीव, न यहाँ के वनमानव...
- आपको इनकी चिंता होती है...
यह कोई सवाल नहीं, वल्कि एक बयान था, मगर कौशल हंसा था - विद्रूप भरी हँसी -
महज चिंता नहीं, सरोकार है... जिसे हम साधारण अर्थ में सभ्यता कहते हैं, उससे बड़ी कोई असभ्यता नहीं हो सकती... किसी की सत्ता, अधिकार, अस्मिता का सम्मान नहीं, बस, अपनी भूख, लालच और हिंसा... यह पूरी दुनिया जैसे कुछ लोगों की जठर अग्नि को शांत करने के लिए ही बनी है! फिर भी संतोष नहीं, कितना बड़ा पेट है इनका...
वह बिना कुछ कहे सुनती रही थी। मिट्टी का दुख उस तक भी पँहुचता है। मगर अन्याय की एक इतनी बड़ी दुनिया! किस-किस से लड़ा जाय...
बँगले के पास पँहुचकर दोनों एकदम से चुप हो गए थे। गेट खोलकर अंदर दाखिल होते हुए उसने मुड़कर देखा था, कौशल मुड़कर जा रहा था। अनायास उसका जी चाहा था, उसे पुकारकर रोक ले - न जाने क्या कहना था उससे, मगर फिर वह चुपचाप अंदर चली गई थी। कुछ चीजें अनकही ही रह जानी चाहिए, कहने का सुख खोने का दुख भी देता है, यह वह बहुत पहले जान चुकी है...
दूसरे दिन उठते ही पुनिया ने उसे खबर दी थी, मानिनी ने आत्महत्या कर ली है, उसी चंपा के पेड़ से लटककर! सुनकर वह देर तक चुपचाप बैठी रह गई थी। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाई थी। कौशल ने सुरजन को भेजा था, एक स्थानीय कार्यकर्ता, उसे जुलूस में ले जाने के लिए, मगर वह जा नहीं पाई थी।
पहले मृत्यु महज एक शब्द था उसके लिए, मगर आज उसके जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ है, ऐसा यथार्थ जिसकी भयावह अनुभूति में जीने के लिए वह हर पल अभिशप्त है। मरता कोई भी हो, कहीं भी, मगर उसके लिए हर बार उसकी काजोल मरती है... और साथ में वह भी।
मृत्यु को बार-बार जीना - इस तरह से... बहुत त्रासद था उसके लिए। दिन भर जंगलों में भटकती रही थी उस दिन। कई चेहरे एकसाथ उसका पीछा करते रहे थे हर जगह। एक पल के लिए भी वह उनसे पीछा छुड़ा नहीं पाई थी। दो भयार्त आँखों की चावनी - कातर और मूक... डरी हुई हिरणी की तरह, उससे क्या कुछ कहती रहती थी। उसके कान झनझनाते रहे थे, मौन के चीत्कार से! मन विदीर्ण हो गया था। कहाँ जाय वह कि छूट जाय इस यंत्रणा से!
आकाश पर कुछ बादल उतरे थे, मगर एकदम ठहरे हुए, जैसे पत्थर के टुकड़े हों - मैले, धूसर... दोपहर की तेज धूप में गुलमोहर के फूल जल रहे थे, पूरे जंगल में जैसे आग लगी हो... वह अनासक्त भाव से सब कुछ देखती रही थी... अंतस में भी कुछ ऐसा ही था - धू-धू करता हुआ - दावानल!... आकाश बरस जाय या वही खुद को निचोड़कर आखिरी बूँद तक रो ले कि यह दाह कुछ शांत हो, अब असहनीय हो रहा है!
सुगना की क्षीण धारा के किनारे वह बैठी रही थी। माथे पर प्राचीन बरगद की छाँह ओढे, मगर धूप से बच नहीं पाई थी, पिघलती रही थी ओर-छोर... बँसवारी में छिपकर तीतर बोलता रहा था रुक-रुककर, सारी दोपहर ही - एकदम अलस और बोझिल... ऊपर उल्टी-पल्टी चलती हवा में पीपल की किरमिची हथेलियाँ आईना चमकाती रही थी। पानी में दोपहर का गर्म आकाश रह-रहकर कौंध रहा था चाँदी की पन्नी की तरह!
शाम के गिरते-गिरते कौशल वहाँ पहुँच गया था, साथ में पुनिया भी थी। दोनों उसे ढूँढ़ते हुए वहाँ पहुँचे थे। कौशल शायद सारा दिन ही धूप में घूमता रहा था। उसका रंग जलकर एकदम गहरा ताँबई हो रहा था। आते ही नाराज हो उठा था -
अब यह क्या है अपर्णा, कितनी बार कहा, इस तरह से इधर अकेली मत निकला करो...
वह बिना कुछ कहे सर झुकाए उनके पीछे-पीछे चलती रही थी। कहती भी तो क्या!
- मानिनी को भी श्मशान पहुँचा आया...
चलते हुए कौशल ने कहा था। वह फिर भी चुप रह गई थी। उसी चिता में अब तक वह भी जल रही थी, कह नहीं पाई थी।
- आज विरोध प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज हुआ, गिरफ्तारियाँ हुईं... निरंजन दा को भी अंदर कर दिया गया... वह तो मैं तब तक मानिनी के क्रिया-कर्म के लिए निकल चुका था, वर्ना... असल में जिस खनन कंपनी का विरोध चल रहा है, उसके डाइक्टरों में हमारे केंद्रीय मंत्रीजी भी हैं। उन्हीं के साले साहब के राजपाट में अशांति फैलाई थी अभागे गोपाल ने... मरना तो उसे था ही...
थोड़ा रुककर कौशल ने अपनी आवाज नीची करके कहा था, मगर एक गड़बड़ हो गई, मिस्टर हडसन का अपहरण कर लिया गया है। यह एक बहुत बड़ा षड्यंत्र है, इस मूवमेंट को बदनाम करने के लिए... हो न हो, यह किसी बाहरी आदमी की हरकत है... सब कुछ बहुत मुश्किल, बहुत पेचीदा होता जा रहा है। अब गरीबों पर आफत टूट पड़ेगी... इस अपहरण से बाहरी दुनिया को एक बहुत गलत संदेश पहुँचेगा। हमारा आंदोलन लोगों की सहानुभूति खो देगा जो ठीक बात नहीं। यही तो कुछ लोग चाहते हैं... अपर्णा चलते हुए चुपचाप उसकी बातें सुनती रही थी।
बँगले के गेट के पास पहुँचकर वह अचानक रुक गई थी - मैं आपका धन्यवाद करना चाहती थी कौशल...
- किसलिए?
कौशल भी रुक गया था।
- मुझे इस दुनिया से जोड़ने के लिए... बहुत अकेली थी मैं... अब जैसी भी हूँ, कम से कम अकेली नहीं हूँ...
कौशल थोड़ी देर तक उसकी तरफ देखता रहा था, न जाने कैसी नजर से, फिर बिना कुछ कहे अपनी जीप की ओर बढ़ गया था -
मैं फिर आऊँगा, अभी जाना होगा, थोड़ा काम है...
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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रात के आठ बजे के करीब जब कौशल डाक बँगले पर पहुँचा था, अपर्णा बरामदे में बैठी पी रही थी। आज उसके तेवर कुछ बदले हुए से लग रहे थे। उसे देखकर मुस्कराई थी, एक मदालस-सी मुस्कराहट - आओ... आइए कौशल, लेट्स सेलिब्रेट...
- 'तुम' ही कहो, अच्छा लगता है,
कौशल कुर्सी पर बैठ गया था -
और हाँ, क्या सेलिब्रेट करना है!'
- जब कोई खुशी न बची हो सेलिब्रेट करने के लिए तब दुख ही सेलिब्रेट करना सीख लेना चाहिए...
- बिल्कुल ठीक!
वह मुस्कराया था -
आज क्या पी रही हो! अरे, टकीला... लगता है, उस दिन पूरी बोतल खत्म नहीं हुई थी।
अपर्णा मुँह बनाकर नींबू का टुकरा चाटती रही थी। कुछ कहा नहीं था। कौशल ने छोटा-सा पैग ऊपर तक भरकर एक ही घूँट में गले से नीचे उतार दिया था। तेजाब की एक सुनहरी नदी उसकी शिराओं में चिनगारी फूँकती चली गई थी। और यकायक उसके सामने बैठी अपर्णा का चेहरा केसर हो उठा था। उसका बिगड़ा हुआ चेहरा देखकर अपर्णा अनायास खुलकर हँस पड़ी थी। हवा में बजते जल तरंग की नाजुक ठुनक महसूसते हुए वह चुपचाप बैठा रह गया था। कुछ बोलकर वह इस क्षण के तिलस्म को तोड़ना नहीं चाहता था। अपर्णा उसके लिए सचमुच स्वप्न-सा कुछ पारदर्शी रच रही थी। वह मंत्रमुग्ध था बिल्कुल।
- जानते हो कौशल, आज काजोल को गए एक साल हो गया...
कहते हुए वह अचानक रुक गई थी, जैसे शब्दों का बोझ उठा नहीं पा रही हो। उसके चेहरे की गहरी होती रेखाओं को देखकर प्रतीत हो रहा था कि वह अपने ही अंदर की किसी यंत्रणा भरी यात्रा में बहुत दूर निकल गई है। अप्रैल की हवा में सितारे घुले थे, क्षितिज की साँवली उजास में हल्का-सा मोतिया आब था, चाँद से अबरक झरकर रात गोरी हो आई थी...
कई क्षणों के लिए ठिठककर वह अपने लरजते हुए शब्दों के साथ इस तरह आगे बढ़ी थी जैसे कंधे पर मय्यत उठाए हुए हो -
- पहले-पहल लगा था, मैं जी नहीं पाऊँगी, मगर देखो, जी गई... कभी-कभी अपनी बेशर्मी पर शर्मिंदा हो उठती हूँ...
- हम सब को अपने हिस्से की जिंदगी जीना है अपर्णा...
- और अपना-अपना सलीब भी उठाना है...
- हाँ...
- कभी-कभी सिर्फ एक मौत नहीं होती, आस्था की एक पूरी दुनिया मर जाती है...
अपर्णा अपने गिलास के पारदर्शी द्रव्य को घूरती रही थी-
इनसान रोज मरता है, मगर जब साथ में किसी का भगवान भी मर जाय... ऐसी मौत की कल्पना कर सकते हो...
देर तक लगातार बोलते हुए अब वह शायद सचमुच थक गई थी, और उसकी यह थकान मानसिक ज्यादा प्रतीत हो रही थी। कौशल बैठा हुआ उसकी गहरी साँसों की आवाज सुनता रहा था। बहुत पहले उसने एक हलाल हुए जानवर को देर तक छटपटाने के बाद अंत में मरते हुए देखा था, तब वह कुछ इसी तरह साँसें ले रहा था। उस स्मृति की मटमैली छायाएँ उसे आज भी समय-असमय बोझिल कर जाती हैं। अपनी डूब से उबरने के लिए शांत जल में कंकर मारने की तरह हल्के-से पूछा था उसने -
हो गई खत्म तुम्हारी बातचीत? एकदम से चुप हो गईं...
अपर्णा ने अपनी तंद्रालस आँखें खोली थी और उसके पार देखती हुई जैसे नींद में बोली थी -
'कभी-कभी चुप रहकर ही सही अर्थों में बोला जा सकता है, विशेषकर तब जब मन की गहनतम भावनाएँ भाषा से परे हटकर स्वयं को निःशब्द व्यक्त करना चाहती हैं। ऐसे में भाषा की विडंबनाओं और सीमाबद्ध सत्य से परे होकर शब्द एकदम अर्थहीन हो जाते हैं। और फिर, हम दोनों का यूँ लगातार बोलना किसी सत्य को छूने से बचने की एक बचकानी कोशिश जैसी लगता है जो शायद हमारे चुप होते ही मुखर हो उठे...'
अपनी बात समाप्त करते हुए उसने उसे फिर अपनी उनींदी आँखों से देखा था। वह उसे उसके आरपार देख रही है, ये उसकी तरल हो आई चावनी से स्पष्ट था। कौशल यकायक अपनी शिराओं में पिघलते हुए शीशे का बहाव महसूस करने लगा था। उसकी निःशब्द इंगित उसके कपड़ों के अंदर पहुँचकर देह को छूने लगी थी शायद... अपने अंदर की आश्वस्ति को उसने सहेजा था, इतना धीरे कि कोई आहट न हो। इतनी जल्दी वह उसकी पकड़ में आना नहीं चाहता था। एक अर्सा हो गया था उसे खुद को छिपाते हुए। अब इस लुका-छिपी में मजा आने लगा था।
यह निशिगंधा-सी महकती रात और सागौन के दैत्याकार घने पेड़ों के पीछे से झाँकता शुक्ल पक्ष का आधा चाँद... उसने पलाश की सुलगती हुई डालों पर रात के किसी पक्षी की झटपटाहट टोहने का भान करते हुए अपनी दृष्टि फेर ली थी।
उसकी झिझक पर मुस्कराते हुए अपर्णा ने उसकी बाईं बाँह पर अपना हाथ हल्के से रख दिया था-
'क्या हुआ, झेंप गए?
- नहीं तो... कौशल का चेहरा अपने शब्दों के विरुद्ध रँग गया था।
- अच्छा, कौशल, तुम मेरा मौन गा सकते हो तो क्या मैं तुम्हारे गीतों की खामोशी नहीं सुन सकती! ऐसा तो अब तक हमारे बीच कुछ बँध ही चुका है जिसे रिश्तों का इल्जाम दिए बगैर जीया जा सकता है, ढोने की विडंबना से परे होकर...'
उसके इंगित बहुत विलक्षण हो उठे थे, कौशल ने अनुभव किया था, उसके अंदर माधवी की मीठी-कड़वी गंध के साथ किसी ग्लैशियर के निःशब्द दरकने का धीरे-धीरे फैलता हुआ कंपन तरंग था... बर्फ का एक पूरा प्रदेश आज अपना युगों का पथराया हुआ मौन तोड़ देना चाहता है... इस शोर की कल्पना नहीं की जा सकती। वह स्वयं को प्रस्तुत करने लगा था, न जाने किस आकस्मिकता के लिए। एक लंबे मौन के बाद उसने यकायक प्रसंग बदला था
'कहो, क्या लिखती रही इन दिनों? मैं तो बहुत व्यस्त रहा...
'जिंदगी, और क्या!'
- कितनी अजीब बात है, जिंदगी कागजों में छपती है... इतने सारे स्वप्न, उच्छ्वास, दर्द और संवेदनाओं की एक पूरी दुनिया और इनका कुछ पन्नों का अनुवाद... बस! क्या कभी तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि अगर एक कहानी की सफलता के लिए एक पूरे जीवन का विफल हो जाना जरूरी हो जाता है तो फिर इस कहानी का जन्म न लेना ही उचित है? किस-किस के मृत सपनों पर ये कागजी राजप्रसाद खड़े होते हैं... जीवन की विडंबनाओं को नकद करके लोग अपनी आजीविका चलाते हैं, कागज की जमीन पर लफ्जों का व्यापार... चिता पर हाथ सेंकते हुए लोग... नपुंसक बुद्धिजीवी...
कौशल के चेहरे पर आग रिस आई थी, कितना अजीब लग रहा था वह, एक तरह से निष्ठुर... शब्दों को चबाते हुए। अपर्णा डर गई थी। आहत भी हुई थी।
- कौशल...
- ओह! आई एम सॉरी अपर्णा... कौशल सचमुच झेंप गया था, अपने अभद्र शब्दों के इस्तेमाल पर -
डोंट टेक इट परशनली... मैं एक वर्ग विशेष की बात कर रहा था।
अपर्णा चुप रह गई थी। कुछ कह नहीं पाई थी। उसकी बातों की सच्चाई में हर रचनाकार के जीवन की विडंबना छिपी है, उसे बताना नहीं चाहती थी। शायद यह उसके कन्फेशन का समय नहीं था। उसने एक तटस्थ-सा बयान देने का प्रयत्न किया था -
हाँ, जीवन को शब्द देना...
'मगर तुम लेखकों को शब्दों, संवेदनाओं की क्या कमी, इमोशन के गोदाम होते हो - जब चाहे लज्जतदार शब्दों के ढेर लगा दो - रेडीमेड, ताजे - ओवन फ्रेश! रुपये के दस... अच्छा, चलो, बारह ले लो...
कहते हुए कौतुक में उसकी पुतलियाँ झिलमिलाने लगी थीं। शायद माहौल को हल्का करने की ही गरज से वह उसकी बात बीच में काटकर इस तरह से हँसने लगा था।
- ऐसा नहीं, हमारे अंदर नदी होती है तो पत्थर भी होते हैं। मन टकसाल होता तो संवेदनाओं की किल्लत पड़ते ही छाप लेते - हरे-हरे करारे नोट की तरह करारी संवेदनाएँ...'
कहते हुए इस बार अपर्णा भी खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। कौशल को प्रतीत हुआ था, एकदम से रात रानी फूल गई है, तंद्रालस, गर्म हवा उसी की तुर्श गंध से बोझिल है। यह मौसम जादू का है, शरीर टोनों का है, पल-पल घट रहा है - कुछ इस तरह - मौन में कविता रचते हुए निरंतर, खनकती मुस्कराहटों से...
कौशल अचानक उठ खड़ा हुआ था -
- अब चलूँगा, बहुत रात हो गई...
- अरे भई! तुम वन के इस निविड़ दुनिया में भी अपना समय ले आए! चलो, इस यंत्र को उतार फेंको और आज की रात को यहीं ठहर जाने दो हमेशा के लिए, इस आधे चाँद और नीली हवा में गूँथी आदिम चाहना की गंध के साथ... लिबास और मुखौटों की दुनिया से दूर, त्वचा पर अपना मन ओढ़े, ईप्सा के अतर में सराबोर, किरणों की गीली पगडंडियों पर महुआ मदालस हवा की तरह - उश्रृंखल, अबाध्य...'
कौशल समझा था, टकीला के नन्हें पैग अब उसके अंदर बड़े होने लगे थे, वह बहक रही थी -
मैं तो काजू टूँगकर गले तक भर गई हूँ। भूख बिल्कुल भी नहीं है, व्हाट एबाउट यु?
- मैं भी तो काजू खा रहा था, बिल्कुल भूख नहीं है...
- तब ठीक है, फिर क्यों न हम थोड़ा चलें... ये शाल, सागौन, महुआ, करम की आदिम, अभेद्य दुनिया हमें बुला रही है। यह दूर से आती संथालों के माँदल की धप्-धप् और हवा में महुआ की माताल गंध...'
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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वह अपनी बाँहें फैलाकर किसी राज हंसिनी की तरह अपनी मराल गीवा तानकर खड़ी हो गईे थी। उसे प्रतीत हुआ था, चाँदनी रात में ताजमहल देख रहा है - वही जमुना की नीली गवाही में ख्वाब और मुहब्बत से रची गई संगमरमर की उजली कहानी - हमेशा की तरह खूबसूरत और बेतरह उदास भी... वह एक गहरी साँस लेता है, अपने ही अनजाने। अपर्णा चलते-चलते रुक जाती है -
'नहीं चलोगे?'
'क्यों नहीं, तुम साथ दो तो चले हम आसमाँ तक...'
वह किसी पुराने गीत के बोल गुनगुना गया था। चलते हुए अंदर कोई अजनबी आवाज में कह रहा था, तुम्हारे साथ मैं जीवन के पार तक चलने के लिए तैयार हूँ... फिर ये आकाश और धरती क्या! अपने इस ख्याल पर उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था। अब तक कहाँ छिपी थी यह संवेदनाएँ, उसे पता तक नहीं चला... इनसान बहुत बार स्वयं को भी ठग लेता है, जैसे आज वह...
'तुम शायद सोच रहे हो इस वक्त हम कहाँ जा सकते हैं!'
वह कभी उसे आप कहकर संबोधित कर रही थी तो कभी तुम कहकर।
'तुम जैसी कोई शख्सियत साथ हो तो चलना अहम हो जाता है, मकसद या मंजिल नहीं!'
'अब आप कविता करने लगे...'
वह हल्के से हँसी थी और उसके चेहरे पर चाँद उतर आया था। वह उसे रात की ओट में देखता रहा था। आसपास फूलते किसी जंगली फूल की तेज, मदिर गंध उसे अनमन कर गई थी। मन का कोई अजाना कोना मीठे दर्द से नहा आया था। यह रात उसे ठग लेगी, बहुत बेईमान है... मगर वह सावधान नहीं होना चाहता, कैसी विंडबना है! वर्जनाएँ जब टूट गई हैं तब सीमाओं का अतिक्रमण भी होगा ही...
ग्रीष्म ऋतु में कोयल नदी की धार भी कृशकाय हो आई है। उसकी चाँदी की जंजीर-सी पतली धारा रात के फिके अंधकार में प्रायः निःशब्द बह रही है। आसपास फैली रेत की शुभ्र राशि में अबरक के अजस्र कण चाँद के आलोक में जुगनू की तरह झिलमिला रहे हैं। यहाँ पहुँचकर एक बड़े पत्थर का टेक लगाकर वह पैरों से पानी छपछपाने लगी थी। ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर बचपन का दूध छलक आया था। कौशल इस क्षण की मासूमियत को मन के अदृश्य कैमरे में कैद कर लेना चाहता था। ऐसी तस्वीरों पर कभी समय की धूल नहीं बैठती।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर एक गंभीर-सा प्रश्न कर बैठी थी -
'क्यों कौशल, अपने विवाहित जीवन से कभी खुश थे?'
'हाँ, था, मगर खुशी की फितरत में ठहराव नहीं होता, भागती रहती है, लुका-छिपी का वही पुरातन खेल... अब सोचता हूँ, हमारे दुख के पीछे हमारी गलत उम्मीदें होती हैं, और कुछ नहीं... काश हम दूसरों से इतनी उम्मीदें न किया करें! जब तक यह बातें समझ पाया, बहुत देर हो चुकी थी, जिंदगी अपनी खुशियाँ समेटकर बहुत दूर निकल चुकी थी... जब हम अपने रिश्तों से ज्यादा उम्मीद नहीं करते, बहुत कुछ सहनीय हो जाता है। वर्ना उम्मीद और अपेक्षा में जीना बहुत कठिन होता है, यू सी...
वह घुटनों तक पानी में डूबी दोनों हाथों से पानी उलीचती रही थी, जैसे कुछ सुन ही न रही हो -
कभी प्यार किया है कायदे से...?
'हम क्या करें या करते प्यार-व्यार, प्यार तो अपनी मर्जी का मालिक होता है, वह आपको चुनता है, आप प्यार को नहीं! और जब ये आपके जीवन में घटित होता है, आप बस इसके साथ हो लेते हैं। इसके सिवा आपके पास कोई दूसरा विकल्प होता ही नहीं। प्यार हमारे चाहने न चाहने पर निर्भर नहीं करता अपर्णा, न यह कोई निर्णय ही होता है... अंदर एक इशारा होता है और बस, हम चल पड़ते हैं - इस पर खत्म होकर पूरे होने के लिए या फिर ठीक इसका उल्टा भी। प्रेम की यात्रा में सिर्फ यात्रा होती है, कोई मंजिल नहीं, क्योंकि मंजिल का अर्थ होता है ठहराव और ठहराव प्यार में आ जाए... यह हो नहीं सकता! कहते हैं न - 'न ये रुकती है, न ठहरी है, न ठहरेगी कभी, नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है...'
'हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू...'
अपर्णा ने न जाने कैसी स्वप्न भरी आवाज में उसकी पंक्तियाँ पूरी की थी।
'तुम ठीक कहते हो।'
कहते हुए उसका मोतिया आँचल हवा के हल्के झोंके से यकायक ढलक गया था और इसके साथ ही आकाश का आधा चाँद उसके सीने के दो पूरे चाँदों पर चमक उठा था। पीछे के बूढ़े बरगद पर कई रात के पक्षी एक साथ बोल उठे थे। कौशल भूला-सा उसे देखता रहा था। अंदर एक श्रृंखलाबद्ध आदिम पशु अपने बंधनों से जूझ रहा था। वह उसकी छटपटाहट से अस्थिर हो रहा था। मगर वह इस सबसे अनजान कहे जा रही थी -
'प्रेम हममें घटित होता है, हम प्रेम में होते हैं, ठीक जैसे जीवन हमारे अंदर होता है - किसी दैवीय इच्छा से, हमारे चाहने या न चाहने से नहीं। इस प्रेम का वितरण भी हमारे अधिकार में नहीं होता। कोई होता है अदृश्य जिसके संकेत से हम इसे सौंप देते हैं उसे, जिसका यह प्राप्य होता है। हमारा प्रेम किसी की सनातन थाती होता है। हमें तो बस इस अमानत को सँभालना होता है।'
'मगर अपना सब कुछ देकर भी प्रेम को जीवन में रोक कहाँ पाया...'
कौशल की आवाज में न जाने क्या था कि उठकर वह एकदम से उसके कंधे से लग गई थी -
'प्रेम को बांधना चाहोगे तो एक दिन यह जरूर खो जायगा। बंधन में कभी प्यार बँधा है! यह तो हवा की उंगलियों में उलझी खुशबू का झोंका है, मुक्त होकर दूर तक फैलती है, मगर मुट्ठी में बंद होकर मर जाती है
'नहीं, ऐसा नहीं कि मेरी जिंदगी में कुछ भी नहीं है। हैं कुछ लोग...' अपने एक क्षण की दुर्बलता के लिए अब वह शर्मिंदा हो रहा था।
'हाशिए में ठिठके हुए रिश्ते भी हमारे जीवन के हिस्से होते हैं, चाहे वह हिस्सा कितना ही छोटा क्यों न हो। मगर हाँ...'
अब वह उसकी बाँहों पर कुछ अदृश्य शब्द लिख रही थी, और उसके अंदर एक पागल नदी अपना तटबंध तोड़ देने के लिए मचली जा रही थी -
'कृष्ण की तरह सबमें बँटकर भी सबके हिस्से में पूरा-पूरा आ सको तो देने का सुख जान सको। सब में बँटकर खत्म हो जाना उदारता नहीं, अपने अंदर का कंगालपना है!
उसने महसूस किया था, एक आदमकद आईने के समान वह कभी-कभी जानलेवा सच बोलती है। उसके सामने किसी झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। न जाने चोट पहुँचाने की किस आदिम हिंस्र इच्छा के वशीभूत होकर उसने पूछ लिया था -
'और तुम, सिर्फ बेवफाई ही झेलती रही या कभी प्रेम-वेम भी किया...?'
कहते ही उसे लगा था, चाँद सफेद शव की तरह उसकी पुतलिओं पर उतर आया है। उसी समय आसमान पर रात के ढेर सारे पक्षी अपने पंख झटपटाते हुए सर के ऊपर से उड़ते हुए गए थे। उसके अंदर कहीं गहरे एक कच्ची दीवार जैसा कुछ अनायास बैठ गया था। अपर्णा एक ही क्षण में आत्मीयता का हाथ छुड़ाकर मीलों दूर चली गई थी। फिर न जाने कितनी सदियों बाद उसने अजनबी-सी आवाज में कहा था -
'हाँ, प्रेम मेरे जीवन में भी आया था। जब मैं प्रेम में थी, जाहिर है, बहुत अच्छी थी। प्रेम आप को मुकम्मल ही नहीं, बहुत अच्छा भी बना देता है। मगर एक भूल हो गई, लालच कर बैठी। प्रेम को पूरी तरह से पाना चाहती थी। अपने लॉकर में डालकर सुरक्षित महसूस करना चाहती थी। कुछ चीजें सिर्फ बाँटने से, शेयर करने से ही बढ़ती है, ये बात भूल गई थी। इसका प्रायश्चित भी किया - इसे अपना सर्वस्व दे दिया। तुम हैरान होकर मेरी बात सुन रहे हो, मगर प्रेम में सब कुछ इसी तरह लक्षणा में होता है - खोकर पाना, देकर लेना... तुम यह सब नहीं समझोगे। शब्दकोश के अर्थ से जो प्रेम को समझते आए हो अब तक। अच्छा, जो परिभाषित हो जाय वह प्रेम कैसा! यह तो गूँगे के मुँह में धीरे-धीरे पिघलती हुई गुड़ की डली है...'
कुछ देर चुप रहकर जैसे उसने स्वयं को ही सुनाकर कहा था -
'मैंने रुक्मिणी होकर सहेजा है, राधा होकर अराधा है और मीरा होकर त्यागा है... मगर, हर रूप में बस पाया ही पाया है। अपने ईष्ट को पूरी तरह समर्पित हुए बिना उसे पूर्णता में पाया नहीं जा सकता, यह हर औरत का सच है, फिर वह माँ हो, बहन हो या फिर प्रेयसी।'
न जाने किस अधिकार भावना से भरकर उसने उसे अपनी बाईं बाँह में बाँधकर डाक बँगले की ओर लौटना शुरू कर दिया था। वह भी बिना किसी प्रतिवाद के उसके संग चुपचाप चल पड़ी थी। इस सामीप्य से उसकी देह की हल्की आँच उसकी शिराओं में बह आई थी। नासापुटों में स्त्री देह की गंध थी, कहीं भँवरा फूलते हुए जंगली फूलों पर गुनगुना रहा था। रात की पलकें भारी हो आई थीं। कौशल ने उसे अपने और निकट खींचते हुए गहरी आवाज में पूछा था -
जीवन के सबसे खूबसूरत दिनों का एक हादसा बन जाना आपके अंदर सब कुछ ऊसर कर गया होगा, देह का स्वाद, चाहना - क्या आपके लिए यह सब एकदम वर्जित हो गया है?
उसके इस प्रश्न के पीछे कई प्रश्न छिपे हुए हैं, शायद यह वह भी समझ रही थी, तभी उससे यकायक परे हो गई थी -
'ऐसा कतई नहीं है। सेक्स मेरे लिए देह से की गई प्रार्थना है। ऐसी प्रार्थना जो दो शरीर दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद, लय और ताल में एक ही उद्देश्य में करते हैं - उस बंधन में जो योग और अर्द्धनारीश्वर है और उस मुक्ति के लिए जो बुद्ध का निर्वाण या आशुतोष का मोक्ष है। प्रेम में घटित हुआ संभोग बंधन में अपनी मुक्ति तलाश लेता है और हर मुक्ति को अपना आलिंगन बना लेता है।'
अपनी बात समाप्त कर वह थोड़ी देर चुपचाप चलती रही थी। रुपहली चाँदनी में उसके अंग के रचाव और कटाव रह-रहकर तलवार की तरह चमक उठते थे, और वह उस क्षण के सम्मोहन में बँधा चलते-चलते ठिठककर खड़ा हो जाता था। रोशनी और छाया के मायावी आलोक में उसका कमनीय चेहरा उस समय कितना विलक्षण हो उठा था, कैसा दुर्दांत भी... और फिर उसके चेहरे के भाव देखते हुए अपर्णा के चेहरे की कठिन रेखाएँ अनायास नर्म हो आई थीं
सेक्स एक बहुत खूबसूरत अनुभव है। मगर हमें हमारी देह को जीना चाहिए, न कि उसमें मरना-खपना... आत्मा देह में रह सकती है, मगर आत्मा पर देह नहीं लद सकती, वर्ना इसकी यात्रा भी श्मशान की चिता तक पहुँचकर समाप्त हो जाएगी।
बँगले पर पँहुचकर अंदर घूसने से पहले उसने मुड़कर न जाने उसे किस नजर से देखा था - एक अनचीन्ही भाषा जो इससे पहले उसने कभी नहीं बोली थी - अपने पूरे वजूद में थी वह उस रात, एक मुकम्मल औरत... आधी-अधूरी या सिर्फ माँ नहीं। ममता के मातम में उसने अपने अंदर की औरत को मर जाने दिया था। मगर जीते जी मर जाना... मरने से पहले शायद ही कोई मर पाता है! वह जिंदा थी, उसकी आँखों में चमकता हुआ-सा कुछ निःशब्द कह रहा था - एक छोटी-सी चाहना... कि जी लूँ, कुछ साँसें, अपनी ही...
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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कौशल उसे निष्पलक देखता रहा था - आज क्या हुआ है इसे... बाँध टूटी नदी की तरह हो रही है, बह रही है निरंतर - अबाध्य, उश्रृंखल, एकदम अराजक... बढ़कर उसने उसका एक हाथ पकड़ लिया था -
सच कहो अपर्णा, क्या हुआ है तुम्हें? इतनी बातें, मुस्कराहट, उछाह... कौन-सा दुख तुम्हें आज इतना सता रहा है?
स्नेह का एक छोटा कतरा मरु को समंदर बना गया था - अपर्णा रोने को हो आई थी, साथ में शर्मिंदा भी - उसे कुछ भी छिपाना नहीं आता, आँखें चुगली कर जाती हैं हर बार...
- ऐसी कोई बात नहीं...
अपने शब्दों पर उसे भी यकीन नहीं आया था, मगर इस झूठ को निभाना जरूरी हो गया था - हर तरफ से कैसे पराजय स्वीकार ले...
- इससे अच्छा तो रो लेती...
कौशल ने उसकी चिकनी पलकें सहलाई थी, मौसम के नए पत्तों की तरह, उतना ही मुलायम, कोमल, हल्के-हल्के काँपती हुई...।
- हर बार रोना, वही रोना... ऊब गई हूँ... इसलिए...
उसकी आवाज गीली थी, रिसती हुई-सी। अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ी होकर अब वह उसे देख रही थी, ऐसे जैसे उसमें अपने पूरे वजूद के साथ उतर रही हो। इसी क्षण कौशल के जेहन में कुछ अद्भुत, कुछ विलक्षण-सा घटा था, जिसे एक जाना-पहचाना नाम देकर वह उसे सरलीकृत नहीं करना चाहता था। वह अपने अनुभव पर स्वयं चकित था। पीड़ा और हर्ष का ऐसा दुर्दांत स्वाद उसने आज से पहले इस तरह से कभी एक साथ नहीं चखा था। वह जो अब तक उसके आसपास थी, अब उसके अंदर थी, कुछ इस तरह से कि उसके लिए भी जैसे उसके ही अंदर अब कोई जगह नहीं बची थी। आश्रय पाकर निराश्रित हो जाने का ये कैसा अद्भुत अनुभव था...
अपर्णा ने यकायक आगे बढ़कर उसे अपने पास खींच लिया था, इतना कि वह नजर भर की दूरी तलाशने लगे। कैसी विडंबना है कि प्यार और आतंक की अनुभूति एक-सी होती है - वही नसों में लहू की नीली सनसनाहट, कनपटियों पर धड़कता दिल और निगाहों के सामने धुंध और धुआँ... अपर्णा ने उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए थे - भीगे और ऊष्ण! उनके मखमली दबाव को महसूस करते हुए कौशल अपनी नसों में बहती शहद की मीठी धार में अनायास डूबने लगा था। वह उसे हल्के-हल्के चूमती रही थी, रगो-रेश में स्फुलिंग जगाते हुए - चाहना के जलते-बुझते जुगनू, इच्छा के दीबे - आग के सुनहरे फूलों की पाँत, फागुन की इस रात - देह के आदिम वन में... यह क्षण सर्जना का था, एकमेव, एकसार हो जाने का था। देह का आदिम उत्साह अपना चरम चाहता था, सारी वर्जनाओं से परे होकर, सत्य की तरह निरावरण, निर्भय होकर...
उसकी देह से उठती पसीने और परफ्युम की मिली-जुली मादक स्त्री गंध का मौन निमंत्रण उसके अंदर कहीं आँच देने लगा था। वह अपनी रगो-रेश में उत्तेजना महसूस कर रहा था - स्वयं को पूरी तरह देकर उसे उसकी संपूर्णता में पाने की एक पागल इच्छा... अपने ही अनजाने उसके हाथ उसकी खुली हुई कमर के इर्द-गिर्द लिपट गए थे। उसके उरोजों का हरारत भरा नर्म दबाव उसके सीने पर था। उसे प्रतीत हो रहा था, दो सहमे हुए कपोत थरथराते हुए उसकी गर्म हथेलियों में अपना आश्रय ढूँढ़ रहे हैं। वह उन्हें इच्छा और प्यार से भरकर दबोच लेना चाहता था, सहलाना चाहता था दुलार से देर तक...
लेकिन इससे पहले कि उसके हाथ कुछ ज्यादा उद्दंड होते, वह अचानक उससे अलग हो गई थी -
नहीं! हम यही ठहर जाएँगे कौशल! अगर इतना-सा करीब नहीं आते तो जिंदगी भर एक ख्वाहिश हमारा पीछा करती रहती, और अगर इससे आगे बढ़ गए तो कुछ बहुत खूबसूरत हमेशा के लिए खो देंगे...'
वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में उसे चुपचाप देखता रह गया था। वह पुरुष था, देह उसके लिए पूरा सच नहीं, मगर बहुत बड़ा सच जरूर था। देह के बिना न वह, न कोई संबंध मुकम्मल था; मगर अपर्णा सच होकर भी परछाईं बनकर खो जाना चाहती थी। उसने फिर आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया था -
'आज तुमसे बहुत कुछ पाया है कौशल! इसे आगे की यात्रा के लिए सहेजकर रखना चाहती हूँ - जिस्म के जंगल में खोना नहीं! तुम नहीं समझोगे, हम औरतों के लिए यह जिस्म ही अधिकतर पिंजरा बन जाता है... चाहती हूँ, इस देह से आगे भी कोई आए- वहाँ जहाँ पशुता की सीमा समाप्त करके इनसान इनसान बनता है, रूह, सोच और अहसास बनता है! अपनी रूहों के बीच से यह तन की माटी हटाना चाहती हूँ, यह हमें एक-दूसरे तक पहुँचने नहीं देती...! बहुत अकेलापन है इस हाँड़-मांस के राजप्रासाद में, ठीक जैसे राम का वनवास...''
कौशल के लिए उसके सारे शब्द पहेली थे। वह अभी भी अपने शरीर की आँच और उत्तेजना से उभर नहीं पाया था। उसका हवा, रेशम और गंध से गुँथा यह तिलस्मी शरीर उसे अपनी आदिम कैफियत में डाला हुआ था। अपर्णा ने हल्के-से उसके होंठों को अपनी उंगली से सहलाया था -
'आज की ये खूबसूरत रात हमेशा के लिेए रहने दो हमारे बीच... ताकि कभी उजाले में मिले तो नजर न चुराकर एक-दूसरे को पहचान सके।'
'मगर...'
उसके अंदर इच्छाओं का एक अनाम बवंडर उठकर उसकी आवाज को रौंद डाला था। 'अब कुछ मत कहना कौशल! जरूरी नहीं कि स्त्री-पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में दो हथेलियों की तरह जुडे, वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी एक सनातन साथ में हो सकते हैं! आओ, हम हमेशा एक दुआ की तरह साथ रहे, प्रार्थना में जुड़कर अपना अस्तित्व समाप्त न कर लें... तुमसे बहुत कुछ चाहती हूँ... पता नहीं क्या, मगर तय है कि कुछ इस देह से परे, इससे भी ज्यादा, कभी समझ पाई और समय या हौसला हुआ तो माँग लूँगी... मगर आज यह नहीं... इसके लिए तैयार नहीं... सच!'
बात खत्म करके उसने अपने कमरे में घुसकर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था और वह उसकी कही हुई बातों का तात्पर्य समझने का प्रयत्न करता हुआ वहाँ न जाने कब तक खड़ा रह गया था।
पूरब में रात की साँवली कोर हल्के से रसमसाई थी, क्षितिज पर उजाले की नर्म दस्तक-सी थी। पास ही कही हरसिंगार के फूल निःशब्द झर रहे थे। हवा सुंगध से बोझिल हुई जा रही थी। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी शायद, मगर ये रात अपनी गहरी तृष्णा और अमित तृप्ति के साथ अब उसके जीवन से कभी नहीं बीत पाएगी, ठहरी रह जाएगी अपनी अनोखी रस, गंध और स्वाद के साथ चिर दिन के लिए... अपने अंदर कहीं गहरे बहुत शिद्दत से वह यह महसूस कर रहा था।
कमरे में बंद हो कर अपर्णा अपने बिस्तर पर ढह गई थी, किसी बीमार दरख्त की तरह। एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़कर आई थी वह, अपने ही साथ। इसलिए यह इतना आसान नहीं था। एक ही साथ दीवार बनना और हथियार भी... हर हाल में लहूलुहान उसे ही होना था - जीत में भी और हार में भी! वह नहीं जानती, वह जीत सकी या नहीं, मगर अंदर हार का दर्द है... रगो-रेश में ऐंठता, कसकता हुआ। पाना कुछ नहीं चाहा था, मगर अब अंदर खोने की-सी मनःस्थिति में हो आई है - एकदम शून्य और उदास...
वह चाहती है, अपने अंदर के मातम को कसकर पकड़े रहना। छूटना नहीं चाहती अपनी तकलीफ से। इसी तकलीफ में उसकी काजोल जिंदा है, उसकी स्मृतियाँ... उसे डर लगता है, इन्हें खोकर वह काजोल को भी खो देगी। उसके आँसू में, उच्छवासों में वह है - हर पल, हर क्षण - बनी रहती है उसके पास। उसके दुख में जब उसका हृदय अटाटूट भरा होता है, वह भी होती है उसके पास, निविड़ होकर। वह उसे महसूसती है बहुत करीब कहीं- उसकी देह की मीठी गंध, उसकी कोमल छुअन... वह कैसे कम हो जाने दे उस अनुभूति को जिसमें उसकी काजोल की याद, उसका सामीप्य और परस रची-बसी है! यही तो है उसका संबल, अकेला हासिल...
कई बार उसने एक गहरी ग्लानि और चौंक के साथ इन दिनों महसूस किया है, उसे जीना अच्छा लग रहा है, हँसना और गुनगुनाना भी। अंदर किसी सोते की तरह एक अहसास धीरे-धीरे जाग रहा है - कुछ मीठा और अच्छा-सा... यह अच्छा-अच्छा-सा लगना उसे दंश देता है - जिस दुनिया में, जिस जीवन में उसकी काजोल नहीं है, उसमें अच्छा क्या हो सकता है! वह खुद को समेटती है, अपने ही खोल में ठूँसती है बेरहमी से - यह गीत तेरा नहीं, यह स्वप्न और इच्छाएँ भी नहीं... अँधेरा तेरा एकमात्र प्राप्य है और यह आजीवन कारावास - दुखों और पीड़ाओं का... तुझे धूप, हवा और बारिश का क्या करना है। सब निषिद्ध है, एकदम वर्ज्य...
वह कसकर अपनी आँखें भींचती है, चाँद, तारों, खिलते मौसमों पर अपने दरवाजे बंद करती है, मुस्कराहट की चमकीली तितलियों के बाजू जुनून में तोड़ डालती है, मगर अंदर कुछ निःशब्द बहता रहता है - अपनी उसी अबाध गति से... क्या नाम है इसका? जिजीविषा... क्या यह कभी खत्म नहीं होती? इसे मौत क्यों नहीं आती? वह निढाल पड़ी रहती है, अपने हाँड़-मांस के इनसान होने का दंश सहती हुई... उसे जीना पड़ेगा, क्योंकि वह जिंदा है! मरी नहीं है हर अर्थ में, कितना कटु सत्य है यह...
दूसरे दिन उसे पता चला था, कौशल कोलकाता चला गया है। सुनकर अंदर कुछ अचानक बैठ गया था, कच्ची दीवार की तरह, एकदम बेआवाज... कल इतनी देर तक दोनों साथ रहे, मगर कौशल ने उसे इस बाबत कुछ बताया नहीं। कौशल का व्यक्तित्व धूप-छाँव की तरह था - हर पल बदलते हुए, जैसे पहाड़ों में देखा था - मायावी धूप और छाँव का अल्हड़ खेल... मुट्ठी में न बाँध पाने की-सी विवशता उसके साथ में बनी रहती है। बहुत पास, मगर करीब नहीं। कुछ छुटा रह जाने की प्रतीति... शायद इसलिए इतना आकर्षक भी... कौतुहल को न मिटने देता है, न शांत होने देता है, बनाए रखता है यथावत। उसके साथ रहते हुए एक हद तक उसे जानने लगी है, मगर एक बहुत बड़ा हिस्सा अजाना रह गया है, यह भी समझ पाती है।
एक सिरे से दूसरे सिरे तक की न जाने कितनी लंबी यात्रा अभी बची है दोनों के बीच, वह यह भी नहीं जानती कि वह इस यात्रा पर निकलना भी चाहती है या नहीं। मगर अंदर सवालों के ढेर इकट्ठे होने लगे हैं, वह जानना-समझना चाहती है, मगर क्या, स्वयं नहीं जानती। एक पहेली की तरह बनती जा रही है वह - दुरूह, कठिन... कभी खुद को लेकर बैठती है और देर तक उलझती रहती है, गिरह दुरुस्त नहीं कर पाती कई गाँठों का। गुंजल बनी रहती है देर तक...
सुबह-सुबह सकालो को देखा था - चुपचाप बैठी हुई थी, हर तरफ से निर्लिप्त, असंपृक्त... वह वहाँ थी, मगर नहीं थी, जैसे अपने ही भीतर से कहीं खो गई हो। पहचान में नहीं आ रही थी। कुछ ही दिनों में जीवन के न जाने कितने वर्ष एक साथ खर्च कर बैठी थी। अब कुछ बचा था तो एक गहरी चुप्पी और अंतहीन अभाव... कभी उसके घाव पुर पाएँगे? इतने सारे - दगदगाते हुए, भीषण... उसे देखते हुए उसकी आँखें जलने लगी थीं - एक हरा-भरा पौधा जली हुई मिट्टी में तब्दील हो गया था, पूरी तरह से। उसे देखकर प्रतीत होता था, बस भीगी लकड़ी की तरह धुँआ रही है, सुलगने की छटपटाहट से भरी हुई... ऐसा क्या देखती रहती थी वह अपनी शून्य दृष्टि से उस तरफ...! आकाश का वह कोना तो एकदम खाली था...!
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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थोड़ी देर बाद वह उसके पास उतर आई थी, बँगले के सामनेवाले खुले अहाते में -
कैसी हो सकालो?
पूछते हुए उसे स्वयं प्रतीत हुआ था, कुछ गलत कह गई है, कैसा होना है उसे ऐसी परिस्थिति में! उसे देखकर सकालो उठ खड़ी हुई थी -
ठीके हैं दीदिया...
- बहुत दिन नहीं आई, कहाँ रही इतने दिनों तक?
- पुलिस टेसन में रोज जाना पड़ता था हाजिरी देने, एहे के वास्ते...
सुनकर उसका दिल बैठ गया था, पुलिस स्टेशन... बात बदलने के गरज से उसने पूछा था - तबीयत ठीक है? बच्चा...
उसकी बात काटकर सकालो ने एकदम उदासीन भाव से कहा था, जैसे बयान दे रही हो - बच्चा तो नाश हो गया दीदिया!
- नाश हो गया... यानी... मर गया!
उसे यकायक उसकी बात का अर्थ समझ में नहीं आया था -
क्यों, क्या हुआ...?
- उस रात हम भागते रहे जंगल में, फिर पेट पर मार भी पड़ी थी, दरोगा ने बूट से...
कहते हुए वह अचानक रुक गई थी, शायद उसका गला भर आया था। एक लंबे सन्नाटे के बीच दोनों देर तक बैठे रह गए थे। उसे विश्वास नहीं हो रहा था, कहाँ आ गई है वह, किस जमाने में... आज के सभ्य समाज में ऐसा भी होता है... ह्युमन राइट्स, डेमोक्रेसी, फ्रीडम... क्या यह सब महज शब्द हैं - खोखले और अर्थहीन... इनका कोई अस्तित्व ही नहीं दुनिया के इस हिस्से में?
उसने सकालो की तरफ देखा था, उसकी आँखों के पथराए हुए मौन में अब कुछ भी नहीं बचा था - न तकलीफ, न कोई शिकायत। एक सपाट दीवार में तब्दील हो गई थी वह, अपने अंदर सारे कोलाहल समेटकर... जैसे अब क्या, कभी भी जीवित नहीं थी।
वह समझ सकती थी, इस तरह से सारे दरवाजे बंदकर यदि अपने अंदर पड़ी रही तो वह जल्द ही एक कब्र में तब्दील होकर रह जाएगी। एक गूँगे की पीड़ा अभिव्यक्ति न पाकर शेष पर्यंत पत्थर ही बन जाती है अक्सर, ठीक इन अनगढ़, बेडौल पठारों की तरह।
- अब क्या करोगी? उसने हिचकते हुए उससे पूछा था।
- मालूम नहीं दीदिया...
- सब ठीक हो जाएगा सकालो...
वह उसके पास से उठ आई थी। अपनी बातों पर उसे स्वयं यकीन नहीं था, सकालो क्या करती। आकाश में बहुत ऊपर एक चील चक्कर काट रहा था, उसकी आवाज तेज चीख की तरह सुनाई पड़ रही थी। न जाने किस शब पर उसकी नजर है... यहाँ इनकी कमी नहीं - इनसान और जानवरों के शव की... इस निविड़ वन के सीने में न जाने कितनी मौतें, हत्याएँ निःशब्द दर्ज हैं, होती रहती है! उनका कोई हिसाब नहीं। कुछ संख्याएँ, वह भी सही नहीं। मगर क्या फर्क पड़ता है... इस उर्वर जमीन पर जान और संपदा की कमी नहीं - चोरी, तस्करी, हत्या, लूट के लिए... जाने कब से चल रहा है यह सब - अमानवीय शोषण और दोहन...
वह मुड़कर सकालो को देखती है - जमीन की ओर देखती हुई, अपने जुडे हुए घुटनों पर थुथनी टिकाए, कितनी मलिन और कातर... उसके अंदर प्रतिकार एक तीव्र लपट की तरह उठा था - ऐश्वर्य की कोख से जन्में हुए यह गरीब, निर्धन लोग... खुद रिक्त होकर न जाने किस-किस की तिजोरियाँ भर रहे हैं! कब थम सकेगा यह सब?
उसी शाम वह न चाहते हुए भी डॉ. सान्याल के बँगले पर गई थी। उन्होंने ही मुल्की के हाथों खबर भिजवाई थी। वह कोलकाता लौट रहे थे। वहाँ के किसी वृद्धाश्रम में रहने के लिए। फिर शायद कभी लौटना न हो।
डॉ. सान्याल को वह यकायक पहचान नहीं पाई थी। एकदम से बहुत बूढ़े और कमजोर हो गए थे। कुर्सी पर किसी शब की तरह निढाल पड़े थे। वह समझ गई थी, वह ज्यादा दिन नह जी सकेंगे। यह उनकी अंतिम यात्रा है।
उसे देखते ही वह उसके हाथ पकड़कर रोने लगे थे, किसी बच्चे की तरह। उनके प्रति मन में गहरी वितृष्णा के भाव होते हुए भी वह कुछ कह नहीं पाई थी, चुपचाप बैठी रह गई थी। अब यह मनुष्य घृणा के योग्य भी शायद नहीं रह गया था - इतना दयनीय और असहाय... किसी भी क्षण घुन खाई दरख्त की तरह टूट पड़ने को तत्पर...
अपनी गीली, धूसर आँखों से वह उनकी तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहे थे, मगर चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रहे थे। होंठ किसी पर कटे परिंदे की तरह फरफराकर रह जाते थे। आखिर वह उठ खड़ी हुई थी -
अब मुझे चलना होगा काका बाबू!
- हाँ...
उन्होंने अपनी निरंतर बहती आँखों को उल्टी हथेली से पोंछने का प्रयास किया था-
फिर शायद हम कभी न मिलें... मगर मैं जानता हूँ, मुझे मौत जल्दी नहीं आएगी, सब कुछ यहीं चुकाकर जाना पड़ेगा।।
उनकी बातों का कोई जवाब दिए बगैर वह वहाँ से निकल आई थी। बँगले के गेट से निकलते हुए उसने देखा था - चंपा का पेड़ फूलों से लदा खड़ा है - सितारों-से चमकीले गहरे पीले फूल... जमीन पर झरे हुए फूलों की कालीन-सी बिछी हुई थी, चारों तरफ हवा उनकी बासी, उनींदी गंध से बोझिल हुई जा रही थी। उसने उनकी तरफ अपनी पीठ फेरकर कदम तेज कर दिए थे। चंपा की मादक सुगंध दूर तक उसका पीछा करती रही थी, साथ ही दो भीरु आँखों की कातर चावनी भी - मूक प्रार्थना से भरी हुई... वह जानती है, इनसे छूटने के लिए अब जीवन भर का पलायन भी पर्याप्त नहीं!
कौशल को गए कई दिन हो गए थे। उसका उपन्यास का काम भी खत्म हो चुका था। दो दिन पहले ही वह उसका फाइनल ड्राफ्ट अपने प्रकाशक को कुरियर करवा चुकी थी। अमेरिका जाने के लिए उसे टिकट आदि की व्यवस्था करने के लिए दिल्ली लौटना था। मगर कौशल से मिले बगैर वह जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्यों कोलकाता जाने के बाद कौशल ने एक बार भी उसके साथ संपर्क नहीं किया था। उसकी मित्र अपने पूरे परिवार के साथ आनेवाली थी, मगर वह भी किसी कारण से अब आ नहीं पा रही थी।
वह रेंजर साहब से भी पूछ आई थी, उन्हें भी कौशल की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली थी। वे कौशल के लिए चिंतित लग रहे थे।
- क्या करूँ मिस अपर्णा, यहाँ की हालत बहुत निराशाजनक है। या तो आप सब कुछ देखकर भी आँखें मूँदकर रहें या इनके दल में शामिल हो जाइए। दूसरा कोई विकल्प नहीं... अब सोच रहा हूँ यहाँ से चला जाऊँ, इस तरह से खुली आँख से सब कुछ देखते हुए चुपचाप रहा नहीं जाता... अंदर एक अदालत है जो कभी खारिज नहीं होती, चलती रहती है! बहुत त्रासद है यह सब...
वह अकेली पड़ी-पड़ी निराश होने लगी थी। कौशल का न होना एक अभाव-सा बनकर उसे दंश देने लगा था। पूरा जंगल ही नहीं, वह भी अंदर से एकदम निर्जन हो आई थी। किसी तस्वीर के यकायक हट जाने के बाद के दीवार की-सी हो रही थी जिंदगी - एक भद्दा दाग और खालीपन - एकदम निचाट... तस्वीर का न होना तस्वीर के कभी होने का बहुत शिद्दत से अहसास दिलाता है। वह तस्वीर जो दीवार के साथ-साथ जीवन का भी हिस्सा हो जाता है, अनजाने ही। उसका हट जाना जीवन के एक अहम हिस्से को एक नंगी, बदसूरत दीवार में तब्दील कर देता है... ठीक इस तरह से! वह आईने में खुद को देखती है और कहती है...
इन दिनों वह फिर खुद से बोलने लगी है! एकांत अंदर घोंसला डाल रहा है, अंधकार के विशाल डैने फैल रहे हैं, सब कुछ धूसर, विवर्ण है...
सकालो अपनी बहन के साथ जंगल जाती है, लकड़ियाँ बिनकर लाती है, महुआ सुखाती है और इन सब के बीच कभी अचानक बैठकर आकाश की तरफ देखने लगती है। ऐसे में उसकी आँखों में न जाने क्या होता है - किसी खंडहर की तरह भाँय-भाँय करता हुआ।
कई बार अपर्णा उससे बात करने की कोशिश करती है, मगर उसके अंदर सब कुछ सील की तरह बँधकर स्तब्ध हो गया-सा प्रतीत होता था। बस देखती रहती थी चुपचाप, आँखों में टँका उसका कहन शब्दों से परे होकर निसृत होता रहता था, अदृश्य उंगलियों से उसे छूता हुआ लगातार... वह सिहर-सिहर जाती थी।
एक बार पूछा भी था उससे उसने -
तुम्हारे मन में बदला लेने की बात नहीं उठती? उस जैसी तो कितनी औरतें स्वयं पर हुए अन्याय के विरोध में हाथ में हथियार उठा चुकी है, नक्सलियों या माओवादिओ के संगठन से जुड़ गई है...
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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