उपन्यास -साथ चलते हुए...

Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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कौशल उसे निष्पलक देखता रहा था - आज क्या हुआ है इसे... बाँध टूटी नदी की तरह हो रही है, बह रही है निरंतर - अबाध्य, उश्रृंखल, एकदम अराजक... बढ़कर उसने उसका एक हाथ पकड़ लिया था -
सच कहो अपर्णा, क्या हुआ है तुम्हें? इतनी बातें, मुस्कराहट, उछाह... कौन-सा दुख तुम्हें आज इतना सता रहा है?
स्नेह का एक छोटा कतरा मरु को समंदर बना गया था - अपर्णा रोने को हो आई थी, साथ में शर्मिंदा भी - उसे कुछ भी छिपाना नहीं आता, आँखें चुगली कर जाती हैं हर बार...
- ऐसी कोई बात नहीं...
अपने शब्दों पर उसे भी यकीन नहीं आया था, मगर इस झूठ को निभाना जरूरी हो गया था - हर तरफ से कैसे पराजय स्वीकार ले...
- इससे अच्छा तो रो लेती...
कौशल ने उसकी चिकनी पलकें सहलाई थी, मौसम के नए पत्तों की तरह, उतना ही मुलायम, कोमल, हल्के-हल्के काँपती हुई...।
- हर बार रोना, वही रोना... ऊब गई हूँ... इसलिए...
उसकी आवाज गीली थी, रिसती हुई-सी। अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ी होकर अब वह उसे देख रही थी, ऐसे जैसे उसमें अपने पूरे वजूद के साथ उतर रही हो। इसी क्षण कौशल के जेहन में कुछ अद्भुत, कुछ विलक्षण-सा घटा था, जिसे एक जाना-पहचाना नाम देकर वह उसे सरलीकृत नहीं करना चाहता था। वह अपने अनुभव पर स्वयं चकित था। पीड़ा और हर्ष का ऐसा दुर्दांत स्वाद उसने आज से पहले इस तरह से कभी एक साथ नहीं चखा था। वह जो अब तक उसके आसपास थी, अब उसके अंदर थी, कुछ इस तरह से कि उसके लिए भी जैसे उसके ही अंदर अब कोई जगह नहीं बची थी। आश्रय पाकर निराश्रित हो जाने का ये कैसा अद्भुत अनुभव था...
अपर्णा ने यकायक आगे बढ़कर उसे अपने पास खींच लिया था, इतना कि वह नजर भर की दूरी तलाशने लगे। कैसी विडंबना है कि प्यार और आतंक की अनुभूति एक-सी होती है - वही नसों में लहू की नीली सनसनाहट, कनपटियों पर धड़कता दिल और निगाहों के सामने धुंध और धुआँ... अपर्णा ने उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए थे - भीगे और ऊष्ण! उनके मखमली दबाव को महसूस करते हुए कौशल अपनी नसों में बहती शहद की मीठी धार में अनायास डूबने लगा था। वह उसे हल्के-हल्के चूमती रही थी, रगो-रेश में स्फुलिंग जगाते हुए - चाहना के जलते-बुझते जुगनू, इच्छा के दीबे - आग के सुनहरे फूलों की पाँत, फागुन की इस रात - देह के आदिम वन में... यह क्षण सर्जना का था, एकमेव, एकसार हो जाने का था। देह का आदिम उत्साह अपना चरम चाहता था, सारी वर्जनाओं से परे होकर, सत्य की तरह निरावरण, निर्भय होकर...
उसकी देह से उठती पसीने और परफ्युम की मिली-जुली मादक स्त्री गंध का मौन निमंत्रण उसके अंदर कहीं आँच देने लगा था। वह अपनी रगो-रेश में उत्तेजना महसूस कर रहा था - स्वयं को पूरी तरह देकर उसे उसकी संपूर्णता में पाने की एक पागल इच्छा... अपने ही अनजाने उसके हाथ उसकी खुली हुई कमर के इर्द-गिर्द लिपट गए थे। उसके उरोजों का हरारत भरा नर्म दबाव उसके सीने पर था। उसे प्रतीत हो रहा था, दो सहमे हुए कपोत थरथराते हुए उसकी गर्म हथेलियों में अपना आश्रय ढूँढ़ रहे हैं। वह उन्हें इच्छा और प्यार से भरकर दबोच लेना चाहता था, सहलाना चाहता था दुलार से देर तक...
लेकिन इससे पहले कि उसके हाथ कुछ ज्यादा उद्दंड होते, वह अचानक उससे अलग हो गई थी -
नहीं! हम यही ठहर जाएँगे कौशल! अगर इतना-सा करीब नहीं आते तो जिंदगी भर एक ख्वाहिश हमारा पीछा करती रहती, और अगर इससे आगे बढ़ गए तो कुछ बहुत खूबसूरत हमेशा के लिए खो देंगे...'
वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में उसे चुपचाप देखता रह गया था। वह पुरुष था, देह उसके लिए पूरा सच नहीं, मगर बहुत बड़ा सच जरूर था। देह के बिना न वह, न कोई संबंध मुकम्मल था; मगर अपर्णा सच होकर भी परछाईं बनकर खो जाना चाहती थी। उसने फिर आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया था -
'आज तुमसे बहुत कुछ पाया है कौशल! इसे आगे की यात्रा के लिए सहेजकर रखना चाहती हूँ - जिस्म के जंगल में खोना नहीं! तुम नहीं समझोगे, हम औरतों के लिए यह जिस्म ही अधिकतर पिंजरा बन जाता है... चाहती हूँ, इस देह से आगे भी कोई आए- वहाँ जहाँ पशुता की सीमा समाप्त करके इनसान इनसान बनता है, रूह, सोच और अहसास बनता है! अपनी रूहों के बीच से यह तन की माटी हटाना चाहती हूँ, यह हमें एक-दूसरे तक पहुँचने नहीं देती...! बहुत अकेलापन है इस हाँड़-मांस के राजप्रासाद में, ठीक जैसे राम का वनवास...''
कौशल के लिए उसके सारे शब्द पहेली थे। वह अभी भी अपने शरीर की आँच और उत्तेजना से उभर नहीं पाया था। उसका हवा, रेशम और गंध से गुँथा यह तिलस्मी शरीर उसे अपनी आदिम कैफियत में डाला हुआ था। अपर्णा ने हल्के-से उसके होंठों को अपनी उंगली से सहलाया था -
'आज की ये खूबसूरत रात हमेशा के लिेए रहने दो हमारे बीच... ताकि कभी उजाले में मिले तो नजर न चुराकर एक-दूसरे को पहचान सके।'
'मगर...'
उसके अंदर इच्छाओं का एक अनाम बवंडर उठकर उसकी आवाज को रौंद डाला था। 'अब कुछ मत कहना कौशल! जरूरी नहीं कि स्त्री-पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में दो हथेलियों की तरह जुडे, वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी एक सनातन साथ में हो सकते हैं! आओ, हम हमेशा एक दुआ की तरह साथ रहे, प्रार्थना में जुड़कर अपना अस्तित्व समाप्त न कर लें... तुमसे बहुत कुछ चाहती हूँ... पता नहीं क्या, मगर तय है कि कुछ इस देह से परे, इससे भी ज्यादा, कभी समझ पाई और समय या हौसला हुआ तो माँग लूँगी... मगर आज यह नहीं... इसके लिए तैयार नहीं... सच!'
बात खत्म करके उसने अपने कमरे में घुसकर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था और वह उसकी कही हुई बातों का तात्पर्य समझने का प्रयत्न करता हुआ वहाँ न जाने कब तक खड़ा रह गया था।
पूरब में रात की साँवली कोर हल्के से रसमसाई थी, क्षितिज पर उजाले की नर्म दस्तक-सी थी। पास ही कही हरसिंगार के फूल निःशब्द झर रहे थे। हवा सुंगध से बोझिल हुई जा रही थी। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी शायद, मगर ये रात अपनी गहरी तृष्णा और अमित तृप्ति के साथ अब उसके जीवन से कभी नहीं बीत पाएगी, ठहरी रह जाएगी अपनी अनोखी रस, गंध और स्वाद के साथ चिर दिन के लिए... अपने अंदर कहीं गहरे बहुत शिद्दत से वह यह महसूस कर रहा था।
कमरे में बंद हो कर अपर्णा अपने बिस्तर पर ढह गई थी, किसी बीमार दरख्त की तरह। एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़कर आई थी वह, अपने ही साथ। इसलिए यह इतना आसान नहीं था। एक ही साथ दीवार बनना और हथियार भी... हर हाल में लहूलुहान उसे ही होना था - जीत में भी और हार में भी! वह नहीं जानती, वह जीत सकी या नहीं, मगर अंदर हार का दर्द है... रगो-रेश में ऐंठता, कसकता हुआ। पाना कुछ नहीं चाहा था, मगर अब अंदर खोने की-सी मनःस्थिति में हो आई है - एकदम शून्य और उदास...
वह चाहती है, अपने अंदर के मातम को कसकर पकड़े रहना। छूटना नहीं चाहती अपनी तकलीफ से। इसी तकलीफ में उसकी काजोल जिंदा है, उसकी स्मृतियाँ... उसे डर लगता है, इन्हें खोकर वह काजोल को भी खो देगी। उसके आँसू में, उच्छवासों में वह है - हर पल, हर क्षण - बनी रहती है उसके पास। उसके दुख में जब उसका हृदय अटाटूट भरा होता है, वह भी होती है उसके पास, निविड़ होकर। वह उसे महसूसती है बहुत करीब कहीं- उसकी देह की मीठी गंध, उसकी कोमल छुअन... वह कैसे कम हो जाने दे उस अनुभूति को जिसमें उसकी काजोल की याद, उसका सामीप्य और परस रची-बसी है! यही तो है उसका संबल, अकेला हासिल...
कई बार उसने एक गहरी ग्लानि और चौंक के साथ इन दिनों महसूस किया है, उसे जीना अच्छा लग रहा है, हँसना और गुनगुनाना भी। अंदर किसी सोते की तरह एक अहसास धीरे-धीरे जाग रहा है - कुछ मीठा और अच्छा-सा... यह अच्छा-अच्छा-सा लगना उसे दंश देता है - जिस दुनिया में, जिस जीवन में उसकी काजोल नहीं है, उसमें अच्छा क्या हो सकता है! वह खुद को समेटती है, अपने ही खोल में ठूँसती है बेरहमी से - यह गीत तेरा नहीं, यह स्वप्न और इच्छाएँ भी नहीं... अँधेरा तेरा एकमात्र प्राप्य है और यह आजीवन कारावास - दुखों और पीड़ाओं का... तुझे धूप, हवा और बारिश का क्या करना है। सब निषिद्ध है, एकदम वर्ज्य...
वह कसकर अपनी आँखें भींचती है, चाँद, तारों, खिलते मौसमों पर अपने दरवाजे बंद करती है, मुस्कराहट की चमकीली तितलियों के बाजू जुनून में तोड़ डालती है, मगर अंदर कुछ निःशब्द बहता रहता है - अपनी उसी अबाध गति से... क्या नाम है इसका? जिजीविषा... क्या यह कभी खत्म नहीं होती? इसे मौत क्यों नहीं आती? वह निढाल पड़ी रहती है, अपने हाँड़-मांस के इनसान होने का दंश सहती हुई... उसे जीना पड़ेगा, क्योंकि वह जिंदा है! मरी नहीं है हर अर्थ में, कितना कटु सत्य है यह...
दूसरे दिन उसे पता चला था, कौशल कोलकाता चला गया है। सुनकर अंदर कुछ अचानक बैठ गया था, कच्ची दीवार की तरह, एकदम बेआवाज... कल इतनी देर तक दोनों साथ रहे, मगर कौशल ने उसे इस बाबत कुछ बताया नहीं। कौशल का व्यक्तित्व धूप-छाँव की तरह था - हर पल बदलते हुए, जैसे पहाड़ों में देखा था - मायावी धूप और छाँव का अल्हड़ खेल... मुट्ठी में न बाँध पाने की-सी विवशता उसके साथ में बनी रहती है। बहुत पास, मगर करीब नहीं। कुछ छुटा रह जाने की प्रतीति... शायद इसलिए इतना आकर्षक भी... कौतुहल को न मिटने देता है, न शांत होने देता है, बनाए रखता है यथावत। उसके साथ रहते हुए एक हद तक उसे जानने लगी है, मगर एक बहुत बड़ा हिस्सा अजाना रह गया है, यह भी समझ पाती है।
एक सिरे से दूसरे सिरे तक की न जाने कितनी लंबी यात्रा अभी बची है दोनों के बीच, वह यह भी नहीं जानती कि वह इस यात्रा पर निकलना भी चाहती है या नहीं। मगर अंदर सवालों के ढेर इकट्ठे होने लगे हैं, वह जानना-समझना चाहती है, मगर क्या, स्वयं नहीं जानती। एक पहेली की तरह बनती जा रही है वह - दुरूह, कठिन... कभी खुद को लेकर बैठती है और देर तक उलझती रहती है, गिरह दुरुस्त नहीं कर पाती कई गाँठों का। गुंजल बनी रहती है देर तक...
सुबह-सुबह सकालो को देखा था - चुपचाप बैठी हुई थी, हर तरफ से निर्लिप्त, असंपृक्त... वह वहाँ थी, मगर नहीं थी, जैसे अपने ही भीतर से कहीं खो गई हो। पहचान में नहीं आ रही थी। कुछ ही दिनों में जीवन के न जाने कितने वर्ष एक साथ खर्च कर बैठी थी। अब कुछ बचा था तो एक गहरी चुप्पी और अंतहीन अभाव... कभी उसके घाव पुर पाएँगे? इतने सारे - दगदगाते हुए, भीषण... उसे देखते हुए उसकी आँखें जलने लगी थीं - एक हरा-भरा पौधा जली हुई मिट्टी में तब्दील हो गया था, पूरी तरह से। उसे देखकर प्रतीत होता था, बस भीगी लकड़ी की तरह धुँआ रही है, सुलगने की छटपटाहट से भरी हुई... ऐसा क्या देखती रहती थी वह अपनी शून्य दृष्टि से उस तरफ...! आकाश का वह कोना तो एकदम खाली था...!
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थोड़ी देर बाद वह उसके पास उतर आई थी, बँगले के सामनेवाले खुले अहाते में -
कैसी हो सकालो?
पूछते हुए उसे स्वयं प्रतीत हुआ था, कुछ गलत कह गई है, कैसा होना है उसे ऐसी परिस्थिति में! उसे देखकर सकालो उठ खड़ी हुई थी -
ठीके हैं दीदिया...
- बहुत दिन नहीं आई, कहाँ रही इतने दिनों तक?
- पुलिस टेसन में रोज जाना पड़ता था हाजिरी देने, एहे के वास्ते...
सुनकर उसका दिल बैठ गया था, पुलिस स्टेशन... बात बदलने के गरज से उसने पूछा था - तबीयत ठीक है? बच्चा...
उसकी बात काटकर सकालो ने एकदम उदासीन भाव से कहा था, जैसे बयान दे रही हो - बच्चा तो नाश हो गया दीदिया!
- नाश हो गया... यानी... मर गया!
उसे यकायक उसकी बात का अर्थ समझ में नहीं आया था -
क्यों, क्या हुआ...?
- उस रात हम भागते रहे जंगल में, फिर पेट पर मार भी पड़ी थी, दरोगा ने बूट से...
कहते हुए वह अचानक रुक गई थी, शायद उसका गला भर आया था। एक लंबे सन्नाटे के बीच दोनों देर तक बैठे रह गए थे। उसे विश्वास नहीं हो रहा था, कहाँ आ गई है वह, किस जमाने में... आज के सभ्य समाज में ऐसा भी होता है... ह्युमन राइट्स, डेमोक्रेसी, फ्रीडम... क्या यह सब महज शब्द हैं - खोखले और अर्थहीन... इनका कोई अस्तित्व ही नहीं दुनिया के इस हिस्से में?
उसने सकालो की तरफ देखा था, उसकी आँखों के पथराए हुए मौन में अब कुछ भी नहीं बचा था - न तकलीफ, न कोई शिकायत। एक सपाट दीवार में तब्दील हो गई थी वह, अपने अंदर सारे कोलाहल समेटकर... जैसे अब क्या, कभी भी जीवित नहीं थी।
वह समझ सकती थी, इस तरह से सारे दरवाजे बंदकर यदि अपने अंदर पड़ी रही तो वह जल्द ही एक कब्र में तब्दील होकर रह जाएगी। एक गूँगे की पीड़ा अभिव्यक्ति न पाकर शेष पर्यंत पत्थर ही बन जाती है अक्सर, ठीक इन अनगढ़, बेडौल पठारों की तरह।
- अब क्या करोगी? उसने हिचकते हुए उससे पूछा था।
- मालूम नहीं दीदिया...
- सब ठीक हो जाएगा सकालो...
वह उसके पास से उठ आई थी। अपनी बातों पर उसे स्वयं यकीन नहीं था, सकालो क्या करती। आकाश में बहुत ऊपर एक चील चक्कर काट रहा था, उसकी आवाज तेज चीख की तरह सुनाई पड़ रही थी। न जाने किस शब पर उसकी नजर है... यहाँ इनकी कमी नहीं - इनसान और जानवरों के शव की... इस निविड़ वन के सीने में न जाने कितनी मौतें, हत्याएँ निःशब्द दर्ज हैं, होती रहती है! उनका कोई हिसाब नहीं। कुछ संख्याएँ, वह भी सही नहीं। मगर क्या फर्क पड़ता है... इस उर्वर जमीन पर जान और संपदा की कमी नहीं - चोरी, तस्करी, हत्या, लूट के लिए... जाने कब से चल रहा है यह सब - अमानवीय शोषण और दोहन...
वह मुड़कर सकालो को देखती है - जमीन की ओर देखती हुई, अपने जुडे हुए घुटनों पर थुथनी टिकाए, कितनी मलिन और कातर... उसके अंदर प्रतिकार एक तीव्र लपट की तरह उठा था - ऐश्वर्य की कोख से जन्में हुए यह गरीब, निर्धन लोग... खुद रिक्त होकर न जाने किस-किस की तिजोरियाँ भर रहे हैं! कब थम सकेगा यह सब?
उसी शाम वह न चाहते हुए भी डॉ. सान्याल के बँगले पर गई थी। उन्होंने ही मुल्की के हाथों खबर भिजवाई थी। वह कोलकाता लौट रहे थे। वहाँ के किसी वृद्धाश्रम में रहने के लिए। फिर शायद कभी लौटना न हो।
डॉ. सान्याल को वह यकायक पहचान नहीं पाई थी। एकदम से बहुत बूढ़े और कमजोर हो गए थे। कुर्सी पर किसी शब की तरह निढाल पड़े थे। वह समझ गई थी, वह ज्यादा दिन नह जी सकेंगे। यह उनकी अंतिम यात्रा है।
उसे देखते ही वह उसके हाथ पकड़कर रोने लगे थे, किसी बच्चे की तरह। उनके प्रति मन में गहरी वितृष्णा के भाव होते हुए भी वह कुछ कह नहीं पाई थी, चुपचाप बैठी रह गई थी। अब यह मनुष्य घृणा के योग्य भी शायद नहीं रह गया था - इतना दयनीय और असहाय... किसी भी क्षण घुन खाई दरख्त की तरह टूट पड़ने को तत्पर...
अपनी गीली, धूसर आँखों से वह उनकी तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहे थे, मगर चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रहे थे। होंठ किसी पर कटे परिंदे की तरह फरफराकर रह जाते थे। आखिर वह उठ खड़ी हुई थी -
अब मुझे चलना होगा काका बाबू!
- हाँ...
उन्होंने अपनी निरंतर बहती आँखों को उल्टी हथेली से पोंछने का प्रयास किया था-
फिर शायद हम कभी न मिलें... मगर मैं जानता हूँ, मुझे मौत जल्दी नहीं आएगी, सब कुछ यहीं चुकाकर जाना पड़ेगा।।
उनकी बातों का कोई जवाब दिए बगैर वह वहाँ से निकल आई थी। बँगले के गेट से निकलते हुए उसने देखा था - चंपा का पेड़ फूलों से लदा खड़ा है - सितारों-से चमकीले गहरे पीले फूल... जमीन पर झरे हुए फूलों की कालीन-सी बिछी हुई थी, चारों तरफ हवा उनकी बासी, उनींदी गंध से बोझिल हुई जा रही थी। उसने उनकी तरफ अपनी पीठ फेरकर कदम तेज कर दिए थे। चंपा की मादक सुगंध दूर तक उसका पीछा करती रही थी, साथ ही दो भीरु आँखों की कातर चावनी भी - मूक प्रार्थना से भरी हुई... वह जानती है, इनसे छूटने के लिए अब जीवन भर का पलायन भी पर्याप्त नहीं!
कौशल को गए कई दिन हो गए थे। उसका उपन्यास का काम भी खत्म हो चुका था। दो दिन पहले ही वह उसका फाइनल ड्राफ्ट अपने प्रकाशक को कुरियर करवा चुकी थी। अमेरिका जाने के लिए उसे टिकट आदि की व्यवस्था करने के लिए दिल्ली लौटना था। मगर कौशल से मिले बगैर वह जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्यों कोलकाता जाने के बाद कौशल ने एक बार भी उसके साथ संपर्क नहीं किया था। उसकी मित्र अपने पूरे परिवार के साथ आनेवाली थी, मगर वह भी किसी कारण से अब आ नहीं पा रही थी।
वह रेंजर साहब से भी पूछ आई थी, उन्हें भी कौशल की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली थी। वे कौशल के लिए चिंतित लग रहे थे।
- क्या करूँ मिस अपर्णा, यहाँ की हालत बहुत निराशाजनक है। या तो आप सब कुछ देखकर भी आँखें मूँदकर रहें या इनके दल में शामिल हो जाइए। दूसरा कोई विकल्प नहीं... अब सोच रहा हूँ यहाँ से चला जाऊँ, इस तरह से खुली आँख से सब कुछ देखते हुए चुपचाप रहा नहीं जाता... अंदर एक अदालत है जो कभी खारिज नहीं होती, चलती रहती है! बहुत त्रासद है यह सब...
वह अकेली पड़ी-पड़ी निराश होने लगी थी। कौशल का न होना एक अभाव-सा बनकर उसे दंश देने लगा था। पूरा जंगल ही नहीं, वह भी अंदर से एकदम निर्जन हो आई थी। किसी तस्वीर के यकायक हट जाने के बाद के दीवार की-सी हो रही थी जिंदगी - एक भद्दा दाग और खालीपन - एकदम निचाट... तस्वीर का न होना तस्वीर के कभी होने का बहुत शिद्दत से अहसास दिलाता है। वह तस्वीर जो दीवार के साथ-साथ जीवन का भी हिस्सा हो जाता है, अनजाने ही। उसका हट जाना जीवन के एक अहम हिस्से को एक नंगी, बदसूरत दीवार में तब्दील कर देता है... ठीक इस तरह से! वह आईने में खुद को देखती है और कहती है...
इन दिनों वह फिर खुद से बोलने लगी है! एकांत अंदर घोंसला डाल रहा है, अंधकार के विशाल डैने फैल रहे हैं, सब कुछ धूसर, विवर्ण है...
सकालो अपनी बहन के साथ जंगल जाती है, लकड़ियाँ बिनकर लाती है, महुआ सुखाती है और इन सब के बीच कभी अचानक बैठकर आकाश की तरफ देखने लगती है। ऐसे में उसकी आँखों में न जाने क्या होता है - किसी खंडहर की तरह भाँय-भाँय करता हुआ।
कई बार अपर्णा उससे बात करने की कोशिश करती है, मगर उसके अंदर सब कुछ सील की तरह बँधकर स्तब्ध हो गया-सा प्रतीत होता था। बस देखती रहती थी चुपचाप, आँखों में टँका उसका कहन शब्दों से परे होकर निसृत होता रहता था, अदृश्य उंगलियों से उसे छूता हुआ लगातार... वह सिहर-सिहर जाती थी।
एक बार पूछा भी था उससे उसने -
तुम्हारे मन में बदला लेने की बात नहीं उठती? उस जैसी तो कितनी औरतें स्वयं पर हुए अन्याय के विरोध में हाथ में हथियार उठा चुकी है, नक्सलियों या माओवादिओ के संगठन से जुड़ गई है...
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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उसकी बात सुनकर वह गहरी साँस लेकर रह गई थी -
इन बातों का भी कुच्छो मतलब नहीं दीदिया... गरीबों का कोई सच्चा हमदर्द नहीं। सब हमरी ही चिता पर हाथ सेंकते हैं! सबके अपने-अपने सवार्थ हैं - फिर वह परशासन के लोग हों, पुलिस हो, पूँजीपति या यह नक्सलवादी... हमको तो हर तरफ से मरना है। पुलिस, महाजनों के हाथ से छूटते हैं तो नक्सलवादियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। औरतों का हाल तो और बुरा है, उसे घेरकर महाभोज लगा है। पुलिस लॉकअप में भी उसका बलात्कार होता है और अपने इन तथाकथित कामरेडों, गरीबों के हमदर्दों के द्वारा भी। उसके बचने का कोई उपाय नहीं दीदिया!
सुनकर वह सन्न रह गई थी। यह सब भी होता है। आखिर किसका यकीन किया जाय! सकालो पढी-लिखी है यह वह जानती थी, मगर इतनी समझदार भी है, यह पहली बार समझ सकी थी। उसने अपने आस-पास के हालात को बिल्कुल सही पकड़ा था।
- जितनी भी औरतें गई थी इन लोगों का साथ देने उनमें से अधिकतर के साथ यही हुआ है - बलात्कार, शोषण... कल ही एक ग्यारह वर्ष की बच्ची का हमल गिराया गया था, वह भी जंगल में... इतना खून बहा की मर गई! सूखे नाले के पास से उसके माँ-बाप उसकी अधखाई लाश उठाकर ले गए। हाईना खा गए थे उसे! ट्रेनिंग दिलवाने की बात करके उठा ले गए थे यही लोग। अब कहिए!
सुनकर वह भागती हुई अपने कमरे में आ गई थी। उस समय वह अपनी उबकाई रोक नहीं पा रही थी।
दो सप्ताह के बाद कौशल कोलकाता से लौटा था, बिल्कुल बदला हुआ-सा। लुटा-बिखरा चेहरा, बढ़ी हुई दाढ़ी... आकर देर तक चुपचाप बैठा रह गया था - एकदम अन्यमनस्क, खोया-खोया। न जाने किस सोच में एकदम गहरा डूबा हुआ था। अपर्णा ने अपनी तरफ से कुछ पूछा नहीं था, मगर उसे अचानक से देखकर उसकी आँखें जल उठी थीं। किसी तरह स्वयं को संयत किया था उसने।
- मिस्टर हडसन की लाश मिली है... सिर्फ धड़, सर गायब है... बहुत देर बाद कौशल ने कहा था। सुनकर वह स्तंभित रह गई थी।
- एक कप चाय पिला दो अपर्णा...
न जाने कितनी देर बाद कौशल ने उससे कहा था। फिर थोड़ी देर तक उसे देखता रहा था - तुम ठीक हो?
- हाँ... एक संक्षिप्त-सा जबाव देकर वह चुप रह गई थी, एक मान भरी चुप्पी...
- मुझे यहाँ से जाना पड़ा था अपर्णा... नयन के पिताजी ने खबर भिजवाई थी। कोलकाता में बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं - बताया था तुम्हें... उनकी मदद नहीं मिलती तो इस बार जरूर अंदर कर दिया जाता, सारी व्यवस्था हो चुकी थी।
- अंदर कर दिए जाते! किस अपराध में? उसे सुनकर आश्चर्य हुआ था।
- अपराध... उसके सवाल पर कौशल मुस्कराया था, एक बहुत थकी हुई मुस्कराहट- गरीबों का साथ देना... यह कम बड़ा अपराध है?
- मगर कोई हमें यह सब करने से कैसे रोक सकता है? लोकतंत्र है... दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी...
उसकी बात सुनकर कौशल के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कराहट छा गई थी - लोकतंत्र सिर्फ संविधान में है, सरकारी बयान और राजनेताओं के भाषणों में है, बाकी कहीं नहीं... वास्तविकता यह है कि यहाँ तो पूँजी और पूँजीपतियों का राज्य है। बाजार हर जगह घुस गया है और यही बाजार यहाँ सब कुछ तय करता है - नीति-नियम, कानून... सब कुछ!
- बाजार के पीछे पैसे की ताकत है और यह पैसा आज का सबसे बड़ा भगवान है... और गरीबों, गरीब देशों का यम भी। शहरों, जंगलों में पटी पड़ी ये लाशें... यह सब क्या कहती हैं? पूरी मनुष्य जाति पर चंद लोगों का राज, उनका कब्जा - इसी पैसे के बल पर! इन्हीं के कारण तो आज ये नक्सली, माओवादी इस तरह से सर उठा रहे हैं, विद्रोह पर उतर रहे हैं। आम लोग सामाजिक न्याय के अभाव में विवश होकर प्रतिरक्षा में हथियार उठा रहे हैं, एक आरपार की लड़ाई तो होनी ही है...
उसकी बातें सुनकर अपर्णा गहरे तक हिल गई थी। न जाने आगे क्या होनेवाला है।
- जो कुछ हो रहा है, क्या तुम उससे सहमत हो? क्या सारी समस्याओं का हल इस तरह से हो सकेगा - हथियार उठाकर खड़े हो जाने से...? लोकतंत्र का विकल्प यह माओवाद, नक्सलवाद हो सकता है?
- मैं नहीं जानता अपर्णा, सच कहो तो मैं खुद असमंजस में हूँ... दुनिया में पहले भी ऐसी सशस्त्र क्रांति हो चुकी है, मगर हुआ क्या, रूस जैसे कम्युनिस्ट देशों का हश्र तुम्हारे सामने है। असल में बात यह है कि सत्ता में आते ही लोगों का चरित्र बदल जाता है। मनी करप्ट्स, बट पावर करप्ट्स नेसेसरिली...
- फिर इतने बलिदान, संघर्ष किसलिए, जब होना कुछ नहीं है...
अपर्णा की आवाज में गहरी निराशा थी। अपने ही अनजाने वह उठकर टहलने लगी थी। टहलती हुई खिड़की के पास जाकर वह बाहर देखने लगी थी, गहरे स्लेटी बादलों से आकाश ढँक आया था।
- शायद आज बारिश होगी...
कहते हुए उसके अंदर की हलचल उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। सहज दिखते हुए भी वह गहरे तनाव में थी।
कुछ देर की चुप्पी के बाद कौशल ने सर उठाया था -
ऐसे भी हाथ पर हाथ धरे हम चुपचाप बैठ तो नहीं सकते। कोशिश करना, कर्म करना हमारा फर्ज भी है और धर्म भी... आखिर हम मनुष्य है, पशु की तरह कैसे निर्विरोध अत्याचार सहकर जी सकते हैं। अपर्णा, जीवन की यही जिजीविषा हमें जिंदा रखती है... इनसान सबसे गरीब या दयनीय तब होता है जब उसके पास देखने के लिए कोई सपना नहीं होता या उसके हृदय में प्यार नहीं होता...
- हम हमारे वर्तमान लोकतंत्र में भी तो इन समस्याओं का हल ढूँढ़ सकते हैं कौशल? अपर्णा ने अपनी तरफ से सोचने का प्रयास किया था।
- अब तक तो ढूँढ़ ही रहे थे, आजादी के कितने साल बीत गए, बोलो! आजादी के बाद सत्ता और संसाधनों को हथियाने के चक्कर में पूरे राष्ट्रीय चरित्र का ऐसा गहरा पतन और विचलन हुआ है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस जमीन को घेरकर एक महाभोज लगा है - गिद्धों और भेड़ियों का महाभोज! ऐसी हालत में कितनी उम्मीद की जाय और कहाँ तक?
उसने आज तक कौशल को कभी इतना निराश नहीं देखा था। वह इस तरह से बैठा था कि जैसे सब कुछ हार आया हो। उसके झुके हुए कंधों की तरफ देखते हुए उसका मन भर आया था। क्या करे कि उसे थोड़ी सांत्वना मिल सके, वह यकायक सोच नहीं पाई थी। एक गहरी उदासी माहौल में तैर आई थी। दिन का रंग गहरा धूसर पड़ रहा था। बादल बरसने-बरसने को हो आए थे।
- इतने निराश होने की भी शायद जरूरत नहीं, हो सकता है, इसी संघर्ष से कुछ अच्छा नतीजा निकल आए...
अपर्णा ने कौशल को तसल्ली देनी चाही थी। वातावरण बहुत बोझिल हो आया था। एकदम दमघोटूँ!
- पता नहीं, अब तो एक तरह की निराशा-सी होने लगी है। इन मूवमेंट्स का भी चरित्र और रुख बदल रहा है। हर तरफ से निराश होकर गरीबों ने, आदिवासियों ने - एक पूरे सर्वहारा वर्ग ने - इन नक्सलियों का साथ दिया था, मगर उन्हें क्या मिला - वही सब जो अब तक सामंतवादी ताकतों से उन्हें मिलता रहा था - शोषण और अत्याचार... पूँजीवादी देशों के हाथों की कठपुतली बने अब यह संगठन - अधिकतर संगठन - अपनी नैतिकता और लक्ष्य से भटक चुके हैं। विदेशी पैसों की पट्टी इनकी आँखों में बँध गई है। अब तो यह भी सही-गलत का फैसला करने में बिल्कुल सक्षम नहीं रहे।
थोड़ा रुककर उसने फिर कहा था -
शुरू में कुछ ईमानदार लोग थे जो अपनी पूरी आस्था के साथ अन्याय और अत्याचार के खिलाफ इस लड़ाई में उतरे थे, उन लोगों की लड़ाई, जो अपने हक के लिए खड़े नहीं हो पाते, युगों की प्रताड़ना ने जिन्हें मूक और बधिर बना दिया है, मेरुदंड तोड़ दिया है। उन्हें जगाना, सतर होकर अपनी जमीन पर खड़े रहना सीखना, साथ में अन्यायी के पंजे में पंजे डालकर एक अंतहीन लड़ाई का आगाज करना... ऐसा ही सत था उनकी मंशा में, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता ; मगर... बीच में ही कुछ लोभी और अपराधिक मनोवृत्ति के लोगों ने इसे हाईजैक कर लिया। अब तो यह बहुत ही गलत किस्म के लोगों के हाथों में पँहुच चुका लगता है!
कहते हुए कौशल थोड़ी देर के लिए रुका था, जैसे अपने उलझे विचारों को एक क्रम देने का प्रयत्न कर रहा हो, फिर धीरे-धीरे बात आगे बढ़ाई थी, जैसे स्वयं से ही संबोधित हो-
महत उद्देश्य को लेकर शुरू हुआ यह मुहिम अब अधःपतन के कगार पर पहुँच गया है। महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है, पैसों की लूट लगी है। सरकारी अमला, राजनेता, जंगलों के ठेकेदार, बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय कंपनियाँ और यह तथाकथित क्रांतिकारी- नक्सली और माओवादी... सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं - अंदर से मिले हुए। पैसे और सत्ता की बंदरबाँट लगी है हर जगह...
- तुम क्या चाहते हो कौशल...?
- मैं किसी वाद के मकड़जाल में नहीं उलझना चाहता। एक संवेदनशील मनुष्य होने के नाते बस यही चाहता हूँ कि मनुष्य को मनुष्य होने का सम्मान मिले और वह अपने अधिकारों के साथ एक सुखी, सुरक्षित जीवन जी सके। इतना ही, और कुछ ज्यादा नहीं...
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Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

Post by Jemsbond »

उस दिन कौशल जल्दी चला गया था। अपर्णा उसे रोक नहीं पाई थी। न जाने क्यों पिछले कुछ समय से उसे अपना अकेलापन त्रस्त करने लगा था। कौशल के साथ ने उसकी आदत बदल दिया था। एकांत और अकेलेपन के बीच का अंतर अब धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा था। एकांत उसे अब भी प्रिय था, मगर रिश्तों की दुनिया में एकदम से बेघर हो जाना कहीं रह-रहकर दंश दे जाता था, बहुत गहरी और तकलीफदेह।
इन दिनों हर तरफ से लगातार बुरी खबरें आ रही थीं। रोज कहीं न कहीं विस्फोट, हत्या, पुलिस या आम लोगों की मौत... चारों तरफ पुलिस की गश्ती गाड़ियाँ घूम रही थीं, उन्होंने जंगल के भीतरी इलाके में अपनी दबिश बढ़ा दी थी।
अपर्णा ने आदिवासी बस्तियों में जाना कम कर दिया था, एक तरह से बंद ही। कभी-कभी हेल्थ सेंटर या आँगनबाड़ी जैसी संस्थाओं में जाती थी। कौशल अधिकतर व्यस्त रहता था, उससे मिलने पहले की तरह आ नहीं पाता था।
कुछ दिनों बाद मानसून के बादल आकाश में घिर आए थे। कई दिनों तक लगातार बारिश होती रही थी। पूरा जंगल एकदम से ताजी हरियाली में नहा उठा था। मोर के अनवरत केंका, पपीहे की पीक से वन-वनांतर गूँजते रहते। ऐसी सघन हरीतिमा शायद वह पहली बार देख रही थी। दूर-दूर तक बस मखमली घासों की बिछी हुई कालीन और झूमते-लहराते पेड़-पौधे...
प्रकृति के नयनाभिराम ऐश्वर्य ने अस्थायी तौर पर ही सही, उसके मन के अमित संताप को एक सीमा तक हर लिया था। एक दिन वह बारिश में देर तक भीगी थी, उसे लगा था, उसका बचपन लौट आया है। कोयल और सुगना नदियों की धाराएँ एकदम से उफन आई थीं। उनकी भरी-पूरी देह को देखकर यकीन नहीं आता था, कल तक यही नदियाँ रेत की ढूहों के बीच निस्तेज पड़ी रहती थीं। और भी न जाने कितनी बरसाती नदियाँ जादू की तरह अनायास पहाड़ों से फूट पड़ी थीं। तेज गति से नीचे उतरती उनकी धाराएँ पत्थरों से टकरातीं तो जलकणों के सफेद बादल-से छा जाते। वादियों में उद्दाम हवा की धमक और जल प्रपातों का शोर निरंतर गूँजता रहता। पहाड़ियों के माथे पर धुंध, धुआँ के बादल छाए रहते। जमीन से भाप उड़ता रहता। एकदम स्वप्नवत सब कुछ, मायावी...
एक दिन कौशल भी उसके साथ था। बँगले में लौटते हुए अचानक बारिश शुरू हो गई थी। उनके पास छाता नहीं था। पूरी तरह से भीग गए थे दोनों। यूँ साथ-साथ भीगना उसे अच्छा लगा था। इन दिनों उदासी की धूसर, गहरी अनुभूतियों के बीच रंगीन, पारदर्शी बुलबुलों की तरह कुछ अनायास खिल आता है, उसे एक सुखद आश्चर्य में डुबोते हुए...
वह अपनी हथेली में उन क्षणों की मीठी, अनाम अनुभूतियों को देर तक बाँधे रखती है, एकांत में उलटती-पलटती है, सिरहाने रखकर सो जाती है... सपनों में भी रंगों के हल्के-से छींटे पड़े हैं, सेमल के रेशमी फाहे की तरह कुछ आसपास उड़ता फिरता है रात दिन... न जाने कितने अनाम जंगली फूलों की गंध उसने धीरे-धीरे पहचानी हैं, उनसे मित्रता की है - रकम-रकम की...! कुछ सुंदर है जो फिर से अँखुआ रहा है, आकार ले रहा है रंगोली की तरह सारा मन जोड़कर, एक छोर से दूसरे छोर तक...
छोटी-छोटी चीजों में जादू है। हल्की, नन्हीं बूँदों में इंद्रधनुष सिमटा रहता है, पत्थरों के बीच टलमल करते पानी के मुट्ठी भर सोते में सारा आकाश बँधा पड़ा रहता है। वह देखती है और आश्चर्य में डूब जाती है - यही वह दुनिया है जहाँ वह अब तक जीती आई थी! देखा तो न जाने कब से है, मगर जाना अब है... एक नन्हीं-सी चिड़िया के पंखों में अनंत आकाश होता है, आँखों की पुतलियों में पूरा मन - संवेदनाओं से आर्द्र और आप्लावित... देह अनवरत पड़ती झींसी में गीली होती है और एक गर्म लौ में मन नहाता रहता है सूरजमुखी की तरह, सुनहली हँसी में भीगता रहता है क्षण-क्षण...
अंदर का कोई अँधेरा कोना गाहे-बगाहे कसमसाता है - यह पाप है, बहुत गलत... कोई दूसरा कोना मद से बोझिल मुस्कराता है - तत्क्षण - मगर बहुत खूबसूरत...
दुख और सुख की मायावी धूप-छाँव में वह निरंतर भटकती रहती है। दो जल भीगे नयनों की स्मृति जब-तब मन को छू आकूल कर जाती है तो न जाने किसकी अदृश्य उंगलियाँ देह पर पारदर्शी कविताएँ रचकर उसे समय-समय आपाद-मस्तक सिहरा भी जाती है। कभी उसे लगता है, वह स्वयं के लिए ही एक पहेली हो गई है। कितना असहाय लगता है ऐसे क्षणों में... दुर्बल बाँहों में अपना ही भार नहीं सँभलता। एक क्षण वह पत्थर होती है - ठोस, अडिग; दूसरे क्षण पानी - तरल, बहती हुई... वह सोचना चाहती है, वह कहाँ जा रही है, किस दिशा में... दिशा ज्ञान लुप्त-सा हो आया है। कभी लगता है, बहुत दूर निकल आई है, कभी महसूस होता है, कहीं गए ही नहीं, वहीं खड़े हैं जहाँ से चलना शुरू किया था...
एक दिन चाय पीते हुए कौशल ने कहा था, जानती हो अपर्णा, इस बार कोलकाता में अपनी बेटी से मिलकर समझ पाया, वह मुझसे बहुत दूर चली गई है। नयन ने उसे मेरे खिलाफ कर दिया है। उसकी आँखों को देखकर मुझे डर लगा, मैं अंदर तक सिहर गया। उनमें अपनत्व नहीं, एक अपरिचित दृष्टि है, किसी अनजान व्यक्ति की-सी। एक किस्म की घृणा... अब तक यही लगता रहा था कि मेरी बेटी मुझसे थोड़ी दूर है, शारीरिक रूप से, और कुछ नहीं। जब भी जिंदगी मौका देगी, मैं हाथ बढ़ाऊँगा और उसे छू लूँगा... मगर इस बार बहुत अजीब लगा। शायद मैंने उसे खो ही दिया है, हमेशा के लिए। मन की कच्ची जमीन पर जितनी आसानी से दाग लगते हैं उतनी आसानी से मिट भी जाते हैं। बहुत अकेला हो गया अचानक - पूरी तरह से - वह नहीं, उसकी उम्मीद भी नहीं...
कहते हुए उसकी आवाज न जाने कैसी हो आई थी, अचानक से बुझ गई लौ की तरह-एकदम निष्प्रभ... देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा था, एक तरह के संकोच के साथ, जैसे अपना अपराध कबूल रहा हो -
नयन के पिता मुझसे बहुत स्नेह रखते हैं। उनकी हमेशा से कोशिश रही है कि मैं और नयन एक हो जाए फिर से। इस बार भी वह यही कह रहे थे। दीया के लिए मैं कुछ भी कर सकता था, मगर नयन के अहंकार... उसने हर बार मुझे खाली हाथ लौटा दिया। वह कभी भी नहीं बदलेगी!
सुनकर वह कहीं से उदास हो गई थी, तो इस बार भी कौशल अपनी पत्नी के पास आपस के तनाव और मनमुटाव दूर करने गया था... और वह यहाँ... कितना सूना हो गया था उसके बिना उसका जीवन! कौशल उसके सपाट चेहरे की ओर देखता रहा था -
मैंने कहा था, मैं दीया के लिए कुछ भी कर सकता हूँ, आई होप यु अंडरस्टैंड, व्हाट आई मीन...
- यस, आई डु... किसी तरह वह इतना ही कह पाई थी। इसके बाद दोनों के बीच एक बहुत आश्वस्तिकर चुप्पी घिर आई थी। फिर अपर्णा ने ही बात का सूत्र दुबारा सँभाला था, ठहरे हुए लहजे में, जैसे बयान दे रही हो - कौशल, मैं अमेरिका लौट रही हूँ...
- क्या!
कौशल एकदम से चौंक पड़ा था -
अपर्णा, क्या मैंने तुम्हें दुख पहुँचाया...? पूछते हुए उसने अनायास उसका हाथ पकड़ लिया था।
- ऑफकोर्स नॉट... मुझे कुछ काम है, जाना पड़ेगा।
- कब लौटोगी? लौटोगी न? इस बार पूछते हुए उसके हाथ का दबाव बढ़ गया था।
- अभी तक इस विषय में सोचा नहीं। मगर...
न जाने क्या कहते-कहते वह यकायक ठहर गई थी। कौशल एकटक उसकी तरफ देख रहा था, वह उन आँखों की तपिश बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। कुछ देर तक चुप रहने के बाद कौशल अचानक उठ खड़ा हुआ था -
अब चलूँगा, कुछ जरूरी काम याद आ गया है...
अपर्णा उसे रोक नहीं पाई थी। खड़ी रही थी पत्थर की तरह। कौशल की जीप धूल उड़ाती हुई कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गई थी। उसके जाते ही एक भयावह सन्नाटा आसपास व्याप गया था। अपर्णा को लगा था, वह इस गहरे मौन में आपाद-मस्तक ढँक गई है। एकदम से सहम गई थी वह। कौशल से परे होकर उसके पास सन्नाटे के सिवा और कुछ होता क्यों नहीं! क्या उसका अपना अब कुछ भी नहीं रहा...
दूसरे दिन के डाक से आशुतोष की एक चिट्ठी आई थी - बेहद लंबी-चौड़ी! ...वह चाहता था कि अब वह उसके जीवन में वापस चली आए। तापसी उसे छोड़कर किसी और के पास चली गई है और अब उसे भी अपनी गलती का अहसास हो गया है। उसे दिल का दौरा पड़ा है। वह अपनी सारी गलतियों को सुधारना चाहता है और उसके साथ नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करना चाहता है। बाकी की जिंदगी दोनों साथ-साथ गुजारें यह उसकी हार्दिक इच्छा है। उसने काजोल की समाधि को भी संमरमर से बँधवाने की इच्छा जाहिर की थी जो अब तक उससे हो नहीं पाया था।
चिट्ठी पढ़कर वह देर तक चुपचाप बैठी रह गई थी। अंदर कहीं कोई प्रतिकिया उत्पन्न नहीं हुई थी। कभी-कभी उसे स्वयं से ही डर लगता था कि कहीं वह पत्थर की तो नहीं हो गई है। कोई आघात अब पीड़ा क्यों नहीं पहुँचाता! क्यों अंदर की हरी-भरी जमीन एकदम से ऊसर हो गई है! कोई अकेला फूल, एक चेहरा भर हँसी या क्षण भर की जुगनू-सी जलती-बुझती उमंग - कुछ भी जिसे जीवन या उसका संकेत कहा जा सके... वह स्वयं को ही बार-बार किसी उम्मीद से टटोलती और फिर गहरे तक निराश हो जाती। मन का एक हिस्सा मरु में परिवर्तित हो गया है, शायद हमेशा के लिए ही!
एक दिन कौशल ने न जाने कैसी इच्छा भरी आवाज में कहा था - 'कभी जिंदगी ने तुमसे माँगा तो उसे एक अवसर जरूर देना अपर्णा, मना मत कर देना।'
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Jemsbond
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Re: उपन्यास -साथ चलते हुए...

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वह कोई जवाब नहीं दे पाई थी। कौन-सा मौका वह दे इस जीवन को या स्वयं को? अब वह क्या पा सकती है या पाने की इच्छा रह गई है! आँखों के सामने सिर्फ काजोल का रक्तशून्य चेहरा और उदास आँखें हैं। उसकी कातर मिनती - माँ, मुझे जीना है, मुझे बचा लो माँ, मैं मरना नहीं चाहती, क्रिसमस आ रहा है, मुझे कैरोल गाना है... याद आते ही अपनी अक्षमता के तीव्र बोध से वह आपाद-मस्तक ढँक जाती है। उस बार क्रिसमस से पहले की रात फायर प्लेस के पास संता क्लॉज के लिए उपहार के मोजे लटकाते हुए उसने एकाग्र मन से प्रार्थना की थी - इस बार मेरी काजोल के लिए उपहार में खिलौने नहीं, एक लंबी उम्र रखना, एक स्वस्थ जिंदगी...
दूसरे दिन क्रिसमस की सुबह काजोल मर गई थी। संता क्लॉज मिठाई, खिलौने बाँटने के चक्कर में उसकी बेटी के मोजे में जिंदगी का उपहार रखना भूल गया था... चर्च के घंटे लगातार बज रहे थे, बर्फ गिरकर पूरी दुनिया कफन की तरह सफेद हो गई थी। गहरे मटमैले आकाश के नीचे एक उजली, निखरी दुनिया - दूर-दूर तक... उसने खिड़की पर पड़े लेश के सफेद पर्दे उठा दिए थे, फिर काजोल की तरफ देखा था। उसके चेहरे पर मौसम का वही बर्फ था, वही सर्द सन्नाटा... देखकर उसके अंदर सब कुछ हिम हो आया था। वह बुरी तरह हिल उठी थी। और नहीं, यह धैर्य, यह साहस, यह अंतहीन लड़ाई... कुछ तड़का था भीतर शीशे की दीवार की तरह। झनाके के साथ टूटकर बिखरा था। अचानक सुधबुध खोकर चिल्लाई थी - काजोलऽऽऽ... मगर तभी चर्च में बज उठी घंटियों की आवाज में जैसे उसकी चीख डूबकर रह गई थी।
पूरा संसार खुशी में झूम रहा था, नाच रहा था - ओ माई लॉर्ड! यु सेंट योर सन टु सेव अस, ओ माई लॉर्ड... उसकी काजोल को वह बचा न सकी, कोई बचा न सका... एक उतनी छोटी-सी जान को... उस दिन काजोल के साथ उसका भगवान, उसकी आस्था, उसका सब कुछ मर गया था। एक ही झटके में सब कुछ... उस दिन जो मर गया था वह आज तक जिंदा कहाँ हो सका...।
कभी-कभी साथ चलनेवाले किसी मोड़ पर आकर अलग रास्ते पर चल भी देते हैं, मगर आशुतोष ने जिस मुकाम पर उसका साथ छोडा था, वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। त्रुटियों को क्षमा किया जा सकता है, परंतु अपराध...!
पिछली बार पीने के बाद कौशल ब्रांडी की आधी बोतल छोड़ गया था। वही निकालकर वह शाम से पीती रही थी। पुनिया बँगले के अहाते में महुआ सुखाने के लिए डाल रही थी। बाँस की टोकरी में वह केंद के फल, महुआ, कचरा, आँवला और न जाने क्या-क्या चुनकर लाई थी। उसका दो साल का बेटा उसकी पीठ पर साड़ी से बँधा अँगूठा चूस रहा था। वह ब्रांडी के धीरे-धीरे गहराते खुमार में पुनिया के गले में तीन-चार लड़ियों में झूलती कूचफल की काली बिंदुओंवाली चटक लाल माला देखती रही थी। नीम तेल से चुपड़कर बाँधे गए जूड़े में भी उसने गुड़हल के रक्त लाल फूल खोंसे हैं। वह इस क्षण कितना सुखी, संतुष्ट दिख रही थी! उसे अनायास उस अपढ़, निर्धन वनबाला से रश्क-सा हो आया था। जो उसके पास है, उसके पास नहीं है - उसका बच्चा, उसके रिश्तों की भरी-पूरी दुनिया...
वह अपने में डूबी पड़ी रही थी, न जाने कितनी देर तक... और फिर न जाने अचानक कहाँ से प्रकट होकर कौशल ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रख दिया था। उसने उसे अलस भाव से मुड़कर देखा था।
'तुम रो रही हो अपर्णा?'
पूछते हुए कौशल के स्वर में कोई आश्चर्य नहीं था। न जाने वह कब से रोती रही थी, कौशल ने पूछा तो आभास हुआ। कौशल ने बैग से निकाकर ब्रांडी की नई बोतल मेज पर रखी थी। आज वह थर्मस में भरकर बर्फ भी ले आया था। गिलासों में हल्का भूरा द्रव्य उड़ेलकर दोनों धीरे-धीरे घूँट भरते रहे थे। कौशल ने उससे उसके रोने के बाबद कुछ भी नहीं पूछा था। उसे उसकी यही आदत सबसे भली लगती थी। वह कभी उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था। उसकी उपस्थिति में कभी भी अतिरिक्त सावधान होने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।
और फिर न जाने दुर्बलता का वह कौन-सा काँच-सा नाजुक क्षण था जब वह ग्लैशियर की तरह पिघलने लगी थी। युगों से जमा हिमखंड अब नदी बनकर बह जाना चाहता था। हजार उपेक्षा, उपालंभ में वह जी रही थी, परंतु कौशल का स्नेह भरा हाथ अपने कंधे पर पाकर आज वह छलक आई थी। कौशल के सीने पर अपना सर रखकर सिसकती हुई अपनी आपबीती सुनाती चली गई थी। कौशल बड़े धैर्य के साथ सब कुछ सुनता रहा था। न बढ़कर अपनी तरफ से कुछ पूछा था, न उसे रोने से ही रोका था। वह बाँध टूटी नदी की तरह निर्वाध बहती रही थी, आप्लावित होती रही थी। लग रहा था, आज वर्षो से बड़े यत्न से बाँथे गए सारे तटबंध एक-एककर टूट जाएँगे। कौशल भी यही चाहता था, अपर्णा शिला से मानवी बने, अहिल्या का अभिशाप समाप्त हो, वह फिर से जी उठे, धड़के, साँस ले...
धीरे-धीरे कृष्ण पक्ष का चाँद पलाश की गदरायी डालों के पीछे छिप गया था। ग्रीष्म की उसाँसें भरती-सी हवा महुआ, करोंजे की मादक गंध से बोझिल हो रही थी। बँगले के पीछे बने सर्वेंट्स क्वाटर से पुनिया के बच्चों के निरंतर बोलने और रोने की आवाजें अब आनी बंद हो गई थीं। बहुत देर तक लगातार बोलने के बाद अब वह बेतरह थककर ईजी चेयर पर निढाल होकर पड़ी थी। मगर अंदर से स्वयं को हल्का महसूस कर रही थी। लग रहा था, बहुत दिनों से लगातार टीसनेवाला कोई काँटा बाहर निकल गया है।
कौशल अपनी घड़ी देखते हुए उठ खड़ा हुआ था -
'अपर्णा, अब तुम सो जाओ, मैं चलूँगा...'
वह उसे बाँहों का सहारा देकर शयनकक्ष तक ले आया था और फिर एहतियात से उसे उसके बिस्तर पर लिटा दिया था। वह बिना कुछ कहे अपने इर्द-गिर्द उसकी मजबूत बाँहों को महसूसते हुए बिस्तर पर लेट गई थी। उसे लिटाकर कौशल सीधा खड़ा हो गया था-
'अब मैं चलता हूँ!'
कहते हुए उसकी दृष्टि बगल की मेज पर रखी काजोल की तस्वीर पर पड़ गई थी-
'ये काजोल है न? तुमने कभी उसकी तस्वीर दिखाई नहीं...'
फिर एक गहरी साँस लेकर वह मुड़कर जाने लगा था -
'मेरी दीया भी कुछ-कुछ ऐसी ही दिखती है!'
अचानक अपर्णा ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पीछे से पकड़ लिया था - 'कौशल, क्या हम दोनों एक बार फिर अपनी-अपनी काजोल को अपने जीवन में लौटाकर नहीं ला सकते?'
उसके प्रश्न पर कौशल निरुत्तर-सा खड़ा रह गया था। एक समय से उसके अंदर ही अंदर पनपती हुई इस अनाम इच्छा को आज अपर्णा ने एक स्पष्ट अभिव्यक्ति दे दी थी।
अपर्णा ने अधीर आग्रह से भरकर उसे अपने पास खींचकर बिठा लिया था -
'मुझे मेरी - हमारी - काजोल फिर से लौटा दो कौशल!'
कौशल बिना कुछ कहे उसके पास बैठ गया था। अपर्णा ने उसके सीने पर सर रखकर अपनी आँखें मूँद ली थी। बहुत दूर तक वह नंगे पाँव धूप और बारिश में निरंतर भागती रही है, अब उसे आश्रय चाहिए, एक छाँह चाहिए, ठीक ऐसी ही स्नेहिल - सब्ज और शीतल...
- मगर तुम तो अमेरिका लौटना चाहती थी...
कौशल की बाँहें उसके आसपास घिर आई थी।
- जहाँ मुझे लौटना था, अंततः वहीं लौट आई हूँ - तुम्हारे पास, अब ना मत करना...
अपर्णा की आवाज में पूरे आकाश का पिघलाव था, वह सर से पाँव तक पानी हो रही थी, बह रही थी - निर्वाध, निरंकुश... आज तक की सारी वर्जनाएँ ढह कर उसके आसपास ताश के पत्तों की तरह बिखर रही थीं...
- तुम मेरा ठिकाना हो, तुम्हें लौटाकर खुद कहाँ जाऊँगा...।
कहते हुए कौशल ने उसे अपने सीने में निविड़ होकर समेट लिया था -
तुममें मुझे मेरा घर, मेरा परिवार दिखने लगा है अपर्णा... और यह इश्क-मुहब्बत जैसी चीजों से भी कोई आगे की चीज है - बहुत गहरी और विस्तृत - ठीक तुम्हारे सपनों के आकाश जैसा... एक अपने परिवार से छूटकर बहुत बड़े सामाजिक परिवार से जुड़ा था... आज फिर उसी में तुम्हें भी पा गया... बहुत पूर्ण, बहुत सतुंष्ट महसूस कर रहा हूँ स्वयं को...
- तुम निश्चिंत रहना कौशल, तुम्हारे महत काम में मैं, यह हमारा संबंध कभी बाधा नहीं बनेगा, बल्कि मैं भी तुम्हारे हर काम में साथ दूँगी। अब हमारा हर सपना, हर उद्देश्य साझे का है, जानते हो न... कहकर अपर्णा देर तक अपनी आँसुओं से टलमल आँखें मूँदें पड़ी रही थी कौशल की बाँहों में। आज वह इस जागी हुई आँखों के सपने को जीना चाहती है, महसूसना चाहती है छूकर कि जब ख्वाब हकीकत बन जाते हैं तब कैसा लगता है... इस क्षण एक गहरी मौन प्रार्थना उसके पूरे वजूद में समाई हुई थी - यह सपना अब कभी न टूटे, पूरी जिंदगी - आखिरी नींद आने तक...
एक लंबी चुप्पी के बाद वह हल्के से बुदबुदाई थी, गहरी सिसकी के साथ, कुछ इस तरह कि स्वयं भी सुन न सके-
अब तुम आओगी न काजोल...
उसकी गीली, सांद्र आवाज में अबकी बार मुट्ठी भर जुगनुओं की टिमक थी, उनका छींट भर उजाला भी - गहरी उम्मीद और यकीन का, जो इस पल सहज पनपा था, कौशल के आश्वासन भरे सानिध्य में...
बाहर बँगले के पासवाले पाकड़ पर कोई रात का पक्षी रह-रहकर बोल रहा था। कहीं बहुत दूर जंगल की आदिम दुनिया से संथालों के माँदल की 'धप-धप' के साथ उनके गीतों की स्वर-लहरी रात के सन्नाटे में बहुत स्पष्ट होकर सुनाई पड़ रही थी। मौसम के अंत में पहुँची महुआ की उनींदी गंध में भीगी पूरब की हवा धीरे-धीरे चल पड़ी थी। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी शायद...


समाप्त
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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