उपन्यास - राजर्षि रवींद्रनाथ टैगोर

Jemsbond
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सत्ताईसवाँ परिच्छेद

दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता रहा। कितने देश, कितने विचित्र दृश्य, कितने विचित्र लोग - किन्तु नक्षत्रराय के साथ, वही छाया के समान क्षीण, धूप के समान दीप्त एकमात्र रघुपति निरंतर लगा हुआ है। दिन में रघुपति, रात में रघुपति, सपने में भी रघुपति विराज रहा है। रास्ते में पथिक आ-जा रहे हैं, रास्ते के किनारे धूल में बालक खेल रहे हैं, हाट में सैकड़ों-सैकड़ों लोग खरीदना-बेचना कर रहे हैं, गाँव में वृद्ध पासा खेल रहे हैं, स्त्रियाँ घाट पर पानी भर रही हैं, नाविक गाना गाते हुए नौका में जा रहे हैं - किन्तु नक्षत्रराय के बगल में क्षीणकाय रघुपति हमेशा जाग रहा है। संसार में चारों ओर विचित्र खेल चल रहा है, विचित्र घटनाएँ घट रही हैं - किन्तु इस रंगभूमि की विचित्र लीला के बीच से होते हुए नक्षत्रराय का मंद भाग्य उसे खींचे लिए जा रहा है - अपने उसके लिए पराए हैं, लोकालय मात्र शून्य मरुभूमि है।
नक्षत्रराय थक कर अपनी पार्श्ववर्ती छाया से पूछता है, "और कितनी दूर चलना होगा?"
छाया उत्तर देती है, "बहुत दूर।"
"कहाँ जाना होगा?"
इसका कोई उत्तर नहीं। नक्षत्रराय निश्वास छोड़ते हुए चलता रहता है। तरु-श्रेणी के मध्य पत्तों से छाई गई एकांत साफ-सुथरी कुटिया को देख कर उसके मन में आता है, 'अगर मैं इस कुटिया का अधिवासी होता!' गो-धूलि के समय जब ग्वाले लाठी कंधे पर रखे मैदान से ग्राम-पथ पर धूल उड़ाते गाय-बछड़ों को लेकर चलते हैं, नक्षत्रराय के मन में आता है, 'अगर मैं इनके साथ जा पाता, संध्या-समय घर जाकर विश्राम कर पाता!' दोपहर में प्रचण्ड धूम में किसान हल जोत रहा है, उसे देख कर नक्षत्रराय सोचता है, 'आहा, यह कितना सुखी है!'
रास्ते के कष्ट से नक्षत्रराय विवर्ण, कमजोर और मलिन पड़ गया है; वह रघुपति से बोला, "मैं और नहीं बचूँगा।"
रघुपति ने कहा, "अब तुम्हें मरने कौन देगा!"
नक्षत्रराय को लगा, रघुपति से छूटे बिना उसके पास मरने का भी अवसर नहीं है। एक स्त्री ने नक्षत्रराय को देख कर कहा था, 'हाय, किसका लड़का है री! इसको रास्ते में कौन निकाल लाया!' सुन कर नक्षत्रराय का हृदय भर आया, उसकी आँखों में आँसू आ गए, उसकी इच्छा हुई, उसी स्त्री को माँ पुकार कर उसके साथ उसके घर चला जाए।
लेकिन नक्षत्रराय रघुपति के हाथों जितना कष्ट पाने लगा, उतना ही उसके वश में होने लगा, उसका सम्पूर्ण अस्तित्व रघुपति की उँगली के इशारे पर नाचने लगा।
चलते-चलते नदी की बहुलता क्रमश: कम होने लगी। धीरे-धीरे पक्की जमीन आ गई; मिट्टी लाल रंग की, कंकड़ों से भरी हुई, बस्तियाँ दूर-दूर बसी हुई, पेड़-पौधे विरल; दो पथिक नारियल के वनों का देश छोड़ कर ताल वनों के देश में आ पड़े। बीच-बीच में बड़े-बड़े बाँध, सूखे नदी-पथ, दूर बादलों के समान पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं। धीरे-धीरे शाहशुजा की राजधानी राजमहल निकट आने लगा।
अठाईसवाँ परिच्छेद

अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगजेब दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया है। शुजा यह समाचार पाकर बहुत विचलित हो गया। किन्तु सेना और सामंत किसी भी तरह तैयार नहीं थे, इसी कारण कुछ समय मिल जाने की आशा में उसने बहाना बना कर एक दूत औरंगजेब के पास भेज दिया। कह कर भेजा, नयनों की ज्योति, हृदय के आनंद, परम स्नेहास्पद प्रियतम भ्राता औरंगजेब, सिंहासन पाने में सफल हुए, इससे शुजा की मृत देह को प्राण मिल गए - अब शुजा के लिए बंगाल के शासन की जिम्मेदारी नए सम्राट द्वारा स्वीकार कर लेने पर आनंद में और कुछ कमी नहीं रहेगी। औरंगजेब ने अत्यंत आदर के साथ दूत की अगवानी की। शुजा के शरीर, मन, स्वास्थ्य और शुजा के परिवार के कुशल-समाचार जानने के लिए विशेष उत्सुकता प्रकट की तथा कहा, "जब स्वयं सम्राट शाहजहाँ ने शुजा को बंगाल के शासन-कार्य हेतु नियुक्त किया है, तो और दूसरे स्वीकृति-पत्र की कोई आवश्यकता नहीं है।" ऐसे ही समय रघुपति शुजा के दरबार में जाकर उपस्थित हो गया।
शुजा ने कृतज्ञता और सम्मान के साथ अपने उद्धारकर्ता की अगवानी की। बोला, "क्या समाचार है?"
रघुपति ने कहा, "बादशाह से कुछ निवेदन है।"
शुजा ने मन-ही-मन सोचा, "निवेदन फिर किसके लिए? कुछ धन न माँग बैठे, तो बचूँ।"
रघुपति ने कहा, "मेरी प्रार्थना यही है कि…"
शुजा ने कहा, "ब्राह्मण, तुम्हारी प्रार्थना मैं निश्चय ही पूर्ण करूँगा। किन्तु कुछ दिन सबर करो। अभी राज-कोष में अधिक धन नहीं है।"
रघुपति ने कहा, "शहंशाह, चाँदी, सोना या और कोई धातु नहीं चाहिए, मुझे इस समय शोणित-इस्पात चाहिए। मेरी नालिश सुन लीजिए, मैं न्याय की प्रार्थना करता हूँ।"
शुजा ने कहा, "भारी मुश्किल है। अभी मेरे पास न्याय करने का समय नहीं है। ब्राह्मण, तुम बड़े असमय आए हो।"
रघुपति ने कहा, "शहजादे, समय असमय सभी का होता है। आप बादशाह हैं, आपका भी समय है; और मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ, मेरा भी है। आप अपने समय के अनुसार न्याय करने बैठेंगे, तो मेरा समय रहेगा कहाँ?"
शुजा निरुपाय होकर बोला, "भारी मुसीबत है। इतनी बातें सुनने की अपेक्षा तुम्हारी नालिश सुनना अच्छा है। बोलो।"
रघुपति ने कहा, "त्रिपुरा के राजा, गोविन्दमाणिक्य ने अपने छोटे भाई, नक्षत्रराय को बिना अपराध के निर्वासित कर दिया है…"
शुजा ने खीझ कर कहा, "ब्राह्मण, तुम दूसरे की नालिश लेकर मेरा समय क्यों नष्ट कर रहे हो? अभी इस सब का न्याय करने का समय नहीं है।"
रघुपति ने कहा, "फरियादी राजधानी में हाजिर है।"
शुजा ने कहा, "जब वह स्वयं उपस्थित होकर अपने मुँह से नालिश पेश करेगा, तब विवेचना की जाएगी।"
रघुपति ने कहा, "उसे यहाँ कब हाजिर करूँ?"
शुजा ने कहा, "ब्राह्मण किसी भी तरह छोड़ेगा नहीं। अच्छा, एक सप्ताह बाद ले आना।"
रघुपति ने कहा, "अगर बादशाह हुकुम करें, तो मैं उसे कल ले आऊँ!"
शुजा ने खीझते हुए कहा, "अच्छा, कल ही ले आना।"
आज के लिए छुटकारा मिल गया। रघुपति ने विदा ली।
नक्षत्रराय ने कहा, "नवाब के सामने जाना है, लेकिन नजराना क्या लूँ?"
रघुपति ने कहा, "उसके लिए तुम्हें नहीं सोचना है।"
उसने नजराने के लिए डेढ़ लाख मुद्राएँ उपस्थित कर दीं।
रघुपति अगले दिन सुबह काँपते हृदय से नक्षत्रराय को लेकर शुजा के दरबार में आ पहुँचा। जब डेढ़ लाख रुपए नवाब के पैरों में रख दिए गए, तो उसकी मुखश्री वैसी अप्रसन्न प्रतीत नहीं हुई। नक्षत्रराय की नालिश अति सहजता से उसकी समझ मं् आ गई। वह बोला, "अब तुम लोग क्या चाहते हो, मुझे बताओ।"
रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य को निर्वासित करके उसके स्थान पर नक्षत्रराय को राजा बनाने की आज्ञा दी जाए।"
यद्यपि शुजा ने अपने भाई के सिंहासन में हस्तक्षेप करने में तनिक भी संकोच नहीं किया, तब भी इस मामले में उसके मन में कैसी एक आपत्ति उपस्थित हो गई। किन्तु इस समय उसे रघुपति की प्रार्थना पूर्ण करना ही सबसे सहज अनुभव हुआ - अन्यथा उसे डर है, रघुपति बहुत अधिक बकझक करेगा। विशेष रूप से उसे लगा कि डेढ़ लाख रुपया नजराना लेने के बाद भी आपत्ति करना अच्छा दिखाई नहीं देगा। वह बोला, "अच्छा, गोविन्दमाणिक्य के निर्वासन और नक्षत्रराय के राज्याभिषेक का आदेशपत्र तुम लोगों को देता हूँ, ले जाओ।"
रघुपति ने कहा, "बादशाह के कुछ सैनिक भी साथ भेजने होंगे।"
शुजा ने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं, नहीं, नहीं - वह नहीं होगा, युद्ध नहीं कर पाऊँगा।"
रघुपति ने कहा, "मैं और छत्तीस हजार रुपया युद्ध के व्ययस्वरूप रखे जा रहा हूँ। और नक्षत्रराय के त्रिपुरा का राजा बनते ही एक बरस का खजाना सेनापति के हाथ भिजवा दूँगा।"
शुजा को यह प्रस्ताव अत्यधिक युक्तिसंगत प्रतीत हुआ तथा मंत्री भी उसके साथ एकमत हो गए। रघुपति और नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का एक दल लेकर त्रिपुरा की ओर चल पड़े।



प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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उन्तीसवाँ परिच्छेद
इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ नहीं बोल पाता, किन्तु बहुत बलपूर्वक बोलता रहता है। राजा को वह प्राय: 'गुड़िया दूँगा' कह कर परम प्रलोभन और सांत्वना देता रहता है तथा यदि राजा किसी तरह की शैतानी के लक्षण प्रकट करते हैं, तो ध्रुव उन्हें 'कमरे में बंद कर दूँगा' कह कर बहुत डरा देता है। इस प्रकार आजकल राजा विशेष नियंत्रण में हैं - ध्रुव के अभिमत के अभाव में वे कोई काम करने में बहुत ज्यादा भरोसा नहीं करते।
इसी बीच ध्रुव को एक संगिनी मिल गई है। एक पड़ोसी की लड़की, ध्रुव से छह महीने छोटी। दसेक मिनट के भीतर दोनों की चिरस्थायी दोस्ती हो गई। बीच में थोड़ा मनमुटाव होने की संभावना हुई थी। ध्रुव के हाथ में एक बड़ा बताशा था। प्रथम प्रणय के उत्साह में ध्रुव ने अपनी दो छोटी उँगलियों से अति सावधानी के साथ एक छोटा-सा टुकड़ा तोड़ कर एक बार में ही अपनी संगिनी के मुँह में ठूँस दिया और परम अनुग्रह के साथ गर्दन हिलाते हुए कहा, "तुम काओ।"
संगिनी मिठाई पाकर परितृप्त होकर बोली, "और काऊँगी।"
इस पर ध्रुव थोड़ा दुखी हो गया। बंधुत्व पर इतना ज्यादा अधिकार न्यायसंगत अनुभव नहीं हुआ; ध्रुव ने अपने स्वभाव-सुलभ गाम्भीर्य और गौरव के साथ गर्दन हिला कर, आँखें फाड़ कर कहा, "छी - आर केते नेई, अछुक कोबे, बाबा मा'बे।" (छी: - और नहीं खाते, बीमार हो जाओगी, पिताजी पिटाई करेंगे।)
कह कर बिना कोई देर किए पूरा बताशा एक बार में ही अपने मुँह में ठूँस कर खतम कर डाला। अचानक बालिका के चेहरे की मांसपेशियों में खिंचाव आने लगा - अधरोष्ठ फूलने लगे, भौंहें चढ़ने लगीं - आसन्न क्रंदन के समस्त लक्षण प्रकट हो गए।
ध्रुव किसी का भी क्रंदन सहन नहीं कर पाता; जल्दी से गंभीर सांत्वना के स्वर में बोला, "कल दूँगा।"
राजा के आते ही ध्रुव भारी ज्ञानी बनते हुए नवीन संगिनी के सम्बन्ध में निर्देश देकर बोला, "इसे कुछ मत कहना, यह रो पडेगी। छी, मारते नहीं, छी!"
सच में राजा की कोई दुरभिसंधि नहीं थी, तब भी जबरदस्ती राजा को सावधान कर देना ध्रुव ने अत्यंत आवश्यक समझा। राजा ने लड़की की पिटाई नहीं की, ध्रुव ने साफ ही देख लिया, उसका निर्दश निष्फल नहीं गया।
इसके बाद ध्रुव अभिवावक की मुद्रा धारण करके किसी प्रकार की भी विपदा की आशंका को निर्मूल करते हुए परम गाम्भीर्य के साथ लड़की को आश्वस्त करने की कोशिश करने लगा।
इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं थी। कारण, लड़की अपने आप ही बिना डरे राजा के निकट जाकर अत्यंत कुतूहल और लालच के वशीभूत उनके हाथ का कंगन घुमा-घुमा कर उसका निरीक्षण करने लगी।
इस तरह अपने प्रयत्न और परिश्रम से संसार में शान्ति और प्रेम की स्थापना करके प्रसन्न-हृदय ध्रुव ने अपना बेला के फूल के समान भरा हुआ गोल कोमल पवित्र चेहरा राजा के मुँह की ओर बढ़ा दिया - राजा की ओर से सद्-व्यवहार का पुरस्कार मिला -- राजा ने उसे चूम लिया।।
इसके बाद ध्रुव ने अपनी संगिनी का चेहरा उठा कर अनुमति और अनुरोध के बीच के स्वर में राजा से कहा, "एके चूमो काओ।" ( इसे चूमो।)
राजा ने ध्रुव के आदेश के उल्लंघन का साहस नहीं किया। तब लड़की बुलावे का जरा भी इंतजार न करते हुए नितांत स्वाभाविक रूप से खिले हुए चेहरे के साथ राजा की गोद पर चढ़ कर बैठ गई।
इतनी देर तक संसार में अशांति अथवा गड़बड़ के लक्षण नहीं थे, किन्तु अब ध्रुव के सिंहासन पर खतरा मँडराते ही उसका सार्वभौमिक प्रेम टलमल करने लगा। राजा की गोद पर अपना निज का एकमात्र अधिकार स्थापित करने की इच्छा बलवती हो उठी। मुँह एकदम चढ़ गया, एक-दो बार लड़की को खींचा, यहाँ तक कि विशेष अवस्था में छोटी बालिका को मारना भी अपने पक्ष में उतना अन्याय प्रतीत नहीं हुआ।
तब राजा ने मेलमिलाप कराने के उद्देश्य से अपनी आधी गोदी में ध्रुव को भी खींच लिया। लेकिन उसमें भी ध्रुव की आपत्ति दूर नहीं हुई। शेष आधी पर अधिकार करने के लिए नए सिरे से आक्रमण की तैयारी करने लगा। उसी समय नए राजपुरोहित बिल्वन ठाकुर ने कक्ष में प्रवेश किया।
राजा ने दोनों को ही गोदी से उतार कर उन्हें प्रणाम किया। ध्रुव से बोले, "ठाकुर को प्रणाम करो।"
ध्रुव ने वह आवश्यक नहीं समझा; मुँह में उँगली घुसाए विद्रोही मुद्रा में खड़ा रहा। लड़की ने राजा की देखादेखी खुद ही पुरोहित को प्रणाम कर लिया। बिल्वन ठाकुर ने ध्रुव को निकट खींच कर पूछा, "तुम्हारी यह संगिनी कहाँ से आ जुटी?"
ध्रुव थोड़ी देर सोच कर बोला, "आमि टक् टक् च'ब।" (मैं घोड़े पर चढ़ूँगा।)
पुरोहित ने कहा, "वाह वा, प्रश्न और उत्तर के बीच क्या मेल है!"
ध्रुव की आँखें सहसा लड़की की तरफ उठीं, उसके बारे में अपना मत और अभिप्राय अत्यंत संक्षेप में प्रकट करते हुए बोला, "ओ दुष्टु, ओके मा'बो।" (वह दुष्ट है, उसकी पिटाई करूँगा।)
कहते हुए अपना छोटा-सा घूँसा हवा में लहराया।
राजा ने गंभीर होकर कहा, "छी ध्रुव!"
जैसे एक ही फूँक से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार ध्रुव का चेहरा तत्क्षण म्लान हो गया। वह पहले आँसू रोकने के लिए दोनों मुट्ठियों से आँखें रगड़ने लगा; अंत में देखते-देखते थोड़ा-सा बड़ा हृदय और नहीं सह पाया, रो पड़ा।
बिल्वन ठाकुर ने उसे हिलाया-झुलाया, गोदी में उठाया, हवा में उछाला, जमीन पर खड़ा किया - इस तरह बेचैन कर डाला; फिर ऊँची आवाज में जल्दी-जल्दी बोला, "सुनो सुनो ध्रुव, तुम्हें श्लोक सुनाता हूँ, सुनो -
कलह कटकटां काठ काठिन्य काठ्यम्
कटन किटन कीटं कुटमलं खटमटम्।
अर्थात, जो बालक रोता है, उसे कलह कटकटां के बीच डाल कर खूब काठ काठिन्य काठ्यम दिया जाता है, उसके बाद इतना सारा कटन किटन कीटं लेकर लगातार तीन दिन तक कुटमलं खटमटम्।"
पुरोहित ठाकुर इसी तरह अनर्गल बकता रहा। ध्रुव का रोना बीच में ही थम गया। पहले वह इस गोलमाल से परेशान और भौचक होकर आँसू भरी आँखें उठा कर बिल्वन ठाकुर के मुँह की ओर देखता रहा। उसके बाद उसके हाथ-मुँह हिलते देख कर उसे बहुत कौतुक अनुभव हुआ।
` उसने बहुत खुश होकर कहा, "फिर से बोलो।"
पुरोहित ने फिर से बक दिया। ध्रुव ने हँसी से लोटपोट होते हुए कहा, "फिर से बोलो।"
राजा ने ध्रुव के आँसुओं से सने कपोलों तथा हँसी भरे होठों को बार-बार चूमा। इसके बाद राजा, राजपुरोहित और दोनों बालक-बालिका मिल कर खेल में लग गए।
बिल्वन ठाकुर ने राजा से कहा, "महाराज, आप इन लोगों के साथ बहुत खुश हैं। रात-दिन प्रखर बुद्धिमानों के साथ रहने से बुद्धि लुप्त हो जाती है। छुरी लगातार शान पर चढ़ाने से धीरे-धीरे घिस कर लुप्त हो जाती है। मात्र उसका मोटा हत्था बच रहता है।"
राजा हँस कर बोले, "तब तो, लगता है अभी मेरे सूक्ष्म बुद्धि के लक्षण प्रकट नहीं हुए हैं।"
बिल्वन - "नहीं, सूक्ष्म बुद्धि का एक लक्षण यही है कि वह सहज को जटिल बना डालती है। संसार में ढेरों बुद्धिमान न होते, तो संसार के काम बहुत आसान हो गए होते। नाना सुविधाएँ जुटाने में ही नाना असुविधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। समझ नहीं आता, मनुष्य अधिक बुद्धि लेकर करेगा क्या!"
राजा ने कहा, "पाँच अँगुलियों से यथेष्ट काम चल जाता है, दुर्भाग्यवश सात अँगुलियाँ पाने की इच्छा करके काम बढ़ाना पडता है।"
राजा ने ध्रुव को पुकारा। ध्रुव फिर से अपनी साथिन के साथ शान्ति स्थापित करके खेल रहा था। राजा के बुलाते ही खेल छोड़ कर तुरंत उनके निकट आ गया। राजा उसे सामने बैठा कर बोले, "ध्रुव, ठाकुर को वह नया गीत तो सुनाओ।"
लेकिन ध्रुव ने नितांत आपत्ति की मुद्रा में ठाकुर के चेहरे की ओर देखा।
राजा ने लालच देते हुए कहा, "तुम्हें टक् टक् पर चढ़ाऊँगा।"
ध्रुव अपनी तुतलाती बोली में गाने लगा -
मुझको छह जन मिल पथ दर्शाते, कहते
भूल जाता पग-पग पर पथ रे।
नाना बातों के व्याज से नाना मुनि कहते,
झूलता रहता संशय में रे।
जाऊँ निकट तुम्हारे, यही थी साध,
तुम्हारी वाणी सुन मिटाऊँ प्रमाद,
कानों के निकट सभी करते विवाद
सैकड़ों लोगों की सैकड़ों बोलियाँ रे।
जब दुखी प्राणों से करता तुम्हारी याचना
सभी आस-पास खड़े हो कर देते हैं आड़,
धरती की धूल उसी कारण लिए हूँ -
मिलती नहीं चरण-धूलि रे।
सैकड़ों भाग मेरे सैकड़ों तरफ दौड़ते,
आपस में ही खड़े करते विवाद,
किसको सँभालूँ - यह कैसी मुसीबत है -
अकेला हूँ, वे अनेक हैं रे ।
मुझे एक बना दो, बाँध अपने प्रेम में,
दिखाओ मुझे एक अविच्छिन्न मार्ग,
भँवर के बीच गिर कितना मैं रोऊँ -
चरणों में ले लो रे।
ध्रुव के मुँह से तोतली बोली में यह कविता सुन कर बिल्वन ठाकुर एकदम विगलित हो गया। बोला, "आशीर्वाद देता हूँ, तुम चिरंजीवी होओ।"
ठाकुर ने ध्रुव को गोदी में उठा कर बहुत विनती करते हुए कहा, "एक बार और सुनाओ।"
ध्रुव ने दृढ़ मौन के द्वारा आपत्ति प्रकट की। पुरोहित आँखें ढक कर बोला, "तो, मैं रोऊँगा।"
ध्रुव ने थोड़ा विचलित होकर कहा, "कल सुनाऊँगा, छी रोते नहीं हैं। तुमि एकन बाई (बाड़ी) जाओ। बाबा मा'बे।" तुम अब घर जाओ। पिताजी पिटाई करेंगे।)
बिल्वन ने हँसते हुए कहा, "मधुर गलाधॉक्का।" (अर्थात मीठी- मीठी बातें करते हुए गर्दन पकड़ कर बाहर धकेल देना।)
पुरोहित ठाकुर राजा से विदा लेकर रास्ते में निकल आया।
रास्ते में दो पथिक जा रहे थे। एक दूसरे से कह रहा था, "तीन दिन से उसके दरवाजे पर सिर फोड़ रहा हूँ, एक पैसा नहीं निकलवा पाया - अब वह रास्ते में निकला, तो उसका सिर फोड़ दूँगा, देखता हूँ, उससे क्या होता है!"
बिल्वन ने पीछे से कहा, "उसका भी कोई फल नहीं निकलेगा। भैया, देख ही तो रहे हो, खोपड़ी में बुद्धि जरा-सी भी नहीं, केवल दुर्बुद्धि है। बल्कि अपना सिर फोड़ना ज्यादा अच्छा है, किसी को जवाब नहीं देना पड़ता।"
दोनों पथिकों ने भौचक्के होकर हड़बड़ाते हुए ठाकुर को प्रणाम किया। बिल्वन ने कहा, "भैया, तुम लोग जो कह रहे थे, वह सब अच्छी बात नहीं है।"
दोनों पथिक बोले, "ठाकुर जैसी आज्ञा, ऐसी बात और नहीं कहेंगे।"
पुरोहित ठाकुर को रास्ते में बालकों ने घेर लिया। उसने कहा, "आज शाम को मेरे यहाँ आना, मैं कहानी सुनाऊँगा।" बालकों ने आनंद में धमाचौकड़ी और शोरगुल मचा दिया। बिल्वन ठाकुर कभी-कभी अपराह्न में राज्य के बालकों को इकट्ठा करके सहज भाषा में रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाएँ सुनाता था। बीच-बीच में एक-दो नीरस कथाएँ भी यथा-साध्य सरस बना कर सुनाने की कोशिश करता था। लेकिन जब देखता था कि बालकों की जमुहाई संक्रामक हो उठी है, तो उन्हें मंदिर के बगीचे में छोड़ देता था। वहाँ फलों के असंख्य पेड़ हैं। सारे बालक आकाशभेदी शोर मचाते हुए बानरों की भाँति डाल-डाल पर लूटपाट मचा देते थे - बिल्वन इस आमोद को देखता था।
बिल्वन कौन-से देश का है, कोई नहीं जानता। ब्राह्मण है, लेकिन जनेऊ त्याग दिया है। बलि आदि बंद करके एक प्रकार के नवीन अनुष्ठान से देवी-पूजा करता है - लोगों ने पहले-पहले उसमें संदेह और आपत्ति प्रकट की थी, किन्तु अब सब सहनीय हो गया है। विशेषकर सभी बिल्वन की बातों के वशीभूत हो गए हैं। बिल्वन सभी के घर-घर जाकर सभी के साथ बातचीत करता है, सभी के कुशल-समाचार लेता है, और रोगी को जो दवा देता है, वह आश्चर्यजनक रूप से लग जाती है। आपद-बिपद में सभी उसके परामर्शानुसार काम करते हैं। वह बीच में पड़ कर किसी का झगड़ा सुलझा देता है अथवा किसी बात का समाधान कर देता है, तो उसके ऊपर कोई कुछ बात नहीं बोलता।
तीसवाँ परिच्छेद


इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधिकतर खा डाला - राज्य में हाहाकार मच गया। देखते-ही-देखते अकाल पड़ गया। लोग जंगल से कंदमूल इकट्ठे करके जान बचाने लगे। जंगलों की कमी नहीं और जंगल में मिट्टी से उत्पन होने वाली तरह-तरह की खाने योग्य चीजें भी हैं। शिकार से मिलने वाला मांस बाजार में ऊँचे दामों पर बिकने लगा। लोग जंगली भैंसे, हिरन, खरगोश, साही, गिलहरी, सूअर, बड़े-बड़े स्थल-कछुओं का शिकार करके खाने। हाथी मिलने पर हाथी भी खा जाते - अजगर साँप खाने लगे - जंगल में खाने योग्य पक्षियों का अभाव नहीं - पेड़ों के कोटरों में मधुमक्खियाँ और शहद मिल जाता है - जगह-जगह नदी के पानी पर बन्दा लगा कर उसमें नशीली लताएँ डाल देने से मछलियाँ अवश होकर ऊपर बहने लगती हैं, लोग उन सब मछलियों को पकड़ कर खाने लगे और सुखा कर इकट्ठा करने लगे। अभी भी किसी तरह भोजन तो चल रहा था, किन्तु बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। जगह-जगह चोरी-डकैती शुरू हो गई, प्रजा-जनों में विद्रोह के लक्षण दिखाई देने लगे।
वे कहने लगे, "माँ की बलि बंद कर देने से माँ के अभिशाप के कारण ये सब दुर्घटनाएँ घटनी आरम्भ हो गई हैं।" बिल्वन ठाकुर ने उस बात को हँसी में उड़ा दिया। उसने उपहास के व्याज से कहा, "कैलास पर कार्तिक और गणेश के बीच भाईचारा टूट गया है, इसी कारण गणेश के चूहे कार्तिक के मयूर के विरुद्ध शिकायत करने के लिए त्रिपुरा की त्रिपुरेश्वरी के पास आए हैं।" प्रजा-जनों ने इस बात को कोरे उपहास के रूप में ग्रहण नहीं किया। उन्होंने देखा, बिल्वन ठाकुर की बात के अनुसार चूहों का रेला जिस तेजी से आया था, उसी तेजी से समस्त फसल नष्ट करके पता नहीं कहाँ अंतर्ध्यान भी हो गया - तीन दिन के भीतर उनका निशान तक नहीं बचा। किसी को भी बिल्वन ठाकुर के अगाध ज्ञान के बारे में संदेह नहीं रहा। कैलास पर भाईचारा भंग होने के सम्बन्ध में गीत रचे जाने लगे, युवक-युवतियाँ भिक्षुक उन गीतों को गाने लगे, गली-घाट पर वे गीत प्रचलित हो गए।
लेकिन राजा के प्रति विद्वेष का भाव अच्छी तरह नहीं मिट पाया। बिल्वन ठाकुर की सलाह पर गोविन्दमाणिक्य ने दुर्भिक्ष-ग्रस्त किसानों का एक बरस का लगान माफ कर दिया। उसका कुछ फल हुआ। लेकिन फिर भी अनेक लोग माँ के अभिशाप से बचने के लिए चट्टग्राम के पार्वत्य प्रदेश में पलायन कर गए। यहाँ तक कि राजा के मन में भी संदेह पैदा होने लगा।
उन्होंने बिल्वन को बुला कर कहा, "ठाकुर, राजा के पापों से ही प्रजा कष्ट भोगती है। क्या मैंने माँ की बलि बंद करके पाप किया है? यह क्या उसी का दण्ड है?"
बिल्वन ने सारी बात एकदम से उड़ा दी। बोला, "जब माँ के सामने हजारों नरबलियाँ होती थीं, तब आपकी प्रजा का अधिक नुकसान होता रहा है अथवा इस दुर्भिक्ष में अधिक हुआ है?"
राजा निरुत्तर हो रहे, किन्तु उनके मन से संशय पूरी तरह दूर नहीं हुआ। प्रजा उनसे असंतुष्ट हो गई है, उन पर संदेह प्रकट कर रही है, इससे उनके हृदय को आघात पहुँचा, उनमें अपने प्रति भी संदेह उत्पन्न हो गया। वे निश्वास छोड़ते हुए बोले, "कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ।"
बिल्वन ने कहा, "अधिक समझने की आवश्यकता क्या है! इतने सारे चूहे आकर फसल क्यों खा गए, यह समझ में नहीं आया । किन्तु मैं अन्याय नहीं करूँगा, मैं सभी का हित करूँगा, इतना-सा ही साफ-साफ समझना काफी है। उसके बाद विधाता का काम विधाता करेंगे, वे हम लोगों को हिसाब देने नहीं आएँगे।"
राजा ने कहा, "ठाकुर, तुम घर-घर जाकर अविश्राम कार्य कर रहे हो, संसार का जितना-सा हित कर रहे हो, उतना ही वह तुम्हारा पुरस्कार होता जा रहा है, इस आनंद में तुम्हारा सम्पूर्ण संशय मिट जाता है। मैं दिन-रात केवल एक मुकुट सिर पर बाँध कर सिंहासन पर चढ़ कर बैठा रहता हूँ, केवल थोड़ी-सी चिंताएँ गले में लटकाए हुए हूँ - तुम्हारा कार्य देख कर मुझे लोभ होता है।"
बिल्वन ने कहा, "महाराज, मैं आपका ही तो एक अंश हूँ। आप इस सिंहासन पर न बैठे होते, तो क्या मैं कार्य कर पाता! आप और मैं मिल कर ही हम दोनों सम्पूर्ण हुए हैं।"
यह कह कर बिल्वन ने विदा ली, राजा सिर पर मुकुट बाँध कर सोचने लगे। मन-ही-मन बोले, 'मेरा बहुत काम पड़ा हुआ है, मैं उसमें से कुछ भी नहीं करता। मैं केवल अपनी चिन्ता में निश्चिन्त बना हुआ हूँ। उसी कारण मैं प्रजा-जनों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाता। मैं राज्य-शासन के योग्य नहीं हूँ।'
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Re: उपन्यास - राजर्षि रवींद्रनाथ टैगोर

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इकतीसवाँ परिच्छेद
नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।"
रघुपति के मुँह से सहसा महाराज शब्द अत्यंत मधुर सुनाई पड़ा। नक्षत्रराय उल्लसित हो उठा। वह कल्पना में संसार के सभी लोगों के मुँह से महाराज संबोधन सुनने लगा। मन-ही-मन त्रिपुरा के उच्च सिंहासन पर चढ़ कर सभा को शोभायमान करते हुए बैठ गया। मन के आनंद में बोला, "ठाकुर, आपको कभी भी छोड़ा नहीं जाएगा। आपको राजा-सभा में रहना होगा। आप क्या चाहते हैं, वही मुझसे कहिए।"
नक्षत्रराय ने उसी समय अनायास मन-ही-मन एक विशाल जागीर रघुपति को दान कर दी।
रघुपति ने कहा, "मुझे कुछ नहीं चाहिए।"
नक्षत्रराय ने कहा, "यह क्या बात हुई? ठाकुर, वह नहीं होगा। कुछ लेना ही पड़ेगा। कयलासर परगना मैंने आपको दिया - आप लिखा-पढ़ी करवा लीजिए।"
रघुपति ने कहा, "वह सब बाद में देखा जाएगा।"
रघुपति ने कहा, "बाद में क्यों, मैं अभी दूँगा। सम्पूर्ण कयलासर परगना आपका हुआ; मैं एक पैसा लगान नहीं लूँगा।"
कहते हुए नक्षत्रराय सिर उठा कर एकदम सीधा होकर बैठ गया।
रघुपति ने कहा, "मरने पर तीन हाथ जमीन मिल जाए, तो ही खुश हो जाऊँगा। मैं और कुछ नहीं चाहता।" कह कर रघुपति चला गया। उसे जयसिंह की याद आई। अगर जयसिंह रहता, तो पुरस्कार के रूप में कुछ लेता - जब जयसिंह ही नहीं रहा, तो सम्पूर्ण त्रिपुरा राज्य मिट्टी के ढेर के अतिरिक्त कुछ और प्रतीत नहीं हुआ।
रघुपति इन दिनों नक्षत्रराय को राज्याभिमान में मत्त बनाने की चेष्टा कर रहा है। सके मन में डर है कि कहीं इतनी तैयारी करके भी सब कुछ व्यर्थ न चला जाए, कहीं दुर्बल-स्वभाव नक्षत्रराय त्रिपुरा पहुँच कर युद्ध किए बिना ही राजा का बंदी न बन जाए! लेकिन दुर्बल हृदय में एक बार राज-मद उत्पन्न हो जाए, तो और सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ती। रघुपति नक्षत्रराय के प्रति और अवज्ञा नहीं दिखाता, उसके प्रति बात-बात में सम्मान प्रदर्शित करता रहता है। हर विषय में उसका मौखिक आदेश लेता है। उसे मुगल सैनिक महाराजा साहब संबोधित करते हैं, उसे देखते ही हड़बड़ा उठते हैं - जिस प्रकार हवा चलने पर सारी फसल झुक जाती है, उसी प्रकार नक्षत्रराय के आकर खड़ा होते ही कतारबद्ध मुगल सैनिक एक साथ सिर झुका कर सलाम करते हैं। सेनापति उसे शीघ्रतापूर्वक सम्मान के साथ अभिवादन करता है। वह सैकड़ों-सैकड़ों खुली तलवारों की चमक के बीच विशालकाय हाथी की पीठ पर रखे स्वर्ण मण्डित, राजचिह्न अंकित हौदे पर चढ़ कर यात्रा करता है, उल्लासजनक बाजा साथ-साथ बजता रहता है - पताकाधारी साथ-साथ राज-पताका लिए चलते हैं। वह जहाँ से होकर गुजरता है, वहाँ के ग्रामवासी सैनिकों के भय से घरबार छोड़ कर भाग जाते हैं। उनका भय देख कर नक्षत्रराय के मन में गर्व उत्पन्न होता है। उसे लगता है, 'मैं दिग्विजय करते हुए चल रहा हूँ।' छोटे-छोटे जमींदार तरह-तरह के उपहार भेंट करके उसे सलाम कर जाते हैं - वे परिजित राजाओं जैसे प्रतीत होते हैं; महाभारत के दिग्विजयी पाण्डवों की बात याद आती है।
एक दिन सैनिक आकर सलाम करके बोले, "महाराजा साहब!"
नक्षत्रराय सीधा होकर बैठ गया।
"हम लोग महाराज के लिए जान देने आए हैं - हम प्राणों की परवाह नहीं करते। हमारा हमेशा का दस्तूर है, युद्ध में जाने के मार्ग में हम गाँव लूटते हुए जाते हैं - इसे किसी शास्त्र में दोष नहीं बताया गया है।"
नक्षत्रराय ने गर्दन हिला कर कहा, "ठीक बात है, ठीक बात है।"
सैनिक बोले, "ब्राह्मण-ठाकुर ने हमें लूट करने से मना कर दिया है। हम जान देने जा रहे हैं, किन्तु जरा-सी लूट भी नहीं कर पाएँगे, यह बड़ा अन्याय है।"
नक्षत्रराय ने फिर से गर्दन हिला कर कहा, "ठीक बात है, ठीक बात है।"
"अगर महाराज का हुकुम मिले, तो हम लोग ब्राह्मण-ठाकुर की बात न मान कर लूट करने जाएँ!"
नक्षत्रराय ने बड़े दर्प के साथ कहा, "ब्राह्मण-ठाकुर कौन है! ब्राह्मण-ठाकुर क्या जानता है! मैं तुम लोगों को हुकुम देता हूँ, तुम लूटपाट करने जाओ।"
कह कर एक बार इधर-उधर ताक कर देखा, कहीं भी रघुपति को न देख कर निश्चिन्त हुआ।
लेकिन इस प्रकार निश्शंक भाव से रघुपति की उपेक्षा करके वह मन-ही-मन अत्यधिक आनंदित हुआ। उसकी शिरा-शिरा में शक्ति-मद मदिरा के समान बहने लगा। संसार को नवीन दृष्टि से देखने लगा। कल्पना के बैलून पर चढ़ कर जैसे पृथिवी बहुत नीचे उड़ने वाले मेघों के समान अदृश्य हो गई। यहाँ तक कि बीच-बीच में कभी-कभी उसे रघुपति भी नगण्य लगने लगा। सहसा ताकत के साथ गोविन्दमाणिक्य पर अत्यधिक क्रोधित हो उठा। बार-बार मन-ही-मन कहने लगा, 'मेरा निर्वासन! एक साधारण प्रजा-जन के समान मुझे न्याय-सभा में बुलाना! अब देखता हूँ, कौन किसे निर्वासित करता है! इस बार त्रिपुरावासी नक्षत्रराय का प्रताप देखेंगे।'
नक्षत्रराय खुशी और घमण्ड से फूल गया।
निरीह ग्रामवासियों के अनर्थक उत्पीड़न और लूटपाट से रघुपति अत्यंत असंतुष्ट था। उसने रोकने की बहुत कोशिशें कीं। किन्तु सैनिकों ने नक्षत्रराय की आज्ञा पाकर उसकी अवहेलना कर दी। वह नक्षत्रराय के पास आकर बोला, "असहाय ग्रामवासियों पर यह अत्याचार क्यों!"
नक्षत्रराय ने कहा, "ठाकुर, ये सब विषय आप अच्छी तरह नहीं समझते। युद्ध-काल में सैनिकों को लूटपाट का निषेध करके निरुत्साहित करना अच्छा नहीं है।"
रघुपति नक्षत्रराय की बात सुन कर थोड़ा अचंभित हुआ। सहसा नक्षत्रराय का श्रेष्ठताभिमान देख कर वह मन-ही-मन हँसा। बोला, "अभी लूटपाट करने देकर बाद में इन्हें सँभाल पाना कठिन होगा। समस्त त्रिपुरा लूट लेंगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "उसमें हानि क्या है? मैं तो वही चाहता हूँ। त्रिपुरा एक बार समझे, नक्षत्रराय को निर्वासित करने का क्या फल होता है! ठाकुर, ये सारी बातें आप बिल्कुल नहीं समझते - आपने तो कभी युद्ध किया नहीं।"
रघुपति ने मन-ही-मन बड़ा आनंद अनुभव किया। लेकिन उत्तर दिए बिना ही चला गया। नक्षत्रराय नितांत पुतली जैसा न होकर थोड़ा कठोर मनुष्य के समान बन जाए, यही उसकी इच्छा थी।
बत्तीसवाँ परिच्छेद
जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में जब निचले खेतों में धान काटने का समय आया, तो देश में आनंद मच गया। किसान (रवींद्रनाथ टैगोर की टिप्पणी : वास्तव में इन लोगों को किसान नहीं कहा जा सकता। कारण, ये विधान के अनुसार खेती नहीं करते। जंगल जला कर बरसात के प्रारम्भ में केवल बीज डाल देते हैं। इस प्रकार के खेत को जूम कहा जाता है, खेती करने वालों को जूमिया बोला जाता है।) स्त्रियाँ, बालक, युवक वृद्ध, सभी मिल कर हाथों में हँसिया लिए खेतों में जा पहुँचे। हैया हैया की ध्वनि के साथ एक-दूसरे को उत्साहित करने लगे। जूमिया रमणियों के गीतों से खेत-खलिहान गूँज उठे। राजा के प्रति असंतोष दूर हो गया - राज्य में शान्ति छा गई। ऐसे समय समाचार आया, नक्षत्रराय राज्य पर आक्रमण करने के उद्देश्य से भारी संख्या में सैनिक लेकर त्रिपुरा राज्य की सीमा पर आ पहुँचा है और बहुत लूटपाट तथा उत्पीड़न आरम्भ कर दिया है - इस समाचार से सम्पूर्ण राज्य भयभीत हो उठा।
इस समाचार ने राजा के हृदय को छुरी के समान बींध डाला। पूरे ही दिन बींधता रहा। उन्हें रह-रह कर हर बार नए रूप में अनुभव होने लगा, नक्षत्रराय उन पर आक्रमण करने आ रहा है। नक्षत्रराय का सरल सुन्दर चेहरा सैकड़ों-सैकड़ों बार उनकी स्नेहभरी आँखों के सम्मुख दिखाई पडने लगा और उसी के साथ महसूस होने लगा, वही नक्षत्रराय कितने सारे सैनिक इकट्ठे करके तलवार हाथ में लिए उन पर आक्रमण करने आ रहा है। एक-एक बार उनके मन में इच्छा होने लगी, एक भी सैनिक लिए बिना विशाल रण-क्षेत्र में नक्षत्रराय के सामने अकेले खड़े होकर पूरी छाती खोल कर नक्षत्रराय के हजारों सैनिकों की तलवारें एक ही साथ अपनी छाती में भुँकवा लें।
वे ध्रुव को निकट खींच कर बोले, "ध्रुव, क्या तू भी इस मुकुट के लिए मेरे साथ झगड़ा कर सकता है?" कहते हुए मुकुट जमीन पर फेंक दिया, एक बड़ा मोती टूट कर बिखर गया।
ध्रुव ने उत्सुकता के साथ हाथ बढ़ा कर कहा, "मैं लूँगा।"
राजा ने ध्रुव के सिर पर मुकुट रख कर उसे गोद में लेकर कहा, "यह ले - मैं किसी के साथ झगड़ा करना नहीं चाहता।" कहते हुए बहुत आवेग में ध्रुव को छाती में भींच लिया।
उसके बाद राजा पूरे दिन 'यह केवल मेरे ही पाप का दण्ड है' कह कर अपने साथ तर्क-वितर्क करते रहे। अन्यथा भाई कभी भाई पर आक्रमण नहीं करता। यह सोच कर उन्हें थोड़ी-सी सांत्वना प्राप्त हुई। उन्होंने सोचा, यही ईश्वर का विधान है। जगतपति के दरबार से आदेश आया है, नक्षत्रराय केवल अपने मानव-हृदय के उत्साह में उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यह सोच कर उनके आहत स्नेह को किंचित शान्ति मिली। पाप वे अपने कन्धों पर लेने को तैयार हैं - मानो उससे नक्षत्रराय के पाप का भार कुछ कम हो जाएगा।
बिल्वन ने आकर कहा, "महाराज, यह क्या आकाश की ओर ताकते हुए सोचते रहने का है?"
राजा ने कहा, "ठाकुर, यह सब मेरे ही पाप का फल है।"
बिल्वन थोड़ा नाराज होकर बोला, "महाराज, यह सब बात सुन कर मेरा धैर्य चुक जाता है। किसने कहा, दुःख पाप का ही फल होता है, पुण्य का फल भी तो हो सकता है। कितने ही धर्मात्मा पूरा जीवन दुःख में बिता कर गए हैं।"
राजा निरुत्तर हो रहे।
बिल्वन ने पूछा, "महाराज ने कौन-सा पाप किया था, जिसके फलस्वरूप यह घटना घटी?"
राजा ने कहा, "अपने भाई को निर्वासित किया था।"
बिल्वन ने कहा, "आपने भाई को निर्वासित नहीं किया है। दोषी को निर्वासित किया है।"
राजा ने कहा, "दोषी होते हुए भी भाई के निर्वासन का पाप तो है ही। उसके परिणाम से तो बचा नहीं जा सकता। कौरव दुराचारी होते हुए भी पाण्डव उनका वध करके प्रसन्न चित्त राज-सुख भोग नहीं कर सके। यज्ञ करके प्रायश्चित किया। पाण्डवों ने कौरवों से राज्य ले लिया, कौरवों ने मर कर पाण्डवों का राज्य हरण कर लिया। मैंने नक्षत्र को निर्वासित किया, नक्षत्र मुझे निर्वासित करने आ रहा है।"
बिल्वन ने कहा, "पाण्डवों ने पाप का दण्ड देने के लिए कौरवों के साथ युद्ध नहीं किया, उन्होंने राज्य-प्राप्ति के लिए युद्ध किया था। किन्तु महाराज ने पाप का दण्ड देकर अपने सुख-दुःख की उपेक्षा करके धर्म का पालन किया था। मुझे तो इसमें कोई पाप दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसके बावजूद प्रायश्चित का विधान देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं ब्राह्मण उपस्थित हूँ, मुझे संतुष्ट कर देने भर से प्रायश्चित हो जाएगा।"
राजा थोड़ा हँस कर चुप हो गए।
बिल्वन ने कहा, "जो हो, अब युद्ध की तैयारी कीजिए। और विलम्ब मत कीजिए।"
राजा ने कहा, "मैं युद्ध नहीं करूँगा।"
बिल्वन ने कहा, "वह हो ही नहीं सकता। आप बैठे-बैठे सोचिए। मैं तब तक सैनिक इकट्ठे करने की कोशिश करता हूँ। इस समय सभी जूम में गए हैं, पर्याप्त सैनिक मिलना कठिन है।"
इतना कह कर बिल्वन और किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया।
पता नहीं, अचानक ध्रुव के मन में क्या आया; उसने राजा के निकट आकर उनके मुँह की ओर ताकते हुए पूछा, "चाचा कहाँ है?"
ध्रुव नक्षत्र को चाचा कहता था।
राजा ने कहा, "चाचा आ रहा है, ध्रुव।"
उनकी पलकें थोड़ी गीली हो आईं।
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Re: उपन्यास - राजर्षि रवींद्रनाथ टैगोर

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तैंतीसवाँ परिच्छेद
बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रार्थना की। वे लोग युद्ध का नाम सुनते ही नाच उठे। कुकियों के जितने लाल (ग्रामपति) थे, उन्होंने युद्ध के समाचारस्वरूप लाल कपड़े में बँधे दाव दूतों के हाथों गाँव-गाँव भेज दिए। देखते ही देखते कुकियों का रेला चट्टग्राम की पहाड़ी चोटियों से त्रिपुरा की पर्वत-चोटियों में आ पहुँचा। उन्हें किसी नियम में नियंत्रित करके रखना कठिन होता है। बिल्वन स्वयं त्रिपुरा के गाँव-गाँव जाकर जूम से चुन-चुन कर साहसी युवा पुरुषों को सैनिकों के दल में इकट्ठा करके ले आया। बिल्वन ठाकुर ने आगे बढ़ कर मुगल सैनिकों पर आक्रमण करना उचित नहीं समझा। जब वे समतल भूमि को पार करके अपेक्षाकृत दुर्गम पहाड़ी चोटियों में आ पहुँचेंगे, तब जंगल, पहाड़ और नाना दुर्गम गुप्त मार्गों से सहसा आक्रमण करके उन लोगों को त्रस्त करने का निश्चय किया। बड़े-बड़े शिला-खण्डों से गोमती के जल पर बाँध लगा दिया गया - नितांत पराजय की आशंका देखने पर उसी बाँध को तोड़ कर बाढ़ में मुगल सैनिकों को बहाया जा सकेगा।
इधर नक्षत्रराय देश में लूट मचाते-मचाते त्रिपुरा के पहाड़ी-क्षेत्र में आ पहुँचा। उस समय जूम-कटाई समाप्त हो गई थी। सभी जूमिया हाथों में धनुष-बाण और दाव लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। उच्छ्वासोन्मुख जल-प्रपात के समान कुकी-दल को और बाँध कर नहीं रखा जा सकता था।
गोविन्दमाणिक्य बोले, "मैं युद्ध नहीं करूँगा।"
बिल्वन ठाकुर ने कहा, "यह कोई काम की बात ही नहीं है।"
राजा ने कहा, "मैं शासन करने योग्य नहीं हूँ; सारे उसी के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। उसी कारण मुझमें प्रजा का विश्वास नहीं है, उसी की वजह से दुर्भिक्ष की सूचना, उसी के चलते यह युद्ध। यह सब राज्य के परित्याग के लिए भगवान का आदेश है।"
बिल्वन ने कहा, "यह कभी भी भगवान का आदेश नहीं है। ईश्वर ने आप पर राज्य-भार अर्पित किया है; जितने दिन राज-कार्य नि:संकट था, उतने दिन अपना सहज कर्तव्य अनायास पालन किया, जैसे ही राज्य-भार गुरुतर हो उठा, वैसे ही आप उसे दूर फेंक कर स्वाधीन होना चाहते हैं और ईश्वर का आदेश बता कर अपने को धोखा देकर सुखी बनाना चाहते हैं।"
बात गोविन्दमाणिक्य के मन में लग गई। वे थोड़ी देर निरुत्तर बैठे रहे। अंतत: नितांत कातर होकर बोले, "बुरा मत मानना ठाकुर, मेरी पराजय हो गई है, नक्षत्र मेरा वध करके राजा बन गया है।"
बिल्वन ने कहा, "यदि वास्तव में वैसा ही घटे, तो मैं महाराज के लिए शोक नहीं करूँगा। किन्तु यदि महाराज कर्तव्य को छोड़ कर पलायन करेंगे, तो हम लोगों के लिए शोक का कारण होगा।"
राजा ने थोड़ा अधीर होकर कहा, "अपने ही भाई का खून बहाऊँ!"
बिल्वन ने कहा, "कर्तव्य के सामने भाई, बंधु कोई नहीं होता। कुरुक्षेत्र में युद्ध के अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्या उपदेश दिया था, स्मरण करके देखिए।"
राजा ने कहा, "ठाकुर, क्या तुम कह रहे हो, मैं अपने हाथ में तलवार लेकर नक्षत्रराय पर वार करूँ!"
बिल्वन ने कहा, "हाँ।"
सहसा ध्रुव आकर गंभीर मुद्रा में बोला, "छी वैसी बात नहीं बोलते।"
ध्रुव खेल रहा था, दोनों पक्षों में कुछ कहा-सुनी सुन कर अचानक उसके मन में आया कि अवश्य ही दोनों लोग कोई दुष्टता कर रहे हैं, अतएव समय रहते दोनों को थोड़ा-सा डाँट-फटकार आना आवश्यक है। यही सब विचार करके वह हठात आकर गर्दन हिलाते हुए बोला, "छी वैसी बात नहीं बोलते।"
पुरोहित ठाकुर को बड़ा आनंद अनुभव हुआ। वह हँस पड़ा, ध्रुव को गोदी में उठा कर चूमने लगा। लेकिन राजा नहीं हँसे। उन्हें लगा, मानो बालक के मुँह से उन्होंने दैव-वाणी सुनी है।
वे असंदिग्ध स्वर में बोल पड़े, "ठाकुर, मैंने निश्चय किया है, मैं यह रक्तपात नहीं होने दूँगा, मैं युद्ध नहीं करूँगा।"
बिल्वन ठाकुर थोड़ी देर चुप रहा। अंत में बोला, "यदि महाराज को युद्ध करने में ही आपत्ति है, तो और एक काम कीजिए। आप नक्षत्रराय से भेंट करके उन्हें युद्ध करने से रोकिए।"
गोविन्दमाणिक्य ने कहा, "इसके लिए मैं सहमत हूँ।"
बिल्वन ने कहा, "तब उसी प्रकार का प्रस्ताव लिख कर नक्षत्रराय के पास भेजा जाए।"
अंतत: वही तय हुआ।
चौंतीसवाँ परिच्छेद
नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुधा और भी बढ़ने लगी, चतुर्दिक फैले खेत, ग्राम, पर्वत-श्रेणियाँ, नदी, सभी कुछ 'मेरा है' के रूप में अनुभव होने लगा तथा उसी अधिकार-विस्तार के साथ-साथ स्वयं भी जैसे बहुत दूर तक फैल कर अत्यधिक मजबूत होने लगा। मुगल सैनिकों ने जैसा चाहा, उसने बेरोकटोक उन्हें वैसा ही हुकुम दे दिया। सोचा, यह सभी मेरा है और ये लोग मेरे ही राज्य में आ पहुँचे हैं। इन्हें किसी प्रकार के सुख से वंचित नहीं करना है - मुगल अपने देश में लौट कर उसके आतिथ्य और राजावत उदारता और दानशीलता की बहुत प्रशंसा करेंगे; कहेंगे, 'त्रिपुरा का राजा कोई छोटामोटा राजा नहीं है।' मुगल सैनिकों में अपने को प्रसिद्ध करने के लिए वह हमेशा उत्सुक रहता है। उन लोगों के द्वारा किसी प्रकार की श्रुति-मधुर बातचीत करने से वह एकदम पिघल जाता है। हमेशा डर बना रहता है कि कहीं किसी प्रकार की बदनामी का कारण न घट जाए!
रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, युद्ध की तो कोई तैयारी दिखाई नहीं पड़ रही है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "नहीं ठाकुर, भयभीत हो गया है।"
कहते हुए ठठा कर हँसने लगा।
रघुपति ने हँसने का विशेष कोई कारण नहीं देखा, लेकिन फिर भी हँसा।
नक्षत्रराय ने कहा, "नक्षत्रराय नवाब के सैनिक लेकर आ रहा है। बहुत आसान मामला नहीं है।"
रघुपति ने कहा, "देखूँ, इस बार कौन किसे निर्वासन में भेजता है! कैसे?"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं चाहूँ, तो निर्वासन का दण्ड दे सकता हूँ, कारागार में भी बंदी कर सकता हूँ - वध की आज्ञा भी दे सकता हूँ। अभी निश्चित नहीं किया है, कौन-सा करूँगा।"
कह कर भारी जानकार की मुद्रा में बहुत विवेचना करने लगा।
रघुपति ने कहा, "महाराज, इतना मत सोचिए। अभी काफी समय है। किन्तु मुझे भय हो रहा है, गोविन्दमाणिक्य युद्ध किए बिना ही आपको पराजित कर देंगे।"
नक्षत्रराय ने कहा, "वह कैसे होगा?"
रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य सैनिकों को आड़ में रख कर भारी भ्रातृ-स्नेह दिखाएँगे। गले लगा कर कहेंगे - मेरे छोटे भाई, आओ घर आओ, दूध-मलाई खाओ। महाराज रोकर कहेंगे - जो आज्ञा, मैं अभी चल रहा हूँ। अधिक विलम्ब नहीं होगा। कह कर नागरा जूता पैरों में डाल कर बड़े भाई के पीछे-पीछे छोटे भाई सिर झुकाए टट्टू घोड़े की तरह चल देंगे। बादशाह की मुगल फ़ौज तमाशा देख कर हँसते हुए घर लौट जाएगी।"
नक्षत्रराय रघुपति के मुँह से यह पैना व्यंग्य सुन कर बहुत दुखी हो गया। थोड़ा हँसने की निष्फल चेष्टा करके बोला, "मुझे उन्होंने क्या बच्चा समझा है, जो इस तरह से बहकाएँगे! उसका कोई मौका नहीं आएगा। वह नहीं होगा ठाकुर। देख लेना।"
उसी दिन गोविन्दमाणिक्य की चिट्ठी आ पहुँची। उसे रघुपति ने खोल लिया। राजा ने अत्यंत स्नेह प्रकट करके साक्षात प्रार्थना की है। चिट्ठी नक्षत्रराय को नहीं दिखाई। दूत से कह दिया, "गोविन्दमाणिक्य को कष्ट उठा कर इतनी दूर आने की आवश्यकता नहीं है। महाराज नक्षत्रमाणिक्य सैनिक और तलवार लेकर शीघ्र ही उनके साथ भेंट करेंगे। गोविन्दमाणिक्य इस अल्प अवधि में प्रिय भाई के विरह में अधिक व्याकुल न हों। आठ बरस का निर्वासन होने पर इसकी अपेक्षा और अधिक समय के अलगाव की संभावना थी।"
रघुपति ने नक्षत्रराय के पास जाकर कहा, "गोविन्दमाणिक्य ने निर्वासित छोटे भाई को एक अत्यंत स्नेहपूर्ण चिट्ठी लिखी है।"
नक्षत्रराय परम उपेक्षा का दिखावा करते हुए हँस कर बोला, "सचमुच क्या! कैसी चिट्ठी? देखूँ तो कहाँ है?" बोल कर हाथ बढ़ा दिया।
रघुपति ने कहा, "मैंने वह चिट्ठी महाराज को दिखाना आवश्यक नहीं समझा। इसीलिए उसी समय फाड़ कर फेंक दी। कह दिया, युद्ध के अलावा इसका और कोई उत्तर नहीं है।"
नक्षत्रराय हँसते-हँसते बोला, "बहुत अच्छा किया, ठाकुर। तुमने कह दिया, युद्ध के अलावा और कोई उत्तर नहीं है? सही उत्तर दिया है।"
रघुपति ने कहा, "गोविन्दमाणिक्य उत्तर सुन कर सोचेगा, जब निर्वासन दिया था, तब तो भाई बड़ी सहजता से चला गया था, लेकिन वही भाई घर लौटते समय कम गड़बड़ नहीं कर रहा है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "सोचेंगे, भाई बड़ा सरल आदमी नहीं है। मन में आते ही जिसकी जब इच्छा हो, निर्वासन दे देगा और जब इच्छा हो, बुला लेगा, वह होने वाला नहीं है।"
कहते हुए अत्यधिक आनंद में दूसरी बार हँसने लगा।


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पैंतीसवाँ परिच्छेद
गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोहित ने कहला भेजी है। नक्षत्रराय के मुँह से कभी भी ऐसी बात नहीं निकल सकती।"
बिल्वन ने कहा, "महाराज, अब क्या उपाय सोचा है?"
राजा ने कहा, "अगर मैं किसी प्रकार एक बार नक्षत्रराय से मिल सकूँ, तो सारा मामला सुलझा सकता हूँ।"
बिल्वन ने कहा, "और यदि मिलना न हो सके?"
राजा - "वैसा होने पर मैं राज्य छोड़ कर चला जाऊँगा।"
बिल्वन ने कहा, "अच्छा, मैं एक बार कोशिश करके देखता हूँ।"
पहाड़ के ऊपर नक्षत्रराय का शिविर। घना जंगल। बाँस-वन, बेंत-वन, टाँटल-वन। नाना प्रकार के लता-गुल्मों से ढकी धरती। सैनिक जंगली हाथियों के चलने वाले मार्ग का अनुसरण करके शिखर पर चढ़ गए। अपराह्न है। सूर्य पहाड़ के पश्चिमी भाग में ढुलक गया है। पूर्व दिशा में अंधकार हो गया है। गोधूलि की छाया और वृक्षों की छाया के मिल जाने से जंगल में असमय संध्या उतर आई है। शीतकालीन संध्या के समय भूमितल से कुहासे के समान वाष्प उठ रही है। झिल्ली की झंकार से निस्तब्ध वन मुखरित हो उठा है। बिल्वन के शिविर में पहुँचते-पहुँचते सूर्य पूरी तरह अस्ताचल को चला गया, किन्तु पश्चिमी आकाश में स्वर्ण-रेख विलीन नहीं हुई। पश्चिम की ओर वाली समतल घाटी में स्वर्णच्छाया-रंजित सघन वन निस्तब्ध हरे समुद्र के समान दिखाई पड़ रहा है। सैनिक कल सुबह कूच करेंगे। रघुपति एक झुण्ड सैनिक और सेनापति को साथ लेकर मार्ग की खोज में बाहर गया है, अभी लौटा नहीं है। यद्यपि रघुपति के संज्ञान में आए बिना किसी आदमी का नक्षत्रराय के पास आना मना था, तब भी संन्यासी वेशधारी बिल्वन को किसी ने नहीं रोका।
बिल्वन ने नक्षत्रराय के पास जाकर कहा, "महाराज गोविन्दमाणिक्य ने आपको याद किया है और पत्र लिखा है।" कहते हुए पत्र नक्षत्रराय के हाथ में थमा दिया। नक्षत्रराय ने काँपते हाथों से वह पत्र ले लिया। पत्र खोलते हुए उसे लज्जा और भय होने लगे। जितनी देर रघुपति गोविन्दमाणिक्य और उसके मध्य आड़ बना खड़ा रहता है, उतनी देर नक्षत्रराय बहुत निश्चिन्त रहता है। वह किसी भी तरह मानो गोविन्दमाणिक्य को देखना नहीं चाहता। गोविन्दमाणिक्य के इस दूत के एकदम से नक्षत्रराय के सम्मुख आ खड़े होते ही नक्षत्रराय जैसे किस तरह कुण्ठित हो गया, वह मन-ही-मन थोड़ा असंतुष्ट भी हुआ। इच्छा होने लगी, अगर रघुपति मौजूद रहता और इस दूत को उसके पास आने न देता! मन में बहुत इधर-उधर करने के बाद पत्र खोला।
उसमें जरा भी भर्त्सना नहीं थी। गोविन्दमाणिक्य ने उसे लज्जित करने वाली एक बात भी नहीं कही। भाई के प्रति जरा भी नाराजगी प्रकट नहीं की। नक्षत्रराय जो सैनिक-सामंत लेकर उन पर आक्रमण करने आया है, उस बात का उल्लेख तक नहीं किया। पूर्व में दोनों के बीच जैसा प्रेम था, मानो अभी भी अविकल वही प्रेम है। और भी, पूरे पत्र में एक सुगम्भीर स्नेह और विषाद छिपा हुआ है - वह किसी साफ बात के द्वारा व्यक्त न होने के कारण नक्षत्रराय के हृदय को बहुत चोट पहुँची।
चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते उसके चेहरे के भाव धीरे-धीरे बदलने लगे। देखते-देखते हृदय का पाषाणी-आवरण विदीर्ण हो गया। उसके कम्पायमान हाथ में चिट्ठी भी काँपने लगी। उस चिट्ठी को कुछ देर तक मस्तक से लगाए रखा। उस चिट्ठी में भाई का जो आशीर्वाद था, वह मानो शीतल निर्झर की भाँति उसके तप्त हृदय में झरने लगा। बहुत देर तक निश्चल होकर सुदूर पश्चिम में संध्या-राग-रक्त श्यामल वन-भूमि की ओर निर्निमेष दृष्टि से देखता रहा। चारों ओर निस्तब्ध संध्या अतल स्पर्शी शब्दहीन शांत समुद्र के समान जागती रही। धीरे-धीरे उसकी आँखों में नमी दिखाई देने लगी, फिर तेजी से आँसू बहने लगे। सहसा नक्षत्रराय ने लज्जा और पश्चात्ताप में दोनों हाथों से चेहरा ढक लिया।
रोते हुए बोला, "मुझे यह राज्य नहीं चाहिए। भैया, मेरा सारा अपराध क्षमा करके मुझे अपने चरणों में स्थान दीजिए, मुझे अपने साथ रख लीजिए, मुझे दूर मत भगाइए।"
बिल्वन ने एक बात भी नहीं कही - आर्द्र हृदय से चुपचाप बैठा देखता रहा। अंतत: जब नक्षत्रराय शांत हुआ, तब बिल्वन बोला, "युवराज, गोविदमाणिक्य आपकी राह देखते बैठे हैं, और विलम्ब मत कीजिए।"
नक्षत्रराय ने पूछा, "क्या वे मुझे क्षमा कर देंगे?"
बिल्वन ने कहा, "वे युवराज पर तनिक भी क्रोधित नहीं हैं।" अधिक रात हो जाने पर मार्ग में परेशानी होगी। शीघ्र ही एक अश्व लीजिए। पर्वत के नीचे महाराज के आदमी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मैं गुप्त रूप से पलायन करता हूँ, सैनिकों को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। और तिल भर देर करना उचित नहीं, जितनी जल्दी यहाँ से निकल चला जाए, उतना ही अच्छा है।"
बिल्वन ने कहा, "सही बात है।"
तिनमुड़ा पहाड़ पर संन्यासी के साथ शिवलिंग-पूजा हेतु जा रहा है, कह कर नक्षत्रराय बिल्वन के साथ घोड़े पर चढ़ कर चल पड़ा। अनुचरों ने साथ जाना चाहा, किन्तु उन्हें मना कर दिया।
बाहर निकले ही थे कि उसी समय घोड़ों के खुरों की आवाज और सैनिकों का कोलाहल सुनाई पड़ा। नक्षत्रराय एकदम से सकपका गया। देखते-देखते रघुपति सैनिक लेकर लौट आया। आश्चर्यचकित होकर कहा, "महाराज, कहाँ जा रहे हैं?"
नक्षत्रराय कोई उत्तर नहीं दे पाया। उसे निरुत्तर देख कर बिल्वन ने कहा, "महाराज गोविन्दमाणिक्य के साथ भेंट करने जा रहे हैं।"
रघुपति ने एक बार बिल्वन का आपादमस्तक निरीक्षण किया, एक बार भौंहें सिकोड़ीं, उसके बाद आत्म-संवरण करते हुए कहा, "आज ऐसे असमय हम अपने महाराज को विदा नहीं कर सकते। परेशान होने का तो कोई कारण नहीं है। कल प्रात:काल जाने में भी कोई बात नहीं है। क्या कहते हैं महाराज?"
नक्षत्रराय ने धीमी आवाज में कहा, "कल प्रात: ही जाऊँगा, आज रात हो गई है।"
बिल्वन ने निराश होकर वह रात शिविर में ही व्यतीत की। अगले दिन सुबह नक्षत्रराय के पास जाने की कोशिश की, सैनिकों ने रोक दिया। देखा, चारों ओर पहरा है, कहीं कोई अवकाश नहीं। अंत में रघुपति के पास जाकर कहा, "चलने का समय हो गया है, युवराज को सूचित कीजिए।"
रघुपति ने कहा, "महाराज ने न जाने का निश्चय किया है।"
बिल्वन ने कहा, "मैं एक बार उनसे भेंट करना चाहता हूँ।"
रघुपति - "भेंट नहीं होगी, उन्होंने कह दिया है।"
बिल्वन ने कहा, "महाराज गोविन्दमाणिक्य के पत्र का उत्तर चाहिए।"
रघुपति - "पत्र का उत्तर इसके पहले एक बार और दिया जा चुका है।"
बिल्वन - "मैं उनके अपने मुँह से उत्तर सुनना चाहता हूँ।"
रघुपति - "उसका कोई उपाय नहीं है।"
बिल्वन समझ गया, कोशिश करना बेकार है; केवल समय और बातों का व्यय। जाते समय रघुपति से कह गया, "ब्राह्मण, तुम यह कैसा सर्वनाश करने में जुट गए हो! यह तो ब्राह्मण का काम नहीं है।"
छत्तीसवाँ परिच्छेद
बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर राजा को सारा विवरण कह सुनाया।
राजा ने कहा, "तो ठाकुर, मैं विदा लेता हूँ। राज्य धन नक्षत्रराय के लिए छोड़ चला।"
बिल्वन ने कहा, "असहाय प्रजा को दूसरे के हाथों में छोड़ कर आप पलायन कर जाएँगे, यह सोच कर मैं किसी भी प्रकार प्रसन्न मन से विदा नहीं कर सकता, महाराज! विमाता के हाथों में पुत्र को सौंप कर भारमुक्त के समान शान्ति प्राप्त कर पाए, क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है?"
राजा बोले, "ठाकुर, तुम्हारे वाक्य बींधते हुए मेरे हृदय में प्रवेश कर रहे हैं, अब मुझे क्षमा करो, मुझे और अधिक कुछ मत कहो। मुझे विचलित करने की चेष्टा मत करो। तुम्हें पता है ठाकुर, मैंने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की थी कि रक्तपात नहीं करूँगा; मैं उस प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ सकता।"
बिल्वन ने कहा, "तब, महाराज अब क्या करेंगे?"
राजा बोले, "तुमसे सब कुछ बताता हूँ। मैं ध्रुव को साथ लेकर वन में जाऊँगा। ठाकुर, मेरा जीवन नितांत अधूरा रह गया है। मन में जो सोचा था, उसका कुछ भी नहीं कर पाया - जीवन का जितना चला गया है, उसे वापस पाकर और नए सिरे से निर्मित नहीं कर पाऊँगा - ठाकुर, मुझे लग रहा है, भाग्य ने हम लोगों को तीर के समान छोड़ दिया है, अगर एक बार लक्ष्य से तनिक भी इधर-उधर हुए, तो हजार कोशिशें करने पर भी लक्ष्य की ओर नहीं लौट सकते। जीवन के प्रारम्भ में वही जो मैं भटक गया हूँ, अब जीवन के अंत में लक्ष्य को नहीं खोज पा रहा हूँ। जो सोचता हूँ, वह नहीं होता। जिस समय जाग कर आत्म-रक्षा कर पाता, उस समय जागा नहीं, जब डूब रहा हूँ, तब चेतना हुई है। जैसे लोग समुद्र में डूबते समय लकड़ी के टुकड़े का सहारा लेते हैं, उसी तरह मैंने बालक ध्रुव का सहारा लिया है। मैं ध्रुव में आत्म-समाधान खोज कर ध्रुव में ही पुनर्जन्म प्राप्त करूँगा। मैं शुरू से ही पालते-पोसते हुए ध्रुव का निर्माण करूँगा। ध्रुव के संग तिल-तिल मेरा भी विकास होता रहेगा। अपना मनुष्य-जन्म सम्पूर्ण बनाऊँगा। ठाकुर, मैं तो मनुष्य होने लायक ही नहीं हूँ, मैं राजा बन कर क्या करूँगा !"
राजा ने अंतिम बात बड़े भावावेश के साथ कही - सुन कर ध्रुव राजा के घुटनों पर अपना सिर रगड़ते-रगड़ते बोला, "आमि आजा।"
बिल्वन ने हँसते हुए ध्रुव को गोद में उठा लिया। बहुत देर तक उसके मुँह की ओर देखते हुए अंत में राजा से कहा, "वन में क्या कभी मनुष्य का निर्माण किया जाता है? वन में केवल एक पौधे को पाल-पोस कर बड़ा किया जा सकता है। मनुष्य मानव-समाज में ही निर्मित होता है।"
राजा बोले, "मैं एकदम से वनवासी नहीं बन जाऊँगा, मनुष्य-समाज से बस थोड़ा-सा दूर रहूँगा, किन्तु समाज के साथ सारा सम्बन्ध तोड़ नहीं डालूँगा। यह मात्र थोड़े-से दिनों के लिए।"
इधर नक्षत्रराय सैन्य सहित राजधानी के निकट आ पहुँचा। प्रजा के धन-धान्य की लूट होने लगी। प्रजा-जन केवल गोविन्दमाणिक्य को ही शाप देने लगे। कहने लगे, "यह सब केवल राजा के पाप के चलते ही घट रहा है।"
राजा ने एक बार रघुपति से मिलना चाहा। रघुपति के आने पर उससे बोले, "प्रजा को और क्यों कष्ट पहुँचा रहे हो? मैं नक्षत्रराय के लिए राज्य छोड़ कर जा रहा हूँ। अपने मुगल सैनिकों को विदा कर दो।"
रघुपति ने कहा, "जो आज्ञा, आपके विदा होते ही मैं मुगल सैनिकों को विदा कर दूँगा - त्रिपुरा को लूटा जाए, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।"
राजा ने उसी दिन राज्य छोड़ कर जाने की तैयारी कर ली, उन्होंने राज-वेश त्याग दिया, गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। नक्षत्रराय को राजा के समस्त कर्तव्यों की याद दिलाते हुए एक लंबा आशीर्वाद-पत्र लिखा।
अंत में राजा ध्रुव को गोद में उठा कर बोले, "ध्रुव, मेरे साथ वन में चलेगा, बेटा?"
ध्रुव ने तत्क्षण राजा के गले से लिपटते हुए कहा, "चलूँगा।"
उसी समय राजा को अचानक याद आया, ध्रुव को साथ ले जाने के लिए उसके चाचा, केदारेश्वर की सम्मति आवश्यक है; राजा ने केदारेश्वर को बुला कर कहा, "केदारेश्वर, तुम्हारी सम्मति हो, तो मैं ध्रुव को अपने साथ ले जाऊँ!"
ध्रुव दिन-रात राजा के पास ही रहता था, उसके चाचा के साथ उसका कोई बड़ा सम्बन्ध नहीं था, लगता है, इसीलिए राजा के मन में कभी नहीं आया कि ध्रुव को साथ ले जाने में केदारेश्वर को कोई आपत्ति हो सकती है।
राजा की बात सुन कर केदारेश्वर ने कहा, "मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा, महाराज।"
सुन कर राजा चौंक गए। उन पर सहसा वज्राघात हुआ। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, "केदारेश्वर, तुम भी हम लोगों के साथ चलो।"
केदारेश्वर - "नहीं महाराज, वन में नहीं जा पाऊँगा।"
राजा ने कातर होकर कहा, "मैं वन में नहीं जाऊँगा; मैं जन-धन लेकर नगर में ही रहूँगा।"
केदारेश्वर ने कहा, "मैं देश छोड़ कर नहीं जा सकता।"
राजा ने कुछ न कह कर दीर्घ निश्वास छोड़ा। उनकी सारी आशा मृतप्राय हो गई। मानो क्षण भर में सम्पूर्ण धरती का चेहरा बदल गया। ध्रुव अपने खेल में डूबा था - बहुत देर उसकी तरफ देखते रहे, किन्तु उसे जैसे आँखों से देख नहीं पाए। ध्रुव उनके कपड़े का किनारा पकड़ कर खींचते हुए बोला, "खेलो।"
राजा का सम्पूर्ण ह्रदय विगलित होकर आँसुओं के रूप में आँखों की कोरों में आ गया, बड़े कष्ट से आँसुओं का दमन किया। मुँह फेर कर टूटे हुए हृदय से कहा, "तब ध्रुव रहे, मैं अकेला ही चलता हूँ।"
मानो क्षण भर में शेष जीवन का मरुमय-पथ तड़ितालोक में उनके चक्षु-तारकों पर अंकित हो गया।
केदारेश्वर ध्रुव का खेल रोक कर उससे बोला, "आ, मेरे साथ चल।"
कहते हुए उसका हाथ पकड़ कर खींचा। ध्रुव क्रंदन भरे स्वर में बोल उठा, "नहीं।"
राजा ने चकित होकर ध्रुव की ओर घूम कर देखा। ध्रुव ने दौड़ कर राजा को कस कर पकड़ते हुए जल्दी से उनके घुटनों में सिर छिपा लिया। राजा ने ध्रुव को गोद में उठा कर उसे छाती में भींच लिया। विशाल हृदय विदीर्ण होना चाहता था, छोटे-से ध्रुव को छाती में भींच कर हृदय को नियंत्रित किया। ध्रुव को उसी अवस्था में गोद में लिए वे विशाल कक्ष में टहलने लगे। ध्रुव कंधे पर सिर टिकाए एकदम स्थिर पड़ा रहा।
अंतत: चलने का समय हो गया। ध्रुव राजा की गोद में सोया पड़ा है। सोते हुए ध्रुव को धीरे-धीरे केदारेश्वर के हाथों में सौंप कर राजा यात्रा पर निकल पड़े।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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