उपन्यास-कंकाल
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Re: उपन्यास-कंकाल
(2)
किशोरी और निरंजन काशी लौट आये; परन्तु उन दोनों के हृदय में शान्ति न थी, क्रोध में किशोरी ने विजय का तिरस्कार किया, फिर भी सहज मातृस्नेह विद्रोह करने लगा, निरंजन से दिन में एकाध बार इस विषय को लेकर दो-दो चोंच हो जाना अनिवार्य हो गया। निरंजन ने एक दिन दृढ़ होकर इसका निपटारा कर लेने का विचार कर लिया; वह अपना सामान बँधवाने लगा। किशोरी ने यह ढंग देखा। वह जल-भुन गयी। जिसके लिए उसने पुत्र को छोड़ दिया, वह भी आज जाने को प्रस्तुत है! उसने तीव्र स्वर में कहा, 'क्या अभी जाना चाहते हो?'
'हाँ, मैंने जब संसार छोड़ दिया है, तब किसी की बात क्यों सहूँ?'
'क्यों झूठ बोलते हो, तुमने कब कोई वस्तु छोड़ी थी। तुम्हारे त्याग से तो भोले-भाले, माया में फँसे हुए गृहस्थ कहीं ऊँचे हैं! अपनी ओर देखो, हृदय पर हाथ रखकर पूछो, निरंजन, मेरे सामने तुम यह कह सकते हो संसार आज तुमको और मुझको क्या समझता है-इसका भी समाचार जानते हो?'
'जानता हूँ किशोरी! माया के साधारण झटके में एक सच्चे साधु के फँस जाने, ठग जाने का यह लज्जित प्रसंग अब किसी से छिपा नहीं-इसलिए मैं जाना चाहता हूँ।'
'तो रोकता कौन है, जाओ! परन्तु जिसके लिए मैंने सबकुछ खो दिया है, उसे तुम्हीं ने मुझसे छीन लिया-उसे देकर जाओ! जाओ तपस्या करो, तुम फिर महात्मा बन जाओगे! सुना है, पुरुषों के तप करने से घोर-से-घोर कुकर्मों को भी भगवान् क्षमा करके उन्हें दर्शन देते हैं; पर मैं हूँ स्त्री जाति! मेरा यह भाग्य नहीं, मैंने पाप करके जो पाप बटोरा है, उसे ही मेरी गोद में फेंकते जाओ!'
किशोरी का दम घुटने लगा। वह अधीर होकर रोने लगी।
निरंजन ने आज नग्न रूप देखा और वह इतना वीभत्स था कि उसने अपने हाथों में आँखों को ढँक लिया। कुछ काल के बाद बोला, 'अच्छा, तो विजय को खोजने जाता हूँ।'
गाड़ी पर निरंजन का सामान लद गया और बिना एक शब्द कहे वह स्टेशन चला गया। किशोरी अभिमान और क्रोध से भरी चुपचाप बैठी रही। आज वह अपनी दृष्टि में तुच्छ जँचने लगी। उसने बड़बड़ाते हुए कहा, 'स्त्री कुछ नहीं है, केवल पुरुषों की पूछ है। विलक्षणता यही है कि पूँछ कभी-कभी अलग रख दी जा सकती है!'
अभी उसे सोचने से अवकाश नहीं मिला था कि गाड़ियों के 'खड़बड़' शब्द, और बक्स-बंडलों के पटकने का धमाका नीचे हुए। वह मन-ही-मन हँसी कि बाबाजी का हृदय इतना बलवान नहीं कि मुझे यों ही छोड़कर चले जाएँ। इस समय स्त्रियों की विजय उसके सामने नाच उठी। वह फूल रही थी, उठी नहीं; परन्तु जब धमनियाँ ने आकर कहा, 'बहूजी, पंजाब से कोई आये हैं, उनके साथ उनकी लड़की स्त्री है।' तब वह एक पल भर के लिए सन्नाटे में आ गयी। उसने नीचे झाँककर देखा, तो श्रीचन्द्र! उसके साथ सलवार-कुर्ता, ओढ़नी से सजी हुए एक रूपवती रमणी चौदह साल की सुन्दरी कन्या का हाथ पकड़े खड़ी थी। नौकर लोग सामान भीतर रख रहे थे। वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर नीचे उतर आयी, न जाने कहाँ की लज्जा और द्विविधा उसके अंग को घेरकर हँस रही थी।
श्रीचन्द्र ने इस प्रसंग को अधिक बढ़ाने का अवसर न देकर कहा, 'यह मेरे पड़ोसी, अमृतसर के व्यापारी, लाला...की विधवा है, काशी यात्रा के लिए आयी है।'
'ओहो मेरे भाग! कहती हुई किशोरी उनका हाथ पकड़कर भीतर ले चली। श्रीचन्द्र एक बड़ी-सी घटना को यों ही सँवरते देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हुए। गाड़ी वाले को भाड़ा देकर घर में आये। सब नौकरों में यह बात गुनगुना गयी कि मालिक आ गये हैं।
अलग कोठरी में नवागत रमणी का सब प्रबन्ध ठीक किया गया। श्रीचन्द्र ने नीचे की बैठक में अपना आसन जमाया। नहाने-धोने, खाने-पीने और विश्राम में समस्त दिन बीत गया।
किशोरी ने अतिथि-सत्कार में पूरे मनोयोग से भाग लिया। कोई भी देखकर यह नहीं कह सकता था कि किशोरी और श्रीचन्द्र बहुत दिनों पर मिले हैं; परन्तु अभी तक श्रीचन्द्र ने विजय को नहीं पूछा, उसका मन नहीं करता था या साहस नहीं होता था।
थके यात्रियों ने निंद्रा का अवलम्ब लिया।
प्रभात में जब श्रीचन्द्र की आँखें खुलीं, तब उसने देखा, प्रौढ़ा किशोरी के मुख पर पच्चीस बरस का पहले का वही सलज्ज लावण्य अपराधी के सदृश छिपना चाहता है। अतीत की स्मृति ने श्रीचन्द्र के हृदय पर वृश्चिक-दंशन का काम किया। नींद न खुलने का बहाना करके उन्होंने एक बार फिर आँखें बन्द कर लीं। किशोरी मर्माहत हुई; पर आज नियति ने उसे सब ओर से निरवलम्ब करके श्रीचन्द्र के सामने झुकने के लिए बाध्य किया था। वह संकोच और मनोवेदना से गड़ी जा रही थी।
श्रीचन्द्र साहस सँवलित करके उठ बैठा। डरते-डरते किशोरी ने उसके पैर पकड़ लिये। एकांत था। वह भी जी खोलकर रोई; पर श्रीचन्द्र को उस रोने से क्रोध ही हुआ, करुणा की झलक न आयी। उसने कहा, 'किशोरी! रोने की तो कोई आवश्यकता नहीं।'
रोई हुई लाल आँखों को श्रीचन्द्र के मुँह पर जमाते हुए किशोरी ने कहा, 'आवश्यकता तो नहीं, पर जानते हो, स्त्रियाँ कितनी दुर्बल हैं-अबला हैं। नहीं तो मेरे ही जैसे अपराध करने वाले पुरुष के पैरों पर पड़कर मुझे न रोना पड़ता!'
'वह अपराध यदि तुम्हीं से सीखा गया हो, तो मुझे उत्तर देने की व्यवस्था न खोजनी पड़ेगी।'
'तो हम लोग क्या इतनी दूर हैं कि मिलना असम्भव है?'
'असम्भव तो नहीं है, नहीं तो मैं आता कैसे?'
अब स्त्री-सुलभ ईर्ष्या किशोरी के हृदय में जगी। उसने कहा, 'आये होंगे किसी को घुमाने-फिराने, सुख बहार लेने!'
किशोरी के इस कथन में व्यंग्य से अधिक उलाहना था। न जाने क्यों श्रीचन्द्र को इस व्यंग्य से संतोष हुआ, जैसे ईप्सित वस्तु मिल गयी हो। वह हँसकर बोला, 'इतना तो तुम भी स्वीकार करोगी कि यह कोई अपराध नहीं है।'
किशोरी ने देखा, समझौता हो सकता है, अधिक कहा-सुनी करके इसे गुरुतर न बना देना चाहिए। उसने दीनता से कहा, 'तो अपराध क्षमा नहीं हो सकता?'
श्रीचन्द्र ने कहा, 'किशोरी! अपराध कैसा अपराध समझता तो आज इस बातचीत का अवसर ही नहीं आता। हम लोगों का पथ जब अलग-अलग निर्धारित हो चुका है, तब उसमें कोई बाधक न हो, यही नीति अच्छी रहेगी। यात्रा करने तो हम लोग आये ही हैं; पर एक काम भी है।'
किशोरी सावधान होकर सुनने लगी। श्रीचन्द्र ने फिर कहना आरम्भ किया-'मेरा व्यवसाय नष्ट हो चुका है, अमृतसर की सब सम्पत्ति इसी स्त्री के यहाँ बन्धक है। उसके उद्धार का यही उपाय है कि इसकी सुन्दरी कन्या लाली से विजय का विवाह करा दिया जाये।'
किशोरी ने सगर्व एक बार श्रीचन्द्र की ओर देखा, फिर सहसा कातर भाव से बोली, 'विजय रूठकर मथुरा चला गया है!'
श्रीचन्द्र ने पक्के व्यापारी के समान कहा, 'कोई चिन्ता नहीं, वह आ जायेगा। तब तक हम लोग यहाँ रहें, तुम्हें कोई कष्ट तो न होगा?'
'अब अधिक चोट न पहुँचाओ। मैं अपराधिनी हूँ, मैं सन्तान के लिए अन्धी हो रही थी! क्या मैं क्षमा न की जाऊँगी किशोरी की आँखों से आँसू गिरने लगे।
'अच्छा तो उसे बुलाने के लिए मुझे जाना होगा।'
'नहीं, उसे बुलाने के लिए आदमी गया है। चलो, हाथ-मुँह धोकर जलपान कर लो।'
अपने ही घर में श्रीचन्द्र एक अतिथि की तरह आदर-सत्कार पाने लगा।
(3)
निरंजन वृन्दावन में विजय की खोज में घूमने लगा। तार देकर अपने हरिद्वार के भण्डारी को रुपये लेकर बुलाया और गली-गली खोज की धूम मच गयी। मथुरा में द्वारिकाधीश के मन्दिर में कई तरह से टोह लगाया। विश्राम घाट पर आरती देखते हुए संध्याएँ बितायीं, पर विजय का कुछ पता नहीं।
एक दिन वृन्दावन वाली सड़क पर वह भण्डारी के साथ टहल रहा था। अकस्मात् एक ताँगा तेजी से निकल गया। निरंजन को शंका हुई; पर जब तक देखें, तब तक ताँगा लोप हो गया। हाँ, गुलाबी साड़ी की झलक आँखों में छा गयी।
दूसरे दिन वह नाव पर दुर्वासा के दर्शन को गया। वैशाख पूर्णिमा थी। यमुना से हटने का मन नहीं करता था। निरंजन ने नाव वाले से कहा, 'किसी अच्छी जगह ले चलो। मैं आज रात भर घूमना चाहता हूँ; चिंता न करना भला!'
उन दिनों कृष्णशरण वाली टेकरी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। मनचले लोग उधर घूमने जाते थे। माँझी ने देखा कि अभी थोड़ी देर पहले ही एक नाव उधर जा चुकी थी, वह भी उधर खेने लगा। निरंजन को अपने ऊपर क्रोध हो रहा था, सोचने लगा-आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास!'
पूर्णिमा की पिछली रात थी। रात-भर का जगा हुआ चन्द्रमा झीम रहा था। निरंजन की आँखें भी कम अलसाई न थीं; परन्तु आज नींद उचट गयी थी। सैकड़ों कविताओं में वर्णित यमुना का पुलिन यौवन-काल की स्मृति जगा देने के लिए कम न था। किशोरी की प्रौढ़ प्रणय-लीला और अपनी साधु की स्थिति, निरंजन के सामने दो प्रतिद्वंद्वियों की भाँति लड़कर उसे अभिभूत बना रही थीं। माँझी भी ऊँघ रहा था। उसके डाँड़े बहुत धीरे-धीरे पानी में गिर रहे थे। यमुना के जल में निस्तब्ध शान्ति थी, निरंजन एक स्वप्न लोक में विचर रहा था।
चाँदनी फीकी हो चली। अभी तक आगे जाने वाली नाव पर से मधुर संगीत की स्वर-लहरी मादकता में कम्पित हो रही थी। निरंजन ने कहा, 'माँझी, उधर ही ले चलो। नाव की गति तीव्र हुई। थोड़ी ही देर में आगे वाली नाव के पास ही से निरंजन की नाव बढ़ी। उसमें एक रात्रि-जागरण से क्लान्त युवती गा रही थी और बीच-बीच में पास ही बैठा हुए एक युवक वंशी बजाकर साथ देता था, तब वह जैसी ऊँघती हुई प्रकृति जागरण के आनन्द से पुलकित हो जाती। सहसा संगीत की गति रुकी। युवक ने उच्छ्वास लेकर कहा, 'घण्टी! जो कहते हैं अविवाहित जीवन पाशव है, उच्छृंखल हैं, वे भ्रांत हैं। हृदय का सम्मिलन ही तो ब्याह है। मैं सर्वस्व तुम्हें अर्पण करता हूँ और तुम मुझे; इसमें किसी मध्यस्थ की आवश्यकता क्यों, मंत्रों का महत्त्व कितना! झगड़े की, विनिमय की, यदि संभावना रही तो समर्पण ही कैसा! मैं स्वतन्त्र प्रेम की सत्ता स्वीकार करता हूँ, समाज न करे तो क्या?'
निरंजन ने धीरे से अपने माँझी से नाव दूर ले चलने के लिए कहा। इतने में फिर युवक ने कहा, 'तुम भी इसे मानती होगी जिसको सब कहते हुए छिपाते हैं, जिसे अपराध कहकर कान पकड़कर स्वीकार करते हैं, वही तो जीवन का, यौवन-काल का ठोस सत्य है। सामाजिक बन्धनों से जकड़ी हुई आर्थिक कठिनाइयाँ, हम लोगों के भ्रम से धर्म का चेहरा लगाकर अपना भयानक रूप दिखाती हैं! क्यों, क्या तुम इसे नहीं मानतीं मानती हो अवश्य, तुम्हारे व्यवहारों से यह बात स्पष्ट है। फिर भी संस्कार और रूढ़ि की राक्षसी प्रतिमा के सामने समाज क्यों अल्हड़ रक्तों की बलि चढ़ाया करता है।'
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Re: उपन्यास-कंकाल
घण्टी चुप थी। वह नशे में झूम रही थी। जागरण का भी कम प्रभाव न था। युवक फिर कहने लगा, 'देखो, मैं समाज के शासन में आना चाहता था; परन्तु आह! मैं भूल करता हूँ।'
'तुम झूठ बोलते हो विजय! समाज तुमको आज्ञा दे चुका था; परन्तु तुमने उसकी आज्ञा ठुकराकर यमुना का शासनादेश स्वीकार किया। इसमें समाज का क्या दोष है मैं उस दिन की घटना नहीं भूल सकती, वह तुम्हारा दोष है तुम कहोगे कि फिर मैं सब जानकर भी तुम्हारे साथ क्यों घूमती हूँ; इसलिए कि मैं इसे कुछ महत्त्व नहीं देती। हिन्दू स्त्रियों का समाज ही कैसा है, उसमें कुछ अधिकार हो तब तो उसके लिए कुछ सोचना-विचारना चाहिए। और जहाँ अन्ध-अनुसरण करने का आदेश है, वहाँ प्राकृतिक, स्त्री जनोचित प्यार कर लेने का जो हमारा नैसर्गिक अधिकार है-जैसा कि घटनावश प्रायः स्त्रियाँ किया करती हैं-उसे क्यों छोड़ दूँ! यह कैसे हो, क्या हो और क्यों हो-इसका विचार पुरुष करते हैं। वे करें, उन्हें विश्वास बनाना है, कौड़ी-पाई लेना रहता है और स्त्रियों को भरना पड़ता है। तब इधर-उधर देखने से क्या! 'भरना है'-यही सत्य है, उसे दिखावे के आदर से ब्याह करके भरा लो या व्यभिचार कहकर तिरस्कार से, अधमर्ण की सान्त्वना के लिए यह उत्तमर्ण का शाब्दिक, मौलिक प्रलोभन या तिरस्कार है, समझे?' घण्टी ने कहा।
विजय का नशा उखड़ गया। उसने समझा कि मैं मिथ्या ज्ञान को अभी तक समझता हुआ अपने मन को धोखा दे रहा हूँ। यह हँसमुख घण्टी संसार के सब प्रश्नों को सहन किये बैठी है। प्रश्नों को गम्भीरता से विचारने का मैं जितना ढोंग करता हूँ, उतना ही उपलब्ध सत्य से दूर होता जा रहा है-वह चुपचाप सोचने लगा।
घण्टी फिर कहने लगी, 'समझे विजय! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम ब्याह करके यदि उसका प्रतिदान करना चाहते हो, तो मुझे कोई चिंता नहीं। यह विचार तो मुझे कभी सताता नहीं। मुझे जो करना है, वहीं करती हूँ, करूँगी भी। घूमोगे घूमूँगी, पिलाओगे पीऊँगी, दुलार करोगे हँस लूँगी, ठुकराओगे तो रो दूँगी। स्त्री को इन सभी वस्तुओं की आवश्यकता है। मैं उन सबों को समभाव से ग्रहण करती हूँ और करूँगी।'
विजय का सिर घूमने लगा। वह चाहता था कि घण्टी अपनी वक्तृता जहाँ तक सम्भव हो, शीघ्र बन्द कर दे। उसने कहा, 'अब तो प्रभात होने में विलंब नहीं; चलो कहीं किनारे उतरें और हाथ-मुँह धो लें।'
घण्टी चुप रही। नाव तट की ओर चली, इसके पहले ही एक-दूसरी नाव भी तीर पर लग चुकी थी, परन्तु वह निरंजन की थी। निरंजन दूर था, उसने देखा-विजय ही तो है। अच्छा दूर-दूर रहकर इसे देखना चाहिए, अभी शीघ्रता से काम बिगड़ जायेगा।
विजय और घण्टी नाव से उतरे। प्रकाश हो चला था। रात की उदासी भरी विदाई ओस के आँसू बहाने लगी। कृष्णशरण की टेकरी के पास ही वह उतारे का घाट था। वहाँ केवल एक स्त्री प्रातःस्नान के लिए अभी आयी थी। घण्टी वृक्षों की झुरमुट में गयी थी कि उसके चिल्लाने का शब्द सुन पड़ा। विजय उधर दौड़ा; परन्तु घण्टी भागती हुई उधर ही आती दिखाई पड़ी। अब उजेला हो चला था। विजय ने देखा कि वही ताँगेवाला नवाब उसे पकड़ना चाहता है। विजय ने डाँटकर कहा, 'खड़ा रह दुष्ट!' नवाब अपने दूसरे साथी के भरोसे विजय पर टूट पड़ा। दोनों में गुत्थमगुत्था हो गयी। विजय के दोनों पैर उठाकर वह पटकना चाहता था और विजय ने दाहिने बगल में उसका गला दबा लिया था, दोनों ओर से पूर्ण बल-प्रयोग हो रहा था कि विजय का पैर उठ जाय कि विजय ने नवाब के गला दबाने वाले दाहिने हाथ को अपने बाएँ हाथ से और भी दृढ़ता से खींचा। नवाब का दम घुट रहा था, फिर भी उसने जाँघ में काट खाया; परन्तु पूर्ण क्रोधावेश में विजय को उसकी वेदना न हुई, वह हाथ की परिधि को नवाब के कण्ठ के लिए यथासम्भव संकीर्ण कर रहा था। दूसरे ही क्षण में नवाब अचेत होकर गिर पड़ा। विजय अत्यन्त उत्तेजित था। सहसा किसी ने उसके कंधे में छुरी मारी; पर वह ओछी लगी। चोट खाकर विजय का मस्तक और भी भड़क उठा, उसने पास ही पड़ा हुआ पत्थर उठाकर नवाब का सिर कुचल दिया। इससे घंटी चिल्लाती हुई नाव पर भागना चाहती थी कि किसी ने उससे धीरे से कहा, 'खून हो गया, तुम यहाँ से हट चलो!'
कहने वाला बाथम था। उसके साथ भय-विह्वल घण्टी नाव पर चढ़ गयी। डाँड़े गिरा दिये गये।
इधर नवाब का सिर कुचलकर जब विजय ने देखा, तब वहाँ घण्टी न थी, परन्तु एक स्त्री खड़ी थी। उसने विजय का हाथ पकड़कर कहा, 'ठहरो विजय बाबू!' क्षण-भर में विजय का उन्माद ठंडा हो गया। वह एक बार सिर पकड़कर अपनी भयानक परिस्थिति से अवगत हो गया।
निरंजन दूर से यह कांड देख रहा था। अब अलग रहना उचित न समझकर वह भी पास आ गया। उसने कहा, 'विजय, अब क्या होगा?'
'कुछ नहीं, फाँसी होगी और क्या!' निर्भीक भाव से विजय ने कहा।
'आप इन्हें अपनी नाव दे दें और ये जहाँ तक जा सकें, निकल जायें। इनका यहाँ ठहरना ठीक नहीं।' स्त्री ने निरंजन से कहा।
'नहीं यमुना! तुम अब इस जीवन को बचाने की चिंता न करो, मैं इतना कायर नहीं हूँ।' विजय ने कहा।
'परन्तु तुम्हारी माता क्या कहेगीं विजय! मेरी बात मानो, तुम इस समय तो हट ही जाओ, फिर देखा जायेगा। मैं भी कह रहा हूँ, यमुना की भी यही सम्मति है। एक क्षण में मृत्यु की विभीषिका नाचने लगी! लड़कपन न करो, भागो!' निरंजन ने कहा।
विजय को सोचते-विचारते और विलम्ब करते देखकर यमुना ने बिगड़कर कहा, 'विजय बाबू! प्रत्येक अवसर पर लड़कपन अच्छा नहीं लगता। मैं कहती हूँ, आप अभी-अभी चले जायें! आह! आप सुनते नही?'
विजय ने सुना, अच्छा नहीं लगता! ऊँह, यह तो बुरी बात है। हाँ ठीक, तो देखा जायेगा। जीवन सहज में दे देने की वस्तु नहीं। और तिस पर भी यमुना कहती है-ठीक उसी तरह जैसे पहले दो खिल्ली पान और खा लेने के लिए, उसने कई बार डाँटने के स्वर में अनुरोध किया था! तो फिर!...
विजय भयभीत हुआ। मृत्यु जब तक कल्पना की वस्तु रहती है, तब तक चाहे उसका जितना प्रत्याख्यान कर लिया जाए; यदि वह सामने हो।
विजय ने देखा, यमुना ही नहीं, निरंजन भी है, क्या चिन्ता यदि मैं हट जाऊँ! वह मान गया, निरंजन की नाव पर जा बैठा। निरंजन ने रुपयों की थैली नाव वाले को दे दी। नाव तेजी से चल पड़ी।
भण्डारी और निरंजन ने आपस में कुछ मंत्रणा की, और वे खून-अरे बाप रे! कहते हुए एक और चल पड़े। स्नान करने वालों का समय हो चला था। कुछ लोग भी आ चले थे। निरंजन और भण्डारी का पता नहीं। यमुना चुपचाप बैठी रही। वह अपने पिता भण्डारीजी की बात सोच रही थी। पिता कहकर पुकारने की उसकी इच्छा को किसी ने कुचल दिया। कुछ समय बीतने पर पुलिस ने आकर यमुना से पूछना आरम्भ किया, 'तुम्हारा नाम क्या है?'
'यमुना!'
'यह कैसे मरा
'इसने एक स्त्री पर अत्याचार करना चाहा था।'
'फिर
'फिर यह मारा गया।'
'किसने मारा
'जिसका इसने अपराध किया।'
'तो वह स्त्री तुम्हीं तो नहीं हो?'
यमुना चुप रही।
सब-इन्स्पेक्टर ने कहा, 'यह स्वीकार करती है। इसे हिरासत में ले लो।'
यमुना कुछ न बोली। तमाशा देखने वालों का थोड़े समय के लिए मन बहलाव हो गया।
कृष्णशरण को टेकरी में हलचल थी। यमुना के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की चर्चा हो रही थी। निरंजन और भण्डारी भी एक मौलसिरी के नीचे चुपचाप बैठे थे। भण्डारी ने अधिक गंभीरता से कहा, 'पर इस यमुना को मैं पहचान रहा हूँ।'
'क्या?'
'नहीं-नहीं, यह ठीक है, तारा ही है है
'मैंने इसे कितनी बार काशी में किशोरी के यहाँ देखा और मैं कह सकता हूँ कि यह उसकी दासी यमुना है; तुम्हारी तारा कदापि नहीं।'
'परन्तु आप उसको कैसे पहचानते! तारा मेरे घर में उत्पन्न हुई, पली और बढ़ी। कभी उसका और आपका सामना तो हुआ नहीं, आपकी आज्ञा भी ऐसी ही थी। ग्रहण में वह भूलकर लखनऊ गयी। वहाँ एक स्वयंसेवक उसे हरद्वार ले जा रहा था, मुझसे राह में भेंट हुई, मैं रेल से उतर पड़ा। मैं उसे न पहचानूँगा।'
'तो तुम्हारा कहना ठीक हो सकता है।' कहकर निरंजन ने सिर नीचा कर लिया।
'मैंने इसका स्वर, मुख, अवयव पहचान लिया, यह रामा की कन्या है!' भण्डारी ने भारी स्वर में कहा।
निरंजन चुप था। वह विचार में पड़ गया। थोड़ी देर में बड़बड़ाते हुए उसने सिर उठाया-दोनों को बचाना होगा, दोनों ही-हे भगवान्!
इतने में गोस्वामी कृष्णशरण का शब्द उसे सुनाई पड़ा, 'आप लोग चाहे जो समझें; पर में इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि यमुना हत्या कर सकती है! वह संसार में सताई हुई एक पवित्र आत्मा है, वह निर्दोष है! आप लोग देखेंगे कि उसे फाँसी न होगी।'
आवेश में निरंजन उसके पास जाकर बोला, 'मैं उसकी पैरवी का सब व्यय दूँगा। यह लीजिए एक हजार के नोट हैं, घटने पर और भी दूँगा।'
उपस्थित लोगों ने एक अपरिचित की इस उदारता पर धन्यवाद दिया। गोस्वामी कृष्णशरण हँस पड़े। उन्होंने कहा, 'मंगलदेव को बुलाना होगा, वही सब प्रबन्ध करेगा।'
निरंजन उसी आश्रम का अतिथि हो गया और उसी जगह रहने लगा। गोस्वामी कृष्णशरण का उसके हृदय पर प्रभाव पड़ा। नित्य सत्संग होने लगा, प्रतिदिन एक-दूसरे के अधिकाधिक समीप होने लगे।
मौलसिरी के नीचे शिलाखण्ड पर गोस्वामी कृष्णशरण और देवनिरंजन बैठे हुए बातें कर रहे हैं। निरंजन ने कहा, 'महात्मन्! आज मैं तृप्त हुआ, मेरी जिज्ञासा ने अपना अनन्य आश्रय खोज लिया। श्रीकृष्ण के इस कल्याण-मार्ग पर मेरा पूर्ण विश्वास हुआ।'
'आज तक जिस रूप में उन्हें देखता था, वह एकांगी था; किन्तु इस प्रेम-पथ का सुधार करना चाहिए। इसके लिए प्रयत्न करने की आज्ञा दीजिए।'
'प्रयत्न! निरंजन तुम भूल गये। भगवान् की महिमा स्वयं प्रचारित होगी। मैं तो, जो सुनना चाहता है उसे सुनाऊँगा, इससे अधिक कुछ करने का साहस मेरा नहीं!'
'किन्तु मेरी एक प्रार्थना है। संसार बधिर है, उसको चिल्लाकर सुनाना होगा; इसलिए भारतवर्ष में हुए उस प्राचीन महापर्व को लक्ष्य में रखकर भारत-संघ नाम से एक प्रचार-संस्था बना दी जाए!'
'संस्थाएँ विकृत हो जाती हैं। व्यक्तियों के स्वार्थ उसे कलुषित कर देते हैं, देवनिरंजन! तुम नहीं देखते कि भारत-भर में साधु-संस्थाओं की क्या...'
'निंरजन ने क्षण-भर मे अपनी जीवनी पढ़ने का उद्योग किया। फिर खीझकर उसने कहा, 'महात्मन्, फिर आपने इतने अनाथ स्त्री, बालक और वृद्धों का परिवार क्यों बना लिया है?'
निंरजन की ओर देखते हुए क्षण-भर चुप रहकर गोस्वामी कृष्णशरण ने कहा, 'अपनी असावधानी तो मैं न कहूँगा निंरजन! एक दिन मंगलदेव की प्रार्थना से अपने विचारों को उद्घोषित करने के लिए मैंने इस कल्याण की व्यवस्था की थी। उसी दिन से मेरी टेकरी में भीड़ होने लगी। जिन्हें आवश्यकता है, दुख है, अभाव है, वे मेरे पास आने लगे। मैंने किसी को बुलाया नहीं। अब किसी को हटा भी नहीं सकता।'
'तब आप यह नहीं मानते कि संसार में मानसिक दुख से पीड़ित प्राणियों को इस संदेश से परिचित कराने की आवश्यकता है?'
'है, किन्तु मैं आडम्बर नहीं चाहता। व्यक्तिगत श्रद्धा से जितना जो कर सके, उतना ही पर्याप्त है।'
'किन्तु यह अब एक परिवार बन गया है, इसकी कोई निश्चित व्यवस्था करनी होगी।'
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: उपन्यास-कंकाल
निंरजन ने यहाँ का सब समाचार लिखते हुए किशोरी को यह भी लिखा था-'अपने और उसके पाप-चिह्न विजय का जीवन नहीं के बराबर है। हम दोनों को संतोष करना चाहिए और मेरी भी यही इच्छा है कि अब भगवद्भजन करूँ। मैं भारत-संघ के संगठन में लगा हूँ, विजय को खोजकर उसे और भी संकट में डालना होगा। तुम्हारे लिए भी संतोष को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं।'
पत्र पाकर किशोरी खूब रोई।
श्रीचन्द्र अपनी सारी कल्पनाओं पर पानी फिरते देखकर किशोरी की ही चापलूसी करने लगा। उसकी वह पंजाब वाली चन्दा अपनी लड़की को लेकर चली गयी, क्योंकि ब्याह होना असम्भव था।
बीतने वाला दिन बातों को भुला देता है।
एक दिन किशोरी ने कहा, 'जो कुछ है, हम लोगों के लिए बहुत अधिक है, हाय-हाय करके क्या होगा।'
'मै भी अब व्यवसाय करने पंजाब न जाऊँगा। किशोरी! हम दोनों यदि सरलता से निभा सकें, तो भविष्य में जीवन हम लोगों का सुखमय होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।'
किशोरी ने हँसकर सिर हिला दिया।
संसार अपने-अपने सुख की कल्पना पर खड़ा है-यह भीषण संसार अपनी स्वप्न की मधुरिमा से स्वर्ग है। आज किशोरी को विजय की अपेक्षा नहीं। निरंजन को भी नहीं। और श्रीचन्द्र को रुपयों के व्यवसाय और चन्दा की नहीं, दोनों ने देखा, इन सबके बिना हमारा काम चल सकता है, सुख मिल सकता है। फिर झंझट करके क्या होगा। दोनों का पुनर्मिलन प्रौढ़ आशाओं से पूर्ण था। श्रीचन्द्र ने गृहस्थी सँभाली। सब प्रबन्ध ठीक करके दोनों विदेश घूमने के लिए निकल पड़े। ठाकुरजी की सेवा का भार एक मूर्ख के ऊपर था, जिसे केवल दो रुपये मिलते थे-वे भी महीने भर में! आह! स्वार्थ कितना सुन्दर है!
(4)
'तब आपने क्या निश्चय किया सरला तीव्र स्वर में बोली।
'घण्टी को उस हत्याकांड से बचा लेना भी अपराध है, ऐसा मैंने कभी सोचा भी नहीं।' बाथम ने कहा।
'बाथम! तुम जितने भीतर से क्रूर और निष्ठुर हो, यदि ऊपर से भी वही व्यवहार रखते, तो तुम्हारी मनुष्यता का कल्याण होता! तुम अपनी दुर्बलता को परोपकार के परदे में क्यों छिपाना चाहते हो नृशंस! यदि मुझमें विश्वास की तनिक भी मात्रा न होती, तो मैं अधिक सुखी रहती।' कहती हुई लतिका हाँफने लगी थी। सब चुप थे।
कुबड़ी खटखटाते हुए पादरी जान ने उस शांति को भंग किया। आते ही बोला, 'मैं सब समझा सकता हूँ, जब दोनों एक-दूसरे पर अविश्वास करते हो, तब उन्हें अलग हो जाना चाहिए। दबा हुआ विद्वेष छाती के भीतर सर्प के सामान फुफकारा करता है; कब अपने ही को वह घायल करेगा, कोई नहीं कह सकता। मेरी बच्ची लतिका! मारगरेट!'
'हाँ पिता! आप ठीक कहते हैं और अब बाथम को भी इसे स्वीकार कर लेने में कोई विरोध न होना चाहिए।' मारगरेट ने कहा।
'मुझे सब स्वीकार है। अब अधिक सफाई देना मैं अपना अपमान समझता हूँ!' बाथम ने रूखेपन से कहा।
'ठीक है बाथम! तुम्हें सफाई देने, अपने को निरपराध सिद्ध करने की क्या आवश्यकता है। पुरुष को साधारण बातों से घबराने की संभावना पाखण्ड है!' गरजती हुई सरला ने कहा। फिर लतिका से बोली, 'चलो बेटी! पादरी सबकुछ कर लेगा, संबंध-विच्छेद और नया सम्बन्ध जोड़ने में वह पटु है।'
'लतिका और सरला चली गयीं। घण्टी काठ की पुतली-सी बैठी चुपचाप अभिनय देख रही थी। पादरी ने उसके सिर पर दुलार से हाथ फेरते हुए कहा, 'चलो बेटी, मसीह-जननी की छाया में; तुमने समझ लिया होगा कि उसके बिना तुम्हें शांति न मिलेगी।'
बिना एक शब्द कहे पादरी के साथ बाथम और घण्टी दोनों उठकर चले जाते हुए बाथम ने एक बार उस बँगले को निराश दृष्टि से देखा, धीरे-धीरे तीनों चले गये।
आरामकुर्सी पर खड़ी हुई लतिका ने एक दिन जिज्ञासा-भरी दृष्टि से सरला की ओर देखा, तो वह निर्भीक रमणी अपनी दृढ़ता में महिमापूर्ण थी। लतिका का धैर्य लौट आया, उसने कहा, 'अब?'
'कुछ चिंता नहीं बेटी, मैं हूँ! सब वस्तु बेचकर बैंक में रुपये जमा करा दो, चुपचाप भगवान् के भरोसे रुखी-सूखी खाकर दिन बीत जायेगा।' सरला ने कहा।
'मैं एक बार उस वृंदावन वाले गोस्वामी के पास चलना चाहती हूँ, तुम्हारी क्या सम्मति है?' लतिका ने पूछा।
'पहले यह प्रबन्ध कर लेना होगा, फिर वहाँ भी चलूँगी। चाय पिओगी? आज दिन भर तुमने कुछ नहीं खाया, मैं ले आऊँ-बोलो हम लोगों को जीवन के नवीन अध्याय के लिए प्रस्तुत होना चाहिए। लतिका! 'सदैव वस्तु रहो' का महामंत्र मेरे जीवन का रहस्य है-दुःख के लिए, सुख के लिए, जीवन के लिए और मरण के लिए! उसमे शिथिलता न आनी चाहिए! विपत्तियाँ वायु की तरह निकल जाती हैं; सुख के दिन प्रकाश के सदृश पश्चिमी समुद्र में भागते रहते हैं। समय काटना होगा, और यह ध्रुव सत्य है कि दोनों का अन्त है।'
परन्तु घण्टी! आज अँधेरा हो जाने पर भी, गिरजा के समीप वाले नाले के पुल पर बैठी अपनी उधेड़बुन में लगी है। अपने हिसाब-किताब में लगी है-मैं भीख माँगकर खाती थी, तब कोई मेरा अपना नहीं था। लोग दिल्लगी करते और मैं हँसती, हँसाकर हँसती। पहले तो पैसे के लिए, फिर चस्का लग गया-हँसने का आनन्द मिल गया। मुझे विश्वास हो गया कि इस विचित्र भूतल पर हम लोग केवल हँसी की लहरों में हिलने-डोलने के लिए आ रहे हैं। आह! मैं दरिद्र थी, पर मैं उन रोनी सूरत वाले गम्भीर विद्वान-सा रुपयों के बोरों पर बैठे हुए भनभनाने वाले मच्छरों को देखकर घृणा करती या उनका अस्तित्व ही न स्वीकार करती, जो जी खोलकर हँसते न थे। मैं वृंदावन की एक हँसोड़ पागल थी, पर उस हँसी ने रंग पलट दिया; वही हँसी अपना कुछ और उद्देश्य रखने लगी। फिर विजय; धीरे-धीरे जैसे सावन की हरियाली पर प्रभात का बादल बनकर छा गया-मैं नाचने लगी मयूर-सी! और वह यौवन का मेघ बरसने लगा। भीतर-बाहर रंग से छक गया। मेरा अपना कुछ न रहा। मेरा आहार, विचार, वेश और भूषा सब बदला। वह बरसात के बादलों की रंगीन संध्या थी; परन्तु यमुना पर विजय पाना साधारण काम न था। असंभव था। मैंने संचित शक्ति से विजय को छाती से दबा लिया था। और यमुना...वह तो स्वयं राह छोड़कर हट गयी थी, पर मैं बनकर भी न बन सकी-नियति चारों ओर से दबा रही थी। और मैंने अपना कुछ न रखा था; जो कुछ था, सब दूसरी धातु का था; मेरे उपादान में ठोस न था। लो-मैं चली; बाथम...उस पर भी लतिका रोती होगी-यमुना सिसकती होगी...दोनों मुझे गाली देती होंगी, अरे-अरे; मैं हँसने वाली सबको रुलाने लगी! मैं उसी दिन धर्म से च्युत हो गयी-मर गयी, घण्टी मर गयी। पर यह कौन सोच रही है। हाँ, वह मरघट की ज्वाला धधक रही है-ओ, ओ मेरा शव वह देखो-विजय लकड़ी के कुन्दे पर बैठा हुआ रो रहा है और बाथम हँस रहा है। हाय! मेरा शव कुछ नहीं करता है-न रोता है, न हँसता है, तो मैं क्या हूँ! जीवित हूँ। चारों ओर यह कौन नाच रहे हैं, ओह! सिर में कौन धक्के मार रहा है। मैं भी नाचूँ-ये चुड़ैलें हैं और मैं भी! तो चलूँ वहाँ आलोक है।
घण्टी अपना नया रेशमी साया नोचती हुई दौड़ पड़ी। बाथम उस समय क्लब में था। मैजिस्ट्रेट की सिफारिशी चिट्ठी की उसे अत्यन्त आवश्यकता थी। पादरी जान सोच रहा था-अपनी समाधि का पत्थर कहाँ से मँगाऊँ, उस पर क्रॉस कैसा हो!
उधर घण्टी-पागल घण्टी-अँधेरे में भाग रही थी।
(5)
फतेहपुर सीकरी से अछनेरा जाने वाली सड़क के सूने अंचल में एक छोटा-सा जंगल है। हरियाली दूर तक फैली हुई है। यहाँ खारी नदी एक छोटी-सी पहाड़ी से टकराती बहती है। यह पहाड़ी सिलसिला अछनेरा और सिंघापुर के बीच में है। जन-साधारण उस सूने कानन में नहीं जाते। कहीं-कहीं बरसाती पानी के बहने से सूखे नाले अपना जर्जर कलेवर फैलाये पड़े हैं। बीच-बीच मे ऊपर के टुकड़े निर्जल नालों से सहानुभूति करते हुए दिखाई दे जाते हैं। केवल ऊँची-उँची टेकरियों से बस्ती बसी है। वृक्षों के एक घने झुरमुट में लता-गुल्मों से ढकी एक सुन्दर झोंपड़ी है। उसमें कई विभाग हैं। बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे पशुओ के झुंड बसे हैं; उनमें गाय, भैंस और घोड़े भी हैं। तीन-चार भयावने कुत्ते अपनी सजग आँखों से दूर दूर बैठे पहरा दे रहे हैं। एक पूरा पशु परिवार लिए गाला उस जंगल में सुखी और निर्भर रहती है। बदन गूजर, उस प्रान्त के भयानक पशुओं का मुखिया गाला का सत्तर बरस का बूढ़ा पिता है। वह अब भी अपने साथियों के साथ चढ़ाई पर जाता है। गाला का वयस यद्यपि बीस के ऊपर है। फिर भी कौमार्य के प्रभाव से वह किशोरी ही जान पड़ती है।
गाला अपने पक्षियों के चारे-पानी का प्रबन्ध कर रही थी। देखा तो एक बुलबुल उस टूटे हुए पिंजरे से भागना चाहती है। अभी कल ही गाला ने उसे पकड़ा था। वह पशु-पक्षियों को पकड़ने और पालने में बड़ी चतुर थी। उसका यही खेल था। बदन गूजर जब बटेसर के मेले में सौदागर बनकर जाता, तब इसी गाला की देखरेख में पले हुए जानवर उसे मुँह माँगा दाम दे जाते। गाला अपने टूटे हुए पिंजरे को तारों के टुकड़े और मोटे सूत से बाँध रही थी। सहसा एक बलिष्ठ युवक ने मुस्कराते हुए कहा, 'कितनों को पकड़कर सदैव के लिए बन्धन में जकड़ती रहोगी, गाला?'
'हम लोगों की पराधीनता से बड़ी मित्रता है नये! इसमें बड़ा सुख मिलता है। वही सुख औरों को भी देना चाहती हूँ-किसी से पिता, किसी से भाई, ऐसा ही कोई सम्बन्ध जोड़कर उन्हें उलझाना चाहती हूँ; किन्तु पुरुष, इस जंगली बुलबुल से भी अधिक स्वतन्त्रता-प्रेमी है। वे सदैव छुटकारे का अवसर खोज लिया करते हैं। देखा, बाबा जब न होता है तब चले जाते हैं। कब तक आवेंगे तुम जानते हो?'
'नहीं भला मैं क्या जानूँ! पर तुम्हारे भाई को मैंने कभी नहीं देखा।'
'इसी से तो कहती हूँ नये। मैं जिसको पकड़कर रखना चाहती हूँ, वे ही लोग भागते हैं। जाने कहाँ संसार-भर का काम उन्हीं के सिर पर पड़ा है! मेरा भाई? आह, कितनी चौड़ी छाती वाला युवक था। अकेले चार-चार घोड़ों को बीसों कोस सवारी में ले जाता। आठ-दस सिपाही कुछ न कर सकते। वह शेर-सा तड़पकर निकल जाता। उसके सिखाये घोड़े सीढ़ियों पर चढ़ जाते। घोड़े उससे बातें करते, वह उनके मरम को जानता था।'
'तो अब क्या नहीं है?'
'नहीं है। मैं रोकती थी, बाबा ने न माना। एक लड़ाई में वह मारा गया। अकेले बीस सिपाहियों को उसने उलझा लिया, और सब निकल आये।'
'तो क्या मुझे आश्रय देने वाले डाकू हैं?'
'तुम देखते नहीं, मैं जानवरों को पालती हूँ, और मेरे बाबा उन्हें मेले में ले जाकर बेचते हैं।' गाला का स्वर तीव्र और सन्देहजनक था।
'और तुम्हारी माँ?'
'ओह! वह बड़ी लम्बी कहानी है, उसे न पूछो!' कहकर गाला उठ गयी। एक बार अपने कुरते के आँचल से उसने आँखें पोंछी, और एक श्यामा गौ के पास जा पहुँची, गौ ने सिर झुका दिया, गाला उसका सिर खुजलाने लगी। फिर उसके मुँह से मुँह सटाकर दुलार किया। उसके बछड़े का गला चूमने लगी। उसे भी छोड़कर एक साल भर के बछड़े को जा पकड़ा। उसके बड़े-बड़े अयालों को उँगलियों से सुलझाने लगी। एक बार वह फिर अपने-पशु मित्रों से प्रसन्न हो गयी। युवक चुपचाप एक वृक्ष की जड़ पर जा बैठा। आधा घण्टा न बीता होगा कि टापों के शब्द सुनकर गाला मुस्कराने लगी। उत्कण्ठा से उसका मुख प्रसन्न हो गया।
'अश्वारोही आ पँहुचे। उनमें सबसे आगे उमर में सत्तर बरस का वृद्ध, परन्तु दृढ़ पुरुष था। क्रूरता उसकी घनी दाढी और मूँछों के तिरछेपन से टपक रही थी। गाला ने उसके पास पहुँचकर घोड़े से उतरने में सहायता दी। वह भीषण बुड्ढा अपनी युवती कन्या को देखकर पुलकित हो गया। क्षण-भर के लिए न जाने कहाँ छिपी हुई मानवीय कोमलता उसके मुँह पर उमड़ आयी। उसने पूछा, 'सब ठीक है न गाला!'
'हाँ बाबा!'
बुड्ढे ने पुकारा, 'नये!'
युवक समीप आ गया। बुड्ढे ने एक बार नीचे से ऊपर तक देखा। युवक के ऊपर सन्देह का कारण न मिला। उसने कहा, 'सब घोडों को मलवाकर चारे-पानी का प्रबन्ध कर दो।'
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: उपन्यास-कंकाल
बुड्ढे के तीन साथी और उस युवक ने मिलकर घोड़ों को मलना आरम्भ किया। बुड्ढा एक छोटी-सी मचिया पर बैठकर तमाखू पीने लगा। गाला उसके पास खड़ी होकर उससे हँस-हँसकर बातें करने लगी। पिता और पुत्री दोनों ही प्रसन्न थे। बुड्ढे ने पूछा, 'गाला! यह युवक कैसा है
गाला ने जाने क्यों इस प्रश्न पर लज्जित हुई। फिर सँभलकर उसने कहा, 'देखने में तो यह बड़ा सीधा और परिश्रमी है।'
'मैं भी समझता हूँ। प्रायः जब हम लोग बाहर चले जाते हैं, तब तुम अकेली रहती हो।'
'बाबा! अब बाहर न जाया करो।'
'तो क्या मैं यहीं बैठा रहूँ गाला। मैं इतना बूढ़ा नहीं हो गया!'
'नही बाबा! मुझे अकेली छोड़कर न जाया करो।'
'पहले जब तू छोटी थी तब तो नहीं डरती थी। अब क्या हो गया है, अब तो यह 'नये' भी यहाँ रहा करेगा। बेटी! यह कुलीन युवक जान पड़ता है।'
'हाँ बाबा! किन्तु यह घोड़ों का मलना नहीं जानता-देखो सामने पशुओं से इसे तनिक भी स्नेह नहीं है। बाबा! तुम्हारे साथी भी बडे निर्दयी हैं। एक दिन मैंने देखा कि सुख से चरते हुए एक बकरी के बच्चे को इन लोगों ने समूचा ही भून डाला। ये सब बड़े डरावने लगते हैं। तुम भी उन ही लोगों में मिल जाते हो।'
'चुप पगली! अब बहुत विलम्ब नहीं-मैं इन सबसे अलग हो जाऊँगा, अच्छा तो बता, इस 'नये' को रख लूँ न 'बदन गम्भीर दृष्टि से गाला की ओर देख रहा था।
गाला ने कहा, 'अच्छा तो है बाबा! दुख का मारा है।'
एक चाँदनी रात थी। बरसात से धुला हुआ जंगल अपनी गम्भीरता में डूब रहा था। नाले के तट पर बैठा हुआ 'नये' निर्निमेष दृष्टि से उस हृदय विमोहन चित्रपट को देख रहा था। उसके मन में बीती हुई कितनी स्मृतियाँ स्वर्गीय नृत्य करती चली जा रही थीं। वह अपने फटे कोट को टटोलने लगा। सहसा उसे एक बाँसुरी मिल गयी-जैसे कोई खोयी हुई निधि मिली। वह प्रसन्न होकर बजाने लगा। बंसी के विलम्बित मधुर स्वर में सोई हुई वनलक्ष्मी को जगाने लगा। वह अपने स्वर से आप ही मस्त हो रहा था। उसी समय गाला ने जाने कैसे उसके समीप आकर खड़ी हो गयी। नये ने बंसी बंद कर दी। वह भयभीत होकर देखने लगा।
गाला ने कहा, 'तुम जानते हो कि यह कौन स्थान है?'
'जंगल है, मुझसे भूल हुई।'
'नहीं, यह ब्रज की सीमा के भीतर है। यहाँ चाँदनी रात में बाँसुरी बजाने से गोपियों की आत्माएँ मचल उठती हैं।'
'तुम कौन हो गाला!'
'मैं नहीं जानती; पर मेरे मन में भी ठेस पहुँचती है।'
'तब मैं न बजाऊँगा।'
'नहीं नये! तुम बजाओ, बड़ी सुन्दर बजती थी। हाँ, बाबा कदाचित् क्रोध करें।'
'अच्छा, तुम रात को यों ही निकलकर घूमती हो। इस पर तुम्हारे बाबा न क्रोध न करेंगे?'
'हम लोग जंगली हैं, अकेले तो मैं कभी-कभी आठ-आठ दस-दस दिन इसी जंगल में रहती हूँ।'
'अच्छा, तुम्हें गोपियों की बात कैसे मालूम हुई? क्या तुम लोग हिन्दू हो इन गूजरों से तो तुम्हारी भाषा भिन्न है।'
'आश्चर्य से देखती हुई गाला ने कहा, 'क्यों, इसमें भी तुमको संदेह है। मेरी माँ मुगल होने पर भी कृष्ण से अधिक प्रेम करती थी। अहा नये! मैं किसी दिन उसकी जीवनी सुनाऊँगी। वह...'
'गाला! तब तुम मुगलवानी माँ से उत्पन्न हुई हो।'
क्रोध से देखती हुई गाला ने कहा, 'तुम यह क्यों नहीं कहते कि हम लोग मनुष्य हैं।'
'जिस सहृदयता से तुमने मेरी विपत्ति में सेवा की है, गाला! उसे देखकर तो मैं कहूँगा कि तुम देव-बालिका हो!' नये का हृदय सहानुभूति की स्मृति से भर उठा था।
'नहीं-नहीं, मैं तुमको अपनी माँ की लिखी जीवनी पढ़ने को दूँगी और तब तुम समझ जाओगे। चलो, रात अधिक बीत रही है, पुआल पर सो रहो।' गाला ने नये का हाथ पकड़ लिया; दोनों उस चन्द्रिका-धौत शुभ्र रजनी से भीगते हुए झोंपड़ी की ओर लौटे। उसके चले जाने के बाद वृक्षों की आड़ से बूढ़ा बदन गूजर भी निकला और उनके पीछे-पीछे चला।'
प्रभात चमकने लगा था। जंगली पक्षियों के कलनाद से कानन-प्रदेश गुंजरित था। गाला चारे-पानी के प्रबन्ध में लग गयी थी। बदन ने नये को बुलाया। वह आकर सामने खड़ा हो गया। बदन ने उससे बैठने के लिए कहा। उसके बैठ जाने पर गूजर कहने लगा-'जब तुम भूख से व्याकुल, थके हुए भयभीत, सड़क से हटकर पेड़ के नीचे पड़े हुए आधे अचेत थे, उस समय किसने तुम्हारी रक्षा की थी?'
'आपने,' नये ने कहा।
'तुम जानते हो कि हम लोग डाकू हैं, हम लोगों को माया-ममता नहीं! परन्तु हमारी निर्दयता भी अपना निर्दिष्ट पथ रखती है, वह है केवल धन लेने के लिए। भेद यही है कि धन लेने का दूसरा उपाय हम लोग काम में नहीं लेते, दूसरे उपायों को हम लोग अधम समझते हैं-धोखा देना, चोरी करना, विश्वासघात करना, यह सब तो तुम्हारे नगरों के सभ्य मनुष्यों की जीविका के सुगम उपाय हैं, हम लोग उनसे घृणा करते हैं। और भी-तुम वृंदावन वाले खून के भागे हुए आसामी हो-हो न कहकर बदन तीखी दृष्टि से नये को देखने लगा। वह सिर नीचा किये खड़ा रहा। बदन फिर कहने लगा, 'तो तुम छिपाना चाहते हो। अच्छा सुनो, हम लोग जिसे अपनी शरण में लेते हैं, उससे विश्वासघात नहीं करते। आज तुमसे एक बात साफ कह देना चाहता हूँ। देखो, गाला सीधी लड़की है, संसार के कतर-ब्योंत वह नहीं जानती, तथापि यदि वह निसर्ग-नियम से किसी युवक को प्यार करने लगे, तो इसमें आश्चर्य नही। संभव है, वह मनुष्य तुम ही हो जाओ, इसलिए तुम्हें सचेत करता हूँ कि सावधान! उसे धोखा न देना। हाँ, यदि तुम कभी प्रमाणित कर सकोगे कि तुम उसके योग्य हो, तो फिर देखा जाएगा! समझा।'
बदन चला गया। उसकी प्रौढ़ कर्कश वाणी नये के कानों में वज्र गम्भीर स्वर में गूँजने लगी। वह बैठ गया और अपने जीवन का हिसाब लगाने लगा।
बहुत विलम्ब तक वह बैठा रहा। तब गाला ने उससे कहा, 'आज तुम्हारी रोटी पड़ी रहेगी, क्या खाओगे नहीं?'
नये ने कहा, 'मैं तुम्हारी माता की जीवनी पढ़ना चाहता हूँ। तुमने मुझे दिखाने के लिए कहा था न।'
'ओहो, तो तुम रूठना भी जानते हो। अच्छा खा लो! मान जाओ, मैं तुम्हें दिखला दूँगी।' कहती हुई गाला ने वैसा ही किया, जैसे किसी बच्चे को मानते हुए स्त्रियाँ करती हैं। यह देखकर नये हँस पड़ा। उसने पूछा-
'अच्छा कब दिखलाओगी?'
'लो, तुम खाने लगो, मैं जाकर ले आती हूँ।'
'नये अपने रोटी-मठे की ओर चला और गाला अपने घर में।'
(6)
शीतकाल के वृक्षों से छनकर आती हुई धूप बड़ी प्यारी लग रही थी। नये पैरों पर पैर धरे, चुपचाप गाला की दी हुई, चमड़े से बँधी एक छोटी-सी पुस्तक को आश्चर्य से देख रहा था। वह प्राचीन नागरी में लिखी हुई थी। उसके अक्षर सुन्दर तो न थे, पर थे बहुत स्पष्ट। नये कुतूहल से उसे पढ़ने लगा-
मेरी कथा
बेटी गाला! तुझे कितना प्यार करती हूँ, इसका अनुमान तुझे छोड़कर दूसरा नहीं कर सकता। बेटा भी मेरे हृदय का टुकड़ा है; पर वह अपने बाप के रंग में रंग गया-पक्का गूजर हो गया। पर मेरी प्यारी गाला! मुझे भरोसा है कि तू मुझे न भूलेगी। जंगल के कोने मे बैठी हुई, एक भयानक पति की पत्नी अपने बाल्यकाल की मीठी स्मृति से यदि अपने मन को न बहलावे, तो दूसरा उपाय क्या है गाला! सुन, वर्तमान सुख के अभाव में पुरानी स्मृतियों का धन, मनुष्य को पल-भर के लिए सुखी कर सकता है और तुझे अपने जीवन में आगे चलकर कदाचित् सहायता मिले, इसलिए मैंने तुझे थोड़ा-सा पढ़ाया और इसे लिखकर छोड़ जाती हूँ।
मेरी माँ बड़े गर्व से गोद में बिठाकर बड़े दुलार से मुझे अपनी बीती सुनाती, उन्हीं बिखरी हुई बातों को इकट्ठा करती हूँ। अच्छा लो, सुनो मेरी कहानी-मेरे पिता का नाम मिरजा जमाल था। वे मुगल-वंश के एक शहजादे थे। मथुरा और आगरा के बीच में उनकी जागीर के कई गाँव थे, पर वे प्रायः दिल्ली में ही रहते। कभी-कभी सैर-शिकार के लिए जागीर पर चले आते। उन्हें प्रेम था शिकार से और हिन्दी कविता से। सोमदेव नामक एक चौबे उनका मुहासिब और कवि था। वह अपनी हिन्दी कविता सुनाकर उन्हें प्रसन्न रखता। मेरे पिता को संस्कृत और फारसी से भी प्रेम था। वह हिन्दी के मुसलमान कवि जायसी के पूरे भक्त थे। सोमदेव इसमें उनका बराबर साथ देता। मैंने भी उसी से हिन्दी पढ़ी। क्या कहूँ, वे दिन बड़े चैन के थे। पर आपदाएँ भी पीछा कर रही थीं।
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Re: उपन्यास-कंकाल
एक दिन मिरजा जमाल अपनी छावनी से दूर ताम्बूल-वीथि में बैठे हुए, बैसाख के पहले के कुछ-कुछ गरम पवन से सुख का अनुभव कर रहे थे। ढालवें टीले पर पान की खेती, उन पर सुढार छाजन, देहात के निर्जन वातावरण को सचित्र बना रही थी। उसी से सटा हुआ, कमलों से भरा एक छोटा सा ताल था, जिनमें से भीनी-भीनी सुगन्ध उठकर मस्तक को शीतल कर देती। कलनाद करते हुए कभी-कभी पुरइनों से उड़ जाने पर ही जलपक्षी अपने अस्तित्व का परिचय दे देते। सोमदेव ने जलपान की साम्रगी सामने रखकर पूछा, 'क्या आज यहीं दिन बीतेगा?'
'हाँ, देखो ये लोग कितने सुखी हैं सोमदेव। इन देहाती गृहस्थों में भी कितनी आशा है, कितना विश्वास है, अपने परिश्रम में इन्हें कितनी तृप्ति है।'
'यहाँ छावनी है, अपनी जागीर में सरकार! रोब से रहना चाहिए। दूसरे स्थान पर चाहे जैसे रहिए।' सोमदेव ने कहा।
सोमदेव सहचर, सेवक और उनकी सभा का पंडित भी था। वह मुँहलगा भी था; कभी-कभी उनसे उलझ भी जाता, परन्तु वह हृदय से उनका भक्त था। उनके लिए प्राण दे सकता था।
'चुप रहो सोमदेव! यहाँ मुझे हृदय की खोई हुई शान्ति का पता चल रहा है। तुमने देखा होगा, पिता जी कितने यत्न से संचय कर यह सम्पत्ति छोड़ गये हैं। मुझे उस धन से प्रेम करने की शिक्षा, वे उच्चकोटि की दार्शनिक शिक्षा की तरह गम्भीरता से आजीवन देते रहे। आज उसकी परीक्षा हो रही है। मैं पूछता हूँ कि हृदय में जितनी मधुरिमा है, कोमलता है, वह सब क्या केवल एक तरुणी की सुन्दरता की उपासना की साम्रगी है इसका और कोई उपयोग नही हँसने के जो उपकरण हैं, वे किसी झलमले अंचल में ही अपना मुँह छिपाये किसी आशीर्वाद की आशा में पड़े रहते हैं संसार में स्त्रियों का क्या इतना व्यापक अधिकार है?'
सोमदेव ने कहा, आपके पास इतनी सम्पत्ति है कि अभाव की शंका व्यर्थ है। जो चाहिए कीजिये। वर्तमान जगत् का शासक, प्रत्येक प्रश्नों का समाधान करने वाला विद्वान धन तो आपका चिर सहचर और विश्वस्त है ही, चिंता क्या?'
मिरजा जमाल ने जलपान करते हुए प्रसंग बदल दिया। कहा, 'आज तुम्हारे बादाम की बर्फी में कुछ कड़वे बादाम थे।'
तमोली ने टट्टर के पास ही भीतर दरी बिछा दी थी। मिरजा चुपचाप सामने फूले हुए कमलों को देखते थे। ईख की सिंचाई के पुरवट के शब्द दूर से उस निस्तब्धता को भंग कर देते थे। पवन की गर्मी से टट्टर बंद कर देने पर भी उस सरपत की झँझरी से बाहर का दृश्य दिखलायी पड़ता था। ढालुवीं भूमि में तकिये की आवश्यकता न थी। पास ही आम के नीचे कम्बल बिछाकर दो सेवकों के साथ सोमदेव बैठा था। मन में सोच रहा था-यह सब रुपये की सनक है।
ताल के किनारे, पत्थर की शिला पर, महुए की छाया में एक किशोरी और एक खसखसी दाढ़ीवाला मनुष्य, लम्बी सारंगी लिये, विश्राम कर रहे थे। बालिका की वयस चौदह से ऊपर नहीं; पुरुष पचास के समीप। वह देखने में मुसलमान जान पड़ता था। देहाती दृढ़ता उसके अंग-अंग से झलकती थी। घुटनों तक हाथ-पैर धो, मुँह पोंछकर एक बार अपने में आकर उसने आँखें फाड़कर देखा। उसने कहा, 'शबनम! देखो, यहाँ कोई अमीर टिका हुआ मालूम पड़ता है। ठंडी हो चुकी हो, तो चलो बेटी! कुछ मिल जाये तो अचरज नहीं।'
शबनम वस्त्र सँवारने लगी, उसकी सिकुड़न छुड़ाकर अपनी वेशभूषा को ठीक कर लिया। आभूषणों में दो-चार काँच की चूड़ियाँ और नाक में नथ, जिसमें मोती लटककर अपनी फाँसी छुड़ाने के लिए छटपटाता था। टट्टर के पास पहुँच गये। मिरजा ने देखा-बालिका की वेशभूषा में कोई विशेषता नहीं, परन्तु परिष्कार था। उसके पास कुछ नहीं था-वसन अलंकार या भादों की भरी हुई नदी-सा यौवन। कुछ नहीं, थीं केवल दो-तीन कलामयी मुख रेखाएँ-जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाएँ थीं, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था, पर कौमार्य में उज्ज्वलता थी। और यह क्या! सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुहाँसे। तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, 'अभाव-अभाव!' कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था। मिरजा कुछ सिर उठाकर झँझरी से देखने लगा।
'सरकार! कुछ सुनाऊँ दाढ़ीवाले ने हाथ जोड़कर कहा। सोमदेव ने बिगड़ कर कहा, 'जाओ अभी सरकार विश्राम कर रहे हैं।'
'तो हम लोग भी बैठ जाते हैं, आज तो पेट भर जायेगा।' कहकर वह सारंगीवाला वहाँ की भूमि झाड़ने लगा।
झुँझलाकर सोमदेव ने कहा, 'तुम भी एक विलक्षण मूर्ख हो! कह दिया न, जाओ।'
सेवक ने भी गर्व से कहा, 'तुमको मालूम नहीं, सरकार भीतर लेटे हैं।'
'शाहजादे मिरजा जमाल।'
'कहाँ हैं?'
'यहीं, इसी टट्टी में हैं, धूप कम होने पर बाहर निकलेंगे।'
'भाग खुल गये! मैं चुपचाप बैठता हूँ।' कहकर दाढ़ीवाला बिना परिष्कृत की हुई भूमि पर बैठकर आँखें मटकाकर शबनम को संकेत करने लगा।
शबनम अपने एक ही वस्त्र को और भी मलिन होने से बचाना चाहती थी, उसकी आँखें स्वच्छ स्थान और आड़ खोज रही थीं। उसके हाथ में अभी तोड़ा हुआ कमलगट्टा था। सबकी आँखें बचाकर वह उसे चख लेना चाहती थी। सहसा टट्टर खुला।
मिरजा ने कहा, 'सोमदेव!'
सेवक दौड़ा, सोमदेव उठ खड़ा हुआ था। उसने कई आदाब बजाकर और सोमदेव को कुछ बोलने का अवसर न देते हुए कहा, 'सरकार! जाचक हूँ, बड़े भाग से दर्शन हुए।'
मिरजा को इतने से संतोष न हुआ। उन्होंने मुँह बन्द किये, फिर सिर हिलाकर कुछ और जानने की इच्छा प्रकट की। सोमदेव ने दरबारी ढंग से डाँटकर कहा, 'तुम कौन हो जी, साफ-साफ क्यों नहीं बताते
'मैं ढाढी हूँ?'
'और यह कौन है?'
'मेरी लड़की शबनम।'
'शबनम क्या?'
'शबनम ओस को कहते हैं पण्डित जी।' मुस्कुराते हुए मिरजा ने कहा और एक बार शबनम की ओर भली-भाँति देखा। तेजस्वी श्रीमान् की आँखों से मिलते ही दरिद्र शबनम की आँखें पसीने-पसीने हो गयीं। मिरजा ने देखा, उन आकाश-सी नीली आँखों में सचमुच ओस की बूँदें छा गयी थीं।
'अच्छा, तुम लोग क्या करते हो?' मिरजा ने पूछा।
'यह गाती है, इसी से हम दोनों का पापी पेट चलता है।'
मिरजा की इच्छा गाना सुनने की न थी, परन्तु शबनम अब तक कुछ बोली नहीं थी; केवल इसलिए सहसा उन्होंने कहा, 'अच्छा सुनूँ तो तुम लोगों का गाना। तुम्हारा नाम क्या है जी?'
'रहमत खाँ, सरकार!' कहकर वह अपनी सारंगी मिलाने लगा। शबनम बिना किसी से पूछे, आकर कम्बल पर बैठ गयी। सोमदेव झुँझला उठा, पर कुछ बोला नहीं।
शबनम गाने लगी-
'पसे मर्ग मेरी मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया।'
उसे आह! दामने बाद ने सरेशाम से ही बुझा दिया!
इसके आगे जैसे शबनम भूल गयी थी। वह इसी पद्य को कई बार गाती रही। उसके संगीत में कला न थी, करुणा थी। पीछे से रहमत उसके भूले हुए अंश को स्मरण दिलाने के लिए गुमगुना रहा था, पर शबनम के हृदय का रिक्त अंश मूर्तिमान होकर जैसे उसकी स्मरण-शक्ति के सामने अड़ जाता था। झुँझलाकर रहमत ने सारंगी रख दी। विस्मय से शबनम ने ही पिता की ओर देखा, उसकी भोली-भाली आँखों ने पूछा-क्या भूल हो गयी। चतुर रहमत उस बात को पी गया। मिरजा जैसे स्वप्न से चौंके, उन्होंने देखा-सचमुत सन्ध्या से ही बुझा हुआ स्नेह-विहीन दीपक सामने पड़ा है। मन में आया, उसे भर दूँ। कहा, 'रहमत तुम्हारी जीविका का अवलम्ब तो बड़ा दुर्बल है।'
'सरकार, पेट नहीं भरता, दो बीघा जमीन से क्या होता है।'
मिरजा ने कौतुक से कहा, 'तो तुम लोगों को कोई सुखी रखना चाहे, तो रह सकते हो?'
रहमत के लिए जैसे छप्पर फाड़कर किसी ने आनन्द बरसा दिया। वह भविष्य की सुखमयी कल्पनाओं से पागल हो उठा, 'क्यों नहीं सरकार! आप गुनियों की परख रखते हैं।'
सोमदेव ने धीरे से कहा, 'वेश्या है सरकार।'
मिरजा ने कहा, 'दरिद्र हैं।'
सोमदेव ने विरक्त होकर सिर झुका लिया।
कई बरस बीत गये।
शबनम मिरजा के महल में रहने लगी थी।
'सुन्दरी! सुन्दरी! ओ बन्दरी! यहाँ तो आ!'
'आई!' कहती हुई एक चंचल छोकरी हाथ बाँधे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसकी भवें हँस रही थीं। वह अपने होंठो को बड़े दबाव से रोक रही थी।
'देखो तो आज इसे क्या हो गया है। बोलती नहीं, मरे मारे बैठी है।'
'नहीं मलका! चारा-पानी रख देती हूँ। मैं तो इससे डरती हूँ! और कुछ नहीं करती।'
'फिर इसको क्या हो गया है, बतला नहीं तो सिर के बाल नोंच डालूँगी।'
सुन्दरी को विश्वास था कि मलका कदापि ऐसा नहीं कर सकती। वह ताली पीटकर हँसने लगी और बोली, 'मैं समझ गयी!'
उत्कण्ठा से मलका ने कहा, 'तो बताती क्यों नहीं?'
'जाऊँ सरकार को बुला लाऊँ, वे ही इसके मरम की बात जानते हैं।'
'सच कह, वे कभी इसे दुलार करते हैं, पुचकारते हैं मुझे तो विश्वास नहीं होता।'
'हाँ।'
'तो मैं ही चलती हूँ, तू इसे उठा ले।'
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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