उपन्यास -मुझे कुछ याद नहीं /हरिसिंह दोडिया

Jemsbond
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Re: उपन्यास -मुझे कुछ याद नहीं /हरिसिंह दोडिया

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सैनिक अस्पताल के विशाल प्रांग़ण में जीप खड़ी थी।
कुछ ही देर में डॉ.पेड्रिक, मेजर विजेंद्रसिंह राठौड़ और जयजयवंती बाहर निकले।
दोंनो साथ ही बैठे।
ड्राइवर ने डॉक्टर की ओर देखा। फिर चाबी घुमायी।
एक घरघराहट से जीप चालू हुई। ड्राइवर का पैर ब्रेक पर ही था।
‘मिस्टर राठौड़, तुम्हारे साथ तुम्हारी पत्नी मिसीस राठौड़ है, इसे मत भूलना'।
‘मेरी पत्नी ? नहीं...नही... मुझे कुछ याद नहीं, डॉक्टर...' कहकर उसने बाजू में देखा।
जयजयवंती पहली बार जब, यहाँ, इस सैनिक अस्पताल में मेजर से मिली थी तब मेजर जैसा हँसे थे, बराबर वैसे ही ये हँसे... और न जाने कब तक जयजयवंती को देखते रहे।
जयजयवंती ने भी हँस दिया।
डॉक्टर पेड्रिक भी हँस पड़े।
‘गुड लक...बेस्ट विशीस'। कहते हुए डॉक्टर ने कुछ जरूरी सूचनाएँ दीं, और हरी-हरी पहाड़ियों की हवा से जो भी फर्क हो, विजेंद्रसिंह राठौड़ की याददाश्त में कितना सुधार होता है उसका वृतांत हर पंद्रह दिनों के बाद भेजते रहने को कहा।
सभी ने हाथ हिलाकर बिदा दी। घरघराहट के साथ जीप रेल्वे स्टेशन की ओर दौड़ने लगी।
तब डॉ.पेड्रिक बालक-सी निर्दोष हँसी हँस रहे थे। यदि किसी ने देखा होता तो पता चलता कि उनके चेहरे पर ईसा मसीह-सा स्मित उभर रहा था।
कम्पाउन्ड के दरवाजे के खंभे के ग़ले में अब भी वह साइन बोर्ड लटक रहा था- ‘कुत्ते से सावधान'।
विजेंद्रसिंह ने उसे पढ़ा।
फिर वह खड़ा रहा।
यों ही चारों ओर देखा।
छोटी-छोटी पहाड़ियाँ, ऊँची-नीची पहाड़ियाँ, हरी-हरी पहाड़ियाँ... वह देर तक देखता रहा।
पहाड़ियों ने भी उसको देखा...दूर-दूर से उड़ कर आ रहे ‘पीली' पंछियों के समूह ने भी उसको देखा। निकट की क्यारी से कम्पाउन्ड के बाहर आती कोमल तितलियों ने उससे पहचान की। सामने के वृक्ष से ध्यान से देख रहे कौए ने मौन की भाषा में पूछा- ‘आये कब ? कैसे हो ? '
परिचित होने के बावजूद अपरिचित बनकर वह सब कुछ देखता रहा।
यहाँ सारी पहाड़ियाँ, ‘पीली' पंछियों के पसरते-बंध होते कत्थई रंग़ की छींट वाले पंख, कोमल तितली, पहाड़ी कौआ- सब उसे पहचानते थे। आज से नहीं...परापूर्व से। बरसों से...सभी उसे जानते थे, पहचानते थे किन्तु वह...'।
वह किसी को भी नहीं पहचानता था।
सभी के लिए वह अपना था।
किन्तु उसके लिए सभी पराये थे, अनजाने थे।
सब उसे पहचानते थे किन्तु वह किसी को भी नहीं।
पत्नी के उदर में पल रहे बच्चे को भी नहीं।
फिर वह हँस दिया।
जब जब भी वह आनंद में होता, हँस देता था। छोटे बच्चे-जैसा।
धीरे-धीरे वह कपाउन्ड को पार कर भूल चुके मकान की सीढ़ियों के पास आ रुका।
जंजीर से बँधा अल्सेशियन कुत्ता उसे कठोर नज़रों से ताकता रहा।
धीरे धीरे उसकी कठोरता कम हुई।
वह मालिक को आश्चर्य चकित हो देखता रहा।
फिर उसने दुम हिलायी... और आराम से बैठ ग़या।
विजेंद्रसिंह राठौड़ का चेहरा हँसी से भर उठा।
वह कुत्ते के पास बैठा। उसके लंबे-लंबे बालों पर प्यार से हाथ फेरा।
जयजयवंती सामने के दरवाजे से ये सब देखा करती थी।
अल्शेशियन कुत्ते ने मेजर को पहचान लिया था।
उन्होंने कुत्ते को पहचाना होगा ?
‘यह अल्शेशियन तुम पर पहली बार भौंका था, वह याद है ? '
‘मुझ पर ? यहाँ ? इस जग़ह पर ? '
‘नहीं, मुझे कुछ याद नहीं'। दरवाजे से हो वह कमरे में ग़या। फिरा। उसके कमरे ही में उसने आराम किया।
‘यहाँ हम रहते थे'। पत्नी ने कहा।
‘यहाँ ? '
‘हाँ, और इसी पलंग़ पर सोये थे'।
‘हाँ, और पहाड़ियों पर घूमने जाते थे... कुछ याद आता है ? '
‘ना, मुझे कुछ भी याद नहीं आता'।
पुराने नौकर एक के बाद एक खबर पूछ ग़ये।
बटलर तो बड़े बाबू यहाँ नहीं हैं इसलिए छोटे बाबू उसकी पीठ में एक मुक्का लगा देंगे- की अपेक्षा से हँसता-हँसता आया।
किन्तु विजेंद्रसिंह ने उसकी ओर देखा भी नहीं।
झिझककर वह खड़ा रह ग़या।
फिर जरा जोर से कहा- ‘सलाम सा'ब'।
विजेंद्र ने देखा। उसे देखता रहा।
कुछ देर बाद कहा- ‘सलाम'।
वह देखता रहा।
विजेंद्रसिंह राठौड़ के चेहरे पर हँसी खिल उठी। जयजयवंती देखती रही।
बटलर को मेजर ने नहीं पहचाना।
किसी को भी नहीं, खुद को भी। ये सब भूल ग़ये हैं। सारा अतीत बिसर ग़ये थे। भूल जाने में कितना बड़ा सुख है ! वह तो कुछ भी नहीं भूल पाती। पराये आदमी का संग़ करना यदि पाप कहलाता हो तो उसने पाप किया था। उस पाप की सारी जानकारी उसने पति को लिख कर बता दी थी...सब कुछ निष्कपट भाव से लिखा था। इकरार किया था।
और पति का अंतिम पत्र मिला था- पति-पत्नी के संबंध विच्छेद का।
पति मेजर विजेंद्रसिंह राठौड़ तो युद्ध में घायल हो, दिमाग़ के मार से सब कुछ भूल चुके थे। डॉ.पेड्रिक का कहना था कि अतीत की यादें अब उसे शायद ही आये, किन्तु...किन्तु वह अपने पाप को कैसे भुला पायेगी !
जयजयवंती ने भूलने की बहुत कोशिश की किन्तु वह भूल न पायी... वहाँ तो उसे याद आया। सैनिक अस्पताल में डॉ.पेड्रिक ने अंतिम पत्र तो फाड़ डाला था... टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे।
उसे भी अब सब कुछ भूल जाना होगा।
पति विजेंद्रसिंह राठौड़ अतीत को भूल चुके थे।
भूलने ही में सुख है, शांति है, मजा है।
और आराम से सोये पति के बग़ल में वह सो ग़ई।
सबेरे पति को लेकर घूमने निकली।
वही हरी-हरी पहाड़ियाँ।
वही पीले पंखों को पसारकर उड़ते ‘पीली'...
कोमल पंखों वाली वही तितली।
ध्यान से ग़र्दन घुमा-घुमाकर देखता पहाड़ी कौआ...जयजयवंती हँस पड़ी।
उसे देख विजेंद्र ने भी हँस दिया।
पत्नी दौड़ी... दौड़ते ढलान उतर ग़ई...
पति दौड़ा... दौड़ते ढलान उतर ग़या।
दोनों देर तक दौड़ते रहे। हरी-हरी पहाड़ियों, पीले पंख पसारकर उड़ते पंछियों, कोमल तितलियों, पहाड़ी कौआ- सभी को देखते रहे, अतीत को बिसरते रहे और खिलखिलाकर हँसते रहे... हा... हा... हा... हा... हा...
पहाड़ियों के बीच एक-दूसरे से टकराकर प्रतिध्वनियाँ गूँजती रहीं........ हा... हा... हा... हा... हा...
समाप्त
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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