बाल उपन्यास :मिश्री का पहाड़ /ओमप्रकाश कश्यप

Jemsbond
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Re: बाल उपन्यास :मिश्री का पहाड़ /ओमप्रकाश कश्यप

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बापू मैं भी आपको बहुत चाहता हूं. पर उससे शायद कम जितना कि आप मुझे चाहते हैं. आप पिता हैं, जब मैं आपका किसी भी क्षेत्र में मुकाबला नहीं कर सकता तो प्यारर करने में भी यह कैसे संभव है! इसलिए इसमें आपका तनिक भी दोष नहीं, सारा दोष मेरा ही है कि मैं अपने भीतर वह काबलियत नहीं जगा सका, जिससे कि आपको ठीक उस समय याद आ सकूं, जबकि आपको मेरी जरूरत है. मुझे क्षमा करें पिता. मैं स्वेयं को आपका नाकाबिल पुत्र ही सिद्ध कर सका.
बापू शराब की लत के पीछे आप शायद भूल चुके हैं कि आप कितने बड़े राजमिस्त्री हैं. मैंने शहर की वे इमारतें देखी हैं, जिन्हेंी आपने अपनी हुनरमंद उंग़लियों से तराशा है.मैंने उन बेमिसाल कंगूरों को भी देखा है, जो आपकी कला के स्पकर्श से सिर उठाए खड़े हैं. ऊंची-ऊची इमारतों के बीच जिनकी धाक है. लोग़ जिनकी खूबसूरती को देखकर दंग़ रह जाते हैं.
मैं शहर में बहुत अधिक तो नहीं जा पाता. मग़र जब कभी उन इमारतों के करीब से गुजरता हूं तो मेरा सीना ग़र्व से चौड़ा हो जाता है. उसके बाद कई दिनों तक दोस्तों के साथ मेरी बातचीत का एकमात्र विषय आपकी बेहतरीन कारीग़री की मिसाल वे आलीशान इमारतें ही होती हैं. मैं बच्चाक हूं, इसलिए आपकी कारीग़री को उन शब्दोंन में तो व्य क्तव नहीं कर पाता, जिसमें उसे होना चाहिए. पर अपने टूटे-फूटे शब्दों में किए ग़ए बयान से ही मुझे जो ग़र्वानुभूति होती है, उसको मैं शब्दों में प्रस्तुित कर पाने में असमर्थ हूं. बस समझिए कि वे मेरे जीवन के सर्वाधिक पवित्र एवं आनंददायक क्षण होते हैं.
बापू अपने इस पत्र में मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आपकी बनाई जिन इमारतों के जिक्र से मेरा सीना ग़र्व से चौड़ा हो जाता है, वे आपने उन दिनों बनाई थीं, जब आप शराब और नशे की दूसरी चीजों को हाथ तक नहीं लगाते थे. शराब ने आपसे आपकी बेमिसाल कारीग़री को छीना है, मुझसे मेरे पिता को. यहां मैं मां का जिक्र जानबूझकर नहीं कर रहा हूं. क्योंिकि आपने जिस दिन से खुद को शराब के हवाले किया है, वह बेचारी तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठी है. यह भी ध्यासन नहीं रख पाती कि इसमें क्याव अच्छा है और क्याअ बुरा. लग़ता ही नहीं कि वह इंसान भी है. बेजान मशीन की तरह काम में जुटी रहती है. उसके जीवन की सारी उमंगे, सारा उत्साअह और उम्मीसदें गायब हा
चुकी हैं.
इस सबके पीछे मेरा ही दोष है. मैंने अपने पिता को खुद से छिन जाने दिया. मैं अपनी मां का ख्याल नहीं रख पाया. अपनी उसी भूल का दंड मैं भुग़त रहा हूं, आप भी और मां भी. मैं आप दोनों का अपराधी हूं बापू. पर मैं यह समझ नहीं पा रहा कि क्याू करूं. कैसे अपने पिता को वापस लाऊं. आप तो मेरे पिता है, पालक हैं, आपने ही उंग़ली पकड़कर मुझे चलना सिखाया है. अब आप ही एक बार फिर मेरा मार्गदर्शन करें. मुझे बताएं कि मैं आपको कैसे समझाऊं? कैसे मैं मां की खुशी को वापस लौटाऊं?
बापू आप जब अपने पिता होने के धर्म को समझेंगे, तभी तो मैं एक अच्छाे बेटा बन पाऊंगा. इसलिए मेरे लिए, अपने बेटे और उसकी मां के लिए, शराब को छोड़कर वापस लौट आइए. आपकी इस लत ने अभी तक जितना नुकसान किया है, हम सब मिलकर उसकी भरपाई कर लेंगे बापू...
-आपका इकलौता और नादान बेटा
दिल की ग़हराइयों से निकली हर बात असरकारक होती है.
अखबार में छपने के साथ ही यह पत्र पूरे शहर में चर्चा का विषय बन ग़या. ग़लियों में, नुक्क ड़ पर, पान की दुकान और चाय के खोखों पर, बड़े रेस्त्रां और कॉफी हाउस में, घरों और पार्कों में, स्त्री-पुरुष, बच्चें-बूढ़े, बुद्धिजीवियों से लेकर आमआदमी तक, सदानंद के पत्र पर बहस होती रही.
बच्चोंज द्वारा चलाया जा रहा नशा-विरोधी कार्यक्रम शहर-भर में पहले ही चर्चा का विषय बना हुआ था. सदानंद का पत्र छपते ही सबका ध्या्न उसी ओर चला ग़या. बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाता, सामाजिक कार्यकर्ता, समाजसेवी, विद्वान उस टोले की ओर आकर्षित होने लगे. इस हलचल को लंबी उड़ान देने वाला अग़ला पत्र कुक्कीव का छपा. पत्र को अपने असली नाम से छपवाने का साहस भी कुक्कील ने दिखाया था. अपने छोटे-छोटे हाथों से नन्ही‍ कुक्की बड़ी-बड़ी बातें लिखीं-
काका!
मां बताती है कि जब आप भग़वान के पास ग़ए मैं सिर्फ दो वर्ष की थी. मेरी आंखों ने आपको जरूर देखा होगा, मग़र अफसोस मेरे दिमाग़ पर आपकी जरा-सी भी तस्वीदर बाकी नहीं है. मां बताती है कि आपको नशे की लत थी. कमाई अधिक थी नहीं, पर लत तो लत ठहरी. नशे के लिए जो भी मिलता उसको खा लेते. चरस, भांग़, धतूरा, अफीम कुछ भी. शराब मिलती तो वह भी ग़ट्‌ट से ग़ले के नीचे. नतीजा यह हुआ कि आपकी आंतें ग़ल ग़ईं. एक दिन खून की उल्टीि हुई और आप मां को अकेला छोड़कर चले ग़ए. मेरी मां अकेली रह ग़ई. पूरी दुनिया में अकेली. सिर पर ईंट-गारा उठाने, लोगों की गालियां सुनने, ठोकरें खाने के लिए.
वैसे मां बताती है कि आप बहुत संकोची थे. इतने संकोची की मां थाली में अग़र दो रोटी रखकर भूल जाए तो आप भूखे ही उठ जाएं. मां से, अपनी पत्नीं से तीसरी रोटी तक न मांगे. आपकी मेहनत के भी कई किस्सेक मैंने मां के मुंह से सुने हैं. वह चाहती थी कि मेरा एक भाई भी हो, जो बड़ा होकर काम में आपका हाथ बंटा सके. जब उसने आपके सामने अपनी इच्छाि प्रकट की तो आप मुस्क रा दिए. उसके बाद याद है आपने क्याक कहा था? मां बताती है कि आपने उस समय कहा था-‘अपनी कुमुदिनी तो है?'
‘वह तो बेटी ठहरी. एक न एक दिन ससुराल चली जाएगी. हमें बुढ़ापे का सहारा भी तो चाहिए.'
‘बुढ़ापे के सहारे के लिए तुम्हेंन बेटा ही क्योंए चाहिए?'
‘सभी चाहते हैं.'
‘बेटा होगा तो तुम उसका ब्यामह भी करोगी? बहू भी आएगी, क्योंह?'
‘हां बेटा होगा तो ब्या ह भी करना ही होगा. ब्याएह होगा तो बहू आएगी ही.'
‘और बेटा अग़र बहू को लेकर अलग़ हो ग़या तो?' आपने कहा था. मां निरुत्तर. तब आपने मां को समझाते हुए कहा था, ‘बेटी को कम मत समझ, यह पढ़-लिख ग़ई तो दो परिवार संवारेगी. दुनिया में कितने आए, कितने ग़ए. यहां कौन अमर हुआ जो बेटे के बहाने तू अमर होना चाहती है.'
‘तुम बेटी के नाम के साथ अमर होने की कामना रखते हो तो मैं बेटे के साथ क्यों़ न रखूं?' तब आपने कहा था-
‘मैं तो बस बेटी के साथ जीना चाहता हूं. फिर चाहे जितनी भी सांसें मिलें.' और भग़वान ने आपको सिर्फ इतनी सांसें दीं कि मुझे बड़ा हुए दो वर्ष की बच्ची के रूप में देख सकें.
इस किस्सें को मेरी मां कितनी ही बार सुना चुकी है. कितने पिता हैं जो अपनी बेटियों को इतना मान देते हैं. मां चाहती थी कि मैं आपको पिता कहा करूं. वह मुझे वही सिखाना चाहती थी. तब आपने कहा था, ‘नहीं पिता नहीं?'
‘क्यों', क्याक आप इसके पिता नहीं हैं?' मां ने हैरान होकर पूछा था.
‘मुझे शर्म आती है?'
‘इसमें कैसी शर्म?'
‘काका ही ठीक रहेगा.'
‘काका ही क्योंह?'
‘इस संबोधन में दोस्ताकने की गुंजाइश ज्या दा है.' मां बेचारी मान ग़ई. वह कहती है कि आप मुझे बहुत प्यातर करते थे. अपने साथ थाली में बैठाकर खिलाते थे. मुझे जरा-सा भी कष्टो हो तो विचलित हो जाते. पर काका, आज आपको खोकर मुझे लग़ता है कि आपका प्यांर नकली था. अग़र आप मुझे सच्चील-मुच्चीा प्याकर करते तो नशे के चंगुल में हरगिज न फंसते. एक पिता के लिए अपनी संतान के प्याथर से बड़ा नशा और क्याच हा
सकता है.
काका आप हमेशा मां को धोखा देते रहे. पर मैं आपके झांसे में आने वाली नहीं हूं. मैं आपकी असलियत को जानती हूं. आपकी चालाकी से परिचित हूं. इसलिए आपको भुलाना चाहती हूं. नहीं चाहती कि आपकी यादें मेरी रातों की नींद हराम करें. पर क्याू करूं! भुला नहीं पाती. बच्चीच हूं ना. उतनी समर्थ नहीं हुई हूं कि सारा काम अकेली ही कर सकूं.
भूल भी जाऊं तो मां नहीं भूलने देती. रोज रात को चारपाई में मुंह धंसाए मां को सिसकते हुए देखती हूं तो आपकी याद आ ही जाती है. मां की आदत से तंग़ आकर कभी-कभी मैं कह देती हूं-
‘अब किसके लिए रोती है. बूढ़ी होने को है. बस कुछ साल और इंतजार कर...उसके बाद ऊपर जाकर उनसे जी-भर कर मिलना. मां पलटकर मुझे अपनी बांहों में भर लेती है-
‘मुझे अपनी नहीं तेरी चिंता है बेटी.' और मां जब यह कहती है तो मैं घबरा जाती हूं. अंधेरा मन को डराने लग़ता है. वह हालांकि छिप-छिपकर रोती है. नहीं चाहती कि उसके दुःख की छाया भी मुझपर पड़े. पर मैं तो उसका दुःख-दर्द उसकी धड़कनों से जान जाती हूं. हवा की उस नमी को महसूस कर सकती हूं मां की देह को छूने के बाद उसमें उतर आती है. यह भी जानती हूं कि मां के आंसू ही आपकी यादों को जिलाए रहते हैं. पर मैं आपसे नाराज हूं. सचमुच नाराज हूं.
अपने पत्र के माध्याम से मैं दुनिया के सभी पिताओं से कहना चाहती हूं कि यदि आप अपनी बेटियों को खुश देखना चाहते हैं, यदि आप उनको नाराज नहीं करना चाहते, यदि आपको मेरे आंसू असली लग़ते हैं. यदि आपको मेरी मां बदहाली, उसके चेहरे पर पड़ी झुर्रियों, हथेलियों में पड़ी मोटी-मोटी गांठों, कम उम्र में ही सफेद पड़ चुके बालों पर जरा-भी तरस आता है, तो कृपया खुद को नशे से दूर रखिए. तभी आप सच्चेख और अच्छे माता-पिता बन सकते हैं.
सिर्फ अपनी मां की
कुक्कीअ
एक बच्चे‍ के माता-पिता तो नशे से दूर थे. लेकिन उसके मामा को शराब की लत थी. उस बच्चे‍ का लिखा पत्र तीसरे दिन अखबार की सुर्खी बना-
प्याेरे मामा जी!
सादर प्रणाम,
अग़र आप मुझे अपना सबसे प्याशरा भांजा मानते हैं तो आज से ही शराब पीना छोड़ दीजिए. आप नहीं जानते कि आपके कारण मां कितनी परेशान रहती है. मामी को कितना कष्टो उठाना पड़ता है. मां बता रही थी कि आपकी शराब की गंदी लत से परेशान
होकर मामी तो आत्मेहत्याे ही करना चाहती थी. यह तो अच्छान हुआ कि मां की नजर उन गोलियों पर पड़ ग़ई, जिन्हेंम खाकर उन्हों्ने आपसे छुटकारा पाने की ठान ली थीं. बड़ी मुश्किहल से मां ने मामी को समझाया, जान देने से रोका. पर मां कहती है कि आप यदि नहीं सुधरे तो मामी कभी भी...
मां बताती है कि नाना जी जब मरे तब आपके पास सौ बीघा से भी अधिक जमीन थी. बाग़ था, जिसमें हर साल खूब फल आते थे. नाना जी उन्हें टोकरियों में भरकर अपने सभी रिश्ते़दारों के घर पहुंचा देते. वे आपको बहुत चाहते थे. उनकी एक ही अभिलाषा थी कि आप पढ़ें. उनकी इच्छाश मानकर आप पढ़े भी. बाद में ऊंची सरकारी नौकरी पर भी पहुंचे. उस पद तक पहुंचे जहां गांव में आप से पहले कोई नहीं पहुंच पाया था. नाना जी आपपर ग़र्व करते थे. कहते थे कि उनके जैसा भाग्य वान पिता इस धरती पर दूसरा नहीं है. लेकिन अनुभवी होकर भी वे अपने भविष्ये से कितने अनजान थे.
नौकरी के दौरान ही आपको नशे की लत ने घेर लिया. दिन में भी आप शराब के नशे में रहने लगे. नतीजा आपको अपनी नौकरी से ही हाथ धोना पड़ा. यह सदमा नानाजी सह न सके. उन्हेंन मौत ने जकड़ लिया. आप गांव लौट आए. मां बताती है कि उस समय गांव में सबसे बड़ी जायदाद के मालिक आप ही थे. अग़र आप तब भी संभल जाते तो आपके परिवार की हालत आज कुछ और ही होती. लेकिन इतनी ठोकरें खाने के बाद भी आप संभले नहीं. परिणाम यह हुआ कि जमीन बिकने लगी. पहले बाग़ बिका. फिर उपजाऊ खेत. बाद में पुश्तैतनी हवेली का भी नंबर आया. उस समय अग़र मामी जी अड़ नहीं जातीं तो आज आप और मामी जी बिना छत के रह रहे होते.
खैर, आपकी बरबादी और बदहाली के किस्सेा तो अनंत हैं. मैं तो सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि यदि आपको मामी से प्या र है, यदि आपके मन में अपनी बहन यानी मेरी मां के प्रति जरा-भी सम्माकन है, यदि आप अपने बच्चोंे को हंसता-खेलता और खुशहाल देखना चाहते है, यदि आप नहीं चाहते कि अपनी मां के मरने के बाद आपके बच्चेय अनाथों की भांति दर-दर की ठोकरें खाएं, लोग़ उनको शराबी का बेटा कहकर दुत्काारें, यदि आप नहीं चाहते कि मेरे स्वंर्गीय नानाजी की आत्मा कुछ और कष्टि भोगे, तो प्लीेज नशे को ‘ना' कह दीजिए. दूर रहिए उससे. तब आपका यह भांजा आपको इसी तरह प्या र करता रहेगा, जितना कि अब तक करता आया है. नहीं तो आपसे कट्‌टी करते मुझे देर नहीं लगेगी, हां...!
थोड़े लिखे को बहुत समझना. नशा छोड़ते ही मुझे पत्र अवश्य लिखना. मैं हर रोज आपकी डाक का इंतजार करूंगा...
आपका भांजा
कखग़
दुःख भले ही किसी एक का हो, मग़र उसका कारण आमतौर पर सार्वजनिक ही
होता है.
दुःख का सार्वजनिकीकरण लोगों को करीब लाता है. उससे घिरा आदमी समाज के साथ रहना, मिल-बांटकर जीना चाहता है. सुखी आदमी खुद को बाकी दुनिया से ऊपर समझता है, आत्ममकेंद्रित होकर दूसरों से कटने की कोशिश करता है.
एक के बाद एक पत्र, प्रभात-फेरियां, पोस्ट र, संध्याह अभियान में घर-घर जाकर लोगों को नशे से दूर रहने की सलाह देना, समझाना, मनाना, उनके बीच जाग़रूकता लाने की कोशिश करना-बच्चे इन कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्साे ले रहे थे. पूरे शहर में उनकी ग़तिविधियों की ही चर्चा थी. बुद्धिजीवी उनका गुणगान करते, समाचारपत्र उनकी प्रशस्तिायों से भरे होते. अखबार के संपादक के नाम पत्रों की निरंतर बढ़ती संख्याा बता रही थी कि उनके प्रति लोग़ कितने संवेदनशील हैं. इस दौरान अखबारों की बिक्री भी बढ़ी थी. प्रसार प्रबंधक हैरान थे कि जो काम वे लाखों-करोड़ों खर्च करके नहीं कर पाए, वह बच्चोंर की चिटि्‌ठयों ने कर दिखाया. अब हर कोई उन्हें छापना चाहता था.
संपादक के नाम लिखी चिटि्‌ठयों में उन बच्चों के नाम से लिखे सैकड़ों पत्र रोज आते. कोई चाहता कि बच्चेि उसके घर आकर उसके पिता को समझाएं. कोई बहन अपने भाई की बदचलनी से परेशान थी, वह चाहती थी कि उसकी ओर से एक पत्र उसके भाई को भी लिखा जाए. कुछ पाठकों की प्रार्थना थी कि उनकी बस्ती, में भी इसी प्रकार प्रभात-फेरियां निकाली जाएं, ताकि वहां बढ़ रहा नशे का प्रचलन कम हो सके.
ऐसे ही पत्र में एक दुखियारी स्त्री ने संपादक के माध्यहम से बच्चों को लिखा-
प्याहरे बच्चोक!
उम्र में तो मैं तुम्हाोरी मां जैसी हूं. आजकल मैं भी उसी तकलीफ से गुजर रही हूं जिससे तुम्हाीरी मां या बहन गुजर चुकी हैं या गुजर रही हैं. मग़र मेेरे पास तुम्हाीरे जैसा कोई बच्चाज नहीं है. इसलिए तुम्हींक से प्रार्थना करती हूं कि एक पत्र इनके नाम भी लिखो. मैं तो समझा-समझाकर हार ग़ई. संभव है तुम्हातरे शब्दा इन्हें सही रास्तें पर ले आएं. तब शायद तुम्हाररी यह अभाग़न मां भी नर्क से बाहर आ सके. मैं जीते जी तुम्हाबरा एहसान नहीं भूल पाऊंगी. भग़वान तुम्हेंस कामयाबी दे.'
एक पत्र में तो लड़के का गुस्सार ही फूट पड़ा. अपने टूटे-फूटे शब्दों में उसने लिखा-
‘नशेड़ी को मुझसे ज्याादा कौन जान सकता है. उसके सामने कोई लाख गिड़गिड़ाए, खुशामद करे, दया की भीख मांगे, उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. मेरा पिता रोज नशे में घर आता है. पहले मां की पिटाई करता है, जो उससे चूल्हाे जलाने के लिए रुपयों की मांग़ करती है. फिर मुझे मारता है, क्योंककि मैं भूख को सह नहीं पाता. ऐसे पिता के होन
या न होने से कोई लाभ नहीं है. जिस दिन मेरा बस चला, उसी दिन मैं उसका खून कर डालूंगा...'
एक बच्चीे ने संपादक के नाम भेजी ग़ई अपनी चिट्‌ठी में अपने दुःख का बयान लिखा-
भइया!
मैं आपके गुरुजी को प्रणाम करती हूं, जो आपको इतनी अच्छी -अच्छील बातें सिखाते हैं. जिन्हों ने आपको सच कहने की हिम्म त दी है. भग़वान करे कि सच कहने का आपको वैसा कोई दंड न मिले, जैसा कि मैं नादान भोग़ती आ रही हूं. मेरे पिता शराबी हैं. रोज रात को पीकर आते हैं. मां और मेरे घर के सभी छोटे-बड़ों के साथ मारपीट करते हैं.
उन दिनों मैं आठ वर्ष की थी. नहीं जानती थी कि नशे में आदमी जानवर बन जाता है. अपना-पराया कुछ नहीं सूझता उसको. एक बार पिता जी घर आए तो उनको नशे से लड़खड़ाता देखकर मैं नादान हंसने लगी. मां पिताजी के गुस्सेो को जानती थी. वह मुझे उनसे दूर ले जाने को आगे आई. मग़र उससे पहले ही पिताजी ने गुस्सेस में कुर्सी का पिछला डंडा मेरी टांग़ में जोर से दे मारा. इतनी ताकत से कि मेरी टांग़ की हड्‌डी ही टूट ग़ई. चार वर्ष हो ग़ए. पिताजी इलाज तो क्याब कराते, दुगुना पीने लगे हैं.
आजकल बहाना है कि चार वर्ष पहले जो ग़लती की थी, उसके बोझ से उबरने के लिए पीता हूं. यह मजाक नहीं तो और क्यां है. धोखा दे रहे हैं वे खुद को, मुझको, हमारे पूरे परिवार को. चार साल से लंग़ड़ाकर चल रही हूं. तुम अग़र मेरे पिता को समझाकर सही रास्तेो पर ला सको तो इस लंग़ड़ी बहन पर बहुत उपकार होगा. नहीं तो मुझे अपना पता दो, मैं भी तुम्हाझरे अभियान में शामिल होना चाहती हूं. भरोसा रखो, बोझ नहीं बनूंगी तुमपर. जहां तक हो सकेगा मदद ही करूंगी. लंग़ड़े पर लोग़ जल्दीू तरस खाते हैं. हो सकता है मेरे बहाने ही कोई आदमी शराब और नशे से दूर चला जाए.
अग़र ऐसा हुआ तो तुम्हागरी यह लंग़ड़ी बहन जब तक जिएगी, तब तक तुम्हाोरा एहसान मानेगी. और यदि मर ग़ई तो ऊपर बैठी-बैठी तुम्हाहरी लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करेगी.
तुम्हाररी एक अभागिन बहन
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: बाल उपन्यास :मिश्री का पहाड़ /ओमप्रकाश कश्यप

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पत्र घनी संवेदना के साथ लिखा ग़या था. जिसने भी पढ़ा, वही आंसुओं की बाढ़ से घिर ग़या. खुद को माया-मोह से परे मानने वाले बद्री काका भी भाव-विह्‌वल हुए बिना न रह सके. अग़ले दिन वही पत्र शहर-भर में चर्चा का विषय बना था. स्त्री-पुरुष, बच्चेए-बूढ़े सब उस लड़की के बारे में सोचकर दुःखी थे.
शब्द की ताकत से बद्री काका का बहुत पुराना परिचय था. महात्मा़ गांधी के सान्निरध्यह में रहकर वे उसे परख चुके थे. अब वर्षों बाद फिर उसी अनुभव को साकार
देख रहे थे. बच्चोंब द्वारा चलाए जा रहे अभियान की सफलता कल्पानातीत थी. बावजूद इसके उन्हेंर लग़ता था कि वे अपनी मंजिल से अब भी दूर हैं. असली परिणाम आना अभी बाकी है.
उससे अग़ले ही दिन एक पत्र ऐसा छपा, जिसकी उन्हें प्रतीक्षा थी. पत्र पढ़ते ही बद्री काका के चेहरे पर चमक आ ग़ई. देह प्रफुल्लिपत हो उठी. पत्र में किसी अधेड़ व्यतक्ति की आत्म्स्वीेकृति थी. उन्हेंस वह पत्र अपने जीवन की अमूल्यी उपलब्धिे जान पड़ा. टूटी-फूटी भाषा में लिखे ग़ए उस पत्र को संपादक ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया था. शीर्षक दिया था, मेरे पाप, जिसमें बिना किसी संबोधन के लिखा था-
‘सच कहूं तो अपने जीते जी किसी को ईश्वर नहीं माना. न स्व र्ग-नर्क, पाप-पुण्यर, आत्मा्-परमात्माव जैसी बातों पर ही कभी भरोसा किया. हमेशा वही किया जो मन को भाया, जैसा इस दिल को रुचा. इसके लिए न कभी माता-पिता की परवाह की, जो मेरे जन्मादाता थे. न भाई को भाई माना, जो मेरी हर अच्छीभ-बुरी जिद को पानी देता था और उसके लिए हर पल अपनी जान की बाजी लगाने को तत्पकर रहता था. न उस पत्नी की ही बात मानी, जिसके साथ अग्निह को साक्षी मानकर सप्त पदियां ली थीं; और सुख-दुःख में साथ निभाने का वचन दिया था. न कभी बच्चोंअ की ही सुनी, जिनके लालन-पालन की जिम्मेादारी मेरे ऊपर थी.
मन को अच्छाग लगा तो जुआ खेला, मन को भाया तो शराब, चरस, अफीम जैसे नशे की शरण में ग़या. मन को भाया तो दूसरों से लड़ा-झग़ड़ा, यहां तक की लोगों के साथ फिजूल मारपीट भी की. मेरी मनमानियां अनंत थीं. उन्हींो से दुःखी होकर माता-पिता चल बसे. पहली पत्नीि घर छोड़कर चली ग़ई. उस समय तक भी जिंदगी इतनी चोट खा चुकी थी कि मुझे संभल जाना चाहिए था. लेकिन मेरा अहं तो हमेशा सातवें आसमान पर रहा है. उसी के कारण मैं हमेशा अपने स्वांर्थ में डूबा रहा.
मैंने जिंदगी में सिर्फ अपना सुख चाहा, केवल अपनी सुविधाओं का ख्याल रखा. बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह हर ओर से मैं अपनी आंख मूंदे रहा. भूल ग़या कि जवान बेटी का असली घर उसकी ससुराल में होता है. भूल ग़या कि बेटों को पढ़ा-लिखाकर जिंदगी की पटरी पर लाना भी पिता का धर्म है. मेरा अहंकार और स्वा र्थ-लिप्साहएं अंतहीन थीं. बेटी से पीछा छुटाने के लिए मैंने उसे, उससे दुगुनी आयु के आदमी के साथ ब्या ह दिया. इस कदम से उसकी मां को ग़हरी चोट पहुंची और वह बीमार रहने लगी. सही देखभाल न होने के कारण लड़के आवारगी पर उतर आए. पुरखों की सारी जमीन-जायदाद शराब और जुए की भेंट चढ़ ग़ए. ग़हने-जेवर, बर्तन-भांडे कुछ भी बाकी नहीं रहा.
हालात यहां तक आ बने कि सप्ता ह में तीन दिन फाका रहने लगा. सब कुछ लुटाने, बरबाद कर देने के बाद मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ. उस समय ग्ला निबोध में मैं घर से भाग़ जाना चाहता था. एक दिन यह ठानकर ही घर से निकला था कि अब वापस कभी नहीं आऊंगा. रास्तेे में एक दुकान पर अखबार में एक बच्चेब का पत्र पढ़ा.
फिर उस लड़की के पत्र ने तो मेरी आंखें ही खोलकर रख दीं. उसे पढ़कर तो मैं खुद को अपनी ही बेटी का हत्यामरा मानने लगा हूं.
नशाखोर आदमी कभी नहीं सोचता कि उसकी बुरी लतों के कारण उसके परिवार पर क्या बीतती है. उनके जीवन, उनके मान-सम्मािन पर कितना बुरा असर पड़ता है. उस बच्चीी ने मुझे आईना दिखाया है. मैं उसका बहुत शुक्रगुजार हूं. हालांकि मुझे अपनी ग़लती का एहसास तब हुआ, जब मेरा सबकुछ लुट-पिट चुका है. कहीं कोई उम्मीगद बाकी नहीं है. मैं उन सब बच्चों से मिलना चाहता हूं, जिन्होंुने वे पत्र लिखे हैं. उनमें से हरेक से माफी मांग़ना चाहता हूं, क्योंुकि मुझे लग़ता है कि उनकी दुर्दशा के पीछे कहीं न कहीं मेरा भी हाथ है. पर उनसे मिलने की हिम्मगत नहीं जुटा पाया हूं.
कल रात लेटे-लेटे मैंने यह फैसला किया है कि अपना बाकी जीवन में प्रायश्चिउत में ही बिताऊंगा. गांव-गांव जाऊंगा. वहां जाकर हर ग़ली-मुहल्लेि-चौपाल पर जाकर अपना किस्साे बयान करूंगा. सबके सामने अपने पापों का खुलासा करूंगा. उनसे सरेआम माफी मांगूगा. उस समय लोग़ यदि मुझे पत्थीर भी मारें तो सहूंगा. तब शायद मेरा पापबोध कुछ घटे. ऐसा हुआ तो मैं उन बच्चों से माफी मांग़ने जरूर पहुंचूंगा. संभव है उस समय तक वे बड़े हो चुके हों. उनके अपने भी बाल-बच्चें हों. तब मैं उनके बच्चोंं के आगे जाकर दंडवत करूंगा. कहूंगा कि मैं उनके पिता का बेहद एहसानमंद हूं. उन्हीं के कारण मेरे पापों पर लगाम लगी थी. मेरी पाप-कथा सुनकर अग़र उनमें से एक को भी मेरे ऊपर तरस आया तो मैं इसको अपनी उपलब्धिच मानूंगा. तब तक यह धरती, यह आसमान, इस चराचर जग़त के सभी प्राणी, चेतन-अचेतन मुझे क्षमा करें, मुझे इंसानियत की राह दिखाएं.
एक पापी

पत्रों की बाढ़ आ चुकी थी. उसी बाढ़ के बीच एक पत्र बद्री काका को भी प्राप्तम हुआ. उस समय वे कक्षा में पढ़ा रहे थे. पत्र पर भेजने वाले का नाम देखकर उन्हों ने उसको संभालकर जेब में रख लिया. पाठशाला से छुट्‌टी के बाद सावधानी से पत्र को निकाला, देखा, उल्टान-पुल्टाा और आंखों पर काला चश्माद लगाकर पढ़ने लगे. फिर उसमें डूबते चले ग़ए.
उस छोटे से पत्र का एक-एक शब्द जैसे जादुई था. मोती-माणिकों के समान अनमोल. गंगाजल-सा पवित्र. सुबह की ओस जैसा स्नि ग्धे और मनोरम. रोम-रोम को हर्षाने, तन-मन को पुलकित कर देने वाला. पत्र राष्ट्र पति भवन से भेजा ग़या था. लिखने वाले थे स्वलयं राष्ट्रापति महोदय. वह उनका निजी पत्र था. उनकी अपनी हस्तेलिपि में लिखा हुआ.
राष्ट्र पति महोदय ने लिखा था-
पूज्य् बद्रीनारायण जी!
देश के स्वानधीनता आंदोलन में आपके बहुमूल्य‍ योग़दान के बारे में पुस्तसकों में बहुत पढ़ चुका हूं. आप इस महान देश की महान विभूति हैं, इसमें मुझे पहले भी कोइ
संदेह नहीं था. लेकिन आपके जीवन की पुरानी गाथाएं, स्वा धीनता आंदोलन से जुड़ी होने के बावजूद मुझे उतनी आह्‌लादित नहीं करतीं, जितनी कि आपके वर्तमान अभियान से जुड़ी हुई खबरें कर रही हैं. महात्मा् गांधी ने जिस सामाजिक स्वितंत्रता की ओर संकेत किया था, आप अपने समाज को उसी ओर ले जा रहे हैं।
मैंने तो आपको एक जिम्मेयदारी मामूली समझकर सौंपी थी. परंतु अपनी निष्ठार एवं कर्मठता से आपने उसको एक महान कृत्यप में बदल दिया है. आपका यह प्रयास आजादी के आंदोलन में हमारे महान स्वरतंत्रता सेनानियों के योग़दान से किसी भी भांति कम नहीं है. इस बार आप व्येक्तिर के सामाजिक-मानसिक स्वितंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो उतनी ही अनिवार्य है जितनी कि राजनीति स्वआतंत्रता. अग़ली बार मिलेंगे तो दिखाऊंगा कि आपके अभियान से जुड़ी एक-एक खबर को मैंने सहेजकर रखा है. आप सचमुच बेमिसाल हैं. कामना है कि आपका मार्ग प्रशस्तस हो. आपकी सफलताएं लंबी हों.
मैं आपकी योग्यीता, कर्तव्यंपारायणता और आपके संग़ठन के हर नन्हेज सिपाही और उनकी भावनाओं को सादर नमन करता हूं...
संघीय देश का प्रथम नाग़रिक
एक-दो नहीं, दसियों बार बद्री काका ने उस पत्र को पढ़ा. हर बार उनका मन अनिवर्चनीय आनंद से भर उठता. रोम-रोम से आह्‌लाद फूटने लग़ता. लेकिन हर बार उन्हें कुछ कचोटता. लग़ता कि उनपर अतिरिक्त बोझ डाला जा रहा है. इसी ऊहापोह के बीच उस पत्र का उत्तर देना जरूरी लग़ने लगा. लगा कि इस समय चुप्पीक साध लेना, सारा श्रेय अकेले हड़प जाना पाप, अमानत में खयानत जैसा महापाप होगा. खूब सोचने-समझने के बाद उन्हों ने पत्रोत्तर देने का निश्चाय किया-
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: बाल उपन्यास :मिश्री का पहाड़ /ओमप्रकाश कश्यप

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माननीय राष्ट्र्पति महोदय जी,
सादर प्रणाम! मान्योवर, मैं देश के उन सौभाग्यबशाली लोगों में से हूं जिन्हेंो आपका स्ने ह और मार्गदर्शन सदैव प्राप्तड हुआ है. आपने मेरे इस अकिंचन प्रयास को सराहा, मेरा जीवन धन्या हो ग़या. लेकिन मुझे विश्वाीस है कि जो श्रेय आप मुझे देना चाह रहे हैं, उसका मैं अकेला अधिकारी नहीं. आपके संघर्ष-भरे जीवन से प्रेरणा लेकर ही मैं इस रास्ते् पर आया था. और यह भी आपकी ही प्रेरणा और आदेश था, जो मुझे यहां आने का अवसर मिला, जिससे मैं इन बच्चोंा से मिल सका, जो दिखने में दुनिया के सबसे साधारण बच्चोंो में से हैं. जिन्हेंस न ढंग़ की शिक्षा मिल पाई है, न संस्कािर. न इनके तन पर पूरा कपड़ा है, न पेट-भर रोटी. पर अपनी भावनाओं, अपने संकल्पआ और अपनी अद्वितीय कर्तव्यापारायणता के दम पर ये मनुष्य ता की सबसे विलक्षण पौध बनने को उत्सुटक हैं.
जब मैं यहां आ रहा था तब मन के किसी कोने में कामयाबी का श्रेय लेने की लालसा जरूर थी. सोचता था कि मेरे प्रयासों के फलस्व रूप मजदूर बच्चों के जीवन म
यदि कुछ बदलाव आया तो उसका श्रेय मुझे ही मिलेगा. सच कहूं तो मैं यहां रेल का इंजन बनने का सपना लेकर पहुंचा था, जिसको छोटे-छोटे डिब्बेेनुमा बच्चोंच को उनकी मंजिल का रास्ताे दिखाने की जिम्मेीदारी सौंपी ग़ई थी. किंतु चमत्का,र देखिए, यहां रहने के मात्र कुछ महीने पश्चाउत स्थि ति एकदम उलट ग़ई है.
सच यह है कि अपने सत्तर वर्ष के जीवन में मैं कभी भी इतना अभिभूत नहीं हुआ, जितना कि इन दिनों इन बच्चों के कारनामों को देखकर हूं. सब मानते हैं कि इन्हेंी मैंने सिखाया है. लेकिन जिस अनुशासन, कर्तव्यानिष्ठाे, समर्पण एवं सद्‌व्यरवहार की सीख ये मुझे दे रहे हैं, उसके बारे मेरे और ई-वर के सिवाय और कोई नहीं जानता. इनका संकल्प् और उत्साूह दोनों ही वंदनीय हैं. भग़वान इन्हेंा बुरी नजर से बचाए.
यदि मैं खुद को आज भी रेल का इंजन माने रहूं तो ये बच्चेर अपनी आंतरिक ऊर्जा से भरपूर छोटे-छोटे डिब्बेन हैं, जो रेल के इंजन को उसकी मंजिल की ओर धकियाए जा रहे हैं. काश! आप यहां आकर इनकी ऊर्जा, इनके कारनामों को अपनी आंखों से देख सकें. तब आप जानेंगे कि दुनिया में आंखों देखे चमत्का र का होना असंभव नहीं है. और यहां जो हो रहा है वह ऐसी हकीकत है, जो किसी भी चमत्काेर से बढ़कर है.
पत्र लिखने के बाद बद्री काका ने उसको दो बार पढ़ा और फिर सिरहाने रख लिया.
मन में अच्छेे विचार हों तो नींद भी खिल उठती है.
जिज्ञासा से अच्छा कोई मार्गदर्शक नहीं है.
जिन दिनों अक्षर ज्ञान से वंचित था, उन दिनों भी टोपीलाल के मन में अखबार के प्रति अजीब-सा आकर्षण था. चाय की दुकान, ढाबों, बाजार, स्टेउशन यानी जहां भी वह अखबार देखता, ठिठक जाता. बड़ी ललक के साथ अखबार और उसे पढ़ने वालों को देखता. खुद को उस स्थिोति में रखकर कल्पअनाएं करता. सपने सजाता. सपनों में नए-नए रंग़ भरता. अनचीन्हेक शब्दोंि को मनमाने अर्थ देकर मन ही मन खुश होता.
जिस पाठशाला में वह कुछ महीने पढ़ा था, वहां छोटा-सा पुस्तोकालय था. कई समाचारपत्र नियमित आते. टोपीलाल की मजबूरी थी कि उन दिनों वह अक्षर पहचानना और उनको जोड़ना सीख ही रहा था. अखबार पढ़ ही नहीं पाता था. मग़र जब भी अवसर मिलता, वह वहां जाकर घंटों अखबारों और पुस्तीकों को देखता रहता. राह चलते यदि कोई पुराना अखबार या उसकी कतरन भी दिख जाए तो उसे फौरन सहेज लेता. घर आकर एकांत में उसे देखता. अक्षर जोड़ने का प्रयास करता. न जोड़ पाए तो उसके चित्रों से ही अपनी जिज्ञासा को बहलाने का प्रयास करता था.
पाठशाला में अखबार आना चाहिए, यह मांग़ करने वाला टोपीलाल ही था. उसकी मांग़ मान ली ग़ई. पाठशाला में नियमित रूप से दो समाचारपत्र आने लगे. समय मिलते
ही टोपीलाल उन समाचारपत्रों को चाट जाता. उसके अलावा एक-दो बच्चेा ही ऐसे थे, जो अखबार पढ़ने में रुचि दिखाते. प्रकाशित खबरों पर बातचीत करते. उन्हेंए बहस का मुद्‌दा बनाते थे.
जैसे ही बच्चोंर के पत्रों का छपना आरंभ हुआ, टोले में समाचारपत्रों की पाठक-संख्याञ अनायास बढ़ने लगी. अखबार आते ही बच्चे् उनपर टूट पड़ते. कभी-कभी हल्काा-फुल्कात झग़ड़ा भी हो जाता. उस स्थि ति से निपटने के लिए एक व्यचवस्था की ग़ई. प्रतिदिन एक विद्यार्थी खड़ा होकर प्रमुख समाचारों का वाचन करता. पाठशाला से संबंधित समाचारों पर खास ध्यायन दिया जाता. बाद में उनपर हल्कीद-फुल्कीख चर्चा होती. बच्चेा खुलकर हिस्साि लेते.
अखबार में संपादक ने नाम छपे पत्रों ने बच्चोंआ का उत्साउहवर्धन किया था. उन्हेंख शब्दों की ताकत से परचाया था. बच्चेि अखबार को बड़े प्या र से देखते. उसमें प्रकाशित शब्दोंी को सहलाते. मन ही मन उनसे संवाद करते. बाद में संपादक के नाम लिखी चिटि्‌ठयों को काट, सहेजकर रख लेते. कटिंग़ न मिलने पर उनकी नकल तैयार करते. अकेले में, दोस्तोंे के बीच उसको बार-बार पढ़ते, सराहते, बहस का मुद्‌दा बनाते.
पत्र-लेखकों में से अधिकांश अपने किसी परिजन की नशे की आदत के कारण परेशान होते. उसमें दर्ज ब्यौ रे से बच्चे उसके लेखक के बारे में अक्सचर अनुमान लगा लेते. कई बार इसी को लेकर बहस छिड़ जाती. व्य क्तिच को लेकर मतांतर होते रहते, लेकिन वह अपने ही टोले का है, ग़रीब और जरूरतमंद है, इस बात पर न तो कोई बहस होती, न संदेह ही व्यहक्ते किया जाता था.
कुछ पत्र ऐसे भी होते जिन्हेंक सुनकर पूरी कक्षा में सन्नाणटा व्याूप जाता. यहां तक कि बद्री काका भी बच्चोंय को कुछ देर के लिए कक्षा में अकेला छोड़ बाहर चले जाते. वहां अपनी नम आंखों को पोंछते. मन को समझाते. तसल्लीर देते. तब जाकर कक्षा में लौटने का साहस बटोर पाते थे.
बच्चों ही नहीं, बड़ों में भी अखबार के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था. शाम होते ही दिन-भर की खबरों को जानने के लिए लोग़ खिंचे चले आते. दोपहर को भोजन के लिए जैसे ही बैठते, पिछले दिन छपे समाचार पर बहस आरंभ हो जाती. जिसको संबोधित कर वह पत्र लिखा ग़या होता, उसके बारे में कयास लगाए जाते. बातचीत होती. लोग़ उसके सुख-दुःख में अपनापा जताते. उस समय यदि कोई उसी दिन छपे समाचार के बारे में बताकर सभी को चौंकाता तो सब उसकी बुद्धि की दाद देने लग़ते.
कुछ दिनों तक ऐसे पत्रों के आने का क्रम बना रहा. परंतु अचानक पत्रों की भाषा एवं उनका स्वउर बदल ग़या. संपादक के नाम लिखे ग़ए ऐसे पत्र भारी तादाद में छपने लगे, जिनमें बद्री काका की आलोचना होती. उनपर बच्चों को बिगाड़ने का आरोप लगाया जाता. उन्हें देशद्रोही, विदेश का जासूस आदि न जाने क्या -क्याक लिखा जाता.
पत्रों के बदले हुए स्वार ने बच्चों को पहले तो हैरानी में डाला. जब ऐसे पत्रों की
संख्या बढ़ी तो बात चिंता में बदलने लगी. अपने अनुभव और वुद्धि के आधार पर वे ऐसे पत्रों के पीछे निहित सत्यय का अनुमान लगाने का प्रयास करते. लेकिन नाकाम रहते. असफलता उनकी चिंता को और भी घना कर देती.
एक पाठक ने संपादक को संबोधित पत्र में तो हद ही कर दी-
‘जिस बद्री काका नाम के महानुभाव की प्रशंसा करते हुए हमारे समाचारपत्र और समाजसेवी रात-दिन नहीं अघाते, उनका अपना अतीत ही संदिग्धव है. नहीं तो कोई बता पाएगा कि ये सज्जचन अचानक कहां से प्रकट हुए हैं. पाठशाला आरंभ करने से पहले ये क्याध करते थे? रोज-रोज बद्री काका की शान में कसीदे पढ़ने वाले समाचारपत्र उनके अतीत में झांकने का प्रयास क्यों नहीं करते. यदि खोजबीन की जाए तो मुझे उम्मीकद है कि वहां जरूर कुछ कालापन नजर आएगा. वरना कोई आदमी इस तरह की गुमनाम जिंदगी क्योंर जिएगा.
दरअसल इन महाशय का उद्‌देश्यो नशा-विरोध और शिक्षा के प्रचार-प्रसार की आड़ में बच्चों और उनके अभिभावकों को धर्म-परिवर्तन के लिए राजी करना है. इस बात की भी संभावना है कि ये सज्ज न किसी विदेशी संस्थाक के दान के बूते धर्म-परिवर्तन जैसा निकृष्टी कार्य करने में जुटे हों. वरना शहर में दर्जनों सरकारी पाठशालाएं हैं, जो खाली पड़ी रहती हैं. उनके लिए विद्यार्थी ही उपलब्ध् नहीं हैं. अग़र इन महाशय का उद्‌देश्यल सिर्फ मजदूरों के बच्चोंे को शिक्षित करना है, जो कि सचमुच एक पवित्र कार्य है, तो उन्हें़ सरकारी पाठशालाओं में भर्ती करना चाहिए. छोटे बच्चोंन को भूखे-प्यामसे, सुबह-शाम नारेबाजी में उलझाए रखकर ये उनका कितना भला कर रहें, उसे या तो ये स्वछयं जान सकते हैं या फिर उनका पैगंबर!'
पत्र लेखक ने अपना असली पता नहीं लिखा था. बद्री काका ने पूरा पत्र पढ़ा. फिर मुस्क रा दिए. इस पत्र के प्रकाशित होने के बाद संपादक के नाम आने वाले पत्रों का रूप ही बदल ग़या. अधिकांश पत्र गाली-ग़लौंच वाली भाषा में आने लगे. कुछ में उन्हेंआ देशद्रोही लिखा होता. कुछ में विरोधी देश का चमचा, जासूस आदि. चूंकि बद्री काका के पिछले जीवन के बारे में शहर में किसी को पता नहीं था, इसलिए ऐसे लोग़ उसके बारे में मनमानी कल्प ना करते. आरोप लगाते. एक व्यनक्ति ने तो शालीनता की सीमा ही पार कर दी थी-
‘बड़ी हैरानी की बात है कि पुलिस और प्रशासन की नाक के ठीक नीचे एक व्यतक्तिश, जिसका अतीत ही संदिग्धी है, खुल्लडम-खुल्लाु सरकारी कानून की खिल्ली उड़ा रहा है. जिस उम्र में बच्चोंं को अपना अधिक से अधिक समय पढ़ने-लिखने में लगाना चाहिए, वे जुलूस और नारेबाजी में अपना जीवन बरबाद कर रहे हैं. क्षुद्र स्वाचर्थ के लिए वह मासूम बच्चोंन का भावनात्मवक शोषण कर रहा है. उनकी ग़रीबी का मजाक कर उन्हें् अपने लक्ष्यए से भटका रहा है. शिक्षा और समाजकल्यानण के नाम पर बच्चों का यह शोषण किसी को भी व्याथित कर सकता है.
यह बात भी ध्यांन में रखनी होगी कि वह पाठशाला एक निर्माणाधीन भवन में बिलकुल अवैध तरीके से चलाई जा रही है. इमारत की स्थिहति ऐसी है कि वहां कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है. पर उन महाशय को न तो बच्चों के स्वारस्य्ोग की चिंता है; और न उनके भविष्यै की. सोचने की बात है कि प्रशासन क्यों उसकी ओर से आंखें मूंदे हुए है. इसका कारण तो यही हो सकता है कि ऊपर से नीचे तक सभी बिके हुए हैं. और जो आदमी पूरे सरकारी-तंत्र को मुट्‌ठी में रख सकता है, उसकी पहुंच का अनुमान लगा पाना असंभव है. पूरा मामला किसी बड़े षड्‌यंत्र की ओर इशारा कर रहा है, जिसकी ग़हराई से जांच होनी चाहिए.
दुःख की बात यह है कि हमारे सरकारी-तंत्र को चेतने के लिए हमेशा बड़े हादसों की प्रतीक्षा रहती है. यानी जो लोग़ इस उम्मीाद में चुप्पीस साधे हुए हैं कि मामला कानून और प्रशासन का है, वही आवश्यमक कार्रवाही करेंगे, उन्हेंी किसी बड़े हादसे के लिए तैयार रहना चाहिए. जो हमारे आसपास कभी भी हो सकता है. सरकार को अवैध पाठशाला पर तत्काकल रोक लगाकर बद्री काका नाम के शख्स को गिरफ्ताार करके उसके अतीत के बारे में जानकारी जमा करनी चाहिए.'
विरोध में लिखे ग़ए पत्रों पर भी बच्चोंह की नजर जाती. पढ़कर उनका आक्रोश फूट पड़ता-‘हमें संपादक को लिखना चाहिए कि वह ऐसे पत्रों को अखबार में प्रकाशित न करे?'
‘समझ में नहीं आता कि गुरुजी इस मामले में चुप्पीर क्यों साधे हुए हैं. वे चाहें तो उनसे अकेले ही निपट सकते हैं.' अर्जुन बोला.
‘गुरुजी जो भी करेंगे, सोच-समझकर ही करेंगे.' टोपीलाल ने उनकी बात काटी.
‘इन हालात में बिल्डिं ग़ का मालिक पाठशाला बंद करने को कह सकता है. तब हम कहां जाएंगे. अब तो आसपास का मैदान भी खाली नहीं है.'
‘मालिक तो कह ही रहा था कि इस भवन मेें पाठशाला रोक देनी चाहिए. लेकिन बद्री काका तक बात पहुंचने से पहले ही मामला शांत पड़ ग़या.' टोपीलाल ने रहस्य उजाग़र किया.
‘कैसे?' बच्चोंह का कौतूहल जागा.
‘मां बता रही थी. कल मालिक की ओर से संदेश आया था कि मजदूर उस पाठशाला को बंद करें या हटाकर कहीं और ले जाएं. इसपर मजदूरों ने भी संग़ठित होकर धमकी दे दी. कहा कि वहां उनके बच्चे पढ़ते हैं. उनके भविष्यत के लिए वे उसको बंद हरगिज न होने देंगे. पाठशाला कहीं और ग़ई तो वे सब भी साथ-साथ जाएंगे. आजकल शहर में मिस्त्री और मजदूर आसानी से मिलते नहीं. मालिक भी बीच में व्यईवधान नहीं चाहता. इसलिए फिलहाल तो वह शांत है.'
‘क्यां यह बात बद्री काका को मालूम है?'
‘हां, उन्होंबने कहा कि यह तो होना ही था. यह भी बताया कि जो हमने सोचा था, वही हो रहा है. वे लोग़ खुद डर रहे हैं और हमें डराना चाहते हैं. यह समय धैर्य से उनकी बातों को सुनने, अपने मकसद पर दृढ़ बने रहने का है.'
‘वे किन लोगों की बात कर रहे थे?' कुक्की ने जानना चाहा. इसका टोपीलाल के पास कोई उत्तर न था-
‘यह तो उन्हों ने नहीं बताया था.'
‘हमें क्याह करना चाहिए?' अर्जुन ने कहा. जवाब टोपीलाल के बजाय सदानंद ने दिया, ‘गुरुजी ने कहा है कि अभियान रुकने वाला नहीं है. हमारे लिए तो साफ निर्देश है. हम उन्हींक का आदेश मानेंगे.'
उसी दोपहर बद्री काका पढ़ा रहे थे. तभी पुलिस के दो सिपाही वहां पहुंचे. वे पुलिस अधीक्षक की ओर से आए थे. उन्हेंप देखते ही बद्री काका कक्षा को छोड़कर आगे बढ़ ग़ए. वे कुछ पूछें, उससे पहले ही दोनोें सिपाहियों ने उन्हें अभिवादन करते हुए कहा-‘एसपी साहब ने बुलाया है. आज शाम को ठीक आठ बजे आप थाने पहुंच जाना. कहें तो जीप भिजवा दें.'
‘जीप की आवश्यभकता नहीं है...मैं पैदल ही आ जाऊंगा.' बद्री काका ने कहा और वापस जाकर पढ़ाने लगे. इस घटना के बाद बच्चोंज का मन पढ़ाई में न लगा. उनकी निगाह में वे दोनों सिपाही और पुलिस सुपरिंटेंडेंट का चेहरा घूमता रहा-
‘पुलिस आपको क्यों बुलाने आई थी?' जैसे ही पढ़ाई का काम पूरा हुआ, निराली ने बद्री काका से पूछा.
‘यह तो शाम ही को पता लगेगा. फिक्र मत करो, सब ठीक हो जाएगा.' बद्री काका ने समझाने का प्रयास किया.
‘हम भी आपके साथ जाएंगे?' टोपीलाल ने आग्रहपूर्वक कहा.
‘उन्होंआने तो केवल मुझे बुलवाया है?'
‘इस काम में हम सब साथ-साथ हैं.' बद्री काका बच्चों की ओर देखते रहे. पल-भर को वे निरुत्तर हो ग़ए. मुंह खोला तो प्या र से ग़ला भर्राने लगा.
‘ठीक है, शाम को देखा जाएगा.' उन्हेंक लग़ रहा कि आने वाले दिन उग्र घटनाक्रम से भरे हो सकते हैं. परंतु बिना संघर्ष के परिवर्तन के वांछित लक्ष्य तक पहुंच पाना असंभव है. उसी क्षण उन्होंवने एक बड़ा निर्णय ले लिया.
नेक मकसद में दमन की संभावना भी आदमी के हौसले को जवान बना देती है. -
बद्री काका पुलिस सुपरिंटेंडेंट से मिलने पहुंचे तो उनके साथ कुक्कीा और टोपीलाल भी थे. वे केवल टोपीलाल को अपने साथ चलने ले जाने को तैयार थे. किंतु जब चलने लगे
तो कुक्कीच भी अड़ ग़ई. सुपरिटेंडेंट ने देखते ही खड़े होकर बद्री काका का सम्मावन किया. उनके साथ आए बच्चोंत को देखकर उसकी आंखों में किंचित विस्म.य उमड़ आया. टोपीलाल और कुक्कीब ने जब हाथ जोड़कर अभिवादन किया तो पुलिस अधिकारी भी प्रभावित हुए बिना न रह सका. दोनों को बैठने के लिए कुर्सियां मंग़वाई ग़ईं.
‘मेरे विद्यार्थी हैं. इनसे कुछ भी छिपा नहीं है.' बद्री काका बोले। आत्मकविश्वाथस से भरी भाषा.
‘आज तो इन बच्चों की छुट्‌टी कर देते.' पुलिस अधिकारी ने संबोधित किया.
‘ये मुझे अपनी बात आपके सामने रखने में मदद करेंगे.'
‘आप जानते ही हैं कि हमारे ऊपर कितना दबाव रहता है...!'
‘सरकार की ओर से ही...?' बद्री काका ने प्रश्न. अधूरा छोड़ दिया.
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यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Re: बाल उपन्यास :मिश्री का पहाड़ /ओमप्रकाश कश्यप

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‘पुलिस तो जितना प्रशासन की मानती है, उतना ही मान जनता का भी रखना पड़ता है.' अधिकारी ने बात को घुमाने का प्रयास किया, ‘अखबारों में आजकल जो छप रहा है, उसे तो आप देख ही रहे होंगे. आपने बच्चोंु को नशा-विरोधी अभियान में लगाकर अनूठा काम किया है. इस अभियान की सफलता की गूंज संसद तक पहुंच चुकी है. खुद मंत्री जी आपके प्रशंसक हैं. कह रहे थे कि जो काम पुलिस और प्रशासन इतने वर्षों में, अपने भारी-भरकम तामझाम के बावजूद नहीं कर सके, वह आपने इन छोट-छोटे बच्चोंि के माध्य म से कर दिखाया है. व्यमक्तिवग़त रूप में तो मैं भी आपका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं. लेकिन आप तो जानते हैं कि पुलिस अधिकारी को कानून और व्ययवस्था दोनों ही देखने पड़ते हैं. इस नाते मेरी कुछ और भी जिम्मेआदारियां हैं.'
‘हमने तो ऐसा कुछ नहीं किया कि आप परेशानी में पड़ जाएं.'
‘आपने जानबूझकर तो ऐसा कुछ नहीं किया...'
‘यानी जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ है?'
‘यही समझ लीजिए. दरअसल जिस अधबने भवन में आपका स्कूाल चल रहा है, वहां ऐसी ग़तिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती.'
‘तब तो ये बच्चेस निरक्षर ही बने रहेंगे?'
‘उसके लिए सरकारी पाठशालाएं हैं. वहां इन बच्चों का प्रवेश आसानी से हो जाएगा. आप चाहें तो मैं खुद यह जिम्मेकदारी उठाने को तैयार हूं.'
‘पर उससे लाभ क्यात होगा. जिस जग़ह इन बच्चोंे के माता-पिता काम कर रहे हैं, वहां से सबसे निकट वाली पाठशाला भी कम से कम चार किलोमीटर की दूरी पर है. क्याग आपको लग़ता है कि इतनी दूर ये बच्चें पढ़ाई के लिए जा पाएंगे? और इनके माता-पिता इन्हेंा वहां जाने की अनुमति देंगे. क्योंइकि भले ही ग़रीब हों, अपने बच्चोंा की सुरक्षा की चिंता तो उन्हेंी भी है.'
‘जब तक नजदीक किसी पाठशाला का प्रबंध नहीं हो जाता तब तक तो इन बच्चोंं
को वहां जाना ही होगा.'
‘और बच्चोंह की सुरक्षा के लिहाज से इनके अभिभावक वहां जाने न देंगे, फिर तो बात जहां की तहां रही. तब इन बच्चों का क्या होगा?'
‘अवैद्य स्थ ल पर पाठशाला चलाने की अनुमति तो हरगिज नहीं दी जा सकती. अपनी नहीं माने तो विवश होकर हमें बल-प्रयोग़ करना पड़ेगा.' पुलिस अधिकारी ने दबंग़ई दिखानी चाही.
‘किस कानून के आधार पर आप बल-प्रयोग़ करेंगे. जहां हमारी पाठशाला है, वहां पाठशाला के नाम पर न कोई अवैध इमारत है, न पोस्टहर, न बैनर. खुले में बच्चों को कुछ सिखाना भला कौन से कानून में अपराध है, जरा बताएंगे?' बद्री काका ने कहा तो पुलिस अधिकारी बग़लें झांकने लगा.
‘आप मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश कीजिए?'
‘आप हमारे संकल्पक को बूझने की कोशिश कीजिए. आप जानते हैं कि शहर में हर वर्ष राशन की दुकान तो बामुश्किेल एक बढ़ती है, लेकिन उसी अवधि में शराब के दर्जनों नए ठेकों को लाइसेंस दे दिया जाता है. बच्चों् को कॉपी और पुस्तकक भले न मिले, पर गुटका और पानमसाला खरीदने के लिए अब ग़ली के नुक्कनड़ तक जाना भी जरूरी नहीं रहा. वह आसपास ही टंगा मिल जाता है. यही हालत चरस, अफीम और गांजे की है. इलाज के लिए दवा खरीदते समय केमिस्टत की दुकान तक जाना पड़ता है. नशे की चीजें खुद अपने ग्राहक तक चली आती हैं.
बाकी नशों की बात तो अभी छोड़ ही दें, इस शहर में सिर्फ शराब से मरने वालों की संख्याह सात हजार से ऊपर पहुंच चुकी है. विज्ञान ने महामारी को तो जीत लिया है, पर शराब और नशे पर नियंत्रण रखने की बात करोे तो कानून पीछे पड़ जाता है. जबकि देश में शराब और नशे की लत के कारण हर साल इतनी मौतें होती हैं, जितनी पूरी दुनिया में बड़ी से बड़ी महामारी के दौरान भी नहीं होतीं. नशा-पीड़ितों के उपचार के लिए सरकार को हर वर्ष इतना खर्च करना पड़ता है कि मात्र एक साल की रकम से देश के हर गांव में स्कूसल खोला जा सकता है.
इन बच्चों् के दिल से निकली आवाज ने इनके अभिभावकों के दिलों को छुआ है. उन्हेंल यह एहसास दिलाया है कि वे अभिभावक भी हैं. यही कारण है कि पिछले कुछ दिनों में ही शराब की बिक्री में तीस प्रतिशत गिरावट आई है. पानमसाला और गुटके की बिक्री भी पचीस प्रतिशत तक घट चुकी है. इससे वे लोग़ डरे हुए हैं जिनका नशे का कारोबार है. जो ज्या्दा धन बंटोरने के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकते हैं. जिनका कानून और इंसानियत से कोई वास्ता नहीं. वही लोग़ अखबारों में तरह-तरह की बातें लिखकर मुझे बदनाम करना चाहते हैं. अखबारों द्वारा कुछ नहीं कर पाए तो अब आपके माध्य म से दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं.'
पुलिस अधिकारी चुप था. टोपीलाल और कुक्कीे हैरान थे. बद्री काका को इस तरह बात करते हुए उन्होंतने पहली बार देखा था. उधर बद्री काका कहे जा रहे थे-
‘एक ग़लतफहमी और दूर कर दूं. इस अभियान को शुरू करने में मेरा योग़दान चाहे जो भी रहा हो, फिलहाल मैं इसका संचालक नहीं हूं. इसको तो ये बच्चेक स्वकयं, स्व यंस्फू र्त भाव से चला रहे हैं. मैं तो मात्र इनका प्रशंसक और मार्गदर्शक हूं. और बच्चोंत का ही निर्णय है कि आने वाली गांधी जयंती के दिन ये पूरे शहर में एक शांति जुलूस निकालें.'
‘जी!' पुलिस अधिकारी अपनी कुर्सी से उछल पड़ा, ‘सरकार इसकी कतई अनुमति नहीं देगी.'
‘हमें उसकी परवाह नहीं है. अपने राष्ट्र पिता की जयंती अग़र ये बच्चे उनके आदर्शों पर चलकर, उनके अधूरे कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए मनाना चाहते हैं, तो इन्हेंी कौन रोक सकता है. उस जुलूस में पूरे शहर के बच्चेर शामिल होंगे. संभव हुआ तो उनके माता-पिता भी. वे सब मिलकर नशे के विरुद्ध आवाज उठाएंगे. और हां, उसी दिन हम मजदूर बस्ति यों के आसपास खुली शराब की दुकानों के आगे धरना-प्रदर्शन भी करेंगे.'
‘इससे तो हालात और ज्यािदा बिग़ड़ सकते हैं. जबकि मैं चाहता हूं कि आप हमारी मदद करें.' पुलिस सुपरिंटेंडेंट नर्म पड़ने लगा था.
इसपर बद्री काका मुस्क.रा दिए, ‘आपने थोड़ी देर पहले ही माना है कि नशे पर रोक लगाना पुलिस और प्रशासन का काम है. मैं कहता हूं कि यह देश के हर जाग़रूक नाग़रिक का काम है. अपनी जाग़रूकता दिखाते हुए इन बच्चों ने थोड़े-से दिनों में वह कर दिखाया है, जो पुलिस और कानून कई वषोंर् में नहीं कर पाए थे. देखा जाए तो ये बच्चे‍ आप ही की मदद कर रहे हैं. इसलिए आपका भी कर्तव्या है कि उस दिन कोई अनहोनी न होने दें.' इतना कहकर बद्री काका ने पुलिस सुपरिटेंडेंट को नमस्का र कहा और उठ ग़ए. पुलिस सुपरिंटेंडेंट सहित सभी अधिकारी उन्‍हें ठगे से देखते रहे.
बाहर आकर निराली बद्री काका की तारीफ में कुछ कहना चाहती थी. मग़र टोपीलाल ने चर्चा दूसरी ही ओर मोड़ दी-‘गुरुजी, हमारे प्रदर्शन में मजदूर औरतें भी हिस्सार ले सकती हैं?'
‘बिलकुल मैं तो चाहता हूं कि उन्हेंा आगे आना ही चाहिए. तभी हम पूरी तरह कामयाब हो पाएंगे.'
‘हम लोग़ जब घरों में जाते हैं तो वहां के मर्द हमें घूरते हैं. उनका बस चले तो हमें भीतर ही न घुसने दें. लेकिन औरतें हमें प्यातर से बिठाती हैं. रसोई में कुछ बन रहा हो तो खाने को भी देती हैं. घर के मर्दों की नशाखोरी की आदत से परेशान औरतें चाहती हैं कि इस अभियान में उन्हेंन भी हिस्सेभदार बनाया जाए.'
‘लेकिन, मैंने तो यह यूं ही, बस आवेश में, पुलिस अधिकारी को चिढ़ाने के लिए कह दिया था.' बद्री काका असमंजस में थे.
‘जब कह दिया है तो उसपर अमल भी करना होगा. वरना वे समझेंगे कि हम डर ग़ए.'
‘वे कौन?' बद्री काका ने चौंककर पूछा.
‘वही, जो हमें रोकना चाहते हैं.'
‘क्याौ तुम उनके बारे में जानते हो?'
‘नहीं, पर बापू कह रहे थे कि शराब के ठेकेदारों, गुटका और पानमसाला बनाने वालों को बहुत घाटा सहना पड़ रहा है. वे इस कोशिश में हैं कि हमें कैसे रोका जाए.'
‘तुम्हादरे बापू ने क्याक तुमसे भी कुछ कहा था?'
‘कुछ भी नहीं, दो-चार दिनों से मैं उन्हें परेशान जरूर देख रहा हूं.' टोपीलाल ने सहज भाव से बताया.
‘तब?'
‘अग़र अब हम पीछे हटे तो वे समझेंगे कि डर ग़ए...' निराली ने जोड़ा.
‘तुम ठीक ही कहती हो. यह एक पुनीत कर्म है. मैं तुम्हेंा रोकूंगा नहीं. न डरने को ही कहूंगा. अब डरने की बारी तो असल में उनकी है. हम सफलता की डग़र पर हैं. लेकिन हमें सावधान रहना होगा. हमारे दिलों को अपने आतंक के साये में रखने के लिए वे लोग़ किसी भी सीमा तक जा सकते हैं.' बद्री काका ने कहा.
उस दिन टोपीलाल घर पहुंचा तो मन थोड़ा उद्धिग्नु था. किंतु चेहरा आत्माविश्वानस से दिपदिपा रहा था.
लोककल्याोण की भावना सबसे पवित्र एहसास है.
महानता उम्र देखकर नहीं जन्माती.
पुलिस सुपरिटेंडेंट के साथ बात सिर्फ छह जनों के बीच हुई थी. बंद कमरे में. बाद में टोपीलाल और निराली के साथ बद्री काका ने उस संवाद को अपनी तरह से आगे बढ़ाया. उनके व्य वहार में न तो आक्रोश था, न बदले की भावना. उससे अग़ले ही दिन समाचारपत्र में एक और बच्चेक का पत्र छपा. जिससे पूरे शहर की आत्माक को विचलित कर दिया. खासकर किशोरों और युवाओं की.
पत्र टोपीलाल ने ही लिखा था-
‘मेरे पिता नशे की हर चीज से दूर रहते हैं. शराब, बीड़ी, गुटका, पान, तंबाकू को वे हाथ तक नहीं लगाते. इस तरह तो मैं दुनिया के सबसे भाग्यचशाली बच्चों में से हूं. मेरे माता-पिता दुनिया के सबसे अच्छेू माता-पिताओं में से एक. परंतु मेरे हमउम्र दोस्तोंश में से अधिकांश मेरे जितने भाग्यमशाली नहीं हैं. क्योंेकि उनके माता-पिता(ज्यायदातर पिता ही) किसी न किसी नशे की लत के शिकार हैं. इस कारण उन्हें बाकी बच्चोंह के बीच बेहद
शर्मिंदा होना पड़ता है.
वे किसी से खुली बातचीत भी नहीं कर पाते. भविष्या को लेकर एक अनजाना-सा डर उनके दिलो-दिमाग़ पर हमेशा सवार रहता है. खुद से ज्यापदा वे अपनी मां, बहन के लिए लिए चिंतित रहते हैं. जिन्हेंक उनके पिता के नशे का उनकी अपेक्षा अधिक सामना करना पड़ता है. जब-तब वे हंसते भी हैं, मग़र उनकी हंसी महज लोक-दिखावा, एक रस्म अदायगी जैसी होती है.
जैसे कि मेरा एक दोस्ती है. बहुत भला लड़का. उसकी एक छोटी बहन भी है. अपने भाई की तरह मासूम और भोली. पिता घरों की पुताई का काम करते हैं. दिहाड़ी का काम. रोज कमाना, रोज का खाना. उनके घर का चूल्हाक तभी जल पाता है, जब उनके पिता कुछ कमाकर घर लौटते हैं. किंतु पिछले कई महीनों से मैं देख रहा हूं कि वे घर आने के बजाय रास्तेक या नालियों में पड़े होते हैं. नशे की हालत में. यदि उनके घरवालों को पता लग़ जाता है तो जैसे-तैसे उठाकर ले जाते.
घर जाकर बच्चोंस की मां जेब टटोलकर देखती है. ताकि सुबह से बंद चूल्हे को ग़र्मा सके. उस समय मेरा दोस्ता और उसकी बहन भूख से बेहाल हो रहे होते हैं. इसलिए उनकी मां अपने पति की जेब जल्दी -जल्दी् टटोलती. कंपकंपाती उंग़लियों से, डरते-डरते. यह सोचते हुए कि कहीं उस जेब को शराब की दुकान पहले ही खोखली न कर चुकी हो. यह डर भी बना रहता है कि कुछ बच जाए तो नशे की हालत में बेसुध पड़े शराबी की जेब को टटोलकर नकदी और कीमती चीज ले जाने वाले छिछोरे लोग़ भी कम नहीं हैं. ऐसा होता ही रहता है. उस दिन उन्हें भूखा ही सोना पड़ता है. कभी-कभार उनकी मजबूर मां घर की एकाध चीज बेचकर चूल्हा जलाने का इंतजाम कर लेती है.
ऐसे ही जब कई दिन भूख में गुजरे तो अपने बच्चोंी का पेट भरने के लिए वह औरत काम पर जाने लगी. एक दिन शाम को उसका मर्द घर लौटा तो उसने चूल्हेच तो जलते हुए पाया. बस यह देखते ही उसका पारा चढ़ ग़या. बिना कुछ सोचे-समझे गालियां देने लगा. उस दिन उसने अपनी पत्नीा को कुलटा, वेश्या , कुतिया और न जाने क्याय-क्या कहा. उस समय दोनों बच्चेल खड़े-खड़े रो रहे थे. औरत अपना माथा पीट रही थी. पूरा मुहल्लाक जानता था कि औरत ने दिन-भर मजदूरी की है. अपने बच्चों् का पेट भरने के लिए पसीना बहाया है, पर शराबी को समझाए कौन?
ऐसी एक नहीं दर्जनों घटनाएं हैं. मेरे कई अभागे दोस्त हैं, जो नशे के कारण त्रासदी भोग़ रहे हैं. उनकी जिंदगी नर्क बन चुकी है. ऐेसे ही कुछ बच्चोंई ने मिलकर इस दो अक्टूतबर को गांधी जयंती के दिन एक जुलूस निकालने का निर्णय किया है. हमारा जुलूस पूरी तरह शांतिपूर्ण होगा. हमारे हाथ में नारे लिखे पोस्टसर होंगे. हम मौन रहेंगे. यहां तक कि नारे भी नहीं लगाएंगे. हमारे हाथ में झंडे होंगे, डंडे नहीं. जो भी हमारे अभियान से, मेरे उन मित्रों से सहानुभूति रखता है, जिनका शांति और अहिंसा में विश्वाोस है, वह आगामी दो अक्टूीबर को सच्चें, शांत मन से हमारे साथ सम्मि,लित हो सकता है.
हम जब मिलकर आगे बढ़ेंगे, तभी कुछ सार्थक ग़ढ़ सकेंगे!
टोपीलाल
इससे पहले के अधिकांश पत्र छद्‌म नाम से प्रकाशित हुए थे. परंतु इस पत्र में टोपीलाल का नाम ग़या था. प्रभातफेरी के माध्य म से शहर-भर में टोपीलाल और उसके साथियों की चर्चा थी. पत्र की खबर टोपीलाल की मां तक पहुंची. उसका मन आशंकाओं से भर ग़या. उस रात टोपीलाल घर लौटा तो वह खाना बना रही थी. बापू टोले के दूसरे मिस्त्रियों के साथ अग़ले दिन के काम की योजना बना रहे थे. टोपीलाल मां के पास चूल्हे के सामने ही बैठ ग़या. वह उसे मुस्कलराई. पर उस मुस्कापन में उतनी स्वा भाविकता न थी. टोपीलाल को उपले की मंदी आग़ में मां के माथे की लकीरें साफ दिखाई पड़ ग़ईं. मां परेशान है, इस बात का अनुमान लगाते हुए उसको देर न लगी. मग़र क्योंा, काफी कोशिश के बाद भी वह इस बारे में अनुमान लगाने में नाकाम रहा.
‘तेरी गुरुजी पढ़ाई पर ध्या न तो दे रहे हैं, न!' बात मां ने ही आगे बढ़ाई.
‘गुरुजी, तो हमेशा ही हमारे भले का सोचते हैं.'
‘और जो काम वे तुमसे करा रहे हैं! मैं तो पढ़ी-लिखी नहीं. तेरे बापू को अपने काम के अलावा बहुत कम दुनियादारी आती है. हम अपने घर से सैकड़ों मील दूर इसलिए आए हैं कि जिस इज्जीत की रोटी की हम उम्मीमद रखते थे, गांव में जातिभेद के चलते वह संभव ही नहीं थी. शहर में वर्षों रहकर भी हम इतने समर्थ नहीं हो पाए हैं कि किसी बड़ी मुश्किवल का सामना कर सकें. पेट भरने के लिए रोज पसीना बहाना पड़ता है. और तेरे गुरुजी, माना कि दिल के भले और रसूखवाले हैं, मग़र आजकल की चालबाज दुनिया के आगे वे अकेले...'
‘मां, गांधी जी भी तो अकेले ही थे.' टोपीलाल ने मां की बात काटी. हालांकि ऐसा वह कम ही करता था.
‘वो जमाना और था बेटा, तब का आदमी इतना काईंयां नहीं था कि पीठ पीछे से वार करे...'
‘तू बेकार ही परेशान हो रही है. बच्चोंा से कोई क्याप दुश्मानी निकालेगा.'
‘तू अभी नादान है. कुछ समझता नहीं, कुछ दिनों से तरह-तरह की खबरें मिल रही हैं. शराब और नशाखोरी के विरोध में तुम सबने जो काम शुरू किया है, लोग़ उससे नाराज हैं. मजदूर बस्ति यों में शराब की दुकानें की बिक्री तीन-चौथाई तक आ ग़ई है. यही हाल पानमसाला और गुटका बेचने वालों का है. वे लोग़ इस नुकसान को आसानी से सहने वालों में से नहीं हैं. बद्री काका के बारे में तो उन्होंेने पता कर लिया है. अग़र वे इतने रसूखवाले न होते तो अब तक कभी के धर लिए जाते.'
‘यदि तुम बद्री काका की पहुंच के बारे में जानती हो, तब तो तुम्हेंु निश्चिंनत रहना
चाहिए, मां!' टोपीलाल ने तर्क करने की कोशिश की. पर मां के दिमाग़ में तो कुछ और ही घुमड़ रहा था-
‘दिन में कुछ आदमी आए थे. तेरे नाम का पता लगाते हुए. वे तेरे पिता से मिले. उन्हों ने धमकी दी है कि तुझे समझाएं. कहें कि जिस रास्तेप पर तू जा रहा है, वह हममें से किसी के लिए भी ठीक नहीं है. उन्होंहने कहा कि अग़र तू और तेरे दोस्ते सचमुच पढ़ना चाहते हैं तो वे तुम सब के लिए शहर के किसी भी अच्छेक स्कूनल में इंतजाम करा सकते हैं. तू यदि शहर से बाहर जाना चाहे तो वे पूरा खर्च उठाने को तैयार हैं. लेकिन इसके लिए तुझे जुलूस वगैरह का चक्कतर छोड़ना पड़ेगा.'
‘और तुम क्याे चाहती हो, मां.'
‘मेरी तो यह बहुत पुरानी साध है कि तू पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने. वे अच्छेे स्कूिल में पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हैं. दाखिले में भी मदद करने का वायदा करके ग़ए हैं. मां होने के नाते यदि मैं तेरे सुख की चाह रखती हूं तो इसमें बुरा ही क्या है?'
‘कुछ भी बुरा नहीं है, मां. लेकिन अग़र पिताजी उतने अच्छेा न होते, जितने कि वे अब हैं? यदि उन्हेंे भी शराब या जुए की लत होती? यदि अपनी कमाई घर आने से पहले ही वे शराब या जुए खाने की भेंट चढ़ाकर घर लौटा करते? यदि तू साधारण स्त्री की तरह घर पर पति का इंतजार किया करती, इस उम्मीाद में कि उनके आने पर चूल्हा चढ़ाएगी और उस समय वे सबकुछ शराब के हवाले कर घर लौटते तो? क्याइ तब भी तू मुझे इसी तरह रोकती?'
टोपीलाल के तर्क ने उसकी मां को निरुत्तर कर दिया.
‘चल पहले रोटी खा ले...!' वह इतना ही कह पाई. टोपीलाल रोटी खाने लगा. खाना खाकर वह उठा तो मां की धीमी-सी आवाज आई-
‘अपना ख्याल रखना बेटा...मां हूं न, तेरे सुख की चिंता कभी-कभी कमजोर बना ही देती है!' कहते-कहते उसकी आंखों में नमी उतर आई. टोपीलाल का ग़ला भी भारी हो ग़या. उसके बाद अपनी मां पर ग़र्व करता, भविष्यत के बारे में नए-नए स्वंप्नल सजाता हुआ वह चारपाई की ओर बढ़ ग़या. कुछ देर बाद काम निपटाकर मां भी उसके बराबर में आकर लेट ग़ई. टोपीलाल ममत्व की चाहत में उससे सट ग़या.
प्रेम बिना ताकत, बिना अपनों के आशीर्वाद के जीवनसंघर्ष में जीत कहां!
भावना सच्चीत हो तो आवाज दूर तक जाती है. उसका प्रभाव भी स्थाायी होता है.
जैसी कि अपेक्षा थी टोपीलाल के पत्र की अनुकूल प्रतिक्रिया हुई. दो अक्टूाबर के दिन स्व यंस्फू र्त भाव से सैकड़ों बच्चे उस अभियान दल के साथ थे. कतारबद्ध, अनुशासन में बंधे, एक ही संकल्प में ढले हुए. रंग़-बिरंगे कपड़ों में, मानो तरह-तरह के सुगंधित फूल,
उल्लातस से सजे-संवरे कतारे बांधे खड़े हों. अथवा किसी बड़े उद्‌देश्यि के लिए तारे जमीन पर उतर आए हों. उनके अधरों पर पवित्र मुस्का न थी; जैसे भागीरथी की पवित्र लहरों पर नवअरुण की किरणें झिलमिला रही हों, मन में आत्मंविश्वा्स जैसे समुद्र अपनी गंभीरता छिपाए रखता है.
बच्चोंप के कार्यक्रम की गूंज राजनीतिक ग़लियारों में छा चुकी थी. कई राजनीतिक दल उस आंदोलन को अपने समर्थन की घोषणा कर चुके थे. कुछ नेताओं ने उस कार्यक्रम से सीधे जुड़ने की इच्छा भी व्यंक्त की थी. मग़र दूरदर्शी बद्री काका ने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया था. वे नहीं चाहते थे कि उस कार्यक्रम का राजनीतीकरण हो. मिथ्या वाद-विवाद में फंसकर वह असमय दम तोड़ जाए. इसपर कुछ नेताओं ने अपनी नाराजगी प्रकट की. बद्री काका पर घमंडी होने का आरोप भी लगाया. मग़र वे अपने इरादे पर अटल बने रहे.
जुलूस-स्थमल पर अनुशासन की पूरी व्ययवस्थाफ थी. पंक्ति में सबसे आगे था टोपीलाल, सिर पर पीली टोपी पहने. उसके पीछे निराली, तीसरे स्थावन पर कुक्कीथ खड़ी थी. उसके पीछे सदानंद. पांचवे स्था न पर बद्री काका स्वपयं थे, एक विशाल छायादार बरग़द की भांति. उनके पीछे बच्चों को दो पंक्तिउयों में नियोजित किया ग़या था. तीसरी पंक्तिा मजदूर औरतों की थी. अपने तांबई चेहरे और ठोस इरादों के साथ वे जुलूस में हिस्सान लेने पहुंची थीं. उनके आंखों में विश्वाजस-भरी चमक थी. वे सबसे दायीं ओर ढाल बनकर, पंक्तियबद्ध खड़ी थीं. सबके चेहरे पर एकसमान उल्ला स था. ढले थे सब एक ही अनुशासन में.
जुलूस आगे बढ़े उससे पहले बद्री काका ने बच्चोंी और बड़ों को संबोधित किया-
‘बच्चो और बहनो! यह हमारे इतिहास का पवित्रतम क्षण है; और विश्व‍-भर में अनूठा भी. संभवतः पहली बार सैकड़ों ग़रीब बच्चेर और उनकी स्त्रियां किसी पवित्र उद्‌देश्यज के लिए एकजुट हुए हैं. अपने संकल्पे को मजबूत कर, बड़े आंदोलन के लिए आगे आए हैं. बच्चेय किसी भी देश का भविष्‍य हैं. इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भविष्यं अपने वर्तमान को अनुशासित करने के लिए खुद एकजुट हुआ है. भटके हुए लोगों को राह दिखाने, समाज को नई दिशा देने के लिए यह एकता बहुत जरूरी है.
हमारा यह जुलूस नाम पाने के लिए नहीं है. न सिर्फ अखबारों में नाम छपवाने के लिए है. न ही इसके पीछे कोई राजनीतिक ताकत है. आज जो हमारे लिए जरूरी है, वह है समय पर भोजन, साफ-सुथरे कपड़े, सिर पर छत और शिक्षा. यहां आए बहुत से बच्चोंए को ये सब सुविधाएं मिल सकती थीं. यदि नशे ने उनके परिवार पर हमला न किया होता. नशे ने हमसे जीवन की इन बुनियादी चीजों को छीना है. हमारे अपनों को भटकाया है, इसलिए आज वह हमारा सबसे बड़ा दुश्मसन है. हमें उसको खदेड़ देना है. मुक्तिअ पानी है उससे.
हमारे इस प्रदर्शन का मकसद नशे के दुष्प्र भावों के प्रति जाग़रूकता पैदा करना है.लोगों को बताना है कि नशा उनके तन और मन को किस प्रकार खोखला करता जा रहा है. यह एक व्याकधि है जिसने पूरे समाज को ग्रस रखा है. इसलिए हम नशे से नफरत करते हैं, नशा पैदा करने वाली वस्तु‍ओं से नफरत करते हैं, उन लोगों से नफरत करते हैं जो अपने स्वा र्थ के लिए नशे की वस्तु्ओं का व्या पार करते हैं. लेकिन हम नशाखोरों से नफरत नहीं करते. वे तो हमारे अपने और खास हैं. नशे ने उन्हेंु हमसे दूर किया है. हमारा उद्‌देश्यन उन भटके हुओं को सही रास्तेो पर लाना है.
यह भी ध्याेन रहे कि आज का कार्यक्रम हमारे लंबे अभियान की केवल शुरुआत है. नशे के विरोध की हमारी यात्रा आज से आरंभ होने जा रही है. यह बहुत लंबी यात्रा है. इसमें अनेक पड़ाव आएंगे. बहुत-सी परेशानियों और संकटों से हमारा सामना होगा. हादसे कदम-कदम पर हमारी हिम्मुत और धैर्य की परीक्षा लेंगे. किंतु यदि हम डटे रहे तो विजय हमारी ही होगी. क्योंदकि जीत हमेशा सच की होती है.
मित्रो, मैं तो बूढ़ा हो चुका हूं. संभव है कि इस अभियान में आपकी संपूर्ण विजयश्री को मैं अपनी आंखों से न देख सकूं. मग़र आप सभी उस विजय दिवस के साक्षी बनें, इस कामना के साथ मैं आप सब को बधाई देना चाहता हूं.
आगे बढ़ने से पहले सिर्फ इतना ध्यािन रहे कि हम महात्मा गांधी के शांति सैनिक हैं. मन, वचन और कर्म में से किसी भी प्रकार की हिंसा हमारे लिए त्या्ज्या है. इसलिए हम यह संकल्प लेकर आगे बढ़ें कि चाहे जो भी हो, हम शांति-भंग़ नहीं होने देंगे. अहिंसा हमारा धर्म है. महात्मास गांधी की...'
‘जय...!' बच्चोंी का समवेत स्व र गूंजा.
इसके बाद टोपीलाल ने मोर्चा संभाल दिया. अपनी पतली लेकिन ओज-भरी आवाज में उसने नारा लगाया-‘महात्माप गांधी की...'
‘जय...!'
जुलूस आगे बढ़ने ही वाला था कि वहां पर पुलिस की गाड़ी रुकी. उसके पीछे दो गाड़ियां और भी थीं. एक गाड़ी से धड़ाधड़ कई सिपाही कूदने लगे. तभी बद्री काका की निगाह सबसे आगे चल रहे पुलिस अधिकारी पर पड़ी. उन्हेंा पहचानते हुए देर न लगी. वह पुलिस सुपरिंटेंडेंट था. तेज कदमों से चलता हुआ वह बद्री काका के निकट पहुंचा. जुलूस में मौजूद औरतें और बच्चेी सहम-से ग़ए. परंतु टोपीलाल और उसके साथियों के चेहरों पर पहले जैसी दृढ़ता बनी रही.
बद्री काका का अभिवादन करने के उपरांत पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने कहा-
‘आप हैरान हो रहे होंगे मुझे यहां देखकर. दरअसल मैं यह कहने आया हूं कि उस दिन आपने मेरी आंखें खोल दी थीं. मैं इस मसले को अभी तक केवल कानून की निगाह से देख रहा था. इन बच्चोंच के पवित्र उद्‌देश्य और उनकी भावनाओं को मैं उस समय तक
समझ ही नहीं पाया था. ग़लत था मैं. शायद आप के ही दर्शनों का सुफल है जो समय रहते सद्‌बुद्धि लौट आई. अब मैं पूरी तरह से आपके साथ हूं. आप जुलूस लेकर आगे बढ़ें. बस जरा शांति-व्यसवस्थाद का ध्याकन रखें. मैं और मेरी पूरी कमान आपके साथ है.'
‘धन्यीवाद एसपी साहब! मैं आपकी भावनाओं का सम्मा न करता हूं तथा उम्मीतद करता हूं कि हमें आपकी जरूरत नहीं पड़ेगी.'
‘मैं भी यही चाहता हूं.' मुस्कैराते हुए पुलिस कप्ताेन ने कहा और अपनी गाड़ी पर सवार हो ग़या.
ताकत नैतिकता के आगे सदैव नतमस्त क होती रही है.
नैतिकता मनुष्याता के लिए नए मापदंड भी ग़ढ़ती है.
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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Jemsbond
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Re: बाल उपन्यास :मिश्री का पहाड़ /ओमप्रकाश कश्यप

Post by Jemsbond »

हाथों में झंडियां और पोस्ट र उठाए बच्चेु आगे बढ़ने लगे. मौन, पूरी तरह अनुशासित. संयमित और मर्यादित. चेहरे पर आत्मेविश्वापस और मनभावन मुस्काेन लिए. मानो इतने सारे बच्चे एक साथ साधनारत हों. कि पवित्र जलधाराएं मौन, धीर-गंभीर ग़ति से एक-दूसरे के समानांतर बही चली जा रही हों. अनेकानेक को जीवनदान देने. परोपकार की परंपरा को आगे बढ़ाती हुई. सींचती हुई पवित्र धरा को नई उमंगों, रंग़-बिरंगे सपनों और महान संकल्पोंे से.
सबसे आगे था टोपीलाल. उन्नात ग्रीवा, घुंघराले बाल, तांबई, पका हुआ रंग़. अपने दोनों हाथों से दंड रहित श्वेीत-हरित ध्वलजा को उठाए. दंड रहित ध्वनजा की परिकल्पलना बद्री काका ने की थी. अहिंसा के सिपाहियों के हाथों में दंड का क्याक काम. जो अपनी नैतिकता से दुनिया जीतने निकला है, उसको बल या उसके बाह्‌यः प्रतीकों का सहारा क्योंो. उनके पीछे मौजूद तीनों कतारों में सैकड़ों बच्चे और औरते खड़ी थे.
आरंभ में जुलूस में हिस्सा लेने आई स्त्रियों की संख्याि कम थी. लेकिन जुलूस आगे बढ़ने के साथ-साथ महिला आंदोलनकारियों की संख्यास भी बढ़ती चली ग़ई. उनकी देखदेखी कुछ पुरुष भी आकर उनमें शामिल हो ग़ए. जिनमें से एक व्य क्तिा को देखकर बद्री काका, कुक्कीे और टोपीलाल सहित अनेक बच्चे विस्मएय में डूब ग़ए. वह जियानंद था. सदानंद का पिता. अपने पिता को वहां देख सदानंद के चेहरे पर उदासी छा ग़ई. यह देख बद्री काका ने उसको संभाला. कंधा थामकर भरोसा जताया. जुलूस आगे बढ़ा तो जियानंद भी साथ-साथ बढ़ने लगा.
दोपहर बारह बजे के तय समय पर जब जुलूस अपने पूर्व निर्धारित पड़ाव-स्थतल पर पहुंचा, उस समय तक स्त्रियों की कतार बच्चोंय की कतार जितनी ही लंबी हो चुकी थी. उसमें डेढ़ सौ से अधिक महिला आंदोलनकारी सम्मि लित थीं. श्रम और ममता की प्रतिमूर्ति. उत्सासहित, आंखों में बदलाव का सलोना सपना सजाए हुए. नए विश्व की रचना
को समर्पित. पुरुषों की संख्याम भी पचास से ऊपर थी.
पुलिस के सिपाही जुलूस को घेरे हुए चल रहे थे. उनके चेहरे पर नौकरी का तनाव कम, जुलूस के साथ होने की अनुभूति प्रबल थी. उनकी भावनाएं जुलूस में सम्मिालित बच्चोंड की भावनाओं के अनुरूप थीं, इसीलिए वे भी जुलूस का ही एक हिस्सा नजर आ रहे थे. शायद पहली बार पुलिस की मंशा बच्चोंन के जुलूस को सुरक्षाकवच प्रदान करने की थी. कानूनी ताकत नैतिकता की सहयोगी बनी थी. लोगों को अपनी कामयाबी का भरोसा भी था.
रास्ते के दोनों और लोग़ जमा थे. स्त्री-पुरुष, बूढे़े और बच्चे , धनी और निर्धन, मजदूर और व्यासपारी. सभी हैरान थे. मैदान में इधर-उधर घूमने वाले बच्चे., जिन्हेंो आवारा, बदमाश, शैतान आदि न जाने क्याम-क्यार कहा जाता था. जो ग़लियों में बेकार घूमते, समय गुजारने के लिए कबाड़ का धंधा करने लग़ते थे.
पेट भरने के लिए छोटी-मोटी चोरी-चकारी से भी उन्हें डर नहीं था. उनके घरों में नशे की त्रासदी आम बात थी. अपनी नादानी के कारण जो स्वटयं भी किसी न किसी नशे का शिकार होते आए थे, पहली बार वे नशे के विरुद्ध एकजुट हुए थे. पहली बार उन्होंकने उस दानव के विरुद्ध मोर्चा खोला था. तमाशबीन दर्शकों के बीच चर्चा का यह एक अच्छाए मसाला था.
जुलूस को मैदान तक पहुंचने में करीब डेढ़ घंटा लगा था. वहां स्व यंसेवी संस्थााओं की ओर से नाश्तेत की व्यरवस्था् थी. मैदान तक पहुंचते-पहुंचते बच्चेा थक चुके थे. हालांकि उनके चेहरे को देखकर उसका अनुमान लगा पाना कठिन था. बद्री काका ने नाश्तेप के लिए विश्राम की मुद्रा में आ जाने को कहा. कुछ बच्चेक वहीं जमीन पर बैठ ग़ए. मैदान में बच्चों को संबोधित करने के लिए एक मंच बनाया ग़या था. मंच से बद्री काका द्वारा संबोधित किए जाने का कार्यक्रम था.
पार्क में अब सिर्फ बच्चेध नहीं थे. बल्किा सैकड़ों की भीड़ जमा थी. जुलूस की खबर अखबार के माध्यनम से पूरे शहर में फैल चुकी थी. इसलिए उसको देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ चुकी थी. उत्सु क लोग़ सड़क के किनारे, चौराहों, घरों और दुकानों की छतों पर खड़े थे. बाजार में ग्राहक कम जुलूस देखने आए तमाशबीनों की संख्याे अधिक थी. बच्चोंर के पहुंचने से पहले ही सैकड़ों लोग़ उस पार्क में जमा हो चुके थे. इससे बद्री काका का उत्सारहित होना स्वाुभाविक ही था.
बच्चों् के उत्साहहवर्धन के लिए एक बार फिर उन्हों ने जिम्मेउदारी संभाल ली. मंच पर आकर उन्होंबने कहना आरंभ किया-
‘दोस्तोक! मैं नशे के विरुद्ध बच्चोंर और बड़ों में चेतना तो लाना चाहता था. परंतु सच मानिए इतने बड़े और सफल जुलूस की कल्पोना मैंने सपने में भी नहीं की थी. मेरी पाठशाला में तो मुट्‌ठी-भर ही बच्चेआ हैं, जो एक कमरे में समा सकते हैं. पर आज जो यहां
पर शहर-भर के बच्चों का हुजूम उमड़ पड़ा है, उसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ टोपीलाल और उसके साथियों को जाता है.
इन बच्चों ने पूरी मेहनत और ईमानदारी के साथ अपनी भावनाओं को आप सब तक पहुंचाया. आपके दिल को छुआ. इसी का सुफल आज का यह कामयाब प्रदर्शन है.रास्तेक में हमारे जुलूस को हजारों आंखों ने देखा. हजारों दिल-दिमागों ने हमारे कार्यक्रम के प्रति अपनी आस्थाप का प्रदर्शन किया है. आप सबकी भागीदारी ने, चाहे वह जिस रूप में भी हो, हमारा हौसला बढ़ाया है. हमारे मकसद को दृढ़ किया है. और इस संघर्ष में जीत के प्रति हमारे विश्वाभस को आगे ले जाने का काम किया है. इसकी खबर करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और यकीन मानिए हमें उनका भी आशीर्वाद मिलेगा.
आज जिस तरह से लोग़ हमारे जुलूस को देखने के लिए जमा हुए हैं, उससे लग़ता है कि लोग़ हमपर विश्वादस कर रहे हैं. वे हमारी बात से सहमत हैं. हमारी भावनाओं के प्रति एकमत हैं, हमसे जुड़ना चाहते हैं. हमने आज लोगों की आंखों में चमक देखी. निश्चहय ही उनमें कुछ आंखें ऐसी भी होंगी जिन्हेंो नशे की लत ने धुंधली बना दिया होगा. लेकिन यदि वे हमें देखने के लिए यहां तक आई हैं तो हमें यह मान लेना चाहिए कि वे बदलाव के लिए उत्सुनक हैं. वे अपनी स्थि ति से, बदनामी और पतन की पराकाष्ठा से ऊब चुकी हैं. यह सब हमारी एकजुटता का नतीजा है. हमारे उद्‌देश्यए की पवित्रता ने इसको आसान बनाया है.
जुलूस को कामयाब बनाने में स्त्रियों का भी योग़दान है. वे स्वुयंस्फूुर्त भाव से इसमें हिस्साो लेने आई हैं. जुलूस में स्त्रियों को सम्मिदलित करने का विचार भी मेरा नहीं था. यह सुझाव भी टोपीलाल की ओर से आया. सच कहूं तो आजादी के बाद के अपने सार्वजनिक आयोजन में मैं स्त्री-शक्ति को इतने बड़े स्त र पर पहली बार संग़ठित देख रहा हूं. हमारे परिवारों में कमाना अब भी पुरुष की जिम्मेैदारी माना जाता है, लेकिन उसका अस्तिबत्व़ पूूरी तरह अपने परिवार अर्थात स्त्री और बच्चों पर निर्भर होता है. कोई भी मनुष्य भले ही वह कितना ही संवेदनहीन क्योंप न हो, स्त्री और बच्चों की उपेक्षा नहीं कर पाता. घर के मर्द जब नशे के शिकार होते हैं तो उसका सर्वाधिक नुकसान भी इसी वर्ग को उठाना पड़ता है. इसलिए अपने हित के लिए इन दोनों को संग़ठित होना पड़ेगा.
यह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं है. हम इसको राजनीतिक लड़ाई बनाना भी नहीं चाहते. अग़र इसको राजनीतिक लड़ाई बनाया ग़या तो वोटों के सौदाग़र कूद पड़ेंगे. तब इस आंदोलन का भी वही हश्र होगा जो देश की अधिकांश राजनीतिक संस्थातओं का होता रहा है. यह एक सामाजिक आंदोलन है, जिसका संघर्ष घर की चारदीवारी के बीच, चौके-चूल्हेा के सामने होना है. वहां पर बच्चों और स्त्रियों की एकजुटता इस आंदोलन को विजय की ओर ले जाएगी.
मित्रो! हमारा अग़ला कार्यक्रम मजदूर बस्तिहयों के आसपास स्थि त शराब की पांच
दुकानों के आगे धरने-प्रदर्शन का है. गांधी जयंती के कारण सभी दुकानें आज बंद होंगी. मग़र हमारा लक्ष्यि अपनी विचारधारा को प्रशासन और आम जनता तक पहुंचाना है, इससे उनके बंद होने या खुले रहने से कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता. मैं चाहता हूं कि इस सांकेतिक धरने के नेतृत्व के लिए महिलाएं आगे आएं.'
बद्री काका ने बोलना समाप्त किया तो सभा-स्थेल तालियों की ग़ड़ग़ड़ाहट से गूंज उठा. स्त्रियों की कतार से कुछ महिलाएं आगे आ ग़ईं. बाकी बद्री काका के इशारे पर बच्चोंल की कतारों में बच्चों के बीच सम्मि.लित हो ग़ईं. फिर पूरे दल को पांच हिस्सोंज में बांट दिया ग़या.
‘महात्मा गांधी की जय...!' पीछे से आवाज आई तो टोपीलाल चौंक पड़ा.
‘मां!' कहते हुए उसकी निगाह महिलाओं की ओर दौड़ ग़ई. आठ-दस महिलाओं के बीच अपनी मां को खड़ा देख टोपीलाल की आंखों में चमक आ ग़ई-
‘तुम भी!' उसके मुंह से बरबस निकला. टोपीलाल को आंखों ही आंखों में आशीर्वाद लुटाते हुए उसकी मां ने दुबारा नारा लगाया-
‘सत्या और अहिंसा की...!'
‘जय!' टोपीलाल ने अपनी मां के स्वार में स्वपर मिलाया. उसका साथ सैकड़ों आवाजों ने दिया. जुलूस धरने के लिए आगे बढ़ने ही जा रहा था कि एसपी की गाड़ी फिर उसका रास्तास रोककर खड़ी हो ग़ई. आंखों में चिंता के भाव लिए वह बद्री काका के पास पहुंचा-
‘माफ कीजिए, यहां से आगे बढ़ने की अनुमति मैं आपको नहीं दे सकता?' पुलिस अधिकारी ने जोर देकर कहा. बद्री काका हैरान. कारण उनकी समझ के बाहर था.
‘ऐसा अचानक क्याा हो ग़या एसपी साहब?' बद्री काका ने प्रश्नग किया.
‘मुझे अभी-अभी सूचना मिली है कि उधर कुछ गुंडे लोग़ जमा हैं. वे जुलूस को नुकसान पहुंचा सकते हैं.'
‘आप उनको रोकें, समझाएं कि वे हमारे शांतिपूर्ण प्रदर्शन में बाधा न बनें.'
‘हमारी टुकड़ियां उधर जा चुकी हैं. हालात नियंत्रण में हैं. फिर भी बच्चोंे और महिलाओं के कारण मैं कोई खतरा उठाना नहीं चाहता. प्ली ज, आप ही मान जाइए.'
‘चाहे कुछ भी हो जाए साहब, हम नहीं मानेंगे.' तब तक कई महिलाएं आगे आ चुकी थीं. टोपीलाल और उसके साथी भी उनके इर्द-गिर्द जमा हो ग़ए.
‘आप बात समझने की कोशिश कीजिए. उन लोगों का कोई भरोसा नहीं. गुंडे-मवालियों के माध्यरम से वे कुछ भी कर सकते हैं.'
‘तो आप उन्हें गिरफ्तानर कर लीजिए...' महिलाओं के बीच से आवाज आई. एसपी के चेहरे पर बेचारगी छा ग़ई. तब बद्री काका उसको सांत्व ना देने के लिए आगे आए-
‘मैं आपकी मुश्किसल समझता हूं कप्ता न साहब. किंतु हमारी भी विवशता है. हम
हिंसा नहीं चाहते. लेकिन उसके डर से अपने बढ़े हुए कदम वापस भी नहीं ले सकते.' निकट ही खडे़ टोपीलाल को तो इसी बात का इंतजार था. उसने जोश के साथ नारा लगाया-
‘महात्माक गांधी की...!'
‘जय!' उतने ही जोश में डूबे जुलूस ने साथ निभाया. उनकी आवाज का दमखम देख दशों दिशाएं गूंजने लगीं.
‘सत्य्-अहिंसा...!'
‘जिंदाबाद...!'
‘प्याार से जो आबाद हुए घर...'
‘...नशे ने वे बरबाद किए घर'
‘अग़र तरक्कीक करनी है तो...'
‘...दूर नशे से रहना होगा.'
‘फंसा नशे के चंगुल में जो...'
‘...इंसां से हैवान बना वो.'
‘गुटका, पानमसाला, बीड़ी...'
‘...मौत की सीढ़ी, मौत की सीढ़ी.'
नारे लगाता हुआ जुलूस फिर आगे बढ़ने लगा. रास्तेय में शराब की दुकान आई तो एक दल उसके सामने धरना देने के लिए बैठ ग़या. बाकी समूह आगे बढ़ा. वहां व्यनस्त सड़क थी. वाहनों से भरी हुई. बद्री काका ने बच्चों को एक पंक्ति में चलने का कहा. वाहनों की भीड़ से बच्चेव सावधानीपूर्वक गुजरने लगे. नारे लगाते, लोगों का ध्या न आकर्षित करते हुए.
दूसरी दुकान सड़क के ठीक पीछे स्थिबत मजदूर बस्तीा में थी. वहां तक पहुंचने के लिए जुलूस को कच्चीा नालियों और कीचड़ से होकर गुजरना पड़ा. सरकारी निर्देश के कारण दुकाने बंद थीं. दूसरा दल प्रतीकात्मरक धरने के लिए वहीं रुक ग़या. बाकी रहा कारवां आगे बढ़ा. एक चौराहे और फिर चौड़े पार्क को पार करता हुआ वह खुले मैदान में आ ग़या. जुलूस जिस बस्तीद से गुजरता वहां के बच्चे और महिलाएं उससे अपने आप जुड़ते चले जाते थे. मानो उस अभियान में कोई पीछे न रहना चाहता हो. सब अपना योग़दान सुनिश्चिंत करने को तत्प़र हों. इसलिए दो टोलियां पीछे छूट जाने के बावजूद आंदोलनकारियों की संख्याु में कोई कमी नहीं आई थी. जुलूस में हिस्साप ले रहे बच्चोंं और महिलाओं का जोश भी पहले ही भांति बना हुआ था.
मैदान के एक सिरे पर झुग्गिशयां थीं. शहर के सबसे ग़रीब लोगों की गुमनाम-सी बस्तीस. उसके दूसरे छोर पर कच्ची शराब की दुकान. बराबर में भांग़ का भी ठेका था. दुकान हाल ही में खुली थी. इस कारण उसके आगे लगा बोर्ड एकदम चमचमा रहा था. मानो
जुलूस में हिस्साम ले रहे आंदोलनकारियों को चुनौती दे रहा हो. तीसरे दल को वहीं धरना देने की जिम्मेणदारी सौंपकर, बद्री काका आगे बढ़ ग़ए.
अब भी जुलूस में सौ से ऊपर स्त्रियां और बच्चेय सम्मिुलित थे. पार्क को पार करने के बाद वे फिर एक व्यकस्तौ सड़क पर आ ग़ए. जिसके दोनों ओर ऊंची-ऊंची इमारतें थीं. आगे एक मोड़ था. उससे पचास कदम आगे ही दो दुकानें थीं. बड़ी-बड़ी और लग़भग़ आमने-सामने. दुकानों की एक दिशा में शहर का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र था. तीन ओर बड़ी-बड़ी मजदूर बस्ति यां. उन दुकानों का मालिक शहर का शराब का सबसे बड़ा ठेकेदार था. हर कोई उसकी ताकत और राजनीतिक पहुंच से परिचित था.
पुलिस की मदद से कुछ देर के लिए यातायात को रोक दिया ग़या था. बद्री काका बच्चोंब ने को संभलकर रास्ताउ पार करने का निर्देश दिया. वे खुद जुलूस के बीच में चल रहे थे. बच्चेा और महिलाएं सावधानीपूर्वक सड़क पार कर ही रहे थे कि अचानक एक पत्थजर जुलूस के ऊपर आकर पड़ा. कोई बच्चोंच और महिलाओं पर भी हमला कर सकता है, बद्री काका को इसकी आशंका बहुत कम थी. पत्थपर गिरते ही जुलूस में खलबली मच ग़ई. बच्चेा पंक्तिी तोड़कर इधर-उधर जाने लगे. बच्चे इधर-उधर भाग़ने लगे. जुलूस में आगे चल रहीं निराली और कुक्‍की बच्चोंड को रोकने के लिए चीखने लगीं.
‘भागिए मत. आराम से रास्ता पार कीजिए.' बद्री काका चीखे, ‘हौसला रखिए, यह हमला कायरतापूर्ण है. वे हमें डरा रहे हैं. पर हम डरेंगे नहीं. आगे बढ़िए...धीरे-धीरे आगे बढ़िए.' लगातार पत्थूर गिरने से चौराहे पर खड़े वाहन चालकों में भी डर व्याेप ग़या. मजदूर औरतें बच्चोंक को सड़क के दूसरी ओर सुरक्षित पहुंचाने के काम में लगी थीं. उनमें से भी कुछ को चोटें आई थीं. महिलाओं का ही एक दल घायलों को इलाज के लिए ले जाने में जुट ग़या.
अचानक पत्थंरों की रफ्ताभर तेज हो ग़ई. इतनी कि चौराहे पर खड़ा रहना असंभव दिखने लगा. जुलूस में शामिल आधे से अधिक लोग़ दूसरी दिशा में पहुंच ही चुका था. अपनी टोली का नेतृत्व कर रही कुक्कीा तेजी से दूसरी दिशा में जाना चाहती थी. तभी पत्थहरों की मार से घबराया एक स्कूौटर सवार तेजी से गुजरा. बद्री काका की निगाह उस ओर ग़ई. वे कुक्कीो की ओर भागे.
‘गुरुजी बचिए...आह!' टोपीलाल की आवाज गूंजी. उसी के साथ गुरुजी और कुक्कीर की चीख भी. अकस्माशत पूरा जुलूस बिखर ग़या. चीख-पुकार मचने लगी.
‘रुकिए मत! चलते रहिए...बद्री काका सिर्फ घायल हुए हैं. उन्होंीने ही कहलवाया है-रुकिए मत. पूरे विश्वांस कदम बढ़ाते रहिए. अभी हमारा अभियान अभी पूरा नहीं हुआ है. अभी एक और मोर्चा बाकी है. उसको फतह करने के लिए हमें जल्दीि से जल्दी लक्ष्यह तक पहुंचना है. मंजिल बस दस कदम दूर है.' टोपीलाल चिल्लााया और गुरुजी तथा कुक्कीज को संभालने के लिए झुक ग़या. टोपीलाल के आवाह्‌न पर नन्हेर कर्मयोगी और महिलाएं
फिर आगे बढ़ने लगीं. पूरी दृढ़ता के साथ.
उस सनातन संघर्ष में कायरों ने अपनी क्रूरता का परिचय दिया. कर्मयोगियों ने अपनी संकल्पमनिष्ठास का.
कर्मयोग़ और लक्ष्यीसिद्धि परस्पिर पर्याय हैं.
सफलता कर्मयोगी के वरण हेतु सदैव उत्सुरक रहती है.
‘हमनें पांचों दुकानों के आगे सफलतापूर्वक धरना दिया. कई दर्जन लोग़ हमारे साथ थे. फिर भी हम हार ग़ए!' टोपीलाल ने कहा और अपनी निगाह बद्री काका के पैरों पर टिका दी. उस दिन कुक्कीप को मोटर साइकिल से बचाने के प्रयास में बद्री काका स्वपयं उससे टकरा ग़ए थे. उसके साथ घिसटते हुए सड़क पर दूर तक चले ग़ए. तभी सामने से आती एक तेज रफ्ता र कार उनके पैरों को कुचलती हुई चली ग़ई.
कुक्कीस को भी मामूली चोटें आईं थीं. उसको तीसरे दिन अस्पेताल से छुट्‌टी दे दी ग़ई. बद्री काका को डॉक्ट रों ने उन्हेंस ठीक तो कर लिया, मग़र उनके दोनों पैर काटने पड़े थे. इस बात का अफसोस बद्री काका से ज्या दा टोपीलाल और उसके सहयोगियों को था. जब उसको यह खबर मिली तो कई घंटों तक रोता रहा था.
‘हार कैसी, हम पूरी तरह कामयाब रहे हैं.' बद्री काका ने मुस्करराने का प्रयास किया.
‘हमारे कारण ही आपकी यह हालत हुई है...!' टोपीलाल ने कहा. उसकी आंखें एकदम लाल थीं. मानो कई रातें उसने जाग़कर बिताई हों.
‘जिस लक्ष्य के लिए हमने एकजुटता दिखाई है, उसके लिए यह तो बहुत मामूली कीमत है.'
‘अब हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा?' सदानंद बोला, उसके स्वलर में उदासी थी. इसपर टोपीलाल ने बात काटी-‘गुरुजी हैं, तो!' फिर बद्री काका की ओर मुड़कर बोला, ‘आगे आप सिर्फ आदेश दिया करना, सारा काम हम स्व यं कर लेंगे.'
उसी समय कुक्कीम दौड़ती हुई भीतर आई. उसके माथे पर पटि्‌टयां बंधी थीं. दौड़ने के कारण उसकी सांसे फूल रही थीं. उसके हाथों में एक पत्र था. उसपर छपा नाम-पता देखते ही बद्री काका की आंखों में खुशी की लहर दौड़ ग़ई. कुछ पल वे उसको टकटकी लगाए देखते रहे, फिर उनकी उंग़लियां पत्र को बहुत सावधानी से खोलने लगीं.
‘किसका पत्र है, गुरुजी?' सदानंद ने पूछा. उत्तर देने के बजाय बद्री काका मुस्कीरा दिए और अपना ध्याीन पत्र पर लगा दिया. पत्र राष्ट्रहपति आवास से आया था. राष्ट्रेपति महोदय का एकदम निजी पत्र. लिखा था-
‘परमश्रद्धेय बद्रीनारायण जी,
दो अक्टू्बर को महात्माु गांधी की जन्मवतिथि पर देश-भर में सरकारी और गैरसरकारी
स्तअर पर अनेक कार्यक्रम होते हैं. हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हुए. देश के प्रथम नाग़रिक की हैसियत से मैं कुछ कार्यक्रमों में सम्मिकलित भी हुआ. मग़र मुझे जितनी उत्सुभकता आपके कार्यक्रम के बारे में जान लेने की थी, उतनी किसी और की नहीं. इसलिए कि उन सब कार्यक्रमों में आपका आंदोलन सर्वाधिक मौलिक एवं रचनात्मयक था. आपको मिली सफलता की सूचना से मेरा दिल ग़द्‌ग़द हो ग़या. मन हुआ कि वहीं जाकर आपको बधाई दूं. लेकिन जिस पद पर मुझे बिठाया ग़या है, उसकी जिम्मेहदारियां मुझे वहां आने की अनुमति नहीं दे रही हैं.
बता दूं कि आपके अभियान की कामयाबी पर मुझे पहले भी पूरा भरोसा था. क्योंनकि जिस समर्पण एवं निष्ठाई के साथ आप काम को संभालते हैं, उसमें नाकामी संभव ही नहीं है. आपके आंदोलन की सफलता जहां मन को प्रफुल्लिमत कर देने वाली है, वहीं आपके साथ घटी दुर्घटना की खबर ने दिल को झकझोर कर रख दिया है. इस बारे में हालांकि आपने स्व यं कुछ नहीं बताया है. यह सूचना मुझे अस्पोताल के माध्य म से मिली है. उन्हेंआ न जाने कैसे मेरी और आपकी मैत्री की सूचना मिली, जो आपके साथ हुई दुर्घटना की खबर मुझे भेजने की कृपा की.
जिन लोगों ने आपके साथ यह घिनौनी हरकत की है, वे बहुत ही कायर और निर्लज्जे किस्मा के लोग़ हैं. वे खुद टूट चुके हैं. उनका यह कदम उनके डर, हताशा और बौखलाहट का नतीजा है. आपका हृदय विशाल है. जानता हूं कि उनके प्रति आपके मन में कोई द्वैष या विकार नहीं होगा. आप तो माफ भी कर चुके होंगे. पर कानून भी अपना काम करे, मेरी यही इच्छाई है. मुझे पूरी उम्मीोद है कि स्था नीय प्रशासन उनका पता लगाकर उन सबको सजा जरूर दिलाएगा.
अपने पिछले पत्र में आपने लिखा था कि आंतरिक ऊर्जा से भरपूर बच्चों ने आपकी इंजन वाली जग़ह हथिया ली है. इससे लग़ता है कि वे बच्चे् विलक्षण रूप से प्रतिभाशाली और साहसी हैं. उनमें देश के लिए कार्य करने का जज्बाप है. मैं उनकी भावनाओं को नमन करता हूं. उम्मीशद करता हूं कि वे इसी प्रकार लगातार आगे बढ़ते रहेंगे. मैं उनसे अवश्य मिलना चाहूंगा. आप स्व्यं भी उनके साथ दर्शन दें तो मुझे बहुत प्रसन्नवता होगी.
अंत में आपकी अद्वितीय सफलता के लिए आपको एवं आपके सभी बालसहयोगियोें को बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि हमारी भेंट बहुत जल्दीप होगी.'
संघीय देश का राष्ट्र पति
पत्र पढ़ने के पश्चारत बद्री काका ने वह बच्चोंर की ओर बढ़ा दिया. टोपीलाल उसे लेकर पढ़ने लगा. सदानंद समेत बाकी बच्चेक भी उसके ऊपर झुक ग़ए. तभी पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने प्रवेश किया. वह सादा लिबास में था. उसको देखकर बद्री काका ने बैठने का प्रयास किया. मग़र घाव ताजे होने के कारण दर्द की लहर दिमाग़ को चीर-सा ग़ई. उन्हेंे कराहकर उसी स्थिहति में रह जाना पड़ा.
‘न...न! आप आराम से लेटे रहिए...मैं तो सिर्फ यह बताने आया था कि जिन लोगों ने आपपर हमला किया था, उन सभी को पुलिस गिरफ्ताहर कर चुकी है.'
‘वे सब नहीं जानते कि उन्हों ने निर्दोष बच्चों और महिलाओं पर हमला करके कितना बड़ा पाप किया है.' बद्री काका के मुंह से कराह निकली.
‘मैं आपके लिए एक खुशखबरी भी लाया हूं.' एसपी मुस्क राया, फिर प्रतीक्षा किए बिना ही कहता ग़या, ‘एक आदेश के तहत सरकार ने मजदूर बस्तिरयों में चल रहीं, शराब की सभी दुकानों को तत्कापल प्रभाव से बंद कराने का निश्चतय किया है...'
‘धन्यतवाद, और भी अच्छाो होता यदि सरकार शराब की दुकानों के साथ-साथ तंबाकू और और नशे की दूसरी चीजों के निर्माण एवं बिक्री पर भी लगाम लगाने का काम करे. खैर, देर से ही सही आप बहुत अच्छीू खबर लेकर आए हैं.'
‘आपके लिए एक खुशखबरी और भी है...'
‘अच्छाल, लग़ता है आज आप थोक में खुशखबरी लेकर आए हैं.' बद्री काका मुस्कछराए.
‘इन बच्चोंी के काम से खुश होकर सरकार ने टोपीलाल और उसके साथियों को पुरस्कृमत करने का निर्णय लिया है, इस बारे में मुझे आपसे बातचीत करने का आदेश मिला है.' एसपी ने कहा. अचानक बद्री काका के चेहरे के भाव बदलने लगे. वहां पर हमेेशा रहने वाली मृदुलता गायब हो ग़ई-
‘इन्हेंं पुरस्का र नहीं अच्छीा शिक्षा की जरूरत है.' बद्री काका ने दो टूक स्वेर में कहा, ‘शहर बढ़ता रहेगा. इमारतें भी ऊंची और ऊंची उठती रहेंगी. उनके लिए मजदूर और कारीग़रों की जरूरत भी हमेशा ही रहेगी. मजदूरों के साथ उनका परिवार भी होगा. इसलिए जरूरत ऐसी सचल पाठशालाओं की है, जो मजदूरों के बच्चों को उनके कार्यस्थ लों पर जाकर शिक्षा दे सकें. स्व यं सेवी संस्था ओं की मदद से सरकार यह काम आसानी से कर सकती है...'
‘आपका सुझाव बहुत अच्छाा है...मैं स्व यं सरकार को लिखूंगा...'
‘यही इन बच्चोंु का पुरस्का र होगा.' बद्री काका ने दृढ़तापूर्वक कहा.
वहां उपस्थितत महिलाएं एवं बच्चेा चौंक पड़े. बद्री काका का दृढ़ निश्चहय देख एसपी का कुछ और पूछने का साहस ही न हुआ. उसने बद्री काका से विदा ली. पुरस्का र न लेने पर बच्चेृ और औरतें अभी भी हैरान थे. एसपी के जाने के बाद वहां मौजूद औरतों में से एक ने पूछा-
‘सरकार बच्चों को ईनाम दे...इसमें बुराई ही क्या है?'
बद्री काका कुछ देर तक छत की ओर घूरते रहे. फिर उसी मुद्रा में धीर-गंभीर स्वचर में बोले-‘टोपीलाल और उसके साथियों ने जो किया है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. उसका सम्माेन हो, यह मेरे लिए भी सम्मा‘न की बात है. लेकिन आदमी का लक्ष्यक यदि बड़ा हो
और मंजिल दूर तो उसे रास्तेक के छोटे-छोटे प्रलोभनों और लालच से दूर रहना ही पड़ता है. एक कर्मयोगी के लिए सच्चाज पुरस्काकर तो उसकी लक्ष्यट-सिद्धि है. ये मान-सम्मा न और पुरस्का र तो कालांतर में उसको भटकाने, मंजिल से दूर ले जाने का काम ही करते हैं.' बद्री काका ने कहा. फिर टोपीलाल की ओर मुड़कर बोले-
‘तुम्हें बुरा तो नहीं लगा बच्चोंउ?'
‘हमारे लिए तो आपका आशीर्वाद ही सबसे बड़ा पुरस्का'र है.' कहते हुए टोपीलाल, सदानंद, कुक्कीप और निराली अपने बद्री काका के करीब आ ग़ए.
‘तुम सबसे मुझे यही उम्मीदद थी...अग़र बड़े संकल्प साधने हैं तो मन को मजबूत करना होगा. सफर में ऐसे प्रलोभन बार-बार आएंगे. अग़र उनके फेर में पड़े तो लक्ष्यत तक पहुंच पाना असंभव हो जाएगा. यह सफलता तो बहुत मामूली है. अभी तो पूरा देश पड़ा है, जहां तुम्हें अपने अभियान को आगे बढ़ाना है.'
‘हम तैयार हैं, गुरुजी!'
‘मैं भी यही चाहता हूं.' बद्री काका ने खुश होकर कहा.
‘पर मैं तो कुछ और ही चाहती हूं.' निराली ने जोर देकर कहा, ‘कितने दिन हो ग़ए बिना कोई किस्सास-कहानी सुने. आप बिस्तुर पर पड़े-पड़े उपदेश ही देते रहेंगे या हमारी बात पर भी ध्याान देंगे.'
‘बहुत दर्द हो रहा है, बेटा!' बद्री काका ने कराहने का दिखावा किया.
‘तो दर्द की ही कहानी सुना दीजिए.' इस बार कुक्कीा ने मोर्चा संभाला.
बद्री काका मुस्कीरा दिए. बच्चे उनके करीब खिसक आए.
एक नई कहानी का सृजन होने लगा.
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(समाप्त)
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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