हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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shubhs
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हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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[हाथियों का झुंड और बूढ़े शशक की कहानी /b]
किसी समय वर्षा के मौसम में वर्षा न होने से प्यास के मारे हाथियों का झुंड अपने स्वामी से कहने लगा -- हे स्वामी, हमारे जीने के लिए अब कौन- सा उपाय है ? छोटे- छोटे जंतुओं को नहाने के लिए भी स्थान नहीं है और हम तो स्नान के लिए स्थान न होने से मरने के समान है। क्या करें ? कहाँ जाएँ ? हाथियों के राजा ने समीप ही जो एक निर्मल सरोवर था, वहाँ जा कर दिखा दिया। फिर कुछ दिन बाद उस सरोवर के तीर पर रहने वाले छोटे- छोटे शशक हाथियों के पैरों की रेलपेल में खुँद गये। बाद में शिलीमुख नामक शशक सोचने लगा -- प्यास के मारे यह हाथियों का झुंड, यहाँ नित्य आएगा। इसलिए हमारा कुल तो नष्ट हो जाएगा। फिर विजय नामक एक बूढ़े शशक ने कहा -- खेद मत करो। मैं इसका उपाय कर्रूँगा। फिर वह प्रतिज्ञा करके चला गया, और चलते- चलते इसने सोचा -- कैसे हाथियों के झुंड के पास खड़े हो कर बातचीत करनी चाहिए।

स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नयि भुजंगमः।
पालयन्नपि भूपालः प्रहसन्नपि दुर्जनः।।

अर्थात हाथी स्पर्श से ही, साँप सूँघने से ही, राजा रक्षा करता हुआ भी और दुर्जन हँसता हुआ भी मार डालता है।
इसलिए मैं पहाड़ की चोटी पर बैठ कर झुंड के स्वामी से अच्छी प्रकार से बोलूँ। ऐसा करने पर झुंड का स्वामी बोला -- तू कौन है ? कहाँ से आया है ? वह बोला -- मैं शशक हूँ। भगवान चंद्रमा ने आपके पास भेजा है। झुंड के स्वामी ने कहा -- क्या काम है बोल ? विजय बोला :-

उद्यतेष्वपि शस्रेषु दूतो वदति नान्यथा।
सदैवांवध्यभावेन यथार्थस्य हि वाचकः।

अर्थात, मारने के लिए शस्र उठाने पर भी दूत अनुचित नहीं करता है, क्योंकि सब काल में नहीं मारे जाने से (मृत्यु की भीति न होने से) वह निश्चय करके सच्ची ही बात बोलने वाला होता है।
इसलिए मैं उनकी आज्ञा से कहता हूँ, सुनिये -- जो ये चंद्रमा के सरोवर के रखवाले शशकों को निकाल दिया है, वह अनुचित किया। वे शशक हमारे बहुत दिन से रक्षित हैं, इसलिये मेरा नाम 'शशांक' प्रसिद्ध है। दूत के ऐसा कहते ही हाथियों का स्वामी भय से यह बोला -- सोच लो, यह बात अनजानपन की है। फिर नहीं करुँगा। दूत ने कहा -- जो ऐसा है तो उसे सरोवर में क्रोध से काँपते हुए भगवान चंद्रमाजी को प्रणाम कर और प्रसन्न करके चला जा। फिर रात को झुंड के स्वामी को ले जा कर ओर जल में हिलते हुए चंद्रमा के गोले को दिखला कर झुंड के स्वामी से प्रणाम कराया और इसने कहा -- हे महाराज, भूल से इसने अपराध किया है, इसलिए क्षमा कीजिये, फिर दूसरी बार नहीं करेगा। यह कह कर विदा लिया।
सबका साथ सबका विकास।
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, और इसका सम्मान हमारा कर्तव्य है।
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Re: हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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एक क्षत्रिय, नाई और भिखारी की कहानी

अयोध्या में चूड़ामणि नामक एक क्षत्रिय रहता था। उसे धन की बहुत तंगी थी। उसने भगवान महादेवजी की बहुत समय तक आराधना की। फिर जब वह क्षीणपाप हो गया, तब महादेवजी की आज्ञा से कुबेर ने स्वप्न में दर्शन दे कर आज्ञा दी कि जो तुम आज प्रातःकाल और क्षौर कराके लाठी हाथ में लेकर घर में एकांत में छुप कर बैठोगे, तो उसी आँगन में एक भिखारी को आया हुआ देखोगे। जब तुम उसे निर्दय हो कर लाठी की प्रहारों से मारोगे तब वह सुवर्ण का कलश हो जाएगा। उससे तुम जीवनपर्यन्त सुख से रहोगे। फिर वैसा करने पर वही बात हुई। वहाँ से गुजरते हुए नाई ने यह सब देख लिया। नाई सोचने लगा-- अरे, धन पाने का यही उपाय है, मैं भी ऐसा क्यों न करूँ?

फिर उस दिन से नाई वैसे ही लाठी हाथ में लिए हमेशा छिप कर भिखारी के आने की राह देखता रहता था। एक दिन उसने भिखारी को पा लिया और लाठी से मार डाला। अपराध से उस नाई को भी राजा के पुरुषों ने मार डाला।
सबका साथ सबका विकास।
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, और इसका सम्मान हमारा कर्तव्य है।
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Re: हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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एक बनिया, बैल, सिंह और गीदड़ों की कहानी


दक्षिण दिशा में सुवर्णवती नामक नगरी है, उसमें वर्धमान नामक एक बनिया रहता था। उसके पास बहुत- सा धन भी था, परंतु अपने दूसरे भाई- बंधुओं को अधिक धनवान देखकर उसकी यह लालसा हुई, कि और अधिक धन इकट्ठा करना चाहिए।
अपने से नीचे नीचे (हीन) अर्थात दरिद्रियों को देख कर किसकी महिमा नहीं बढ़ती है? अर्थात सबको अभिमान बढ़ जाता है और अपने से ऊपर अर्थात अधिक धनवानों को देखकर सब लोग अपने को दरिद्री समझते हैं।

ब्रह्महापि नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं धनम्।
शशिनस्तुल्यवंशोsपि निर्धनः परिभूयते।।

जिसके पास बहुत सा धन है, उस ब्रह्मघातक मनुष्य का भी सत्कार होता है और चंद्रमा के समान अतिनिर्मल वंश में उत्पन्न हुए भी निर्धन मनुष्य का अपमान किया जाता है।
जैसे नवजवान स्री बूढ़े पति को नहीं चाहती है, वैसे ही लक्ष्मी भी निरुद्योगी, आलसी, ""प्रारब्ध में जो लिखा है, सो होगा ऐसा भरोसा रख कर चुपचाप बैठने वाले, तथा पुरुषार्थ हीन मनुष्य को नहीं चाहती है।

आलस्यं स्री सेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम्।
संतोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्वस्य।।

और भी आलस्य, स्री की सेवा, रोगी रहना, जन्मभूति का स्नेह, संतोष और डरपोकपन ये छः बातें उन्नति के लिये बाधक है।

संपदा सुस्थितंमन्यो भवति स्वल्पयापि यः।
कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम्।।

जो मनुष्य थोड़ी सी संपत्ति से अपने को सुखी मानता है, विधाता समाप्तकार्य मान कर उस मनुष्य की उस संपत्ति को नहीं बढ़ाता है। निरुत्साही, आनंदरहित, पराक्रमहीन और शत्रु को प्रसन्न करने वाले ऐसे पुत्र को कोई स्री न जने अर्थात ऐसे पुत्र का जन्म न होना ही अच्छा है। नहीं पाये धन के पाने की इच्छा करना, पाये हुए धन की चोरी आदि नाश से रक्षा करना, रक्षा किये हुए धन को व्यापार आदि से बढ़ाना और अच्छी तरह बढ़ाए धन को सत्पात्र में दान करना चाहिए। क्योंकि लाभ की इच्छा करने वाले को धन मिलता ही है एवं प्राप्त हुए परंतु रक्षा नहीं किये गये ख़ज़ाने का भी अपने आप नाश हो जाता है और भी यह है कि बढ़ाया नहीं गया धन कुछ काल में थोड़ा व्यय हो कर काजल के समान नाश हो जाता है और नहीं भोगा गया भी ख़ज़ाना वृथा है।

धनेन किं यो न ददाति नाश्रुते, बलेन कि यश्च रिपून्न बाधते।
श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत्, किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत्।

उस धन से क्या है ? जो न देता है और न खाता है, उस बल से क्या है ? जो वैरियों को नहीं सताता है, उस शास्र से क्या है ? जो धर्म का आचरण नहीं करता है और उस आत्मा से क्या है ? जो जितेंद्रिय नहीं है। जैसे जल की एक बूँद के गिरने से धीरे- धीरे घड़ा भर जाता है, वही कारण सब कारण सब प्रकार की विद्याओं का, धन का और धर्म का भी है।

दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै।
स कर्मकारभस्रेव श्वसन्नपि न जीवति।।

दान और भोग के बिना जिसके दिन जाते हैं, वह लुहार की धोंकनी के समान सांस लेता हुआ भी मरे के समान है। यह सोच कर नंदक और संजीवक नामक दो बैलों को जुए में जोतकर और छकड़े को नाना प्रकार की वस्तुओं से लादकर व्यापार के लिए कश्मीर की ओर गया।

अंजनस्य क्षयं दृष्ट्व वल्मीकस्य च संचयम्।
अवन्धयं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु।।

काजल के क्रम से घटने को और वाल्मीक नामक चीटी के संचय को देखकर, दान, पड़ना और कामधंधा में दिन को सफल करना चाहिए। बलवानों को अधिक बोझ क्या है ? और उद्योग करने वालों को क्या दूर है ? और विद्यावानों को विदेश क्या है ? और मीठे बोलने वालों का शत्रु कौन है ? फिर उस जाते हुए का, सुदुर्ग नामक घने वन में, संजीवक घुटना टूटने से गिर पड़ा। यह देखकर वर्धमान चिंता करने लगा - नीति जानने वाला इधर- उधर भले ही व्यापार करे, परंतु उसको लाभ उतना ही होता है, कि जितना विधाता के जी में है। सब कार्यों को रोकने वाले संशय को छोड़ देना चाहिये, एवं संदेह को छोड़ कर, अपना कार्य सिद्ध करना चाहिये। यह विचार कर संजीवक को वहाँ छोड़ कर फिर वर्धमान आप धर्मपुर नामक नगर में जा कर एक दूसरे बड़े शरीर वाले बैल को ला कर जुए में जोत कर चल दिया। फिर संजीवक भी बड़े कष्ट से तीन खुरों के सहारे उठ कर खड़ा हुआ। समुद्र में डूबे हुए की, पर्वत से गिरे हुए की और तक्षक नामक सपं से डसे हुए की आयु की प्रबलता मर्म (जीवनस्थान) की रक्षा करती है।

अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोsपि वने विसर्जितः। कृतप्रयत्नोsपि गृहे न जीवति।।

दैव से रक्षा किया हुआ, बिना रक्षा के भी ठहरता है और अच्छी तरह रक्षा किया हुआ भी, दैव का मारा हुआ नहीं बचता है, जैसे वन में छोड़ा हुआ सहायताहीन भी जीता रहता है, घर पर कई उपाय करने से भी नहीं जीता है। फिर बहुत दिनों के बाद संजीवक अपनी इच्छानुसार खाता पीता वन में फिरता- फिरता हृष्ट- पुष्ट हो कर ऊँचे स्वर से डकराने लगा। उसी वन में पिंगलक नामक एक सिंह अपनी भुजाओं से पाये हुए राज्य के सुख का भोग करता हुआ रहता था। जैसा कहा गया है, मृगों ने सिंह का न तो राज्यतिलक किया और न संस्कार किया, परंतु सिंह अपने आप ही पराक्रम से राज को पाकर मृगों का राजा होना दिखलाता है।
और वह एक दिन प्यास से व्याकुल होकर पानी पीने के लिए यमुना के किनारे गया और वहाँ उस सिंह ने नवीन ॠतुकाल के मेघ की गर्जना के समान संजीवक का डकराना सुना। यह सुन कर पानी के बिना पिये वह घबराया सा लौट कर अपने स्थान पर आ कर यह क्या है ? यह सोचता हुआ चुप- सा बैठ गया और उसके मंत्री के बेटे दमनक और करटक दो गीदड़ों ने उसे वैसा बैठा देखा। उसको इस दशा में देख कर दमनक ने करटक से कहा- भाई करटक, यह क्या बात है कि प्यासा स्वामी पानी को बिना पीये डर से धीरे- धीरे आ बैठा है ? करटक बोला -- भाई दमनक, हमारी समझ से तो इसकी सेवा ही नहीं की जाती है। जो ऐसे बैठा भी है, तो हमें स्वामी की चेष्ठा का निर्णय करने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस राजा से बिना अपराध बहुत काल तक तिरस्कार किये गये हम दोनों ने बड़ा दुख सहा है।

सेवया धनमिच्छाद्भिः सेवकै: पश्य यत्कृतम।
स्वायब्यं यच्छरीरस्य मूढैस्तदपि हारितम।।


सेवा से धन को चाहने वाले सेवकों ने जो किया, सो देख कि शरीर की स्वतंत्रता भी मूखा ने हार दी है। और दूसरे पराधीन हो कर जाड़ा, हवा और धूप में दुखों को सहते हैं और उस दुख के छोटे- से- छोटे भाग से तप करके बुद्धिमान सुखी हो सकता है। स्वाधीनता का होना ही जन्म की सफलता है और जो पराधीन होने पर भी जीते है, तो मरे कौन से हैं ? अर्थात वे ही मरे के समान हैं, जो पराधीन हो कर रहते हैं। धनवान पुरुष, आशारुपी ग्रह से भरमाये गये हुए याचकों के साथ, इधर आ, चला आ, बैठ जा, खड़ा हो, बोल, चुप सा रह इस तरह खेल किया करते हैं।

अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकरणीकृतः।।

जैसे वेश्या दूसरों के लिए सिंगार करती है, वैसे ही मूखा ने भी धन के लाभ के लिए अपनी आत्मा को संस्कार करके हृष्ट पुष्ट बनवा कर पराये उपकार के लिए कर रखी हैं। जो दृष्टि स्वभाव से चपल है और मल, मूत्र आदि नीची वस्तुओं पर भी गिरती है, ऐसी स्वामी की दृष्टि का सेवकलोग बहुत गौरव करते हैं।

मौनान्मूर्खः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा, क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः।
धृष्ट: पार्श्वे वसति नियतं दूरतश्चाप्रगल्भः, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।।

चुपचाप रहने से मूर्ख, बहुत बातें करने में चतुर होने से उन्मत्त अथवा बातूनी, क्षमाशील होने से डरपोक, न सहन सकने से नीतिरहित, सर्वदा पास रहने से ढ़ीठ और दूर रहने से घमंडी कहलाता है। इसलिए सेवा का धर्म बड़ा रहस्यमय है, योगियो से भी पहचाना नहीं जा सका है।

विशेष बात यह है कि जो उन्नति के लिए झुकता है, जीने के लिए प्राण का भी त्याग करता है और सुख के लिए दुखी होता है, ऐसा सेवक को छोड़कर और कौन भला मूर्ख हो सकता है।

दमनक बोला -- मित्र, कभी यह बात मन से भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि खामियों की सेवा यत्न से क्यों नहीं करनी चाहिये, जो सेवा से प्रसन्न हो कर शीघ्र मनोरथ पूरे कर देते हैं। स्वामी की सेवा नहीं करने वालों को चमर के ढ़ लाव से युक्त ऐश्वर्य और ऊँचे दंड वाले श्वेत छत्र और घोड़े हाथियों की सेना कहाँ धरी है ?

करटक बोला -- तो भी हमको इस काम से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि अयोग्य कामों में व्यापार करना सर्वथा त्यागने के योग्य है।

दमनक ने कहा -- तो भी सेवक को स्वामी के कामों का विचार अवश्य करना चाहिये। करटक बोला -- जो सब काम पर अधिकारी प्रधान मंत्री हो वही करे। क्योंकि सेवक को पराये काम की चर्चा कभी नहीं करनी चाहिये। पशुओं का ढ़ूढ़ना हमारा काम है। अपने काम की चर्चा करो। परंतु आज उस चर्चा से कुछ प्रयोजन नहीं। क्योंकि अपने दोनों के भोजन से बचा हुआ आहार बहुत धरा है। दमनक क्रोध से बोला -- क्या तुम केवल भोजन के ही अर्थी हो कर राजा की सेवा करते हो ? यह तुमने अयोग्य कहा।

मित्रों के उपकार के लिये, और शत्रुओं के अपकार के लिए चतुर मनुष्य राजा का आश्रय करते हैं और केवल पेट कौन नहीं भर लेता है ? अर्थात सभी भरते हैं।

जीविते यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवा:।
सफलं जीवितं तस्य आत्मार्थे को न जीवति ?

जिसके जीने से ब्राह्मण, मित्र और भाई जीते हैं, उसी का जीवन सफल है और केवल अपने स्वार्थ के लिए कौन नहीं जीता है ? जिसके जीने से बहुत से लोग जिये वह तो सचमुच जिया और यों तो काग भी क्या चोंच से अपना पेट नहीं भर लेता है ? कोई मनुष्य पाँच पुराण में दासपने को करने लगता है, कोई लाख में करता है ओर कोई एक लाख में भी नहीं मिलता है।

मनुष्यजातौ तुल्यायां भृत्यत्वमतिगर्हितम।
प्रथमों यो न तत्रापि स किं जीवत्सु गण्यते।।

मनुष्यों को समान जाति के सेवकाई काम करना अति निन्दित है और सेवकों में भी जो प्रथम अर्थात सबका मुखिया नहीं है, क्या वह जीते हुओं में गिना जा सकता है ? अर्थात उसका जीना और मरना समान है।

अहितहितविचारशून्यबुध्दे:। श्रुतिसमयैर्वहुभिस्तिरस्कृतस्य।
उदरभरणमात्रकेवलेच्छो:। पुरुषपशोश्च पशोश्च को विशेषः?
हित और अहित के विचार करने में जडमति वाला, और शास्र के ज्ञान से रहित होकर जिसकी इच्छा केवल पेट भरने की ही रहती है, ऐसा पुरुषरुपी पशु और सचमुच पशु में कौन सा अंतर समझा जा सकता है ? अर्थात ज्ञानहीन एवं केवल भोजन की इच्छा रखने वाले से घास खाकर जीने वाला पशु अच्छा है।

करकट बोला -- हम दोनों मंत्री नहीं है, फिर हमें इस विचार से क्या ? दमनक बोला- कुछ काल में मंत्री प्रधानता व अप्रधानता को पाते हैं। इस दुनिया में कोई किसी का स्वभाव से अर्थात जन्म से सुशील अर्थवा दुष्ट नहीं होता है, परंतु मनुष्य को अपने कर्म ही बड़पन को अथवा नीचपन को पहुँचाते हैं। मनुष्य अपने कर्मों से कुए के खोदने वाले के समान नीचे और राजभवन के बनाने वाले के समान ऊपर जाता है, अर्थात मनुष्य अपना उच्च कर्मों से उन्नति को और हीन कर्मों से अवनति को पाता है। इसलिये यह ठीक है कि सबकी आत्मा अपने ही यत्न के अधीन रहती है। करकट बोला-- तुम अब क्या कहते हो ? वह बोला -- यह स्वामी पिंगलक किसी न किसी कारण से घबराया- सा लौट करके आ बैठा है। करटक ने कहा-- क्या तुम इसका भेद जानते हो ? दमनक बोला -- इसमें नहीं जानने की बात क्या है ? जताए हुए अभिप्राय को पशु भी समझ लेता है और हांके हुए घोड़े और हाथी भी बोझा ढ़ोते हैं। पण्डित कहे बिना ही मन की बात तर्क से जान लेता है, क्योंकि पराये चित्त का भेद जान लेना ही बुद्धियों का फल है। आकार से, हृदय के भाव से, चाल से, काम से, बोलने से और नेत्र और मुंह के विकार से औरों के मन की बात जाल ली जाती है। इस भय के सुझाव में बुद्धि के बल से मैं इस स्वामी को अपना कर लूँगा। जो प्रसंग के समान वचन को, स्नेह के सदृश मित्र को और अपनी सामर्थ्य के सदृस क्रोध को समझता है, वह बुद्धिमान है।

करटक बोला -- मित्र, तुम सेवा करना नहीं जानते हो। जो मनुष्य बिना बुलाये घुसे और बिना पूछे बहुत बोलता है और अपने को राजा का प्रिय मित्र समझता है, वह मूर्ख है।

दमनक बोला-- भाई, मैं सेवा करना क्यों नहीं जानता हूँ ? कोई वस्तु स्वभाव से अच्छी और बुरी होती है, जो जिसको रुचती है, वही उसको सुंदर लगती है।

यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन हि तं नरम।
अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवशं नयेत।।

बुद्धिमान को चाहिये कि जिस मनुष्य का जैसा मनोरथ होय उसी अभिप्राय को ध्यान में रख कर एवं उस पुरुष के पेट में घुस कर उसे अपने वश में कर ले। थोड़ा चाहने वाला, धैर्यवान, पण्डित तथा सदा छाया के समान पीछे चलने वाला और जो आज्ञा पाने पर सोच- विचार न करे। अर्थात यथार्थरुप से आज्ञा का पालन करे ऐसा मनुष्य राजा के घर में रहना चाहिये।

करटक बोला-- जो कभी कुसमय पर घुस जाने से स्वामी तुम्हारा अनादर करे। वह बोला -- ऐसा हो तो भी सेवक के पास अवश्य जाना चाहिये।

दोष के डर से किसी काम का आरंभ न करना यह कायर पुरुष का चिंह है। हे भाई, अजीर्ण के डर से कौन भोजन को छोड़ते हैं

आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं, विद्याविहीनमकुलीनमसंगतं वा।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च, यः पार्श्वतो वसति तं परिवेष्टयन्ति।।

पास रहने वाला कैसा ही विद्याहीन, कुलहीन तथा विसंगत मनुष्य क्यों न हो राजा उसी से हित करने लगता है, क्योंकि राजा, स्री और बेल ये बहुधा जो अपने पास रहता है, उसी का आश्रय कर लेते हैं।

करटक बोला -- वहाँ जा कर क्या कहोगे ? वह बोला -- सुनो पहिले यह जानूँगा कि स्वामी मेरे ऊपर प्रसन्न है या उदास है ? करटक बोला -- इस बात को जानने का क्या चिंह है?

दमनक बोला-- सुनो दूर से बड़ी अभिलाषा से देख लेना, मुसकाना, समाचार आदि पूछने में अधिक आदर करना, पीठ पीछे भी गुणों की बड़ाई करना, प्रिय वस्तुओं में स्मरण रखना।

असेवके चानुरक्तिर्दानं सप्रियभाषणम्।
अनुरक्तस्य चिह्मानि दोषेsपि गुणसंगंहः।

जो सेवक न हो उसमें भी स्नेह दिखाना, सुंदर सुंदर वचनों के साथ धन आदि का देना और दोष में भी गुणों का ग्रहण करना, ये स्नेहयुक्त स्वामी के लक्षण हैं। आज कल कह करके, कृपा आदि करने में समय टालना तथा आशाओं का बढ़ाना और जब फल का समय आवे तब उसका खंडन करना ये उदास स्वामी के लक्षण मनुष्य को जानना चाहिये। यह जान कर जैसे यह मेरे वश में हो जायेगा वैसे कर्रूँगा, क्योंकि पण्डित लोग नीतिशास्र में कही हुई बुराई के होने से उत्पन्न हुई विपत्ति को और उपाय से हुई सिद्धि को नेत्रों के सामने साक्षात झलकती हुई सी देखते हैं।

करटक बोला-- तो भी बिना अवसर के नहीं कह सकते हो, बिना अवसर की बात को कहते हुए वृहस्पति जी भी बुद्धि की निंदा और अनादर को सर्वदा पा सकते हैं।
दमनक बोला-- मित्र, डरो मत, मैं बिना अवसर की बात नहीं कहूँगा, आपत्ति में, कुमार्ग पर चलने में और कार्य का समय टले जाने में, हित चाहने वाले सेवक को बिना पूछे भी कहना चाहिये। और जो अवसर पा कर भी मैं राय नहीं कहूँगा तो मुझे मंत्री बनना भी अयोग्य है।

मनुष्य जिस गुण से आजीविका पाता है और जिस गुण के कारण इस दुनिया में सज्जन उसकी बड़ाई करते हैं, गुणी को ऐसे गुण की रक्षा करना और बड़े यत्न से बढ़ाना चाहिये।

इसलिए हे शुभचिंतक, मुझे आज्ञा दीजिये। मैं जाता हूँ। करटक ने कहा-- कल्याण हो, और तुम्हारे मार्ग विघ्नरहित अर्थात शुभ हो। अपना मनोरथ पूरा करो। तब दमनक घबराया सा पिंगलक के पास गया।

तब दूर से ही बड़े आदर से राजा ने भीतर आने दिया और वह साष्टांग दंडवत करके बैठ गया। राजा बोला -- बहुत दिन से दिखे। दमनक बोला-- यद्यपि मुझ सेवक से श्रीमहाराज को कुछ प्रयोजन नहीं है, तो भी समय आने पर सेवक को अवश्य पास आना चाहिये, इसलिए आया हूँ।

हे राजा, दांत के कुरेदने के लिए तथा कान खुजाने के लिए राजाओं को तुनके से भी काम पड़ता है फिर देह, वाणी तथा हाथ वाले मनुष्य से क्यों नहीं ? अर्थात अवश्य पड़ना ही है। यद्यपि बहुत काल से मुझ अनादर किये गये की बुद्धि के नाश की श्रीमहाराज शंका करते ही सो भी शंका न करनी चाहिये।

कदर्थितस्यापि च धैर्यवृत्ते, र्बुध्देर्विनाशो न हि शंड्कनीयः।
अधःकृतस्यापि तनूनपातो, नाधः शिखा याति कदाचिदेव।।

अनादर भी किये गये धैर्यवान की बुद्धि के नाश की शंका नहीं करनी चाहिये, जैसे नीच की ओर की गई भी अग्नि की ज्वाला कभी भी नीचे नहीं जाती है, अर्थात हमेशा ऊँची ही रहती है।

हे महाराज, इसलिए सदा स्वामी को विवेकी होना चाहिये। मणि चरणों में ठुकराता है और कांच सिर पर धारण किया जाता है, सो जैसा है वैसा भले ही रहे, काँच- काँच ही है और मणि- मणि ही है।

इसके बाद एक दिन उस सिंह का भाई स्तब्धकर्ण नामक सिंह आया। उसका आदर- सत्कार करके और अच्छी तरह बैठा कर पिंगलक उसके भोजन के लिये पशु मारने चला। इतने में संजीवक बोला कि -- महाराज, आज मरे हुए मृगों का माँस कहाँ है ? राजा बोला -- दमनक करटक जाने, संजीवक ने कहा -- तो जान लीजिये कि है या नहीं सिंह सोच कर कहा-- अब वह नहीं है, संजीवक बोला -- इतना सारा मांस उन दोनों ने कैसे खा लिया ? राजा बोजा -- खाया, बाँटा, और फेंक फांक दिया। नित्य यही डाल रहता है। तब संजीवक ने कहा -- महाराज के पीठ पीछे इस प्रकार क्यों करते हैं ?राजा बोला-- मेरे पीठ पीछे ऐसा ही किया करते हैं। फिर संजीवक ने कहा -- यह बात उचित नहीं है।

निश्चय करके वही मंत्री श्रेष्ठ है जो दमड़ी दमड़ी करके कोष को बढ़ावे, क्योंकि कोषयुक्त राजा का कोष ही प्राण है, केवल जीवन ही प्राण नहीं है।

स्तब्धकर्ण बोला -- सुनों भाई, ये दमनक करटक बहुत दिनों से अपने आश्रय में पड़े हैं और लड़ाई और मेल कराने के अधिकारी है। धन के अधिकार पर उनका कभी नहीं लगाने चाहिये। जब जैसा अवसर हो वैसा जान कर काम करना चाहिये। सिंह बोला-- यह तो है ही, पर ये सर्वथा मेरी बात को नहीं मानने वाले हैं। स्तब्धकर्ण बोला -- यह सब प्रकार से अनुचित है।

भाई, सब प्रकार से मेरा कहना करो और व्यवहार तो हमने कर ही लिया है। इस घास चरने वाले संजीवका को धन के अधिकार पर रख दो। इस बात के ऐसा करने पर उसी दिन से पिंगलक और संजीवक का सब बांधवों को छोड़कर बड़े स्नेह से समय बीतने लगा। फिर सेवकों के आहार देने में शिथिलता देख दमनक और करटक आपस में चिंता करने लगे। तब दमनक करटक से बोला -- मित्र, अब क्या करना चाहिये। यह अपना ही किया हुआ दोष है, स्वयं ही दोष करने पर पछताना भी उचित नहीं है। जैसे मैंने इन दोनों की मित्रता कराई थी, वैसे ही मित्रों में फूट भी कराऊँगा। करटक बोला -- ऐसा ही होय, परंतु इन दोनों का आपस में स्वभाव से बढ़ा हुआ बड़ा स्नेह कैसे छुड़ाया जा सकता है। दमनक बोला -- उपाय करो, जैसा कहा है कि -- जो उपाय से हो सकता है, वह पराक्रम नहीं हो सकता है।

बाद में दमनक पिंगलक के पास जा कर प्रणाम करके बोला-- महाराज, नाशकारी और बड़े भय के करने वाले किसी काम को जान कर आया हूँ।

पिंगलक ने आदर से कहा -- तू क्या कहना चाहता है ? दमनक ने कहा -- यह संजीवक तुम्हारे ऊपर अयोग्य काम करने वाला सा दिखता है और मेरे सामने महाराज की तीनों शक्तियों की निंदा करके राज्य को ही छीनना चाहता है। यह सुनकर पिंगलक भय और आश्चर्य से मान कर चुप हो गया। दमनक फिर बोला -- महाराज, सब मंत्रियों को छोड़ कर एक इसी को जो तुमने सर्वाधिकारी बना रखा है। वही दोष है।

सिंह ने विचार कर कहा -- हे शुभचिंतक, जो ऐसा भी है, तो भी संजीवक के साथ मेरा अत्यंत स्नेह है। बुराईयाँ करता हुआ भी जो प्यारा है, सो तो प्यारा ही है, जैसे बहुत से दोषों से दूषित भी शरीर किसको प्यारा नहीं है।

दमनक फिर भी कहने लगा -- हे महाराज, वही अधिक दोष है। पुत्र, मंत्री और साधारण मनुष्य इनमें से जिसके ऊपर राजा अधिक दृष्टि करता है, लक्ष्मी उसी पुरुष की सेवा करती है।

हे महाराज सुनिये, अप्रिय भी, हितकारी वस्तु का परिणाम अच्छा होता है और जहाँ अच्छा उपदेशक और अच्छे उपदेश सुनने वाला हो, वहाँ सब संपत्तियाँ रमण करती है।

सिंह बोला -- बड़ा आश्चर्य है, मैं जिसे अभय वाचा दे कर लाया और उसको बढ़ाया, सो मुझसे क्यों वैर करता है ?

दमनक बोला -- महाराज, जैसे मली हुई और तैल आदि लगाने से सीधी करी हुई कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं होती है, वैसे ही दुर्जन नित्य आदर करने से भी सीधा नहीं होता है।

और जो संजीवक के स्नेह में फँसे हुए स्वामी जताने पर भी न मानें तो मुझ सेवक पर दोष नहीं है। पिंगलक (अपने मन में सोचने लगा) कि किसी के बहकाने से दूसरों को दंड न देना चाहिये, परंतु अपने आप जान कर उसे मारे या सम्मान करें। फिर बोला -- तो संजीवक को क्या उपदेश करना चाहिये ? दमनक ने घबरा कर कहा -- महाराज, ऐसा नहीं, इससे गुप्त बात खुल जाती है। पहले यह तो सोच लो कि वह हमारा क्या कर सकता है ?

सिंह ने कहा- यह कैसे जाना जाए कि वह द्रोह करने लगा है ? दमनक ने कहा -- जब वह घमंड से सींगों की नोंक को मारने के लिए सामने करता हुआ निडर सा आवे तब स्वामी आप ही जान जायेंगे। इस प्रकार कह कर संजीवक के पास गया और वहाँ जा कर धीरे- धीरे पास खिसकता हुआ अपने को मन मलीन सा दिखाया। संजीवक ने आदत से कहा मित्र कुशल तो है ? दमनक ने कहा -- सेवकों को कुशल कहाँ ?

संजीवक ने कहा -- मित्र, कहो तो यह क्या बात है दमनक ने कहा -- मैं मंदभागी क्या कहूँ ? एक तरफ राजा का विश्वास और दूसरी तरफ बांधव का विनाश होना क्या कर्रूँ ? इस दुखसागर में पड़ा हँ।

यह कह कर लंबी साँस भर कर बैठ गया। तब संजीवक ने कहा-- मित्र, तो भी सब विस्तारपूर्वक मनकी बात कहो। दमनक ने बहुत छिपाते- छिपाते कहा-- यद्यपि राजा का गुप्त विचार नहीं कहना चाहिये, तो भी तुम मेरे भरोसे से आये हो। अतः मुझे परलोक की अभिलाषा के डर से अवश्य तुम्हारे हित की बात करनी चाहिये। सुनो तुम्हारे ऊपर क्रोधित इस स्वामी ने एकांत में कहा है कि संजीवक को मार कर अपने परिवार को दूँगा। यह सुनते ही संजीवक को बड़ा विषाद हुआ। फिर दमनक बोला -- विषाद मत करो, अवसर के अनुसार काम करो। संजीवक छिन भर चित्त मेंविचार कर कहने लगा-- निश्चय यह ठीक कहता है, संजीवक छिन भर चित्त में विचार कर कहने लगा -- निश्चय यह ठीक कहता है, अथवा दुर्जन का यह काम है या नहीं है, यह व्यवहार से निर्णय नहीं हो सकता है।

संजीवक फिर सांस भरकर बोला -- अरे, बड़े कष्ट की बात है, कैसे सिंह मुझ घास के चरने वाले को मारेगा ?

विजय होने से स्वामित्व और मरने पर स्वर्ग मिलता है, यह काया क्षणभंगुर है, फिर संग्राम में मरने की क्या चिंता है ?

यह सोच कर संजीवक बोला -- हे मित्र, वह मुझे मारने वाला कैसे समझ पड़ेगा ? तब दमनक बोला -- जब यह पिंगलक पूँछ फटकार कर उँचे पंजे करके और मुख फाड़ कर देखे तब तुम भी अपना पराक्रम दिखलाना। परंतु यंह सब बात गुप्त रखने योग्य है। नहीं तो न तुम और न मैं। यह कहकर दमनक करटक के पास गया। तब करटक ने पूछा -- क्या हुआ ? दमनक ने कहा-- दोनों के आपस में फूट फैल गई। करटक बोला -- इसमें क्या संदेह है ?

तब दमनक ने पिंगलक के पास जा कर कहा -- महाराज, वह पापी आ पहुँचा है, इसलिये सम्हाल कर बैठ जाइये, यह कह कर पहले जताए हुए आकार को करा दिया, संजीवक ने भी आ कर वैसे ही बदली हुई चेष्ठा वाले सिंह को देखकर अपने योग्य पराक्रम किया। फिर उन दोनों की लड़ाई में संजीवक को सिंह ने मार डाला।

बाद में सिंह, संजीवक सेवक को मार कर थका हुआ और शोक सा मारा बैठ गया। और बोला" -- कैसा मैंने दुष्ट कर्म किया है ?

दमनक बोला -- स्वामी, यह कौन- सा न्याय है कि शत्रु को मार कर पछतावा करते हो?
इस प्रकार जब दमनक ने संतोष दिलाया तब पिंगलक का जी में जी आया और सिंहासन पर बैठा। दमनक प्रसन्न चित्त होकर ""जय हो महाराज की, ""सब संसार का कल्याण हो, यह कहकर आनंद से रहने लगा।
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Re: हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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एक ब्राह्मण, बकरा और तीन धुता की कहानी


गौतम के वन में किसी ब्राह्मण ने यज्ञ करना आरंभ किया था। और उसको यज्ञ के लिए दूसरे गाँव से बकरा मोल ले कर कंधे पर रख कर ले जाते हुए तीन ठगों ने देखा। फिर उन ठगों ने यह बकरा किसी उपाय से मिल जाए, तो बुद्धि की चालाकी बढ़ जाए, यह सोच कर तीनों तीन वृक्षों के नीचे, एक एक कोस की दूरी पर बैठ गए। और उस ब्राह्मण के आने की बाट देखने लगे। वहाँ एक धूर्त ने जा कर उस ब्राह्मण से कहा- हे ब्राह्मण, यह क्या बात है कि कुत्ता कंधे पर लिये जाते हो ? ब्राह्मण ने कहा- यह कुत्ता नहीं है, यज्ञ का बकरा है। थोड़ी दूर जाने के बाद दूसरे धूर्त ने वैसा ही प्रश्न किया। यह सुन कर ब्राह्मण बकरे को धरती पर रखकर बार- बार देखने लगा फिर कंधे पर रख कर चला पड़ा

मतिर्दोलायते सत्यं सतामपि खलोक्तिभि:।
ताभिर्विश्वासितश्चासौ म्रियते चित्रकर्णवत्।।

क्योंकि सज्जनों की भी बुद्धि दुष्टों के वचनों से सचमुच चलायमान हो जाती है, जैसे दुष्टों की बातों से विश्वास में आ कर यह ब्राह्मण ऊँट के समान मरता है। थोड़ी दूर चलने के बाद पुनः तीसरे धूर्त ने ब्राह्मण से वैसी ही बात कही। उसकी बात सुन कर ब्राह्मण की बुद्धि का ही भ्रम समझ कर बकरे को छोड़ कर ब्राह्मण नहा कर घर चलागया। उन धूता ने उस बकरे को ले जा कर खा लिया।
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Re: हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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कबूतर, काक, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी


गोदावरी के तीर पर एक बड़ा सैमर का पेड़ है। वहाँ अनेक दिशाओं के देशों से आकर रात में पक्षी बसेरा करते हैं। एक दिन जब थोड़ी रात रह गई ओर भगवान कुमुदिनी के नायक चंद्रमा ने अस्ताचल की चोटी की शरण ली तब लघुपतनक नामक काग जगा और सामने से यमराज के समान एक बहेलिए को आते हुए देखा, उसको देखकर सोचने लगा, कि आज प्रातःकाल ही बुरे का मुख देखा है। मैं नहीं जानता हूँ कि क्या बुराई दिखावेगा।

शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम।।

सहस्रों शोक की और सैकड़ों भय की बातें मूर्ख पुरुष को दिन पर दिन दुख देती है, और पण्डित को नहीं।

फिर उस व्याध ने चावलों की कनकी को बिखेर कर जाल फैलाया और खदु वहाँ छुप कर बैठ गया। उसी समय में परिवार सहित आकाश में उड़ते हुए चित्रग्रीव नामक कबूतरों के राजा ने चावलों की कनकी को देखा, फिर कपोतराज चावल के लोभी कबूतरों से बोला-- इस निर्जन वन में चावल की कनकी कहाँ से आई ? पहले इसका निश्चय करो। मैं इसको कल्याणकारी नहीं देखता हूँ। अवश्य इन चावलों की कनकी के लोभ से हमारी बुरी गति हो सकती है।

सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः, सुशासिता स्री नृपति: सुसेवितः।
सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं, सुदीर्घकालेsपि न याति विक्रियाम्।।

अच्छी रीति से पका हुआ भोजन, विद्यावान पुत्र, सुशिक्षित अर्थात आज्ञाकारिणी स्री, अच्छे प्रकार से सेवा किया हुआ राजा, सोच कर कहा हुआ वचन, और विचार कर किया हुआ काम ये बहुत काल तक भी नहीं बिछड़ते हैं।

यह सुनकर एक कबूतर घमंड से बोला ,""अजी, तुम क्या कहते हो

वृद्धानां वचनं ग्राह्यमापत्काले ह्युपस्थिते।
सर्वत्रैवं विचारे तु भोजनेsप्यप्रवर्तनम्।।

जब आपत्तिकाल आए तब वृद्धों की बात माननी चाहिए, परंतु उस समय सब जगह मानने से तो भोजन भी न मिले।

शंकाभि: सर्वमाक्रान्तमन्नं पानं च भूतले।
प्रवृत्ति: कुत्र कर्त जीवितव्यं कथं नू वा ?

इस पृथ्वी तल पर अन्न और पान संदेहोंसे भरा है, किस वस्तु में खाने- पीने की ईच्छा करे या कैसे जिये ?

ईर्ष्यी घृणी त्वसंतुष्ट: क्रोधनो नित्यशड्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते दुखभागिनः।।

ईष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला और पराये आसरे जीने वाला ये छः प्रकार के मनुष्य हमेशा दुखी होते हैं।

यह सुनकर भी सब कबूतर बहेलिये के चावल के कण जहाँ छीटे थे, वहाँ बैठ गये।

सुमहान्त्यपि शास्राणि धारयन्तो बहुश्रुतः।
छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्ते लोभमोहितः।।

क्योंकि अच्छे बड़े- बड़े शास्रों को पढ़ने तथा सुनने वाले और संदेहों को दूर करने वाले भी लोभ के वश में पड़ कर दुख भोगते हैं।

लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम।

लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से विषय भोग की इच्छा होती है और लोभ से मोह और नाश होता है, इसलिए लोभ ही पाप की जड़ है।

असंभव हेममृगस्य जन्म, तथापि रामो लुलुभे मृगाय।
प्रायः समापन्नविपत्तिकाले, धियोsपि पुंसां मलिना भवन्ति।।

सोने के मृग का होना असंभव है, तब भी रामचंद्रजी सोने के मृग के पीछे लुभा गये, इसलिये विपत्तिकाल आने पर महापुरुषों की बुद्धियाँ भी बहुधा मलिन हो जाती है।

दाना पाने के लालच से उतरे सब कबूतर जाल में फँस गये और फिर जिसके वचन से वहाँ उतरे से उसका तिरस्कार करने लगे।

न गणस्याग्रतो गच्छेत्सिध्दे कार्ये समं फलम।
यदि कार्यविपत्ति: स्यान्मुखरस्तत्र हन्यते।।

समूह के आगे मुखिया होकर न जाना चाहिये। क्योंकि यदि काम सिद्ध हो गया तो फल सबों को बराबर प्राप्त होगा, और अगर काम बिगड़ गया तो मुखिया ही मारा जाएगा। सबको उसकी निंदा करते देख चित्रग्रीव बोला -- "" इसका कुछ दोष नहीं है।

हितकारक पदार्थ भी आने वाली आपत्तियों का कारण हो जाती है, जैसे गोदोहन के समय माता की जाँघ ही बछड़े के बाँधने का खूँटा हो जाती है।

स बंधुर्यो विपन्नानामापदुद्धरणक्षमः।
न तु भीतपरित्राणवस्तूपालम्भपण्डितः।।

बंधु वह है, जो आपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों को निकालने में समर्थ हो और जो दुखियों की रक्षा करने के उपाय बताने की बजाय उलाहना देने में चतुराई समझे, वह बंधु नहीं है।

आपत्ति से घबरा जाना तो कायर पुरुष का चिन्ह है, इसलिये इस काम में धीरज धर कर उपाय सोचना चाहिए।

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम।

आपदा में धीरज, बढ़ती में क्षमा, सभा में वाणी की चतुरता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि और शास्र में अनुराग ये बातें महात्माओं में स्वाभाव से ही होती है।

जिसे संपत्ति में हर्ष और आपत्ति में खेद न हो और संग्राम में धीरता हो, ऐसा तीनों लोक में तिलक का जन्म विरला होता है और उसको विरली माता ही जनती है।

इस संसार में अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता ये छः अवगुण छोड़ देने चाहिए। अब भी ऐसा करो, सब एक मत होकर जाल को ले उड़ो।

अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका।
तृणैर्गुणत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः।।

छोटी- छोटी वस्तुओं के समूह से भी कार्य सिद्ध हो जाता है, जैसे घास की बटी हुई रस्सियों से मतवाला हाथी भी बाँधे जाते हैं।

अपने कुल के थोड़े मनुष्यों का समूह भी कल्याण का करने वाला होता है, क्योंकि तुस (छिलके) से अलग हुए चावल फिर नहीं उगते हैं।

यह सोच कर सब कबूतर जाल को लेकर उड़े और वह बहेलिया जाल को लेकर उड़ने वाले कबूतरों को दूर से देख कर पीछे दौड़ता हुआ सोचने लगा, ये पक्षी मिल कर मेरे जाल को लेकर उड़ रहे हैं, परंतु जब ये गिरेंगे तब मेरे वश में हो जायेंगे। फिर जब वे पक्षी आँखों से ओझल हो गये तब व्याध लौट गया।

जब कबूतर ने देखा कि लोभी व्याध लौट रहा है तब कबूतर ने कहा कि अब क्या करना चाहिए।

माता मित्रं पिता चेति स्वभावात्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः।।

माता, पिता और मित्र ये तीनों स्वभाव से हितकारी होते हैं और दूसरे लोग कार्य और किसी कारण से हित की इच्छा करने वाले होता हैं।

इसलिए मेरा मित्र हिरण्यक नामक चूहों का राजा गंडकी नदी के तीर पर चित्रवन में रहता है, वह हमारे फंदों को काटेगा। यह विचार कर सह हिरण्यक के बिल के पास गये। हिरण्यक सदा आपत्ति आने की आशंका से अपना बिल सौ द्वार का बना कर रहता था। फिर हिरण्यक कबूतरों के उतरने की आहट से डर कर चुपके से बैठ गया। चित्रग्रीव बोला -- हे मित्र हिरण्यक, हमसे क्यों नहीं बोलते हो ? फिर हिरण्यक उसकी बोली पहचान कर शीघ्रता से बाहर निकल कर बोला -- अहा ! मैं पुण्यवान हूँ कि मेरा प्यारा मित्र चित्रग्रीव आया है।

यस्य मित्रेण संभाषो यस्य मित्रेण संस्थिति:।
यस्य मित्रेण संलापस्ततो नास्तीह पुण्यवान।।

जिसकी मित्र के साथ बोल- चाल है, जिसका मित्र के साथ रहना- सहना हो, और जिसकी मित्र के साथ गुप्त बात- चीत हो, उसके समान कोई इस संसार में पुण्यवान नहीं है।

अपने मित्र को जाल में फँसा देखकर आश्चर्य से क्षण भर ठहर कर बोला"-- मित्र, यह क्या है ? चित्रग्रीव बोला" -- मित्र, यह हमारे पूर्वजन्म के कर्मो का फल है।

यस्माच्च येन च यथा च यदा च यच्च, यावच्च यत्र च शुभाशुभमात्मकर्म।
तस्माच्च तेन च तथा च तदा च तच्च, तावच्च तत्र च विधातृवशादुपैति।

जिस कारण से, जिसके करने से, जिस प्रकार से, जिस समय में, जिस काल तक और जिस स्थान में जो कुछ भला और बुरा अपना कर्म है, उसी कारण से , उसी के द्वारा, उसी प्रकार से, उसी समय में, वही कर्म, उसी काल तक, उसी स्थान में, प्रारब्ध के वश से पाता है।

रोगशोकपरीतापबन्धनव्यसनानि च।
आत्मापराधवृक्षाणां फलान्येतानि दहिनाम्।

रोग, शोक, पछतावा, बंधन और आपत्ति ये देहधारियों (प्राणियों) के लिए अपने अपराधरुपी वृक्ष के फल हैं।

यह सुनकर हिरण्यक चित्रग्रीव के बंधन काटने के लिए शीघ्र पास आया। चित्रग्रीव बोला -- मित्र, ऐसा मत करो, पहले मेरे उन आश्रितों के बंधन काटो, मेरा बंधन बाद में काटना। हिरण्यक ने भी कहा -- मित्र, मैं निर्बल हूँ और मेरे दाँत भी कोमल हैं, इसलिए इन सबका बंधन काटने के लिए कैसे समर्थ हूँ ? इसलिए जब तक मेरे दाँत नहीं टूटेंगे, तब तक तुम्हारा फंदा काटता हूँ। बाद में इनके भी बंधन जहाँ तक कट सकेंगे तब तक काटूँगा। चित्रग्रीव बोला -- यह ठीक है, तो भी यथाशक्ति पहले इनके काटो। हिरण्यक ने कहा-- अपने को छोड़कर अपने आश्रितों की रक्षा करना यह नीति जानने वालों को संमत नहीं है।

क्योंकि मनुष्य को आपत्ति के लिए धन की, धन देकर स्री की और धन और स्री देकर अपनी रक्षा सर्वदा करनी चाहिए।

धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राणा: संस्थितिहेतवः।
तान्निघ्रता किं न हतं, रक्षता किं न रक्षितम् ?

दूसरे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों की रक्षा के लिए प्राण कारण हैं, इसलिए जिसने इन प्राणों का घात किया, उसने क्या घात नहीं किया ? अर्थात सब कुछ घात किया और जिसने प्राणों का रक्षण किया उसने क्या रक्षण न किया ? अर्थात सबका रक्षण किया।

चित्रग्रीव बोला -- मित्र, नीति तो ऐसी ही है, परंतु मैं अपने आश्रितोंका दुख सहने को सब प्रकार से असमर्थ हूँ।

धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत।
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति।।

चित्रग्रीव कहता है कि पण्डित को पराये उपकार के लिए अपना धन और प्राणों को भी छोड़ देना चाहिए, क्योंकि विनाश तो अवश्य होगा, इसलिये अच्छे पुरुषों के लिए प्राण त्यागना अच्छा है।

दूसरा यह भी एक विशेष कारण है कि इन कबूतरों का और मेरा जाति, द्रव्य और बल समान है, तो मेरी प्रभुता का फल कहो, जो अब न होगा तो किस काल में और क्या होगा ?

आजीविका के बिना भी ये मेरा साथ नहीं छोड़ते हैं, इसलिए प्राणों के बदले भी इन मेरे आश्रितों को जीवनदान दो।

हे मित्र, मांस, मल, मूत्र तथ हड्डी से बने हुए इस विनाशी शरीर में आस्था को छोड़ कर मेरे यश को बढ़ाओ। जो अनित्य और मल- मूत्र से भरे हुए शरीर से निर्मल और नित्य यश मिले तो क्या नहीं मिला ? अर्थात सब कुछ मिला।

शरीरस्य गुणानां च दूरमत्यन्तमन्तरम।
शरीरं क्षणविध्वंसि कल्पान्तस्थायिनों गुणा:।।

शरीर और दयादि गुणों में बड़ा अंतर है। शरीर तो क्षणभंगुर है और गुण कल्प के अंत तक रहने वाले हैं।

यह सुनकर हिरण्यक प्रसन्नचित्त तथा पुलकित होकर बोला-- धन्य है, मित्र, धन्य है। इन आश्रितों पर दया विचारने से तो तुम तीनों लोक की ही प्रभुता के योग्य हो। ऐसा कह कर उसने सबका बंधन काट डाला। बाद में हिरण्यक सबका आदर- सत्कार कर बोला -- मित्र चित्रग्रीव, इस जाल बंधन के विषय में दोष की शंका कर अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए।

योsधिकाद्योजनशतात्पश्यतीहामिषं खगः।
स एव प्राप्तकालस्तु पाशबंध न पश्यति।।

जो पक्षी सैकड़ों योजना से भी अधिक दूर से अन्न के दाने को या माँस को देखता है, वही बुरा समय आने पर जाल की बड़ी गाँठ नहीं देखता है।

चंद्रमा तथा सूर्य को ग्रहण की पीड़ा, हाथी और सपं का बंधन और पण्डित की दरिद्रता, देख कर मेरी तो समझ में यह आता है कि प्रारब्ध ही बलवान है।

और आकाश के एकांत स्थान में विहार करने वाले पक्षी भी विपत्ति में पड़ जाते हैं। और चतुर धीवर मछलियों को अथाह समुद्र में भी पकड़ लेते हैं। इस संसार में दुर्नीति क्या है और सुनीति क्या है और विपत्तिरहित स्थान के लाभ में क्या गण है ? अर्थात कुछ नहीं है। क्योंकि काल आपत्तिरुप अपने हाथ फैला कर बैठा है और कुछ समय आने पर दूर ही से ग्रहण कर झपट लेता है।

यों समझा कर और अतिथि सत्कार कर तथा मिल भेटकर उसने चित्रग्रीव को विदा किया और वह अपने परिवारसमेत अपने देश को गया। हिरण्यक भी अपने बिल में घुस गया।

इसके बाद लघुपतनक नामक कौआ सब वृत्तांत को जानने वाला आश्चर्य से यह बोला -- हे हिरण्यक, तुम प्रशंसा के योग्य हो, इसलिए कृपा करके मुझसे भी मित्रता कर लो। यह सुन कर हिरण्यक भी बिल के भीतर से बोला-- तू कौन है ? वह बोला -- मैं लघुपतनक नामक कौआ हूँ। हिरण्यक हँस कर कहने लगा-- तेरे संग कैसी मित्रता ?

क्योंकि पंडित को चाहिए कि जो वस्तु संसार में जिस वस्तु के योग्य हो उसका उससे मेल आपस में कर दें, मैं तो अन्न हूँ और तुम खाने वाले हो। इस लिए भक्ष्य और भक्षक की प्रीति कैसी होगी ?

कौआ बोला -- तुझे खा लेने से भी तो मेरा बहुत आहार नहीं होगा, मैं निष्कपट चित्रग्रीव के समान तेरे जीने से जीता रहूँगा।

पुण्यात्मा मृग- पक्षियों का भी विश्वास देखा जाता है, क्योंकि पुण्य ही करने वाले सज्जनों का स्वभाव सज्जनता के कारण कभी नहीं पलटता है।

साधों: प्रकोपितस्यापि मनो नायाति विक्रियाम।
न हि तापयिंतु शक्यं सागराम्भस्तृणोल्कया।।

चाहे जैसे क्रोध में क्यों न हो सज्जन का स्वभाव कभी डामाडोल न होगा, जैसे जलते हुए तनकों की आँच से समुद्र का जल कौन गरम कर सकता है ?

हिरण्यक ने कहा -- तू चंचल है, ऐसे चंचल के साथ स्नेह कभी नहीं करना चाहिए। दूसरा तुम मेरे वैरियों के पक्ष के हो।

शत्रुणा न हि संदध्यात सुश्लिष्टेनापि संधिना।
सुतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम्।।

और यह कहा है कि वैरी चाहे जितना मीठा बन कर मेल करे, परंतु उसके साथ मेल न करना चाहिये, क्योंकि पानी चाहे जितना भी गरम हो आग को बुझा ही देता है।

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोsपि सन।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।

दुर्जन विद्यावान भी हो, परंतु उसे छोड़ देना चाहिये, क्योंकि रत्न से शोभायमान सपं क्या भयंकर नहीं होता है

जो बात नहीं हो सकती, वह कदापि नहीं हो सकती है और जो हो सकती है, वह हो ही सकती है, जैसे पानी पर गाड़ी नहीं चलती और ज़मीन पर नाव नहीं चल सकती है।

लघुपतनक कौआ बोला-- मैंने सब सुन लिया, तो भी मेरा इतना संकल्प है कि तेरे संग मित्रता अवश्य करनी चाहिए। नहीं तो भूखा मर अपघात कर्रूँगा।

दुर्जनों के मन में कुछ, वचन में और काम में कुछ, और सज्जनों के जी में, बचन में और काम में एक बात होती है।

इसलिये तेरा भी मनोरथ हो। यह कह कर हिरण्यक मित्रता करके विविध प्रकार के भोजन से कौवे को संतुष्ट करके बिल में घुस गया और कौआ भी अपने स्थान को चला गया। उस दिन से उन दोनों का आपस में भोजन के देने- लेने से, कुशल पूछने से और विश्वासयुक्त बातचीत से समय कटने लगा।

एक दिन लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा -- मित्र, इस स्थान में बड़ी मुश्किल से भोजन मिलता है, इसलिए इस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाना चाहता हूँ। हिरण्यक ने कहा -- मित्र, कहाँ जाओगे ?

बुद्धिमान एक पैर से चलता है और दूसरे से ठहरता है। इसलिए दूसरा स्थान निश्चत किये बिना पहला स्थान नहीं छोड़ना चाहिये।

कौआ बोला -- एक अच्छी भांति देखा भाला स्थान है। हिरण्यक बोला-- कौन सा है ? कौआ बोला -- दण्डकवन में कर्पूरगौर नाम का एक सरोवर है, उसमें मन्थरनामक एक धर्मशील कछुआ मेरा बहुत पुराना और प्यारा मित्र रहता है। वह विविध प्रकार के भोजन से मेरा सत्कार करेगा। हिरण्यक भी बोला-- तो मैं यहाँ रह कर क्या कर्रूँगा

यस्मिन्देशे न संमानो न वृत्तिर्न च बांधवः।
न च विद्यागमः कश्चित्तं देशं परिवर्जयेत्।।


क्योंकि जिस देश में न सन्मान, न जीविका का साधन, न भाई या संबंधी और कुछ विद्या का भी लाभ न हो, उस देश को छोड़ देना चाहिये। अर्थात दूसरे शब्दों में जीविका, अभय, लज्जा, सज्जनता और उदारता ये पाँचों बातें जहाँ न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिये।

साथ ही, जहाँ ॠण देने वाला, वैद्य, वेदपाठी और सुंदर जल से भरी नदी, ये चारों न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिए।

इसलिये मुझे भी वहाँ ले चलो। बाद में कौआ उस मित्र के साथ अच्छी अच्छी बातें करता हुआ बेखटके उस सरोवर के पास पहुँचा। फिर मन्थर ने उसे दूर से देखते ही लघुपतनक का यथोचित अतिथिसत्कार करके चूहे का भी अतिथिसत्कार किया।

क्योंकि बालक, बूढ़ा और युवा इनमें से घर पर कोई आया हो, उसका आदर सत्कार करना चाहिये, क्योंकि अभ्यागत सब वर्णो का पूज्य है। ब्राह्मणों को अग्नि, चारों वणाç को ब्राह्मण, स्रियों को पति और सबको अभ्यागत सर्वदा पूजनीय है।

कौआ बोला -- मित्र मन्थर, इसका अधिक सत्कार करो, क्योंकि यह पुण्यात्माओं का मुखिया और करुणा का समुद्र हिरण्यक नामक चूहों का राजा है। इसके गुणों की बड़ाई दो सहस्त्र जीभों से शेष नाग भी कभी नहीं कर सकता है। यह कह कर चित्रग्रीव का वृत्तांत कह सुनाया। मन्थर बड़े आदर से हिरण्यक का सत्कार करके पूछने लगा -- हे मित्र, यह निर्जन वन में अपने आने का भेद तो कहो।

विपत्तियों के आ जाने पर निर्णय करके काम करना ही चतुराई है, क्योंकि बिना विचारे काम करने वालों को पद में विपत्तियाँ हैं। कुल की मर्यादा के लिए एक हो, गाँवभर के लिए कुल को, देश के लिए गाँव को और अपने लिये पृथ्वी को छोड़ देना चाहिये। अनायास मिला हुआ जल और भय से मिला मीठा भोजन उन दोनों में विचार कर देखता हूँ, तो जिसमें चित्त बेखटक रहे उसी में सुख है या पराधीन भोजने से सवाधीन जल का मिलना उत्तम है। यह विचार कर मैं निर्जन वन में आया हूँ।

वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं, द्रुमालयं पक्कफलाम्बुभोजनम्।
तृणानि शय्या परिधानवल्कलं, न बंधुमध्ये धनहीनजीवनम्।।

सिंह और हाथियों से भरे हुए वन के नीचे रहना, पके हुए कंद मूल फल खाकर जल पान करना तथा घास के बिछौने पर सोना और छाल के वस्र पहनना अच्छा है, पर भाई बंधुओं के बीच धनहीन जीना अच्छा नहीं है।

फिर मेरे पुण्य से उदय से इस मित्र ने परम स्नेह से मेरा आदर किया और अब पुण्य की रीति से तुम्हारा आश्रय मुझे स्वर्ग के समान मिल गया।

मंथन बोला -- धन तो चरणों की धूलि के समान है, यौवन पहाड़ की नदी के वेग के समान है, आयु चंचल जल की बिंदु के समान चपल है और जीवन फेन के समान है, इसलिए जो निर्बुद्धि स्वर्ग की आगल को खोलने वाले धर्म को नहीं करता है, वह पीछे बुढ़ापे में पछता कर शोक की अग्नि में जलाया जाता है।

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।।

गंभीर सरोवर में भरे हुए जल के चारों ओर निकलने के (बार- बार जल निकाल देना जैसा सरोवर की शुद्धि का कारण है, उसी के) समान कमाये हुए धन का सत्पात्र में दान करना ही रक्षा है।

लोभी जिस धन को धरती में अधिक नीचे गाड़ता है, वह धन पाताल में जाने के लिए पहले से ही मार्ग कर लेता है।

और जो मनुष्य अपने सुख को रोक कर धनसंचय करने की इच्छा करता है, वह दूसरों के लिए बोझ ढ़ोने वाले मज़दूर के समान क्लेश ही भोगने वाला है।

दानोपभोगहीनेन धनेन धनिनो यदि।
भवामः किं न तेनैव धनेन धनिनो वयम्।

दान और उपभोगहीन धन से जो धनी होते हैं, तो क्या उसी धन से हम धनी नहीं हैं ? अर्थात अवश्य है।

न देवाय न विप्राय न बंधुभ्यो न चात्मने।
कृपणस्य धनं याति वह्मितस्करपार्थिवै:।।

जो मनुष्य धन को देवता के, ब्राह्मण के तथा भाई बंधु के काम में नहीं लाता है, उसे कृपण का धन तो जल जाता है या चोर चुरा ले जाते हैं अथवा राजा छीन लेता है।

दानं प्रियवाकसहितं ज्ञानमगर्वे क्षमान्वितं शौर्यम।
वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतंचतुष्टयं लोके।।

प्रिय वाणी के सहित दान, अहंकाररहित ज्ञान, क्षमायुक्त शूरता, और दानयुक्त धन, ये चार बातें दुनिया में दुर्लभ हैं।

और संचय नित्य करना चाहिये, पर अति संचय करना योग्य नहीं है।

आमरणान्ता: प्रणया: कोपास्तत्क्षणभड्गरा:।
परित्यागाश्च नि:सड्गा भवन्ति हि महात्मनाम्।।

महात्माओं का स्नेह मरने तक, क्रोध केवल क्षणमात्र और परित्याग केवल संगरहित होता है अर्थात वे कुछ बुराई नहीं करते हैं।

यह सुनकर लघुपतनक बोला -- हे मन्थर, तुम धन्य हो, और तुम प्रशंसनीय गुणवाले हो।

सन्त एव सतां नित्यमापदुद्धरणक्षमा:।
गजानां पड्कमग्नानां गजा एव धुरंधरा:।।

सज्जन ही सज्जनों की आपत्ति को सर्वदा दूर करने के योग्य होते हैं। जैसे कीचड़ में फँसे हाथियों के निकालने के लिए हाथी ही समर्थ होते हैं।

तब वे इस प्रकार अपनी इच्छानुसार खाते - पीते, खेलते- कूदते संतोष कर सुख से रहने लगे।
एक दिन चित्रांग नामक मृग किसी के डर के मारे उनसे आ कर मिला, इसके पीछे मृग को आता हुआ देख भय को समझ मन्थर तो पानी मे घुस गया, चूहा बिल में चला गया और काक भी उड़ कर पेड़ पर बैठ गया। फिर लघुपतनक ने दूसरे से निर्णय किया कि, भय का कोई भी कारण नहीं है, यह सोचकर बाद में सब मिल कर वहाँ ही बैठ गये। मन्थरने कहा -- कुशल हो ? हे मृग, तुम्हारा आना अच्छा हुआ। अपनी इच्छानुसार जल आहार आदि भोग करो अर्थात खाओ, पीयो, और यहाँ रह कर इस वन को सनाथ करो। चित्रांग बोला -- व्याध के डर से मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ और तुम्हारे साथ मित्रता करनी चाहता हूँ। हिरण्य बोला -- मित्रता तो हमारे साथ तुम्हारी अनायास हो गई है।

क्योंकि मित्र चार प्रकार के होते हैं, एक तो वो जिनका जन्म से ही जैसे पुत्रादि, दूसरे विवाहादि संबंध से हो गये हो, तीसरे कुल परंपरा से आए हुए हों तथा चौथे वे जो आपत्तियों से बचावें।

इसलिए यहाँ तुम अपने घर से भी अधिक आनंद से रहो। यह सुन कर मृग प्रसन्न हो अपनी इच्छानुसार भोजन करके तथा जल पी कर जल के पास वृक्ष की छाया में बैठ गया। मन्थर ने कहा कि -- हे मित्र मृग, इस निर्जन वन में तुम्हें किसने डराया है क्या कभी कभी व्याध आ जाते हैं मृग ने कहा -- कलिंग देश में रुक्मांगद नामक राजा है और वह दिग्विजिय करने के लिये आ कर चंद्रभागा नदी के तीर पर अपनी सेना को टिका कर ठहरा है। और प्रातःकाल वह यहाँ आ कर कर्पूर सरोवर के पास ठहरेगा, यह उड़ती हुई बात शिकारियों के मुख से सुनी जाती है। इसलिये प्रातःकाल यहाँ रहना भी भय का कारण है। यह सोच कर समय के अनुसार काम करना चाहिये। यह सुन कर कछुआ डर कर बोला -- मैं तो दूसरे सरोवर को जाता हूँ। काग और मृग ने भी कहा -- ऐसा ही हो अर्थात चलो। फिर हिरण्यक हँस कर बोला-- दूसरे सरोवर तक पहुँचने पर मंथर जीता बचेगा। परंतु इसके पटपड़ में चलने का कौन सा उपाय है।

अम्भांसि जलजन्तुनां दुर्गे दुर्गनिवासिनाम्।
स्वभूमि: श्वापदादीनां राज्ञां मंत्री परं बलम्।।

जल के जंतुओं को जल का, गढ़ में रहने वालों को गढ़ का, सिंहादि वनचरों को अपनी भूमि का और राजाओं को अपने मंत्री का परम बल होता है।

उसके हितकारक वचनों को न मान कर बड़े भय से मूर्ख की भांति वह मन्थर उस सरोवर को छोड़ कर चला। वे हिरण्यक आदि भी स्नेह से विपत्ति की शंका करते हुए मन्थर के पीछे- पीछे चले। फिर पटपड़ में जाते हुए मन्थर को, वन में घूमते हुए किसी व्याध ने पाया। वह उसे पा कर धनुष मे बांध घुमता हुआ क्लेस से उत्पन्न हुई क्षुधा ओर प्यास से व्याकुल, अपने घर की ओर चला। पीछे मृग, काग और चूहा वे बड़ा विषाद करते हुए उसके पीछे- पीछे चले।

हिरण्यक विलाप करने लगा -- समुद्र के पार के समान नि:सीमा एक दुख के पार जब तक मैं नहीं जाता हूँ, तब तक मेरे लिए दूसरा दुख आ कर उपस्थित हो जाता है, क्योंकि अनर्थ के साथ बहुत से अनर्थ आ पड़ते हैं।

स्वभाव से स्नेह करने वाला मित्र तो प्रारब्ध से ही मिलता है कि जो सच्ची मित्रता को आपत्तियों में भी नहीं छोड़ता है।

न मातरि न दारेषु न सोदर्ये न चात्मजे।
विश्वासस्तादृशः पुंसां यादृड्ग्रित्रे स्वभावजे।।

न माता, न स्री में, न सगे भाई में , न पुत्र में ऐसा विश्वास होता है कि जैसा स्वाभाविक मित्र में होता है।

इस संसार में अपने पाप- पुण्यों से किये गये और समय के उलट- पलट से बदलने वाले सुख- दुख, पुर्वजन्म के किये हुए पाप- पुण्यों के फल मैंने यहाँ ही देख लिये।

कायः संनिहितापायः संपद: पदमापदाम्।
समागमा: सापगमा: सर्वमुत्पादि भड्गरम्।।

अथवा यह ऐसे ही है -- शरीर के पास ही उसका नाथ है और संपत्तियाँ आपत्तियों का मुख्य स्थान है और संयोग के साथ वियोग है, अर्थात अस्थिर है और उत्पन्न हुआ सब सब नाथ होने वाला है।

और विचार कर बोला -- शोक और शत्रु के भय से बचाने वाला तथा प्रीति और विश्वास का पात्र, यह दो अक्षर का मित्र रुपी रत्न किसने रचा है ?

और अंजन के समान नेत्रों को प्रसन्न करने वाला, चित्त को आनंद देने वाला और मित्र के साथ सुख दुख में साथ देने वाला, अर्थात दुख में दुखी, सुख में सुखी हो ऐसा मित्र होना दुर्लभ है और संपत्ति के समय में धन हरने वाले मित्र हर जगह मिलते हैं। परंतु विपत्काल ही उनके परखने की कसौटी है।

इस प्रकार बहुत- सा विलास करके हिरण्यने चित्रांग और लघुपतनक से कहा -- जब तक यह व्याध वन से न निकल जाए, तब तक मन्थर को छुड़ाने का यत्न करो। वे दोनों बोले-- शीघ्र कार्य को कहिये। हिरण्यक बोला -- चित्रांग जल के पास जा कर मरे के समान अपना शरीर दिखावे और काक उस पर बैठ के चोंच से कुछ- कुछ खोदे। यह व्याध कछुए को अवश्य वहाँ छोड़ कर मृगमाँस के लोभ से शीघ्र जाएगा। फिर मैं मन्थर के बंधन काट डालूँगा। और जब व्याध तुम्हारे पास आवे तब भाग जाना। तब चित्रांग और लघुपतनक ने शीघ्र जाकर वैसा ही किया तो वह व्याध पानी पी कर एक पेड़ के नीचे बैठा मृग को उस प्रकार देख पाया। फिर छुरी लेकर आनंदित होता हुआ मृग के पास जाने लगा। इतने ही में हिरण्यक ने आ कर कछुए को बंधन काट डाला। तब वह कछुआ शीघ्र सरोवर में घुस गया। वह मृग उस व्याध को पास आता हुआ देख उठ कर भाग गया। जब व्याध लौट कर पेड़ के नीचे आया, तब कछुए को न देखकर सोचने लगा -- मेरे समान बिना विचार करने वाले के लिए यही उचित था।

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।

जो निश्चित को छोड़ कर अनिश्चित पदार्थ का आसरा करता है, उसके निश्चित पदार्थ नष्ट हो जाते हैं और अनिश्चित भी जाता रहता है।

फिर वह अपने प्रारब्ध को दोष लगाता हुआ निराश होकर अपने घर गया। मन्थर आदि भी सब आपत्ति से निकल अपने- अपने स्थान पर जा कर सुख से रहने लगे।
सबका साथ सबका विकास।
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, और इसका सम्मान हमारा कर्तव्य है।
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