हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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shubhs
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Re: हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानिया रचयिता नारायण पंडित

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धूर्त गीदड़ और हाथी की कहानी



ब्रह्मवन में कर्पूरतिलक नामक हाथी था। उसको देखकर सब गीदड़ों ने सोचा, "यदि यह किसी तरह से मारा जाए तो उसकी देह से हमारा चार महीने का भोजन होगा।" उसमें से एक बूढ़े गीदड़ ने इस बात की प्रतिज्ञा की -- मैं इसे बुद्धि के बल से मार दूँगा। फिर उस धूर्त ने कर्पूरतिलक हाथी के पास जा कर साष्टांग प्रणाम करके कहा -- महाराज, कृपादृष्टि कीजिये। हाथी बोला -- तू कौन है, सब वन के रहने वाले पशुओं ने पंचायत करके आपके पास भेजा है, कि बिना राजा के यहाँ रहना योग्य नहीं है, इसलिए इस वन के राज्य पर राजा के सब गुणों से शोभायमान होने के कारण आपको ही राजतिलक करने का निश्चय किया है।

जो कुलाचार और लोकाचार में निपुण हो तथा प्रतापी, धर्मशील और नीति में कुशल हो वह पृथ्वी पर राजा होने के योग्य होता है।

राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्या ततो धनम्।
राजन्यसति लोकेsस्मिन्कुतो भार्या कुतो धनम्।।

पहले राजा को ढ़ूंढ़ना चाहिये, फिर स्री और उसके बाद धनको ढूंढ़े, क्योंकि राजा के नहीं होने से इस दुनिया में कहाँ स्री और कहाँ से धन मिल सकता है ?

राजा प्राणियों का मेघ के समान जीवन का सहारा है और मेवके नहीं बरसने से तो लोक जीता रहता है, परंतु राजा के न होने से जी नहीं सकता है।

इस राजा के अधीन इस संसार में बहुधा दंड के भय से लोग अपने नियत कार्यों में लगे रहते है और न तो अच्छे आचरण में मनुष्यों का रहना कठिन है, क्योंकि दंड के ही भय से कुल की स्री दुबले, विकलांग रोगी या निर्धन भी पति को स्वीकार करती है।

इस लिए लग्न की घड़ी टल जाए, आप शीघ्र पधारिये। यह कह उठ कर चला फिर वह कर्पूरतिलक राज्य के लोभ में फँस कर गीदड़ों के पीछे दौड़ता हुआ गहरी कीचड़ में फँस गया। फिर उस हाथी ने कहा -- ""मित्र गीदड़, अब क्या करना चाहिए ? कीचड़ में गिर कर मैं मर रहा हूँ। लौट कर देखो। गीदड़ ने हँस कर कहा -- ""महाराज, मेरी पूँछ का सहारा पकड़ कर उठो, जैसा मुझ सरीखे की बात पर विश्वास किया, तैसा शरणरहित दुख का अनुभव करो।

यदासत्सड्गरहितो भविष्यसि भविष्यसि।
तदासज्जनगोष्ठिषु पतिष्यसि पतिष्यसि।।

जैसा कहा गया है -- जब बुरे संगत से बचोगे तब जानो जीओगे, और जो दुष्टों की संगत में पड़ोगे तो मरोगे।

फिर बड़ी कीचड़ में फँसे हुए हाथी को गीदड़ों ने खा लिया।
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धोबी, धोबन, गधा और कुत्ते की कहानी



कुत्ता बोला -- जो काम अटकने पर सेवको से मीठी मीठी बातें करे वह तो निन्दित स्वामी है।

आश्रितानां भृतौ स्वामिसेवायां धर्मसेवने।
पुत्रस्योत्पादने चैव न सन्ति प्रतिहस्तका:।।

क्योंकि आश्रितों के पालन- पोषण में, स्वामी की सेवा में, धर्म की सेवा करने में और पुत्र के उत्पन्न करने में, प्रतिनिधि नहीं होते हैं अर्थात ये काम अपने आप ही करने के हैं, दूसरे से करान के योग्य नहीं हैं।

गधा झुंझला कर बोला -- अरे दुष्टबुद्धि, तू बड़ा पापी है कि विपत्ति में स्वामी के काम की अवहेलना करता है। ठीक जिस किसी भी प्रकार से स्वामी जग जावे ऐसा मैं तो अवश्य कर्रूँगा।

क्योंकि पीठ के बल धूप खाय, पेट के बल अग्नि तापे, स्वामी की सब प्रकार से वफ़ादारी और परलोक की बिना कपट से सेवा करनी चाहिए।

यह कह कर उसने अत्यंत रेंकने का शब्द किया। तब वह धोबी उसके चिल्लाने से जाग उठा और नींद टूटने के क्रोध के मारे उठ कर लकड़ी से गधे को मारा कि जिससे वह मर गया।
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नील से रंगे हुए एक गीदड़ की कहानी


एक समय वन में कोई गीदड़ अपनी इच्छा से नगर के पास घूमते घूमते नील के हौद में गिर गया। बाद में उसमें से निकल नहीं सका, प्रातःकाल अपने को मरे के समान दिखलाकर बैठ गया। फिर नील के हौद के स्वामी ने उसे मरा हुआ जान कर और उसमें से निकाल कर दूर ले जाकर फेंक दिया और वहाँ से वह भाग गया। तब उसने वन में जा कर और अपनी देह को नीले रंग की देख कर विचार किया -- मैं अब उत्तम वर्ण हो गया हूँ, तो मैं अपनी प्रभुता क्यों न कर्रूँ ? यह सोच कर सियारों को बुलाकर उसने कहा -- श्रीभगवती वनकी देवीजी ने अपने हाथ से वन के राज्य पर सब ओषधियों के रस से मेरा राजतिलक किया है, इसलिये आज से ले कर मेरी आज्ञा से काम करना चाहिये। अन्य सियार भी उसको अच्छा वर्ण देख कर साष्टांग दंडवत प्रणाम करके बोले -- जो महाराज की आज्ञा।

इसी प्रकार से क्रम क्रम से सब वनवासियों में उसका राज्य फैल गया। फिर उसने अपनी जात से चारों ओर बैठा कर अपना अधिकार फैलाया, बाद में उसने व्याघ्र सिंह आदि उत्तम मंत्रियों को पा कर सभा में सियारों को देख कर लाज के मारे अनादर से सब अपने जात भाइयों को दूर कर दिया। फिर सियारों को विकल देख कर किसी बूढ़े सियार ने यह प्रतिज्ञा की कि तुम खेद मत करो। जैसे इस मूर्ख ने नीति तथा भेद के जानने वाले हम सभी का अपने पास से अनादर किया है, वैसे ही जिस प्रकार यह नष्ट हो सो करना चाहिये। क्योंकि ये बाघ आदि, केवल रंग से धोखे में आ गये हैं और सियार न जान कर इसको राजा मान रहे हैं। जिससे इसका भेद खुल जाए सो करो। और ऐसा करना चाहिये कि संध्या के समय उसके पास सभी एक साथ चिल्लओ। फिर उस शब्द को सुन कर अपने जाति के स्वभाव से वह भी चिल्ला उठेगा। फिर वैसा करने पर वही हुआ अर्थात उसकी पोल खुल गई।

यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः।
श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्रातयुपानहम् ?

अर्थात जिसका जैसा स्वभाव है, वह सर्वदा छूटना कठिन है, जैसे यदि कुत्ते को राजा कर दिया जाए, तो क्या वह जूते को नहीं चबाएगा ?
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पक्षी और बंदरों की कहानी
पक्षी और बंदरों की कहानी नर्मदा के तीर पर एक बड़ा सेमर का वृक्ष है। उस पर पक्षी घोंसला बनाकर उसके भीतर, सुख से रहा करते थे। फिर एक दिन बरसात में नीले- नीले बादलों से आकाशमंडल के छा जाने पर बड़ी- बड़ी बूँदों से मूसलाधार बारिश बरसने लगा और फिर वृक्ष के नीचे बैठे हुए बंदरों को ठंडी के मारे थर थर काँपते हुए देख कर पक्षियों ने दया से विचार कहा -- अरे भाई बंदरों, सुनों :-

अस्माभिर्निमिता नीडाश्चंचुमात्राहृतैस्तृणै:।
हस्तपादादिसंयुक्ता यूयं किमिति सीदथ ?

हमने केवल अपनी चोंचों की मदद से इकट्ठा किये हुए तिनकों से घोंसले बनाये हैं और तुम तो हाथ, पाँव आदि से युक्त हो कर भी ऐसा दुख क्यों भोग रहे हो ?

यह सुन कर बंदरों ने झुँझला कर विचारा -- अरे, पवनरहित घोंसलों के भीतर बैठे हुए सुखी पक्षी हमारी निंदा करते हैं, करने दो। जब तक वर्षा बंद हो बाद जब पानी का बरसना बंद हो गया, तब उन बंदरों ने पेड़ पर चढ़ कर सब घोंसले तोड़ डाले और उनके अंडे नीचे गिरा दिया।
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बंदर, घंटा और कराला नामक कुटनी की कहानी

श्रीपर्वत के बीच में एक ब्रह्मपुर नामक नगर था। उसके शिखर पर एक घंटाकर्ण नामक राक्षस रहता था, यह मनुष्यों से उड़ती हुई खबर सुनी जाती है। एक दिन घंटे को ले कर भागते हुए किसी चोर को व्याघ्र ने मार डाला ओर उसके हाथ से गिरा हुआ घंटा बंदरों के हाथ लगा। बंदर उस घंटे को बार- बार बजाते थे। तब नगरवासियों ने देखा कि वह मनुष्य खा लिया गया और प्रतिक्षण में घंटे का बजना सुनाई देता है। तब सब नागरिक लोग ""घंटाकर्ण क्रोध से मनुष्यों को खाता है और घंटे को बजाता है, यह कह कर नगर से भाग चले।

बाद में कराला नामक कुटनी ने सोचा कि यह घंट का शब्द बिना अवसर का है, इसलिए क्या बंदर घंटे को बजाते हैं ? इस बात को अपने आप जान कर राजा से कहा -- जो कुछ धन खर्च करो, तो मैं इस घंटाकर्ण राक्षस को वश में कर लूँ। फिर राजा ने उसे धन दिया और कुटनी ने मंडल बनाया और उसमें गणेश आदि की पूजा का चमत्कार दिखला कर और बंदरों को अच्छे लगने वाले फल ला कर वन में उनको फैला दिया। फिर बंदर घंटे को छोड़ कर फल खाने लग गये और कुटनी घंटे को ले कर नगर में आई और सब जनों ने उसका आदर किया।
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