हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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जब मोटर कुछ दूर चली गई, तो विनय ने शोफर से पूछा-मुझे कहाँ लिए जाते हो? शोफर ने कहा-आपको दीवान साहब ने बुलाया है।

विनय ने और कुछ न पूछा। उन्हें उस समय भय के बदले हर्ष हुआ कि दीवान साहब से मिलने का यह अच्छा अवसर मिला। अब उनसे यहाँ की स्थिति पर बातें होंगी। सुना है, विद्वान् आदमी हैं। देखूँ, इस नीति का क्योंकर समर्थन करते हैं।

एकाएक शोफर बोला-यह दीवान एक ही पाजी है। दया करना तो जानता ही नहीं। एक दिन बचा को इसी मोटर से ऐसा गिराऊँगा कि हड़डी -पसली का पता न लगेगा।

विनय-जरूर गिराओ, ऐसे अत्याचारियों की यही सजा है।

शोफर ने कुतूहलपूर्ण नेत्रों से विनय को देखा। उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ। विनय के मुँह से ऐसी बात सुनने की उसे आशा न थी। उसने सुना था कि वह देवोपम गुणों के आगार हैं, उनका हृदय पवित्र है। बोला-आपकी भी यही इच्छा है?

विनय-क्या किया जाए, ऐसे आदमियों पर और किसी बात का तो असर ही नहीं होता।

शोफर-अब तक मुझे यही शंका होती थी कि लोग मुझे हत्यारा कहेंगे; लेकिन जब आप-जैसे देव-पुरुष की यह इच्छा है, तो मुझे क्या डर?बचा बहुत रात को निकला करते हैं। एक ठोकर में तो काम तमाम हो जाएगा।

विनय यह सुनकर ऐसा चौंके, मानो कोई भयंकर स्वप्न देखा हो। उन्हें ज्ञात हुआ कि मैंने एक द्वेषात्मक भाव का समर्थन करके कितना बड़ा अनर्थ किया। अब उनकी समझ में आया कि विशिष्ट पुरुषों को कितनी सावधानी से मुँह खोलना चाहिए, क्योंकि उनका एक-एक शब्द प्रेरणा-शक्ति से परिपूर्ण रहता है। वह मन में पछता रहे थे कि मेरे मुँह से ऐसी बात निकली ही क्यों, और किसी भाँति कमान से निकले हुए तीर को फेर लाने का उपाय सोच रहे थे कि इतने में दीवान साहब का भवन आ गया। विशाल फाटक पर दो सशस्त्रा सिपाही खड़े थे और फाटक से थोड़ी दूर पर पीतल की दो तोपें रखी हुई थीं। फाटक पर मोटर रुक गई और दोनों सिपाही विनयसिंह को अंदर ले चले। दीवान साहब दीवानखाने में विराजमान थे। खबर पाते ही विनय को बुला लिया।

दीवान साहब का डील ऊँचा, शरीर सुगठित और वर्ण गौर था। अधोड़ हो जाने पर भी उनकी मुखश्री किसी खिले हुए फूल के समान थी। तनी हुई मूँछें थीं, सिर पर रंग-बिरंगी, उदयपुरी पगिया, देह पर एक चुस्त शिकारी कोट, नीचे उदयपुरी पाजामा और एक भारी ओवरकोट। छाती पर कई तमगे और सम्मान-सूचक चिद्द शोभा दे रहे थे। उदयपुरी रिसाले के साथ योरपीय महासमर में सम्मिलित हुए थे और वहाँ कई अवसरों पर अपने असाधारण्ा पुरुषार्थ से सेना-नायकों को चकित कर दिया। यह उसी सुकीर्ति का फल था कि वह इस पद पर नियुक्त हुए थे। सरदार नीलकंठसिंह नाम था। ऐसा तेजस्वी पुरुष विनयसिंह की निगाहों से कभी न गुजरा था।

दीवान साहब ने विनय को देखते ही मुस्कराकर उन्हें एक कुर्सी पर बैठने का संकेत किया और बोले-ये आभूषण तो आपकी देह पर बहुत शोभा नहीं देते; किंतु जनता की दृष्टि में इनका जितना आदर है, उतना मेरे इन तमगों और पट्टियों का कदापि नहीं है। यह देखकर मुझे आपसे डाह हो, तो कुछ अनुचित है?

विनय ने समझा था, दीवान साहब जाते-ही-जाते गरज पड़ेंगे, लाल-पीली ऑंखें दिखाएँगे। वह उस बर्ताव के लिए तैयार थे! अब जो दीवान साहब की सहृदयतापूर्ण बातें सुनीं, तो संकोच में पड़ गए। उस कठोर उत्तर के लिए यहाँ कोई स्थान न था, जिसे उन्होंने मन में सोच रखा था। बोले-यह तो कोई ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं है, जिसके लिए आपको डाह करना पड़े।

दीवान साहब-(हँसकर) आपके लिए दुर्लभ नहीं है; पर मेरे लिए तो दुर्लभ है। मुझमें यह सत्साहस, सदुत्साह नहीं है, जिसके उपहार-स्वरूप ये सब चीजें मिलती हैं। मुझे मालूम हुआ कि आप कुँवर भरतसिंह के सुपुत्रा हैं। उनसे मेरा पुराना परिचय है। अब वह शायद मुझे भूल गए हों। कुछ तो इस नाते से कि आप मेरे पुराने मित्र के बेटे हैं और कुछ इस नाते से कि आपने इस युवावस्था में विषय-वासनाओं को त्यागकर लोक-सेवा का व्रत धारण किया है, मेरे दिल में आपके प्रति विशेष प्रेम और सम्मान है। व्यक्तिगत रूप से मैं आपकी सेवाओं को स्वीकार करता हूँ और इस थोड़े-से समय में आपने रियासत का जो कल्याण किया है, उसके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। मुझे खूब मालूम है कि आप निरापराध हैं और डाकुओं से आपका कोई सम्बंध नहीं हो सकता। इसका मुझे गुमान तक नहीं है। महाराजा साहब से भी आपके सम्बंध में घंटे-भर बातें हुईं। वह भी मुक्त कंठ से आपकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन परिस्थितियाँ हमें आपसे यह याचना करने के लिए मजबूर कर रही हैं कि बहुत अच्छा हो, अगर आप…अगर आप प्रजा से अपने को अलग रखें। मुझे आपसे यह कहते हुए बहुत खेद हो रहा है कि अब यह रियासत आपका सत्कार करने का आनंद नहीं उठा सकती।

विनय ने अपने उठते हुए क्रोध को दबाकर कहा-आपने मेरे विषय में जो सद्भाव प्रकट किए हैं, उनके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। पर खेद है कि मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता। समाज की सेवा करना ही मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य है और समाज से पृथक् होकर मैं अपना व्रत भंग करने में असमर्थ हूँ।

दीवान साहब-अगर आपके जीवन का मुख्य उद्देश्य यही है, तो आपको किसी रियासत में आना उचित न था। रियासतों को आप सरकार की हरमसरा समझिए, जहाँ सूर्य के प्रकाश का भी गुज़र नहीं हो सकता। हम सब इस हरमसरा के हब्शी ख्वाजासरा हैं। हम किसी की प्रेम-रस-पूर्ण दृष्टि को इधार उठने न देंगे। कोई मनचला जवान इधार कदम रखने का साहस नहीं कर सकता। अगर ऐसा हो, तो हम अपने पद के अयोग्य समझे जाएँ। हमारा रसीला बादशाह, इच्छानुसार मनोविनोद के लिए, कभी-कभी यहाँ पदार्पण करता है। हरमसरा के सोए भाग्य उस दिन जग जाते हैं। आप जानते हैं, बेगमों की सारी मनोकामनाएँ उनकी छवि-माधुरी, हाव-भाव और बनाव-सिंगार पर ही निर्भर होती हैं, नहीं तो रसीला बादशाह उनकी ओर ऑंख उठाकर भी न देखे। हमारे रसीले बादशाह पूर्वीय राग-रस के प्रेमी हैं; उनका हुक्म है कि बेगमों का वस्त्राभूषण पूर्वीय हो, शृंगार पूर्वीय हो, रीति-नीति पूर्वीय हो, उनकी ऑंखें लज्जापूर्ण हों, पश्चिम की चंचलता उनमें न आने पाए, उनकी गति मरालों की गति की भाँति मंद हो, पश्चिम की ललनाओं की भाँति उछलती-कूदती न चलें, वे ही परिचारिकाएँ हों, वे ही हरम की दारोगा, वे ही हब्शी गुलाम, वे ही ऊँची चहारदीवारी, जिसके अंदर चिड़िया भी न पर मार सके। आपने इस हरमसरा में घुस आने का दुस्साहस किया है, यह हमारे रसीले बादशाह को एक ऑंख नहीं भाता, और आप अकेले नहीं हैं, आपके साथ समाज-सेवकों का एक जत्था है। इस जत्थे के सम्बंध में भाँति-भाँति की शंकाएँ हो रही हैं। नादिरशाही हुक्म है कि जितनी जल्द हो सके, यह जत्था हरमसरा से दूर हटा दिया जाए। यह देखिए,पोलिटिकल रेजिडेंट ने आपके सहयोगियों के कृत्यों की गाथा लिख भेजी है। कोई कोर्ट में कृषकों की सभाएँ बनाता फिरता है; कोई बीकानेर में बेगार की जड़ खोदने पर तत्पर हो रहा है; कोई मारवाड़ में रियासत के उन करों का विरोध कर रहा है, जो परम्परा से वसूल होते चले आए हैं। आप लोग साम्यवाद का डंका बजाते फिरते हैं। आपका कथन है; प्राणि-मात्रा खाने-पहनने और शांति से जीवन व्यतीत करने का समान स्वत्व है। इस हरमसरा में इन सिध्दांतों और विचारों का प्रचार करके आप हमारी सरकार को बदगुमान कर देंगे, और उसकी ऑंखें फिर गईं,तो संसार में हमारा कहीं ठिकाना नहीं है। हम आपको अपने क्ुं+ज में आग न लगाने देंगे।

हम अपनी दुर्बलताओं को व्यंग्य की ओट में छिपाते हैं। दीवान साहब ने व्यंग्योक्ति का प्रयोग करके विनय की सहानुभूति प्राप्त करनी चाही थी; पर विनय मनोविज्ञान से इतने अनभिज्ञ न थे, उनकी चाल भाँप गए और बोले-हमारा अनुमान था कि हम अपनी नि:स्वार्थ सेवा से आपको अपना हमदर्द बना लेंगे।

दीवान साहब-इसमें आपकी पूरी सफलता हुई है। हमको आपसे हार्दिक सहानुभूति है, लेकिन आप जानते ही हैं कि रेजिडेंट साहब की इच्छा के विरुध्द हम तिनका तक नहीं हिला सकते। आप हमारे ऊपर दया कीजिए, हमें इसी दशा में छोड़ दीजिए, हम जैसे पतितों का उध्दार करने में आपको यश के बदले अपयश ही मिलेगा।

विनय-आप रेजिडेंट के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध क्यों नहीं करते?

दीवान साहब-इसलिए कि हम आपकी भाँति नि:स्पृह और नि:स्वार्थ नहीं हैं। सरकार की रक्षा में हम मनमाने कर वसूल करते हैं, मनमाने कानून बनाते हैं, मनमाने दंड देते हैं, कोई चूँ नहीं कर सकता। यही हमारी कारगुजारी समझी जाती है, इसी के उपलक्ष्य में हमको बड़ी-बड़ी उपाधियाँ मिलती हैं; पद की उन्नति होती है। ऐसी दशा में हम उनका विरोध क्यों करें?

दीवान साहब की इस निर्लज्जता पर झुँझलाकर विनयसिंह ने कहा-इससे तो यह कहीं अच्छा था कि रियासतों का निशान ही न रहता।

दीवान साहब-इसीलिए तो हम आपसे विनय कर रहे हैं कि अब किसी और प्रांत की ओर अपनी दया-दृष्टि कीजिए।

विनय-अगर मैं जाने से इनकार करूँ?

दीवान साहब-तो मुझे बड़े दु:ख के साथ आपको उसी न्यायालय के सिपुर्द करना पड़ेगा, जहाँ न्याय का खून होता है।

विनय-निरापराध?

दीवान साहब-आप पर डाकुओं की सहायता का अपराध लगा हुआ है।

विनय-अभी आपने कहा है कि आपको मेरे विषय में ऐसी शंका नहीं।

दीवान साहब-वह मेरी निजी राय थी, यह मेरी राजकीय सम्मति है।

विनय-आपको अख्तियार है।

विनयसिंह फिर मोटर पर बैठे, तो सोचने लगे-जहाँ ऐसे-ऐसे निर्लज्ज, अपनी अपकीर्ति पर बगलें बजानेवाले कर्णधार हैं, उस नौका को ईश्वर ही पार लगाए, तो लगे। चलो, अच्छा ही हुआ। जेल में रहने से माताजी को तस्कीन होगी। यहाँ से जान बचाकर भागता, तो वह मुझसे बिल्कुल निराश हो जातीं। अब उन्हें मालूम हो जाएगा कि उनका पत्र निष्फल नहीं हुआ। चलूँ, अब न्यायालय का स्वाँग भी देख लूँ।

सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिसने उसे काँटों में उलझा दिया था। उसने निश्चय किया, मन को पैरों से कुचल डालूँगी, उसका निशान मिटा दूँगी। दुविधाा में पड़कर वह अपने मन को अपने ऊपर शासन करने का अवसर न देना चाहती थी, उसने सदा के लिए मुँह बंद कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। वह जानती थी, मन का मुँह बंद करना नितांत कठिन है; लेकिन वह चाहती थी, अब अगर मनर् कर्तव्यामार्ग से विचलित हो, तो उसे अपने अनौचित्य पर लज्जा आए; जैसे कोई तिलकधाारी वैष्णव शराब की भट्ठी में जाते हुए झिझकता है और शर्म से गर्दन नहीं उठा सकता, उसी तरह उसका मन भी संस्कार के बंधानों में पड़कर कुत्सित वासनाओं से झिझके। इस आत्मदान के लिए वह कलुषता और कुटिलता का अपराध सिर पर लेने को तैयार थी;आजीवन नैराश्य और वियोग की आग में जलने के लिए तैयार थी। वह आत्मा से उस अपमान का बदला लेना चाहती थी, जो उसे रानी के हाथों सहना पड़ा था। उसका मन शराब पर टूटता था, वह उसे विष पिलाकर उसकी प्यास बुझाना चाहती थी। उसने निश्चय कर लिया था,अपने को मि. क्लार्क के हाथों में सौंप दूँगी। आत्मदान का इसके सिवा और कोई साधान न था।

किंतु उसका आत्मसम्मान कितना ही दलित हो गया हो, बाह्य सम्मान अपने पूर्ण ओज पर था। अपने घर में उसका इतना आदर-सत्कार कभी न हुआ था। मिसेज़ सेवक की ऑंखों में वह कभी इतनी प्यारी न थी। उनके मुख से उसने कभी इतनी मीठी बातें न सुनी थीं। यहाँ तक कि वह अब उसकी धार्मिक विवेचनाओं से भी सहानुभूति प्रकट करती थीं। ईश्वरोपासना के विषय में भी अब उस पर अत्याचार न किया जाता था। वह अब अपनी इच्छा की स्वामिनी थी, और मिसेज़ सेवक यह देखकर आनंद से फूली न समाती थीं कि सोफ़िया सबसे पहले गिरजाघर पहुँच जाती थी। वह समझती थीं, मि. क्लार्क के सत्संग से यह सुसंस्कार हुआ है।

परंतु सोफ़िया के सिवा यह और कौन जान सकता है कि उसके दिल पर क्या बीत रही है। उसे नित्य प्रेम का स्वाँग भरना पड़ता था,जिससे उसे मानसिक घृणा होती थी। उसे अपनी इच्छा के विरुध्द कृत्रिम भावों की नकल करनी पड़ती थी। उसे प्रेम और अनुराग के वे शब्द तन्मय होकर सुनने पड़ते थे, जो उसके हृदय पर हथौड़ों की चोटों की भाँति पड़ते थे। उसे उन अनुरक्त चितवनों का लक्ष्य बनना पड़ता था,जिनके सामने वह ऑंखें बंद कर लेना चाहती थी। मिस्टर क्लार्क की बातें कभी-कभी इतनी रसमयी हो जाती थीं कि सोफी का जी चाहता था,इस स्वरचित रहस्य को खोल दूँ, इस कृत्रिम जीवन का अंत कर दूँ; लेकिन इसके साथ ही उसे अपनी आत्मा की व्यथा और जलन में एकर् ईर्ष्या,मय आनंद का अनुभव होता था। पापी तेरी यही सजा है, तू इसी योग्य है; तूने मुझे जितना अपमानित किया है, उसका तुझे प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।

इस भाँति वह विरहिणी रो-रोकर जीवन के दिन काट रही थी और विडम्बना यह थी कि वह व्यथा शांत होती नजर न आती थी। सोफ़िया अज्ञात रूप से मि. क्लार्क से कुछ खिंची हुई रहती थी; हृदय बहुत दबाने पर भी उनसे न मिलता था। उसका यह खिंचाव क्लार्क की प्रेमाग्नि को और भी उत्तोजित करता रहता था। सोफ़िया इस अवस्था में भी अगर उन्हें मुँह न लगाती थी, तो इसका मुख्य कारण मि. क्लार्क की धार्मिक प्रवृत्ति थी। उसकी निगाह में धार्मिकता से बढ़कर कोई अवगुण न था। वह इसे अनुदारता, द्वेष, अहंकार और संकीर्णता का द्योतक समझती थी। क्लार्क दिल-ही-दिल समझते थे कि सोफ़िया को मैं अभी नहीं पा सका, और इसलिए बहुत उत्सुक होने पर भी उन्हें सोफ़िया से प्रस्ताव करने का साहस न होता था। उन्हें यह पूर्ण विश्वास न होता था कि मेरी प्रार्थना स्वीकृत होगी। किंतु आशा-सूत्रा उन्हें सोफ़िया के दामन से बाँधो हुए था।

इसी प्रकार एक वर्ष से अधिक गुजर गया और मिसेज़ सेवक को अब संदेह होने लगा कि सोफ़िया कहीं हमें सब्ज बाग तो नहीं दिखा रही है? आखिर एक दिन उन्होंने सोफ़िया से कहा-मेरी समझ में नहीं आता, तू रात-दिन मि. क्लार्क के साथ बैठी-बैठी क्या किया करती है! क्या बात है? क्या वह प्रोपोज (प्रस्ताव) ही नहीं करते, या तू ही उनसे भागी-भागी फिरती है?

सोफ़िया शर्म से लाल होकर बोली-वह प्रोपोज ही नहीं करना चाहते, तो क्या मैं उनकी जबान हो जाऊँ?

मिसेज़ सेवक-यह तो हो ही नहीं सकता कि स्त्री चाहे और पुरुष प्रस्ताव न करे। वह तो आठों पहर अवसर देखा करता है। तू ही उन्हें फटकने न देती होगी।

सोफ़िया-मामा, ऐसी बातें करके मुझे लज्जित न कीजिए।

मिसेज़ सेवक-कसूर तुम्हारा है, और अगर तुम दो-चार दिन में मि. क्लार्क को प्रोपोज करने का अवसर न दोगी, तो फिर तुम्हें रानी साहबा के पास भेज दूँगी और फिर बुलाने का नाम भी न लूँगी।

सोफी थर्रा गई। रानी के पास लौटकर जाने से मर जाना कहीं अच्छा था। उसने मन में ठान लिया-आज वह करूँगी, जो आज तक किसी स्त्री ने न किया होगा। साफ कह दूँगी, मेरे घर का द्वार मेरे लिए बंद है। अगर आप मुझे आश्रय देना चाहते हो, तो दीजिए, नहीं तो मैं अपने लिए कोई और रास्ता निकालूँ। मुझसे प्रेम की आशा न रखिए। आप मेरे स्वामी हो सकते हैं, प्रियतम नहीं हो सकते। यह समझकर आप मुझे अंगीकार करते हों, तो कीजिए; वरना फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाइएगा।

संध्याआ हो गई थी। माघ का महीना था; उस पर हवा, फिर बादल; सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। न कहीं आकाश का पता था, न पृथ्वी का। चारों तरफ कुहरा-ही-कुहरा नजर आता था। रविवार था। ईसाई स्त्रियाँ और पुरुष साफ-सुथरे कपड़े और मोटे-मोटे ओवरकोट पहने हुए एक-एक करके गिरजाघर में दाखिल हो रहे थे। एक क्षण में जॉन सेवक, उनकी स्त्री , प्रभु सेवक और ईश्वर सेवक फिटन से उतरे। और लोग तुरंत अंदर चले गए, केवल सोफ़िया बाहर रह गई। सहसा प्रभु सेवक ने बाहर आकर पूछा-क्यों सोफी, मिस्टर क्लार्क अंदर गए?

सोफ़िया-हाँ, अभी-अभी गए हैं।

प्रभु सेवक-और तुम?

सोफ़िया ने दीन भाव से कहा-मैं भी चली जाऊँगी।

प्रभु सेवक-आज तुम बहुत उदास मालूम होती हो।

सोफ़िया की ऑंखें अश्रुपूर्ण हो गईं। बोली-हाँ प्रभु, आज मैं बहुत उदास हूँ। आज मेरे जीवन में सबसे महान् संकट का दिन है, क्योंकि आज मैं क्लार्क को प्रोपोज करने के लिए मजबूर करूँगी। मेरा नैतिक और मानसिक पतन हो गया। अब मैं अपने सिध्दांतों पर जान देनेवाली, अपने ईमान को ईश्वरीय इच्छा समझनेवाली, धर्म-तत्तवों को तर्क की कसौटी पर रखनेवाली सोफ़िया नहीं हूँ। वह सोफ़िया संसार में नहीं है। अब मैं जो कुछ हूँ, वह अपने मुँह से कहते हुए मुझे स्वयं लज्जा आती है।

प्रभु सेवक कवि होते हुए भी उस भावना-शक्ति से वंचित था, जो दूसरों के हृदय में पैठकर उनकी दशा का अनुभव करती है। वह कल्पना-जगत् में नित्य विचरता रहता था और ऐहिक सुख-दु:ख से अपने को चिंतित बनाना उसे हास्यास्पद जान पड़ता था। ये दुनिया के मेले हैं,इनमें क्यों सिर खपाएँ, मनुष्य को भोजन करना और मस्त रहना चाहिए। यही शब्द सोफ़िया उसके मुख से सैकड़ों बार सुन चुकी थी। झुँझलाकर बोला-तो इसमें रोने-धोने की क्या जरूरत है? मामा से साफ-साफ क्यों नहीं कह देतीं? उन्होंने तुम्हें मजबूर तो नहीं किया है?

सोफ़िया ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा-प्रभु, ऐसी बातों से दिल न दु:खाओ। तुम क्या जानो, मेरे दिल पर क्या गुजर रही है। अपनी इच्छा से कोई विष का प्याला नहीं पीता। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो कि मैं तुमसे अपनी सैकड़ों बार की कही हुई कहानी न कहती होऊँ। फिर भी तुम कहते हो, तुम्हें मजबूर किसने किया? तुम तो कवि हो, तुम इतने भाव-शून्य कैसे हो गए? मजबूरी के सिवा आज मुझे कौन यहाँ खींच लाया? आज मेरी यहाँ आने की जरा भी इच्छा नहीं थी; पर यहाँ मौजूद हूँ। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, धर्म का रहा-सहा महत्व भी मेरे दिल से उठ गया। मूर्खों को यह कहते हुए लज्जा नहीं आती कि मजहब खुदा की बरकत है। मैं कहती हूँ, वह ईश्वरीय कोप है-दैवी वज्र है, जो मानव जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है। इसी कोप के कारण आज मैं विष का घूँट पी रही हूँ। रानी जाह्नवी जैसी सहृदय महिला के मुझसे यों ऑंखें फेर लेने का और क्या कारण था? मैं उस देव-पुरुष से क्यों छल करती, जिसकी हृदय में आज भी उपासना करती हूँ, और नित्य करती रहूँगी? अगर यह कारण न होता, तो मुझे अपनी आत्मा को यह निर्दयतापूर्ण दंड देना ही क्यों पड़ता? मैं इस विषय पर जितना ही विचार करती हूँ, उतना ही धर्म के प्रति अश्रध्दा बढ़ती है। आह! मेरी निष्ठुरता से विनय को कितना दु:ख हुआ होगा, इसकी कल्पना ही से मेरे प्राण सूख जाते हैं। वह देखो, मि. क्लार्क बुला रहे हैं। शायद सरमन (उपदेश) शुरू होनेवाला है। चलना पड़ेगा, नहीं तो मामा जीता न छोड़ेंगी।

प्रभु सेवक तो कदम बढ़ाते हुए जा पहुँचे; सोफ़िया दो-ही-चार कदम चली थी कि एकाएक उसे सड़क पर किसी के गाने की आहट मिली। उसने सिर उठाकर चहारदीवारी के ऊपर से देखा, एक अंधा आदमी, हाथ में ख्रजरी लिए, यह गीत गाता हुआ चला जाता है :

भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?

वीरों का काम है लड़ना, कुछ नाम जगत में करना,

क्यों निज मरजादा छोड़ै?

भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?

क्यों जीत की तुझको इच्छा, क्यों हार की तुझको चिंता,

क्यों दु:ख से नाता जोड़ै?

भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?

तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया,

क्यों धरम-नीति को तोड़ै?

भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?

सोफ़िया ने अंधे को पहचान लिया; सूरदास था। वह इस गीत को कुछ इस तरह मस्त होकर गाता था कि सुननेवालों के दिल पर चोट-सी लगती थी। लोग राह चलते-चलते सुनने को खड़े हो जाते थे। सोफ़िया तल्लीन होकर यह गीत सुनती रही। उसे इस पद में जीवन का सम्पूर्ण रहस्य कूट-कूटकर भरा हुआ मालूम होता था :

तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया,

क्यों धरम-नीति को तोड़ै? भई, क्यों रन से मुँह मोड़ै?

राग इतना सुरीला, इतना मधुर , इतना उत्साहपूर्ण था, कि एक समाँ-सा छा गया। राग पर ख्रजरी की ताल और भी आफत करती थी। जो सुनता था, सिर धुनता था।

सोफ़िया भूल गई कि मैं गिरजे में जा रही हूँ, सरमन की जरा भी याद न रही। वह बड़ी देर तक फाटक पर खड़ी यह ‘सरमन’ सुनती रही। यहाँ तक कि सरमन समाप्त हो गया, भक्तजन बाहर निकलकर चले। मि. क्लार्क ने आकर धीरे से सोफ़िया के कंधो पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी।

क्लार्क-लार्ड बिशप का सरमन समाप्त हो गया और तुम अभी तक यहीं खड़ी हो!

सोफ़िया-इतनी जल्द! मैं जरा इस अंधे का गाना सुनने लगी। सरमन कितनी देर हुआ होगा?

क्लार्क-आधा घंटे से कम न हुआ होगा। लार्ड बिशप के सरमन संक्षिप्त होते हैं; पर अत्यंत मनोहर। मैंने ऐसा दिव्य ज्ञान में डूबा हुआ उपदेश आज तक न सुना था, इंग्लैंड में भी नहीं। खेद है, तुम न आईं।

सोफ़िया-मुझे आश्चर्य होता है कि मैं यहाँ आधा घंटे तक खड़ी रही!

इतने में मिस्टर ईश्वर सेवक अपने परिवार के साथ आकर खड़े हो गए। मिसेज़ सेवक ने क्लार्क को मातृस्नेह से देखकर पूछा-क्यों विलियम, सोफी आज के सरमन के विषय में क्या कहती है?

क्लार्क-यह तो अंदर गईं ही नहीं।

मिसेज़ सेवक ने सोफ़िया को अवहेलना की दृष्टि से देखकर कहा-सोफी, यह तुम्हारे लिए शर्म की बात है।

सोफी लज्जित होकर बोली-मामा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं इस अंधे का गाना सुनने के लिए जरा रुक गई, इतने में सरमन समाप्त हो गया!

ईश्वर सेवक-बेटी, आज सरमन सुधा-तुल्य था, जिसने आत्मा को तृप्त कर दिया। जिसने नहीं सुना, वह उम्र-भर पछताएगा। प्रभु, मुझे अपने दामन में छिपा। ऐसा सरमन आज तक न सुना था।

मिसेज़ सेवक-आश्चर्य है कि उस स्वर्गोपम सुधा-वृष्टि के सामने तुम्हें यह ग्रामीण गान अधिक प्रिय मालूम हुआ!

प्रभुसेवक-मामा, यह न कहिए। ग्रामीणों के गाने में कभी-कभी इतना रस होता है, जो बड़े-बड़े कवियों की रचनाओं में भी दुर्लभ है।

मिसेज़ सेवक-अरे, यह तो वही अंधा है, जिसकी जमीन हमने ले ली है। आज यहाँ कैसे आ पहुँचा? अभागे ने रुपये न लिए, अब गली-गली भीख माँगता फिरता है।

सहसा सूरदास ने उच्च स्वर में कहा-दुहाई है पंचो, दुहाई। सेवक साहब और राजा साहब ने मेरी जमीन जबरदस्ती छीन ली है। हम दुखियों की फरियाद कोई नहीं सुनता। दुहाई है!

‘दुरबल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।

मुई खाल की साँस सों सार भसम ह्नै जाए॥’

क्लार्क ने मि. सेवक से पूछा-उसकी जमीन तो मुआवजा देकर ली गई थी न? अब यह कैसा झगड़ा है?

मि. सेवक-उसने मुआवजा नहीं लिया। रुपये खजाने में जमा कर दिए गए हैं। बदमाश आदमी है।

एक ईसाई बैरिस्टर ने, जो चतारी के राजा साहब के प्रतियोगी थे, सूरदास से पूछा-क्यों अंधे, कैसी जमीन थी? राजा साहब ने कैसे ले ली?

सूरदास-हुजूर, मेरे बाप-दादों की जमीन है। सेवक साहब वहाँ चुरुट बनाने का कारखाना खोल रहे हैं। उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है। दुहाई है सरकार को, दुहाई पंचो, गरीब की कोई नहीं सुनता।

ईसाई बैरिस्टर ने क्लार्क से कहा-मेरे विचार में व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी की जमीन पर कब्जा करना मुनासिब नहीं है।

क्लार्क-बहुत अच्छा मुआवजा दिया गया है।

बैरिस्टर-आप किसी को मुआवजा लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, जब तक आप यह न सिध्द कर दें कि आप जमीन को किसी सार्वजनिक कार्य के लिए ले रहे हैं।

काशी आयरन वक्र्स के मालिक मिस्टर जॉन बर्ड ने, जो जॉन सेवक के पुराने प्रतिद्वंद्वी थे, कहा-बैरिस्टर साहब, क्या आपको नहीं मालूम है कि सिगरेट का कारखाना खोलना परम परमार्थ है? सिगरेट पीनेवाले आदमी को स्वर्ग पहुँचने में जरा भी दिक्कत नहीं होती।

प्रोफेसर चार्ल्स सिमियन, जिन्होंने सिगरेट के विरोध में एक पैंफ्लेट लिखा था, बोले-अगर सिगरेट के कारखाने के लिए सरकार जमीन दिला सकती है, तो कोई कारण नहीं है कि चकलों के लिए न दिलाए। सिगरेट के कारखाने के लिए जमीन पर कब्जा करना उस धाारा का दुरुपयोग करना है। मैंने अपने पैम्फलेट में संसार के बड़े-से-बड़े विद्वानों और डॉक्टरों की सम्मतियाँ लिखी थीं। स्वास्थ्य-नाश का मुख्य कारण सिगरेट का बहुत प्रचार है। खेद है, उस पैम्फलेट की जनता ने कदर न की।

काशी रेलवे यूनियन के मंत्री मिस्टर नीलमणि ने कहा-ये सभी नियम पूँजीपतियों के लाभ के लिए बनाए गए हैं, और पूँजीपतियों ही को यह निश्चय करने का अधिकार दिया गया है कि उन नियमों का कहाँ व्यवहार करें। कुत्तो को खाल की रखवाली सौंपी गई है। क्यों अंधे, तेरी जमीन कुल कितनी है?

सूरदास-हुजूर, दस बीघे से कुछ ज्यादा ही होगी। सरकार, बाप-दादों की यही निसानी है। पहले राजा साहब मुझसे मोल माँगते थे, जब मैंने न दिया, तो जबरदस्ती ले ली। हुजूर, अंधा-अपाहिज हूँ, आपके सिवा किससे फरियाद करूँ? कोई सुनेगा तो सुनेगा, नहीं भगवान् तो सुनेंगे!
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »

जॉन सेवक अब वहाँ पल भर भी न ठहर सके। वाद-विवाद हो जाने का भय था और संयोग से उनके सभी प्रतियोगी एकत्रा हो गए थे। मिस्टर क्लार्क भी सोफ़िया के साथ अपनी मोटर पर आ बैठे। रास्ते में जॉन सेवक ने कहा-कहीं राजा साहब ने इस अंधे की फरियाद सुन ली,तो उनके हाथ-पाँव फूल जाएँगे।

मिसेज़ सेवक-पाजी आदमी है। इसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं करा देते?

ईश्वर सेवक-नहीं बेटा, ऐसा भूलकर भी न करना; नहीं तो अखबारवाले इस बात का बतंगड़ बनाकर तुम्हें बदनाम कर देंगे। प्रभु, मेरा मुँह अपने दामन में छिपा और इस दुष्ट की जबान बंद कर दे।

मिसेज़ सेवक-दो-चार दिन में आप ही शांत हो जाएगा। ठेकेदारों को ठीक कर लिया न?

जॉन सेवक-हाँ, काम तो आजकल में शुरू हो जानेवाला है, मगर इस मूजी को चुप करना आसान नहीं है। मुहल्लेवालों को तो मैंने फोड़ लिया, वे सब इसकी मदद न करेंगे; मगर मुझे आशा थी, उधार से सहारा न पाकर इसकी हिम्मत टूट जाएगी। वह आशा पूरी न हुई। मालूम होता है, बड़े जीवट का आदमी है, आसानी से काबू में आनेवाला नहीं है। राजा साहब का म्युनिसिपल बोर्ड में अब वह जोर नहीं रहा; नहीं तो कोई चिंता न थी। उन्हें पूरे साल-भर तक बोर्डवालों की खुशामद करनी पड़ी, तब जाकर वह प्रस्ताव मंजूर करा सके। ऐसा न हो, बोर्डवाले फिर कोई चाल चलें।

इतने में राजा महेंद्रकुमार की मोटर सामने आकर रुकी। राजा साहब बोले-आपसे खूब मुलाकात हुई। मैं आपके बँगले से लौटा आ रहा हूँ। आइए, हम और आप सैर कर आएँ। मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।

जब जॉन सेवक मोटर पर आ बैठे, तो बातें होने लगीं। राजा साहब ने कहा-आपका सूरदास तो एक ही दुष्ट निकला। कल से सारे शहर में घूम-घूमकर गाता है और हम दोनों को बदनाम करता है। अंधे गाने में कुशल होते ही हैं। उसका स्वर बहुत ही लोचदार है। बात-की-बात में हजारों आदमी घेर लेते हैं। जब खूब जमाव हो जाता है, तो यह दुहाई मचाता है और हम दोनों को बदनाम करता है।

जॉन सेवक-अभी चर्च में आ पहुँचा था। बस वही दुहाई देता था। प्रोफेसर सिमियन, मि. नीलमणि आदि महापुरुषों को तो आप जानते ही हैं, उसे और भी उकसा रहे हैं। शायद अभी वहीं खड़ा हो।

महेंद्रकुमार-मिस्टर क्लार्क से तो कोई बातचीत नहीं हुई?

जॉन सेवक-थे तो वह भी, उनकी सलाह है कि अंधे को पागलखाने भेज दिया जाए। मैं मना न करता, तो वह उसी वक्त थानेदार को लिखते।

महेंद्रकुमार-आपने बहुत अच्छा किया, उन्हें मना कर दिया। उसे पागलखाने या जेलखाने भेज देना आसान है; लेकिन जनता को यह विश्वास दिलाना कठिन है कि उसके साथ अन्याय नहीं किया गया। मुझे तो उसकी दुहाई-तिहाई की परवा न होती; पर आप जानते हैं, हमारे कितने दुश्मन हैं। अगर उसका यही ढंग रहा, तो दस-पाँच दिनों में हम सारे शहर में नक्कू बन जाएँगे।

जॉन सेवक-अधिकार और बदनामी का तो चोली-दामन का साथ है। इसकी चिंता न कीजिए। मुझे तो यह अफसोस है कि मैंने मुहल्लेवालों को काबू में लाने के लिए बड़े-बड़े वादे कर लिए। जब अंधे पर किसी का कुछ असर न हुआ, तो मेरे वादे बेकार हो गए।

महेंद्रकुमार-अजी, आपकी तो जीत-ही-जीत है; गया तो मैं। इतनी जमीन आपको दस हजार से कम में न मिलती। धर्मशाला बनवाने में आपके इतने ही रुपये लगेंगे। मिट्टी तो मेरी खराब हुई। शायद जीवन में यह पहला ही अवसर है कि मैं जनता की ऑंखों में गिरता हुआ नजर आता हूँ। चलिए जरा पाँड़ेपुर तक हो आएँ। सम्भव है, मुहल्लेवालों को समझाने का अब भी कुछ असर हो।

मोटर पाँड़ेपुर की तरफ चली। सड़क खराब थी; राजा साहब ने इंजीनियर को ताकीद कर दी थी कि सड़क की मरम्मत का प्रबंध किया जाए; पर अभी तक कहीं कंकड़ भी न नजर आता था। उन्होंने अपनी नोटबुक में लिखा, इसका जवाब तलब किया जाए। चुंगीघर पहुँचे, तो देखा कि चुंगी का मुंशी आराम से चारपाई पर लेटा हुआ है और कई गाड़ियाँ सड़क पर रवन्ने के लिए खड़ी हैं। मुंशीजी ने मन में निश्चय कर लिया है कि गाड़ी पीछे एक रुपये लिए बिना रवन्ना न दूँगा, नहीं तो गाड़ियों को यहीं रात-भर खड़ी रखूँगा। राजा साहब ने जाते-ही-जाते गाड़ीवालों को रवन्ना दिला दिया और मुंशीजी के रजिस्टर पर यह कैफियत लिख दी। पाँड़ेपुर पहुँचे, तो अंधोरा हो चला था। मोटर रुकी। दोनों महाशय उतरकर मंदिर पर आए। नायकराम लुंगी बाँधो हुए भंग घोंट रहे थे, दौड़े हुए आए। बजरंगी नाद में पानी भर रहा था, आकर खड़ा हो गया। सलाम-बंदगी के पश्चात् जॉन सेवक ने नायकराम से कहा-अंधा तो बहुत बिगड़ा हुआ है।

नायकराम-सरकार, बिगड़ा तो इतना है कि जिस दिन डौंड़ी पिटी, उस दिन से घर नहीं आया। सारे दिन शहर में घूमता है; भजन गाता है और दुहाई मचाता है।

राजा साहब-तुम लोगों ने कुछ समझाया नहीं?

नायकराम-दीनबंधु, अपने सामने वह किसी को कुछ समझता ही नहीं। दूसरा आदमी हो, तो मार-पीट की धमकी से सीधा हो जाए; पर उसे तो डर-भय जैसे छू ही नहीं गया। उसी दिन से घर नहीं आया।

राजा साहब-तुम लोग उसे समझा-बुझाकर यहाँ लाओ। सारा संसार छान आए हो; एक मूर्ख को काबू में नहीं ला सकते?

नायकराम-सरकार, समझाना-बुझाना तो मैं नहीं जानता, जो हुकुम हो, हाथ-पैर तोड़कर बैठा दूँ, आज ही चुप हो जाएगा।

राजा साहब-छी, छी, कैसी बातें करते हो! मैं देखता हूँ, यहाँ पानी का नल नहीं है। तुम लोगों को तो बहुत कष्ट होता होगा। मिस्टर सेवक,आप यहाँ नल पहुँचाने का ठेका ले लीजिए।

नायकराम-बड़ी दया है दीनबंधु, नल आ जाए तो क्या कहना है।

राजा साहब-तुम लोगों ने कभी इसके लिए दरख्वास्त ही नहीं दी।

नायकराम-सरकार, यह बस्ती हद-बाहर है।

राजा साहब-कोई हरज नहीं, नल लगा दिया जाएगा।

इतने में ठाकुरदीन ने आकर कहा-सरकार, मेरी भी कुछ खातिरी हो जाए।

यह कहकर उसने चाँदी के वरक में लिपटे हुए पान के बीड़े दोनों महानुभावों की सेवा में अर्पित किए। मि. सेवक को, अंगरेजी वेश-भूषा रहने पर भी, पान से घृणा न थी, शौक से खाया। राजा साहब मुँह में पान रखते हुए बोले-क्या यहाँ लालटेनें नहीं हैं? अंधोरे में तो बड़ी तकलीफ होती होगी?

ठाकुरदीन ने नायकराम की ओर मार्मिक दृष्टि से देखा, मानो यह कह रहा है कि मेरे बीड़ों ने यह रंग जमा दिया। बोला-सरकार, हम लोगों की कौन सुनता है? अब हुजूर की निगाह हो गई है, तो लग ही जाएगी। बस, और कहीं नहीं, इसी मंदिर पर एक लालटेन लगा दी जाए। साधु-महात्मा आते हैं, तो अंधोरे में उन्हें कष्ट होता है। लालटेन से मंदिर की शोभा बढ़ जाएगी। सब आपको आसीरवाद देंगे।

राजा साहब-तुम लोग एक प्रार्थना-पत्र भेज दो।

ठाकुरदीन-हुजूर के प्रताप से दो-एक साधु-संत रोज ही आते रहते हैं। अपने से जो कुछ हो सकता है, उनका सेवा-सत्कार करता हूँ, नहीं तो यहाँ और कौन पूछने वाला है! सरकार, जब से चोरी हो गई, तब से हिम्मत टूट गई।

दोनों आदमी मोटर पर बैठनेवाले ही थे कि सुभागी एक लाल साड़ी पहने, घूँघट निकाले, आकर जरा दूर पर खड़ी हो गई, मानो कुछ कहना चाहती है। राजा साहब ने पूछा-यह कौन है? क्या कहना चाहती है?

नायकराम-सरकार, एक पासिन है। क्या है सुभागी, कुछ कहने आई है?

सुभागी-(धीरे से) कोई सुनेगा?

राजा साहब-हाँ, हाँ, कह, क्या कहती है?

सुभागी-कुछ नहीं मालिक, यही कहने आई थी कि सूरदास के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। अगर उनकी फरियाद न सुनी गई, तो वह मर जाएँगे।

जॉन सेवक-उसके मर जाने के डर से सरकार अपना काम छोड़ दे?

सुभागी-हुजूर, सरकार का काम परजा को पालना है कि उजाड़ना? जब से यह जमीन निकल गई है; बेचारे को न खाने की सुधा है, न पीने की। हम गरीब औरतों का तो वही एक आधार है, नहीं तो मुहल्ले के मरद कभी औरतों को जीता न छोड़ते और मरदों की मिलीभगत है। मरद चाहे औरत के अंग-अंग, पोर-पोर काट डाले, कोई उसको मने नहीं करता। चोर-चोर मौसेरे भाई हो जाते हैं। वही एक बेचारा था कि हम गरीबों की पीठ पर खड़ा हो जाता था।

भैरों भी आकर खड़ा हो गया था। बोला-हुजूर, सूरे न होता, तो यह आपके सामने खड़ी न होती। उसी ने जान पर खेलकर इसकी जान बचाई थी।

राजा साहब-जीवट का आदमी मालूम होता है।

नायकराम-जीवट क्या है सरकार, बस यह समझिए कि हत्या के बल जीतता है।

राजा साहब-बस, यह बात तुमने बहुत ठीक कही, हत्या ही के बल जीतता है। चाहूँ, तो आज पकड़वा दूँ; पर सोचता हूँ, अंधा है, उस पर क्या गुस्सा दिखाऊँ। तुम लोग उसके पड़ोसी हो, तुम्हारी बात कुछ-न-कुछ सुनेगा ही। तुम लोग उसे समझाओ। नायकराम, हम तुमसे बहुत जोर देकर कहे जाते हैं।

एक घंटा रात जा चुकी थी। कुहरा और भी घना हो गया था। दूकानों के दीपकों के चारों तरफ कोई मोटा कागज-सा पड़ा हुआ जान पड़ता था। दोनों महाशय विदा हुए; पर दोनों ही चिंता में डूबे हुए थे। राजा साहब सोच रहे थे कि देखें, लालटेन और पानी के नल का कुछ असर होता है या नहीं। जॉन सेवक को चिंता थी कि कहीं मुझे जीती जिताई बाजी न खोनी पड़े।

सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने लगी-सूरदास को इस विपत्तिा से क्योंकर मुक्त करूँ? इसका उध्दार कैसे हो? अगर पापा से कहूँ तो हर्गिज न सुनेंगे। उन्हें अपने कारखाने की ऐसी धाुन सवार है कि वह इस विषय में मेरे मुँह से एक शब्द सुनना भी पसंद न करेंगे। बहुत सोच-विचार के बाद उसने निश्चय किया-चलकर इंदु से प्रार्थना करूँ। अगर वह राजा साहब से जोर देकर कहेगी, तो सम्भव है, राजा साहब मान जाएँ। पिता से विरोधा करके उसे बड़ा दु:ख होता था; पर उसकी धाार्मिक दृष्टि में दया का महत्तव इतना ऊँचा था कि उसके सामने पिता के हानि-लाभ की कोई हस्ती न थी। जानती थी, राजा साहब दीन-वत्सल हैं और उन्होंने सूरदास पर केवल मि. क्लार्क की खातिर वज्राघात किया है। जब उन्हें ज्ञात हो जाएगा कि मैं उस काम के लिए उनकी जरा भी कृतज्ञ न हूँगी, तो शायद वह अपने निर्णय पर पुन: विचार करने के लिए तैयार हो जाएँ। यहाँ ज्यों ही यह बात खुलेगी, सारा घर मेरा दुश्मन हो जाएगा; पर इसकी क्या चिंता? इस भय से मैं अपनार् कत्ताव्य तो नहीं छोड़ सकती। इसी हैस-बैस में तीन दिन गुजर गए। चौथे दिन प्रात:काल वह इंदु से मिलने चली। सवारी किराए की थी। सोचती जाती थी-ज्यों ही अंदर कदम रखूँगी, इंदु दौड़कर गले लिपट जाएगी, शिकायत करेगी कि इतने दिनों के बाद क्यों आई हो। हो सकता है कि आज मुझे आने भी न दे। वह राजा साहब को जरूर राजी कर लेगी। न जाने पापा ने राजा साहब को कैसे चकमा दिया। यही सोचते-सोचते वह राजा साहब के मकान पर पहुँच गई और इंदु को खबर दी। उसे विश्वास था कि मुझे लेने के लिए इंदु खुद निकल जाएगी, किंतु 15 मिनट इंतजार करने के बाद एक दासी आई और उसे अंदर ले गई। सोफ़िया ने जाकर देखा कि इंदु अपने बैठने के कमरे में दुशाला ओढ़े, ऍंगीठी के सामने एक कुर्सी पर बैठी हुई हैं। सोफ़िया ने कमरे में कदम रखा, तब भी इंदु कुर्सी से न उठी, यहाँ तक कि सोफ़िया ने हाथ बढ़ाया, तब भी रुखाई से हाथ बढ़ा देने के सिवा इंदु मुँह से कुछ न बोली। सोफ़िया ने समझा, इसका जी अच्छा नहीं है। बोली-सिर में दर्द है क्या? उसकी समझ ही में न आता था कि बीमारी के सिवा इस निष्ठुरता का और भी कोई कारण हो सकता है। इंदु ने क्षीण स्वर में कहा-नहीं, अच्छी तो हूँ। इस सर्दी-पाले में तो तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ! सोफ़िया मानशीला स्त्राी थी। इंदु की इस निष्ठुरता से उसके दिल पर चोट-सी लगी। पहला विचार तो हुआ कि उलटे पाँव वापस जाऊँ; मगर यह सोचकर कि यह बहुत ही हास्यजनक बात होगी, उसने दुस्साहस करके एक कुर्सी खींची और उस पर बैठ गई। ‘आपसे मिले साल-भर से अधिाक हो गया।’ ‘हाँ, मुझे कहीं आने-जाने की फुरसत कम रहती है। मड़ियाहू की रानी साहब एक महीने में तीन बार आ चुकी हैं, मैं एक बार भी न जा सकी।’ सोफ़िया दिल में हँसती हुई व्यंग से बोली-जब रानियों को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, तो मैं किस गिनती में हूँ! क्या कुछ रियासत का काम भी देखना पड़ता है? ‘कुछ नहीं, और सब कुछ। राजा साहब को जातीय कार्यों से अवकाश ही नहीं मिलता, तो घर का कारोबार देखनेवाला भी तो कोई चाहिए। मैं भी देखती हूँ कि जब इन्हीं कामों की बदौलत उनका यह सम्मान है, जो बड़े-से-बड़े हाकिमों को भी प्राप्त नहीं है, तो उनसे ज्यादा छेड़-छाड़ नहीं करती।’ सोफ़िया अभी तक न समझ सकी कि इंदु की अप्रसन्नता का कारण क्या है। बोली-आप बड़ी भाग्यशालिनी हैं कि इस तरह उनके सत्कार्यों में हाथ बँटा सकती हैं। राजा साहब की सुकीर्ति आज सारे शहर में छाई हुई है; लेकिन बुरा न मानिएगा, कभी-कभी वह भी मुँह-देखी कर जाते हैं और बड़ों के आगे छोटों की परवा नहीं करते। ‘शायद उनकी यह पहली शिकायत है, जो मेरे कान में आई है।’ ‘हाँ, दुर्भाग्यवश यह काम मेरे ही सिर पड़ा। सूरदास को तो आप जानती ही हैं। राजा साहब ने उसकी जमीन पापा को दे दी है। बेचारा आजकल गली-गली दुहाई देता फिरता है। पिता के विरुध्द एक शब्द भी मुँह से निकालना मेरे लिए लज्जास्पद है, यह समझती हूँ। फिर भी यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि इस मौके पर राजा साहब को एक दीन प्राणी पर ज्यादा दया करनी थी।’ इंदु ने सोफ़िया को प्रश्नसूचक नेत्राों से देखकर कहा-आजकल पिता से भी अनबन है क्या? सोफ़िया ने गर्व से कहा-न्याय औरर् कत्ताव्य के सामने पिता, पुत्रा या पति का पक्षपात न किया जाए, तो कोई लज्जा की बात नहीं है। ‘तो तुम्हें पहले अपने पिता ही को सन्मार्ग पर लाना चाहिए था। राजा साहब ने जो कुछ किया, तुम्हारी खातिर किया, और तुम्हीं उन पर इलजाम रखती हो? कितने शोक की बात है! उन्हें मि. सेवक, मि. क्लार्क या संसार के किसी अन्य व्यक्ति से दबने की जरूरत नहीं है; किंतु इस अवसर पर उन्होंने तुम्हारे पापा का पक्ष न लिया होता, तो शायद सबसे पहले तुम्हीं उन पर कृतघ्नता का दोषारोपण करतीं। सूरदास पर यह अन्याय इसलिए किया गया कि तुमने एक संकट में विनय की रक्षा की है, और तुम अपने पिता की बेटी हो।’ सोफ़िया ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला गई। बोली-अगर मैं जानती कि मेरी उस क्षुद्र सेवा का यों प्रतिकार किया जाएगा, तो शायद विनयसिंह के समीप न जाती। क्षमा कीजिए, मुझसे भूल हुई कि आपके पास यह शिकायत लेकर आई। सुना करती थी, अमीरों में स्थिरता नहीं होती। आ इसका प्रमाण मिल गया। लीजिए, जाती हूँ। मगर इतना कहे जाती हूँ कि चाहे पापा मेरा मुँह देखना भी पाप समझें, पर मैं इस विषय में कदापि चुप न बैठूँगी। इंदु कुछ नरम होकर बोली-आखिर तुम राजा साहब से क्या चाहती हो? ‘क्या ऐश्वर्य पाकर बुध्दि भी मंद हो जाती है? ‘मैं प्यादे से वजीर नहीं बनी हूँ।’ ‘खेद है, आपने अब तक मेरा आशय नहीं समझा।’ ‘खेद करने से तो बात मेरी समझ में न आएगी।’ ‘मैं चाहती हूँ कि सूरदास की जमीन उसे लौटा दी जाए।’ ‘तुम्हें मालूम है, इसमें राजा साहब का कितना अपमान होगा?’ ‘अपमान अन्याय से अच्छा है।’ ‘यह भी जानती हो कि जो कुछ हुआ, तुम्हारे…मि. क्लार्क की प्रेरणा से हुआ है?’ ‘यह तो नहीं जानती; क्योंकि इस विषय में मेरी उनसे कभी बातचीत नहीं हुई। लेकिन जानती भी, तो राजा साहब की मान-हानि के विचार से पहले राजा साहब ही से अनुनय-विनय करना उचित समझती। अपनी भूल अपने ही हाथों सुधार जाए, तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधाारे।’ इंदु को चोट लगी। समझा, यह मुझे धामकी दे रही है। मि. क्लार्क के अधिाकार पर इतना अभिमान! तनकर बोली-मैं नहीं समझती कि किसी राज्याधिाकारी को बोर्ड के फैसले में भी दखल देने का मजाज है, और चाहे एक दिन अंधो पर अत्याचार ही क्यों न करना पड़े, राजा साहब अपने फैसले को बहाल रखने के लिए कोई बात उठा न रखेंगे। एक राजा का सम्मान एक क्षुद्र न्याय से कहीं ज्यादा महत्तव की वस्तु है। सोफ़िया ने व्यथित होकर कहा-इसी क्षुद्र न्याय के लिए सत्यवादी पुरुषों ने सिर कटवा दिए हैं। इंदु ने कुर्सी की बाँह पर हाथ पटककर कहा-न्याय का स्वाँग भरने का युग अब नहीं रहा। सोफ़िया ने कुछ उत्तार न दिया। उठ खड़ी हुई और बोली-इस कष्ट के लिए क्षमा कीजिएगा। इंदु ऍंगीठी की आग उकसाने लगी। सोफ़िया की ओर ऑंख उठाकर भी न देखा। सोफ़िया यहाँ से चली, तो इंदु के दर्ुव्यवहार से उसका कोमल हृदय विदीर्ण हो रहा था। सोचती जाती थी-वह हँसमुख, प्रसन्न चित्ता विनोदशील इंदु कहाँ है? क्या ऐश्वर्य मानव-प्रकृति को भी दूषित कर देता है? मैंने तो आज तक कभी इसको दिल दु:खानेवाली बात नहीं कही। क्या मैं ही कुछ और हो गई हूँ, या वही कुछ और हो गई है? इसने मुझसे सीधो मुँह बात भी नहीं की। बात करना तो दूर, उलटे और गालियाँ सुनाईं। मैं इस पर कितना विश्वास करती थी? समझती थी, देवी है। आज इसका यथार्थ स्वरूप दिखाई पड़ा। लेकिन मैं इसके ऐश्वर्य के सामने क्यों सिर झुकाऊँ? इसने अकारण, निष्प्रयोजन ही मेरा अपमान किया। शायद रानीजी ने इसके कान भरे हों। लेकिन सज्जनता भी कोई चीज है। सोफ़िया ने उसी क्षण इस अपमान का पूरा; बल्कि पूरे से भी ज्यादा बदला लेने का निश्चय कर लिया। उसने यह विचार न किया-सम्भव है, इस समय किसी कारण इसका मन खिन्न रहा हो, अथवा किसी दुर्घटना ने इसे असमंजस में डाल रखा हो। उसने तो सोचा-ऐसी अभद्रता, ऐसी दुर्जनता के लिए दारुण-से-दारुण मानसिक कष्ट, बड़ी-से-बड़ी आर्थिक क्षति, तीव्र-से-तीव्र शारीरिक व्यथा का उज्र भी काफी नहीं। इसने मुझे चुनौती दी है, स्वीकार करती हूँ। इसे अपनी रियासत का घमंड है, मैं दिखा दूँगी कि यह सूर्य का स्वयं प्रकाश नहीं, चाँद की पराधाीन ज्योति है। इसे मालूम हो जाएगा कि राजा और रईस, सब-के-सब शासनाधिाकारियों के हाथों के खिलौने हैं, जिन्हें वे अपनी इच्छा के अनुसार बनाते-बिगाड़ते रहते हैं। दूसरे ही दिन से सोफ़िया ने अपनी कपट-लीला आरम्भ कर दी। मि. क्लार्क से उसका प्रेम बढ़ने लगा। द्वेष के हाथों की कठपुतली बन गई। अब उनकी प्रेम-मधाुर बातें सिर झुकाकर सुनती, उनकी गर्दन में बाँहें डालकर कहती-तुमने प्रेम करना किससे सीखा? दोनों अब निरंतर साथ नजर आते, सोफ़िया दफ्तर में साहब का गला न छोड़ती, बार-बार चिट्ठियाँ लिखती-जल्द आओे, मैं तुम्हारी बाट जोह रही हूँ। और यह सारा प्रेमाभिनय केवल इसलिए था कि इंदु से अपमान का बदला लूँ। न्याय-रक्षा का अब उसे लेश-मात्रा धयान न था, केवल इंदु का दर्प-मर्दन करना चाहती थी। एक दिन वह मि. क्लार्क को पाँड़ेपुर की तरफ सैर कराने ले गई। जब मोटर गोदाम के सामने से होकर गुजरी, तो उसने ईंट और कंकड़ के ढेरों की ओर संकेत करके कहा-पापा बड़ी तत्परता से काम कर रहे हैं। क्लार्क-हाँ, मुस्तैद आदमी हैं। मुझे तो उनकी श्रमशीलता पर डाह होती है। सोफी-पापा ने धार्म-अधार्म का विचार नहीं किया। कोई माने या न माने, मैं तो यही कहूँगी कि अंधो के साथ अन्याय हुआ। क्लार्क-हाँ, अन्याय तो हुआ। मेरी तो बिल्कुल इच्छा न थी। सोफी-तो आपने क्यों अपनी स्वीकृति दी? क्लार्क-क्या करता? सोफी-अस्वीकार कर देते। साफ लिख देना चाहिए था कि इस काम के लिए किसी की जमीन नहीं जब्त की जा सकती। क्लार्क-तुम नाराज न हो जातीं? सोफी-कदापि नहीं। आपने शायद मुझे अब तक नहीं पहचाना। क्लार्क-तुम्हारे पापा जरूर ही नाराज हो जाते। सोफी-मैं और पापा एक नहीं हैं। मेरे और उनके आचार-व्यवहार में दिशाओं का अंतर है। क्लार्क-इतनी बुध्दि होती, तो अब तक तुम्हें कब का पा गया होता। मैं तुम्हारे स्वभाव और विचारों से परिचित न था। समझा, शायद यह अनुमति मेरे लिए हितकर हो। सोफी-सारांश यह कि मैं ही इस अन्याय की जड़ हूँ। राजा साहब ने मुझे प्रसन्न करने के लिए बोर्ड में यह प्रस्ताव रखा। आपने भी मुझी को प्रसन्न करने के लिए स्वीकृति प्रदान की। आप लोगों ने मेरी तो मिट्टी ही खराब कर दी। क्लार्क-मेरे सिध्दांतों से तुम परिचित हो। मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके यह प्रस्ताव स्वीकार किया है। सोफी-आपने अपने ऊपर जब्र नहीं किया है, मेरे ऊपर किया है, और आपको इसका प्रायश्चित्ता करना पड़ेगा। क्लार्क-मैं न जानता था कि तुम इतनी न्यायप्रिय हो। सोफी-मेरी तारीफ करने से इस पाप का प्रायश्चित्ता न होगा। क्लार्क-मैं अंधो को किसी दूसरे गाँव में इतनी ही जमीन दिला दूँगा। सोफ़िया-क्या उसी की जमीन उसे नहीं लौटाई जा सकती? क्लार्क-कठिन है। सोफ़िया-असम्भव तो नहीं है? क्लार्क-असम्भव से कुछ ही कम है। सोफ़िया-तो समझ गई, असम्भव नहीं है, आपको यह प्रायश्चित्ता करना ही पड़ेगा। कल ही उस प्रस्ताव को मंसूख कर दीजिए। क्लार्क-प्रिये, तुम्हें मालूम नहीं, उसका क्या परिणाम होगा। सोफ़िया-मुझे इसकी चिंता नहीं। पापा को बुरा लगेगा, लगे। राजा साहब का अपमान होगा, हो। मैं किसी के लाभ या सम्मान-रक्षा के लिए अपने ऊपर पाप का भार क्यों लूँ? क्यों ईश्वरीय दंड की भागिनी बनूँ? आप लोगों ने मेरी इच्छा के विरुध्द मेरे सिर पर एक महान् पातक का बोझ रख दिया है। मैं इसे सहन नहीं कर सकती। आपको अंधो की जमीन वापस करनी पड़ेगी। ये बातें हो ही रही थीं कि सैयद ताहिर अली ने सोफ़िया को मोटर में बैठे जाते देखा, तो तुरंत आकर सामने खड़े हो गए और सलाम किया। सोफी ने मोटर रोक दी और पूछा-कहिए मुंशीजी, इमारत बनने लगी? ताहिर-जी हाँ, कल दाग-बेल पड़ेगी; पर मुझे यह बेल मुड़े चढ़ती नहीं नजर आती। सोफ़िया-क्यों? क्या कोई वारदात हो गई? ताहिर-हुजूर, जब से इस अंधो ने शहर में आह-फरियाद शुरू की है, तब से अजीब मुसीबतों का सामना हो गया है। मुहल्लेवाले तो अब नहीं बोलते, लेकिन शहर के शोहदे-लुच्चे रोजाना आकर मुझे धामकियाँ देते हैं। कोई घर में आग लगाने को आमादा होता है, कोई लूटने को दौड़ता है, कोई मुझे कत्ल करने की धामकी देता है। आज सुबह कई सौ आदमी लाठियाँ लिए आ गए और गोदाम को घेर लिया। कुछ लोग सीमेंट और चूने के ढेरों को बखेरने लगे, कई आदमी पत्थर की सिलों को तोड़ने लगे। मैं तनहा क्या कर सकता था? यहाँ मजदूर खौफ के मारे जान लेकर भागे। कयामत का सामना था। मालूम होता था, अब आन-की-आन में महशर बरपा हो जाएगा। दरवाजा बंद किए बैठा अल्लाह-अल्लाह कर रहा था कि किसी तरह हंगामा फरो हो। बारे दुआ कबूल हुई। ऐन उसी वक्त अंधाा न जाने किधार से आ निकला और बिजली की तरह कड़ककर बोला-‘तुम लोग यह ऊधाम मचाकर मुझे क्यों कलंक लगा रहे हो? आग लगाने से मेरे दिल की आग न बूझेगी, लहू बहाने से मेरा चित्ता शांत न होगा। आप लोगों की दुआ से यह आग और जलन मिटेगी। परमात्मा से कहिए, मेरा दु:ख मिटाए। भगवान् से विनती कीजिए, मेरा संकट हरे। जिन्होंने मुझ पर जुलुम किया है, उनके दिल में दया-धारम जागे, बस मैं आप लोगों से और कुछ नहीं चाहता।’ इतना सुनते ही कुछ लोग तो हट गए; मगर कितने ही आदमी बिगड़कर बोले-तुम देवता हो, तो बने रहो; हम देवता नहीं हैं, हम तो जैसे के साथ तैसा करेंगे। उन्हें भी तो गरीबों पर जुल्म करने का मजा मिल जाए।-यह कहकर वे लोग पत्थरों को उठा-उठाकर पटकने लगे। तब इस अंधो ने वह काम किया, जो औलिया ही कर सकते हैं। हुजूर, मुझे तो कामिल यकीन हो गया कि कोई फरिश्ता है। उसकी बातें अभी तक कानों में गूँज रही हैं। उसकी तसवीर अभी तक ऑंखों के सामने खिंची हुई है। उसने जमीन से एक बड़ा-सा पत्थर का टुकड़ा उठा लिया और उसे अपने माथे के सामने रखकर बोला-अगर तुम लोग अभी भी मेरी विनती न सुनोगे, तो इसी दम इस पत्थर से सिर टकराकर जान दे दूँगा। मुझे मर जाना मंजूर है; पर यह अंधोर नहीं देख सकता। उसके मुँह से इन बातों का निकलना था कि चारों तरफ सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था, वह वहीं बुत बन गया। जरा देर में लोग आहिस्ता-आहिस्ता रुखसत होने लगे और कोई आधा घंटे में सारा मजमा गायब हो गया। सूरदास उठा और लाठी टेकता हुआ जिधार से आया था, उसी तरफ चला गया। हुजूर, मुझे तो पूरा यकीन है कि वह इंसान नहीं कोई फरिश्ता है।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »

सोफी-उसे किसी से इन दुष्टों के आने की खबर मिल गई होगी।

ताहिर-हुजूर, मेरा तो कयास है कि उसे इल्म गैब है।
सोफी-(मुस्कराकर) आपने पापा को इत्तिाला नहीं दी?
ताहिर-हुजूर, तब से मौका ही नहीं मिला। खुद बाल-बच्चों को तनहा छोड़कर नहीं जा सकता। आदमी सब पहले ही भाग गए थे। इसी फिक्र में खड़ा था कि हुजूर की मोटर नजर आई।
क्लार्क-यह अंधाा जरूर कोई असाधाारण पुरुष है। सोफी-तुम उससे दो-चार बातें करके देखो। उसके आधयात्मिक और दार्शनिक विचार सुनकर चकित हो जाओगे। साधाु भी है और दार्शनिक भी। कहीं हम उसके विचारों को व्यवहार में ला सकते, तो निश्चय सांसारिक जीवन सुखमय हो जाता। जाहिल है, बिल्कुल निरक्षर; लेकिन उसका एक-एक वाक्य विद्वानों के बड़े-बड़े ग्रंथों पर भारी है। मोटर चली, तो सोफी बोली-आप लोग ऐसे साधाुजनों पर भी अन्याय करने से बाज नहीं आते, जो अपने शत्राुओं पर एक कंकड़ भी उठाकर नहीं फेंकता। प्रभु मसीह में भी तो यही गुण सर्वप्रधाान था। क्लार्क-प्रिये, अब लज्जित न करो। इसका प्रायश्चित्ता निश्चय होगा। सोफी-राजा साहब इसका घोर विरोधा करेंगे। क्लार्क-थुह! उनमें इतना नैतिक साहस नहीं है। वह जो कुछ करते हैं, हमारा रुख देखकर करते हैं। इस वजह से उन्हें कभी असफलता नहीं होती। हाँ, उनमें यह विशेष गुण है कि वह हमारे प्रस्तावों का रूपांतर करके अपना काम बना लेते हैं और उन्हें जनता के सामने ऐसी चतुरता से उपस्थित करते हैं कि लोगों की दृष्टि में उनका सम्मान बढ़ जाता है। हिंदुस्तानी रईसों और राजनीतिज्ञों में आत्मविश्वास का बड़ा अभाव होता है। वे हमारी सहायता से वह कर सकते हैं, जो हम नहीं कर सकते; पर हमारी सहायता के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। मोटर सिगरा आ पहुँची। सोफ़िया उतर पड़ी। क्लार्क ने उसे प्रेम की दृष्टि से देखा, हाथ मिलाया और चले गए। छब्बीस अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूधा की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बालक के नन्हे-से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण-किरणों में नहाकर माता का स्नेह-सुंदर गात निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल-निकालकर माता के स्नेह-प्लावित मुख की ओर देखता है, हुमुकता है और मुस्कराता है; पर माता बार-बार उसे अंचल से ढँक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाए। सहसा तोप के छूटने की कर्ण-कटु धवनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठा, बालक गोद में चिमट गया। फिर वही भयंकर धवनि! माँ दहल उठी, बालक चिमट गया। फिर तो लगातार तोपें छूटने लगीं। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गए। आज रियासत के नए पोलिटिकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं। मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आए एक महीन गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातों, दावतों, नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार-बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहती; पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेडर्ऌँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गया, तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा-इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगा, और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगता, जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी। क्लार्क भी सहमत हो गए। एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैं, बड़ी धाूमधााम से उनका स्वागत होता है, सलामियाँ उतारी जाती हैं, मान-पत्रा मिलते हैं, मुख्य-मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओं, चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है। वह बड़े धयान से कैदियों को, उनके भोजनालयों को, जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधाार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने धयान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थी, मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता था, जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। पर सोफिया के अविरल प्रयत्न से उनकी दशा सुधारने लगी है। आज जसवंतनगर के मेजबानों को सेवा-सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बा, अर्थात् वहाँ के राजकर्मचारी, पगड़ियाँ बाँधो इधार-उधार दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश-हवास ठिकाने नहीं हैं, जैसे नींद में किसी ने भेड़ियों का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसज्जित कराए हैं, जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया है, बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिए हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तार दिया है। सड़कों के दोनों तरफ सशस्त्रा सिपाहियों की सफें खड़ी कर दी गई हैं कि प्रजा की अशांति का कोई चिद्द भी न नजर आने पाए। सभाएँ करने की मनाही कर दी गई है। संधया हो गई थी। जुलूस निकला। पैदल और सवार आगे-आगे थे। फौजी बाजे बज रहे थे। सड़कों पर रोशनी हो रही थी, पर मकानों में, छतों पर अंधाकार छाया हुआ था। फूलों की वर्षा हो रही थी, पर छतों से नहीं, सिपाहियों के हाथों से। सोफी सब कुछ समझती थी, पर क्लार्क की ऑंखों पर परदा-सा पड़ा हुआ था। असीम ऐश्वर्य ने उनकी बुध्दि को भ्रांत कर दिया है। कर्मचारी सब कुछ कर सकते हैं, पर भक्ति पर उनका वश नहीं होता। नगर में कहीं आनंदोत्साह का चिद्द नहीं है, सियापा-सा छाया हुआ है, न पग-पग पर जय-धवनि है, न कोई रमणी आरती उतारने आती है, न कहीं गाना-बजाना है। मानो किसी पुत्रा-शोकमग्न माता के सामने विहार हो रहा हो। कस्बे का गश्त करके सोफी, क्लार्क, सरदार नीलकंठ और दो-एक उच्च कर्मचारी तो राजभवन में आकर बैठे, और लोग बिदा हो गए। मेज पर चाय लाई गई। मि. क्लार्क ने बोतल से शराब उड़ेली, तो सरदार साहब, जिन्हें इसकी दुर्गंधा से घृणा थी, खिसककर सोफिया के पास आ बैठे और बोले-जसवंतनगर आपको कैसा पसंद आया? सोफिया-बहुत ही रमणीक स्थान है। पहाड़ियों का दृश्य अत्यंत मनोहर है। शायद कश्मीर के सिवा ऐसी प्राकृतिक शोभा और कहीं न होगी। नगर की सफाई से चित्ता प्रसन्न हो गया। मेरा तो जी चाहता है, यहाँ कुछ दिनों रहूँ। नीलकंठ डरे। एक-दो दिन तो पुलिस और सेना के बल से नगर को शांत रखा जा सकता है, पर महीने-दो महीने किसी तरह नहीं। असम्भव है। कहीं ये लोग यहाँ जम गए, तो नगर की यथार्थ स्थिति अवश्य ही प्रकट हो जाएगी। न जाने उसका क्या परिणाम हो। बोले-यहाँ की बाह्य छटा के धाोखे में न आइए। जलवायु बहुत खराब है। आगे आपको इससे कहीं सुंदर स्थान मिलेंगे। सोफिया-कुछ भी हो, मैं यहाँ दो हफ्ते अवश्य ठहरूँगी। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ से जाने की कोई जल्दी तो नहीं है? क्लार्क-तुम यहाँ रहो, तो मैं दफन होने को तैयार हूँ। सोफिया-लीजिए सरदार साहब, विलियम को कोई आपत्तिा नहीं है। सोफिया को सरदार साहब को दिक करने में मजा आ रहा था। नीलकंठ-फिर भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि जसवंतनगर बहुत अच्छी जगह नहीं है। जलवायु की विषमता के अतिरिक्त यहाँ की प्रजा में अशांति के बीज अंकुरित हो गए हैं। सोफिया-तब तो हमारा यहाँ रहना और भी आवश्यक है। मैंने किसी रिसायत में यह शिकायत नहीं सुनी। गवर्नमेंट ने रियासतों को आंतरिक स्वाधाीनता प्रदान कर दी है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि रियासतों में अराजकता के कीटाणुओं को सेये जाने दिया जाए। इसका उत्तारदायित्व अधिाकारियों पर है, और गवर्नमेंट को अधिाकार है कि वह इस असावधाानी का संतोषजनक उत्तार माँगे। सरदार साहब के हाथ-पाँव फूल गए। सोफिया से उन्होंने यह बात निश्शंक होकर कही थी। उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर-भेंट ने अपना काम कर दिखाया। कुछ बेतकल्लुफ-से हो गए थे। यह फटकार पड़ी, तो ऑंखें चौंधिाया गईं। कातर स्वर में बोले-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि यद्यपि रियासत पर इस स्थिति का उत्तारदायित्व है; पर हमने यथासाधय इसके रोकने की चेष्टा की और अब भी कर रहे हैं। यह बीज उस दिशा से आया, जिधार से उसके आने की सम्भावना न थी; या यों कहिए कि विष-बिंदु सुनहरे पात्राों में लाए गए। बनारस के रईस कुँवर भरतसिंह के स्वयंसेवकों ने कुछ ऐसे कौशल से काम लिया कि हमें खबर तक न हुई। डाकुओं से धान की रक्षा की जा सकती है, पर साधाुओं से नहीं। सेवकों ने सेवा की आड़ में यहाँ की मूर्ख प्रजा पर ऐसे मंत्रा फूँके कि उन मंत्राों के उतारने में रियासत को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषत: कुँवर साहब का पुत्रा अत्यंत कुटिल प्रकृति का युवक है। उसने इस प्रांत में अपने विद्रोहात्मक विचारों का यहाँ तक प्रचार किया कि इसे विद्रोहियों का अखाड़ा बना दिया। उसकी बातों में कुछ ऐसा जादू होता था कि प्रजा प्यासों की भाँति उसकी ओर दौड़ती थी। उसके साधाु भेष, उसके सरल, नि:स्पृह जीवन, उसकी मृदुल सहृदयता और सबसे अधिाक उसके देवोपम स्वरूप ने छोटे-बड़े सभी पर वशीकरण-सा कर दिया था। रियासत को बड़ी चिंता हुई। हम लोगों की नींद हराम हो गई। प्रतिक्षण विद्रोह की आग भड़क उठने की आशंका होती थी। यहाँ तक कि हमें सदर से सैनिक सहायता भेजनी पड़ी। विनयसिंह तो किसी तरह गिरफ्तार हो गया; पर उसके अन्य सहयोगी अभी तक इलाके में छिपे हुए प्रजा को उत्तोजित कर रहे हैं। कई बार यहाँ सरकारी खजाना लुट चुका है। कई बार विनय को जेल से निकाल ले जाने का दुष्प्रयत्न किया जा चुका है, और कर्मचारियों को नित्य प्राणों की शंका बनी रहती है। मुझे विवश होकर आपसे यह वृत्ताांत कहना पड़ा। मैं आपको यहाँ ठहरने की कदापि राय न दूँगा। अब आप स्वयं समझ सकती हैं कि हम लोगों ने जो कुछ किया, उसके सिवा और क्या कर सकते थे। सोफिया ने बड़ी चिंता के भाव से कहा-दशा उससे कहीं भयंकर है, जितना मैं समझती थी। इस अवस्था में विलियम का यहाँ से जानार् कत्ताव्य के विरुध्द होगा। वह यहाँ गवर्नमेंट के प्रतिनिधिा होकर आए हैं, केवल सैर-सपाटे करने के लिए नहीं। क्यों विलियम, तुम्हें यहाँ रहने में कोई आपत्तिा तो नहीं है? यहाँ की रिपोर्ट भी तो करनी पड़ेगी। क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा-तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं नरक में भी स्वर्ग का सुख ले सकता हूँ। रहा रिपोर्ट लिखना, वह तुम्हारा काम है। नीलकंठ-मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि रियासत को सँभालने के लिए कुछ और समय दीजिए। अभी रिपोर्ट करना हमारे लिए घातक होगा। इधार तो यह अभिनय हो रहा था, सोफिया प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान थी, ऐश्वर्य चँवर हिलाता था, अष्टसिध्दि हाथ बाँधो खड़ी थी। उधार विनय अपनी ऍंधोरी कालकोठरी में म्लान और क्षुब्धा बैठा हुआ नारी जाति की निष्ठुरता और असहृदयता पर रो रहा था। अन्य कैदी अपने-अपने कमरे साफ कर रहे थे, उन्हें कल नए कम्बल और नए कुरते दिए गए थे, जो रियासत में एक नई घटना थी। जेल कर्मचारी कैदियों को पढ़ा रहे थे-मेम साहब पूछें, तुम्हें क्या शिकायत है, तो सब लोग एक स्वर से कहना, हुजूर के प्रताप से हम बहुत सुखी हैं और हुजूर के जान-माल की खैर मनाते हैं। पूछें, क्या चाहते हो, तो कहना, हुजूर की दिनोंदिन उन्नति हो, इसके सिवा हम कुछ नहीं चाहते। खबरदार, जो किसी ने सिर ऊपर उठाया और कोई बात मुँह से निकाली, खाल उधोड़ ली जाएगी। कैदी फूले न समाते थे। आज मेम साहब की आमद की खुशी में मिठाइयाँ मिलेंगी। एक दिन की छुट्टी होगी। भगवान उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभागों पर इतनी दया करती हैं। -कतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कम्बल पड़ा हुआ है, छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक-एक रोम से, मस्तिष्क के एक-एक अणु से, हृदय की एक-एक गति से यही आवाज आ रही है-सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा। उसने सोचना शुरू किया-सोफिया यहाँ क्यों आ रही है? क्या मेरा अपमान करना चाहती है? सोफी, जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थी, क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैराेंं से कुचलना चाहती है? इतनी निर्दयता, और मुझ जैसे अभागे पर, जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहीं, वह इतनी वज्र-हृदया नहीं है, उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि. क्लार्क की शरारत है, वह मुझे सोफी के सामने लज्जित करना चाहते हैं; पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगा, मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहीं, मुझे बलात् ले जाए; जिसका जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ। साफ कह दूँगा, मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम है, तो हुआ करे, मुझे ऐसे नियम की परवाह नहीं, जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हँ, दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैं, क्या प्रजा को पीस ही डालेंगे? अब भी तो मुश्किल से आधो आदमी बच रहे होंगे, सैकड़ों निकाल दिए गए, सैकड़ों जेल में ठूँस दिए गए, क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैं? सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर मेंं बोला-तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरे, तुमने तो अभी कुरता भी नहीं बदला, कम्बल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहीं? विनय-हुक्म तो मिला, मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा। दारोगा ने और गरम होकर कहा-इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का-सा सलूक किया जाए। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आए हैं, इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता। विनय-यह बतलाइए कि मुझे पोलिटिकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगा? दारोगा-और यह कम्बल और कुरता किसलिए दिया गया है; कभी और भी किसी ने यहाँ नया कम्बल पाया है? तुम लोगों के तो भाग्य खुल गए। विनय-अगर आप मुझ पर इतनी रियायत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करें, तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ। दारोगा-कैसे बेसिर-पैर की बातें करते हो जी, मेरा कोई अख्तियार है? तुम्हें जाना पड़ेगा। विनय ने बड़ी नम्रता से कहा-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलँगा। किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जाते, पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था। बोले-मगर भाई, यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाए। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जाएँगे, मेम साहब को जेलों को देखने की धाुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैं, मेम साहब उनसे भी बढ़-चढ़कर हैं। सच पूछो तो जो कुछ हैं, वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गईं, तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जाएगी, हम भी पिस जाएँगे। विनय-मालूम होता है, मेम साहब का बड़ा दबाव है। दारोगा-दबाव! अजी, यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटिकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने-भर को हैं। नजर-भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है। विनय-आप मेरे साथ इतनी रियाअत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँ, अगर वह मुझे नाम लेकर बुलाएँगी, तो मैं चला जाऊँगा। दारोगा-सरदार साहब मुझे जीता निगल जाएँगे। विनय-मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा। दारोगा-मैं बुरा आदमी हूँ, मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े-बड़ों की गरदनें ढीली कर दी हैं। विनय-अपने को कोसने का आपको अधिाकार है; पर आज जानते हैं, मैं जब्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ। दारोगा-भाई, तुम विचित्रा प्राणी हो, उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा है, और फिर भी अपनी जिद किए जाते हो। लेकिन तुम्हें अपनी जान भारी है, मुझे अपनी जान भारी नहीं है। विनय-क्या शहर खाली कराया जा रहा है? यह क्यों? दारोगा-मेम साहब का हुक्म है, और क्या, जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैं, मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले तो इसे खुदवाकर फेंक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाए, सदर से मदद माँगी गई है। दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़ाकर बयान किया, इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुध्द होकर अधिाकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किए और जनता को यह खबर मिली, तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जाने, मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा हो, उनमें उद्दंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहीं, हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धौर्य से काम लेना चाहिए। दारोगा से पूछा-मेम साहब यहाँ किस वक्त आएँगी? दारोगा-उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धाोखा देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगी, जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इसी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालो; कपड़े बदल लो; कौन जाने, आज ही आ जाएँ। विनय-अच्छी बात है; आप जो कुछ कहते हैं, सब कर लूँगा। अब आप निश्ंचित हो जाएँ। दारोगा-सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगे? विनय-जी नहीं; आप मुझे सबसे पहले ऑंगन में मौजूद पाएँगे। दारोगा-मेरी शिकायत तो न करोगे? विनय-शिकायत करना मेरी आदत नहीं, इसे आप खूब जानते हैं। दारोगा चला गया। ऍंधोरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ू लगाई, कपड़े बदले, कम्बल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे किसी की दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हो; वह अपनी निरपेक्षता से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गया, पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत मेंं निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराए और कैदियों को विश्राम करने का हुक्म दिया। विनय लेटे, तो सोचने लगे-सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गया? वही लज्जा और विनय की मूर्ति, वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देवी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल था, कितना दयाशील, उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्रा थे, उसका स्वभाव कितना सरल था, उसकी एक-एक दृष्टि हृदय पर कालिदास की एक-एक उपमा की-सी चोट करती थी, उसके मुँह से जो शब्द निकलता था, वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्ता को आलोकित कर देता था। ऐसा मालूम होता था, केवल पुष्प-सुगंधा से उसकी सृष्टि हुई है, कितना निष्कपट, कितना गम्भीर, कितना मधाुर सौंदर्य था! वह सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है! चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, मानो कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के ऑंगन में दारोगा के जानवर न बँधो थे, न बरामदों में घास के ढेर थे। आज किसी कैदी को जेल-कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़े, किसी ने सिपाहियों की चम्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबंधिायाेंं के नजरानों का बाँट-बखरा न होता था। कमराेंं में दीपक थे, दरवाजे खुले रखे गए थे। विनय के मन में प्रश्न उठा, क्यों न भाग चलूँ? मेरे समझाने से कदाचित् लोग शांत हो जाएँ। सदर सेना आ रही है, ज़रा-सी बात पर विप्लव हो सकता है। यदि मैं शांतिस्थापना करने में सफल हुआ, तो वह मेरे इस अपराधा का प्रायश्चित्ता होगा। उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखा, कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया तो? लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था। इस हैस-बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुकाें की सूचना दी। दारोगा, डॉक्टर, वार्डर, चौकीदार हड़बड़ाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजी, कैदी मैदान में निकल आए, उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गया, और उसी क्षण सोफिया, मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए। सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस दृष्टि में प्रतीक्षा न थी, उत्सुकता न थी, भय था, विकलता थी, अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया था, जो उसे यहाँ तक खींच लाई थी, जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिध्दांतों का बलिदान किया था, उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थी, जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाए। सहसा उसने विनय को सिर झुकाए खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआ, नेत्राों में ऍंधोरा छा गया। घर वही था, पर उजड़ा हुआ, घास-पात से ढंका हुआ, पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ था, जिस पर कवित्व की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का-सा विशाल वृक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ूँ, उसे अश्रु-जल से धाोऊँ, उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात् विनयसिंह मूख्रच्छत होकर गिर पड़े, एक आर्तधवनि थी, जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई। सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल-कूद मचाने लगा-अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेंगी, इसकी हालत इतनी नाजुक थी, तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं रखा; बड़ी मुसीबत में फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहीं, इसने दम साधाा है, बना हुआ है, मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बच्चा, जाने दो मेम साहब को, तो देखना, तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाए, फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गया, किसी कैदी को आज तक यों मूख्रच्छत होते नहीं देखा। हाँ, किस्सों में लोगों को बात-बात में बेहोश हो जाते पढ़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या। दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा था, उधार सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रहे थे-यह वही युवक है, जिसने रियासत में ऊधाम मचा रखा है। सोफी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहा, हट जाओ, और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थीं, मेज पर जरी का मेजपोश था, उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जलपान की सामग्रियां चुनी हुई थीं। तजवीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया। उसकी करुणा और दया प्रसिध्द थी, किसी को आश्चर्य न हुआ। जब कमरे में कोई न रहा, तो सोफी ने खिड़कियों पर परदे डाल दिए और विनय का सिर अपनी जाँघ पर रखकर अपनी रूमाल उस पर झलने लगी। ऑंसू की गरम-गरम बूँदें उसकी ऑंखों से निकल-निकलकर विनय के मुख पर गिरने लगीं। उन जल-बिंदुआेंं में कितनी प्राणप्रद शक्ति थी! उनमें उसकी समस्त मानसिक और आत्मिक शक्ति भरी हुई थी। एक-एक जल-बिंदु उसके जीवन का एक-एक बिंदु था। विनयसिंह की ऑंखें खुल गईं। स्वर्ग का एक पुष्प अक्षय, अपार, सौरभ में नहाया हुआ, हवा के मृदुल झोकों से हिलता, सामने विराज रहा था। सौंदर्य की सबसे मनोहर, सबसे मधाुर छवि वह है, जब वह सजल शोक से आर्द्र होता है, वही उसका आधयात्मिक स्वरूप होता है। विनय चौंककर उठे नहीं; यही तो प्रेम-योगियों की सिध्दि है, यही तो उनका स्वर्ग है, यही तो स्वर्ग-साम्राज्य है, यही तो उनकी अभिलाषाओं का अंत है, इस स्वर्गीय आनंद में तृप्ति कहाँ! विनय के मन में करुण भावना जागृत हुई-काश, इसी भाँति प्रेम-शय्या पर लेटे हुए सदैव के लिए ये ऑंखें बंद हो जातीं! सारी आकांक्षाओं का लय हो जाता। मरने के लिए इससे अच्छा और कौन-सा अवसर होगा! एकाएक उन्हें याद आ गया, सोफी को स्पर्श करना भी मेरे लिए वर्जित है। उन्होंने तुरंत अपना सिर उसकी जाँघ पर से खींच लिया और अवरुध्द कंठ से बोले-मिसेज क्लार्क, आपने मुझ पर बड़ी दया की, इसके लिए आपका अनुगृहीत हूँ। सोफिया ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा-अनुग्रह गालियों के रूप में नहीं प्रकट किया जाता। विनय ने विस्मित होकर कहा-ऐसा घोर अपराधा मुझसे कभी नहीं हुआ। सोफिया-ख्वाहमखाह किसी शख्स के साथ मेरा सम्बंधा जोड़ना गाली नहीं तो क्या है? विनय-मिस्टर क्लार्क? सोफिया-क्लार्क को मैं तुम्हारी जूतियों का तस्मा खोलने के योग्य भी नहीं समझती। विनय-लेकिन अम्माँजी ने…। सोफिया-तुम्हारी अम्माँजी ने झूठ लिखा और तुमने उस पर विश्वास करके मुझ पर घोर अन्याय किया। कोयल आम न पाकर भी निम्बौड़ियों पर नहीं गिरती। इतने में क्लार्क ने आकर पूछा-इस कैदी की क्या हालत है? डॉक्टर आ रहा है, वह इसकी दवा करेगा। चलो, देर हो रही है। सोफिया ने रुखाई से कहा-तुम जाओ, मुझे फुरसत नहीं। क्लार्क-कितनी देर तक तुम्हारी राह देखूँ। सोफिया-यह मैं नहीं कह सकती। मेरे विचार में एक मनुष्य की सेवा करना सैर करने से कहीं अधिाक आवश्यक है। क्लार्क-खैर, मैं थोड़ी देर और ठहरूँगा। यह कहकर वह बाहर चले गए, तब सोफी ने विनय के माथे से पसीना पोंछते हुए कहा-विनय, मैं डूब रही हूँ, मुझे बचा लो। मैंने रानीजी की शंकाओं को निवृत्ता करने के लिए यह स्वाँग रचा था। विनय ने अविश्वाससूचक भाव से कहा-तुम यहाँ क्लार्क के साथ क्यों आईं और उनके साथ कैसे रहती हो? सोफिया का मुख-मंडल लज्जा से आरक्त हो गया। बोली-विनय, यह मत पूछो, मगर मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ, मैंने जो कुछ किया, तुम्हारे लिए किया। तुम्हें इस कैद से निकालने के लिए मुझे इसके लिए सिवा और कोई उपाय न सूझा। मैंने क्लार्क को प्रमाद में डाल रखा है। तुम्हारे ही लिए मैंने यह कपट-वेष धाारण किया है। अगर तुम इस वक्त कहो, सोफी, तू मेरे साथ जेल में रह, तो मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँगी। अगर तुम मेरा हाथ पकड़कर कहो, तू मेरे साथ चल तो आज ही तुम्हारे साथ चलूँगी। मैंने तुम्हारा दामन पकड़ लिया है और अब उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकती; चाहे तुम ठुकरा ही क्यों न दो। मैंने आत्मसम्मान तक तुम्हें समर्पित कर दिया है। विनय, यह ईश्वरीय विधाान है, यह उसकी ही प्रेरणा है; नहीं तो इतना अपमान और उपहास सहकर तुम मुझे जिंदा न पाते। विनय ने सोफी के दिल की थाह लेने के लिए कहा-अगर यह ईश्वरीय विधाान है, तो उसने हमारे और तुम्हारे बीच में यह दीवार क्यों खड़ी कर दी है? सोफिया-यह दीवार ईश्वर ने नहीं खड़ी की, आदमियों ने खड़ी की है। विनय-कितनी मजबूत है! सोफिया-हाँ, मगर दुर्भेद्य नहीं। विनय-तुम इसे तोड़ सकोगी? सोफिया-इसी क्षण, तुम्हारी ऑंखों के एक इशारे पर। कोई समय था, जब मैं उस दीवार को ईश्वरकृत समझती थी और उसका सम्मान करती थी, पर अब उसका यथार्थ स्वरूप देख चुकी। प्रेम इन बाधााओं की परवा नहीं करता, यह दैहिक सम्बंधा नहीं, आत्मिक सम्बंधा है। विनय ने सोफी का हाथ अपने हाथ में लिया, और उसकी ओर प्रेम-विह्नल नेत्राों से देखकर बोले-तो आज से तुम मेरी हो, और मैं तुम्हारा हूँ। सोफी का मस्तक विनय के हृदय-स्थल पर झुक गया, नेत्राों से जल-वर्षा होने लगी, जैसे काले बादल धारती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी न निकला, मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोधा है, पर शुष्क और दाह-युक्त; आनंद की सीमा भी कंठावरोधा है, पर आर्द्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक-एक अंग में, नाड़ियों की एक-एक गति में, आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधाार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोकों या लहरों के प्रवाह के साथ डावाँडोल न होगी, वरन् सुव्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी। विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंधा थी, प्रकाश में प्राण, किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व न था, जो देखने में अप्रिय, सुनने में कटु, छूने में कठोर और स्वाद में कड़घई हो। वहाँ के फूलों में काँटे न थे, सूर्य में इतनी उष्णता न थी, जमीन पर व्याधिायाँ न थीं, दरिद्रता न थी, चिंता न थी, कलह न था, एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम-सरोवर में विहार कर रहे थे। इस सुख-स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरस, कितना निराशाजनक था, यह ऍंधोरी कोठरी कितनी भयंकर! सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा-डार्लिंग, अब विलम्ब न करो, बहुत देर हो रही है, सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा। सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुण-कम्पित स्वर में बोली-घबराना नहीं, मैं कल फिर आऊँगी। विनय को ऐसा जान पड़ा, मानो नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह मर्माहत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आई, फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली-मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनाेंं यहाँ से चले जाएँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं। सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुर, उत्सुक, प्रेम में डूबे हुए शब्द किसी मधाुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूँजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक औषधिायाँ सेवन कराईं। पलंग पर नर्म बिछौना था, तकिए लगे थे, पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक-एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता था, और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा-मैं बिलकुल अच्छा हूँ, आप सब जाएँ, शाम को आइएगा। डॉक्टर साहब डरते-डरते बोले-आपको जरा नींद आ जाए, तो मैं चला जाऊँ। विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद आ जाएगी। डॉक्टर अपने अपराधाों की क्षमा माँगते हुए चले गए। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकाया, जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा था, मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगा; पर वह अभिलाषा पूरी न हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा-सत्कार में कोई कसर न रखना, नहीं तो मेम साहब जहन्नुम में भेज देंगी। शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक है, जितनी धयान के लिए वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ-अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआ, तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ सम्बध्द हैं। सोफी के प्रेम-पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित किया, इसीलिए उन्होेंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जाएगा। दु:ख तो पिताजी को भी होगा; पर वे मुझे क्षमा कर देंगे, उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुध्दि-ही-बुध्दि है; पिताजी में हृदय और बुध्दि दोनों हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँ? मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँ, जो संसार में किसी ने न किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैं, जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया हो? स्वार्थ के साथ जाति का धयान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया है, किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। फिर जाति के अधिाकारियों में न्याय और विवेक नहीं, प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहीं, उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधो के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता है? शनै:-शनै: भावनाओं ने जीवन की सुख-सामग्रियाँ जमा करनी शुरू कीं-चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा-सा मकान बनवाऊँगा, साफ, खुला हुआ, हवादार, ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति से निवास करेंगे। आडम्बर बढ़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगा, क्यारियाँ बनाऊँगा, कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूँगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधाकर कहूँगा-सरकार, कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा-रानीजी, कुछ निगाह हो जाए। कभी-कभी सोफी भी पौधाों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर-भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल गात पसीने से और सुंदर वस्त्रा पानी से भीग जाएगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलँगा। कभी-कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगी, डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनंद कहाँ, वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता है, उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डाँड़ा चलाऊँगा, सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी-कभी प्रभु सेवक भी आएँगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगे, जहाँ मंगल बाँहें फैलाए हमारा इंतजार कर रहा है। सोफी और क्लार्क की आज संधया समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजेेंं सज गईं और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किए, तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा-उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियम, तुमने देखा, उसका मुख कितना पीला पड़ गया था? क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुध्द उत्तार दिया-मर्ूच्छा में बहुधाा मुख पीला हो जाता है। सोफी-वही तो मैं भी कह रही थी कि उसकी दशा अच्छी नहीं, नहीं तो मर्ूच्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराधा की काफी सजा पा चुका है, उसे मुक्त कर देना उचित होगा। नीलकंठ-मेम साहब, उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहीं, यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जाएगा। बड़ा ही जिद्दी है, रियासत से बाहर जाने पर राजी ही नहीं होता। क्लार्क-ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है। सोफी ने उत्तोजित होकर कहा-मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय-शून्य हो! क्लार्क-मुझे तुम्हारा जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं। सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की दृष्टि से देखा। यह गर्व, यह आत्मगौरव कहाँ से आया? तिरस्कार भाव से बोली-एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। क्लार्क-साम्राज्य-रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया से, जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता हो, उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता हो, किसी दु:खी जीव को सांत्वना मिलती हो, उसका मैं कायल हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं उस सम्पत्तिा से वंचित नहीं हूँ; लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर दे, विद्रोहियों को सर उठाने का अवसर दे, प्रजा में अराजकता का प्रचार करे, उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहीं, पागलपन समझता हूँ। सोफी के मुख-मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दी, पर उसने जब्त किया। कदाचित् इतने धौर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धार्म-परायणता का सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता है। नर्म होकर बोली-हाँ, इस विचार-दृष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर न गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाए, तो फिर इस रियासत में कदम न रखेगा, और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धानी है। नीलकंठ-क्या आपसे उसने वादा किया है? सोफी-हाँ, वादा ही समझिए, मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ। नीलकंठ-इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता। क्लार्क-जब तक उसका लिखित प्रार्थना-पत्रा मेरे सामने न आए, मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता। नीलकंठ-हाँ, यह तो परमावश्यक ही है। सोफी-प्रार्थना-पत्रा का विषय क्या होगा? क्लार्क-सबसे पहले वह अपना अपराधा स्वीकार करे और अपनी राजभक्ति का विश्वास दिलाने के बाद हलफ लेकर कहे कि इस रियासत में फिर कदम न रखूँगा। उसके साथ जमानत भी होनी चाहिए। तो नकद रुपये हों, या प्रतिष्ठित आदमियों की जमानत। तुम्हारी जमानत का मेरी दृष्टि में कितना ही महत्तव हो, जाब्ते में उसका कुछ मूल्य नहीं। दावत के बाद सोफी राजभवन में आई, तो सोचने लगी-यह समस्या क्योंकर हल हो? यों तो मैं विनय की मिन्नत-समाजत करूँ, तो वह रियासत से चले जाने पर राजी हो जाएँगे; लेकिन कदाचित् वह लिखित प्रतिज्ञा न करेंगे। अगर किसी भाँति मैंने रो-धाोकर उन्हें इस बात पर राजी कर लिया, तो यहाँ कौन प्रतिष्ठित आदमी उनकी जमानत करेगा? हाँ, उनके घर से नकद रुपये आ सकते हैं! पर रानी साहब कभी इसे मंजूर न करेंगी। विनय को कितने ही कष्ट सहने पड़ें, उन्हें इस पर दया न आएगी। मजा तो जब है कि लिखित प्रार्थना-पत्रा और जमानत की कोई शर्त ही न रहे। वह अवैधा रूप से मुक्त कर दिए जाएँ। इसके सिवा कोई उपाय नहीं। राजभवन विद्युत-प्रकाश से ज्योतिर्मय हो रहा था। भवन के बाहर चारों तरफ सावन की काली घटा थी और अथाह अंधाकार। उस तिमिर-सागर में प्रकाशमय राजभवन ऐसा मालूम होता था, मानो नीले गगन पर चाँद निकला हो। सोफी अपने सजे हुए कमरे में आईने के सामने बैठी हुई उन सिध्दियों को जगा रही है, जिनकी शक्ति अपार है-आज उसने मुद्दत के बाद बालों में फूल गूँथे हैं, फीरोजी रेशम की साड़ी पहनी है और कलाइयों में कंगन धाारण किए हैं। आज पहली बार उसने उन लालित्य-प्रसारिणी कलाओं का प्रयोग किया है, जिनमें स्त्रिायाँ निपुण होती हैं। यह मंत्रा उन्हीं को आता है कि क्योंकर केशों की एक तड़प, अंचल की एक लहर चित्ता को चंचल कर देती है। आज उसने मिस्टर क्लार्क के साम्राज्यवाद को विजय करने का निश्चय किया है, वह आज अपनी सौंदर्य-शक्ति की परीक्षा करेगी। रिमझिम बूँदें गिर रही थीं, मानो मौलसिरी के फूल झड़ रहे हों। बूँदों में एक मधाुर स्वर था। राजभवन, पर्वत-शिखर के ऊपर, ऐसा मालूम होता था, मानो देवताओं ने आनंदोत्सव की महफिल सजाई है। सोफिया प्यानो पर बैठ गई और एक दिल को मसोसनेवाला राग गाने लगी। जैसे ऊषा की स्वर्ण-छटा प्रस्फुटित होते ही प्रकृति के प्रत्येक अंग को सजग कर देती है, उसी भाँति सोफी की पहली ही तान ने हृदय में एक चुटकी-सी ली। मिस्टर क्लार्क आकर एक कोच पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे, मानो किसी दूसरे ही संसार में पहुँच गए हैं। उन्हें कभी कोई नौका उमड़े हुए सागर में झकोले खाती नजर आती, जिस पर छोटी-छोटी सुंदर चिड़ियाँ मँडराती थीं। कभी किसी अनंत वन में एक भिक्षुक, झोली कंधो पर रखे, लाठी टेकता हुआ नजर आता। संगीत से कल्पना चित्रामय हो जाती है। जब तक सोफी गाती रही, मिस्टर क्लार्क बैठे सिर धाुनते रहे। जब वह चुप हो गई, तो उसके पास गए और उसकी कुर्सी की बाँहों पर हाथ रखकर, उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर बोले-इन उँगलियों को हृदय में रख लूँगा। सोफी-हृदय कहाँ है? क्लार्क ने छाती पर हाथ रखकर कहा-यहाँ तड़प रहा है। सोफी-शायद हो, मुझे तो विश्वास नहीं आता। मेरा तो खयाल है, ईश्वर ने तुम्हें हृदय दिया ही नहीं। क्लार्क-सम्भव है, ऐसा ही हो। पर ईश्वर ने जो कसर रखी थी, वह तुम्हारे मधाुर स्वर ने पूरी कर दी। शायद उसमें सृष्टि करने की शक्ति है। सोफी-अगर मुझमें यह विभूति होती, तो आज मुझे एक अपरिचित व्यक्ति के सामने लज्जित न होना पड़ता। क्लार्क ने अधाीर होकर कहा-क्या मैंने तुम्हें लज्जित किया? मैंने! सोफी-जी हाँ, आपने। मुझे आज तुम्हारी निर्दयता से जितना दु:ख हुआ, उतना शायद और कभी न हुआ था। मुझे बाल्यावस्था से यह शिक्षा दी गई है कि प्रत्येक जीव पर दया करनी चाहिए, मुझे बताया गया है कि यही मनुष्य का सबसे बड़ा धार्म है। धाार्मिक ग्रंथों में भी दया और सहानुभूति ही मनुष्य का विशेष गुण बतलाई गई है। पर आज विदित हुआ कि निर्दयता का महत्तव दया से कहीं अधिाक है। सबसे बड़ा दु:ख मुझे इस बात का है कि अनजान आदमी के सामने मेरा अपमान हुआ। क्लार्क-खुदा जानता है सोफी, मैं तुम्हारा कितना आदर करता हूँ। हाँ, इसका खेद मुझे अवश्य है कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करने के लिए बाधय हुआ। इसका कारण तुम जानती ही हो। हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता है, जब तक प्रजा पर हमारा आतंक छाया रहे, जब तक वह हमें अपना हितचिंतक, अपना रक्षक, अपना आश्रय समझती रहे, जब तक हमारे न्याय पर उसका अटल विश्वास हो। जिस दिन प्रजा के दिल से हमारे प्रति विश्वास उठ जाएगा, उसी दिन हमारे साम्राज्य का अंत हो जाएगा। अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है, तो व्यक्तिगत भावों और विचारों को यहाँ कोई महत्तव नहीं। साम्राज्य के लिए हम बड़े-से-बड़े नुकसान उठा सकते हैं, बड़ी-से-बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय है, और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेश-मात्रा भी शंका हो, उसे हम कुचल डालना चाहते हैं, उसका नाश कर देना चाहते हैं, उसके साथ किसी भाँति की रिआयत, सहानुभूति यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते। सोफी-अगर तुम्हारा खयाल है कि मुझे साम्राज्य से इतना प्रेम नहीं, जितना तुम्हें है, और मैं उसके लिए इतने बलिदान नहीं सह सकती, जितने तुम कर सकते हो, तो तुमने मुझे बिलकुल नहीं समझा। मुझे दावा है, इस विषय में मैं किसी से जौ-भर भी पीछे नहीं। लेकिन यह बात मेरे अनुमान में भी नहीं आती कि दो प्रेमियों में कभी इतना मतभेद हो सकता है कि सहृदयता और सहिष्णुता के लिए गुंजाइश न रहे, और विशेषत: उस दशा में जबकि दीवार के कानों के अतिरिक्त और कोई कान भी सुन रहा हो। दीवान देश-भक्ति के भावों से शून्य है; उसकी गहराई और उसके विस्तार से जरा भी परिचित नहीं। उसने तो यही समझा होगा कि जब इन दोनों में मेरे सम्मुख इतनी तकरार हो सकती है, तो घर पर न जाने क्या दशा होगी। शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया। उसने औरों से भी यह वृत्ताांत कहा होगा। मेरी तो नाक-सी कट गई। समझते हो, मैं गा रही हूँ। यह गाना नहीं, रोना है। जब दाम्पत्य के द्वार पर यह दशा हो रही है, जहाँ फूलों से, हर्षनादों से, प्रेमालिंगनों से, मृदुल हास्य से मेरा अभिवादन होना चाहिए था, तो मैं अंदर कदम रखने का क्योंकर साहस कर सकती हूँ? तुमने मेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शायद तुम मुझे ैमदजपउमदजंस समझ रहे होगे; पर अपने चरित्रा को मिटा देना मेरे वश की बात नहीं। मैं अपने को धान्यवाद देती हूँ कि मैंने विवाह के विषय में इतनी दूर-दृष्टि से काम लिया। यह कहते-कहते सोफी की ऑंखों से टप-टप ऑंसू गिरने लगे। शोकाभिनय में भी बहुधाा यथार्थ शोक की वेदना होने लगती है। मिस्टर क्लार्क खेद और असमर्थता का राग अलापने लगे; पर न उपयुक्त शब्द ही मिलते थे, न विचार। अश्रु-प्रवाह तर्क और शब्द-योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा-सोफी, मुझे क्षमा करो, वास्तव में मैं न समझता था कि इस ज़रा-सी बात से तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा होगी। सोफी-इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। तुम मेरे गुलाम नहीं हो कि मेरे इशारों पर नाचो। मुझमें वे गुण नहीं, जो पुरुषों का हृदय खींच लेते हैं, न वह रूप है, न वह छवि है, न वह उद्दीपन-कला। नखरे करना नहीं जानती, कोप-भवन में बैठना नहीं जानती। दु:ख केवल इस बात का है कि उस आदमी ने तो मेरे एक इशारे पर मेरी बात मान ली और तुम इतना अनुनय-विनय करने पर भी इनकार करते जाते हो। वह भी सिध्दांतवादी मनुष्य है; अधिाकारियों की यंत्राणाएँ सहीं, अपमान सहा, कारागार की ऍंधोरी कोठरी में कैद होना स्वीकार किया, पर अपने वचन पर सुदृढ़ रहा। इससे कोई मतलब नहीं कि उसकी टेक जा थी या बेजा, वह उसे जा समझता था। वह जिस बात को न्याय समझता था, उससे भय या लोभ या दंड उसे विचलित नहीं कर सके। लेकिन जब मैंने नरमी के साथ उसे समझाया कि तुम्हारी दशा चिंताजनक है, तो उसके मुख से ये करुण शब्द निकले-‘मेम साहब, जान की तो परवा नहीं, अपने मित्राों और सहयोगियाेंं की दृष्टि में पतित होकर जिंदा रहना श्रेय की बात नहीं; लेकिन आपकी बात नहीं टालना चाहता। आपके शब्दों में कठोरता नहीं, सहृदयता है, और मैं अभी तक भाव-विहीन नहीं हुआ हूँ। मगर तुम्हारे ऊपर मेरा कोई मंत्रा न चला। शायद तुम उससे बड़े सिध्दांतवादी हो, हालांकि अभी इसकी परीक्षा नहीं हुई। खैर, मैं तुम्हारे सिध्दांतों से सौतियाडाह नहीं करना चाहती। मेरी सवारी का प्रबंधा कर दो, मैं कल ही चली जाऊँगी और फिर अपनी नादानियों से तुम्हारे मार्ग का कटंक बनने न आऊँगी। मिस्टर क्लार्क ने घोर आत्मवेदना के साथ कहा-डार्लिंग, तुम नहीं जानतीं, यह कितना भयंकर आदमी है। हम क्रांति से, षडयंत्राों से, संग्राम से इतना नहीं डरते, जितना इस भाँति के धौर्य और धाुन से। मैं भी मनुष्य हूँ सोफी, यद्यपि इस समय मेरे मुँह से यह दावा समयोचित नहीं पर कम-से-कम उस पवित्रा आत्मा के नाम पर, जिसका मैं अत्यंत दीनभक्त हूँ, मुझे यह कहने का अधिाकार है-मैं उस युवक का हृदय से सम्मान करता हूँ। उसके दृढ़ संकल्प की, उसके साहस की, उसकी सत्यवादिता की दिल से प्रशंसा करता हँ। जानता हूँ, वह एक ऐश्वर्यशाली पिता का पुत्रा है और राजकुमारों की भाँति आनंद-भोग में मग्न रह सकता है; पर उसके ये ही सद्गुण हैं, जिन्होंने उसे इतना अजेय बना रखा है। एक सेना का मुकाबला करना इतना कठिन नहीं, जितना ऐसे गिने-गिनाए व्रतधाारियों का, जिन्हें संसार में कोई भय नहीं है। मेरा जाति-धार्म मेरे हाथ बाँधो हुए है। सोफी को ज्ञात हो गया कि मेरी धामकी सर्वथा निष्फल नहीं हुई। विवशता का शब्द जबान पर, खेद का भाव मन में आया, और अनुमति की पहली मंजिल पूरी हुई। उसे यह भी ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे हाव-भाव का इतना असर नहीं हो सकता, जितना बलपूर्ण आग्रह था। सिध्दांतवादी मनुष्य हाव-भाव का प्रतिकार करने के लिए अपना दिल मजबूत कर सकता है, वह अपने अंत:करण के सामने अपनी दुर्बलता स्वीकार नहीं कर सकता, लेकिन दुराग्रह के मुकाबले में वह निष्क्रिय हो जाता है। तब उसकी एक नहीं चलती। सोफी ने कटाक्ष करते हुए कहा-अगर तुम्हारा जातीयर् कत्ताव्य तुम्हें प्यारा है, तो मुझे भी आत्मसम्मान प्यारा है। स्वदेश की अभी तक किसी ने व्याख्या नहीं की; पर नारियों की मान-रक्षा उसका प्रधाान अंग है और होनी चाहिए, इससे तुम इनकार नहीं कर सकते। यह कहकर वह स्वामिनी-भाव से मेज के पास गई और एक डाकेट का पत्रा निकाला, जिस पर एजेंट आज्ञा-पत्रा लिखा करता था। क्लार्क-क्या करती हो सोफी? खुदा के लिए जिद मत करो। सोफी-जेल के दारोगा के नाम हुक्म लिखूँगी। यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई। क्लार्क-यह अनर्थ न करो सोफी, गजब हो जाएगा। सोफी-मैं गजब से क्या, प्रलय से भी नहीं डरती। सोफी ने एक-एक शब्द का उच्चारण करते हुए आज्ञा-पत्रा टाइप किया। उसने एक जगह जान-बूझकर एक अनुपयुक्त शब्द टाइप कर दिया, जिसे एक सरकारी पत्रा में न आना चाहिए। क्लार्क ने टोका-यह शब्द मत रखो। सोफी-क्यों, धान्यवाद न दूँ? क्लार्क-आज्ञा-पत्रा में धान्यवाद का क्या जिक्र? कोई निजी थोड़े ही है। सोफी-हाँ, ठीक है, यह शब्द निकाले देती हूँ। नीचे क्या लिखूँ। क्लार्क-नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं। केवल मेरा हस्ताक्षर होगा। सोफी ने सम्पूर्ण आज्ञा-पत्रा पढ़कर सुनाया। क्लार्क-प्रिये, यह तुम बुरा कर रही हो। सोफी-कोई परवा नहीं, मैं बुरा ही करना चाहती हूँ। हस्ताक्षर भी टाइप कर दूँ? नहीं, (मुहर निकालकर) यह मुहर किए देती हूँ। क्लार्क-जो चाहो करो। जब तुम्हें अपनी जिद के आगे कुछ बुरा-भला नहीं सूझता, तो क्या कहूँ? सोफी-कहीं और तो इसकी नकल न होगी? क्लार्क-मैं कुछ नहीं जानता। यह कहकर मि. क्लार्क अपने शयन-गृह की ओर जाने लगे। सोफी ने कहा-आज इतनी जल्दी नींद आ गई? क्लार्क-हाँ, थक गया हूँ। अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्रा से रियासत में तहलका पड़ जाएगा। सोफी-अगर तुम्हें इतना भय है, तो मैं इस पत्रा को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाए। बैठते हो, या देखो, यह लिफाफा फाड़ती हूँ। क्लार्क कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गए और बोले-लो बैठ गया, क्या कहती हो? सोफी-कहती कुछ नहीं हूँ, धान्यवाद का गीत सुनते जाओ। क्लार्क-धान्यवाद की जरूरत नहीं। सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे। उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तक? इस क्रीड़ा का कोई अंत भी है? इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिंता से मुक्त कर दिया-आह! काश, अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उद्दीप्त किया और तब सहसा प्यानो बंद कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहे, जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो। सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्रा खींचने में काटी, पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखती, तो विदित होता, धाूप की जगह छाँह है, छाँह की जगह धाूप, लाल रंग का आधिाक्य है, बाग में अस्वाभाविक रमणीयता, पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियाली, नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्राुटियों को सुधाारने लगती, तो सारा दृश्य जरूरत से ज्यादा नीरस, उदास और मलिन हो जाता। उसकी धाार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। अब ईश्वर ही उसका कर्णधाार था, वह अपने कर्माकर्म के गुणदोष से मुक्त थी। प्रात:काल वह उठी, तो मि. क्लार्क सो रहे थे। मूसलाधाार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चली, जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े। उसके जेल पहुँचते ही हलचल-सी पड़ गई। चौकीदार ऑंखें मलते हुए दौड़-दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागे, याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गए सोए थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल-कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैम्प न बुझा था, मानो विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगंधा उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम किया और वह उन्हें लिए विनय के कमरे में आई। देखा, तो नींद में है। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हलकी-सी मुस्कराहट है; मानो फूल पर किरणें चमक रही हों। सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था। सोफी ने डॉक्टर से पूछा-रात को इसकी कैसी दशा थी? डॉक्टर-हुजूर, कई बार मर्ूच्छा आई; पर मैं एक क्षण के लिए भी यहाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गई, तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है। सोफी-हाँ, मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरे जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ की जलवायु इसके लिए अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँ, तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँ, और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्कराकर) डॉक्टर साहब, मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँ, पर खतरे-जान नहीं। जब कमरे में एकांत हो गया, तो सोफी ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धाीरे-धाीरे उसका माथा सहलाने लगी। विनय की ऑंखें खुल गईं। इस तरह झपटकर उठा, जैसे नींद में किसी नदी से फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो। सोफी ने मुस्कराकर कहा-तुम अभी तक सो रहे हो; मेरी ऑंखों की तरफ देखो, रात-भर नहीं झपकीं। विनय-संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठी नींद न लूँ, तो मुझसा भाग्यहीन और कौन होगा? सोफी-मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाए। नींद का सुख अभाव में है, जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छा, अब तैयार हो जाओ। विनय-किस बात के लिए? सोफी-भूल गए? इस अंधाकार से प्रकाश में आने के लिए, इस काल-कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँ; तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा-पत्रा मेरी जेब में है। कोई अपमानसूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओ, चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट जाऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूँगी, और फिर विधााता भी हमें अलग न कर सकेगा। विनयसिंह की दशा उस बालक की-सी थी, जो मिठाइयों के खोंचे को देखता है, पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगी, मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैं, मालूम होता है, दाँत किसी रसक्ुं+ड में फिसल पडे। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैं, उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधाी होती है कि खाता ही चला जाए। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहीं, किससे माँगेगी ज्यादा हठ करूँगा, तो रोने लगेंगी। सजल नेत्रा होकर बोला-सोफी, मैं भाग्यहीन आदमी हूँ, मुझे इसी दशा मेेंं रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधााता ने दु:ख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम…। सोफी ने बात काटकर कहा-विनय, मैं विपत्तिा ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख-सम्पन्न होते, अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होता, अगर तुम वासनाओं के दास होते, तो कदाचित् मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है। विनय-अम्माँजी को तुम जानती हो, वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी। सोफी-तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोधा को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहीं, तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँ, तो उनका हृदय पिघल जाएगा। विनय ने सोफी को स्नेहपूर्ण नेत्राों से देखकर कहा-तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिंदू-धार्म पर जान देती हैं। सोफी-मैं भी हिंदू-धार्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिली, वह गोपियों की प्रेम-कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतार, जिसने गोपियों को प्रेम-रस पान कराया, जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगाया, जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्रा किया, उसी की चेरी बनकर जाऊँगी, तो वह कौन सच्चा हिंदू है, जो मेरी उपेक्षा करेगा? विनय ने मुस्कराकर कहा-उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दिया? मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम-कथा सर्वथा भक्त-कल्पना है। सोफी-हो सकती है। प्रभु मसीहा को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना-मात्रा है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई है? लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्रा कीर्ति के भक्त हैं, और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिाक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहीं, सूक्ष्म कल्पना से हुई हो। ये व्यक्तियों के नाम हों न हों, पर आदर्शों के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक-एक आदर्श है। विनय-सोफी, मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफी, तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाए, तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों की जंजीर चाहे न बन सको, पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच-समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधान से मुक्त हुआ, तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जाएगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफी, मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »

मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल चरित्रा, विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँ, मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसी दूसरी जगह प्रस्थान कर दो। सोफी-क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते हो? विनय-नहीं-नहीं, इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाए। कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। मैं तो समझता हूँ, सरदार साहब ने तुम्हारी रक्षा के लिए यह व्यवस्था की है, पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं। सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क-वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति-रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा-क्या ऐसा हुक्म दिया गया है? विनय-हाँ, मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था। सोफी-मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जाएगा, पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा। विनय-नहीं सोफी, मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा दृश्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी दृष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगा? तुम्हें पाकर मेरा जीवन नीरस हो जाएगा, मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जाएगी। सोफी, मेरे मुँह से न जाने क्या-क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राजसिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्ता हो जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरी तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ। सोफी-मेरी स्मरण-शक्ति इतनी शिथिल नहीं है। विनय-कम-से-कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करो; क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया है, मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा। सोफी ने गम्भीर भाव से कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल हृदय समझती थी, तुम उससे कहीं बढ़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँ, और इसलिए कहती हूँ, जैसी तुम्हारी इच्छा। पर शायद तुम्हें मालूम नहीं कि युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिए मना करो, उसी तरफ लपकेगा। अगर तुम आत्मप्रशंसा करते, अपने कृत्यों की अप्रत्यक्ष रूप से डींग मारते, तो शायद मुझे तुमसे अरुचि हो जाती। अपनी त्राुटियों और दोषों का प्रदर्शन करके तुमने मुझे और भी वशीभूत कर लिया। तुम मुझसे डरते हो, इसलिए तुम्हारे सम्मुख न आऊँगी, पर रहूँगी तुम्हारे ही साथ। जहाँ-जहाँ तुम जाओगे, मैं परछाईं की भाँति तुम्हारे साथ रहूँगी। प्रेम एक भावनागत विषय है, भावना से ही उसका पोषण होता है, भावना ही से वह जीवित रहता है और भावना से ही लुप्त हो जाता है। वह भौतिक वस्तु नहीं है। तुम मेरे हो, यह विश्वास मेरे प्रेम को सजीव और सतृष्ण रखने के लिए काफी है। जिस दिन इस विश्वास की जड़ हिल जाएगी, उसी दिन इस जीवन का अंत हो जाएगा। अगर तुमने यही निश्चय किया है कि इस कारागार में रहकर तुम अपने जीवन के उद्देश्य को अधिाक सफलता के साथ पूरा कर सकते हो, तो इस फैसले के आगे सिर झुकाती हूँ। इस विराग ने मेरी दृष्टि में तुम्हारे आदर को कई गुना बढ़ा दिया है। अब जाती हूँ। कल शाम को फिर आऊँगी। मैंने इस आज्ञा-पत्रा के लिए जितना त्रिाया-चरित्रा खेला है, वह तुमसे बता दूँ, तो तुम आश्चर्य करोगे। तुम्हारी एक ‘नहीं’ ने मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर दिया। क्लार्क कहेगा, मैं कहता था, वह राजी न होगा, कदाचित् व्यंग्य करे; पर कोई चिंता नहीं, कोई बहाना कर दूँगी। यह कहते-कहते सोफी के सतृष्ण अधार विनयसिंह की तरफ झुके, पर वह कोई पैर फिसलनेवाले मनुष्य की भाँति गिरते-गिरते सँभल गई। धाीरे से विनयसिंह का हाथ दबाया और द्वार की ओर चली; पर बाहर जाकर फिर लौट आई और अत्यंत दीन भाव से बोली-विनय, तुमसे एक बात पूछती हूँ। मुझे आशा है, तुम साफ-साफ बतला दोगे। मैं क्लार्क के साथ यहाँ आई, उससे कौशल किया, उसे झूठी आशाएँ दिलाईं और अब उसे मुगालते में डाले हुए हूँ। तुम इसे अनुचित तो नहीं समझते, तुम्हारी दृष्टि में मैं कलंकिनी तो नहीं हूँ? विनय के पास इसका एक ही सम्भावित उत्तार था। सोफी का आचरण उसे आपत्तिाजनक प्रतीत होता था। उसे देखते ही उसने इस बात को आश्चर्य के रूप में प्रकट भी किया था। पर इस समय वह इस भाव को प्रकट न कर सका। यह कितना बड़ा अन्याय होता, कितनी घोर निर्दयता! वह जानता था कि सोफी ने जो कुछ किया है, वह एक धाार्मिक तत्तव के अधाीन होकर। वह इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझ रही है। अगर ऐसा न होता, तो शायद अब तक वह हताश हो गई होती। ऐसी दशा में कठोर सत्य वज्रपात के समान होता। श्रध्दापूर्ण तत्परता से बोले-सोफी, तुम यह प्रश्न करके अपने ऊपर और उससे अधिाक मेरे ऊपर अन्याय कर रही हो। मेरे लिए तुमने अब तक त्याग-ही-त्याग किए हैं, सम्मान, समृध्दि, सिध्दांत एक की भी परवा नहीं की। संसार में मुझसे बढ़कर कृतघ्न और कौन प्राणी होगा, जो मैं इस अनुराग का निरादर करूँ। यह कहते-कहते वह रुक गया। सोफी बोली-कुछ और कहना चाहते हो, रुक क्यों गए? यही न कि तुम्हें मेरा क्लार्क के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। जिस दिन मुझे निराशा हो जाएगी कि मैं मिथ्याचरण से तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकती, उसी दिन मैं क्लार्क को पैरों से ठुकरा दूँगी। इसके बाद तुम मुझे प्रेम-योगिनी के रूप में देखोगे, जिसके जीवन का एकमात्रा उद्देश्य होगा तुम्हारे ऊपर समर्पित हो जाना।

मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं पकड़ी गई? किसी ने रिश्वत की शिकायत तो नहीं कर दी? बेचारों के हाथ-पाँव फूल गए।

डिप्टी साहब बिगड़े-मैं कोई साहब का जाती नौकर नहीं हूँ कि जब चाहा, तलब कर लिया। कचहरी के समय के भीतर जितनी बार चाहें,तलब करें; लेकिन यह कौन-सी बात है कि जब जी में आया, सलाम भेज दिया। इरादा किया, न चलूँ; पर इतनी हिम्मत कहाँ कि साफ-साफ इनकार कर दें। बीमारी का बहाना करना चाहा; मगर अरदली ने कहा-हुजूर, इस वक्त न चलेंगे, तो साहब बहुत नाराज होंगे। कोई बहुत जरूरी काम है, तभी तो मोटर से उतरते ही आपको सलाम दिया।

आखिर डिप्टी साहब को मजबूर होकर आना पड़ा। छोटे अमलों ने जरा भी चूँ न की, अरदली की सूरत देखते ही हुक्का छोड़ा, चुपके से कपड़े पहने, बच्चों को दिलासा दिया और हाकिम के हुक्म को अकाल-मृत्यु समझते हुए, गिरते-पड़ते बँगले पर आ पहुँचे। साहब के सामने आते ही डिप्टी साहब का सारा गुस्सा उड़ गया, इशारों पर दौड़ने लगे। मि. क्लार्क ने सूरदास की जमीन की मिसिल मँगवाई, उसे बड़े गौर से पढ़वाकर सुना, तब डिप्टी साहब से राजा महेंद्रकुमार के नाम एक परवाना लिखवाया, जिसका आशय यह था-पाँड़ेपुर में सिगरेट के कारखाने के लिए जो जमीन ली गई, वह उस धाारा के उद्देश्य के विरुध्द है, इसलिए मैं अपनी अनुमति वापस लेता हूँ। मुझे इस विषय में धाोखा दिया गया है और एक व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कानून का दुरुपयोग किया गया है।

डिप्टी साहब ने दबी जबान से शंका की-हुजूर, अब आपको वह हुक्म मंसूख करने का मजाज नहीं; क्योंकि सरकार ने उसका समर्थन कर दिया है।

मिस्टर क्लार्क ने कठोर स्वर में कहा-हमीं सरकार हैं, हमने वह कानून बनाया है, हमको सब अख्तियार है। आप अभी राजा साहब को परवाना लिख दें, कल लोकल गवर्नमेंट को उसकी नकल भेज दीजिएगा। जिले के मालिक हम हैं, सूबे की सरकार नहीं। यहाँ बलवा हो जाएगा,तो हमको इंतजाम करना पड़ेगा, सूबे की सरकार यहाँ न आएगी।

अमले थर्रा उठे, डिप्टी साहब को कोसने लगे-यह क्यों बीच में बोलते हैं। ऍंगरेज है, कहीं गुस्से में आकर मार बैठे, तो उसका क्या ठिकाना। जिले का बादशाह है, जो चाहे, करे, अपने से क्या मतलब।

डिप्टी साहब की छाती भी धाड़कने लगी, फिर जबान न खुली। परवाना तैयार हो गया, साहब ने उस पर हस्ताक्षर किया, उसी वक्त एक अरदली राजा साहब के पास परवाना लेकर पहुँचा। डिप्टी साहब वहाँ से उठे, तो मि. जॉन सेवक को इस हुक्म की सूचना दे दी।

जॉन सेवक भोजन कर रहे थे। यह समाचार सुना, तो भूख गायब हो गई। बोले-यह मि. क्लार्क को क्या सूझी?

मिसेज़ सेवक ने सोफी की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर पूछा-तूने इनकार तो नहीं कर दिया? जरूर कुछ गोलमाल किया है।

सोफ़िया ने सिर झुकाकर कहा-बस, आपका गुस्सा मुझी पर रहता है, जो कुछ करती हूँ, मैं ही करती हूँ।

ईश्वर सेवक-प्रभु मसीह, इस गुनहगार को अपने दामन में छिपा। मैं आखिर तक मना करता रहा कि बुङ्ढे की जमीन मत लो; मगर कौन सुनता है। दिल में कहते होंगे, यह तो सठिया गया है, पर यहाँ दुनिया देखे हुए हैं। राजा डरकर क्लार्क के पास आया होगा।

प्रभु सेवक-मेरी भी यही विचार है। राजा साहब ने स्वयं मिस्टर क्लार्क से कहा होगा। आजकल उनका शहर से निकलना मुश्किल हो रहा है। अंधो ने सारे शहर में हलचल मचा दी है।

जॉन सेवक-मैं तो सोच रहा था, कल शांति-रक्षा के लिए पुलिस के जवान माँगूँगा, इधार यह गुल खिला! कुछ बुध्दि काम नहीं करती कि क्या बात हो गई।

प्रभु सेवक-मैं तो समझता हूँ, हमारे लिए इस जमीन को छोड़ देना ही बेहतर होगा। आज सूरदास न पहुँच जाता, तो गोदाम की कुशल न थी, हजारों रुपये का सामान खराब हो जाता। यह उपद्रव शांत होनेवाला नहीं है।

जॉन सेवक ने उनकी हँसी उड़ाते हुए कहा-हाँ, बहुत अच्छी बात है, हम सब मिलकर उस अंधो के पास चलें और उसके पैरों पर सिर झुकाएँ। आज उसके डर से जमीन छोड़ दूँ, कल चमड़े की आढ़त तोड़ दूँ, परसों यह बँगला छोड़ दूँ और इसके बाद मुँह छिपाकर यहाँ से कहीं चला जाऊँ। क्यों, यही सलाह है न? फिर शांति-ही-शांति है, न किसी से लड़ाई, न किसी से झगड़ा। यह सलाह तुम्हें मुबारक रहे। संसार शांति भूमि नहीं, समर भूमि है। यहाँ वीरों और पुरुषार्थियों की विजय होती है, निर्बल और कायर मारे जाते हैं। मि. क्लार्क और राजा महेंद्रकुमार की हस्ती ही क्या है, सारी सरकार भी अब इस जमीन को मेरे हाथों से नहीं छीन सकती। मैं सारे शहर में हलचल मचा दूँगा, सारे हिंदुस्तान को हिला डालूँगा। अधिाकारियों की स्वेच्छाचारिता की यह मिसाल देश के सभी पत्राों में उध्दाृत की जाएगी, कौंसिलाें और सभाओं में एक नहीं, सहस्र-सहस्र कंठों से घोषित की जाएगी और उसकी प्रतिधवनि ऍंगरेजी पार्लियामेंट तक में पहुँचेगी। यह स्वजातीय उद्योग और व्यवसाय का प्रश्न है। इस विषय में समस्त भारत के रोजगारी, क्या हिंदुस्तानी और क्या ऍंगरेज, मेरे सहायक होंगे; और गवर्नमेंट कोई इतनी निर्बुध्दि नहीं है कि वह व्यवसायियों की सम्मिलित धवनि पर कान बंद कर ले। यह व्यापार-राज्य का युग है। योरप में बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्य पूँजीपतियों के इशारों पर बनते-बिगड़ते हैं, किसी गवर्नमेंट का साहस नहीं कि उनकी इच्छा का विरोधा करे। तुमने मुझे समझा क्या है, वह नरम चारा नहीं हूँ, जिसे क्लार्क और महेंद्र खा जाएँगे!

प्रभु सेवक तो ऐसे सिटपिटाए कि फिर जबान न खुली। धाीरे से उठकर चले गए। सोफ़िया भी एक क्षण के लिए सन्नाटे में आ गई। फिर सोचने लगी-अगर पापा ने आंदोलन किया भी, तो उसका नतीजा कहीं बरसों में निकलेगा, और यही कौन कह सकता है कि क्या नतीजा होगा; अभी से उसकी क्या चिंता? उसके गुलाबी ओठों पर विजय-गर्व की मुस्कराहट दिखाई दी। इस समय वह इंदु के चेहरे का उड़ता हुआ रंग देखने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर सकती थी-काश, मैं वहाँ मौजूद होती! देखती तो कि इंदु के चेहरे पर कैसी झेंप है। चाहे सदैव के लिए नाता टूट जाता; पर इतना जरूर कहती-देखा अपने राजा साहब का अधिाकार और बल? इसी पर इतना इतराती थीं? किंतु क्या मालूम था कि क्लार्क इतनी जल्दी करेंगे।

भोजन करके वह अपने कमरे में गई और रानी इंदु के मानसिक संताप का कल्पनातीत आनंद उठाने लगी-राजा साहब बदहवास, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, आकर इंदु के पास बैठ जाएँगे। इंदु देवी लिफाफा देखेगी, ऑंखों पर विश्वास न आएगा; फिर रोशनी तेज करके देखेंगी, तब राजा के ऑंसू पोछेंगी-आप व्यर्थ इतने खिन्न होते हैं, आप अपनी ओर से शहर में डुग्गी पिटवा दीजिए कि हमने सूरदास की जमीन सरकार से लड़कर वापस दिला दी। सारे नगर में आपके न्याय की धाूम मच जाएगी। लोग समझेंगे, आपने लोकमत का सम्मान किया है। खुशामदी टट्टू कहीं का! चाल से विलियम को उल्लू बनाना चाहता था। ऐसी मुँह की खाई है कि याद ही करेगा। खैर, आज न सही, कल, परसों, नरसों,कभी तो इंदुदेवी से मुलाकात होगी ही। कहाँ तक मुँह छिपाएँगी।

यह सोचते-सोचते सोफ़िया मेज पर बैठ गई और इस वृत्ताांत पर एक प्रहसन लिखने लगी।र् ईष्या से कल्पना-शक्ति उर्वर हो जाती है। सोफ़िया ने आज तक कभी प्रहसन न लिखा था। किंतु इस समयर् ईष्या के उद्गार में उसने एक घंटे के अंदर चार दृश्यों का एक विनोदपूर्ण ड्रामा लिख डाला। ऐसी-ऐसी चोट करनेवाली अन्योक्तियाँ और हृदय में चुटकियाँ लेनेवाली फबतियाँ लेखनी से निकलीं कि उसे अपनी प्रतिभा पर स्वयं आश्चर्य होता था। उसे एक बार यह विचार हुआ कि मैं यह क्या बेवकूफी कर रही हूँ। विजय पाकर परास्त शत्राु को मुँह चिढ़ाना परले सिरे की नीचता है, परर् ईष्या में उसने समाधाान के लिए एक युक्ति ढूँढ़ निकाली-ऐसे कपटी, सम्मान-लोलुप, विश्वास-घातक, प्रजा के मित्रा बनकर उसकी गर्दन पर तलवार चलानेवाले, चापलूस रईसों की यही सजा है, उनके सुधाार का एकमात्रा साधान है। जनता की निगाहों में गिर जाने का भय ही उन्हें सन्मार्ग पर ला सकता है। उपहास का भय न हो, तो वे शेर हो जाएँ, अपने सामने किसी को कुछ न समझें।

प्रभु सेवक मीठी नींद सो रहे थे। आधाी रात बीत चुकी थी। सहसा सोफ़िया ने आकर जगाया, चौंककर उठ बैठे और यह समझकर कि शायद इसके कमरे में चोर घुस आए हैं, द्वार की ओर दौड़े। गोदाम की घटना ऑंखों के सामने फिर गई। सोफी ने हँसते हुए उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा-कहाँ भागे जाते हो?

प्रभु सेवक-क्या चोर हैं? लालटेन जला लूँ?

सोफ़िया-चोर नहीं है, जरा मेरे कमरे में चलो, तुम्हें एक चीज सुनाऊँ। अभी लिखी है।

प्रभु सेवक-वाह-वाह! इतनी-सी बात के लिए नींद खराब कर दी। क्या फिर सबेरा न होता, क्या लिखा है?

सोफ़िया-एक प्रहसन है।

प्रभु सेवक-प्रहसन! कैसा प्रहसन? तुमने प्रहसन लिखने का कब से अभ्यास किया?

सोफ़िया-आज ही। बहुत जब्त किया कि सबेरे सुनाऊँगी; पर न रहा गया।

प्रभु सेवक सोफ़िया के कमरे में आए और एक ही क्षण में दोनों ने ठट्ठे मार-मारकर हँसना शुरू किया। लिखते समय सोफ़िया को जिन वाक्यों पर जरा भी हँसी न आई थी, उन्हीं को पढ़ते समय उससे हँसी रोके न रुकती थी। जब कोई हँसनेवाली बात आ जाती, तो सोफी पहले ही से हँस पड़ती, प्रभु सेवक मुँह खोले हुए उसकी ओर ताकता, बात कुछ समझ में न आती, मगर उसकी हँसी पर हँसता, और ज्यों ही बात समझ में आ जाती, हास्य-धवनि और भी प्रचंड हो जाती। दोनों के मुख आरक्त हो गए, ऑंखों से पानी बहने लगा, पेट में बल पड़ गए, यहाँ तक कि जबड़ों में दर्द होने लगा। प्रहसन के समाप्त होते-होते ठट्ठे की जगह खाँसी ने ले ली। खैरियत थी कि दोनों तरफ से द्वार बंद थे, नहीं तो उस नि:स्तब्धाता में सारा बँगला हिल जाता।

प्रभु सेवक-नाम भी खूब रखा, राजा मुछेंद्रसिंह। महेंद्र और मुछेंद्र की तुक मिलती है! पिलपिली साहब के हंटर खाकर मुछेंद्रसिंह का झुक-झुककर सलाम करना खूब रहा। कहीं राजा साहब ज़हर न खा लें।

सोफ़िया-ऐसा हयादार नहीं है।

प्रभु सेवक-तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो।

थोड़ी देर में दोनों अपने-अपने कमरे में सोये। सोफ़िया प्रात:काल उठी और मि. क्लार्क का इंतजार करने लगी। उसे विश्वास था कि वह आते ही होंगे, उनसे सारी बातें स्पष्ट रूप से मालूम होंगी, अभी तो केवल अफवाह सुनी है। सम्भव है, राजा साहब घबराए हुए उनके पास अपना दु:खड़ा रोने के लिए आए हों; लेकिन आठ बज गए और क्लार्क का कहीं पता न था। वह भी तड़के ही आने को तैयार थे; पर आते हुए झेंपते थे कि कहीं सोफ़िया यह न समझे कि इस जरा-सी बात का मुझ पर एहसान जताने आए हैं। इससे अधिाक भय यह था कि वहाँ लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगा, या तो मुझे देखकर लोग दिल-ही-दिल में जलेंगे, या खुल्लमखुल्ला दोषारोपण्ा करेंगे। सबसे ज्यादा खौफ ईश्वर सेवक का था कि कहीं वह दुष्ट, पापी, शैतान, काफिर न कह बैठें। वृध्द आदमी हैं, उनकी बातों का जवाब ही क्या? इन्हीं कारणों से वह आते हुए हिचकिचाते थे और दिल में मना रहे थे कि सोफ़िया ही इधार आ निकले।

नौ बजे तक क्लार्क का इंतजार करने के बाद सोफ़िया अधाीर हो उठी। इरादा किया, मैं ही चलूँ कि सहसा मि. जॉन सेवक आकर बैठ गए और सोफ़िया को क्रोधाोन्मत्ता नेत्राों से देखकर बोले-सोफी, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। तुमने मेरे सारे मंसूबे खाक में मिला दिए।

सोफ़िया-मैंने क्या किया? मैं आपका आशय नहीं समझी।

जॉन सेवक-मेरा आशय यह है कि तुम्हारी ही दुष्प्रेरणा से मि. क्लार्क ने अपना पहला हुक्म रद्द किया है।

सोफ़िया-आपको भ्रम है।

जॉन सेवक-मैंने बिना प्रमाण के आज तक किसी पर दोषारोपण नहीं किया। मैं अभी इंदुदेवी से मिलकर आ रहा हूँ। उन्होंने इसके प्रमाण दिए कि यह तुम्हारी करतूत है।

सोफ़िया-आपको विश्वास है कि इंदु ने मुझ पर जो इलजाम रखा है, वह ठीक है?

जॉन सेवक-उसे असत्य समझने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है।

सोफ़िया-उसे सत्य समझने के लिए यदि इंदु का वचन काफी है, तो उसे असत्य समझने के लिए मेरा बचन क्यों काफी नहीं है?

जॉन सेवक-सच्ची बात विश्वासोत्पादक होती है।

सोफ़िया-यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अपनी बातों में वह नमक-मिर्च नहीं लगा सकती; लेकिन मैं इसका आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इंदु ने हमारे और विलियम के बीच में द्वेष डालने के लिए यह स्वाँग रचा है।

जॉन सेवक ने भ्रम में पड़कर कहा-सोफी मेरी तरफ देख। क्या तू सच कह रही है?

सोफ़िया ने लाख यत्न किए कि पिता की ओर निश्शंक दृष्टि से देखे; किंतु ऑंखें आप-ही-आप झुक गईं। मनोवृत्तिा वाणी को दूषित कर सकती है; अंगों पर उसका जोर नहीं चलता। जिह्ना चाहे नि:शब्द हो जाए; पर ऑंखें बोलने लगती हैं। मिस्टर जॉन सेवक ने उसकी लज्जा-पीड़ित ऑंखें देखीं और क्षुब्धा होकर बोले-आखिर तुमने क्या समझकर ये काँटे बोए?

सोफ़िया-आप मेरे ऊपर घोर अन्याय कर रहे हैं। आपको विलियम ही से इसका स्पष्टीकरण कराना चाहिए। हाँ, इतना अवश्य कहूँगी कि सारे शहर में बदनाम होने की अपेक्षा मैं उस जमीन का आपके अधिाकार से निकल जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।

जॉन सेवक-अच्छा! तो तुमने मेरी नेकनामी के लिए यह चाल चली है? तुम्हारा बहुत अनुगृहीत हूँ। लेकिन यह विचार तुम्हें बहुत देर में हुआ। ईसाई-जाति यहाँ केवल अपने धार्म के कारण इतनी बदनाम है कि उससे ज्यादा बदनाम होना असम्भव है। जनता का वश चले, तो आज हमारे सारे गिरजाघर मिट्टी के ढेर हो जाएँ। ऍंगरेजों से लोगों को इतनी चिढ़ नहीं है। वे समझते हैं कि ऍंगरेजों का रहन-सहन और आचार-व्यवहार स्वजातीय है-उनके देश और जाति के अनुकूल है। लेकिन जब कोई हिंदुस्तानी, चाहे वह किसी मत का हो, ऍंगरेजी आचरण करने लगता है, तो जनता उसे बिलकुल गया-गुजरा समझ लेती है, वह भलाई या बुराई के बंधानों से मुक्त हो जाता है; उससे किसी को सत्कार्य की आशा नहीं होती, उसके कुकर्मों पर किसी को आश्चर्य नहीं होता। मैं यह कभी न मानूँगा कि तुमने मेरी सम्मान-रक्षा के लिए यह प्रयास किया है। तुम्हारा उद्देश्य केवल मेरे व्यापारिक लक्ष्यों का सर्वनाश करना है। धाार्मिक विवेचनाओं ने तुम्हारी व्यावहारिक बुध्दि को डावाँडोल कर दिया है। तुम्हें इतनी समझ भी नहीं है कि त्याग और परोपकार केवल एक आदर्श है-कवियों के लिए, भक्तों के मनोरंजन के लिए, उपदेशकों की वाणी को अलंकृत करने के लिए। मसीह, बुध्द और मूसा के जन्म लेने का समय अब नहीं रहा, धान-ऐश्वर्य निंदित होने पर भी मानवीय इच्छाओं का स्वर्ग है और रहेगा। खुदा के लिए तुम मुझ पर आने धार्म-सिध्दांतों की परीक्षा मत करो, मैं तुमसे नीति और धार्म के पाठ नहीं पढ़ना चाहता। तुम समझती हो, खुदा ने न्याय, सत्य और दया का तुम्हीं को इजारेदार बना दिया है, और संसार में जितने धानीमानी पुरुष हैं, सब-के-सब अन्यायी, स्वेच्छाचारी और निर्दयी हैं, लेकिन ईश्वरीय विधाान की कायल होकर भी तुम्हारा विचार है कि संसार में असमता और विषमता का कारण केवल मनुष्य की स्वार्थपरायणता है, तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने धार्म-ग्रंथों का अनुशीलन ऑंखें बंद करके किया है, उनका आशय नहीं समझा। तुम्हारे इस दर्ुव्यवहार से मुझे जितना दु:ख हो रहा है, उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, और यद्यपि मैं कोई वली या फकीर नहीं हूँ; लेकिन याद रखना, कभी-न-कभी तुम्हें पितृद्रोह का खमियाजा उठाना पड़ेगा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »


अहित-कामना क्रोधा की पराकाष्ठा है। ‘इसका फल तुम ईश्वर से पाओगी’-वह वाक्य कृपाण और भाले से ज्यादा घातक होता है। जब हम समझते हैं कि किसी दुष्कर्म का दंड देने के लिए भौतिक शक्ति काफी नहीं है, तब हम आधयात्मिक दंड का विधाान करते हैं। उसने न्यून कोई दंड हमारे संतोष के लिए काफी नहीं होता।

जॉन सेवक ये कोसने सुनाकर उठ गए। किंतु सोफ़िया को इन दुर्वचनों से लेशमात्रा भी दु:ख न हुआ। उसने यह ऋण भी इंदु ही के खाते में दर्ज किया और उसकी प्रतिहिंसा ने और उग्र रूप धाारण किया, उसने निश्चय किया-इस प्रहसन को आज ही प्रकाशित करूँगी। अगर एडीटर ने न छापा, तो स्वयं पुस्तकाकार छपवाऊँगी और मुफ्त बाँटूँगी। ऐसी कालिख लग जाए कि फिर किसी को मुँह न दिखा सके।

ईश्वर सेवक ने जॉन सेवक की कठोर बातें सुनीं, तो बहुत नाराज हुए। मिसेज़ सेवक को भी यह व्यवहार बुरा लगा। ईश्वर सेवक ने कहा-न जाने तुम्हें अपने हानि-लाभ का ज्ञान कब होगा। बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है। तुम्हें इस अवसर पर इतने धौर्य और गम्भीरता से काम लेना था कि जितनी क्षति हो चुकी है, उसकी पूर्ति हो जाए। घर का एक कोना गिर पड़े, तो सारा घर गिरा देना बुध्दिमत्ताा नहीं है। जमीन गई तो ऐसी कोई तदबीर सोचो कि उस पर फिर तुम्हारा कब्जा हो। यह नहीं कि जमीन के साथ अपनी मान-मर्यादा भी खो बैठो। जाकर राजा साहब को मि. क्लार्क के फैसले की अपील करने पर तैयार करो और मि. क्लार्क से अपना मेल-जोल बनाए रखो। यह समझ लो कि उनसे तुम्हें कोई नुकसान ही नहीं पहुँचा। सोफी को बरहम करके तुम क्लार्क को अनायास अपना शत्राु बना रहे हो। हाकिमों तक पहुँच रहेगी, तो ऐसी कितनी ही जमीनें मिलेंगी। प्रभु मसीह, मुझे अपने दामन में छिपाओ और यह संकट टालो।

मिसेज़ सेवक-मैं तो इतनी मिन्नतों से उसे यहाँ लाई और तुम सारे किए-धारे पर पानी फेरे देते हो।

ईश्वर सेवक-प्रभु, मुझे आसमान की बादशाहत दे। अगर यही मान लिया जाए कि सोफी के इशारे से यह बात हुई, तो भी हमें उससे कोई शिकायत न होनी चाहिए, बल्कि मेरे दिल में तो उसका सम्मान और बढ़ गया है, उसे खुदा ने सच्ची रोशनी प्रदान की है, उसमें भक्ति और विश्वास की बरकत है। उसने जो कुछ किया है, उसकी प्रशंसा न करना न्याय का गला घोंटना है। प्रभु मसीह ने अपने को दीन-दु:खी प्राणियों पर बलिदान कर दिया। दुर्भाग्य से हममें उतनी श्रध्दा नहीं। हमें अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित होना चाहिए। सोफी के मनोभावों की उपेक्षा करना उचित नहीं। पापी पुरुष किसी साधाु को देखकर दिल में शरमाता है, उससे वैर नहीं ठानता।

जॉन सेवक-यह न भक्ति है और न धार्मानुराग, केवल दुराग्रह और द्वेष है।

ईश्वर सेवक ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपनी लकड़ी टेकते हुए सोफी के कमरे में आए और बोले-बेटी, मेरे आने से तुम्हारा कोई हरज तो नहीं हुआ?

सोफ़िया-नहीं-नहीं, आइए, बैठिए।

ईश्वर सेवक-ईसू, इस गुनाहगार को ईमान की रोशनी दे। अभी जॉन सेवक ने तुम्हें बहुत कुछ बुरा-भला कहा है, उन्हें क्षमा करो। बेटी,दुनिया में खुदा की जगह अपना पिता ही होता है, उसकी बातों का बुरा न मानना चाहिए। तुम्हारे ऊपर खुदा का हाथ है, खुदा की बरकत है। तुम्हारे पिता का सारा जीवन स्वार्थ-सेवा में गुजरा है और वह अभी तक उसका उपासक है। खुदा से दुआ करो कि उसके हृदय का अंधाकार ज्ञान की दिव्य ज्योति से दूर कर दे। जिन लोगों ने हमारे प्रभु मसीह को नाना प्रकार के कष्ट दिए थे, उनके विषय में प्रभु ने कहा था-खुदा,उन्हें मुआफ़ कर। वे नहीं जानते कि हम क्या करते हैं।

सोफी-मैं आपसे सच कहती हूँ, मुझे पापा की बातों का जरा भी मलाल नहीं है; लेकिन वह मुझ पर मिथ्या दोष लगाते हैं। इंदु की बातों के सामने मेरी बातों को कुछ समझते ही नहीं।

ईश्वर सेवक-बेटी, यह उनकी भूल है। मगर तुम अपने दिल से उन्हें क्षमा कर दो। सांसारिक प्राणियों की इतनी निंदा की गई है; पर न्याय से देखो, तो वे कितनी दया के पात्रा हैं। आखिर आदमी जो कुछ करता है, अपने बाल-बच्चों के लिए ही तो करता है-उन्हीं के सुख और शांति के लिए, उन्हीं को संसार की वक्र दृष्टि से बचाने के लिए वह निंदा, अपमान, सब कुछ सहर्ष सह लेता है, यहाँ तक कि अपनी आत्मा और धार्म को भी उन पर अर्पित कर देता है। ऐसी दशा में जब वह देखता है कि जिन लोगों के हित के लिए मैं अपना रक्त और पसीना एक कर रहा हूँ, वे ही मुझसे विरोधा कर रहे हैं, तो वह झुँझला जाता है। तब उसे सत्यासत्य का विवेक नहीं रहता। देखो, क्लार्क से भूलकर भी इन बातों का जिक्र न करना, नहीं तो आपस में मनोमालिन्य बढ़ेगा। वचन देती हो?

ईश्वर सेवक जब उठकर चले गए, तो प्रभु सेवक ने आकर पूछा-वह प्रहसन कहाँ भेजा?

सोफ़िया-अभी तो कहीं नहीं भेजा, क्या भेज ही दूँ?

प्रभु सेवक-जरूर-जरूर, मजा आ जाएगा, सारे शहर में धाूम मच जाएगी।

सोफ़िया-जरा दो-एक दिन देख लूँ।

प्रभु सेवक-शुभ कार्य में विलम्ब न होना चाहिए, आज ही भेजो, मैंने भी आज अपनी कथा समाप्त कर दी। सुनाऊँ?

सोफ़िया-हाँ-हाँ, पढ़ो।

प्रभु सेवक ने अपनी कविता सुनानी शुरू की। एक-एक शब्द करुण रस में सराबोर था। कथा इतनी दर्दनाक थी कि सोफी की ऑंखों से ऑंसू की झड़ी लग गई। प्रभु सेवक भी रो रहे थे। क्षमा और प्रेम के भाव एक-एक शब्द से उसी भाँति टपक रहे थे, जैसे ऑंखों से ऑंसू की बूँदें। कविता समाप्त हो गई, तो सोफी ने कहा-मैंने कभी, अनुमान भी न किया था कि तुम इस रस का आस्वादन इतनी कुशलता से करा सकते हो! जी चाहता है, तुम्हारी कलम चूम लूँ। उफ! कितनी अलौकिक क्षमा है! बुरा न मानना, तुम्हारी रचना तुमसे कहीं ऊँची है। ऐसे पवित्रा, कोमल और ओजस्वी भाव तुम्हारी कलम से कैसे निकल आते हैं?

प्रभु सेवक-उसी तरह, जैसे इतने हास्योत्पादक और गर्वनाशक भाव तुम्हारी कलम से निकले। तुम्हारी रचना तुमसे कहीं नीची है।

सोफी-मैं क्या, और मेरी रचना क्या। तुम्हारा एक-एक छंद बलि जाने के योग्य है। वास्तव में क्षमा मानवीय भावों में सर्वोपरि है। दया का स्थान इतना ऊँचा नहीं। दया वह दाना है, जो पोली धारती पर उगता है। इसके प्रतिकूल क्षमा वह दाना है, जो काँटों में उगता है। दया वह धाारा है, जो समतल भूमि पर बहती है, क्षमा कंकड़ों और चट्टानों में बहनेवाली धाारा है। दया का मार्ग सीधाा और सरल है, क्षमा का मार्ग टेढ़ा और कठिन है। तुम्हारा एक-एक शब्द हृदय में चुभ जाता है। आश्चर्य है, तुममें क्षमा का लेश भी नहीं है!

प्रभु सेवक-सोफी, भावों के सामने आचरण का कोई महत्तव नहीं है। कवि का कर्मक्षेत्रा सीमित होता है, पर भावक्षेत्रा अनंत और अपार है। उसी प्राणी को तुच्छ मत समझो, जो त्याग और निवृत्तिा का राग अलापता हो, पर स्वयं कौड़ियों पर जान देता हो। सम्भव है, उसकी बाणी किसी महान् पापी के हृदय में जा पहुँचे।

सोफी-जिसके वचन और कर्म में इतना अंतर हो, उसे किसी और ही नाम से पुकारना चाहिए।

प्रभु सेवक-नहीं सोफी, यह बात नहीं है। कवि के भाव बतलाते हैं कि यदि उसे अवसर मिलता, तो वह क्या कुछ हो सकता था। अगर वह अपने भावों की उच्चता को न प्राप्त कर सका, तो इसका कारण केवल यह है कि परिस्थिति उसके अनुकूल न थी।

भोजन का समय आ गया। इसके बाद सोफी ने ईश्वर सेवक को बाइबिल सुनाना शुरू किया। आज की भाँति विनीत और शिष्ट वह कभी न हुई थी। ईश्वर सेवक की ज्ञान-पिपासा उसकी चेतना को दबा बैठी थी। निद्रावस्था ही उनकी आंतरिक जागृति थी। कुरसी पर लेटे हुए वह खर्राटे ले-लेकर देव-ग्रंथ का श्रवण करते थे। पर आश्चर्य यह था कि पढ़नेवाला उन्हें निद्रा-मग्न समझकर ज्यों ही चुप हो जाता, वह तुरंत बोल उठते-हाँ-हाँ, पढ़ो, चुप क्यों हो, मैं सुन रहा हूँ।

सोफी को बाइबिल का पाठ करते-करते संधया हो गई, तो उसका गला छूटा। ईश्वर सेवक बाग में टहलने चले गए और प्रभु सेवक को सोफी से गपशप करने का मौका मिला।

सोफी-बड़े पापा एक बार पकड़ पाते हैं, तो फिर गला नहीं छोड़ते।

प्रभु सेवक-मुझसे बाइबिल पढ़ने को नहीं कहते। मुझसे तो क्षण-भर भी वहाँ न बैठा जाए। तुम न जाने कैसे बैठी पढ़ती रहती हो।

सोफी-क्या करूँ, उन पर दया आती है।

प्रभु सेवक-बना हुआ है। मतलब की बात पर कभी नहीं चूकता। यह सारी भक्ति केवल दिखाने की है।

सोफी-यह तुम्हारा अन्याय है। उनमें और चाहे कोई गुण न हो, पर प्रभु मसीह पर उनका दृढ़ विश्वास है। चलो, कहीं सैर करने चलते हो?

प्रभु सेवक-कहाँ चलोगी? चलो, यहीं हौज के किनारे बैठकर कुछ काव्य-चर्चा करें। मुझे तो इससे ज्यादा आनंद और किसी बात में नहीं मिलता।

सोफी-चलो, पाँड़ेपुर की तरफ चलें। कहीं सूरदास मिल गया, तो उसे यह खबर सुनाएँगे।

प्रभु सेवक-फूला न समाएगा, उछल पड़ेगा।

सोफी-जरा शह पा जाए, तो इस राजा को शहर से भगाकर ही छोड़े।

दोनों ने सड़क पर आकर एक ताँगा किराए पर किया और पाँड़ेपुर चले। सूर्यास्त हो चुका था। कचहरी के अमले बगल में बस्ते दबाए,भीरुता और स्वार्थ की मूर्ति बने चले आते थे। बँगलों में टेनिस हो रहा था। शहर के शोहदे दीन-दुनिया से बेखबर पानवालों की दूकानों पर जमा थे। बनियों की दूकानों पर मजदूरों की स्त्रिायाँ भोजन की सामग्रियाँ ले रही थीं। ताँगा बरना नदी के पुल पर पहुँचा था कि अकस्मात् आदमियों की एक भीड़ दिखाई दी। सूरदास खंजरी बजाकर गा रहा था। सोफी ने ताँगा रोक दिया और ताँगेवाले से कहा-जाकर उस अंधो को बुला ला।

एक क्षण में सूरदास लाठी टेकता हुआ आया और सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

सोफी-मुझे पहचानते हो सूरदास?

सूरदास-हाँ, भला हुजूर ही को न पहचानूँगा!

सोफी-तुमने तो हम लोगों को सारे शहर में खूब बदनाम किया।

सूरदास-फरियाद करने के सिवा मेरे पास और कौन बल था?

सोफी-फरियाद का क्या नतीजा निकला?

सूरदास-मेरी मनोकामना पूरी हो गई। हाकिमों ने मेरी जमीन मुझे दे दी। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई काम तन-मन से किया जाए,और उसका कुछ फल न निकले। तपस्या से तो भगवान् मिल जाते हैं। बड़े साहब के अरदली ने कल रात ही को मुझे यह हाल सुनाया। आज पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराना है। कल घर चला जाऊँगा।

प्रभु सेवक-मिस साहब ही ने बड़े साहब से कह-सुनकर तुम्हारी जमीन दिलवाई है। इनके पिता और राजा साहब दोनों ही इनसे नाराज हो गए हैं। इनकी तुम्हारे ऊपर बड़ी दया है।

सोफी-प्रभु, तुम बड़े पेट के हलके हो। यह कहने से क्या फायदा कि मिस साहब ने जमीन दिलवाई है? यह तो कोई बहुत बड़ा काम नहीं है।

सूरदास-साहब, यह तो मैं उसी दिन जान गया था, जब मिस साहब से पहले-पहल बातें हुई थीं। मुझे उसी दिन मालूम हो गया कि इनके चित्ता में दया और धारम है। इसका फल भगवान् इनको देंगे।

सोफी-सूरदास, यह मेरी सिफ़ारिश का फल नहीं, तुम्हारी तपस्या का फल है। राजा साहब को तुमने खूब छकाया। अब थोड़ी-सी कसर और है। ऐसा बदनाम कर दो कि शहर में किसी को मुँह न दिखा सकें, इस्तीफा देकर अपने इलाके की राह लें।

सूरदास-नहीं मिस साहब, यह खिलाड़ियों की नीति नहीं है। खिलाड़ी जीतकर हारनेवाले खिलाड़ी की हँसी नहीं उड़ाता, उससे गले मिलता है और हाथ जोड़कर कहता है-‘भैया, अगर हमने खेल में तुमसे कोई अनुचित बात कही हो, या कोई अनुचित व्योहार किया हो, तो हमें माफ़ करना।’ इस तरह दोनों खिलाड़ी हँसकर अलग होते हैं, खेल खतम होते ही दोनों मित्रा बन जाते हैं, उनमें कोई कपट नहीं रहता। मैं आज राजा साहब के पास गया था और उनके हाथ जोड़ आया। उन्होंने मुझे भोजन कराया। जब चलने लगा तो बोले, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है,कोई शंका मत करना।

सोफ़िया-ऐसे दिल के साफ तो नहीं हैं, मौका पाकर अवश्य दगा करेंगे, मैं तुमसे कहे देती हूँ।

सूरदास-नहीं मिस साहब, ऐसा मत कहिए। किसी पर संदेह करने से अपना चित्ता मलिन होता है। वह विद्वान् हैं, धार्मात्मा हैं, कभी दगा नहीं कर सकते। और जो दगा ही करेंगे, तो उन्हीं का धारम जाएगा; मुझे क्या, मैं फिर इसी तरह फरियाद करता रहूँगा। जिस भगवान् ने अबकी बार सुना है, वही भगवान् फिर सुनेंगे।

प्रभु सेवक-और जो कोई मुआमला खड़ा करके कैद करा दिया तो?

सूरदास-(हँसकर) इसका फल उन्हें भगवान् से मिलेगा। मेरा धारम तो यही है कि जब कोई मेरी चीज पर हाथ बढ़ाए, तो उसका हाथ पकड़ लूँ। वह लड़े, तो लड़ूँ, और उस चीज के लिए प्रान तक दे दूँ। चीज मेरे हाथ आएगी, इससे मुझे मतलब नहीं; मेरा काम तो लड़ना है, और वह भी धारम की लड़ाई लड़ना। अगर राजा साहब दगा भी करें, तो मैं उनसे दगा न करूँगा।

सोफ़िया-लेकिन मैं तो राजा साहब को इतने सस्ते न छोड़ँगी।

सूरदास-मिस साहब, आप विद्वान् होकर ऐसी बातें करती हैं, इसका मुझे अचरज है। आपके मुँह से ये बातें शोभा नहीं देतीं। नहीं, आप हँसी कर रही हैं। आपसे कभी ऐसा काम नहीं हो सकता।

इतने में किसी ने पुकारा-सूरदास, चलो ब्राह्मण लोग आ गए हैं।

सूरदास लाठी टेकता घाट की ओर चला। ताँगा भी चला।

प्रभु सेवक ने कहा-चलोगी मि. क्लार्क की तरफ़?

सोफ़िया ने कहा-नहीं, घर चलो।

रास्ते में कोई बातचीत नहीं हुई। सोफ़िया किसी विचार में मग्न थी। दोनों आदमी सिगरा पहुँचे, तो चिराग जल चुके थे। सोफी सीधो अपने कमरे में गई, मेज का ड्राअर खोला, प्रहसन का हस्त-लेख निकाला और टुकड़े-टुकड़े करके जमीन पर फेंक दिया।
सूरदास के आर्तनाद ने महेंद्रकुमार की ख्याति और प्रतिष्ठा को जड़ से हिला दिया। वह आकाश से बातें करनेवाला कीर्ति-भवन क्षण-भर में धाराशायी हो गया। नगर के लोग उनकी सेवाओं को भूल-से गए। उनके उद्योग से नगर का कितना उपकार हुआ था, इसकी किसी को याद ही न रही। नगर की नालियाँ और सड़कें, बगीचे और गलियाँ, उनके अविश्रांत प्रयत्नों की कितनी अनुगृहीत थीं! नगर की शिक्षा और स्वास्थ्य को उन्होंने किस हीनावस्था से उठाकर उन्नति के मार्ग पर लगाया था, इसकी ओर कोई धयान ही न देता था। देखते-देखते युगांतर हो गया। लोग उनके विषय में आलोचनाएँ करते हुए कहते-अब वह जमाना नहीं रहा, जब राजे-रईसों के नाम आदर से लिए जाते थे, जनता को स्वयं ही उनमें भक्ति होती थी। वे दिन बिदा हो गए। ऐश्वर्य-भक्ति प्राचीन काल की राज्य-भक्ति ही का एक अंश थी। राजा, जागीरदार, यहाँ तक कि अपने जमींदार पर प्रजा सिर कटा देती थी। यह सर्वमान्य नीति-सिध्दांत था कि राजा भोक्ता है, प्रजा भोग्य है। यही सृष्टि का नियम था,लेकिन आज राजा और प्रजा में भोक्ता और भोग्य का सम्बंधा नहीं है, अब सेवक और सेव्य का सम्बंधा है। अब अगर किसी राजा की इज्जत है, तो उसकी सेवा-प्रवृत्तिा के कारण, अन्यथा उसकी दशा दाँतों-तले दबी हुई जिह्ना की-सी है। प्रजा को भी उस पर विश्वास नहीं आता। जब जनता उसी का सम्मान करती है, उसी पर न्योछावर होती है, जिसने अपना सर्वस्व प्रजा पर अर्पित कर दिया हो, जो त्याग-धान का धानी हो। जब तक कोई सेवा-मार्ग पर चलना नहीं सीखता, जनता के दिलों में घर नहीं कर पर पाता।
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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