हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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इतने में भैरों की दूकान आ गई। ग्राहक उसकी राह देख रहे थे। वह अपनी दूकान में चला गया। तब प्रभु सेवक ने ताहिर अली से कहा-आप कहते हैं, सारा मुहल्ला मिलकर मुझे मारने आया था। मुझे इस पर विश्वास नहीं आता। जहाँ लोगों में इतना बैर-विरोध है, वहाँ इतना एका होना असम्भव है। दो आदमी मिले, दोनों एक-दूसरे के दुश्मन। अगर आपकी जगह कोई दूसरा होता, तो इस वैमनस्य से मनमाना फायदा उठाता। उन्हें आपस में लड़ाकर दूर से तमाशा देखता। मुझे तो इन आदमियों पर क्रोध के बदले दया आती है।

बजरंगी का घर मिला। तीसरा पहर हो गया था। वह भैसों की नाँद में पानी डाल रहा था। फिटन पर ताहिर अली के साथ प्रभु सेवक को बैठे देखा, तो समझ गया-मियाँजी अपने मालिक को लेकर रोब जमाने आए हैं। जानते हैं, इस तरह मैं दब जाऊँगा। साहब अमीर होंगे, अपने घर के होंगे। मुझे कायल कर दें तो अभी जो जुरमाना लगा दें, वह देने को तैयार हूँ; लेकिन जब मेरा कोई कसूर नहीं, कसूर सोलहों आने मियाँ ही का है, तो मैं क्यों दबूँ? न्याय से दबा लें, पद से दबा लें, लेकिन भबकी से दबनेवाले कोई और होंगे।

ताहिर अली ने इशारा किया, यही बजरंगी है। प्रभु सेवक ने बनावटी क्रोध धारण करके कहा-क्यों बे, कल के हंगामे में तू भी शरीक था?

बजरंगी-शरीक किसके साथ था? मैं अकेला था।

प्रभु सेवक-तेरे साथ सूरदास और मुहल्ले के और लोग न थे; झूठ बोलता है!

बजरंगी-झूठ नहीं बोलता, किसी का दबैल नहीं हूँ। मेरे साथ न सूरदास था और न मोहल्ले का कोई दूसरा आदमी। मैं अकेला था।

घीसू ने हाँक लगाई-पादड़ी! पादड़ी!

मिठुआ बोला-पादड़ी आया, पादड़ी आया!

दोनों अपने हमजोलियों को यह आनंद-समाचार सुनाने दौड़े, पादड़ी गाएगा, तसवीरें दिखाएगा, किताबें देगा, मिठाइयाँ और पैसे बाँटेगा। लड़कों ने सुना, तो वे भी इस लूट का माल बँटाने दौड़े। एक क्षण में वहाँ बीसों बालक जमा हो गए। शहर के दूरवर्ती मोहल्लों में अंगरेजी वस्त्रधाारी पुरुष पादड़ी का पर्याय है। नायकराम भंग पीकर बैठे थे, पादड़ी का नाम सुनते ही उठे, उनकी बेसुरी तानों में उन्हें विशेष आनंद मिलता था। ठाकुरदीन ने भी दूकान छोड़ दी, उन्हें पादड़ियों से धार्मिक वाद-विवाद करने की लत थी। अपना धर्मज्ञान प्रकट करने के ऐसे सुंदर अवसर पाकर न छोड़ते थे। दयागिरि भी आ पहुँचे, पर जब लोग पहुँचे तो भेद फिटन के पास खुला। प्रभु सेवक बजरंगी से कह रहे थे-तुम्हारी शामत न आए, नहीं तो साहब तुम्हें तबाह कर देंगे। किसी काम के न रहोगे। तुम्हारी इतनी मजाल!

बजरंगी इसका जवाब देना ही चाहता था कि नायकराम ने आगे बढ़कर कहा-उस पर आप क्यों बिगड़ते हैं, फौजदारी मैंने की है, जो कहना हो, मुझसे कहिए।

प्रभु सेवक ने विस्मित होकर पूछा-तुम्हारा क्या नाम है?

नायकराम को कुछ तो राजा महेंद्रकुमार के आश्वासन, कुछ विजया की तरंग और कुछ अपनी शक्ति के ज्ञान ने उच्छृंखल बना दिया था। लाठी सीधी करता हुआ बोला-लट्ठमार पाँड़े!

इस जवाब में हेकड़ी की जगह हास्य का आधिाक्य था। प्रभु सेवक का बनावटी क्रोध हवा हो गया। हँसकर बोले-तब तो यहाँ ठहरने में कुशल नहीं है, कहीं बिल खोदना चाहिए।

नायकराम अक्खड़ आदमी था। प्रभु सेवक के मनोभाव न समझ सका। भ्रम हुआ-यह मेरी हँसी उड़ा रहे हैं, मानो कह रहे हैं कि तुम्हारी बकवास से क्या होता है, हम जमीन लेंगे और जरूर लेंगे। तिनककर बोला-आप हँसते क्या हैं, क्या समझ रखा है कि अंधे की जमीन सहज ही में मिल जाएगी? इस धोखे में न रहिएगा।

प्रभु सेवक को अब क्रोध आया। पहले उन्होंने समझा था, नायकराम दिल्लगी कर रहा है। अब मालूम हुआ कि वह सचमुच लड़ने पर तैयार है। बोले-इस धोखे में नहीं हूँ, कठिनाइयों को खूब जानता हूँ। अब तक भरोसा था कि समझौते से सारी बातें तय हो जाएँगी, इसीलिए आया था। लेकिन तुम्हारी इच्छा कुछ और हो, तो वही सही। अब तक मैं तुम्हें निर्बल समझता था, और निर्बलों पर अपनी शक्ति का प्रयोग न करना चाहता था। पर आज जाना कि तुम हेकड़ हो, अपने बल का घमंड है। इसलिए अब हम तुम्हें भी अपने हाथ दिखाएँ, तो कोई अन्याय नहीं है।

इन शब्दों में नेकनीयती झलक रही थी। ठाकुरदीन ने कहा-हुजूर, पंडाजी की बातों का खियाल न करें। इनकी आदत ही ऐसी है, जो कुछ मुँह में आया, बक डालते हैं। हम लोग आपके ताबेदार हैं।

नायकराम-आप दूसरों के बल पर कूदते होंगे, यहाँ अपने हाथों के बल का भरोसा करते हैं। आप लोगों के दिल में जो अरमान हों, निकाल डालिए। फिर न कहना कि धोखे में वार किया। (धीरे से) एक ही हाथ में सारी किरस्तानी निकल जाएगी।

प्रभु सेवक-क्या कहा, जरा जोर से क्यों नहीं कहते?

नायकराम-(कुछ डरकर) कह तो रहा हूँ, जो अरमान हो, निकाल डालिए।

प्रभु सेवक-नहीं, तुमने कुछ और कहा है।

नायकराम-जो कुछ कहा है, वही फिर कह रहा हूँ। किसी का डर नहीं है।

प्रभु सेवक-तुमने गाली दी है।

यह कहते हुए प्रभु सेवक फिटन से नीचे उतर पड़े, नेत्रों से ज्वाला-सी निकलने लगी, नथुने फड़कने लगे, सारा शरीर थरथराने लगा,एड़ियाँ ऐसी उछल रही थीं मानो किसी उबलती हुई हाँड़ी का ढकना है। आकृति विकृत हो गई थी। उनके हाथ में केवल एक पतली-सी छड़ी थी। फिटन से उतरते ही वह झपटकर नायकराम के कल्ले पर पहुँच गए, उसके हाथ से लाठी छीनकर फेंक दी; और ताबड़तोड़ कई बेंत लगाए। नायकराम दोनों हाथों से वार रोकता पीछे हटता जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि वह अपने होश में नहीं है। वह यह जानता था कि भद्र पुरुष मार खाकर चाहे चुप रह जाएँ, गाली नहीं सह सकते। कुछ तो पश्चात्तााप, कुछ आघात की अविलम्बिता और कुछ परिणाम के भय ने उसे वार करने का अवकाश ही न दिया। इन अविरल प्रहारों से वह चौंधिया-सा गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रभु सेवक उसके जोड़ के न थे; किंतु उसमें वह सत्साहस, वह न्याय-पक्ष का विश्वास न था, जो संख्या और शस्त्रा तथा बल की परवा नहीं करता।

और लोग भी हतबुध्दि-से खड़े रहे; किसी ने बीच-बचाव तक न किया। बजरंगी नायकराम के पसीने की जगह खून बहानेवालों में था। दोनों साथ खेले और एक ही अखाड़े में लड़े थे। ठाकुरदीन और कुछ न कर सकता था, तो प्रभु सेवक के सामने खड़ा हो सकता था; किंतु दोनों-के-दोनों सुम-गुम-से ताकते रहे। यह सब कुछ पल मारने में हो गया। प्रभु सेवक अभी तक बेेंत चलाते ही जाते थे। जब छड़ी से कोई असर न होते देखा, तो ठोकर चलानी शुरू की। यह चोट कारगर हुई। दो-ही-तीन ठोकरें पड़ी थीं कि नायकराम जाँघ में चोट खाकर गिर पड़ा। उसके गिरते ही बजरंगी ने दौड़कर प्रभु सेवक को हटा दिया और बोला-बस साहब, बस, अब इसी में कुशल है कि आप चले जाइए, नहीं तो खून हो जाएगा।

प्रभु सेवक-हमको कोई चरकटा समझ लिया है बदमाश, खून पी जाऊँगा, गाली देता है!

बजरंगी-बस, अब बहुत न बढ़िए, यह उसी गाली का फल है कि आप यों खड़े हैं; नहीं तो अब तक न जाने क्या हो गया होता।

प्रभु सेवक क्रोधोन्माद से निकलकर विचार के क्षेत्र में पहुँच चुके थे। आकर फिटन पर बैठ गए और घोड़े को चाबुक मारा, घोड़ा हवा हो गया।

बजरंगी ने जाकर नायकराम को उठाया। घुटनों में बहुत चोट आई थी, खड़ा न हुआ जाता था। मालूम होता था, हड़डी टूट गई है। बजरंगी का कंधाा पकड़कर धीरे-धीरे लँगड़ाते हुए घर चले।

ठाकुरदीन ने कहा-नायकराम, भला या बुरा, भूल तुम्हारी थी। ये लोग गाली नहीं बर्दाश्त कर सकते।

नायकराम-अरे, तो मैंने गाली कब दी थी भाई, मैंने तो यही कहा था कि एक ही हाथ में किरस्तानी निकल जाएगी। बस, इसी पर बिगड़ गया।

जमुनी अपने द्वार पर खड़े-खड़े यह तमाशा देख रही थी। आकर बजरंगी को कोसने लगी-खड़े मुँह ताकते रहे, और वह लौंडा मार-पीटकर चला गया, सारी पहलवानी धारी रह गई।

बजरंगी-मैं तो जैसे घबरा गया।

जमुनी-चुप भी रहो। लाज नहीं आती। एक लौंडा आकर सबको पछाड़ गया। यह तुम लोगों के घमंड की सजा है।

ठाकुरदीन-बहुत सच कहती हो जमुनी, यह कौतुक देखकर यही कहना पड़ता है कि भगवान को हमारे गरूर की सजा देनी थी, नहीं तो क्या ऐसे-ऐसे जोधाा कठपुतलियों की भाँति खड़े रहते! भगवान् किसी का घमंड नहीं रखते।

नायकराम-यही बात होगी भाई, मैं अपने घमंड में किसी को कुछ न समझता था।

ये बातें करते हुए लोग नायकराम के घर आए। किसी ने आग बनाई, कोई हल्दी पीसने लगा। थोड़ी देर में मुहल्ले के और लोग आकर जमा हो गए। सबको आश्चर्य होता था कि नायकराम-जैसा फेकैत और लठैत कैसे मुँह की खा गया। कहाँ सैकड़ों के बीच से बेदाग निकल आता था, कहाँ एक लौंडे ने लथेड़ डाला। भगवान की मरजी है।

जगधार हल्दी का लेप करता हुआ बोला-यह सारी आग भैरों की लगाई हुई है। उसने रास्ते ही में साहब के कान भर दिए थे। मैंने तो देखा, उसकी जेब में पिस्तौल भी था।

नायकराम-पिस्तौल और बंदूक सब देखूँगा, अब तो लाग पड़ गई।

ठाकुरदीन-कोई अनुष्ठान करवा दिया जाए।

नायकराम-इसे बीच बाजार में फिटन रोककर मारूँगा, फिर कहीं मुँह दिखाने लायक न रहेगा। अब मन में यही ठन गई है।

सहसा भैरों आकर खड़ा हो गया। नायकराम ने ताना दिया-तुम्हें तो बड़ी खुशी हुई होगी भैरों!

भैरों-क्यों भैया?

नायकराम-मुझ पर मार न पड़ी है!

भैरों-क्या मैं तुम्हारा दुसमन हूँ भैया? मैंने तो अभी दूकान पर सुना। होस उड़ गए। साहब देखने में तो बहुत सीधा-सादा मालूम होता था। मुझसे हँस-हँसकर बातें कीं, यहाँ आकर न जाने कौन भूत उस पर सवार हो गया।

नायकराम-उसका भूत मैं उतार दूँगा, अच्छी तरह उतार दूँगा, जरा खड़ा तो होने दो। हाँ, जो कुछ राय हो, उसकी खबर वहाँ न होने पाए,नहीं तो चौकन्ना हो जाएगा।

बजरंगी-यहाँ हमारा ऐसा कौन बैरी बैठा हुआ है?

जगधार-यह न कहो, घर का भेदी लंका दाहे। कौन जाने, कोई आदमी साबासी लूटने के लिए, इनाम लेने के लिए, सुर्खरू बनने के लिए,वहाँ सारी बातें लगा आए!

भैरों-मुझी पर शक कर रहे हो न? तो मैं इतना नीच नहीं हूँ कि घर का भेद दूसरों में खोलता फिरूँ। इस तरह चार आदमी एक जगह रहते हैं, तो आपस में खटपट होती ही है; लेकिन इतना कमीना नहीं हूँ कि भभीखन की भाँति अपने भाई के घर में आग लगवा दूँ। क्या इतना नहीं जानता कि मरने-जीने में, बिपत-सम्पत में मुहल्ले के लोग ही काम आते हैं? कभी किसी के साथ विश्वासघात किया है? पंडाजी कह दें, कभी उनकी बात दुलखी है? उनकी आड़ न होती, तो पुलिस ने अब तक मुझे कब का लदवा दिया होता, नहीं तो रजिस्टर में नाम तक नहीं है।

नायकराम-भैरों, तुमने अवसर पड़ने पर कभी साथ नहीं छोड़ा, इतना तो मानना ही पड़ेगा।

भैरों-पंडाजी, तुम्हारा हुक्म हो, तो आग में कूद पड़ईँ।

इतने में सूरदास भी आ पहुँचा। सोचता आता था-आज कहाँ खाना बनाऊँगा, इसकी क्या चिंता है; बस, नीम के पेड़ के नीचे बाटियाँ लगाऊँगा। गरमी के तो दिन हैं, कौन पानी बरस रहा है। ज्यों ही बजरंगी के द्वार पर पहुँचा कि जमुनी ने आज का सारा वृत्तांत कह सुनाया। होश उड़ गए। उपले-ईंधान की सुधि न रही। सीधो नायकराम के यहाँ पहुँचा। बजरंगी ने कहा-आओ सूरे, बड़ी देर लगाई, क्या अभी चले आते हो? आज तो यहाँ बड़ा गोलमाल हो गया।

सूरदास-हाँ, जमुनी ने मुझसे कहा। मैं तो सुनते ही ठक रह गया।

बजरंगी-होनहार थी, और क्या। है तो लौंडा, पर हिम्मत का पक्का है। जब तक हम लोग हाँ-हाँ करें, तब तक फिटन पर से कूद ही तो पड़ा और लगा हाथ-पर-हाथ चलाने।

सूरदास-तुम लोगों ने पकड़ भी न लिया?

बजरंगी-सुनते तो हो, जब तक दौड़ें, तब तक तो उसने हाथ चला ही दिया।

सूरदास-बड़े आदमी गाली सुनकर आपे से बाहर हो जाते हैं।

जगधार-जब बीच बाजार में बेभाव की पड़ेंगी, तब रोएँगे। अभी तो फूले न समाते होंगे।

बजरंगी-जब चौक में निकले, तो गाड़ी रोककर जूतों से मारें।

सूरदास-अरे, अब जो हो गया, सो हो गया, उसकी आबरू बिगाड़ने से क्या मिलेगा?

नायकराम-तो क्या मैं यों ही छोड़ दूँगा! एक-एक बेंत के बदले अगर सौ-सौ जूते न लगाऊँ तो मेरा नाम नायकराम नहीं। यह चोट मेरे बदन पर नहीं, मेरे कलेजे पर लगी है। बड़ों-बड़ों का सिर नीचा कर चुका हूँ, इन्हें मिटाते क्या देर लगती है! (चुटकी बजाकर) इस तरह उड़ा दूँगा!

सूरदास-बैर बढ़ाने से कुछ फायदा न होगा। तुम्हारा तो कुछ न बिगड़ेगा, लेकिन मुहल्ले के सब आदमी बँधा जाएँगे।

नायकराम-कैसी पागलों की-सी बातें करते हो। मैं कोई धुनिया-चमार हूँ कि इतनी बेइज्जती कराके चुप हो जाऊँ? तुम लोग सूरदास को कायल क्यों नहीं करते जी? क्या चुप होके बैठ रहूँ? बोलो बजरंगी, तुम लोग भी डर रहे हो कि वह किरस्तान सारे मुहल्ले को पीसकर पी जाएगा?

बजरंगी-औरों की तो मैं नहीं कहता, लेकिन मेरा बस चले, तो उसके हाथ-पैर तोड़ दूँ, चाहे जेहल ही क्यों न काटना पड़े। यह तुम्हारी बेइज्ज्ती नहीं है, मुहल्ले भर के मुँह में कालिख लग गई है।

भैरों-तुमने मेरे मुँह से बात छीन ली। क्या कहूँ, उस वक्त मैं न था, नहीं तो हड़डी तोड़ डालता।

जगधार-पंडाजी, मुँह-देखी नहीं कहता, तुम चाहे दूसरों के कहने-सुनने में आ जाओ, लेकिन मैं बिना उसकी मरम्मत किए न मानूँगा।

इस पर कई आदमियों ने कहा-मुखिया की इज्जत गई, तो सबकी गई। वही तो किरस्तान हैं, जो गली-गली ईसा मसीह के गीत गाते फिरते हैं। डोमड़ा, चमार, जो गिरजा में जाकर खाना खा ले, वही किरस्तान हो जाता है। वही बाद को कोट-पतलून पहनकर साहब बन जाते हैं।

ठाकुरदीन-मेरी तो सलाह यही है कि कोई अनुष्ठान कर दिया जाए।

नायकराम-अब बताओ सूरे, तुम्हारी बात मानूँ या इतने आदमियों की? तुम्हें यह डर होगा कि कहीं मेरी जमीन पर ऑंच न आ जाए, तो इससे तुम निश्चिंत रहो। राजा साहब ने जो बात कह दी, उसे पत्थर की लकीर समझो। साहब सिर रगड़कर मर जाएँ, तो भी अब जमीन नहीं पा सकते।

सूरदास-जमीन की मुझे चिंता नहीं है। मरूँगा, तो सिर पर लाद थोड़े ही ले जाऊँगा। पर अंत में यह सारा पाप मेरे ही सिर पड़ेगा। मैं ही तो इस सारे तूफान की जड़ हूँ, मेरे ही कारन तो यह रगड़-झगड़ मची हुई है, नहीं तो साहब को तुमसे कौन दुसमनी थी।

नायकराम-यारो, सूरे को समझाओ।

जगधार-सूरे, सोचो, हम लोगों की कितनी बेआबरूई हुई है!

सूरदास-आबरू को बनाने-बिगाड़नेवाला आदमी नहीं है, भगवान् है। उन्हीं की निगाह में आबरू बनी रहनी चाहिए। आदमियों की निगाह में आबरू की परख कहाँ है। जब सूद खानेवाला बनिया, घूस लेनेवाला हाकिम और झूठ बोलनेवाला गवाह बेआबरू नहीं समझा जाता, लोग उसका आदर-मान करते हैं, तो यहाँ सच्ची आबरू की कदर करने वाला कोई है ही नहीं।

बजरंगी-तुमसे कुछ मतलब नहीं, हम लोग जो चाहेंगे, करेंगे।

सूरदास-अगर मेरी बात न मानोगे, तो मैं जाके साहब से सारा माजरा कह सुनाऊँगा।

नायकराम-अगर तुमने उधार पैर रखा, तो याद रखना, वहीं खोदकर गाड़ दूँगा। तुम्हें अंधा-अपाहिज समझकर तुम्हारी मुरौवत करता हूँ,नहीं तो तुम हो किस खेत की मूली! क्या तुम्हारे कहने से अपनी इज्जत गँवा दूँ, बाप-दादों के मुँह में कालिख लगवा दूँ! बड़े आए हो वहाँ से ज्ञानी बनके। तुम भीख माँगते हो, तुम्हें अपनी इज्जत की फिकिर न हो, यहाँ तो आज तक पीठ में धूल नहीं लगी।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। चुपके से उठा और मंदिर के चबूतरे पर जाकर लेट गया। मिठुआ प्रसाद के इंतजार में वहीं बैठा हुआ था। उसे पैसे निकालकर दिए कि सत्तू -गुड़ खा ले। मिठुआ खुश होकर बनिए की दूकान की ओर दौड़ा। बच्चों को सत्तू और चबेना रोटियों से अधिक प्रिय होता है।

सूरदास के चले जाने के बाद कुछ देर तक लोग सन्नाटे में बैठे रहे। उसके विरोध ने उन्हें संशय में डाल दिया था। उसकी स्पष्टवादिता से सब लोग डरते थे। यह भी मालूम था कि वह जो कुछ कहता है, उसे पूरा कर दिखाता है। इसलिए आवश्यक था कि पहले सूरदास से निबट लिया जाए। उसे कायल करना मुश्किल था। धमकी से भी कोई काम न निकल सकता था। नायकराम ने उस पर लगे हुए कलंक का समर्थन करके उसे परास्त करने का निश्चय किया। बोला-मालूम होता है, उन लोगों ने अंधे को फोड़ लिया है।

भैरों-मुझे भी यही संदेह होता है।

जगधार-सूरदास फूटनेवाला आदमी नहीं है।

बजरंगी-कभी नहीं।

ठाकुरदीन-ऐसा स्वभाव तो नहीं है, पर कौन जाने। किसी की नहीं चलाई जाती। मेरे ही घर चोरी हुई, तो क्या बाहर के चोर थे? पड़ोसियों की करतूत थी। पूरे एक हजार का माल उठ गया। और वहीं के लोग, जिन्होंने माल उड़ाया, अब तक मेरे मित्र बने हुए हैं। आदमी का मन छिन-भर में क्या से क्या हो जाता है!

नायकराम-शायद जमीन का मामला करने पर राजी हो गया हो; पर साहब ने इधार ऑंख उठाकर भी देखा, तो बँगले में आग लगा दूँगा। (मुस्कराकर) भैरों मेरी मदद करेंगे ही।

भैरों-पंडाजी, तुम लोग मेरे ऊपर सुभा करते हो, पर मैं जवानी की कसम खाता हूँ, जो उसके झोंपड़े के पास भी गया होऊँ। जगधार मेरे यहाँ आते-जाते हैं, इन्हीं से ईमान से पूछिए।

नायकराम-जो आदमी किसी की बहू-बेटी पर बुरी निगाह करे, उसके घर में आग लगाना बुरा नहीं। मुझे पहले तो विश्वास नहीं आता था;पर आज उसके मिजाज का रंग बदला हुआ है।

बजरंगी-पंडाजी, सूर को तुम आज 30 बरसों से देख रहे हो। ऐसी बात न कहो।

जगधार-सूरे में और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, यह बुराई नहीं है।

भैरों-मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमने हक-नाहक उस पर कलंक लगाया। सुभागी आज सबेरे आकर मेरे पैरों पर गिर पड़ी और तब से घर से बाहर नहीं निकली। सारे दिन अम्माँ की सेवा-टहल करती रही।

यहाँ तो ये बातें होती रहीं कि प्रभु सेवक का सत्कार क्योंकर किया जाएगा। उसी के कार्यक्रम का निश्चय होता रहा। उधार प्रभु सेवक घर चले, तो आज के कृत्य पर उन्हें वह संतोष न था, जो सत्कार्य का सबसे बड़ा इनाम है। इसमें संदेह नहीं कि उनकी आत्मा शांत थी।

कोई भला आदमी अपशब्दों को सहन नहीं कर सकता, और न करना ही चाहिए। अगर कोई गालियाँ खाकर चुप रहे, तो इसका अर्थ यही है कि वह पुरुषार्थहीन है, उसमें आत्माभिमान नहीं। गालियाँ खाकर भी जिसके खून में जोश न आए, वह जड़ है, पशु है, मृतक है।

प्रभु सेवक को खेद यह थी कि मैंने यह नौबत आने ही क्यों दी। मुझे उनसे मैत्री करनी चाहिए थी। उन लोगों को ताहिर अली के गले मिलाना चाहिए था; पर यह समय-सेवा किससे सीखूँ? उँह! ये चालें वह चले, जिसे फैलने की अभिलाषा हो, यहाँ तो सिमटकर रहना चाहते हैं। पापा सुनते ही झल्ला उठेंगे। सारा इलजाम मेरे सिर मढ़ेंगे। मैं बुध्दिहीन, विचारहीन, अनुभवहीन प्राणी हूँ। अवश्य हूँ। जिसे संसार में रहकर सांसारिकता का ज्ञान न हो, वह मंदबुध्दि है। पापा बिगड़ेंगे, मैं शांत भाव से उनका क्रोध सह लूँगा। अगर वह मुझसे निराश होकर यह कारखाना खोलने का विचार त्याग दें, तो मैं मुँह-माँगी मुराद पा जाऊँ।

किंतु प्रभु सेवक को कितना आश्चर्य हुआ, जब सारा वृत्तांत सुनकर भी जॉन सेवक के मुख पर क्रोध का कोई लक्षण न दिखाई दिया; यह मौन व्यंग्य और तिरस्कार से कहीं ज्यादा दुस्सह था। प्रभु सेवक चाहते थे कि पापा मेरी खूब तम्बीह करें, जिसमें मुझे अपनी सफाई देने का अवसर मिले, मैं सिध्द कर दूँ कि इस दुर्घटना का जिम्मेदार मैं नहीं हूँ। मेरी जगह कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके सिर भी यही विपत्ति पड़ती। उन्होंने दो-एक बार पिता के क्रोध को उकसाने की चेष्टा की; किंतु जॉन सेवक ने केवल एक बार उन्हें तीव्र दृष्टि से देखा, और उठकर चले गए। किसी कवि की यशेच्छा श्रोताओं के मौन पर इतनी मर्माहत न हुई होगी।

मिस्टर जॉन सेवक छलके हुए दूध पर ऑंसू न बहाते थे। प्रभु सेवक के कार्य की तीव्र आलोचना करना व्यर्थ था।वह जानते थे कि इसमें आत्मसम्मान कूट-कूटकर भरा हुआ है। उन्होंने स्वयं इस भाव का पोषण किया था। सोचने लगे-इस गुत्थी को कैसे सुलझाऊँ? नायकराम मुहल्ले का मुखिया है। सारा मुहल्ला इसके इशारों का गुलाम है। सूरदास तो केवल स्वर भरने के लिए है। और, नायकराम मुखिया ही नहीं,शहर का मशहूर गुंडा भी है। बड़ी कुशल हुई कि प्रभु सेवक वहाँ से जीता-जागता लौट आया। राजा साहब बड़ी मुश्किलों से सीधो हुए थे! नायकराम उनके पास जरूर फरियाद करेगा, अबकी हमारी ज्यादती साबित होगी। राजा साहब को पूँजीवालों से यों ही चिढ़ है, यह कथा सुनते ही जामे से बाहर हो जाएँगे। फिर किसी तरह उनका मुँह सीधा न होगा। सारी रात जॉन सेवक इसी उधोड़बुन में पड़े रहे। एकाएक उन्हें एक बात सूझी। चेहरे पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी। सम्भव है, यह चाल सीधी पड़ जाए, तो फिर बिगड़ा हुआ काम सँवर जाए। सुबह को हाजिरी खाने के बाद फिटन तैयार कराई और पाँड़ेपुर चल दिए।

नायकराम ने पैरों में पट्टियाँ बाँध ली थीं, शरीर में हल्दी की मालिश कराए हुए थे, एक डोली मँगवा रखी थी और राजा महेंद्रकुमार के पास जाने को तैयार थे। अभी मुहूर्त में दो-चार पल की कसर थी। बजरंगी और जगधार साथ जानेवाले थे। सहसा फिटन पहुँची, तो लोग चकित हो गए। एक क्षण में सारा मुहल्ला आकर जमा हो गया, आज क्या होगा?

जॉन सेवक नायकराम के पास जाकर बोले-आप ही का नाम नायकराम पाँड़े है न? मैं आपसे कल की बातों के लिए क्षमा माँगने आया हूँ। लड़के ने ज्यों ही मुझसे यह समाचार कहा, मैंने उसको खूब डाँटा, और रात ज्यादा न हो गई होती, तो मैं उसी वक्त आपके पास आया होता। लड़का कुमार्गी और मूर्ख है। कितना ही चाहता हूँ कि उसमें जरा आदमीयत आ जाए, पर ऐसी उलटी समझ है कि किसी बात पर धयान ही नहीं देता। विद्या पढ़ने के लिए विलायत भेजा, वहाँ से भी पास हो आया; पर सज्जनता न आई। उसकी नादानी का इससे बढ़कर और क्या सबूत होगा कि इतने आदमियों के बीच में वह आपसे बेअदबी कर बैठा। अगर कोई आदमी शेर पर पत्थर फेंके, तो उसकी वीरता नहीं, उसका अभिमान भी नहीं, उसकी बुध्दिहीनता है। ऐसा प्राणी दया के योग्य है; क्योंकि जल्द या देर में वह शेर के मुँह का ग्रास बन जाएगा। इस लौंडे की ठीक यही दशा है। आपने मुरौवत न की होती, क्षमा से न काम लिया होता, तो न जाने क्या हो जाता। जब आपने इतनी दया की है, तो दिल से मलाल भी निकाल डालिए।

नायकराम चारपाई पर लेट गए, मानो खड़े रहने में कष्ट हो रहा है, और बोले-साहब, दिल से मलाल तो न निकलेगा, चाहे जान निकल जाए। इसे हम लोगों की मुरौवत कहिए, चाहे उनकी तकदीर कहिए कि वह यहाँ से बेदाग चले गए; लेकिन मलाल तो दिल में बना हुआ है। वह तभी निकलेगा, जब या तो मैं न रहूँगा या वह न रहेंगे। रही भलमनसी, भगवान् ने चाहा तो जल्द ही सीख जाएँगे। बस, एक बार हमारे हाथ में फिर पड़ जाने दीजिए। हमने बड़े-बड़े को भलामानुस बना दिया, उनकी क्या हस्ती है।

जॉन सेवक-अगर आप इतनी आसानी से उसे भलमनसी सिखा सकें, तो कहिए आप ही के पास भेज दूँ; मैं तो सब कुछ करके हार गया।

नायकराम-बोलो भाई बजरंगी, साहब की बातों का जवाब दो, मुझसे तो बोला नहीं जाता, रात कराह-कराहकर काटी है। साहब कहते हैं, माफ कर दो, दिल में मलाल न रखो। मैं तो यह सब व्यवहार नहीं जानता। यहाँ तो ईंट का जवाब पत्थर से देना सीखा है।

बजरंगी-साहब लोगों का यही दस्तूर है। पहले तो मारते हैं, और जब देखते हैं कि अब हमारे ऊपर भी मार पड़ा चाहती है, तो चट कहते हैं,माफ कर दो; यह नहीं सोचते कि जिसने मार खाई है, उसे बिन मारे कैसे तस्कीन होगी।

जॉन सेवक-तुम्हारा यह कहना ठीक है, लेकिन यह समझ लो कि क्षमा बदले के भय से नहीं माँगी जाती। भय से आदमी छिप जाता है,दूसरों की मदद माँगने दौड़ता है, क्षमा नहीं माँगता। क्षमा आदमी उसी वक्त माँगता है, जब उसे अपने अन्याय और बुराई का विश्वास हो जाता है, और जब उसकी आत्मा उसे लज्जित करने लगती है। प्रभु सेवक से तुम माफी माँगने को कहो, तो कभी न राजी होगा। तुम उसकी गरदन पर तलवार चलाकर भी उसके मुँह से क्षमा-याचना का एक शब्द नहीं निकलवा सकते। अगर विश्वास न हो, तो इसकी परीक्षा कर लो, इसका कारण यही है कि वह समझता है, मैंने कोई ज्यादती नहीं की। वह कहता है, मुझे उन लोगों ने गालियाँ दीं। लेकिन मैं इसे किसी तरह नहीं मान सकता कि आपने उसे गालियाँ दी होंगी। शरीफ आदमी न गालियाँ देता है, न गालियाँ सुनता है। मैं जो क्षमा माँग रहा हूँ, वह इसलिए कि मुझे यहाँ सरासर उसकी ज्यादती मालूम होती है। मैं उसके दुर्वव्य।वहार पर लज्जित हूँ, और मुझे इसका दु:ख है कि मैंने उसे यहाँ क्यों आने दिया। सच पूछिए, तो अब मुझे यही पछतावा हो रहा है कि मैंने इस जमीन को लेने की बात ही क्यों उठाई। आप लोगों ने मेरे गुमाश्ते को मारा, मैंने पुलिस में रपट तक न की। मैंने निश्चय कर लिया कि अब इस जमीन का नाम न लूँगा। मैं आप लोगों को कष्ट नहीं देना चाहता, आपको उजाड़कर अपना घर नहीं बनाना चाहता। अगर तुम लोग खुशी से दोगे तो लूँगा, नहीं तो छोड़ दूँगा। किसी का दिल दु:खाना सबसे बड़ा अधर्म कहा गया है। जब तक आप लोग मुझे क्षमा न करेंगे, मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।

उद्दंडता सरलता का केवल उग्र रूप है। साहब के मधुर वाक्यों ने नायकराम का क्रोध शांत कर दिया। कोई दूसरा आदमी इतनी ही आसानी से उसे साहब की गरदन पर तलवार चलाने के लिए उत्तोजित कर सकता था; सम्भव था, प्रभु सेवक को देखकर उसके सिर पर खून सवार हो जाता; पर इस समय साहब की बातों ने उसे मंत्रमुग्धा-सा कर दिया। बोला-कहो बजरंगी, क्या कहते हो?

बजरंगी-कहना क्या है, जो अपने सामने मस्तक नवाते, उसके सामने मस्तक नवाना ही पड़ता है। साहब यह भी तो कहते हैं कि अब इस जमीन से कोई सरोकार न रखेंगे, तो हमारे और इनके बीच में झगड़ा ही क्या रहा?

जगधार-हाँ, झगड़े का मिट जाना ही अच्छा है। बैर-विरोध से किसी का भला नहीं होता।

भैंरों के-छोटे साहब को चाहिए कि आकर पंडाजी से खता माफ करावें। अब वह कोई बालक नहीं हैं कि आप उनकी ओर से सिपारिस करें। बालक होते, तो दूसरी बात थी, तब हम लोग आप ही को उलाहना देते। वह पढ़े-लिखे आदमी हैं, मूँछ-दाढ़ी निकल आई है। उन्हें खुद आकर पंडाजी से कहना-सुनना चाहिए।

नायकराम-हाँ, यह बात पक्की है। जब तक वह थूककर न चाटेंगे, मेरे दिल से मलाल न निकलेगा।

जॉन सेवक-तो तुम समझते हो कि दाढ़ी-मूँछ आ जाने से बुध्दि आ जाती है? क्या ऐसे आदमी नहीं देखे हैं, जिनके बाल पक गए हैं, दाँत टूट गए हैं, और अभी तक अक्ल नहीं आई? प्रभु सेवक अगर बुध्दू न होता, तो इतने आदमियों के बीच में और पंडाजी-जैसे पहलवान पर हाथ न उठाता। उसे तुम कितना ही दबाओ, पर मुआफी न माँगेगा। रही जमीन की बात, अगर तुम लोगों की मरजी है कि मैं इस मुआमले को दबा रहने दूँ, तो यही सही। पर शायद अभी तक तुम लोगों ने इस समस्या पर विचार नहीं किया, नहीं तो कभी विरोध न करते। बतलाइए पंडाजी, आपको क्या शंका है?

नायकराम-भैंरों के, इसका जवाब दो। अब तो साहब ने तुमको कायल कर दिया!

भैरों-कायल क्या कर दिया, साहब यही कहते हैं न कि छोटे साहब को अक्कल नहीं है; तो वह कुएँ में क्यों नहीं कूद पड़ते, अपने दाँतों से अपना हाथ क्यों नहीं काट लेते? ऐसे आदमियों को कोई कैसे पागल समझ ले?

जॉन सेवक-जो आदमी न समझे कि किस मौके पर कौन काम करना चाहिए, किस मौके पर कौन बात करनी चाहिए, वह पागल नहीं तो और क्या है?

नायकराम-साहब, उन्हें मैं पागल तो किसी तरह न मानूँगा। हाँ आपका मुँह देखके उनसे बैर न बढ़ाऊँगा। आपकी नम्रता ने मेरा सिर झुका दिया है। सच कहता हूँ, आपकी भलमनसी और शराफत ने मेरा गुस्सा ठंडा कर दिया, नहीं तो मेरे दिल में न जाने कितना गुबार भरा हुआ था। अगर आप थोड़ी देर और न आते, तो आज शाम तक छोटे साहब अस्पताल में होते। आज तक कभी मेरी पीठ में धूल नहीं लगी। जिंदगी में पहली बार मेरा इतना अपमान हुआ और पहली बार मैंने क्षमा करना भी सीखा। यह आपकी बुध्दि की बरकत है। मैं आपकी खोपड़ी को मान गया। अब साहब की दूसरी बात का जवाब दो बजरंगी।

बजरंगी-उसमें अब काहे का सवाल-जवाब। साहब ने तो कह दिया कि मैं उसका नाम न लूँगा। बस, झगड़ा मिट गया।

जॉन सेवक-लेकिन अगर उस जमीन के मेरे हाथ में आने से तुम्हारा सोलहों आने फायदा हो, तो भी तुम हमें न लेने दोगे?

बजरंगी-हमारा फायदा क्या होगा, हम तो मिट्टी में मिल जाएँगे।

जॉन सेवक-मैं तो दिखा दूँगा कि यह तुम्हारा भ्रम है। बतलाओ, तुम्हें क्या एतराज है?

बजरंगी-पंडाजी के हजारों यात्री आते हैं, वे इसी मैदान में ठहरते हैं। दस-दस, बीस-बीस दिन पड़े रहते हैं, वहीं खाना बनाते हैं, वहीं सोते भी हैं। सहर के धरमसालों में देहात के लोगों को आराम कहाँ? यह जमीन न रहे, तो कोई यात्री यहाँ झाँकने भी न आए।

जॉन सेवक-यात्रीयों के लिए, सड़क के किनारे, खपरैल के मकान बनवा दिए जाएँ, तो कैसा?

बजरंगी-इतने मकान कौन बनवाएगा?

जॉन सेवक-इसका मेरा जिम्मा। मैं वचन देता हूँ कि यहाँ धर्मशाला बनवा दूँगा।

बजरंगी-मेरी और मुहल्ले के आदमियों की गायें-भैंसे कहाँ चरेंगी?

जॉन सेवक-अहाते में घास चराने का तुम्हें अख्तियार रहेगा। फिर, अभी तुम्हें अपना सारा दूध लेकर शहर जाना पड़ता है। हलवाई तुमसे दूध लेकर मलाई, मक्खन, दही बनाता है, और तुमसे कहीं ज्यादा सुखी है। यह नफा उसे तुम्हारे ही दूध से तो होता है! तुम अभी यहाँ मलाई-मक्खन बनाओ, तो लेगा कौन? जब यहाँ कारखाना खुल जाएगा, तो हजारों आदमियों की बस्ती हो जाएगी, तुम दूध की मलाई बेचोगे, दूध अलग बिकेगा। इस तरह तुम्हें दोहरा नफा होगा। तुम्हारे उपले घर बैठे बिक जाएँगे। तुम्हें तो कारखाना खुलने से सब नफा-ही-नफा है।

नायकराम-आता है समझ में न बजरंगी?

बजरंगी-समझ में क्यों नहीं आता, लेकिन एक मैं दूध की मलाई बना लूँगा, और लोग भी तो हैं, दूध खाने के लिए जानवर पाले हुए हैं। उन्हें तो मुसकिल पड़ेगी।

ठाकुरदीन-मेरी ही एक गाय है। चोरों का बस चलता, तो इसे भी ले गए होते। दिन-भर वह चरती है। साँझ सबेरे दूध दुहकर छोड़ देता हूँ। धोले का भी चारा नहीं लेना पड़ता। तब तो आठ आने रोज का भूसा भी पूरा न पड़ेगा।

जॉन सेवक-तुम्हारी पान की दूकान है न? अभी तुम दस-बारह आने पैसे कमाते होगे। तब तुम्हारी बिक्री चौगुनी हो जाएगी। इधार की कमी उधार पूरी हो जाएगी। मजदूरों को पैसे की पकड़ नहीं होती; काम से जरा फुरसत मिली कि कोई पान पर गिरा; कोई सिगरेट पर दौड़ा। खोंचेवाले की खासी बिक्री होगी, और शराब-ताड़ी का पूछना ही क्या, चाहो तो पानी को शराब बनाकर बेचो। गाड़ीवालों की मजदूरी बढ़ जाएगी। यही मोहल्ला चौक की भाँति गुलजार हो जाएगा। तुम्हारे लड़के अभी शहर पढ़ने जाते हैं, तब यहीं मदरसा खुल जाएगा।

जगधार-क्या यहाँ मदरसा भी खुलेगा?

जॉन सेवक-हाँ, कारखाने के आदमियों के लड़के आखिर पढ़ने कहाँ जाएँगे? अंगरेजी भी पढ़ाई जाएगी।

जगधर-फीस कुछ कम ली जाएगी?

जॉन सेवक-फीस बिलकुल ही न ली जाएगी, कम-ज्यादा कैसी!

जगधार-तब तो बड़ा आराम हो जाएगा।

नायकराम-जिसका माल है, उसे क्या मलेगा?

जॉन सेवक-जो तुम लोग तय कर दो। मैं तुम्हीं को पंच मानता हूँ। बस, उसे राजी करना तुम्हारा काम है।

नायकराम-वह राजी ही है। आपने बात-की-बात में सबको राजी कर लिया, नहीं तो यहाँ लोग मन में न जाने क्या-क्या समझे बैठे थे। सच है, विद्या बड़ी चीज है।

भैरों-वहाँ ताड़ी की दूकान के लिए कुछ देना तो न पड़ेगा?

नायकराम-कोई और खड़ा हो गया, तो चढ़ा-ऊपरी होगी ही।

जॉन सेवक-नहीं, तुम्हारा हक सबसे बढ़कर समझा जाएगा।

नायकराम-तो फिर तुम्हारी चाँदी है भैरों!

जॉन सेवक-तो अब मैं चलूँ पंडाजी, अब आपके दिल में मलाल तो नहीं है?

नायकराम-अब कुछ कहलाइए न, आपका-सा भलामानुस आदमी कम देखा।

जॉन सेवक चले गए तो बजरंगी ने कहा-कहीं सूरे राजी न हुए, तो?

नायकराम-हम तो राजी करेंगे! चार हजार रुपये दिलाने चाहिए। अब इसी समझौते में कुशल है। जमीन रह नहीं सकती। यह आदमी इतना चतुर है कि इससे हम लोग पेस नहीं पा सकते। यों निकल जाएगी तो हमारे साथ यह सलूक कौन करेगा? सेंत में जस मिलता हो, तो छोड़ना न चाहिए।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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जॉन सेवक घर पहुँचे तो डिनर तैयार था। प्रभु सेवक ने पूछा-आप कहाँ गए थे? जॉन सेवक ने रूमाल से मुँह पोंछते हुए कहा-हरएक काम करने की तमीज चाहिए। कविता रच लेना दूसरी बात है, काम कर दिखाना दूसरी बात। तुम एक काम करने गए, मोहल्ले-भर से लड़ाई ठानकर चले आए। जिस समय मैं पहुँचा हूँ, सारे आदमी नायकराम के द्वार पर जमा थे। वह डोली में बैठकर शायद राजा महेंद्रसिंह के पास जाने को तैयार था। मुझे सबों ने यों देखा जैसे फाड़ जाएँगे। लेकिन मैंने कुछ इस तरह धैर्य और विनय से काम लिया, उन्हें दलीलों और चिकनी-चुपड़ी बातों में ऐसा ढर्रे पर लाया कि जब चला, तो सब मेरा गुणानुवाद कर रहे थे। जमीन का मुआमला भी तय हो गया। उसके मिलने में अब कोई बाधा नहीं है।

प्रभु सेवक-पहले तो सब उस जमीन के लिए मरने-मारने पर तैयार थे।

जॉन सेवक-और कुछ कसर थी, तो वह तुमने जाकर पूरी कर दी। लेकिन याद रखो, ऐसे विषयों में सदैव मार्मिक अवसर पर निगाह रखनी चाहिए। यही सफलता का मूल-मंत्र है। शिकारी जानता है, किस वक्त हिरन पर निशाना मारना चाहिए। वकील जानता है, अदालत पर कब उसकी युक्तियों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ सकता है। एक महीना नहीं, एक दिन पहले, मेरी बातों का इन आदमियों पर जरा भी असर न होता। कल तुम्हारी उद्दंडता ने वह अवसर प्रस्तुत कर दिया। मैं क्षमाप्रार्थी बनकर उनके सामने गया। मुझे दबकर, झुककर, दीनता से, नम्रता से अपनी समस्या को उनके सम्मुख उपस्थित करने का अवसर मिला। यदि उनकी ज्यादती होती, तो मेरी ओर से भी कड़ाई की जाती। उस दशा में दबना नीति और आचरण के विरुध्द होता। ज्यादती हमारी ओर से हुई, बस यही मेरी जीत थी।

ईश्वर सेवक बोले-ईश्वर, इस पापी को अपनी शरण में ले। बर्फ आजकल बहुत महँगी हो गई है, फिर समझ में नहीं आता, क्यों इतनी निर्दयता से खर्च की जाती है। सुराही का पानी काफी ठंडा होता है।

जॉन सेवक-पापा, क्षमा कीजिए, बिना बर्फ के प्यास ही नहीं बूझती।

ईश्वर सेवक-खुदा ने चाहा बेटा, तो उस जमीन का मुआमला तय हो जाएगा। आज तुमने बड़ी चतुरता से काम किया।

मिसेज़ सेवक-मुझे इन हिंदुस्तानियों पर विश्वास नहीं आता। दगाबाजी कोई इनसे सीख ले। अभी सब-के-सब हाँ-हाँ कह रहे हैं, मौका पड़ने पर सब निकल जाएँगे। महेंद्रसिंह ने नहीं धोखा दिया? यह जाति ही हमारी दुश्मन है। इनका वश चले, तो एक ईसाई भी मुल्क में न रहने पाए।

प्रभु सेवक-मामा, यह आपका अन्याय है? पहले हिंदुस्तानियों की ईसाइयों से कितना ही द्वेष रहा हो, किंतु अब हालत बदल गई है। हम खुद अंगरेजों की नकल करके उन्हें चिढ़ाते हैं। प्रत्येक अवसर पर अंगरेजों की सहायता से उन्हें दबाने की चेष्टा करते हैं। किंतु यह हमारी राजनीतिक भ्रांति है। हमारा उध्दार देशवासियों से भ्रातृभाव रखने में है, उन पर रोब जमाने में नहीं। आखिर हम भी तो इसी जननी की संतान हैं। यह असम्भव है कि गोरी जातियाँ केवल धर्म के नाते हमारे साथ भाईचारे का व्यवहार करें। अमेरिका के हबशी ईसाई हैं, लेकिन अमेरिका के गोरे उनके साथ कितना पाशविक और अत्याचारपूर्ण बर्ताव करते हैं! हमारी मुक्ति भारतवासियों के साथ है।

मिसेज़ सेवक-खुदा वह दिन न लाए कि हम इन विधार्मियों की दोस्ती को अपने उध्दार का साधान बनाएँ। हम शासनाधिकारियों के सहधार्मी हैं। हमारा धर्म, हमारी रीति-नीति, हमारा आहार-व्यवहार अंगरेजों के अनुकूल है। हम और वे एक कलिसिया में, एक परमात्मा के सामने, सिर झुकाते हैं। हम इस देश में शासक बनकर रहना चाहते हैं, शासित बनकर नहीं। तुम्हें शायद कुँवर भरतसिंह ने यह उपदेश दिया है। कुछ दिन और उनकी सोहबत रही, तो शायद तुम भी ईसू से विमुख हो जाओ।

प्रभु सेवक-मुझे तो ईसाइयों में जागृति के विशेष लक्षण नहीं दिखाई देते।

जॉन सेवक-प्रभु सेवक, तुमने बड़ा गहन विषय छेड़ दिया। मेरे विचार में हमारा कल्याण अंगरेजों के साथ मेल-जोल करने में है। अंगरेज इस समय भारतवासियों की संयुक्त शक्ति से चिंतित हो रहे हैं। हम अंगरेजों से मैत्री करके उन पर अपनी राजभक्ति का सिक्का जमा सकते हैं,और मनमाने स्वत्व प्राप्त कर सकते हैं। खेद यही है कि हमारी जाति ने अभी तक राजनीतिक क्षेत्र में पग ही नहीं रखा। यद्यपि देश में हम अन्य जातियों से शिक्षा में कहीं आगे बढ़े हुए हैं; पर अब तक राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है। हिंदुस्तानियों में मिलकर हम गुम हो जाएँगे, खो जाएँगे। उनसे पृथक् रहकर विशेष अधिकार और विशेष सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।

ये ही बातें हो रही थीं कि एक चपरासी ने आकर एक खत दिया। यह जिलाधीश मिस्टर क्लार्क का खत था। उनके यहाँ विलायत से कई मेहमान आए हुए थे। क्लार्क ने उनके सम्मान में एक डिनर दिया था, और मिसेज़ सेवक तथा मिस सोफ़िया सेवक को उसमें सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया था। साथ ही मिसेज़ सेवक से विशेष अनुरोध भी किया था कि सोफ़िया को एक सप्ताह के लिए अवश्य बुला लीजिए।

चपरासी के चले जाने के बाद मिसेज़ सेवक ने कहा-सोफी के लिए यह स्वर्ण-संयोग है।

जॉन सेवक-हाँ, है तो; पर वह आएगी कैसे?

मिसेज़ सेवक-उसके पास यह पत्र भेज दूँ?

जॉन सेवक-सोफी इसे खोलकर देखेगी भी नहीं। उसे जाकर लिवा क्यों न हीं लातीं?

मिसेज़ सेवक-वह तो आती ही नहीं।

जॉन सेवक-तुमने कभी बुलाया ही नहीं, आती क्योंकर?

मिसेज़ सेवक-वह आने के लिए कैसी शर्त लगाती है!

जॉन सेवक-अगर उसकी भलाई चाहती हो, तो अपनी शर्तों को तोड़ दो।

मिसेज़ सेवक-वह गिरजा न जाए, तो भी जबान न खोलूँ?

जॉन सेवक-हजारों ईसाई कभी गिरजा नहीं जाते, और अंगरेज तो बहुत कम आते हैं।

मिसेज़ सेवक-प्रभु मसीह की निंदा करे, तो भी चुप रहूँ?

जॉन सेवक-वह मसीह की निंदा नहीं करती, और न कर सकती है। जिसे ईश्वर ने जरा भी बुध्दि दी है, वह प्रभु मसीह का सच्चे दिल से सम्मान करेगा। हिंदू तक ईसू का नाम आदर के साथ लेते हैं। अगर सोफी मसीह को अपना मुक्तिदाता, ईश्वर का बेटा या ईश्वर नहीं समझती,तो उस पर जब्र क्यों किया जाए? कितने ही ईसाइयों को इस विषय में शंकाएँ हैं चाहे वे उन्हें भयवश प्रकट न करें। मेरे विचार में अगर कोई प्राणी अच्छे कर्म करता है और शुध्द विचार रखता है, तो वह उस मसीह के उस भक्त से कहीं श्रेष्ठ है, जो मसीह का नाम तो जपता है, पर नीयत का खराब है।

ईश्वर सेवक-या खुदा, इस खानदान पर अपना साया फैला। बेटा, ऐसी बातें जबान से न निकालो। मसीह का दास कभी सन्मार्ग से नहीं फिर सकता। उस पर प्रभु मसीह की दयादृष्टि रहती है।

जॉन सेवक-(स्त्री से) तुम कल सुबह चली जाओ, रानी से भेंट भी हो जाएगी और सोफी को भी लेती आओगी।

मिसेज़ सेवक-अब जाना ही पड़ेगा। जी तो न हीं चाहता; पर जाऊँगी। उसी की टेक रहे!

सूरदास संध्यास समय घर आया, और सब समाचार सुने, तो नायकराम से बोला-तुमने मेरी जमीन साहब को दे दी?

नायकराम-मैंने क्यों दी? मुझसे वास्ता?

सूरदास-मैं तो तुम्हीं को सब कुछ समझता था और तुम्हारे ही बल पर कूदता था, पर आज तुमने भी साथ छोड़ दिया। अच्छी बात है। मेरी भूल थी कि तुम्हारे बल पर फूला हुआ था। यह उसी की सजा है। अब न्याय के बल पर लड़ूँगा, भगवान ही का भरोसा करूँगा।

नायकराम-बजरंगी, जरा भैरों को बुला लो, इन्हें सब बातें समझा दें। मैं इनसे कहाँ तक मगज लगाऊँ।

बजरंगी-भैरों को क्यों बुला लँ, क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता। भैरों को इतना सिर चढ़ा दिया, इसी से तो उसे घमंड हो गया है।

यह कहकर बजरंगी ने जॉन सेवक की सारी आयोजनाएँ कुछ बढ़ा-घटाकर बयान कर दीं और बोला बताओ, जब कारखाने से सबका फायदा है, तो हम साहब से क्यों लड़ें?

सूरदास-तुम्हें विश्वास हो गया कि सबका फायदा होगा?

बजरंगी-हाँ, हो गया। मानने-लायक बात होती है, तो मानी ही जाती है।

सूरदास-कल तो तुम लोग जमीन के पीछे जान देने पर तैयार थे, मुझ पर संदेह कर रहे थे कि मैंने साहब से मेल कर लिया, आज साहब के एक ही चकमे में पानी हो गए?

बजरंगी-अब तक किसी ने ये सब बातें इतनी सफाई से न समझाई थीं। कारखाने से सारे मुहल्ले का, सारे शहर का फायदा है। मजूरों की मजूरी बढ़ेगी, दूकानदारों की बिक्री बढ़ेगी। तो अब हमें तो झगड़ा नहीं है। तुमको भी हम यही सलाह देते हैं कि अच्छे दाम मिल रहे हैं, जमीन दे डालो। यों न दोगे, तो जाबते से ले ली जाएगी। इससे क्या फायदा?

सूरदास-अधर्म और अविचार कितना बढ़ जाएगा, यह भी मालूम है?

बजरंगी-धान से तो अधर्म होता ही है, पर धान को कोई छोड़ नहीं देता।

सूरदास-तो अब तुम लोग मेरा साथ न दोगे? मत दो। जिधार न्याय है, उधार किसी की मदद की इतनी जरूरत भी नहीं है। मेरी चीज है,बाप-दादों की कमाई है, किसी दूसरे का उस पर कोई अखतियार नहीं है। अगर जमीन गई, तो उसके साथ मेरी जान भी जाएगी।

यह कहकर सूरदास उठ खड़ा हुआ और अपने झोंपड़े के द्वार पर आकर नीम के नीचे लेट रहा।


विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्धा दृष्टि से देखतीं। यद्यपि अपनी बदगुमानी को वह यथासाधय प्रकट न होने देतीं, पर सोफी को ऐसा खयाल होता कि मुझ पर अविश्वास किया जा रहा है। वह जब कभी बाग में सैर करने चली जाती या कहीं घूमने निकल जाती, तो लौटने पर उसे ऐसा मालूम होता कि मेरी किताबें उलट-पलट दी गई हैं। वह बदगुमानी उस वक्त और असह्य हो जाती, जब डाकिए के आने पर रानीजी स्वयं उसके हाथ से पत्र आदि लेतीं और बड़े धयान से देखतीं कि सोफ़िया का कोई पत्र तो नहीं है। कई बार सोफ़िया को अपने पत्रों के लिफाफे फटे हुए मिले। वह इस कूटनीति का रहस्य खूब समझती थी। यह रोक-थाम केवल इसलिए है कि मेरे और विनयसिंह के बीच में पत्र-व्यवहार न होने पाए। पहले रानीजी सोफ़िया से विनय और इंदु की चर्चा अकसर किया करतीं। अब भूलकर भी विनय का नाम न लेतीं। यह प्रेम की पहली परीक्षा थी।

किंतु आश्चर्य यह था कि सोफ़िया में अब वह आत्माभिमान न था। जो नाक पर मक्खी न बैठने देती थी, वह अब अत्यंत सहनशील हो गई थी। रानीजी से द्वेष करने के बदले वह उनकी संशय-निवृत्ति के लिए अवसर खोजा करती थी। उसे रानीजी का बर्ताव सर्वथा न्यायसंगत मालूम होता था। वह सोचती-इनकी परम अभिलाषा है कि विनय का जीवन आदर्श हो और मैं उनके आत्मसंयम में बाधक न बनूँ। मैं इन्हें कैसे समझाऊँ कि आपकी अभिलाषा को मेरे हाथों जरा-सा भी झोंका न लगेगा। मैं तो स्वयं अपना जीवन एक ऐसे उद्देश्य पर समर्पित कर चुकी हूँ, जिसके लिए वह काफी नहीं। मैं स्वयं किसी इच्छा को अपने उद्देश्य मार्ग का काँटा न बनाऊँगी। लेकिन उसे यह अवसर न मिलता था। जो बातें जबान पर नहीं आ सकतीं, उनके लिए कभी अवसर नहीं मिलता।

सोफी को बहुधा अपने मन की चंचलता पर खेद होता। वह मन को इधार से हटाने के लिए पुस्तकावलोकन में मग्न हो जाना चाहती;लेकिन जब पुस्तक सामने खुली रहती और मन कहीं और जा पहुँचता, तो वह झुँझलाकर पुस्तक बंद कर देती और सोचती-यह मेरी क्या दशा है! क्या माया यह कपट-रूप धारण करके मुझे सन्मार्ग से विचलित करना चाहती है? मैं जानकर क्यों अनजान बनी जाती हूँ? अब प्रतिज्ञा करती हूँ कि मैं इस काँटे को हृदय से निकाल डालूँगी।

लेकिन प्रेम-ग्रस्त प्राणियों की प्रतिज्ञा कायर की समर-लालसा है, जो द्वंद्वी की ललकार सुनते ही विलुप्त हो जाती है। सोफ़िया विनय को तो भूल जाना चाहती थी; पर इसके साथ ही शंकित रहती थी कि कहीं वह मुझे भूल न जाएँ। जब कई दिनों तक उनका कोई समाचार नहीं मिला,तो उसने समझा-मुझे भूल गए, जरूर भूल गए। मुझे उनका पता मालूम होता, तो कदाचित् रोज एक पत्र लिखती, दिन में कई-कई पत्र भेजती;पर उन्हें एक पत्र लिखने का भी अवकाश नहीं! वह मुझे भूल जाने का उद्योग कर रहे हैं। अच्छा ही है। वह एक क्रिश्चियन स्त्री से क्यों प्रेम करने लगे? उनके लिए क्या एक-से-एक परम सुंदरी, सुशिक्षिता, प्रेमपरायण राजकुमारियाँ नहीं हैं?

एक दिन इन भावनाओं ने उसे इतना व्याकुल किया कि वह रानी के कमरे में जाकर विनय के पत्रों को पढ़ने लगी और एक क्षण में जितने पत्र मिले, सब पढ़ डाले। देखूँ, मेरी ओर कोई संकेत है या नहीं; कोई वाक्य ऐसा है, जिसमंो से प्रेम की सुगंधा आए? किंतु ऐसा शब्द एक भी न मिला, जिससे वह खींच-तानकर भी कोई गुप्त आशय निकाल सकती। हाँ, उस पहाड़ी देश में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया था। युवावस्था को अतिशयोक्ति से प्रेम है। हम बाधााओं पर विजय पाकर नहीं, उनकी विशद व्याख्या करके अपना महत्व बढ़ाना चाहते हैं। अगर सामान्य ज्वर है, तो वह सन्निपात कहा जाता है। एक दिन पहाड़ों में चलना पड़ा, तो वह नित्य पहाड़ों से सिर टकराना कहा जाता है। विनयसिंह के पत्र ऐसी ही वीर-कथाओं से भरे हुए थे सोफ़िया यह हाल पढ़कर विकल हो गई। वह इतनी विपत्ति झेल रहे हैं, और मैं यहाँ आराम से पड़ी हूँ! वह इसी उद्वेग में अपने कमरे में आई और विनय को एक लम्बा पत्र लिखा,जिसका एक-एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ था। अंत में उसने बड़े प्रेम-विनीत शब्दों में प्रार्थना की कि मुझे अपने पास आने की आज्ञा दीजिए, मैं अब यहाँ नहीं रह सकती। उसकी शैली अज्ञात रूप से कवित्वमय हो गई। पत्र समाप्त करके वह उसी वक्त पास ही के लेटरबक्स में डाल आई।

पत्र डाल आने के बाद जब उसका उद्वेग शांत हुआ तो, उसे विचार आया कि मेरा रानीजी के कमरे में छिपकर जाना और पत्रों को पढ़ना किसी तरह उचित न था। वह सारे दिन इसी चिंता में पड़ी रही। बार-बार अपने को धिक्काररती ईश्वर! मैं कितनी अभागिनी हूँ! मैंने अपना जीवन सच्चे धर्म की जिज्ञासा पर अर्पण कर दिया था, बरसों से सत्य की मीमांसा में रत हूँ; पर वासना की पहली ही ठोकर में नीचे गिर पड़ी। मैं क्यों इतनी दुर्बल हो गई हूँ? क्या मेरा पवित्र उद्देश्य वासनाओं के भँवर में पड़कर डूब जाएगा? मेरी आदत इतनी बुरी हो जाएगी कि मैं किसी की वस्तुओं की चोरी करूँगी, इसकी मैंने कभी कल्पना भी न की थी। जिनका मुझ पर इतना विश्वास, इतना भरोसा, इतना प्रेम,इतना आदर है, उन्हीं के साथ मेरा यह विश्वासघात! अगर अभी यह दशा है, तो भगवान् ही जाने, आगे चलकर क्या दशा होगी। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि जीवन का अंत हो जाए! आह् वह पत्र, जो मैं अभी छोड़ आई हूँ, वापस मिल जाता, तो मैं फाड़ डालती।

वह इसी चिंता और ग्लानि में बैठी हुई थी कि रानीजी कमरे में आईं। सोफ़िया उठ खड़ी हुई और अपनी ऑंखें छिपाने के लिए जमीन की ओर ताकने लगी। किंतु ऑंसू पी जाना आसान नहीं है। रानी ने कठोर स्वर में पूछा-सोफी, क्यों रोती है?

जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात आप-ही-आप हमारे मुँह से निकल पड़ती है। सोफी हिचकती हुई बोली-जी, कुछ नहीं…मुझसे एक अपराध हो गया है, आपसे क्षमा माँगती हूँ।

रानी ने और भी तीव्र स्वर में पूछा-क्या बात है?

सोफी-आज जब आप सैर करने गई थीं, तो मैं आपके कमरे में चली गई थी।

रानी-क्या काम था?

सोफी लज्जा से आरक्त होकर बोली-मैंने आपकी कोई चीज नहीं छुई।

रानी-मैं तुम्हें इतना नीच नहीं समझती।

सोफी-एक पत्र देखना था।

रानी-विनयसिंह का?

सोफ़िया ने सिर झुका लिया। वह अपनी दृष्टि में स्वयं इतनी पतित हो गई थी कि जी चाहता था, जमीन फट जाती और मैं उसमें समा जाती। रानी ने तिरस्कार के भाव से कहा-सोफी, तुम मुझे कृतघ्न समझोगी, मगर मैंने तुम्हें अपने घर में रखकर बड़ी भूल की। ऐसी भूल मैंने कभी न की थी। मैं न जानती थी कि तुम आस्तीन का साँप बनोगी। इससे बहुत अच्छा होता कि विनय उसी दिन आग में जल गया होता। तब मुझे इतना दु:ख न होता। मैं तुम्हारे आचरण को पहले न समझी। मेरी ऑंखों पर परदा पड़ा था। तुम जानती हो, मैंने क्यों विनय को इतनी जल्द यहाँ से भगा दिया? तुम्हारे कारण, तुम्हारे प्रेमाघातों से बचाने के लिए लेकिन अब भी तुम भाग्य की भाँति उसका दामन नहीं छोड़तीं। आखिर तुम उससे क्या चाहती हो? तुम्हें मालूम है, तुमसे उसका विवाह नहीं हो सकता। अगर मैं हैसियत और कुल-मर्यादा का विचार न करूँ, तो भी तुम्हारे और हमारे बीच में धर्म की दीवार खड़ी है। इस प्रेम का फल इसके सिवा और क्या होगा कि तुम अपने साथ उसे भी ले डूबोगी और मेरी चिर संचित अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दोगी? मैं विनय को ऐसा मनुष्य बनाना चाहती हूँ, जिस पर समाज को गर्व हो, जिसके हृदय में अनुराग हो, साहस हो, धैर्य हो, जो संकटों के सामने मुँह न मोड़े, जो सेवा के हेतु सदैव सिर को हथेली पर लिए रहे,जिसमें विलासिता का लेश भी न हो, जो धर्म पर अपने को मिटा दे। मैं उसे सपूत बेटा, निश्छल मित्र और नि:स्वार्थ सेवक बनाना चाहती हूँ। मुझे उसके विवाह की लालसा नहीं, अपने पोतों को गोद में खेलाने की अभिलाषा नहीं। देश में आत्मसेवी पुरुषों और संतान-सेवी माताओं का अभाव नहीं है। धरती उनके बोझ से दबी जाती है। मैं अपने बेटे को सच्चा राजपूत बनाना चाहती हूँ। आज वह किसी की रक्षा के निमित्त अपने प्राण दे दे, तो मुझसे अधिक भाग्यवती माता संसार में न होगी। तुम मेरे इस स्वर्ण-स्वप्न को विच्छिन्न कर रही हो। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ सोफी, अगर तुम्हारे उपकार के बोझ से दबी न होती, तो तुम्हें इस दशा में विष देकर मार्ग से हटा देना अपना कर्तव्य समझती। मैं राजपूतनी हूँ, मरना भी जानती हूँ और मारना भी जानती हूँ। इसके पहले कि तुम्हें विनय से पत्र-व्यवहार करते देखूँ, मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगी। तुमसे भिक्षा माँगती हूँ, विनय को अपने प्रेम-पाश में फँसाने की चेष्टा न करो, नहीं तो इसका फल बुरा होगा। तुम्हें ईश्वर ने बुध्दि दी है,विवेक दिया है। विवेक से काम लो। मेरे कुल का सर्वनाश न करो।

सोफी ने रोते हुए कहा-मुझे आज्ञा दीजिए, आज चली जाऊँ।

रानी कुछ नर्म होकर बोलीं-मैं तुम्हें जाने को नहीं कहती। तुम मेरे सिर और ऑंखों पर रहो, (लज्जित होकर) मेरे मुँह से इस समय जो कटु शब्द निकले हैं, उनके लिए क्षमा करो। वृध्दावस्था बड़ी अविनयशील होती है। यह तुम्हारा घर है। शौक से रहो। विनय अब शायद फिर न आएगा। हाँ, वह शेर का सामना कर सकता है; पर मेरे क्रोध का सामना नहीं कर सकता। वह वन-वन की पत्तियाँ तोड़ेगा, पर घर न आएगा। अगर तुम्हें उससे प्रेम है, तो अपने को उसके हित के लिए बलिदान करने को तैयार हो जाओ। अब उसकी जीवन-रक्षा का केवल एक ही उपाय है। जानती हो, वह क्या है?

सोफी ने सिर हिलाकर कहा-नहीं।

रानी-जानना चाहती हो?

सोफी ने सिर हिलाकर कहा-हाँ।

रानी-आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो?

सोफी ने फिर सिर हिलाकर कहा-हाँ।

रानी-तो तुम किसी सुयोग्य पुरुष से विवाह कर लो। विनय को दिखा दो कि तुम उसे भूल गईं, तुम्हें उसकी चिंता नहीं है। यही नैराश्य उसको बचा सकता है। हो सकता है कि यह नैराश्य उसे जीवन से विरक्त कर दे, वह ज्ञान-लाभ का आश्रय ले, जो नैराश्य का एकमात्र शरणस्थल है, पर सम्भावना होने पर भी इस उपाय के सिवा दूसरा अवलम्ब नहीं है। स्वीकार करती हो?
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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सोफी रानी के पैरों पर गिर पड़ी और रोती हुई बोली-उनके हित के लिए…कर सकती हूँ।

रानी ने सोफी को उठाकर गले लगा लिया और करुण स्वर में बोलीं-मैं जानती हूँ, तुम उसके लिए सब कुछ कर सकती हो। ईश्वर तुम्हें इस प्रतिज्ञा को पूरा करने का बल प्रदान करें।

यह कहकर जाह्नवी वहाँ से चली गईं। सोफी एक कोच पर बैठ गई और दोनों हाथों से मुँह छिपाकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रोम-रोम ग्लानि से पीड़ित हो रहा था। उसे जाह्नवी पर क्रोध न था। उसे उन पर असीम श्रध्दा हो रही थी। कितना उच्च और पवित्र उद्देश्य है! वास्तव में मैं ही दूध की मक्खी हूँ, मुझको निकल जाना चाहिए। लेकिन रानी का अंतिम आदेश उसके लिए सबसे कड़घवा ग्रास था। वह योगिनी बन सकती थी; पर प्रेम को कलंकित करने की कल्पना ही से घृणा होती थी। उसकी दशा उस रोगी की-सी थी, जो किसी बाग में सैर करने जाए और फल तोड़ने के अपराध में पकड़ लिया जाए। विनय के त्याग ने उसे उनका भक्त बना दिया। भक्ति ने शीघ्र ही प्रेम का रूप धारण किया और वही प्रेम उसे बलात् नारकीय अंधकार की ओर खींचे लिए जाता था। अगर वह हाथ-पैर छुड़ाती है, तो भय है-वह इसके आगे कुछ न सोच सकी। विचार-शक्ति शिथिल हो गई। अंत में सारी चिंताएँ, सारी ग्लानि, सारा नैराश्य, सारी विडम्बना एक ठंडी साँस में विलीन हो गई।

शाम हो गई थी। सोफ़िया मन-मारे उदास बैठी बाग की तरफ टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो कोई विधवा पति-शोक में मग्न हो। सहसा प्रभु सेवक ने कमरे में प्रवेश किया।

सोफ़िया ने प्रभु सेवक से कोई बात नहीं की। चुपचाप अपनी जगह मूर्तिवत् बैठी रही। वह उस दशा को पहुँच गई थी, जब सहानुभूति से भी अरुचि हो जाती है। नैराश्य की अंतिम अवस्था विरक्ति होती है।

लेकिन प्रभु सेवक अपनी नई रचना सुनाने के लिए इतने उत्सुक हो रहे थे कि सोफी के चेहरे की ओर उनका धयान ही न गया। आते-ही-आते बोले-सोफी, देखो, मैंने आज रात को यह कविता लिखी है। जरा धयान देकर सुनना। मैंने अभी कुँवर साहब को सुनाई है। उन्हें बहुत आनंद आई।

यह कहकर प्रभु सेवक ने मधुर स्वर में अपनी कविता सुनानी शुरू की। कवि ने मृत्युलोक के एक दु:खी प्राणी के हृदय के भाव व्यक्त किए थे, जो तारागण को देखकर उठे। वह एक-एक चरण झूम-झूमकर पढ़ते थे और दो-दो, तीन-तीन बार दुहराते थे; किंतु सोफ़िया ने एक बार भी दाद न दी, मानो वह काव्य-रस-शून्य हो गई थी। जब पूरी कविता समाप्त हो गई, तो प्रभु सेवक ने पूछा-इसके विषय में तुम्हारा क्या विचार है?

सोफ़िया ने कहा-अच्छी तो है।

प्रभु सेवक-मेरी सूक्तियों पर तुमने धयान नहीं दिया। तारागण की आज तक किसी कवि ने देवात्माओं से उपमा नहीं दी है। मुझे तो विश्वास है कि इस कविता के प्रकाशित होते ही कवि-समाज में हलचल मच जाएगी।

सोफ़िया-मुझे तो याद आता है कि शेली और वर्ड्सवर्थ इस उपमा को पहले ही बाँध चुके हैं। यहाँ के कवियों ने भी कुछ ऐसा ही वर्णन किया है। कदाचित् ह्यूगो की एक कविता का शीर्षक भी यही है। सम्भव है, तुम्हारी कल्पना उन कवियों से लड़ गई हो।

प्रभु सेवक-मैंने काव्य-साहित्य तुमसे बहुत ज्यादा देखा है; पर मुझे कहीं यह उपमा नहीं दिखाई दी।

सोफ़िया-खैर, हो सकता है, मुझी को याद न होगा। कविता बुरी नहीं है।

प्रभु सेवक-अगर कोई दूसरा कवि यह चमत्कार दिखा दे, तो उसकी गुलामी करूँ।

सोफ़िया-तो मैं कहूँगी, तुम्हारी निगाह में अपनी स्वाधीनता का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है।

प्रभु सेवक-तो मैं भी यही कहूँगा कि कवित्व के रसास्वादन के लिए अभी तुम्हें बहुत अभ्यास करने की जरूरत है।

सोफ़िया-मुझे अपने जीवन में इससे अधिक महत्व के काम करने हैं। आजकल घर के क्या समाचार हैं?

प्रभु सेवक-वही पुरानी दशा चली आती है। मैं तो आजिज आ गया हूँ। पापा को अपने कारखाने की धुन लगी हुई है, और मुझे उस काम से घृणा है। पापा और मामा, दोनों हरदम भुनभुनाते रहते हैं। किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता। कहीं ठिकाना नहीं मिलता, नहीं तो इस माया के घोंसले में एक दिन भी न रहता। कहाँ जाऊँ, कुछ समझ में नहीं आता।

सोफ़िया-बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने गुणी और विद्वान् होकर भी तुम्हें अपने निर्वाह का कोई उपाय नहीं सूझता। क्या कल्पना के संसार में आत्मसम्मान का कोई स्थान नहीं है?

प्रभु सेवक-सोफी, मैं और सब कुछ कर सकता हूँ, पर गृह-चिंता का बोझ नहीं उठा सकता। मैं निर्द्वंद्व, निश्चिंत, निर्लिप्त रहना चाहता हूँ। एक सुरम्य उपवन में, किसी सघन वृक्ष के नीचे, पक्षियों का मधुर कलरव सुनता हुआ काव्य-चिंतन में मग्न पड़ा रहूँ, यही मेरे जीवन का आदर्श है।

सोफ़िया-तुम्हारी जिंदगी इसी भाँति स्वप्न देखने में गुजरेगी।

प्रभु सेवक-कुछ हो, चिंता से तो मुक्त हूँ, स्वच्छंद तो हूँ!

सोफ़िया-जहाँ आत्मा और सिध्दांतों की हत्या होती हो, वहाँ से स्वच्छंदता कोसों भागती है। मैं इसे स्वच्छंदता नहीं कहती, यह निर्लज्जता है। माता-पिता की निर्दयता कम पीड़ाजनक नहीं होती, बल्कि दूसरों का अत्याचार इतना असह्य नहीं होता, जितना माता-पिता का।

प्रभु सेवक-उँह, देखा जाएगा, सिर पर जो आ जाएगी, झेल लूँगा, मरने के पहले ही क्यों रोऊँ?

यह कहकर प्रभु सेवक ने पाँड़ेपुर की घटना बयान की और इतनी डींग मारी कि सोफी चिढ़कर बोली-रहने भी दो, एक गँवार को पीट लिया, तो कौन-सा बड़ा काम किया। अपनी कविताओं में तो अहिंसा के देवता बन जाते हो, वहाँ जरा-सी बात पर इतने जामे से बाहर हो गए!

प्रभु सेवक-गाली सह लेता?

सोफ़िया-जब तुम मारनेवाले को मारोगे, गाली देनेवाले को भी मारोगे, तो अहिंसा का निर्वाह कब करोगे? राह चलते तो किसी को कोई नहीं मारता। वास्तव में किसी युवक को उपदेश करने का अधिकार नहीं है, चाहे उसकी कवित्व-शक्ति कितनी ही विलक्षण हो। उपदेश करना सिध्द पुरुषों ही का काम है। यह नहीं कि जिसे जरा तुकबंदी आ गई, वह लगा शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने। जो बात दूसरों को सिखलाना चाहते हो, वह पहले स्वयं सीख लो।

प्रभु सेवक-ठीक यही बात विनय ने भी अपने पत्र में लिखी है। लो, याद आ गया। यह तुम्हारा पत्र है। मुझे याद ही न रही थी। यह प्रसंग न आ जाता, तो जेब में रखे ही लौट जाता।

यह कहकर प्रभु सेवक ने एक लिफाफा निकालकर सोफ़िया के हाथ में रख दिया। सोफ़िया ने पूछा-आजकल कहाँ हैं?

प्रभु सेवक-उदयपुर के पहाड़ी प्रांतों में घूम रहे हैं। मेरे नाम जो पत्र आया है, उसमें तो उन्होंने साफ लिखा है कि मैं इस सेवा कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझमें उतनी सहनशीलता नहीं, जितनी होनी चाहिए। युवावस्था अनुभव-लाभ का समय है। अवस्था प्रौढ़ हो जाने पर ही सार्वजनिक कार्यों में सम्मिलित होना चाहिए। किसी युवक को सेवा-कार्य करने को भेजना वैसा ही है, जैसे किसी बच्चे वैद्य को रोगियों के कष्टनिवारण के लिए भेजना।

प्रभु सेवक चले गए, तो सोफ़िया सोचने लगी-यह पत्र पढूँ या न पढ़ूँ? विनय इसे रानीजी से गुप्त रखना चाहते हैं, नहीं तो यहीं के पते से भेजते? मैंने अभी रानीजी को वचन दिया है, उनसे पत्र-व्यवहार न करूँगी। इस पत्र को खोलना उचित नहीं। रानीजी को दिखा दूँ। इससे उनके मन में मुझ पर जो संदेह है, वह दूर हो जाएगा। मगर न जाने क्या बातें लिखी हैं। सम्भव है, कोई ऐसी बात हो, जो रानी के क्रोध को और भी उत्तोजित कर दे। नहीं, इस पत्र को गुप्त ही रखना चाहिए। रानी को दिखाना मुनासिब नहीं।

उसने फिर सोचा-पढ़ने से क्या फायदा, न जाने मेरे चित्ता की क्या दशा हो। मुझे अब अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा। जब इस प्रेमांकुर को जड़ से उखाड़ना ही है, तो उसे क्यों सीचूँ? इस पत्र को रानी के हवाले कर देना ही उचित है।

सोफ़िया ने और ज्यादा सोच-विचार नहीं किया। शंका हुई, कहीं मैं विचलित न हो जाऊँ। चलनी में पानी नहीं ठहरता।

उसने उसी वक्त वह पत्र ले जाकर रानी को दे दिया। उन्होंने पूछा-किसका पत्र है? यह तो विनय की लिखावट जान पड़ती है। तुम्हारे नाम आया है न? तुमने लिफाफा खोला नहीं?

सोफ़िया-जी नहीं।

रानी ने प्रसन्न होकर कहा-मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ, पढ़ो। तुमने अपना वचन पालन किया, इससे मैं बहुत खुश हुई।

सोफ़िया-मुझे क्षमा कीजिए।

रानी-मैं खुशी से कहती हूँ, पढ़ो; देखो, क्या लिखते हैं?

सोफ़िया-जी नहीं।

रानी ने पत्र ज्यों-का-त्यों संदूक में बंद कर दिया। खुद भी नहीं पढ़ा। कारण, यह नीति-विरुध्द था। तब सोफ़िया से बोली-बेटी, अब मेरी तुमसे एक और याचना है। विनय को एक पत्र लिखो और उसमें स्पष्ट लिख दो, हमारा और तुम्हारा कल्याण इसमें है कि हममें केवल भाई और बहन का सम्बंध रहे। तुम्हारे पत्र से यह प्रकट होना चाहिए कि तुम उनके प्रेम की अपेक्षा उनके जातीय भावों की ज्यादा कद्र करती हो। तुम्हारा यह पत्र मेरे और उनके पिता के हजारों उपदेशों से अधिक प्रभावशाली होगा। मुझे विश्वास है, तुम्हारा पत्र पाते ही उनकी चेष्टाएँ बदल जाएँगी और वहर् कर्तव्ये-मार्ग पर सुदृढ़ हो जाएँगे। मैं इस कृपा के लिए जीवन-पर्यंत तुम्हारी आभारी रहँगी।

सोफी ने कातर स्वर में कहा-आपकी आज्ञा पालन करूँगी।

रानी-नहीं, केवल मेरी आज्ञा का पालन करना काफी नहीं है। अगर उससे यह भासित हुआ कि किसी की प्रेरणा से लिखा गया है, तो उसका असर जाता रहेगा।

सोफ़िया-आपको पत्र लिखकर दिखा दूँ?

रानी-नहीं, तुम्हीं भेज देना।

सोफ़िया जब वहाँ से आकर पत्र लिखने बैठी, तो उसे सूझता ही न था कि क्या लिखूँ। सोचने लगी-वह मुझे निर्मम समझेंगे; अगर लिख दूँ, मैंने तुम्हारा पत्र पढ़ा ही नहीं, तो उन्हें कितना दु:ख होगा! कैसे कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती?

वह मेज पर से उठ खड़ी हुई और निश्चय किया, कल लिखूँगी। एक किताब पढ़ने लगी। भोजन का समय हो गया। नौ बज गए। अभी वह मुँह-हाथ धोकर बैठी ही थी कि उसने रानी को द्वार से अंदर की ओर झाँकते देखा। समझी, किसी काम से जा रही होंगी, फिर किताब देखने लगी। पंद्रह मिनट भी न गुजरे थे कि रानी फिर दूसरी तरफ से लौटीं और कमरे में झाँका।

सोफी को उनका यों मँडलाना बहुत नागवार मालूम हुआ। उसने समझा-यह मुझे बिल्कुल काठ की पुतली बनाना चाहती हैं। बस, इनके इशारों पर नाचा करूँ। इतना तो नहीं हो सका कि जब मैंने बंद लिफाफा उनके हाथ में रख दिया, तो मुझे खत पढ़कर सुना देतीं। आखिर मैं लिखूँ क्या? नहीं मालूम, उन्होंने अपने खत में क्या लिखा है? सहसा उसे धयान आया कि कहीं मेरा पत्र उपदेश के रूप में न हो जाए। वह इसे पढ़कर शायद मुझसे चिढ़ जाएँ। अपने प्रेमियों से हम उपदेश और शिक्षा की बातें नहीं, प्रेम और परितोष की बातें सुनना चाहते हैं। बड़ी कुशल हुई, नहीं तो वह मेरा उपदेश-पत्र पढ़कर न जाने दिल में क्या समझते। उन्हें खयाल होता, गिरजा में उपदेश सुनते-सुनते इसकी प्रेम-भावनाएँ निर्जीव हो गई हैं। अगर वह मुझे ऐसा पत्र लिखते, तो मुझे कितना बुरा मालूम होता! आह! मैंने बड़ा धोखा खाया। पहले मैंने समझा था, उनसे केवल आधयात्मिक प्रेम करूँगी। अब विदित हो रहा है कि आधयात्मिक प्रेम या भक्ति केवल धर्म-जगत् ही की वस्तु है। स्त्री -पुरुष में पवित्र प्रेम होना असम्भव है। प्रेम पहले उँगली पकड़कर तुरंत ही पहुँचा पकड़ता है। यह भी जानती हूँ कि यह प्रेम मुझे ज्ञान के ऊँचे आदर्श से गिरा रहा है। हमें जीवन इसलिए प्रदान किया गया है कि सद्विचारों और सत्कार्यों से उसे उन्नत करें और एक दिन अनंत ज्योति में विलीन हो जाएँ। यह भी जानती हूँ कि जीवन नश्वर है, अनित्य है और संसार के सुख अनित्य और नश्वर हैं। यह सब जानते हुए भी पतंग की भाँति दीपक पर गिर रही हूँ। इसीलिए तो कि प्रेम में वह विस्मृति है, जो संयम, ज्ञान और धारणा पर परदा डाल देती है। भक्तजन भी,आधयात्मिक आनंद भोगते रहते हैं, वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। जिसे कोई बलात् खींचे लिए जाता हो, उससे कहना कि तू मत जा,कितना बड़ा अन्याय है!

पीड़ित प्राणियों के लिए रात एक कठिन तपस्या है। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, सोफी की उद्विग्नता बढ़ती जाती थी। आधी रात तक मनोभावों से निरंतर संग्राम करने के बाद अंत को उसने विवश होकर हृदय के द्वार प्रेम-क्रीड़ाओं के लिए उन्मुक्त कर दिए, जैसे किसी रंगशाला का व्यवस्थापक दर्शकों की रेल-पेल से तंग आकर शाला का पट सर्वसाधारण के लिए खोल देता है। बाहर का शोर भीतर के मधुर -स्वर-प्रवाह में बाधक होता है। सोफी ने अपने को प्रेम-कल्पनाओं की गोद में डाल दिया। अबाध रूप से उनका आनंद उठाने लगी:

‘क्यों विनय, तुम मेरे लिए क्या-क्या मुसीबतें झेलोगे? अपमान, अनादर, द्वेष, माता-पिता का विरोध, तुम मेरे लिए यह सब विपत्ति सह लोगे? लेकिन धर्म? वह देखो, तुम्हारा मुख उदास हो गया। तुम सब कुछ करोगे; पर धर्म नहीं छोड़ सकते। मेरी भी यही दशा है। मैं तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ, तिरस्कार, अपमान, निंदा, सब कुछ भोग सकती हूँ, पर धर्म को कैसे त्याग दूँ? ईसा का दामन कैसे छोड़ दूँ?ईसाइयत की मुझे परवा नहीं, वह केवल स्वार्थों का संघटन है; लेकिन उस पवित्र आत्मा से क्योंकर मुँह मोड़ूँ, जो क्षमा और दया का अवतार थी? क्या यह सम्भव नहीं कि मैं ईसा के दामन से लिपटी रहकर भी अपनी प्रेमाकांक्षाओं को तृप्त करूँ? हिंदू-धर्म की उदार छाया में किसके लिए शरण नहीं? आस्तिक भी हिंदू हैं, नास्तिक भी हिंदू हैं, तैंतीस करोड़ देवताओं को माननेवाला भी हिंदू है। जहाँ महावीर के भक्तों के लिए स्थान है, बुध्ददेव के भक्तों के लिए स्थान है, वहाँ क्या ईसू के भक्त के लिए स्थान नहीं है? तुमने मुझे अपने प्रेम का निमंत्रण दिया है, मैं उसे अस्वीकार क्यों करूँ? मैं भी तुम्हारे साथ सेवा-कार्य में रत हो जाऊँगी, तुम्हारे साथ वनों में विचरूँगी, झोंपड़ी में रहूँगी।’

आह, मुझसे बड़ी भूल हुई। मैंने नाहक वह पत्र रानीजी को दे दिया। मेरा पत्र था, मुझे उसके पढ़ने का पूरा अधिकार था। मेरे और उनके बीच प्रेम का नाता है, जो संसार के और सभी सम्बंधों से पवित्र और श्रेष्ठ है। मैं इस विषय में अपने अधिकार को त्यागकर विनय के साथ अन्याय कर रही हूँ। नहीं, मैं उनसे दगा कर रही हूँ। मैं प्रेम को कलंकित कर रही हूँ। उनके मनोभावों का उपहास कर रही हूँ। यदि वह मेरा पत्र बिना पढ़े ही फाड़कर फेंक देते, तो मुझे इतना दु:ख होता कि उन्हें कभी क्षमा न करती। क्या करूँ? जाकर रानीजी से वह पत्र माँग लूँ?उसे देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हो सकती। मन में चाहे कितना ही बुरा मानें, पर मेरी अमानत मुझे अवश्य दे देंगी। वह मेरी मामा की भाँति अनुदार नहीं हैं। मगर मैं उनसे माँगू क्यों? वह मेरी चीज है, किसी अन्य प्राणी का उस पर कोई दावा नहीं। अपनी चीज ले लेने के लिए मैं किसी दूसरे का एहसान क्यों उठाऊँ?

ग्यारह बज रहे थे। भवन में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। नौकर-चाकर सब सो गए थे। सोफ़िया ने खिड़की से बाहर बाग की ओर देखा। ऐसा मालूम होता था कि आकाश से दूध की वर्षा हो रही है। चाँदनी खूब छिटकी हुई थी। संगमरमर की दोनों परियाँ, जो हौज के किनारे खड़ी थीं, उसे निस्स्वर संगीत की प्रकाशमयी प्रतिमाओं-सी प्रतीत होती थीं, जिससे सारी प्रकृति उल्लसित हो रही थी।

सोफ़िया के हृदय में प्रबल उत्कंठा हुई कि इसी क्षण चलकर अपना पत्र लाऊँ। वह दृढ़ संकल्प करके अपने कमरे से निकली और निर्भय होकर रानीजी के दीवानखाने की ओर चली। वह अपने हृदय को बार-बार समझा रही थी-मुझे भय किसका है, अपनी चीज लेने जा रही हूँ;कोई पूछे तो उससे साफ-साफ कह सकती हूँ। विनयसिंह का नाम लेना कोई पाप नहीं है।

किंतु निरंतर यह आश्वासन मिलने पर भी उसके कदम इतनी सावधानी से उठते थे कि बरामदे के पक्के फर्श पर भी कोई आहट न होती थी। उसकी मुखाकृति से वह अशांति झलक रही थी, जो आंतरिक दुश्चिंता का चिद्द है। वह सहमी हुई ऑंखों से दाहिने-बाएँ, आगे-पीछे ताकती जाती थी। जरा-सा भी कोई खटका होता, तो उसके पाँव स्वत: रुक जाते थे और वह बरामदे के खम्भों की आड़ में छिप जाती थी। रास्ते में कई कमरे थे। यद्यपि उनमें अंधोरा था, रोशनी गुल हो चुकी थी, तो भी वह दरवाजे पर एक क्षण के लिए रुक जाती थी, कि कोई उनमें बैठा न हो। सहसा एक टेरियन कुत्ता, जिसे रानीजी बहुत प्यार करती थीं, सामने से आता हुआ दिखाई दिया। सोफी के रोयें खड़ा हो गए। इसने जरा भी मुँह खोला, और सारे घर में हलचल हुई। कुत्तो ने उसकी ओर सशंक नेत्रों से देखा और अपने निर्णय की सूचना देना ही चाहता था कि सोफ़िया ने धीरे से उसका नाम लिया और उसे गोद में उठाकर उसकी पीठ सहलाने लगी। कुत्ता दुम हिलाने लगा, लेकिन अपनी राह जाने के बदले वह सोफ़िया के साथ हो लिया। कदाचित् उसकी पशु-चेतना ताड़ रही थी कि कुछ दाल में काला जरूर है। इस प्रकार पाँच कमरों के बाद रानीजी का दीवानखाना मिला। उसके द्वार खुले हुए थे, लेकिन अंदर अंधोरा था। कमरे में बिजली के बटन लगे हुए थे। उँगलियों की एक अति सूक्ष्म गति से कमरे में प्रकाश हो सकता था। लेकिन इस समय बटन का दबाना बारूद के ढेर में दियासलाई से कम भयकारक न था। प्रकाशसे वह कभी इतनी भयभीत न हुई थी। मुश्किल तो यह थी कि प्रकाश के बगैर वह सफल-मनोरथ भी न हो सकती थी। यही अमृत भी था और विष भी। उसे क्रोध आ रहा था कि किवाड़ों में शीशे क्यों लगे हुए हैं? परदे हैं, वे भी इतने बारीक कि आदमी का मुँह दिखाई देता है। घर न हुआ, कोई सजी हुई दूकान हुई। बिल्कुल अंगरेजी नकल है। और रोशनी ठंडी करने की जरूरत ही क्या थी? इससे तो कोई बहुत बड़ी किफायत नहीं हो जाती।

हम जब किसी तंग सड़क पर चलते हैं, तो हमें सवारियों का आना-जाना बहुत ही कष्टदायक जान पड़ता है। जी चाहता है कि इन रास्तों पर सवारियों के आने की रोक होनी चाहिए। हमारा अख्तियार होता, तो इन सड़कों पर कोई सवारी न आने देते, विशेषत: मोटरों को। लेकिन उन्हीं सड़कों पर जब हम किसी सवारी पर बैठकर निकलते हैं, तो पग-पग पर पथिकों को हटाने के लिए रुकने पर झुँझलाते हैं कि ये सब पटरी पर क्यों नहीं चलते, ख्वामख्वाह बीच में धाँसे पड़ते हैं। कठिनाइयों में पड़कर परिस्थिति पर क्रुध्द होना मानव-स्वभाव है।

सोफ़िया कई मिनट तक बिजली के बटन के पास खड़ी रही। बटन दबाने की हिम्मत न पड़ती थी। सारे ऑंगन में प्रकाश फैल जाएगा,लोग चौंक पड़ेंगे। अंधोरे में सोता हुआ मनुष्य भी उजाला फैलते ही जाग पड़ता है। विवश होकर उसने मेज को टटोलना शुरू किया। दावात लुढ़क गई, स्याही मेज पर फैल गई और उसके कपड़ों पर दाग पड़ गए। उसे विश्वास था कि रानी ने पत्र अपने हैंडबैग में रखा होगा। जरूरी चिट्ठियाँ उसी में रखती थीं। बड़ी मुश्किल से उसे बैग मिला। वह उसमें से एक-एक-पत्र निकालकर अंधोरे में देखने लगी। लिफाफे अधिकांश एक ही आकार के थे, निगाहें कुछ काम न कर सकीं। आखिर इस तरह मनोरथ पूरा न होते देखकर उसने हैंडबैग उठा लिया और कमरे से बाहर निकली। सोचा, मेरे कमरे में अभी तक रोशनी है, वहाँ वह पत्र सहज ही में मिल जाएगा। इसे लाकर फिर यहीं रख दूँगी। लेकिन लौटती बार वह इतनी सावधानी से पाँव न उठा सकी। आती बार वह पग-पग पर इधार-उधार देखती हुई आई थी। अब बड़े वेग से चली जा रही थी,इधार-उधार देखने की फुरसत न थी। खाली हाथ उज्र की गुंजाइश थी। रँगे हुए हाथों के लिए कोई उज्र, कोई बहाना नहीं है।

अपने कमरे में पहुँचते ही सोफ़िया ने द्वार बंद कर दिया और परदे डाल दिए। गरमी के मारे सारी देह पसीने से तर थी, हाथ इस तरह काँप रहे थे, मानो लकवा गिर गया हो। वह चिट्ठियों को निकाल-निकालकर देखने लगी। और पत्रों को केवल देखना ही न था, उन्हें अपनी जगह सावधानी से रखना भी था। पत्रों का एक दफ्तर सामने था, बरसों की चिट्ठियाँ वहाँ निर्वाण सुख भोग रही थीं। सोफ़िया को उनकी तलाशी लेते घंटों गुजर गए, दफ्तर समाप्त होने को आ गया; पर वह चीज न मिली। उसे अब कुछ-कुछ निराशा होने लगी; यहाँ तक कि अंतिम पत्र भी उलट-पलटकर रख दिया गया। तब सोफ़िया ने एक लम्बी साँस ली। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो किसी मेले में अपने खोए हुए बंधु को ढूँढ़ता हो; वह चारों ओर ऑंखें फाड़-फाड़कर देखता है, उसका नाम लेकर जोर-जोर से पुकारता है, उसे भ्रम होता है;वह खड़ा है, लपककर उसके पास जाता है और लज्जित होकर लौट आता है। अंत में वह निराश होकर जमीन पर बैठ जाता और रोने लगता है।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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सोफ़िया भी रोने लगी। वह पत्र कहाँ गया? रानी ने तो उसे मेरे सामने ही इसी बैग में रख दिया था? उनके और सभी पत्र यहाँ मौजूद हैं। क्या उसे कहीं और रख दिया? मगर आशा उस घास की भाँति है, जो ग्रीष्म के ताप से जल जाती है, भूमि पर उसका निशान तक नहीं रहता, धरती ऐसी उज्ज्वल हो जाती है, जैसे टकसाल का नया रुपया; लेकिन पावस की बूँद पड़ते ही फिर जली हुई जड़ें पनपने लगती हैं और उसी शुष्क स्थल पर हरियाली लहराने लगती है।

सोफ़िया की आशा फिर हरी हुई। कहीं मैं कोई पत्र छोड़ तो नहीं गई। उसने दुबारा पत्रों को पढ़ना शुरू किया और ज्यादा धयान देकर। एक-एक लिफाफे को खोलकर देखने लगी कि कहीं रानी ने उसे किसी दूसरे लिफाफे में रख दिया हो। जब देखा कि इस तरह तो सारी रात गुजर जाएगी, तो उन्हीं लिफाफों को खोलने लगी, जो भारी-भारी मालूम होते थे। अंत को यह शंका भी मिट गई। उस लिफाफे का कहीं पता न था। अब आशा की जड़ें भी सूख गईं, पावस की बूँद न मिली।

सोफ़िया चारपाई पर लेट गई, मानो थक गई हो। सफलता में अनंत सजीवता होती है, विफलता में असह्य अशक्ति। आशा मद है, निराशा मद का उतार। नशे में हम मैदान की तरफ दौड़ते हैं, सचेत होकर हम घर में विश्राम करते हैं। आशा जड़ की ओर ले जाती है, निराशा चैतन्य की ओर। आशा ऑंखें बंद कर देती है, निराशा ऑंखें खोल देती है। आशा सुलानेवाली थपकी है, निराशा जगानेवाला चाबुक।

सोफ़िया को इस वक्त अपनी नैतिक दुर्बलता पर क्रोध आ रहा था-मैंने व्यर्थ ही अपनी आत्मा के सिर पर यह अपराध मढ़ा। क्या मैं रानी से अपना पत्र न माँग सकती थी? उन्हें उसके देने में जरा भी विलम्ब न होता। फिर मैंने वह पत्र उन्हें दिया ही क्यों? रानीजी को कहीं मेरा यह कपट-व्यवहार मालूम हो गया; और अवश्य ही मालूम हो जाएगा, तो वह मुझे अपने मन में क्या समझेंगी? कदाचित् मुझसे नीच और निकृष्ट कोई प्राणी न होगा।

सहसा सोफ़िया के कानों में झाड़ू लगाने की आवाज आई। वह चौंकी, क्या सबेरा हो गया? परदा उठाकर द्वार खोला, तो दिन निकल आया था। उसकी ऑंखों में अंधोरा छा गया। उसने बड़ी कातर दृष्टि से हैंडबैग की ओर देखा और मूर्ति के समान खड़ी रह गई। बुध्दि शिथिल हो गई। अपनी दशा और अपने कृत्य पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि गरदन पर छुरी फेर लूँ। कौन-सा मुँह दिखाऊँगी? रानी बहुत तड़के उठती हैं, मुझे अवश्य ही देख लेंगी। किंतु अब और हो ही क्या सकता है? भगवन्! तुम दीनों के आधार-स्तम्भ हो, अब लाज तुम्हारे हाथ है। ईश्वर करे, अभी रानी न उठी हों। उसकी इस प्रार्थना में कितनी दीनता, कितनी विवशता, कितनी व्यथा, कितनी श्रध्दा और कितनी लज्जा थी! कदाचित् इतने शुध्द हृदय से उसने कभी प्रार्थना न की होगी!

अब एक क्षण भी विलम्ब करने का अवसर न था। उसने बैग उठा लिया और बाहर निकली। आत्म-गौरव कभी इतना पद-दलित न हुआ होगा। उसके मुँह में कालिख लगी होती है, तो शायद वह इस भाँति ऑंखें चुराती हुई न जाती! कोई भद्र पुरुष अपराधी के रूप में बेड़ियाँ पहने जाता हुआ भी इतना लज्जित न होगा! जब वह दीवानखाने के द्वार पर पहुँची, तो उसका हृदय यों धाड़कने लगा, मानो कोई हथौड़ा चला रहा हो। वह जरा देर ठिठकी, कमरे में झाँककर देखा, रानी बैठी हुई थीं। सोफ़िया की इस समय जो दशा हुई, उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। वह गड़ गई, कट गई, सिर पर बिजली गिर पड़ती, नीचे की भूमि फट जाती, तो भी कदाचित् वह इस महान् संकट के सामने उसे पुष्प-वर्षा या जल-विहार के समान सुखद प्रतीत होती। उसने जमीन की ओर ताकते हुए हैंडबैग चुपके से ले जाकर मेज पर रख दिया। रानी ने उसकी ओर उस दृष्टि से देखा, जो अंतस्तल पर शर के समान लगती है। उसमें अपमान भरा हुआ था; क्रोध न था, दया न थी, ज्वाला न थी,तिरस्कार था-विशुध्द, सजीव और सशब्द।

सोफ़िया लौटना ही चाहती थी कि रानी ने पूछा-विनय का पत्र ढूँढ़ रही थीं?

सोफ़िया अवाक् रह गई। मालूम हुआ, किसी ने कलेजे में बर्छी मार दी।

रानी ने फिर कहा-उसे मैंने अलग रख दिया है, मँगवा दूँ?

सोफ़िया ने उत्तर न दिया। उसके सिर में चक्कर-सा आने लगा। मालूम हुआ, कमरा घूम रहा है।

रानी ने तीसरा बाण चलाया-क्या यही सत्य की मीमांसा है?

सोफ़िया मूर्छित होकर फर्श पर गिर पड़ी।

सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ देता, तो शायद सिर न उठाती। वह वासना के हाथों में इतनी परास्त हो चुकी थी कि अब उसे अपने सँभलने की कोई आशा न दिखाई देती थी। उसे भय होता था कि मेरा मन मुझसे वह सब कुछ करा सकता है, जिसकी कल्पना-मात्रा से मनुष्य का सिर लज्जा से झुक जाता है। मैं दूसरों पर कितना हँसती थी, अपनी धार्मिक प्रवृत्ति पर कितना अभिमान करती थी, मैं पुनर्जन्म और मुक्ति, पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर विचार करती थी, और दूसरों को इच्छा तथा स्वार्थ का दास समझकर उनका अनादर करती थी। मैं समझती थी, परमात्मा के समीप पहुँच गई हूँ, संसार की उपेक्षा करके अपने को जीवनमुक्त समझ रही थी; पर आज मेरी सद्भक्ति का परदाफाश हो गया। आह! विनय को ये बातें मालूम होंगी, तो वह अपने मन में क्या समझेंगे? कदाचित् मैं उनकी निगाहों में इतनी गिर जाऊँगी कि वह मुझसे बोलना भी पसंद न करें। मैं अभागिनी हूँ, मैंने उन्हें बदनाम किया,अपने कुल को कलंकित किया, अपनी आत्मा की हत्या की, अपने आश्रयदाताओं की उदारता को कलुषित किया। मेरे कारण धर्म भी बदनाम हो गया, नहीं तो क्या आज मुझसे यह पूछा जाता-क्या यही सत्य की मीमांसा है?

उसने सिरहाने की ओर देखा। अलमारियों पर धर्म-ग्रंथ सजे हुए रखे थे। उन ग्रंथों की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। यही मेरे स्वाध्या।य का फल है! मैं सत्य की मीमांसा करने चली थी और इस बुरी तरह गिरी कि अब उठना कठिन है।

सामने दीवार पर बुध्द भगवान् का चित्र लटक रहा था। उनके मुख पर कितना तेज था! सोफ़िया की ऑंखें झुक गईं। उनकी ओर ताकते हुए उसे लज्जा आती थी। बुध्द के अमरत्व का उसे कभी इतना पूर्ण विश्वास न हुआ था। अंधकार में लकड़ी का कुंदा भी सजीव हो जाता है। सोफी के हृदय पर ऐसा ही अंधकार छाया हुआ था।

अभी नौ बजे का समय था, पर सोफ़िया को भ्रम हो रहा था कि संध्याध हो रही है। वह सोचती थी-क्या मैं सारे दिन सोती रह गई, किसी ने मुझे जगाया भी नहीं! कोई क्यों जगाने लगा? यहाँ अब मेरी परवा किसे है, और क्यों हो! मैं कुलक्षणा हूँ, मेरी जात से किसी का उपकार न होगा, जहाँ रहूँगी, वहीं आग लगाऊँगी। मैंने बुरी साइत में इस घर में पाँव रखे थे। मेरे हाथों यह घर वीरान हो जाएगा, मैं विनय को अपने साथ डूबो दूँगी, माता का शाप अवश्य पड़ेगा। भगवन्, आज मेरे मन में ऐसे विचार क्यों आ रहे हैं?

सहसा मिसेज सेवक कमरे में दाखिल हुईं। उन्हें देखते ही सोफ़िया को अपने हृदय में एक जलोद्गार-सा उठता हुआ जान पड़ा। वह दौड़कर माता के गले से लिपट गई। यही अब उसका अंतिम आश्रय था। यहीं अब उसे वह सहानुभूति मिल सकती थी, जिसके बिना उसका जीना दूभर था; यहीं अब उसे वह विश्राम, वह शांति, वह छाया मिल सकती थी, जिसके लिए उसकी संतप्त आत्मा तड़प रही थी। माता की गोद के सिवा यह सुख-स्वर्ग और कहाँ है? माता के सिवा कौन उसे छाती से लगा सकता है, कौन उसके दिल पर मरहम रख सकता है? माँ के कटु शब्द और उसका निष्ठुर व्यवहार, सब कुछ इस सुख-लालसा के आवेग में विलुप्त हो गया। उसे ऐसा जान पड़ा, ईश्वर ने मेरी दीनता पर तरस खाकर मामा को यहाँ भेजा है। माता की गोद में अपना व्यथित मस्तक रखकर एक बार फिर उसे बल और धैर्य का अनुभव हुआ, जिसकी याद अभी तक दिल से न मिटी थी। वह फूट-फूट रोने लगी। लेकिन माता की ऑंखों में ऑंसू न थे। वह तो मिस्टर क्लार्क के निमंत्रण का सुख-सम्वाद सुनाने के लिए अधीर हो रही थीं। ज्यों ही सोफ़िया के ऑंसू थमे, मिसेज़ सेवक ने कहा-आज तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। मिस्टर क्लार्क ने तुम्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया है।

सोफ़िया ने उत्तर न दिया। उसे माता की यह बात भद्दी मालूम हुई।

मिसेज़ सेवक ने फिर कहा-जब से तुम यहाँ आई हो, वह कई बार तुम्हारा कुशल-समाचार पूछ चुके हैं। जब मिलते हैं, तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। ऐसा सज्जन सिविलियन मैंने नहीं देखा। उनका विवाह किसी अंगरेज के खानदान में हो सकता है, और यह तुम्हारा सौभाग्य है कि वह अभी तक तुम्हें याद करते हैं।

सोफ़िया ने घृणा से मुँह फेर लिया। माता की सम्मान-लोलुपता असह्य थी। न मुहब्बत की बातें हैं, न आश्वासन के शब्द, न ममता के उद्गार। कदाचित् प्रभु मसीह ने भी निमंत्रित किया होता, तो वह इतनी प्रसन्न न होती।

मिसेज़ सेवक बोलीं-अब तुम्हें इनकार न करना चाहिए। विलम्ब से प्रेम ठंडा हो जाता है और फिर उस पर कोई चोट नहीं पड़ सकती। ऐसा स्वर्ण-सुयोग फिर न हाथ आएगा, एक विद्वान् ने कहा है-प्रत्येक प्राणी को जीवन में केवल एक बार अपने भाग्य की परीक्षा का अवसर मिलता है, और वही भविष्य का निर्णय कर देता है। तुम्हारे जीवन में यह वही अवसर है। इसे छोड़ दिया, तो फिर हमेशा पछताओगी।

सोफ़िया ने व्यथित होकर कहा-अगर मिस्टर क्लार्क ने मुझे निमंत्रित न किया होता, तो शायद आप मुझे याद भी न करतीं?

मिसेज़ सेवक ने अवरुध्द कंठ से कहा-मेरे मन में जो कुछ है, वह तो ईश्वर ही जानता है; पर ऐसा कोई दिन नहीं जाता कि मैं तुम्हारे और प्रभु के लिए ईश्वर से प्रार्थना न करती होऊँ। यह उन्हीं प्रार्थनाओं का शुभ फल है कि तुम्हें यह अवसर मिला है।

यह कहकर मिसेज़ सेवक जाह्नवी से मिलने गईं। रानी ने उनका विशेष आदर न किया। अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोलीं-आपके दर्शन तो बहुत दिनों के बाद हुए।

मिसेज़ सेवक ने सूखी हँसी हँसकर कहा-अभी मेरी वापसी की मुलाकात आपके जिम्मे बाकी है।

रानी-आप मुझसे मिलने आईं ही कब? पहले भी सोफ़िया से मिलने आई थीं, और आज भी। मैं तो आज आपको एक खत लिखनेवाली थी,अगर बुरा न मानिए तो एक बात पूछूँ?

मिसेज़ सेवक-पूछिए, बुरा क्यों मानूँगी।

रानी-मिस सोफ़िया की उम्र तो ज्यादा हो गई, आपने उसकी शादी की कोई फिक्र की या नहीं? अब तो उसका जितनी जल्दी विवाह हो जाए, उतना ही अच्छा। आप लोगों में लड़कियाँ बहुत सयानी होने पर ब्याही जाती हैं।

मिसेज़ सेवक-इसकी शादी कब की हो गई होती, कई अंगरेज बेतरह पीछे पड़े, लेकिन यह राजी ही नहीं होती। इसे धर्म-ग्रंथों से इतनी रुचि है कि विवाह को जंजाल समझती है। आजकल जिलाधीश मिस्टर क्लार्क के पैगाम आ रहे हैं। देखूँ, अब भी राजी होती है या नहीं। आज मैं उसे ले जाने ही के इरादे से आई हूँ। मैं हिंदुस्तानी ईसाइयों से नाते नहीं जोड़ना चाहती। उनका रहन-सहन मुझे पसंद नहीं है, और सोफी जैसी सुशिक्षिता लड़की के लिए कोई अंगरेज पति मिलने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती।

जाह्नवी-मेरे विचार में विवाह सदैव अपने स्वजातियों में करना चाहिए। योरपियन लोग हिंदुस्तानी ईसाइयों का बहुत आदर नहीं करते, और अनमेल विवाहों का परिणाम अच्छा नहीं होता।

मिसेज़ सेवक-(गर्व के साथ) ऐसा कोई योरपियन नहीं है, जो मेरे खानदान में विवाह करना मर्यादा के विरुध्द समझे। हम और वे एक हैं। हम और वे एक ही खुदा को मानते हैं, एक ही गिरजा में प्रार्थना करते हैं और एक ही नबी के अनुचर हैं। हमारा और उनका रहन-सहन,खान-पान, रीति-व्यवहार एक है। यहाँ अंगरेजों के समाज में, क्लब में, दावतों में हमारा एक-सा सम्मान होता है। अभी तीन-चार दिन हुए,लड़कियों को इनाम देने का जलसा था। मिस्टर क्लार्क ने खुद मुझे उस जलसे का प्रधान बनाया और मैंने ही इनाम बाँटे। किसी हिंदू या मुसलमान लेडी को यह सम्मान न प्राप्त हो सकता था।

रानी-हिंदू या मुसलमान, जिन्हें कुछ भी अपने जातीय गौरव का खयाल है, अंगरेजों के साथ मिलना-जुलना अपने लिए सम्मान की बात नहीं समझते। यहाँ तक कि हिंदुओं में जो लोग अंगरेजों से खान-पान रखते हैं, उन्हें लोग अपमान की दृष्टि से देखते हैं, शादी-विावह का तो कहना ही क्या! राजनीतिक प्रभुत्व की बात और है। डाकुओं का एक दल विद्वानों की एक सभा को बहुत आसानी से परास्त कर सकता है। लेकिन इससे विद्वानों का महत्व कुछ कम नहीं होता। प्रत्येक हिंदू जानता है कि मसीह बौध्द काल में यहीं आए थे, यहीं उनकी शिक्षा हुई थी और जो ज्ञान उन्होंने यहाँ प्राप्त किया, उसी का पश्चिम में प्रचार किया। फिर कैसे हो सकता है कि हिंदू अंगरेजों को श्रेष्ठ समझें?

दोनों महिलाओं में इसी तरह नोक-झोंक होती रही। दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाना चाहती थीं; दोनों एक दूसरे के मनोभावों को समझती थीं। कृतज्ञता या धन्यवाद के शब्द किसी के मुँह से न निकले। यहाँ तक कि जब मिसेज़ सेवक विदा होने लगीं, तो रानी जाह्नवी उनको पहुँचाने के लिए कमरे के द्वार तक भी न गईं। अपनी जगह पर बैठे-बैठे हाथ बढ़ा दिया और अभी मिसेज़ सेवक कमरे ही में थीं कि अपना समाचार-पत्र पढ़ने लगीं।

मिसेज़ सेवक सोफ़िया के पास आईं, तो वह तैयार थी। किताबों के गट्ठर बँधो हुए थे। कई दासियाँ इधार-उधार इनाम के लालच में खड़ी थीं। मन मं प्रसन्न थीं, किसी तरह यह बला टली। सोफ़िया बहुत उदास थी। इस घर को छोड़ते हुए उसे दु:ख हो रहा था। उसे अपने उद्दिष्ट स्थान का पता न था। उसे कुछ मालूम न था कि तकदीर कहाँ ले जाएगी, क्या-क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी, जीवन-नौका किस घाट लगेगी। उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनयसिंह से फिर मुलाकात न होगी, उनसे सदा के लिए बिछुड़ रही हूँ। रानी की अपमान-भरी बातें, उनकी भर्त्सना और अपनी भ्रांति सब कुछ भूल गई। हृदय के एक-एक तार से यही धवनि निकल रही थी-अब विनय से फिर भेंट न होगी।

मिसेज़ सेवक बोलीं-कुँवर साहब से भी मिल लूँ।

सोफ़िया डर रही थी कि कहीं मामा को रात की घटना की खबर न मिल जाए, कुँवर साहब कहीं दिल्लगी-ही-दिल्लगी में कह न डालें। बोली-उनसे मिलने में देर होगी, फिर मिल लीजिएगा।

मिसेज़ सेवक-फिर किसे इतनी फुर्सत है!

दोनों कुँवर साहब के दीवानखाने में पहुँचीं। यहाँ इस वक्त स्वयंसेवकों की भीड़ लगी हुई थी। गढ़वाल प्रांत में दुर्भिक्ष का प्रकोप था। न अन्न था, न जल। जानवर मरे जाते थे, पर मनुष्यों को मौत भी न आती थी; एड़ियाँ रगड़ते थे, सिसकते थे। यहाँ से पचास स्वयंसेवकों का एक दल, पीड़ितों का कष्ट निवारण करने के लिए जानेवाला था। कुँवर साहब इस वक्त उन लोगों को छाँट रहे थे; उन्हें जरूरी बातें समझा रहे थे। डॉक्टर गांगुली ने इस वृध्दावस्था में भी इस दल का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। दोनों आदमी इतने व्यस्त थे कि मिसेज़ सेवक की ओर किसी ने धयान न दिया। आखिर वह बोलीं-डॉक्टर साहब, आपका कब जाने का विचार है?

कुँवर साहब ने मिसेज़ सेवक की तरफ देखा और बड़े तपाक से आगे बढ़कर हाथ मिलाया, कुशल-समाचार पूछा और ले जाकर एक कुर्सी पर बैठा दिया। सोफ़िया माँ के पीछे जाकर खड़ी हो गई।

कुँवर साहब-ये लोग गढ़वाल जा रहे हैं। आपने पत्रों में देखा होगा, वहाँ लोगों पर कितना घोर संकट पड़ा हुआ है।

मिसेज़ सेवक-खुदा इन लोगों का उद्योग सफल करें। इनके त्याग की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। मैं देखती हूँ, यहाँ इनकी खास तादाद है।

कुँवर साहब-मुझे इतनी आशा न थी, विनय की बातों पर विश्वास न होता था, सोचता था, इतने वालंटियर कहाँ मिलेंगे। सभी को नवयुवकों के निरुत्साह का रोना रोते हुए देखता था, ‘इनमें जोश नहीं है, त्याग नहीं है, जान नहीं है, सब अपने स्वार्थ-चिंतन में मतवाले हो रहे हैं। कितनी ही सेवा-समितियाँ स्थापित हुईं पर एक भी पनप न सकी। लेकिन अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोगों को हमारे नवयुवकों के विषय में कितना भ्रम हुआ था। अब तक तीन सौ नाम दर्ज हो चुके हैं। कुछ लोगों ने आजीवन सेवा-धर्म पालन करने का व्रत लिया है। इनमें कई आदमी तो हजारों रुपये माहवार की आय पर लात मारकर आए हैं। इनका सत्साहस देखकर मैं बहुत आशावादी हो गया हूँ।

मिसेज़ सेवक-मिस्टर क्लार्क कल आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे। ईश्वर ने चाहा, तो आप शीघ्र सी.आई.ई. होंगे और मुझे आपको बधााई देने का अवसर मिलेगा।

कुँवर साहब-(लजाते हुए) मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ। मिस्टर क्लार्क मुझे इस योग्य समझते हैं, तो वह उनकी कृपा-दृष्टि है। मिस सेवक, तैयार रहना, कल तीन बजे के मेल से ये लोग सिधारेंगे। प्रभु ने भी आने का वादा किया है।

मिसेज़ सेवक-सोफी तो आज घर जा रही है। (मुस्कराकर) शायद आपको जल्द ही इसका कन्यादान देना पड़े। (धीरे से) मिस्टर क्लार्क जाल फैला रहे हैं।

सोफ़िया शर्म से गड़ गई। उसे अपनी माता के ओछेपन पर क्रोध आ रहा था-इन सब बातों का ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है? क्या यह समझती हैं कि मि. क्लार्क का नाम लेने से कुँवर साहब रोब में आ जाएँगे?

कुँवर साहब-बड़ी खुशी की बात है। सोफी, देखो, हम लोगों को और विशेषत: अपने गरीब भाइयों को न भूल जाना। तुम्हें परमात्मा ने जितनी सहृदयता प्रदान की है, वैसा ही अच्छा अवसर भी मिल रहा है। हमारी शुभेच्छाएँ सदैव तुम्हारे साथ रहेंगी। तुम्हारे एहसान से हमारी गरदन सदा दबी रहेगी। कभी-कभी हम लोगों को याद करती रहना। मुझे पहले न मालूम था, नहीं तो आज इंदु को अवश्य बुला भेजता। खैर,देश की दशा तुम्हें मालूम है। मिस्टर क्लार्क बहुत ही होनहार आदमी हैं। एक दिन जरूर यह इस देश के किसी प्रांत के विधााता होंगे। मैं विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी कर सकता हूँ। उस वक्त तुम अपने प्रभाव, योग्यता और अधिकार से देश को बहुत कुछ लाभ पहुँचा सकोगी। तुमने अपने स्वदेशवासियों की दशा देखी है, उनकी दरिद्रता का तुम्हें पूर्ण अनुभव है। इस अनुभव का उनकी सेवा और सुधार में सद्व्यय करना।

सोफ़िया मारे शर्म के कुछ बोल न सकी। माँ ने कहा-आप रानीजी को जरूर साथ लाइएगा। मैं कार्ड भेजूँगी।

कुँवर साहब-नहीं मिसेज़ सेवक, मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे खेद है कि मैं उस उत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा। मैंने व्रत कर लिया है कि राज्याधिकारियों से कोई सम्पर्क न रखूँगा। हाकिमों की कृपा-दृष्टि, ज्ञात या अज्ञात रूप से हम लोगों को आत्मसेवी और निरंकुश बना देती है। मैं अपने को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहता; क्योंकि मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। मैं अपनी जाति में राजा और प्रजा तथा छोटे और बड़े का विभेद नहीं करना चाहता। सब प्रजा हैं, राजा है वह भी प्रजा है, रंक है वह भी प्रजा है। झूठे अधिकार के गर्व से अपने सिर को नहीं फिराना चाहता।

मिसेज़ सेवक-खुदा ने आपको राजा बनाया है। राजों ही के साथ तो राजा का मेल हो सकता है। अंगरेज लोग बाबुओं को मुँह नहीं लगाते,क्योंकि इससे यहाँ के राजों का अपमान होता है।

डॉ. गांगुली-मिसेज़ सेवक, यह बहुत दिनों तक राजा रह चुका है, अब इसका जी भर गया है। मैं इसका बचपन का साथी हूँ। हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। देखने में यह मुझसे छोटा मालूम होता है, पर कई साल बड़ा है।

मिसेज़ सेवक-(हँसकर) डॉक्टर के लिए यह तो कोई गर्व की बात नहीं है।

डॉ. गांगुली-हम दूसरों का दवा करना जानते हैं, अपना दवा करना नहीं जानता। कुँवर साहब उसी बखत से च्मेपउपेज है। उसी च्मेपउपेउ ने इसकी शिक्षा में बाधाा डाली। अब भी इसका वही हाल है। हाँ, अब थोड़ा फेरफार हो गया है। पहले कर्म से भी निराशावादी था और वचन से भी। अब इसके वचन और कर्म में सादृश्य नहीं है। वचन से तो अब भी च्मेपउपेज है; पर काम वह करता है, जिसे कोई पक्का व्चजपउपेज ही कर सकता है।

कुँवर साहब-गांगुली, तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो। मुझमें आशावादिता के गुण ही नहीं हैं। आशावादी परमात्मा का भक्त होता है,पक्का ज्ञानी, पूर्ण ऋषि। उसे चारों ओर परमात्मा की ही ज्योति दिखाई देती है। इसी में उसे भविष्य पर अविश्वास नहीं होता। मैं आदि से भोग-विलास का दास रहा हूँ; वह दिव्य ज्ञान न प्राप्त कर सका, जो आशावादिता की क्ुं+जी है। मेरे लिए च्मेपउपेउ के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मिसेज़ सेवक, डॉक्टर महोदय के जीवन का सार है-आत्मोत्सर्ग। इन पर जितनी विपत्तियाँ पड़ीं, वे किसी ऋषि को नास्तिक बना देतीं। जिस प्राणी के सात बेटे जवान हो-होकर दगा दे जाएँ, पर वह अपनेर् कर्तव्ये-मार्ग से जरा भी विचलित न हो, ऐसा उदाहरण विरला ही कहीं मिलेगा। इनकी हिम्मत तो टूटना जानती ही नहीं, आपदाओं की चोटें इन्हें और भी ठोस बना देती हैं। मैं साहसहीन, पौरुषहीन प्राणी हूँ। मुझे यकीन नहीं आता कि कोई शासक जाति शासितों के साथ न्याय और साम्य का व्यवहार कर सकती है। मानव-चरित्र को मैं किसी देश में,किसी काल में, इतना निष्काम नहीं पाता। जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दी, वह फिर उस पद को नहीं पा सकता। दासता ही उसकी तकदीर हो जाती है। किंतु हमारे डॉक्टर बाबू मानव-चरित्र को इतना स्वार्थी नहीं समझते। इनका मत है कि हिंसक पशुओं के हृदय में भी अनंत ज्योति की किरणें विद्यमान रहती हैं, केवल परदे को हटाने की जरूरत है। मैं अंगरेजों की तरफ से निराश हो गया हूँ, इन्हें विश्वास है कि भारत का उध्दार अंगरेज-जाति ही के द्वारा होगा।

मिसेज़ सेवक-(रुखाई से) तो क्या आप यह नहीं मानते कि अंगरेजों ने भारत के लिए जो कुछ किया है, वह शायद ही किसी जाति ने किसी जाति या देश के साथ किया हो?

कुँवर साहब-नहीं, मैं यह नहीं मानता।

मिसेज़ सेवक-(आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार और भी किसी काल में हुआ था?

कुँवर साहब-मैं उसे शिक्षा ही नहीं कहता, जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे।

मिसेज़ सेवक-रेल, तार, जहाज, डाक, ये सब विभूतियाँ अंगरेजों ही के साथ आईं!

कुँवर साहब-अंगरेजों के बगैर भी आ सकती थीं, और अगर आई भी हैं तो अधिकतर अंगरेजों ही के लाभ के लिए।

मिसेज़ सेवक-ठीक है, ऐसा न्याय-विधान पहले कभी न था।

कुँवर साहब-ठीक है, ऐसा न्याय-विधान कहाँ था, जो अन्याय को न्याय और असत्य को सत्य सिध्द कर दे! यह न्याय नहीं, न्याय का गोरखधंधा है।
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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