हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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सन्तकुमार ने भी खडे होकर धमकाते हुए कहा-तो मेरा भी आपको चेलेंज है या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे

-मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है

सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया-तुम आज दर्खास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें आपको हिरासत में ले लिया जाय

देवकुमार ने मुट्ठी तानकर द्रोध के आवेश में पूछा-मैं पागल हूं-

-जी हां, आप पागल हैं आपके होश बजा नहीं हैं ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौडे आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरूध्द व्यवहार करना भी पागलपन है

-तुम दोनों खुद पागल हो

-इसका फैसला तो डाक्टर करेगा

-मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है-

-जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायंगे

-तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो मैं गोली मार दूंगा

-बिल्कुल पागलों की-सी धमकी सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है

और दोनों मित्र उठ खडे हुए देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न लीब उनके जीवन की नीति थी।-आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे खासकर सिध्दांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे वह इस षडयंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे- जिस दृढता से सिन्हा ने धमकी दी थी। वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था। कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे उनका आत्माभिमान गरज उठा-नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े डाक्टर भी क्या अंधा है- उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड गया हो हुश वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता उनकी बुध्दि सूर्य के प्रकाश की भाति निर्मल है कभी नहीं वह इन लौंडों के धौंस में न आयेंगे

लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था। कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरूष थे अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खूद सीले हुए थे क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो जब तक बडे भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा- उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी। जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो

लेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके तो एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ- और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे- उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही क्या वह भी उनके हाथ से छिन जायगा- उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।

शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें- उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावें- वह सब कुछ खुद झेल लेंगे और दुखी होने की बात भी क्यों हो- जीवन तो अनुभूतियों का नाम है यह भी एक अनुभव होगा जरा इसकी भी सैर कर लें

यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया घर में जाकर पंकजा से चाय बनाने को कहा

शैव्या ने पूछा-सन्तकुमार क्या कहता था।-

उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा-कुछ नहीं, वही पुराना खत

-तुमने तो हामी नहीं भरी न-

देवकुमार स्त्रीसे एकात्मता का अनुभव करके बोले-कभी नहीं

-न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया

-सामाजिक संस्कार हैं और क्या-

-इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए- साधु भी तो है, पंकज भी तो है, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं-

-मगर कसरत ऐसे ही आदमियों की है, यह समझ लो

उस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड दिया दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे लेकिन उनके अंतर में जैसे चोर-सा बैठा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने बढ़ी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी।, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी। जितनी खुद सारा यश पाने से होतीब उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था। मानो उनका मस्तक कुछ उंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है वही लोग जब सन्तकुमार की चितकबरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे-

इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर न किया उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मिृ मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता कुछ समझ में न आता क्या करे दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जाते

सन्तकुमार कहता-जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूं।

सिन्हा समझाता-मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर तो दिल में होता ही है न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है जो व्यक्ति सत्य के लिए बडे से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है

-ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते मैं न जानता था। तुम इतने भावुक हो

-उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे इसके लिए शहादतों की जरूरत है वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि. कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते

पृं देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असीव था। मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप-ही-आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों हैं- कर्म और संस्कार का आश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो गिर यह भेद क्यों है- क्यों एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी गूलों की सेज पर सोता है यह सर्वात्म है या घोर अनात्म- बुध्दि जवाब देती-यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है मगर शंका पूछती-सबको समान अवसर कहां है- बाजार लगा हुआ है जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाय- इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुध्दि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी।, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी। जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी। जो रोज मार्ग में ईटें पडे देखता है और बचकर निकल जाता है रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने फोड लेता है तो उसकी निवारण-शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहां है न्याय- कहां हैं- एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है दूसरा अमीर आदमी दिन-दहाडे दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है कुछ आदमी तरह-तरह के हथियार बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमाकर अपना गुलाम बना लेते हैं लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते हैं, शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंग-रेलियां मनाते हैं यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार- यही न्याय है-

हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं लेकिन उन्हें देवता क्यों कहो- कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहो देवता वह है जो न्याय की रक्षा करे और उसके लिए प्राण दे देब अगर वह जानकर अनजान बनता है तो धर्म से गिरता है अगर उसकी आंखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति का मिथ्याएं गैलाकर इस अनीति को अमर बनाया है मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पडेगा दरिंदों के बीच में उनसे लडने के लिए हथियार बांधना पडेगा उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जडता है आज जो इतने ताल्लुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं और क्या उन्होंने वह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया- पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रूपये खर्च करना क्या जरूरी था।- और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक-मंडली खोलकर हजारों रूपये उसमें डुबाना अनिवार्य था।- वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई- अगर उन्हें मुर्ति की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लडके क्यों न मुर्ति की संपत्ति भोगें- अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लडके क्यों तपस्या करें-

और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायं बाकी उन्हें मिल जाय अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया अब किसी तरह नहीं हिल सकता और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और गूले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो ।

एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साग-साग कह दिया-अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लडके आपके उपर दावा करेंगे।

गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे,और बाजार अच्छा देखकर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे सारा कारोबर अंग्रेजी ढग से करते थे उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित्त करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जडवादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पडे तो सूद पर रूपए देते थे,मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खडे रहते थे चलते वक्त आदमियों को दो-चार रूपए इनाम दे आते थे गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के अपने हकों के लिए लडना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये उनकी बड़ी इज्जत करते थे उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे पंडा-पुजारियों के नाम से चिढते थे, दूषित दान प्रथा। पर एक पैम्लेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।

एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहै उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आयाब गिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुध्दि भ्रष्ट हो गई है बेतुकी बातें कर रहे हैं देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह ख़याल और मजबूत हो गया

सुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भाव से बोले-कहिए, घर में तो सब कुशल तो है-

देवकुमार ने विद्रोह के भव से कहा-जी हां, सब आपकी कृपा है

-बड़ा लडका तो वकालत कर रहा है न-

-जी हां

-मगर चलती न होगी और आप की पुस्तकें भी आजकल कम बिकती होंगी यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रें का यह अनादर आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते

-आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं हूं

-धन-संकट में तो होंगे ही मुझ से जो कुछ सेवा आप कहें, उसके लिए तैयार हूं मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरूष से मेरा परिचय है आप की कुछ सेवा करना मेरे लिए गौरव की बात होगी

देवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाते थे भक्ति और प्रशंसा देकर कोई उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लखपती आदमी और वह भी साहित्य का प्रेमी जब उनका इतना सम्मान करता है तो उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लज्जाजनक मालूम हुआ बोले-आप की उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं

्मैंने समझा नहीं आप किस जायदाद की बात कह रहे थे

देवकुमार सकुचाते हुए बोले-अजी वही, जो सेठ मक्कूलाल ने मुझसे लिखाई थी।

-अच्छा तो उसके विषय में कोई नयी बात है-

-उसी मामले में लडके आपके उपर कोई दावा करने वाले हैं मैंने बहुत समझाया, मगर मानते नहीं आपके पास इसीलिए आया था। कि कुछ ले-देकर समझौता कर लीजिए, मामला अदालत में क्यों जाय- नाहक दोनों जेरबार होंगे

गिरधर दास का जहीन, मुरौवतदार चेहरा कठोर हो गया जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गप्री में छिपा रखा था, वह यह खटका पाते ही पैने और उग्र होकर बाहर निकल आये

द्रोध को दबाते हुए बोले-आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लडकों ही को समझाना चाहिए था।

-उन्हें तो मैं समझा चुका।

-तो जाकर शांत बैठिए मैं अपने हकों के लिए लडना जानता हूं अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास है

अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकीब जैसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले-मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं है

-दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सरोकार नहीं

-आपने मुझे बीस हजार ही तो दिये थे

-आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालांकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज बिक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती अगर इस नये कायदे को मान लिया जाय तो इस शहर में महाजन न नजर आयें

कुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लडने वाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुर्राते, दांत निकालते, खौंखियाते रहै आखिर दोनों लड ही गए

गिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा-मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी।

देवकुमार ने भी छड़ी उठाकर कहा-मुझे भी न मालूम था। कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है

-आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं

-कुछ परवाह नहीं

देवकुमार वहां से चले तो माघ की उस अंधेरी रात की निर्दय ठंड में भी उन्हें पसीना हो रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय थी। जीवन में एक नई प्रेरणा, एक नई शक्ति का उदय

उसी रात को सिन्हा और सन्तकुमार ने एक बार गिर देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया दोनों आकर खडे ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा-तुम लोगों ने अभी तक मुआमला दायर नहीं किया नाहक क्यों देर कर रहे हो-

सन्तकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आंधी-सी आ गई क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ- जरूर कोई दैवी शक्ति है भीख मांगने आए थे, वरदान मिल गया

बोला-आप ही की अनुमति का इंतजार था।

-मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं

उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाई

सिन्हा ने नाक गुलाकर कहा-जब आपकी दुआ है तो हमारी -तह है उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं

सन्तकुमार ऐसा खुश था। गोया आधी मंजिल तय हो गई बोला-आपने खूब उचित जवाब दिया

सिन्हा ने तनी हुई ढोल की-सी आवाज में चोट मारी-ऐसे-ऐसे सेठों को डफलियों पर नचाते हैं यहां

सन्तकुमार स्वप्न देखने लगे-यहीं हम दोनो के बंगले बनेंगे दोस्त

-यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे

-अंदाज से कितने दिन में गैसला हो जायगा-

-छ: महीने के अंदर

-बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगे

मगर समस्या थी।, रूपये कहां से आवें देवकुमार निस्पृह आदमी थे धन की कभी उपासना नहीं की कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करतेब किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी। जहां से कोई बड़ी रकम मिलती उन्होंने समझा था। सन्तकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं- उनके भक्तों की कागी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी। कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रध्दा उनके चरणों में अर्पण करेंब मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो

और शीघ्र ही इसका परिणाम निकला एक भक्त ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाय क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी। ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृध्दावस्था में भी आर्थिक-चिंताओं से मुक्त न हो- साहित्य यों नहीं फल-फूल सकता जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा( और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया अचरज की बात यह थी। कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे बात चल पड़ी एक कमेटी बन गई एक राजा साहब उसके प्रधान बन गये मि.सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी।, पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे मिस कामत और मिस मलिक की ओर से भी समर्थन हो गया महिलाओं को पुरूषों से पीछे न रहना चाहिए जेठ में तिथि निश्चित हुई नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारियां होने लगीं ।

आखिर वह तिथि आ गयी आज शाम को वह उत्सव होगा दूर-दूर से साहित्य-प्रेमी आए हैं सोरांव के कुंअर साहब वह थैली भेंट करेंगे आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड’ामा खेला जायगा, प्रीति-भोज होगा, कवि-सम्मेलन होगा शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है राजा साहब सभापति हैं

देवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पडा ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था। उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको की जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं गैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले- यह दान ही है, और कुछ नहीं एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा,लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाय से लगते थे नेकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी।, लोभ दूसरी ओर मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पडा उना जीवन बौध्दिक था, और बुध्दि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है नीति का सहारा मिल जाए तो गिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी। जिसके सिर में दर्द हो रहा हो उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए कुछ अच्छा नहीं लग रहा है सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, उपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और सारा यशगान अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा-किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रक्खा, वह कौन-सा प्रकाश था। जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।

सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुर्खी दौड गई यह दान नहीं प्राविडेंट गंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है, क्या वह दान है- उन्होंने जनता की सेवा की है, तन-मन से की है, इस धुन से की है, जो बडे-से-बडे वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्या लाज आये?

राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।


भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता था। बुढ़िया तम्बाकू पीती थी। उसके वास्ते एक सुंदर, पीतल से मढ़ा हुआ नारियल लाया था। आप चाहे जमीन पर सोये, पर उसे खाट पर सुलाता। कहता, इसने न जाने कितने कष्ट झेलकर मुझे पाला-पोसा है; मैं इससे जीते-जी कभी उरिन नहीं हो सकता। अगर माँ का सिर भी दर्द करता तो बेचैन हो जाता, ओझे-सयाने बुला लाता। बुढ़िया को गहने-कपड़े का भी शौक था। पति के राज में जो सुख न पाए थे, वे बेटे के राज में भोगना चाहती थी। भैरों ने उसके लिए हाथों के कड़े, गले की हँसली और ऐसी ही कई चीजें बनवा दी थीं। पहनने के लिए मोटे कपड़ों की जगह कोई रंगीन छींट लाया करता था। अपनी स्त्री को ताकीद करता रहता था कि अम्माँ को कोई तकलीफ न होने पाए। इस तरह बुढ़िया का मन बढ़ गया था। जरा-सी कोई बात इच्छा के विरुध्द होती, तो रूठ जाती और बहू को आड़े हाथों लेती। बहू का नाम सुभागी था। बुढ़िया ने उसका नाम अभागी रख छोड़ा था। बहू ने जरा चिलम भरने में देर की, चारपाई बिछाना भूल गई, या मुँह से निकलते ही उसका पैर दबाने या सिर की जुएँ निकालने न आ पहुँची, तो बुढ़िया उसके सिर हो जाती। उसके बाप और भाइयों के मुँह में कालिख लगाती, सबों की दाढ़ियाँ जलाती, और उसे गालियों ही से संतोष न होता, ज्योंही भैरों दूकान से आता, एक-एक की सौ-सौ लगाती। भैरों सुनते ही जल उठता,.कभी जली-कटी बातों से और कभी डंडों से स्त्री की खबर लेता। जगधार से उसकी गहरी मित्रता थी। यद्यपि भैरों का घर बस्ती के पश्चिम सिरे पर था, और जगधार का घर पूर्व सिरे पर, किंतु जगधार की यहाँ बहुत आमद-रफ्त थी। यहाँ मुफ्त में ताड़ी पीने को मिल जाती थी, जिसे मोल लेने के लिए उसके पास पैसे न थे। उसके घर में खानेवाले बहुत थे, कमानेवाला अकेला वही था। पाँच लड़कियाँ थीं, एक लड़का और स्त्री । खोंचे की बिक्री में इतना लाभ कहाँ कि इतने पेट भरे और ताड़ी-शराब भी पिए! वह भैरों की हाँ-में-हाँ मिलाया करता था। इसलिए सुभागी उससे जलती थी।
दो-तीन साल पहले की बात है, एक दिन, रात के समय, भैरों और जगधार बैठे हुए ताड़ी पी रहे थे। जाड़ों के दिन थे; बुढ़िया खा-पीकर, अंगीठी सामने रखकर, आग ताप रही थी। भैरों ने सुभागी से कहा-थोड़े-से मटर भून ला। नमक, मिर्च, प्याज भी लेती आना। ताड़ी के लिए चिखने की जरूरत थी। सुभागी ने मटर तो भूने, लेकिन प्याज घर में न था। हिम्मत न पड़ी कि कह दे-प्याज नहीं है। दौड़ी हुई कुँजड़े की दूकान पर गई। कुँजड़ा दूकान बंद कर चुका था। सुभागी ने बहुत चिरौरी की, पर उसने दूकान न खोली। विवश होकर उसने भूने हुए मटर लाकर भैरों के सामने रख दिए। भैरों ने प्याज न देखा, तो तेवर बदले। बोला-क्या मुझे बैल समझती है कि भुने हुए मटर लाकर रख दिए, प्याज क्यों नहीं लाई?
सुभागी ने कहा-प्याज घर में नहीं है, तो क्या मैं प्याज हो जाऊँ?
जगधार-प्याज के बिना मटर क्या अच्छे लगेंगे?
बुढ़िया-प्याज तो अभी कल ही धोले का आया था। घर में कोई चीज तो बचती ही नहीं। न जाने इस चुड़ैल का पेट है या भाड़।

सुभागी-मुझसे कसम ले लो, जो प्याज हाथ से भी छुआ हो। ऐसी जीभ होती, तो इस घर में एक दिन भी निबाह न होता।

भैरों-प्याज नहीं था, तो लाई क्यों नहीं?

जगधार-जो चीज घर में न रहे, उसकी फिकर रखनी चाहिए।

सुभागी-मैं क्या जानती थी कि आज आधी रात को प्याज की धुन सवार होगी।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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भैरों ताड़ी के नशे में था। नशे में भी क्रोध का-सा गुण है, निर्बलों ही पर उतरता है। डंडा पास ही धारा था, उठाकर एक डंडा सुभागी को मारा। उसके हाथ की सब चूड़ियाँ टूट गईं। घर से भागी। भैरों पीछे दौड़ा। सुभागी एक दूकान की आड़ में छिप गई। भैरों ने बहुत ढूँढ़ा, जब उसे न पाया तो घर जाकर किवाड़ बंद कर लिए और फ़िर रात भर खबर न ली। सुभागी ने सोचा, इस वक्त जाऊँगी तो प्राण न बचेंगे। पर रात-भर रहूँगी कहाँ? बजरंगी के घर गई। उसने कहा-ना, बाबा, मैं यह रोग नहीं पालता। खोटा आदमी है, कौन उससे रार मोल ले! ठाकुरदीन के द्वार बंद थे। सूरदास बैठा खाना पका रहा था। उसकी झोपड़ी में घुस गई और बोली-सूरे, आज रात-भर मुझे पड़े रहने दो, मारे डालता है, अभी जाऊँगी, तो एक हड्डी भी न बचेगी।

सूरदास ने कहा-आओ, लेट रहो, भोरे चली जाना, अभी नसे में होगा।

दूसरे दिन जब भैरों को यह बात मालूम हुई, तो सूरदास से गाली-गलौज की और मारने की धमकी दी। सुभागी उसी दिन से सूरदास पर स्नेह करने लगी। जब अवकाश पाती, तो उसके पास आ बैठती, कभी-कभी उसके घर में झाड़ू लगा जाती, कभी घरवालों की ऑंख बचाकर उसे कुछ दे जाती, मिठुआ को अपने घर बुला ले जाती और उसे गुड़-चबेना खाने को देती।

भैरों ने कई बार उसे सूरदास के घर से निकलते देखा। जगधार ने दोनों को बातें करते हुए पाया। भैरों के मन में संदेह हो गया कि जरूर इन दोनों में कुछ साठ-गाँठ है, तभी से वह सूरदास से खार खाता था। उससे छेड़कर लड़ता। नायकराम के भय से उसकी मरम्मत न कर सकता था। सुभागी पर उसका अत्याचार दिनोंदिन बढ़ता जाता था और जगधार, शांत स्वभाव होने पर भी, भैरों का पक्ष लिया करता था।

जिस दिन बजरंगी और ताहिर अली में झगड़ा हुआ था, उसी दिन भैरों और सूरदास में संग्राम छिड़ गया। बुढ़िया दोपहर को नहाई थी सुभागी उसकी धोती छाँटना भूल गई। गरमी के दिन थे ही, रात को 9 बजे बुढ़िया को फिर गरमी मालूम र्हुई। गरमियों के दिनों में दो बार स्नान करती थी, जाड़ों में दो महीने में एक बार! जब वह नहाकर धोती माँगने लगी, तो सुभागी को याद आई। काटो तो बदन में लहू नहीं। हाथ जोड़कर बोली-अम्माँ, आज धोती धोने की याद नहीं रही। तुम जरा देर मेरी धोती पहन लो, तो मैं उसे छाँटकर अभी सुखाए देती हूँ।

बुढ़िया इतनी क्षमाशील न थी, हजारों गालियाँ सुनाईं और गीली धोती पहने बैठी रही। इतने में भैरों दूकान से आया और सुभागी से बोला-जल्दी खाना ला, आज संगत होनेवाली है। आओ अम्माँ, तुम भी खा लो।

बुढ़िया बोली-नहाकर गीली धोती पहने बैठी हूँ। अब अपने हाथों धोती धो लिया करूँगी।

भैरों-क्या इसने धोती नहीं धोई?

बुढ़िया-वह अब मेरी धोती क्यों धोने लगी। घर की मालकिन है। यही क्या कम है कि एक रोटी खाने को दे देती है!

सुभागी ने बहुत कुछ उज्र किया; किंतु भैरों ने एक न सुनी, डंडा लेकर मारने दौड़ा। सुभागी भागी और आकर सूरदास के घर में घुस गई। पीछे-पीछे भैरों भी वहीं पहुँचा। झोपड़े में घुसा और चाहता था कि सुभागी का हाथ पकड़कर खींच ले कि सूरदास उठकर खड़ा हो गया और बोला-क्या बात है भैरों, इसे क्यों मार रहे हो?

भैरों गर्म होकर बोला-द्वार पर से हट जाओ, नहीं तो पहले तुम्हारी हड्डीयां तोड़ूँगा, सारा बगुलाभगतपन निकल जाएगा। बहुत दिनों से तुम्हारा रंग देख रहा हूँ, आज सारी कसर निकाल लूँगा।

सूरदास-मेरा क्या छैलापन तुमने देखा? बस, यही न कि मैंने सुभागी को घर से निकाल नहीं दिया?

भैरों-बस, अब चुप ही रहना। ऐसे पापी न होते, तो भगवान् ने ऑंखें क्यों फोड़ दी होतीं। भला चाहते हो, तो सामने से हट जाओ।

सूरदास-मेरे घर में तुम उसे न मारने पाओगे; यहाँ से चली जाए, तो चाहे जितना मार लेना।

भैरों-हटता है सामने से कि नहीं?

सूरदास-मैं अपने घर यह उपद्रव न मचाने दूँगा।

भैरों ने क्रोध में आकर सूरदास को धक्का दिया। बेचारा बेलाग खड़ा था, गिर पड़ा, पर फिर उठा और भैरों की कमर पकड़कर बोला-अब चुपके से चले जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा!

सूरदास था तो दुबला-पतला, पर उसकी हड्डीयां लोहे की थीं। बादल-बूँदी, सरदी-गरमी झेलते-झेलते उसके अंग ठोस हो गए थे। भैरों को ऐसा ज्ञात होने लगा, मानो कोई लोहे का शिकंजा है। कितना ही जोर मारता, पर शिकंजा जरा भी ढीला न होता था। सुभागी ने मौका पाया, तो भागी। अब भैरों जोर-जोर से गालियाँ देने लगा। मुहल्लेवाले यह शोर सुनकर आ पहुँचे। नायकराम ने मजाक करके कहा-क्यों सूरे, अच्छी सूरत देखकर ऑंखें खुल जाती हैं क्या मुहल्ले ही में?

सूरदास-पंडाजी, तुम्हें दिल्लगी सूझी है और यहाँ मुख में कालिख लगाई जा रही है। अंधा था, अपाहिज था, भिखारी था, नीच था, चोरी-बदमासी के इलजाम से तो बचा हुआ था! आज वह इलजाम भी लग गया।

बजरंगी-आदमी जैसा आप होता है, वैसा ही दूसरों को समझता है।

भैरों-तुम कहाँ के बड़े साधु हो। अभी आज ही लाठी चलाकर आए हो। मैं दो साल से देख रहा हूँ, मेरी घरवाली इससे आकर अकेले में घंटों बातें करती है। जगधार ने भी उसे यहाँ से रात को आते देखा है। आज ही, अभी, उसके पीछे मुझसे लड़ने को तैयार था।

नायकराम-सुभा होने की बात ही है। अंधा आदमी देवता थोड़े ही होता है, और फिर देवता लोग भी तो काम के तीर से नहीं बचे। सूरदास तो फिर भी आदमी है, और अभी उमर ही क्या है?

ठाकुरदीन-महाराज, क्यों अंधे के पीछे पड़े हुए हो। चलो, कुछ भजन-भाव हो।

नायकराम-तुम्हें भजन-भाव सूझता है, यहाँ एक भले आदमी की इज्जत का मुआमला आ पड़ा है। भैरों, हमारी एक बात मानो, तो कहें। तुम सुभागी को मारते बहुत हो, इससे उसका मन तुमसे नहीं मिलता। अभी दूसरे दिन बारी आती है, अब महीने में दो बार से ज्यादा न आने पाए।

भैरों देख रहा था कि मुझे लोग बना रहे हैं। तिनककर बोला-अपनी मेहरिया है, मारते-पीटते हैं, तो किसी का साझा है? जो घोड़ी पर कभी सवार ही नहीं हुआ, वह दूसरों को सवार होना क्या सिखाएगा? वह क्या जाने, औरत कैसे काबू में रहती है?

यह व्यंग नायकराम पर था, जिसका अभी तक विवाह नहीं हुआ था। घर में धान था, यजमानों की बदौलत किसी बात की चिंता न थी,. किंतु न जाने क्यों अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ था। वह हजार-पाँच सौ रुपये से गम खाने को तैयार था; पर कहीं शिप्पा न जमता था। भैरों ने समझा था, नायकराम दिल में कट जाएँगे; मगर वह छँटा हुआ शहरी गुंडा ऐसे व्यंगों को कब धयान में लाता था। बोला-कहो बजरंगी इसका कुछ जवाब दो औरत कैसे बस में रहती है?

बजरंगी-मार-पीट से नन्हा-सा लड़का तो बस में आता नहीं, औरत क्या बस में आएगी।

भैरों-बस में आए औरत का बाप, औरत किस खेत की मूली है! मार से भूत भागता है।

बजरंगी-तो औरत भी भाग जाएगी, लेकिन काबू में न आएगी?

नायकराम-बहुत अच्छी कही बजरंगी, बहुत पक्की कही, वाह-वाह! मार से भूत भागता है, तो औरत भी भाग जाएगी। अब तो कट गई तुम्हारी बात?

भैरों-बात क्या कट जाएगी, दिल्लगी है? चूने को जितना ही कूटो, उतना ही चिमटता है।

जगधार-ये सब कहने की बातें हैं। औरत अपने मन से बस में आती है, और किसी तरह नहीं।

नायकराम-क्यों बजरंगी, नहीं है कोई जवाब?

ठाकुरदीन-पंडाजी, तुम दोनों को लड़ाकर तभी दम लोगे; बिचारे अपाहिज आदमी के पीछे पड़े हो।

नायकराम-तुम सूरदास को क्या समझते हो, यह देखने ही में इतने दुबले हैं। अभी हाथ मिलाओ, तो मालूम हो। भैरों, अगर इन्हें पछाड़ दो, तो पाँच रुपये इनाम दूँ।

भैरों-निकल जाओगे।

नायकराम-निकलनेवाले को कुछ कहता हूँ। यह देखो, ठाकुरदीन के हाथ में रखे देता हूँ।

जगधार-क्या ताकते हो भैरों, ले पड़ो।

सूरदास-मैं नहीं लड़ता।

नायकराम-सूरदास, देखो, नाम-हँसाई मत कराओ। मर्द होकर लड़ने से डरते हो? हार ही जाओगे या और कुछ!

सूरदास-लेकिन भाई, मैं पेंच-पाच नहीं जानता। पीछे से यह न कहना, हाथ क्यों पकड़ा। मैं जैसे चाहूँगा, वैसे लड़ूँगा।

जगधार-हाँ-हाँ, तुम जैसे चाहना, वैसे लड़ना।

सूरदास-अच्छा तो आओ, कौन आता है!

नायकराम-अंधे आदमी का जीवट देखना। चलो भैरों, आओ मैदान में।

भैरों-अंधे से क्या लड़ूँगा!

नायकराम-बस, इसी पर इतना अकड़ते थे?

जगधार-निकल आओ भैरों, एक झपट्टे में तो मार लोगे!

भैरों-तुम्हीं क्यों नहीं लड़ जाते, तुम्हीं इनाम ले लेना।

जगधार को रुपयों की नित्य चिंता रहती थी। परिवार बड़ा होने के कारण किसी तरह चूल न बैठती थी, घर में एक-न-एक चीज घटी ही रहती थी। धानोपार्जन के किसी उपाय को हाथ से न छोड़ना चाहता था। बोला-क्यों सूरे, हमसे लड़ोगे?

सूरदास-तुम्हीं आ जाओ, कोई सही।

जगधार-क्यों पंडाजी, इनाम दोगे न?

नायकराम-इनाम तो भैरों के लिए था, लेकिन कोई हरज नहीं! हाँ, शर्त यह है कि एक ही झपट्टे में गिरा दो।

जगधार ने धोती ऊपर चढ़ा ली और सूरदास से लिपट गया। सूरदास ने उसकी एक टाँग पकड़ ली और इतनी जोर से खींचा कि जगधार धाम से गिर पड़ा। चारों तरफ से तालियाँ बजने लगीं।

बजरंगी बोला-वाह, सूरदास, वाह! नायकराम ने दौड़कर उसकी पीठ ठोंकी।

भैरों-मुझे तो कहते थे, एक ही झपट्टे में गिरा दोगे, तुम कैसे गिर गए?

जगधार-सूरे ने टाँग पकड़ ली, नहीं तो क्या गिरा लेते। वह अड़ंगा मारता कि चारों खाने चित गिरते।

नायकराम-अच्छा, तो एक बाजी और हो जाए।

जगधार-हाँ-हाँ, अबकी देखना।

दोनों योध्दाओं में फिर मल्ल-युध्द होने लगा। सूरदास ने अबकी जगधार का हाथ पकड़कर इतने जोर से ऐंठा कि वह ‘आह! आह!’ करता हुआ जमीन पर बैठ गया। सूरदास ने तुरंत उसका हाथ छोड़ दिया और गरदन पकड़कर दोनों हाथों से ऐसा दबोचा कि जगधार की ऑंखें निकल आईं; नायकराम ने दौड़कर सूरदास को हटा लिया। बजरंगी ने जगधार को उठाकर बिठाया और हवा करने लगा।

भैरों ने बिगड़कर कहा-यह कोई कुश्ती है कि जहाँ पकड़ पाया, वहीं धार दबाया। यह तो गँवारों की लड़ाई है, कुश्ती थोड़े ही है।

नायकराम-यह बात तो पहले तय हो चुकी थी।

जगधार सँभलकर उठ बैठा और चुपके से सरक गया। भैरों भी उसके पीछे चलता हुआ। उनके जाने के बाद यहाँ खूब कहकहे उड़े, और सूरदास की खूब पीठ ठोंकी गई। सबको आश्चर्य हो रहा था कि सूरदास-जैसा दुर्बल आदमी जगधार-जैसे मोटे-ताजे आदमी को कैसे दबा बैठा। ठाकुरदीन यंत्र-मंत्र का कायल था। बोला-सूरे को किसी देवता का इष्ट है। हमें भी बताओ सूरे, कौन-सा मंत्र जगाया था?

सूरदास-सौ मंत्रों का मंत्र हिम्मत है। ये रुपये जगधार को दे देना, नहीं तो मेरी कुशल नहीं है!

ठाकुरदीन-रुपये क्यों दे दूँ, कोई लूट है? तुमने बाजी मारी है, तुमको मिलेंगे।

नायकराम-अच्छा सूरदास, ईमान से बता दो, सुभागी को किस मंत्र से बस में किया? अब तो यहाँ सब लोग अपने ही हैं, कोई दूसरा नहीं है। मैं भी कहीं कँपा लगाऊँ।

सूरदास ने करुण स्वर में कहा-पंडाजी, अगर तुम भी मुझसे ऐसी बातें करोगे, तो मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँगा। मैं पराई स्त्री को अपनी माता, बेटी, बहन समझता हूँ। जिस दिन मेरा मन इतना चंचल हो जाएगा, तुम मुझे जीता न देखोगे। यह कहकर सूरदास फूट-फूटकर रोने लगा। जरा देर में आवाज सँभालकर बोला-भैरों रोज उसे मारता है। बिचारी कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाती है। मेरा अपराध इतना ही है कि मैं उसे दुतकार नहीं देता। इसके लिए चाहे कोई बदनाम करे, चाहे जो इलजाम लगाए, मेरा जो धरम था, वह मैंने किया। बदनामी के डर से जो आदमी धरम से मुँह फेर ले, वह आदमी नहीं है।

बजरंगी-तुम्हें हट जाना था, उसकी औरत थी, मारता चाहे पीटता, तुमसे मतलब?

सूरदास-भैया, ऑंखों देखकर रहा नहीं जाता, यह तो संसार का व्यवहार है; पर इतनी-सी बात पर कोई बड़ा कलंक तो नहीं लगा देता। मैं तुमसे सच कहता हूँ, आज मुझे जितना दु:ख हो रहा है, उतना दादा के मरने पर भी न हुआ था। मैं अपाहिज, दूसरों के टुकड़े खानेवाला और मुझ पर यह कलंक! (रोने लगा)

नायकराम-तो रोते क्यों हो भले आदमी, अंधे हो तो क्या मर्द नहीं हो? मुझे तो कोई यह कलंक लगाता, तो और खुश होता। ये हजारों आदमी जो तड़के गंगा-स्नान करने जाते हैं, वहाँ नजरबाजी के सिवा और क्या करते हैं! मंदिरों में इसके सिवा और क्या होता है! मेले-ठेलों में भी यही बहार रहती है। यही तो मरदों के काम हैं। अब सरकार के राज में लाठी-तलवार का तो कहीं नाम नहीं रहा, सारी मनुसाई इसी नजरबाजी में रह गई है। इसकी क्या चिंता! चलो भगवान का भजन हो, यह सब दु:ख दूर हो जाएगा।

बजरंगी को चिंता लगी हुई थी-आज की मार-पीट का न जाने क्या फल हो? कल पुलिस द्वार पर आ जाएगी। गुस्सा हराम होता है। नायकराम ने आश्वासन दिया-भले आदमी, पुलिस से क्या डरते हो? कहो, थानेदार को बुलाकर नचाऊँ, कहो इंस्पेक्टर को बुलाकर चपतियाऊँ। निश्चिंत बैठे रहो, कुछ न होने पाएगा। तुम्हारा बाल भी बाँका हो जाए, तो मेरा जिम्मा।
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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तीनों आदमी यहाँ से चले। दयागिरि पहले ही से इनकी राह देख रहे थे। कई गाड़ीवान और बनिए भी आ बैठे थे। जरा देर में भजन की तानें उठने लगीं। सूरदास अपनी चिंताओं को भूल गया, मस्त होकर गाने लगा। कभी भक्ति से विह्नल होकर नाचता, उछलने-कूदने लगता, कभी रोता, कभी हँसता। सभा विसर्जित हुई तो सभी प्राणी प्रसन्न थे, सबके हृदय निर्मल हो गए थे, मलिनता मिट गई थी, मानो किसी रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। सूरदास तो मंदिर के चबूतरे ही पर लेटा और लोग अपने-अपने घर गए। किंतु थोड़ी ही देर बाद सूरदास को फिर उन्हीं चिंताओं ने आ घेरा-मैं क्या जानता था कि भैरों के मन में मेरी ओर से इतना मैल है, नहीं तो सुभागी को अपने झोंपड़े में आने ही क्यों देता। जो सुनेगा, वही मुझ पर थूकेगा। लोगों को ऐसी बातों पर कितनी जल्द विश्वास आ जाता है। मुहल्ले में कोई अपने दरवाजे पर खड़ा न होने देगा। ऊँह! भगवान् तो सबके मन की बात जानते हैं। आदमी का धरम है कि किसी को दु:ख में देखे, तो उसे तसल्ली दे। अगर अपना धरम पालने में भी कलंक लगता है, तो लगे, बला से। इसके लिए कहाँ तक रोऊँ? कभी-न-कभी तो लोगों को मेरे मन का हाल मालूम ही हो जाएगा।

किंतु जगधार और भैरों दोनों के मन में ईर्ष्यास का फोड़ा पक रहा था। जगधार कहता था-मैंने तो समझा था, सहज में पाँच रुपये मिल जाएँगे, नहीं तो क्या कुत्तो ने काटा था कि उससे भिड़ने जाता? आदमी काहे का है, लोहा है।

भैरों-मैं उसकी ताकत की परीक्षा कर चुका हूँ। ठाकुरदीन सच कहता है, उसे किसी देवता का इष्ट है।

जगधार-इष्ट-विष्ट कुछ नहीं है, यह सब बेफिकरी है। हम-तुम गृहस्थी के जंजाल में फँसे हुए हैं, नोन-तेल-लकड़ी की चिंता सिर पर सवार रहती है, घाटे-नफे के फेर में पड़े रहते हैं। उसे कौन चिंता है? मजे से जो कुछ मिल जाता है, खाता है और मीठी नींद सोता है। हमको-तुमको रोटी-दाल भी दोनों जून नसीब नहीं होती है। उसे क्या कमी है, किसी ने चावल दिए, कहीं मिठाई पा गया, घी-दूध बजरंगी के घर से मिल ही जाता है। बल तो खाने से होता है।

भैरों-नहीं, यह बात नहीं। नसा खाने से बल का नास हो जाता है।

जगधार-कैसी उलटी बातें करते हो; ऐसा होता, तो फौज में गोरों को बारांडी क्यों पिलाई जाती? अंगरेज सभी शराब पीते हैं, तो क्या कमज़ोर होते हैं?

भैरों-आज सुभागी आती है, तो गला दबा देता हूँ।

जगधार-किसी के घर में छिपी बैठी होगी।

भैरों-अंधे ने मेरी आबरू बिगाड़ दी। बिरादरी में यह बात फैलेगी, तो हुक्का बंद हो जाएगा, भात देना पड़ जाएगा।

जगधार-तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो। यह नहीं, पटकनी खाई थी, तो चुपके से घर चले आते। सुभागी घर आती तो उससे समझते। तुम लगे वहीं दुहाई देने।

भैरों-इस अंधे को मैं ऐसा कपटी न समझता था, नहीं तो अब तक कभी उसका मजा चखा चुका होता। अब उस चुड़ैल को घर में न रखूँगा। चमार के हाथों यह बेआबरुई!

जगधार-अब इससे बड़ी और क्या बदनामी होगी, गला काटने का काम है।

भैरों-बस, यही मन में आता है कि चलकर गँड़ासा मारकर काम तमाम कर दूँ। लेकिन नहीं, मैं उसे खेला-खेलाकर मारूँगा। सुभागी का दोष नहीं। सारा तूफान इसी ऐबी अंधे का खड़ा किया हुआ है।

जगधार-दोष दोनों का है।

भैरों-लेकिन छेड़छाड़ तो पहले मर्द ही करता है। उससे तो अब मुझे कोई वास्ता नहीं रहा, जहाँ चाहे जाए, जैसे चाहे रहे। मुझे तो अब इसी अंधे से भुगतना है। सूरत से कैसा गरीब मालूम होता है, जैसे कुछ जानता ही नहीं, और मन में इतना कपट भरा हुआ है। भीख माँगते दिन जाते हैं, उस पर भी अभागे की ऑंखें नहीं खुलतीं। जगधार, इसने मेरा सिर नीचा कर दिया। मैं दूसरों पर हँसा करता था, अब जमाना मुझ पर हँसेगा। मुझे सबसे बड़ा मलाल तो यह है कि अभागिन गई भी, तो चमार के साथ गई। अगर किसी ऐसे आदमी के साथ जाती, जो जात-पाँत में, देखने-सुनने में, धान-दौलत में मुझसे बढ़कर होता, तो मुझे इतना रंज न होता। जो सुनेगा, अपने मन में यही कहेगा कि मैं इस अंधे से भी गया-बीता हूँ।

जगधार-औरतों का सुभाव कुछ समझ में नहीं आता; नहीं तो, कहाँ तुम और कहाँ वह अंधा। मुँह पर मक्खियाँ भिनका करती हैं, मालूम होता है, जूते खाकर आया है।

भैरों-और बेहया कितना बड़ा है! भीख माँगता है, अंधा है; पर जब देखो हँसता ही रहता है। मैंने उसे कभी रोते ही नहीं देखा।

जगधार-घर में रुपये गड़े हैं; रोए उसकी बला। भीख तो दिखाने की माँगता है।

भैरों-अब रोएगा। ऐसा रुलाऊँगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा।

यों बातें करते हुए दोनों अपने-अपने घर गए। रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात् सूरदास की झोंपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का-सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोंकों से यों कम्पित होने लगती थीं, मानो जल में चाँद का प्रतिबिम्ब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था; पर झोंपड़े की आग, ईर्ष्यां की आग की भाँति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था; किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है।

सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।

बजरंगी ने पूछा-यह कैसे लगी सूरे, चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थी?

सूरदास-झोंपड़े में जाने का कोई रास्ता ही नहीं है?

बजरंगी-अब तो अंदर-बाहर सब एक हो गया है। दीवारें जल रही हैं।

सूरदास-किसी तरह नहीं जा सकता?

बजरंगी-कैसे जाओगे? देखते नहीं हो, यहाँ तक लपटें आ रही हैं!

जगधार-सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था?

नायकराम-चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुसमनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।

जगधार-पंडाजी, मेरा लड़का काम न आए, अगर मुझे कुछ भी मालूम हो। तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।

नायकराम-मैं जानता हूँ जिसने लगाई है। बिगाड़ न दूँ, तो कहना।

ठाकुरदीन-तुम क्या बिगाड़ोगे, भगवान आप ही बिगाड़ देंगे। इसी तरह जब मेरे घर में चोरी हुई थी, तो सब स्वाहा हो गया।

जगधार-जिसके मन में इतनी खुटाई हो, भगवान उसका सत्यानाश कर दें।

सूरदास-अब तो लपट नहीं आती।

बजरंगी-हाँ, फूस जल गया, अब धारन जल रही है।

सूरदास-अब तो अंदर जा सकता हूँ?

नायकराम-अंदर तो जा सकते हो; पर बाहर नहीं निकल सकते। अब चलो आराम से सो रहो; जो होना था, हो गया। पछताने से क्या होगा?

सूरदास-हाँ, सो रहूँगा, जल्दी क्या है।

थोड़ी देर में रही-सही आग भी बुझ गई। कुशल यह हुई कि और किसी के घर में आग न लगी। सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया। किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोंपड़े के जल जाने का दु:ख न था, बरतन आदि के जल जाने का भी दु:ख न था; दु:ख था उस पोटली का, जो उसकी उम्र-भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी, जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी-सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उध्दार संचित था। यही उसके लोक और परलोक, उसकी दीन-दुनिया का आशा-दीपक थी। उसने सोचा-पोटली के साथ रुपये थोड़े ही जल गए होंगे? अगर रुपये पिघल भी गए होंगे, तो चाँदी कहाँ जाएगी? क्या जानता था कि आज यह विपत्ति आनेवाली है, नहीं तो यहीं न सोता। पहले तो कोई झोंपड़ी के पास आता ही न; और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहले ही निकाल लेता। सच तो यों है कि मुझे यहाँ रुपये रखने ही न चाहिए थे। पर रखता कहाँ? मुहल्ले में ऐसा कौन है, जिसे रखने को देता? हाय! पूरे पाँच सौ रुपये थे, कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे-पैसे बटोर रहा था? खा लिया होता, तो कुछ तस्कीन होती। क्या सोचता था और क्या हुआ! गया जाकर पितरों को पिंडा देने का इरादा किया था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा? सोचता था, कहीं मिठुआ की सगाई ठहर जाए, तो कर डालूँ। बहू घर में आ जाय, तो एक रोटी खाने को मिले! अपने हाथों ठोंक-ठोंककर खाते एक जुग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथ में रुपये आते, एक-एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है!

उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोंपड़े में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल में पड़ गया। ऊपर राख थी, लेकिन नीचे आग। तुरंत पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने-पलटने लगा, जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आधा घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी, और तब फिर डरते-डरते राख में पैर रखा। राख गरम थी, पर असह्य न थी। उसने उसी जगह की सीधा में राख को टटोलना शुरू किया, जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धाड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें या न मिलें, पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया; पर टटोलकर देखा, तो मालूम हुआ ईंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा, जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक-एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर, जो अब तक सीढ़ी पर था, फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख-बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दु:ख उसे कभी न हुआ था।

तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती।

उसी समय जगधार आकर बोला-सूरे, सच कहना, तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है?

सूरे को सुभा तो था, पर उसने इसे छिपाकर कहा-तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूँगा? तुमसे मेरी कौन-सी अदावत थी?

जगधार-मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूँ, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।

सूरदास-अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। कौन जाने, किसी ने लगा दी, या किसी की चिलम से उड़कर लग गई? यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग रह गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूँ?

जगधार-इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।

सूरदास-तुम्हारी तरफ से मेरा दिल साफ है।

जगधार को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधो भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा था, पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधार को देखते ही बोला-कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं?

जगधार-सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।

भैरों-यहाँ ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई?

जगधार-सच कहो, तुम्हीं ने लगाई?

भैरों-हाँ, चुपके से एक दियासलाई लगा दी।

जगधार-मैं कुछ-कुछ पहले ही समझ गया था; पर यह तुमने बुरा किया। झोंपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोंपड़ी तैयार हो जाएगी।

भैरों-कुछ हो, दिल की आग तो ठंडी हो गई! यह देखो!

यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएँ से काला हो गया था। जगधार ने उत्सुक होकर पूछा-इसमें क्या है? अरे! इसमें तो रुपये भरे हुए हैं।

भैरों-यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है।

जगधार-सच बताओ, ये रुपये कहाँ मिले?

भैरों-उसी झोंपड़े में। बड़े जतन से धारन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था, और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपये जमा हो गए! बचा को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज-भात देने का सामान हो गया। नहीं तो, इस बखत रुपये कहाँ मिलते? आजकल तो देखते ही हो, बल्लमटेरों के मारे बिकरी कितनी मंदी है।

जगधार-मेरी तो सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।

जगधार दिल का खोटा आदमी नहीं था; पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहीं, हसद से दी थी। उसे यह असह्य था कि भैरों के हाथ इतने रुपये लग जाएँ। भैरों आधो रुपये उसे देता, तो शायद उसे तस्कीन हो जाती; पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला-मुझे अच्छी तरह हजम हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपये को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख ही माँगकर जमा किए हैं, गेहूँ तो नहीं तौला था।

जगधार-पुलिस सब खा जाएगी।

भैरों-सूरे पुलिस में न जाएगा। रो-धोकर चुप हो जाएगा।

जगधार-गरीब की हाय बड़ी जान-लेवा होती है।

भैरों-वह गरीब है! अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा हों, जो दूसरों को रुपये उधार देता हो, वह गरीब है? गरीब जो कहो, तो हम-तुम हैं। घर में ढूँढ़ आओ, एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को गरीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का काँटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखूँगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी, उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता।

जगधार का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर साँप लोट रहा था-इसे दम-के-दम में इतने रुपये मिल गए, अब मौज उड़ाएगा। तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप-पुन्न की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन-भर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी-छदाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ! बाट खोटे रखता हूँ, तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूँ, यह बुरा काम है; पर बाल-बचों को पालना भी तो जरूरी है। इसने ईमान खोया, तो कुछ लेकर खोया, गुनाह बेलज्जत नहीं रहा। अब दो-तीन दूकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सुफल हो जाती।

जगधार के मन में ईर्ष्याी का अंकुर जमा। वह भैरों के घर से लौटा तो देखा कि सूरदास राख को बटोरकर उसे आटे की भाँति गूँधा रहा है। सारा शरीर भस्म से ढका हुआ है और पसीने की धारें निकल रही हैं। बोला-सूरे, क्या ढूँढ़ते हो?

सूरदास-कुछ नहीं। यहाँ रखा ही क्या था! यही लोटा-तवा देख रहा था।

जगधार-और वह थैली किसकी है, जो भैरों के पास है?

सूरदास चौंका। क्या इसीलिए भैरों आया था? जरूर यही बात है। घर में आग लगाने के पहले रुपये निकाल लिए होंगे।

लेकिन अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धान। सूरदास जगधार से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंड दान करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुऑं बनवाना चाहता था; किंतु इस ढंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपये कहाँ से आए, लोग यही समझें कि भगवान् दीन जनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धान-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। बोला-मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की। थैली होती, तो भीख माँगता?

जगधार-मुझसे उड़ते हो? भैरों मुझसे स्वयं कह रहा था कि झोंपड़े में धारन के ऊपर यह थैली मिली। पाँच सौ रुपये से कुछ बेसी हैं।

सूरदास-वह तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपये तो कभी जुड़े ही नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते!

इतने में सुभागी वहाँ आ पहुँची। रात-भर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग में छिपी बैठी थी। वह जानती थी, आग भैरों ने लगाई है। भैरों ने उस पर जो कलंक लगाया था, उसकी उसे विशेष चिंता न थी, क्योंकि वह जानती थी किसी को इस पर विश्वास न आएगा। लेकिन मेरे कारण सूरदास का यों सर्वनाश हो जाए, इसका उसे बड़ा दु:ख था। वह इस समय उसको तस्कीन देने आई थी। जगधार को वहाँ खड़े देखा, तो झिझकी। भय हुआ, कहीं यह मुझे पकड़ न ले। जगधार को वह भैरों ही का दूसरा अवतार समझती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब भैरों के घर न जाऊँगी, अलग रहूँगी और मेहनत-मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी। यहाँ कौन लड़के रो रहे हैं, एक मेरा ही पेट उसे भारी है न? अब अकेले ठोंके और खाए, और बुढ़िया के चरण धो-धोकर पिए, मुझसे तो यह नहीं हो सकता। इतने दिन हुए, इसने कभी अपने मन से धोले का सेंदुर भी न दिया होगा, तो मैं क्यों उसके लिए मरूँ?

वह पीछे लौटना ही चाहती थी कि जगधार ने पुकारा-सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।

सुभागी ने समझा, मुझे झाँसा दे रहा है। मेरे पेट की थाह लेने के लिए यह जाल फेंका है। व्यंग से बोली-उसके गुरु तो तुम्हीं हो, तुम्हीं ने मंत्र दिया होगा।

जगधार-हाँ, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊँ, तो रोटियाँ क्योंकर चलें!

सुभागी ने फिर व्यंग किया-रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्या?

जगधार-ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूँगा? जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, ताड़ी भी पी लेता था, कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना है, आप ऐेसे धार्मात्मा तो हैं!); लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाए, गरीबों के रुपये चुरा ले जाए, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ, लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।

सूरदास-फिर वही रट लगाए जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपये नहीं थे, कहीं और जगह से मार लाया होगा; मेरे पास पाँच सौ रुपये होते, तो चैन की बंसी न बजाता, दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारता?

जगधार-सूरे, अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपये नहीं है, तो मैं न मानूँगा। मैंने अपनी ऑंखों से वह थैली देखी है। भैरों ने अपने मुँह से कहा है कि यह थैली झोंपड़े में धारन के ऊपर मिली। तुम्हारे बात कैसे मान लूँ?

सुभागी-तुमने थैली देखी है?

जगधार-हाँ, देखी नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूँ?

सुभागी-सूरदास, सच-सच बता दो, रुपये तुम्हारे हैं!

सूरदास-पागल हो गई है क्या? इनकी बातों में आ जाती है! भला मेरे पास रुपये कहाँ से आते?

जगधार-इनसे पूछ, रुपये न थे, तो इस घड़ी राख बटोरकर क्या ढूँढ़ रहे थे?

सुभागी ने सूरदास के चेहरे की तरफ अन्वेषण की दृष्टि से देखा। उसकी उस बीमार की-सी दशा थी, जो अपने प्रियजनों की तस्कीन के लिए अपनी असह्य वेदना को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहा हो। जगधार के निकट आकर बोली-रुपये जरूर थे, इसका चेहरा कहे देता है।

जगधार-मैंने थैली अपनी ऑंखों से देखी है।

सुभागी-अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले, पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ-कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर यह बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगी, मुझे चैन न आएगी।

यह कहकर वह सूरदास से बोली-तो अब रहोगे कहाँ?

सूरदास ने यह बात न सुनी। वह सोच रहा था-रुपये मैंने ही तो कमाए थे, क्या फिर नहीं कमा सकता? यही न होगा, जो काम इस साल होता, वह कुछ दिनों के बाद होगा। मेरे रुपये थे ही नहीं, शायद उस जन्म में मैंने भैरों के रुपये चुराए होंगे। यह उसी का दंड मिला है। मगर बिचारी सुभागी का अब क्या हाल होगा? भैरों उसे अपने घर में कभी न रखेगा। बिचारी कहाँ मारी-मारी फिरेगी! यह कलंक भी मेरे सिर लगना था। कहीं का न हुआ। धान गया, घर गया, आबरू गई; जमीन बच रही है, यह भी न जाने, जाएगी या बचेगी। अंधापन ही क्या थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक-न-एक चपत पड़ती रहती है। जिसके जी में आता है, चार खोटी-खरी सुना देता है।

इन दु:खजनक विचारों से मर्माहत-सा होकर वह रोने लगा। सुभागी जगधार के साथ भैरों के घर की ओर चली जा रही थी और यहाँ सूरदास अकेला बैठा हुआ रो रहा था।

सहसा वह चौंक पड़ा। किसी ओर से आवाज आई-तुम खेल में रोते हो!

मिठुआ घीसू के घर से रोता चला आता था, शायद घीसू ने मारा था। इस पर घीसू उसे चिढ़ा रहा था-खेल में रोते हो!

सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था, कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआ, किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है! लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोनेवाले को चिढ़ाते हैं, और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बाजी हारते हैं, चोट-पर-चोट खाते हैं, धाक्के-पर-धाक्के सहते हैं; पर मैदान में डटे रहते हैं, उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती, दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं। खेल में रोना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं।

सूरदास उठ खड़ा हुआ, और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

आवेग में हम उद्दिष्ट स्थान से आगे निकल जाते हैं। वह संयम कहाँ है, जो शत्रु पर विजय पाने के बाद तलवार को म्यान में कर ले?

एक क्षण में मिठुआ, घीसू और मुहल्ले के बीसों लड़के आकर इस भस्म-स्तूप के चारों ओर जमा हो गए और मारे प्रश्नों के सूरदास को परेशान कर दिया। उसे राख फेंकते देखकर सबों को खेल हाथ आया। राख की वर्षा होने लगी। दम-के-दम में सारी राख बिखर गई, भूमि पर केवल काला निशान रह गया।

मिठुआ ने पूछा-दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?

सूरदास-दूसरा घर बनाएँगे।

मिठुआ-और कोई फिर आग लगा दे?

सूरदास-तो फिर बनाएँगे।

मिठुआ-और फिर लगा दे?

सूरदास-तो हम भी फिर बनाएँगे।

मिठुआ-और कोई हजार बार लगा दे?

सूरदास-तो हम हजार बार बनाएँगे।

बालकों को संख्याओं से विशेष रुचि होती है। मिठुआ ने फिर पूछा-और जो कोई सौ लाख बार लगा दे?

सूरदास ने उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया-तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।

जब वहाँ राख की चुटकी भी न रही, तो सब लड़के किसी दूसरे खेल की तलाश में दौड़े। दिन अच्छी तरह निकल आया था। सूरदास ने भी लकड़ी सँभाली और सड़क की तरफ चला। उधार जगधार वहाँ से नायकराम के पास गया; और यहाँ भी यह वृत्तांत सुनाया। पंडा ने कहा-मैं भैरों के बाप से रुपये वसूल करूँगा, जाता कहाँ है, उसकी हडिडयों से रुपये निकालकर दम लूँगा, अंधा अपने मुँह से चाहे कुछ कहे या न कहे।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »


जगधार वहाँ से बजरंगी, दयागिरि, ठाकुरदीन आदि मुहल्ले के सब छोटे-बड़े आदमियों से मिला और यह कथा सुनाई। आवश्यकतानुसार यथार्थ घटना में नमक-मिर्च भी लगाता जाता था। सारा मुहल्ला भैरों का दुश्मन हो गया।

सूरदास तो सड़क के किनारे राहगीरों की जय मना रहा था, यहाँ मुहल्लेवालों ने उसकी झोंपड़ी बसानी शुरू की। किसी ने फूस दिया, किसी ने बाँस दिए, किसी ने धारन दी, कई आदमी झोंपड़ी बनाने में लग गए। जगधार ही इस संगठन का प्रधान मंत्री था। अपने जीवन में शायद ही उसने इतना सदुत्साह दिखाया हो। ईर्ष्याप में तम-ही-तम नहीं होता, कुछ सत् भी होता है। संध्याश तक झोंपड़ी तैयार हो गई, पहले से कहीं ज्यादा बड़ी और पायदार। जमुनी ने मिट्टी के दो घड़े और दो-तीन हाँड़ियाँ लाकर रख दीं। एक चूल्हा भी बना दिया। सबने गुट कर रखा था कि सूरदास को झोंपड़ी बनने की जरा भी खबर न हो। जब वह शाम को आए, तो घर देखकर चकित हो जाए, और पूछने लगे, किसने बनाई, तब सब लोग कहें, आप-ही-आप तैयार हो गई।

प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ, पत्रों में विज्ञापन छपवाऊँ, बस सिगरेट की डिबिया बन जाऊँ। यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं धान कमाने की कल नहीं हूँ, मनुष्य हूँ, धान-लिप्सा अभी तक मेरे भावों को कुचल नहीं पाई है। अगर मैं अपनी ईश्वरदत्ता रचना-शक्ति से काम न लूँ, तो यह मेरी कृतघ्नता होगी। प्रकृति ने मुझे धानोपार्जन के लिए बनाया ही नहीं; नहीं तो वह मुझे इन भावों से क्यों भूषित करती। कहते तो हैं कि अब मुझे धान की क्या चिंता, थोड़े दिनों का मेहमान हूँ, मानो ये सब तैयारियाँ मेरे लिए हो रही हैं। लेकिन अभी कह दूँ कि आप मेरे लिए यह कष्ट न उठाइए, मैं जिस दशा में हूँ, उसी में प्रसन्न हूँ, तो कुहराम मच जाए! अच्छी विपत्ति गले पड़ी, जाकर देहातियों पर रोब जमाइए, उन्हें धामकाइए, उनको गालियाँ सुनाइए। क्यों? इन सबों ने कोई नई बात नहीं की है। कोई उनकी जायदाद पर जबरदस्ती हाथ बढ़ाएगा, तो वे लड़ने पर उतारू हो ही जाएँगे। अपने स्वत्वों की रक्षा करने का उनके पास और साधान ही क्या है? मेरे मकान पर आज कोई अधिकार करना चाहे, तो मैं कभी चुपचाप न बैठूँगा। धैर्य तो नैराश्य की अंतिम अवस्था का नाम है। जब तक हम निरुपाय नहीं हो जाते, धैर्य की शरण नहीं लेते। इन मियाँजी को भी जरा-सी चोट आ गई, तो फरियाद लेकर पहुँचे। खुशामदी है, चापलूसी से अपना विश्वास जमाना चाहता है। आपको भी गरीबों पर रोब जमाने की धुन सवार होगी। मिलकर नहीं रहते बनता। पापा की भी यही इच्छा है। खुदा करे, सब-के-सब बिगड़ खड़े हों, गोदाम में आग लगा दें और इस महाशय की ऐसी खबर लें कि यहाँ से भागते ही बने। ताहिर अली से सरोष होकर बोले-क्या बात हुई कि सब-के-सब बिगड़ खड़े हुए?

ताहिर-हुजूर, बिल्कुल बेसबब। मैं तो खुद ही इन सबों से जान बचाता रहता हूँ।

प्रभु सेवक-किसी कार्य के लिए कारण का होना आवश्यक है; पर आज मालूम हुआ कि वह भी दार्शनिक रहस्य है, क्यों?

ताहिर-(बात न समझकर) जी हाँ, और क्या!

प्रभुसेवक-जी हाँ, और क्या के क्या मानी? क्या आप बात भी नहीं समझते, या बहरेपन का रोग है? मैं कहता हूँ, बिना चिनगारी के आग नहीं लग सकती; आप फरमाते हैं, जी हाँ, और क्या। आपने कहाँ तक शिक्षा पाई है?

ताहिर-(कातर स्वर से) हुजूर, मिडिल तक तालीम पाई थी, पर बदकिस्मती से पास न हो सका। मगर जो काम कर सकता हूँ, वह मिडिल पास कर दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूँ। बहुत दिनों तक चुंगी में मुंशी रह चुका हूँ।

प्रभु सेवक-तो फिर आपके पांडित्य और विद्वता पर किसे शंका हो सकती है! आपके कथन के आधार पर मुझे मान लेना चाहिए कि आप शांत बैठे हुए पुस्तकावलोकन में मग्न थे, या सम्भवत: ईश्वर-भजन में तन्मय हो रहे थे, और विद्रोहियों का एक सशस्त्रा दल पहुँचकर आप पर हमले करने लगा।

ताहिर-हुजूर तो खुद ही चल रहे हैं, मैं क्या अर्ज करूँ, तहकीकात कर लीजिएगा।

प्रभु सेवक-सूर्य को सिध्द करने के लिए दीपक की जरूरत नहीं होती। देहाती लोग प्राय: बड़े शांतिप्रिय होते हैं। जब तक उन्हें भड़काया न जाए, लड़ाई-दंगा नहीं करते। आपकी तरह उन्हें ईश्वर-भजन से रोटियाँ नहीं मिलतीं। सारे दिन सिर खपाते हैं, तब रोटियाँ नसीब होती हैं। आश्चर्य है कि आपके सिर पर जो कुछ गुजरी, उसके कारण भी नहीं बता सकते। इसका आशय इसके सिवा और क्या हो सकता है कि या तो आपको खुदा ने बहुत मोटी बुध्दि दी है, या आप अपना रोब जमाने के लिए लोगों पर अनुचित दबाव डालते हैं।

ताहिर-हुजूर, झगड़ा लड़कों से शुरू हुआ। मुहल्ले के कई लड़के मेरे लड़कों को मार रहे थे। मैंने जाकर उन सबों की गोशमाली कर दी। बस,इतनी जरा-सी बात पर लोग चढ़ आए।

प्रभु सेवक-धान्य हैं, आपके साथ भगवान् ने उतना अन्याय नहीं किया है, जितना मैं समझता था। आपके लड़कों में और मुहल्ले के लड़कों में मार-पीट हो रही थी। अपने लड़कों के रोने की आवाज सुनी और आपका खून उबलने लगा। देहातियों के लड़कों की इतनी हिम्मत कि आपके लड़कों को मारें! खुदा का गजब! आपकी शराफत यह अत्याचार न सह सकी। आपने औचित्य, दूरदर्शिता और सहज बुध्दि को समेटकर ताक पर रख दिया और उन दुस्साहसी लड़कों को मारने दौड़े। तो अगर आप-जैसे सभ्य पुरुष को बाल-संग्राम में हस्तक्षेप करते देखकर और लोग भी आपका अनुसरण करें, तो आपको शिकायत न होनी चाहिए। आपको दुनिया में इतने दिनों तक रहने के बाद यह अनुभव हो जाना चाहिए था कि लड़कों के बीच में बूढ़ों को न पड़ना चाहिए। इसका नतीजा बुरा होता है। मगर आप इस अनुभव से वंचित थे, तो आपको इस पाठ के लिए प्रसन्न होना चाहिए, जिससे आपको एक परमावश्यक और महत्व पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके लिए फरियाद करने की जरूरत न थी।

फिटन उड़ी जाती थी और उसके साथ ताहिर अली के होश भी उड़े जाते थे-मैं समझता था, इन हज़रत में ज्यादा इंसानियत होगी; पर देखता हूँ तो यह अपने बाप से भी दो अंगुल ऊँचे हैं। न हारी मानते हैं, न जीती। ये ताने बर्दाश्त नहीं हो सकते। कुछ मुफ्त में तनख्वाह नहीं देते। काम करता हूँ, मजदूरी लेता हूँ। तानों-ही-तानों में मुझे कमीना, अहमक, जाहिल, सब कुछ बना डाला। अभी उम्र में मुझसे कितने छोटे हैं! माहिर से दो-चार साल बड़े होंगे; मगर मुझे इस तरह आड़े हाथों ले रहे हैं, गोया मैं नादान बच्चा हूँ! दौलत ज्यादा होने से अक्ल भी ज्यादा हो जाती है। चैन से जिंदगी बसर होती है, जभी ये बातें सूझ रही हैं। रोटियों के लिए ठोकरें खानी पड़तीं, तो मालूम होता, तजुर्बा क्या चीज है। आप कोई बात एतराज के लायक देखें, तो उसे समझाने का हक है, इसकी मुझे शिकायत नहीं; पर जो कुछ कहो, नरमी और हमदर्दी के साथ। यह नहीं कि जहर उगलने लगो, कलेजे को चलनी बना डालो।

ये बातें हो रही थीं कि पाँड़ेपुर आ पहुँचा। सूरदास आज बहुत प्रसन्नचित्ता नजर आता था। और दिन सवारियों के निकल जाने के बाद दौड़ता था। आज आगे ही से उनका स्वागत किया, फिटन देखते ही दौड़ा। प्रभु सेवक ने फिटन रोक दी और कर्कश स्वर में बोले-क्यों सूरदास,माँगते हो भीख, बनते हो साधु और काम करते हो बदमाशों का? मुझसे फौजदारी करने का हौसला हुआ है?

सूरदास-कैसी फौजदारी हुजूर? मैं अंधा-अपाहिज आदमी भला क्या फौजदारी करूँगा।

प्रभु सेवक-तुम्हीं ने तो मुहल्लेवालों को साथ लेकर मेरे मुंशीजी पर हमला किया था और गोदाम में आग लगाने को तैयार थे?

सूरदास-सरकार, भगवान से कहता हूँ, मैं नहीं था। आप लोगों का माँगता हूँ, जान-माल का कल्यान मनाता हूँ, मैं क्या फौजदारी करूँगा?

प्रभु सेवक-क्यों मुंशीजी, यही अगुआ था न?

ताहिर-नहीं हुजूर, इशारा इसी का था, पर यह वहाँ न था।

प्रभु सेवक-मैं इन चालों को खूब समझता हूँ। तुम जानते होगे, इन धमकियों से ये लोग डर जाएँगे, मगर एक-एक से चक्की न पिसवाई,तो कहना कि कोई कहता था। साहब को तुमने क्या समझा है! अगर हाकिमों से झूठ भी कह दें, तो सारा मुहल्ला बँधा जाए। मैं तुम्हें जताए देता हूँ।

फिटन आगे बढ़ी, तो जगधार मिला। खोंचा हथेली पर रखे, एक हाथ से मक्खियाँ उड़ाता चला जाता था। प्रभु सेवक को देखते ही सलाम करके खड़ा हो गया। प्रभु सेवक ने पूछा-तुम भी कल फौजदारी करनेवालों में थे?

जगधार-सरकार, मैं टके का आदमी क्या खाके फौजदारी करूँगा, और बिचारे सूरदास की क्या मजाल है कि सरकार के सामने अकड़ दिखाए। अपनी ही बिपत में पड़ा हुआ है। किसी ने रात को बिचारे की झोंपड़ी में आग लगा दी। बरतन-भाँड़ा सब जल गया। न जाने किस-किस जतन से कुछ रुपये जुटाए थे; वे भी लुट गए। गरीब ने सारी रात रो-रोकर काटी है। आज हम लोगों ने उसका झोंपड़ा बनाया है। अभी छुट्टी मिली है, तो खोंचा लेकर निकला हूँ। हुकुम हो, तो कुछ खिलाऊँ। कचालू खूब चटपटे हैं।

प्रभु सेवक का जी ललचा गया। खोंचा उतारने को कहा और कचालू, दही-बड़े, फुलौड़ियाँ खाने लगे। भूख लगी हुई थी। ये चीजें बहुत प्रिय लगीं। कहा-सूरदास ने तो यह बात मुझसे नहीं कही?

जगधार-वह कभी न कहेगा। कोई गला भी काट ले, तो शिकायत न करेगा।

प्रभुसेवक-तब तो वास्तव में कोई महापुरुष है। कुछ पता न चला, किसने झोंपड़े में आग लगाई थी?

जगधार-सब मालूम हो गया, हुजूर, पर किया क्या जाए। कितना कहा गया कि उस पर थाने में रपट कर दे, मुआ कहता है, कौन किसी को फँसाए! जो कुछ भाग में लिखा था, वह हुआ। हुजूर, सारी करतूत इसी भैरों ताड़ीवाले की है।

प्रभु सेवक-कैसे मालूम हुआ? किसी ने उसे आग लगाते देखा?

जगधार-हुजूर, वह खुद मुझसे कह रहा था। रुपयों की थैली लाकर दिखाई। इससे बढ़कर और क्या सबूत होगा?

प्रभु सेवक-भैरों के मुँह पर कहोगे?

जगधार-नहीं सरकार, खून हो जाएगा।

सहसा भैरों सिर पर ताड़ी का घड़ा रखे आता हुआ दिखाई दिया। जगधार ने तुरंत खोंचा उठाया, बिना पैसे लिए कदम बढ़ाता हुआ दूसरी तरफ चल दिया। भैरों ने समीप आकर सलाम किया। प्रभु सेवक ने ऑंखें दिखाकर पूछा-तू ही भैरों ताड़ीवाला है न?

भैरों-(काँपते हुए) हाँ हुजूर, मेरा ही नाम भैरों है।

प्रभु सेवक-तू यहाँ लोगों के घरों में आग लगाता फिरता है?

भैरों-हुजूर, जवानी की कसम खाता हूँ, किसी ने हुजूर से झूठ कह दिया है।

प्रभु सेवक-तू कल मेरे गोदाम पर फौजदारी करने में शरीक था?

भैरों-हुजूर का ताबेदार हूँ, आपसे फौजदारी करूँगा। मुंसीजी से पूछिए, झूठ कहता हूँ या सच। सरकार, न जाने क्यों सारा मोहल्ला मुझसे दुश्मनी करता है। अपने घर में एक रोटी खाता हूँ, वह भी लोगों से नहीं देखा जाता। यह जो अंधा है, हुजूर, एक ही बदमास है। दूसरों की बहू-बेटियों पर बुरी निगाह रखता है। माँग-माँगकर रुपये जोड़ लिए हैं, लेन-देन करता है। सारा मोहल्ला उसके कहने में है। उसी के चेले बजरंगी ने फौजदारी की है। मालमस्त है, गाएं-भैंसे हैं, पानी मिला-मिलाकर दूध बेचता है। उसके सिवा किसका गुरदा है कि हुजूर से फौजदारी करे!

प्रभु सेवक-अच्छा! इस अंधे के पास रुपये भी हैं?

भैरों-हुजूर, बिना रुपये के इतनी गरमी और कैसे होगी! जब पेट भरता है, तभी तो बहू-बेटियों पर निगाह डालने की सूझती है।

प्रभु सेवक-बेकार क्या बकता है, अंधा आदमी क्या बुरी निगाह डालेगा? मैंने तो सुना है, वह बहुत सीधा-सादा आदमी है।

भैरों-आपका कुत्ता आपको थोड़े ही काटता है, आप तो उसकी पीठ सुहलाते हैं; पर जिन्हें काटने दौड़ता है, वे तो उसे इतना सीधा न समझेंगे।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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