हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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नायकराम ने एक आदमी से पूछा, तो ज्ञात हुआ कि नौ बजे के समय एजेंट साहब अपनी मेम साहब के साथ मोटर पर बैठे हुए बाजार की तरफ से निकले। मोटर बड़ी तेजी से जा रही थी। चौराहे पर पहुँची, तो एक आदमी, जो बाईं ओर से आ रहा था, मोटर से नीचे दब गया। साहब ने आदमी को दबते हुए देखा; पर मोटर को रोका नहीं। यहाँ तक कि कई आदमी मोटर के पीछे दौड़े। बाजार के इस सिरे तक आते-आते मोटर को बहुत-से आदमियों ने घेर लिया। साहब ने आदमियों को डाँटा कि अभी हट जाओ। जब लोग न हटे, तो उन्होंने पिस्तौल चला दी। एक आदमी तुरंत गिर पड़ा। अब लोग क्रोधाोन्माद की दशा में साहब के बँगले पर जा रहे थे।

विनय ने पूछा-वहाँ जाने की क्या जरूरत है?

एक आदमी-जो कुछ होना है, वह हो जाएगा। यही न होगा, मारे जाएँगे। मारे तो यों ही जा रहे हैं। एक दिन तो मरना है ही। दस-पाँच आदमी मर गए, तो कौन संसार सूना हो जाएगा?

विनय के होश उड़ गए। यकीन हो गया कि आज कोई उपद्रव अवश्य होगा। बिगड़ी हुई जनता वह जल-प्रवाह है, जो किसी के रोके नहीं रुकता। ये लोग झल्लाए हुए हैं। इस दशा में इनसे धौर्य और क्षमा की बातें करना व्यर्थ है। कहीं ऐसा न हो कि ये लोग बँगले को घेर लें। सोफिया भी वहीं है। कहीं उस पर आघात कर बैठे। दुरावेश में सौजन्य का नाश हो जाता है। नायकराम से बोले-पंडाजी, जरा बँगले तक होते चलें।

नायकराम-किसके बँगले तक?

विनय-पोलिटिकल एजेंट के।

नायकराम-उनके बँगले पर जाकर क्या कीजिएगा? क्या अभी तक परोपकार से जी नहीं भरा? ये जानें, वह जानें, हमसे-आपसे मतलब?

विनय-नहीं मौका नाजुक है, वहाँ जाना जरूरी है।

नायकराम-नाहक अपनी जान के दुसमन हुए हो। वहाँ कुछ दंगा हो जाए, तो! मरद हैं ही, चुपचाप खड़े मुँह तो देखा न जाएगा। दो-चार हाथ इधार या उधार चला ही देंगे। बस, धार-पकड़ हो जाएगी। इससे क्या फायदा?

विनय-कुछ भी हो, मैं यहाँ यह हंगामा होते देखकर स्टेशन नहीं जा सकता।

नायकराम-रानीजी तिल-तिल पर पूछती होंगी।

विनय-तो यहाँ कौन हमें दो-चार दिन लग जाते हैं। तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आता हूँ।

नायकराम-जब तुम्हें कोई भय नहीं है, तो यहाँ कौन रोनेवाला बैठा हुआ है। मैं आगे-आगे चलता हूँ। देखना, साथ न छोड़ना। यह ले लो,जोखिम का मामला है। मेरे लिए यह लकड़ी काफी है।

यह कहकर नायकराम ने एक दो नलीवाली पिस्तौल कमर से निकालकर विनय के हाथ में रख दी। विनय पिस्तौल लिए हुए आगे बढ़ा। जब राजभवन के निकट पहुँचे, तो इतनी भीड़ देखी कि एक-एक कदम चलना मुश्किल हो गया, और भवन से एक गोली के टप्पे पर तो उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा। सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। राजभवन के सामने एक बिजली की लालटेन जल रही थी और उसके उज्ज्वल प्रकाश में हिलता, मचलता, रुकता, ठिठकता हुआ जन-प्रवाह इस तरह भवन की ओर चला रहा था, मानो उसे निगल जाएगा। भवन के सामने, इस प्रवाह को रोकने के लिए, वरदीपोश सिपाहियों की एक कतार, संगीनें चढ़ाए, चुपचाप खड़ी थी और ऊँचे चबूतरे पर खड़ी होकर सोफी कुछ कह रही थी; पर इस हुल्लड़ में उसकी आवाज सुनाई न देती थी। ऐसा मालूम होता था कि किसी विदुषी की मूर्ति है, जो कुछ कहने का संकेत कर रही है।

सहसा सोफिया ने दोनों हाथ ऊपर उठाए। चाराेंं ओर सन्नाटा छा गया। सोफी ने उच्च और कम्पित स्वर में कहा-मैं अंतिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ कि यहाँ से शांति के साथ चले जाओ, नहीं तो सैनिकों को विवश होकर गोली चलानी पड़ेगी एक क्षण के अंदर यह मैदान साफ हो जाना चाहिए।

वीरपालसिंह ने सामने आकर कहा-प्रजा अब ऐसे अत्याचार नहीं सह सकती।

सोफी-अगर लोग सावधाानी से रास्ता चलें, तो ऐसी दुर्घटना क्यों हो!

वीरपाल-मोटरवालों के लिए भी कोई कानून है या नहीं?

सोफी-उनके लिए कानून बनाना तुम्हारे अधिाकार में नहीं है।

वीरपाल-हम कानून नहीं बना सकते, पर अपनी प्राण-रक्षा तो कर सकते हैं?

सोफी-तुम विद्रोह करना चाहते हो और उसके कुफल का भार तुम्हारे सिर पर होगा।

वीरपाल-हम विद्रोही नहीं हैं, मगर यह नहीं हो सकता कि हमारा एक भाई किसी मोटर के नीचे दब जाए, चाहे वह मोटर महारानी ही की क्यों न हो, और हम मुँह न खोलें।

सोफी-वह संयोग था।

वीरपाल-सावधाानी उस संयोग को टाल सकती थी। अब हम उस वक्त तक यहाँ से न जाएँगे, जब तक हमें वचन न दिया जाएगा कि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं के लिए अपराधाी को उचित दंड मिलेगा, चाहे वह कोई हो।

सोफी-संयोग के लिए कोई वचन नहीं दिया जा सकता। लेकिन…

सोफी कुछ और कहना चाहती थी कि किसी ने एक पत्थर उसकी तरफ फेंका, जो उसके सिर में इतनी जोर से लगा कि वह वहीं सिर थामकर बैठ गई। यदि विनय तत्क्षण किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर जनता को आश्वासन देते, तो कदाचित् उपद्रव न होता, लोग शांत होकर चले जाते। सोफी का जख्मी हो जाना जनता का क्रोधा शांत करने को काफी न था। किंतु जो पत्थर सोफी के सिर में लगा, वही कई गुने आघात के साथ विनय के हृदय में लगा। उसकी ऑंखों में खून उतर आया, आपे से बाहर हो गया। भीड़ को बलपूर्वक हटाता, आदमियों को ढकेलता, कुचलता सोफी के बगल में जा पहुँचा, पिस्तौल कमर से निकाली और वीरपालसिंह पर गोली चला दी। फिर क्या था, सैनिकों को मानो हुक्म मिल गया, उन्होंने बंदूकें छोड़नी शुरू कीं। कुहराम मच गया, लेकिन फिर भी कई मिनट तक लोग वहीं खड़े गोलियों का जवाब ईंट-पत्थर से देते रहे। दो-चार बंदूकें इधार से भी चलीं। वीरपाल बाल-बाल बच गया और विनय को निकट होने के कारण पहचानकर बोला-आप भी उन्हीं में हैं?

विनय-हत्यारा!

वीरपाल-परमात्मा हमसे फिर गया है।

विनय-तुम्हें एक स्त्राी पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती?

चारों तरफ से आवाजें आने लगीं-विनयसिंह हैं, यह कहाँ से आ गए, यह भी उधार मिल गए, इन्हीं ने तो पिस्तौल छोड़ी है!

‘शायद शर्त पर छोड़े गए हैं।’

‘धान की लालसा सिर पर सवार है।’

‘मार दो एक पत्थर, सिर फट जाए, यह भी हमारा दुश्मन है।’

‘दगाबाज है।’

‘इतना बड़ा आदमी और थोड़े-से धान के लिए ईमान बेच बैठा।’

बंदूकों के सामने निहत्थे लोग कब तक ठहरते! जब कई आदमी अपने पक्ष के लगातार गिरे, तो भगदड़ गच गई; कोई इधार भागा, कोई उधार। मगर वीरपालसिंह और उसके साथ के पाँचों सवार, जिनके हाथों में बंदूकें थीं, राजभवन के पीछे की ओर से विनयसिंह के सिर पर आ पहुँचे। ऍंधोरे में किसी की निगाह उन पर न पड़ी। विनय ने पीछे की तरफ घोड़ों की टाप सुनी, तो चौंके, पिस्तौल चलाई, पर वह खाली थी।

वीरपाल ने व्यंग करके कहा-आप तो प्रजा के मित्रा बनते थे?

तुम जैसे हत्यारों की सहायता करना मेरा नियम नहीं है।

वीरपाल-मगर हम उससे अच्छे हैं, जो प्रजा की गरदन पर अधिाकारियों से मिलकर छुरी चलाए।

विनय क्रोधावेश में बाज की तरह झपटे कि उसके हाथ से बंदूक छीन लें, किंतु वीरपाल के एक सहयोगी ने झपटकर विनयसिंह को नीचे गिरा दिया, दूसरा साथी तलवार लेकर उसी तरफ लपका ही था कि सोफी, जो अब तक चेतना-शून्य दशा में भूमि पर पड़ी थी, चीख मारकर उठी और विनयसिंह से लिपट गई। तलवार अपने लक्ष्य पर न पहुँचकर सोफी के माथे पर पड़ी। इतने में नायकराम लाठी लिए हुए आ पहुँचा और लाठियाँ चलाने लगा। दो विद्रोही आहत होकर गिर पड़े। वीरपाल अब तक हतबुध्दि की भाँति खड़ा था। न उसे ज्ञात था कि सोफी को पत्थर किसने मारा; न उसने अपने सहयोगियों ही को विनय पर आघात करने के लिए कहा था। यह सब कुछ उसकी ऑंखों के सामने, पर उसकी इच्छा के विरुध्द हो रहा था। पर अब अपने साथियों को देखकर वह तटस्थ न रह सका। उसने बंदूक का क्ुं+दा तौलकर इतनी जोर से नायकराम के सिर में मारा कि उसका सिर फट गया और एक पल में उसके तीनों साथी अपने आहत साथियों को लेकर भाग निकले। विनयसिंह सँभलकर उठे, तो देखा कि बगल में नायकराम खून से तर अचेत पड़ा है और सोफी का कहीं पता नहीं। उसे कौन ले गया, क्यों ले गया, कैसे ले गया, इसकी उन्हें खबर न थी।

मैदान में एक आदमी भी न था। दो-चार लाशें अलबत्ताा इधार-उधार पड़ी हुई थीं।

मिस्टर क्लार्क कहाँ थे? तूफान उठा और गया, आग लगी और बुझी, पर उनका कहीं पता तक नहीं। वह शराब के नशे में मस्त, दीन-दुनिया से बेखबर, अपने शयनागार में पड़े हुए थे। विद्रोहियों का शोर सुनकर सोफी भवन से बाहर निकल आई थी। मिस्टर क्लार्क को इसलिए जगाने की चेष्टा न की थी कि उनके आने से रक्तपात का भय था। उसने शांत उपायों से शांति-रक्षा करनी चाही थी कि उसी का यह फल था। वह पहले सतर्क हो जाती, तो कदाचित् स्थिति इतनी भयावह न होने पाती।

विनय ने नायकराम को देखा। नाड़ी का पता न था, ऑंखें पथरा गई थीं। चिंता शोक और पश्चात्तााप से चित्ता इतना विकल हुआ कि वह रो पड़े। चिंता थी माता की, उसके दर्शन भी न करने पाया; शोक था सोफिया का, न जाने उसे कौन ले गया; पश्चात्तााप था अपनी क्रोधाशीलता पर कि मैं ही इस सारे विद्रोह और रक्तपात का कारण हूँ। अगर मैंने वीरपाल पर पिस्तौल न चलाई होती, तो यह उपद्रव शांत हो जाता।

आकाश में श्यामल घन-घटा छाई हुई थी, पर विनय के हृदयाकाश पर छाई हुई शोक-घटा उससे कहीं घनघोर, अपार और असूझ थी।


मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधाुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते थे। पर आज सोफी ने जान-बूझकर उन्हें मात्राा से अधिाक पिला दी थी, बढ़ावा देती जाती थी-वाह! इतनी ही, एक ग्लास तो और लो। अच्छा, यह मेरी खतिर से, वाह! अभी तुमने मेरे स्वास्थ्य का प्याला तो पिया ही नहीं। सोफी ने विनय से कल मिलने का वादा किया था, पर उनकी बातें उसे एक क्षण के लिए भी चैन न लेने देती थीं। वह सोचती थी-विनय ने आज ये नए बहाने क्यों ढूँढ़ निकाले? मैंने उनके लिए धार्म की भी परवा न की, फिर भी वह मुझसे भागने की चेष्टा कर रहे हैं। अब मेरे पास और कौन-सा उपाय है? क्या प्रेम का देवता इतना पाषाण हृदय है, क्या, वह बड़ी-से-बड़ी पूजा पाकर भी प्रसन्न नहीं होता? माता की अप्रसन्नता का इतना भय उन्हें कभी न था। कुछ नहीं, अब उनका प्रेम शिथिल हो गया है। पुरुषों का चित्ता चंचल होता है, उसका एक और प्रमाण मिल गया। अपनी अयोग्यता का कथन उनके मुँह से कितना अस्वाभाविक मालूम होता है। वह जो इतने उदार,इतने विरक्त, इतने सत्यवादी, इतनेर् कत्ताव्यनिष्ठ हैं, मुझसे कहते हैं, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ! हाय! वह क्या जानते हैं कि मैं उनसे कितनी भक्ति रखती हूँ, मैं इस योग्य भी नहीं कि उनके चरण स्पर्श करूँ। कितनी पवित्रा आत्मा है, कितने उज्ज्वल विचार, कितना आलौकिक आत्मोत्सर्ग! नहीं, वह मुझसे दूर रहने ही के लिए ये बहाने कर रहे हैं। उन्हें भय है कि मैं उनके पैरों की जंजीर बन जाऊँगी, उन्हेंर् कत्ताव्य-मार्ग से हटा दूँगी, उनको आदर्श से विमुख कर दूँगी। मैं उनकी इस शंका का कैसे निवारण करूँ?

दिन-भर इन्हीं विचाराें में व्यग्र रहने के बाद संधया को वह इतनी व्याकुल हुई कि उसने रात ही को विनय से फिर मिलने का निश्चय किया। उसने क्लार्क को शराब पिलाकर इसीलिए अचेत कर दिया कि उसे किसी प्रकार का संदेह न हो। जेल के अधिाकारियों से उसे कोई भय न था। वह इस अवसर को विनय से अनुनय-विनय करने में, उनके प्रेम को जगाने में, उनकी शंकाओं को शांत करने में लगाना चाहती थी;पर उसका यह प्रयास उसी के लिए घातक सिध्द हुआ। मिस्टर क्लार्क मौके पर पहुँच सकते, तो शायद स्थिति इतनी भयंकर न होती, कम-से-कम सोफी को ये दुर्दिन न देखने पड़ते। क्लार्क अपने प्राणों से उसकी रक्षा करते। सोफी ने उनसे दगा करके अपना ही सर्वनाश कर लिया था। अब वह न जाने कहाँ और किस दशा में थी। प्राय: लोगों का विचार था कि विद्रोहियों ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को आभूषणों के लोभ से अपने साथ ले गए। केवल विनयसिंह इस विचार से सहमत न थे। उन्हें विश्वास था कि सोफी अभी जिंदा है। विद्रोहियों ने जमानत के तौर पर उसे अपने यहाँ कैद कर रखा है, जिसमें संधिा की शतर्ें तय करने में सुविधाा हो। सोफी रियासत को दबाने के लिए उनके हाथों में एक यंत्रा के समान थी।

इस दुर्घटना से रियासत में तहलका मच गया। अधिाकारी वर्ग आपक्+ो डरते थे, प्रजा आपको। अगर रियासत के कर्मचारियों ही तक बात रहती, तो विशेष चिंता की बात न थी, रियासत खून के बदले खून लेकर संतुष्ट हो जाती, ज्यादा-से-ज्यादा एक जगह चार का खून कर डालती। पर सोफी के बीच में पड़ जाने से समस्या जटिल हो गई थी, मुआमला रियासत के अधिाकार-क्षेत्रा के बाहर पहुँच गया था, यहाँ तक कि लोगों को भय था, रियासत पर कोई जवाल न आ जाए। इसलिए अपराधिायों की पकड़-धाकड़ में असाधाारण तत्परता से काम लिया जा रहा था। संदेहमात्रा में लोग फाँस दिए जाते थे और उनको कठोरतम यातनाएँ दी जाती थीं। साक्षी और प्रमाण की कोई मर्यादा न रह गई थी। इन अपराधिायों के भाग्य-निर्णय के लिए एक अलग न्यायालय खोल दिया गया था। उसमें मँजे हुए प्रजा-द्रोहियों को छाँट-छाँटकर नियुक्त किया गया था। यह अदालत किसी को छोड़ना न जानती थी। किसी अभियुक्त को प्राण-दंड देने के लिए एक सिपाही की शहादत काफी थी। सरदार नीलकंठ बिना अन्न-जल, दिन-के-दिन विद्रोहियों की खोज लगाने में व्यस्त रहते थे। यहाँ तक कि हिज हाइनेस महाराजा साहब स्वयं शिमला, दिल्ली और उदयपुर एक किए हुए थे। पुलिस-कर्मचारियों के नाम रोज ताकिदें भेजी जाती थीं। उधार शिमला से भी ताकीदों का ताँता बँधाा हुआ था। ताकीदों के बाद धामकियाँ आने लगीं। उसी अनुपात में यहाँ प्रजा पर भी उत्तारोत्तार अत्याचार बढ़ता जाता था। मि. क्लार्क को निश्चय था कि इस विद्रोह में रियासत का हाथ भी अवश्य था। अगर रियासत ने पहले ही से विद्रोहियों का जीवन कठिन कर दिया होता, तो वे कदापि इस भाँति सिर न उठा सकते। रियासत के बड़े-बड़े अधिाकारी भी उनके सामने जाते काँपते थे। वह दौरे पर निकलते, तो एक ऍंगरेजी रिसाला साथ ले लेते और इलाके-के-इलाके उजड़वा देते, गाँव-के-गाँव तबाह करवा देते, यहाँ तक कि स्त्रिायाेंं पर भी अत्याचार होता। और, सबसे अधिाक खेद की बात यह थी कि रियासत और क्लार्क के इन सारे दुष्कृत्यों में विनय भी मनसा-वाचा-कर्मणा सहयोग करते थे। वास्तव में उन पर प्रमाद का रंग छाया हुआ था। सेवा और उपकार के भाव हृदय से सम्पूर्णत: मिट गए थे। सोफी और उसके शत्राुओं का पता लगाने का उद्योग, यही एक काम उनके लिए रह गया था। मुझे दुनिया क्या कहती है, मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है,माताजी का क्या हाल हुआ, इन बातों की ओर अब उनका धयान ही न जाता था। अब तो वह रियासत के दाहिने हाथ बने हुए थे। अधिाकारी समय-समय पर उन्हें और भी उत्तोजित करते रहते थे। विद्रोहियों के दमन में कोई पुलिस का कर्मचारी, रिसायत का कोई नौकर इतना हृदयहीन, विचारहीन, न्यायहीन न बन सकता था। उनकी राज-भक्ति का पारावार न था, या यों कहिए कि इस समय वह रियासत के कर्णधाार बन हुए थे, यहाँ तक कि सरदार नीलकंठ भी उनसे दबते थे। महाराजा साहब को उन पर इतना विश्वास हो गया था कि उनसे सलाह लिए बिना कोई काम न करते। उनके लिए आने-जाने की कोई रोक-टोक न थी। और मि. क्लार्क से तो उनकी दाँतकाटी रोटी थी। दोनों एक ही बँगले में रहते थे और अंतरंग में सरदार साहब की जगह पर विनय की नियुक्ति की चर्चा की जाने लगी थी।

प्राय: साल-भर तक रियासत में यही आपाधाापी रही। जब जसवंतनगर विद्रोहियों से पाक हो गया, अर्थात् वहाँ कोई जवान आदमी न रहा,तो विनय ने स्वयं को सोफी का सुराग लगाने के लिए कमर बाँधाी। उनकी सहायता के लिए गुप्त पुलिस के कई अनुभवी आदमी तैनात किए गए। चलने की तैयारियाँ होने लगीं। नायकराम अभी तक कमजोर थे। उनके बचने की आशा ही न रही थी; पर जिंदगी बाकी थी, बच गए। उन्होंने विनय को जाने पर तैयार देखा, तो साथ चलने को निश्चय किया। आकर बोले-भैया, मुझे भी साथ ले चलो, मैं यहाँ अकेला न रहूँगा।

विनय-मैं कहीं परदेश थोड़े ही जाता हूँ। सातवेंं दिन यहाँ आया करूँगा, तुमसे मुलाकात हो जाएगी।

सरदार नीलकंठ वहीं बैठे हुए थे बोले- अभी तुम जाने के लायक नहीं हो।

नायकराम-सरदार साहब, आप भी इन्हीं की-सी कहते हैं। इनके साथ न रहूँगा, तो रानीजी को कौन मुँह दिखाऊँगा!

विनय-तुम यहाँ ज्यादा आराम से रह सकोगे, तुम्हारे ही भले की कहता हूँ।

नायकराम-सरदार साहब, अब आप ही भैया को समझाइए। आदमी एक घड़ी की नहीं चलाता, तो एक हफ्ता तो बहुत है। फिर मोरचा लेना है वीरपालसिंह से, जिसका लोहा मैं भी मानता हूँ। मेरी कई लाठियाँ उसने ऐसी रोक लीं कि एक भी पड़ जाती, तो काम तमाम हो जाता। पक्का फेकैत। क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?

नीलकंठ-हाँ, वीरपाल है तो एक शैतान। न जाने कब, किधार से, कितने आदमियों के साथ टूट पड़े। उसके गोइंदे सारी रियासत में फैले हुए हैं।

नायकराम-तो ऐसे जोखिम में कैसे इनका साथ छोड़ दूँ? मालिक की चाकरी में जान भी निकल जाए, तो क्या गम है, और यह जिंदगानी किसलिए!

विनय-भाई; बात यह है कि मैं अपने साथ किसी गैर की जान जोखिम में नहीं डालना चाहता।

नायकराम-हाँ, अब आप मुझे गैर समझते हैं, तो दूसरी बात है। हाँ, गैर तो हूँ ही; गैर न होता, तो रानीजी के इशारे पर कैसे यहाँ दौड़ा आता, जेल में जाकर कैसे बाहर निकाल लाता और साल-भर तक खाट क्यों सेता? सरदार साहब, हुजूर ही अब इंसाफ कीजिए। मैं गैर हूँ?जिसके लिए जान हथेली पर लिए फिरता हूँ, वही गैर समझता है।

नीलकंठ-विनयसिंह, यह आपका अन्याय है। आप इन्हें गैर क्यों कहते हैं? अपने हितैषियों को गैर कहने से उन्हें दु:ख होता है।

नायकराम- बस, सरदार साहब, हुजूर ने लाख रुपये की बात कह दी। पुलिस के आदमी गैर नहीं हैं और मैं गैर हूँ!

विनय-अगर गैर कहने से तुम्हेंं दु:ख होता है, तो मैं यह शब्द वापस लेता हूँ! मैंने गैर केवल इस विचार से कहा था कि तुम्हारे सम्बंधा में मुझे घरवालों को जवाब देना पडेग़ा। पुलिसवालों के लिए तो मुझसे कोई जवाब न माँगेगा।

नायकराम-सरदार साहब, अब आप ही इसका जवाब दीजिए। यह मैं कैसे कहूँ कि मुझसे कुछ हो गया, तो कुँवर साहब कुछ पूछ-ताछ न करेंगे, उनका भेजा हुआ आया ही हूँ। भैया को जवाबदेही तो जरूर करनी पड़ेगी।

नीलकंठ-यह माना कि तुम उनके भेजे हुए आए हो; मगर तुम इतने अबोधा नहीं हो कि तुम्हारी हानि-लाभ की जिम्मेदारी विनयसिंह के सिर हो। तुम अपना अच्छा-बुरा आप सोच सकते हो। क्या कुँवर साहब इतना भी न समझेंगे?

नायकराम-अब कहिए धार्मावतार, अब तो मुझे ले चलना पड़ेगा, सरदार साहब ने मेरी डिग्री कर दी। मैं कोई नाबालिग नहीं हूँ कि सरकार के सामने आपको जवाब देना पड़े।

अंत में विनय ने नायकराम को साथ ले चलना स्वीकार किया और दो-तीन दिन पश्चात् दस आदमियों की एक टोली, भेष बदलकर, सब तरह लैस होकर, टोहिए कुत्ताों के साथ लिए, दुर्गम पर्वतों में दाखिल हुई। पहाड़ोेंं से आग निकल रही थी। बहुधाा कोसों तक पानी की एक बूँद भी न मिलती; रास्ते पथरीले, वृक्षों का पता नहीं। दोपहर को लोग गुफाओं में विश्राम करते थे, रात को बस्ती से अलग किसी चौपाल या मंदिर में पड़े रहते। दो-दो आदमियों का संग था। चौबीस घंटाेंं में एक बार सब आदमियों को एक स्थान पर जमा होना पड़ता था। दूसरे दिन का कार्यक्रम निश्चय करके लोग फिर अलग-अलग हो जाते थे। नायकराम और विनयसिंह की एक जोड़ी थी। नायकराम अभी तक चलने-फिरने में कमजोर था, पहाड़ाेंं की चढ़ाई में थककर बैठ जाता, भोजन की मात्राा भी बहुत कम हो गई थी, दुर्बल इतना हो गया था कि पहचानना कठिन था। किंतु विनयसिंह पर प्राणों को न्योछावर करने को तैयार रहता था। यह जानता था कि ग्रामीणों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, विविधा स्वभाव और श्रेणी के मनुष्यों से परिचित था। जिस गाँव में पहुँचता, धाूम मच जाती कि काशी के पंडाजी पधाारे हैं। भक्तजन जमा हो जाते, नाई-कहार आ पहुँचते, दूधा-घी, फल-फूल, शाक-भाजी आदि की रेल-पेल हो जाती। किसी मंदिर के चबूतरे पर खाट पड़ जाती, बाल-वृध्द, नर-नारी बेधाड़क पंडाजी के पास आते और यथाशक्ति दक्षिणा देते। पंडाजी बातों-बातों में उनसे गाँव का समाचार पूछ लेते। विनयसिंह को अब ज्ञात हुआ कि नायकराम साथ न होते, तो मुझे कितने कष्ट झेलने पड़ते। वह स्वभाव से मितभाषी, संकोचशील,गम्भीर आदमी थे। उनमें वह शासन-बुध्दि न थी, जो जनता पर आतंक जमा लेती है, न वह मधाुर वाणी, जो मन को मोहती है। ऐसी दशा में नायकराम का संग उनके लिए दैवी सहायता से कम न था।

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Jemsbond
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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रास्ते में कभी-कभी हिंसक जंतुओं से मुठभेड़ हो जाती। ऐसे अवसरों पर नायकराम सीनासिपर हो जाता था। एक दिन चलते-चलते दोपहर हो गया। दूर तक आबादी का कोई निशान न था। धाूप की प्रखरता से एक-एक पग चलना मुश्किल था। कोई कुऑं या तालाब भी नजर न आता था। सहसा एक ऊँचा टीकरा दिखाई दिया। नायकराम उस पर चढ़ गया कि शायद ऊपर से कोई गाँव या कुऑं दिखाई दे। उसने शिखर पर पहुँचकर इधार-उधार निगाह दौड़ाई, तो दूर पर एक आदमी जाता हुआ दिखाई दिया। उसके हाथ में एक लकड़ी और पीठ पर एक थैली थी। कोई बिना वर्दी का सिपाही मालूम होता था। नायकराम ने उसे कोई बार जोर-जोर से पुकारा, तो उसने गर्दन फेरकर देखा। नायकराम उसे पहचान गए। यह विनयसिंह के साथ का एक स्वयंसेवक था। उसे इशारे से बुलाया और टीले से उतरकर उसके पास आए। इस सेवक का नाम इंद्रदत्ता था।

इंद्रदत्ता ने पूछा-तुम यहाँ कैसे आ फँसे जी? तुम्हारे कुँवर कहाँ हैं?

नायकराम-पहले यह बताओ कि यहाँ कोई गाँव भी है, कहीं दाना-पानी मिल सकता है?

इंद्रदत्ता-जिसके राम धानी, उसे कौन कमी! क्या राजदरबार ने भोजन की रसद नहीं लगाई? तेली से ब्याह करके तेल का रोना!

नायकराम-क्या करूँ, बुरा फँस गया हूँ, न रहते बनता है, न जाते।

इंद्रदत्ता-उनके साथ तुम भी अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो। कहाँ हैं आजकल?

नायकराम-क्या करोगे?

इंद्रदत्ता-कुछ नहीं, जरा मिलना चाहता था।

नायकराम-हैं तो वह भी। यहीं भेंट जो जाएगी। थैली में कुछ है?

यों बातें करते हुए दोनों विनयसिंह के पास पहुँचे। विनय ने इंद्रदत्ता को देखा, तो शत्राु-भाव से बोला-इंद्रदत्ता, तुम कहाँ? घर क्यों नहीं गए?

इंद्रदत्ता-आपसे मिलने की बड़ी आकांक्षा थी। आपसे कितनी ही बातें करनी हैं। पहले यह बतलाइए कि आपने यह चोला क्यों बदला?

नायकराम-पहले तुम अपनी थैली में से कुछ निकालो, फिर बातें होंगी।

विनयसिंह अपनी कायापलट का समर्थन करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बोले-इसलिए कि मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। मैं पहले समझता था कि प्रजा बड़ी सहनशील और शांतिप्रिय है। अब ज्ञात हुआ कि वह नीच और कुटिल है। उसे ज्यों ही अपनी शक्ति का कुछ ज्ञान हो जाता है, वह उसका दुरुपयोग करने लगती है। जो प्राणी शक्ति का संचार होते ही उन्मत्ता हो जाए, उसका अशक्त, दलित रहना ही अच्छा है। गत विद्रोह इसका ज्वलंत प्रमाण है। ऐसी दशा में मैंने जो कुछ किया और कर रहा हूँ, वह सर्वथा न्यायसंगत और स्वाभाविक है।

इंद्रदत्ता-क्या आपके विचार में प्रजा को चाहिए कि उस पर कितने ही अत्याचार किए जाएँ, वह मुँह न खोले?

विनय-हाँ, वर्तमान दशा में यही उसका धार्म है।

इंद्रदत्ता-उसके नेताओं को भी यही आदर्श उसके सामने रखना चाहिए?

विनय-अवश्य!

इंद्रदत्ता-तो जब आपने जनता को विद्रोह के लिए तैयार देखा, तो उसके सम्मुख खड़े होकर धौर्य और शांति का उपदेश क्यों नहीं दिया?

विनय-व्यर्थ था। उस वक्त कोई मेरी न सुनता।

इंद्रदत्ता-अगर न सुनता, तो क्या आपका यह धार्म नहीं था कि दोनों दलों के बीच में खड़े होकर पहले खुद गोली का निशाना बनते?

विनय-मैं अपने जीवन को इतना तुच्छ नहीं समझता।

इंद्रदत्ता-जो जीवन सेवा और परोपकार के लिए समर्पण हो चुका हो, उसके लिए इससे उत्ताम और कौन मृत्यु हो सकती थी?

विनय-आग में कूदने का नाम सेवा नहीं है। उसे दमन करना ही सेवा है।

इंद्रदत्ता-अगर वह सेवा नहीं है, तो दीन जनता की, अपनी कामुकता पर आहुति देना भी सेवा नहीं है। बहुत सम्भव था कि सोफिया ने अपनी दलीलों से वीरपालसिंह को निरुत्तार कर दिया होता। किंतु आपने विषय के वशीभूत होकर पिस्तौल का पहला वार किया, और इसलिए इस हत्याकांड का सारा भार आपकी ही गरदन पर है और जल्द या देर में आपको इसका प्रायश्चित्ता करना पड़ेगा। आप जानते हैं, प्रजा को आपके नाम से कितनी घृणा है? अगर कोई आदमी आपको यहाँ देखकर पहचान जाए, तो उसका पहला काम यह होगा कि आपके ऊपर तीर चलाए। आपने यहाँ की जनता के साथ, अपने सहयोगियों के साथ, अपनी जाति के साथ और सबसे अधिाक अपनी पूज्य माता के साथ जो कुटिल विश्वासघात किया है, उसका कलंक कभी आपके माथे से न मिटेगा। कदाचित् रानीजी आपको देखें, तो अपने हाथों से आपकी गरदन पर कटार चला दें। आपके जीवन से मुझे यह अनुभव हुआ कि मनुष्य का कितना नैतिक पतन हो सकता है।

विनय ने कुछ नम्र होकर कहा-इंद्रदत्ता, अगर तुम समझते हो कि मैंने स्वार्थवश अधिाकारियों की सहायता की, तो तुम मुझ पर घोर अन्याय कर रहे हो। प्रजा का साथ देने में जितनी आसानी से यश प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिाक आसानी से अधिाकारियों का साथ देने में अपयश मिलता है। यह मैं जानता था। किंतु सेवक का धार्म यश और अपयश का विचार करना नहीं है, उसका धार्म सन्मार्ग पर चलना है। मैंने सेवा का व्रत धाारण किया है, और ईश्वर न करे कि वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ, जब मेरे सेवाभाव में स्वार्थ का समावेश हो। पर इसका आशय यह नहीं है कि मैं जनता का अनौचित्य देखकर भी उसका समर्थन करूँ। मेरा व्रत मेरे विवेक की हत्या नहीं कर सकता।

इंद्रदत्ता-कम-से-कम इतना तो आप मानते ही हैं कि स्वहित के लिए जनता का अहित न करना चाहिए।

विनय-जो प्राणी इतना न माने, वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।

इंद्रदत्ता-क्या आपने केवल सोफिया के लिए रियासत की समस्त प्रजा को विपत्तिा में नहीं डाला और अब भी उसका सर्वनाश करने की धाुन में नहीं हैं?

विनय-तुम मुझ पर यह मिथ्या दोषारोपण करते हो। मैं जनता के लिए सत्य से मुँह नहीं मोड़ सकता। सत्य मुझे देश और जाति, दोनों से प्रिय है। जब तक मैं समझता था कि प्रजा सत्य-पक्ष पर है, मैं उसकी रक्षा करता था। जब मुझे विदित हुआ कि उसने सत्य से मुँह मोड़ लिया, मैंने भी उससे मुँह मोड़ लिया। मुझे रियासत के अधिाकारियों से कोई आंतरिक विरोधा नहीं है। मैं वह आदमी नहीं हूँ कि हुक्काम को न्याय पर देखकर भी अनायास उनसे बैर करूँ, और न मुझसे यह हो सकता है कि प्रजा का विद्रोह और दुराग्रह पर तत्पर देखकर भी उसकी हिमायत करूँ। अगर कोई आदमी मिस सोफिया की मोटर के नीचे दब गया तो यह एक आकस्मिक घटना थी। सोफिया ने जान-बूझकर तो उस पर से मोटर को चला नहीं दिया। ऐसी दशा में जनता का उस भाँति उत्तोजित हो जाना, इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि वह अधिाकारियों को बलपूर्वक अपने वश में करना चाहती है। आप सोफिया के प्रति मेरे आचरण पर आक्षेप करके मुझ पर ही अन्याय नहीं कर रहे हैं, वरन् अपनी आत्मा को भी कलंकित कर रहे हैं।

इंद्रदत्ता-ये हजारों आदमी निरपराधा क्यों मारे गए? क्या यह भी प्रजा ही का कसूर था?

विनय-यदि आपको अधिाकारियों की कठिनाइयों का कुछ अनुभव होता, तो आप मुझसे कदापि यह प्रश्न न करते। इसके लिए आप क्षमा के पात्रा हैं। साल-भर पहले जब अधिाकारियों से मेरा कोई सम्बंधा न था, कदाचित् मैं भी ऐसा ही समझता था। किंतु अब मुझे अनुभव हुआ कि उन्हें ऐसे अवसरों पर न्याय का पालन करने में कितनी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है। मैं यह स्वीकार नहीं करता कि अधिाकार पाते ही मनुष्य का रूपांतर हो जाता है। मनुष्य स्वभावत: न्याय-प्रिय होता है। उसे किसी को बरबस कष्ट देने से आनंद नहीं मिलता, बल्कि उतना ही दु:ख और क्षोभ होता है, जितना किसी प्रजासेवक हो। अंतर केवल इतना ही है कि प्रजासेवक किसी दूसरे पर दोषारोपण करके अपने को संतुष्ट कर लेता है, यहीं उसकेर् कत्ताव्य की इतिश्री हो जाती है; अधिाकारियों को यह अवसर प्राप्त नहीं होता। वे आप अपने आचरण की सफाई नहीं पेश कर सकते। आपको खबर नहीं कि हुक्काम ने अपराधिायों को खोज निकालने में कितनी दिक्कतें उठाईं। प्रजा अपराधिायों को छिपा लेती थी और राजनीति के किसी सिध्दांत का उस पर कोई असर न होता था। अतएव अपराधिायों के साथ निरपराधिायों का फँस जाना सम्भव ही था। फिर आपको मालूम नहीं है कि इस विद्रोह ने रियासत को कितने महान् संकट में डाल दिया है। ऍंगरेजी सरकार को संदेह है कि दरबार ने ही यह सारा षडयंत्रा रचा था। अब दरबार कार् कत्ताव्य है कि वह अपने को इस आक्षेप से मुक्त करे, और जब तक मिस सोफिया का सुराग नहीं मिल जाता, रियासत की स्थिति अत्यंत चिंतामय है। भारतीय होने के नाते मेरा धार्म है कि रियासत के मुख पर से कालिमा को मिटा दूँ; चाहे इसके लिए मुझे कितना ही अपमान, कितना ही लांछन, कितना ही कटु वचन क्यों न सहना पड़े, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएँ। जाति-सेवक की अवस्था कोई स्थायी रूप नहीं रखती, परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कल मैं रियासत का जानी दुश्मन था, आज उसका अनन्य भक्त हूँ और इसके लिए मुझे लेशमात्रा भी लज्जा नहीं।

इंद्रदत्ता-ईश्वर ने आपको तर्क बुध्दि दी है और उससे आप दिन को रात सिध्द कर सकते हैं; किंतु आपकी कोई उक्ति प्रजा के दिल से इस खयाल को नहीं दूर कर सकती कि आपने उसके साथ दगा दी और इस विश्वासघात की जो यंत्राणा आपको सोफिया के हाथों मिलेगी, उससे आपकी ऑंखें खुल जाएँगी।

विनय ने इस भाँति लपककर इंद्रदत्ता का हाथ पकड़ लिया, मानो वह भागा जा रहा हो और बोले-तुम्हें सोफिया का पता मालूम है?

इंद्रदत्ता-नहीं।

विनय-झूठ बोलते हो!

इंद्रदत्ता-हो सकता है।

विनय-तुम्हें बताना पड़ेगा।

इंदद्रत्ता-आपको अब मुझसे यह पूछने का अधिाकार नहीं रहा। आपका या दरबार का मतलब पूरा करने के लिए मैं दूसरों की जान संकट में नहीं डालना चाहता। आपने एक बार विश्वासघात किया है और फिर कर सकते हैं।

नायकराम-बता देंगे, आप क्यों इतना घबराए जाते हैं। इतना तो बता ही दो भैया इंद्रदत्ता, कि मेम साहब कुशल से हैं न?

इंद्रदत्ता-हाँ, बहुत कुशल से हैं और प्रसन्न हैं। कम-से-कम विनयसिंह के लिए कभी विकल नहीं होतीं। सच पूछो, तो उन्हें अब इनके नाम से घृणा हो गई है।

विनय-इंद्रदत्ता, हम और तुम बचपन के मित्रा हैं। तुम्हें जरूरत पडे, तो मैं अपने प्राण तक दे दूँ; पर तुम इतनी जरा-सी बात बतलाने से इनकार कर रहे हो। यही दोस्ती है?

इंद्रदत्ता-दोस्ती के पीछे दूसरों की जान क्यों विपत्तिा में डालूँ?

विनय-मैं माता के चरणों की कसम खाकर कहता हूँ, मैं इसे गुप्त रख्रूगा। मैं केवल एक बार सोफिया से मिलना चाहता हूँ।

इंद्रदत्ता-काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती।

विनय-इंद्र, मैं जीवनपर्यंत तुम्हारा उपकार मानूँगा।

इंद्रदत्ता-जी नहीं, बिल्ली बख्शे, मुरगा बाँड़ा ही अच्छा।

विनय-मुझसे जो कसम चाहे, ले लो।

इंद्रदत्ता-जिस बात के बतलाने का मुझे अधिाकार नहीं, उसे बतलाने के लिए आप मुझसे व्यर्थ आग्रह कर रहे हैं।

विनय-तुम पाषाण-हृदय हो।

इंद्रदत्ता-मैं उससे भी कठोर हूँ। मुझे जितना चाहिए, कोस लीजिए, पर सोफी के विषय में मुझसे कुछ न पूछिए।

नायकराम-हाँ भैया, बस यही टेक चली जाए; मरदों का यही काम है। दो टूक कह दिया कि जानते हैं, लेकिन बतलाएँगे नहीं, चाहे किसी को भला लगे या बुरा।

इंद्रदत्ता-अब तो कलई खुल गई न? क्यों कुँवर साहब महाराज, अब तो बढ़-बढ़कर बातें न करोगे?

विनय-इंद्रदत्ता, जले पर नमक न छिड़को। जो बात पूछता हूँ, बतला दो; नहीं तो मेरी जान को रोना पड़ेगा। तुम्हारी जितनी खुशामद कर रहा हूँ, उतनी आज तक किसी की नहीं की थी; पर तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं होता।

इंद्रदत्ता-मैं एक बार कह चुका कि मुझे जिस बात के बतलाने का अधिाकार नहीं वह किसी तरह न बताऊँगा। बस, इस विषय में तुम्हारा आग्रह करना व्यर्थ है। यह लो, अपनी राह जाता हूँ। तुम्हें जहाँ जाना हो, जाओ!

नायकराम-सेठजी, भागो मत, मिस साहब का पता बताए बिना न जाने पाओगे।

इंद्रदत्ता-क्या जबरदस्ती पूछोगे?

नायकराम-हाँ, जबरदस्ती पूछूँगा। बाम्हन होकर तुमसे भिक्षा माँग रहा हूँ और तुम इनकार करते हो, इसी पर धार्मात्मा, सेवक, चाकर बनते हो! यह समझ लो बाम्हन भीख लिए बिना द्वार से नहीं जाता; नहीं पाता, तो धारना देकर बैठ जाता है, और फिर ले ही कर उठता है।

इंद्रदत्ता-मुझसे ये पंडई चालें न चलो, समझे! ऐसे भीख देनेवाले कोई और होंगे।

नायकराम-क्यों बाप-दादों का नाम डुबाते हो भैया? कहता हूँ, यह भीख दिए बिना अब तुम्हारा गला नहीं छूट सकता।

यह कहते हुए नायकराम चट जमीन पर बैठ गए, इंद्रदत्ता के दोनों पैर पकड़ लिए, उन पर अपना सिर रख दिया और बोले-अब तुम्हारा जो धारम हो, वह करो। मैं मूरख हूँ, गँवार हूँ, पर बाम्हन हूँ। तुम सामरथी पुरुष हो। जैसा उचित समझो, करो।

इंद्रदत्ता अब भी न पसीजे, अपने पैरों को छुड़ाकर चले जाने की चेष्टा की, पर उनके मुख से स्पष्ट विदित हो रहा था कि इस समय बडे असमंजस में पडे हुए हैं, और इस दीनता की उपेक्षा करते हुए अत्यंत लज्जित हैं। वह बलिष्ठ पुरुष थे, स्वयंसेवकों में कोई उनका-सा दीर्घकाय युवक न था। नायकराम अभी कमजोर थे। निकट था कि इंद्रदत्ता अपने पैरों को छुड़ाकर निकल जाएँ कि नायकराम ने विनय से कहा-भैया,खड़े क्या देखते हो? पकड़ लो इनके पाँव, देखूँ, यह कैसे नहीं बताते।

विनयसिंह कोई स्वार्थ सिध्द करने के लिए खुशामद करना भी अनुचित समझते थे, पाँव पर गिरने की बात ही क्या। किसी संत-महात्मा के सामने दीन भाव प्रकट करने से उन्हें संकोच न था, अगर उससे हार्दिक श्रध्दा हो। केवल अपना काम निकालने के लिए उन्होंने सिर झुकाना सीखा ही न था। पर जब उन्होंने नायकराम को इंद्रदत्ता के पैरों पर गिरते देखा, तो आत्मसम्मान के लिए कोई स्थान न रहा। सोचा,जब मेरी खातिर नायकराम ब्राह्मण होकर यह अपमान सहन कर रहा है, तो मेरा दूर खड़े शान की लेना मुनासिब नहीं। यद्यपि एक क्षण पहले इंद्रदत्ता से उन्होंने अविनय-पूर्ण बातें की थीं और उनकी चिरौरी करते हुए लज्जा आती थी, पर सोफी का समाचार भी इसके सिवा अन्य किसी उपाय से मिलता हुआ नहीं नजर आता था। उन्होंने आत्म-सम्मान को भी सोफी पर समर्पण कर दिया। मेरे पास यही एक चीज है, जिस मैंने अभी तक तेरे हाथों में न दिया था। आज वह भी तेरे हवाले करता हूँ। आत्मा अब भी सिर न झुकाना चाहती थी, पर कमर झुक गई। एक पल में उनक हाथ इंद्रदत्ता के पैरों के पास पहुँचे। इंद्रदत्ता ने तुरंत पैर खींच लिए और विनय को उठाने की चेष्टा करते हुए बोले-विनय, यह क्या अनर्थ करते हो, हैं, हैं!

विनय की दशा उस सेवक की-सी थी, जिसे उसके स्वामी ने थूककर चाटने का दंड दिया हो। अपनी अधाोगति पर रोना आ गया।

नायकराम ने इंद्रदत्ता से कहा-भैया, मुझे भिच्छुकर समझकर दुतकार सकते थे; लेकिन अब कहो।

इंद्रदत्ता संकोच में पड़कर बोले-विनय, क्यों मुझे इतना लज्जित कर रहे हो! मैं वचन दे चुका हूँ कि किसी से यह भेद न बताऊँगा।

नायकराम-तुमसे कोई जबरदस्ती तो नहीं कर रहा है। जो अपना धारम समझो, वह करो, तुम आप बुध्दिमान हो।

इंद्रदत्ता ने खिन्न होकर कहा-जबरदस्ती नहीं, तो और क्या है! गरज बावली होती है, पर आज मालूम हुआ कि वह अंधाी भी होती है। विनय, व्यर्थ ही अपनी आत्मा पर यह अन्याय कर रहे हो। भले आदमी, क्या आत्मगौरव भी घोलकर पी गए? तुम्हें उचित था कि प्राण देकर भी आत्मा की रक्षा करते। अब तुम्हें ज्ञात हुआ होगा कि स्वार्थ-कामना मनुष्य को कितना पतित कर देती है। मैं जानता हूँ, एक वर्ष पहले सारा संसार मिलकर भी तुम्हारा सिर न झुका सकता था, आज तुम्हारा यह नैतिक पतन हो रहा है! अब उठो, मुझे पाप में न डुबाओ।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »


विनय को इतना क्रोधा आया कि इसके पैरों को खींच लूँ और छाती पर चढ़ बैठूँ। दुष्ट इस दशा में भी डंक मारने से बाज नहीं आता। पर यह विचार करके कि अब तो जो कुछ होना था, हो चुका, ग्लानि-भाव से बोले-इंद्रदत्ता, तुम मुझे जितना पामर समझते हो, उतना नहीं हूँ; पर सोफी के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूँ। मेरा आत्म-सम्मान, मेरी बुध्दि, मेरा पौरुष, मेरा धार्म सब कुछ प्रेम के हवन-क्ुं+ड में स्वाहा हो गया। अगर तुम्हें अब भी मुझ पर दया न आए, तो मेरी कमर से पिस्तौल निकालकर एक निशाने से काम तमाम कर दो।

यह कहते-कहते विनय की ऑंखों में ऑंसू भर आए। इंद्रदत्ता ने उन्हें उठाकर कंठ से लगा लिया और करुण भाव से बोले-विनय, क्षमा करो, यद्यपि तुमने जाति का अहित किया है, पर मैं जानता हूँ कि तुमने वही किया, जो कदाचित् उस स्थिति में मैं या कोई भी अन्य प्राणी करता। मुझे तुम्हारा तिरस्कार करने का अधिाकार नहीं। तुमने अगर प्रेम के लिए आत्ममर्यादा को तिलांजलि दे दी, तो मैं भी मैत्राी और सौजन्य के लिए अपने वचन से विमुख हो जाऊँगा। जो तुम चाहते हो, वह मैं बता दूँगा। पर इससे तुम्हें कोई लाभ न होगा; क्योंकि मिस सोफिया की दृष्टि में तुम गिर गए हो, उसे अब तुम्हारे नाम से घृणा होती है। उससे मिलकर तुम्हें दु:ख होगा।

नायकराम-भैया, तुम अपनी-सी कर दो, मिस साहब को मनाना-जनाना इनका काम है। आसिक लोग बड़े चलते-पुरजे होते हैं, छँटे हुए सोहदे, देखने ही को सीधो होते हैं। मासूक को चुटकी बजाते अपना कर लेते हैं। जरा ऑंखों में पानी भरकर देखा, और मासूक पानी हुआ।

इंद्रदत्ता-मिस सोफिया मुझे कभी क्षमा न करेंगी; लेकिन अब उनका-सा हृदय कहाँ से लाऊँ। हाँ, एक बात बतला दो। इसका उत्तार पाए बिना मैं कुछ न बता सकूँगा।

विनय-पूछो।

इंद्रदत्ता-तुम्हें वहाँ अकेले जाना पड़ेगा। वचन दो कि खुफिया पुलिस का कोई आदमी साथ न रहेगा।

विनय-इससे तुम निश्चिंत रहो।

इंद्रदत्ता-अगर तुम पुलिस के साथ गए, तो सोफिया की लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।

विनय-मैं ऐसी मूर्खता करूँगा ही क्यों!

इंद्रदत्ता-यह समझ लो कि मैं सोफी का पता बताकर उन लोगों के प्राण तुम्हारे हाथों में रखे देता हूँ, जिनकी खोज में तुमने दाना-पानी हराम कर रखा है।

नायकराम-भैया, चाहे अपनी जान निकल जाए, उन पर कोई रेप न आने पाएगा। लेकिन यह भी बता दो कि वहाँ हम लोगों की जान का जोखम तो नहीं है?

इंद्रदत्ता-(विनय से) अगर वे लोग तुमसे बैर साधाना चाहते, तो अब तक तुम लोग जीते न रहते। रियासत की समस्त शक्ति भी तुम्हारी रक्षा न कर सकती। उन लोगों को तुम्हारी एक-एक बात की खबर मिलती रहती है। यह समझ लो कि तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। उतने प्रजा-द्रोह के बाद अगर तुम अभी जिंदा हो, तो यह मिस सोफिया की कृपा है। अगर मिस सोफिया की तुमसे मिलने की इच्छा होती, तो इससे ज्यादा आसान कोई काम न था, लेकिन उनकी तो यह हालत है कि तुम्हारे नाम ही से चिढ़ती हैं। अगर अब भी उनसे मिलने की अभिलाषा हो, तो मेरे साथ आओ।

विनयसिंह को अपनी विचार-परिवर्तक शक्ति पर विश्वास था। इसकी उन्हें लेशमात्रा भी शंका न थी कि सोफी मुझसे बातचीत न करेगी। हाँ,खेद इस बात का था कि मैंने सोफी ही के लिए अधिाकारियों को जो सहायता दी, उसका परिणाम यह हुआ। काश, मुझे पहले ही मालूम हो जाता कि सोफी मेरी नीति को पसंद नहीं करती, वह मित्राों के हाथ में है और सुखी है, तो मैं यह अनीति करता ही क्यों? मुझे प्रजा से कोई बैर तो था नहीं। सोफी पर भी तो इसकी कुछ-न-कुछ जिम्मेवारी है। वह मेरी मनोवृत्तिायों को जानती थी। क्या वह एक पत्रा भेजकर मुझे अपनी स्थिति की सूचना न दे सकती थी! जब उसने ऐसा नहीं किया, तो उसे अब मुझ पर त्यौरियाँ चढ़ाने का क्या अधिाकार है?

यह सोचते वह इंद्रदत्ता के पीछे-पीछे चलने लगे। भूख-प्यास हवा हो गई।

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस-पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल-खेतों का प्रवाह। सड़क के किनारे छोटे-छोटे बनियों और हलवाइयों की दूकानें हैं, और उनके पीछे कई इक्केवाले, गाड़ीवान, ग्वाले और मजदूर रहते हैं। दो-चार घर बिगड़े सफेदपोशों के भी हैं, जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है। इन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार रहता है, जिसे लोग सूरदास कहते हैं। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना-बनाया नाम है, और भीख माँगना बना-बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत्-प्रसिध्द हैं-गाने-बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्या त्म और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई।

सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित् भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। ‘दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें-‘ यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था। कदाचित् वह इसे लोगों की दया-प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को वह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रात:काल से संध्यात तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-वैशाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था।

कार्तिक का महीना था। वायु में सुखद शीतलता आ गई थी। संध्याे हो चुकी थी। सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत् बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे। गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढील दीं। उनके पछाईं बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे। गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिए। कोई चादर पर आटा गूंधाता था, कोई गोल-गोल बाटियाँ बनाकर उपलों पर सेंकता था। किसी को बरतनों की जरूरत न थी। सालन के लिए घुइएँ का भुरता काफी था। और इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थी, बैठे बाटियाँ सेंकते और गाते थे। बैलों के गले में बँधी हुई घंटियाँ मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा-क्यों भगत, ब्याह करोगे?

सूरदास ने गर्दन हिलाकर कहा-कहीं है डौल?

गनेस-हाँ, है क्यों नहीं। एक गाँव में एक सुरिया है, तुम्हारी ही जात-बिरादरी की है, कहो तो बातचीत पक्की करूँ? तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटियाँ लगें।

सूरदास-कोई जगह बताते, जहाँ धान मिले, और इस भिखमंगी से पीछा छूटे। अभी अपने ही पेट की चिंता है, तब एक अंधी की और चिंता हो जाएगी। ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता। बेड़ी ही है, तो सोने की तो हो।

गनेस-लाख रुपये की मेहरिया न पा जाओगे। रात को तुम्हारे पैर दबाएगी, सिर में तेल डालेगी, तो एक बार फिर जवान हो जाओगे। ये हड्डियाँ न दिखाई देंगी।

सूरदास-तो रोटियों का सहारा भी जाता रहेगा। ये हड्डियाँ देखकर ही तो लोगों को दया आ जाती है। मोटे आदमियों को भीख कौन देता है? उलटे और ताने मिलते हैं।

गनेस-अजी नहीं, वह तुम्हारी सेवा भी करेगी और तुम्हें भोजन भी देगी। बेचन साह के यहाँ तेलहन झाड़ेगी तो चार आने रोज पाएगी।

सूरदास-तब तो और भी दुर्गति होगी। घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुँह दिखाने लायक भी न रहूँगा।

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे ‘दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें’ कहता हुआ दौड़ा।

फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफ़िया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे-चिट्टे आदमी थे। बुढ़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। पहनावा ऍंगरेजी था, जो उन पर खूब खिलता था। मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज सेवक को काल-गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थी, जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी। प्रभु सेवक की मसें भीग रही थीं, छरहरा डील, इकहरा बदन, निस्तेज मुख, ऑंखों पर ऐनक, चेहरे पर गम्भीरता और विचार का गाढ़ा रंग नजर आता था। ऑंखों से करुणा की ज्योति-सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति-सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफ़िया बड़ी-बड़ी रसीली ऑंखोंवाली, लज्जाशील युवती थी। देह अति कोमल, मानो पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्य, मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थी, जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा?

मि. जॉन सेवक बोले-इस देश के सिर से यह बला न-जाने कब टलेगी? जिस देश में भीख माँगना लज्जा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उध्दार में अभी शताब्दियों की देर है।

प्रभु सेवक-यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या-लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थी, किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मण, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी सम्बंधी की मृत्यु का हीला करके भीख माँगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपये बन जाते हैं, और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं।

मिसेज़ सेवक-साईस, इस अंधे से कह दो, भाग जाए, पैसे नहीं हैं।

सोफ़िया-नहीं मामा, पैसे हों तो दे दीजिए। बेचारा आधो मील से दौड़ा आ रहा है, निराश हो जाएगा। उसकी आत्मा को कितना दु:ख होगा।

माँ-तो उससे किसने दौड़ने को कहा था? उसके पैरों में दर्द होता होगा।

सोफ़िया-नहीं, अच्छी मामा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हाँफ रहा है। प्रभु सेवक ने जेब से केस निकाला; किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला, और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज होने का भय था। बहन से बोले-सोफी, खेद है, पैसे नहीं निकले। साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आए; वहाँ शायद पैसे मिल जाएँ।

किंतु सूरदास को इतना संतोष कहाँ? जानता था, गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगा; कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी। गाड़ी का पीछा न छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में ठूँठ खड़ा हो। हाँफते-हाँफते बेदम हो रहा था।

मि. जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़त खोल रखी थी। ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा-कहिए खाँ साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है?

ताहिर-हुजूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है; मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।

जॉन सेवक-कुछ दौड़-धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस-पास के देहातों में चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आस-पास के चमार यहाँ रोज आएँगे, और आपको उनसे मेल-जोल करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धानी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़धूप ठिकाने लग जाती है।

ताहिर-हुजूर, मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगा, तो वह यह काम करेगा ही क्यों? मगर हुजूर ने मेरी जो तनख्वाह मुकर्रर की है, उसमें गुजारा नहीं होता। बीस रुपये का तो गल्ला भी काफी नहीं होता, और सब जरूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्म्त तो नहीं पड़ती; मगर आपसे न कहूँ, तो किससे कहूँ?

जॉन सेवक-कुछ दिन काम कीजिए, तरक्की होगी न। कहाँ है आपका हिसाब-किताब लाइए, देखूँ।

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गए। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिर अली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जाँच करने लगे। दो-चार पन्ने उलट-पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले-अभी आपको हिसाब-किताब लिखने का सलीका नहीं है, उस पर आप कहते हैं, तरक्की कर दीजिए। हिसाब बिलकुल आईना होना चाहिए; यहाँ तो कुछ पता नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदा, और कितना माल रवाना किया। खरीदार को प्रति खाता एक आना दस्तूरी मिलती है, वह कहीं दर्ज ही नहीं है!

ताहिर-क्या उसे भी दर्ज कर दूँ?

जॉन सेवक-क्यों, वह मेरी आमदनी नहीं है?

ताहिर-मैंने तो समझा कि वह मेरा हक है।

जॉन सेवक-हरगिज नहीं, मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ। (त्योरियाँ बदलकर) मुलाजिमों का हक है! खूब! आपका हक तनख्वाह, इसके सिवा आपको कोई हक नहीं है।

ताहिर-हुजूर, अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।

जॉन सेवक-अब तक आपने इस मद में जो रकम वसूल की है, वह आमदनी में दिखाइए। हिसाब-किताब के मामले में मैं जरा भी रिआयत नहीं करता।

ताहिर-हुजूर, बहुत छोटी रकम होगी।

जॉन सेवक-कुछ मुजायका नहीं, एक ही पाई सही; वह सब आपको भरनी पड़ेगी। अभी वह रकम छोटी है, कुछ दिनों में उसकी तादाद सैकड़ों तक पहुँच जाएगी। उस रकम से मैं यहाँ एक संडे-स्कूल खोलना चाहता हूँ। समझ गए? मेम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है। अच्छा चलिए, वह जमीन कहाँ है जिसका आपने जिक्र किया था?

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था। यहाँ आस-पास के जानवर चरने आया करते थे। जॉन सेवक यह जमीन लेकर यहाँ सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे। प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था। जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी जमीन देखने चलीं। पिता और पुत्रा ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा। कहाँ कारखाना होगा, कहाँ गोदाम, कहाँ दफ्तर, कहाँ मैनेजर का बँगला, कहाँ श्रमजीवियों के कमरे, कहाँ कोयला रखने की जगह और कहाँ से पानी आएगा, इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं। अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिर अली से पूछा-यह किसकी जमीन है?

ताहिर-हुजूर, यह तो ठीक नहीं मालूम, अभी चलकर यहाँ किसी से पूछ लूँगा, शायद नायकराम पंडा की हो।

साहब-आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैं?

ताहिर-मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी।

जॉन सेवक-अजी, बेचेगा उसका बाप, उसकी क्या हस्ती है? रुपये के सत्तारह आने दीजिए, और आसमान के तारे मँगवा लीजिए। आप उसे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उससे बातें कर लूँगा।

प्रभु सेवक-मुझे तो भय है कि यहाँ कच्चा माल मिलने में कठिनाई होगी। इधार लोग तम्बाकू की खेती कम करते हैं।

जॉन सेवक-कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा। किसान को ऊख या जौ-गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिस जिन्स के पैदा करने में अपना लाभ देखेगा वही पैदा करेगा। इसकी कोई चिंता नहीं है। खाँ साहब, आप उस पण्डे को मेरे पास कल जरूर भेज दीजिएगा।

ताहिर-बहुत खूब, उसे कहूँगा।

जान सेवक-कहूँगा नहीं, उसे भेज दीजिएगा। अगर आपसे इतना भी न हो सका, तो मैं समझूँगा, आपको सौदा पटाने का जरा भी ज्ञान नहीं।

मिसेज सेवक-(ऍंगरेजी में) तुम्हें इस जगह पर कोई अनुभवी आदमी रखना चाहिए था।

जान सेवक-(ऍंगरेजी में) नहीं, मैं अनुभवी आदमियों से डरता हूँ। वे अपने अनुभव से अपना फायदा सोचते हैं, तुम्हें फायदा नहीं पहुँचाते। मैं ऐसे आदमियों से कोसों दूर रहता हूँ।

ये बातें करते हुए तीनों आदमी फिटन के पास गए। पीछे-पीछे ताहिर अली भी थे। यहाँ सोफ़िया खड़ी सूरदास से बातें कर रही थी। प्रभु सेवक को देखते ही बोली-‘प्रभु, यह अंधा तो कोई ज्ञानी पुरुष जान पड़ता है, पूरा फिलासफर है।’

मिसेज़ सेवक-तू जहाँ जाती है, वहीं तुझे कोई-न-कोई ज्ञानी आदमी मिल जाता है। क्यों रे अंधे, तू भीख क्यों माँगता है? कोई काम क्यों नहीं करता?

सोफ़िया-(ऍंगरेजी में) मामा, यह अंधा निरा गँवार नहीं है।

सूरदास को सोफ़िया से सम्मान पाने के बाद ये अपमानपूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए। अपना आदर करनेवाले के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है। सिर उठाकर बोला-भगवान् ने जन्म दिया है, भगवान् की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती।

मिसेज़ सेवक-तेरे भगवान् ने तुझे अंधा क्यों बना दिया? इसलिए कि तू भीख माँगता फिरे? तेरा भगवान् बड़ा अन्यायी है।

सोफ़िया-(ऍंगरेजी में) मामा, आप इसका अनादर क्यों कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है।

सूरदास-भगवान् अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व-जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किए हैं, वैसे फल भोग रहा हूँ। यह सब भगवान् की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता-बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगा?

सोफ़िया-मैं अगर अंधी होती, तो खुदा को कभी माफ न करती।

सूरदास-मिस साहब, अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैं, भगवान का इसमें कोई दोष नहीं।

सोफ़िया-मामा, यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुधिार से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दिया, तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैं? अन्य मतावलम्बियों की भाँति हमारी जाति में अमीर-गरीब, अच्छे-बुरे, लँगड़े-लूले, सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका क्या कारण है?

मिसेज़ सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा-मिस साहब, अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लिया, तो संसार में अंधेर मच जाए।

मिसेज़ सेवक-सोफी, बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती, हालाँकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है।

प्रभु सेवक-(सूरदास से) तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्यों?

सूरदास-हाँ जब तक हम वैरागी न होंगे, दु:ख से नहीं बच सकते।

जॉन सेवक-शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दु:ख है; यह हमें दु:खों से क्योंकर मुक्त कर सकता है?

सूरदास-साहब, वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने ओर जटा बढ़ाने को पाखंड बताया है। वैराग तो मन से होता है। संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे। इसी को वैराग कहते हैं।

मिसेज़ सेवक-हिंदुओं ने ये बातें यूनान के ैजवपबे से सीखी हैं; किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दु:ख-सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिलें, तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।

जॉन सेवक-हाँ, इसे कुछ मत दो, देखो, क्या कहता है। अगर जरा भी भुन-भुनाया, तो हंटर से बातें करूँगा। सारा वैराग भूल जाएगा। माँगता है भीख धोले-धोले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है, उस पर दावा यह है कि वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरो, क्लब होते हुए बँगले चलो।

सोफ़िया-मामा, कुछ तो जरूर दे दो, बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था।

प्रभु सेवक-ओहो, मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।

जॉन सेवक-हरगिज नहीं, कुछ मत दो, मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हूँ।

प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »


गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी ऑंखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा, मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला। सहसा सोफ़िया ने कहा-सूरदास, खेद है, मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगी, तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा।

अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भलीभाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआ, पर बेपरवाही से बोला-मिस साहब, इसकी क्या चिंता? भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। तुम्हारी दया चाहिए, मेरे लिए यही बहुत है।

सोफ़िया ने माँ से कहा-मामा, देखा आपने, इसका मन जरा भी मैला नहीं हुआ।

प्रभु सेवक-हाँ, दु:खी तो नहीं मालूम होता।

जॉन सेवक-उसके दिल से पूछो।

मिसेज़ सेवक-गालियाँ दे रहा होगा।

गाड़ी अभी धीरे-धीरे चल रही थी। इतने में ताहिर अली ने पुकारा-हुजूर, यह जमीन पंडा की नहीं, सूरदास की है। यह कह रहे हैं।

साहब ने गाड़ी रुकवा दी, लज्जित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखा, गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आए, और नम्र भाव से बोले-क्यों सूरदास, यह जमीन तुम्हारी है?

सूरदास-हाँ हुजूर, मेरी ही है। बाप-दादों की इतनी ही तो निशानी बच रही है।

जॉन सेवक-तब तो मेरा काम बन गया। मैं चिंता में था कि न-जाने कौन इसका मालिक है। उससे सौदा पटेगा भी या नहीं। जब तुम्हारी है, तो फिर कोई चिंता नहीं। तुम-जैसे त्यागी और सज्जन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा। जब तुम्हारे पास इतनी जमीन है, तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा है?

सूरदास-क्या करूँ हुजूर, भगवान् की जो इच्छा है, वह कर रहा हूँ।

जॉन सेवक-तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जाएगी। बस, यह जमीन मुझे दे दो। उपकार का उपकार, और लाभ का लाभ। मैं तुम्हें मुँह-माँगा दाम दूँगा।

सूरदास-सरकार, पुरुखों की यही निशानी है, बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगा?

जॉन सेवक-यहीं सड़क पर एक कुऑं बनवा दूँगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।

सूरदास-साहब, इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल-भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगा, तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा।

जॉन सेवक-कितने रुपये साल चराई के पाते हो?

सूरदास-कुछ नहीं, मुझे भगवान् खाने-भर को यों ही दे देते हैं, तो किसी से चराई क्यों लूँ? किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकता, तो इतना ही सही।

जॉन सेवक-(आश्चर्य से) तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी है? सोफ़िया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों-बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धान्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते हो, तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगे? मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूगा

सूरदास-सरकार, यह जमीन मेरी है जरूर, लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूँ, कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगे?

जॉन सेवक-यहाँ एक कारखाना खोलूँगा, जिससे देश और जाति की उन्नति होगी, गरीबों का उपकार होगा, हजारों आदमियों की रोटियाँ चलेंगी। इसका यश भी तुम्हीं को होगा।

सूरदास-हुजूर, मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।

जॉन सेवक-अच्छी बात है, पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूँगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न होगा। तुम जिस तरह खुश होगे, उसी तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो।

सूरदास-हुजूर, मैं रुपये लेकर क्या करूँगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्याण मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।

जॉन सेवक-तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूँ? इसे ले लो, धार्मार्थ ही समझो।

सूरदास-नहीं साहब, धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया है, अब यह धर्म नहीं रहा।

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह किया, किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिए। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।

मिसेज़ सेवक ने पूछा-क्या बातें हुईं?

जॉन सेवक-है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता था, न लिए।

मिसेज़ सेवक-है कुछ आशा?

जॉन सेवक-जितना आसान समझता था, उतना आसान नहीं है। गाड़ी तेज हो गई।

भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़े हो। क्यों नहीं मेरे साथ कहीं तीर्थयात्राा करने चलते?

सूरदास-यही तो मैं भी सोच रहा हूँ। चलो, तो मैं भी निकल पडर्ऌँ।

दयागिरि-हाँ, चलो, तब मैं मंदिर का कुछ ठिकाना कर लूँ। यहाँ कोई नहीं, जो मेरे पीछे यहाँ दिया-बत्ताी तक कर दे, भोग-भाग लगाना तो दूर रहा।

सूरदास-तुम्हें मंदिर से कभी छुट्टी न मिलेगी।

दयागिरि-भाई, यह भी नहीं होता कि मंदिर को यों ही निराधाार छोड़कर चला जाऊँ, फिर न जाने कब लौटूँ, तब तक तो यहाँ घास जम जाएगा।

सूरदास-तो जब तुम आप ही अभी माया में फँसे हुए हो, तो मेरा उध्दार क्या करोगे?

दयागिरि-नहीं, अब जल्दी ही चलूँगा। जरा पूजा के लिए फूल लेता आऊँ।

दयागिरि चले गए तो सूरदास फिर सोच में पड़ा-संसार की भी क्या लीला है कि होम करते हाथ जलते हैं। मैं तो नेकी करने गया था,उसका यह फल मिला। मुहल्लेवालों को विश्वास आ गया। बुरी बातों पर लोगों को कितनी जल्दी विश्वास आ जाता है! मगर नेकी-बदी कभी छिपी नहीं रहती। कभी-न-कभी तो असली बात मालूम हो ही जाएगी। हार जीत तो जिंदगानी के साथ लगी हुई है, कभी जीतूँगा, तो कभी हारूँगा, इसकी चिंता ही क्या? अभी कल बड़े-बड़ों से जीता था, आज जीत में भी हार गया। यह तो खेल में हुआ ही करता है। वह बेचारी सुभागी कहाँ जाएगी? मुहल्लेवाले तो अब उसे यहाँ रहने न देंगे, और रहेगी किसके आधाार पर? कोई अपना तो हो। मैके में भी कोई नहीं है। जवान औरत अकेली कहीं रह भी नहीं सकती। जमाना खराब आया हुआ है, उसकी आबरू कैसे बचेगी? भैराें को कितना चाहती है?समझती थी कि मैं उसे मारने गया हूँ; उसे सावधाान रहने के लिए कितना जोर दे रही थी! वह तो इतना प्रेम करती है, और भैरों का कभी मुँह ही सीधाा नहीं होता, अभागिनी है और क्या। कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके चरन धाो-धाोकर पीता; पर भैरों को जब देखो, उस पर तलवार ही खींचे रहता है। मैं कहीं चला गया, तो उसका कोई पुछत्तार भी न रहेगा। मुहल्ले के लोग उसकी छीछालेदर होते देखेंगे, और हँसेंगे! कहीं-न-कहीं डूब मरेगी, कहाँ तक संतोष करेगी। इस ऑंखोंवाले अंधो भैरों को तनिक भी खयाल नहीं कि मैं इसे निकाल दँगा, तो कहाँ जाएगी। कल को मुसलमान या किरिसतान हो जाएगी, तो सारे शहर में हलचल पड़ जाएगी; पर अभी उसके आदमी को कोई समझानेवाला नहीं। कहीं भरतीवालों के हाथ पड़ गई, तो पता भी न लगेगा कि कहाँ गई। सभी लोग जानकर अनजान बनते हैं।

वह यही सोचता-विचारता सड़क की ओर चला गया कि सुभागी आकर बोली-सूरे, मैं कहाँ रहूँगी?

सूरदास ने कृत्रिाम उदासीनता से कहा-मैं क्या जानूँ, कहाँ रहोगी! अभी तू ही तो भैरों से कह रही थी कि लाठी लेकर जाओ। तू क्या यह समझती थी कि मैं भैरों को मारने गया हूँ?

सुभागी-हाँ, सूरे, झूठ क्यों बोलूँ? मुझे यह खटका तो हुआ था।

सूरदास-जब तेरी समझ में मैं इतना बुरा हूँ, तो फिर मुझसे क्यों बोलती है? अगर वह लाठी लेकर आता और मुझे मारने लगता, तो तू तमासा देखती और हँसती, क्यों तुझसे तो भैरों ही अच्छा कि लाठी-लबेद लेकर नहीं आया। जब तूने मुझसे बैर ठान रखा है, तो मैं तुझसे क्यों न बैर ठानूँ?

सुभागी-(रोती हुई) सूरे, तुम भी ऐसा कहोगे, तो यहाँ कौन है, जिसकी आड़ में मैं छिन-भर भी बैठूँगी। उसने अभी मारा है, मगर पेट नहीं भरा, कह रहा है कि जाकर पुलिस में लिखाए देता हूँ। मेरे कपड़े-लत्तो सब बाहर फेंक दिए हैं। इस झोंपड़ी के सिवा अब मुझे और कहीं सरन नहीं।

सूरदास-मुझे भी अपने साथ मुहल्ले से निकलवाएगी क्या?

सुभागी-तुम जहाँ जाओगे, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।

सूरदास-तब तो तू मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक न रखेगी। सब यही कहेंगे कि अंधाा उसे बहकाकर ले गया।

सुभागी-तुम तो बदनामी से बच जाओगे, लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इज्जत-आबरू जाते देखे,तो उसकी बाँह पकड़ ले? यहाँ तो एक टुकड़ा रोटी भी माँगूँ, तो न मिले। तुम्हारे सिवा अब मेरे और कोई नहीं है। पहले मैं तुम्हें आदमी समझती थी, अब देवता समझती हूँ। चाहो तो रहने दो; नहीं तो कह दो, कहीं मुँह में कालिख लगाकर जा मरूँ।

सूरदास ने देर तक चिंता में मग्न रहने के बाद कहा-सुभागी, तू आप समझदार है, जैसा जी आए, कर। मुझे तेरा खिलाना-पहनाना भारी नहीं है। अभी शहर में इतना मान है कि जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह नाहीं न करेगा। लेकिन मेरा मन कहता है कि तेरे यहाँ रहने से कल्याण न होगा। हम दोनों ही बदनाम हो जाएँगे। मैं तुझे अपनी बहन समझता हूँ, लेकिन अंधाा संसार तो किसी की नीयत नहीं देखता। अभी तूने देखा, लोग कैसी-कैसी बातें करते रहे। पहले भी गाली उठ चुकी है। जब तू खुल्लमखुल्ला मेरे घर में रहेगी, तब तो अनरथ ही हो जाएगा। लोग गरदन काटने पर उतारू हो जाएँगे। बता, क्या करूँ?

सुभागी-जो चाहो करो, पर मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।

सूरदास-यही तेरी मरजी, तो यही सही। मैं सोच रहा था, कहीं चला जाऊँ। न ऑंखों देखूँगा, न पीर होगी; लेकिन तेरी बिपत देखकर अब जाने की इच्छा नहीं होती। आ, पड़ी रह। जैसी कुछ सिर पर आएगी देखी जाएगी। तुझे मँझधाार में छोड़ देने से बदनाम होना अच्छा है।

यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोंपड़ी में आ बैठी। देखा, तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधार-उधार फैली हुई थी। कहीं लुटिया औंधाी पड़ी थी, कहीं घड़े लुढ़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थी, जमीन पर मानो धाूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिए थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोंपड़े की सफाई करती रही। शाम को वही घर जो ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ को चरितार्थ कर रहा था, साफ-सुथरा, लिपा-पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों को रहने के लिए जी ललचाए। भैरों तो अपनी दूकान में चला गया था, सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संधया समय लौटा, तो सुभागी ने थोड़ा-सा चबेना उसे जल-पान करने को दिया, लुटिया में पानी लाकर रख दिया और अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन-भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा-मैं कितना अभागा हूँ। काश, यह मेरी स्त्राी होती, तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरों ने इसे घर से निकाल ही दिया; मैं रख लूँ, तो इसमें कौन-सी बुराई है! इससे कहूँ कैसे, न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधाा हूँ, तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगी? मुझसे इसे प्रेम न होता, तो मेरी इतना सेवा क्यों करती?

मनुष्य-मात्रा को, जीव-मात्रा को, प्रेम की लालसा रहती है। भोग-लिप्सु प्राणियाेंं में यह वासना का प्रकट रूप है, सरल हृदयहीन प्राणियों में शांति-भोग का।

सुभागी ने सूरदास की पोटली खोली, तो उसमें गेहूँ का आटा निकला, थोड़ा-सा चावल, कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटियाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।

सूरदास-मिठुआ कहाँ है?

सुभागी-क्या जानूँ, कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया था, मुझे देखकर चला गया।

सूरदास-तुझसे सरमाता होगा। देख, मैं उसे बुलाए लाता हूँ।

यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहता, घर में जाकर दाना निकाल लाता, भुनवाकर खाता; आज सारे दिन भूखों मरा। इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटियाँ रख दीं और मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम था, केवल दो रोटियाँ बन सकी थीं।

सूरदास ने कहा-मिट्ठू, और रोटी लोगे?

मिटठ्-मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।

सूरदास-तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।

यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटियाँ मिट्ठू को दे दीं। सुभागी क्रुध्द होकर मिट्ठू से बोली-दिन-भर साँड की तरह फिरते हो, कहीं मजूरी क्यों नहीं करते? इसी चक्कीघर में काम करो, तो पाँच-छ: आने रोज मिलें।

सूरदास-अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगा, तो कलेजा टूट जाएगा!

सुभागी-मजूरों के लड़कों का कलेज इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैं, किसी का कलेजा नहीं टूटता।

सूरदास-जब उसका जी चाहेगा, आप काम करेगा।

सुभागी-जिसे बिना हाथ-पैर हिलाए खाने को मिल जाए, उसकी बला काम करने जाती है।

सूरदास-ऊँह, मुझे कौन किसी रिन-धान का सोच है। माँगकर लाता हूँ, खाता हूँं। जिस दिन पौरुख न चलेगा, उस दिन देखी जाएगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँ?

सुभागी-मैं इसे काम पर भेजूँगी। देखूँ, कैसे नहीं जाता। यह मुटरमरदी है कि अंधाा माँगे और ऑंखवाले मुसंडे बैठे खाएँ। सुनते हो मिट्ठू,कल से काम करना पड़ेगा।

मिट्ठू-तेरे कहने से न जाऊँगा; दादा कहेंगे तो जाऊँगा।

सुभागी-मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता है? इतना नहीं सूझता कि अंधाा आदमी तो माँगकर लाता है, और मैं चैन से खाता हूँ। जनम-भर कुमार ही बने रहोगे?

मिट्ठू-तुझसे क्या मतलब, मेरा जी चाहेगा, जाऊँगा, न जी चाहेगा, न जाऊँगा।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
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Re: हिन्दी उपन्यास – रंगभूमि – लेखक – मुंशी प्रेमचंद

Post by Jemsbond »


इसी तरह दोनों में देर तक वाद-विवाद हुआ, यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चौके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनाया, पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधाा ही भोजन करके उठ गया।

जब वह लेटा, तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्रा उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थी, न वह सुषमा, न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरम्भ हुआ, बिस्मिल्लाह ही गलत हुई, तो आगे कौन जाने, क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँ, लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँ? जब मर जाऊँगा, तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगी, वैसी झेलेगा।

वह अंकुर, वह नन्ही-सी आकांक्षा, जो संधया समय उसके हृदय में उगी थी, इस ताप के झोंके से जल गई, अंकुर सूख गया।

सुभागी को नई चिंता सवार हुई-मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँ? मैं कुछ उसकी लौंडी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धाोऊँ, उसका खाना पकाऊँ और वह मटर-गस करे। मुझे भी कोई बिठाकर न खिलाएगा। मैं खाऊँ ही क्यों? जब सब काम करेंगे, तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!

प्रात:काल जब वह झोंपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकली, तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली-क्यों री, आज रात तू यहीं रही थी क्या?

सुभागी ने कहा-हाँ रही तो, फिर!

जमुनी-अपना घर नहीं था।

सुभागी-अब लात खाने की बूता नहीं है।

जमुनी-तो तू दो-चार सिर कटाकर तब चैन लेगी? इस अंधो की भी मत मारी गई है कि जान-बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरों गला काट लेनेवाले आदमी हैं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, चली जा घर।

सुभागी-उस घर में तो अब पाँव न रखूँगी, चाहे कोई मार डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए की बाँह पकड़ ली; और दूसरा यहाँ कौन है?

जमुनी-जिस घर में कोई मेहरिया नहीं, वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।

सुभागी-जानती हूँ, पर किसके घर जाऊँ? तुम्हारे घर आऊँ, रहने दोगी? जो कुछ करने को कहोगी, करूँगी, गोबर पाथूँगी, भैंसों को घास-चारा दूँगी, पानी डालूँगी, तुम्हारा आटा पिसूँगी। रखोगी?

जमुनी-न बाबा, यहाँ कौन बैठे-बिठाए रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भी, उस पर बद्दू भी बनूँ।

सुभागी-रोज गाली-मार खाया करूँ?

जमुनी-अपना मरद है, मारता ही है, तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता है?

सुभागी-क्यों बहुत बढ़-बढ़कर बात करती हो जमुनी! मिल गया है बैल, जिस कल चाहती हो, बैठाती हो। रात-दिन डंडा लिए सिर पर सवार रहता, तो देखती कि कैसे घर में रहती। अभी उस दिन दूधा में पानी मिलाने के लिए मारने उठा था, तो चादर लेकर मैके भागी जाती थी। दूसरों को उपदेश करना सहज नहीं है। जब अपने सिर पड़ती है, तो ऑंखें खुल जाती हैं।

यह कहती हुई सुभागी कुएँ पर पानी भरने चली गई। यहाँ भी उसने टीकाकारों को ऐसा ही अक्खड़ जवाब दिया। पानी लाकर बर्तन धाोये,चौका लगाया और सूरदास को सड़क पर पहुँचाने चली गई। अब तक वह लाठी से टटोलता हुआ अकेले ही चला जाता था, लेकिन सुभागी से यह न देखा गया। अंधाा आदमी है, कहीं गिर पड़े तो, लड़के ही दिक करते हैं। मैं बैठी ही तो हूँ। उससे फिर किसी ने कुछ न पूछा। यह स्थिर हो गया कि सूरदास ने उसे घर डाल लिया। अब व्यंग्य, निंदा, उपहास की गुंजाइश न थी। हाँ, सूरदास सबकी नजरों में गिर गया। लोग कहते-रुपये न लौटा देता, तो क्या करता। डर होगा कि सुभागी एक दिन भैरों से कह ही देगी, मैं पहले ही से क्यों न चौकन्ना हो जाऊँ। मगर सुभागी क्यों अपने घर से रुपये उड़ा ले गई? वाह! इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? भैरों उसे रुपये-पैसे नहीं देता। मालकिन तो बुढ़िया है। सोचा होगा, रुपये उड़ा लूँ, मेरे पास कुछ पूँजी तो हो जाएगी, अपने पास कहाँ। कौन जाने, दोनों में पहले ही से साठ-गाँठ रही हो। सूरे को भला आदमी समझकर उसके पास रख आई हो। या सूरदास ने रुपये उठवा लिए हों, फिर लौटा आया हो कि इस तरह मेरा भरम बना रहेगा। अंधो पेट के बड़े गहरे होते हैं, इन्हें बड़ी दूर की सूझती है।

इस भाँति कई दिनों तक गद्देबाजियाँ हुईं।

परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती। न उन्हें इतना अवकाश होता है कि इन बातों में सिर खपाएँ, न इतनी बुध्दि ही कि इन गुत्थियों को सुलझाएँ। मनुष्य स्वभावत: क्रियाशील होते हैं, उनमें विवेचन-शक्ति कहाँ? सुभागी से बोलने-चालने, उसके साथ उठने-बैठने में किसी को आपत्तिा न रही; न कोई उससे कुछ पूछता, न आवाजें कसता। हाँ, सूरदास की मान-प्रतिष्ठा गायब हो गई। पहले मुहल्ले-भर में उसकी धााक थी, लोगों को उसकी हैसियत से कहीं अधिाक उस पर विश्वास था। उसका नाम अदब के साथ लिया जाता था। अब उसकी गणना भी सामान्य मनुष्यों में होने लगी, कोई विशेषता न रही।

किंतु भैरों के हृदय में सदैव यह काँटा खटका करता था। वह किसी भाँति इस सजीव अपमान का बदला लेना चाहता था। दूकान पर बहुत कम जाता। अफसरों से शिकायत भी की गई कि यह ठेकेदार दूकान नहीं खोलता, ताड़ी-सेवियों को निराश होकर जाना पड़ता है। मादक वस्तु-विभाग के कर्मचारियों ने भैरों को निकाल देने की धामकी भी दी; पर उसने कहा, मुझे दूकान का डर नहीं, आप लोग जिसे चाहें रख लें। पर वहाँ कोई दूसरा पासी न मिला और अफसरों ने एक दूकान टूट जाने के भय से कोई सख्ती करनी उचित न समझी।

धाीरे-धाीरे भैरों की सूरदास ही से नहीं, मुहल्ले-भर से अदावत हो गई। उसके विचार में मुहल्लेवालों का यह धार्म था कि मेरी हिमायत के लिए खड़े हो जाते और सूरे को कोई ऐसा दंड देते कि वह आजीवन याद रखता-ऐसे मुहल्ले में कोई क्या रहे, जहाँ न्याय और अन्याय एक ही भाव बिकते हैं। कुकर्मियों से कोई बोलता ही नहीं। सूरदास अकड़ता हुआ चला जाता है। यह चुड़ैल ऑंखों में काजल लगाए फिरा करती है। कोई इन दोनों के मुँह में कालिख नहीं लगाता। ऐसे गाँव में तो आग लगा देनी चाहिए। मगर किसी कारण उसकी क्रियात्मक शक्ति शिथिल पड़ गई थी। वह मार्ग मेंं सुभागी को देख लेता, तो कतराकर निकल जाता। सूरदास को देखता तो ओठ चबाकर रह जाता। वार करने की हिम्मत न होती। वह अब कभी मंदिर में भजन गाने न जाता; मेलों-तमाशों से भी उसे अरुचि हो गई, नशे का चस्का आप-ही-आप छूट गया। अपमान की तीव्र वेदना निरंतर होती रहती। उसने सोचा था, सुभागी मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएगी, मेरे कलंक का दाग मिट जाएगा। मगर वह अभी तक वहाँ उसकी छाती पर मूँग ही नहीं दल रही थी, बल्कि उसी पुरुष के साथ विलास कर रही थी, जो उसका प्रतिद्वंद्वी था। सबसे बढ़कर दु:ख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था। उसे अपना अपमान सामने बैठा मुँह चिढ़ाता हुआ मालूम होता था। अब उसे गाली-गलौज से तस्कीन न हो सकती थी। वह इस फिक्र में था कि इन दोनों का काम तमाम कर दूँ। इस तरह मारूँ कि एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरें, पानी की बूँद भी न मिले। लेकिन अकेला आदमी क्या कर सकता है? चारों ओर निगाह दौड़ाता, पर कहीं से सहायता मिलने की आशा न दिखाई देती। मुहल्ले में ऐसे जीवट का कोई आदमी न था। सोचते-सोचते उसे खयाल आया कि अंधो ने चतारी के राजा साहब को बहुत बदनाम किया था। कारखानेवाले साहब को भी बदनाम करता फिरता था। इन्हीं लोगों से चलकर फरियाद करूँ। अंधो से दिल में तो दोनों खार खाते ही होंगे, छोटे के मुँह लगना अपनी मर्यादा के विरुध्द समझकर चुप रह गए होंगे। मैं जो सामने खड़ा हो जाऊँगा, तो मेरी आड़ से वे जरूर निशाना मारेंगे। बड़े आदमी हैं, वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है; लेकिन जो कहीं मेरी पहुँच हो गई और उन्होंने मेरी सुन ली, तो फिर इन बच्चा की ऐसी खबर लेंगे कि सारा अंधाापन निकल जाएगा। (अंधोपन के सिवा यहाँ और रखा ही क्या था।)

कई दिनों तक वह इसी हैस-बैस में पड़ा रहा कि उन लोगों के पास कैसे पहुँचूँ। जाने की हिम्मत न पड़ती थी। कहीं उलटे मुझी को मार बैठें, निकलवा दें तो और भी भद्द हो। आखिर एक दिन दिल मजबूत करके वह राजा साहब के मकान पर गया, और साईस के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। साईस ने देखा, तो कर्कश कंठ से बोला-कौन हो! यहाँ क्या उचक्कों की तरह झाँक रहे हो?

भैरों ने बड़ी दीनता से कहा-भैया, डाँटो मत, गरीब-दुखी आदमी हूँ।

साईस-गरीब दुखियारे हो, तो किसी सेठ-साहूकार के घर जाते, यहाँ क्या रखा है?

भैरों-गरीब हूँ, लेकिन भिखमंगा नहीं हूँ। इज्जत-आबरू सभी की होती है। तुम्हारी ही बिरादरी में कोई किसी की बहू-बेटी को लेकर निकल जाए, तो क्या उसे पंचाइत यों ही छोड़ देगी? कुछ-न-कुछ दंड देगी ही। पंचाइत न देगी, तो अदालत-कचहरी से तो कुछ होगा।

साईस जात का चमार था, जहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ आए दिन होती रहती हैं, और बिरादरी को उनकी बदौलत नशा-पानी का सामान हाथ आता रहता है। उसके घर में नित्य यही चर्चा रहती थी। इन बातों में उसे जितनी दिलचस्पी थी, उतनी और किसी बात से न हो सकती थी। बोला-आओ बैठो, चिलम पियो, कौन भाई हो?

भैरों-पासी हूँ, यहीं पाँडेपुर में रहता हूँ।

वह साईस के पास जा बैठा और दोनों में सायँ-सायँ बातें होने लगीं, मानो वहाँ कोई कान लगाए उनकी बातें सुन रहा हो। भैरों ने अपना सम्पूर्ण वृत्ताांत सुनाया और कमर से एक रुपया निकालकर साईस के हाथ में रखता हुआ बोला-भाई, कोई ऐसी जुगुत निकालो कि राजा साहब के कानों में यह बात पड़ जाए। फिर तो मैं अपना सब हाल आप ही कह लूँगा। तुम्हारी दया से बोलने-चालने में ऐसा बुध्दू नहीं हूँ। दारोगा से तो कभी डरा ही नहीं।

साईस को रौप्य मुद्रा के दर्शन हुए, तो मगन हो गया। आज सबेरे-सबेरे अच्छी बोहनी हुई। बोला-मैं राजा साहब से तुम्हारी इत्ताला कराए देता हूँ। बुलाहट होगी, तो चले जाना। राजा साहब को घमंड तो छू ही नहीं गया। मगर देखना, बहुत देर न लगाना, नहीं तो मालिक चिढ़ जाएँगे। बस, जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह डालना। बड़े आदमियाेंं को बातचीत करने की फुरसत नहीं रहती। मेरी तरह थोड़े ही हैं कि दिन-भर बैठे गप्पें लड़ाया करें।

यह कहकर वह चला गया। राजा साहब इस वक्त बाल बनवा रहे थे, जो उनका नित्य का नियम था। साईस ने पहुँचकर सलाम किया।

राजा-क्या कहते हो? मेरे पास तलब के लिए मत आया करो।

साईस-नहीं हुजूर, तलब के लिए नहीं आया था। वह जो सूरदास पाँडेपुर में रहता है।

राजा-अच्छा, वह दुष्ट अंधाा!

साईस-हाँ हुजूर, वह एक औरत को निकाल ले गया है।

राजा-अच्छा! उसे तो लोग कहते थे, बड़ा भला आदमी है। अब यह स्वाँग रचने लगा!

साईस-हाँ हुजूर, उसका आदमी फरियाद करने आया है। हूकुम हो, तो लाऊँ।

राजा साहब ने सिर हिलाकर अनुमति दी और एक क्षण में भैरों दबकता हुआ आकर खड़ा हो गया।

राजा-तुम्हारी औरत है?

भैरों-हाँ हुजूर, अभी कुछ दिन पहले तो मेरी ही थी!

राजा-पहले से कुछ आमद-रफ्त थी?

भैरों-होगी सरकार, मुझे मालूम नहीं।

राजा-लेकर कहाँ चला गया?

भैरों-कहीं गया नहीं सरकार, अपने घर में है।

राजा-बड़ा ढीठ है। गाँववाले कुछ नहीं बोलते?

भैरों-कोई नहीं बोलता, हुजूर!

राजा-औरत को मारते बहुत हो?

भैरों-सरकार, औरत से भूल-चूक होती है, तो कौन नहीं मारता?

राजा-बहुत मारते हो कि कम?

भैरों-हुजूर, क्रोधा में यह विचार कहाँ रहता है।

राजा-कैसी औरत है, सुंदर?

भैरों-हाँ, हुजूर, देखने-सुनने में बुरी नहीं है।

राजा-समझ में नहीं आता, सुंदर स्त्राी ने अंधो को क्यों पसंद किया! ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने दाल में नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्राी को मारकर निकाल दिया हो और अंधो ने रख लिया हो?

भैरों-सरकार, औरत मेरे रुपये चुराकर सूरदास को दे आई। सबेरे सूरदास रुपये लौटा गया। मैंने चकमा देकर पूछा, तो उसने चोर को भी बता दिया। इस बात पर मारता न, तो क्या करता?

राजा-और कुछ हो, अंधाा है दिल का साफ।

भैरों-हुजूर, नीयत का अच्छा नहीं।

यद्यपि महेंद्रकुमारसिंह बहुत न्यायशील थे और अपने कुत्सित मनोविचारों को प्रकट करने में बहुत सावधाान रहते थे। ख्याति-प्रिय मनुष्य को प्राय: अपनी वाणी पर पूर्ण अधिाकार होता है; पर वह सूरदास से इतने जले हुए थे, उसके हाथों इतनी मानसिक यातनाएँ पाई थीं कि इस समय अपने भावों को गुप्त न रख सके। बोले-अजी, उसने मुझे यहाँ इतना बदनाम किया कि घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। क्लार्क साहब ने जरा उसे मुँह क्या लगा लिया कि सिर चढ़ गया। यों मैं किसी गरीब को सताना नहीं चाहता, लेकिन यह भी नहीं देख सकता कि वह भले आदमियों के बाल नोचे। इजलास तो मेरा ही है, तुम उस पर दावा कर दो। गवाह मिल जाएँगे न?

भैरों-हुजूर, सारा मुहल्ला जानता है।

राजा-सबों को पेश करो। यहाँ लोग उसके भक्त हो गए हैं। समझते हैं, वह कोई ऋषि है। मैं उसकी कलई खोल देना चाहता हूँ। इतने दिनों बाद यह अवसर मेरे हाथ आया है। मैंने अगर अब तक किसी से नीचा देखा, तो इसी अंधो से। उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का। उसकी दीनता और दुर्बलता उसका कवच बनी हुई थी। यह मुकदमा उसके लिए वह गहरा गङ्ढा होगा, जिसमें से वह निकल न सकेगा। मुझे उसकी ओर से शंका थी, पर एक बार जहाँ परदा खुला कि मैं निश्ंचित हुआ। विष के दाँत टूट जाने पर साँप से कौन डरता है? हो सके, तो जल्दी ही मुकदमा दायर कर दो।

किसी बड़े आदमी को रोते देखकर हमें उससे स्नेह हो जाता है। उसे प्रभुत्व से मंडित देखकर हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि वह भी मनुष्य है। हम उसे साधाारण मानवीय दुर्बलताओं से रहित समझते हैं। वह हमारे लिए एक कुतूहल का विषय होता है। हम समझते हैं,वह न जाने क्या खाता होगा, न जाने क्या पीता होगा, न जाने क्या सोचता होगा, उसके दिल में सदैव ऊँचे-ऊँचे विचार आते होंगे, छोटी-छोटी बातों की ओर तो उसका धयान ही न जाता होगा-कुतूहल का परिष्कृत रूप ही आदर है। भैरों को राजा साहब के सम्मुख जाते हुए भय लगता था, लेकिन अब उसे ज्ञात हुआ कि यह भी हमीं-जैसे मनुष्य हैं। मानो उसे आज एक नई बात मालूम हुई। जरा बेधाड़क होकर बोला-हुजूर, है तो अंधाा, लेकिन बड़ा घमंडी है। आपने आगे तो किसी को समझता ही नहीं। मुहल्लेवाले जरा सूरदास-सूरदास कह देते हैं, तो बस, फूल उठता है। समझता है, संसार में जो कुछ हूँ, मैं ही हूँ। हुजूर, उसकी ऐसी सजा कर दें कि चक्की पीसते-पीसते दिन जाएँ। तब उसकी सेखी किरकिरी होगी।

राजा साहब ने त्योरी बदली। देखा, यह गँवार अब ज्यादा बहकने लगा। बोले-अच्छा, अब जाओ।

भैरों दिल में समझ रहा था, मैंने राजा साहब को अपनी मुट्ठी में कर लिया। अगर उसे चले जाने का हुक्म न मिला होता, तो एक क्षण में उसका ‘हुजूर’ ‘आप’ हो जाता। संधया तक उसकी बातों का ताँता न टूटता। वह न जाने कितनी झूठी बातें गढ़ता। पर-निंदा का मनुष्य की जिह्ना पर कभी इतना प्रभुत्व नहीं होता, जितना सम्पन्न पुरुषों के सम्मुख। न जानें क्यों हम उनकी कृपा-दृष्टि के इतने अभिलाषी होते हैं! हम ऐसे मनुष्यों पर भी, जिनसे हमारा लेश मात्रा भी वैमनस्य नहीं है, कटाक्ष करने लगते हैं। कोई स्वार्थ की इच्छा न रखते हुए भी हम उनका सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। उनका विश्वासपात्रा बनने की हमें एक अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा होती है। हमारी वाणी उस समय काबू से बाहर हो जाती है।

भैरों यहाँ से कुछ लज्जित होकर निकला, पर उसे अब इसमें संदेह न था कि मनोकामना पूरी हो गई। घर आकर उसने बजरंगी से कहा-तुम्हें गवाही करनी पड़ेगी। निकल न जाना।

बजरंगी-कैसी गवाही?

भैरों-यही मेरे मामले की। इस अंधो की हेकड़ी अब नहीं देखी जाती। इतने दिनों तक सबर किए बैठा रहा कि अब भी वह सुभागी को निकाल दे, उसका जहाँ जी चाहे, चली जाए, मेरी ऑंखों के सामने से दूर हो जाए। पर देखता हूँ, तो दिन-दिन उसकी पेंग बढ़ती ही जाती है। अंधाा छैला बना जाता है। महीनों देह पर पानी नहीं पड़ता था, अब नित्य स्नान करता है। वह पानी लाती है, उसकी धाोती छाँटती है,उसके सिर में तेल मलती है। यह ऍंधोर नहीं देखा जाता।

बजरंगी-ऍंधोर तो है ही, ऑंखों से देख रहा हूँ। सूरे को इतना छिछोरा न समझता था। पर मैं कहीं गवाही-साखी करने न जाऊँगा।

जमुनी-क्यों कचहरी में कोई तुम्हारे कान काट लेगा?

बजरंगी-अपना मन है, नहीं जाते।

जमुनी-अच्छा तुम्हारा मन है! भैरों, तुम मेरी गवाही लिखा दो। मैं चलकर गवाही दूँगी। साँच को ऑंच क्या?

बजरंगी-(हंसकर) तू कचहरी जाएगी?

जमुनी-क्या करूँगी जब मरदों की वहाँ जाते चूड़ियाँ मैली होती हैं, तो औरत ही जाएगी। किसी तरह उस कसबिन के मुँह में कालिख तो लगे।

बजरंगी-भैरों, बात यह है कि सूरे ने बुराई जरूर की, लेकिन तुम भी तो अनीत ही पर चलते थे। कोई अपने घर के आदमी को इतनी बेदरदी से नहीं मारता। फिर तुमने मारा ही नहीं, मारकर निकाल भी दिया। जब गाय की पगहिया न रहेगी तो वह दूसरों के खेत में जाएगी ही। इसमें उसका क्या दोस?

जमुनी-तुम इन्हेंं बकने दो भैरों, मैं तुम्हारी गवाही करूँगी।

बजरंगी-तू सोचती होगी, यह धामकी देने से मैं कचहरी जाऊँगा; यहाँ इतने बुध्दू नहीं हैं। और, सच्ची बात तो यह है कि सूरे लाख बुरा हो,मगर अब भी हम सबों से अच्छा है। रुपयों की थैली लौटा देना कोई छोटी बात नहीं।

जमुनी-बस चुप रहो, मैं तुम्हें खूब समझती हूँ। तुम भी जाकर चार गाल हँस-बोल आते हो न, क्या इतनी यारी भी न निभाओगे! सुभागी को सजा हो गई, तो तुम्हें भी तो नजर लड़ाने को कोई न रहेगा।

बजरंगी यह लांछन सुनकर तिलमिला उठा। जमुनी उसका आसन पहचानती थी, बोला-मुँह में कीड़े पड़ जाएँगे।

जमुनी-तो फिर गवाही देते क्यों कोर दबती है?

बजरंगी-लिखा दो भैरों, मेरा नाम, यह चुडैल मुझे जीने न देगी। मैं अगर हारता हूँ, तो इसी से। पीठ में अगर धाूल लगाती है, तो यह। नहीं तो यहाँ कभी किसी से दबकर नहीं चले। जाओ, लिखा दो।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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