हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post Reply
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

000

सारी घटना सुनते-सुनते इन्द्र की जीजी हठात् दो-एक बार इस तरह सिहर उठीं कि यदि इन्द्र का उस तरफ तनिक भी ध्याकन होता, तो उसे बड़ा आश्चर्य होता। वह तो न देख पाया, परन्तु मैंने देख लिया। वे कुछ देर तक चुपचाप उसकी ओर देखकर स्नेहभरे तिरस्कार से बोलीं, ''छि: भइया, ऐसा कार्य अब और कभी मत करना। इन सब भयानक जानवरों से क्या खिलवाड़ किया जाता है? भाग्य से तुम्हारे हाथ की पिटारी के ढक्कन पर ही उसने फन मारा, नहीं तो आज कैसा अनर्थ हो जाता, बोलो तो?''
''मैं क्या ऐसा बेवकूफ हूँ जीजी।'' इतना कहकर उसने अपनी धोती का छोर खींचकर कमर में से सूत से बँधी हुई एक सूखी जड़ी दिखाकर कहा, ''यह देख जीजी, पूरी सावधानी के साथ बाँध रखी है। यदि यह न होती तो क्या आज वह मुझे काटे बिना छोड़ देता? शाहजी के पास से इसे प्राप्त करने में क्या मुझे कम कष्ट उठाने पड़े हैं? इसके होते हुए तो मुझे कोई भी नहीं काट सकता, और यदि काट भी लेता- तो भी क्या बिगड़ता? शाहजी को तुरंत ही जगाकर उनसे जहर-मोहरा लेकर कटी जगह पर रख देता। अच्छा, जीजी, यह जहर-मोहरा कितनी देर में सब विष खींच लेता है? आधा घण्टे में? एक घण्टे में? नहीं, इतनी देर न लगती होगी, क्यों जीजी?''
जीजी, किन्तु उसी तरह, चुपचाप देखती रहीं। इन्द्र उत्तेजित हो गया था, बोला, ''आज दो न जीजी मुझे एक जहर-मोहरा-तुम्हारे पास तो दो-तीन पड़े हैं- कितने दिनों से मैं माँग रहा हूँ।'' फिर उत्तर के लिए प्रतीक्षा किये बगैर ही वह क्षुब्ध अभिमान के स्वर में उसी क्षण बोल उठा, ''मुझसे तो तुम लोग जो भी कहते हो मैं वही कर देता हूँ- पर तुम लोग मुझे हमेशा झाँसा देकर कहते हो, आज नहीं कल, कल नहीं परसों-यदि नहीं देना है तो साफ क्यों नहीं कह देते? मैं फिर नहीं आऊँगा- जाओ।''
इन्द्र ने लक्ष्य नहीं किया, किन्तु मैंने जीजी की तरफ देखते हुए खूब अनुभव किया कि उनका मुख, किसी असीम व्यथा और लज्जा के कारण, मानो एकदम काला हो गया है। किन्तु दूसरे ही क्षण कुछ हँसी का भाव अपने सूखे होठों पर जबर्दस्ती लाकर उन्होंने कहा, ''हाँ रे इन्द्र, क्या तू अपनी जीजी के यहाँ सिर्फ साँप के मन्त्र और जहर-मोहरा के लिए ही आया करता है?''
इन्द्र नि:संकोच होकर बोल उठा, ''और नहीं तो क्या!'' फिर निद्रित शाहजी की ओर तिरछी नजर से देखकर बोला, ''किन्तु वह मुझे हमेशा झाँसा ही देते रहते हैं- इस तिथि को नहीं, उस तिथि को नहीं-केवल वह एक झाड़ने का मन्त्र दिया था, बस और कुछ देना ही नहीं चाहते। किन्तु, आज मुझे खूब मालूम हो गया है जीजी, कि तुम भी कुछ कम नहीं हो- तुम भी सब जानती हो। अब और उनकी खुशामद नहीं करूँगा जीजी, तुम्हारे पास से ही सब मन्त्र सीख लूँगा।'' इतना कहकर उसने मेरी ओर देखा और फिर सहसा एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर शाहजी को लक्ष्य करके उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हुए कहा, ''शाहजी गाँजा-वाँजा जरूर पीते हैं श्रीकान्त, किन्तु तीन दिन के मरे हुए मुर्दे को आधा घण्टे के भीतर ही उठाकर खड़ा कर सकते हैं- इतने बड़े उस्ताद हैं ये! हाँ जीजी, तुम भी तो मुर्दे को जिला सकती हो?''
जीजी कुछ देर चुपचाप देखती रहीं और फिर एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ीं। वह कितना मधुर हास था! इस तरह मैंने बहुत ही थोड़े लोगों को हँसते देखा है; किन्तु वह हास, मानो निबिड़ मेघों से भरे हुए आकाश की बिजली को चमक की तरह, दूसरे ही क्षण अन्धकार में विलीन हो गया।
किन्तु इन्द्र ने उस तरफ ध्या न ही नहीं दिया, वह एकदम जीजी के गले पड़ गया और बोला, ''मैं जानता हूँ कि तुम्हें सब मालूम है; परन्तु मैं कहे देता हूँ कि एक-एक करके तुम्हें अपनी सब विद्याएँ देनी होंगी। जितने दिन जाऊँगा उतने दिन तुम्हारा पूरा गुलाम होकर रहूँगा। तुमने कितने मुर्दे जिलाए हैं जीजी?''
जीजी बोली, ''मैं तो मुर्दे जिलाना जानती नहीं, इन्द्रनाथ!''
इन्द्र ने पूछा, ''तुम्हें शाहजी ने यह मन्त्र नहीं दिया?'' जीजी ने सिर हिलाकर कहा, ''नहीं।'' इन्द्र, मिनट-भर तक उनके मुँह की ओर देखते रहने के उपरान्त, स्वयं भी अपना सिर हिलाते-हिलाते बोला, ''यह विद्या क्या कोई शीघ्र देना चाहता है जीजी? अच्छा, कौड़ी चलाना तो तुमने निश्चय ही सीख लिया होगा?''
जीजी बोली, ''कौड़ी चलाना किसे कहते हैं, सो भी तो मैं नहीं जानती भाई।''
इन्द्र को विश्वास नहीं हुआ। वह बोला, ''हुश्, जानती कैसे नहीं! नहीं दूँगी, यही कह दो न!'' फिर मेरी ओर देखकर बोला, ''कौड़ी चलाना कभी देखा है श्रीकान्त? दो कौड़ियाँ मन्त्र पढ़कर छोड़ दी जाती हैं, वे जहाँ साँप होता है वहाँ जाकर उसके सिर पर जा चिपटती हैं और उसे दस दिन तक के रास्ते से खींच लाकर हाजिर कर देती हैं। ऐसा ही मन्त्र का जोर है! अच्छा जीजी, घर बाँधना, देह-बाँधना, धूल पढ़ना- यह सब तो तुम जानती हो न? यदि जानती न होतीं, तो इस तरह साँप को कैसे पकड़ लेतीं?'' इतना कहकर वह जिज्ञासु-दृष्टि से जीजी के मुँह की ओर देखने लगा।
जीजी ने बहुत देर तक सिर झुकाए हुए चुपचाप मन ही मन मानो कुछ सोच लिया और फिर मुँह उठाकर धीरे से कहा, ''इन्द्र, तेरी जीजी के पास ये सब विद्याएँ कानी-कौड़ी की भी नहीं हैं किन्तु; क्यों नहीं है, सो यदि तू विश्वास करे भाई, तो आज तेरे आगे सब बातें खोलकर अपनी छाती का बोझ हलका कर डालूँ। बोलो, तुम लोग आज मेरी सब बातों पर विश्वास करोगे?'' बोलते-बोलते ही उनके पिछले शब्द एक तरह से कुछ भारी-से हो उठे।
अभी तक मैं प्राय: कुछ भी न बोला था। इस दफे, सबसे आगे जोर से बोल उठा, ''मैं तुम्हारी सब बातों पर विश्वास करूँगा जीजी! सब पर- जो तुम कहोगी, सब पर। एक भी बात पर अविश्वास न करूँगा।''
मेरी ओर देखकर वे कुछ हँसीं और बोलीं, ''विश्वास क्यों न करोगे भाई, तुम भले घरों के लड़के जो ठहरे! इतर (छोटे) लोग ही अनजान अपरिचित लोगों की बात में सन्देह करते और भय से पीछे हट जाते हैं। सिवाय इसके मैंने तो कभी झूठ बोला नहीं भाई!'' इतना कहकर उन्होंने एक दफे सिर हमारी ओर देखकर म्लान भाव-से थोड़ा-सा हँस दिया।
उस समय संध्याे की धुंध दूर होकर, आकाश में चन्द्रमा का उदय हो रहा था और उसकी धुँधली-सी किरण-रेखाएँ, वृक्षों की घनी शाखाओं और पत्तों में से छनकर नीचे के गहरे अन्धकार में पड़ रही थीं।
कुछ देर चुप रहकर जीजी एकाएक बोल उठीं, ''इन्द्रनाथ, सोचा था कि आज ही अपनी सब कहानी तुम्हें सुना दूँ। किन्तु सोचकर देखा कि नहीं, अभी वह समय नहीं आया है। परन्तु मेरी एक बात पर अवश्य विश्वास कर लो कि हम लोगों की सारी करामात शुरू से आखिर तक प्रवंचना ही है। इसलिए अब तुम झूठी आशा से शाहजी के पीछे-पीछे चक्कर मत काटो। हम लोग मन्त्र-तन्त्र कुछ नहीं जानते, मुर्दे को भी नहीं जिला सकते; कौड़ी फेंककर साँप को भी पकड़कर नहीं ला सकते। और कोई कर सकता है या नहीं, सो तो मैं नहीं जानती, परन्तु हम लोगों में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है।''
न मालूम क्यों इस अत्यल्प काल के परिचय से ही मैंने उनके प्रत्येक शब्द पर असंशय विश्वास कर लिया; किन्तु, इतने दिनों के घनिष्ठ परिचय के होते हुए भी इन्द्र विश्वास न कर सका। वह क्रुद्ध होकर बोला, ''यदि शक्ति नहीं है तो तुमने साँप को पकड़ किस तरह लिया?''
जीजी बोलीं, ''यह तो सिर्फ हाथ का कौशल-भर है इन्द्र, किसी मन्त्र का जोर नहीं। साँप का मन्त्र हम लोग नहीं जानते।''
इन्द्र बोला, ''यदि नहीं जानते; तो तुम दोनों ने धूर्तता से मुझसे इतने रुपये क्यों ठग लिये?''
जीजी तत्काल जवाब न दे सकीं; शायद अपने को कुछ सँभालने लगीं। इन्द्र ने फिर कर्कश कण्ठ से कहा, ''तुम सब ठग, धूर्त, चोट्टे हो- अच्छा दिखाता हूँ तुम लोगों को इसका मजा।''
पास में ही एक किरासन की डिबिया जल रही थी। मैंने उसी के प्रकाश में देखा, जीजी का मुँह मुर्दे के समान सफेद हो गया है। वे भय और संकोच के साथ बोलीं, ''हम लोग मदारी जो हैं भाई- ठगना ही तो हमारा व्यवसाय है।''
''तुम्हरा व्यवसाय मैं अभी सब बाहर निकाले देता हूँ- चल रे श्रीकान्त, इन साले धूर्तों की छाया से भी बचना चाहिए। हरामजादे, बदजात, धूर्त, बदमाश!'' यह कहकर इन्द्र सहसा मेरा हाथ पकड़कर और जोर से एक झटका देकर खड़ा हो गया और जरा भी विलम्ब किये बिना मुझे खींच ले गया।
इन्द्र को दोष नहीं दिया जा सकता; क्योंकि उसकी बहुत दिनों की बड़ी-बड़ी आशाएँ, मानो पलक मारते ही, भूमिसात हो गयी थीं। किन्तु मैं अपनी दोनों ऑंखों को जीजी की उन ऑंखों की ओर से फिर न लौटा सका। मैं बलपूर्वक इन्द्र से अपना हाथ छुड़ाकर पाँच रुपये सामने रखते हुए बोला, ''तुम्हारे लिए लाया था जीजी-इन्हें ले लो।''
इन्द्र ने झपटकर उन्हें उठा लिया और कहा, ''अब और रुपये! धूर्तता से इन्होंने मुझसे कितने रुपये लिये हैं, सो क्या तुझे मालूम है श्रीकान्त? मैं तो अब यही चाहता हूँ कि ये लोग बिना खाए-पिए सूखकर मर जाँय।''
मैंने उसका हाथ दबाकर कहा, ''नहीं इन्द्र, दे देने दो- मैं ये जीजी के लिए ही लाया हूँ?''
''ओ:, बड़ी आई तेरी जीजी!'' कहकर वह मुझे खींचकर बेंड़े के पास घसीट लाया!
इतने में इस गोल माल से शाहजी का नशा उचट गया। ''क्या हुआ! क्या हुआ!'' कहते हुए वह उठ बैठा।
इन्द्र मुझे छोड़कर उसकी ओर बढ़ गया और बोला, ''डाकू साले! कभी रास्ते में देख पाया तो चाबुक से तेरी पीठ का चमड़ा उधेड़ दूँगा।'' ''क्या हुआ?'', ''बदमाश साला, जानता कुछ भी नहीं, फिर भी कहता फिरता है, मन्त्र के जोर से मुर्दे जिलाता हूँ! यदि कभी रास्ते पर दिखाई दिया तो अबकी बार अच्छी तरह 'देखूँगा तुझे?'' इतना कहकर उसने एक ऐसा अशिष्ट इशारा किया जिससे कि शाहजी चौंक उठा।
एक तो नशे की खुमारी फिर अकस्मात् यह अचिन्तय काण्ड। इससे यह 'किंतर्कव्य-विमूढ़' हो गया और उसी भाव से टुकुर-टुकुर देखने लगा।
इन्द्र मुझे लेकर जब तक द्वार के बाहर आया, तब तक शायद वह कुछ होश में आकर शुद्ध बंगाली में पुकार उठा, ''सुन इन्द्रनाथ, क्या हुआ है बोल तो?'' यह पहले ही पहल मैंने उसे बंगाली में बोलते सुना।
इन्द्र लौटकर बोला, ''जन्त्र-मन्त्र तुम कुछ नहीं जानते, फिर क्यों' झूठ मूठ मुझे धोखा देकर इतने दिनों तक रुपया ऐंठते रहे? इसका जवाब दो!''
वह बोला, ''नहीं जानता, यह तुमसे किसने कहा?''
इन्द्र ने उसी क्षण उस स्तब्ध नतमुखी जीजी की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, ''इन्होंने कहा कि तुम्हारे पास कानी कौड़ी की भी विद्या नहीं है। विद्या है सिर्फ धूर्तता की और लोगों को ठगने की। यही तुम लोगों का व्यवसाय है! मिथ्यावादी, चोर!''
शाहजी की ऑंखें भक से जल उठीं। वह कैसी भीषण प्रकृति का आदमी है, इसका परिचय मुझे तब तक भी नहीं था। उसकी केवल उस दृष्टि से ही मेरे शरीर में मानो काँटे उठ आए। वह अपनी बिखरी हुई जटाओं को बाँधते-बाँधते उठ खड़ा हुआ और सामने आकर बोला, ''कहा है, तूने?''
जीजी उसी तरह नीचा मुँह किये निरुत्तर बैठी रही। इन्द्र ने मुझे एक धक्का देकर कहा, ''रात हो गयी- चल न।'' मैंने कहा, ''रात अवश्य हो रही है, परन्तु मेरे पैर तो जैसे अपनी जगह से हिलते ही नहीं हैं।'' किन्तु इन्द्र ने उस ओर भ्रूक्षेप भी न किया। वह मुझे प्राय: जबर्दस्ती ही खींच ले चला।
कुछ कदम आगे बढ़ते ही शाहजी का कंठ-स्वर फिर सुनाई दिया, ''क्यों कहा तूने?''
प्रश्न तो जरूर सुना किन्तु प्रत्युत्तर न सुन सका। थोडे क़दम और अग्रसर होते ही अकस्मात् चारों ओर के उस निबिड़ अन्धकार की छाती को चीरता हुआ एक तीव्र आर्त्त-स्वर पीछे की अंधेरी झोंपड़ी में से हमारे कानों को बेधता हुआ निकल गया; और ऑंख की पलक गिरते-न गिरते इन्द्र उस शब्द का अनुसरण करके अदृश्य हो गया। किन्तु मेरे भाग्य में कुछ और ही था। सामने ही एक बड़ी कँटीली झाड़ी थी। मैं जोर से उसी पर जा गिरा और काँटों से मेरा सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। यह जो हुआ, सो हुआ किन्तु अपने को काँटों से छुड़ाने में ही मुझे करीब दस मिनट लग गये। इस काँटे को छुड़ाओ तो किसी अन्य काँटे में कपड़ा बिंध जाता और उसे छुड़ाओ तो किसी तीसरे में जा अटकता। इस प्रकार अनेक कष्ट और विलम्ब के उपरान्त जब मैं शाहजी के घर के ऑंगन के किनारे पहुँचा, तब देखा कि उस ऑंगन के एक हिस्से में जीजी मूर्च्छित पड़ी हुई हैं और दूसरे हिस्से में दोनों का- गुरु-शिष्य का बाकायदा मल्ल-युद्ध हो रहा है। पास ही में एक तेजधार वाली बर्छी पड़ी हुई है।
शाहजी-शरीर से अत्यन्त बलवान था, किन्तु उसे पता न था कि इन्द्र उससे भी कितना अधिक बली है। यदि होता तो शायद वह इतने बड़े दु:साहस का परिचय न देता। देखते ही देखते इन्द्र उसे चित्त करके उसकी छाती पर चढ़ बैठा और उसकी गर्दन को जोर से दबोचने लगा। वह ऐसा दबोचना था कि यदि मैं बाधा न देता तो, शायद, शाहजी का मदारी-जीवन उसी समय समाप्त हो जाता।
बहुत खींच-तान के बाद जब मैंने दोनों को पृथक किया तब इन्द्र की अवस्था देखकर डर के मारे एकदम रो दिया। पहले मैं अन्धकार में देख न सका था कि उसके सब कपड़े खून से तर-ब-तर हो रहे हैं। इन्द्र हाँफते-हाँफते बोला, ''साले गँजेड़ी ने मुझे साँप मारने का बर्छा मारा है- यह देख?'' कुरते की आस्तीन उठाकर उसने बताया, भुजा में करीब दो-तीन इंच गहरा घाव हो गया है, और उसमें से लगातार खून बह रहा है।
इन्द्र बोला, ''रो मत, इस कपड़े से मेरे घाव को खूब खींचकर बाँध दे। अरे खबरदार! ठीक ऐसा ही बैठा रह, उठा तो गले पर पैर रखकर तेरी जीभ खींचकर बाहर निकाल लूँगा, हरामजादे सूअर! ले इन्द्र, तू खींचकर बाँध, देरी न कर।'' इतना कहकर उसने चर्र-चर्र अपनी धोती के छोर का एक अंश फाड़ डाला। मैं काँपते हाथों से घाव को बाँधने लगा और शाहजी निकट ही, आसन्न मृत्यु विषैले सर्प की तरह, बैठा हुआ, चुपचाप देखने लगा।
इन्द्र बोला, ''नहीं, तेरा विश्वास नहीं है, तू खून कर डालेगा। मैं तेरे हाथ बाँधूँगा।'' यह कहकर उसने उसी की गेरुए रंग की पगड़ी से खींच-खींचकर उसके दोनों हाथ खूब कसकर बाँध दिए। उसने कोई बाधा नहीं दी, प्रतिवाद नहीं किया, जरा-सी चूँ-चपड़ भी न की।
जिस लाठी के प्रहार से जीजी बेहोश हो गयी थीं उसे उठाकर एक तरफ रखते हुए इन्द्र बोला, ''कैसा नमकहराम शैतान है यह साला! मैंने इसे अपने पिता के न जाने कितने रुपये चुराकर दिए हैं, और यदि जीजी ने सिर की कसम रखाकर रोका न होता तो और भी देता। इतने पर भी यह मुझे बर्छी मार बैठा! श्रीकान्त, इस पर नजर रख जिससे यह उठ न बैठे- मैं जीजी की ऑंखों और चेहरे पर जल के छींटे देता हूँ।''
पानी के छींटे देकर हवा करते हुए वह बोला, ''जिस दिन जीजी ने कहा कि इन्द्रनाथ तेरे कमाए हुए पैसे होते तो मैं ले लेती- किन्तु इन्हें लेकर मैं अपना इहलोक-परलोक मिट्टी न करूँगी।' उस दिन से अब तक इस शैतान के बच्चे ने उन्हें कितनी मार मारी है, इसका कोई हिसाब नहीं। इतने पर भी जीजी लकड़ी ढोकर कंडे बेचकर किसी तरह इसे खिलाती-पिलाती हैं, गाँजे के लिए पैसे देती हैं- फिर भी यह उनका अपना न हुआ। किन्तु अब मैं इसे पुलिस के हाथ में दूँगा, तब छोड़ूँगा- नहीं तो यह जीजी का खून कर डालेगा, यह खून कर सकता है।''
मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह मनुष्य इस बात से सिहर उठा और सिर उठाकर उसे तुरंत नीचा कर लिया। यह सब निमेष-भर में ही हो गया। किन्तु अपराधी की निबिड़ आशंका मैंने उसके चेहरे पर इस प्रकार परिस्फुट होती हुई देखी कि उसका उस समय का वह चेहरा मुझे आज भी साफ-साफ याद आ जाता है।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि इस कहानी को, जिसे कि आज मैं लिख रहा हूँ, इतना ही नहीं कि सत्य मानकर ग्रहण करने में लोग दुविधा करेंगे परन्तु इसे विचित्र कल्पना कहकर उपहास करने में भी शायद संकोच न करेंगे। फिर भी, यह सब कुछ जानते हुए भी, मैंने इसे लिखा है और यही मेरी अभिज्ञता का सच्चा मूल्य है। क्योंकि सत्य के ऊपर खड़े हुए बगैर, किसी भी तरह यह सब कथा मुँह से बाहर नहीं निकाली जा सकती। पग-पग पर डर लगता है कि लोग इसे हँसी में न उड़ा दें। जगत में वास्तविक घटनाएँ कल्पना को भी बहुत दूर पीछे छोड़ जाती हैं-यह कैफियत, स्वयं उसे लेखबद्ध करने में, किसी तरह की मदद नहीं करती, बल्कि हाथ की कलम को बार-बार खींचकर रोकती है।
पर जाने दो इस बात को। जीजी जब ऑंखें खोलकर उठ बैठीं तब शायद आधी रात हो गयी थी। उनकी विह्वलता दूर होते और भी एक घण्टा बीत गया। इसके बाद हमारे मुँह से सारा वृत्तान्त सुनकर वे उठकर धीरे-धीरे खड़ी हो गयीं और शाहजी को बन्धन-मुक्त करके बोलीं, ''जाओ; अब सो रहो।''
उसके चले जाने के उपरान्त उन्होंने इन्द्र को पास बुलाकर और उसका दाहिना हाथ अपने सिर पर रखकर कहा, ''इन्द्र, मेरे इस सिर पर हाथ रखकर शपथ तो कर भाई, कि अब फिर कभी तू इस घर में न आयेगा। हमारा जो होना हो सो हो, तू अब कोई खबर न लेना।''
इन्द्र पहले तो अवाक् हो रहा; परन्तु दूसरे ही क्षण आग की तरह जल उठा और बोला, ''ठीक ही तो है! मेरा खून किये डालता था, सो तो कुछ भी नहीं। और मैंने जो उसे थोड़ी देर के लिए बाँध दिया, सो इस पर तुम्हारा इतना गुस्सा! ऐसा न हो तो फिर यह कलियुग ही क्यों कहलावे! परन्तु तुम दोनों कितने नमकहराम हो! आ रे श्रीकान्त, चलें, बस हो चुका।''
जीजी चुप हो रहीं- उन्होंने इस अभियोग का जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। क्यों नहीं किया सो, पीछे मैंने चाहे जितना क्यों न समझा हो, परन्तु उस समय मैं बिल्कुथल न समझ सका। तथापि मैं अलक्ष्य रूप से चुपचाप वे पाँच रुपये वहीं खम्भे के पास रखकर इन्द्र के पीछे-पीछे चल दिया। ऑंगन के बाहर आकर इन्द्र चिल्लाकर बोला, ''हिन्दू की लड़की होकर जो एक मुसलमान के साथ भाग आती है, उसका धर्म-कर्म ही क्या! चूल्हे में चली जाय, अब मैं न कोई खोज ही करूँगा और न खबर ही लूँगा। हरामजादा, नीच कहीं का!'' यह कहकर वह तेजी से उस वन-पथ को लाँघकर चल दिया।
हम दोनों नाव में आकर बैठ गये, इन्द्र चुपचाप नाव खेने लगा और बीच-बीच में हाथ उठा-उठाकर ऑंखें पोंछने लगा। यह साफ-साफ समझकर कि वह रो रहा है, मैंने और कोई भी प्रश्न नहीं किया।
श्मशान के उसी रास्ते से मैं लौट आया और उसी रास्ते अब भी चला जा रहा हूँ, परन्तु न मालूम क्यों, आज मेरे मन में भय की कोई बात ही नहीं आती। मालूम होता है, शायद, उस समय मन इतना विह्वल और इतना ढँका हुआ था कि इतनी रात को किस तरह घर में घुसूँगा और घुसने पर क्या दशा होगी, इसकी चिन्ता भी उसमें स्थान न पा सकी।
प्राय: पिछली रात को नाव घाट पर आ लगी। मुझे उतारकर इन्द्र बोला, ''घर चला जा श्रीकान्त, तू बड़ा अपशकुनिया है। तुझे साथ लेने से एक न एक फसाद उठ खड़ा होता है। आज से अब तुझे किसी भी कार्य के लिए न बुलाऊँगा- और तू भी अब मेरे सामने न आना। जा, चला जा।'' इतना कहकर वह गहरे पानी में नौका ठेलकर देखते ही देखते घुमाव की तरफ अदृश्य हो गया। विस्मित, व्यथित और स्तब्ध होकर मैं निर्जन नदी के तीर पर अकेला खड़ा रह गया।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

000

निस्तब्ध गम्भीर रात में पाता गंगा के किनारे बिल्कुाल अकारण ही, जब इन्द्र मुझे बिल्कुसल अकेला छोड़कर चला गया, तब मैं रुलाई को और न सँभाल सका। उसे मैं प्यार करता हूँ, इसका उसने कोई मूल्य ही नहीं समझा। दूसरे के घर में रहते हुए कठोर शासन-जाल की उपेक्षा करके, उसके साथ गया, इसकी भी उसने कोई कद्र नहीं की। सिवाय इसके, मुझे अपशकुनिया अकर्मण्य कहकर और अकेले असहाय अवस्था में विदा करके, बेपरवाही से चला गया। उसकी यह निष्ठुरता मुझे कितनी अधिक चुभी इसको बताने की चेष्टा करना भी निरर्थक है। इसके बाद, बहुत दिनों तक न उसने मुझे खोजा और न मैंने ही उसे। दैवात् यदि कभी राह-घाट में मिल भी जाता तो मैं इस तरह मुँह मोड़कर चला जाता मानो उसे देखा ही न हो। किन्तु मेरा यह 'मानो' मुझे ही हमेशा तुस की आग की तरह जलाया करता, उसकी जरा-सी भी हानि न कर सकता। लड़कों के दल में उसका बड़ा सम्मान था। फुटबाल-क्रिकेट का वह दलपति था, जिमनास्टिक अखाड़े का मास्टर था। उसके कितने ही अनुचर थे, और कितने ही भक्त। मैं तो उसकी तुलना में कुछ भी न था। फिर-क्यों वह दो ही दिन के परिचय में मुझे 'मित्र' कहने लगा और फिर क्यों उसने त्याग दिया? परन्तु जब उसने त्याग दिया तब मैं भी जबर्दस्ती करके उससे सम्बन्ध जोड़ने नहीं गया।
मुझे खूब याद है कि मेरे संगी-साथी जब इन्द्र का उल्लेख करके उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की अद्भुत अचरजभरी बातें कहना शुरू कर देते, तब मैं चुपचाप उन्हें सुनता रहता। छोटी-सी बात कहकर भी मैंने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वह मुझे जानता है अथवा उसके सम्बन्ध में मैं कुछ जानता हूँ। न जाने कैसे मैं उस उम्र में ही यह जान गया था कि 'बड़े' और 'छोटे' की दोस्ती का परिणाम प्राय: ऐसा ही होता है। भविष्य जीवन में मैं भाग्यवश अनेक 'बड़े' मित्रों के संसर्ग में आऊँगा इसलिए, शायद, भगवान ने दया करके यह सहज-ज्ञान मुझे दे दिया था जिससे कि मैं कभी किसी भी कारण से अपनी अवस्था का अतिक्रमण करके अर्थात् अपनी योग्यता का खयाल किये बिना मित्रता का मूल्य ऑंकने न जाऊँ। नहीं तो देखते-देखते 'मित्र' प्रभु बन जाता है, और साध की 'मित्रता' का पाश दासत्व की बेड़ी बनकर 'छोटे' के पैरों को जकड़ लेता है। यह दिव्यज्ञान इतने सहज में और इस तरह सत्य रूप में मुझे प्राप्त हो गया था कि इसमें मैं हमेशा के लिए अपमान और लांछनाओं से छुटकारा पा गया हूँ।
तीन-चार महीने कट गये। दोनों ने ही दोनों को त्याग दिया- भले ही इसकी वेदना किसी पक्ष के लिए कितनी ही निदारुण क्यों न हो; किसी ने किसी की भी खोज-खबर नहीं ली।
दत्त-परिवार के घर में काली-पूजा के उपलक्ष्य में उस मुहल्ले का शौकिया नाटक-स्टेज तैयार हो रहा था। 'मेघनाद वध' का अभिनय होने वाला था। इसके
¹ बंगाल में जो दृश्य-पट हीन अभिनय होते हैं, उन्हें 'यात्रा' कहते हैं, जैसे कि यहाँ पर रामलीला होती है।
पहले देहात में यात्रा¹ तो अनेक बार देखी थी किन्तु नाटक अधिक नहीं देखे थे। मैंने सारे दिन न नहाया, न खाया और न विश्राम ही किया। स्टेज बनाने में सहायता कर सकने से ही मैं मानो बिल्कुतल कृतार्थ हो गया था। इतना ही नहीं, जो सज्जन राम का अभिनय करने वाले थे, उन्होंने स्वयं मुझसे उस दिन एक रस्सी पकड़े रहने के लिए कहा था। इसलिए मुझे बड़ी आशा थी कि रात्रि में जब लड़के कनात के छेदों में से अन्दर ग्रीन-रूम में ढूँकेंगे और मार तथा लाठी के हूले खायँगे, तब मैं 'श्रीराम' की कृपा से बच जाऊँगा। शायद, वे मुझे देखकर भीतर भी एकाध बार जाने दें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! सारे दिन जी-जान लगाकर जो परिश्रम किया, संध्यान के बाद उसका कुछ भी पुरस्कार नहीं मिला। घण्टों ग्रीन-रूम के द्वार पर खड़ा रहा, 'रामचन्द्र' कितने ही बार आए और गये; किन्तु, उन्होंने मुझे न पहिचाना। एक बार पूछा भी नहीं कि मैं इस तरह खड़ा क्यों हूँ। हाय रे! अकृतज्ञ राम! क्या रस्सी पकड़वाने का मतलब भी तुम्हारा एकबारगी समाप्त हो गया?
रात्रि के दस बजे नाटक की पहली घण्टी बजी। नितान्त खिन्न चित्त से, सारे व्यापार के प्रति श्रद्धाहीन होकर, परदे के सामने ही एक जगह पर मैंने दखल जमाया और वहीं बैठ गया। किन्तु थोड़ी ही देर में सारा रूठना भूल गया। कैसा सुन्दर नाटक था! जीवन में मैंने बहुत-से नाटक देखे हैं, किन्तु वैसा कभी नहीं देखा। मेघनाद स्वयं एक अद्भुत तमाशा था। उसकी छह हाथ ऊँची देह और चार-साढ़े चार हाथ पेट का घेरा था। सभी कहते थे कि यदि यह मर गया तो बैलगाड़ी पर ले जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं। बहुत दिनों की बात हो गयी। मुझे सारी घटना का स्मरण नहीं है। किन्तु इतना स्मरण है, कि उसने उस दिन जो विक्रम दिखाया वह हमारे देस के हारान पलसाई भीम के अभिनय में सागौन की डाल कन्धों पर रखकर दाँत किड़मिड़ाकर भी नहीं दिखा सकते।
ड्रॉप सीन उठा। जान पड़ा- वे लक्ष्मण ही होंगे-थोड़ा-बहुत वीरत्व प्रकाश कर रहे हैं। इसी समय वही मेघनाद कहीं से एक छलाँग मारकर सामने आ धमका। सारा स्टेज चरमराकर काँप उठा, फूट-लाइट के पाँच-छ: गोले उलटकर बुझ गये- और साथ ही साथ उसका खुद का पेट बाँधने का जरी का कमरपट्टा भी तड़ाक से टूट गया! एक हलचल सी मच गयी। उसे बैठ जाने के लिए कई लोग तो भयभीत चीत्कार कर उठे, और कई लोग सीन ड्राप कर देने के लिए चिल्ला उठे- परन्तु बहादुर मेघनाद, किसी की भी किसी बात से, विचलित नहीं हुआ। बाएँ हाथ के धनुष को फेंककर उसने पटलून को थाम लिया और दाहिने हाथ से केवल तीरों से ही युद्ध करना शुरू किया।
धन्य वीर! धन्य वीरत्व! मानता हूँ कि मैंने तरह-तरह के युद्ध देखे हैं किन्तु हाथ में धनुष नहीं, बाएँ हाथ की अवस्था भी युद्ध-क्षेत्र के लिए अनुकूल नहीं-फिर भी केवल दाहिने हाथ और सिर्फ तीरों से लगातार लड़ाई क्या कभी किसी ने देखी है! अन्त में उसी की जीत हुई। शत्रु को भागकर आत्म-रक्षा करनी पड़ी।
आनन्द की सीमा नहीं थी, मग्न होकर देख रहा था और मन ही मन इस विचित्र लड़ाई के लिए उसकी शत-कोटि प्रशंसा कर रहा था। ऐसे ही समय पीठ के ऊपर अंगुली का दबाव पड़ा। मुँह घुमाकर देखा तो इन्द्र।
वह धीरे-से बोला, ''बाहर आ श्रीकान्त- जीजी तुझे बुलाती हैं।'' बिजली के द्वारा छू जाने के समान मैं सीधा खड़ा हो गया और बोला, ''क्हाँ हैं वे?''
''बाहर तो आ, कहता हूँ।'' रास्ते पर आने पर वह, सिर्फ 'मेरे साथ चल' कहकर चलने लगा।
गंगा के घाट पर पहुँचकर देखा, उसकी नाव बँधी हुई है- चुपचाप हम दोनों उस पर जा बैठे, इन्द्र ने बन्धन खोल दिया।
फिर उसी अन्धकारपूर्ण जंगल के रास्ते से होते हुए दोनों जने शाहजी की कुटी में जा पहुँचे। उस समय, शायद रात्रि अधिक बाकी नहीं थी।
किरासिन का एक दीपक जलाए जीजी बैठी हुई थीं। उनकी गोद में शाहजी का सिर रक्खा हुआ था और उनके पैरों के पास एक बड़ा लम्बा काला साँप पड़ा था।
जीजी ने कोमल स्वर में सारी घटना संक्षेप में कह सुनाई। आज दोपहर को किसी के घर से साँप पकड़ने का बुलावा आया था। वहाँ इस साँप को पकड़ने में जो इनाम मिला उसने उससे ताड़ी लेकर पी ली और चढ़े नशे में संध्यां के कुछ पहले घर लौट आया। फिर जीजी के बार-बार मना करने पर भी वह उस साँप को खिलाने के लिए उद्यत हुआ और देर तक खिलाता भी रहा। परन्तु अन्त में खेल को समाप्त करने के पहले, जब वह उसे पूँछ पकड़कर हंडी में बन्द करने लगा तब नशे की झोंक में आकर ज्यों ही उसके मुख को अपने मुख के पास लाकर, चुम्बन करके, अपना प्यार प्रकट करने गया, त्यों ही उसने भी अपना प्यार व्यक्त करने को शाहजी के गले पर तीव्र चुम्बन अंकित कर दिया।
जीजी ने अपने मैले ऑंचल के छोर से अपनी ऑंखें पोंछते हुए मुझे लक्ष्य करके कहा, ''श्रीकान्त, उसी समय उसे ज्ञात हुआ कि अब समय अधिक नहीं है। तब उन्होंने यह कहकर कि 'आ रे, अब हम दोनों इस दुनिया से एक साथ ही कूच करें' साँप के सिर को पैर के नीचे दबा लिया और दोनों हाथों से उसकी पूँछ खींचकर इतना लम्बा करके फेंक दिया। इसके बाद दोनों का ही 'खेल' समाप्त हो गया!'' इतना कहकर उन्होंने, हाथ से अत्यन्त वेदना के साथ, शाहजी के मुख के ऊपर का कपड़ा दूर कर दिया और बहुत सावधानी से उसके नीले होठों को अपने हाथ से स्पर्श करके कहा, ''जाने दो, अच्छा ही हुआ इन्द्रनाथ, भगवान को मैं तनिक भी दोष नहीं देती।''
हम दोनों में से किसी से भी बोलते न बन पड़ा। उस कण्ठ-स्वर में जो मर्मान्तिक वेदना, जो प्रार्थना और जो घना अभिमान प्रकाशित हुआ, उसे जिसने सुना उसके लिए, भूल जाना इस जीवन में कभी सम्भव नहीं, किन्तु किसके लिए था यह अभिमान! और प्रार्थना भी किसके लिए?
कुछ देर स्थिर रहकर वे बोलीं, ''तुम लोग अभी बच्चे हो, किन्तु, दोनों को छोड़कर मेरा तो कोई और है नहीं भाई; इसीलिए तुमसे भिक्षा माँगती हूँ कि इनका कुछ उपाय कर जाओ!'' फिर अंगुली से कुटी के दक्षिण ओर के जंगल को बताकर कहा, ''वहाँ पर जगह है। इन्द्रनाथ, बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि यदि मैं मर जाऊँ तो उसी जगह जा सोऊँ। सुबह होते ही उसी जगह ले जाकर इन्हें सुला देना। इस जीवन में इन्होंने अनेक कष्ट भोगे हैं- वहाँ कुछ शान्ति पाएँगे।''
इन्द्र ने पूछा, ''शाहजी क्या बर में दफनाए जाँयगे!''
जीजी बोलीं, ''मुसलमान जब हैं तब कब्र में ही दफनाना होगा भाई!''
इन्द्र ने पुन: पूछा, ''जीजी, क्या तुम भी मुसलमान हो?''
जीजी बोली, ''हाँ, मुसलमान नहीं तो और क्या हूँ?''
उत्तर सुनकर इन्द्र भी मानो कुछ संकुचित और कुण्ठित हो उठा। उसके चेहरे के भाव से अच्छी तरह देख पड़ता था कि इस जवाब की उसने आशा नहीं की थी। जीजी को वह दरअसल चाहता था। इसीलिए मन ही मन वह एक गुप्त आशा पोषण कर रहा था कि उसकी जीजी उसी के समाज की एक स्त्री है। परन्तु मुझे उनके कहने पर विश्वास नहीं हुआ। खुद उनके मुँह से स्वीकारोक्ति सुनकर भी मेरे मन में यह बात न बैठी कि वे हिन्दू-कन्या नहीं हैं।
बाकी रात भी कट गयी। इन्द्र निर्दिष्ट स्थान में जाकर कब्र खोद आया और हम तीनों जनों ने ले जाकर शाहजी की मृत देह को समाहित कर दिया। गंगाजी के ठीक ऊपर, कंकरों का एक कगारा, टूटकर, मानो किसी की ठीक अन्तिम शय्या के लिए ही अपने आप यह जगह बन गयी थी। 20-25 हाथ नीचे ही जाद्रवी मैया की धारा थी- और सिर से ऊपर वन्य-लताओं का आच्छादन। किसी प्रिय वस्तु को सावधानी से लुका रखने के लिए मानो यह स्थान बनाया गया था। बड़े ही भाराक्रान्त हृदय से हम तीनों जनें पास ही बैठे- और एक जन हमारी गोद के ही पास मिट्टी के नीचे चिर-निद्रा में अभिभूत होकर सो गया। तब भी सूर्योदय नहीं हुआ था- नीचे से मन्द-स्रोता भागीरथी का कलकल शब्द कानों में आने लगा- सिर के ऊपर, आसपास, वन के पक्षी प्रभाती गाने लगे। कल जो था आज वह नहीं है। कल सुबह क्या यह सोचा था कि आज रात इस तरह बीतेगी? कौन जानता था कि एक मनुष्य का शेष मुहूर्त इतने निकट आ पहुँचा है?
हठात् जीजी उसकी कब्र पर लेट गयी और विदीर्ण कण्ठ से चिल्लाकर रो पड़ी, ''माँ गंगा, मुझे भी अपने चरणों में स्थान दो, मेरे लिए अब और कहीं जगह नहीं है।'' उनकी यह प्रार्थना, वह निवेदन, कितना मर्मान्तिक सत्य था यह उस दिन मैं उतनी तीव्रता से अनुभव नहीं कर सका था जितना कि उसके दो दिन बाद कर सका। इन्द्र ने एक बार मेरी ओर ऑंखें उठाकर देखा, इसके बाद उस आर्त्त-स्वर में कहा, ''जीजी, तुम मेरे यहाँ चलो- मेरी माँ अब भी जीती हैं, वे तुम्हें फेंकेंगी नहीं, अपनी गोद में उठा लेंगी। वे प्रेम-मूर्ति हैं, एक बार चलकर तुम सिर्फ उनके सामने खड़ी भर हो जाना। चलो, तुम हिन्दू ही की लड़की हो जीजी, मुसलमानिन किसी तरह भी नहीं!''
जीजी कुछ बोली नहीं, कुछ देर उसी तरह मूर्च्छित-सी पड़ी रहीं और अन्त में उठ बैठीं। इसके बाद उठकर हम तीनों ने गंगा-स्नान किया। जीजी ने हाथ की चूड़ियाँ और सुहाग की कण्ठी तोड़कर गंगा में बहा दी। मिट्टी से मस्तक का सिन्दूर पोंछकर, सद्य-विधवा के वेष में सूर्योदय के साथ ही साथ वे कुटी में लौट आईं।
इतने दिनों बाद पहले-पहल आज उन्होंने कहा कि शाहजी उनका पति था किन्तु, इन्द्र के मन में यह बात अच्छी तरह जमकर बैठती ही नहीं थी। संदिग्ध स्वर से उसने प्रश्न किया, ''किन्तु तुम तो हिन्दू की लड़की हो जीजी?''
जीजी बोली, ''हाँ, ब्राह्मण की लड़की हूँ और वे भी ब्राह्मण थे।''
इन्द्र कुछ देर अवाक् हो रहा, फिर बोला, ''उन्होंने अपनी जात क्यों छोड़ दी?''
जीजी बोली, ''सो बात मैं अच्छी तरह नहीं जानती भाई। किन्तु जब उन्होंने अपनी जात खो दी, तो उसके साथ मेरी भी खो गयी। स्त्री सहधर्मिणी जो है! नहीं तो वैसे मैंने अपने हाथों अपनी जाति भी नहीं छोड़ी- और किसी दिन किसी तरह का अनाचार भी नहीं किया।''
इन्द्र गाढ़े स्वर में बोला, ''सो तो मैं देखता हूँ जीजी! इसीलिए तो जब तब मेरे मन में यही बात आती रही है, मुझे माफ करना जीजी- तुम कैसे यहाँ आ पड़ीं, तुम्हारी किस तरह ऐसी दुर्बुद्धि हुई। परन्तु अब मैं तुम्हारी कोई बात नहीं मानूँगा, मेरे घर तुम्हें चलना ही पड़ेगा। चलो, इसी वक्त चलो।''
जीजी देर तक चुपचाप मानो कुछ सोचती रहीं, फिर मुँह उठाकर धीरे-धीरे बोलीं, ''अभी मैं कहीं भी जा न सकूँगी, इन्द्रनाथ।''
''क्यों नहीं जा सकोगी जीजी?''
जीजी बोलीं, ''मुझे मालूम है कि वे कुछ 'देना' कर गये हैं। जब तक उसे चुका न दूँ, तब तक मैं कहीं हिल नहीं सकती।''
इन्द्र हठात् क्रुद्ध हो उठा, बोला, ''सो तो मैं भी जानता हूँ। ताड़ी की दुकान का, गाँजे की दुकान का जरूर कुछ देना होगा; किन्तु इससे तुम्हें क्या? किसकी ताकत है कि तुमसे रुपया माँगे? चलो तुम मेरे साथ, देखूँ कौन रोकता है तुम्हें?''
इतने दु:ख में भी जीजी को कुछ हँसी आ गयी। बोलीं, ''अरे पागल, मुझे रोकने वाला मेरा खुद का ही धर्म है। पति का ऋण मेरा खुद का ही ऋण है और उन लेने वालों को तुम किस तरह रोक सकोगे भाई? यह नहीं हो सकता। आज तुम लोग घर जाओ- मेरे पास जो कुछ थोड़ा-बहुत है, उसे बेच-बाच कर कर्ज चुकाने की कोशिश करूँगी। कल-परसों फिर किसी दिन आना।''
इतनी देर मैं चुपचाप ही था। इस बार बोला, ''जीजी, मेरे पास घर में और भी चार-पाँच रुपये पड़े हैं- ले आऊँ क्या?'' बात पूरी भी न होने पाई थी कि वे उठकर खड़ी हो गयी और छोटे बच्चे की तरह मुझे अपनी छाती से लगाकर, मेरे मस्तक पर अपने होंठ छुआकर, मेरे मुँह की ओर प्रेम से देखती हुई बोलीं, ''नहीं भइया, और लाने को जरूरत नहीं है। उस दिन तुम पाँच रुपये रख गये थे, तुम्हारी वह दया मैं मरने तक याद रखूँगी, भइया! आशीर्वाद दिये जाती हूँ कि भगवान सदा तुम्हारे हृदय के भीतर बसें और इसी तरह दुखियों के लिए ऑंसू बहाते रहें।'' बोलते-बोलते ही उनकी ऑंखों से झर-झर नीर झरने लगा।
करीब आठ-नौ बजे हम घर जाने को तैयार हुए। उस दिन वे साथ-साथ रास्ते तक पहुँचाने आयीं। जाते समय इन्द्र का एक-हाथ पकड़कर बोलीं, ''इन्द्रनाथ, श्रीकान्त को तो आशीर्वाद दे दिया, किन्तु तुम्हें आशीर्वाद देने का साहस मुझ में नहीं है। तुम मनुष्य के आशीर्वाद के परे हो। इसलिए मैंने आज मन ही मन तुम्हें भगवान के श्रीचरणों में सौंप दिया है। वे तुम्हें अपना लें।''
इन्द्र को उन्होंने पहिचान लिया था। रोकते हुए भी इन्द्र ने उनके पैरों की धूलि सिर पर लेकर प्रणाम किया और रोते-रोते कहा, ''जीजी, इस जंगल में तुम्हें अकेली छोड़ जाने को मेरा किसी तरह साहस नहीं होता। मन में न जाने क्यों, ऐसा लगता है कि मैं तुम्हें और न देख पाऊँगा!''
जीजी ने उनका कुछ जवाब नहीं दिया, सहसा मुँह फेरकर ऑंखें पोंछती हुईं वे उसी वन-पथ से अपनी शोक से ढँकी हुई उस शून्य कुटी में लौट गयीं। जहाँ तक दिखाई देती रहीं वहाँ तक मैं उनकी ओर देखता रहा। किन्तु उन्होंने एक बार भी लौटकर नहीं देखा-उसी तरह, मस्तक नीचा किये, एक ही भाव से चलती हुई वे दृष्टि से ओझल हो गयीं और तब, उन्होंने लौटकर क्यों नहीं देखा, इसे मन ही मन हम दोनों ही जनों ने अनुभव किया।
तीन दिन बाद स्कूल की छुट्टी होते ही बाहर आकर देखा कि इन्द्रनाथ फाटक के बाहर खड़ा है। उसका मुँह अत्यन्त शुष्क हो रहा था, पैरों में जूते नहीं थे और वे घुटनों तक धूल में भरे हुए थे। उस अत्यन्त दीन चेहरे को देखकर मैं भयभीत हो गया। वह बड़े आदमी का लड़का था और साधारणतया बाहर से कुछ शौकीन भी था। ऐसी अवस्था में मैंने उसको कभी नहीं देखा था और मैं समझता हूँ कि और किसी ने भी न देखा होगा। इशारा करके मुझे मैदान की ओर ले जाकर उसने कहा, ''जीजी नहीं हैं। कहीं चली गयीं। मेरे मुँह की ओर उसने ऑंख उठाकर भी नहीं देखा। बोला, ''कल से कितनी जगह जाकर मैं खोज आया हूँ, परन्तु कहीं वे नहीं दिखाई दीं। तेरे लिए वे एक चिट्ठी लिखकर रख गयी हैं; यह ले।'' इतना कहकर एक मुड़ा हुआ पीला कागज मेरे हाथ में थमाकर वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ दूसरी ओर चल दिया। जान पड़ा कि हृदय उसका इतना पीड़ित, इतना शोकातुर हो रहा था कि किसी के साथ आलोचना करना उसके लिए असाध्यक था।
उसी जगह मैं धम से बैठ गया और घड़ी खोलकर उस कागज को मैंने अपनी ऑंखों के सामने रखा। उसमें जो कुछ लिखा था, इतने समय बाद, यद्यपि वह सब याद नहीं रहा है फिर भी बहुत-सी बातें याद कर सकता हूँ- लिखा था, ''श्रीकान्त, जाते समय मैं तुम लोगों को आशीर्वाद दिए जाती हूँ। केवल आज ही नहीं, जितने दिन जीऊँगी तुम्हें आशीर्वाद देती रहूँगी। किन्तु मेरे लिए तुम दु:ख मत करना। इन्द्रनाथ मुझे ढूँढ़ता फिरेगा, यह मैं जानती हूँ; किन्तु तुम उसे समझाकर रोकना। मेरी सब बातें तुम आज ही नहीं समझ सकोगे; किन्तु, बड़े होने पर एक दिन अवश्य समझोगे, इस आशा से यह पत्र लिखे जा रही हूँ। अपनी कहानी अपने ही मुँह से तुमसे कह जा सकती थी, परन्तु, न जाने क्यों, नहीं कह सकी; कहूँ-कहूँ सोचते हुए भी न जाने क्यों चुप रह गयी। परन्तु, यदि आज न कह सकी तो फिर कभी कहने का मौका न मिलेगा।
''मेरी कहानी सिर्फ मेरी कहानी ही नहीं है भाई- मेरे स्वामी की कहानी भी है। और फिर, वह भी कुछ अच्छी कहानी नहीं है। मेरे इस जन्म के पाप कितने हैं, सो तो मैं नहीं जानती; किन्तु पूर्व जन्म के संचित पापों की कोई सीमा-परिसीमा नहीं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। इसीलिए, जब-जब मैंने कहना चाहा है तब-तब मेरे मन में यही आया है कि स्त्री होकर, अपने मुँह से, पति की निन्दा करके, उस पाप के बोझ को और भी भाराक्रान्त नहीं करूँगी। किन्तु, अब वे परलोक चले गये। और परलोक चले गये इसलिए उसके कहने में कोई दोष नहीं है, यह मैं नहीं मानती। फिर भी, न जाने क्यों, अपनी इस अन्तविहीन दु:ख-कथा को तुम्हें जनाए बगैर, मैं किसी तरह भी विदा लेने में समर्थ नहीं हो रही हूँ।
''श्रीकान्त, तुम्हारी इस दु:खिनी जीजी का नाम अन्नदा है। पति का नाम क्यों छिपा रही हूँ, इसका कारण, इस लेख को, शेष पर्यन्त पढ़ने के बाद, मालूम होगा।
''मेरे पिता बड़े आदमी हैं। उनके कोई लड़का नहीं है। हम सिर्फ दो बहनें थीं। इसीलिए, मेरे पिता ने मेरे पति को एक दरिद्र के घर से लाकर, अपने पास रखकर, पढ़ा-लिखाकर 'आदमी' बनाना चाहा था। वे उन्हें पढ़ा-लिखा तो अवश्य सके, किन्तु 'आदमी' नहीं बना सके। मेरी बड़ी बहन विधवा होकर घर ही रहती थी- उसी की हत्या करके वे एक दिन लापता हो गये। यह दुष्ट कर्म उन्होंने क्यों किया, इसका हेतु, तुम अभी बच्चे हो, इसलिए न समझ सकोगे, फिर भी किसी दिन जान लोगे। पर कहो तो श्रीकान्त, यह दु:ख कितना बड़ा है? यह लज्जा कितनी मर्मान्तिक है? फिर भी तुम्हारी जीजी ने सब कुछ सह लिया। किन्तु पति बनकर जिस अपमान की अग्नि को उन्होंने अपनी स्त्री के हृदय में जला दिया था उस ज्वाला को तुम्हारी जीजी आज तक भी बुझा नहीं सकी। पर जाने दो उस बात को-
''उक्त घटना के सात वर्ष के बाद मैं उन्हें फिर देख पाई। जिस वेश में तुमनें उन्हें देखा था उसी वेश में वे हमारे घर के सामने साँप का खेल दिखा रहे थे। उन्हें और कोई तो नहीं पहिचान सका, किन्तु मैंने पहिचान लिया। मेरी ऑंखों को वे धोखा नहीं दे सके। सुना है कि यह दु:साहस उन्होंने मेरे लिए ही किया था। परन्तु यह झूठ है! फिर भी, एक दिन गहरी रात में, खिड़की का द्वार खोलकर मैंने पति के लिए ही गृह-त्याग कर दिया। किन्तु सबने यही सुना, यही जाना कि अन्नदा कुल को कलंक लगाकर घर से निकल गयी।
''यह कलंक का बोझा मुझे हमेशा ही अपने ऊपर लादे फिरना होगा। कोई उपाय नहीं है क्योंकि, पति के जीवित रहते तो अपने आपको प्रकट नहीं कर सकी-पिता को पहचानती थी; वे कभी, किसी तरह भी, अपनी संतान की हत्या करने वाले को क्षमा नहीं कर सकते। किन्तु आज यद्यपि वह भय नहीं है- आज जाकर यह सब हाल उनसे कह सकती हूँ, किन्तु इस पर, इतने दिनों बाद, कौन विश्वास करेगा? इसलिए पितृ-गृह में मेरे लिए अब कोई स्थान नहीं है। और फिर, अब मैं मुसलमानिन हूँ।
''यहाँ पर जो पति का कर्ज था वह सब चुक गया है। मैंने अपने पास सोने की दो बालियाँ छिपाकर रख छोड़ी थीं, उन्हें आज बेच दिया है। तुम जो पाँच रुपये एक दिन रख गये थे उन्हें मैंने खर्च नहीं किया। बड़े रास्ते के मोड़ पर जो मोदी की दुकान है, उसके मालिक के पास उन्हें रख दिया है- माँगते ही वे तुम्हें मिल जाँयगे। मन में दु:ख मत करना भइया! ये रुपये तो अवश्य मैंने लौटा दिए हैं, किन्तु तुम्हारे उस कच्चे कोमल छाटे-से हृदय को मैं अपने हृदय में रखे लिए जाती हूँ। और तुम्हारी जीजी का यह एक आदेश है श्रीकान्त, कि तुम लोग मेरी याद करके अपना मन खराब न करना। समझ लेना कि तुम्हारी जीजी जहाँ कहीं भी रहेगी अच्छी ही रहेगी। क्योंकि दु:ख सहन करते-करते उसकी यह दशा हो गयी है, कि उसके शरीर पर अब किसी भी दु:ख का असर नहीं होता। किसी तरह भी उसे व्यथा नहीं पहुँच सकती। मेरे दोनों भाइयों, तुम्हें मैं क्या कहकर आशीर्वाद दूँ, सो मैं ढूँढकर भी नहीं पा सकती हूँ। इसीलिए, केवल यही कहे जाती हूँ कि, भगवान-यदि पतिव्रता स्त्री की बात रखते हैं तो, वे तुम लोगों की मैत्री चिरकाल के लिए अक्षय करेंगे। -तुम्हारी जीजी, अन्नदा।''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »


भाग - 3
आज मैं अकेला जाकर मोदी के यहाँ खड़ा हो गया। परिचय पाकर मोदी ने एक छोटा-सा पुराना चिथड़ा बाहर निकाला और गाँठ खोलकर उसमें से दो सोने की बालियाँ और पाँच रुपये निकाले। उन्हें मेरे हाथ में देकर वह बोला, ''बहू ये दो बालियाँ मुझे इकतीस रुपये में बेचकर शाहजी का समस्त ऋण चुकाकर, चली गयी हैं। किन्तु कहाँ गयी हैं सो नहीं मालूम।'' इतना कहकर वह किसका कितना ऋण था इसका हिसाब बतलाकर बोला, ''जाते समय बहू के हाथ में कुल साढ़े पाँच आने पैसे थे।'' अर्थात् बाईस पैसे लेकर उस निरुपाय निराश्रय स्त्री ने संसार के सुदुर्गम पथ में अकेले यात्रा कर दी है! पीछे से, उसके ये दोनों प्यारे बालक, कहीं उसे आश्रय देने के व्यर्थ प्रयास में, उपायहीन वेदना से व्यथित न हों, इस भय से बिना कुछ कहे ही वे बिना किसी लक्ष्य के घर से बाहर चली गयी हैं- कहाँ, सो भी किसी को उन्होंने जानने नहीं दिया। नहीं दिया-इतना ही नहीं, किन्तु मेरे पाँच रुपये भी नहीं स्वीकार किये। फिर भी, मन में यह समझकर कि वे उन्होंने ले लिये हैं, मैं आनन्द और गर्व से, न जाने कितने दिनों तक, न जाने कितने आकाश-कुसुमों की सृष्टि करता रहा था। पर वे मेरे सब कुसुम शून्य में मिल गये। अभिमान के मारे ऑंखों में जल छल छला आया जिसे उस बूढ़े से छिपाने के लिए मैं तेजी से बाहर चल दिया। बार-बार मन ही मन कहने लगा कि इन्द्र से तो उन्होंने कितने ही रुपये लिये, किन्तु, मुझसे कुछ भी नहीं लिया- जाते समय 'नहीं' कहकर वापिस करके चली गयीं!
किन्तु अब मेरे मन में वह अभिमान नहीं है। सयाना होने पर, अब मैंने समझा है कि मैंने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जो उन्हें दान दे सकता! उस जलती अग्नि-शिखा में जो भी मैं देता वह जलकर खाक हो जाता- इसीलिए जीजी ने मेरा दान वापिस कर दिया! किन्तु इन्द्र? इन्द्र और मैं क्या एक ही धातु के बने हुए हैं जो जहाँ वह दान करे वहाँ ढीठता से मैं भी अपना हाथ बढ़ा दूँ? इसके सिवा, यह भी तो मैं समझ सकता हूँ कि आखिर किसका मुँह देखकर उन्होंने इन्द्र के आगे हाथ फैलाया था- खैर जाने दो इन बातों को।
इसके बाद अनेकों जगह मैं घूमा-फिरा हूँ; किन्तु इन जली ऑंखों से मैं कहीं भी उन्हें नहीं देख पाया। मुझे वे फिर नहीं दिखाई दीं, किन्तु हृदय में वह हँसता हुआ मुँह हमेशा वैसा ही दीख पड़ता है। उनके चरित्र की कहानी का स्मरण करके जब कभी, मैं मस्तक झुकाकर मन ही मन उन्हें प्रणाम करता हूँ, तब केवल यही बात मेरे मन में आती है कि भगवान, यह तुम्हारा कैसा न्याय है? हमारे इस सती-सावित्री के देश में, तुमने पति के कारण सहधर्मिणी को अपरिसीम दु:ख देकर, सती के माहात्म्य को उज्ज्वल से उज्ज्वलतर करके संसार को दिखाया है, यह मैं जानता हूँ। उनके समस्त दु:ख दैन्य को चिर-स्मरणीय कीर्ति के रूप में रूपान्तरित करके, जगत की सम्पूर्ण नारी जाति को कर्तव्य के ध्रुव-पथ पर आकर्षित करने की तुम्हारी इच्छा है, इसको भी मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ; किन्तु हमारी ऐसी जीजी के भाग्य में इतनी बड़ी विडम्बना और अपयश क्यों लिख दिया? किसलिए तुमने ऐसी सती के मुँह पर असती की गहरी काली छाप मारकर उसे हमेशा के लिए संसार से निर्वासित कर दिया? उनको तुमने क्यों नहीं छुड़ा लिया? उनकी जाति छुड़ाई, धर्म छुड़ाया- समाज, संसार, प्रतिष्ठा, सभी कुछ तो छुड़ा लिया। और जो अपरिमित, दु:ख तुमने दिया है, उसका तो मैं आज भी साक्षी हूँ। इसका भी मुझे दु:ख नहीं है जगदीश्वर! किन्तु जिनका आसन, सीता, सावित्री आदि सतियों के समीप है, उन्हें उनके माँ-बाप, कुटुम्बी, शत्रु-मित्र आदि ने किस रूप में जाना? कुलटा रूप में, वेश्या रूप में! इससे तुम्हें, क्या लाभ हुआ? और संसार को भी क्या मिला?
हाय रे, कहाँ हैं उनके वे सब आत्मीय स्वजन और भाई-बन्धु? यदि एक दफे भी मैं जान सकता, वह देश फिर कितनी ही दूर क्यों न होता, इस देश से बाहर ही क्यों न होता, तो भी, मैंने वहाँ जाकर अवश्य कहा होता- यही हैं तुम्हारी अन्नदा और यही उनकी अक्षय कहानी! तुमने अपनी जिस लड़की को कुल-कंलकिनी मान लिया है, उसका नाम यदि सुबह एक दफे भी ले लिया करोगे तो अनेक पापों से छुट्टी पा जाओगे?
इस घटना से मैंने एक सत्य को प्राप्त किया है। पहले भी मैं एक दफे कह चुका हूँ कि नारी के कलंक की बात पर मैं सहज ही विश्वास नहीं कर सकता; क्योंकि मुझे जीजी याद आ जाती हैं। यदि उनके भाग्य में भी इतनी बड़ी बदनामी हो सकती है, तो फिर संसार में और क्या नहीं हो सकता? एक मैं हूँ, और एक वे हैं जो सर्व काल के सर्व पाप-पुण्य के साक्षी हैं- इनको छोड़कर दुनिया में ऐसा और कौन है, जो अन्नदा को जरा से स्नेह के साथ भी स्मरण करे। इसीलिए, सोचता हूँ कि न जानते हुए नारी के कलंक की बात पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं!
उसके बाद बहुत दिनों तक इन्द्र को नहीं देखा। गंगा के तीर घूमने जाता था तो देखता था कि उसकी नाव किनारे बँधी हुई है। वह पानी में भीग रही है और धूप में फट रही है। सिर्फ एक दफे और हम दोनों उस नाव पर बैठे थे। उस नौका पर वही हमारी अन्तिम यात्रा थी। इसके बाद न वही उस नाव पर चढ़ा और न मैं ही। वह दिन मुझे खूब याद है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि वह हमारी नौका-यात्रा का समाप्ति-दिवस था, किन्तु इसलिए कि उस दिन अखण्ड-स्वार्थपरता का जो उत्कृष्ट दृष्टान्त देखा था, उसे मैं सहज में नहीं भूल सका। वह कथा भी कहे देता हूँ।
वह कड़ाके की शीत-काल की संध्याख थी। पिछले दिन पानी का एक अच्छा झला पड़ चुका था, इसलिए जाड़ा सूई की तरह शरीर में चुभता था। आकाश में पूरा चन्द्रमा उगा था। चारों तरफ चाँदनी मानो तैर रही थी। एकाएक इन्द्र आ टपका; बोला, ''थियेटर देखने चलेगा?'' थियेटर के नाम से मैं एकबारगी उछल पड़ा। इन्द्र बोला, ''तो फिर कपड़े पहिनकर शीघ्र हमारे घर आ जा।'' पाँच मिनट में एक रैपर लेकर बाहर निकल पड़ा। उस स्थान को ट्रेन से जाना होता था। सोचा, घर से गाड़ी करके स्टेशन पर जाना होगा- इसलिए इतनी जल्दी है।
इन्द्र बोला, ''ऐसा नहीं, हम लोग नाव पर चलेंगे। मैं निरुत्साहित हो गया, क्योंकि, गंगा में नाव को उस ओर खेकर ले जाना पड़ेगा, और इसलिए बहुत देर हो जाने की सम्भावना थी। शायद समय पर पहुँचा न जा सके। इन्द्र बोला, ''हवा तेज है, देर न होगी। हमारे नवीन भइया कलकत्ते से आए हैं, वे गंगा से ही जाना चाहते हैं।''
खैर, दाँड लेकर, पाल तानकर ठीक तरह से हम लोग नाव में बैठ गये- बहुत देर करके नवीन भइया घाट पर पहुँचे। चन्द्रमा के आलोक में उन्हें देखकर मैं तो डर गया। कलकत्ते के भयंकर बाबू! रेशम के मोजे, चमचमाते पम्प शू, ऊपर से नीचे तक ओवरकोट में लिपटे हुए, गले में गुलूबन्द, हाथ में दस्ताने, सिर पर टोपी- शीत के विरुद्ध उनकी सावधानी का अन्त नहीं था। हमारी उस साधाकी डोंगी को उन्होंने अत्यन्त 'रद्दी' कहकर अपना कठोर मत जाहिर कर दिया; और इन्द्र के कन्धों पर भार देकर तथा मेरा हाथ पकड़कर, बड़ी मुश्किल से, बड़ी सावधानी से, वे नाव के बीच में जाकर सुशोभित हो गये।
''तेरा नाम क्या है रे?''
डरते-डरते मैंने कहा, ''श्रीकान्त।''
उन्होंने आक्षेप के साथ मुँह बनाकर कहा, ''श्रीकान्त- सिर्फ 'कान्त' ही काफी है। जा हुक्का तो भर ला। अरे इन्द्र, हुक्का-चिलम कहाँ है? इस छोकरे को दे, तमाखू भर दे!''
अरे बाप रे! कोई अपने नौकर को भी इस तरह की विकट भाव-भंगी से आदेश नहीं देता। इन्द्र अप्रतिभ होकर बोला, ''श्रीकान्त, तू आकर कुछ देर डाँड़ पकड़ रख। मैं हुक्का भरे देता हूँ।''
उसका जवाब न देकर मैं खुद ही हुक्का भरने लगा। क्योंकि वे इन्द्र के मौसेरे भाई थे, कलकत्ते के रहने वाले थे और हाल ही में उन्होंने एल.ए. पास किया था। परन्तु मन मेरा बिगड़ उठा। तमाखू भरकर हुक्का हाथ में देते ही उन्होंने प्रसन्न मुख से पीते-पीते पूछा, ''तू कहाँ रहता है रे कान्त? तेरे शरीर पर वह काला-काला सा क्या है रे? रैपर है? आह! रैपर की क्या ही शोभा है। इसके तेल की बास से तो भूत भी भाग जावें! छोकरे-फैलाकर बिछा तो दे यहाँ उसे, बैठें उस पर।''
''मैं देता हूँ, नवीन भइया, मुझे ठण्ड नहीं लगती। यह लो'' कहकर इन्द्र ने अपने शरीर पर की अलवान चट से उतारकर फेंक दी। वह उसे मजे से बिछाकर बैठ गया और आराम से तमाखू पीने लगा।
शीत ऋतु की गंगा अधिक चौड़ी नहीं थी- आधा घण्टे में ही डोंगी उस किनारे से जा भिड़ी। साथ ही साथ हवा बन्द हो गयी।
इन्द्र व्याकुल हो बोला, ''नूतन भइया, यह तो बड़ी मुश्किल हुई- हवा बन्द हो गयी। अब तो पाल चलेगा नहीं।''
नूतन भइया बोले, ''इस छोकरे के हाथ में दे न, डाँड़ खींचे।'' कलकत्तावासी नूतन भइया की जानकारी पर कुछ मलिन हँसी हँसकर इन्द्र बोला, ''डाँड़! कोई नहीं ले जा सकता। नूतन भइया, इस रेत को ठेलकर जाना किसी के किये भी सम्भव नहीं। हमें लौटना पड़ेगा।''
प्रस्ताव सुनकर नूतन भइया मुहूर्त भर के लिए अग्निशर्मा हो उठे, ''तो फिर ले क्यों आया हतभागे? जैसे हो, तुझे वहाँ तक पहुँचाना ही होगा। मुझे थियेटर में हारमोनियम बजाना ही होगा- उनका विशेष आग्रह है।'' इन्द्र बोला, ''उनके पास बजाने वाले आदमी हैं नूतन भइया, तुम्हारे न जाने से वे अटके न रहेंगे।''
''अटके न रहेंगे? इस गँवार देश के छोकरे बजावेंगे हारमोनियम! चल, जैसे बने वैसे ले चल।'' इतना कहकर उन्होंने जिस तरह का मुँह बनाया, उससे मेरा सारा शरीर जल उठा। उसका हारमोनियम बजाना भी हमने बाद में सुना, किन्तु वह कैसा था सो बताने की जरूरत नहीं।
इन्द्र का संकट अनुभव करके मैं धीरे से बोला, ''इन्द्र, क्या रस्सी से खींचकर ले चलने से काम न चलेगा?'' बात पूरी होते न होते मैं चौंक उठा। वे इस तरह दाँत किटकिटा उठे, कि उनका वह मुँह आज भी मुझे याद आ जाता है। बोले, ''तो फिर जा न, खींचता क्यों नहीं? जानवर की तरह बैठा क्यों है?''
इसके बाद एक दफे इन्द्र और एक दफे मैं रस्सी खींचते हुए आगे बढ़ने लगे। कहीं ऊँचे किनारे के ऊपर से, कहीं नीचे उतर कर, और बीच-बीच में उस बरफ सरीखे ठण्डे जल की धारा में घुसकर, हमें अत्यन्त कष्ट से नाव ले चलना पड़ा। और फिर बीच-बीच में बाबू के हुक्के को भरने के लिए भी नाव को रोकना पड़ा। परन्तु बाबू वैसे ही जमकर बैठे रहे- जरा भी सहायता उन्होंने नहीं की। इन्द्र ने एक बार उनसे 'कर्ण' पकड़ने को कहा तो जवाब दिया, कि ''मैं दस्ताने खोलकर ऐसी ठण्ड में निमोनिया बुलाने को तैयार नहीं हूँ।'' इन्द्र ने कहना चाहा, ''उन्हें खोले बगैर ही...''
''हाँ, कीमती दस्तानों को मिट्टी कर डालूँ, यही न! ले, जा जो करना हो कर।''
वास्तव में मैंने ऐसे स्वार्थ पर असज्जन व्यक्ति जीवन में थोड़े ही देखे हैं। उनके एक वाहियात शौक को चरितार्थ करने के लिए हम लोगों को- जो उनसे उम्र में बहुत छोटे थे- इतना सब क्लेश सहते हुए अपनी ऑंखों देखकर वे जरा भी विचलित न हुए। कहीं से जरा-सी ठण्ड लगाकर उन्हें बीमार न कर दें, एक छींटा जल पड़ जाने से कहीं उनका कीमती ओवरकोट खराब न हो जाय, हिलने-चलने में किसी तरह का व्याघात न हो- इसी भय से वे जड़ होकर बैठे रहे और चिल्ला-चिल्लाकर हुक्मों की झड़ी लगाते रहे।
और भी एक आफत आ गयी- गंगा की रुचिकर हवा में बाबू साहब की भूख भड़क उठी और, देखते-ही-देखते, अविश्राम बक-झक की चोटों से, और भी भीषण हो उठी। इधर चलते-चलते रात के दस बज गये हैं-थियेटर पहुँचते-पहुँचते रात के दो बज जाँयगे, यह सुनकर बाबू साहब प्राय: पागल हो उठे। रात के जब ग्यारह बजे तब, कलकत्ते के बाबू बेकाबू होकर बोले, ''हाँ रे इन्द्र, पास में कहीं हिन्दुस्तानियों की कोई बस्ती-अस्ती है कि नहीं? चिउड़ा-इउड़ा कुछ मिलेगा?''
इन्द्र बोला, ''सामने ही एक खूब बड़ी बस्ती है नूतन भइया, सब चीजें मिलती हैं।''
''तो फिर चला चल- अरे छोकरे, जरा खींच न जोर से- क्या खाने को नहीं पाता? इन्द्र, बोल न तेरे इस साथी से, थोड़ा और जोर करके खींच ले चले?''
इन्द्र ने अथवा मैंने किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। जिस तरह चल रहे थे उसी तरह चलते हुए हम थोड़ी देर में एक गाँव के पास जा पहुँचे। यहाँ पर किनारा ढालू और विस्तृत होता हुआ जल में मिल गया था। नाव को बलपूर्वक धक्का देकर, उथले पानी में करके, हम दोनों ने एक आराम की साँस ली।
बाबू साहब बोले, ''हाथ-पैर कुछ सीधे करना होगा। उतरना चाहता हूँ।'' अतएव इन्द्र ने उन्हें कन्धों पर उठाकर नीचे उतार दिया। वे ज्योत्स्ना के आलोक में गंगा की शुभ्र रेती पर चहलकदमी करने लगे।
हम दोनों जनें उनकी क्षुधा-शान्ति के उद्देश्य से गाँव के भीतर घुसे। यद्यपि हम लोग जानते थे कि इतनी रात को इस दरिद्र खेड़े में आहार-संग्रह करना सहज काम नहीं है तथापि चेष्टा किये बगैर भी निस्तार नहीं था। इस पर, अकेले रहने की भी उनकी इच्छा नहीं थी। इस इच्छा के प्रकाशित होते ही इन्द्र उसी दम आह्नान करके बोला, ''नवीन भइया, अकेले तुम्हें डर लगेगा- हमारे साथ थोड़ा घूमना भी हो जायेगा। यहाँ कोई चोर-ओर नहीं है, नाव कोई नहीं ले जायेगा। चले न चलो।''
नवीन भइया अपने मुँह को कुछ विकृत करके बोले, ''डर! हम लोग दर्जी पाड़े के लड़के हैं- यमराज से भी नहीं डरते- यह जानते हो? फिर भी नीच लोगों की डर्टी (गन्दी) बस्ती में हम नहीं जाते। सालों के शरीर की बू यदि नाक में चली जाय तो हमारी तबियत खराब हो जाए।'' वास्तव में उनका मनोगत अभिप्राय यह था कि मैं उनके पहरे पर नियुक्तर होकर उनका हुक्का भरता रहूँ।
किन्तु उनके व्यवहार से मन ही मन में इतना नाराज हो गया था कि इन्द्र के इशारा करने पर भी मैं किसी तरह, इस आदमी के संसर्ग में, अकेले रहने को राजी नहीं हुआ। इन्द्र के साथ ही चल दिया।
दर्जीपाड़े के बाबू साहब ने हाथ-ताली देते हुए गाना शुरू कर दिया। हम लोगों को बहुत दूर तक नाक के स्वर की उनकी जनानी तान सुनाई देती रही। इन्द्र खुद भी मन ही मन अपने भाई के व्यवहार से अतिशय लज्जित और क्षुब्ध हो गया था। धीरे से बोला, ''ये कलकत्ते के आदमी ठहरे, हमारी तरह हवा-पानी सहन नहीं कर सकते- समझे न श्रीकान्त?''
मैं बोला, ''हूँ।''
तब इन्द्र उनकी असाधारण विद्या बुद्धि का परिचय, शायद श्रद्धा आकर्षित करने के लिए देते हुए चलने लगा। बातचीत में यह भी उसने कहा कि वे थोड़े ही दिनों में बी.ए. पास करके डिप्टी हो जाँयगे। जो हो, अब इतने दिनों के बाद भी इस समय वे कहाँ के डिप्टी हैं अथवा उन्हें वह पद प्राप्त हुआ या नहीं, मुझे नहीं मालूम। परन्तु, जान पड़ता है कि वे डिप्टी अवश्य हो गये होंगे, नहीं तो बीच-बीच में बंगाली डिप्टियों की इतनी सुख्याति कैसे सुन पड़ती? उस समय उनका प्रथम यौवन था। सुनते हैं, जीवन के इस काल में हृदय की प्रशस्सता, संवेदना की व्यापकता, जितनी बढ़ती है उतनी और किसी समय नहीं। लेकिन, इन कुछ घण्टों के संसर्ग में ही जो नमूना उन्होंने दिखाया इतने समय के अन्तर के बाद भी वह भुलाया नहीं जा सका। फिर भी, भाग्य से ऐसे नमूने कभी-कभी दिखाई पड़ जाते हैं- नहीं तो, बहुत पहले ही यह संसार बाकायदा पुलिस थाने के रूप में परिणत हो जाता। पर रहने दो अब इस बात को।
परन्तु, पाठकों को यह खबर देना आवश्यक है कि भगवान भी उन पर क्रुद्ध हो गये थे। इस तरफ के राह-घाट, दुकान-हाट, सब इन्द्र के जाने हुए थे। वह जाकर एक मोदी की दुकान पर उपस्थित हो गया। परन्तु दुकान बन्द थी और दुकानदार ठण्ड के भय से दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द करके गहरी निद्रा में मग्न था। नींद की वह गहराई कितनी अथाह होती है, सो उन लोगों को लिखकर नहीं बताई जा सकती, जिन्हें खुद इसका अनुभव न हो। ये लोग न तो अम्ल-रोगी निष्कर्मा जमींदार हैं और न बहुत भार से दबे हुए, कन्या के दहेज की फिक्र से ग्रस्त बंगाली गृहस्थ। इसलिए सोना जानते हैं। दिन भर घोर परिश्रम करने के उपरान्त, रात को ज्यों ही उन्होंने चारपाई ग्रहण की कि फिर, घर में आग लगाए बगैर, सिर्फ चिल्लाकर या दरवाजा खटखटाकर उन्हें जगा दूँगा- ऐसी प्रतिज्ञा यदि स्वयं सत्यवादी अर्जुन भी, जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञा के बदले कर बैठते तो, यह बात कसम खाकर कही जा सकती है कि उन्हें भी मिथ्या प्रतिज्ञा के पाप से दग्ध होकर मर जाना पड़ता।
हम दोनों जनें बाहर खड़े होकर तीव्र कण्ठ से चीत्कार करके तथा जितने भी कूट-कौशल मनुष्य के दिमाग में आ सकते हैं, उन सबको एक-एक करके आजमा करके, आधा घण्टे बाद खाली हाथ लौट आए। परन्तु घाट पर आकर देखा तो वह जन-शून्य है। चाँदनी में जहाँ तक नजर दौड़ती थी वहाँ तक कोई भी नहीं दिखता। 'दर्जीपाड़े' का कहीं कोई निशान भी नहीं। नाव जैसी थी वैसी ही पड़ी हुई है- फिर बाबू साहब गये कहाँ? हम दोनों प्राणपण से चीत्कार कर उठे-'नवीन भइया' किन्तु कहीं कोई नहीं। हम लोगों की व्याकुल पुकार, बाईं और दाहिनी बाजू के खूब ऊँचे कगारों से टकराकर, अस्पष्ट होती हुई, बार-बार लौटने लगी। आस-पास के उस प्रदेश में, शीतकाल में, बीच बीच में बाघों के आने की बात भी सुनी जाती थी। गृहस्थ किसान इन दलबद्ध बाघों की विपत्ति से व्यस्त रहते थे। सहसा इन्द्र इसी बात को कह बैठा, ''कहीं बाघ तो नहीं उठा ले गया रे!'' भय के मारे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या कहते हो? इसके पहले उनके निरतिशय अभद्र व्यवहार से मैं नाराज तो सचमुच ही हो उठा था परन्तु, इतना बड़ा अभिशाप तो मैंने उन्हीं नहीं दिया था!
सहसा दोनों जनों की नजर पड़ी कि कुछ दूर बालू के ऊपर कोई वस्तु चाँदनी में चमचमा रही है। पास जाकर देखा तो उन्हीं के बहुमूल्य पम्प-शू की एक फर्द है? इन्द्र भीगी बालू पर लेट गया- ''हाय श्रीकान्त! साथ में मेरी मौसी भी तो आई हैं। अब मैं घर लौटकर न जाऊँगा!'' तब धीरे-धीरे सब बातें स्पष्ट होने लगीं। जिस समय हम लोग मोदी की दुकान पर जाकर उसे जगाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे, उसी समय, इस तरफ कुत्तों का झुण्ड इकट्ठा होकर आर्त्त चीत्कार करके इस दुर्घटना की खबर हमारे कर्णगोचर करने के लिए व्यर्थ मेहनत उठा रहा था, यह बात अब जल की तरह हमारी ऑंखों के आगे स्पष्ट हो गयी। अब भी हमें दूर पर कुत्तों का भूँकना सुन पड़ता था। अतएव जरा भी संशय नहीं रहा कि बाघ उन्हें खींच ले जाकर जिस जगह भोजन कर रहे हैं, वहीं आस-पास खड़े हो ये कुत्ते भी अब भौंक रहेहैं।
अकस्मात् इन्द्र सीधा होकर खड़ा हो गया और बोला, ''मैं वहाँ जाऊँगा।'' मैंने डरकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ''पागल हो गये हो भइया!'' इन्द्र ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। नाव पर जाकर उसने कन्धों पर लग्गी रख ली, एक बड़ी लम्बी छुरी खीसे में से निकालकर बाएँ हाथ में ले ली और कहा, ''तू यहीं रह श्रीकान्त, मैं न आऊँ तो लौटकर मेरे घर खबर दे देना- मैं चलता हूँ।''
उसका मुँह बिल्कुतल सफेद पड़ गया था, किन्तु दोनों ऑंखें जल रही थीं। मैं उसे अच्छी तरह चीन्हता था। यह उसकी निरर्थक, खाली उछल-कूद नहीं थी कि हाथ पकड़ कर दो-चार भय की बातें कहने से ही, मिथ्या दम्भ मिथ्या में मिल जायेगा। मैं निश्चय से जानता था कि किसी तरह भी वह रोका नहीं जा सकता- वह जरूर जायेगा। भय से जो चिर अपरिचित हो, उसे किस तरह और क्या कहकर रोका जाता? जब वह बिल्कुसल जाने ही लगा तो मैं भी न ठहर न सका; मैं भी, जो कुछ मिला, हाथ में लेकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। इस बार इन्द्र ने मुख फेरकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया और कहा, ''तू पागल हो गया है श्रीकान्त! तेरा क्या दोष है? तू क्यों जायेगा?''
उसका कण्ठ-स्वर सुनकर मेरी ऑंखों में एक मुहूर्त में ही जल भर आया। किसी तरह उसे छिपाकर बोला, ''तुम्हारा ही भला, क्या दोष है इन्द्र? तुम ही क्यों जाते हो?''
जवाब में इन्द्र ने मेरे हाथ से बाँस छीनकर नाव में फेंक दिया और कहा, ''मेरा भी कुछ दोष नहीं है भाई, मैं भी नवीन भइया को लाना नहीं चाहता था। परन्तु, अब अकेले लौटा भी नहीं जा सकता, मुझे तो जाना होगा।''
परन्तु मुझे भी तो जाना चाहिए। क्योंकि, पहले ही एक दफे कह चुका हूँ कि मैं स्वयं भी बिल्कुतल डरपोक न था। अतएव बाँस को फिर उठाकर मैं खड़ा हो गया और वाद-विवाद किये बगैर ही हम दोनों आगे चल दिए। इन्द्र बोला, ''बालू पर दौड़ा नहीं जा सकता-खबरदार, दौड़ने की कोशिश न करना। नहीं तो, पानी में जा गिरेगा।''
सामने ही एक बालू का टीला था। उसे पार करते ही दीख पड़ा, बहुत दूर पर पानी के किनारे छह-सात कुत्ते खड़े भौंक रहे हैं। जहाँ तक नजर गयी वहाँ तक थोड़े से कुत्तों को छोड़कर, बाघ तो क्या, कोई शृंगाल भी नहीं दिखाई दिया। सावधानी से कुछ देर और अग्रसर होते ही जान पड़ा कि कोई एक काली-सी वस्तु पानी में पड़ी है और वे उसका पहरा दे रहे हैं। इन्द्र चिल्ला उठा, ''नूतन भइया!''
नूतन भइया गले तक पानी में खड़े हुए अस्पष्ट स्वर से रो पड़े, ''यहाँ हूँ मैं!''
हम दोनों प्राणपण से दौड़ पड़े, कुत्ते हटकर खड़े हो गये, और इन्द्र झप से कूद कर गले तक डूबे हुए मूर्च्छित प्राय: अपने दर्जीपाड़े के मौसेरे भाई को खींचकर किनारे पर उठा लाया। उस समय भी उनके एक पैर में बहुमूल्य पम्प-शू, शरीर पर ओवरकोट, हाथ में दस्ताने, गले में गुलूबन्द और सिर पर टोपी थी। भागने के कारण फूलकर वे ढोल हो गये थे! हमारे जाने पर उन्होंने हाथ-ताली देकर जो बढ़िया तान छेड़ दी थी, बहुत सम्भव है, उसी संगीत की तान से आकृष्ट होकर, गाँव के कुत्ते दल बाँधकर वहाँ आ उपस्थित हुए थे! और उस अभूतपूर्व गीत और आदरपूर्ण पोशाक की छटा से विभ्रान्त होकर इस महामान्य व्यक्ति के पीछे पड़ गये थे। पीछा छुड़ाने के लिए इतनी दूर भागने पर भी आत्मरक्षा का और कोई उपाय न खोज सकने के कारण अन्त में झप से पानी में कूद पड़े; और इस दुर्दान्त शीत की रात में, तुषार-शीतल जल में आधे घण्टे गले तक डूबे रहकर अपने पूर्वकृत् पापों का प्रायश्चित करते रहे। किन्तु, प्रायश्चित के संकट को दूर करके उन्हें फिर से चंगा करने में भी हमें कम मेहनत नहीं उठानी पड़ी। परन्तु सबसे बढ़कर अचरज की बात यह हुई की बाबू साहब ने सूखे मैं पैर रखते ही पहली बात यही पूछी, ''हमारा एक पम्प-शू कहाँ गया?''
''वह वहाँ पड़ा हुआ है।'' यह सुनते ही वे सारे दु:ख-क्लेश भूलकर उसे शीघ्र ही उठा लेने के लिए सीधे खड़े हो गये। इसके बाद, कोट के लिए गुलूबन्द के लिए, मोजों के लिए, दस्तानों के लिए, पारी-पारी से एक-एक के लिए शोक प्रकाशित करने लगे और उस रात को जब तक हम लोग लौटकर अपने घाट पर नहीं पहुँच गये, तब तक यही कहकर हमारा तिरस्कार करते रहे कि क्यों हमने मूर्खों की तरह उनके शरीर से उन सब चीजों को जल्दी-जल्दी उतार डाला था। न उतारा होता तो इस तरह धूल लगकर वे मिट्टी न हो जाते। हम दोनों असभ्य लोगों में रहने वाले ग्रामीण किसान हैं, हम लोगों ने इन चीजों को पहले कभी ऑंख से देखा तक नहीं होगा- यह सब वे बराबर कहते रहे। जिस देह पर, इसके पहले, एक छींटा भी जल गिरने से वे व्याकुल हो उठते थे, कपड़े-लत्तों के शोक में वे उस देह को भी भूल गये। उपलक्ष्य वस्तु असल वस्तु से भी किस तरह कई गुनी अधिक होकर उसे पार कर जाती है, यह बात, यदि इन जैसे लोगों के संसर्ग में न आया जाए, तो इस तरह प्रत्यक्ष नहीं हो सकती।
रात को दो बजे बाद हमारी डोंगी घाट पर आ लगी। मेरे जिस रैपर की विकट बूसे कलकत्ते के बाबू साहब, इसके पहले, बेहोश हुए जाते थे, उसी को अपने शरीर पर डालकर- उसी की अविश्रान्त निन्दा करते हुए तथा पैर पोंछने में भी घृणा होती है, यह बार-बार सुनाते हुए भी- और इन्द्र की अलवान ओढ़कर, उस यात्रा में आत्म रक्षा करते हुए घर गये। कुछ भी हो, हम लोंगों पर दया करके जो वे व्याघ्र-कवलित हुए बगैर सशरीर वापिस लौट आए, उनके उसी अनुग्रह के आनन्द से हम परिपूर्ण हो रहे थे। इतने उपद्रव-अत्याचार को हँसते हुए सहन करके और आज नाव पर चढ़ने के शौक की परिसमाप्ति करके, उस दुर्जय शीत की रात में, केवल एक धोती-भर का सहारा लिये हुए, काँपते-काँपते, हम लोग घर में लौट आए।


प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

000

लिखने बैठते ही बहुत दफा मैं आश्चर्य से सोचता हूँ कि इस तरह की बेसिलसिले घटनाएँ मेरे मन में निपुणता से किसने सजा रक्खी हैं? जिस ढंग से मैं लिख रहा हूँ इस ढंग से वे एक-के बाद एक श्रृंखलाबद्ध तो घटित हुई नहीं। और फिर साँकल की क्या सभी कड़ियाँ साबुत बनी हुई हैं? सो भी नहीं। मुझे मालूम है कि कितनी ही घटनाएँ तो विस्मृत हो चुकी हैं, किन्तु फिर भी तो श्रृंखला नहीं टूटती। तो कौन फिर उन्हें नूतन करके जोड़ रखता है?
और भी एक अचरज की बात है। पण्डित लोग कहा करते हैं कि बड़ों के बोझ से छोटे पिस जाते हैं। परन्तु यदि ऐसा ही होता तो फिर जीवन की प्रधन और मुख्य घटनाएँ तो अवश्य ही याद रहने की चीजें होतीं। परन्तु सो भी तो नहीं देखता हूँ। बचपन की बातें कहते समय एकाएक मैंने देखा कि स्मृति-मन्दिर में बहुत-सी तुच्छ क्षुद्र घटनाएँ भी, न जाने कैसे, बहुत बड़ी होकर ठाठ से बैठ गयी हैं और बड़ी घटनाएँ छोटी बनकर न जाने कब कहाँ झड़कर गिर गयी हैं। इसलिए बोलते समय भी यही बात चरितार्थ होती है। तुच्छ बातें बड़ी हो कर दिखाई देती हैं, और बड़ी याद भी नहीं आतीं। और फिर ऐसा क्यों होता है इसकी कैफियत भी पाठकों को मैं नहीं दे सकता। जो होता है, सिर्फ उसे ही मैंने बता दिया है।
इसी प्रकार की एक तुच्छ-सी बात है जो मन के भीतर इतने दिनों तक चुपचाप छिपी रहकर, इतनी बड़ी हो उठी है कि आज उसका पता पाकर मैं स्वयं भी बहुत विस्मित हो रहा हूँ। उसी बात को आज मैं पाठकों को सुनाऊँगा। किन्तु, बात ठीक-ठीक क्या है सो, जब तक कि मैं उसका पूरा परिचय न दे दूँ तब तक, उसका रूप किसी तरह भी स्पष्ट न होगा! क्योंकि, यदि मैं प्रारम्भ में ही कह दूँ कि वह एक 'प्रेम का इतिहास' है- तो उससे यद्यपि मिथ्या भाषण का पाप न होगा, किन्तु वह व्यापार अपनी चेष्टा से जितना बड़ा हो उठा है, मेरी भाषा शायद उसको भी उल्लंघन कर जायेगी। इसलिए बहुत ही सावधन होकर कहने की जरूरत है।
वह बहुत बाद की बात है। जीजी की स्मृति भी उस समय धुँधली हो गयी थी। जिनके मुख की याद मन में लाते ही, न मालूम कैसे, प्रथम यौवन की उच्छृंखलता अपने आप अपना सिर झुका लेती है, उन जीजी की याद उस समय उस तरह नहीं आती थी। यह उसी समय की कहानी है। एक राजा के लड़के के द्वारा निमन्त्रित होकर मैं उसकी शिकार-पार्टी में जाकर शामिल हुआ था। उसके साथ बहुत समय तक स्कूल में पढ़ा था, गुपचुप अनेक बार उसके गणित के सवाल हल कर दिए थे- इसीलिए वह मुझे खूब चाहता था। इसके बाद एन्ट्रेंस क्लास से हम दोनों अलग हो गये। मैं जानता हूँ कि राजाओं के लड़कों की स्मरण-शक्ति कम हुआ करती है, किन्तु यह नहीं सोचा था कि वह मेरा स्मरण करके पत्र-व्यवहार करना शुरू कर देगा। बीच में एक दिन उससे एकाएक मुलाकात हो गयी। उसी समय वह बालिग हुआ था। बहुत-से जमा किये हुए रुपये उसके हाथ लगे और उसके बा... इत्यादि इत्यादि। राजा के कानों में बात पहुँची- अतिरंजित होकर ही पहुँची, कि राइफल चलाने में मैं बेजोड़ हूँ, तथा और भी कितने ही तरह के गुणों से मैं, इस बीच में ही, मण्डित हो गया हूँ कि जिनसे मैं एकमात्र बालिग राजपुत्र का अन्तरंग मित्र होने के लिए सर्वथा योग्य हूँ। आत्मीय बन्धु-बान्धव तो अपने आदमी की प्रशंसा कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही करते हैं, नहीं तो सचमुच ही, इतनी विद्याएँ इतने अधिक परिमाण में मैं उस छोटी-सी उम्र में ही अर्जित करने में समर्थ हो गया था; यह अहंकार मुझे शोभा नहीं देता। कम से कम कुछ विनय रखना अच्छा है खैर, जाने दो इस बात को। शास्त्रकारों ने कहा है कि राजे-रजवाड़ों के सादर आह्नान की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हिन्दू का लड़का ठहरा, शास्त्र अमान्य तो कर नहीं सकता था, इसलिए मैं चला गया। स्टेशन से दस-बारह कोस हाथी पर बैठकर गया। देखा, बेशक राजपुत्र के बालिग होने के सब लक्षण मौजूद हैं! कोई पाँच तम्बू गड़े हुए हैं, एक स्वयं उनका, एक मित्रों का, एक नौकरों का और एक रसोई का। इनके सिवाय और एक तम्बू कुछ फासले पर था- उसके दो हिस्से करके उनमें दो वेश्याएँ और उनके साजिन्दे अवजमाए हैं।
संध्यार हो चुकी है। प्रवेश करते ही मैं जान गया कि राजकुमार के खास कमरे में बहुत देर से संगीत की बैठक जमी हुई है। राजकुमार ने बड़े आदर से मेरा स्वागत किया यहाँ तक कि आदर के अतिरेक से खड़े होने को तैयार होकर वे तकिये के सहारे लेट गये! मित्र दोस्त, विह्वल-कण्ठ से आइए, आइए, पधारिए, कहकर संवर्धन करने लगे। मैं सर्वथा अपरिचित था। किन्तु वह, उन लोगों की जो अवस्था थी उससे, अपरिचय के कारण रुकने वाली नहीं थी।
ये 'बाईजी' पटने से, बहुत-सा रुपया पाने की शर्त पर, दो सप्ताह के लिए आई थीं। इस काम में राजकुमार ने जिस विवेचना और विलक्षणता का परिचय दिया था उसकी तारीफ तो करनी ही होगी। बाईजी, खूब सुन्दर, सुकण्ठ और गाने में निपुण थीं।
मेरे प्रवेश करते ही गाना थम गया। इसके बाद समयोचित वार्तालाप और अदब-कायदे का कार्य समाप्त होने में भी कुछ समय चला गया। राजकुमार ने अनुग्रह करके मुझसे गाने की फरमाइश करने का अनुरोध किया। राजाज्ञा पाकर पहले तो मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा, किन्तु थोड़ी ही देर में मालूम हो गया कि संगीत की उस मजलिस में, सिर्फ मैं ही कुछ धुँधला-सा देख सकता हूँ और सब ही छछूँदर के माफिक अन्धे हैं।
बाईजी खिल उठीं। पैसे के लोभ से बहुत-से काम किये जा सकते हैं, सो मैं जानता था; किन्तु, इन निराट मूर्खों के दरबार में वीणा बजाना वास्तव में ही इतनी देर तक, उसे बड़ा कठिन मालूम हो रहा था। इस दफे एक समझदार व्यक्ति पाकर मानो वे बच गयीं। इसके बाद, रात को देर तक, मानो केवल मेरे लिए ही, उन्होंने अपनी समस्त विद्या, समस्त सौन्दर्य और कण्ठ के समस्त माधुर्य में हमारे चारों तरफ की उस समस्त कदर्न्य मदोन्मत्ता को डुबा दिया और अन्त में वे स्तब्ध हो गयीं।
बाईजी पटने की रहने वाली थीं। नाम था 'प्यारी'। उस रात्रि को उन्होंने जिस तरह अपनी सारी शक्ति लगाकर गाना सुनाया उस तरह शायद पहले कभी नहीं सुनाया होगा॥ मैं तो मुग्ध हो गया था। गाना बन्द होते ही मेरे मुँह से यही निकला- ''वाह, खूब!''
प्यारी ने मुँह नीचा करके हँस दिया। इसके बाद दोनों हाथों को मस्तक पर लगाकर प्रणाम किया- सलाम नहीं। मजलिस उस रात के लिए खत्म हो गयी।
उस समय दर्शकों में कोई सो रहा था, कोई तन्द्रा में था और अधिकांश बेहोश थे। अपने तम्बू में जाने के लिए बाईजी सब सदलबल बाहर निकल रही थीं, तब मैं आनन्द के अतिरेक से हिन्दी में बोल उठा-''बाईजी मेरा, बड़ा सौभाग्य है कि तुम्हारा गाना रोज दो सप्ताह तक सुनने को मिलेगा।'' बाईजी पहले तो ठिठककर खड़ी हो रहीं, पर दूसरे ही क्षण कुछ नजदीक आकर अत्यन्त कोमल कण्ठ से परिष्कृत बंगला में बोलीं, ''रुपये लिये हैं, सो मुझे तो गाना ही पड़ेगा; परन्तु क्या आप भी इन पन्द्रह सोलह दिनों तक इनकी मुसाहबी करते रहेंगे? जाइए, कल ही आप अपने घर चले जाइए।''
यह बात सुनकर हतबुद्धि-सा होकर मैं मानो काठ हो गया और क्या जवाब दूँ, यह ठीक कर सकने के पहले ही देखा कि बाईजी तम्बू के बाहर हो गयी हैं।
सुबह शोर गुल मचाकर कुमार साहब शिकार के लिए बाहर निकले। मद्य-मांस की तैयारी ही सबसे अधिक थी। साथ में दस-बारह शिकारी नौकर थे। पन्द्रह बन्दूकें थीं- जिसमें छ: राइफलें थीं। स्थान था एक अधसूखी नदी के दोनों किनारे। इस पार गाँव था और उस पार रेत का टीला। इस पार कोस भर तक बड़े-बड़े सेमर के वृक्ष थे और उस पार रेती के ऊपर जगह-जगह काँस और कुशों के झुरमुट। यहाँ ही उन पन्द्रह बन्दूकों को लेकर शिकार किया जायेगा। सेमर के वृक्षों पर मुझे कबूतर की जाति के पक्षी दीख पड़े और अधसूखी नदी के मोड़ के पास ऐसा जान पड़ा कि दो पक्षी, चकवा-चकई, तैर रहे हैं।
कौन-किस ओर जाय, इस बात पर अत्यन्त उत्साह से परामर्श करते-करते सब ही ने दो-दो प्याले चढ़ाकर देह और मन को वीरों की तरह कर लिया। मैंने बन्दूक नीचे रख दी। एक तो बाईजी के व्यंग्य की चोट खाकर रात से ही मन विकल हो रहा था, उस पर यह शिकार का क्षेत्र देखकर तो सारा शरीर जल उठा।
कुमार ने पूछा, ''क्यों जी कान्त, तुम तो बड़े गुमसुम हो रहे हो? अरे यह क्या! बन्दूक ही रख दी!''
''मैं पक्षियों को नहीं मारता।''
''यह क्या जी? क्यों, क्यों?''
''मुँह पर रेख निकलने के बाद से मैंने छर्रेवाली बन्दूक नहीं चलाई- मैं उसे चलाना भी भूल गया हूँ।''
कुमार साहब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। किन्तु उस हँसी का द्रव्य-गुण से कितना सम्बन्ध था, यह बात अवश्य दूसरी है।
सूरज के ऑंख-मुँह लाल हो उठे। वे इस दल के प्रधन शिकारी और राजपुत्र के प्रिय पार्श्वचर थे। उनके अचूक निशाने की ख्याति मैंने आते ही सुन ली थी। वे रुष्ट होकर बोले, ''चिड़ियों का शिकार क्या कुछ शर्म की बात है?''
मेरा मिजाज भी ठिकाने पर नहीं था, इसलिए जवाब दिया, ''सबके लिए नहीं, परन्तु मेरे लिए तो है! खैर! कुमार साहब, मेरी तबियत ठीक नहीं है।'' कहकर मैं तम्बू में लौट आया। इस पर कौन हँसा, किसने ऑंखें मिचकाईं। किसने मुँह बनाया, सो मैंने नजर उठाकर भी नहीं देखा।
तम्बू में लौटकर मैं फर्श पर चित्त लेटा ही था और एक प्याला चाय तैयार करने का आदेश देकर एक सिगरेट पी ही रहा था कि बैरे ने आकर अदब के साथ कहा, ''बाईजी आपसे मिलना चाहती हैं।'' ठीक इसी बात की मैं आशा कर रहा था और आशंका भी। पूछा, ''क्यों मिलना चाहती हैं?''
''सो तो मैं नहीं जानता।''
''तुम कौन हो?''
''मैं बाईजी का खानसामा हूँ।''
''बंगाली हो?''
''जी हाँ, जाति का नाई हूँ। नाम मेरा रतन है।''
''बाईजी हिन्दू हैं?''
रतन हँसकर बोला, ''न होतीं तो मैं कैसे रहता बाबू?''
मुझे साथ ले जाकर और तम्बू का दरवाजा दिखाकर रतन चला गया। पर्दा उठाकर भीतर देखा कि बाईजी अकेली बैठी हुई प्रतीक्षा कर रही हैं। कल रात को पेशवाज और ओढ़नी के कारण मैं ठीक तौर से पहिचान न सका था, परन्तु आज देखते ही पहिचान लिया कि हो कोई; पर बाईजी हैं बंगाली की ही लड़की। बाईजी गरद की साड़ी पहने हुए मूल्यवान कार्पेट के ऊपर बैठी थीं। भीगे हुए बिखरे बाल पीठ के ऊपर फैल रहे थे। हाथों के पास पान-दान रक्खा था और सामने हुक्का। मुझे देखकर उठ खड़ी हुयीं और हँसकर सामने का आसन दिखाते हुए बोलीं, ''बैठिए। आपके सामने अब और तमाखू नहीं पीऊँगी- अरे रतन, हुक्का उठा ले जा। यह क्या खड़े क्यों हैं! बैठ जाइए न!''
रतन आकर हुक्का ले गया। बाईजी बोलीं, ''आप तमाखू पीते हैं, यह मैं जानती हूँ; किन्तु दूँ किस तरह? और जगह आप चाहे जो करें, किन्तु मैं जान-बूझकर तो आपको अपना हुक्का दे न सकूँगी। अच्छा, चुरुट लाए देती हूँ। अरे ओ...''
''ठहरो, ठहरो, जरूरत नहीं। मेरी जेब में चुरुट हैं।''
''हैं? अच्छा तो ठण्डे होकर जरा बैठ जाइए, बहुत-सी बातें करनी हैं। भगवान कब किससे मिला देते हैं, सो कोई नहीं कह सकता, यह स्वप्न में भी अगोचर है। शिकार के लिए गये थे, एकाएक लौट क्यों आए?''
''तबीयत न लगी।''
''न लगने की ही बात है। कैसी निष्ठुर है यह पुरुषों की जात। निरर्थक जीव-हत्या करने में इन्हें क्या मजा आता है सो ये ही जानें। बाबूजी तो अच्छे हैं न?''
''बाबूजी का स्वर्गवास हो गया।''
''हैं, स्वर्गवास हो गया! और माँ?''
''वे तो उनसे भी पहले चल बसी थीं।''
''ओह-तभी तो!'' कहकर बाईजी एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर मेरी ओर देखती रह गयीं। एक दफा तो जान पड़ा मानो उनकी ऑंखें छलछला आयीं हैं, किन्तु, शायद वह मेरी भूल हो। परन्तु, दूसरे ही क्षण जब वे बोलीं तब भूल के लिए कोई जगह न रही। उस मुखरा नारी का चंचल और परिहास लघु कण्ठस्वर सचमुच ही मृदु और आर्द्र हो उठा था। बोलीं, ''तो फिर यों कहो कि अब तुम्हारा जतन करने वाला कोई न रहा। बुआजी के पास ही रहते हो न? नहीं तो, और फिर कहाँ रहोगे? ब्याह हुआ नहीं, यह तो मैं देख ही रही हूँ। पढ़ते-लिखते हो? या वह भी इसके साथ ही समाप्त कर दिया?''
अब तक तो मैं उसके कुतूहल और प्रश्नमाला को भरसक बरदाश्त करता रहा। किन्तु न जाने क्यों पिछली बात मानो मुझे एकाएक असह्य हो उठी। मैं खीझकर रूखे स्वर में बोल उठा, ''अच्छा, कौन हो तुम? तुम्हें जीवन में कहाँ देखा है, यह तो याद आता नहीं। मेरे सम्बन्ध में इतनी बातें तुम जानना ही क्यों चाहती हो और जानने से तुम्हें लाभ क्या है?''
बाईजी को गुस्सा न आया, वे हँसकर बोलीं, ''लाभ-हानि ही क्या संसार में सब कुछ है? माया, ममता, प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं? मेरा नाम है प्यारी, किन्तु जब मेरा मुख देखकर भी न पहिचान सके, तब लड़कपन का नाम सुनकर भी मुझे कैसे पहिचान सकोगे? इसके सिवाय मैं तुम्हारे उस गाँव की लड़की भी तो नहीं हूँ।''
''अच्छा तुम्हारा घर कहाँ है?''
''नहीं, सो मैं नहीं बताऊँगी।''
''तो फिर, अपने बाप का नाम ही बताओ?''
बाईजी जीभ काटकर बोलीं, ''वे स्वर्ग चले गये हैं-राम-राम, क्या उनका नाम इस मुँह से उच्चारण कर सकती हूँ?''
मैं अधीर हो उठा। बोला, ''यदि नहीं कर सकतीं तो फिर मुझे तुमने पहिचाना किस तरह, यही बताओ? शायद यह बतलाने में कोई दोष न होगा।''
प्यारी ने मेरे मन के भाव को लक्ष्य करके मुसकरा दिया। कहा, ''नहीं, इसमें कुछ दोष नहीं है, परन्तु क्या तुम विश्वास कर सकोगे?''
''कह देखो न।''
प्यारी ने कहा, ''तुम्हें पहिचाना या महाराज, दुर्बुद्धि की मार से- और किस तरह? तुमने मेरी ऑंखों से जितना पानी बहवाया है, सौभाग्य से सूर्यदेव ने उसे सुखा दिया है। नहीं तो ऑंखों के उस जल से एक तालाब भर गया होता। पूछती हूँ, क्या इस पर विश्वास कर सकते हो?''
सचमुच ही मैं विश्वास न कर सका। परन्तु वह मेरी भूल थी। उस समय यह किसी तरह खयाल भी न आया कि प्यारी के होठों की गठन कुछ इस किस्म की है कि मानो हर बात वह मजाक में ही कहती है और मन ही मन हँसती हैं। मैं चुप रह गया। वह भी कुछ देर तक चुप रहकर इस बार सचमुच ही हँस पड़ी। परन्तु, इतनी देर में न जाने किस तरह मुझे जान पड़ा कि उसने अपनी लज्जित अवस्था को मानो सँभाल लिया है। हँसकर कहा, ''नहीं महाराज, तुम्हें जितना भोला समझा था उतने भोले तुम नहीं हो। यह जो मेरा कहने का ढंग है, इसे तुमने बराबर समझ लिया है। किन्तु, यह भी कहती हूँ कि तुम्हारी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान भी इस बात पर अविश्वास नहीं कर सकते। सो यदि आप इतने अधिक बुद्धिमान हैं तो यह मुसाहबी का व्यवसाय आपने किसलिए ग्रहण किया है? यह नौकरी तो तुम्हारे जैसे आदमी से होने की नहीं। जाओ, यहाँ से चटपट खिसक जाओ!''
क्रोध के मारे मेरा सर्वांग जल उठा, किन्तु मैंने उसे प्रकट नहीं होने दिया। सहज भाव से कहा, ''नौकरी जितने दिन हो, उतने ही दिन अच्छी। बैठे से बेगार भली- समझीं न! अच्छा, अब मैं जाता हूँ। बाहर के लोग शायद और ही कुछ समझ बैठें।''
प्यारी बोली, ''समझ बैठें, तो यह तुम्हारे लिए सौभाग्य की बात है महाराज, यह क्या कोई अफसोस की बात है?''
उत्तर दिये बिना ही जब मैं द्वारपर आ खड़ा हुआ तब वह अकस्मात् हँसी की फुहार छोड़कर कह उठी, ''किन्तु देखो बाबू, मेरी वह ऑंखों के ऑंसुओं की बात मत भूल जाना। दोस्तों में, कुमार साहब के दरबार में, प्रकट कर दोगे तो सम्भव है तुम्हारी तकदीर खुल जाय।''
मैं उत्तर दिये बिना ही बाहर हो गया, परन्तु उस निर्लज्जा की वह हँसी और यह कदर्य परिहास मेरे सर्वांग में व्याप्त होकर बिच्छू के काँटे की तरह जलने लगा।
अपने स्थान पर आकर, एक प्याला चाय पीकर और चुरुट मुँह में दबाकर अपने को भरसक ठण्डा करके मैं सोचने लगा- यह कौन है? मैं अपनी पाँच-छ: वर्ष की उम्र तक की सब घटनाएँ स्पष्ट तौर से याद कर सकता हूँ। किन्तु अतीत में जितनी भी दूर तक दृष्टि जा सकती थी, उतनी दूर तक मैंने खूब छान-बीन कर देखा, कहीं भी इस प्यारी को नहीं खोज पाया। फिर भी, यह मुझे खूब पहचानती है। बुआ तक की बात जानती है। मैं दरिद्र हूँ, सो भी इससे अज्ञात नहीं है। इसीलिए, और तो कोई गहरी चाल इसमें हो नहीं सकती; फिर भी, जिस तरह हो, मुझे यहाँ से भगा देना चाहती है। परन्तु यह किसलिए? मेरे यहाँ रहने न रहने से इसे क्या? बातों ही बातों में उस समय इसने कहा था- संसार में लाभ-हानि ही क्या सब कुछ है? प्यार-मुहब्बत कुछ नहीं है? मैंने जिसे पहले कभी ऑंख से भी नहीं देखा, उसके मुँह की यह बात याद करके भी मुझे हँसी आ गयी। किन्तु सारी बातचीत को दबाकर, उसका आखिरी व्यंग्य ही मानो मुझे लगातार छेदने लगा।
संध्याय के समय शिकारियों का दल लौट आया। नौकरों के मुँह से सुना कि आठ पक्षी मारकर लाय गये हैं। कुमार ने मुझे बुला भेजा। तबीयत ठीक न होने का बहाना करके बिस्तरों पर ही मैं पड़ रहा; और इसी तरह पड़े-पड़े रात को देर तक प्यारी का गाना और शराबियों की वाह-वाह सुनता रहा।
इसके बाद तीन-चार दिन प्राय: एक ही तरह से कट गये। 'प्राय:' कहता हूँ, क्योंकि, सिर्फ शिकार को छोड़कर और सब बातें रोज एक-सी ही होती थीं। प्यारी का अभिशाप मानो फल गया हो- प्राणी-हत्या के प्रति किसी में कुछ भी उत्साह मैंने नहीं देखा। मानो कोई तम्बू के बाहर भी न निकलना चाहता हो। फिर भी मुझे उन्होंने नहीं छोड़ा। मेरे वहाँ से भाग जाने के लिए कोई विशेष कारण हो, सो बात न थी; किन्तु इस बाईजी के प्रति मुझे मानो घोर अरुचि हो गयी। वह जब हाजिर होती, तब मानो मुझे कोई मार रहा हो ऐसा लगता- उठकर वहाँ से जब चला जाता तभी कुछ शान्ति मिलती। उठ न सकता, तो फिर और किसी ओर मुँह फिराकर, किसी के भी साथ, बातचीत करते हुए अन्यमनस्क होने की चेष्टा किया करता। इस पर भी वह हर समय मुझसे ऑंखें मिलाने की हजार तरह से चेष्टा किया करती, यह भी मैं अच्छी तरह अनुभव करता। शुरू में दो-तीन दिन उसने मुझे लक्ष्य करके परिहास करने की चेष्टा भी की; किन्तु, फिर मेरे भाव को देखकर वह बिल्कुरल सन्न हो रही।
शनिवार का दिन था। अब किसी तरह भी मैं ठहर नहीं सकता। खा-पी चुकने के बाद ही आज रवाना हो जाऊँगा, यह स्थिर हो जाने से आज सुबह से ही गाने-बजाने की बैठक जम गयी थी। थककर बाईजी ने गाना बन्द किया ही था कि हठात् सारी कहानियों से श्रेष्ठ भूतों की कहानी शुरू हो गयी। पल-भर में जो जहाँ था उसने वहीं से आग्रह के साथ वक्ता को घेर लिया।
पहले तो मैं लापरवाही से सुनता रहा। परन्तु अन्त में उद्विग्नज होकर बैठ गया। वक्ता थे गाँव के ही एक वृद्ध हिन्दुस्तानी महाशय। कहानी कैसे कहनी चाहिए सो वे जानते थे। वे कह रहे थे कि ''प्रेत-योनि के विषय में यदि किसी को सन्देह हो-तो वह आज, इस शनिवार की अमावस्या तिथि को, इस गाँव में आकर, अपने चक्षु-कर्णों का विवाद भंजन कर डाले। वह चाहे जिस जाति का, चाहे जैसा, आदमी हो और चाहे जितने आदमियों को साथ लेकर जाए, आज की रात उसका महाश्मशान को जाना निष्फल नहीं होगा। आज की घोर रात्रि में उग्र श्मशानचारी प्रेतात्मा को सिर्फ ऑंख से ही देखा जा सकता हो सो बात नहीं- उसका कण्ठस्वर भी सुना जा सकता है और इच्छा करने पर उससे बातचीत भी की जा सकती है।'' मैंने अपने बचपन की बातें याद करके हँस दिया। वृद्ध महाशय उसे लक्ष्य करके बोले, ''आप मेरे पास आइए।'' मैं उनके निकट खिसक गया। उन्होंने पूछा, ''आप विश्वास नहीं करते?''
''नहीं।''
''क्यों नहीं करते? नहीं करने का क्या कोई विशेष हेतु है?''
''नहीं।''
''तो फिर? इस गाँव में ही दो-एक ऐसे सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अपनी ऑंखों देखा है। फिर भी जो आप विश्वास नहीं करते, मुँह पर हँसते हैं सो यह केवल दो पन्ने अंगरेजी पढ़ने का फल है। बंगाली लोग तो विशेष करके नास्तिक म्लेच्छ हो गये हैं।'' कहाँ की बात कहाँ आ पड़ी, देखकर मैं अवाक् हो गया। बोला, ''देखिए, इस सम्बन्ध में मैं तर्क नहीं करना चाहता। मेरा विश्वास मेरे पास है। मैं भले ही नास्तिक होऊँ, म्लेच्छ होऊँ- पर भूत नहीं मानता। जो कहते हैं कि हमने ऑंखों से देखा है वे या तो ठगे गये हैं, अथवा झूठे हैं, यही मेरा धारणा है।''
उस भले आदमी ने चट से मेरे दाहिने हाथ को पकड़कर कहा, ''क्या आप आज रात को श्मशान जा सकते है?'' मैं हँसकर बोला, ''जा सकता हूँ, बचपन से ही मैं अनेक रात्रियों में अनेक श्मशानों में गया हूँ।'' वृद्ध चिढ़कर बोल उठे, ''आप शेखी मत बघारिए बाबू।'' इतना कहकर उन्होंने उस श्मशान का, सारे श्रोताओं को स्तम्भित कर देने वाला, महाभयावह विवरण विगतवार कहना शुरू कर दिया। ''यह श्मशान कुछ ऐसा-वैसा स्थान नहीं है। यह महाश्मशान है। यहाँ पर हजारों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं। इस श्मशान में, हर रात को, महाभैरवी अपने साथियों सहित नर-मुण्डों से गेंद खेलती हैं और नृत्य करती हुई घूमती हैं। उनके खिलखिला कर हँसने के विकट शब्द से कितनी ही दफे, कितनी ही अविश्वासी अंगरेज जजों, मजिस्ट्रेटों के भी हृदय की धड़कन बन्द हो गयी है।'' इस किस्म की लोमहर्षक कहानी वे इस तरह से कहने लगे कि इतने लोगों के बीच, दिन के समय, तम्बू के भीतर बैठे रहने पर भी, बहुत से लोगों के सिर के बाल तक खड़े हो गये। तिरछी नजर से मैंने देखा कि प्यारी न जाने कब पास आकर बैठ गयी है और उन बातों को मानो सारे शरीर से निगल रही है।
इस तरह जब वह महाश्मशान का इतिहास समाप्त हुआ तब वक्ता ने अभिमान के साथ मेरी ओर कटाक्ष फेंककर प्रश्न किया, ''क्यों बाबू साहब, आप जाँयगे?''
''जाऊँगा क्यों नहीं?''
''जाओगे! अच्छा, आपकी मरजी। प्राण जाने पर-''
मैं हँसकर बोला, ''नहीं महाशय, नहीं। प्राण जाने पर भी तुम्हें दोष न दिया जायेगा, तुम इससे मत डरो। किन्तु बेजानी जगह में मैं भी तो खाली हाथ नहीं जाऊँगा- बन्दूक साथ जायेगी!''
आलोचना अत्यधिक तेज हो उठी है, यह देखकर मैं वहाँ से उठ गया। ''पक्षी मारने की तो हिम्मत नहीं पड़ती, बन्दूक की गोली से भूत मारेंगे साहब! बंगाली लोग अंगरेजी पढ़कर हिन्दू-शास्त्र थोड़े ही मानते हैं- ये मुर्गी तक तो खा जाते हैं- मुँह से ये लोग कितनी ही शेखी क्यों न मारें, काम के समय भाग खड़े होते हैं-एक धौंस पड़ते ही इनके दन्त कपाट लग जाते हैं!'' इस तरह की समालोचना शुरू हुई। अर्थात्, जिन सब सूक्ष्म युक्ति-तर्कों की अवधारणा करने से हमारे राजा रईसों को आनन्द मिलता है, और जो उनके मस्तिष्क को अतिक्रम नहीं कर जाते- अर्थात् वे स्वयं भी जिनमें घुसकर दो शब्द कह सकते हैं- ऐसे ही वे सब युक्तितर्क थे।
इन लोगों के दल में सिर्फ एक आदमी ऐसा था जिसने स्वीकार किया कि मैं शिकार करना नहीं जानता और जो साधारणत: बातचीत भी कम करता था, शराब भी कम पीता था। नाम था उसका पुरुषोत्तम। शाम को आकर उसने मुझे पकड़ लिया और कहा, ''मैं भी साथ चलूँगा- क्योंकि इसके पहले मैंने भी कभी भूत नहीं देखा। इसलिए, आज अब ऐसा अच्छा मौका मिला है, तब मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता।''- ऐसा कहकर वह खूब हँसने लगा। मैंने पूछा, ''तुम क्या भूत नहीं मानते?''
''बिल्कुील नहीं।''
''क्यों नहीं मानते?''
''भूत नहीं है, इसलिए नहीं मानता।'' इतना कहकर वह प्रचलित तर्क उठा-उठाकर बारम्बार अस्वीकार करने लगा। किन्तु, मैंने इतने सहज में उसे साथ ले जाना स्वीकार नहीं किया। क्योंकि, बहुत दिनों की जानकारी से मैंने जाना था कि, यह सब युक्ति-तर्क का व्यापार नहीं- यह तो संस्कार है। बुद्धि के द्वारा जो बिल्कुकल ही नहीं मानते, वे भी भय के स्थान पर आ पड़ने पर भय के मारे मूर्च्छित हो जाते हैं।
पुरुषोत्तम किन्तु इस तरह सहज में छोड़ने वाला नहीं था। वह लाँग कसकर एक पक्के बाँस की लकड़ी कन्धों पर रखकर बोला, ''श्रीकान्त बाबू, आपकी इच्छा हो तो भले ही आप बन्दूक ले चलें; किन्तु अपने हाथ में लाठी रहते, भूत हो चाहे प्रेम- मैं किसी को भी पास न फटकने दूँगा।''
''किन्तु वक्त पर हाथ में लाठी रहेगी भी?''
''ठीक इसी तरह रहेगी बाबू, आप उस समय देख लेना। कोस-भर का रास्ता है, रात को ग्यारह के भीतर ही रवाना हो जाना चाहिए।''
मैंने देखा, उसका आग्रह मानो कुछ अतिरिक्त-सा है।
जाने के लिए उस समय भी करीब घण्टे-भर की देर थी। मैं तम्बू के बाहर टहलकर इस विषय पर मन ही मन आन्दोलन करके, देख रहा था कि वस्तु वास्तव में क्या हो सकती है। इन सब विषयों में मैं जिसका शिष्य था, उसे भूत का भय बिल्कुसल नहीं था। लड़कपन की बातें याद आ रही थीं- उस रात्रि को जब इन्द्र ने कहा था, ''श्रीकान्त, मन ही मन राम-नाम लेता रह; वह लड़का मेरे पीछे बैठा हुआ है।'' केवल उसी दिन भय के मारे मैं बेहोश हो गया था, और किसी दिन नहीं। फिर डरने का मौका ही नहीं आया। किन्तु आज की बात सच हो, तो वह वस्तु है क्या? इन्द्र स्वयं भूत में विश्वास करता था। किन्तु उसने भी कभी ऑंखों से नहीं देखा। मैं भी अपने मन ही मन चाहे जितना अविश्वास क्यों न करूँ, स्थान और काल के प्रभाव से मेरे शरीर में उस समय सनसनी न पैदा हो, यह बात नहीं। सहसा सामने के उस दुर्भेद्य अमावस्या के अन्धकार की ओर देखकर मुझे एक और अमावस्या की रात की बात याद आ गयी। वह दिन भी ऐसा ही एक शनिवार था।
पाँच-छह वर्ष पहले, हमारी पड़ोसिन, हतभागिनी नीरू जीजी बाल विधवा होकर भी जब प्रसूति रोग से पीड़ित होकर और छह महीने तक दु:ख भोग भोगकर मरीं, तब उनकी मृत्यु-शय्या के पार्श्व में मेरे सिवा और कोई नहीं था। बाग के बीच एक मिट्टी के घर में वे अकेली रहती थीं। सब लोगों की सब तरह से रोग-शोक में, सम्पत्ति-विपत्ति में इतनी अधिक सेवा करने वाली, नि:स्वार्थ परोपकारिणी स्त्री मुहल्ले-भर में और कोई नहीं थी। कितनी स्त्रियों को लिखा-पढ़ाकर, सूई का काम सिखाकर और गृहस्थी के सब किस्म के दुरूह कार्य समझाकर, उन्होंने मनुष्य बना दिया था, इसकी कोई गिनती नहीं थी। अत्यन्त स्निग्धा शान्त-स्वभाव और चरित्र के कारण मुहल्ले के लोग भी उन्हें कुछ कम नहीं चाहते थे। किन्तु उन्हीं नीरू जीजी का जब तीस वर्ष की उम्र में हठात् पाँव फिसल गया और भगवान ने इस अत्यन्त कठिन व्याधि के आघात से उनका जीवनभर का ऊँचा मस्तक बिल्कुछल मिट्टी में मिला दिया, तब इस मुहल्ले के किसी भी आदमी ने उस दुर्भागिनी का उद्धार करने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। पाप-स्पर्श लेशहीन निर्मल हिन्दू समाज ने उस हतभागिनी के मुख के सामने ही अपने सब खिड़की-दरवाजे बन्द कर लिये, और जिस मुहल्ले में शायद एक भी आदमी ऐसा नहीं था जिसने कि किसी न किसी तरह नीरू जीजी के हाथ की प्रेमपूर्ण सेवा का उपयोग न किया हो, उसी मुहल्ले के एक कोने में, अपनी अन्तिम शय्या डालकर वह दुर्भागिनी, घृणा और लज्जा के मारे सिर नीचा किये हुये अकेली, एक-एक दिन गिनती हुई, सुदीर्घ छ: महीने तक बिना चिकित्सा के पड़ी-पड़ी अपने पैर फिसलने का प्रायश्चित करके, श्रावण महीने की एक आधी रात के समय, इस लोक को त्याग कर जिस लोक को चली गयी उसका ठीक-ठीक ब्यौरा चाहे जिस स्मार्ट पण्डित से पूछते ही जाना जा सकता है।
मेरी बुआ अत्यन्त गुप्त रीति से उनकी सहायता करती थीं, यह बात मैं और मेरे घर की एक बड़ी दासी के सिवा इस दुनिया में और कोई नहीं जानता था। बुआ एक दिन मुझे अकेले में बुलाकर बोलीं, ''भइया श्रीकान्त, तू तो इस तरह रोग-शोक में जाकर अनेकों की खबर लिया करता है; उस छोकरी को भी एकाध दफे क्यों नहीं देख आया करता?'' तब से मैं बराबर बीच-बीच में जाकर उन्हें देखा करता और बुआ के पैसों से यह चीज- वह चीज- खरीद कर दे आया करता। उनकी मृत्यु के समय केवल मैं ही अकेला उनके पास था। मरण-समय में ऐसा परिपूर्ण विकास और परिपूर्ण ज्ञान मैंने और किसी के नहीं देखा। विश्वास न करने पर भी, भय के मारे शरीर में जो सनसनी फैल जाती है, उसी के उदाहरण स्वरूप मैं यह घटना लिख रहा हूँ।
वह श्रावण की अमावस्या का दिन था। रात्रि के बारह बजने के बाद ऑंधी और पानी के प्रकोप से पृथ्वी मानो अपने स्थान से च्युत होने की तैयारी कर रही थी। सब खिड़की-दरवाजे बन्द थे- मैं खाट के पास ही एक बहुत पुरानी आधी टूटी हुई आराम-कुर्सी पर लेटा हुआ था। नीरू जीजी ने अपने स्वाभाविक मुक्त स्वर से मुझे अपने पास बुलाकर, हाथ उठाकर, मेरा कान अपने मुख के पास ले जाकर, धीरे से कहा, ''श्रीकान्त, तू अपने घर जा।''
''सो क्यों नीरू जीजी, ऐसे ऑंधी-पानी में?''
''रहने दे ऑंधी-पानी। प्राण तो पहले हैं।'' वे भ्रम में प्रलाप कर रही हैं, ऐसा समझकर मैं बोला, ''अच्छा जाता हूँ, पानी जरा थम जाने दो।'' नीरू जीजी अत्यन्त चिन्तित होकर बोल उठीं, ''नहीं, श्रीकान्त, तू जा, जा भाई, जा- अब थोड़ी भी देर मत ठहर- जल्दी भाग जा।'' इस दफा उनके कण्ठस्वर के भाव से मेरी छाती का भीतरी भाग काँप उठा। मैं बोला, ''मुझसे जाने के लिए क्यों कहती हो?''
प्रत्युत्तर में मेरा हाथ खींचकर और बन्द खिड़की की ओर लक्ष्य करके, वे चिल्ला उठीं, ''जायेगा नहीं, तो क्या जान दे देगा? देखता नहीं है, मुझे ले जाने के लिए वे काले-काले सिपाही आए हैं। तू यहाँ पर मौजूद है, इसीलिए वे खिड़की में से ही मुझे डरा रहे हैं।''
इसके बाद उन्होंने कहना शुरू किया, ''वे इस खाट के नीचे हैं, वे सिर के ऊपर हैं। वे मारने आ रहे हैं! यह लिया! वह पकड़ लिया!'' यह चीत्कार रात के अन्तिम समय में तब समाप्त हुआ जब कि उनके प्राण भी प्राय: शेष हो चुके थे।
उक्त घटना आज भी मेरी छाती के भीतर गहरी जमकर बैठी हुई है। उस रात्रि को मुझे डर तो लगा ही था- याद-सा आता है कि मानो कुछ चेहरे भी देखे थे। यह सच है कि इस समय उस घटना की याद आने से हँसी आती है; परन्तु, यदि मुझे उस समय इस बात पर असंशय विश्वास न होता, कि किवाड़ खोलकर बाहर होते ही मैं नीरू जीजी के काले-काले सिपाही-सन्तरियों की भीड़ में जरूर पड़ जाऊँगा, तो उस दिन, अमावस्या के उस घोर दुर्योग को तुच्छ करके भी शायद मैं भाग खड़ा होता। साथ ही यह सब कुछ भी नहीं है, कुछ भी न था, यह भी जानता था; और मरणासन्न व्यक्ति केवल निदारुण विकार की बेहोशी में ही यह प्रलाप कर रहा था, सो भी समझता था। इतने में-
''बाबू!''
चौंककर मैं घूमा, देखा, रतन है।
''क्या है रे?''
''बाईजी ने प्रणाम कहा है।''
जितना मैं विस्मित हुआ उतना ही खीझा भी। इतनी रात को अकस्मात् बुला भेजना केवल अत्यन्त अपमानकारक स्पर्धा ही मालूम हो, सो बात नहीं, गत तीन-चार दिनों के दोनों तरफ के व्यवहारों को याद करके भी यह प्रणाम कहला भेजना मानो मुझे बिल्कुील बेहूदा मालूम हुआ। किन्तु, इसके फलस्वरूप नौकर के सामने किसी तरह की उत्तेजना प्रकट न हो जाय; इस आशंका से अपने प्राणपण से सँभालकर मैंने कहा, ''आज मेरे पास समय नहीं है रतन, मुझे बाहर जाना है, कल मिल सकूँगा।''
रतन सिखाया-पढ़ाया नौकर था- अदब-कायदे में पक्का। अत्यन्त आदर भरे मृदु स्वर से बोला, ''बड़ी जरूरत है बाबूजी, एक दफे अपने कदमों की धूल देनी ही होगी। नहीं तो, बाईजी ने कहा है, वे स्वयं ही आ जाँयगी।''- सर्वनाश! इस तम्बू में इतनी रात को, इतने लोगों के सामने! मैं बोला, ''तू समझाकर कहना रतन, आज नहीं, कल सवेरे ही मिल लूँगा। आज तो मैं किसी भी तरह नहीं जा सकता।'' रतन बोला, ''तो फिर वे ही आएँगी बाबूजी, मैं गत पाँच वर्षों से देख रहा हूँ कि बाईजी की बात में कभी जरा भी फर्क नहीं पड़ता। आप नहीं चलेंगे तो वे निश्चय ही आवेंगी।''
इस अन्याय असंगत जिद को देखकर मैं एड़ी से चोटी तक जल उठा। बोला, ''अच्छा ठहरो, मैं आता हूँ।'' तम्बू भीतर देखा, वारुणी की कृपा से जागता कोई नहीं है। पुरुषोत्तम भी गम्भीर निद्रा में मग्न है। नौकरों के तम्बू में सिर्फ दो-चार आदमी जाग रहे हैं। झटपट बूट पहिनकर एक कोट शरीर पर डाल लिया। राइफल ठीक रखी ही थी। उसे हाथ में लेकर रतन के साथ-साथ बाईजी के तम्बू में पहुँचा। प्यारी सामने ही खड़ी थी। मुझे आपादमस्तक बार-बार देखती हुई, किसी तरह की भूमिका बाँधो बगैर ही, क्रुद्धस्वर में बोल उठी, ''मसान-वसान में तुम्हारा जाना न हो सकेगा-किसी तरह भी नहीं।''
बहुत ही आश्चर्यचकित होकर मैं बोला, ''क्यों?''
''क्यों और क्या? भूत-प्रेत क्या हैं नहीं, जो इस शनिवार की अमावस्या को तुम श्मशान जाओगे? क्या तुम अपने प्राणों को लेकर फिर लौट आ सकोगे वहाँ से?''
इतना कहकर प्यारी अकस्मात् रोने लगी और ऑंसुओं की अविरल धारा बहाने लगी। मैं विह्वल-सा होकर चुपचाप उसकी ओर देखता रह गया। क्या करूँ, क्या जवाब दूँ, कुछ सोच ही न सका। सोच न सकने में अचरज की बात ही क्या थी? जिससे जान नहीं, पहिचान नहीं, वह यदि हिताकांक्षा से आधी रात को बुलाकर ख़ामख्वाह रोना शुरू कर दे, तो कौन है ऐसा जो हत-बुद्धि न हो जाय! मेरा जवाब न पाकर प्यारी ने ऑंखें पोंछते हुए कहा, ''तुम क्या किसी दिन भी शान्त-शिष्ट नहीं होओगे? ऐसे हठी बने रहकर ही जीवन बिता दोगे? जाओ, देखूँ तुम कैसे जाते हो? मैं भी फिर तुम्हारे साथ चलूँगी।'' इतना कहकर उसने शाल उठाकर अपने शरीर पर डालने की तैयारी कर दी।
मैंने संक्षेप में कहा, ''अच्छा है चलो!'' मेरे इस छिपे हुए ताने से जल-भुनकर प्यारी बोली, ''आहा! देश-विदेश में तब तो तुम्हारी सुख्याति की सीमा-परिसीमा न रहेगी! बाबू शिकार खेलने के लिए आकर, एक नाचने वाली को साथ लेकर, आधी रात को भूत देखने गये थे! वाह! मैं पूछती हूँ, घर से क्या बिल्कुरल ही 'आउट' होकर आए हो? घृणा, विरिक्त, लाज-शरम आदि क्या कुछ भी नहीं रह गयी?'' यह कहते-कहते उसका तीव्र कण्ठ मानो आर्द्र होकर भारी हो गया। बोली, ''कभी तो तुम ऐसे नहीं थे। तुम्हारा इतना अध:पतन होगा, यह तो किसी ने भी कभी सोचा-समझा न था।'' उसकी पिछली बात पर और कोई समय होता तो मैं इतना खीझ उठता कि जिसका पार न रहता; परन्तु इस समय क्रोध नहीं आया। मन ही मन मुझे लगा कि प्यारी को मानो मैंने पहिचान लिया है। ऐसा क्यों मन में आया सो फिर कहूँगा। उस समय मैं बोला, ''लोगों के सोचने-समझने का मूल्य कितना है, सो तो तुम खुद भी जानती हो। तुम भी इतने अध:पतन के रास्ते जाओगी, क्या कभी किसी ने सोचा था?''
क्षण-भर के लिए प्यारी के मुख के ऊपर शरद ऋतु की बदली वाली चाँदनी के समान हँसी की एक सहज आभा दिखाई दे गयी। किन्तु वह क्षण-भर के लिए ही। दूसरे ही क्षण उसने डरती हुई आवाज से कहा, ''मेरे विषय में तुम क्या जानते हो? कौन हूँ मैं, बताओ?''
''तुम हो प्यारी।''
''सो तो सभी जानते हैं।''
''सब जो नहीं जानते, सो भी मैं जानता हूँ- उसे सुनकर क्या तुम खुश होओगी? यदि होती तो खुद ही अपना परिचय दे देतीं। किन्तु जब नहीं दिया है, तब मेरे मुँह से भी कोई बात नहीं सुन पाओगी। इस बीच सोचकर देखो, अपने आपको प्रकट करोगी कि नहीं? किन्तु अब और समय नहीं है- मैं जाता हूँ।''
प्यारी ने बिजली की सी तेजी के साथ मेरा रास्ता रोककर कहा, ''यदि न जाने दूँ, तो क्या जबरन चले जाओगे?''
''किन्तु, जाने ही क्यों न दोगी?''
प्यारी बोली, ''जाने दूँ? सचमुच क्या भूत नहीं होते जो तुम्हारे 'जाने दो' कहने से ही जाने दूँगी? मैं कहे देती हूँ कि मैं बात की बात में 'मैया री मैया' चिल्लाकर हाट लगा दूँगी।'' यह कहकर उसने बन्दूक छीन लेने की चेष्टा की। मैं एक कदम पीछे हट गया। कुछ क्षणों से मेरी खीझ हँसी के रूप में परिवर्तित हो रही थी। इस दफे खूब हँसकर कह दिया, ''सचमुच के भूत होते हैं कि नहीं, सो तो मैं नहीं जानता; परन्तु झूठ-मूठ के भूत हैं, यह जरूर जानता हूँ। वे सामने खड़े होकर बातचीत करते हैं, रास्ता रोकते हैं- ऐसे न जाने कितनी तरह के कीर्ति के काम करते हैं- और जरूरत पड़ने पर गर्दन दबोचकर खा भी जाते हैं!'' प्यारी मलिन हो गयी और क्षण-भर के लिए शायद सोच न सकी कि क्या कहे। इसके बाद बोली, ''यदि ऐसी बात है, तो जो तुम यह कहते हो कि तुमने मुझे पहिचान लिया, सो तुम्हारी भूल है। वे अनेक कीर्ति के काम करते हैं, यह सच है, किन्तु दबोचने के लिए रास्ता रोककर नहीं खड़े होते। उन्हें अपने पराए का बोध होता है।'' मैंने फिर भी हँसकर प्रश्न किया, ''यह तो हुई तुम्हारी खुद की बात, किन्तु तुम क्या भूत हो?''
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Jemsbond
Super member
Posts: 6659
Joined: 18 Dec 2014 12:09

Re: हिन्दी उपन्यास – श्रीकांत – लेखक – शरतचन्द्र

Post by Jemsbond »

प्यारी बोली, ''भूत ही तो हूँ, और नहीं तो क्या? जो लोग मरकर भी नहीं मरते, वे ही तो भूत हैं; यही तो कहने का मतलब है?'' थोड़ी देर ठहरकर वह स्वयं ही फिर कहने लगी, ''एक हिसाब से तो, जो मैं मर चुकी हूँ सो सत्य है। किन्तु सच हो चाहे झूठ, अपने मरने की बात मैंने प्रसिद्ध नहीं की, मामा के जरिए माँ ने फैलाई थी। सुनना चाहते हो सब हाल?'' मरने की यह बात सुनते ही मेरा संशय दूर हो गया। मैंने ठीक पहिचान लिया कि यह राजलक्ष्मी है। बहुत दिन पहले यह अपनी माता के संग तीर्थ-यात्रा करने गयी थी और फिर लौटकर नहीं आई। माँ ने गाँव में आकर यह बात प्रसिद्ध कर दी कि काशी में हैजे की बीमारी से वह मर गयी। उसे मैंने कभी देखा है, यह बात अवश्य ही मुझे याद न आ रही थी किन्तु उसकी एक आदत पर, मैं जबसे यहाँ आया था तभी से, ध्याहन दे रहा था। जब वह गुस्से में होती थी तब दाँतों के नीचे अधर दबा लिया करती थी। कभी कहीं किसी को मानो ठीक इसी तरह करते अनेक बार देखा है, केवल यही बात बार-बार मन में आने लगी। किन्तु वह कौन था, कहाँ देखा था; कब देखा था- सो कुछ भी याद नहीं आता था। वही राजलक्ष्मी ऐसी हो गयी है, यह देखकर मैं क्षण-भर के लिए अचरज से अभिभूत हो गया। मैं जब अपने गाँव के मनसा पण्डित की पाठशाला में सब छात्रों का सरदार था, तब इसके दो पुश्त के कुलीन बाप ने अपना एक और ब्याह करके इसको घर से निकाल दिया। पति के द्वारा परित्यक्ता माता, सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी नामक दोनों कन्याओं को लेकर अपने बाप के घर चली आई। उम्र इसकी उस समय आठ-नौ की होगी और सुरलक्ष्मी की बारह-तेरह की। इसका रंग अवश्य ही खूब उजला था किन्तु मलेरिया और प्लीहा के मारे पेट मटके जैसा, हाथ पैर लकड़ी की तरह, सिर के बाल ताँबे के समान थे और कितने थे सो भी गिने जा सकते थे। मेरी मार के डर से यह लड़की करोंदों की झाड़ी में घुसकर करोंदों की माला गूँथ लाकर मुझे दिया करती थी। यदि वह माला किसी दिन छोटी होती तो, मैं पुराना पाठ पूछकर इसे जी भरकर चपतियाता था। मार खाकर यह लड़की होठ चबाती हुई गुमसुम होकर बैठ रहती, किन्तु किसी तरह भी यह नहीं कहती कि रोज करोंदे संग्रह करना उसके लिए कितना कठिन है। जो कुछ भी हो, इतने दिनों तक तो मैं यही समझता था कि वह मेरे भय से इतना क्लेश स्वीकार करती है; किन्तु आज मानो हठात् कुछ संशय उत्पन्न हुआ। खैर जाने दो। उसके बाद इसका विवाह हो गया। वह विवाह भी एक विचित्र व्यापार था। बेचारा मामा भानजियों के ब्याह की चिन्ता के मारे मरा जा रहा था। दैवात् कहीं से यह खबर आई कि विरंचि दत्त का रसोइया कुलीन की सन्तान है। इस कुलीन की सन्तान को दत्त महाशय बाँकुड़े से अपनी बदली होते समय साथ ही लिवा लाए थे। विरंचि दत्त के द्वार पर मामा धरना देकर पड़ गये- ब्राह्मण की जाति-रक्षा करनी ही होगी! इतने दिन तक तो सब यही जानते थे कि दत्त महाशय का रसोइया भोला भाला भला आदमी है परन्तु मतलब के समय देखा गया कि रसोइया महाराज की सांसारिक बुद्धि किसी से भी कम नहीं है। सिर्फ इक्यावन रुपये दहेज की बात सुनकर वह जोर से सिर हिलाकर बोला, ''इतने सस्ते में नहीं हो सकता महाशय- बाजार जाँच देखिए। पचास और एक रुपये में तो एक जोड़ी बड़े बकरे भी नहीं मिलते- और इतने में आप जमाई खोजते हैं! एक सौ और एक रुपये दो, तो एक बार इस पाटे पर और एक बार उस पाटे पर बैठकर दो फूल छोड़ दूँगा। दोनों ही बहिनें एक ही साथ 'पार' हो जाँयगी। क्या एक सौ रुपये- दो साँड़ खरीदने का खर्च-भी आप न देंगे?'' बात कुछ असंगत नहीं थी। फिर भी अनेक मोल-तोल और बड़ी सही सिफारिश के बाद सत्तर रुपये में तय होकर एक ही रात में एक साथ सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी का विवाह हो गया। दो दिन बाद सत्तर रुपये नकद लेकर वह दो पुश्त का कुलीन जमाई बाँकुड़ा चल दिया। इसके बाद फिर किसी ने उसे नहीं देखा। डेढ़ेक वर्ष बाद प्लिहा के ज्वर से सुरलक्ष्मी मर गयी और उसके भी वर्ष-डेढ़ वर्ष पीछे इस राजलक्ष्मी ने काशी में मरकर शिवत्व प्राप्त किया। यही है प्यारी बाईजी का संक्षिप्त इतिहास।
बाईजी ने कहा, ''तुम क्या सोच रहे हो, बताऊँ?''
''क्या सोच रहा हूँ?''
''तुम सोच रहे हो- आहा! लड़कपन में मैंने इसे कितना कष्ट दिया है। काँटों के बन में भेजकर रोज-रोज करौंदे मँगवाया किया हूँ, और उसके बदले केवल मार-पीट ही करता रहा हूँ। मार खाकर यह गुपचुप हमेशा रोया ही की है, परन्तु चाहा कभी कुछ नहीं। आज यदि यह कुछ बात कहती है तो सुन ही न लूँ। न सही, न गया आज श्मशान को। यही न?''
मैं हँस पड़ा।
प्यारी ने भी हँसकर कहा, ''यह तो होना ही चाहिए। बचपन में जिससे एक दफा प्यार हो जाता है, क्या वह कभी भूलता है? वह यदि अनुरोध करे तो फिर क्या उसे पैर से ठोकर मारकर टाला जा सकता है? संसार में ऐसा निष्ठुर कौन है? चलो, थोड़ा बैठ लो, बहुत-सी बातें करनी हैं। रतन, बाबूजी के जूते तो खोल दे। अरे हँसते हो?''
''हँसता हूँ यह देखकर, कि तुम लोग मनुष्य को भुलाकर किस तरह वश में कर लिया करती हो।''
प्यारी ने भी हँस दिया बोली, ''यह देखकर हँसते हो! दूसरों को तो बातों में भुलाकर वश में किया जा सकता है; किन्तु, होश सँभालते ही स्वयं जिसके वश में रही हूँ, उसे भी क्या बातों में भुलाया जा सकता है? अच्छा आज तो वैसे मैं बात कर लेती हूँ, किन्तु उस समय हर रोज जब काँटों में क्षत-विक्षत होकर माला गूँथ देती थी; तब कितनी बात किया करती थी, कहो न? वह क्या तुम्हारी मार के डर से? यह बात भूलकर भी मन में मत लाना। राजलक्ष्मी ऐसी नहीं है। किन्तु राम! राम! तुम तो मुझे बिल्कुेल ही भूल गये थे, देखकर पहिचान भी न सके!'' यों कहकर हँसते ही, सिर हिलाने से उसके दोनों कानों के हीरे तक हिलकर हँस उठे।
मैंने कहा, ''मैंने तुम्हें मन में स्थान ही कब दिया था, जो भूलता नहीं? वरन् आज मैंने तुम्हें पहिचान लिया, यह देखकर मुझे खुद ही अचरज हो रहा है। अच्छा, बारह बज चुके- जाता हूँ।''
प्यारी का हँसता हुआ चेहरा पल-भर में बिल्कुनल फीका पड़ गया। तनिक सँभलकर उसने कहा, ''अच्छा, भूत-प्रेत मत मानों, किन्तु साँप-बिच्छू, बाघ-भालू, जंगली सूअर आदि भी तो वन-जंगल में अंधेरी रात में फिरते रहते हैं, उन्हें तो मानना चाहिए?''
मैंने कहा, ''इनको तो मैं मानता ही हूँ, और इनसे खूब सावधन रहकर चलता हूँ।''
मुझे जाने को उद्यत देखकर वह धीरे से बोली, ''तुम जिस धातु के बने आदमी हो, उससे मैं जानती थी कि तुम्हें अटका न सकूँगी। यह भय मुझे खूब ही हो रहा था, फिर भी मैंने सोचा कि रो-धोकर, हाथ-पैर जोड़कर, अन्त तक शायद तुम्हें रोक सकूँ। किन्तु देखती हूँ रोना ही सार रहा।'' मुझे जवाब देते न देख वह फिर बोली, ''अच्छा जाओ, पीछे लौटाकर अब और असगुन न करूँगी। किन्तु, यदि कुछ हो जायेगा तो इस विदेश में, पराई जगह, राजे-रजवाड़े या मित्र-दोस्त, कोई काम नहीं आवेंगे, तब मुझे ही भुगतना पड़ेगा। मुझे पहिचान नहीं सकते, यह मेरे मुँह पर ही कहकर तुम अपने पौरुष की डींग हाँककर चल दिए, किन्तु हमारा तो स्त्रियों का मन है! विपत्ति के समय मैं तो यह कह न सकूँगी कि ''मैं तुम्हें पहिचानती ही नहीं।'' यह कहकर उसने एक दीर्घ नि:श्वास दबा लिया। जाते-जाते मैंने लौटकर, खड़े होकर हँस दिया। न जाने क्यों मानो मुझे कुछ कष्ट का अनुभव हुआ। मैं बोला, ''अच्छा तो है बाईजी, यह तो मुझे एक बड़ा लाभ होगा। मेरा तो कोई कहीं नहीं है, तब ही तो मैं जान सकूँगा कि हाँ, मेरा भी कहीं कोई है- जो मुझे छोड़कर नहीं जा सकता!''
प्यारी बोली, ''सो क्या तुम जानते नहीं हो? एक सौ बार 'बाईजी' कहकर तुम मेरा चाहे जितना अपमान क्यों न करो, राजलक्ष्मी तुम्हें छोड़कर न जा सकेगी-यह बात क्या तुम मन ही मन नहीं समझ रहे हो? किन्तु यदि मैं छोड़कर जा सकती, तो अच्छा होता। तुम्हें एक सीख मिल जाती। किन्तु, कितनी बुरी है यह स्त्रियों की जाति। एक दफा भी किसी को प्यार किया कि मरी!''
मैं बोला, ''प्यारी, भले सन्यासी को भी भीख नहीं मिलती, जानती हो, क्यों?''
प्यारी बोली, ''जानती हूँ, किन्तु तुम्हारे इस व्यंग्य में इतनी धार नहीं रही है कि इससे तुम मुझे वेध सको। यह मेरा ईश्वरदत्त धन है। और, जब कि मुझे संसार में भले-बुरे तक का ज्ञान नहीं था; उस समय का यह है। आज का नहीं।'' मैं कुछ नरम होकर बोला, ''अच्छी बात है, चाहता हूँ कि आज मुझ पर कोई आफत आवे और तब तुम्हारे इस ईश्वर-दत्त धन की हाथों-हाथ जाँच हो जाये।''
प्यारी बोली, ''राम-राम! ऐसी बात मत कहो। अच्छे-भले लौट आओ- इस सच्चाई की जाँच करने की जरूरत नहीं है। मेरे ऐसे भाग कहाँ कि वक्त-मौके पर अपने हाथ हिला-डुलाकर तुम्हें स्वस्थ सबल कर सकूँ। यदि ऐसा हो तो समझूँगी कि इस जन्म के एक कर्त्तव्य को पूरा कर डाला।'' इतना कहकर उसने अपना मुँह फेरकर अपने ऑंसू छिपा लिये, यह हरीकेन के क्षीण प्रकाश में भी मैं अच्छी तरह जान गया।
''अच्छा, भगवान तुम्हारी इस साध को कभी किसी दिन पूरा करें,'' कहकर और अधिक देर न करके मैं तम्बू के बाहर आ खड़ा हुआ। कौन जानता था कि हँसी-हँसी में ही मुँह से एक प्रचण्ड सत्य बाहर निकल जायेगी।
तम्बू के भीतर से ऑंसुओं से रुँधे हुए कण्ठ से निकली हुई 'दुर्गा! दुर्गा!' की कातर पुकार कानों में आई और मैं तेज चाल से चल दिया।
मेरा सारा मन प्यारी की ही बातों से ढँक गया। कब मैं आम के बगीचे के बड़े अंधियारे मार्ग को पार कर गया, और कब नदी के किनारे के सरकारी बाँध के ऊपर आ खड़ा हुआ, यह मैं जान ही न सका। सारी राह सिर्फ यही एक बात सोचता-सोचता आया कि स्त्री-जाति का मन भी कैसा विराट अचिन्तनीय व्यापार है। इस पिलही के रोगवाली लड़की ने अपने मटके जैसे पेट और लकड़ी जैसे हाथ-पाँव लेकर, सबसे पहले किस समय मुझे चाहा था और करोंदों की माला से अपनी दरिद्र-पूजा को सम्पन्न किया था, सो मैं बिल्कुहल ही न जान सका। और आज जब मैं जान सका, तब मेरे अचरज का पार नहीं रहा। अचरज कुछ इसलिए भी नहीं था- उपन्यास नाटकों में बाल्य-प्रणय की अनेकों कथाएँ पढ़ी हैं- किन्तु जिस वस्तु को गर्व के साथ, अपनी ईश्वर दत्त सम्पत्ति कहकर प्रकट करते हुए भी वह कुण्ठित नहीं हुई, उसे उसने, इतने दिनों तक, अपने इस घृणित जीवन के सैकड़ों मिथ्या प्रणयाभिनयों के बीच, किस कोने में जीवित रख छोड़ा था? कहाँ से इसके लिए वह खुराक जुटाती रही? किस रास्ते से प्रवेश करके वह उसका लालन-पालन करती रही?
''बाप!''
मैं एकदम चौंक पड़ा। सामने ऑंख उठाकर देखा, भूरे रंग की बालू का विस्तीर्ण मैदान है और उसे चीरती हुई एक शीर्ण नदी की वक्र रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई सुदूर में अन्तर्हित हो गयी है। समस्त मैदान में जगह-जगह काँस के पेड़ों के झुण्ड उग रहे हैं। अन्धकार में एकाएक जान पड़ा कि मानो ये सब एक-एक आदमी हैं, जो आज की इस भयंकर अमावस्या की रात्रि को प्रेतात्मा का नृत्य देखने के लिए आमन्त्रित होकर आए हैं और बालू के बिछे हुए फर्श पर मानो अपना अपना आसन ग्रहण करके सन्नाटे में प्रतीक्षा कर रहे हैं। सिर के ऊपर, घने काले आकाश में, संख्यातीत गृह-तारे भी, उत्सुकता के साथ अपनी ऑंखों को एक साथ खोले हुए ताक रहे हैं। वायु नहीं, शब्द नहीं, अपनी छाती के भीतर छोड़कर, जितनी दूर दृष्टि जाती थी वहाँ तक कहीं भी, प्राणों की जरा-सी भी आहट अनुभव करने की गुंजाइश नहीं। जो रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर थम गया, वह भी और कुछ नहीं बोला। मैं पश्चिम की ओर धीरे-धीरे चला। उसी ओर वह महाश्मशान था। एक दिन शिकार के लिए आकर, जिस सेमर के झाड़ों के झाड़ को देख गया था, कुछ दूर चलने पर उनके काले-काले डाल-पत्र दिखाई दिए। यही थे उस महाश्मशान के द्वारपाल। इन्हीं को पार करके आगे बढ़ना होगा। इसी समय से प्राणों की अस्पष्ट आहट मिलने लगी, परन्तु वह ऐसी नहीं थी जिससे कि चित्त कुछ प्रसन्न हो। कुछ और दूर चलने पर वह कुछ और साफ हुई। किसी माँ के 'कुम्भकर्णी निद्रा' में सो जाने पर उसका छोटा बच्चा, रोते-रोते अन्त में बिल्कुील निर्जीव-सा होकर, जिस प्रकार रह-रहकर रिरियाना शुरू कर देता है, ऐसा मालूम हुआ कि ठीक उसी तरह श्मशान के एकान्त में कोई रिरिया रहा है। मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि, जिसने उस रोने का इतिहास पहले कभी जाना-सुना न हो, वह ऐसी गहरी अंधेरी अमावस्या की रात्रि में अकेला उस ओर एक पैर भी आगे बढ़ाना नहीं चाहेगा। वह मनुष्य का बच्चा नहीं चमगीदड़ का बच्चा था, जो अंधेरे में अपनी माँ को न देख सकने के कारण रो रहा था- यह बात, पहले से जाने बिना, सम्भव नहीं है कि कोई अपने आप निश्चयपूर्वक कह सके कि यह आवाज मनुष्य के बच्चे की है। और भी नजदीक जाकर देखा, ठीक यही बात थी। झोलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके हुए, असंख्य चमगीदड़ रात्रि-वास कर रहे हैं और उन्हीं में का कोई शैतान बच्चा इस तरह आर्त्त कण्ठ से रो रहा है।
झाड़ के ऊपर वह रोता ही रहा और उसके नीचे से आगे बढ़ता हुआ मैं उस महाश्मशान के एक हिस्से में जा खड़ा हुआ। सुबह उस वृद्ध ने जो यह कहा था कि यहाँ लाखों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं- मैंने देखा, कि उसके कथन में जरा भी अत्युक्ति नहीं है- कपाल तो वहाँ असंख्य पड़े हुए थे; फिर भी, खिलाड़ी उस समय तक भी आकर नहीं जुट पाए थे। मेरे सिवाय कोई और अशरीरी दर्शक वहाँ उपस्थित था या नहीं, सो भी मैं इन दो नश्वर चक्षुओं से आविष्कृत नहीं कर सका। उस समय घोर अमावास्या थी। इसलिए, खेल शुरू होने में और अधिक देरी नहीं है, यह सोच करके मैं एक रेत के टीले पर जाकर बैठ गया। बन्दूक खोलकर, उसके टोंटे की और एक बार जाँच करके तथा फिर उसे यथास्थान लगाकर, मैंने उसे गोद में रख लिया और तैयार हो रहा। पर हाय रे टोंटे! विपत्ति के समय, उसने जरा भी सहायता नहीं की।
प्यारी की बात याद आ गयी। उसने कहा था, ''यदि निष्कपट भाव से सचमुच ही तुम्हें भूत पर विश्वास नहीं है, तो फिर, वहाँ कर्म-भोग करने जाते ही क्यों हो? और यदि विश्वास में जोर नहीं है, तो फिर मैं, भूत-प्रेत चाहे हों चाहे न हों, तुम्हें किसी तरह जाने न दूँगी।'' सच तो है, यहाँ आया आखिर क्या देखने हूँ? पाप मन से अगोचर तो है नहीं। मैं वास्तव में कुछ भी देखने नहीं आया हूँ। केवल यही दिखाने आया हूँ कि मुझमें कितना साहस है। सुबह जिन लोगों ने कहा था, ''कायर बंगाली काम के समय भाग जाते हैं,'' मुझे तो उनके निकट प्रमाण सहित सिर्फ यही बताना है कि बंगाली लोग बड़े वीर होते हैं।
मेरा यह बहुत दिनों का दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य के मरने पर फिर उसका अस्तित्व नहीं रहता। और यदि रहता भी हो, तो भी जिस श्मशान में उसकी पार्थिव देह को पीड़ा पहुँचाने में कुछ भी कसर नहीं रखी जाती वहाँ, उसी जगह लौटकर अपनी ही खोपड़ी में लातें मार मारकर उसे लुढ़काते फिरने की इच्छा होना उसके लिए न तो स्वाभाविक ही है और न उचित ही। कम-से-कम मैं अपने लिए तो ऐसा ही समझता हूँ। यह बात दूसरी है कि मनुष्य की रुचि भिन्न-भिन्न होती है। यदि किसी की होती हो तो, इस बढ़िया रात को रात्रि-जागरण करके, मेरा इतनी दूर तक का आना निष्फल नहीं होगा। और फिर, आज उस वृद्ध व्यक्ति ने इसकी बड़ी भारी आशा भी तो दिलाई है।
एकाएक हवा का एक झोंका कितनी ही रेत उड़ाता हुआ मेरे शरीर पर से होकर निकल गया; और वह खत्म भी होने नहीं पाया कि दूसरा और फिर तीसरा भी, ऊपर से होकर निकल गया। मन में सोचने लगा कि भला यह क्या है। इतनी देर तक तो लेश-भर भी हवा न थी। अपने आप चाहे कितना ही क्यों न समझूँ और समझाऊँ, फिर भी यह संस्कार, कि मरने के बाद भी कुछ अज्ञात सरीखा रहता है, हमारे हाड़-मांस में ही भिदा हुआ है, और जब तक हाड़-मांस हैं तब तक वह भी है, फिर चाहे मैं उसे स्वीकार करूँ चाहे न करूँ। इसलिए उस हवा के झोंके ने केवल रेत और धूल ही नहीं उड़ाई, किन्तु मेरे उस मज्जागत गुप्त संस्कार पर भी चोट पहुँचाई। क्रमश: धीरे-धीरे कुछ और जोर से हवा चलने लगी। बहुत से आदमी शायद यह नहीं जानते कि मृत मनुष्य की खोपड़ी में से हवा के गुजरने से ठीक दीर्घ श्वास छोड़ने का-सा शब्द होता है। देखते ही देखते आसपास, सामने पीछे, चारों ओर से दीर्घ उसासों की झड़ी-सी लग गयी। ठीक ऐसा लगने लगा कि मानो कितने ही आदमी मुझे घेरकर बैठे हैं और लगातार जोर-जोर से हाय-हाय करके उसासें ले रहे हैं; और अंगरेजी में जिसे 'अन्कैनी फीलिंग' (अनमना-सा लगना) कहते हैं, ठीक उसी किस्म की एक आस्वस्ति या बेचैनी सारे शरीर को झकझोर गयी। चमगीदड़ का वह बच्चा तब भी चुप नहीं हुआ था। पीछे-पीछे मानो वह और भी अधिक रिरियाने लगा। मुझे अब मालूम होने लगा कि मैं भयभीत हो रहा हूँ। बहुत जानकारी के फलस्वरूप यह खूब जानता था कि जिस स्थान में आया हूँ वहाँ, समय रहते, यदि भय को दबा न सका, तो मृत्यु तक हो जाना असम्भव नहीं है। वास्तव में इस तरह की भयानक जगह में, इसके पहले, मैं कभी अकेला नहीं आया था। स्वच्छन्दता से जो यहाँ अकेला आ सकता था, वह था इन्द्र- मैं नहीं। अनेकों बार उसके साथ अनेकों भयानक स्थानों में जा-आने के कारण मेरी यह धारणा हो गयी थी कि इच्छा करने पर मैं स्वयं भी उसी के समान ऐसे सभी स्थानों में अकेला जा सकता हूँ। किन्तु, वह कितना बड़ा भ्रम था! और मैं केवल उसी झोंक में उसका अनुकरण करने चला था। एक ही क्षण में आज सब बातें सुस्पष्ट हो उठीं। मेरी इतनी चौड़ी छाती कहाँ? मेरे पास वह रामनाम का अभेद कवच कहाँ? मैं इन्द्र नहीं हूँ जो इस प्रेत-भूमि में अकेला खड़ा रहूँ, और ऑंखें गड़ाकर प्रेतात्माओं का गेंद खेलना देखूँ। मन में लगा कि कोई एकाध जीवित बाघ या भालू ही दिखाई पड़ जाय, तो मैं शायद जीवित बच जाऊँ! एकाएक किसी ने मानो पीछे खड़े होकर मेरे दाहिने कान पर नि:श्वास डाला। वह इतनी ठण्डी थी कि हिम के कणों की तरह मानो उसी जगह जम गयी। गर्दन उठाए बगैर ही मुझे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि वह नि:श्वास जिस नाक के बृहदाकार नकुओं में से होकर बाहर आ गयी है, उसमें न चमड़ा है न मांस- एक बूँद रुधिर भी नहीं है। केवल हाड़ और छिद्र ही उसमें हैं। आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ अन्धकार था। सन्नाटे की आधी रात साँय साँय करने लगी। आसपास की हाय-हाय क्रम-क्रम से मानो, हाथों के पास से छूती हुई जाने लगी। कानों के ऊपर वैसी ही अत्यन्त ठण्डी उसासें लगातार आने लगीं और यही मुझे सबसे अधिक परिवश, करने लगीं। मन ही मन ऐसा मालूम होने लगा कि मानो सारे प्रेत-लोक की ठण्डी हवा उस गढ़े में से बाहर आकर मेरे शरीर को लग रही है।
किन्तु, इस हालत में भी मुझे यह बात नहीं भूली कि किसी भी तरह अपने होश-हवास गुम कर देने से काम न चलेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मृत्यु अनिवार्य है। मैंने देखा कि मेरा दाहिना पैर थर-थर काँप रहा है। उसे रोकने की चेष्टा की, परन्तु वह रुका नहीं, मानो वह मेरा पैर ही न हो।
ठीक इसी समय बहुत दूर से बहुत से कण्ठों की मिली हुई पुकार कानों में पहुँची, ''बाबूजी! बाबू साहब!'' सारे शरीर में काँटे उठ आय। कौन लोग पुकार रहे हैं? फिर आवाज आई, ''कहीं गोली मत छोड़ दीजिएगा!'' आवाज क्रमश: आगे आने लगी, तिरछे देखने से प्रकाश की दो क्षीण रेखाएँ आती हुई नजर पड़ीं। एक दफे जान पड़ा मानो उस चिल्लाहट के भीतर रतन के स्वर का आभास है। कुछ देर ठहरकर और भी साफ मालूम हुआ कि जरूर वही है। और भी कुछ दूर अग्रसर होकर, एक सेमर के वृक्ष के नीचे आड़ में होकर वह चिल्लाया ''बाबूजी, आप जहाँ भी हों गोली-ओली मत छोड़िए, मैं हूँ रतन।'' रतन सचमुच ही जात का नाई है, इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं रहा।
मैंने उल्लास से चिल्लाकर उत्तर देना चाहा, किन्तु कण्ठ से आवाज नहीं निकली। प्रवाद है कि भूत-प्रेत जाते समय कुछ-न-कुछ नष्ट कर जाते हैं। जो मेरे पीछे था, वह मेरा कण्ठ स्वर नष्ट करके ही बिदा हुआ था।
रतन तथा और भी तीन आदमी हाथ में लालटेनें और लट्ठ लिये हुए समीप आ उपस्थित हुए। उनमें एक तो था छट्टूलाल जो तबला बजाया करता था, दूसरा था प्यारी का दरबान, और तीसरा गाँव का चौकीदार।
रतन बोला, ''चलिए, तीन बजते हैं।''
''चलो'' कहकर मैं आगे हो लिया। रास्ता चलते-चलते रतन कहने लगा, ''बाबू, धन्य है आपके साहस को। हम चार जने हैं फिर भी जिस तरह डरते-डरते यहाँ आए हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता।''
''तुम आए क्यों?''
रतन बोला, ''रुपयों के लोभ से। हम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह जो नकद मिली है!'' इतना कहकर वह मेरे पास आया और गला धीमा करके बोला, ''आपके चले आने पर देखा, माँ बैठी रो रही हैं। मुझसे बोली, ''रतन, न जाने का होनहार है भइया, तुम लोग पीछे-पीछे जाओ। मैं तुम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह इनाम दूँगी।'' मैं बोला, ''छट्टूलाल और गणेश को साथ लेकर मैं जा सकता हूँ माँ, परन्तु रास्ता तो मैंने देखा ही नहीं है।'' इसी समय चौकीदार ने हाँक दी। माँ बोली, ''उसे बुला ले रतन, वह जरूर रास्ता जानता होगा।'' बाहर जाकर मैं उसे बुला लाया। चौकीदार जब नकद छ: रुपये पा गया, तब रास्ता दिखाता हुआ ले आया। अच्छा बाबूजी, ''आपने छोटे बच्चे का रोना सुना है?'' इतना कहकर काँपते हुए रतन ने मेरे कोट के पीछे का छोर पकड़ लिया। कहने लगा, ''हमारे गणेश पाण्डे ब्राह्मण हैं, इसी से हम लोग आज बच गये, नहीं तो...''
मैंने कुछ कहा नहीं। प्रतिवाद करके किसी के भ्रम को भंग करने जैसी अवस्था मेरी नहीं थी। आछन्न-अभिभूत की तरह चुपचाप चलने लगा।
कुछ दूर चलने के बाद रतन ने पूछा, ''आज कुछ देखा बाबूजी?''
मैं बोला, ''नहीं।''
मेरे इस संक्षिप्त उत्तर से रतन क्षुब्ध होकर बोला, ''हमारे आने से आप क्या नाराज हो गये, बाबूजी? किन्तु यदि आप माँ का रोना देखते...''
मैं चटपट बोल उठा, ''नहीं रतन, मैं जरा भी नाराज नहीं हुआ।''
तम्बू के पास आ जाने पर चौकीदार अपने घर चला गया, गणेश और छट्टूलाल नौकरों के तम्बू में चले गये। रतन ने कहा, ''माँ ने कहा था कि जाते समय एक बार दर्शन दे जाइएगा।''
मैं ठिठक कर खड़ा हो गया, ऑंखों के आगे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि प्यारी दिए के सामने अधीर उत्सुकता और सजल नेत्रों से बैठी-बैठी प्रतीक्षा कर रही है और मेरा सारा मन उन्मत्त उर्ध्वन श्वासें भरता हुआ उस ओर दौड़ा जा रहा है।
रतन ने विनय के साथ बुलाया, ''आइए।''
क्षण-भर के लिए ऑंखें मींचकर अपने अन्तर में डूबकर देखा, वहाँ होश-हवास में कोई नहीं है, सब गले तक शराब पीकर मस्त हो रहे हैं। राम, राम, इन मतवालों के दल को लेकर मैं उससे मिलने जाऊँ? यह मुझसे किसी तरह न होगा।
देर होती देखकर रतन विस्मय से बोला, ''उस जगह अंधेरे में क्यों खड़े हो रहे हैं बाबूजी- आइए न?''
मैं चटपट बोल उठा, ''नहीं रतन, इस समय नहीं-मैं चलता हूँ।''
रतन कुण्ठित होकर बोला, ''माँ, किन्तु, राह देखती बैठी हैं...''
''राह देखती हैं तो देखने दे। उन्हें मेरा असंख्य नमस्कार जताकर कहना, कल जाने के पहले मुलाकात होगी- इस समय नहीं। मुझे बड़ी नींद आ रही है रतन, मैं चलता हूँ।'' इतना कहकर विस्मित, क्षुब्ध रतन को जवाब देने का अवसर दिए बगैर ही मैं, जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ, उस तरफ से तम्बू की ओर चल दिया।
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
*****************
दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
*****************
Post Reply